Thursday, July 17, 2025

दृग्-दृश्य विवेक: एक विस्तृत समीक्षा

यह ग्रंथ 'द्रष्टा' और 'दृश्य' के स्वरूप की गहन जाँच प्रस्तुत करता है। यह वेदांत दर्शन के केंद्रीय सिद्धांतों को स्पष्ट करता है, विशेष रूप से जीव और ब्रह्म की पहचान पर जोर देता है। पाठ विभिन्न प्रकार की समाधि (एकाग्रता) की विस्तृत व्याख्या प्रदान करता है, जिसे आत्म-साक्षात्कार और अज्ञान के माध्यम से उत्पन्न भ्रमों को दूर करने के साधन के रूप में देखा जाता है। यह माया की दोहरी शक्तियों—प्रक्षेपण और आवरण—तथा जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति की अवस्थाओं में उनकी अभिव्यक्तियों पर भी प्रकाश डालता है, अंततः यह दर्शाता है कि वास्तविक आत्म ब्रह्म ही है।


दृग्-दृश्य विवेक अद्वैत वेदांत का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे विद्यारण्य स्वामी या आदि शंकराचार्य से संबद्ध माना जाता है। इसमें 46 श्लोक हैं।

दृग्-दृश्य विवेक का मूल उद्देश्य: इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य 'द्रष्टा' (दृग्) और 'दृश्य' (दृश्य) के बीच के अंतर की गहन जाँच-पड़ताल करना है। यह ग्रंथ निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्यों को पूरा करता है:

• यह जीव (जीवित प्राणी) और ब्रह्म के तादात्म्य (पहचान) को स्पष्ट करता है

• यह वेदांत के छात्रों को निचले चरणों से तर्कसंगत (बुद्धि) या दार्शनिक जाँच (विचार) की ओर ले जाता है

• यह उच्च वेदांत दर्शन को समझने में सहायता करता है

• यह योगिक समाधि के माध्यम से ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया को समझाता है।

• यह जीव की वास्तविक प्रकृति की व्याख्या करता है, यह दर्शाता है कि जीव वास्तव में साक्षी है और ब्रह्म के समान है, लेकिन उपाधियों (सीमाओं) के साथ तादात्म्य के कारण खुद को जीव मानता है।

• इसका लक्ष्य माया और ब्रह्म को समझना है, जहाँ दृश्य जगत क्षणभंगुर और भ्रामक (माया) है, जबकि आत्म (दृग्) शाश्वत और अपरिवर्तनीय है।

• यह सच्चिदानंद (सत्-चित्-आनंद) के रूप में अपनी वास्तविक प्रकृति को जानने की ओर ले जाता है।

• इसका अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करना है, जिसमें व्यक्ति स्वयं को शरीर और मन से परे शुद्ध चेतना के रूप में पहचानता है।

• यह सत्य को असत्य से अलग करके व्यक्ति की आँखों को खोलने और अदृश्य को प्रकट करने का प्रयास करता है।

• यह स्पष्ट करता है कि परिवर्तन केवल घटनात्मक ब्रह्मांड में अनुभव होता है, ब्रह्म में कभी नहीं

वेदांत दर्शन में इसका महत्व: दृग्-दृश्य विवेक का वेदांत दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि:

• इसे वेदांत दर्शन का 'प्रकरण ग्रंथ' माना जाता है। इसका अर्थ है कि यह ग्रंथ विषय के मुख्य उद्देश्य को एक विशेष तर्क रेखा का पालन करते हुए समझाता है, और अद्वैत वेदांत के सभी विषयों का संक्षिप्त परिचय प्रदान करता है, जिसे अद्वैत वेदांत की 'भूमिका' भी कहा जा सकता है।

• यह उच्च वेदांत के अध्ययन के लिए एक उत्कृष्ट पुस्तिका ('vade mecum') है।

• यह उच्च वेदांत दर्शन को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

• यह समाधि (एकाग्रता) के विभिन्न प्रकारों का विस्तृत विवरण प्रदान करता है, जिसे वेदांत के छात्र हमेशा स्वीकार करते हैं।

• यह आत्मा और ब्रह्म की पहचान पर चर्चा करता है।

• यह "तत् त्वम् असि" (तुम वह हो) जैसे प्रमुख वैदिक महावाक्यों के वास्तविक अर्थ को समझने में मदद करता है। यह बताता है कि "तुम" अपरिवर्तनीय साक्षी (चेतना) को इंगित करता है और "वह" ब्रह्म को इंगित करता है जो परिघटनाओं से अप्रभावित है।

• इसे संसार के सभी धर्मों का सार माना जाता है।

• यह आत्म-जाँच और ध्यान के माध्यम से अद्वैत वेदांत को समझने के लिए एक प्रभावशाली साधन है।

• यह वेदांत के लिए संस्कृत में एक प्रारंभिक या प्रारंभिक ग्रंथ है।

• यह इस गहन अवधारणा पर जोर देता है कि ज्ञान वेदांत में प्राथमिक है, कर्मकांड नहीं, हालांकि कुछ आचार्य (जैसे विद्यारण्य स्वामी) साधन (अभ्यास) के महत्व पर भी जोर देते हैं।

• यह दर्शाता है कि ब्रह्म को जानने से हृदय के बंधन टूट जाते हैं, सभी संदेह दूर हो जाते हैं, और सभी कर्मों का क्षय हो जाता है, जिससे मुक्ति प्राप्त होती है।

• यह उन लोगों के लिए एक मार्गदर्शक है जो सांसारिक जीवन से दुखी हैं और केवल कर्मों के बजाय ज्ञान की तलाश में हैं।

• इसका नाम "वाक्य सुधा" (वाक्यसुधा) "वाक्यों का अमृत" या वेदांत के चार महावाक्यों के मंथन से प्राप्त अमृत को दर्शाता है।

• यह इस बात पर जोर देता है कि परम द्रष्टा (साक्षी) को कभी किसी और के द्वारा नहीं देखा जाता है और वह स्वयं-प्रकाशित है।


1. दृग्-दृश्य-विवेक का मुख्य विषय क्या है?

दृग्-दृश्य-विवेक एक अद्वैत वेदान्त का ग्रंथ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'द्रष्टा' (देखने वाला) और 'दृश्य' (जो देखा जाता है) के बीच के अंतर को समझना। यह ग्रंथ आत्मा (दृग्) और दृश्य जगत (दृश्य) के बीच के भेद को स्पष्ट करता है, यह बताते हुए कि आत्मा ही शुद्ध द्रष्टा (साक्षी) है, जो स्वयं प्रकाशित और अविनाशी है, जबकि दृश्य जगत परिवर्तनशील और नश्वर है। इसका केंद्रीय विषय मोक्ष के मार्ग के रूप में आत्म-साक्षात्कार है, जिसमें साधक "नेति-नेति" (यह नहीं, वह नहीं) के माध्यम से भौतिक जगत को मिथ्या समझकर अपनी वास्तविक सच्चिदानंद स्वरूप को पहचानता है।

2. दृग्-दृश्य-विवेक के अनुसार 'द्रष्टा' और 'दृश्य' में क्या अंतर है?

दृग्-दृश्य-विवेक के अनुसार, 'द्रष्टा' वह है जो देखता है, और 'दृश्य' वह है जो देखा जाता है। यह ग्रंथ स्पष्ट करता है कि इंद्रियाँ (जैसे आँखें) रूप को देखती हैं, लेकिन स्वयं इंद्रियाँ मन द्वारा देखी जाती हैं। मन भी दृश्य है, जिसे अंतःकरण की वृत्तियों के रूप में साक्षी (चेतना) द्वारा देखा जाता है। अंततः, चेतना (आत्मा) ही परम द्रष्टा या साक्षी है, जो स्वयं किसी अन्य द्वारा नहीं देखी जा सकती। यह स्वयं-प्रकाशित और शाश्वत है। इस प्रकार, द्रष्टा अविनाशी और अपरिवर्तनीय है, जबकि दृश्य परिवर्तनशील और क्षणिक है।

3. दृग्-दृश्य-विवेक के लेखक कौन हैं और इसकी प्रामाणिकता पर क्या विचार हैं?

दृग्-दृश्य-विवेक को मुख्य रूप से भारती तीर्थ या विद्यारण्य स्वामी (लगभग 1350 ई.) द्वारा रचित माना जाता है। हालांकि, कुछ लोग इसे आदि शंकराचार्य का भी मानते हैं, और इसे वाक्य सुधा नाम से भी जाना जाता है, जो आदि शंकराचार्य से जुड़ा हुआ है। यह भ्रम इसलिए हो सकता है क्योंकि भारती तीर्थ और विद्यारण्य स्वामी दोनों ही शंकराचार्य परंपरा के महत्वपूर्ण आचार्य थे। हालांकि, आम सहमति विद्यारण्य स्वामी को इसका लेखक मानती है, क्योंकि यह ग्रंथ "प्रकरण ग्रंथ" की श्रेणी में आता है, जो अद्वैत वेदान्त के सभी विषयों का संक्षिप्त परिचय देता है।

4. माया और ब्रह्म का दृग्-दृश्य-विवेक में क्या महत्व है?

दृग्-दृश्य-विवेक में माया और ब्रह्म के भेद को समझना महत्वपूर्ण है। माया को ब्रह्म की दो शक्तियों (प्रक्षेपण और आवरण) के रूप में वर्णित किया गया है। प्रक्षेपण शक्ति सूक्ष्म शरीर से लेकर ब्रह्मांड तक सब कुछ बनाती है, जिससे निर्गुण ब्रह्म नाम और रूपों के साथ प्रकट होता है। आवरण शक्ति भीतर 'द्रष्टा' और 'दृश्य' के बीच के भेद को, और बाहर ब्रह्म और निर्मित ब्रह्मांड के बीच के भेद को छुपाती है, जिससे संसार के अनुभव का कारण बनती है। माया को न तो वास्तविक और न ही अवास्तविक बताया गया है, बल्कि अत्यंत भ्रामक है। ब्रह्म को अस्तित्व-चेतना-आनंद स्वरूप कहा गया है, और दृश्य जगत (नाम और रूप) को ब्रह्म में झाग या लहरों की तरह एक अभिव्यक्ति मात्र माना गया है, जो माया के कारण होता है। परमार्थिक दृष्टिकोण से, ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और सभी अभिव्यक्तियाँ माया के कारण उत्पन्न होती हैं।

5. जीव की प्रकृति और आत्मा के साथ उसके संबंध को दृग्-दृश्य-विवेक कैसे समझाता है?

