1. भक्ति आंदोलन का मूल तत्व और अर्थ:
मोक्ष की प्राप्ति: भक्ति आंदोलन का मूल तत्व 'भक्ति' है, जिसका तात्पर्य मोक्ष की प्राप्ति से है।
ईश्वर के प्रति निःस्वार्थ प्रेम: "ईश्वर के प्रति है तू पध है तू करते हैं बिना किसी रिटर्न की प्रत्याशा है कि बिना किसी प्रतिदान की प्रत्याशा कि ईश्वर के प्रति दायित्व प्रेम और कोण शरणागति की स्थिति।" भक्तिवाद |
उपासना की पद्धति: भक्ति एक धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि उपासना की एक पद्धति है, जो किसी भी गाड़ी में फिट होकर उसे दौड़ा सकती है। यह एक उत्प्रेरक है।
2. भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति और विकास:
दक्षिण भारत से शुरुआत: भारत में सर्वप्रथम भक्ति आंदोलन का विकास दक्षिण भारत में सन 700 से 1200 ईस्वी के मध्य हुआ।
समतावादी आंदोलन: यह एक समतावादी आंदोलन था, जो किसी जाति या धर्म विशेष पर आधारित नहीं था, बल्कि लोगों के बीच समानता का भाव पैदा करता था।
उपासना की विधियों का त्याग: भक्ति आंदोलन के दौरान कर्मकांड और यज्ञ जैसी उपासना की विधियों का त्याग किया गया, यह मानते हुए कि भगवान को भक्ति मार्ग द्वारा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
इस्लाम के आक्रमण का प्रभाव (एक मत): कुछ लोगों का मानना है कि इस्लाम के आक्रमण ने हिंदू धर्म को कमजोर कर दिया, जिससे हिंदू वर्ग हताश और असहाय महसूस करने लगा और ईश्वर की शरण में चला गया, जिससे भक्ति और ईश्वर के बीच संवाद की प्रक्रिया शुरू हुई।
सूफी संतों का प्रभाव (एक मत): कुछ का मानना है कि सूफी आंदोलन के उदार और शांतिपूर्ण प्रचार से प्रभावित होकर निम्न वर्ग इस्लाम में जाने लगा, जिससे हिंदू धर्म में उदारता को बढ़ावा मिला और सभी वर्गों के लिए द्वार खुले।
द्रविड़ क्षेत्र में उत्पत्ति (मुख्य मत): भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति द्रविड़ क्षेत्र में हुई, जिसे रामानंद उत्तर भारत में लेकर आए।
3. भक्ति की दार्शनिक धाराएं और प्रमुख संत:
भक्ति आंदोलन को समझने के लिए तीन मुख्य मार्ग बताए गए हैं: ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग।
A. प्रमुख दार्शनिक सिद्धांत और प्रतिपादक:
अद्वैतवाद :
प्रतिपादक: शंकराचार्य।
आधार: वेदांत अथवा उपनिषद।
सिद्धांत: "दो नहीं, एक है" अर्थात ईश्वर और आत्मा एक हैं और उनका मिलन ही मोक्ष है। यह ज्ञान का समर्थन करता है।
शंकराचार्य के मठ: शंकराचार्य ने धर्म की एकता के लिए भारत में चार मठ स्थापित किए:
श्रृंगेरी शारदा पीठ (शारदा मठ) - कर्नाटक में श्रृंगेरी में स्थित है। यह दक्षिण दिशा का मठ है। (आपने इसे "वेदांत मठ" लिखा है, जो सही है क्योंकि यह वेदांत के अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र है, लेकिन इसका औपचारिक नाम श्रृंगेरी शारदा पीठ है)।
गोवर्धन पीठ - ओडिशा में जगन्नाथ पुरी में स्थित है। यह पूर्व दिशा का मठ है।
शारदा पीठ (द्वारका शारदा पीठ) - गुजरात में द्वारका में स्थित है। यह पश्चिम दिशा का मठ है।
ज्योतिर्मठ पीठ (जोशीमठ) - उत्तराखंड में बद्रीकाश्रम (वर्तमान जोशीमठ के पास) में स्थित है। यह उत्तर दिशा का मठ है।
विशिष्टाद्वैत :
प्रतिपादक: रामानुजाचार्य।
सिद्धांत: यह अद्वैतवाद के विरोध में आया, जिसमें कहा गया कि जीव और ब्रह्म एक ही तत्व से निर्मित हैं, परंतु एक नहीं हैं। जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में नहीं, बल्कि उससे मिलने और आनंद महसूस करने में है। इन्होंने ईश्वर की कृपा (ज्ञान से अधिक) को मोक्ष के लिए आवश्यक बताया। रामानुजाचार्य ने शूद्रों को भी ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग बताया।
ब्रह्मसूत्र पर टीका: रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर 'श्री भाष्य' नाम से टीका लिखी।
द्वैतवाद :
प्रतिपादक: माधवाचार्य।
शुद्धाद्वैत:
प्रतिपादक: वल्लभाचार्य (इन्हें विष्णु स्वामी भी कहा जाता है)।
दर्शन: इन्होंने पुष्टिमार्ग के दर्शन की स्थापना की।
जन्म: इनका जन्म वाराणसी में हुआ था।
अष्टछाप के कवि: इनके पुत्र विट्ठलनाथ के 4 शिष्य और वल्लभाचार्य के 4 शिष्य (कुल 8) मिलकर 'अष्टछाप के कवि' कहलाए। वल्लभाचार्य के शिष्यों में सूरदास, कृष्णदास, कुंभनदास, परमानंद दास शामिल थे, जबकि विट्ठलनाथ के शिष्यों में गोविंद स्वामी, क्षित स्वामी, नंददास, चतुर्भुजदास थे।
द्वैताद्वैत :
प्रतिपादक: निंबार्काचार्य।
B. भक्ति की प्रमुख धाराएं: सगुण और निर्गुण भक्ति:
रामानंद जी (15वीं शताब्दी) ने भक्ति को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाने का श्रेय प्राप्त किया। इन्होंने संस्कृत के स्थान पर हिंदी में उपदेश देना शुरू किया और चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) को दीक्षा दी। इनके शिष्यों में रविदास (हरिजन), कबीरदास (जुलाहा), धन्ना (जाट), सेन (नाई), साधना (कसाई), पीपा (राजपूत) जैसे विभिन्न जातियों के लोग शामिल थे। रामानंद ने एकेश्वरवाद पर जोर दिया और इन्हीं के द्वारा सगुण और निर्गुण भक्ति धाराओं का उदय हुआ।
निर्गुण भक्ति शाखा:
ईश्वर का स्वरूप: निर्गुण भक्ति शाखा के संत निराकार ब्रह्म की पूजा करते थे। उनका मानना था कि ईश्वर का कोई आकार नहीं है, वह जन्म नहीं लेता और कोई अवतार नहीं लेता। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
विरोध: ये लोग मूर्ति पूजा, मंदिर पूजा, तीर्थ यात्रा और समाज में फैली कुरीतियों, आडंबरों तथा कर्मकांडों का विरोध करते थे। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
प्रमुख संत:ज्ञानमार्गी (ज्ञानाश्रयी): ज्ञान के बल पर ईश्वर की प्राप्ति की बात करते थे। इन्होंने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों की बुराइयों पर प्रहार किया।
संत: कबीर दास, रविदास, गुरु नानक देव जी, दादू दयाल, जंभनाथ, सलूक दास, सुंदर दास, नामदेव। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
भाषा: ब्रजभाषा का प्रयोग करते थे। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
कबीर दास: जुलाहा थे, नीरू-नीमा द्वारा पाले गए। जन्म लहरतारा (वाराणसी) और मृत्यु मगहर (संत कबीर नगर) में हुई। सिकंदर लोदी के समकालीन थे। इनकी शिक्षाएं साखी, सबद, रमैनी और बीजक में संग्रहित हैं।
प्रेममार्गी (प्रेमाश्रयी): अधिकतर सूफी संत इस शाखा से संबंधित थे, जिन्होंने प्रेम के माध्यम से समाज में भाईचारा फैलाने का प्रचार किया।
संत: मलिक मुहम्मद जायसी, मुल्ला दाऊद, मंजन, उस्मान, कुतुबन, शेख नबी। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
भाषा: अवधी भाषा का प्रयोग करते थे। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
ब्रह्म संप्रदाय: इसकी स्थापना दादू दयाल जी ने की, जो कबीर के अनुयायी थे। उन्होंने पी ख आंदोलन की शुरुआत की।
गुरु ग्रंथ साहिब: इसमें संत रविदास जी के 30 से अधिक भजन संग्रहित हैं। रविदास जी ने रायदासी संप्रदाय की स्थापना की थी।
सगुण भक्ति शाखा:
ईश्वर का स्वरूप: सगुण भक्ति शाखा के संत ईश्वर को आकार सहित मानते थे। उनका मानना था कि ईश्वर धरती पर अवतार लेते हैं और मूर्ति के रूप में उनकी पूजा करते थे। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
पालन: ये लोग मूर्ति पूजा, मंदिर निर्माण, तीर्थ यात्रा और आडंबरों का पालन करते थे। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
प्रमुख संत:कृष्णमार्गी (कृष्णश्रयी): कृष्ण जी की भक्ति करते थे, जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है।
संत: मीराबाई, सूरदास, रसखान, अब्दुल रहीम खानखाना, नरोत्तम दास, नंददास, परमानंद, कुंभनदास, कृष्णदास। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
भाषा: ब्रजभाषा का प्रयोग करते थे, क्योंकि कृष्ण का संबंध ब्रज से है। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
राममार्गी (रामाश्रयी): राम जी की भक्ति करते थे, जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है।
संत: तुलसीदास, नरहरि दास, नाभादास, केशव, ईश्वर दास, रामानंद। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
भाषा: अवधी भाषा का प्रयोग करते थे, क्योंकि राम का संबंध अवध से है। (भक्ति आंदोलन, निर्गुण भक्ति शाखा, सगुण भक्ति शाखा, निर्गुण भक्ति शाखा के संत, सगुण भक्ति शाखा के संत)
4. भक्ति आंदोलन का प्रभाव और योगदान:
सामाजिक सुधार: इसने जाति व्यवस्था के कठोर नियमों को चुनौती दी और धार्मिक तथा सामाजिक समानता की वकालत की, विशेष रूप से निम्न वर्ग के लोगों के लिए मंदिरों में प्रवेश और उपासना का अधिकार।
भाषा और साहित्य: भक्ति आंदोलन ने स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहन दिया, जिससे हिंदी (कबीरदास), पंजाबी (गुरु नानक देव - गुरमुखी लिपि), अवधी (मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास), ब्रजभाषा (सूरदास, मीराबाई) जैसी भाषाओं में समृद्ध साहित्य का विकास हुआ।
कला और संस्कृति: इसने स्थापत्य कला (मंदिर निर्माण), मूर्तिकला (विष्णु, शिव, राम, कृष्ण की मूर्तियां), चित्रकला (राधा-कृष्ण, रामायण, महाभारत के चित्र), संगीत कला (कर्नाटक संगीत) और नृत्य कला (कत्थक, भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी) को प्रभावित किया।
एकता और सामंजस्य: भक्ति आंदोलन ने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के बीच समन्वय और एकता को बढ़ावा दिया, जैसा कि कबीर जैसे संतों ने "ना हिंदू ना मुसलमान" की मानसिकता को बढ़ावा दिया। (भक्ति कालीन संप्रदाय, भक्ति आंदोलन, भक्ति आंदोलन का इतिहास, Bhakti movement history in Hindi)
राजनीतिक प्रतिरोध: कुछ आंदोलनों, जैसे महाराष्ट्र धर्म (विठोबा की पूजा से जुड़ा) ने सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया और बाद में मराठा राज्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। सिख धर्म भी नानक के संगत और पंगत के माध्यम से समतामूलक समाज का एक शक्तिशाली संगठन बन गया।
आधुनिक जीवन पर प्रभाव: भक्ति का प्रभाव आज भी भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और यहां तक कि राजनीतिक जीवन में भी गहराई से निहित है, जो वीर पूजा और समर्पण के रूप में परिलक्षित होता है।
भक्ति आंदोलन के प्रश्नों के विस्तृत उत्तर
1. भक्ति आंदोलन का मूल तत्व क्या है और यह कब तथा कहाँ शुरू हुआ?
भक्ति आंदोलन का मूल तत्व मोक्ष की प्राप्ति है, जिसका अर्थ है ईश्वर के प्रति निस्वार्थ प्रेम, श्रद्धा और पूर्ण समर्पण। मोक्ष प्राप्त करने के लिए तीन मार्ग बताए गए हैं: ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग। भक्ति आंदोलन मोक्ष प्राप्ति के इसी परम लक्ष्य पर केंद्रित था। यह आंदोलन सर्वप्रथम दक्षिण भारत में सन 700 ई. से 1200 ई. के मध्य विकसित हुआ। शंकराचार्य जी को भक्ति आंदोलन का प्रथम प्रचारक एवं संत माना जाता है, जिनका जन्म केरल में हुआ था।
2. भक्ति आंदोलन किस प्रकार का आंदोलन था और इसने किन सामाजिक पहलुओं पर जोर दिया?
भक्ति आंदोलन एक समतावादी आंदोलन था। इसने लोगों के बीच समानता का भाव पैदा किया और जाति तथा धर्म विशेष पर आधारित नहीं था। भक्ति काल के दौरान, कर्मकांडों और यज्ञ की विधियों का त्याग किया गया, और यह संदेश दिया गया कि भगवान को भक्ति मार्ग के द्वारा बहुत आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। इस आंदोलन ने शूद्रों और निम्न जातियों के लोगों को मंदिरों में प्रवेश और पूजा-पाठ करने की अनुमति न दिए जाने जैसी कुरीतियों का खंडन किया, और सभी को एक समान समझा। इसने धार्मिक और सामाजिक समानता की मांग उठाई।
3. शंकराचार्य के अद्वैतवाद दर्शन का आधार क्या था और उन्होंने धर्म की एकता के लिए क्या किया?
