Monday, July 7, 2025

श्री महाप्रभुजी वल्लभ का जीवन और दर्शन

"श्री महाप्रभुजी: वल्लभ का जीवन और दर्शन" नामक स्रोत श्री वल्लभाचार्यजी के जीवन और शिक्षाओं का विवरण प्रस्तुत करता है। यह पाठ वल्लभाचार्य के जन्म के समय की उथल-पुथल भरी परिस्थितियों पर प्रकाश डालता है, जो धार्मिक अनिश्चितता और बाहरी आक्रमणों से चिह्नित थीं। इसमें उनके प्रारंभिक जीवन, शिक्षा, और तत्कालीन शासकों के साथ उनके दार्शनिक वाद-विवादों के बारे में बताया गया है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें 'आचार्य' की उपाधि मिली। इसके अतिरिक्त, यह स्रोत पुष्टिमार्ग की स्थापना और पूरे भारत में इसके संदेश को फैलाने के लिए उनकी व्यापक यात्राओं का वर्णन करता है। अंत में, यह वल्लभाचार्य के विभिन्न साहित्यिक कार्यों का उल्लेख करता है और उनके सांसारिक जीवन को त्यागने और अंततः स्वर्गारोहण की व्याख्या करता है, जिसे 'असुर व्यामोह लीला' के रूप में जाना जाता है।

श्री वल्लभाचार्य और उनके शिक्षाओं का अवलोकन

यह ब्रीफिंग दस्तावेज़ श्री वल्लभाचार्य और उनके द्वारा प्रतिपादित पुष्टिमार्ग के मुख्य सिद्धांतों और महत्वपूर्ण विचारों का विस्तृत अवलोकन प्रदान करता है, जो दिए गए विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है।


1. श्री वल्लभाचार्य का जीवन और महत्व

श्री वल्लभाचार्य, एक महान हिंदू आचार्य और वैष्णव संप्रदाय के संस्थापक, 16वीं शताब्दी में ऐसे समय में अवतरित हुए जब हिंदू धर्म और संस्कृति पर 'कट्टरपंथी मुहम्मदन' आक्रमणों का खतरा मंडरा रहा था। उन्हें 'बाला सरस्वती' और 'महाप्रभु' जैसे सम्मानजनक उपाधियों से नवाजा गया, जो उनकी विद्वत्ता और दिव्य व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। उन्होंने 'ब्रह्म-संबंध' की अवधारणा को स्थापित करके पुष्टिमार्ग का 'दिव्य अनुग्रह का मार्ग' आरंभ किया, जो आत्मा और परमात्मा के बीच एक नवीनीकृत संबंध को दर्शाता है।

  • पुष्टिमार्ग का जन्म: 'पवित्र एकादशी' (श्रावण शुक्ल 11, संवत् 1549) को श्री वल्लभाचार्य ने श्री कृष्ण के समक्ष 'गद्य मंत्र' की व्याख्या की। इस अवसर को पुष्टिमार्ग के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है।

  • ब्रह्म-संबंध: यह आत्मा का ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और सेवा भाव स्थापित करता है। "ब्रह्म-संबंध का अर्थ है, आत्मा और भगवान के बीच एक नवीन संबंध की स्थापना जिसमें आत्मा भगवान को अपना स्वामी स्वीकार करती है।" (जगद्गुरु श्री वल्लभाचार्य महाप्रभुजी.pdf)। यह संबंध जाति, पंथ, रंग, धन, आयु या लिंग के भेद के बिना किसी के भी द्वारा लिया जा सकता है।

  • अंतिम उपदेश: अपने जीवन के अंत में, श्री वल्लभाचार्य ने अपने पुत्रों और शिष्यों को उपदेश दिया कि वे 'सांसारिक विषयों में न फँसें' और 'ईश्वर कृष्ण' में अपनी श्रद्धा बनाए रखें। "अगर आप मुझ पर विश्वास करते हैं, तो आप मेरी देखभाल और संरक्षण में रहेंगे और किसी भी तरह की विफलता का सामना नहीं करना पड़ेगा।" (जगद्गुरु श्री वल्लभाचार्य महाप्रभुजी.pdf)।


2. पुष्टिमार्ग के मूलभूत सिद्धांत

पुष्टिमार्ग, शुद्धाद्वैत दर्शन पर आधारित है, जो माया को वास्तविक मानता है, लेकिन विश्व को ईश्वर के अंश के रूप में सत्य मानता है। यह 'पुष्टि' (दिव्य अनुग्रह) पर विशेष बल देता है, जिसे सर्वोच्च आनंद प्राप्त करने का सबसे शक्तिशाली और अचूक साधन माना जाता है।

  • भगवान कृष्ण का स्वरूप: श्री वल्लभाचार्य के अनुसार, भगवान कृष्ण सर्वोच्च ब्रह्म हैं। उनका शरीर 'आनंदमय' या पूर्ण आनंद से भरा है, न कि मानवीय प्रकृति से।

  • भक्ति का महत्व: पुष्टिमार्ग में भक्ति को मोक्ष प्राप्त करने का मुख्य साधन माना जाता है। "जो कोई भी एकनिष्ठ भक्ति के माध्यम से मेरे इस ज्ञान और रूप को जानता है, वह मुझे प्राप्त करता है।" (महाप्रभु वल्लभाचार्य.pdf)।

  • शरण और समर्पण: पुष्टिमार्ग में भगवान की शरण लेना और अपना सब कुछ उन्हें समर्पित करना महत्वपूर्ण है। 'नवरात्नम' ग्रंथ में कहा गया है: "भगवान के भक्तों को यह चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह अपनी इच्छा से सब कुछ करेंगे।" (नवरात्नम-पंचटिकभी.pdf)। यह भक्तों को भगवान पर पूर्ण विश्वास रखने का उपदेश देता है।

  • सेवा: भगवान की सेवा पुष्टिमार्ग का केंद्रीय अभ्यास है। यह शारीरिक, मानसिक और वाणी से होनी चाहिए। 'निरोध लक्षण' में कहा गया है कि मन को भगवान की सेवा में लगाना ही 'मन-नियंत्रण' है। "चित्त को श्री कृष्ण में लगाना यह सेवा है।" (16 वर्क्स ऑफ श्री वल्लभाचार्य - श्री माधव शर्मा.pdf)।

  • प्रसाद का उपभोग: पुष्टिमार्ग में, भगवान को अर्पित की गई वस्तुओं का उपभोग करना महत्वपूर्ण है। इन वस्तुओं को अपनी संपत्ति के रूप में नहीं, बल्कि भगवान के प्रसाद के रूप में स्वीकार करना चाहिए। "निवेदन की गई वस्तुओं को भगवान के भोग के लिए उपयोग करने के बाद, उनका प्रसाद के रूप में स्वयं उपभोग करना उचित है, क्योंकि यह दास-धर्म है।" (पुष्टि लिटिगेशन.pdf)।


3. श्री वल्लभाचार्य के प्रमुख ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्य ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जो उनके दर्शन और शिक्षाओं को स्पष्ट करते हैं। इनमें से प्रमुख हैं:

  • षोडश ग्रंथ: यह 16 छोटे ग्रंथों का संग्रह है, जो पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों को समझने में सहायक हैं। इसमें 'श्री यमुनाष्टकम', 'बालबोध', 'सिद्धांत मुक्तावली', 'सिद्धांत रहस्य', 'नवरत्नम', 'विवेकधैर्याश्रय', 'श्री कृष्णाश्रय', 'चतुःश्लोकी', 'भक्तिवर्धिनी', 'जलभेद', 'पद्मपुष्पांजलि', 'संन्यास-निर्णय', 'निरोध लक्षण' और 'सेवा फल' शामिल हैं।

  • सुबोधिनी: यह श्रीमद्भागवत पुराण पर उनकी विस्तृत संस्कृत टीका है।

  • अणुभाष्य: यह बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर उनकी टिप्पणी है, जिसे शुद्धाद्वैत के एक प्रमुख कार्य के रूप में जाना जाता है।


4. महत्वपूर्ण अवधारणाएँ और विचार

  • माया और जगत: श्री वल्लभाचार्य माया को मिथ्या नहीं मानते, बल्कि इसे भगवान की ही एक शक्ति मानते हैं। जगत को भी ब्रह्म का ही सृजन माना जाता है, इसलिए वह सत्य है।

  • गुरु का महत्व: पुष्टिमार्ग में गुरु को 'अंधकार और अज्ञान का निवारण करने वाला' और 'ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम' माना जाता है।

  • समर्पण के लाभ: समर्पण से सभी दोषों का निवारण होता है और भक्त को भगवान के अनुग्रह का अनुभव होता है।

  • विभिन्न मार्ग: श्री वल्लभाचार्य ने स्वीकार किया कि विभिन्न संप्रदाय भगवान के आदेश से विभिन्न प्रकार के लोगों के लिए स्थापित किए गए हैं, और इसलिए उनके बीच कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए।

  • कृष्ण ही परम आश्रय: 'श्री कृष्णाश्रय' ग्रंथ में कहा गया है कि कलियुग में सभी प्रकार की बाधाओं और पापमय वातावरण में, श्री कृष्ण ही एकमात्र आश्रय हैं। "म्लेच्छाक्रांतेषु देशेषु पापैकनिलेयेषु च। सतीपीडाव्यलोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम।।" (श्री कृष्णाश्रयस्तोत्रम.pdf)।


5. पुष्टिमार्ग के व्यवहारिक पहलू

  • आंतरिक और बाह्य शुद्धि: पुष्टिमार्ग 'शुचम्' (पवित्रता) पर जोर देता है, जिसमें आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की पवित्रता शामिल है। "दान से पवित्रता, न कि कंगन से; ज्ञान से पवित्रता, न कि चंदन से।" (ई मैगज़ीन 4वीं एडिशन पुष्टिमार्ग.pdf)।

  • अहंकार का त्याग: अहंकार और 'मेरा-पन' (ममता) का त्याग करना आवश्यक है, क्योंकि ये सांसारिक बंधन के मूल कारण हैं।

  • निष्कपट सेवा: भगवान की सेवा को बिना किसी स्वार्थ या दिखावे के करना चाहिए।

  • तीर्थयात्रा: पुष्टिमार्ग में विभिन्न तीर्थ स्थलों की यात्रा का भी महत्व है, विशेष रूप से व्रजभूमि की।

संक्षेप में, श्री वल्लभाचार्य का पुष्टिमार्ग भगवान कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और पूर्ण समर्पण पर केंद्रित है, जिसका उद्देश्य आत्मा को दिव्य अनुग्रह के माध्यम से भगवान के साथ शाश्वत संबंध स्थापित करने में मदद करना है। यह मार्ग जाति, पंथ या लिंग के बावजूद सभी के लिए खुला है, जो इसे एक सार्वभौमिक और समावेशी दर्शन बनाता है।


6. पुष्टिमार्ग क्या है और इसकी स्थापना किसने की?

पुष्टिमार्ग भगवान श्री कृष्ण की दिव्य कृपा (पुष्टि) प्राप्त करने का मार्ग है। इसकी स्थापना जगद्गुरु श्री वल्लभाचार्य महाप्रभुजी ने की थी। यह मार्ग विशेष रूप से उन आत्माओं के लिए है जो भगवान की भक्ति में लीन होकर सांसारिक मोह और दुखों से मुक्ति पाना चाहते हैं। यह 'ब्रह्म-संबंध' के माध्यम से आत्मा और भगवान के बीच एक नए संबंध की स्थापना पर जोर देता है, जिसमें भक्त स्वयं को भगवान का सेवक मानता है और पूरी तरह से भगवान को समर्पित कर देता है। श्री वल्लभाचार्यजी ने इस मार्ग के सिद्धांतों को समझाने के लिए 'सिद्धांत रहस्य' जैसे कई ग्रंथों की रचना की।


7. ब्रह्म-संबंध का महत्व क्या है?

ब्रह्म-संबंध पुष्टिमार्ग में पूर्ण समर्पण और स्वयं को भगवान को समर्पित करने का एक साधन है। इसका अर्थ है आत्मा और भगवान के बीच एक नए संबंध की स्थापना, जिसमें आत्मा भगवान को स्वामी और स्वयं को उनका दास स्वीकार करती है। इस संबंध से, आत्मा सभी पापों से मुक्त हो जाती है, बशर्ते वह समर्पण की प्रतिज्ञा के प्रति निष्ठावान रहे और भगवान की कृपा में बढ़ती रहे। ब्रह्म-संबंध के माध्यम से, भक्त अपनी सभी संपत्ति, शरीर, मन और बुद्धि को भगवान श्री कृष्ण को समर्पित कर देता है। इसका तात्पर्य यह है कि जो कुछ भी भक्त का है, वह वास्तव में भगवान का है और भक्त उसका केवल एक न्यासी है, जिसे भगवान की सेवा में उपयोग किया जाना चाहिए।


8. श्री वल्लभाचार्यजी ने अपने शिष्यों को क्या अंतिम संदेश दिया था?

अपने जीवन के अंतिम दिनों में, श्री वल्लभाचार्यजी ने हनुमान घाट पर मौन व्रत ले लिया था। जब उनके पुत्रों ने उनसे अंतिम संदेश देने का अनुरोध किया, तो उन्होंने रेत पर लिखा: "मेरे अंतिम शब्दों को सुनो। मुझे एक ऐसा समय आता दिख रहा है जब तुम भगवान को भूलकर सांसारिक बातों में लीन हो जाओगे। संभावना है कि तुम अपनी वासनाओं के गुलाम बन जाओगे जो तुम्हें भक्ति के मार्ग से दूर कर देंगी। भगवान की सेवा करने के बजाय, जो तुम्हारा प्राथमिक कर्तव्य है, तुम अपना समय और ऊर्जा व्यर्थ के कामों में बर्बाद करोगे। लेकिन यदि तुम मेरी सलाह का पालन करते हो, तो भगवान तुम्हें नहीं भूलेंगे। तुम्हें यह मानना चाहिए कि कृष्ण ही हमारे भगवान हैं और उन पर अपनी आस्था कभी कम न करना, तब वह निश्चित रूप से तुम्हारी रक्षा करेंगे। तुम्हें उन्हें अपने जीवन का सब कुछ मानना चाहिए। तुम्हारा परम कल्याण उनकी सेवा करने में है, जिसे तुम्हें पूरे दिल, मन और आत्मा से करना चाहिए। उनकी रक्षा पर भरोसा रखो। सभी विचारों, शब्दों और कर्मों में उन्हें हमेशा याद रखो।"

इसके बाद, भगवान कृष्ण स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने एक श्लोक में वल्लभाचार्यजी के संदेश को पूर्ण करते हुए लिखा: "यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास है, तो तुम मेरी देखभाल और संरक्षण में रहोगे और किसी भी प्रकार की असफलता का सामना नहीं करोगे। अपने भविष्य से संबंधित दुखों और चिंताओं से मुक्त रहो, क्योंकि तुम मेरे हाथों में सुरक्षित हो। तुम्हें मुझे केवल गोपियों के प्रेम से प्रेम करना चाहिए। यदि तुम ऐसा करते हो तो तुम्हें निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त होगा। यही मेरे साथ मिलन का एकमात्र साधन है, जिससे तुम अपने मूल दिव्य स्वभाव को पुनः प्राप्त करोगे। सांसारिक बातों पर अपने विचार मत लगाओ। मुझ पर समर्पित रहो और अपने सभी साधनों से 'मेरी' सेवा करो।"


9. पुष्टिमार्ग में वैराग्य (संन्यास) का दृष्टिकोण क्या है?