दृग्-दृश्य-विवेक में जीव (शरीरधारी इकाई) की तीन अवधारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं:

  • उपधि से सीमित चेतना: जैसे आकाश बर्तनों से सीमित प्रतीत होता है।

  • मन में प्रस्तुत चेतना का आभास: जैसे पानी में सूर्य का प्रतिबिंब।

  • स्वप्न में कल्पित चेतना: जैसे स्वप्न में स्वयं को राजा या भिखारी मानना।

इनमें से, ग्रंथ पहले सिद्धांत को जीव की वास्तविक प्रकृति के रूप में समर्थन करता है, यह बताते हुए कि जीवत्व (सीमित होने का विचार) ब्रह्म पर एक मायावी अधिरोपण है। जब अज्ञान (माया की आवरण शक्ति) दूर होती है, तो जीव और साक्षी के बीच का अंतर स्पष्ट हो जाता है, और जीव का स्वरूप साक्षी (आत्मा) में विलीन हो जाता है, जो ब्रह्म के समान है। यह मोक्ष का मार्ग है, जहाँ जीव अपनी पहचान ब्रह्म के रूप में स्थापित करता है।

6. समाधि और इसके विभिन्न प्रकारों का दृग्-दृश्य-विवेक में क्या वर्णन है?

दृग्-दृश्य-विवेक में समाधि (एकाग्रता) के दो मुख्य प्रकारों का वर्णन किया गया है, जिन्हें हृदय के भीतर या बाहर अभ्यास किया जा सकता है:

  • सविकल्प समाधि: इसमें साधक ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करता है, लेकिन ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैसे भेदों को पूरी तरह से नहीं खोता है। इसे आगे दो प्रकारों में बांटा गया है:

  • दृश्य से संबंधित सविकल्प समाधि: जिसमें मन की इच्छाओं आदि को ज्ञेय वस्तुओं के रूप में देखा जाता है, और चेतना को उनके साक्षी के रूप में ध्यान किया जाता है।

  • शब्द (श्रुति) से संबंधित सविकल्प समाधि: जिसमें साधक 'मैं अस्तित्व-चेतना-आनंद, अनासक्त, स्वयं-प्रकाशित और द्वैत से मुक्त हूँ' जैसे कथनों पर चिंतन करता है।

  • निर्विकल्प समाधि: यह उच्चतम स्तर की समाधि है, जिसमें मन हवा रहित स्थान में दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाता है, और साधक आत्मा की प्राप्ति के आनंद में पूरी तरह से लीन होकर सभी वस्तुओं और ध्वनियों के प्रति उदासीन हो जाता है। इसमें ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय का भेद समाप्त हो जाता है, और साधक परम आनंद का अनुभव करता है, जो अज्ञान के नष्ट होने और ब्रह्म के साथ पहचान के माध्यम से प्राप्त होता है।

ग्रंथ अभ्यासियों को इन छह प्रकार की समाधियों (तीन आंतरिक और तीन बाहरी) में निरंतर समय बिताने की सलाह देता है, क्योंकि निरंतर अभ्यास से ही सर्वोच्च ज्ञान में दृढ़ता आती है।

7. दृग्-दृश्य-विवेक किस प्रकार अद्वैत वेदान्त के केंद्रीय सिद्धांतों से जुड़ता है?

दृग्-दृश्य-विवेक अद्वैत वेदान्त के केंद्रीय सिद्धांतों से गहराई से जुड़ता है, विशेष रूप से "तत्त्वमसि" (वह तुम हो) जैसे महावाक्यों के निहितार्थ को समझाने में। यह 'तुम' (व्यष्टि आत्मन्) और 'तत्' (समष्टि ब्रह्म) की पहचान पर जोर देता है। ग्रंथ यह दर्शाता है कि हर इकाई में अस्तित्व, चेतना और आनंद (सच्चिदानंद) के गुण ब्रह्म से संबंधित हैं, जबकि नाम और रूप परिवर्तनशील और जगत के हैं। नाम और रूपों को त्यागकर, साधक शुद्ध अस्तित्व पर ध्यान केंद्रित करता है, जो ब्रह्म के समान है। यह विवेचन, जिसमें साक्षी (आत्मन्) और ब्रह्म की पहचान शामिल है, अद्वैत वेदान्त के मूलभूत एकत्व के सिद्धांत को पुष्ट करता है कि केवल ब्रह्म ही परम सत्य है और सब कुछ उसी का प्रकटन है।

8. दृग्-दृश्य-विवेक के अध्ययन की आवश्यकता और लाभ क्या हैं?

दृग्-दृश्य-विवेक के अध्ययन की आवश्यकता उन लोगों के लिए है जो संसार के दुखों से मुक्त होना चाहते हैं और आत्म-ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। यह उन जिज्ञासुओं के लिए है जो यह जान चुके हैं कि केवल कर्मों से अनंत सुख या अमरता प्राप्त नहीं की जा सकती। यह ग्रंथ अज्ञानी अवस्था से ज्ञानी बनने के मार्ग को प्रशस्त करता है, जहाँ व्यक्ति यह समझता है कि जन्म और मृत्यु, सुख और दुख, तथा मेरा और तेरा जैसे भेद illusory हैं।

इसके अध्ययन से प्राप्त होने वाले लाभों में शामिल हैं:

  • आत्म-साक्षात्कार: यह व्यक्ति को अपनी वास्तविक प्रकृति को समझने में मदद करता है, जो शरीर और मन से परे शुद्ध चेतना (साक्षी) है।

  • संदेहों का निवारण: सर्वोच्च सत्य के ज्ञान से सभी संशय दूर हो जाते हैं।

  • कर्मों का क्षय: अज्ञान के कारण होने वाले सभी कर्म और उनके प्रभाव समाप्त हो जाते हैं।

  • मोक्ष की प्राप्ति: यह जीवन के उच्चतम उद्देश्य - मुक्ति - की ओर ले जाता है, जहाँ व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है और ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव करता है।

यह ग्रंथ एक चिकित्सक की तरह कार्य करता है, जो हमारी आँखों को खोलता है ताकि हम दृश्य जगत के भ्रम से परे, जो दिखता नहीं, उसे भी देख सकें – अर्थात्, परम सत्य ब्रह्म को जान सकें।


दृग्-दृश्य-विवेक: द्रष्टा और दृश्य की प्रकृति की जांच

परिचय: "दृग्-दृश्य-विवेक" (या "वाक्यसुधा") अद्वैत वेदांत का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो 'द्रष्टा' (दृग्) और 'दृश्य' (दृश्य) के बीच के अंतर की पड़ताल करता है। यह 46 श्लोकों का एक लघु ग्रंथ है, जिसे परंपरा विद्यारण्य स्वामी या भारती तीर्थ को समर्पित करती है, हालांकि कुछ लोग इसे आदि शंकराचार्य की रचना भी मानते हैं। यह ग्रंथ वेदांत के मुख्य सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है और आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त करने के लिए समाधि के विभिन्न रूपों पर विशेष जोर देता है। यह वेदांत दर्शन की "प्रकरण ग्रंथ" श्रेणी में आता है, जिसका अर्थ है कि यह अद्वैत वेदांत के सभी मुख्य विषयों का संक्षिप्त परिचय प्रदान करता है, इसे अद्वैत वेदांत का एक परिचय या "भूमिका" बनाता है।

मुख्य विषय और विचार:

  • दृग् (द्रष्टा) और दृश्य (देखा गया) का भेद: ग्रंथ का केंद्रीय विषय चेतना के 'द्रष्टा' (दृग्) स्वरूप और 'देखे गए' (दृश्य) के बीच के मौलिक अंतर को स्पष्ट करना है।

  • आँखें और रूप: रूप (सभी इंद्रिय-बोध की वस्तुएं) को आँखों से देखा जाता है, लेकिन आँखें स्वयं मन द्वारा देखी जाती हैं। "रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृक्तु मानसम्।" (श्लोक 1)।

  • मन और उसकी वृत्तियाँ: मन अपनी सभी इंद्रियों के साथ एक देखने वाला है, लेकिन मन की अपनी वृत्तियाँ (इच्छा, निर्धारण, संदेह, विश्वास, आदि) भी दृश्य हैं। "दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते।" (श्लोक 1)। मन को एक इकाई के रूप में आँखों की विशेषताओं (अंधापन, तीक्ष्णता) को पहचानने में सक्षम दिखाया गया है, इस प्रकार यह आँखों के संबंध में एक द्रष्टा बन जाता है। (श्लोक 3)।

  • चेतना ही परम द्रष्टा: अंततः, साक्षी (स्वयं) मन और उसकी सभी वृत्तियों का परम द्रष्टा है। चेतना न तो उत्पन्न होती है और न ही अस्त होती है; यह बढ़ती या घटती नहीं है। यह स्व-प्रकाशित है और किसी अन्य सहायता के बिना हर चीज को प्रकाशित करती है। "नोदेति नास्तमेत्येषा न वृद्धिं याति न क्षयम्। स्वयं विभासयत्यन्यान् भासयेत् साधनान्यिना।।" (श्लोक 5)। चेतना ही एकमात्र ऐसी है जिसे किसी और के द्वारा नहीं देखा जाता है, जो 'रिग्रेसस एड इन्फिनिटम' को समाप्त करती है।

  • बुद्धि में चेतना का प्रतिबिंब और अहंकार: बुद्धि (ज्ञान) चेतना के प्रतिबिंब के कारण चमकदार दिखाई देती है। यह बुद्धि दो प्रकार की होती है: अहंकार (अहंकार) और मन। (श्लोक 6)। अहंकार और चेतना के प्रतिबिंब की पहचान आग और गर्म लोहे की गेंद की पहचान के समान है। यह अहंकार, शरीर के साथ अपनी पहचान के कारण, एक सचेत इकाई के रूप में कार्य करता है। "छायाहंकारयोरैक्यं तप्तायःपिण्डवन्मतम्। तदहंकारतादात्म्याद् देहश्चेतनतामगात्।।" (श्लोक 7)। अहंकार की पहचान तीन प्रकार की होती है:

  • प्राकृतिक: चेतना के प्रतिबिंब के साथ अहंकार की पहचान। (श्लोक 8)।

  • कर्मजन्य: अतीत के कर्मों के कारण शरीर के साथ अहंकार की पहचान। (श्लोक 8)।

  • अज्ञानजन्य: साक्षी के साथ अहंकार की पहचान, जो अज्ञान के कारण होती है। (श्लोक 8)। प्राकृतिक पहचान तब तक बनी रहती है जब तक उन्हें वास्तविक माना जाता है, जबकि अन्य दो पहचानें कर्मों के परिणामों के समाप्त होने और सर्वोच्च सत्य के ज्ञान की प्राप्ति के साथ समाप्त हो जाती हैं। (श्लोक 9)।

  • माया की शक्ति और सृष्टि: माया की दो शक्तियाँ हैं: विक्षेप (प्रक्षेपण) और आवरण (आवरण)।

  • विक्षेप शक्ति: यह सूक्ष्म शरीर से लेकर सकल ब्रह्मांड तक सब कुछ बनाती है। "शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरूपकम्। विक्षेपशक्तिर्लिंगादि ब्रह्माण्डांतं जगत् सृजेत्।।" (श्लोक 13)। यह ब्रह्म को विश्व, तैजस और प्राज्ञ के रूप में, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के अनुभवों से जुड़ा हुआ, सोचने की ओर ले जाती है।

  • आवरण शक्ति: यह द्रष्टा और दृश्य वस्तुओं के साथ-साथ ब्रह्म और परिघटनात्मक ब्रह्मांड के बीच के अंतर को छुपाती है। यह परिघटनात्मक ब्रह्मांड का कारण है। "अन्तर्द्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः। आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम्।।" (श्लोक 15)। अज्ञान के कारण, द्रष्टा को मन, इंद्रियों आदि से पहचान लिया जाता है, जिससे दुनिया में पीड़ा होती है।

  • सृष्टि की प्रकृति: सृष्टि को अस्तित्व-चेतना-आनंद स्वरूप में सभी नामों और रूपों के प्रकट होने के रूप में वर्णित किया गया है, जैसे समुद्र में झाग। यह माया की प्रक्षेपण शक्ति के कारण है। "सृष्टिर्नाम ब्रह्मरूपे सच्चिदानन्दाद्वयवस्तूनि। अब्धौ फेनादिवत् सर्व नामरूपप्रसारणा।।" (श्लोक 14)। यह नाम और रूप मात्र विचार के रूप हैं। जब आवरण शक्ति नष्ट हो जाती है, तो ब्रह्म और परिघटनात्मक ब्रह्मांड के बीच का अंतर स्पष्ट हो जाता है, और ब्रह्म पर आरोपित परिवर्तन गायब हो जाते हैं। (श्लोक 19)।

  • जीव की प्रकृति और ब्रह्म के साथ उसकी पहचान: सूक्ष्म शरीर, साक्षी के निकट मौजूद होकर, चेतना के प्रतिबिंब से प्रभावित होने के कारण सकल शरीर के साथ पहचान करके 'व्यवहारिक' जीव बन जाता है। (श्लोक 16)।

  • जीव-भाव का अधिरोपण: जीव-भाव साक्षी पर मिथ्या अधिरोपण के कारण प्रकट होता है। आवरण शक्ति के गायब होने पर, अंतर स्पष्ट हो जाता है, और साक्षी का जीव-भाव गायब हो जाता है। "अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते। आवृत्तौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽप्ययं गतम्।।" (श्लोक 17)।

  • जीव की अवधारणाएँ: जीव (चेतना) की तीन अवधारणाएँ हैं: प्राण आदि से सीमित, मन में प्रस्तुत, और स्वप्न में कल्पित चेतना। इस ग्रंथ के अनुसार, पहला सिद्धांत (परिसीमन का सिद्धांत) बताता है कि जीव की वास्तविक प्रकृति ब्रह्म है। (श्लोक 32)।

  • अभेद: ग्रंथ दृढ़ता से जोर देता है कि जीव का ब्रह्म के साथ अभेद है। परिसीमन (उपाधि) भ्रामक है, लेकिन जो सीमित प्रतीत होता है वह वास्तविक है। "भेदोऽयमुपधेः सत्यं भेदवान्स्यादुपाहितः। जीवेशयोर्जीवत्वमपि स्यादौपाधिकम्।।" (श्लोक 33)। वैदिक कथन जैसे "तत् त्वम् असि" (वह तुम हो) उपाधि के सिद्धांत से जीव की पहचान भागहीन ब्रह्म के साथ घोषित करते हैं। (श्लोक 34)।

  • समाधि और आत्म-साक्षात्कार का मार्ग: ग्रंथ आत्म-साक्षात्कार के लिए एकाग्रता (समाधि) के अभ्यास पर जोर देता है, जो "तत् त्वम् असि" के ज्ञान को मजबूत करता है।

  • समाधि के प्रकार: समाधि दो प्रकार की होती है: सविकल्प और निर्विकल्प।

  • सविकल्प समाधि: इसमें साधक ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करता है, लेकिन ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैसे भेदों को पूरी तरह से नहीं खोता है। यह आगे दो वर्गों में विभाजित है: ज्ञेय वस्तु या ध्वनि से जुड़ा हुआ। (श्लोक 23)।

  • वस्तु से जुड़ा सविकल्प समाधि: इच्छा आदि को मन-केंद्रित वस्तुओं के रूप में देखा जाता है, और चेतना को उनके साक्षी के रूप में ध्यान किया जाता है। "कामादिचित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्त्वेन चेतनम्। ध्यायेद् दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः।।" (श्लोक 24)।

  • ध्वनि से जुड़ा सविकल्प समाधि: यह 'मैं अस्तित्व-चेतना-आनंद हूं, अनासक्त, स्व-प्रकाशित और द्वैत से मुक्त' जैसे चिंतन पर केंद्रित है। "असंगः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः। अस्मीति शब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः।।" (श्लोक 25)।

  • निर्विकल्प समाधि: यह समाधि का उच्चतम रूप है जहाँ मन हवा से मुक्त स्थान में दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाता है, और साधक आत्मा की प्राप्ति के आनंद में पूरी तरह से लीन होने के कारण वस्तुओं और ध्वनियों दोनों के प्रति उदासीन हो जाता है। "स्वानुभूतिरसावेशाद् दृश्या शब्दावुपेश्य तु। निर्विकल्पसमाधिः स्यान् निवातस्थितदीपकत्।।" (श्लोक 26)। इस अवस्था में मन के कार्य बंद हो जाते हैं, और साधक परम आनंद का अनुभव करता है।

  • सर्वत्र ब्रह्म की प्राप्ति: समाधि के निरंतर अभ्यास के परिणामस्वरूप, शरीर के प्रति लगाव के गायब होने और सर्वोच्च स्व की प्राप्ति के साथ, मन जिस भी वस्तु की ओर निर्देशित होता है, उसे समाधि का अनुभव होता है। "देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि। यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।" (श्लोक 30)। ज्ञानी हर जगह केवल ब्रह्म को ही देखता है।

  • मुक्ति के फल: ब्रह्म को देखने से हृदय के बंधन टूट जाते हैं, सभी संदेह दूर हो जाते हैं, और सभी कर्म (और उनके प्रभाव) समाप्त हो जाते हैं। "भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।।" (श्लोक 31)। ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म बन जाता है और भयहीनता प्राप्त करता है।

अद्वैत वेदांत में दृग्-दृश्य-विवेक का महत्व:

  • प्रकरण ग्रंथ के रूप में: यह अद्वैत वेदांत के प्रमुख अवधारणाओं का एक संरचित और संक्षिप्त परिचय प्रदान करता है, जिससे यह छात्रों के लिए एक उत्कृष्ट 'वडे मेकम' बन जाता है।

  • तर्क और अनुभव पर जोर: ग्रंथ समझने के लिए तर्क और 'अनवया व्यतिरेका' (सहमति और असहमति की विधि) के उपयोग को नियोजित करता है, यह दिखाता है कि सर्वोच्च सत्य बुद्धी (तर्क) के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। यह योगिक अनुशासन (साधन) की आवश्यकता पर भी जोर देता है जो मन को तर्क के लिए स्पष्ट करता है।

  • आत्म-साक्षात्कार का मार्ग: यह विशेष रूप से समाधि के विभिन्न प्रकारों के विस्तृत विवरण के लिए महत्वपूर्ण है, दोनों आंतरिक और बाहरी वस्तुओं पर एकाग्रता को कवर करते हुए, साधक को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाते हैं।


  • माया और जीव की अवधारणाएँ: ग्रंथ माया की प्रक्षेपण और आवरण शक्तियों और जीव की प्रकृति पर प्रकाश डालता है, जिसमें बताया गया है कि जीव और जगत माया के उत्पाद हैं और अज्ञान की अवस्था में अनुभवजन्य अस्तित्व रखते हैं।

निष्कर्ष: "दृग्-दृश्य-विवेक" अद्वैत वेदांत का एक गहन और सुव्यवस्थित ग्रंथ है जो 'द्रष्टा' और 'दृश्य' के बीच के आवश्यक अंतर को स्पष्ट करता है। यह माया की भूमिका, जीव की प्रकृति, और आत्म-साक्षात्कार के लिए समाधि के अभ्यास को स्पष्ट करता है। यह उन साधकों के लिए एक अनिवार्य मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है जो सर्वोच्च सत्य की गहन समझ प्राप्त करना चाहते हैं, अंततः व्यक्ति, ब्रह्मांड और स्वयं ब्रह्म के बीच मौलिक पहचान को साकार करते हैं। यह पाठ केवल एक सैद्धांतिक व्याख्या नहीं है, बल्कि आत्म-चिंतन और ध्यान के माध्यम से गहन आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शक भी है।


दृग्-दृश्य-विवेक: एक विस्तृत अध्ययन मार्गदर्शिका

यह अध्ययन मार्गदर्शिका आपको "दृग्-दृश्य-विवेक" ग्रंथ और अद्वैत वेदांत के प्रमुख सिद्धांतों की आपकी समझ की समीक्षा करने में मदद करने के लिए डिज़ाइन की गई है।

