Monday, June 30, 2025

मन, चेतना, और जगत की प्रकृति भ्रमपूर्ण है

 योग वासिष्ठ के अनुसार, मन, चेतना, और जगत की प्रकृति भ्रमपूर्ण है और इसे विभिन्न प्रकार से समझाया गया है:

मन की भ्रमपूर्ण प्रकृति:

मन को जड़ और चेतन की गांठ के मध्य का भाव कहा गया है। यह संकल्प-विकल्प से कल्पित रूप है और इससे ही जगत उत्पन्न हुआ है।

"मन को जड़ और चेतन की गांठ के मध्य का भाव कहा गया है।"

  • जड़ (Inert/Non-conscious): जड़ का अर्थ है वह जो अचेतन है, जिसमें स्वयं की चेतना नहीं है, जैसे कि शरीर, पदार्थ, वस्तुएं। यह प्रकृति का भौतिक पहलू है।

  • चेतन (Conscious/Spirit): चेतन का अर्थ है शुद्ध चेतना, आत्मा, ब्रह्म, जो ज्ञान स्वरूप है और सभी जड़ वस्तुओं को प्रकाशित करता है। यह आध्यात्मिक या आत्मिक पहलू है।

  • "गांठ के मध्य का भाव": मन को जड़ और चेतन के बीच की 'गांठ' कहा गया है क्योंकि मन ही वह सेतु या माध्यम है जो चेतन आत्मा और जड़ शरीर/संसार को जोड़ता प्रतीत होता है।

    • वास्तव में, आत्मा (चेतन) शुद्ध और असंग है, और शरीर (जड़) अचेतन है। इन दोनों का सीधा संबंध नहीं हो सकता।

    • मन ही वह उपकरण है जो चेतन की शक्ति को जड़ पर प्रक्षेपित करता है और जड़ से प्राप्त अनुभवों को चेतन तक पहुंचाता है। यह एक इंटरफेस की तरह है।

    • इस गांठ के कारण ही चेतन स्वयं को जड़ शरीर के साथ एकाकार मानने लगता है, और जड़ शरीर चेतन के प्रकाश से सजीव प्रतीत होता है। मन ही इस 'भ्रामक' संबंध का केंद्र है।

"यह संकल्प-विकल्प से कल्पित रूप है और इससे ही जगत उत्पन्न हुआ है।"

  • संकल्प-विकल्प:

    • संकल्प का अर्थ है इच्छा, विचार, निश्चय, किसी चीज़ को करने का इरादा।

    • विकल्प का अर्थ है अनिच्छा, संदेह, भ्रम, किसी चीज़ को न करने का विचार या कई विकल्पों में से चुनना।

    • मन की मूल प्रकृति ही संकल्प और विकल्प करना है। मन लगातार कुछ चाहता है, कुछ सोचता है, कुछ अस्वीकार करता है, कुछ चुनता है। यह मन की रचनात्मक और विभेदकारी शक्ति है।

  • "संकल्प-विकल्प से कल्पित रूप है":

    • मन का कोई ठोस या स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यह केवल संकल्पों और विकल्पों का एक प्रवाह या संग्रह है।

    • मन अपने आप में एक 'वस्तु' नहीं, बल्कि 'विचारों का बंडल' है। जब तक विचार हैं, तब तक मन है; विचार नहीं, तो मन भी नहीं।

    • यह उन सभी धारणाओं, कल्पनाओं और अवधारणाओं का योग है जो हम अपने अंदर बनाते हैं। यह "कल्पित" है, यानी मन की अपनी कल्पना या निर्माण।

  • "और इससे ही जगत उत्पन्न हुआ है":

    • यह सबसे महत्वपूर्ण और गहरा बिंदु है। इसका अर्थ है कि यह जो दृश्यमान संसार (जगत) हमें दिखाई देता है, वह मन के संकल्प-विकल्पों का ही परिणाम है।

    • माया या अविद्या: मन अपनी संकल्प शक्ति से माया या अविद्या के प्रभाव में आकर एक 'जगत' की कल्पना करता है।

    • प्रक्षेपण (Projection): मन चेतन के प्रकाश को लेकर अपनी ही कल्पनाओं को बाहर प्रक्षेपित करता है और उन्हें 'सत्य' के रूप में अनुभव करता है। हम जो कुछ देखते, सुनते, महसूस करते हैं, वह सब मन की अपनी व्याख्या और संरचना है।

    • उदाहरण: स्वप्न में हम एक पूरी दुनिया का अनुभव करते हैं, लेकिन वह दुनिया केवल हमारे मन की कल्पना होती है। इसी तरह, जागृत अवस्था का जगत भी मन के संकल्प-विकल्पों से निर्मित एक विशाल स्वप्न या कल्पना की तरह है।

    • योग वशिष्ठ के अनुसार, जब मन शांत हो जाता है और संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं, तो जगत भी विलीन हो जाता है, क्योंकि जगत का अस्तित्व मन की कल्पना पर निर्भर करता है। तब केवल शुद्ध चेतन सत्ता ही शेष रहती है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन मन को एक ऐसी भ्रामक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है जो अचेतन (शरीर, संसार) और चेतन (आत्मा) के बीच एक काल्पनिक संबंध स्थापित करती है। मन स्वयं संकल्पों और विकल्पों का एक जाल है, और इसी जाल से यह समस्त जगत का निर्माण करता है। जब साधक इस तथ्य को समझ लेता है और मन के संकल्प-विकल्पों को शांत कर देता है, तो मन का यह काल्पनिक स्वरूप नष्ट हो जाता है, और व्यक्ति अपनी वास्तविक, शुद्ध चेतन स्वरूप को जान लेता है, जहाँ जगत और उसके भेद अनुपस्थित होते हैं। यह आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाने वाली एक गहरी अंतर्दृष्टि है।

शुद्ध चेतनमात्र में जो 'फुरना' (विचार या स्पंदन का उठना) होता है, उसी को मन कहते हैं। मन के ही अनेक नाम हैं जैसे बुद्धि, चित्त, अहंकार, और जीव।

"शुद्ध चेतनमात्र में जो 'फुरना' (विचार या स्पंदन का उठना) होता है, उसी को मन कहते हैं।"

  • शुद्ध चेतनमात्र: यह परब्रह्म, आत्मा, या परम सत्ता को संदर्भित करता है जो शुद्ध, अपरिवर्तनीय, और निर्विकार है। यह समस्त अस्तित्व का मूल आधार है और स्वयं में पूर्ण शांत व भेद रहित है।

  • 'फुरना' (विचार या स्पंदन का उठना): 'फुरना' का अर्थ है एक सूक्ष्म स्पंदन, एक विचार, एक संकल्प, या एक गति का उत्पन्न होना। यह चेतन की उस अनादि, अनिर्वचनीय शक्ति (माया या अविद्या) के कारण होता है, जो स्वयं को अनेक रूपों में प्रकट करती है।

  • उसी को मन कहते हैं: जब शुद्ध चेतन में यह पहला 'फुरना' या स्पंदन उठता है, यानी जब उसमें स्वयं के अतिरिक्त 'कुछ और' होने की या किसी 'भेद' की कल्पना का उदय होता है, तो उसी प्रथम स्पंदन को मन कहा जाता है। यह मन ही द्वैत के अनुभव का आरंभ बिंदु है। यह चेतन का वह पहलू है जो स्वयं को सीमित करने और विचारों को उत्पन्न करने लगता है।

भावार्थ: मन कोई अलग इकाई नहीं है जो चेतन से बाहर मौजूद हो, बल्कि यह शुद्ध चेतन में उठने वाला पहला विचार, पहला संकल्प है। यह विचार ही आगे चलकर जगत और व्यक्तिगत पहचान (अहंकार) का निर्माण करता है। मन एक प्रकार से चेतन का वह कार्यात्मक रूप है जो जगत के साथ अंतःक्रिया करता है।

"मन के ही अनेक नाम हैं जैसे बुद्धि, चित्त, अहंकार, और जीव।"

यह कथन मन की विभिन्न अवस्थाओं या कार्यों के आधार पर दिए गए नामों को स्पष्ट करता है, जिन्हें अंतःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के रूप में जाना जाता है:

  1. मन (Manas): यह संकल्प-विकल्प करने वाली वृत्ति है। इसका कार्य सोचना, इच्छा करना, संदेह करना और निर्णय से पहले के विकल्पों पर विचार करना है। यह विचारों और भावनाओं का केंद्र है।

  2. बुद्धि (Buddhi): यह मन की वह अवस्था है जब वह निर्णय लेता है, निश्चय करता है, और सही-गलत का विवेक करता है। यह निश्चय करने वाली और समझने वाली शक्ति है।

  3. चित्त (Chitta): यह मन का वह पहलू है जो जानकारी को संग्रहित करता है, याद रखता है, और संस्कारों (अतीत के अनुभवों की छाप) को धारण करता है। यह स्मृति और अवचेतन का स्थान है।

  4. अहंकार (Ahamkara): यह 'मैं' होने का भाव, व्यक्तिगत पहचान का बोध है। यह वह वृत्ति है जो स्वयं को शरीर, मन या किसी अन्य सीमित इकाई से जोड़ती है और 'यह मैं हूँ' या 'यह मेरा है' का बोध कराती है। यह कर्तापन और भोक्तापन का आधार है।

  5. जीव (Jiva): यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से युक्त चेतन का वह अंश है जो स्वयं को एक व्यक्तिगत प्राणी मानता है और संसार में कर्मों का फल भोगता है। यह सीमित चेतना है जो स्वयं को शरीर और मन से जुड़ा हुआ अनुभव करती है।

समग्र रूप से, इन सबका अर्थ यह है कि:

  • मूलतः केवल शुद्ध चेतन ही सत्य है।

  • जब उस शुद्ध चेतन में पहला स्पंदन या विचार (फुरना) उठता है, तो उसी को हम मन कहते हैं।

  • यह मन ही अपनी विभिन्न क्रियाओं और अवस्थाओं के आधार पर बुद्धि, चित्त, अहंकार जैसे नाम प्राप्त करता है।

  • और जब यह मन (इन सभी पहलुओं सहित) स्वयं को शरीर से जोड़कर कर्मों में लिप्त होता है, तो उसे जीव कहा जाता है।

यह सिद्धांत बताता है कि ये सभी भेद वास्तविक नहीं हैं, बल्कि मन की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं जो मूलतः शुद्ध चेतन से उत्पन्न हुई हैं। आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है इस 'फुरने' के मूल को समझना और वापस शुद्ध चेतन की अवस्था में लीन हो जाना, जहाँ कोई विचार, कोई मन, कोई भेद नहीं रहता।

यह मन ही भावनामात्र है और आत्मा का आभासरूप होता है। मन से जो कुछ भी जगत भासता है, वह सब मनरूप ही है।

1. "यह मन ही भावनामात्र है और आत्मा का आभासरूप होता है।"

  • "मन ही भावनामात्र है":

    • भावनामात्र का अर्थ है 'केवल एक विचार', 'केवल एक कल्पना', 'केवल एक मानसिक अवस्था' या 'केवल एक प्रतीति'।

    • इसका मतलब है कि मन का कोई ठोस, स्वतंत्र या भौतिक अस्तित्व नहीं है। यह केवल विचारों, इच्छाओं, भावनाओं, संकल्पों और विकल्पों का एक प्रवाह है।

    • जैसे स्वप्न में दिखने वाली वस्तुएं केवल मन की कल्पना होती हैं, उनका कोई बाहरी ठोस अस्तित्व नहीं होता, वैसे ही जाग्रत अवस्था में भी मन स्वयं एक कल्पनाओं का पुंज है। मन अपने आप में कोई 'चीज़' नहीं, बल्कि एक क्रियाशील अवस्था है।

    • यह इस बात पर जोर देता है कि मन क्षणभंगुर और परिवर्तनशील है, न कि शाश्वत और वास्तविक।

  • "और आत्मा का आभासरूप होता है":

    • आत्मा (परमात्मा/ब्रह्म) शुद्ध चेतना, परम सत्य और एकमात्र वास्तविक सत्ता है। आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है।

    • आभासरूप का अर्थ है 'प्रतिबिंब', 'झलक', 'दिखावा' या 'परछाई'।

    • जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश जल में प्रतिबिंबित होकर हिलता-डुलता प्रतीत होता है, जबकि सूर्य स्वयं स्थिर है, उसी प्रकार मन भी शुद्ध आत्मा के प्रकाश का एक आभास या प्रतिबिंब मात्र है।

    • मन में जो भी चेतना या जीवन प्रतीत होता है, वह वास्तव में मन की अपनी नहीं, बल्कि आत्मा के प्रकाश के कारण है। मन स्वयं अचेतन (जड़) है, लेकिन आत्मा की उपस्थिति के कारण वह चेतन जैसा प्रतीत होता है और अपनी गतिविधियों (भावनाओं, विचारों) को प्रकट करता है।

    • यह दर्शाता है कि मन की अपनी कोई स्वतंत्र चेतना नहीं है, वह आत्मा से चेतना उधार लेता है, और इसी उधार ली गई चेतना से वह कार्य करता है।

2. "मन से जो कुछ भी जगत भासता है, वह सब मनरूप ही है।"

  • "मन से जो कुछ भी जगत भासता है":

    • यहाँ जगत का अर्थ है यह पूरा दृश्यमान संसार जिसे हम अपनी इंद्रियों और मन के माध्यम से अनुभव करते हैं – वस्तुएं, लोग, स्थान, समय, घटनाएँ।