पुष्टिमार्ग में संन्यास या वैराग्य का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति को संसार या गृहस्थ जीवन का त्याग करना चाहिए। इसके बजाय, यह शिक्षा दी जाती है कि व्यक्ति को अपनी सभी संपत्ति को भगवान का मानकर उन्हें समर्पित कर देना चाहिए और स्वयं को उनका न्यासी समझना चाहिए। सांसारिक इच्छाओं के लिए संपत्ति का उपयोग करना पाप माना जाता है; इसे केवल भगवान के उद्देश्यों के लिए ही उपयोग किया जाना चाहिए। पुष्टिमार्ग गृहस्थों के लिए है, जहाँ वे घर पर रहकर ही भगवान की सेवा कर सकते हैं। संन्यास-निर्णय ग्रंथ में इस बात पर जोर दिया गया है कि सच्चा वैराग्य मन में भगवान के प्रति दृढ़ आसक्ति और सांसारिक आसक्तियों का त्याग है, न कि शारीरिक रूप से संसार का त्याग।


10. भगवान श्री कृष्ण का स्वरूप पुष्टिमार्ग में कैसे वर्णित है?

पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण को सर्वोच्च देवता माना जाता है। उन्हें सदानंद, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सभी गुणों से परिपूर्ण बताया गया है। वे भौतिक शरीर से रहित हैं और उनका शरीर केवल आनंदमय है। पुष्टिमार्ग में श्री कृष्ण को ही ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के रूप में स्वीकार किया गया है, और उनके सभी अवतारों को उनकी ही लीला या अभिव्यक्तियाँ माना गया है। उन्हें ही ब्रह्मांड का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता कहा गया है। यह मार्ग इस बात पर जोर देता है कि श्री कृष्ण स्वयं भगवान हैं और अन्य सभी देवता उनके ही अंश या अभिव्यक्तियाँ हैं।


11. भगवान की भक्ति में कौन से मुख्य सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं?

भगवान की भक्ति में कई सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं:

  • सर्वात्मभाव से भगवान को भजना: अपने पूरे अस्तित्व के साथ भगवान श्री कृष्ण को भजना चाहिए। यह अपना स्वयं का धर्म है और किसी अन्य धर्म का पालन करने की आवश्यकता नहीं है।

  • भगवत्सेवा: श्री कृष्ण की सेवा को सबसे उत्तम और परम फल के रूप में माना जाता है। यह मानसिक सेवा सबसे महत्वपूर्ण है, जिसमें मन को श्री कृष्ण में लगाना शामिल है।

  • शरण: दुखों, पापों, भय, या अन्य किसी भी स्थिति में श्री हरि का आश्रय लेना चाहिए। भगवान हर परिस्थिति में रक्षक हैं।

  • विवेक और धैर्य: भगवान श्री हरि की इच्छा के अनुसार ही सब कुछ होता है, इस पर विश्वास रखते हुए विवेक और धैर्य बनाए रखना चाहिए।

  • मोह का त्याग: सांसारिक मोह से मुक्त होकर सभी को भगवान कृष्ण के प्रति समर्पित करना चाहिए।


12. पुष्टिमार्ग में दीक्षा (नाम दीक्षा और ब्रह्म-संबंध) का क्या महत्व है?

पुष्टिमार्ग में दीक्षा का अत्यंत महत्व है। आचार्य श्री वल्लभाचार्य अपने शिष्यों को दो प्रकार से दीक्षा देते थे:

  • नाम दीक्षा: यह साधारण वैष्णवों के लिए है, जिसमें कंठी (मोतियों की माला) बांधी जाती है।

  • ब्रह्म-संबंध: यह उन अनुयायियों के लिए है जो सेवा पूजा पद्धति को भक्तिपूर्वक अपनाना चाहते हैं। ब्रह्म-संबंध के माध्यम से, भक्त अपनी सभी संपत्ति को भगवान को समर्पित कर देता है और भगवान को स्वामी के रूप में स्वीकार करता है। शास्त्रों में कहा गया है कि दीक्षा के बिना किया गया कोई भी कार्य व्यर्थ है, और दीक्षाहीन व्यक्ति पशु योनि प्राप्त करता है।


13. पुष्टिमार्ग में धर्म-संप्रदायों के प्रति क्या दृष्टिकोण है?

पुष्टिमार्ग में सभी धर्म-संप्रदायों को भगवान की आज्ञा से उत्पन्न माना जाता है, जो विभिन्न रुचियों और स्वभाव वाले लोगों के लिए हैं। इसलिए, किसी भी संप्रदाय के साथ संघर्ष, विरोध या प्रतिद्वंद्विता का कोई प्रश्न नहीं होना चाहिए। सभी संप्रदाय अपने-अपने तरीके से पूर्ण, आवश्यक और अच्छे हैं। एक व्यक्ति को वही संप्रदाय चुनना चाहिए जो भगवान को प्राप्त करने के अपने पसंदीदा मार्ग को अच्छी तरह से सिखाता हो। हालांकि, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि चुना गया संप्रदाय वेदों आदि हिंदू सनातन धर्म के सिद्धांतों के विपरीत न हो, और एक समय में एक से अधिक संप्रदायों का पालन नहीं करना चाहिए।


पुष्टिमार्ग: श्री वल्लभाचार्य के सिद्धांतों की समीक्षा

यह अध्ययन मार्गदर्शिका श्री वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित पुष्टिमार्ग के प्रमुख सिद्धांतों, अवधारणाओं और ऐतिहासिक संदर्भों की आपकी समझ की समीक्षा करने के लिए डिज़ाइन की गई है। इसमें उनके जीवन, उनके द्वारा रचित सोलह ग्रंथ (षोडशग्रंथ), और वैष्णव धर्म के भीतर उनके दर्शन की मुख्य शिक्षाएँ शामिल हैं।


भाग 1: विस्तृत अध्ययन मार्गदर्शिका

श्री वल्लभाचार्य का जीवन और प्रभाव

  • प्रारंभिक जीवन और शिक्षा:
  • श्री वल्लभाचार्य का जन्म (संवत् 1535) एक ऐसे समय में हुआ था जब हिंदू धर्म और संस्कृति को मुस्लिम शासकों के हमलों से खतरा था। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 3)

  • उनके पिता लक्ष्मण भट्ट एक विद्वान पंडित थे, और वल्लभाचार्य ने बचपन से ही असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखाई। उन्होंने वेद, उपनिषद और दर्शन के छह प्रणालियों का अध्ययन किया। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 6)

  • पांच साल की उम्र में, उन्होंने "रामकृष्ण मुकुंद मधो" जैसे दिव्य नामों का ऊंचे स्वर में उच्चारण करना शुरू कर दिया, जिससे उनके आसपास के लोग विस्मित हो गए। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 5)

  • बनारस में उन्होंने विभिन्न शैव और वैष्णव धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और भक्ति के प्रति स्वाभाविक झुकाव विकसित किया। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 9)

  • अखिल भारतीय यात्राएँ और दार्शनिक विजय:

  • उन्होंने पूरे भारत की कई तीर्थयात्राएँ कीं, जहाँ उन्होंने विभिन्न मतों और विश्वासों के लोगों से संपर्क किया। (Shri Vallabhacharya and His Teachishings by Chimanlal M Vaidya, p. 14)

  • विद्यानगर में, उन्होंने शैव और वैष्णव संप्रदायों के आचार्यों के साथ एक बहस में भाग लिया, जहाँ उन्होंने वेदों और भक्ति मार्ग पर अपने विचारों का प्रभावी ढंग से प्रचार किया। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 27)

  • उनकी अकाट्य दलील और व्यापक ज्ञान ने उन्हें "बाल सरस्वती" (सरस्वती का अवतार) और "वाक्पति" (वाणी का स्वामी) के रूप में प्रशंसा दिलाई। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 8)

  • राजा कृष्णदेव ने उनके सम्मान में 'कनकाभिषेक' समारोह का आयोजन किया, जिसमें उन्हें सोने और मूल्यवान वस्तुओं से सम्मानित किया गया, लेकिन वल्लभाचार्य ने सांसारिक धन के प्रति उदासीनता दिखाई। (Shrimad-Vallabhacharya, p. 1-2)

  • पुष्टिमार्ग की स्थापना:
  • गोकुल में, भगवान श्रीकृष्ण स्वयं वल्लभाचार्य के सामने प्रकट हुए और उन्हें 'गद्य मंत्र' दिया, जो 'ब्रह्म-संबंध' का सार था। यह घटना संवत् 1549 के श्रावण शुक्ल एकादशी को हुई थी, जिसे 'पवित्र एकादशी' और पुष्टिमार्ग के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। (JagadGuru-Shree-Vallabhacharya-Mahaprabhuji, p. 3)

  • 'ब्रह्म-संबंध' आत्मा और भगवान के बीच एक नए संबंध की स्थापना है, जिसमें आत्मा भगवान के दास के रूप में सेवा स्वीकार करती है और सभी पापों से मुक्त हो जाती है। (JagadGuru-Shree-Vallabhacharya-Mahaprabhuji, p. 3)

  • दामोदरदास हरसानी पहले वैष्णव थे जिन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया गया था। (JagadGuru-Shree-Vallabhacharya-Mahaprabhuji, p. 3)

  • वल्लभाचार्य ने ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र सहित सभी जातियों और लिंगों के लोगों को दीक्षा दी, जो इस मार्ग की समावेशिता को दर्शाता है। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 41)

  • अंतिम शिक्षाएँ और प्रस्थान:
  • 52 वर्ष की आयु में, उन्होंने संसार से विरक्ति ले ली और वाराणसी में हनुमान घाट पर मौन व्रत धारण किया। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 39)

  • उन्होंने अपने बेटों को यह अंतिम संदेश दिया कि उन्हें सांसारिक मोह से दूर रहना चाहिए और पूरी तरह से श्रीकृष्ण की सेवा में समर्पित रहना चाहिए। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 39)

  • भगवान कृष्ण स्वयं प्रकट हुए और वल्लभाचार्य के संदेश को एक श्लोक के रूप में पूरा किया, जिसमें गोपी प्रेम और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण के महत्व पर जोर दिया गया। (JagadGuru-Shree-Vallabhacharya-Mahaprabhuji, p. 4)

  • वल्लभाचार्य गंगा नदी में प्रवेश कर गए और एक चमकदार ज्योति के रूप में भगवान के साथ विलीन हो गए। (Shri Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 40)


पुष्टिमार्ग के दार्शनिक सिद्धांत

  • शुद्धाद्वैत दर्शन:

  • वल्लभाचार्य का दर्शन 'शुद्धाद्वैत' (शुद्ध अद्वैतवाद) के रूप में जाना जाता है, जो 'पुष्टि' (ईश्वरीय कृपा) पर जोर देता है। (Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 4)

  • वे माया के सिद्धांत को खारिज करते हैं जो दुनिया को भ्रमपूर्ण मानता है। शुद्धाद्वैत के अनुसार, ब्राह्मण त्रुटिरहित है, सभी गुणों से परिपूर्ण है, और भौतिक शरीर से रहित है। जगत ब्राह्मण की रचना है और सत्य है। (Shrimad-Vallabhacharya, p. 3)

  • जीव और जगत दोनों ब्राह्मण से विकसित हुए हैं और वास्तविक हैं। प्रत्येक आत्मा भगवान का एक हिस्सा है। (Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 16)

  • भगवान को 'विरुद्धा-धर्माश्रय' कहा जाता है, जिसका अर्थ है परस्पर विरोधी गुणों से युक्त होना। वे एक ही समय में सर्वव्यापी और परमाणु, निर्माता और सृष्टि, पारलौकिक और आसन्न हैं। (Mahaprbhu Vallabhacharya, p. 1)


  • भक्ति और सेवा का महत्व:

  • पुष्टिमार्ग में भक्ति ही भगवान को जानने और प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग है। वेदों, तपस्या, दान और यज्ञ जैसे अन्य साधन इस ज्ञान को प्राप्त करने में अपर्याप्त हैं। (Mahaprbhu Vallabhacharya, p. 1)

  • भगवान श्रीकृष्ण को सर्वोच्च देवता माना जाता है, और किसी अन्य देवता से तुलना करना सबसे बड़ा दोष है। (Shrimad-Vallabhacharya, p. 4)

  • सेवा का उद्देश्य भगवान को प्रसन्न करना है, स्वयं की व्यक्तिगत खुशी के लिए नहीं। भगवान की सेवा ही वास्तविक तपस्या है। (Shri Vallabhachariya, p. 3)

  • मानसी सेवा (मन से की गई सेवा) को शारीरिक और वित्तीय सेवा से भी श्रेष्ठ माना जाता है। (Excerpts from "16 Works of Shri Vallabhacharya - Sri Madhav Sharma.pdf", p. 26)


  • शरणागति और समर्पण:

  • 'शरणं मम' (भगवान श्रीकृष्ण मेरी शरण हैं) इस मार्ग का मूल सूत्र है। (Navratnam-Panchtikabhi, p. 69)

  • 'ब्रह्म-संबंध' में भक्त अपने सभी possessions और स्वयं को भगवान को समर्पित करता है, यह मानते हुए कि सब कुछ भगवान का है। यह समर्पण एक 'निवेदन' है, 'दान' या 'त्याग' से भिन्न है, क्योंकि इसमें कानूनी स्वामित्व का त्याग नहीं होता है, बल्कि भगवान के लिए उपयोग की घोषणा होती है। (Pusti Litigation, p. 27-28)

  • यह अवधारणा अहं और ममत्व को दूर करने में सहायक है, जिससे भक्त सांसारिक आसक्तियों से मुक्त हो जाता है। (Navratnam-Panchtikabhi, p. 65)

  • पुष्टि जीव और आसुरी जीव:

  • भगवान कृष्ण की भक्ति या मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव 'दिव्य' या 'पुष्टि' जीव कहलाते हैं। (Mahaprbhu Vallabhacharya, p. 1)

  • जो जीव भगवान की भक्ति या मुक्ति से वंचित रहते हैं, उन्हें 'प्रवाही' या 'आसुरी' (राक्षसी) जीव कहा जाता है। (Mahaprbhu Vallabhacharya, p. 1)