I. ग्रंथ का परिचय और पृष्ठभूमि

A. ग्रंथ का नाम और विषय वस्तु

  • दृग्-दृश्य-विवेक: "द्रष्टा" (दृग्) और "दृश्य" (दृश्य) के बीच भेद की जाँच।

  • अन्य नाम: वाक्यसुधा।

  • स्वरूप: यह एक 'प्रकरण ग्रंथ' है, जिसका अर्थ है कि यह वेदांत दर्शन के मुख्य उद्देश्य को एक विशेष दृष्टिकोण से समझाता है, विशेष रूप से जीव और ब्रह्म की पहचान। यह अद्वैत वेदांत के सभी विषयों का संक्षिप्त परिचय प्रदान करता है, इसे अद्वैत वेदांत की "भूमिका" भी कहा जा सकता है।

  • श्लोक संख्या: इसमें 46 श्लोक हैं।

B. लेखकत्व

  • मुख्यतः श्रेय: विद्यारण्य स्वामी (लगभग 1350 ईस्वी), जो 'पंचदशी' के लेखक भी हैं।

  • अन्य आरोप: भारती तीर्थ (विद्यारण्य स्वामी के गुरु), या आदि शंकराचार्य।

  • विवाद का कारण: भारती तीर्थ और विद्यारण्य स्वामी दोनों ही शंकराचार्य परंपरा से जुड़े थे, और 'शंकराचार्य' नाम का उपयोग किसी भी पीठ के शंकराचार्य के लिए किया जाता था, जिससे लेखकत्व को लेकर भ्रम पैदा हुआ।

C. ग्रंथ का महत्व

  • उच्च वेदांत दर्शन को समझने के लिए महत्वपूर्ण।

  • विभिन्न प्रकार के समाधि (एकाग्रता) का विस्तृत वर्णन प्रदान करता है।

  • जीव (देहधारी प्राणी) की अवधारणा के बारे में तीन अनुभवजन्य सिद्धांतों का सुझाव देता है।

  • यह वैदिक रहस्योद्घाटन और समाधि के रहस्यमय या योगिक पर निर्भर करता है, लेकिन शुद्ध तर्क के उच्च क्षेत्रों के लिए भी है।

  • यह तर्क में "सहमति और असहमति की विधि" (अन्वय व्यतिरेक) का उपयोग करता है।

D. वेदांत में इसका स्थान

  • ब्रह्मविद्या: ब्रह्म का ज्ञान, जिसे प्राप्त करना कठिन माना जाता है, धर्म, धर्मशास्त्र, रहस्यवाद और दर्शन (विज्ञान सहित) के चरणों के माध्यम से धीरे-धीरे प्राप्त किया जाता है - ये सभी वेदांत के अंतर्गत आते हैं।

  • बुद्धि का महत्व: वेदांत में उच्चतम सत्य (आत्मान या ब्रह्म) तक केवल बुद्धि (कारण) के माध्यम से पहुँचा जा सकता है, जिसे "उस्तरा की धार से तेज" (कठ उपनिषद) होना चाहिए।

  • शुद्धता की आवश्यकता: बुद्धि को तेज करने के लिए जीवन की पवित्रता (विचार, शब्द और कर्म सहित) एक प्राथमिक आवश्यकता है।

II. मुख्य अवधारणाएँ और सिद्धांत

A. द्रष्टा (दृग्) और दृश्य (दृश्य) का भेद

  • श्लोक 1 का परिचय: मुक्ति की प्राप्ति के लिए आत्मन या स्वयं के प्रत्यक्ष और तात्कालिक ज्ञान की आवश्यकता है। "तत् त्वम् असि" जैसे महावाक्यों का अर्थ समझने से जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद मिलती है। पहले पाँच श्लोक 'त्वम्' (तुम) के महत्व को समझाते हैं।

  • भेद का क्रम:

  • रूप (दृश्य) को आँख (दृष्टा) द्वारा देखा जाता है।

  • आँख (दृश्य) को मन (दृष्टा) द्वारा देखा जाता है। (मन इंद्रियों के साथ जुड़ा होने पर ही देख सकता है; गहरी नींद में इंद्रियां कुछ भी नहीं देखती हैं क्योंकि मन काम करना बंद कर देता है)।

  • मन (और उसके संशोधन) (दृश्य) को साक्षी (स्वयं/द्रष्टा) द्वारा देखा जाता है।

  • साक्षी की प्रकृति: साक्षी ही परम द्रष्टा है। यदि साक्षी का द्रष्टा मांगा जाए, तो यह अनंत प्रतिगमन में समाप्त हो जाएगा। सकल वस्तुओं से लेकर मन तक सभी संस्थाएं अविद्या के उत्पाद हैं और इसलिए जड़ हैं। वे केवल सापेक्ष रूप से व्यक्तिपरक हैं। स्वयं परम द्रष्टा है क्योंकि कोई अन्य द्रष्टा नहीं है।

  • साक्षी की स्थिरता: वस्तुएं बदलती हैं, लेकिन उनका द्रष्टा स्थिर रहता है, जैसे रस्सी में सांप बदलता है, लेकिन रस्सी स्थिर रहती है।

  • चेतना की प्रकृति: चेतना न तो उठती है और न ही अस्त होती है, न बढ़ती है और न घटती है। यह स्वयंप्रकाशित है और बिना किसी अन्य सहायता के हर चीज को प्रकाशित करती है। यह सभी आंतरिक परिवर्तनों का शाश्वत साक्षी है।

  • चेतना और बुद्धि: बुद्धि में चेतना के प्रतिबिंब के कारण चमक आती है। बुद्धि दो प्रकार की होती है: अहंकार (अहंभाव) और मन (मानसिक संकाय)। अहंकार एजेंसी, इच्छा आदि के साथ बुद्धि को संपन्न करता है।

B. अहंकार (अहंभाव) की पहचान

  • अहंकार और चेतना के प्रतिबिंब की पहचान (श्लोक 7): यह आग और गर्म लोहे की गेंद की पहचान के समान है। चेतना का प्रतिबिंब, अहंकार के संपर्क में आकर, इससे पूरी तरह से पहचान बना लेता है। चेतना का यह प्रतिबिंब जो जड़ अहंकार से पहचान बनाता है, जीव या देहधारी प्राणी के रूप में जाना जाता है। शरीर, जो अन्यथा जड़ है, इस पहचान के कारण एक सचेत इकाई के रूप में पारित हो जाता है।

  • अहंकार की पहचान के तीन प्रकार (श्लोक 8):

  • प्राकृतिक (सहज): चेतना का प्रतिबिंब और अहंकार अस्तित्व में आते ही एक-दूसरे से पहचान बना लेते हैं। अनुभव: "मैं जानता हूँ।"

  • कर्म के कारण (कर्मज): अहंकार अपने पिछले कर्मों के अनुसार एक विशेष शरीर से पहचान बनाता है। अनुभव: "मैं आदमी हूँ।"

  • अज्ञान के कारण (भ्रांतिजन्य): यह साक्षी के साथ अहंकार की पहचान है, जो अज्ञान पर आधारित है। अनुभव: "मैं हूँ/अस्तित्व में हूँ।"

  • पहचान का अंत (श्लोक 9):

  • अहंकार और चेतना के प्रतिबिंब की प्राकृतिक पहचान तब तक समाप्त नहीं होती जब तक उन्हें वास्तविक माना जाता है (जैसे पानी में सूरज का प्रतिबिंब पानी के खत्म होने पर ही गायब होता है)।

  • कर्म के कारण पहचान कर्मों के परिणाम के समाप्त होने के बाद गायब हो जाती है (जैसे बेहोशी या गहरी नींद में)।

  • अज्ञान के कारण पहचान ज्ञान की प्राप्ति से गायब हो जाती है, जो अहंकार को नष्ट कर देती है और इसे ब्रह्म में विलीन कर देती है।

  • ये तीनों पहचानें एक साथ गायब हो जाती हैं जब जीव स्वयं को ब्रह्म के रूप में महसूस करता है।

C. मन और तीन अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति)

  • अहंकार और शरीर का संबंध (श्लोक 10):

  • सुषुप्ति (गहरी नींद): अहंकार गायब हो जाता है, शरीर भी अचेत हो जाता है। द्वैत की कोई धारणा नहीं होती।

  • स्वप्न (ड्रीम स्टेट): अहंकार का आधा प्रकटन। बाहरी वस्तुएं नहीं होतीं; सभी अनुभव अहंकार के मानसिक संशोधन होते हैं।

  • जाग्रत (जाग्रत अवस्था): अहंकार का पूर्ण प्रकटन। अहंकार बाहरी वस्तुओं का अनुभव आंतरिक अंगों के माध्यम से करता है। अहंकार और गैर-अहंकार दोनों का अनुभव होता है।

  • आंतरिक अंग की प्रकृति (श्लोक 11): मन, चेतना के प्रतिबिंब से पहचान बनाते हुए, सपने में विचार (अहंकार और गैर-अहंकार के) कल्पना करता है। जाग्रत अवस्था में, इंद्रियों के संबंध में बाहरी वस्तुओं की कल्पना करता है।

  • सूक्ष्म शरीर (लिंगम) (श्लोक 12): यह मन और अहंकार का भौतिक कारण है, जड़ है, और तीन अवस्थाओं में गति करता है, जन्म लेता है और मरता है। यह अविद्या का संशोधन है।

D. माया और सृष्टि

  • माया की दो शक्तियाँ (श्लोक 13):

  • विक्षेप शक्ति (प्रक्षेपण): यह द्वैतहीन ब्रह्म को प्रकटित अनेक के रूप में प्रकट करती है, सूक्ष्म शरीर से सकल ब्रह्मांड तक सब कुछ बनाती है।

  • आवरण शक्ति (आवरण): यह द्रष्टा और दृश्य वस्तुओं के बीच अंतर को छुपाती है (शरीर के भीतर) और ब्रह्म और प्रकट ब्रह्मांड के बीच अंतर को छुपाती है (बाहर)। यह इस संसार का कारण है।

  • सृष्टि की प्रकृति (श्लोक 14): अस्तित्व-चेतना-आनंद जो ब्रह्म के समान है, में सभी नामों और रूपों का प्रकटन, जैसे समुद्र में झाग, सृष्टि कहलाता है। यह माया की विक्षेप शक्ति के कारण है।