शंकराचार्य के दर्शन का आधार अद्वैतवाद था, जिसका प्रतिपादन उन्होंने वेदांत और उपनिषदों को आधार बनाकर किया था। अद्वैतवाद का अर्थ है कि ईश्वर (ब्रह्म) और आत्मा एक ही हैं, और उनका मिलन ही मोक्ष है। अज्ञानता के कारण ही लोग इन्हें भिन्न देखते हैं। शंकराचार्य ने धर्म की एकता के लिए भारत में चार मठों की स्थापना की: श्रृंगेरी (दक्षिण भारत) में वेदांत मठ, जगन्नाथ पुरी (पूर्वी भारत) में गोवर्धन मठ, द्वारका (पश्चिम भारत) में शारदा मठ, और बदरिकाश्रम (उत्तरी भारत) में ज्योर्तिमठ।
4. भक्ति आंदोलन की प्रमुख विचारधाराएं (अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद) और उनके प्रतिपादक कौन थे?
अद्वैतवाद: इसके जनक शंकराचार्य थे। यह वेदांत पर आधारित है और मानता है कि ब्रह्म और जीव एक हैं।
विशिष्टाद्वैतवाद: इसके प्रतिपादक रामानुजाचार्य थे। यह अद्वैत से संबंधित है लेकिन एक विशिष्ट तत्व की बात करता है, यह मानता है कि ब्रह्म और जीव एक ही तत्व से निर्मित हैं पर वे एक नहीं, जीव ब्रह्म का एक अंश है। रामानुजाचार्य ने शूद्रों को भी मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया।
द्वैतवाद: इसके जनक माधवाचार्य थे। यह द्वैत (दो अलग-अलग सत्ताओं) में विश्वास करता है।
शुद्धाद्वैतवाद: इसके प्रतिपादक वल्लभाचार्य थे (जिन्हें विष्णु स्वामी भी कहा जाता है)। इन्होंने पुष्टिमार्ग के दर्शन की स्थापना भी की।
द्वैताद्वैतवाद: इसके प्रतिपादक निंबार्काचार्य थे। यह द्वैत और अद्वैत दोनों के सिद्धांतों को मिलाता है।
5. भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाने का श्रेय किसे जाता है और उनके शिष्यों में कौन प्रमुख थे?
भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाने का श्रेय रामानंद जी को जाता है, जो 15वीं शताब्दी के आसपास हुए। उनका जन्म इलाहाबाद में हुआ था और वे रामानुजाचार्य के शिष्य थे। रामानंद जी ने सर्वप्रथम संस्कृत के स्थान पर हिंदी में उपदेश देना शुरू किया, जिससे यह ज्ञान आम लोगों तक पहुंचा। उन्होंने चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) को दीक्षा देना शुरू किया, जिससे उनके शिष्य विभिन्न जातियों से आए। उनके प्रमुख शिष्यों में रविदास (हरिजन), कबीर दास (जुलाहा), धन्ना (जाट), सेन (नाई), और पीपा (राजपूत) शामिल थे।
6. भक्ति आंदोलन की सगुण और निर्गुण परंपराएं क्या थीं और उनके प्रमुख संत कौन थे?
रामानंद जी के उपदेशों से भक्ति की दो मुख्य धाराएं निकलीं:
सगुण भक्ति धारा: इस धारा के संत ईश्वर को साकार रूप में पूजते थे, अर्थात वे मानते थे कि ईश्वर जन्म लेते हैं, अवतार लेते हैं, और उनका कोई आकार (जैसे मूर्ति) होता है। सगुण भक्ति में राम भक्ति (रामश्रयी) और कृष्ण भक्ति (कृष्णश्रयी) की उप-शाखाएं थीं।
प्रमुख सगुण संत: वल्लभाचार्य, तुलसीदास (राम भक्त), सूरदास (कृष्ण भक्त), मीराबाई (कृष्ण भक्त), रसखान, अब्दुर रहीम खानखाना, कुंभनदास, परमानंद दास, नरोत्तम दास, नंददास (कृष्ण मार्गी)।
निर्गुण भक्ति धारा: इस धारा के संत ईश्वर को निराकार रूप में पूजते थे, अर्थात वे मानते थे कि ईश्वर का कोई आकार नहीं है, वे जन्म नहीं लेते और अवतार नहीं लेते। वे मूर्ति पूजा, मंदिर पूजा और तीर्थाटन का विरोध करते थे।
प्रमुख निर्गुण संत: कबीर दास, रविदास, गुरु नानक देव जी (सिख धर्म के संस्थापक), दादू दयाल, जंभनाथ, सलूक दास, सुंदर दास, नामदेव। निर्गुण भक्ति भी ज्ञान मार्गी (ज्ञान के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति) और प्रेम मार्गी (प्रेम के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति, जिसमें अधिकतर सूफी संत आते थे) में विभाजित थी।
7. भक्ति आंदोलन का भारतीय समाज और संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ा?
भक्ति आंदोलन का भारतीय समाज और संस्कृति पर गहरा और बहुआयामी प्रभाव पड़ा:
सामाजिक सुधार: इसने जाति व्यवस्था, अस्पृश्यता और धार्मिक आडंबरों का विरोध किया, सामाजिक समानता और भाईचारे पर जोर दिया।
धार्मिक विकास: इसने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया, जिसमें विभिन्न संप्रदायों का उदय हुआ। इसने मंदिर और मूर्ति पूजा को भी पुनर्जीवित किया।
भाषा और साहित्य: इसने क्षेत्रीय भाषाओं (जैसे हिंदी, पंजाबी, अवधी, ब्रजभाषा, बंगाली, असमिया) के विकास को प्रोत्साहन दिया, क्योंकि संतों ने लोकभाषाओं में उपदेश और रचनाएं कीं।
कला और संगीत: इसने संगीत (कर्नाटक संगीत, संकीर्तन), नृत्य (कथक, भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी), चित्रकला (राधा-कृष्ण, रामायण, महाभारत के चित्रण) और मूर्तिकला के विकास को प्रभावित किया, जिससे ये कलाएं धार्मिक विषयों पर केंद्रित हो गईं।
राजनीतिक प्रभाव: इसने कुछ क्षेत्रों में (जैसे महाराष्ट्र में मराठा धर्म के माध्यम से) एक प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोध को जन्म दिया, जिससे आगे चलकर स्वतंत्र राज्यों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ।
8. कबीर दास और गुरु नानक देव के दर्शन की क्या विशेषताएँ थीं और वे किसके समकालीन थे?
कबीर दास और गुरु नानक देव दोनों निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख संत थे। उनके दर्शन की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:
निराकार ईश्वर: वे निराकार ब्रह्म की उपासना पर बल देते थे, अर्थात ईश्वर को बिना किसी रूप या आकार के पूजते थे। उन्होंने मूर्ति पूजा, तीर्थयात्रा और कर्मकांडों का खंडन किया।
सामाजिक सुधारक: उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता, जातिगत भेदभाव का विरोध किया और सामाजिक बुराइयों व आडंबरों पर तीखा प्रहार किया। कबीर ने "ना हिंदू ना मुसलमान" की मानसिकता को बढ़ावा दिया।
अनुभवात्मक ज्ञान: उनके पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी; उन्होंने अपने अनुभवों को ही प्रमाण माना और समाज से सीधे सवाल किए।
भाषा: कबीर दास ने हिंदी भाषा का प्रयोग किया (संस्कृत को 'कूप जल' और लोकभाषा को 'बहता नीर' कहा)। गुरु नानक ने पंजाबी भाषा को समृद्ध किया और गुरमुखी लिपि का विकास किया।
सामुदायिक भावना (नानक): गुरु नानक ने 'संगत' (लोगों का एक साथ बैठना और भजन गाना) और 'पंगत' (लंगर, जहां सभी लोग साथ बैठकर भोजन करते थे) की प्रथा शुरू की, जिसने सामुदायिक एकता और समतामूलक समाज की भावना को बढ़ावा दिया।
कबीर दास सिकंदर लोदी के समकालीन थे। गुरु नानक देव भी इसी कालखंड में हुए, और सिख धर्म का विकास आगे चलकर एक सशक्त संगठित पंथ के रूप में हुआ।
भक्ति आंदोलन: विस्तृत अध्ययन
अध्ययन के प्रमुख बिंदु
भक्ति आंदोलन की मूलभूत अवधारणाएँ:
भक्ति का अर्थ: ईश्वर के प्रति निःस्वार्थ प्रेम, पूर्ण समर्पण और शरणगति।
मोक्ष की अवधारणा: जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति।
मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग: ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग, भक्ति मार्ग।
उपासना की विधियों का त्याग: कर्मकांड, यज्ञ।
भक्ति आंदोलन का समतावादी स्वरूप: जाति, धर्म या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं।
भक्ति आंदोलन का उद्भव और विकास:
उत्पत्ति: दक्षिण भारत (700-1200 ईस्वी के मध्य)।
प्रारंभिक प्रचारक/संत: शंकराचार्य।
उत्तर भारत में आगमन: रामानंद (15वीं शताब्दी)।
इस्लाम का प्रभाव: सूफी आंदोलन का प्रभाव और हिंदू धर्म में उदारता का आगमन।
प्रमुख दार्शनिक विचारधाराएँ और उनके प्रतिपादक:
अद्वैतवाद: (शंकराचार्य) - ब्रह्म और जीव एक हैं, ज्ञान से मोक्ष।
विशिष्टाद्वैतवाद: (रामानुजाचार्य) - ब्रह्म और जीव एक ही तत्व से निर्मित हैं पर एक नहीं, ईश्वर की कृपा से मोक्ष।
द्वैतवाद: (माधवाचार्य) - ब्रह्म और जीव अलग-अलग हैं।
शुद्धाद्वैतवाद: (वल्लभाचार्य) - ईश्वर शुद्ध है और जीव से भिन्न है।
द्वैताद्वैतवाद: (निंबार्काचार्य) - ब्रह्म और जीव दोनों सत्य हैं लेकिन एक-दूसरे से भिन्न हैं।
शंकराचार्य और उनके योगदान:
प्रथम प्रचारक और संत।
दर्शन का आधार: वेदांत/उपनिषद।
अद्वैतवाद के जनक।
धर्म की एकता के लिए चार मठों की स्थापना:
श्रृंगेरी (दक्षिण) - वेदांत मठ
जगन्नाथ पुरी (पूर्व) - गोवर्धन मठ
द्वारका (पश्चिम) - शारदा मठ
बद्रिकाश्रम (उत्तर) - ज्योर्तिमठ
विभिन्न भक्ति धाराएँ:
सगुण भक्ति धारा:ईश्वर का साकार रूप में पूजन (राम, कृष्ण आदि)।
प्रमुख संत: वल्लभाचार्य, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई।
शाखाएँ:
राम मार्गी/रामाश्रयी: (तुलसीदास, रामानंद, नरहरि दास, नाभादास, केशव, ईश्वर दास) - अवधी भाषा का प्रयोग।
कृष्ण मार्गी/कृष्णाश्रयी: (मीराबाई, सूरदास, रसखान, अब्दुर रहीम खानखाना, नरोत्तम दास, नंददास, परमानंद, कुंभनदास, कृष्णदास) - ब्रज भाषा का प्रयोग।
निर्गुण भक्ति धारा:ईश्वर का निराकार रूप में पूजन।
मंदिर, मूर्ति पूजा, तीर्थाटन, कर्मकांड का विरोध।
सामाजिक कुरीतियों और आडंबरों पर प्रहार।
प्रमुख संत: कबीर दास, नानक, रविदास, दादू दयाल, जंभनाथ, सलूक दास, सुंदर दास, नामदेव।
शाखाएँ:
ज्ञान मार्गी/ज्ञानाश्रयी: (कबीर दास, रविदास, गुरु नानक देव, दादू दयाल, जंभनाथ, सलूक दास, सुंदर दास, नामदेव) - ज्ञान के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति।
प्रेम मार्गी/प्रेमाश्रयी: (मलिक मोहम्मद जायसी, मुल्ला दाऊद, मंझन, उस्मान, कुतुबन, शेख नबी) - प्रेम के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति, अधिकतर सूफी संत।
प्रमुख संतों और उनके विशिष्ट योगदान:
रामानुजाचार्य: विशिष्टाद्वैतवाद, शूद्रों के मोक्ष की संभावना, ब्रह्मसूत्र पर 'श्रीभाष्य' टीका।
माधवाचार्य: द्वैतवाद, ब्रह्म संप्रदाय।
वल्लभाचार्य: शुद्धाद्वैतवाद, पुष्टिमार्ग, अष्टछाप कवियों के गुरु।
निंबार्काचार्य: द्वैताद्वैतवाद।
रामानंद: भक्ति आंदोलन को दक्षिण से उत्तर भारत में लाने का श्रेय, संस्कृत के स्थान पर हिंदी में उपदेश, सभी वर्णों को दीक्षा (रविदास, कबीर दास, धन्ना, सेन, सधन, पीपा जैसे शिष्य)। एकेश्वरवाद पर जोर, सगुण और निर्गुण भक्ति धाराओं का आधार।
कबीर दास: निर्गुण भक्ति, जुलाहा, लहरतारा (वाराणसी) में जन्म, मगर में मृत्यु, सिकंदर लोदी के समकालीन, 'बीजक' (साखी, सबद, रमैनी)।
रविदास: निर्गुण भक्ति, हरिजन जाति, गुरु ग्रंथ साहिब में भजन, रायदासी संप्रदाय।
दादू दयाल: ब्रह्म संप्रदाय, पी ख आंदोलन, कबीर के अनुयायी।
मीराबाई: कृष्ण मार्गी सगुण भक्ति।
सूरदास: कृष्ण मार्गी सगुण भक्ति, अष्टछाप के कवि।
तुलसीदास: राम मार्गी सगुण भक्ति, रामचरितमानस।
चैतन्य महाप्रभु: बंगाल में कृष्ण भक्ति, संकीर्तन प्रणाली।
शंकरदेव: असम में कृष्ण भक्ति, सत्रीय नृत्य।
महाराष्ट्र धर्म के संत: ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव, समर्थ गुरु रामदास - विठोबा की पूजा, जाति विभाजन को अस्वीकार किया, सामाजिक आंदोलन।
भक्ति आंदोलन का प्रभाव:
सांस्कृतिक आंदोलन: भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन।
भाषा और साहित्य: लोक भाषाओं (हिंदी, अवधी, ब्रज, पंजाबी, बंगाली, असमिया, राजस्थानी, गुजराती) का विकास।
कला: मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत कला (कर्नाटक संगीत), नृत्य कला (शास्त्रीय नृत्य) पर प्रभाव।
सामाजिक प्रभाव: जाति व्यवस्था, भेदभाव और रूढ़िवादिता पर प्रहार, धार्मिक और सामाजिक समानता की मांग, समतावादी समाज का निर्माण।
राजनीतिक प्रभाव: वीर पूजा की भावना, राष्ट्रीय आंदोलन और सामाजिक प्रतिरोध में भूमिका।
लघु प्रश्न
भक्ति आंदोलन का मूल तत्व क्या था और मोक्ष प्राप्ति के कौन से तीन मार्ग बताए गए थे?