  • पुष्टिमार्ग विशेष रूप से पुष्टि जीवों के उत्थान के लिए है। (Mahaprbhu Vallabhacharya, p. 1)


षोडशग्रंथ (सोलह ग्रंथ)

श्री वल्लभाचार्य ने सोलह छोटे ग्रंथ (षोडशग्रंथ) लिखे, जो पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों को समझने में महत्वपूर्ण हैं। (Vallabhacharya and His Teachings by Chimanlal M Vaidya, p. 4) इनमें से कुछ प्रमुख ग्रंथ और उनकी विषय-वस्तु:

  1. श्री यमुनाष्टकम: श्री यमुनाजी की महिमा का वर्णन, जिन्हें पृथ्वी को शुद्ध करने वाली और भगवान की भक्ति प्रदान करने वाली माना जाता है। (Mahaprbhu Vallabhacharya, p. 1)

  2. यमुनाजी को अनंत गुणों से अलंकृत, शिव और ब्रह्मा जैसे देवताओं द्वारा स्तुति की जाने वाली, और ध्रुव तथा पराशर को सर्वोत्तम फल प्रदान करने वाली बताया गया है। (Mahaprbhu Vallabhacharya, p. 1)

  3. बालबोध: बच्चों के लिए सिद्धांतों का एक सरल संग्रह, जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों का विचार किया गया है। (Excerpts from "16 Works of Shri Vallabhacharya - Sri Madhav Sharma.pdf", p. 13)

  4. सिद्धांत रहस्य: 'ब्रह्म-संबंध' के महत्व और पुष्टिमार्ग के मूलभूत सिद्धांतों की व्याख्या करता है। (JagadGuru-Shree-Vallabhacharya-Mahaprabhuji, p. 3) समग्र ब्रह्म-संबंध से देह और जीव से संबंधित सभी दोषों का निवारण होता है। (Excerpts from "16 Works of Shri Vallabhacharya - Sri Madhav Sharma.pdf", p. 61)

  5. नवरत्नम्: इसमें नव-अंगों के समर्पण और भगवान के प्रति पूर्ण आश्रय पर जोर दिया गया है। यह बताता है कि भक्त को सभी चिंताएं छोड़कर भगवान की लीलाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। (Navratnam-Panchtikabhi, p. 69)

  6. विवेकधैर्याश्रय: विवेक (ज्ञान), धैर्य (धैर्य), और आश्रय (भगवान पर निर्भरता) के गुणों पर केंद्रित है। (Excerpts from "16 Works of Shri Vallabhacharya - Sri Madhav Sharma.pdf", p. 77) यह शिक्षा देता है कि व्यक्ति को जीवन भर सभी प्रकार के दुखों को सहना चाहिए, उन्हें भौतिक, आध्यात्मिक और दैविक दुखों के रूप में समझना चाहिए, और भगवान को ही एकमात्र आश्रय मानना चाहिए। (Excerpts from "16 Works of Shri Vallabhacharya - Sri Madhav Sharma.pdf", p. 78-79)

  7. श्री कृष्णाश्रयः उन परिस्थितियों का वर्णन करता है जहां श्रीकृष्ण ही एकमात्र शरण हैं। (Krishnasraystotram, p. 1) इसमें कहा गया है कि म्लेच्छों (गैर-हिंदुओं) द्वारा शासित देशों में, पाप से दूषित स्थानों में, शत्रुओं से पीड़ित होने पर, घमंड और पाप से घिरा होने पर, अज्ञानता से ग्रस्त होने पर, अयोग्य गुरुओं से घिरा होने पर, और सभी देवताओं के प्राकृत होने पर भी श्रीकृष्ण ही एकमात्र आश्रय हैं। (Krishnasraystotram, p. 2)

  8. संन्यास निर्णय: इस ग्रंथ में संन्यास लेने की मानसिक स्थिति और किसे संन्यास लेना चाहिए, कब और कैसे, इसका वर्णन किया गया है। (Jal-Bhed, p. 48)

भाग 2: प्रश्नोत्तरी

निर्देश: निम्नलिखित दस प्रश्नों में से प्रत्येक का उत्तर 2-3 वाक्यों में दें।

  1. श्री वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना किस ऐतिहासिक घटना के माध्यम से की थी?

श्री वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना संवत् 1549 के श्रावण शुक्ल एकादशी को की थी, जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें 'गद्य मंत्र' प्रदान किया, जो ब्रह्म-संबंध का आधार था। इस घटना को 'पवित्र एकादशी' के रूप में मनाया जाता है और इसे पुष्टिमार्ग का जन्म दिवस माना जाता है।

  1. श्री वल्लभाचार्य के दार्शनिक सिद्धांत 'शुद्धाद्वैत' का मुख्य जोर क्या है, और यह 'माया' के विचार से कैसे भिन्न है?

शुद्धाद्वैत दर्शन 'ईश्वरीय कृपा' (पुष्टि) पर जोर देता है और दुनिया को भ्रमपूर्ण मानने वाले 'माया' के विचार को खारिज करता है। इसके अनुसार, जगत ब्राह्मण की वास्तविक रचना है और सत्य है, न कि भ्रम।

  1. पुष्टिमार्ग में 'ब्रह्म-संबंध' की अवधारणा को संक्षेप में समझाइए।

ब्रह्म-संबंध आत्मा और भगवान के बीच एक नए संबंध की स्थापना है, जिसमें आत्मा भगवान के दास (सेवक) के रूप में सेवा स्वीकार करती है। यह संबंध आत्मा को सभी पापों से मुक्त करता है, बशर्ते वह समर्पण के प्रति वफादार रहे और भगवान की कृपा में बढ़ता रहे।

  1. श्री वल्लभाचार्य के अनुसार 'निवेदन' 'दान' या 'त्याग' से कैसे भिन्न है?

'निवेदन' में भक्त अपनी सभी possessions और स्वयं को भगवान को समर्पित करता है, यह मानते हुए कि सब कुछ भगवान का है। यह 'दान' से भिन्न है क्योंकि इसमें कानूनी स्वामित्व का त्याग नहीं होता है, बल्कि भगवान के लिए उपयोग की घोषणा होती है, और 'त्याग' से भी भिन्न है क्योंकि इसमें किसी विशेष व्यक्ति के पक्ष में त्याग नहीं होता है।

  1. 'श्री कृष्णाश्रयः' ग्रंथ में वर्णित दो प्रमुख परिस्थितियाँ क्या हैं जहाँ श्रीकृष्ण को एकमात्र शरण माना गया है?

'श्री कृष्णाश्रयः' ग्रंथ में वर्णित दो प्रमुख परिस्थितियाँ जहाँ श्रीकृष्ण को एकमात्र शरण माना गया है, वे हैं: म्लेच्छों (गैर-हिंदुओं) द्वारा शासित देश, और पाप से दूषित स्थान। अन्य परिस्थितियाँ शत्रुओं से पीड़ित होना, घमंड और पाप से घिरा होना, अज्ञानता से ग्रस्त होना, और अयोग्य गुरुओं से घिरा होना भी हैं।

  1. श्री वल्लभाचार्य ने 'यमुनाष्टकम' में श्री यमुनाजी के किन्हीं दो गुणों का उल्लेख कैसे किया है?

श्री वल्लभाचार्य ने 'यमुनाष्टकम' में श्री यमुनाजी को 'अनंत गुणों से अलंकृत' और 'शिव तथा ब्रह्मा जैसे देवताओं द्वारा स्तुति की जाने वाली' के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने उन्हें ध्रुव और पराशर को सर्वोत्तम फल प्रदान करने वाली और मथुरा शहर के तट पर स्थित बताया है।


  1. पुष्टिमार्ग में 'मानसी सेवा' को क्यों सर्वोच्च माना जाता है?

मानसी सेवा को सर्वोच्च माना जाता है क्योंकि इसमें मन को पूरी तरह से भगवान की सेवा में लगाना शामिल है। पुष्टिमार्ग में, भगवान को प्रसन्न करने के लिए आत्म-समर्पण के साथ सेवा करना मुख्य है, और मन की एकाग्रता इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

  1. श्री वल्लभाचार्य को 'बाल सरस्वती' और 'वाक्पति' की उपाधि क्यों दी गई थी?

श्री वल्लभाचार्य को 'बाल सरस्वती' और 'वाक्पति' की उपाधि इसलिए दी गई थी क्योंकि उन्होंने विद्यानगर में हुई दार्शनिक बहस में असाधारण ज्ञान और वक्तृत्व कला का प्रदर्शन किया था। उन्होंने सौ से अधिक वैदिक मंत्रों को सीधे और उल्टे क्रम में सुनाकर अपनी विद्वत्ता सिद्ध की थी।

  1. श्री वल्लभाचार्य के अंतिम संदेश का केंद्रीय विषय क्या था?

श्री वल्लभाचार्य के अंतिम संदेश का केंद्रीय विषय सांसारिक मोह से मुक्ति और श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण, अटूट समर्पण है। उन्होंने जोर दिया कि भक्त को सभी चिंताएं त्याग कर केवल भगवान की सेवा में लीन रहना चाहिए, क्योंकि वही ultimate good है।

  1. पुष्टिमार्ग में 'पुष्टि जीव' और 'आसुरी जीव' के बीच क्या अंतर है?

पुष्टिमार्ग में 'पुष्टि जीव' वे हैं जिन्हें भगवान अपनी भक्ति या मुक्ति प्रदान करते हैं। इसके विपरीत, 'आसुरी जीव' वे होते हैं जिन्हें भगवान की भक्ति या मुक्ति प्राप्त नहीं होती है, और वे सांसारिक चक्र में फंसे रहते हैं।


भाग 3: निबंध प्रश्न

  1. श्री वल्लभाचार्य के 'शुद्धाद्वैत' दर्शन के मुख्य सिद्धांतों की विस्तृत व्याख्या करें, और यह बताएं कि यह कैसे 'मायावाद' से भिन्न है, खासकर जगत और जीव की वास्तविकता के संबंध में।

श्री वल्लभाचार्य के 'शुद्धाद्वैत' दर्शन के मुख्य सिद्धांत और 'मायावाद' से इसकी भिन्नता को निम्नलिखित रूप से समझाया जा सकता है:

श्री वल्लभाचार्य ने 'शुद्धाद्वैत' के दर्शन की स्थापना की, जिसे 'शुद्ध अद्वैतवाद' (pure non-dualism) या 'ब्रह्मवाद' के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन का मूल सिद्धांत यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है, और सब कुछ ब्रह्म ही है, ब्रह्म के अलावा कुछ भी नहीं है

'शुद्धाद्वैत' दर्शन के मुख्य सिद्धांत:

  • भगवान श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं। इस दर्शन में श्री कृष्ण को 'पूर्ण पुरुषोत्तम' माना गया है, जो सभी देवताओं और अवतारों में सर्वोच्च हैं। श्री कृष्ण ब्रह्मांड के निर्माता, पालक और संहारक हैं। शास्त्रों के अनुसार, सभी देवता और देवियाँ श्री कृष्ण के ही अंश हैं।

  • ब्रह्म का स्वरूप (Nature of Brahman):

    • ब्रह्म निर्दोष, सभी गुणों से परिपूर्ण, आत्म-निर्भर और भौतिक शरीर से रहित है।

    • यह अपरिवर्तनीय होते हुए भी परिवर्तनीय है, और विरोधाभासी विशेषताओं का आधार है, जो तर्क से परे है।

    • ब्रह्म को सच्चिदानंद (सत, चित्त और आनंद - अनंत अस्तित्व, अनंत चेतना और अनंत आनंद) के रूप में वर्णित किया गया है।

    • वह सर्वव्यापी है और उसकी लीलाएँ शाश्वत हैं।

  • जगत (विश्व) की वास्तविकता:

    • 'शुद्धाद्वैत' के अनुसार, यह जगत सत्य, वास्तविक, अच्छा और शुद्ध है

    • जगत भगवान श्री कृष्ण की ही अभिव्यक्ति या लीला है, और इसलिए यह मिथ्या या भ्रामक नहीं है।

    • जब ब्रह्म अपने 'सत' गुण के साथ प्रकट होता है और 'चित्त' और 'आनंद' गुणों को छिपा देता है, तो वह 'जड़' (insentient) कहलाता है, जिससे यह जगत बनता है।

    • जगत में जन्म और मृत्यु जैसी चीजें भी ब्रह्म की इच्छा के अनुसार अभिव्यक्ति और आवरण (manifestation and concealment) का परिणाम हैं।

  • जीव (व्यक्तिगत आत्मा) की वास्तविकता:

    • जीव परमात्मा (भगवान) का अंश है।

    • जीव ब्रह्म के 'सत' और 'चित्त' गुणों के प्रकटीकरण से बना है, जबकि 'आनंद' गुण छिपा रहता है

    • आनंद के छिपे होने के कारण, जीव शरीर से बंधा हुआ है और जन्म-मृत्यु के अधीन है, जिससे उसे 'अहंभाव' (I-ness) और 'ममत्व' (My-ness), सुख और दुःख का अनुभव होता है।

    • भगवान की कृपा से जीव अपनी मूल पहचान प्राप्त कर सकता है।

'मायावाद' से भिन्नता:

'शुद्धाद्वैत' का दर्शन 'मायावाद' (जो शंकर के मायावाद से जुड़ा है) से विशेष रूप से भिन्न है, खासकर जगत और जीव की वास्तविकता के संबंध में।

  • जगत की वास्तविकता पर भिन्नता:

    • मायावाद का मानना है कि जगत मिथ्या या भ्रम है, केवल माया के कारण प्रतीत होता है।

    • इसके विपरीत, श्री वल्लभाचार्य का 'शुद्धाद्वैत' दृढ़ता से कहता है कि जगत सच्चा और वास्तविक है, क्योंकि यह स्वयं ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।

    • वल्लभाचार्य के अनुसार, यह कहना कि जगत मिथ्या है या वेदों के अर्थ से पूरी तरह से अलग है, बिल्कुल गलत है। जगत को ब्रह्म का ही एक स्वरूप माना जाता है।

  • ब्रह्म/आत्मा के स्वरूप पर भिन्नता:

    • 'शुद्धाद्वैत' में, ब्रह्म को सभी गुणों से युक्त और सगुण माना जाता है। श्री कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम और सभी देवताओं से श्रेष्ठ हैं।

    • मायावाद अक्सर निर्गुण ब्रह्म पर अधिक जोर देता है।

    • वल्लभाचार्य ने स्पष्ट किया कि यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति श्री कृष्ण को केवल एक साधारण अवतार या मनुष्य मानता है, तो वह आसुरी प्रकृति का है।

संक्षेप में, 'शुद्धाद्वैत' दर्शन जगत और जीव को ब्रह्म से अभिन्न मानता है, उन्हें मिथ्या या भ्रम नहीं बल्कि ब्रह्म की ही वास्तविक अभिव्यक्तियाँ बताता है। यह 'मायावाद' के विपरीत, ईश्वर और उसकी सृष्टि के बीच एक वास्तविक और अविभाज्य संबंध पर जोर देता है।


  1. पुष्टिमार्ग में 'ब्रह्म-संबंध' की अवधारणा का महत्व और प्रक्रिया क्या है? यह किस प्रकार भक्त को सांसारिक दोषों से मुक्त करता है और आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होता है?