  • आवरण शक्ति का कार्य (श्लोक 15): यह साक्षी और अनुभवजन्य अहंकार आदि के बीच अंतर को छुपाती है, जिससे साक्षी को सांसारिक जीव से पहचान मिलती है। यह ब्रह्म और प्रकट ब्रह्मांड के बीच अंतर को भी छुपाती है, जिससे ब्रह्म को परिवर्तन के गुणों से संपन्न दिखाया जाता है।

  • आवरण शक्ति का विनाश (श्लोक 19): जब आवरण शक्ति नष्ट हो जाती है, तो ब्रह्म और प्रकट ब्रह्मांड के बीच अंतर स्पष्ट हो जाता है, और ब्रह्म के लिए जिम्मेदार परिवर्तन गायब हो जाते हैं।

E. ब्रह्म और जीव की पहचान

  • प्रत्येक इकाई के पाँच लक्षण (श्लोक 20-21):

  • अस्तित्व (सत)

  • ज्ञेयता (चित)

  • आकर्षण (आनंद)

  • रूप

  • नाम

  • पहले तीन ब्रह्म से संबंधित हैं (सत-चित-आनंद)।

  • अगले दो (नाम और रूप) संसार से संबंधित हैं (माया की विशेषताएँ)।

  • अस्तित्व, चेतना और आनंद सभी वस्तुओं (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, देवता, जानवर, पुरुष) में समान रूप से मौजूद हैं। नाम और रूप एक को दूसरे से अलग करते हैं।

  • "तत् त्वम् असि" का निहित अर्थ: "तत्" (वह) और "त्वम्" (तुम) का निहित अर्थ सच्चिदानंद ब्रह्म की ओर इशारा करता है। इसलिए, ब्रह्म जीव के समान है।

F. समाधि के प्रकार

  • ध्यान का अभ्यास (श्लोक 22): नाम और रूप के प्रति उदासीन होकर और सच्चिदानंद के प्रति समर्पित होकर, हृदय के भीतर या बाहर एकाग्रता का अभ्यास करना चाहिए।

  • समाधि के दो मुख्य प्रकार (श्लोक 23):

  • सविकल्प समाधि: इसमें साधक ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करता है, लेकिन ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैसे भेदों को पूरी तरह से नहीं खोता है। यह एकाग्रता का प्रारंभिक चरण है।

  • दृश्य से जुड़ा सविकल्प समाधि (श्लोक 24): मन में केंद्रित इच्छाओं आदि को ज्ञेय वस्तुओं के रूप में देखा जाना चाहिए। चेतना को उनके साक्षी के रूप में ध्यान करें।

  • शब्द से जुड़ा सविकल्प समाधि (श्लोक 25): "मैं अस्तित्व-चेतना-आनंद हूँ, अनासक्त, स्वयंप्रकाशित और द्वैत से मुक्त हूँ।" इस समाधि में आत्म-चेतना की एक धारा होती है, लेकिन "मैं अनासक्त हूँ" जैसे विचार मौजूद होते हैं।

  • निर्विकल्प समाधि (श्लोक 26): इसमें मन हवा रहित स्थान पर दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाता है। साधक स्वयं के बोध के आनंद में पूर्ण अवशोषण के कारण वस्तुओं और ध्वनियों दोनों के प्रति उदासीन हो जाता है। मन की कार्यप्रणाली रुक जाती है, और साधक उच्चतम आनंद का अनुभव करता है। यह गहरी नींद से अलग है, जिसमें आत्म-ज्ञान नहीं होता है; निर्विकल्प समाधि में, व्यक्ति सदा-सचेत आत्मन से पहचान बनाता है। यह वैराग्य से प्राप्त होता है।

  • बाहरी वस्तुओं के साथ अभ्यास (श्लोक 27-29):

  • बाहरी वस्तुओं के साथ पहला प्रकार का सविकल्प समाधि संभव है, जिसमें नाम और रूप को शुद्ध अस्तित्व (ब्रह्म) से अलग किया जाता है।

  • बाहरी वस्तुओं के साथ दूसरा प्रकार का सविकल्प समाधि (शब्द से जुड़ा) ब्रह्म पर निर्बाध चिंतन है जो हमेशा एक ही प्रकृति का और असीमित होता है, और अस्तित्व-चेतना-आनंद की विशेषता है।

  • बाहरी वस्तुओं के साथ निर्विकल्प समाधि: आनंद के अनुभव के कारण मन की संवेदनहीनता है।

  • अभ्यासी को इन छह प्रकार की समाधियों में अपना समय निर्बाध रूप से बिताना चाहिए।

  • समाधि का परिणाम (श्लोक 30-31): शरीर के प्रति आसक्ति के गायब होने और परम स्वयं के बोध के साथ, मन जिस भी वस्तु पर केंद्रित होता है, व्यक्ति समाधि का अनुभव करता है। यह स्वतःस्फूर्त हो जाता है। इस बोध से हृदय के बंधन टूट जाते हैं, सभी संदेह दूर हो जाते हैं और सभी कर्म (और उनके प्रभाव) दूर हो जाते हैं। ज्ञानी के लिए, संचित और नए कर्म कोई परिणाम नहीं देते हैं।

G. जीव की वास्तविक प्रकृति

  • जीव की तीन अवधारणाएँ (श्लोक 32):

  • प्राण आदि से सीमित: साक्षी विभिन्न उपाधियों (प्राण, इंद्रिय, मन आदि) के अधीन प्रतीत होता है और इस प्रकार स्वयं को जीव मानता है (जैसे घटों द्वारा सीमित आकाश)।

  • मन में प्रस्तुत: चेतना (साक्षी) मन में मिथ्या रूप से प्रस्तुत होती है, और इस प्रस्तुति को जीव के रूप में जाना जाता है (जैसे पानी में सूरज का प्रतिबिंब)।

  • सपने में कल्पना की गई चेतना: जीव की प्रकृति सपने में देखे गए विभिन्न प्राणियों के समान है। आत्मन, अपनी वास्तविक प्रकृति के अज्ञान के कारण, स्वयं को मनुष्य या जानवर आदि के रूप में सोचता है।

  • ग्रंथ के अनुसार प्रथम सिद्धांत का महत्व: लेखक के अनुसार, पहला सिद्धांत (परिसीमन का सिद्धांत) बताता है कि जीव की वास्तविक प्रकृति ब्रह्म है।

  • परिसीमन सिद्धांत की व्याख्या (श्लोक 33): सीमा भ्रम है, लेकिन जो सीमित प्रतीत होता है वह वास्तविक है। स्वयं का जीवत्व मायावी गुणों के अध्यारोप के कारण है, लेकिन वास्तव में यह ब्रह्म की प्रकृति का है।

  • पहचान का समर्थन (श्लोक 34): "तत् त्वम् असि" जैसे वैदिक कथन खंडित ब्रह्म की पहचान जीव से करते हैं जो 'परिसीमन के सिद्धांत' के दृष्टिकोण से ऐसा प्रतीत होता है। यह अन्य दो जीव अवधारणाओं से सहमत नहीं है, क्योंकि वे मायावी हैं और एक मायावी उपस्थिति और एक वास्तविक इकाई के बीच कोई पहचान नहीं हो सकती है।

  • माया द्वारा जीव का प्रकटन (श्लोक 35): माया, जिसमें प्रक्षेपण और आवरण की दोहरी शक्ति है, ब्रह्म में निवास करती है। ब्रह्म में निहित, यह ब्रह्म की अविभाज्य प्रकृति को छुपाते हुए, संसार और जीव की कल्पना करती है।

  • जीव और जगत की प्रकृति (श्लोक 36): बुद्धिमत्ता में स्थित चेतना की भ्रामक प्रस्तुति विभिन्न क्रियाएं करती है और उनके परिणामों का आनंद लेती है, इसलिए इसे जीव कहा जाता है। और यह सब, तत्वों और उनके उत्पादों से मिलकर, जो भोग की वस्तुओं की प्रकृति के हैं, जगत (ब्रह्मांड) कहलाता है।

  • जीव और जगत का अनुभवजन्य स्वरूप (श्लोक 37): ये दोनों, अनादि काल से, केवल अनुभवजन्य अस्तित्व रखते हैं और मुक्ति प्राप्त होने तक मौजूद रहते हैं। इसलिए, दोनों को अनुभवजन्य कहा जाता है (वे न तो वास्तविक हैं और न ही मायावी, बल्कि अनुभवजन्य या घटनात्मक हैं)।

  • जाग्रत और स्वप्न राज्यों की व्याख्या (श्लोक 38-39):

  • नींद (माया के आवरण और प्रक्षेपण की प्रकृति से जुड़ी चेतना के साथ गलत तरीके से प्रस्तुत) पहले (अनुभवजन्य) व्यक्तिगत स्वयं और ज्ञात ब्रह्मांड को ढक लेती है, लेकिन फिर उन्हें (सपने में) नए सिरे से कल्पना करती है।

  • सपने में देखे गए ये दोनों वस्तुएं केवल अनुभव की अवधि के दौरान मौजूद होने के कारण मायावी होती हैं, क्योंकि सपने से जागने के बाद कोई भी उन वस्तुओं को फिर से सपने देखते समय नहीं देखता है।

  • जीवों के बीच अंतर (श्लोक 40-42):

  • मायावी जीव (सपने में देखा गया): मायावी दुनिया को वास्तविक मानता है।

  • अनुभवजन्य जीव (जाग्रत अवस्था का अनुभवकर्ता): मायावी दुनिया को अवास्तविक मानता है, लेकिन अनुभवजन्य दुनिया को वास्तविक मानता है।

  • पारमार्थिक जीव (वास्तविक): ब्रह्म के साथ अपनी पहचान को ही वास्तविक मानता है। वह किसी अन्य अस्तित्व को नहीं देखता है, या यदि वह किसी अन्य को देखता है तो उसे मायावी जानता है।

  • आत्मन के गुणों का अध्यारोप (श्लोक 43-46):

  • जैसे पानी के लक्षण (मिठास, तरलता, शीतलता) लहरों में, और फिर लहरों के झाग में निहित होते हैं, वैसे ही अस्तित्व, चेतना और आनंद (साक्षी के प्राकृतिक लक्षण) अनुभवजन्य जीव में उसके साक्षी के साथ संबंध के कारण निहित होते हैं, और उसके माध्यम से मायावी जीव में भी।

  • जब झाग गायब हो जाता है, तो उसके लक्षण लहर में विलीन हो जाते हैं; जब लहर पानी में गायब हो जाती है, तो ये लक्षण पानी में विलीन हो जाते हैं।

  • इसी तरह, मायावी जीव के गायब होने के साथ, अस्तित्व, चेतना और आनंद अनुभवजन्य जीव में विलीन हो जाते हैं। जब वह भी गायब हो जाता है, तो ये लक्षण अंततः साक्षी में विलीन हो जाते हैं।

  • ब्रह्म या साक्षी का अस्तित्व नकार नहीं जा सकता है, यह हमेशा मौजूद रहता है।

II. लघु-उत्तरीय प्रश्नोत्तरी

निर्देश: प्रत्येक प्रश्न का उत्तर 2-3 वाक्यों में दें।

  1. "दृग्-दृश्य-विवेक" ग्रंथ का मुख्य विषय क्या है, और इसके लेखकत्व के संबंध में क्या भिन्न राय हैं?