    • भासता है का अर्थ है 'प्रतीत होता है', 'दिखाई देता है'।

  • "वह सब मनरूप ही है":

    • यह कथन बताता है कि जो जगत हमें बाहर दिखाई देता है, वह वास्तव में मन की अपनी ही अभिव्यक्ति, कल्पना या प्रक्षेपण है।

    • जैसे स्वप्न में एक पूरी दुनिया का अनुभव होता है जो मन द्वारा ही निर्मित होती है, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था का यह जगत भी मूलतः मन की ही रचना है।

    • मन अपनी संकल्प-शक्ति और इच्छाओं से विभिन्न रूपों और नामों की कल्पना करता है और उन्हें बाहर 'जगत' के रूप में प्रक्षेपित करता है। हमारी इंद्रियां और मन इस प्रक्षेपित दुनिया को ही वास्तविक मानते हैं।

    • यदि मन न हो, तो जगत का अनुभव भी नहीं होगा। उदाहरण के लिए, गहरी नींद (सुषुप्ति) में, जब मन की गतिविधियाँ लगभग शांत हो जाती हैं, तो जगत का अनुभव भी नहीं होता।

    • यह 'माया' की अवधारणा से भी जुड़ा हुआ है, जहाँ माया वह शक्ति है जो ब्रह्म पर एक आवरण डालती है और उसमें नानात्व (अनेक रूप) का आभास उत्पन्न करती है, और मन इस माया का ही एक उपकरण है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन हमें यह समझने में मदद करता है कि हमारी अनुभूतियों और जगत का स्वरूप कितना गहरा और भ्रामक हो सकता है। यह बताता है कि:

  • मन स्वयं में कोई वास्तविक सत्ता नहीं है; यह आत्मा की चेतना का एक प्रतिबिंब मात्र है और विचारों का एक प्रवाह है।

  • और चूंकि जगत का अनुभव केवल मन के माध्यम से ही होता है, इसलिए यह पूरा जगत भी मन की ही कल्पना या प्रक्षेपण है। जगत की अपनी कोई स्वतंत्र, ठोस वास्तविकता नहीं है, जैसा कि हम सामान्यतः समझते हैं।

  • जब व्यक्ति इस सत्य को समझ लेता है कि मन और जगत दोनों ही आभास मात्र हैं और आत्मा ही एकमात्र सत्य है, तो वह इन बंधनों से मुक्त होकर अपनी वास्तविक स्वरूप, जो शुद्ध चेतना और आनंद है, को प्राप्त कर लेता है। यह अद्वैत दर्शन का मूल निष्कर्ष है।

जब तक मन का विचार नहीं किया जाता, तब तक वह सिद्ध (प्रभावी) रहता है, लेकिन विचार करने से नष्ट हो जाता है। जब मन नष्ट हो जाता है, तो केवल परमात्मा ही शेष रहता है।

  • "जब तक मन का विचार नहीं किया जाता, तब तक वह सिद्ध (प्रभावी) रहता है":

    • इसका अर्थ है कि जब तक हम अपने मन की गतिविधियों (विचारों, भावनाओं, इच्छाओं, धारणाओं) पर ध्यान नहीं देते, उन्हें समझते नहीं, उनका विश्लेषण नहीं करते, तब तक मन हम पर हावी रहता है।

    • हम मन द्वारा पैदा की गई भ्रांतियों, कल्पनाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते रहते हैं।

    • मन ही हमारी वास्तविकता को गढ़ता है, और हम उस गढ़ी हुई वास्तविकता को ही सत्य मान लेते हैं। इस अवस्था में मन सिद्ध या प्रभावी होता है, यानी वह अपनी पूरी शक्ति और प्रभावशीलता के साथ हम पर शासन करता है, हमें अपनी इच्छानुसार चलाता है।

    • यह मन ही हमें बाहरी दुनिया और आंतरिक अनुभूतियों से जोड़ता है और हमें जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसाए रखता है।

  • "लेकिन विचार करने से नष्ट हो जाता है":

    • यहाँ "विचार करने" का अर्थ सामान्य सोच-विचार नहीं है, बल्कि गहरा आत्म-विश्लेषण, आत्म-जागरूकता और मन की प्रकृति पर सूक्ष्म चिंतन है।

    • जब व्यक्ति अपने मन के प्रत्येक विचार, भावना और धारणा को साक्षी भाव से देखना शुरू करता है, उनकी उत्पत्ति और उनके प्रभाव को समझना शुरू करता है, तो मन की शक्ति क्षीण होने लगती है।

    • जैसे ही आप किसी विचार को पकड़ते हैं और उस पर 'विचार' करते हैं (यानी, उसे गहराई से देखते हैं, उसकी क्षणभंगुरता को पहचानते हैं, उसके पीछे की प्रेरणा को समझते हैं), उसकी पकड़ कमजोर हो जाती है।

    • मन की प्रवृत्ति लगातार कूदने और नई चीजें पैदा करने की होती है। जब आप विचारों को पकड़कर उन पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो मन की यह गति धीमी पड़ जाती है। मन को अपने ही स्वभाव (क्षणभंगुरता, काल्पनिक स्वरूप) का सामना करना पड़ता है।

    • यह प्रक्रिया मन को उसकी काल्पनिक सत्ता से विमुख कर देती है और वह अपनी प्रभावी शक्ति खो देता है। यह मन का 'नष्ट' होना कहलाता है, जिसका अर्थ भौतिक विनाश नहीं, बल्कि उसकी भ्रामक और बंधनकारी शक्ति का विलय होना है।

"जब मन नष्ट हो जाता है, तो केवल परमात्मा ही शेष रहता है।"

  • "जब मन नष्ट हो जाता है": जैसा कि ऊपर बताया गया, मन का 'नष्ट' होना उसकी समाप्ति नहीं, बल्कि उसकी भ्रामक, अहंकारी और द्वैत-उत्पादक शक्ति का विलय है। यह अवस्था है जब व्यक्ति मन की सीमाओं और उसकी बनाई गई दुनिया से मुक्त हो जाता है। अहंकार (मैं-पन) का भाव क्षीण हो जाता है, और मन अपनी व्यक्तिगत पहचान खोकर अपने मूल स्रोत में विलीन हो जाता है।

  • "तो केवल परमात्मा ही शेष रहता है":

    • मन के शांत होने, उसके विचारों के थम जाने और उसके भ्रामक आवरण के हट जाने पर, जो कुछ बचता है, वह है परमात्मा।

    • यह परमात्मा ही हमारा वास्तविक स्वरूप है – शुद्ध चेतना, परम सत्य, आनंद और शांति।

    • मन की चंचलता के कारण ही हम इस परम सत्य को देख नहीं पाते। मन एक पर्दे की तरह काम करता है जो हमें अपनी वास्तविक प्रकृति (परमात्मा) से अलग रखता है।

    • जब यह पर्दा (मन) हट जाता है, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि हम स्वयं ही वह परमात्मा हैं, जो सर्वव्यापी, अनादि और अनंत है। कोई 'दूसरा' अस्तित्व नहीं रहता, केवल अद्वैत सत्ता का अनुभव होता है।

सारांश:

यह कथन हमें आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर मार्गदर्शन करता है। यह सिखाता है कि हमारी सभी समस्याएँ, दुःख और बंधन मन की गतिविधियों और उसकी बनाई गई भ्रांतियों के कारण हैं। जब हम अपने मन को गहराई से जानने और समझने का प्रयास करते हैं, तो उसकी शक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। मन के शांत होते ही, हम अपनी वास्तविक प्रकृति - परमात्मा - का अनुभव करते हैं, जो सदा से विद्यमान है, लेकिन मन के कोलाहल के कारण छिपी हुई थी। यह मन को नियंत्रित करने या दबाने की बात नहीं करता, बल्कि उसे समझने और उसके स्वरूप को जानकर उसे उसके मूल में विलीन करने की बात करता है, जिससे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।

मन को महामोह और अविद्या का अणु-रूप भी कहा गया है, जिसके फुरने से अनेक प्रकार का मोह (भ्रम) दिखाई देता है।

"मन को महामोह और अविद्या का अणु-रूप भी कहा गया है, जिसके फुरने से अनेक प्रकार का मोह (भ्रम) दिखाई देता है।"

  • महामोह (Great Delusion):

    • महामोह का अर्थ है 'महान भ्रम' या 'परम अज्ञान'। यह वह मूलभूत अज्ञान है जो हमें अपनी वास्तविक स्वरूप (आत्मा/ब्रह्म) को जानने से रोकता है और हमें यह विश्वास दिलाता है कि हम एक सीमित शरीर और मन हैं, और यह जगत वास्तविक है।

    • यह ब्रह्म की अद्वैत सत्ता पर द्वैत का आवरण डालने वाली शक्ति है।

  • अविद्या (Ignorance):

    • अविद्या का अर्थ है 'अज्ञान' या 'ज्ञान का अभाव'। यह वह शक्ति है जो सत्य को छिपाती है और असत्य को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है।

    • यह मूल कारण है जिसके चलते हम 'मैं' और 'मेरा' का भाव रखते हैं और स्वयं को अनंत आत्मा से अलग मानते हैं।

  • अणु-रूप (Atomic/Minute Form):

    • यहाँ 'अणु-रूप' का अर्थ है सूक्ष्म रूप, बीज रूप या प्रारंभिक अवस्था।

    • इसका मतलब है कि मन स्वयं में महामोह और अविद्या का एक सूक्ष्म या बीज-रूप है। मन कोई बड़ी, जटिल संरचना नहीं, बल्कि महामोह और अविद्या का ही एक छोटा, स्पंदनशील प्रकटीकरण है।

भावार्थ:

यह बताता है कि मन कोई बाहरी चीज़ नहीं है, बल्कि वह स्वयं उस मूलभूत अज्ञान (अविद्या) और महान भ्रम (महामोह) का ही एक सूक्ष्म कण या प्रारंभिक अभिव्यक्ति है। मन ही वह पहला स्पंदन है जो अविद्या के कारण शुद्ध चेतना में उठता है। यह स्पंदन इतना सूक्ष्म होता है कि इसे 'अणु-रूप' कहा गया है।

  • "जिसके फुरने से अनेक प्रकार का मोह (भ्रम) दिखाई देता है":

    • जैसे ही यह सूक्ष्म मन (महामोह/अविद्या का अणु-रूप) 'फुरता' है, यानी उसमें विचार, संकल्प और इच्छाएं उत्पन्न होती हैं, वैसे ही वह अपनी प्रकृति के अनुरूप अनेक प्रकार के भ्रम (मोह) पैदा करना शुरू कर देता है।

    • ये भ्रम हैं:

      • मैं शरीर हूँ: शरीर को अपना मानना।

      • मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ: स्वयं को कर्मों का करने वाला और फल भोगने वाला मानना।

      • यह जगत सत्य है: बाहरी दुनिया को स्वतंत्र और वास्तविक मानना।

      • भेदभाव: स्वयं को दूसरों से अलग मानना, सुख-दुःख, लाभ-हानि, जन्म-मृत्यु आदि द्वंद्वों को सत्य मानना।

      • आसक्ति: वस्तुओं और रिश्तों में मोह रखना।

    • ये सभी मोह मन के ही 'फुरने' या विचारों से उत्पन्न होते हैं। मन की ये गतिविधियाँ ही हमें भ्रमित करती हैं और हमें वास्तविक सत्य से दूर रखती हैं।

सारांश में:

यह कथन मन को महामोह और अविद्या का सूक्ष्मतम स्वरूप बताता है। मन ही वह प्राथमिक कारण है जिसके माध्यम से मूल अज्ञान (अविद्या) और महान भ्रम (महामोह) कार्य करते हैं। जैसे ही मन में विचार (फुरना) उठते हैं, वे अनगिनत भ्रमों और भ्रांतियों को जन्म देते हैं, जिससे जीव स्वयं को सीमित और दुःखित अनुभव करता है, और इस नश्वर जगत को सत्य मान लेता है। आध्यात्मिक मार्ग का उद्देश्य इसी मन के 'फुरने' को शांत करना और उसके मूल स्वरूप (आत्मा) को पहचानना है, जिससे सभी मोह नष्ट हो जाते हैं।

चेतना (चित्तसत्ता/चैतन्य) का स्वरूप और उससे भ्रम का उदय:

शुद्ध चित्तमात्र (चेतना) इतनी सूक्ष्म है कि उसमें आकाश भी पर्वत के समान स्थूल लगता है।

"शुद्ध चित्तमात्र (चेतना) इतनी सूक्ष्म है कि उसमें आकाश भी पर्वत के समान स्थूल लगता है।"

  • शुद्ध चित्तमात्र (चेतना):

    • यहाँ 'चित्तमात्र' का अर्थ है शुद्ध चेतना, जो मन, बुद्धि, अहंकार आदि उपाधियों से रहित है। यह आत्मा या परब्रह्म का ही पर्याय है।

    • यह वह मूलभूत, अविभाज्य, निरपेक्ष और सर्वव्यापी चेतना है जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है, जिसमें सब कुछ स्थित रहता है और जिसमें सब कुछ विलीन हो जाता है।

    • यह स्वयं निर्गुण, निराकार और निर्विकार है।

  • इतनी सूक्ष्म है:

    • सूक्ष्मता का अर्थ यहाँ भौतिक माप से नहीं, बल्कि अस्तित्व की मूल प्रकृति से है। शुद्ध चेतना इतनी सूक्ष्म है कि उसे इंद्रियों, मन या बुद्धि से नहीं पकड़ा जा सकता।