श्री वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग में 'ब्रह्म-संबंध' की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह भक्त को सांसारिक दोषों से मुक्त कर आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होता है।

ब्रह्म-संबंध की अवधारणा और उसका महत्व:

'ब्रह्म-संबंध' एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा आध्यात्मिक साधक (जीव) स्वयं को भगवान के प्रति पूरी तरह से समर्पित करता है। इसका अर्थ है कि आत्मा भगवान को अपने स्वामी और स्वयं को उनका दास (सेवक) स्वीकार करती है। ब्रह्म-संबंध के माध्यम से भक्त यह घोषणा करता है कि "भगवान ही इस संसार की सभी वस्तुओं के वास्तविक स्वामी हैं। जो मैं अपना मानता हूँ, वह वास्तव में मेरा नहीं है। मैं अपनी सभी वस्तुओं को भगवान को समर्पित करता हूँ। हे कृष्ण, मैं आपका सेवक हूँ"। यह एक प्रकार की निवेदन (घोषणा) है, जिसमें संपत्ति का कानूनी स्वामित्व नहीं बदलता, बल्कि देने वाला अपने स्वामित्व के अहंकार को त्याग देता है।

पुष्टिमार्ग में, भगवान को घर पर आमंत्रित किया जाता है, बाहर नहीं खोजा जाता है। पुष्टिमार्गीय सेवा निस्वार्थ भाव से की जाती है, जिसमें किसी भी प्रकार के प्रतिफल या पुरस्कार की अपेक्षा नहीं होती, यह केवल शुद्ध, निस्वार्थ प्रेम और भक्ति के लिए होती है। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि सब कुछ भगवान कृष्ण ही हैं, और कृष्ण के अलावा कुछ भी नहीं है (ब्रह्मवाद)।

ब्रह्म-संबंध की उत्पत्ति और प्रक्रिया:

'ब्रह्म-संबंध' स्वयं भगवान श्री कृष्ण (श्रीनाथजी) द्वारा श्री वल्लभाचार्य को प्रकट किया गया था। यह घटना संवत १५४९ में श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन गोकुल में यमुना नदी के गोविंद घाट पर हुई थी। वल्लभाचार्य इस बात को लेकर बहुत चिंतित थे कि कैसे दोषों से भरे जीव को शुद्ध भगवान से जोड़ा जाए। तब भगवान ने उन्हें प्रकट होकर भक्तों को ब्रह्म-संबंध के माध्यम से दीक्षा देने का आदेश दिया, चाहे वे अशुद्धियों से ही क्यों न भरे हों।

भगवान ने श्री वल्लभाचार्य को 'गद्य मंत्र' भी प्रदान किया, जिसमें समर्पण का सार निहित है। इसके बाद, श्रावण शुक्ल द्वादशी को, श्री वल्लभाचार्य ने दामोदरदास हरसानी को इस पवित्र मंत्र से दीक्षित किया, जिससे वे पुष्टिमार्ग के पहले वैष्णव बन गए। यह महत्वपूर्ण है कि ब्रह्म-संबंध किसी भी व्यक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, जाति, पंथ, धन, आयु या लिंग के बावजूद। पुष्टिमार्ग में दीक्षा देने से पहले गुरु द्वारा उम्मीदवार की परीक्षा भी ली जाती है।

सांसारिक दोषों से मुक्ति:

ब्रह्म-संबंध भक्त को निम्नलिखित तरीकों से सांसारिक दोषों से मुक्त करता है:

  • यह भक्त के पिछले पापों से मुक्ति दिलाता है।

  • यह भगवान की दिव्य कृपा पर पूर्ण निर्भरता का एक नया मार्ग शुरू करता है। भगवान की कृपा और सुरक्षा सभी चिंताओं और दुखों से मुक्त करती है।

  • जीव भगवान के 'सत' (अस्तित्व) और 'चित' (चेतना) गुणों के प्रकटीकरण से बनता है, जबकि 'आनंद' गुण छिपा रहता है। आनंद के छिपे होने के कारण, जीव शरीर से बंधा हुआ है और उसे 'अहंभाव' (मैं-पन) और 'ममत्व' (मेरा-पन) का अनुभव होता है [पिछली बातचीत का सारांश]। ब्रह्म-संबंध के अंतर्गत निवेदन (समर्पण) इस 'मैं-पन' और 'मेरा-पन' को दूर करता है। जब सब कुछ भगवान को समर्पित कर दिया जाता है, तो अहंकार और आसक्ति समाप्त हो जाती है।

  • यह मोह (भ्रम) और शोक (दुःख) से मुक्ति पाने में मदद करता है।

  • सेवा में तनु-वित्तजा (शरीर और धन से सेवा) का अभ्यास कृष्ण चेतना की ओर ले जाता है, जिससे 'रजोगुणी' प्रवृत्तियाँ और 'अहंकार' दूर होते हैं।

आध्यात्मिक प्रगति में सहायता:

ब्रह्म-संबंध भक्त की आध्यात्मिक प्रगति में कई तरह से सहायक होता है:

  • यह शिष्यों के लिए एक आध्यात्मिक मार्ग स्थापित करता है।

  • समर्पण और भगवान की कृपा के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति सुनिश्चित होती है।

  • पुष्टिमार्ग में, साधक सांसारिक जीवन का त्याग किए बिना भी भगवान के नित्य आनंद का अनुभव कर सकता है। व्यक्ति शरीर, मन और बुद्धि को भक्ति और भगवान के प्रेम पर केंद्रित करके इस दुनिया में सकारात्मक रूप से रह सकता है।

  • यह कृष्ण को ही पूर्ण पुरुषोत्तम और एकमात्र आश्रय मानता है।

  • ब्रह्म-संबंध के बाद भक्त अपने घर पर ही भगवान की सेवा करता है, बजाय सार्वजनिक मंदिरों के।

  • सेवा हमेशा निस्वार्थ भाव से की जानी चाहिए, जिसमें किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक प्रतिफल की इच्छा न हो।

  • यह निरोध (मन और उसकी इंद्रियों को भगवान की सेवा में लगाना) प्राप्त करने में सहायक होता है, जिससे भगवान के प्रेम का अनुभव होता है और अंततः भगवान जैसे स्वरूप की प्राप्ति होती है।

  • सेवा के माध्यम से मन भगवान पर केंद्रित रहता है और सभी कुछ कृष्णमय (ब्रह्मात्मभाव) प्रतीत होता है। यह संसार को वास्तविक और शुद्ध मानता है, क्योंकि यह स्वयं ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।

  • भगवान की लीलाओं और गुणों के श्रवण-कीर्तन से आनंद की उत्पत्ति होती है, जिससे सांसारिक आसक्ति नष्ट होती है।

  • यह जीवात्माओं को अपने परमात्मा के साथ संबंध की याद दिलाता है और उन्हें सही मार्ग पर निर्देशित करता है।


  1. श्री वल्लभाचार्य के जीवन की प्रमुख घटनाओं और उनकी यात्राओं ने किस प्रकार पुष्टिमार्ग की स्थापना और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? ऐतिहासिक संदर्भों का उल्लेख करें।

पुष्टिमार्ग में श्री वल्लभाचार्य के जीवन की प्रमुख घटनाओं और उनकी व्यापक यात्राओं ने इस संप्रदाय की स्थापना और प्रसार में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने एक ऐसे भक्ति मार्ग की नींव रखी जो सांसारिक जीवन का त्याग किए बिना ही भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण पर केंद्रित था।

यहाँ उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं और यात्राओं का विस्तृत विवरण दिया गया है और उन्होंने किस प्रकार पुष्टिमार्ग की स्थापना और प्रसार में योगदान दिया:

  1. जन्म और प्रारंभिक जीवन (A.D. 1479):

    • श्री वल्लभाचार्य का जन्म सन् 1479 में बैसाख (चैत्र) कृष्णपक्ष एकादशी को चंपारण्य में हुआ था। यह तब हुआ जब उनके माता-पिता, लक्ष्मण भट्ट और इल्लमगारू, मुस्लिम शासक बहलोल लोदी के आतंक के कारण काशी से अपने मूल स्थान की ओर पलायन कर रहे थे।

    • उनके जन्म से पहले ही उनके गुरु ने उनके पिता को सूचित किया था कि उनके परिवार में सौ 'सोम यज्ञों' के पूर्ण होने के बाद एक 'अवतार' का जन्म होगा। चंपारण्य में, माता-पिता ने नवजात शिशु को मृत मानकर एक शमी वृक्ष के नीचे छोड़ दिया था, लेकिन रात में राधा-कृष्ण ने सपने में आकर उन्हें बताया कि भगवान स्वयं उनके बच्चे के रूप में प्रकट हुए हैं। जब वे लौटे, तो उन्होंने देखा कि दिव्य शिशु अग्नि के एक चक्र से घिरा हुआ था। उन्हें 'वल्लभ' नाम दिया गया, जिसका अर्थ है "सभी को प्रिय"।

    • बचपन से ही, वल्लभ अत्यंत बुद्धिमान थे। उन्होंने छह वर्ष की आयु से वेदों का अध्ययन शुरू किया और ग्यारह वर्ष की आयु तक अपने शिक्षकों को पीछे छोड़ दिया था। उनकी अद्वितीय तर्क शक्ति और वक्तृत्व कौशल के कारण उन्हें 'जगद्गुरु' (विश्व-शिक्षक) की उपाधि से सम्मानित किया गया।

    • विजय नगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में, उन्होंने 'शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद' के अपने सिद्धांत को सफलतापूर्वक स्थापित किया, जिसमें यह बताया गया कि संसार वास्तविक है, काल्पनिक नहीं।

  2. ब्रह्म-संबंध की दिव्य प्रेरणा और स्थापना (संवत 1549):

    • श्री वल्लभाचार्य अपनी यात्राओं के दौरान लोगों की भक्ति के मार्ग से भटकने और सांसारिक दोषों में डूबे होने के कारण बहुत चिंतित थे। उनकी निराशा श्रावण शुक्ल एकादशी, संवत 1549 को असहनीय हो गई थी।

    • आधी रात के बाद, भगवान श्री कृष्ण (श्रीनाथजी) स्वयं गोकुल में यमुना नदी के गोविंद घाट पर उनके सामने प्रकट हुए। भगवान ने उन्हें 'ब्रह्म-संबंध' के माध्यम से भक्तों को दीक्षा देने का आदेश दिया, भले ही वे अशुद्धियों से भरे हों।

    • भगवान ने उन्हें 'गद्य मंत्र' भी प्रदान किया। इस मंत्र का सार यह है: "भगवान इस संसार की सभी वस्तुओं के वास्तविक स्वामी हैं। जो मैं अपना मानता हूँ, वह वास्तव में मेरा नहीं है। मैं अपनी सभी वस्तुओं को भगवान को समर्पित करता हूँ। हे कृष्ण, मैं आपका सेवक हूँ"

    • अगले दिन, श्रावण शुक्ल द्वादशी को, श्री वल्लभाचार्य ने दामोदरदास हरसानी को इस पवित्र मंत्र से दीक्षित किया, जिससे वे पुष्टिमार्ग के पहले वैष्णव बन गए। यह घटना पुष्टिमार्ग के जन्म दिवस के रूप में मनाई जाती है।

    • ब्रह्म-संबंध भक्त को अपने 'अहंभाव' (मैं-पन) और 'ममत्व' (मेरा-पन) को त्यागने में मदद करता है, जिससे सांसारिक आसक्ति और मोह समाप्त होता है [संवाद इतिहास]।

  3. भारत भर में यात्राएँ (तीन पृथ्वी परिक्रमाएँ):

    • श्री वल्लभाचार्य ने भारत भर में तीन 'पृथ्वी परिक्रमाएँ' (तीर्थयात्राएँ) कीं। इन यात्राओं का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों से मिलना और उन्हें अपने दर्शन पढ़ाना था।

    • उन्होंने इन यात्राओं के दौरान तीन कठोर नियमों का पालन किया: नंगे पैर यात्रा करना (उन्होंने अपने जीवन में 12000 किमी नंगे पैर चले), किसी भी गाँव या शहर में प्रवेश न करना, बल्कि हमेशा उसके बाहरी इलाके में रहना, और बिना सिले हुए वस्त्र पहनना (उन्होंने जीवन भर केवल धोती और उपराना पहना)।

    • इन यात्राओं के दौरान, उन्होंने लोगों को भक्ति के मार्ग पर लाने के लिए 'दैवी जीवों' (दिव्य आत्माओं) से मुलाकात की और उन्हें ब्रह्म-संबंध दीक्षा प्रदान की, जिससे वे भगवान कृष्ण द्वारा स्वीकार किए गए।

    • उन्होंने यह सिखाया कि ज्ञान और वैराग्य के बिना भक्ति व्यर्थ है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि संसार का त्याग करने के बजाय, लोगों को पारिवारिक ढांचे में रहकर भगवान की सेवा करनी चाहिए

  4. श्रीनाथजी मंदिर की स्थापना:

    • गोवर्धन में रहते हुए, श्री वल्लभाचार्य को अंबाला के एक क्षत्रिय, सेठ पूरनमल से एक सपना सुनाने के लिए कहा गया, जिसमें भगवान श्रीनाथजी ने उन्हें गोवर्धन पर्वत पर एक भव्य मंदिर बनाने के लिए प्रेरित किया था।

    • श्री महाप्रभुजी ने सेठ पूरनमल को तुरंत मंदिर का काम शुरू करने के लिए कहा। आगरा से एक वास्तुकार, हीरामणि, को बुलाया गया, और श्री वल्लभाचार्य के निर्देशन में, पूरनमल क्षत्रिय ने श्रीनाथजी के भव्य मंदिर की आधारशिला रखी। मंदिर को पूरा होने में 20 साल लगे।

    • संवत 1576 के वैशाख शुक्ल तीज (अक्षय तृतीया) को, श्री महाप्रभुजी ने बड़ी धूमधाम से श्रीनाथजी की मूर्ति को नवनिर्मित मंदिर में स्थापित किया और भगवान की सेवाएँ शुरू कीं।

  5. प्रमुख शिक्षाएँ और दर्शन का प्रसार:

    • श्री वल्लभाचार्य ने 'शुद्धाद्वैत' दर्शन का प्रचार किया, जो यह मानता है कि संसार वास्तविक, अच्छा और शुद्ध है, और यह स्वयं ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है। उनके अनुसार, सब कुछ कृष्ण ही हैं और कृष्ण के अलावा कुछ भी नहीं है