"दृग्-दृश्य-विवेक" का मुख्य विषय द्रष्टा (दृग्) और दृश्य (दृश्य) के बीच अंतर की जांच करना है, ताकि जीव और ब्रह्म की पहचान को समझा जा सके। इसका श्रेय मुख्य रूप से विद्यारण्य स्वामी को दिया जाता है, लेकिन कुछ लोग इसे भारती तीर्थ या आदि शंकराचार्य की रचना मानते हैं।


  1. अद्वैत वेदांत में बुद्धि  के महत्व को स्पष्ट करें। इसे क्यों "उस्तरा की धार से तेज" कहा गया है?

अद्वैत वेदांत में बुद्धि  को उच्चतम सत्य, आत्मन या ब्रह्म तक पहुँचने का सर्वोच्च साधन माना जाता है। इसे "उस्तरा की धार से तेज" कहा गया है क्योंकि सत्य की सूक्ष्म प्रकृति को समझने के लिए तीव्र और तीक्ष्ण भेदभाव की आवश्यकता होती है, जो सतही विचारों से परे हो।


  1. साक्षी को परम द्रष्टा क्यों माना जाता है? एक उदाहरण से स्पष्ट करें कि यह "देखा" क्यों नहीं जा सकता।

साक्षी को परम द्रष्टा माना जाता है क्योंकि यह सभी अनुभवों का अंतिम और अपरिवर्तनीय पर्यवेक्षक है। इसे "देखा" नहीं जा सकता क्योंकि यह स्वयं देखने वाला है; यदि कोई इसका द्रष्टा होता, तो यह अनंत प्रतिगमन की ओर ले जाता, जिससे द्रष्टा की कोई अंतिम कड़ी नहीं होती।

  1. माया की दो मुख्य शक्तियाँ कौन सी हैं, और वे ब्रह्मांड की सृष्टि और मनुष्य की अज्ञानता में कैसे योगदान करती हैं?

माया की दो मुख्य शक्तियाँ विक्षेप शक्ति (प्रक्षेपण) और आवरण शक्ति (आवरण) हैं। विक्षेप शक्ति द्वैतहीन ब्रह्म से प्रकट ब्रह्मांड की सृष्टि करती है, जबकि आवरण शक्ति द्रष्टा-दृश्य और ब्रह्म-ब्रह्मांड के बीच वास्तविक अंतर को छुपाती है, जिससे अज्ञान और संसार का अनुभव होता है।


  1. अहंकार की पहचान के तीन प्रकारों का संक्षेप में वर्णन करें। इनमें से कौन सी पहचान ज्ञान की प्राप्ति से समाप्त होती है?

अहंकार की पहचान के तीन प्रकार प्राकृतिक, कर्म के कारण और अज्ञान के कारण हैं। प्राकृतिक पहचान (अहंकार और चेतना के प्रतिबिंब के बीच) तब तक समाप्त नहीं होती जब तक उन्हें वास्तविक माना जाता है। कर्म के कारण पहचान कर्मों के परिणाम के समाप्त होने पर समाप्त होती है, और अज्ञान के कारण पहचान ज्ञान की प्राप्ति से समाप्त होती है।


  1. जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं को अहंकार के प्रकटन के आधार पर कैसे वर्गीकृत किया जाता है?

सुषुप्ति (गहरी नींद) में अहंकार गायब हो जाता है, जिससे शरीर अचेत हो जाता है। स्वप्न में अहंकार का आधा प्रकटन होता है, जहाँ अनुभव मानसिक संशोधन होते हैं। जाग्रत अवस्था में अहंकार का पूर्ण प्रकटन होता है, जहाँ अहंकार और गैर-अहंकार दोनों का अनुभव होता है।


  1. "तत् त्वम् असि" जैसे महावाक्य "दृग्-दृश्य-विवेक" के अनुसार किस पहचान की ओर इशारा करते हैं?

"तत् त्वम् असि" जैसे महावाक्य "तत्" (वह, ब्रह्म) और "त्वम्" (तुम, जीव) के निहित अर्थों को शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म के रूप में दर्शाते हैं। ये वाक्य इस बात पर जोर देते हैं कि जीव की वास्तविक प्रकृति ब्रह्म से अविभाज्य है, जो भेदभाव और समाधि के अभ्यास के माध्यम से महसूस की जाती है।

  1. सविकल्प समाधि और निर्विकल्प समाधि के बीच मुख्य अंतर क्या है? निर्विकल्प समाधि गहरी नींद से कैसे भिन्न है?

सविकल्प समाधि में साधक ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के भेद को बनाए रखता है, जबकि निर्विकल्प समाधि में मन पूरी तरह से शांत हो जाता है, और साधक सभी भेदों से मुक्त हो जाता है, स्वयं के बोध के आनंद में अवशोषित हो जाता है। निर्विकल्प समाधि गहरी नींद से भिन्न है क्योंकि इसमें आत्मन का सचेत ज्ञान होता है, जबकि गहरी नींद में ऐसा नहीं होता है।


  1. एक इकाई के पांच "लक्षण" क्या हैं जो ब्रह्म और संसार के बीच अंतर को समझने में मदद करते हैं?

एक इकाई के पांच "लक्षण" अस्तित्व, ज्ञेयता, आकर्षण (आनंद), रूप और नाम हैं। पहले तीन (अस्तित्व, ज्ञेयता, आकर्षण) ब्रह्म के सार्वभौमिक लक्षण हैं, जो सत-चित-आनंद का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंतिम दो (रूप और नाम) संसार की परिवर्तनशील विशेषताएँ हैं जो माया के कारण होती हैं।


  1. "परिसीमन का सिद्धांत" जीव की वास्तविक प्रकृति को ब्रह्म के समान कैसे समझाता है, और लेखक द्वारा इसे अन्य सिद्धांतों से बेहतर क्यों माना जाता है?

"परिसीमन का सिद्धांत" बताता है कि जीव का सीमित होना मायावी है, लेकिन जो सीमित प्रतीत होता है (साक्षी) वह वास्तविक है और स्वाभाविक रूप से ब्रह्म की प्रकृति का है। लेखक इसे अन्य सिद्धांतों से बेहतर मानते हैं क्योंकि यह ब्रह्म और जीव के बीच प्रत्यक्ष पहचान की व्याख्या करता है, जबकि अन्य सिद्धांत जीव को मायावी या वास्तविक इकाई के साथ पहचान के लिए अनुपयुक्त मानते हैं।


IV. निबंध प्रश्न

  1. "दृग्-दृश्य-विवेक" ग्रंथ अद्वैत वेदांत दर्शन के लिए एक "प्रकरण ग्रंथ" के रूप में क्यों महत्वपूर्ण है? आधुनिक वैज्ञानिक मानसिकता के संदर्भ में बुद्धि  पर इसके जोर का विश्लेषण करें।

दृग्-दृश्य विवेक ग्रंथ अद्वैत वेदांत दर्शन में एक महत्वपूर्ण 'प्रकरण ग्रंथ' है और आधुनिक वैज्ञानिक मानसिकता के संदर्भ में 'बुद्धि' (तर्कशक्ति) पर इसका विशेष जोर है।

'प्रकरण ग्रंथ' के रूप में महत्व: दृग्-दृश्य विवेक को अद्वैत वेदांत दर्शन में एक 'प्रकरण ग्रंथ' के रूप में मान्यता दी गई है। 'प्रकरण ग्रंथ' उन ग्रंथों को कहा जाता है जो विषय के एक विशिष्ट पहलू तक सीमित होते हुए भी, उसके मुख्य उद्देश्य की व्याख्या करते हैं। इस ग्रंथ का प्रमुख उद्देश्य जीव और ब्रह्म के तादात्म्य (पहचान) को स्पष्ट करना है, और यह एक विशेष तर्क पद्धति का पालन करता है। यह अद्वैत वेदांत के सभी विषयों का संक्षिप्त परिचय प्रदान करता है, जिससे इसे अद्वैत वेदांत की 'भूमिका' भी कहा जा सकता है। इसे वेदांत के लिए संस्कृत में एक प्रारंभिक या प्रारंभिक ग्रंथ माना जाता है। इसमें 46 श्लोक हैं। यह ग्रंथ संसार के सभी धर्मों का सार भी माना जाता है।

आधुनिक वैज्ञानिक मानसिकता के संदर्भ में 'बुद्धि' पर जोर का विश्लेषण: वेदांत दर्शन में 'बुद्धि' (तर्कशक्ति या विचार) के महत्व पर अत्यधिक जोर दिया गया है, खासकर आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के संदर्भ में। 'ब्रह्मविद्या' या ब्रह्म का ज्ञान, धार्मिक, धर्मशास्त्रीय, रहस्यवादी और दार्शनिक (जिसमें विज्ञान भी शामिल है) चरणों के माध्यम से धीरे-धीरे प्राप्त होता है। यद्यपि 'विचार' या दर्शन अंत में आता है, प्रत्येक व्यक्ति अपनी 'बुद्धि' या तर्क शक्ति के अनुसार इस संकाय का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र है।