भक्ति आंदोलन का मूल तत्व मोक्ष प्राप्ति था, जो परम लक्ष्य था। मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए थे: ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग, जो व्यक्ति को ईश्वर से एकाकार होने में मदद करते थे।
भारत में सर्वप्रथम भक्ति आंदोलन का विकास किस क्षेत्र में हुआ और इसके प्रथम प्रचारक संत कौन थे?
भारत में सर्वप्रथम भक्ति आंदोलन का विकास दक्षिण भारत में, 700 से 1200 ईस्वी के मध्य हुआ था। इसके प्रथम प्रचारक और संत शंकराचार्य थे, जिनका जन्म केरल में हुआ था।
शंकराचार्य के दर्शन का आधार क्या था और उनके द्वारा प्रतिपादित प्रमुख दार्शनिक सिद्धांत का नाम बताइए?
शंकराचार्य के दर्शन का आधार वेदांत अथवा उपनिषद थे। उनके द्वारा प्रतिपादित प्रमुख दार्शनिक सिद्धांत अद्वैतवाद था, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म और जीव में कोई द्वैत नहीं, वे एक ही हैं।
शंकराचार्य ने धर्म की एकता के लिए कितने मठ स्थापित किए थे? किसी एक मठ का नाम और उसकी स्थिति बताइए?
शंकराचार्य ने धर्म की एकता के लिए चार मठ स्थापित किए थे। इनमें से एक श्रृंगेरी में स्थित वेदांत मठ है, जो दक्षिण भारत में स्थित है और उनके दर्शन के आधार को दर्शाता है।
विशिष्टाद्वैतवाद सिद्धांत के प्रतिपादक कौन थे? इस सिद्धांत की मुख्य विशेषता क्या थी?
विशिष्टाद्वैतवाद सिद्धांत के प्रतिपादक रामानुजाचार्य थे। इस सिद्धांत की मुख्य विशेषता यह थी कि ब्रह्म और जीव एक ही तत्व से निर्मित हैं, परंतु वे एक नहीं हैं, और मोक्ष ईश्वर की कृपा से प्राप्त होता है।
रामानंद को भक्ति आंदोलन में किस योगदान के लिए जाना जाता है?
रामानंद को भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने संस्कृत के स्थान पर हिंदी में उपदेश देना शुरू किया और सभी वर्णों के लोगों को दीक्षा दी, जिससे भक्ति आंदोलन का प्रसार व्यापक हुआ।
सगुण भक्ति परंपरा और निर्गुण भक्ति परंपरा में मुख्य अंतर क्या है?
सगुण भक्ति परंपरा ईश्वर को साकार रूप में पूजती है (जैसे राम या कृष्ण), जबकि निर्गुण भक्ति परंपरा ईश्वर को निराकार मानती है। निर्गुण संत मूर्ति पूजा और कर्मकांडों का विरोध करते थे, जबकि सगुण संत इन्हें स्वीकार करते थे।
कबीर दास किस मुगल शासक के समकालीन थे और उनके प्रमुख साहित्यिक ग्रंथ का नाम क्या है?
कबीर दास सिकंदर लोदी के समकालीन थे, जो लोदी वंश का शासक था। उनके प्रमुख साहित्यिक ग्रंथ का नाम 'बीजक' है, जिसमें साखी, सबद और रमैनी संग्रहित हैं।
अष्टछाप के कवि कौन थे और उनमें वल्लभाचार्य के कौन से चार शिष्य शामिल थे?
अष्टछाप के कवि वल्लभाचार्य और उनके पुत्र विट्ठलनाथ के चार-चार शिष्यों के समूह को कहा जाता है। वल्लभाचार्य के चार शिष्य सूरदास, कृष्णदास, कुंभनदास और परमानंद दास थे, जो कृष्ण भक्ति के प्रमुख कवि थे।
महाराष्ट्र धर्म के प्रमुख संतों के नाम बताइए और उनका भक्ति आंदोलन में क्या योगदान था?
महाराष्ट्र धर्म के प्रमुख संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव और समर्थ गुरु रामदास थे। उन्होंने विठोबा की पूजा को बढ़ावा दिया और जाति विभाजन को अस्वीकार करके एक सामाजिक आंदोलन का रूप दिया, जिसने मराठा राज्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया।
निबंधात्मक प्रश्न
भक्ति आंदोलन को भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन क्यों कहा जाता है? इसके विभिन्न क्षेत्रों पर पड़े प्रभावों का विस्तार से विश्लेषण करें?
भक्ति आंदोलन को भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन माना जाता है क्योंकि इसने भारतीय जीवन के लगभग हर क्षेत्र को गहरे और व्यापक रूप से प्रभावित किया । इसने समाज, धर्म, संस्कृति, भाषा और कला के विविध आयामों में अभूतपूर्व परिवर्तन लाए, जिससे इसे "भारतीय जागरण" या "लोक जागरण" की संज्ञा दी गई है, और कुछ विद्वानों ने इसे यूरोपीय रेनेसां (Renaissance) के समानांतर बताया है ।
भक्ति आंदोलन का मूल तत्व ईश्वर के प्रति हेतु रहित प्रेम और पूर्ण शरणागति है, जिसमें बिना किसी प्रतिदान की प्रत्याशा के स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर देना होता है । इसका उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है, जिसका अर्थ जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाकर ईश्वर से मिलन या ईश्वर में विलीन हो जाना है । भारतीय परंपरा में मोक्ष प्राप्ति के तीन मुख्य मार्ग बताए गए हैं: ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग, जिनमें भक्ति आंदोलन ने भक्ति मार्ग पर विशेष जोर दिया ।
भक्ति आंदोलन के विभिन्न क्षेत्रों पर पड़े प्रभावों का विस्तार से विश्लेषण इस प्रकार है:
धार्मिक और आध्यात्मिक प्रभाव:
उपासना का सरलीकरण: भक्ति आंदोलन ने उपासना की कर्मकांडी विधियों, यज्ञों और आडंबरों का त्याग किया , यह मानते हुए कि भगवान को भक्ति मार्ग द्वारा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
ईश्वर की एकता पर बल: इसने एकेश्वरवाद या एक ईश्वर की उपासना पर केंद्रित किया, यह मानते हुए कि राम और रहीम, ईश्वर और अल्लाह एक ही सर्वोच्च सत्ता के अलग-अलग नाम हैं ।
मोक्ष प्राप्ति का मार्ग: भक्ति को मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन बताया गया, जो ज्ञान और कर्म से श्रेष्ठ माना गया ।
गुरु का महत्व: भक्ति आंदोलन ने एक सच्चे गुरु की आवश्यकता पर जोर दिया, जो भक्त को भौतिक दुनिया से आध्यात्मिक दुनिया में ले जा सकता है और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखा सकता है ।
सगुण और निर्गुण भक्तिधारा का उदय: उत्तर भारत में रामानंद के समय से भक्ति आंदोलन दो प्रमुख धाराओं में विभाजित हो गया: सगुण भक्ति (ईश्वर को आकार-रूप में पूजना) और निर्गुण भक्ति (निराकार ब्रह्म की उपासना)।
निर्गुण भक्ति: कबीर, नानक, रविदास और दादू दयाल जैसे संतों ने निराकार ईश्वर की पूजा पर बल दिया । इन्होंने मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, और बाहरी आडंबरों का विरोध किया और जाति-पाँत व धार्मिक भेदभाव को अस्वीकार किया ।
सगुण भक्ति: तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, चैतन्य और वल्लभाचार्य जैसे संतों ने ईश्वर के साकार रूपों (जैसे राम और कृष्ण) की भक्ति की । इन्होंने मंदिर और मूर्तिपूजा को स्वीकार किया ।
वैदिक परंपरा का पुनरुद्धार: कुछ विद्वानों का मत है कि भक्ति आंदोलन वैदिक परंपरा की मूल बातों का नए रूप में उदय था, जिसने हिंदू धर्म को इस्लाम के प्रचार और राजनीतिक हस्तक्षेप का सामना करने में मदद की ।
सामाजिक प्रभाव:
जाति व्यवस्था को चुनौती: भक्ति आंदोलन ने तत्कालीन समाज में व्याप्त जाति प्रथा, सामाजिक असमानता, ऊँच-नीच और अस्पृश्यता के खिलाफ आवाज उठाई । रामानंद जैसे संतों ने अपने शिष्यों में विभिन्न जातियों के लोगों को शामिल किया, जैसे रविदास (चमार), कबीर (जुलाहा), धन्ना (जाट), सेन (नाई) और साधना (कसाई) ।
समानता और भाईचारा: संतों ने सभी मनुष्यों की समानता और भाईचारे के मूल्यों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया, जिससे समाज में धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक एकता का प्रसार हुआ । गुरु नानक ने लंगर प्रथा की शुरुआत की, जहाँ सभी लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ भोजन करते थे ।
महिलाओं का सशक्तिकरण: भक्ति आंदोलन ने निम्न जातियों और महिलाओं को सामाजिक और धार्मिक रूप से सशक्त होने का अवसर प्रदान किया । मीराबाई जैसी महिला संतों ने अपनी भक्ति और निर्भीकता से समाज में नारियों के महत्व को स्थापित किया।
नैतिक मूल्यों का प्रचार: इसने व्यक्तिगत शुद्धता, सत्यवादिता, अहिंसा, सद्भाव और मानवीय मूल्यों पर जोर दिया । इसने सती प्रथा, कन्या वध, दास प्रथा, मांस-मदिरा के सेवन जैसे सामाजिक बुराइयों का खंडन किया ।
सांस्कृतिक और भाषाई/साहित्यिक प्रभाव:
क्षेत्रीय भाषाओं का विकास: भक्ति आंदोलन ने संस्कृत के स्थान पर क्षेत्रीय भाषाओं, जैसे हिंदी, बंगाली, मराठी, मैथिली, राजस्थानी, गुजराती, गुरुमुखी, अवधी और ब्रजभाषा में साहित्य सृजन को प्रोत्साहित किया । इससे धर्म सामान्य जनता के लिए अधिक सुलभ हो गया ।
साहित्यिक योगदान: कबीर की वाणी (निर्गुण), तुलसीदास की रामचरितमानस (अवधी), सूरदास का सूरसागर (ब्रजभाषा), और मीराबाई के भजन (राजस्थानी/ब्रजभाषा) इस काल की महत्वपूर्ण साहित्यिक रचनाएँ हैं ।
कलाओं पर प्रभाव: इसने संगीत (भजन, कीर्तन, संकीर्तन), मूर्तिकला (राम, कृष्ण, शिव, विष्णु की मूर्तियाँ), चित्रकला (राधा-कृष्ण, रामायण, महाभारत के दृश्य), और नृत्य कला (शास्त्रीय नृत्यों में भक्ति विषय) के विकास को भी प्रभावित किया ।
राजनीतिक प्रभाव:
महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन ने मराठा धर्म का रूप लिया, जिसने आगे चलकर स्वतंत्र मराठा राज्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया । इसने सामाजिक प्रतिरोध और समतावादी आंदोलन का मार्ग भी प्रशस्त किया ।
वीर पूजा और समर्पण की भावना का विकास हुआ, जो बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में भी परिलक्षित हुआ, जहाँ राष्ट्र के प्रति सर्वस्व त्याग की बात की गई ।
भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में आलवारों और नायनारों द्वारा 7वीं-12वीं शताब्दी के बीच हुई थी । शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में अपने अद्वैतवाद दर्शन के माध्यम से इसे ज्ञानवादी रूप में पूरे भारत में फैलाया । बाद में, रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैतवाद) , माधवाचार्य (द्वैतवाद) , निंबार्काचार्य (द्वैताद्वैतवाद) और वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैतवाद, पुष्टिमार्ग) जैसे संतों ने भक्ति के विभिन्न दार्शनिक पहलुओं का प्रतिपादन किया। रामानंद इसे दक्षिण भारत से उत्तर भारत लेकर आए ।
निष्कर्षतः, भक्ति आंदोलन ने मध्यकालीन भारत में एक नई चेतना और जागरण पैदा किया । इसने हिंदू धर्म और समाज में सुधार लाने के साथ-साथ हिंदू और इस्लाम धर्म के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी व्यापक परिवर्तन लाए, जिससे भारतीय समाज को समानता और भक्ति पर आधारित एक नया दृष्टिकोण मिला । इन सभी व्यापक और दूरगामी प्रभावों के कारण ही भक्ति आंदोलन को भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन कहा जाता है ।
शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य के दार्शनिक विचारों की तुलना और अंतर स्पष्ट करते हुए बताइए कि भक्ति आंदोलन के विकास में उनका क्या योगदान था?
मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास में भक्ति आंदोलन एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जिसने समाज में भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया। यह आंदोलन 6वीं-7वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में शुरू हुआ और 14वीं शताब्दी तक उत्तर भारत में आंदोलन का रूप ले लिया। इस आंदोलन के विकास में शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य जैसे दार्शनिकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा, हालाँकि उनके दार्शनिक विचार भिन्न थे।
यहाँ इन प्रमुख संतों के दार्शनिक विचारों और भक्ति आंदोलन में उनके योगदान की तुलना और अंतर स्पष्ट किए गए हैं:
शंकराचार्य (आठवीं शताब्दी)
दर्शन और विचार: शंकराचार्य भक्ति आंदोलन के प्रथम प्रचारक और संत माने जाते हैं, जिन्होंने भारत में भक्ति मत को ज्ञानवादी रूप में प्रसारित किया। उनका दर्शन 'अद्वैतवाद' कहलाता है। अद्वैतवाद का मूल आधार वेदांत अथवा उपनिषद था।
अद्वैतवाद के मुख्य सिद्धांत:
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं; जो भी अंतर दिखाई देता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिए ज्ञान आवश्यक है।
जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है।
उन्होंने निराकार ईश्वर (निर्गुण ब्रह्म) को सत्य माना और ज्ञान को मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया।
योगदान और प्रभाव:
उन्होंने भारत की एकता के लिए देश के चार भागों में चार मठ स्थापित किए: श्रृंगेरी (वेदांत मठ), जगन्नाथपुरी (गोवर्धन मठ), द्वारका (शारदा मठ), और बद्रीकाश्रम (ज्योतिर्मठ)।
शंकराचार्य ने अपने समय के अस्तित्वहीन रीति-रिवाजों और ईश्वरविहीन बौद्ध धर्म का विरोध किया। कुछ विद्वान मानते हैं कि भारत में बौद्ध धर्म के पतन में उनकी प्रमुख भूमिका रही।
हालांकि, उनका निर्गुण ज्ञानवादी दर्शन सामान्य लोगों के लिए सुग्राह्य नहीं था और मन की निराशा को दूर नहीं कर सका। कुछ विद्वानों का मानना है कि उनके विचारों में भक्ति के लिए स्थान नहीं था, क्योंकि वे जीव और ब्रह्म को एक मानते थे, जिससे भक्ति का द्वैत भाव समाप्त हो जाता था।
रामानुजाचार्य (12वीं शताब्दी)
दर्शन और विचार: रामानुजाचार्य का जन्म श्रीपेरंबुदूर, तमिलनाडु में हुआ था। उनका दर्शन शंकराचार्य के अद्वैतवाद के विरोध में एक प्रतिक्रिया थी। उन्होंने 'विशिष्टाद्वैतवाद' का मत दिया।
विशिष्टाद्वैतवाद के मुख्य सिद्धांत:
उन्होंने ज्ञान के स्थान पर भक्ति को महत्व दिया।
उनका मानना था कि आत्मा ईश्वर के साथ एकीकृत नहीं है, बल्कि आत्मा और ईश्वर का संबंध अग्नि और चिंगारी के समान है।
ईश्वर पूर्णतः अमूर्त नहीं है, बल्कि गुण और सौंदर्य से परिपूर्ण है।
उन्होंने सगुण ईश्वर की उपासना का उपदेश दिया।
उनके अनुसार, एक शूद्र भी ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
योगदान और प्रभाव:
रामानुजाचार्य को भक्ति को दार्शनिक आधार देने का श्रेय दिया जाता है।
उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर 'श्री भाष्य' नामक टीका लिखी।
उन्होंने ब्राह्मणों और अब्राह्मणों, यहाँ तक कि मुसलमानों को भी अपनी शिष्य परंपरा में शामिल किया और खान-पान संबंधी कठोरता एवं अस्पृश्यता जैसी सामाजिक विकृतियों पर प्रहार किया।
रामानुज ने सामाजिक क्षेत्र में वर्ण विभाजन को स्वीकार किया, जबकि धार्मिक क्षेत्र में सभी को समान माना।
माधवाचार्य (13वीं शताब्दी)
दर्शन और विचार: माधवाचार्य कन्नड़ ब्राह्मण थे और उन्होंने 'द्वैतवाद' दर्शन की स्थापना की।
द्वैतवाद के मुख्य सिद्धांत:
उनका मत है कि सृष्टि सत्य है, और अल्पज्ञ जीव विष्णु के अधीन कार्यरत हैं।
वास्तविक सुख की अनुभूति ही मुक्ति है और मुक्ति का साधन भक्ति है।
उन्होंने कर्म और ज्ञान मार्ग के स्थान पर भक्ति मार्ग को ही ईश्वर और मोक्ष की प्राप्ति का सहज तथा सरल मार्ग बताया।
योगदान और प्रभाव:
उन्होंने आठ मंदिरों का निर्माण कराया।
माधवाचार्य ने शंकराचार्य और रामानुजाचार्य दोनों के मतों का खंडन किया।
उनके लिए हरि, विष्णु, नारायण एक ही ईश्वर के अलग-अलग नाम थे, जो सर्वोच्च हैं।
भक्ति आंदोलन के विकास में सामूहिक योगदान:
सरल मार्ग की पेशकश: शंकराचार्य के जटिल ज्ञान मार्ग के विपरीत, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य ने भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का एक सरल और सर्वसुलभ मार्ग बताया, जिससे यह आंदोलन आम जनता के बीच अधिक लोकप्रिय हुआ।
सामाजिक समरसता और समानता: रामानुजाचार्य ने शूद्रों को भी मोक्ष का अधिकार देकर और रामानंद जैसे उनके शिष्यों ने सभी वर्णों को भक्ति का उपदेश देकर जाति-पाति के भेदभाव को चुनौती दी। इससे निम्न जातियों और महिलाओं को सामाजिक और धार्मिक सशक्तिकरण का अवसर मिला।
दार्शनिक आधार का सुदृढ़ीकरण: इन आचार्यों ने भक्ति को केवल एक भावनात्मक उपासना तक सीमित न रखकर उसे मजबूत दार्शनिक नींव प्रदान की, जिससे भक्ति आंदोलन की विचारधारा अधिक सुसंगठित और प्रभावशाली बनी।
विभिन्न धाराओं का उदय: शंकराचार्य के अद्वैतवाद के बाद, रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद, माधवाचार्य के द्वैतवाद, निंबार्काचार्य के द्वैताद्वैतवाद और वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद जैसे अनेक दार्शनिक मतों का विकास हुआ। इन मतों ने भक्ति आंदोलन को विविधता प्रदान की और विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों के लोगों को आकर्षित किया।
लोकप्रियता का प्रसार: रामानुजाचार्य के शिष्य रामानंद ने भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाने का कार्य किया और संस्कृत के स्थान पर हिंदी में उपदेश दिए, जिससे यह आंदोलन व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ।
संक्षेप में, शंकराचार्य ने ज्ञान पर जोर दिया, जबकि रामानुजाचार्य और माधवाचार्य ने भक्ति को मोक्ष प्राप्ति के प्रमुख साधन के रूप में स्थापित किया। उनके मतभेदों और नए दार्शनिक सिद्धांतों के प्रतिपादन ने भक्ति आंदोलन को एक बहुआयामी और गतिशील स्वरूप प्रदान किया, जिससे यह भारत में एक महान सामाजिक-धार्मिक क्रांति के रूप में उभरा।
सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति धाराओं के बीच के प्रमुख अंतरों और समानताओं का वर्णन करें। इन धाराओं के प्रमुख संतों और उनके सामाजिक-धार्मिक योगदानों पर प्रकाश डालें?
भक्ति आंदोलन मध्यकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और सामाजिक-धार्मिक पड़ाव था, जिसने समाज में विभिन्न तरीकों से ईश्वर की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया। यह आंदोलन मूल रूप से छठी-सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में शुरू हुआ और 14वीं शताब्दी तक उत्तर भारत में एक व्यापक आंदोलन का रूप ले लिया। भक्ति आंदोलन ने मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान और कर्म के मार्गों के बजाय भक्ति (ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण) को सबसे सुलभ और आसान मार्ग बताया। यह आंदोलन मुख्य रूप से धर्म से संबंधित था, लेकिन बाद में यह एक सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन में परिवर्तित हो गया।
मध्यकालीन भारत में, भक्ति आंदोलन दो प्रमुख धाराओं में विभाजित हो गया: सगुण भक्ति शाखा और निर्गुण भक्ति शाखा। ये दोनों धाराएँ आगे चलकर उप-शाखाओं में भी बँट गईं।
सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति धाराओं के बीच के प्रमुख अंतर और समानताएँ:
प्रमुख अंतर:
ईश्वर का स्वरूप:
सगुण भक्ति ईश्वर को साकार (रूप, आकार और गुणों सहित) मानती है। सगुण भक्त मानते हैं कि ईश्वर जन्म लेता है और अवतार ग्रहण करता है, लीलाएँ करता है।
निर्गुण भक्ति ईश्वर को निराकार (रूप-रहित, आकार-रहित और गुणों से परे) मानती है। निर्गुण भक्त मानते हैं कि ईश्वर न तो जन्म लेता है और न ही अवतार ग्रहण करता है।
पूजा पद्धति:
सगुण भक्ति मूर्ति पूजा, मंदिर पूजा और तीर्थ यात्राओं को स्वीकार करती है।
निर्गुण भक्ति मूर्ति पूजा, मंदिर पूजा, तीर्थ यात्राओं और बाहरी आडंबरों व कर्मकांडों का विरोध करती है।
सामाजिक समानता:
निर्गुण भक्ति ने जाति व्यवस्था और सामाजिक ऊँच-नीच का कड़ा विरोध किया और सभी मनुष्यों की समानता पर जोर दिया।
सगुण भक्ति ने, विशेषकर रामभक्ति शाखा में, जाति विभाजन के साथ समझौता किया या उसे स्वीकार किया। हालाँकि, कृष्णभक्ति शाखा ने जाति व्यवस्था को उतना दृढ़ता से समर्थन नहीं दिया या नजरअंदाज किया।
भाषा का प्रयोग:
सगुण भक्ति की राममार्गी शाखा के संतों ने अधिकतर अवधी भाषा का प्रयोग किया, जबकि कृष्णमार्गी शाखा के संतों ने ब्रज भाषा का प्रयोग किया।
निर्गुण भक्ति की ज्ञानमार्गी शाखा के संतों ने ब्रज भाषा का प्रयोग किया, जबकि प्रेममार्गी शाखा के संतों ने अवधी भाषा का प्रयोग किया।
प्रमुख समानताएँ:
भक्ति पर जोर: दोनों ही धाराएँ मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर के प्रति अत्यधिक प्रेम और समर्पण (भक्ति) को केंद्रीय मार्ग मानती हैं।
गुरु का महत्व: दोनों ही धाराएँ सच्चे गुरु की आवश्यकता पर बल देती हैं, जो भक्त को ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग दिखा सके।
ईश्वर की एकता: दोनों ही धाराएँ ईश्वर की मौलिक एकता (एकेश्वरवाद) में विश्वास करती हैं, भले ही उनके स्वरूप की कल्पना भिन्न हो।
कर्मकांडों का खंडन: दोनों ने ही अंधविश्वासों, दिखावटी कर्मकांडों और निरर्थक धार्मिक रीति-रिवाजों की निंदा की।
सामाजिक समरसता: दोनों ने ही मानवता, भाईचारा और सहिष्णुता के मूल्यों को बढ़ावा दिया, और सामाजिक असमानता व भेदभाव का विरोध किया।
सभी वर्गों तक पहुँच: भक्ति आंदोलन के संतों ने सभी वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और लिंगों (पुरुष, स्त्री) के लोगों को दीक्षा और उपदेश दिए, जिससे यह आम जनता के लिए सुलभ हो गया।
इन धाराओं के प्रमुख संत और उनके सामाजिक-धार्मिक योगदान:
निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख संत: निर्गुण भक्ति शाखा दो उप-शाखाओं में विभाजित थी: ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी।
ज्ञानमार्गी शाखा (ज्ञान-आधारित): इन संतों ने ज्ञान और सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करते हुए ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताया।
कबीर दास (1440-1510 ई.):