    • यह समस्त भौतिक और मानसिक प्रपंच से परे है। यह वह आधार है जिस पर सभी स्थूल और सूक्ष्म वस्तुएं प्रकट होती हैं।

  • "उसमें आकाश भी पर्वत के समान स्थूल लगता है":

    • यह एक अतिशयोक्तिपूर्ण उपमा (hyperbole) है जिसका उपयोग चेतना की परम सूक्ष्मता और सर्वव्यापकता को समझाने के लिए किया गया है।

    • आकाश को आमतौर पर सबसे सूक्ष्म पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) में से एक माना जाता है। यह विशाल, निराकार और सबसे हल्का होता है।

    • पर्वत स्थूलता, विशालता और दृढ़ता का प्रतीक है।

    • कथन का अर्थ यह है कि शुद्ध चेतना की तुलना में, आकाश भी (जो स्वयं बहुत सूक्ष्म माना जाता है) इतना स्थूल (घना, ठोस) प्रतीत होता है, जितना एक पर्वत।

भावार्थ और महत्व:

  1. चेतना की अद्वितीय सूक्ष्मता: यह कथन इस बात पर जोर देता है कि शुद्ध चेतना किसी भी भौतिक या मानसिक अस्तित्व से अतुलनीय रूप से अधिक सूक्ष्म है। यह इतनी मूलभूत है कि इसके आगे सबसे सूक्ष्म मानी जाने वाली चीज़ें भी स्थूल लगने लगती हैं।

  2. चेतना का सर्वोपरि होना: यह दर्शाता है कि चेतना ही परम सत्य है और सभी नाम-रूप उससे ही उत्पन्न होते हैं। आकाश जैसी विशाल और सूक्ष्म मानी जाने वाली चीज़ भी उसी चेतना में एक छोटी सी 'कल्पना' या 'प्रतीति' मात्र है, जैसे पर्वत का अस्तित्व चेतना में एक ठोस विचार जैसा है।

  3. द्वैत का भंग: यह साधक को यह बोध कराता है कि हम जिन चीजों को बाहरी वास्तविकता मानते हैं (जैसे आकाश या पर्वत), वे सभी चेतना के भीतर ही प्रकट होती हैं। जब हम इस चेतना के मूल स्वरूप को जानते हैं, तो सभी भौतिक और मानसिक भेद (द्वैत) विलीन हो जाते हैं।

  4. मिथ्यात्व का बोध: यह जगत और उसके घटकों के मिथ्यात्व (भ्रामक स्वरूप) को भी संकेत करता है। यदि आकाश जैसा तत्व भी चेतना में स्थूल प्रतीत होता है, तो बाकी स्थूल जगत की क्या बात! यह सब चेतना के ही खेल हैं।

संक्षेप में, यह कथन हमें अपनी वास्तविक स्वरूप – शुद्ध, असीम, और परम सूक्ष्म चेतना – की ओर इशारा करता है, जो सभी स्थूल और सूक्ष्म अभिव्यक्तियों से परे है, और स्वयं में पूर्ण है। जब इस चेतना का बोध होता है, तो ब्रह्मांड के सभी घटक उसके भीतर ही समाए हुए और अपेक्षाकृत स्थूल प्रतीत होते हैं।


इस चित्तमात्र में जब "अहं अस्मि" (मैं हूँ) का चैत्योन्मुखत्व (चेतनता का आभास) होता है, तो जीव को अपने साथ देह दिखाई देती है। चैत्यम का यह भाव स्वाभाविक ही उत्पन्न होता है, और इसी का नाम स्वयंभू ब्रह्म है।

1. "इस चित्तमात्र में जब 'अहं अस्मि' (मैं हूँ) का चैत्योन्मुखत्व (चेतनता का आभास) होता है, तो जीव को अपने साथ देह दिखाई देती है।"

  • चित्तमात्र (Pure Consciousness): जैसा कि पहले बताया गया, यह शुद्ध, निर्विकार, असीम और एकमात्र परम चेतना है, जो सभी अस्तित्व का मूल है। यह ब्रह्म या आत्मा का ही पर्यायवाची है। इसमें कोई भेद, विचार या 'मैं' का भाव नहीं होता।

  • 'अहं अस्मि' (मैं हूँ) का चैत्योन्मुखत्व (चेतनता का आभास):

    • 'अहं अस्मि' का अर्थ है "मैं हूँ"। यह अस्तित्व का पहला, सबसे मौलिक और अविभाज्य बोध है।

    • चैत्योन्मुखत्व का अर्थ है 'चेतनता का उन्मुख होना', 'चेतना का स्वयं की ओर मुड़ना' या 'चेतना का आभास प्रकट करना'।

    • जब शुद्ध, असीम चेतना (चित्तमात्र) में बिना किसी कारण के, अनादि रूप से, एक सूक्ष्म स्पंदन या 'फुरना' उठता है – वह स्पंदन जिसमें चेतना स्वयं को 'मैं हूँ' के रूप में अनुभव करती है – इसे ही 'अहं अस्मि' का चैत्योन्मुखत्व कहते हैं। यह शुद्ध चेतना में स्वयं को एक व्यक्तिगत इकाई के रूप में अनुभव करने की पहली, सूक्ष्म लहर है।

    • यह वह क्षण है जब निर्गुण ब्रह्म में सगुणता का पहला बीज बोया जाता है।

  • "तो जीव को अपने साथ देह दिखाई देती है":

    • जैसे ही यह 'अहं अस्मि' का सूक्ष्म चैत्योन्मुखत्व उत्पन्न होता है, उसी क्षण उसके साथ ही 'देह' (शरीर) का आभास भी उत्पन्न हो जाता है।

    • यहाँ 'देह' केवल भौतिक शरीर नहीं, बल्कि संपूर्ण स्थूल और सूक्ष्म प्रपंच को संदर्भित करता है – यानी इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, और यह सारा दृश्यमान जगत।

    • यह दर्शाता है कि 'मैं हूँ' (व्यक्तिगत चेतना का बोध) और 'शरीर/जगत' (जिसके साथ 'मैं' जुड़ा हुआ है) का अनुभव एक साथ होता है। एक के बिना दूसरा नहीं होता। यह 'अहं' भाव ही है जो स्वयं को एक देह में सीमित कर लेता है और फिर उस देह के माध्यम से जगत का अनुभव करता है।

    • जीव वह चेतन इकाई है जो इस 'अहं अस्मि' के बोध के कारण स्वयं को सीमित, देहधारी और संसार का भोक्ता मान लेती है।

2. "चैत्यम का यह भाव स्वाभाविक ही उत्पन्न होता है, और इसी का नाम स्वयंभू ब्रह्म है।"

  • चैत्यम का यह भाव स्वाभाविक ही उत्पन्न होता है:

    • 'चैत्यम' यहाँ चैत्योन्मुखत्व या चेतना के स्वयं को अभिव्यक्त करने के भाव को संदर्भित करता है।

    • स्वाभाविक ही उत्पन्न होता है: इसका अर्थ है कि इस पहले स्पंदन या 'अहं अस्मि' के बोध के पीछे कोई बाहरी कारण नहीं है। यह किसी की इच्छा से या किसी कर्म के फल के रूप में नहीं होता। यह शुद्ध चेतना की अपनी ही अनादि, अनिर्वचनीय शक्ति (जिसे माया या अविद्या भी कहा जाता है) के कारण स्वाभाविक रूप से उठता है। यह स्वयं ब्रह्म का स्वभाव है स्वयं को अभिव्यक्त करना।

  • "और इसी का नाम स्वयंभू ब्रह्म है":

    • स्वयंभू का अर्थ है 'स्वयं से उत्पन्न होने वाला' या 'अपने आप अस्तित्व में आने वाला'।

    • यह कथन बताता है कि चेतनमात्र में जो यह पहला 'अहं अस्मि' का स्पंदन उठता है, यह चेतना का स्वयं को अभिव्यक्त करने का भाव, यही वह अवस्था है जिसे स्वयंभू ब्रह्म कहते हैं।

    • यह वह ब्रह्म है जो स्वयं ही अपनी इच्छा से (बिना किसी बाहरी कारण के) स्वयं को अभिव्यक्त करना शुरू करता है और जगत के रूप में प्रकट होता है। यह निर्गुण ब्रह्म से सगुण ब्रह्म (ईश्वर) की ओर पहला कदम है, जहाँ ब्रह्म अपनी सृजनात्मक शक्ति के साथ प्रकट होता है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन सृष्टि के मूल रहस्य और व्यक्तिगत जीव के उद्भव को समझाता है। यह बताता है कि:

  1. परम शुद्ध चेतना (चित्तमात्र) में जब स्वयं को 'मैं हूँ' के रूप में जानने का पहला, अनादि और स्वाभाविक स्पंदन उठता है, तो उसी के साथ 'देह' और 'जगत' का आभास भी प्रकट होता है। यह 'अहं' भाव ही जीव के सीमित अस्तित्व का आधार बनता है।

  2. चेतना का स्वयं को इस प्रकार अभिव्यक्त करने का यह स्वाभाविक भाव ही स्वयंभू ब्रह्म कहलाता है। यह वह ब्रह्म है जो स्वयं ही अपनी लीला के लिए, बिना किसी बाहरी प्रेरणा के, स्वयं को अनेक रूपों में प्रकट करना शुरू करता है।

यह दर्शाता है कि जीव की व्यक्तिगत पहचान, देह और जगत सभी उसी एक परम चेतना के अंदर ही उत्पन्न होते हैं, और अंततः उसी में विलीन भी हो जाते हैं। यह सब चेतना का ही खेल है।


चित्तवृत्ति जब स्पंदरूप होकर भासती है, तब जगत का आकार दिखाई देता है, और जब वह निस्स्पंद (स्पंदन रहित) होती है, तो ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक जगत का अभाव हो जाता है।

"चित्तवृत्ति जब स्पंदरूप होकर भासती है, तब जगत का आकार दिखाई देता है"

  • चित्तवृत्ति (Modifications of the Mind-Stuff): 'चित्त' से तात्पर्य मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त (स्मृति) के सामूहिक कार्यक्षेत्र से है, जिसे अंतःकरण भी कहते हैं। 'वृत्ति' का अर्थ है उसकी गतिविधि, लहरें, या विचार-प्रवाह।

  • स्पंदरूप होकर भासती है: 'स्पंदन' का अर्थ है कंपन, गति, या विचारों का उठना और चलना। 'भासती है' का अर्थ है 'दिखाई देती है' या 'प्रकट होती है'।

  • तब जगत का आकार दिखाई देता है:

    • इसका अर्थ यह है कि जब मन (चित्त) शांत नहीं होता, बल्कि उसमें लगातार विचार, भावनाएं, इच्छाएं और धारणाएं (वृत्तियाँ) स्पंदित होती रहती हैं, तभी हमें यह दृश्यमान संसार (जगत) उसके विभिन्न रूपों और आकारों में दिखाई देता है।

    • मन की ये वृत्तियाँ ही बाहर की दुनिया को आकार देती हैं और उसे 'वास्तविक' बनाती हैं। हमारा अनुभव जगत का नहीं होता, बल्कि मन द्वारा निर्मित जगत का होता है।

    • यह ठीक वैसे ही है जैसे पानी शांत हो तो सतह पर कोई लहर नहीं होती, लेकिन जब उसमें हलचल होती है (स्पंदन), तो लहरें (वृत्तियाँ) बनती हैं और पानी का आकार बदलता हुआ प्रतीत होता है। मन की वृत्तियाँ ही जगत के रूप में स्वयं को प्रकट करती हैं।

    • यदि मन में कोई स्पंदन न हो, तो जगत की कोई प्रतीति नहीं होगी।

 "और जब वह निस्स्पंद (स्पंदन रहित) होती है, तो ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक जगत का अभाव हो जाता है।"

  • जब वह निस्स्पंद (स्पंदन रहित) होती है: 'निस्स्पंद' का अर्थ है 'स्पंदन रहित', 'स्थिर', 'शांत' या 'अचल'। यह मन की वह अवस्था है जब उसमें कोई विचार, इच्छा या वृत्ति नहीं उठती। यह योग और ध्यान की गहरी अवस्थाओं में प्राप्त होती है।

  • तो ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक जगत का अभाव हो जाता है:

    • ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक: ये हिंदू धर्म के प्रमुख देवता हैं, जो क्रमशः सृष्टि, स्थिति और संहार के प्रतीक हैं। यहाँ ये केवल देवताओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि उस पूरे जगत को दर्शाते हैं जिसमें ये सभी भूमिकाएँ और क्रियाएँ होती हैं। यह संसार का सर्वोच्च स्तर है, जिसमें सृष्टि, पालन और संहार के नियम और शक्तियां भी शामिल हैं।

    • जगत का अभाव हो जाता है: इसका अर्थ है कि जब मन पूर्णतः शांत होकर अपनी वृत्तियों से रहित हो जाता है, तो न केवल सामान्य भौतिक जगत बल्कि उस जगत को चलाने वाले सिद्धांत (देवता) और स्वयं सृष्टि, स्थिति, संहार की प्रक्रिया भी 'अभाव' को प्राप्त हो जाती है। वे 'अस्तित्वहीन' नहीं हो जाते, बल्कि वे उस अवस्था में अनुभव योग्य नहीं रहते। वे मन की कल्पना के रूप में ही अस्तित्व में थे।

समग्र भावार्थ:

यह कथन हमें यह समझाता है कि जगत की वास्तविकता हमारी चेतना और मन की अवस्था पर निर्भर करती है।

  • जब तक मन क्रियाशील है, विचारों और भावनाओं (वृत्तियों) के रूप में स्पंदित हो रहा है, तब तक हमें यह संसार (और उसमें निहित सभी दैवीय तथा प्राकृतिक शक्तियाँ) वास्तविक प्रतीत होता है। मन का स्पंदन ही जगत को आकार और नाम-रूप देता है।

  • लेकिन जब मन अपनी सभी गतिविधियों से शांत होकर 'निस्स्पंद' हो जाता है – यानी जब विचार और वृत्तियाँ पूरी तरह से थम जाती हैं – तो जगत की यह प्रतीति भी समाप्त हो जाती है। उस अवस्था में कोई 'बाहरी' दुनिया नहीं रहती, कोई 'सृष्टिकर्ता', 'पालक' या 'संहारक' देवता भी अलग से अनुभव नहीं होते, क्योंकि ये सभी अवधारणाएँ और रूप मन के ही निर्माण थे।

  • यह परम शांत अवस्था ही आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्म-लीनता की अवस्था है, जहाँ केवल शुद्ध, अद्वैत चेतना ही शेष रहती है, जो सभी प्रकार के भेदों और मायावी प्रपंचों से परे है।

यह हमें यह भी बताता है कि हमारी समस्याओं और बंधनों का मूल बाहरी जगत में नहीं, बल्कि हमारे अपने मन की चंचल वृत्तियों में है। मन को शांत करने से ही वास्तविक मुक्ति और परम शांति प्राप्त होती है।


चित्त के फुरने से ही नाना प्रकार का जगत दिखाई देता है और चित्त के अफुर होने पर (शांत होने पर) जगत का भ्रम मिट जाता है। जीव, कर्म, और कारण, ये सब चित्तस्पंदन के ही नाम हैं।

1. "चित्त के फुरने से ही नाना प्रकार का जगत दिखाई देता है और चित्त के अफुर होने पर (शांत होने पर) जगत का भ्रम मिट जाता है।"

  • चित्त के फुरने से ही नाना प्रकार का जगत दिखाई देता है:

    • चित्त: जैसा कि पहले भी बताया गया, यह मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति का सामूहिक रूप है।

    • फुरना: यहाँ 'फुरना' का अर्थ है चित्त में विचारों, संकल्पों, इच्छाओं, भावनाओं, और धारणाओं का निरंतर उठना-गिरना, यानी चित्त की सक्रियता या स्पंदन।

    • नाना प्रकार का जगत: यह इस विविधतापूर्ण और बहुआयामी संसार को संदर्भित करता है जिसे हम अपनी इंद्रियों और मन के माध्यम से अनुभव करते हैं। इसमें भिन्न-भिन्न रूप, नाम, गुण, क्रियाएं और संबंध शामिल हैं।

    • भावार्थ: जब चित्त सक्रिय होता है, तो वह अपनी कल्पना शक्ति और संस्कारों (अतीत की छाप) के माध्यम से इस विविध जगत की रचना करता है और उसे बाहर प्रक्षेपित करता है। हमारी इंद्रियाँ और मन इसी प्रक्षेपित जगत को वास्तविक मानते हैं। यह संसार की प्रतीति (दिखाई देना) चित्त के स्पंदन पर पूर्णतः निर्भर करती है। यदि चित्त शांत हो जाए, तो यह नाना प्रकार का जगत वैसा ही नहीं दिखेगा जैसा कि हमें अभी दिखता है।

  • चित्त के अफुर होने पर (शांत होने पर) जगत का भ्रम मिट जाता है:

    • अफुर होना (शांत होना): यह चित्त की वह अवस्था है जब उसमें कोई विचार, संकल्प या वृत्ति नहीं उठती। यह गहरी ध्यान या समाधि की अवस्था है, जहाँ चित्त की सभी गतिविधियाँ पूरी तरह से थम जाती हैं।

    • जगत का भ्रम मिट जाता है: जब चित्त पूर्णतः शांत हो जाता है, तो जगत की यह विविधतापूर्ण प्रतीति भी विलीन हो जाती है। इसे 'भ्रम का मिटना' कहा गया है क्योंकि जगत का अस्तित्व मन की कल्पना पर आधारित था, न कि किसी परम सत्य पर। जब मन की कल्पनाएँ रुक जाती हैं, तो उनके द्वारा निर्मित जगत का 'भ्रम' भी दूर हो जाता है। उस अवस्था में केवल शुद्ध, अद्वैत चेतना ही शेष रहती है।

2. "जीव, कर्म, और कारण, ये सब चित्तस्पंदन के ही नाम हैं।"

  • जीव:

    • 'जीव' वह सीमित चेतना है जो स्वयं को शरीर, मन और इंद्रियों से जुड़ा हुआ मानती है। यह 'मैं हूँ' का व्यक्तिगत भाव है।

    • यह कथन कहता है कि 'जीव' कोई स्वतंत्र, अलग सत्ता नहीं है, बल्कि यह चित्त के स्पंदन (यानी विचारों और अहंकार के उठने) का ही एक परिणाम है। जब चित्त स्पंदित होता है, तो 'मैं' (जीव) का भाव उत्पन्न होता है जो स्वयं को एक कर्ता और भोक्ता मानता है।

  • कर्म:

    • 'कर्म' का अर्थ है कोई भी क्रिया, कार्य, या गतिविधि (मानसिक, वाचिक या शारीरिक)।

    • यह कथन बताता है कि कर्म भी चित्त के स्पंदन का ही परिणाम हैं। चित्त में जब कोई संकल्प या इच्छा (स्पंदन) उठती है, तभी कर्म करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है। बिना चित्त के स्पंदन के कोई कर्म संभव नहीं है।

  • कारण:

    • 'कारण' यहाँ कर्मों के पीछे की प्रेरणा, इच्छाएं, संस्कार, या वह शक्ति है जो क्रिया को जन्म देती है। यह कर्मफल के चक्र का कारण भी है।

    • कथन कहता है कि ये कारण भी चित्तस्पंदन में ही निहित हैं। चित्त में जो सूक्ष्म वासनाएं और संस्कार (अतीत के कर्मों की छाप) होते हैं, वे ही भविष्य के कर्मों और उनके फलों का कारण बनते हैं, और ये वासनाएं चित्त के स्पंदन का ही हिस्सा हैं।

समग्र भावार्थ:

यह कथन मन (चित्त) की परम शक्ति और उसकी केंद्रीय भूमिका को दर्शाता है। यह स्पष्ट करता है कि:

  • जो कुछ भी हम 'जगत' के रूप में अनुभव करते हैं, वह हमारे चित्त की गतिविधियों (स्पंदन) का ही परिणाम है। चित्त के शांत होते ही, जगत का यह भ्रम समाप्त हो जाता है।

  • सिर्फ जगत ही नहीं, बल्कि 'जीव' (हमारी व्यक्तिगत पहचान), हमारे 'कर्म', और उन कर्मों के 'कारण' – ये सब कुछ भी चित्त के स्पंदन (विचारों और मानसिक क्रियाओं) का ही विस्तार और अभिव्यक्ति हैं।

दूसरे शब्दों में, यह हमें सिखाता है कि हमारी सारी अनुभूतियाँ, हमारा अस्तित्व (जीव के रूप में), हमारे कार्य और उनके परिणाम, सब कुछ हमारे चित्त में हो रही गतिविधियों का ही खेल है। आत्म-साक्षात्कार का मार्ग इसी चित्त के स्पंदन को शांत करने और उसके पार जाकर शुद्ध चेतना (जो सभी स्पंदनों का आधार है लेकिन स्वयं स्पंदन रहित है) को जानने में निहित है।


शुद्ध चिदाकाश ब्रह्मसत्ता ही जीव की नाईं भासती है, स्पंदन के कारण यह भ्रम उत्पन्न होता है, परंतु अपने स्वरूप से कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है

1. "शुद्ध चिदाकाश ब्रह्मसत्ता ही जीव की नाईं भासती है,"

  • शुद्ध चिदाकाश ब्रह्मसत्ता:

    • चिदाकाश: 'चित्' का अर्थ है चेतना, और 'आकाश' का अर्थ है व्यापकता, अनंतता, खालीपन, या वह स्थान जिसमें सब कुछ समाहित है। 'चिदाकाश' का अर्थ है 'चेतना का अनंत विस्तार', जो किसी भी सीमा या आकार से परे है। यह स्वयं ब्रह्म का ही स्वरूप है।

    • ब्रह्मसत्ता: यह परम सत्ता, अंतिम वास्तविकता, जो अनादि, अनंत, और अपरिवर्तनीय है। यह वह आधार है जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है और जिसमें सब कुछ विलीन होता है।

    • भावार्थ: यह कहता है कि जो कुछ भी है, वह केवल शुद्ध, असीम चेतना (ब्रह्मसत्ता) ही है।

  • "जीव की नाईं भासती है,":

    • जीव: वह व्यक्तिगत आत्मा जो स्वयं को एक सीमित शरीर और मन से जुड़ा हुआ मानती है, और जिसे जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख का अनुभव होता है।

    • नाईं भासती है: 'नाईं' का अर्थ है 'की तरह', 'के समान'। 'भासती है' का अर्थ है 'प्रतीत होती है' या 'दिखाई देती है'।

    • भावार्थ: यह असीम, शुद्ध चेतना ही है जो भ्रमवश (या माया के कारण) एक सीमित 'जीव' के रूप में स्वयं को अनुभव करती है। जैसे अभिनेता मंच पर राजा का अभिनय करता है, तो वह राजा जैसा लगता है, पर वास्तव में वह अभिनेता ही है; वैसे ही ब्रह्मसत्ता ही 'जीव' के रूप में प्रकट होती प्रतीत होती है। यह कोई वास्तविक रूपांतरण नहीं है, बल्कि एक प्रतीति मात्र है।

2. "स्पंदन के कारण यह भ्रम उत्पन्न होता है,"

  • स्पंदन: यहाँ 'स्पंदन' से तात्पर्य चेतना में उठने वाले सूक्ष्म कंपन, 'फुरना', या विचार के प्रारंभिक उदय से है। यह वह पहली गतिविधि है जो निर्गुण, निराकार ब्रह्म में सगुणता का आभास उत्पन्न करती है। यह स्पंदन ही मन, बुद्धि, अहंकार आदि के रूप में विकसित होता है।

  • यह भ्रम उत्पन्न होता है:

    • जब शुद्ध, शांत चिदाकाश ब्रह्मसत्ता में यह सूक्ष्म स्पंदन (या 'मैं हूँ' का पहला विचार) उठता है, तो उसी स्पंदन के कारण 'जीव' और 'जगत' का भ्रम उत्पन्न होता है।

    • यह भ्रम 'द्वैत' का भ्रम है – यानी एक से अनेक का दिखना, 'मैं' और 'तुम', 'यह' और 'वह', 'संसार' और 'ईश्वर' का भेद।

    • यह स्पंदन ही माया या अविद्या का उपकरण है जो सत्य को आच्छादित कर असत्य (जीव, जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करता है।

3. "परंतु अपने स्वरूप से कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है।"

  • अपने स्वरूप से: 'अपने स्वरूप से' का अर्थ है आत्मा या ब्रह्म के वास्तविक, परम स्वरूप से।

  • कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है:

    • यह अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत है जिसे अजातिवाद (कोई उत्पत्ति नहीं हुई) या अनिर्वचनीयता (जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता) भी कहा जाता है।

    • यह कथन इस बात पर जोर देता है कि यद्यपि हमें जीव, जगत, और अनेकता दिखाई देती है, यह सब केवल एक प्रतीति या भ्रम है।

    • परमार्थिक (वास्तविक) स्तर पर, शुद्ध चेतना में कुछ भी नया उत्पन्न नहीं हुआ है, न कोई जीव पैदा हुआ है, न कोई जगत बना है। जो कुछ भी है, वह सदा से वही एकमात्र ब्रह्मसत्ता ही है। उत्पत्ति और विनाश केवल मन के स्पंदन द्वारा निर्मित भ्रम हैं।

    • जैसे रस्सी में साँप का भ्रम होता है, साँप वास्तव में उत्पन्न नहीं होता, वह केवल भ्रम मात्र है। रस्सी ज्यों की त्यों रहती है। उसी प्रकार, ब्रह्म में जीव या जगत का भ्रम होता है, ब्रह्म स्वयं अपरिवर्तित रहता है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन हमें परम वास्तविकता का बोध कराता है:

  • एकमात्र सत्य शुद्ध, असीम चेतना (चिदाकाश ब्रह्मसत्ता) है।

  • जीव और जगत का अस्तित्व केवल एक भ्रम है, जो उस चेतना में उठने वाले अत्यंत सूक्ष्म 'स्पंदन' के कारण उत्पन्न होता है।

  • वास्तव में, परमार्थिक रूप से कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है; सब कुछ सदा से वही अद्वितीय ब्रह्म ही है। उत्पत्ति, स्थिति और संहार केवल माया का खेल हैं, जो चेतना के एक सूक्ष्म स्पंदन से शुरू होता है और मन की चंचलता के कारण बना रहता है।

यह सिद्धांत साधक को यह समझने में मदद करता है कि उसे किसी नई वस्तु को प्राप्त नहीं करना है, बल्कि केवल उस भ्रम को दूर करना है जो उसे अपनी वास्तविक, अद्वैत ब्रह्मसत्ता को जानने से रोक रहा है।