आधुनिक मानसिक दृष्टिकोण मुख्य रूप से वैज्ञानिक है, विज्ञान की महान प्रगति के कारण। मन को गलत सोच से मुक्त करने का सबसे अच्छा तरीका इसे वैज्ञानिक भावना से पूरी तरह से आत्मसात करना है। वेदांत दर्शन के अध्ययन में प्रवेश करने के लिए, व्यक्ति के पास वैज्ञानिक विधियों और परिणामों का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए, अर्थात, जो 'बुद्धि' (तर्क) को जांच के उच्चतम साधन के रूप में उपयोग करने में सक्षम हो। वेदांत स्वयं स्वीकार करता है कि उसकी उच्चतम सत्य (आत्म या ब्रह्म) को 'बुद्धि' के अलावा किसी अन्य मार्ग से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह 'बुद्धि' "उस्तरे की धार से भी अधिक तीव्र" होनी चाहिए। वेदांत साहित्य में 'मनस' और 'चित्त' का प्रयोग जब 'बुद्धि' के अर्थ में होता है, तो उन्हें ऐसे ज्ञान को प्राप्त करने का उच्चतम साधन घोषित किया जाता है। इसके विपरीत, यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'बुद्धि' के अभाव में धर्म, धर्मशास्त्र या रहस्यवादी अभ्यास का स्वयं कोई मूल्य नहीं है। हर व्यक्ति का लक्ष्य निरंतर जांच के माध्यम से 'बुद्धि' के इस सर्वोच्च स्तर तक पहुंचना होना चाहिए। ये ग्रंथ निचले चरणों में रहने वालों को तर्कसंगत (बुद्धि) यानी दार्शनिक जांच (विचार) की ओर ले जाने के लिए हैं।

दृग्-दृश्य विवेक स्वयं एक तर्कसंगत पद्धति का अनुसरण करता है, जिसमें 'अन्वय व्यतिरेक' (सहमति और असहमति) की विधि का उपयोग किया जाता है, जो भारतीय न्याय प्रणाली में एक तार्किक विधि है। यह पुस्तक उन लोगों के लिए विशेष रूप से सहायक होने की उम्मीद है जो वेदांत दर्शन का उच्च अध्ययन करना चाहते हैं। यह उन जिज्ञासुओं के लिए एक मार्गदर्शक है जो सांसारिक जीवन से दुखी हैं और केवल कर्मों के बजाय ज्ञान की तलाश में हैं, यह समझते हुए कि 'करना' उन्हें अनंत नहीं बना सकता। इस प्रकार, दृग्-दृश्य विवेक की शिक्षाएँ, अपनी तर्कसंगत प्रकृति और 'बुद्धि' पर जोर देने के कारण, आधुनिक वैज्ञानिक मानसिकता वाले व्यक्तियों के लिए अद्वैत वेदांत को समझने का एक प्रभावशाली साधन बन जाती हैं।


2. द्रष्टा और दृश्य के बीच के भेद के क्रमिक विघटन को स्पष्ट करें जैसा कि "दृग्-दृश्य-विवेक" के प्रारंभिक श्लोकों में बताया गया है। चेतना को परम द्रष्टा क्यों माना जाता है, और इस अवधारणा का क्या महत्व है?

"दृग्-दृश्य-विवेक" अद्वैत वेदांत दर्शन में एक महत्वपूर्ण 'प्रकरण ग्रंथ' है। यह ग्रंथ 'द्रष्टा' (देखने वाला या साक्षी) और 'दृश्य' (जो देखा जाता है) के बीच के भेद को क्रमबद्ध तरीके से स्पष्ट करता है, जो आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष के मार्ग के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

द्रष्टा और दृश्य के बीच भेद का क्रमिक विघटन: "दृग्-दृश्य-विवेक" के प्रारंभिक श्लोकों में यह भेद स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए समझाया गया है:

  • रूप (फॉर्म) और आँख:

    • पहले श्लोक के अनुसार, रूप (फॉर्म) अर्थात् देखने योग्य सभी इंद्रिय-ग्राह्य वस्तुएँ (जैसे नीला, पीला, स्थूल, सूक्ष्म, छोटा, लंबा) 'दृश्य' हैं।

    • आँख (सभी इंद्रियों का प्रतिनिधित्व करते हुए) 'द्रष्टा' है, क्योंकि यह रूपों को देखती है।

    • हालांकि, आँख केवल एक सापेक्ष अर्थ में ही द्रष्टा है, क्योंकि यह स्वयं भी देखी जाती है।

  • आँख और मन:

    • दूसरे और तीसरे श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि आँख की अपनी विशेषताएँ (जैसे अंधापन, मंदता, या तीक्ष्णता) 'दृश्य' हैं।

    • मन (चित्त) इन विशेषताओं का 'द्रष्टा' है, क्योंकि यह आँख की विभिन्न अवस्थाओं को जानता है। मन इंद्रियों को नियंत्रित करता है, और मन के संलग्न हुए बिना इंद्रियां कार्य नहीं कर सकतीं।

  • मन और चेतना (साक्षी):

    • चौथे श्लोक में बताया गया है कि मन और उसकी वृत्तियाँ (जैसे कामना, संकल्प, संदेह, विश्वास, स्थिरता, लज्जा, ज्ञान, भय) सभी 'दृश्य' हैं।

    • पांचवें श्लोक में यह दृढ़ता से कहा गया है कि इन सभी मानसिक अवस्थाओं का परम द्रष्टा 'चेतना' (साक्षी) है।

    • मन स्वयं जड़ है, लेकिन चेतना के प्रतिबिंब के कारण ही इसमें चेतनता का आभास होता है और यह विषयों को जानने में सक्षम होता है।

चेतना को परम द्रष्टा क्यों माना जाता है, और इस अवधारणा का क्या महत्व है?

चेतना (साक्षी) को परम द्रष्टा मानने के कारण:

  • स्वयंप्रकाशित और अपरिवर्तनीय: चेतना स्वयं को किसी और के द्वारा नहीं देखा जा सकता, क्योंकि यह स्वयंप्रकाशित है। यह किसी अन्य सहायता के बिना सब कुछ प्रकाशित करती है। यह न तो उत्पन्न होती है, न अस्त होती है, न बढ़ती है और न ही घटती है या नष्ट होती है। यह सभी आंतरिक परिवर्तनों की शाश्वत साक्षी है।

  • अंतिम द्रष्टा: यदि साक्षी (चेतना) का भी कोई द्रष्टा होगा, तो यह अनंत अनुक्रम (regress ad infinitum) की ओर ले जाएगा, जिसका कोई अंत नहीं होगा। इसलिए, चेतना को अंतिम द्रष्टा माना जाता है, जिसके परे कोई द्रष्टा नहीं है।

  • जड़ वस्तुओं से भिन्न: स्थूल वस्तुओं से लेकर मन तक सभी 'दृश्य' वस्तुएँ अविद्या (अज्ञान) के उत्पाद होने के कारण जड़ हैं। चेतना इन सभी से भिन्न है और उन्हें चेतनता का आभास देती है।

इस अवधारणा का महत्व:

  • अद्वैत वेदांत का मूल: यह द्रष्टा और दृश्य के बीच का अंतर अद्वैत वेदांत दर्शन को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका मुख्य उद्देश्य जीव (व्यक्तिगत आत्मा) और ब्रह्म (परम वास्तविकता) के तादात्म्य (एकता) को स्पष्ट करना है।

  • सत्य की पहचान: यह साधक को यह समझने में मदद करता है कि परिवर्तनशील और नश्वर दृश्य जगत (माया) मिथ्या है, जबकि आत्मा (चेतना) नित्य, शुद्ध और अविनाशी है। यह सत्य (आत्मा/ब्रह्म) को असत्य (जगत) से अलग करने का तरीका सिखाता है।

  • ज्ञानयोग और आत्म-साक्षात्कार: यह ग्रंथ ध्यान और आत्मनिरीक्षण (सेल्फ-इन्क्वायरी) के माध्यम से अद्वैत वेदांत को समझने के लिए एक प्रभावशाली साधन है। यह 'ज्ञानयोग' (ज्ञान का मार्ग) के अभ्यास से आत्म-साक्षात्कार और अंततः मोक्ष की ओर ले जाता है।

  • दुःख से मुक्ति: यह समझ कि व्यक्ति स्वयं करने वाला या अनुभव करने वाला नहीं है, बल्कि केवल साक्षी है, उसे सांसारिक दुःख, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाती है। यह सिखाता है कि 'ज्ञान' ही मुक्ति का अंतिम उपाय है, न कि केवल कर्मों का संपादन। ग्रंथ का लक्ष्य जिज्ञासुओं की आँखें खोलना है, ताकि वे सत्य को पहचान सकें और अज्ञान से उत्पन्न दुखों से मुक्त हो सकें।


3. माया की दोहरी शक्तियों (विक्षेप और आवरण) और ब्रह्मांड की हमारी धारणा पर उनके प्रभाव की गहराई से जांच करें। ये शक्तियाँ जीव के सांसारिक अस्तित्व और ब्रह्म की प्रतीत होने वाली विशेषताओं से कैसे संबंधित हैं?

