Monday, June 30, 2025

मन को नियंत्रित करने के उपाय

 मन को नियंत्रित करना और आत्म-ज्ञान प्राप्त करना परस्पर जुड़े हुए हैं और इन दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए "योग वशिष्ठ महारामायण" में कई गहन तरीके बताए गए हैं।

मन की प्रकृति और उसे नियंत्रित करने के तरीके: स्रोतों के अनुसार, मन की प्रकृति अत्यंत सूक्ष्म है और यह भ्रम से उत्पन्न हुआ है। यह आकाश के समान अछूता और केवल एक नाम मात्र है, इसका वास्तव में कोई रूप नहीं है, और यह आत्मा से उत्पन्न नहीं हुआ है। मन ही सभी संकल्पों का कारण है, और यह इच्छाओं से पुष्ट होता है, जिसके कारण जन्म और मृत्यु जैसे विकार उत्पन्न होते हैं। यह जड़ और चेतन के बीच की गाँठ है, जो दोनों अवस्थाओं में डोलता रहता है। मन को परम शत्रु कहा गया है जो दुःख का कारण बनता है।

मन को नियंत्रित करने के प्रमुख तरीके इस प्रकार हैं:

  • विचार (गहन चिंतन और आत्म-अन्वेषण): मन अविचार से सिद्ध होता है और विचार करने से नष्ट हो जाता है। यह मिथ्या ज्ञान को दूर करता है और मन के लिए औषधि के समान है। वशिष्ठजी कहते हैं कि मन को विवेक रूपी औषधि से शांत करना चाहिए।

  • सत्सँग (सज्जनों का संग): आत्म-ज्ञान प्राप्त करने और भ्रम को दूर करने के लिए सज्जनों का संग (सत्सँग) परम औषधि है।

  • सत्-शास्त्र विचार (श्रेष्ठ शास्त्रों का अध्ययन): सत्संग के साथ-साथ, आत्म-ज्ञान और भ्रम-निवारण के लिए सत्-शास्त्रों का विचार (चिंतन) अत्यंत महत्वपूर्ण है।

  • वैराग्य (विरक्ति/अनासक्ति): मन रूपी शत्रु को वैराग्य रूपी तलवार से मारना चाहिए। दृश्य (अनुभवजन्य संसार) से वैराग्य होने पर वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं और शांति प्राप्त होती है।

  • संकल्प त्याग (संकल्पों का त्याग): जब संकल्पों का त्याग किया जाता है, तो मन स्वतः ही नष्ट हो जाता है। मन में उठने वाली कल्पनाओं और संकल्पों का त्याग करें।

  • वासना क्षय (इच्छाओं का नाश): वासनाएँ ही बंधन का कारण हैं; वासनाओं से मुक्त होने पर कोई बंधन नहीं रहता। जब वासनाएँ शांत होती हैं, तो मन स्वतः ही निवृत्त हो जाता है। आत्म-विचार से ज्ञान होता है, जिससे दृश्य का अभाव होता है और वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं।

  • संतोष (संतुष्टि): संतोष मन को वश में करता है, जिससे नित्य, उदयरूप, निरीह, परम पावन, निर्मल, सम, अनंत और सभी विकारों से रहित आत्मपद प्राप्त होता है।

  • चित्त का उपशम (चित्त की शांति): चित्त का उपशम करना ही कल्याण का एकमात्र उपाय है। जब चित्त दृश्य को देखना बंद कर देता है, तब परम शांत ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है। जब चित्त अचल होता है, तो अविद्या (अज्ञान) नष्ट हो जाती है।

  • अभावनातत्त्व (भावों का अभाव करना): जगत को असत्य जानकर उसके प्रति अभावना का अभ्यास करें।

  • मन के निरीक्षक होना (मन का पर्यवेक्षक बनना): अपने मन के निरीक्षक बनें।

आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के तरीके: स्रोतों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्म-ज्ञान केवल ज्ञान से ही प्राप्त होता है, स्नान, दान या तप आदि बाहरी कर्मों से नहीं।

आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के प्रमुख तरीके इस प्रकार हैं:

  • ज्ञान (Knowledge): "श्री योगवाशिष्ठ महारामायण" को महाबोध (महान ज्ञान) का परम शास्त्र बताया गया है।

  • विचार (गहन चिंतन/अन्वेषण): यह आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का मुख्य कारण है और इससे संसार-भ्रम नष्ट होता है। यह विचार रूपी मति ही मिथ्या ज्ञान को शांत करती है। रात को विचारपूर्वक व्यतीत करना भी महत्वपूर्ण बताया गया है।