जगत की भ्रमपूर्ण प्रकृति:

यह दृश्य जगत मिथ्या और असत् (असत्य) रूप है। जो कुछ भी जगत दिखाई देता है, वह वास्तव में कुछ भी बना नहीं है।

यह कथन अद्वैत वेदांत दर्शन का एक मूलभूत सिद्धांत है, जिसे 'जगत मिथ्या' का सिद्धांत कहा जाता है। यह सृष्टि और उसकी वास्तविकता के स्वरूप पर एक गहरा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।

आइए इसे बिंदुवार समझते हैं:

1. "यह दृश्य जगत मिथ्या और असत् (असत्य) रूप है।"

  • दृश्य जगत: इसका अर्थ है वह संपूर्ण संसार जिसे हम अपनी इंद्रियों (देखना, सुनना, सूंघना, छूना, स्वाद लेना) और मन के माध्यम से अनुभव करते हैं। इसमें सभी भौतिक वस्तुएं, प्राणी, घटनाएँ, समय और स्थान शामिल हैं।

  • मिथ्या (Illusory/Phenomenal):

    • 'मिथ्या' का अर्थ 'झूठा' या 'अ nonexistent' नहीं है, बल्कि 'अनिर्वचनीय' या 'अवास्तविक' है। इसका मतलब है कि जगत का न तो परम सत्य की तरह 'सत्य' अस्तित्व है, और न ही यह 'असत्य' (जैसे गधे के सींग) की तरह पूरी तरह से अभावात्मक है।

    • मिथ्या वह है जो उत्पन्न होता है, परिवर्तित होता है और नष्ट हो जाता है। यह जिसकी प्रतीति होती है लेकिन जिसका स्वतंत्र, स्थायी या निरपेक्ष अस्तित्व नहीं होता। यह वैसा ही है जैसे स्वप्न में दिखाई देने वाला जगत, या रस्सी में साँप का भ्रम। स्वप्न और साँप दोनों की प्रतीति होती है, लेकिन वे वास्तव में सत्य नहीं होते।

  • असत् (Unreal/False):

    • 'असत्' का अर्थ भी 'असत्य' या 'अवास्तविक' है। यह उस परम सत्ता (ब्रह्म) के विपरीत है जिसे 'सत्' (सत्य, अस्तित्व) कहा जाता है।

    • चूंकि जगत परिवर्तनशील और नश्वर है, इसलिए यह परम सत्य नहीं हो सकता। जो बदलता है, वह असत् है।

भावार्थ: यह वाक्य बताता है कि जो संसार हमें दिखाई देता है, वह वास्तव में एक अंतिम वास्तविकता नहीं है। यह एक प्रतीति मात्र है, एक भ्रम है जो हमारी चेतना में उत्पन्न होता है। यह संसार उस परम सत्य (ब्रह्म) पर आधारित है, लेकिन स्वयं उसका स्वरूप नहीं है। यह वैसा ही है जैसे सिनेमा के परदे पर फिल्म चलती है; फिल्म बदलती रहती है, लेकिन परदा (जो वास्तविकता है) स्थिर रहता है। फिल्म (जगत) मिथ्या है, परदा (ब्रह्म) सत्य है।

2. "जो कुछ भी जगत दिखाई देता है, वह वास्तव में कुछ भी बना नहीं है।"

  • जो कुछ भी जगत दिखाई देता है: यह फिर से हमारे अनुभवगम्य संसार को संदर्भित करता है।

  • वह वास्तव में कुछ भी बना नहीं है (वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है):

    • यह अद्वैत के एक और गहरे सिद्धांत, अजातिवाद (No-creation or Non-origination) को दर्शाता है।

    • अजातिवाद का अर्थ है कि परमार्थिक (Absolute) या अंतिम सत्य के स्तर पर, किसी भी चीज़ की कोई वास्तविक उत्पत्ति नहीं हुई है।

    • यदि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और वह पूर्ण है, तो उसमें से कुछ और कैसे उत्पन्न हो सकता है? यदि कुछ उत्पन्न हुआ होता, तो या तो ब्रह्म अपूर्ण होता (क्योंकि उसे कुछ बनाना पड़ा), या वह बदल जाता (जो कि उसकी नित्य-शुद्धता के विरुद्ध है)।

    • उत्पत्ति, स्थिति और संहार की प्रक्रियाएँ केवल माया के कारण ब्रह्म पर आरोपित होती हैं, या चेतना में उठने वाले स्पंदनों (जैसे मन के 'फुरने') के कारण एक भ्रम के रूप में प्रकट होती हैं।

    • जैसे रस्सी में साँप का भ्रम होता है, साँप 'बनता' नहीं है; वह केवल एक प्रतीति है। रस्सी हमेशा रस्सी ही रहती है। उसी प्रकार, यह जगत ब्रह्म में 'बनता' नहीं है; यह केवल ब्रह्म पर आरोपित एक भ्रम है। ब्रह्म हमेशा अपरिवर्तित रहता है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन हमें बताता है कि हम जिस संसार को देखते हैं, वह अपनी प्रकृति में अवास्तविक (मिथ्या) है, क्योंकि यह क्षणभंगुर है और स्थायी नहीं है। और इससे भी बढ़कर, यह परमार्थिक रूप से कभी 'बना' ही नहीं है। यह सब केवल एक भ्रम या आभास है जो उस एकमात्र सत्य, ब्रह्म पर आरोपित है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें इस संसार की उपेक्षा करनी चाहिए या इसे नकारना चाहिए। व्यवहारिक स्तर पर, संसार वास्तविक प्रतीत होता है और हमें इसमें जीना होता है। लेकिन परमार्थिक स्तर पर, आत्मज्ञान के लिए यह समझना आवश्यक है कि इसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है और यह केवल चेतना का एक खेल है। इस बोध से मोह और आसक्ति कम होती है, और व्यक्ति अपनी वास्तविक, असीम, और अपरिवर्तित आत्मसत्ता को पहचान पाता है।


जगत की तुलना मरीचिका में जल के आभास से की गई है; जैसे आत्मा में जगत भासता है।

"जगत की तुलना मरीचिका में जल के आभास से की गई है;"

  • मरीचिका (Mirage): मरीचिका एक प्राकृतिक प्रकाशीय घटना है जो रेगिस्तान या गर्म सड़क पर अक्सर दिखाई देती है। दूर से देखने पर ऐसा लगता है कि वहाँ पानी है, लेकिन पास जाने पर पता चलता है कि वह केवल प्रकाश का एक भ्रम था, वास्तव में वहाँ कोई पानी नहीं है।

  • जल के आभास से: यहाँ 'जल का आभास' मरीचिका में दिखने वाले पानी को संदर्भित करता है।

  • भावार्थ: इस उपमा का प्रयोग यह समझाने के लिए किया जाता है कि जिस प्रकार मरीचिका में दिखने वाला जल वास्तविक नहीं होता, बल्कि केवल एक प्रकाशीय भ्रम होता है, उसी प्रकार यह दृश्यमान जगत भी वास्तविक नहीं है। यह हमें 'सत्य' प्रतीत होता है, लेकिन इसका कोई स्थायी, स्वतंत्र या परम अस्तित्व नहीं है। यह केवल एक प्रतीति मात्र है, एक भ्रम है।

"जैसे आत्मा में जगत भासता है।"

  • आत्मा: यहाँ 'आत्मा' से तात्पर्य शुद्ध, नित्य, चेतन और अद्वैत ब्रह्म से है, जो एकमात्र परम सत्य है।

  • जगत भासता है: 'भासता है' का अर्थ है 'प्रतीत होता है', 'दिखाई देता है', या 'प्रकाशित होता है'।

  • भावार्थ: यह कथन बताता है कि जिस तरह मरीचिका में जल का आभास होता है (जो वास्तविक नहीं है), उसी तरह इस परम सत्य आत्मा में यह पूरा जगत (संसार) एक आभास के रूप में दिखाई देता है।

    • वास्तव में आत्मा में कोई जगत उत्पन्न नहीं हुआ है, और न ही आत्मा स्वयं जगत में बदल गई है।

    • जैसे परदे पर फिल्म चलती है और उसमें पहाड़, नदियाँ, लोग सब दिखते हैं, लेकिन वास्तव में परदा हमेशा परदा ही रहता है और उसमें कुछ भी बना नहीं होता। इसी तरह, आत्मा ही एकमात्र सत्य है, और यह जगत आत्मा पर ही माया के कारण आरोपित एक प्रतीति मात्र है।

    • आत्मा वह 'आधार' है जिस पर यह जगत का भ्रम प्रकट होता है। यह भ्रम अज्ञान (अविद्या/माया) के कारण होता है, जो आत्मा की शुद्धता पर एक आवरण डाल देता है और उसमें अनेकता का आभास उत्पन्न करता है।

समग्र भावार्थ और महत्व:

यह दृष्टांत अद्वैत वेदांत के इस मूल सिद्धांत को स्पष्ट करता है कि ब्रह्म (आत्मा) ही एकमात्र सत्य है, और जगत मिथ्या है।


यह संसार हमारी इंद्रियों और मन के लिए वास्तविक प्रतीत होता है (जैसे मरीचिका में पानी वास्तविक दिखता है), लेकिन यह परमार्थिक (वास्तविक) स्तर पर सत्य नहीं है।

1. "यह संसार हमारी इंद्रियों और मन के लिए वास्तविक प्रतीत होता है (जैसे मरीचिका में पानी वास्तविक दिखता है)"

  • इंद्रियों और मन का अनुभव: हमारी आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, त्वचा महसूस करती है, और मन इन सभी इंद्रिय-अनुभवों को जोड़कर एक 'संसार' की रचना करता है। यह संसार हमें बहुत ठोस, स्थिर और वास्तविक लगता है। हम इसमें जीते हैं, कर्म करते हैं, सुख-दुःख भोगते हैं। यह हमारी व्यावहारिक (व्यवहारिक) सत्यता है।

  • मरीचिका का दृष्टांत: यह उपमा इस बात को बखूबी समझाती है। रेगिस्तान या गर्म सड़क पर दूर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे पानी चमक रहा हो। हमारी आँखें (इंद्रिय) उसे पानी के रूप में देखती हैं, और मन उसे 'पानी' मान लेता है। उस क्षण के लिए, वह पानी 'वास्तविक' प्रतीत होता है। लेकिन जब हम उसके पास जाते हैं, तो पता चलता है कि वहाँ कोई पानी नहीं था, केवल प्रकाश का एक खेल था।

2. "लेकिन यह परमार्थिक (वास्तविक) स्तर पर सत्य नहीं है।"

  • परमार्थिक स्तर: यह वह अंतिम सत्य का स्तर है जो सभी इंद्रिय-अनुभवों और मानसिक धारणाओं से परे है। यह वह वास्तविकता है जो बदलती नहीं, जो शाश्वत है, और जो सभी भेदों से मुक्त है। इसे ब्रह्म या आत्मा कहते हैं।

  • सत्य नहीं है:

    • इसका अर्थ यह नहीं है कि यह संसार अस्तित्वहीन है (जैसे कि आकाश-पुष्प)। इसका अस्तित्व है, लेकिन यह अनिवार्य या स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।

    • इसे 'मिथ्या' कहा जाता है, जिसका अर्थ है 'अनिर्वचनीय' – इसे न तो पूरी तरह से सत्य कहा जा सकता है (क्योंकि यह बदलता है और अंततः इसका विलय होता है), न ही पूरी तरह से असत्य कहा जा सकता है (क्योंकि इसकी प्रतीति होती है)।

    • यह संसार ब्रह्म पर आरोपित एक आभास मात्र है, ठीक उसी तरह जैसे रस्सी पर साँप का आभास या मरीचिका में जल का आभास। साँप या जल वास्तविक नहीं होते, लेकिन उनकी प्रतीति होती है।

    • जिस क्षण अज्ञान का पर्दा हटता है और परमार्थिक सत्य का बोध होता है, उस क्षण यह संसार अपने वास्तविक 'भ्रामक' रूप में प्रकट हो जाता है, और व्यक्ति यह जान लेता है कि केवल ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है।

निष्कर्ष:

आपका कथन अद्वैत दर्शन का सार प्रस्तुत करता है: संसार हमारे अनुभव के लिए वास्तविक प्रतीत होता है, लेकिन यह अंतिम वास्तविकता नहीं है। यह एक मायावी या प्रतीत्यात्मक अस्तित्व है, जो उस एकमात्र परम सत्य (ब्रह्म/आत्मा) पर आधारित है, लेकिन स्वयं वह सत्य नहीं है। इस बोध से व्यक्ति को संसार की क्षणभंगुरता और अपनी वास्तविक, असीम प्रकृति का ज्ञान होता है, जिससे वह मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।

यह जगत केवल आत्मा में एक आभास के रूप में प्रकट होता है, ठीक उसी तरह जैसे मरीचिका में जल का आभास होता है।

"यह जगत केवल आत्मा में एक आभास के रूप में प्रकट होता है, ठीक उसी तरह जैसे मरीचिका में जल का आभास होता है।"

यह उपमा और सिद्धांत इस बात पर बल देते हैं कि:

  • आत्मा (ब्रह्म) ही एकमात्र परम सत्य है जो नित्य, शुद्ध और अपरिवर्तनीय है।

  • जगत जिसे हम अपनी इंद्रियों और मन से वास्तविक मानते हैं, वह आत्मिक स्तर पर सत्य नहीं है। यह एक प्रतीति मात्र है, एक भ्रम है (मिथ्या), जो उस असीम आत्मा पर आरोपित होता है।