योगदान: वे सिकंदर लोदी के समकालीन थे। उन्होंने जाति-पाँत, मूर्ति पूजा और अवतार सिद्धांत का खंडन किया। कबीर ने हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया और दोनों धर्मों की कुरीतियों पर प्रहार किया। वे अंत तक गृहस्थ बने रहे और साम्यवादी विचारधारा के थे। उनकी शिक्षाएँ 'बीजक' में संकलित हैं। कबीर एक विद्रोही कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने मनुष्य की समानता और मानवता धर्म की स्थापना का सपना देखा।
रविदास (रैदास) (15वीं शताब्दी):
योगदान: रामानंद के प्रमुख शिष्य थे और जन्म से चमार थे। रविदास ने मानव सेवा को धर्म की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति माना। उनके तीस से अधिक भजन सिख धर्म के 'गुरु ग्रंथ साहिब' में संकलित हैं。 उन्होंने 'रायदासी संप्रदाय' की स्थापना की。 रविदास ने 'बेगमपुरा' जैसे समतामूलक समाज का सपना देखा।
गुरु नानक देव (1469-1538 ई.):
योगदान: सिख धर्म के संस्थापक और एकेश्वरवाद के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने जाति-पाँत, बाहरी आडंबरों, मूर्ति पूजा, अवतारवाद और ब्राह्मणों व मुल्लाओं की श्रेष्ठता का विरोध किया। नानक ने 'अकाल पुरुष' (अनंत एवं अनादि ईश्वर) की कल्पना की। उन्होंने लंगर प्रथा (जहाँ सभी लोग एक साथ भोजन करते हैं) की शुरुआत की, जो समानता पर आधारित थी। उनकी रचनाएँ 'आदि ग्रंथ' में संकलित हैं।
दादू दयाल (1544-1603 ई.):
योगदान: निर्गुण भक्ति परंपरा के महत्वपूर्ण संत थे। उन्होंने 'ब्रह्म संप्रदाय' या 'परब्रह्म संप्रदाय' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सभी धर्मों के लोगों को प्रेम और बंधुत्व के सूत्र में बाँधना था। दादू ने पुस्तकीय ज्ञान के बजाय आत्म-ज्ञान के महत्व पर जोर दिया। उनके शिष्य रज्जब और सुंदरदास थे।
नामदेव (1270-1350 ई.):
योगदान: महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय के प्रमुख नेता थे। उनके कुछ गीतात्मक पद्य 'गुरु ग्रंथ साहिब' में संकलित हैं। उन्होंने हिंदी और मराठी भाषाओं में लेखन कार्य किया और चरित्र की शुद्धता पर बल दिया।
प्रेममार्गी शाखा (प्रेम-आधारित): इस शाखा के संतों ने ईश्वर को प्रेम के माध्यम से प्राप्त करने पर जोर दिया।
मलिक मुहम्मद जायसी: प्रसिद्ध सूफी कवि थे जिन्होंने 'पद्मावत' जैसे महत्वपूर्ण प्रेमकाव्य की रचना की।
मुल्ला दाऊद, मंझन, उस्मान, कुतुबन, शेख नबी: ये भी इस शाखा के प्रमुख संत थे।
सगुण भक्ति शाखा के प्रमुख संत: सगुण भक्ति शाखा भी दो उप-शाखाओं में विभाजित थी: कृष्णमार्गी और राममार्गी।
कृष्णमार्गी शाखा (कृष्ण भक्ति): इस शाखा के संतों ने भगवान कृष्ण के साकार रूप की उपासना की।
वल्लभाचार्य (1479-1531 ई.):
योगदान: उन्होंने 'शुद्धाद्वैतवाद' के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और 'पुष्टिमार्ग' पर बल दिया। वे श्रीनाथ जी के नाम से भगवान कृष्ण की पूजा करते थे। उनके ग्रंथ 'अणुभाष्य' और 'सुबोधिनी टीका' प्रसिद्ध हैं।
सूरदास (16वीं-17वीं शताब्दी):
योगदान: अकबर और जहाँगीर के समकालीन थे। वे वल्लभाचार्य के शिष्य और अष्टछाप के कवि थे। सूरदास ने ब्रज भाषा में 'सूरसागर', 'सूर सारावली' और 'साहित्य लहरी' की रचना की, जो कृष्ण की मोहक लीलाओं का वर्णन करती हैं।
मीराबाई (1498-1546 ई.):
योगदान: सोलहवीं शताब्दी की महान महिला संत थीं। उन्होंने राजस्थानी और ब्रज भाषा में गीतों की रचना की, जिसमें कृष्ण को प्रेमी, सहचर और पति के रूप में चित्रित किया गया है। मीराबाई ने राजसी सुखों का त्याग कर भक्ति मार्ग अपनाया और तत्कालीन सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी।
चैतन्य महाप्रभु (1486-1533 ई.):
योगदान: बंगाल में 'आधुनिक वैष्णववाद' या 'गौड़ीय वैष्णव धर्म' के संस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने कृष्ण भक्ति संप्रदाय को पुनर्जीवित किया और कीर्तन को भक्ति में मुख्य स्थान दिया। उनके अनुयायी उन्हें कृष्ण या विष्णु का अवतार मानते हैं।
अष्टछाप के कवि: वल्लभाचार्य के चार शिष्य (कुम्भनदास, सूरदास, परमानंद दास, कृष्णदास) और उनके पुत्र विट्ठलनाथ के चार शिष्य (गोविंदस्वामी, नंददास, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास) मिलकर अष्टछाप के कवि कहलाए।
राममार्गी शाखा (राम भक्ति): इस शाखा के संतों ने भगवान राम के साकार रूप की उपासना की।
रामानंद (15वीं शताब्दी):
योगदान: इलाहाबाद में जन्मे रामानंद ने भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाने का कार्य किया और इसे दक्षिण और उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन के बीच सेतु का काम किया。 वे रामानुज के शिष्य थे और विष्णु के स्थान पर राम की भक्ति आरंभ की। रामानंद ने अपने उपदेश संस्कृत के बजाय हिंदी में दिए, जिससे यह आंदोलन अधिक लोकप्रिय हुआ। उन्होंने चारों वर्णों को भक्ति का उपदेश दिया और उनके शिष्यों में रविदास, कबीर, धन्ना, सेन, सघना, पीपा जैसे विभिन्न जातियों के लोग शामिल थे।
तुलसीदास (1532-1623 ई.):
योगदान: मुगल शासक अकबर के समकालीन थे। उन्होंने 1574-75 ई. में अवधी भाषा में अपनी महान कृति 'रामचरितमानस' की रचना की, जिसमें राम के चरित्र और लीलाओं का विवरण है। उनकी अन्य रचनाओं में गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, बरवै रामायण आदि शामिल हैं। तुलसीदास ने लोगों के बीच श्रीराम की छवि सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और परब्रह्म के साकार रूप में स्थापित की।
महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन (दक्कन धर्म/महाराष्ट्र धर्म): महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन दो संप्रदायों में विभक्त था: धरकरी संप्रदाय (राम की पूजा) और वारकरी संप्रदाय (विट्ठल/विठोबा की उपासना)।
ज्ञानेश्वर (ज्ञानदेव) (1275-1296 ई.):
योगदान: महाराष्ट्र के रहस्यवादी संप्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने भगवद्गीता पर एक विश्वसनीय टीका लिखी।
तुकाराम (1598-1650 ई.):
योगदान: शिवाजी के समकालीन थे और जन्म से शूद्र थे। उन्होंने वारकरी पंथ की स्थापना की और हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया।
एकनाथ (1533-1599 ई.):
योगदान: उन्होंने जाति और धर्म में कोई भेदभाव नहीं किया। वे भगवद्गीता के चार श्लोकों पर अपनी टीका के लिए प्रसिद्ध हैं।
समर्थ रामदास (1608 ई.):
योगदान: शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु थे। उनकी महत्वपूर्ण रचना 'दासबोध' है, जिसमें आध्यात्मिक जीवन के समन्वयवादी सिद्धांत का वर्णन है।
इन संतों ने भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी जाति व्यवस्था, धार्मिक आडंबरों और सामाजिक बुराइयों को चुनौती दी। उन्होंने प्रेम, समानता और भाईचारे पर आधारित एक नए सामाजिक-धार्मिक परिवेश का निर्माण करने का प्रयास किया, जिससे सांस्कृतिक पुनर्जागरण हुआ और क्षेत्रीय भाषाओं व साहित्य का विकास हुआ।
रामानंद को उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का अग्रदूत क्यों माना जाता है? उनके जीवन और उपदेशों ने समाज के विभिन्न वर्गों को कैसे प्रभावित किया?
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के एक महत्वपूर्ण संत के रूप में, रामानंद जी को उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का अग्रदूत माना जाता है। उन्होंने दक्षिण भारत से उत्तर भारत में भक्ति की इस लहर को लाने का कार्य किया। वास्तव में, मध्ययुग का धार्मिक आंदोलन रामानंद जी से ही आरंभ हुआ।
उनके जीवन और उपदेशों ने समाज के विभिन्न वर्गों को गहरे रूप से प्रभावित किया:
दक्षिण से उत्तर भारत तक भक्ति का प्रसार: रामानंद जी का जन्म इलाहाबाद (प्रयागराज) में 15वीं शताब्दी के आसपास हुआ था। वे रामानुजाचार्य के शिष्य थे। जिस तरह रामानुजाचार्य ने दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन को गति दी, उसी तरह रामानंद ने इसे उत्तर भारत में फैलाया।
जन-सामान्य की भाषा में उपदेश: रामानंद जी ने संस्कृत के स्थान पर हिंदी में उपदेश देना शुरू किया। इससे उनका आंदोलन व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ और हिंदी साहित्य के निर्माण की शुरुआत हुई।
समतावादी दृष्टिकोण और समावेशिता:
उन्होंने एक ईश्वरवाद (एकेश्वरवाद) के सिद्धांत पर जोर दिया, यह मानते हुए कि ईश्वर एक ही है और उसकी आराधना से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
रामानंद जी ने सभी चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) को भक्ति का उपदेश दिया। हालांकि उन्होंने सिद्धांत रूप में जाति-प्रथा का सीधा विरोध नहीं किया, उनका व्यावहारिक जीवन जाति समानता में विश्वास करने वाला था।
उन्होंने विष्णु के स्थान पर राम की भक्ति आरंभ की। उनके "राम-राम" के मंत्र ने सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की भक्ति का संवाहक बन कर कार्य किया।
उन्होंने जाति-पाती और छुआछूत का खंडन किया और ब्राह्मणवाद का विरोध करके सभी जाति व धर्म के लोगों को अपने साथ जोड़ा।
उन्होंने बाहरी आडंबरों, धार्मिक कर्मकांडों, मूर्ति पूजा और अवतारवाद का विरोध किया। उनका मानना था कि ईश्वर की प्राप्ति केवल शुद्ध प्रेम और पवित्र हृदय से ही हो सकती है।
विविध पृष्ठभूमि के शिष्य: रामानंद जी के बारह प्रमुख शिष्य थे। उनके शिष्यों में समाज के विभिन्न वर्गों और जातियों के लोग शामिल थे, जैसे:
रविदास (रैदास) - चमार
कबीर - जुलाहा
धन्ना - जाट (किसान)
सेन - नाई
सधना - कसाई
पीपा - राजपूत
तुलसीदास यह विविधता दर्शाती है कि उन्होंने समाज के निचले तबकों और बहिष्कृत समझे जाने वाले लोगों को भी भक्ति आंदोलन में शामिल किया, जिससे उन्हें सामाजिक और धार्मिक रूप से सशक्त होने का अवसर मिला। इन संतों ने साधारण जनता को वर्ग, धर्म, जाति और समुदाय की संकीर्णता से मुक्त करते हुए परस्पर घुलने-मिलने की प्रेरणा दी और सामंतवाद की जड़ों पर प्रहार किया।
सगुण और निर्गुण भक्ति धाराओं का आधार: रामानंद जी के उपदेशों से सगुण भक्ति धारा (जैसे रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी) और निर्गुण भक्ति धारा (जैसे ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी) दोनों का उदय हुआ। उन्होंने अद्वैतवाद दर्शन के बजाय भक्ति को मोक्ष का मार्ग बताया।
रामानंद जी के प्रयासों के कारण, भक्ति आंदोलन ने न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में व्यापक बदलाव किए, जिससे धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक एकता का प्रसार हुआ।
भक्ति आंदोलन ने भाषा और साहित्य के विकास में क्या भूमिका निभाई? विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में भक्ति साहित्य के प्रमुख उदाहरणों का उल्लेख करें?
