Monday, June 30, 2025

चेतना ही सभी की स्रोत है

 "चेतना ही सभी की स्रोत है - ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय; द्रष्टा, दर्शन और दृश्य; कर्ता, करण और कर्म" है, जो कि योग वशिष्ठ के केंद्रीय सिद्धांतों में से एक है। यह बताता है कि परम चेतना ही हर चीज़ का मूल है, जिसमें जानने वाला (ज्ञाता), ज्ञान और जो जाना जाता है (ज्ञेय); देखने वाला (द्रष्टा), देखना (दर्शन) और जो देखा जाता है (दृश्य); और करने वाला (कर्ता), क्रिया (करण) और कर्म (कार्य) शामिल हैं।


इस अवधारणा को विस्तार से समझने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है:


चेतना की प्रकृति (Nature of Consciousness):


स्रोत के अनुसार, ब्रह्म (जिसे परम चेतना भी कहा जाता है) एक सर्वव्यापी, अनादि, अनंत, अपरिवर्तनीय, निर्मल और परम सत्ता है। यह सर्वज्ञता का मूल स्रोत है और सभी तत्वों और चेतन-अचेतन प्राणियों का आधार है, जिसमें सभी चमकते हैं, मौजूद रहते हैं, और अंततः विलीन हो जाते हैं।


यह परम चेतना स्वयं में आनंद का सागर है और सभी प्राणियों का जीवन है।


यह विचार और समझ से परे है, परम शांति और सर्वव्यापी है।


यह ज्ञान का प्रकाश है और अपनी सहज शक्ति से स्वयं को अभिव्यक्त करती है। यह अविभाज्य है।


द्वैत का उदय (Emergence of Duality):


जो कुछ भी संसार में प्रकट होता है, वह परम चेतना में ही स्थित है। स्रोतों के अनुसार, यह ब्रह्मांड एक भ्रम (माया) है और इसका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं है।


यह मन का ही एक रूप है।


"मैं" (अहंकार) और "यह" (जगत) की भ्रमित करने वाली अवधारणाओं के कारण ब्रह्मांड अस्तित्व में आता हुआ प्रतीत होता है, जबकि इसका वास्तव में सृजन नहीं हुआ है।


जब परम चेतना स्वयं को एक वस्तु के रूप में जानती है, तो इसे जीव (व्यक्तिगत आत्मा) के रूप में जाना जाता है। मन, जो अहंकार से जुड़ता है, मौलिक सिद्धांतों की धारणाएं उत्पन्न करता है, जिससे अनुभवजन्य दुनिया बनती है।


वास्तव में, अहंकार और गैर-अहंकार (देखने वाला और देखा गया) केवल कल्पना के राक्षसी रूप हैं। जब तक ये धारणाएं मौजूद रहती हैं, मुक्ति संभव नहीं है।


सृष्टि एक प्रतिबिंब या कल्पना के रूप में (Creation as a Reflection or Imagination):


संसार को चेतना का एक प्रतिबिंब (reflection) या छाया (shadow) कहा गया है। जैसे एक दर्पण वस्तुओं के प्रतिबिंबों को दर्शाता है, वैसे ही शुद्ध चेतना अपने भीतर सभी संसारों की छवियों को दर्शाती है।


यह जादुई दृश्य या स्वप्न में देखे गए शहर के समान है, जो जागने पर असत्य साबित होता है।


जैसे सोने से बने कंगन को तब तक सोना नहीं देखा जाता जब तक वह कंगन के रूप में देखा जाता है, वैसे ही जब संसार को वास्तविक मान लिया जाता है, तो आत्म-तत्व नहीं देखा जाता।


विचार और इच्छाएं ही संसार की वास्तविकता का अनुभव कराती हैं। मन ही संसार का निर्माता है और मन ही परम व्यक्ति है। जो मन द्वारा किया जाता है, वही कर्म है, शरीर द्वारा किया गया कर्म नहीं है।


मुक्ति का मार्ग (Path to Liberation):


जब विचारों का जाल समाप्त हो जाता है, तो अपनी स्वाभाविक अवस्था ही शेष रहती है।


सत्य का ज्ञान इस पूछताछ से प्राप्त होता है; ऐसे ज्ञान से स्वयं में शांति आती है; और फिर परम शांति उत्पन्न होती है।


इच्छाओं का त्याग मन को पिघला देता है और चेतना के मुख से अज्ञान के कोहरे को दूर कर देता है।


यह महसूस करना कि "यह सब अवास्तविक है, जिसमें मैं भी शामिल हूँ" दुःख से मुक्ति दिलाता है, या "यह सब वास्तविक है, जिसमें मैं भी शामिल हूँ" यह समझना भी दुःख से मुक्ति दिलाता है।


जब व्यक्तिगत अहंकार की भावना मन से मिट जाती है, तो स्वार्थ और स्वार्थी भावनाएं हृदय से स्वयं ही गायब हो जाती हैं, और मृत्यु और नरक के भय के साथ-साथ स्वर्ग और मुक्ति की इच्छाओं का भी अंत हो जाता है।


जो व्यक्ति स्वयं को ब्रह्म से भिन्न नहीं मानता, वह अहंकार के भ्रम को त्याग देता है और परम शांति प्राप्त करता है।

संक्षेप में, योग वशिष्ठ सिखाता है कि जो कुछ भी हम ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय, द्रष्टा, दर्शन, दृश्य, कर्ता, करण और कर्म के रूप में अनुभव करते हैं, वह सब अकेली, अविभाज्य परम चेतना से ही उत्पन्न होता है। ये द्वैत केवल मन की कल्पनाएं और अज्ञान के कारण उत्पन्न होने वाले भ्रम हैं, और उनकी वास्तविक प्रकृति चेतना के समान ही है। इस मौलिक सत्य को पहचानना ही ज्ञान और मुक्ति की ओर ले जाता है।


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