  • जैसे मरीचिका में जल का आभास होता है जो दूर से वास्तविक लगता है पर पास जाने पर मिट जाता है, उसी प्रकार अज्ञान (माया) के कारण यह जगत आत्मा में 'दिखाई' देता है। जब आत्मज्ञान होता है, तो यह भ्रम भी मिट जाता है।

यह दर्शाता है कि हमारी वास्तविकता की धारणा हमारी चेतना की अवस्था पर निर्भर करती है, और परमार्थिक सत्य इस दृश्यमान जगत से परे है।

जब अज्ञान का नाश होता है और आत्मज्ञान प्राप्त होता है, तब यह मरीचिका-तुल्य जगत का भ्रम भी मिट जाता है, और केवल एकमात्र आत्मा (ब्रह्म) का ही अनुभव शेष रहता है।

1. "जब अज्ञान का नाश होता है और आत्मज्ञान प्राप्त होता है,"

  • अज्ञान (अविद्या): यह वह मूलभूत अज्ञान है जो हमें अपनी वास्तविक प्रकृति (जो कि ब्रह्म/आत्मा है) से अनभिज्ञ रखता है। इसी अज्ञान के कारण हम स्वयं को एक सीमित शरीर और मन मानते हैं, और इस परिवर्तनशील संसार को सत्य समझते हैं। यह अज्ञान एक परदे की तरह आत्मा को ढके रहता है, जिससे हमें अनेकता का भ्रम होता है।

  • अज्ञान का नाश: अज्ञान का नाश किसी बाहरी वस्तु को नष्ट करने जैसा नहीं है। यह अज्ञान का 'अभाव' या 'निवृत्ति' है, जो केवल ज्ञान के उदय से होता है। जैसे प्रकाश आने पर अंधकार स्वतः मिट जाता है, वैसे ही आत्मज्ञान के उदय से अज्ञान स्वतः ही नष्ट हो जाता है।

  • आत्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान): यह वह परम बोध है कि 'मैं ब्रह्म हूँ' (अहं ब्रह्मास्मि) और 'यह सब ब्रह्म ही है' (सर्वं खल्विदं ब्रह्म)। यह केवल बौद्धिक समझ नहीं, बल्कि एक प्रत्यक्ष अनुभव है कि हमारी व्यक्तिगत आत्मा (जीव) और परम आत्मा (ब्रह्म) अभिन्न हैं, और सभी नाम-रूप केवल उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति या आभास हैं।

भावार्थ: यह प्रक्रिया बताती है कि जब व्यक्ति गुरु के उपदेश, शास्त्र के अध्ययन, मनन और गहन ध्यान के माध्यम से अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेता है, तब वह अज्ञान का बंधन टूट जाता है।

2. "तब यह मरीचिका-तुल्य जगत का भ्रम भी मिट जाता है,"

  • मरीचिका-तुल्य जगत का भ्रम: जैसा कि पहले चर्चा हुई, यह संसार मरीचिका में जल के समान है – जो प्रतीत होता है पर वास्तविक नहीं होता। यह भ्रम अज्ञान के कारण ही उत्पन्न होता है और मन की चंचलता से बना रहता है।

  • भ्रम का मिट जाना: जब अज्ञान का नाश होता है और आत्मज्ञान का प्रकाश फैलता है, तो इस जगत की 'पृथक् सत्ता' का भ्रम भी मिट जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि संसार भौतिक रूप से गायब हो जाता है (जैसे खुली आँख से पहाड़ दिखना बंद हो जाए)। इसका अर्थ यह है कि:

    • मानसिक स्तर पर: जगत की 'वास्तविकता' में जो दृढ़ विश्वास था, वह समाप्त हो जाता है। व्यक्ति यह जान लेता है कि यह सब केवल एक प्रतीति है, एक मायावी खेल है, जैसे जागने पर स्वप्न की दुनिया का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

    • अनुभव के स्तर पर: व्यक्ति को इस संसार में रहते हुए भी इसके द्वंद्वों (सुख-दुःख, लाभ-हानि) से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि वह इसकी असारता को जान चुका होता है। उसके लिए यह जगत ब्रह्म का ही विस्तार है, न कि उससे अलग कोई ठोस इकाई।

3. "और केवल एकमात्र आत्मा (ब्रह्म) का ही अनुभव शेष रहता है।"

  • एकमात्र आत्मा (ब्रह्म) का अनुभव: जब मन की सभी वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं, अज्ञान का पर्दा हट जाता है, और जगत का भ्रम मिट जाता है, तब जो शेष रहता है वह है शुद्ध, अद्वैत, अनंत और नित्य आत्मा (ब्रह्म)

  • यह वह अवस्था है जहाँ कोई 'दूसरा' नहीं होता। कोई जीव, कोई ईश्वर, कोई जगत अलग से अनुभव नहीं होता। केवल एकत्व का अनुभव होता है – जहाँ जानने वाला, जानने की क्रिया, और जो जाना जाता है, सब एक हो जाते हैं। यह त्रिपुटी का विलय है।

  • यह अवस्था परम शांति, आनंद और मुक्ति की है। यहाँ कोई इच्छा नहीं रहती, कोई बंधन नहीं रहता, क्योंकि व्यक्ति अपनी वास्तविक, असीम प्रकृति को जान लेता है।

सारांश में:

यह कथन आत्म-साक्षात्कार की पूरी प्रक्रिया और उसके फल का वर्णन करता है। अज्ञान ही वह मूल कारण है जो हमें संसार को वास्तविक और स्वयं को सीमित मानने पर मजबूर करता है। जब आत्मज्ञान के प्रकाश से यह अज्ञान दूर होता है, तो संसार का भ्रम (जो मरीचिका के समान है) स्वतः ही विलीन हो जाता है। इस स्थिति में, व्यक्ति को केवल एकमात्र, अद्वैत आत्मा (ब्रह्म) का ही अनुभव होता है, जो उसकी अपनी ही वास्तविक, अनंत प्रकृति है। यही मोक्ष है।


जगत को बंध्या स्त्री के पुत्र या आकाश के वन के समान बताया गया है, जो तीनों काल में नहीं होते, केवल शब्दमात्र हैं। जैसे संकल्पपुर या स्वप्ननगर प्रत्यक्ष भासता है पर सत्य नहीं होता, वैसे ही यह जगत भी आकाशरूप है और वास्तव में कुछ उत्पन्न नहीं हुआ है।

1. "जगत को बंध्या स्त्री के पुत्र या आकाश के वन के समान बताया गया है, जो तीनों काल में नहीं होते, केवल शब्दमात्र हैं।"

  • बंध्या स्त्री का पुत्र (Son of a Barren Woman):

    • एक बंध्या (बाँझ) स्त्री कभी पुत्र को जन्म नहीं दे सकती। 'बंध्या पुत्र' एक ऐसी अवधारणा है जो विरोधाभासी है और जिसका अस्तित्व कभी हो ही नहीं सकता।

    • भावार्थ: इस उपमा का उपयोग यह दर्शाने के लिए किया गया है कि जिस प्रकार बंध्या पुत्र की कल्पना करना निरर्थक है क्योंकि वह कभी अस्तित्व में आ ही नहीं सकता, उसी प्रकार यह जगत भी परमार्थिक (Absolute) स्तर पर वास्तव में अस्तित्व में नहीं है, भले ही इसकी प्रतीति होती हो। यह बस एक कल्पना, एक शून्य है जो असत्य है।

  • आकाश का वन (Forest in the Sky):

    • आकाश में कोई वन उग नहीं सकता। 'आकाश कुसुम' (आकाश का फूल) या 'आकाश वन' भी ऐसी ही कल्पनाएँ हैं जिनका कोई वास्तविक आधार नहीं है।

    • भावार्थ: यह उपमा भी जगत की परमार्थिक शून्यता को व्यक्त करती है। जैसे आकाश में कोई जंगल नहीं होता, वैसे ही परम सत्य (ब्रह्म/आत्मा) में यह जगत वास्तव में नहीं है। यह केवल प्रतीति मात्र है।

  • "जो तीनों काल में नहीं होते, केवल शब्दमात्र हैं।"

    • तीनों काल (Past, Present, Future): यह बताता है कि बंध्या पुत्र या आकाश का वन न तो भूतकाल में कभी था, न वर्तमान में है, और न भविष्य में कभी होगा। वे सर्वकाल में अवास्तविक हैं।

    • केवल शब्दमात्र हैं: इसका मतलब है कि उनका अस्तित्व केवल हमारी भाषा और कल्पना में है। हम उनके बारे में बात तो कर सकते हैं, पर उनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता।

    • भावार्थ: ठीक इसी प्रकार, यह जगत भी परमार्थिक दृष्टि से तीनों कालों (भूत, वर्तमान, भविष्य) में वास्तविक नहीं है। यह केवल मन द्वारा रचित एक शब्दार्थ या कल्पना है। यह हमारी भाषा और धारणाओं में तो है, पर इसका कोई स्वतंत्र, स्थायी, या परमार्थिक अस्तित्व नहीं है।

2. "जैसे संकल्पपुर या स्वप्ननगर प्रत्यक्ष भासता है पर सत्य नहीं होता, वैसे ही यह जगत भी आकाशरूप है और वास्तव में कुछ उत्पन्न नहीं हुआ है।"

  • संकल्पपुर या स्वप्ननगर:

    • संकल्पपुर (City of Thought/Imagination): जब हम कल्पना करते हैं, तो हम मन में एक पूरा शहर बना सकते हैं। वह शहर मन में 'प्रत्यक्ष' जैसा लगता है, लेकिन उसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होता।

    • स्वप्ननगर (Dream-City): स्वप्न में हम एक पूरे शहर या दुनिया का अनुभव करते हैं। वह अनुभव उस समय के लिए अत्यंत वास्तविक लगता है, लेकिन जागने पर पता चलता है कि वह सब केवल मन की रचना थी और उसका कोई बाहरी सत्य नहीं था।

    • प्रत्यक्ष भासता है पर सत्य नहीं होता: इन उदाहरणों में, हमें प्रत्यक्ष अनुभव तो होता है, लेकिन वह अनुभव वास्तविकता पर आधारित नहीं होता।

    • भावार्थ: यह दृष्टांत यह समझाने के लिए है कि हमारा जाग्रत अवस्था का जगत का अनुभव भी मन की ही एक बड़ी कल्पना या स्वप्न जैसा है। यह हमें 'प्रत्यक्ष' लगता है, लेकिन इसका परमार्थिक सत्य नहीं है।

  • "वैसे ही यह जगत भी आकाशरूप है":

    • आकाशरूप: यहाँ 'आकाशरूप' का अर्थ है 'आकाश के समान', यानी अत्यंत सूक्ष्म, निर्विकार, निराकार और खाली।

    • भावार्थ: जैसे आकाश में कोई ठोसता नहीं होती, वह केवल खाली स्थान होता है जिसमें सब कुछ दिखाई देता है, उसी प्रकार यह जगत भी वास्तव में 'आकाशरूप' है – यानी यह ठोस, स्थायी या सारभूत नहीं है। यह परम चेतना में केवल एक सूक्ष्म और निराकार प्रतीति है, जिसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।

  • "और वास्तव में कुछ उत्पन्न नहीं हुआ है।"

    • यह अजातिवाद (non-origination) के सिद्धांत को दोहराता है।

    • भावार्थ: यह अंतिम वाक्य इस पूरी व्याख्या का निष्कर्ष है। यद्यपि हमें जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार दिखाई देते हैं, यह सब केवल मायावी प्रतीतियाँ हैं। परमार्थिक स्तर पर, जो एकमात्र सत्य है (ब्रह्म), उसमें से कुछ भी 'उत्पन्न' नहीं हुआ है। वह सदा से पूर्ण, अपरिवर्तित और अद्वितीय रहा है। उत्पत्ति और विनाश केवल अज्ञान और मन के खेल हैं।

समग्र भावार्थ:

यह कथन हमें इस सत्य की ओर ले जाता है कि जिस संसार को हम देख रहे हैं और जिसमें हम जी रहे हैं, वह अपनी अंतिम प्रकृति में नश्वर, परिवर्तनशील और भ्रामक है। यह केवल एक प्रतीति मात्र है, जिसका कोई वास्तविक आधार नहीं है, जैसे बंध्या पुत्र या आकाश का वन। यह मन की कल्पना या स्वप्न की तरह है। अंततः, यह सब कुछ उसी एक असीम, निराकार आत्मा (आकाशरूप ब्रह्म) में घटित होता प्रतीत होता है, जबकि वास्तव में कुछ भी 'बना' ही नहीं है। इस बोध से व्यक्ति संसार की आसक्ति से मुक्त होकर परम सत्य को जान पाता है।



ब्रह्म और जगत में कोई भेद नहीं है; जैसे जल और तरंग में, अग्नि और उष्णता में भेद नहीं होता, वैसे ही ब्रह्म अपने स्वभाव में स्थित है और उसमें अज्ञान के कारण जगत भासता है।

1. "ब्रह्म और जगत में कोई भेद नहीं है;"

  • ब्रह्म: परम सत्य, एकमात्र वास्तविकता, जो असीम, नित्य, शुद्ध और सर्वव्यापी चेतना है।