    • उन्होंने 'पुष्टि भक्ति' के मार्ग पर जोर दिया, जो निस्वार्थ प्रेम और भक्ति पर आधारित है, जिसमें किसी भी प्रतिफल या पुरस्कार की अपेक्षा नहीं होती

    • ब्रह्म-संबंध के बाद, भक्त अपने घर पर ही भगवान की सेवा करता है, बजाय सार्वजनिक मंदिरों के।

    • उन्होंने सेवा में तनु-वित्तजा (शरीर और धन से सेवा) के अभ्यास पर जोर दिया, जो कृष्ण चेतना की ओर ले जाता है और 'रजोगुणी' प्रवृत्तियों तथा 'अहंकार' को दूर करता है

    • उन्होंने भक्ति के व्यवसायीकरण का कड़ा विरोध किया और इसे पाप बताया।

  6. अंतिम दिन और विरासत (Asura Vyamoh Leela):

    • 52 वर्ष की आयु में, श्री वल्लभाचार्य ने सांसारिक जीवन का त्याग कर संन्यास ले लिया।

    • काशी में हनुमान घाट पर उन्होंने मौन व्रत धारण कर लिया और अपने अंतिम दिनों को भगवान कृष्ण के चिंतन में व्यतीत किया।

    • अपने पुत्रों के अनुरोध पर, उन्होंने रेत पर तीन-डेढ़ श्लोक (शिक्षा श्लोकी) लिखे, जिसमें उन्होंने अपने शिष्यों को भविष्य के लिए मार्गदर्शन दिया।

    • रथ यात्रा के दिन, संवत 1587 में, वे गंगा नदी में प्रवेश कर गए। हजारों लोगों के सामने एक चमकती हुई लौ जल से निकली और आकाश में ascended हो गई। इस घटना को 'असुर व्यमोह लीला' के नाम से जाना जाता है।

    • हालांकि श्री वल्लभाचार्य शारीरिक रूप से अदृश्य हो गए, लेकिन पुष्टिमार्ग के अनुयायी उनकी शाश्वत उपस्थिति महसूस करते हैं। वे अपने 'ग्रंथों' और 'बैठकों' के रूप में, और सबसे बढ़कर अपने समर्पित वैष्णवों के हृदय में मौजूद हैं।

कुल मिलाकर, श्री वल्लभाचार्य के जीवन की घटनाओं और उनकी यात्राओं ने पुष्टिमार्ग को न केवल एक दार्शनिक आधार प्रदान किया, बल्कि इसे एक जीवंत, व्यावहारिक भक्ति मार्ग के रूप में स्थापित भी किया, जिसने लाखों लोगों को भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण का मार्ग दिखाया।

  1. 'षोडशग्रंथ' के प्रमुख ग्रंथों, जैसे श्री यमुनाष्टकम, सिद्धांत रहस्य, और नवरत्नम्, की शिक्षाओं पर विस्तार से चर्चा करें। ये ग्रंथ पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों को कैसे स्पष्ट करते हैं?

श्री वल्लभाचार्य द्वारा विरचित षोडशग्रंथ (सोलह ग्रंथ) पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों को समझने के लिए महत्वपूर्ण कार्य हैं। ये ग्रंथ विभिन्न शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर में और उन्हें पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों के संबंध में मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए विभिन्न समय पर रचे गए थे। ये ग्रंथ आज के समय में भी कई सवालों के जवाब देते हैं।

पुष्टिमार्ग के कुछ प्रमुख ग्रंथ और उनकी शिक्षाएँ इस प्रकार हैं:

  • श्री यमुनाष्टकम (Shri Yamunashtakam)

    • यह श्री वल्लभाचार्य के सभी कार्यों में से सबसे अधिक गाया जाने वाला और प्रसिद्ध है। इसे उनकी रचनाओं में सबसे प्रमुख माना जाता है। लगभग हर वैष्णव इस स्तोत्र को कंठस्थ जानता है और इसकी अपार शक्ति में विश्वास रखता है, जो श्री यमुनाजी की महिमा का बखान करती है।

    • श्री यमुनाष्टकम में, श्री वल्लभाचार्य श्री यमुनाजी की स्तुति करते हैं, उन्हें 'भुवनपावनी' कहते हैं, जिसका अर्थ है "जो पृथ्वी को पवित्र करती है"। श्री हरिरायचरण टिप्पणी करते हैं कि 'पृथ्वी को पवित्र करने वाली' का अर्थ है पुष्टि-जीवों के शरीर रूपी पृथ्वी को पवित्र करना।

    • ऐसा माना जाता है कि यदि कोई अज्ञानी पुष्टि-जीव श्री यमुनाजी का जल श्रद्धापूर्वक पीता है या उसमें स्नान करता है, तो श्री यमुनाजी उसे भगवान श्री कृष्ण की भक्ति प्रदान करती हैं।

    • श्री यमुनाजी को अनंत गुणों से विभूषित बताया गया है और शिव तथा ब्रह्मा जैसे देवता भी उनकी स्तुति करते हैं, जो श्री कृष्ण को देखने के लिए लालायित रहते हैं। उन्हें मानसून के बादलों के समान सुंदर श्याम वर्ण वाली और ध्रुव तथा पराशर जैसे तपस्वियों को उत्तम फल देने वाली कहा गया है। श्री यमुनाजी के तट पर मथुरा शहर स्थित है, और वे हमेशा व्रज के भक्तों से घिरी रहती हैं। श्री यमुनाजी को कृपा के सागर श्री कृष्ण में विलीन होने के लिए उत्सुक बताया गया है, और उनके माध्यम से मन में सुख की भावना प्रकट करने की प्रार्थना की जाती है।

    • श्री यमुनाजी भक्तों के हृदय में भक्ति की भावना को बढ़ाने के लिए प्रकट हुई हैं, और वे जीव का भगवान के साथ संबंध स्थापित करती हैं। वे कलि के प्रभाव से जीव में प्रवेश करने वाली आसुरी प्रवृत्तियों को नष्ट करती हैं और पुष्टि-जीव के शरीर को भक्ति के योग्य बनाती हैं।

  • सिद्धांत रहस्य (Siddhanta Rahasya)

    • यह ग्रंथ अनुग्रह के सिद्धांत और ब्रह्म संबंध के महत्व और आवश्यकता को स्पष्ट करता है।

    • ब्रह्म संबंध आत्मा और भगवान के बीच एक पुनर्जीवित संबंध स्थापित करने का साधन है, जिसमें आत्मा भगवान को स्वामी के रूप में और स्वयं को सेवक (दास) के रूप में स्वीकार करती है। इस नए संबंध से आत्मा सभी पापों से पूरी तरह से मुक्त हो जाती है, बशर्ते वह समर्पण की शपथ के प्रति निष्ठावान रहे और भगवान की कृपा में बढ़ती रहे। भगवान ऐसे भक्तों की सेवा स्वीकार करते हैं।

    • यह सिद्धांत बताता है कि ब्रह्म संबंध के माध्यम से भगवान को सब कुछ समर्पित करने की घोषणा (निवेदन) की जाती है। निवेदन में, सब कुछ भगवान के उपभोग और आनंद के लिए समर्पित किया जाता है। संपत्ति का स्वामित्व नहीं बदलता है, और देने वाला अपने कानूनी स्वामित्व से वंचित नहीं होता है। यह दान (दान) या त्याग (परित्याग) से अलग है, जहां स्वामित्व हस्तांतरित होता है या संपत्ति का परित्याग किया जाता है।

    • पुष्टिमार्ग में, ब्रह्म संबंध प्राप्त करने के बाद, यह विश्वास किया जाता है कि सभी इंद्रियाँ भगवान की सेवा में संलग्न हो जाती हैं।

  • नवरत्नम् (Navratnam)

    • यह नौ श्लोकों का एक संग्रह है जिसमें श्री महाप्रभुजी बताते हैं कि भक्त को सभी चिंताओं और आशंकाओं से मुक्त रहना चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपना जीवन भगवान (श्री कृष्ण) को समर्पित कर दिया है।

    • इस ग्रंथ का मूल संदेश है कि भक्त को नारियल की तरह होना चाहिए, जिसमें बाहरी हिस्सा कठोर होता है, लेकिन अंदर का हिस्सा कोमल और शुद्ध होता है। इसी तरह, भक्त को मन में चिंता नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि भगवान सब कुछ करेंगे।

    • यह भगवान में अटूट विश्वास और उनकी दया पर जोर देता है, जो जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक है। यह शिक्षा अज्ञान से मुक्त होने और कृष्ण को सब कुछ समर्पित करने पर केंद्रित है।

    • यह भक्त को निरंतर भगवान की लीलाओं का चिंतन करने और अपने सभी कर्मों को भगवान को समर्पित करने की सलाह देता है।

पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों को कैसे स्पष्ट करते हैं ये ग्रंथ:

ये ग्रंथ सामूहिक रूप से पुष्टिमार्ग के मूल सिद्धांतों को स्पष्ट करते हैं:

  • ईश्वरीय अनुग्रह (Pushti): पुष्टिमार्ग भगवान के अनुग्रह (पोषणम् तद् अनुग्रहम्) पर अत्यधिक जोर देता है, जो साधक को प्राप्त होता है जब भगवान की कृपा उस पर उतरती है। श्री यमुनाष्टकम इस अनुग्रह के महत्व को दर्शाता है, जिसमें श्री यमुनाजी को भगवान श्री कृष्ण की कृपा का माध्यम बताया गया है।

  • पूर्ण समर्पण (Surrender): सिद्धांत रहस्य में वर्णित ब्रह्म संबंध, आत्मा के पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। नवरत्नम् इस बात पर जोर देता है कि भक्त को सभी चिंताओं से मुक्त होकर भगवान पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि भगवान स्वयं सब कुछ संभालते हैं।

  • निष्कपट भक्ति (Selfless Devotion): पुष्टिमार्ग में भक्ति बिना किसी अपेक्षा या इच्छा के की जाती है, जिसे "प्रेम लक्षण भक्ति" या "निष्कपट" कहा जाता है। श्री यमुनाष्टकम में श्री यमुनाजी की स्तुति भगवान के प्रति प्रेम भाव को बढ़ाने के लिए की जाती है।

  • गृहस्थ जीवन में सेवा (Seva in Household Life): पुष्टिमार्ग बिना सांसारिक जीवन का त्याग किए भी भगवान की भक्ति का मार्ग प्रदान करता है। श्री वल्लभाचार्य ने पुष्टि-जीवों को अपने घर में भगवान की सेवा करने के लिए प्रेरित किया। नवरत्नम् भी इस बात पर जोर देता है कि सेवा अपने शरीर और धन से की जानी चाहिए, और इसे गुप्त रखना चाहिए।

  • कृष्ण की सर्वोच्चता (Supremacy of Krishna): पुष्टिमार्ग के अनुसार, श्री कृष्ण ही परम सत्य और एकमात्र आश्रय हैं। सिद्धांत रहस्य ब्रह्म संबंध के माध्यम से सीधे कृष्ण से जुड़ने का मार्ग बताता है।

सारांश में, ये ग्रंथ मिलकर पुष्टिमार्ग के आध्यात्मिक मार्ग को परिभाषित करते हैं, जिसमें भक्त को भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहना, पूर्ण समर्पण करना, निष्कपट प्रेम विकसित करना और अपने दैनिक जीवन में श्री कृष्ण की सेवा करना सिखाया जाता है, जिससे उन्हें लौकिक और पारलौकिक दोनों में परम आनंद की प्राप्ति हो सके।

  1. पुष्टिमार्ग में 'सेवा' की अवधारणा का विस्तृत विश्लेषण करें, जिसमें 'मानसी सेवा', 'तनजा सेवा' और 'वित्तजा सेवा' के महत्व और उनके बीच के अंतरों को स्पष्ट किया जाए।

पुष्टिमार्ग में 'सेवा' की अवधारणा अत्यंत केंद्रीय है, और इसे भगवान श्री कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति के सर्वोच्च प्रकटीकरण के रूप में देखा जाता है। श्री महाप्रभुजी के अनुसार, भगवान की सेवा करना भक्त का प्राथमिक कर्तव्य है। यह जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।

सेवा को निस्वार्थ भाव से, शुद्ध प्रेम और भक्ति के साथ किया जाना चाहिए, बिना किसी प्रतिफल या पुरस्कार की अपेक्षा के। यह भगवान के साथ 'ब्रह्म-संबंध' स्थापित करने का एक साधन है, जहाँ भक्त स्वयं को भगवान को समर्पित कर देता है, और इस संबंध के माध्यम से आत्मा सभी पापों से मुक्त हो जाती है।

पुष्टिमार्ग में, सेवा को मुख्य रूप से तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है: मानसी सेवा (मानसिक सेवा), तनुजा सेवा (शारीरिक सेवा), और वित्तजा सेवा (वित्तीय सेवा)

मानसी सेवा (मानसिक सेवा)

  • अवधारणा: मानसी सेवा भगवान श्री कृष्ण में मन की कुल संलग्नता को संदर्भित करती है। इसे पुष्टिमार्ग में सेवा का सर्वोच्च और परम फल माना जाता है।

  • महत्व: यह तब प्राप्त होती है जब शारीरिक और वित्तीय सेवाएँ (तनुजा और वित्तजा सेवाएँ) एक ही व्यक्ति द्वारा की जाती हैं। यह भक्ति का चरमोत्कर्ष है जहाँ भक्त सचेत रूप से भगवान के साथ एकाकार हो जाता है। श्री महाप्रभुजी इस बात पर जोर देते हैं कि भक्त को "आत्मानन्दसमुद्रस्थं कृष्णमेव विचिन्तयेत्" अर्थात "केवल श्री कृष्ण का ध्यान करना चाहिए, जो हृदय के भीतर आनंद के सागर में वास करते हैं"। यह सेवा भगवान की प्राप्ति और उनके प्रेम का अनुभव करने के लिए मन को भगवान की सेवा में लगाना है।

  • विशेषता: इसका अर्थ यह भी है कि "सब कुछ कृष्ण है" की भावना के साथ भगवान पर निरंतर ध्यान केंद्रित करना, जिसे 'ब्रह्मवाद' कहा जाता है।

तनुजा सेवा (शारीरिक सेवा)

  • अवधारणा: तनुजा सेवा भक्त के अपने शारीरिक प्रयास और व्यक्तिगत श्रम के माध्यम से भगवान की सेवा करना है।

  • महत्व: यह 'अहं' (मैं-भाव) को नष्ट करने में सहायक है और शरीर को सभी अशुद्धियों और दोषों से शुद्ध करती है। तनुजा सेवा (और वित्तजा सेवा) एक साथ करने से ही मानसी सेवा की सिद्धि संभव होती है।

  • उद्देश्य: यह सुनिश्चित करना है कि शारीरिक अस्तित्व सेवा के अलावा अन्य गतिविधियों में व्यर्थ न हो।

वित्तजा सेवा (वित्तीय सेवा)