  • सत्सँग और सत्-शास्त्र विचार (सज्जनों का संग और श्रेष्ठ शास्त्रों का अध्ययन): ये आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारण हैं।

  • पुरुषार्थ (आत्म-प्रयास): उस देव (परमात्मा) की प्राप्ति किसी तप से नहीं होती, केवल अपने पौरुष (पुरुषार्थ) और प्रयत्नों से ही होती है। जो व्यक्ति श्रद्धा सहित योगवाशिष्ठ को सुनता और नित्य विचार करता है, उसकी बुद्धि उदार होकर परमबोध को प्राप्त होती है।

  • श्रुत विचार (सुने हुए ज्ञान पर विचार): श्रुत विचार द्वारा अपने परम स्वभाव में स्थित होने पर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी उस पुरुष पर दया करते हैं और कहते हैं कि यह पुरुष परब्रह्म हो गया है।

  • दृढ़ अभ्यास (दृढ़ता से अभ्यास): सत्संगति और सत्-शास्त्र परायण होकर जब इनके अर्थ में दृढ़ अभ्यास किया जाता है, तो कुछ ही दिनों में परमपद की प्राप्ति होती है। आत्म-स्वरूप का दृढ़ अभ्यास करने से भ्रम शांत हो जाता है और आत्मा का साक्षात्कार होता है।

  • अहंभाव का त्याग (अहंकार/अस्मिता का त्याग): जब अहंभाव (जीवत्वभाव) नष्ट हो जाता है, तब जन्मों की संपदा नष्ट हो जाती है और केवल शुद्ध स्वरूप शेष रहता है। तब स्थावर-जंगम (स्थिर और गतिशील) संपूर्ण जगत आत्मरूप प्रतीत होता है।

  • दृश्य का अभाव (दृश्यमान संसार का अभाव): जब दृश्य का अत्यंत अभाव जाना जाता है और दृढ़ वैराग्य किया जाता है, तो आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है और भ्रम शांत हो जाता है। जब दृश्य का अभाव हो जाता है, तो द्रष्टा भी शांत हो जाता है।

  • चित्त का उपशम (चित्त की शांति): जब चित्त का उपशम होता है, तब नित्य, शांत ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है।

  • भावना (दृढ़ धारणा/संकल्प): चित्त संवित् में जैसा स्पंद दृढ़ होता है, वैसी ही सिद्धि होती है। जैसी भावना दृढ़ होती है, वैसा ही वह पुरुष हो जाता है। जब चित्त में यह दृढ़ संकल्प होता है कि 'सब ब्रह्म है', तब मुक्ति होती है। बाहरी विषयों की भावना छोड़कर भीतर आत्मा की भावना करने से आत्मपद प्राप्त होता है।

  • ज्ञान की सात भूमिकाएँ: आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की सात भूमिकाएँ बताई गई हैं:

    1. शुभेच्छा: यह प्रारंभिक अवस्था है, जहाँ व्यक्ति संसार के प्रवाह को देखकर कल्याण की इच्छा करता है और सत्संग तथा शास्त्र विचार की ओर प्रवृत्त होता है।

    2. विचारणा: इसमें शास्त्र और सज्जनों के उपदेशों पर निरंतर विचार करना शामिल है, जिससे शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है।

    3. इसके बाद की भूमिकाएँ व्यक्ति को धीरे-धीरे अज्ञान से मुक्त करती हैं। छठी भूमिका में भेद कल्पना का अभाव हो जाता है और व्यक्ति अपने स्वरूप में दृढ़ हो जाता है।

    4. सातवीं भूमिका को तुरीय कहते हैं, जो जीवनमुक्त की अवस्था है। जीवनमुक्त पुरुष सुख-दुःख में आसक्त नहीं होते और शांत भाव से अपने व्यवहारिक कर्म करते हैं। इसके परे तुरीयातीत पद होता है, जो विदेहमुक्त की अवस्था है।

संक्षेप में, मन को नियंत्रित करने और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए मुख्य मार्ग विचार (आत्म-अन्वेषण), सत्संग, सत्-शास्त्र अध्ययन, वैराग्य, वासनाओं का क्षय और चित्त का उपशम हैं, जो अंततः आत्मा में दृढ़ स्थिति की ओर ले जाते हैं।


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