भक्ति आंदोलन ने भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके कारण मध्यकालीन भारत में साहित्य की एक समृद्ध परंपरा का सूत्रपात हुआ। इसे अक्सर भारतीय साहित्य के "स्वर्णकाल" के रूप में जाना जाता है।
भक्ति आंदोलन ने भाषा और साहित्य के विकास में निम्नलिखित भूमिकाएँ निभाईं:
लोकभाषाओं को प्रोत्साहन: भक्ति आंदोलन के संतों ने संस्कृत के स्थान पर आम जन-सामान्य की भाषाओं (क्षेत्रीय भाषाओं) में उपदेश देना और रचनाएँ करना शुरू किया। इससे उनकी शिक्षाएँ व्यापक जनता तक पहुँचीं और आंदोलन लोकप्रिय हुआ।
साहित्यिक समृद्धि: इस काल में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में बड़ी मात्रा में धार्मिक साहित्य, मुख्यतः भक्ति काव्य और संगीत के रूप में, रचा गया। इससे इन भाषाओं का साहित्यिक विकास हुआ।
नई लिपियों का विकास: उदाहरण के लिए, गुरु नानक देव ने गुरुमुखी लिपि का विकास किया, जिसने पंजाबी साहित्य को समृद्ध किया।
सगुण और निर्गुण धाराओं का योगदान: भक्ति आंदोलन दो प्रमुख धाराओं - सगुण (ईश्वर के साकार रूप की पूजा) और निर्गुण (ईश्वर के निराकार रूप की पूजा) - में विभाजित था, और दोनों ने साहित्य को समृद्ध किया।
अंतर-धार्मिक प्रभाव: सूफी संतों ने भी हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कुछ मुस्लिम लेखकों ने संस्कृत कृतियों का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद भी किया।
कला और संगीत का विकास: भक्ति आंदोलन ने केवल साहित्य ही नहीं, बल्कि स्थापत्य कला, चित्रकला, मूर्तिकला और संगीत जैसे ललित कलाओं को भी प्रभावित किया।
विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में भक्ति साहित्य के प्रमुख उदाहरण:
हिंदी (अवधी और ब्रजभाषा सहित):
रामानंद: उन्होंने संस्कृत के स्थान पर हिंदी में उपदेश देना शुरू किया, जिससे हिंदी साहित्य का निर्माण आरंभ हुआ।
कबीर दास: निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख संत थे। उन्होंने हिंदी (विशेषकर ब्रजभाषा और सधुक्कड़ी) में रचनाएँ कीं, जिनमें साखी, सबद और रमैनी प्रमुख हैं, जो "बीजक" में संकलित हैं। कबीर ने कहा था: "संस्कृत है कूप जल भाखा बहता नीर"।
तुलसीदास: राम भक्ति शाखा के अग्रणी संत थे। उन्होंने अवधी भाषा में अपनी कालजयी कृति "रामचरितमानस" की रचना की। इसके अतिरिक्त, उन्होंने गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका और बरवै रामायण जैसे ग्रंथों की भी रचना की।
सूरदास: कृष्ण भक्ति शाखा के महान कवि थे। उन्होंने ब्रजभाषा में "सूरसागर", सूरसारावली और साहित्य लहरी की रचना की।
मीराबाई: कृष्ण की परम भक्त थीं। उन्होंने राजस्थानी और ब्रजभाषा में भक्ति गीत (भजन) रचे, जिनमें कृष्ण को प्रेमी, सहचर और पति के रूप में चित्रित किया गया है।
रसखान और अब्दुल रहीम खानखाना: कृष्ण भक्ति से संबंधित थे और ब्रजभाषा में रचनाएँ कीं।
मलिक मोहम्मद जायसी: प्रेममार्गी सूफी कवि थे जिन्होंने अवधी भाषा में "पद्मावत" की रचना की। मुल्ला दाऊद, मंजन, उस्मान, कुतुबन, शेख नबी जैसे अन्य सूफी कवियों ने भी अवधी में योगदान दिया।
दादू दयाल: निर्गुण परंपरा के संत थे। उनके उपदेशों को "दादू दयाल की वाणी" में संग्रहित किया गया है।
रविदास (रैदास): रामानंद के प्रसिद्ध शिष्य थे। सिखों के गुरु ग्रंथ साहिब में उनके तीस से अधिक भजन संग्रहित हैं।
पंजाबी:
गुरु नानक देव: सिख धर्म के संस्थापक थे। उन्होंने पंजाबी भाषा को समृद्ध किया और उनकी शिक्षाएँ "गुरु ग्रंथ साहिब" में संकलित हैं।
बंगाली:
चैतन्य महाप्रभु: गौड़ीय वैष्णव धर्म के संस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने कृष्ण भक्ति का प्रचार किया और उनकी शिक्षाएँ बंगाली भाषा में हैं।
मराठी:
नामदेव: वरकरी संप्रदाय से संबंधित थे और मराठी में अभंगों की रचना की।
ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ और रामदास जैसे अन्य महाराष्ट्रियन संतों ने मराठी साहित्य को समृद्ध किया।
असमिया:
शंकरदेव: असम में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे, जिन्होंने असमिया भाषा और साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
गुजराती:
नरसी मेहता: गुजराती साहित्य में कृष्ण भक्ति के प्रमुख कवि थे।
इस प्रकार, भक्ति आंदोलन ने विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं को साहित्यिक पहचान दिलाई और उन्हें जन-जन तक पहुँचाकर भारतीय भाषाओं और साहित्य के विकास में एक मील का पत्थर साबित हुआ।
समयरेखा
प्राचीन काल से छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक:
वैदिक काल: भारत में भक्ति के कुछ लक्षण वेदों और उपनिषदों में मिलते हैं, हालांकि विस्तार से नहीं।
ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग: हिंदू धर्म में मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं: ज्ञान, कर्म और भक्ति।
वैदिक कर्मकांड: वैदिक काल में यज्ञ और पशु बलि जैसे कर्मकांड प्रचलित थे, जिनका उद्देश्य भौतिक सुख प्राप्त करना था।
उपनिषदों में ज्ञान मार्ग का उदय: उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म के संबंध तथा ज्ञान मार्ग पर जोर दिया गया, जिससे मोक्ष की अवधारणा विकसित हुई।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म: छठी शताब्दी ईसा पूर्व में बौद्ध और जैन धर्म का उदय हुआ, जिन्होंने उपनिषदों के मोक्ष के विचार को और आगे बढ़ाया।
ईसा की प्रारंभिक शताब्दी (पहली से सातवीं शताब्दी ईस्वी):
जनजातीय तत्व और भक्ति का समन्वय: सातवाहन काल में भूमि अनुदान के माध्यम से ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं का जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश हुआ, जिससे जनजातीय देवताओं और विश्वासों को हिंदू धर्म में समाहित किया गया।
वासुदेव-कृष्ण और नारायण की पूजा का उदय: मथुरा और हिमालय की तलहटी में क्रमशः वासुदेव-कृष्ण और नारायण जैसे गैर-आर्य देवताओं की पूजा प्रचलित हुई।
विष्णु पंथ और शैव पंथ का विकास: ब्राह्मणों ने वासुदेव-कृष्ण और नारायण को विष्णु के अवतार के रूप में तथा रुद्र को शिव के रूप में स्वीकार करके वैष्णव और शैव पंथों का विकास किया।
महायान बौद्ध धर्म में भक्ति का तत्व: महायान बौद्ध धर्म में बोधिसत्व की अवधारणा के माध्यम से भक्ति का तत्व विकसित हुआ, जिसमें बोधिसत्व दूसरों की मुक्ति के लिए कार्य करते थे।
जैन धर्म में तीर्थंकरों की पूजा: जैन धर्म में भी तीर्थंकरों की उपासना आरंभ हुई, जो भक्ति का एक रूप था।
अवतारवाद और मूर्ति पूजा का उद्भव: गैर-आर्य तत्वों और देवताओं को समाहित करने के लिए अवतारवाद की अवधारणा विकसित हुई, जिसमें विष्णु के दशावतार प्रमुख थे। इस काल में मूर्तियों का निर्माण भी आरंभ हुआ।
पुराणों का लेखन: ब्राह्मणों और महिलाओं के लिए वैदिक धर्म में प्रवेश हेतु पुराणों का लेखन हुआ, जिसमें उच्च ब्राह्मणवादी संस्कृति और निम्न जनजातीय संस्कृति दोनों के लिए स्थान था। पुराणों में भक्ति की भावना प्रमुख थी।
गुप्त काल में भक्ति का चरमोत्कर्ष: गुप्त काल में मंदिर निर्माण और मूर्ति पूजा को प्रोत्साहन मिला। भागवत पुराण और भागवत गीता की रचना इसी काल में हुई, जिसमें भक्ति की विस्तृत व्याख्या की गई है। गुप्तकालीन भक्ति सभी वर्गों की आवश्यकताओं को पूरा करती थी।
तंत्रवाद का प्रभाव: गुप्त काल के पश्चात उत्तर भारत में तंत्रवाद का प्रभाव बढ़ने लगा।
सातवीं से बारहवीं शताब्दी ईस्वी:
दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन का उद्भव: भारत में सर्वप्रथम भक्ति आंदोलन का विकास दक्षिण भारत में सन 700 ई. से 1200 ई. के मध्य हुआ।
अलवार और नयनार संतों का उदय: दक्षिण भारत में अलवार (विष्णु भक्त) और नयनार (शैव भक्त) संतों ने भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बनाया। यह एक भावात्मक और लोकहितकारी आंदोलन था, जिसने धार्मिक और सामाजिक समानता की मांग उठाई।
शंकराचार्य (आठवीं शताब्दी): भक्ति आंदोलन के प्रथम प्रचारक एवं संत शंकराचार्य थे, जिनका जन्म केरल में हुआ था। उन्होंने अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया, जिसका आधार वेदांत अथवा उपनिषद थे। उन्होंने धर्म की एकता के लिए चार मठों (शृंगेरी, जगन्नाथ पुरी, द्वारका, बद्रीकाश्रम) की स्थापना की। शंकराचार्य ने ज्ञान मार्ग का समर्थन किया और मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान को आवश्यक बताया।
रामानुजाचार्य (12वीं शताब्दी): रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद दर्शन के विरोध में सर्वप्रथम प्रतिक्रिया दी और विशिष्ट अद्वैतवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर "श्रीभाष्य" नामक टीका लिखा। रामानुजाचार्य ने शुद्रों के भी मोक्ष प्राप्ति के अधिकार का समर्थन किया।
13वीं से 17वीं शताब्दी ईस्वी:
माधवाचार्य: माधवाचार्य ने द्वैतवाद का प्रतिपादन किया।
निंबार्क आचार्य: निंबार्क आचार्य ने द्वैताद्वैतवाद का प्रतिपादन किया।
वल्लभाचार्य (15वीं शताब्दी): वल्लभाचार्य का जन्म वाराणसी में हुआ था। उन्होंने शुद्ध अद्वैतवाद और पुष्टिमार्ग के दर्शन की स्थापना की। इनके पुत्र विट्ठलनाथ थे, जिनके शिष्यों के साथ मिलकर 'अष्टछाप' कवियों का समूह बना।
रामानंद (15वीं शताब्दी): भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाने का श्रेय रामानंद जी को जाता है। उनका जन्म इलाहाबाद में हुआ था और वे रामानुजाचार्य के शिष्य थे। रामानंद ने सर्वप्रथम संस्कृत के स्थान पर हिंदी में उपदेश देना शुरू किया और चारों वर्णों को दीक्षाएं दीं। उनके प्रमुख शिष्यों में रविदास, कबीर दास, धन्ना, सेन और पीपा जैसे विभिन्न जातियों के लोग शामिल थे। रामानंद ने एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर जोर दिया और उनके द्वारा ही सगुण और निर्गुण भक्ति धाराओं का उदय हुआ।
महाराष्ट्र धर्म: दक्षिण भारत की भक्ति महाराष्ट्र में फैली और नाथ पंथ से प्रभावित हुई। इसमें विठोबा (विट्ठलनाथ) की पूजा प्रमुख थी। ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव, समर्थ गुरु रामदास जैसे संत महाराष्ट्र धर्म से जुड़े थे। इन्होंने जाति विभाजन को स्वीकार नहीं किया और एक मराठी पहचान स्थापित करने का प्रयास किया, जिससे मराठा राज्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ।
सगुण भक्ति धारा: इस धारा के संत ईश्वर को आकार रूप में पूजते थे और अवतारवाद में विश्वास रखते थे। इसमें रामाश्रयी (राम भक्त) और कृष्णाश्रयी (कृष्ण भक्त) शाखाएं शामिल थीं।
रामाश्रयी शाखा: तुलसीदास (रामचरितमानस के रचयिता), नरहरिदास, नाभादास, केशव, ईश्वरदास, रामानंद। इन्होंने अवधी भाषा का प्रयोग किया।
कृष्णाश्रयी शाखा: मीराबाई, सूरदास, रसखान, अब्दुर रहीम खानखाना, नरोत्तम दास, नंददास, परमानंद, कुंभनदास, कृष्णदास। इन्होंने ब्रजभाषा का प्रयोग किया।
निर्गुण भक्ति धारा: इस धारा के संत ईश्वर को निराकार रूप में पूजते थे और मूर्ति पूजा, मंदिर पूजा, तीर्थ यात्रा, आडंबरों तथा कर्मकांडों का विरोध करते थे। इसमें ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी शाखाएं शामिल थीं।
ज्ञानमार्गी शाखा: कबीर दास (क्रांतिकारी संत), रविदास (चर्मकार जाति के), गुरु नानक देव (सिख संप्रदाय के संस्थापक), दादू दयाल (धुनिया जाति के, ब्रह्म संप्रदाय और दीपक आंदोलन के संस्थापक), जंभनाथ, सलूकदास, सुंदरदास, नामदेव। इन्होंने ब्रजभाषा का प्रयोग किया।
प्रेममार्गी शाखा: मलिक मुहम्मद जायसी (पद्मावत के रचयिता), मुल्ला दाऊद, मंजन, उस्मान, कुतुबन, शेख नबी। इसमें अधिकतर सूफी संत शामिल थे और इन्होंने अवधी भाषा का प्रयोग किया।
गुरु ग्रंथ साहिब: सिख धर्म की प्रमुख पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब में संत रविदास के 30 से अधिक भजन संग्रहित हैं। संत रविदास ने रैदासी संप्रदाय की स्थापना की थी।
कबीर दास के समकालीन: कबीर दास सिकंदर लोदी के समकालीन थे।
17वीं शताब्दी के पश्चात:
भक्ति का निरंतर प्रभाव: 17वीं सदी के बाद भी भारतीय जीवन पर भक्ति का प्रभाव कम नहीं हुआ। हिंदू धर्म आज भी भक्ति के माध्यम से जीवित है।
वीर पूजा और सामाजिक प्रतिरोध: भक्ति आंदोलन ने वीर पूजा (नायक पूजा) और समर्पण की भावना को बढ़ावा दिया। यह राजनीतिक और सामाजिक प्रतिरोध के रूप में भी सामने आया, जैसे किसान आंदोलनों में संतों का नेतृत्व (बाबा रामचंद्र)।
राष्ट्रवादी आंदोलन में भक्ति का प्रभाव: क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आंदोलनों में दुर्गा, काली और भारत माता की परिकल्पनाएं भक्ति से ही निकलीं।
सिख धर्म का विकास: गुरु नानक देव के नेतृत्व में सिख धर्म एक समतामूलक समाज के रूप में विकसित हुआ, जिसने संगत (सामुदायिक अवधारणा) और पंगत (लंगर) की प्रथाओं को अपनाया। जहांगीर द्वारा गुरु अर्जन देव की हत्या के बाद सिखों में सैन्य शक्ति का उदय हुआ, जो गुरु गोविंद सिंह द्वारा खालसा की स्थापना के साथ एक शक्तिशाली राज्य के रूप में स्थापित हुआ।