  • अवधारणा: वित्तजा सेवा भक्त के अपने संसाधनों और धन के माध्यम से भगवान की सेवा करना है। इसमें भगवान को अर्पित की जाने वाली सामग्री और भोग के लिए अपनी कमाई का उपयोग करना शामिल है।

  • महत्व: यह 'मम' (मेरा-भाव) या स्वामित्व की भावना को नष्ट करने में सहायक है। यह तनुजा सेवा के साथ मिलकर मानसी सेवा की प्राप्ति में योगदान करती है।

  • पवित्रता: दान या दान के विपरीत, 'निवेदन' (समर्पण) का अर्थ है अपनी संपत्ति को भगवान के उपभोग के लिए समर्पित करना, जबकि कानूनी स्वामित्व भक्त के पास ही रहता है। भक्त को अपनी सर्वोत्तम और पवित्र वस्तुएँ भगवान को अर्पित करनी चाहिए, और ये वस्तुएँ वैध साधनों से प्राप्त होनी चाहिए।

सेवाओं के बीच अंतर और परस्पर संबंध

  • सामंजस्य: तीनों प्रकार की सेवाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं और आदर्श रूप से एक ही व्यक्ति द्वारा की जानी चाहिए। यदि शारीरिक और वित्तीय सेवाएँ एक ही व्यक्ति द्वारा की जाती हैं, तो यह मानसी सेवा की प्राप्ति की ओर ले जाती है।

  • स्थान: पुष्टिमार्ग में, भगवान की सेवा मुख्य रूप से घर पर की जानी चाहिए। घर को 'नंदालय' माना जाता है, और बाहरी मंदिरों में सेवा करने के बजाय घर पर भगवान की सेवा पर जोर दिया जाता है।

  • शुद्धता: 'अप्रस' (पवित्रता) का अभ्यास सेवा के दौरान शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है, जिससे भक्त श्री प्रभु के करीब आ सके। इसका अर्थ अहंकार और स्वामित्व को त्यागकर विनम्रता की भावना से आत्मा को भरना भी है। प्रत्येक विचार, शब्द और कार्य श्री प्रभु के सुख और आनंद के लिए ही होना चाहिए।

सेवा में बाधाएँ और वर्जित कार्य

  • धन का दुरुपयोग: भगवान के नाम पर धन इकट्ठा करना या आजीविका कमाना, या मंदिरों में चढ़ाए गए धन से भोग बनाना पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों के विपरीत है।

  • प्रदर्शन: भगवान की सेवा का प्रदर्शन, खासकर गैर-वैष्णवों के सामने, सेवा को निष्फल बना सकता है। दिखावा और प्रसिद्धि की इच्छा से की गई सेवा को हतोत्साहित किया जाता है।

  • गुरु का महत्व: गुरु के बिना ज्ञान और उचित मार्गदर्शन प्राप्त नहीं किया जा सकता है। गुरु को कृष्ण सेवा के प्रति समर्पित और पाखंड से मुक्त होना चाहिए।

  • देवद्रव्य: 'देवद्रव्य' (भगवान की संपत्ति) का उपभोग करना गंभीर अपराध माना जाता है और यह पूर्ण विनाश का कारण बन सकता है।

  • आग्रह: यह महत्वपूर्ण है कि भक्त को उन बाधाओं को स्वीकार नहीं करना चाहिए जो भगवान की सेवा में बाधा डालती हैं, क्योंकि ऐसी इच्छा ही भक्ति में सबसे बड़ी बाधा बन जाएगी।

संक्षेप में, पुष्टिमार्ग में सेवा का लक्ष्य भगवान श्री कृष्ण के साथ एक गहरा, व्यक्तिगत, प्रेमपूर्ण संबंध विकसित करना है, जो मन, शरीर और धन के शुद्ध और निस्वार्थ समर्पण के माध्यम से प्राप्त होता है, और यह विशेष रूप से घर पर ही किया जाना चाहिए।

  1. श्री वल्लभाचार्य के अनुसार 'पुष्टि जीव' और 'आसुरी जीव' की अवधारणा को विस्तार से समझाएं। पुष्टिमार्ग विशेष रूप से 'पुष्टि जीवों' के लिए क्यों है?

पुष्टिमार्ग में जीवों का वर्गीकरण उनकी आंतरिक प्रकृति और ईश्वर के साथ उनके संबंध को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार है। श्री वल्लभाचार्य के अनुसार, सभी जीव ईश्वर के अंश हैं। ब्रह्मा जब 'सत्' और 'चित्' गुणों के साथ प्रकट होते हैं और 'आनंद' गुण को छिपाते हैं, तो वही 'जीव' कहलाते हैं। भगवान ने लीला (खेल) के लिए विभिन्न प्रकार के जीवों की सृष्टि की है। पुष्टिमार्ग में जीवों को मुख्य रूप से तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है: प्रवाही जीव, मर्यादा जीव और पुष्टि जीव

पुष्टि जीव (Pushti Jeev)

पुष्टि जीव वे हैं जिन्हें भगवान के विशेष अनुग्रह ('पोषण') से आध्यात्मिक पोषण और शक्ति प्राप्त होती है। इन जीवों का प्राथमिक लक्ष्य मोक्ष या सांसारिक सुख नहीं, बल्कि भगवान श्री कृष्ण के आनंद का अनुभव करना है। पुष्टि भक्ति को 'निष्कारण' (बिना कारण के) या 'निष्काम' (इच्छा रहित) कहा जाता है, क्योंकि यह बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के की जाती है।

  • प्रकृति और उद्देश्य: पुष्टि जीवों को विशेष रूप से भगवान श्री कृष्ण की सेवा करने के लिए बनाया गया है। यद्यपि शुरुआत में वे सांसारिक मामलों से जुड़े हो सकते हैं और अपनी सेवा के कर्तव्य को भूल सकते हैं, भगवान उनकी भक्ति भावना को जगाते हैं। उनकी आंतरिक प्रकृति ऐसी है कि वे स्वाभाविक रूप से पुष्टिमार्ग की ओर आकर्षित होते हैं।

  • लक्ष्य: पुष्टि जीवों का लक्ष्य "आत्मानन्दसमुद्रस्थं कृष्णमेव विचिन्तयेत्" है, जिसका अर्थ है "अपने आनंद के सागर में निवास करने वाले श्री कृष्ण का ही ध्यान करना"।

  • सेवा का स्वरूप: जब पुष्टि जीव अपने घर पर अपने शरीर और धन से भगवान की सेवा करते हैं, तो उनका मन श्री कृष्ण से निरंतर जुड़ा रहता है। सेवा का उद्देश्य केवल श्री कृष्ण को प्रसन्न करना है, किसी सांसारिक या पारलौकिक फल की इच्छा से नहीं।

  • वर्तमान स्थिति: स्रोतों के अनुसार, सच्चे पुष्टि जीव आज दुर्लभ हैं।

आसुरी जीव (Asuri Jeev)

आसुरी जीव वे हैं जिनमें भौतिकवादी प्रवृत्तियाँ और नकारात्मक गुण प्रमुख होते हैं। भगवान ने शिव को मर्यादा-मार्ग और प्रवाही-मार्ग फैलाने की आज्ञा दी, जिससे आसुरी जीव इन मार्गों में संलग्न रहें और मोक्ष प्राप्त न कर सकें। ये जीव गीता में वर्णित "दुर्जनीय भागवत" के अनुयायी माने जाते हैं।

  • विशेषताएँ: आसुरी जीवों में क्रोध, लालच, अभिमान, अज्ञान, ईर्ष्या और अपवित्रता जैसे गुण पाए जाते हैं।

  • संबंध: पुष्टि जीव पर यदि प्रवाही गुणों का क्षणिक प्रभाव भी पड़े, तो भी उनकी मूल प्रकृति नहीं बदलती।

पुष्टिमार्ग विशेष रूप से 'पुष्टि जीवों' के लिए क्यों है?

पुष्टिमार्ग को भगवान श्री वल्लभाचार्य ने विशेष रूप से पुष्टि जीवों के उत्थान के लिए प्रकट किया था। इसके कई कारण हैं:

  • अनुग्रह का मार्ग (Krupa Marg): पुष्टिमार्ग 'पुष्टि' या भगवान के दिव्य अनुग्रह पर आधारित है, जहाँ भगवान स्वयं अपने वैष्णवों पर कृपा बरसाते हैं। यह मोक्ष का नहीं बल्कि प्रेम और आनंद का मार्ग है।

  • गृहस्थ जीवन में भक्ति: पुष्टिमार्ग में सांसारिक जीवन का त्याग (संन्यास) आवश्यक नहीं है। भक्त अपने शरीर, मन और बुद्धि को भगवान की भक्ति और प्रेम में केंद्रित करते हुए इस दुनिया में सकारात्मक रूप से रह सकते हैं।

  • आत्मानिवेदन और ब्रह्म-संबंध: पुष्टिमार्ग में ब्रह्म-संबंध के माध्यम से आत्मा और भगवान के बीच एक नवीनीकृत संबंध स्थापित किया जाता है। इसमें भक्त स्वयं को पूरी तरह से भगवान को समर्पित कर देता है। यह संबंध आत्मा को सभी पापों से मुक्त करता है, बशर्ते भक्त समर्पण के प्रति निष्ठावान रहे। निवेदन का अर्थ है अपनी संपत्ति को भगवान के उपभोग के लिए समर्पित करना, जिसमें कानूनी स्वामित्व भक्त के पास रहता है।

  • त्रिविध सेवा का महत्व: पुष्टिमार्ग में सेवा को तीन मुख्य प्रकारों में विभाजित किया गया है:

    • मानसी सेवा (मानसिक सेवा): मन को पूरी तरह से भगवान में लगाना। इसे सेवा का सर्वोच्च फल माना जाता है और यह तभी प्राप्त होती है जब शारीरिक और वित्तीय सेवाएँ एक ही व्यक्ति द्वारा की जाती हैं। श्री महाप्रभुजी के अनुसार, भक्त को आनंद के सागर में निवास करने वाले श्री कृष्ण का ही ध्यान करना चाहिए।

    • तनुजा सेवा (शारीरिक सेवा): भक्त के अपने शारीरिक प्रयासों और व्यक्तिगत श्रम के माध्यम से भगवान की सेवा करना। यह 'अहं' (मैं-भाव) को नष्ट करने में मदद करती है।

    • वित्तजा सेवा (वित्तीय सेवा): भक्त के अपने संसाधनों और धन के माध्यम से भगवान की सेवा करना, जिसमें भगवान को अपनी कमाई से सामग्री और भोग अर्पित करना शामिल है। यह 'मम' (मेरा-भाव) को नष्ट करने में मदद करती है।

  • तीनों सेवाएँ आपस में जुड़ी हुई हैं और आदर्श रूप से एक ही व्यक्ति द्वारा की जानी चाहिए ताकि मानसी सेवा सिद्ध हो सके।

  • गृह सेवा का जोर: पुष्टिमार्ग में भगवान की सेवा मुख्य रूप से घर पर की जानी चाहिए। घर को 'नंदालय' माना जाता है। सार्वजनिक प्रदर्शन या धन कमाने के उद्देश्य से की गई सेवा को हतोत्साहित किया जाता है। दिखावा और प्रसिद्धि की इच्छा से की गई सेवा को निष्फल माना जाता है।

  • शुद्धता और समर्पण: सेवा के दौरान शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धता ('अप्रस') बनाए रखना महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ अहंकार और स्वामित्व को त्यागकर विनम्रता की भावना से आत्मा को भरना भी है। प्रत्येक विचार, शब्द और कार्य श्री प्रभु के सुख और आनंद के लिए ही होना चाहिए।

संक्षेप में, पुष्टिमार्ग पुष्टि जीवों के लिए एक विशेष मार्ग है क्योंकि यह उन्हें भगवान श्री कृष्ण के साथ एक अद्वितीय, व्यक्तिगत और प्रेमपूर्ण संबंध स्थापित करने का अवसर प्रदान करता है, जो निस्वार्थ समर्पण, आंतरिक भक्ति और घर पर सेवा के माध्यम से होता है, जिसका अंतिम लक्ष्य केवल भगवान को प्रसन्न करना है।


  1. 'विवेकधैर्याश्रय' ग्रंथ में वर्णित विवेक, धैर्य और आश्रय के गुणों का पुष्टिमार्ग में क्या महत्व है? यह किस प्रकार भक्त को दुखों का सामना करने और आध्यात्मिक मार्ग पर स्थिर रहने में मदद करता है?

पुष्टिमार्ग में, श्री वल्लभाचार्य महाप्रभुजी द्वारा विरचित 'विवेकधैर्याश्रय' ग्रंथ में वर्णित विवेक, धैर्य और आश्रय के गुण भक्त के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये गुण भक्त को जीवन में आने वाले दुखों का सामना करने और आध्यात्मिक मार्ग पर स्थिर रहने में सहायता करते हैं।

यहाँ इन गुणों का पुष्टिमार्ग में महत्व और भक्तों को मिलने वाली सहायता का विवरण दिया गया है:

  • विवेक (भेदभाव/विमर्श):

    • पुष्टिमार्ग में, विवेक का अर्थ है यह समझना कि श्री हरि (भगवान कृष्ण) अपनी इच्छा से सब कुछ करते हैं। भक्त को यह विवेक सदा बनाए रखना चाहिए।

    • यह विवेक भक्त को यह जानने में सहायता करता है कि लौकिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक तीनों प्रकार के दुखों को सहना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि यदि प्रभु की इच्छा से कोई दुख आता है, तो दुख भोगने की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

    • यह विवेक भक्त को अपनी असामर्थ्यता को जानकर स्वयं, इंद्रियों के कार्यों को, शरीर, वाणी और मन से त्यागने और अशक्य होने पर भी श्रीहरि का ही कार्य करने में मदद करता है।

    • वास्तव में, जिस कार्य को करने में भक्त स्वयं को अशक्य (असमर्थ) पाता है, उन सभी कार्यों में श्री हरि ही रक्षक हैं।

  • धैर्य (धृति):

    • धैर्य, विवेक के साथ, सदैव रक्षा के योग्य है।

    • पुष्टिमार्ग में 'धृति' (धैर्य) को धर्म का पहला और महत्वपूर्ण गुण माना गया है। यह केवल संयोग से नहीं बल्कि एक कारण से पहले स्थान पर है, क्योंकि धर्म का अभ्यास करते समय हमें बहुत सी कठिनाइयाँ और उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थितियों में धैर्य ही वह है जिसकी कमी हमें महसूस होती है।

    • महाप्रभुजी सिखाते हैं कि धैर्य हमारे कर्मों का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है।

    • यह गुण भक्त को दूसरों द्वारा किए गए आक्रमणों या असत् पुरुषों के आक्रमणों को सहन करने में सहायता करता है।

    • धैर्य भक्त को पापों से मुक्त और अत्यंत दीन रहने में भी सहायक है।

  • आश्रय (शरण):