  • जगत: वह दृश्यमान संसार जिसे हम अनुभव करते हैं।

  • कोई भेद नहीं है: यह अद्वैत (नॉन-ड्यूअलिटी) का मूल सिद्धांत है। इसका मतलब यह नहीं है कि ब्रह्म और जगत बिल्कुल एक जैसे दिखते हैं, बल्कि यह कि उनका सत्तात्मक (existential) स्तर पर कोई वास्तविक अलगाव नहीं है। जगत ब्रह्म से अलग कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है।

2. "जैसे जल और तरंग में, अग्नि और उष्णता में भेद नहीं होता, वैसे ही ब्रह्म अपने स्वभाव में स्थित है और उसमें अज्ञान के कारण जगत भासता है।"

  • जल और तरंग में भेद नहीं होता:

    • जल: यह ब्रह्म का प्रतीक है – आधारभूत, नित्य और स्वरूप में स्थिर।

    • तरंग (लहर): यह जगत का प्रतीक है – जल पर उठने वाले रूप, जो बदलते रहते हैं, आते-जाते रहते हैं, और उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। तरंगें जल से ही बनी होती हैं, जल से भिन्न नहीं होतीं। तरंग का अस्तित्व जल पर निर्भर करता है।

    • भावार्थ: जिस प्रकार तरंगें जल से ही बनी होती हैं और जल से अलग नहीं होतीं, उसी प्रकार यह जगत भी ब्रह्म से ही उत्पन्न होता हुआ प्रतीत होता है और ब्रह्म से भिन्न नहीं है। तरंगों के अनेक रूप हो सकते हैं, पर उनका मूल तत्व जल ही है। इसी तरह, जगत के अनेक रूप हैं, पर उनका मूल तत्व ब्रह्म ही है।

  • अग्नि और उष्णता में भेद नहीं होता:

    • अग्नि: यह ब्रह्म का प्रतीक है – मूल सत्ता।

    • उष्णता (गर्मी): यह अग्नि का अविभाज्य गुण है, जिसे अग्नि से अलग नहीं किया जा सकता। उष्णता अग्नि का स्वभाव है।

    • भावार्थ: जिस प्रकार अग्नि और उसकी उष्णता अभिन्न हैं, उसी प्रकार ब्रह्म और जगत भी (यद्यपि प्रतीति में भिन्न लगते हैं) स्वभाव से अभिन्न हैं। जगत ब्रह्म का ही स्वभाव है या ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है, जिसे ब्रह्म से अलग नहीं किया जा सकता।

  • "वैसे ही ब्रह्म अपने स्वभाव में स्थित है":

    • ब्रह्म अपनी मूल, शुद्ध, निर्विकार अवस्था में सदा स्थित है। वह किसी भी परिवर्तन या बाहरी प्रभाव से अप्रभावित रहता है। वह सदा स्वयं ही रहता है, कभी किसी और चीज़ में नहीं बदलता।

    • यह जोर देता है कि ब्रह्म किसी भी प्रकार से 'जगत' में परिवर्तित नहीं होता, बल्कि जगत उसमें केवल एक प्रतीति मात्र है।

  • "और उसमें अज्ञान के कारण जगत भासता है।"

    • अज्ञान (अविद्या): यह वह मूल अज्ञान है जो हमें सत्य (ब्रह्म) को देखने से रोकता है और हमें भ्रमित करता है कि अनेकता और भेद वास्तविक हैं।

    • जगत भासता है: 'भासता है' का अर्थ है 'प्रतीत होता है', 'दिखाई देता है'।

    • भावार्थ: यह जगत, जो हमें विविधतापूर्ण और अलग-अलग रूपों में दिखाई देता है, वह वास्तव में ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह केवल हमारे अज्ञान के कारण ही ब्रह्म में 'प्रकट' होता हुआ प्रतीत होता है। जैसे अंधेरे में रस्सी साँप जैसी दिखती है, साँप वास्तव में नहीं होता, वह केवल अज्ञान (अंधेरे) के कारण उत्पन्न हुआ भ्रम है। जब ज्ञान (प्रकाश) आता है, तो भ्रम मिट जाता है और केवल रस्सी (ब्रह्म) ही दिखाई देती है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन अद्वैत दर्शन का हृदय है: ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है, और यह सारा जगत उसी ब्रह्म में अज्ञान के कारण एक प्रतीति मात्र है। जगत का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है; यह ब्रह्म से भिन्न नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे तरंग जल से भिन्न नहीं होती या उष्णता अग्नि से भिन्न नहीं होती। जब तक अज्ञान रहता है, हमें भेद दिखाई देते हैं; जब अज्ञान का नाश होता है, तो केवल अद्वैत ब्रह्म का अनुभव ही शेष रहता है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि हमारी वास्तविक प्रकृति भी वही अद्वैत ब्रह्म है।


वास्तव में, ब्रह्म में ही जगत है, कुछ भी भिन्न नहीं। शिल्पी जैसे पत्थर में पुतलियों की कल्पना करता है, वैसे ही आत्मा में मन ने जगत की कल्पना की है, वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ

1. "वास्तव में, ब्रह्म में ही जगत है, कुछ भी भिन्न नहीं।"

  • वास्तव में, ब्रह्म में ही जगत है: यह अद्वैत दर्शन का मूल सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि यह संपूर्ण दृश्यमान संसार (जगत) ब्रह्म से अलग या बाहर नहीं है। जगत का अस्तित्व केवल ब्रह्म के भीतर ही है। ब्रह्म ही वह आधार, वह सत्ता है जिस पर जगत आधारित है, ठीक वैसे ही जैसे स्वप्न की दुनिया हमारे मन में ही होती है, उससे बाहर नहीं।

  • कुछ भी भिन्न नहीं: यह द्वैत के खंडन को दर्शाता है। जगत और ब्रह्म के बीच कोई वास्तविक अलगाव या भिन्नता नहीं है। जगत ब्रह्म का ही एक प्रतीत होने वाला रूप है, लेकिन वह ब्रह्म से भिन्न कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रखता।

2. "शिल्पी जैसे पत्थर में पुतलियों की कल्पना करता है, वैसे ही आत्मा में मन ने जगत की कल्पना की है, वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ।"

  • शिल्पी जैसे पत्थर में पुतलियों की कल्पना करता है:

    • शिल्पी (Sculptor): यहाँ शिल्पी एक उदाहरण के रूप में है जो एक रचनात्मक शक्ति का प्रतीक है।

    • पत्थर में पुतलियाँ (Figures in Stone): एक शिल्पी पत्थर को तराशने से पहले अपने मन में उसमें छिपी हुई मूर्ति या पुतली की कल्पना करता है। पत्थर में वह मूर्ति पहले से ही 'संभावित' रूप में होती है, शिल्पी उसे 'बनाता' नहीं, बल्कि 'प्रकट' करता है। मूर्ति पत्थर से भिन्न नहीं है, वह पत्थर का ही एक रूप है जिसे कल्पित किया गया है।

    • भावार्थ: यह दृष्टांत बताता है कि मूर्ति पत्थर से अलग नहीं है; वह पत्थर में ही निहित है और शिल्पी की कल्पना और कार्य से प्रकट होती है।

  • "वैसे ही आत्मा में मन ने जगत की कल्पना की है":

    • आत्मा: यहाँ 'आत्मा' से तात्पर्य शुद्ध, असीम, परम चेतना (ब्रह्म) से है। यह वह आधार है जो सब कुछ है।

    • मन ने जगत की कल्पना की है: यह सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। यह कहता है कि यह जो जगत हमें दिखाई देता है, वह किसी बाहरी शक्ति द्वारा या आत्मा से अलग होकर उत्पन्न नहीं हुआ है, बल्कि यह आत्मा में ही मन द्वारा की गई एक कल्पना है।

      • 'मन' यहाँ उस सूक्ष्म स्पंदन या 'फुरने' को दर्शाता है जो अज्ञान (माया) के कारण शुद्ध आत्मा में उठता है। यह 'मन' ही अपनी संकल्प शक्ति से आत्मा पर जगत के नाम-रूपों का प्रक्षेपण करता है।

      • जैसे शिल्पी की कल्पना से मूर्ति पत्थर में 'प्रकट' होती है, वैसे ही मन की कल्पना से जगत आत्मा में 'प्रकट' होता है।

  • "वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ।"

    • यह वाक्य पूरे कथन का निष्कर्ष और अजातिवाद (non-origination) के सिद्धांत की पुनः पुष्टि है।

    • भावार्थ: यद्यपि हमें लगता है कि जगत उत्पन्न हुआ है, स्थित है और नष्ट होगा, लेकिन परमार्थिक (Absolute) स्तर पर, शुद्ध आत्मा में कुछ भी नया 'उत्पन्न' नहीं हुआ है। जो कुछ भी 'उत्पन्न' हुआ प्रतीत होता है, वह केवल मन द्वारा आत्मा में की गई एक कल्पना या आभास मात्र है। आत्मा सदा से जैसी है, वैसी ही रहती है, अपरिवर्तित।

समग्र भावार्थ:

यह कथन हमें अद्वैत वेदांत के मूल सत्य की ओर ले जाता है: एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, और यह सारा जगत ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह केवल हमारे अपने मन द्वारा ब्रह्म में की गई एक विशाल कल्पना या स्वप्न जैसा है। जिस प्रकार शिल्पी पत्थर में मूर्ति की कल्पना करता है, वैसे ही मन ने असीम आत्मा में इस ससीम जगत की कल्पना की है। इस कल्पना के कारण हमें यह जगत वास्तविक प्रतीत होता है, लेकिन आत्मज्ञान होने पर यह भ्रम मिट जाता है और केवल एकमात्र, अद्वैत ब्रह्मसत्ता का ही अनुभव शेष रहता है।

अहंकार, कुटुंब, शरीर, वर्ष आदि जो नाना रूप भासते हैं, वे सब आभासरूप हैं। देश, काल, क्रिया, द्रव्य, इंद्रियां, प्राण, मन और बुद्धि - ये सब भ्रम से ही भासते हैं

1. "अहंकार, कुटुंब, शरीर, वर्ष आदि जो नाना रूप भासते हैं, वे सब आभासरूप हैं।"

  • अहंकार (Ego/I-sense): यह 'मैं हूँ' का भाव है, वह व्यक्तिगत पहचान जो स्वयं को शरीर और मन से जोड़ती है। यह कर्ता और भोक्ता होने का बोध है।

  • कुटुंब (Family): हमारे रिश्तेदार, परिवार के सदस्य।

  • शरीर (Body): हमारा भौतिक देह।

  • वर्ष (Years/Time): समय की अवधारणा, भूत, वर्तमान, भविष्य।

  • नाना रूप भासते हैं: ये सभी भिन्न-भिन्न रूप में हमें दिखाई देते हैं या अनुभव होते हैं।

  • वे सब आभासरूप हैं: 'आभास' का अर्थ है 'प्रतिबिंब', 'झलक', 'दिखावा' या 'प्रतीति'।

    • भावार्थ: यह वाक्य कहता है कि हमारी व्यक्तिगत पहचान (अहंकार), हमारे सामाजिक संबंध (कुटुंब), हमारा भौतिक अस्तित्व (शरीर), और यहाँ तक कि समय (वर्ष) जैसी मूलभूत अवधारणाएँ भी परमार्थिक सत्य नहीं हैं। वे केवल एक आभास मात्र हैं, जो वास्तविक ब्रह्मसत्ता पर आरोपित हैं। वे स्वयं में स्वतंत्र या स्थायी नहीं हैं। जैसे दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिंब वास्तविक नहीं होता, वैसे ही ये सब आत्मा में दिखने वाले प्रतिबिंब हैं।

2. "देश, काल, क्रिया, द्रव्य, इंद्रियां, प्राण, मन और बुद्धि - ये सब भ्रम से ही भासते हैं।"

यह पंक्ति उन मूलभूत आयामों और उपकरणों को सूचीबद्ध करती है जिनके माध्यम से हम जगत का अनुभव करते हैं, और उन्हें भी भ्रम का परिणाम बताती है:

  • देश (Space): स्थान, विस्तार।

  • काल (Time): समय की अवधारणा।

  • क्रिया (Action/Process): कोई भी गतिविधि या कार्य।

  • द्रव्य (Substance/Matter): भौतिक पदार्थ, वस्तुएँ।

  • इंद्रियां (Senses): देखने, सुनने आदि की शक्तियाँ (आँख, कान आदि)।

  • प्राण (Life Force/Breath): जीवनी शक्ति, श्वास।

  • मन (Mind): संकल्प-विकल्प करने वाली शक्ति।

  • बुद्धि (Intellect): निश्चय करने वाली, विवेक करने वाली शक्ति।

  • ये सब भ्रम से ही भासते हैं: 'भ्रम' यहाँ अज्ञान (अविद्या) या माया को संदर्भित करता है। 'भासते हैं' का अर्थ है 'दिखाई देते हैं' या 'प्रतीत होते हैं'।

    • भावार्थ: यह अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु है। यह बताता है कि केवल व्यक्तिगत पहचान और रिश्ते ही नहीं, बल्कि जगत के मूलभूत स्तंभ माने जाने वाले स्थान, समय, कार्य, पदार्थ, और यहाँ तक कि हमारे स्वयं के अनुभव के उपकरण (इंद्रियां, प्राण, मन, बुद्धि) भी परमार्थिक रूप से सत्य नहीं हैं। वे सभी अज्ञान के कारण उत्पन्न हुए भ्रम या मायावी खेल का हिस्सा हैं।