आधुनिक भारत में प्रासंगिकता: आज भी भागवत पुराण की कथाएं लोकप्रिय हैं, जो भक्ति के महत्व को दर्शाती हैं। भक्ति आज भी भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में गहरी जड़ें जमाए हुए है।
चरित्र सूची संक्षिप्त
शंकराचार्य : आठवीं शताब्दी के एक महान दार्शनिक और भक्ति आंदोलन के प्रथम प्रचारक। उन्होंने अद्वैतवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसका अर्थ है 'दो नहीं एक'। उनके अनुसार, ब्रह्म (ईश्वर) और जीव (आत्मा) एक ही हैं, और अज्ञानता के कारण ही उनमें भेद प्रतीत होता है। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान को सबसे महत्वपूर्ण मार्ग बताया। उन्होंने भारत के चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर धर्म की एकता को बढ़ावा दिया।
रामानुजाचार्य: 12वीं शताब्दी के एक प्रमुख संत और दार्शनिक। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद के विरोध में विशिष्ट अद्वैतवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उनके अनुसार, ब्रह्म और जीव एक ही तत्व से बने हैं, लेकिन पूर्ण रूप से एक नहीं हैं; जीव ब्रह्म का एक विशिष्ट अंश है। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान से अधिक ईश्वर की कृपा और भक्ति को आवश्यक बताया। उन्होंने "श्रीभाष्य" नामक ग्रंथ लिखा और शुद्रों के लिए भी मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया।
माधवाचार्य: 13वीं शताब्दी के दार्शनिक और द्वैतवाद के प्रतिपादक। उनका मानना था कि ईश्वर और जीव दो अलग-अलग सत्ताएं हैं।
निंबार्क आचार्य: 13वीं शताब्दी के संत और द्वैताद्वैतवाद के प्रतिपादक। उन्होंने द्वैत और अद्वैत दोनों विचारों को समेटते हुए बताया कि जीव और ब्रह्म दोनों एक साथ भिन्न और अभिन्न हैं।
ज्ञानेश्वर (ज्ञानेश्वर महाराज): 13वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक संत। उन्होंने "ज्ञानेश्वरी" नामक ग्रंथ लिखा, जो भगवद गीता पर एक मराठी टीका है। उन्हें महाराष्ट्र धर्म का संस्थापक माना जाता है और उन्होंने भक्ति आंदोलन को महाराष्ट्र में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नामदेव: 13वीं-14वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक संत। वे वारकरी संप्रदाय से संबंधित थे और भगवान विठोबा के भक्त थे। उन्होंने मराठी और हिंदी में अनेक अभंग (भजन) रचे। उन्होंने जाति-पाति का विरोध किया और सामाजिक समानता का प्रचार किया।
वल्लभाचार्य: 15वीं शताब्दी के एक प्रमुख संत, जिनका जन्म वाराणसी में हुआ था। उन्होंने शुद्ध अद्वैतवाद और पुष्टिमार्ग के दर्शन का प्रतिपादन किया। पुष्टिमार्ग में भगवान की कृपा (पुष्टि) को मोक्ष का साधन माना जाता है। उनके शिष्य "अष्टछाप" कवि कहलाए, जिनमें सूरदास प्रमुख थे।
रामानंद: 15वीं शताब्दी के संत, जिनका जन्म इलाहाबाद में हुआ था। उन्हें दक्षिण भारत से भक्ति आंदोलन को उत्तर भारत में लाने का श्रेय दिया जाता है। वे रामानुजाचार्य के शिष्य थे। उन्होंने संस्कृत के बजाय हिंदी में उपदेश देना शुरू किया और बिना किसी जाति या वर्ण भेद के सभी लोगों को दीक्षा दी। उनके शिष्यों में विभिन्न जातियों के संत जैसे रविदास, कबीर दास, धन्ना, सेन, और पीपा शामिल थे।
कबीर दास: 15वीं शताब्दी के एक क्रांतिकारी संत और निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि। वे जुलाहा समुदाय से थे और नीरू-नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति द्वारा उनका पालन-पोषण किया गया। उन्होंने मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जातिवाद और धार्मिक आडंबरों का कड़ा विरोध किया। वे सिकंदर लोदी के समकालीन थे। उनकी वाणी में हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों की कुरीतियों पर प्रहार किया गया है। उनकी रचनाएं बीजक, साखी, सबद और रमैनी में संग्रहित हैं।
रविदास (संत रैदास): 15वीं शताब्दी के संत, जो हरिजन (चर्मकार) जाति से थे और रामानंद के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। उन्होंने निराकार ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया और जाति प्रथा का विरोध किया। उनके भजन सिख धर्म के प्रमुख ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहित हैं। उन्होंने रैदासी संप्रदाय की स्थापना की।
गुरु नानक देव: 15वीं शताब्दी के संत और सिख धर्म के संस्थापक। वे निर्गुण भक्ति धारा के संत थे और उन्होंने निराकार ईश्वर की उपासना पर बल दिया। उन्होंने जाति-पाति के भेद-भाव का खंडन किया और सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया। उन्होंने "संगत" (सामुदायिक उपासना) और "पंगत" (सामुदायिक भोजन, लंगर) की प्रथाओं को शुरू किया, जिसने सिख समुदाय में एकता और समता का भाव विकसित किया।
दादू दयाल: 16वीं शताब्दी के संत, जो धुनिया जाति से थे और कबीर के अनुयायी थे। उन्होंने ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की और "दीपक आंदोलन" की शुरुआत की। उन्होंने भी निराकार ब्रह्म की उपासना पर जोर दिया और सामाजिक समानता का प्रचार किया।
मीराबाई: 16वीं शताब्दी की एक महान कृष्ण भक्त कवयित्री। वे राजस्थान के मेड़ता की राजकुमारी थीं और संत रविदास की शिष्या थीं। उन्होंने भगवान कृष्ण को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया और उनकी भक्ति में लीन होकर अनेक भजन रचे। वे कृष्ण भक्ति शाखा की प्रमुख संत थीं।
सूरदास: 15वीं-16वीं शताब्दी के महान कृष्ण भक्त कवि। वे वल्लभाचार्य के शिष्य थे और "अष्टछाप" कवियों में प्रमुख थे। उन्होंने ब्रजभाषा में भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं और प्रेम प्रसंगों का मनमोहक वर्णन किया। उनकी प्रमुख रचनाओं में सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी शामिल हैं।
मलिक मुहम्मद जायसी: 15वीं-16वीं शताब्दी के एक प्रमुख सूफी संत और प्रेममार्गी शाखा के कवि। उन्होंने अवधी भाषा में "पद्मावत" नामक महाकाव्य की रचना की, जिसमें प्रेम के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति के रहस्यवादी मार्ग का वर्णन किया गया है।
तुलसीदास: 16वीं शताब्दी के एक महान संत और राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि। उन्होंने अवधी भाषा में "रामचरितमानस" की रचना की, जिसमें भगवान राम के जीवन और आदर्शों का विस्तृत वर्णन है। उनके रामचरितमानस को हिंदी साहित्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है, जिसने आम जनता के बीच राम भक्ति को लोकप्रिय बनाया।
चैतन्य महाप्रभु: 15वीं-16वीं शताब्दी के बंगाल के एक महान संत। वे भगवान कृष्ण के अवतार माने जाते हैं और उन्होंने कृष्ण भक्ति (विशेषकर राधा-कृष्ण भक्ति) को बंगाल में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने संकीर्तन (सामूहिक कीर्तन) प्रणाली की शुरुआत की, जिसमें भक्त भावविभोर होकर ईश्वर का नाम जपते थे। उनके प्रभाव ने बंगाली संस्कृति को मजबूत किया।
शंकरदेव: 15वीं-16वीं शताब्दी के असम के एक संत। उन्होंने असम में एकेश्वरवाद और वैष्णव भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने "एकसरन नामधर्म" नामक एक नए संप्रदाय की स्थापना की और असमिया भाषा तथा साहित्य को समृद्ध किया।
एकनाथ: 16वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक संत। वे भागवत पुराण के ज्ञाता थे और उन्होंने मराठी में अनेक भक्ति ग्रंथ लिखे। उन्होंने जातिवाद का विरोध किया और सभी वर्गों के लोगों को भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।
समर्थ गुरु रामदास: 17वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक संत और छत्रपति शिवाजी महाराज के आध्यात्मिक गुरु। उन्होंने "दासबोध" नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें व्यावहारिक ज्ञान और भक्ति के महत्व पर जोर दिया गया है। उन्होंने महाराष्ट्र में राष्ट्रवाद और धर्म की रक्षा के लिए लोगों को प्रेरित किया।
तुकाराम: 17वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक प्रमुख संत। वे वारकरी संप्रदाय से संबंधित थे और भगवान विठोबा के भक्त थे। उन्होंने अभंगों के माध्यम से ईश्वर भक्ति और नैतिक मूल्यों का प्रचार किया। उनके उपदेशों ने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को गहराया।
स्वामी नारायण (1781-1830 ई.) - स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक
शंकराचार्य : आठवीं शताब्दी के एक महान दार्शनिक और भक्ति आंदोलन के प्रथम प्रचारक। उन्होंने अद्वैतवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसका अर्थ है 'दो नहीं एक'। उनके अनुसार, ब्रह्म (ईश्वर) और जीव (आत्मा) एक ही हैं, और अज्ञानता के कारण ही उनमें भेद प्रतीत होता है। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान को सबसे महत्वपूर्ण मार्ग बताया। उन्होंने भारत के चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर धर्म की एकता को बढ़ावा दिया।
रामानुजाचार्य: 12वीं शताब्दी के एक प्रमुख संत और दार्शनिक। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद के विरोध में विशिष्ट अद्वैतवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उनके अनुसार, ब्रह्म और जीव एक ही तत्व से बने हैं, लेकिन पूर्ण रूप से एक नहीं हैं; जीव ब्रह्म का एक विशिष्ट अंश है। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान से अधिक ईश्वर की कृपा और भक्ति को आवश्यक बताया। उन्होंने "श्रीभाष्य" नामक ग्रंथ लिखा और शुद्रों के लिए भी मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया।
माधवाचार्य: 13वीं शताब्दी के दार्शनिक और द्वैतवाद के प्रतिपादक। उनका मानना था कि ईश्वर और जीव दो अलग-अलग सत्ताएं हैं।
निंबार्क आचार्य: 13वीं शताब्दी के संत और द्वैताद्वैतवाद के प्रतिपादक। उन्होंने द्वैत और अद्वैत दोनों विचारों को समेटते हुए बताया कि जीव और ब्रह्म दोनों एक साथ भिन्न और अभिन्न हैं।
ज्ञानेश्वर (ज्ञानेश्वर महाराज): 13वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक संत। उन्होंने "ज्ञानेश्वरी" नामक ग्रंथ लिखा, जो भगवद गीता पर एक मराठी टीका है। उन्हें महाराष्ट्र धर्म का संस्थापक माना जाता है और उन्होंने भक्ति आंदोलन को महाराष्ट्र में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नामदेव: 13वीं-14वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक संत। वे वारकरी संप्रदाय से संबंधित थे और भगवान विठोबा के भक्त थे। उन्होंने मराठी और हिंदी में अनेक अभंग (भजन) रचे। उन्होंने जाति-पाति का विरोध किया और सामाजिक समानता का प्रचार किया।
वल्लभाचार्य: 15वीं शताब्दी के एक प्रमुख संत, जिनका जन्म वाराणसी में हुआ था। उन्होंने शुद्ध अद्वैतवाद और पुष्टिमार्ग के दर्शन का प्रतिपादन किया। पुष्टिमार्ग में भगवान की कृपा (पुष्टि) को मोक्ष का साधन माना जाता है। उनके शिष्य "अष्टछाप" कवि कहलाए, जिनमें सूरदास प्रमुख थे।
रामानंद: 15वीं शताब्दी के संत, जिनका जन्म इलाहाबाद में हुआ था। उन्हें दक्षिण भारत से भक्ति आंदोलन को उत्तर भारत में लाने का श्रेय दिया जाता है। वे रामानुजाचार्य के शिष्य थे। उन्होंने संस्कृत के बजाय हिंदी में उपदेश देना शुरू किया और बिना किसी जाति या वर्ण भेद के सभी लोगों को दीक्षा दी। उनके शिष्यों में विभिन्न जातियों के संत जैसे रविदास, कबीर दास, धन्ना, सेन, और पीपा शामिल थे।
कबीर दास: 15वीं शताब्दी के एक क्रांतिकारी संत और निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि। वे जुलाहा समुदाय से थे और नीरू-नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति द्वारा उनका पालन-पोषण किया गया। उन्होंने मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जातिवाद और धार्मिक आडंबरों का कड़ा विरोध किया। वे सिकंदर लोदी के समकालीन थे। उनकी वाणी में हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों की कुरीतियों पर प्रहार किया गया है। उनकी रचनाएं बीजक, साखी, सबद और रमैनी में संग्रहित हैं।
रविदास (संत रैदास): 15वीं शताब्दी के संत, जो हरिजन (चर्मकार) जाति से थे और रामानंद के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। उन्होंने निराकार ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया और जाति प्रथा का विरोध किया। उनके भजन सिख धर्म के प्रमुख ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहित हैं। उन्होंने रैदासी संप्रदाय की स्थापना की।
गुरु नानक देव: 15वीं शताब्दी के संत और सिख धर्म के संस्थापक। वे निर्गुण भक्ति धारा के संत थे और उन्होंने निराकार ईश्वर की उपासना पर बल दिया। उन्होंने जाति-पाति के भेद-भाव का खंडन किया और सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया। उन्होंने "संगत" (सामुदायिक उपासना) और "पंगत" (सामुदायिक भोजन, लंगर) की प्रथाओं को शुरू किया, जिसने सिख समुदाय में एकता और समता का भाव विकसित किया।