    • पुष्टिमार्ग में श्री हरि को ही सर्वथा शरण बताया गया है।

    • दुखों की हानि, पाप, भय, कामनाओं की अपूर्णता, भक्त के प्रति द्रोह, भक्ति का अभाव, भक्तों द्वारा किए गए अपराध, अहंकार से उत्पन्न कार्य, अपने पोष्य (आश्रितों) का पोषण और रक्षण, पोष्य द्वारा अतिक्रमण, और अंत में अलौकिक मन की सिद्धि के लिए, हर अवस्था में श्री हरि ही आश्रय हैं।

    • जब देश म्लेच्छों (हमलावरों) द्वारा आक्रांत हो, पाप का स्थान बन जाए, या शत्रुओं द्वारा पीड़ा दी जाए, अथवा आधिदैविक स्वरूप तिरोहित हो जाए, तब श्री कृष्ण ही एकमात्र गति (आश्रय) हैं।

    • अजामिल जैसे महापापियों के नाश करने वाले, तथा अपने महत्व को प्रकट करने वाले श्री कृष्ण ही मेरे रक्षक हैं।

    • सभी देवता, ब्रह्मा के गुण और अक्षर ब्रह्मा भी उन्हीं के अधीन हैं; इसलिए श्री कृष्ण ही पूर्ण आनंद स्वरूप और मेरे रक्षक हैं।

    • पुष्टिमार्ग में भगवान पर पूर्ण विश्वास और उनकी कृपा ही जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक है। जब भक्त अपना जीवन भगवान को समर्पित कर देता है, तो उसे सभी चिंताओं और आशंकाओं से मुक्त हो जाना चाहिए।

    • ब्रह्म-संबंध दीक्षा के माध्यम से आत्मा का भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और संबंध स्थापित होता है, जिससे आत्मा सभी पापों से मुक्त हो जाती है। यह भक्ति का सबसे आसान मार्ग है, जिसमें भगवान पर पूर्ण विश्वास आवश्यक है।

    • श्री वल्लभाचार्य ने नवग्रह (Navratna) ग्रंथ में चेतावनी दी है कि भक्त को सभी चिंताओं से मुक्त रहना चाहिए। कठिनाइयों में उसे भगवान को याद करना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि वे भगवान के आशीर्वाद के रूप में हैं।

भक्त को दुखों का सामना करने और आध्यात्मिक मार्ग पर स्थिर रहने में सहायता:

  • पूर्ण समर्पण: ये गुण भक्त को पूर्ण रूप से भगवान श्री कृष्ण के प्रति समर्पित होने में मदद करते हैं। जब भक्त यह समझ जाता है कि सब कुछ भगवान की इच्छा से हो रहा है और भगवान ही उसके रक्षक हैं, तो वह दुखों से विचलित नहीं होता बल्कि उन्हें भगवान की लीला या कृपा मानकर स्वीकार करता है।

  • आंतरिक स्थिरता: विवेक और धैर्य के माध्यम से, भक्त बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना अपने मन को भगवान में स्थिर रख सकता है। आंतरिक शुद्धता (अन्तःकरण शुद्धि) भक्ति के लिए महत्वपूर्ण है।

  • चिंता मुक्ति: भगवान पर पूर्ण विश्वास रखने से भक्त भविष्य की चिंताओं और आशंकाओं से मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि भगवान उसकी रक्षा करेंगे।

  • भगवत्प्रेम का अनुभव: पुष्टिमार्ग का अंतिम लक्ष्य भगवत्प्रेम का अनुभव करना है। विवेक, धैर्य और आश्रय के माध्यम से भक्त का मन भगवान में लीन होता जाता है, जिससे उसे भगवत्कृपा और आनंद की प्राप्ति होती है।

  • साधन-अभिमान से मुक्ति: पुष्टिमार्ग में साधन-अभिमान (साधनों पर गर्व) को बाधक माना गया है। विवेक और आश्रय भक्त को इस अभिमान से मुक्त होने में मदद करते हैं, क्योंकि वे सिखाते हैं कि भगवान की प्राप्ति केवल उनकी कृपा से होती है, न कि किसी साधन के बल पर।

  • स्व-स्फूर्त भक्ति: ये गुण भक्त को निस्वार्थ और निष्काम भक्ति (प्रेम लक्षणा भक्ति) करने के लिए प्रेरित करते हैं, जो किसी भी प्रतिफल या इच्छा के बिना होती है। यह भक्ति का सर्वोच्च रूप है जिससे आनंद की प्राप्ति होती है।

संक्षेप में, 'विवेकधैर्याश्रय' ग्रंथ भक्तों को जीवन की जटिलताओं और दुखों के बीच भगवान श्री कृष्ण पर अडिग विश्वास और निर्भरता बनाए रखने के लिए मार्गदर्शन करता है, जिससे वे आध्यात्मिक मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ सकें।

  1. वल्लभाचार्यजी के जीवन और शिक्षाओं का भारतीय समाज और धर्म पर क्या प्रभाव पड़ा?

वल्लभाचार्यजी के जीवन और शिक्षाओं का भारतीय समाज और धर्म पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा है। उन्हें एक महान संत, दार्शनिक और समाज सुधारक माना जाता है जिन्होंने भक्ति परंपरा में एक अद्वितीय मार्ग स्थापित किया।

उनके जीवन और शिक्षाओं के प्रमुख प्रभाव इस प्रकार हैं:

धार्मिक प्रभाव:

  • पुष्टिमार्ग की स्थापना: वल्लभाचार्यजी ने 'पुष्टिमार्ग' की स्थापना की, जिसे 'भगवान की कृपा का मार्ग' कहा जाता है। यह मार्ग भगवान श्री कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति पर केंद्रित है। पुष्टिमार्ग मुक्ति की अपेक्षा कृष्ण की सेवा और उनके आनंद को प्राप्त करने पर अधिक जोर देता है।

  • शुद्धाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन: उन्होंने 'शुद्धाद्वैत' (शुद्ध अद्वैतवाद) दर्शन की स्थापना की, जो मानता है कि ब्रह्म (परम सत्य), जीव (व्यक्तिगत आत्मा), और जगत (विश्व) सभी एक ही हैं—शुद्ध ब्रह्म के ही विभिन्न रूप हैं। इस दर्शन के अनुसार, जगत वास्तविक है और भगवान की ही अभिव्यक्ति है।

  • ब्रह्म-संबंध दीक्षा: वल्लभाचार्यजी ने 'ब्रह्म-संबंध' मंत्र की शुरुआत की, जो स्वयं को भगवान श्री कृष्ण को पूरी तरह से समर्पित करने का एक साधन है। यह दीक्षा किसी भी जाति, पंथ, लिंग या सामाजिक स्थिति के व्यक्ति द्वारा ली जा सकती थी, जिसने भक्ति के मार्ग को सभी के लिए सुलभ बना दिया।

  • गृहस्थ जीवन में सेवा का महत्व: उन्होंने सार्वजनिक मंदिरों के बजाय घरों में भगवान श्री कृष्ण (बाल स्वरूप) की विस्तृत 'सेवा' (भक्तिपूर्ण सेवा) करने पर जोर दिया। उनके अनुसार, गृहस्थों को अपने शरीर, मन और धन सहित सब कुछ कृष्ण को समर्पित करना चाहिए।

  • कला और संगीत का समावेश: वल्लभाचार्यजी ने भक्तिमय जीवन में संगीत (कीर्तन) और कला को एकीकृत किया। उन्होंने कीर्तन की समृद्ध परंपरा शुरू की, जिसमें संस्कृत से ब्रजभाषा में प्रार्थनाओं का सरलीकरण किया, ताकि वे आम लोगों द्वारा आसानी से समझी और गाई जा सकें। उनके दर्शन में कला का उद्देश्य केवल भगवान को प्रसन्न करना था।

  • शास्त्रीय आधार: उनके सभी उपदेश वेद, भगवद गीता, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भागवत जैसे प्रामाणिक शास्त्रों पर आधारित थे। उन्होंने इन शास्त्रों के गहन अध्ययन और व्यावहारिक अनुभव के आधार पर एक सरल मार्ग प्रस्तुत किया।

  • षोडश ग्रंथ: उन्होंने सोलह लघु ग्रंथ (षोडश ग्रंथ) लिखे, जो पुष्टिमार्ग के दर्शन और वैष्णव जीवन शैली को समझने के लिए मौलिक हैं। ये ग्रंथ जटिल अवधारणाओं को आसानी से समझने योग्य बनाते हैं।

  • श्री यमुनाष्टकम् की रचना: उन्होंने यमुनाजी की महिमा का गुणगान करने के लिए 'श्री यमुनाष्टकम्' की रचना की। यमुनाजी को पुष्टिमार्ग में कृपा प्रदान करने वाली माता के रूप में देखा जाता है।

सामाजिक प्रभाव:

  • समाज सुधारक: वल्लभाचार्यजी को एक आध्यात्मिक समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है। उनका मानना था कि धार्मिक नियंत्रण के बिना सामाजिक सुधार निरर्थक हैं, और उन्होंने समाज को बिना किसी अचानक व्यवधान के सुधारा।

  • समानता और समावेशन: उन्होंने सभी की समानता पर जोर दिया, यह सिखाते हुए कि भक्ति में सच्ची उत्कृष्टता जाति, पंथ, नस्ल, रंग, धन, आयु या लिंग के बावजूद प्राप्त की जा सकती है। उनका प्रेम सार्वभौमिक था और वे सभी को समान मानते थे।

  • वर्णव्यवस्था पर दृष्टिकोण: उनका मानना था कि व्यक्ति का वर्ण उसकी जन्म के बजाय उसके गुणों पर निर्भर करता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वर्ण-आश्रम प्रणाली के पतन के बावजूद, कृष्ण की पूजा करके धर्म के मार्ग पर रहा जा सकता है।

  • प्रेम विवाह का समर्थन: उन्होंने प्रेम विवाहों को स्वीकार किया और वैष्णवों के बीच अंतर-जातीय विवाहों पर आपत्ति नहीं की, बशर्ते वास्तविक प्रेम हो।

  • अतिथि सत्कार: उन्होंने वैष्णवों के प्रति अतिथि सत्कार के उच्च आदर्शों पर जोर दिया, यहाँ तक कि अतिथि सत्कार में संकोच न करने के लिए भूखे रहने को भी प्राथमिकता दी।

  • गौ-रक्षा: वल्लभाचार्यजी और उनके अनुयायी गौ-रक्षा के लिए प्रसिद्ध थे। उनके पुत्र विट्ठलनाथजी को सम्राट अकबर द्वारा 'गोस्वामी' (गौ-रक्षक) की उपाधि से सम्मानित किया गया था।

  • "मानव सेवा, ईश्वर सेवा": उन्होंने सिखाया कि मनुष्यों और पशुओं की सेवा भगवान की सेवा है।

संक्षेप में, वल्लभाचार्यजी ने भारतीय समाज और धर्म पर गहरा प्रभाव डाला, एक ऐसे भक्ति मार्ग को स्थापित किया जो समावेशी था, व्यक्तिगत साधना पर केंद्रित था, और सभी के लिए भगवान के साथ एक प्रेमपूर्ण संबंध बनाने का एक सरल तरीका प्रदान करता था। उनके उपदेश आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं।


भाग 4: समयरेखा


15वीं शताब्दी (सम्वत 1545/1488 ईस्वी):

श्री वल्लभाचार्य का जन्म चंपारन्य में हुआ, जब उनके माता-पिता मुस्लिम आक्रमणकारियों से काशी (वाराणसी) छोड़कर दक्षिण की ओर जा रहे थे। यह एक समय था जब हिंदू धर्म और संस्कृति खतरे में थी, और इसे "तलवार और आतंक के शासन" के रूप में वर्णित किया गया है।

श्री वल्लभाचार्य के जन्म को पुष्टिमार्ग का "जन्म" दिवस माना जाता है।

प्रारंभिक बचपन:

पांच साल की उम्र में, उन्होंने जोर से "रामकृष्ण मुकुंद माधो" नाम का उच्चारण किया।

वह कृष्ण की लीलाओं को देखने में इतने तल्लीन हो जाते थे कि वे अक्सर समाधि में चले जाते थे।

उन्होंने श्यामदास, एक बढ़ई से दोस्ती की।

अध्ययन और शिक्षा (काशी में):

श्री वल्लभाचार्य को 1535 सम्वत में उपनयन संस्कार के बाद पवित्र धागा दिया गया।

उन्होंने वेदों, उपनिषदों और दर्शन के छह प्रणालियों का अध्ययन किया।

उन्हें "बाला सरस्वती" के रूप में मान्यता मिली क्योंकि उन्होंने वैदिक मंत्रों का धाराप्रवाह पाठ किया, यहां तक कि उलटे क्रम में भी।

शंकर के मायावाद सिद्धांत की तीखी आलोचना की और अद्वैतवाद के अपने दर्शन को स्पष्ट किया, जिसमें कहा गया है कि जीव और जगत ब्रह्म से विकसित हुए हैं और वास्तविक हैं।

उन्होंने तर्क दिया कि श्री कृष्ण सर्वोच्च देवता हैं, जो सभी देवताओं का मूल हैं, और उनकी भक्ति ही मोक्ष का मार्ग है।

उन्होंने 'तत्त्वदीपा निबंध' का पहला अध्याय रचा।

काशी के विद्वानों के साथ एक धार्मिक सम्मेलन में, उन्होंने शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच विवाद में वैष्णव दृष्टिकोण का सफलतापूर्वक बचाव किया और राजा और विद्वानों पर गहरा प्रभाव डाला। राजा ने सम्मान के रूप में "कनक-अभिषेक" समारोह आयोजित किया, जिसमें सोने से तौला गया।

प्रथम अखिल भारतीय यात्रा (लगभग 16 वर्ष की आयु में):

मां से आशीर्वाद लेकर, श्री वल्लभाचार्य ने अपनी पहली यात्रा शुरू की।

अपने शिष्य कृष्णदास मेघान के साथ चंपारन्य के पास से गुजरते हुए, जहां एक कुआं खोदा गया और श्रीमद भागवत का पाठ किया गया।

वर्धा से गुजरते हुए, दामोदरदास हरसानी उनके शिष्य बने, जो पुष्टिमार्ग में पहले वैष्णव बने।

वे पुष्टिमार्ग की स्थापना के लिए गोकुल गए।

श्रावण शुक्ल एकादशी, सम्वत 1549: श्री कृष्ण भगवान ने श्री वल्लभाचार्य को दर्शन दिए और "गद्य मंत्र" दिया। इस दिन को पुष्टिमार्ग के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है, और इसे "पवित्र एकादशी" भी कहा जाता है।

श्रावण शुक्ल द्वादशी, सम्वत 1549 (अगले दिन): श्री वल्लभाचार्य ने दामोदरदास हरसानी को ब्रह्मा-संबंध मंत्र की दीक्षा दी।