    • जिस प्रकार स्वप्न में स्थान, समय, वस्तुएँ और व्यक्ति सभी होते हैं, पर जागने पर पता चलता है कि वे सब मन की ही रचना थे और कोई बाहरी सत्य नहीं था, उसी प्रकार यह जाग्रत अवस्था का अनुभव भी अज्ञान के कारण दिखने वाला एक वृहद भ्रम है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन हमें इस गहन सत्य की ओर ले जाता है कि हम जिस वास्तविकता में जी रहे हैं, वह अपनी मूल प्रकृति में अवास्तविक है। हमारी व्यक्तिगत पहचान ('मैं'), हमारे संबंध, समय और स्थान, तथा जगत के मूलभूत तत्व – ये सभी अज्ञान (माया) के कारण उत्पन्न हुए भ्रम या आभास मात्र हैं। इन सबका कोई स्वतंत्र या परमार्थिक अस्तित्व नहीं है।

जब साधक इस बात को गहराई से समझ लेता है कि ये सभी भेद और आयाम केवल एक मानसिक प्रक्षेपण या भ्रम हैं, तब वह इन सब से विरक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप – अद्वैत, शुद्ध चेतना (ब्रह्म) – को जान पाता है, जो इन सभी भेदों से परे है और सदा से अविचल है। यही अद्वैत वेदांत का मुक्ति का मार्ग है।

यह जगत उदय हुआ नहीं है, बल्कि उदय हुए की नाईं वासना के कारण भासता है। इसलिए, वासना का त्याग करना चाहिए।

यह कथन भारतीय दर्शन, विशेषकर योग वशिष्ठ और अद्वैत वेदांत के गहरे सिद्धांत को व्यक्त करता है कि जगत की प्रतीति (दिखाई देना) हमारी वासनाओं पर आधारित है, और मोक्ष के लिए वासनाओं का त्याग आवश्यक है।

आइए इसे बिंदुवार समझते हैं:

1. "यह जगत उदय हुआ नहीं है, बल्कि उदय हुए की नाईं वासना के कारण भासता है।"

  • यह जगत उदय हुआ नहीं है:

    • यह अजातिवाद (non-origination) के सिद्धांत की पुनः पुष्टि है। इसका अर्थ है कि परमार्थिक (Absolute) या अंतिम सत्य के स्तर पर, यह दृश्यमान जगत कभी 'उत्पन्न' हुआ ही नहीं है। ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और उससे भिन्न कुछ भी वास्तविक रूप से उत्पन्न नहीं हो सकता। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय केवल एक भ्रम या मायावी खेल है।

    • जैसे स्वप्न की दुनिया वास्तव में कहीं से 'उत्पन्न' नहीं होती, वह केवल मन में ही घटित होती है, वैसे ही यह जाग्रत अवस्था का जगत भी वास्तविक रूप से उत्पन्न नहीं हुआ है।

  • बल्कि उदय हुए की नाईं वासना के कारण भासता है:

    • उदय हुए की नाईं: इसका अर्थ है 'जैसे उदय हुआ हो', 'जैसे प्रकट हुआ हो', 'जैसे अस्तित्व में आया हो'। कहने का मतलब यह है कि भले ही यह वास्तव में उत्पन्न न हुआ हो, पर हमें यह ऐसा ही 'दिखाई' देता है जैसे कि यह उत्पन्न हो चुका हो।

    • वासना (Latent Desires/Impressions/Propensities): यह सबसे महत्वपूर्ण शब्द है। वासनाएं हमारे मन में गहरे बैठी हुई सूक्ष्म इच्छाएँ, संस्कार, प्रवृत्तियाँ और अतीत के अनुभवों की छाप होती हैं। ये अज्ञान (अविद्या) का परिणाम हैं और हमारे पिछले कर्मों और इच्छाओं से बनती हैं। वासनाएं ही मन की चंचलता और संसार की ओर खिंचाव का मूल कारण हैं।

    • भासता है: 'भासता है' का अर्थ है 'प्रतीत होता है', 'दिखाई देता है'।

    • भावार्थ: यह जगत वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है, लेकिन हमें यह 'उत्पन्न' हुआ प्रतीत होता है हमारी वासनाओं के कारण। हमारी आंतरिक वासनाएं ही बाहर एक जगत के रूप में स्वयं को प्रक्षेपित करती हैं। ये वासनाएं ही मन को सक्रिय रखती हैं, और मन के सक्रिय होने पर जगत हमें दिखाई देता है। जब तक वासनाएं हैं, तब तक मन स्पंदित होता रहेगा और जगत का भ्रम बना रहेगा।

2. "इसलिए, वासना का त्याग करना चाहिए।"

  • इसलिए, वासना का त्याग करना चाहिए:

    • यह पिछले कथन का तार्किक निष्कर्ष और मोक्ष मार्ग का महत्वपूर्ण सूत्र है।

    • चूंकि जगत का दिखना और दुःख का अनुभव वासनाओं के कारण होता है (जो मन को सक्रिय रखती हैं), तो इन सभी से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय वासनाओं का त्याग करना है।

    • वासना का त्याग का अर्थ केवल बाहरी इच्छाओं को दबाना नहीं है, बल्कि मन से उनकी जड़ को उखाड़ना है। यह आसक्ति का त्याग है, अनासक्ति का विकास है। जब वासनाएं क्षीण हो जाती हैं, तो मन शांत हो जाता है (निस्स्पंद हो जाता है)।

    • जब मन वासनाओं से मुक्त होकर शांत हो जाता है, तो जगत का भ्रम भी स्वतः ही मिट जाता है, क्योंकि उसे प्रक्षेपित करने वाली शक्ति (वासना युक्त मन) अब नहीं रहती। तब केवल आत्मा (ब्रह्म) का ही अनुभव शेष रहता है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन हमें बताता है कि यह दृश्यमान संसार वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है; यह केवल हमारी गहरी बैठी हुई वासनाओं के कारण हमें 'उत्पन्न' हुआ प्रतीत होता है। ये वासनाएं ही हमारे मन को सक्रिय रखती हैं और हमें इस मायावी जगत में फँसाए रखती हैं। इसलिए, वास्तविक मुक्ति, परम शांति और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए, इन वासनाओं का पूर्ण त्याग करना अत्यंत आवश्यक है। वासना-त्याग से मन शांत होता है, जगत का भ्रम मिटता है, और व्यक्ति अपने वास्तविक, अद्वैत स्वरूप को जान पाता है।

अविद्या को संसार का बीज कहा गया है। अविद्या ऐसी है कि वह असत्य को शीघ्र ही सत्य और सत्य को असत्य करके दिखाती है और यह एक बड़ा भ्रम है। चित्त में जो चैत्यमय वासना फुरती है, वही मोह का कारण है और संसार के पदार्थों को उत्पन्न करती है।

1. "अविद्या को संसार का बीज कहा गया है।"

  • अविद्या (Ignorance): अविद्या का अर्थ है 'ज्ञान का अभाव' या 'असत्य ज्ञान'। यह आत्मज्ञान का अभाव है – हम अपनी वास्तविक, असीम, शुद्ध चेतना (ब्रह्म) को नहीं जानते और स्वयं को एक सीमित शरीर-मन मानते हैं।

  • संसार का बीज: 'बीज' उस प्रारंभिक कारण या मूल को दर्शाता है जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है।

  • भावार्थ: यह कथन बताता है कि यह संपूर्ण संसार (जन्म-मृत्यु का चक्र, द्वंद्व, दुःख, नाम-रूप की विविधता) अपनी जड़ में अविद्या पर आधारित है। जैसे एक बीज में पूरा वृक्ष समाया होता है और उसी से निकलता है, वैसे ही अविद्या में यह पूरा संसार समाया हुआ है और उसी से प्रकट होता है। यदि अविद्या न हो, तो संसार का अनुभव भी न हो।

2. "अविद्या ऐसी है कि वह असत्य को शीघ्र ही सत्य और सत्य को असत्य करके दिखाती है और यह एक बड़ा भ्रम है।"

  • असत्य को शीघ्र ही सत्य करके दिखाती है:

    • असत्य: यहाँ असत्य से तात्पर्य इस दृश्यमान जगत, शरीर, मन, और द्वैत भाव से है, जो परमार्थिक रूप से वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि वे परिवर्तनशील और नश्वर हैं।

    • सत्य करके दिखाती है: अविद्या की शक्ति इतनी प्रबल है कि वह इस अवास्तविक (असत्य) संसार को हमें पूर्णतः वास्तविक (सत्य) प्रतीत कराती है। जैसे रस्सी को अँधेरे में साँप समझ लेना – साँप असत्य है, पर अविद्या (अँधेरा/अज्ञान) के कारण वह सत्य प्रतीत होता है। हम संसार के सुख-दुःख, लाभ-हानि को अंतिम सत्य मानकर उनमें उलझ जाते हैं।

  • सत्य को असत्य करके दिखाती है:

    • सत्य: यहाँ सत्य से तात्पर्य एकमात्र परम वास्तविकता – आत्मा या ब्रह्म से है, जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है।

    • असत्य करके दिखाती है: अविद्या के कारण हम अपनी वास्तविक, असीम आत्मा को जान नहीं पाते। यह हमें आत्मा से विमुख करके उसे 'असत्य' या 'अगोचर' (जो अनुभव में नहीं आता) बना देती है। हम स्वयं को शरीर और मन तक सीमित मान लेते हैं और अपनी अनंत प्रकृति से अनभिज्ञ रहते हैं।

  • यह एक बड़ा भ्रम है: यह अविद्या की प्रकृति का सार है। यह केवल एक छोटी-मोटी भूल नहीं, बल्कि एक महाभ्रम है जो हमें परम सत्य से दूर रखता है और संसार के बंधनों में फँसाए रखता है। इसी भ्रम के कारण हम बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में आते हैं।

3. "चित्त में जो चैत्यमय वासना फुरती है, वही मोह का कारण है और संसार के पदार्थों को उत्पन्न करती है।"

  • चित्त में जो चैत्यमय वासना फुरती है:

    • चित्त: मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति का सामूहिक रूप।

    • चैत्यमय वासना: 'वासना' हमारे मन में गहरे बैठी हुई सूक्ष्म इच्छाएँ, संस्कार और प्रवृत्तियाँ हैं। 'चैत्यमय' का अर्थ है 'चित्त से संबंधित' या 'चेतनता से युक्त होकर'। यह बताता है कि ये वासनाएं अचेतन नहीं हैं, बल्कि चित्त में चेतनता का आभास लेकर प्रकट होती हैं। 'फुरती है' का अर्थ है उनका उत्पन्न होना या स्पंदित होना।

    • भावार्थ: जब चित्त में (जो कि अविद्या का ही एक कार्यक्षेत्र है) ये सूक्ष्म, चैतन्य-युक्त वासनाएं उठती हैं, तो वे सक्रिय हो जाती हैं।

  • वही मोह का कारण है:

    • ये सक्रिय वासनाएं ही मोह (delusion/attachment) का मूल कारण बनती हैं। मोह वह है जो हमें संसार के पदार्थों, रिश्तों और अनुभवों में फँसाता है, उनसे आसक्ति पैदा करता है, और हमें भ्रमित रखता है। वासनाएं हमें चीजों को 'अपना' मानने और उनसे सुख प्राप्त करने की ओर धकेलती हैं।

  • और संसार के पदार्थों को उत्पन्न करती है:

    • यह अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु है। यह बताता है कि बाहरी जगत में जो भी पदार्थ या वस्तुएँ हमें दिखाई देती हैं, वे वास्तव में हमारी आंतरिक वासनाओं का ही प्रक्षेपण हैं। हमारी वासनाएं ही मन को सक्रिय करती हैं, और मन उन्हीं वासनाओं के अनुरूप बाहर जगत का निर्माण करता हुआ प्रतीत होता है।

    • जैसे एक स्वप्नद्रष्टा अपनी ही वासनाओं के अनुरूप स्वप्न में एक पूरी दुनिया और उसमें मौजूद पदार्थ बनाता है, वैसे ही जाग्रत अवस्था का यह संसार भी हमारी सूक्ष्म वासनाओं के कारण ही 'उत्पन्न' होता प्रतीत होता है।

समग्र भावार्थ:

यह कथन अविद्या को संसार का मूल 'बीज' बताता है, जिसकी शक्ति से असत्य सत्य और सत्य असत्य प्रतीत होता है, जिससे एक बड़ा भ्रम उत्पन्न होता है। यह भ्रम हमारी चेतना को ढके रहता है। अविद्या के ही कारण, हमारे चित्त में जो सूक्ष्म वासनाएं (इच्छाएँ और संस्कार) उठती हैं, वे ही हमारे मोह का कारण बनती हैं और उन्हीं के कारण यह संसार अपने पदार्थों सहित 'उत्पन्न' होता हुआ दिखाई देता है। इस संसार के भ्रम से मुक्ति पाने के लिए अविद्या का नाश और वासनाओं का त्याग करना ही एकमात्र मार्ग है।

संक्षेप में, योग वासिष्ठ यह शिक्षा देता है कि हमारा मन ही अपनी चेतना के स्पंदन से संकल्पनाओं को जन्म देता है, और उन्हीं संकल्पनाओं के कारण यह पूरा जगत एक भ्रम या मिथ्या आभास के रूप में प्रकट होता है। वास्तविक सत्ता केवल ब्रह्म (आत्मसत्ता) है, जो नित्य, शुद्ध, और अद्वैत है, और जिसमें जगत का कोई भेद नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने से इस भ्रम का अंत हो जाता है।