दादू दयाल: 16वीं शताब्दी के संत, जो धुनिया जाति से थे और कबीर के अनुयायी थे। उन्होंने ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की और "दीपक आंदोलन" की शुरुआत की। उन्होंने भी निराकार ब्रह्म की उपासना पर जोर दिया और सामाजिक समानता का प्रचार किया।
मीराबाई: 16वीं शताब्दी की एक महान कृष्ण भक्त कवयित्री। वे राजस्थान के मेड़ता की राजकुमारी थीं और संत रविदास की शिष्या थीं। उन्होंने भगवान कृष्ण को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया और उनकी भक्ति में लीन होकर अनेक भजन रचे। वे कृष्ण भक्ति शाखा की प्रमुख संत थीं।
सूरदास: 15वीं-16वीं शताब्दी के महान कृष्ण भक्त कवि। वे वल्लभाचार्य के शिष्य थे और "अष्टछाप" कवियों में प्रमुख थे। उन्होंने ब्रजभाषा में भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं और प्रेम प्रसंगों का मनमोहक वर्णन किया। उनकी प्रमुख रचनाओं में सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी शामिल हैं।
मलिक मुहम्मद जायसी: 15वीं-16वीं शताब्दी के एक प्रमुख सूफी संत और प्रेममार्गी शाखा के कवि। उन्होंने अवधी भाषा में "पद्मावत" नामक महाकाव्य की रचना की, जिसमें प्रेम के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति के रहस्यवादी मार्ग का वर्णन किया गया है।
तुलसीदास: 16वीं शताब्दी के एक महान संत और राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि। उन्होंने अवधी भाषा में "रामचरितमानस" की रचना की, जिसमें भगवान राम के जीवन और आदर्शों का विस्तृत वर्णन है। उनके रामचरितमानस को हिंदी साहित्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है, जिसने आम जनता के बीच राम भक्ति को लोकप्रिय बनाया।
चैतन्य महाप्रभु: 15वीं-16वीं शताब्दी के बंगाल के एक महान संत। वे भगवान कृष्ण के अवतार माने जाते हैं और उन्होंने कृष्ण भक्ति (विशेषकर राधा-कृष्ण भक्ति) को बंगाल में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने संकीर्तन (सामूहिक कीर्तन) प्रणाली की शुरुआत की, जिसमें भक्त भावविभोर होकर ईश्वर का नाम जपते थे। उनके प्रभाव ने बंगाली संस्कृति को मजबूत किया।
शंकरदेव: 15वीं-16वीं शताब्दी के असम के एक संत। उन्होंने असम में एकेश्वरवाद और वैष्णव भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने "एकसरन नामधर्म" नामक एक नए संप्रदाय की स्थापना की और असमिया भाषा तथा साहित्य को समृद्ध किया।
एकनाथ: 16वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक संत। वे भागवत पुराण के ज्ञाता थे और उन्होंने मराठी में अनेक भक्ति ग्रंथ लिखे। उन्होंने जातिवाद का विरोध किया और सभी वर्गों के लोगों को भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।
समर्थ गुरु रामदास: 17वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक संत और छत्रपति शिवाजी महाराज के आध्यात्मिक गुरु। उन्होंने "दासबोध" नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें व्यावहारिक ज्ञान और भक्ति के महत्व पर जोर दिया गया है। उन्होंने महाराष्ट्र में राष्ट्रवाद और धर्म की रक्षा के लिए लोगों को प्रेरित किया।
तुकाराम: 17वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के एक प्रमुख संत। वे वारकरी संप्रदाय से संबंधित थे और भगवान विठोबा के भक्त थे। उन्होंने अभंगों के माध्यम से ईश्वर भक्ति और नैतिक मूल्यों का प्रचार किया। उनके उपदेशों ने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को गहराया।
स्वामी नारायण (1781-1830 ई.) - स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक
समय: 18वीं-19वीं शताब्दी
एक ईश्वरवाद और नैतिक शुद्धि: उन्होंने भगवान नारायण को परम सत्य माना और अपने अनुयायियों को कठोर नैतिक नियमों, अनुशासन और भक्ति के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी। उन्होंने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर विशेष जोर दिया।
सत्संग: सामूहिक भक्ति और नैतिक शिक्षाओं के आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया, जिससे समाज में धार्मिकता और भाईचारा बढ़ा।
सामाजिक सुधार: उन्होंने जाति-पाति के भेदभाव को समाप्त करने, महिला शिक्षा को बढ़ावा देने और विधवा विवाह का समर्थन करने जैसे सामाजिक सुधारों पर जोर दिया, जो उस समय के लिए क्रांतिकारी थे।
प्रभाव: गुजरात और भारत के अन्य हिस्सों में एक विशाल और अत्यंत संगठित धार्मिक संप्रदाय की स्थापना की, जिसके अनुयायी आज भी विश्वभर में फैले हुए हैं।
समय: 18वीं-19वीं शताब्दी
एक ईश्वरवाद और नैतिक शुद्धि: उन्होंने भगवान नारायण को परम सत्य माना और अपने अनुयायियों को कठोर नैतिक नियमों, अनुशासन और भक्ति के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी। उन्होंने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर विशेष जोर दिया।
सत्संग: सामूहिक भक्ति और नैतिक शिक्षाओं के आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया, जिससे समाज में धार्मिकता और भाईचारा बढ़ा।
सामाजिक सुधार: उन्होंने जाति-पाति के भेदभाव को समाप्त करने, महिला शिक्षा को बढ़ावा देने और विधवा विवाह का समर्थन करने जैसे सामाजिक सुधारों पर जोर दिया, जो उस समय के लिए क्रांतिकारी थे।
प्रभाव: गुजरात और भारत के अन्य हिस्सों में एक विशाल और अत्यंत संगठित धार्मिक संप्रदाय की स्थापना की, जिसके अनुयायी आज भी विश्वभर में फैले हुए हैं।
23 . श्री रामकृष्ण परमहंस (1836-1886 ई.) - नव-वेदांत आंदोलन के प्रेरणास्रोत
समय: 19वीं शताब्दी
सर्वधर्म समभाव: उन्होंने सभी धर्मों की एकता और सत्यता पर जोर दिया। उन्होंने स्वयं विभिन्न धर्मों (हिंदू धर्म की विभिन्न शाखाएँ, ईसाई धर्म, इस्लाम) के साधना मार्गों का अनुभव किया और पाया कि सभी सच्चे मार्ग एक ही ईश्वर तक पहुँचते हैं। उनका प्रसिद्ध कथन था, "जितने मत, उतने पथ।"
भाव-समाधि और ईश्वर-दर्शन: वे काली माता के अनन्य भक्त थे और गहन आध्यात्मिक अनुभवों और समाधि की अवस्थाओं के लिए जाने जाते थे। उन्होंने बताया कि ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन संभव है और यही मानव जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए।
प्रभाव: उन्होंने आधुनिक भारत में नव-वेदांत आंदोलन को प्रेरित किया और अपने शिष्य स्वामी विवेकानंद के माध्यम से भारतीय आध्यात्मिकता को पश्चिमी दुनिया तक पहुँचाया, जहाँ इसकी गहरी छाप पड़ी।
24 . स्वामी विवेकानंद (1863-1902 ई.) - वेदांत और कर्मयोग के आधुनिक प्रणेता
समय: 19वीं-20वीं शताब्दी
व्यावहारिक वेदांत: उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों (जैसे 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः' - ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव स्वयं ब्रह्म ही है) को सामान्य लोगों के लिए सुलभ बनाया और उन्हें दैनिक व्यावहारिक जीवन में लागू करने पर जोर दिया। उनका मानना था कि वेदांत जंगल में नहीं, बल्कि घर, कार्यालय और समाज में जिया जाना चाहिए।
मानव सेवा: उन्होंने 'नर सेवा नारायण सेवा' (मनुष्य की सेवा भगवान की सेवा है) के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। उनके अनुसार, दरिद्र नारायण की सेवा ही सबसे बड़ी भक्ति है और मोक्ष का मार्ग है।
शक्ति और आत्मविश्वास: उन्होंने भारतीयों में आत्मविश्वास और राष्ट्रवाद की भावना जगाई। 'उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए' उनका प्रसिद्ध उद्घोष है।
योग समन्वय: उन्होंने ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग और राज योग को एकीकृत करते हुए 'योग समन्वय' की बात की, जिसमें सभी मार्गों को आत्मज्ञान और मोक्ष के लिए आवश्यक माना।
प्रभाव: उन्होंने राम कृष्ण मिशन की स्थापना की, जिसने शिक्षा, स्वास्थ्य और आपदा राहत के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने विश्व धर्म संसद (शिकागो, 1893) में हिंदू धर्म का प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व किया और पश्चिमी दुनिया में वेदांत दर्शन को लोकप्रिय बनाया, जिससे भारत की आध्यात्मिक छवि मजबूत हुई।
25 . महात्मा गांधी (1869-1948 ई.) - अहिंसा और सत्य के पुजारी
समय: 19वीं-20वीं शताब्दी
अहिंसा परम धर्म: उन्होंने अहिंसा को न केवल एक नैतिक सिद्धांत, बल्कि एक शक्तिशाली राजनीतिक और सामाजिक हथियार के रूप में प्रयोग किया। उन्होंने सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर भारत को स्वतंत्रता दिलाई।
सत्याग्रह: सत्य के प्रति आग्रह और आत्मिक बल के माध्यम से अन्याय का प्रतिरोध करना।
राम-राज्य की अवधारणा: उन्होंने अपने आदर्श समाज को 'राम-राज्य' की संज्ञा दी, जहाँ नैतिकता, न्याय, समानता, सादगी और आत्म-निर्भरता का बोलबाला हो। उनकी भक्ति कर्मयोग और लोकसेवा से ओत-प्रोत थी।
ईश्वर के विभिन्न रूप: वे ईश्वर के विभिन्न नामों और रूपों (राम, रहीम, अल्लाह, ईश्वर) को एक ही सत्ता के विभिन्न मार्ग मानते थे और धार्मिक सहिष्णुता पर बल देते थे।
प्रभाव: भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया और विश्व भर में अहिंसक प्रतिरोध के प्रतीक बने। उनके विचारों ने बाद की पीढ़ियों के सामाजिक कार्यकर्ताओं, नेताओं और मानवाधिकार आंदोलनों को गहराई से प्रभावित किया
भक्ति (Bhakti): ईश्वर के प्रति निःस्वार्थ प्रेम और पूर्ण समर्पण की भावना।
मोक्ष (Moksha): जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति, आत्मा का परमात्मा से मिलन।
ज्ञान मार्ग (Jnana Marga): ज्ञान की प्राप्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग।
कर्म मार्ग (Karma Marga): निःस्वार्थ कर्मों के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग।
भक्ति मार्ग (Bhakti Marga): ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग।
अद्वैतवाद (Advaita Vedanta): शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धांत, जिसके अनुसार ब्रह्म और जीव एक ही हैं, कोई द्वैत नहीं है।
विशिष्टाद्वैतवाद (Vishishtadvaita): रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धांत, जिसके अनुसार ब्रह्म और जीव एक ही तत्व से निर्मित हैं, परंतु ब्रह्म विशिष्ट गुणों से युक्त है।
द्वैतवाद (Dvaita): माधवाचार्य द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धांत, जिसके अनुसार ब्रह्म और जीव पूरी तरह से अलग-अलग हैं।
शुद्धाद्वैतवाद (Shuddhadvaita): वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धांत, जिसके अनुसार ईश्वर शुद्ध और गुणों से युक्त है, और जीव से भिन्न है।
द्वैताद्वैतवाद (Dvaitadvaita): निंबार्काचार्य द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धांत, जिसके अनुसार ब्रह्म और जीव दोनों सत्य हैं, लेकिन वे एक-दूसरे से भिन्न भी हैं और अविभाज्य भी।
सगुण भक्ति (Saguna Bhakti): ईश्वर के साकार (रूप, गुण, आकार वाले) रूप की उपासना।
निर्गुण भक्ति (Nirguna Bhakti): ईश्वर के निराकार (रूप, गुण, आकार रहित) स्वरूप की उपासना।
ज्ञान मार्गी शाखा (Jnana Margi Shakha): निर्गुण भक्ति की एक शाखा जो ज्ञान प्राप्ति पर बल देती है।
प्रेम मार्गी शाखा (Prema Margi Shakha): निर्गुण भक्ति की एक शाखा जो प्रेम के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति पर बल देती है।
राम मार्गी शाखा (Rama Margi Shakha): सगुण भक्ति की एक शाखा जो भगवान राम की उपासना करती है।
कृष्ण मार्गी शाखा (Krishna Margi Shakha): सगुण भक्ति की एक शाखा जो भगवान कृष्ण की उपासना करती है।
पुष्टिमार्ग (Pushtimarg): वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित भक्ति का मार्ग, जिसमें ईश्वर की कृपा को प्रमुख माना जाता है।
अष्टछाप (Ashtachhap): वल्लभाचार्य और उनके पुत्र विट्ठलनाथ के आठ प्रमुख कवियों का समूह, जो कृष्ण भक्ति के लिए प्रसिद्ध थे।
बीजक (Bijak): कबीर दास के भजनों और उपदेशों का संग्रह, जिसमें साखी, सबद और रमैनी शामिल हैं।
गुरु ग्रंथ साहिब (Guru Granth Sahib): सिख धर्म का पवित्र धर्मग्रंथ, जिसमें विभिन्न संतों (जैसे रविदास) के भजन भी संग्रहित हैं।
संकीर्तन (Sankirtan): चैतन्य महाप्रभु द्वारा लोकप्रिय बनाया गया भक्ति का एक रूप, जिसमें सामूहिक रूप से ईश्वर के नाम का जप और भजन किया जाता है।
सत्रीय नृत्य (Sattriya Nritya): शंकरदेव द्वारा असम में विकसित एक शास्त्रीय नृत्य शैली, जो भक्ति आंदोलन से जुड़ी है।
माया (Maya): शंकराचार्य के अद्वैतवाद में, वह शक्ति जो अज्ञान के कारण संसार को वास्तविक प्रतीत कराती है, जबकि वह मिथ्या है।
टीका (Tika): किसी मूल ग्रंथ की व्याख्या या टिप्पणी।
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