उन्होंने ब्रह्मा-संबंध की अवधारणा और पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों की व्याख्या करने के लिए 'सिद्धांत रहस्य' की रचना की।

गोकुल से मथुरा लौटने पर, उन्होंने ब्रज की परिक्रमा का व्रत लिया, जिसमें मधुवन, तालवन और बाहुलवन जैसे स्थानों का दौरा किया।

गुजरात में सिद्धपुर का दौरा, जहां उन्होंने वाममार्गी के अभ्यास की निंदा की।

द्वारका की यात्रा, जहां उन्होंने देखा कि मुस्लिम प्रभाव के कारण लोग नैतिक और धार्मिक उत्साह में कमी कर रहे थे।

उन्होंने विभिन्न धर्मों और विश्वासों के लोगों से मुलाकात की, जिन्होंने भक्ति के सुषुप्त बीजों को जागृत किया।

यह यात्रा तीन साल तक चली।

काशी में विवाह और लेखन:

अपनी मां से परामर्श के बाद उन्होंने मधु मंगलम की बेटी महालक्ष्मी से वाराणसी में विवाह किया।

उनके दो पुत्र हुए: श्री गोपीनाथजी और श्री विठ्ठलनाथजी।

उन्होंने 'अनुभाष्य' नामक वेदांत सूत्रों पर अपनी टिप्पणी सहित कई पुस्तकें और ग्रंथ लिखे।

द्वितीय अखिल भारतीय यात्रा (सम्वत 1550):

उन्होंने गोवर्धन पहाड़ी पर श्री नाथजी के दर्शन के लिए यात्रा की। उन्होंने श्री कृष्णदास पटेल को मंदिर के प्रबंधक के रूप में नियुक्त किया।

उन्होंने 'भागवत धर्म' के सिद्धांतों का प्रसार किया, सभी प्रमुख सीखने की सीटों और भारत में पवित्र स्थानों को कवर किया।

इस यात्रा के दौरान, श्री वल्लभाचार्य को सर्प के काटने और चींटियों द्वारा हमला होने का अनुभव हुआ। दामोदरदास ने उनसे इसका कारण पूछा, और वल्लभाचार्य ने समझाया कि यह एक पूर्ववर्ती जन्म का परिणाम था, जहां गुरु ने सांसारिक सुखों का पीछा करने के लिए अपने शिष्यों का नेतृत्व किया था।

अंतिम दिन और महाप्रयाण (52 वर्ष की आयु):

श्री वल्लभाचार्य ने सांसारिक मोह से खुद को विरक्त कर लिया और श्री कृष्ण की स्तुति में ध्यान और गायन करना शुरू कर दिया।

अपने भौतिक संसार से प्रस्थान करने से एक सप्ताह पहले, उन्होंने वाराणसी में हनुमान घाट पर गंगा नदी के किनारे मौन व्रत धारण किया।

अपने दो बेटों, श्री गोपीनाथजी और श्री विठ्ठलनाथजी के अनुरोध पर, उन्होंने रेत पर अपने अंतिम संदेश के कुछ शब्द लिखे, जिसमें भक्तों को सांसारिक मोह को त्यागने और भगवान कृष्ण की सेवा पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी गई थी।

उनके संदेश के पूरा होते ही, भगवान कृष्ण स्वयं प्रकट हुए और रेत पर एक श्लोक लिखा, जिसमें भक्तों को उन पर पूर्ण विश्वास रखने, सभी दुखों से मुक्त होने और गोपी भाव से प्रेम करने के लिए कहा गया।

इसके तुरंत बाद, श्री वल्लभाचार्य गंगा के पानी में प्रवेश कर गए, गोपीगीत और युगल गीता का गायन करते हुए।

एक उज्ज्वल लौ पानी से उठी और हजारों दर्शकों की उपस्थिति में उन्हें ले गई, जो उनके महाप्रयाण का प्रतीक था।

पात्रों का विवरण (Cast of Characters)

श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु (जगद्गुरु श्री वल्लभाचार्य): सोलहवीं शताब्दी के एक महान हिंदू आचार्य और वैष्णव संप्रदाय के संस्थापक, विशेष रूप से पुष्टिमार्ग के। वे हिंदू धर्म और संस्कृति को मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें ज्ञान, भक्ति और भगवान कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण के प्रति अपने अद्वितीय दृष्टिकोण के लिए "बाला सरस्वती" और "महाप्रभु" के रूप में सम्मानित किया गया था। उनका जीवन ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और भक्तों को मुक्ति का मार्ग दिखाने के लिए समर्पित था।

श्रीमहालक्ष्मी: श्री वल्लभाचार्य की पत्नी, एक पवित्र ब्राह्मण की बेटी। उन्होंने अपने पति के आध्यात्मिक मिशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनके परिवार का पालन-पोषण किया।

श्री गोपीनाथजी: श्री वल्लभाचार्य के बड़े पुत्र। वे अपने पिता की आध्यात्मिक विरासत को आगे बढ़ाने में शामिल थे।

श्री विठ्ठलनाथजी: श्री वल्लभाचार्य के छोटे पुत्र, जिन्हें श्री विठोबा के अवतार के रूप में माना जाता है। उन्होंने पुष्टिमार्ग को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अपने पिता के निधन के बाद इस संप्रदाय का नेतृत्व किया। वह 72 वर्षों तक संप्रदाय के प्रचार के लिए लगातार प्रयासरत रहे।

लक्ष्मन भट्ट: श्री वल्लभाचार्य के पिता, एक अत्यधिक ज्ञानी और अनुभवी ब्राह्मण। उन्होंने अपने पुत्र की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और वल्लभाचार्य के जीवन में एक गुरु के रूप में कार्य किया।

इल्लमागरु: श्री लक्ष्मन भट्ट की बहन और विद्यानगर के राजा के धर्मार्थ विभाग की प्रमुख। उन्होंने वल्लभाचार्य के जन्म से पहले अपने परिवार के साथ काशी से प्रस्थान किया।

कृष्णदास मेघान: मथुरा के पास सोरमजी गांव के एक निवासी, जो श्री वल्लभाचार्य के उत्साही अनुयायी बने। उनके गुरु ने उन्हें बताया था कि भगवान श्री वल्लभाचार्य के जन्म के दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। वे वल्लभाचार्य के आजीवन सेवक रहे।

दामोदरदास हरसानी: एक धनी परिवार का पुत्र जो श्री वल्लभाचार्य का शिष्य बना और पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने वाला पहला वैष्णव था।

राजा कृष्णदेवराय: विद्यानगर के राजा, जिन्होंने श्री वल्लभाचार्य के ज्ञान और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें "कनक-अभिषेक" से सम्मानित किया और उनके धार्मिक सिद्धांतों का समर्थन किया।

रामदास चौहान और कुंभनदास: श्री नाथजी मंदिर में सेवा और कीर्तन के लिए श्री वल्लभाचार्य द्वारा नियुक्त किए गए व्यक्ति।

पंडित रामानंद मिश्र: एक ब्राह्मण जो श्री वल्लभाचार्य का शिष्य बना। शुरुआत में, वह सांसारिक विचारों में उलझा हुआ था, लेकिन वल्लभाचार्य के मार्गदर्शन में अपने मार्ग पर लौटा।

महाराणा राजसिंहजी (उदयपुर): उदयपुर के महाराणा जिन्होंने सिहाड़ गांव में श्रीनाथजी की स्थापना में सुविधा प्रदान की, इस समझ के साथ कि स्थिति में सुधार होने पर श्रीनाथजी वापस ब्रज लौट जाएंगे।

जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर: मुगल बादशाह, जिन्होंने गुसाईं विट्ठलराय (श्री विठ्ठलनाथजी) को गोकुल में जाटिपूरा गांव में अपने धर्म का पालन करने की अनुमति दी।

बूल मिश्रा: एक ब्राह्मण जिसने सीखने की इच्छा के बावजूद सफलता नहीं पाई। भगवान के नाम का जाप करने के बाद, उसे भगवान के दर्शन हुए और फिर वह श्री वल्लभाचार्य का शिष्य बन गया, जिसने मोक्ष के बजाय भक्ति की इच्छा व्यक्त की।

सूरदास: एक प्रसिद्ध कवि जो श्री वल्लभाचार्य के शिष्य बने। उनकी भक्तिमय कविताएं भगवान कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करती हैं और उन्होंने अपना पूरा जीवन गोवर्धन पहाड़ी पर श्री कृष्ण की सेवा में समर्पित किया।

परमानंददास: श्री वल्लभाचार्य के एक अन्य शिष्य, एक प्रतिभाशाली कवि, जिनके गीत और रचनाएँ भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण थीं।



भाग 5: शब्दावली

  • आचार्य: आध्यात्मिक गुरु या शिक्षक।

  • अद्वैत: गैर-द्वैतवाद; एक दार्शनिक अवधारणा जिसमें अंतिम वास्तविकता को अविभाज्य माना जाता है।

  • अहं: अहंकार, स्वयं का भाव।

  • आसुरी जीव: वे जीव जिन्हें भगवान की भक्ति या मुक्ति प्राप्त नहीं होती है; राक्षसी प्रवृत्ति वाले।

  • आश्रय: शरण या सहारा, विशेषकर भगवान की शरण।

  • ईश्वरीय कृपा: भगवान की अनुकंपा या दया।

  • कनकाभिषेक: सोने से अभिषेक करने का एक समारोह, सम्मान का प्रतीक।

  • कर्म: किसी व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य और उनके परिणाम।

  • कृष्ण: भगवान विष्णु का एक रूप, पुष्टिमार्ग में सर्वोच्च देवता।

  • गंगा: भारत की एक पवित्र नदी।

  • गद्य मंत्र: एक रहस्यमय सूत्र जो पुष्टिमार्ग में ब्रह्म-संबंध के दौरान दिया जाता है।

  • घट्टा: नदी का घाट।

  • ज्ञान: ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान।

  • जगत: संसार या ब्रह्मांड।

  • जीव: व्यक्तिगत आत्मा।

  • तनजा सेवा: शारीरिक परिश्रम द्वारा की गई सेवा।

  • त्याग: renunciation या किसी चीज का त्याग।

  • दर्शन: भगवान या पवित्र व्यक्ति को देखना; पवित्र दृष्टि।

  • दामोदरदास हरसानी: पुष्टिमार्ग में दीक्षा लेने वाले पहले वैष्णव।

  • दान: donation या उपहार देना।

  • धर्म: धार्मिक कर्तव्य, सदाचार, कानून।

  • धैर्य: धीरज, सहनशीलता।

  • निवेदन: भगवान को पूर्ण समर्पण, जिसमें कानूनी स्वामित्व का त्याग किए बिना सब कुछ भगवान को समर्पित किया जाता है।

  • नवरत्नम्: श्री वल्लभाचार्य द्वारा रचित सोलह ग्रंथों में से एक, जिसमें नव-अंगों के समर्पण और भगवान पर पूर्ण आश्रय पर जोर दिया गया है।

  • निराकार: बिना रूप का, निराकार।

  • परमात्मा: सर्वोच्च आत्मा, भगवान।

  • पुष्टि: ईश्वरीय कृपा; पुष्टिमार्ग का केंद्रीय सिद्धांत।

  • पुष्टिमार्ग: श्री वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित भगवान की कृपा का मार्ग।

  • पुष्टि जीव: वे जीव जिन्हें भगवान अपनी भक्ति या मुक्ति प्रदान करते हैं।

  • पुरुषार्थ: मानव जीवन के चार लक्ष्य: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

  • प्रवाही जीव: वे जीव जो सांसारिक धारा में बहते रहते हैं और भगवान की भक्ति प्राप्त नहीं करते हैं।

  • ब्रह्म: सर्वोच्च वास्तविकता।

  • ब्रह्म-संबंध: आत्मा और भगवान के बीच एक नया संबंध स्थापित करने की प्रक्रिया।

  • भक्ति: भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति।

  • भगवत गीता: एक पवित्र हिंदू धर्मग्रंथ, महाभारत का हिस्सा।

  • भागवत: श्रीमद्भागवत पुराण, एक प्रमुख हिंदू धर्मग्रंथ।

  • भाव: भावना, मनोदशा।

  • माया: भ्रम, लौकिक शक्ति।

  • मानसी सेवा: मानसिक रूप से की गई सेवा, जिसमें मन भगवान की सेवा में लीन रहता है।

  • मम: मेरा, ममत्व का भाव।

  • मोक्ष: मुक्ति, सांसारिक बंधन से मुक्ति।

  • यज्ञ: धार्मिक अनुष्ठान या बलिदान।

  • यमुनाजी: एक पवित्र नदी, जिसे पुष्टिमार्ग में महत्वपूर्ण माना जाता है।

  • योग: आध्यात्मिक अनुशासन और अभ्यास।

  • रूपांतर: परिवर्तन या रूपांतरण।

  • लीला: भगवान के दिव्य खेल या कार्य।

  • वेद: हिंदू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथ।

  • वैष्णव: भगवान विष्णु या उनके अवतारों, विशेषकर कृष्ण के भक्त।

  • विवेक: ज्ञान, विवेकशीलता।

  • वित्तजा सेवा: वित्तीय संसाधनों द्वारा की गई सेवा।

  • विरुद्धा-धर्माश्रय: परस्पर विरोधी गुणों से युक्त होना, भगवान का एक गुण।

  • शुद्धाद्वैत: शुद्ध अद्वैतवाद, श्री वल्लभाचार्य का दर्शन।

  • शरणं मम: "भगवान श्रीकृष्ण मेरी शरण हैं" - पुष्टिमार्ग का एक मूल सूत्र।

  • श्रावण शुक्ल एकादशी: हिंदू कैलेंडर का एक पवित्र दिन, पुष्टिमार्ग का जन्म दिवस।

  • श्री कृष्णाश्रयः: श्री वल्लभाचार्य द्वारा रचित सोलह ग्रंथों में से एक, जिसमें श्रीकृष्ण को एकमात्र शरण बताया गया है।

  • श्री यमुनाष्टकम: श्री वल्लभाचार्य द्वारा रचित सोलह ग्रंथों में से एक, जिसमें श्री यमुनाजी की महिमा का वर्णन है।

  • षोडशग्रंथ: श्री वल्लभाचार्य द्वारा रचित सोलह छोटे ग्रंथों का संग्रह।

  • सकाम कर्म: सांसारिक इच्छाओं के साथ किए गए कार्य।

  • सत्-चित्-आनंद: अस्तित्व, चेतना, आनंद - ब्राह्मण के गुण।

  • संन्यास: सांसारिक जीवन का त्याग, संन्यास।

  • सेवा: भगवान की भक्तिपूर्ण सेवा।

  • स्वामिनी भाव: भगवान को अपना स्वामी मानना।

  • स्वधर्म: अपना कर्तव्य।



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