"दृग्-दृश्य-विवेक" ग्रंथ अद्वैत वेदांत दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों की व्याख्या करता है, विशेषकर 'द्रष्टा' (देखने वाला) और 'दृश्य' (जो देखा जाता है) के बीच के भेद को स्पष्ट करने पर ध्यान केंद्रित करता है। यह ग्रंथ चेतना को परम द्रष्टा मानता है, क्योंकि यह स्वयंप्रकाशित है और किसी अन्य के द्वारा देखी नहीं जा सकती।

माया की दोहरी शक्तियाँ (विक्षेप और आवरण) और ब्रह्मांड की हमारी धारणा पर उनके प्रभाव की गहराई से जांच:

माया, जिसे शास्त्रों में ब्रह्मांड का कारण माना गया है, अत्यंत मायावी है और इसे न तो वास्तविक और न ही अवास्तविक बताया जा सकता है। इसमें दो मुख्य शक्तियाँ निहित हैं:

  1. विक्षेप शक्ति (Projecting Power):

    • यह माया की वह शक्ति है जो गैर-द्वैत ब्रह्म को प्रकट विविध रूप में प्रस्तुत करती है

    • यह सूक्ष्म शरीर से लेकर स्थूल ब्रह्मांड तक सब कुछ बनाती है

    • इस शक्ति के प्रभाव में, शुद्ध और निर्गुण आत्मा विश्व (जागृत अवस्था), तैजस (स्वप्न अवस्था) और प्राज्ञ (गहरी निद्रा अवस्था) के रूप में प्रतीत होती है

    • यह सभी नामों और रूपों को प्रकट करती है जो अस्तित्व-चेतना-आनंद स्वरूप ब्रह्म में सागर में झाग की तरह होते हैं। ये नाम और रूप मन के विचार मात्र हैं।

    • प्रत्येक इकाई में पाँच विशेषताएँ होती हैं: अस्तित्व, ज्ञेयता, आकर्षण, रूप और नाम। इनमें से पहले तीन (सत, चित, आनंद) ब्रह्म से संबंधित हैं, जबकि अंतिम दो (रूप और नाम) संसार से संबंधित हैं। नाम और रूप अस्थिर और नश्वर होते हैं।

  2. आवरण शक्ति :

    • यह माया की वह शक्ति है जो भेद को छुपाती है

    • यह द्रष्टा (साक्षी) और दृश्य वस्तुओं के बीच के अंतर को छुपाती है जो शरीर के भीतर जानी जाती हैं।

    • यह ब्रह्म और बाहरी प्रपंच ब्रह्मांड के बीच के अंतर को भी छुपाती है

    • स्वामी निखिलानंद के अनुसार, हालांकि वेदांतिक लेखकों में आवरण शक्ति को विक्षेप शक्ति से पहले वर्णित करने का रिवाज है, लेकिन इस ग्रंथ के लेखक ने इसमें बदलाव किया है। वास्तव में, दोनों के प्रभाव एक साथ देखे जाते हैं, और एक की कल्पना दूसरे के बिना नहीं की जा सकती है।

    • यह शक्ति ही प्रपंच ब्रह्मांड का कारण है

ये शक्तियाँ जीव के सांसारिक अस्तित्व और ब्रह्म की प्रतीत होने वाली विशेषताओं से कैसे संबंधित हैं?

  • जीव के सांसारिक अस्तित्व पर प्रभाव:

    1. माया की आवरण शक्ति के कारण, व्यक्ति साक्षी और मन, इंद्रियों आदि के बीच के अंतर को नहीं देख पाता है, जिससे साक्षी स्वयं को संसार-बद्ध जीव के रूप में पहचान लेता है

    2. जीव की स्थिति (जिसे व्यक्तिगत आत्मा भी कहा जाता है) तीन प्रकार की होती है: प्राण आदि द्वारा सीमित चेतना, मन में प्रस्तुत चेतना (जैसे सूर्य का जल में प्रतिबिंब), और स्वप्न में कल्पित चेतना। इनमें से पहली धारणा को जीव की वास्तविक प्रकृति (ब्रह्म) के रूप में स्वीकार किया जाता है।

    3. अहंकार का तादात्म्य (पहचान) चेतना के प्रतिबिंब, शरीर और साक्षी के साथ तीन प्रकार का होता है: सहज (स्वाभाविक), कर्मजन्य (पिछले कर्मों के कारण), और भ्रांतिजन्य (अज्ञान के कारण)।

    4. अज्ञान के कारण व्यक्ति स्वयं को कर्ता, भोक्ता आदि मानता है।

    5. गहरी निद्रा में अहंकार का विचार गायब हो जाता है, और शरीर भी अचेतन हो जाता है। स्वप्न अवस्था अहंकार का आधा प्रकटीकरण है, जबकि जागृत अवस्था पूर्ण प्रकटीकरण है।

    6. जीव और जगत का अस्तित्व केवल व्यावहारिक (अनुभवजन्य) है और यह मुक्ति प्राप्त होने तक बना रहता है। अज्ञान की स्थिति में, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के विचार और ब्रह्मांड का अस्तित्व इन्हीं अवधारणाओं के माध्यम से संभव होता है।

    7. विषय और वस्तु के बीच अंतर का अज्ञान ही व्यक्ति के संसार में कष्टों का कारण है

  • ब्रह्म की प्रतीत होने वाली विशेषताओं पर प्रभाव:

    1. माया के प्रभाव से, ब्रह्म जो निर्गुण है, परिवर्तन के गुणों से युक्त प्रतीत होता है, जैसे जन्म, अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, क्षय और विनाश।

    2. यह अज्ञान के कारण ही है कि जीव जगत को स्वयं से अलग समझता है

    3. जब आवरण शक्ति का नाश होता है, तो ब्रह्म और प्रपंच ब्रह्मांड के बीच का अंतर स्पष्ट हो जाता है, और तब परिवर्तन केवल प्रपंच ब्रह्मांड में ही देखा जाता है, ब्रह्म में कभी नहीं

    4. अस्तित्व, चेतना और आनंद, जो साक्षी या ब्रह्म की वास्तविक विशेषताएँ हैं, माया द्वारा उत्पन्न होने के कारण, व्यावहारिक जीव और प्रतिबिंबित जीव में निहित प्रतीत होती हैं। यह भ्रम अधिष्ठापन (superimposition) के कारण होता है।

    5. जैसे पानी में झाग और लहरें पानी से अलग नहीं होतीं, वैसे ही अहंकार और गैर-अहंकार से बना पूरा ब्रह्मांड ब्रह्म से अलग अस्तित्व नहीं रखता है

    6. अंततः, जब माया की शक्तियों (विक्षेप और आवरण) का विनाश होता है, तो जीव और जगत के सभी गुण (जैसे अस्तित्व, चेतना, आनंद) साक्षी में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि नाम और रूपों का ब्रह्म से अलग कोई अस्तित्व नहीं होता है। वे ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं।

  • "दृग्-दृश्य-विवेक" में अहंकार की पहचान के तीन प्रकारों का वर्णन करें। आत्म-ज्ञान की प्रक्रिया में इन पहचानों का अंत कैसे होता है, और यह अंतिम मुक्ति से कैसे संबंधित है?

4. "दृग्-दृश्य-विवेक" ग्रंथ अहंकार (ego) की पहचान के तीन प्रकारों का विस्तृत वर्णन करता है और बताता है कि आत्म-ज्ञान की प्रक्रिया में इन पहचानों का अंत कैसे होता है, जो अंततः अंतिम मुक्ति की ओर ले जाता है।

अहंकार की पहचान के तीन प्रकार:

अहंकार का तादात्म्य (पहचान) चेतना के प्रतिबिंब, शरीर और साक्षी के साथ तीन प्रकार का होता है:

  1. सहज (स्वाभाविक) तादात्म्य:

    • यह अहंकार और चेतना के प्रतिबिंब के बीच की पहचान है, जो स्वाभाविक या जन्मजात है। जैसे ही अहंकार और चेतना का प्रतिबिंब अस्तित्व में आते हैं, वे एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं।

    • इसे जल में सूर्य के प्रतिबिंब के समान बताया गया है। प्रतिबिंब जल से तब तक अलग नहीं हो सकता, जब तक जल का पात्र मौजूद है।

    • इस तादात्म्य से उत्पन्न अनुभव "मैं जानता हूँ" (अहं जानामि) है।

  2. कर्मजन्य तादात्म्य:

    • यह अहंकार की एक विशेष शरीर के साथ पहचान है। यह पहचान जीव के पिछले कर्मों (पुण्य या पाप) के परिणामस्वरूप होती है, जो विशेष शरीर में जन्म का निर्धारण करते हैं।

    • इस तादात्म्य से उत्पन्न अनुभव "मैं मनुष्य हूँ" (अहं मनुष्यः) है।

  3. भ्रांतिजन्य (अज्ञान के कारण) तादात्म्य:

    • यह अहंकार की साक्षी (Witness) के साथ पहचान है। यह अज्ञान या मोह (भ्रांति) पर आधारित है, जो चेतना की वास्तविक प्रकृति के बारे में अनभिज्ञता है।

    • इस तादात्म्य से उत्पन्न अनुभव "मैं हूँ" या "मैं अस्तित्व में हूँ" है।

आत्म-ज्ञान की प्रक्रिया में इन पहचानों का अंत:

इन तीनों प्रकार की पहचानों का अंत एक साथ तब होता है, जब जीव स्वयं को ब्रह्म के रूप में पहचान लेता है। यह प्रक्रिया इस प्रकार है:

  1. सहज तादात्म्य का अंत:

    • अहंकार और चेतना के प्रतिबिंब के बीच की स्वाभाविक पहचान तब तक समाप्त नहीं होती, जब तक उन्हें वास्तविक माना जाता है। यह "जैसे पानी के घड़े में सूर्य का प्रतिबिंब" है; प्रतिबिंब तभी गायब होता है, जब पानी का घड़ा मौजूद न हो।

    • इसका अर्थ है कि यह तादात्म्य तभी समाप्त होता है जब अहंकार स्वयं ही ब्रह्म में विलीन हो जाता है, क्योंकि अहंकार अज्ञान का परिणाम है और ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाता है।

  2. कर्मजन्य तादात्म्य का अंत:

    • शरीर के साथ अहंकार की पहचान पिछले कर्मों के प्रभाव के समाप्त होने पर समाप्त हो जाती है। जब शरीर, जिसके कारण यह पहचान बनी है, कर्मों के प्रभाव के पूरी तरह समाप्त होने के कारण समाप्त हो जाता है, तो अहंकार की पहचान भी स्वतः समाप्त हो जाती है।

    • यह अस्थायी रूप से गहरी नींद या मूर्छा की स्थिति में भी देखा जाता है, जहाँ कर्मों के प्रभाव अस्थायी रूप से निलंबित हो जाते हैं।

  3. भ्रांतिजन्य तादात्म्य का अंत:

    • साक्षी के साथ अहंकार की पहचान "त्रुटि (अज्ञान)" के कारण होती है।

    • इस पहचान को केवल "ज्ञान" (तत्वज्ञान) की प्राप्ति से नष्ट किया जा सकता है। ज्ञान अज्ञान और उसके प्रभावों को नष्ट कर देता है, और चूंकि अहंकार अज्ञान का एक प्रभाव है, यह भी ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाता है। इस प्रकार, आत्मज्ञान के बाद, अहंकार साक्षी के साथ खुद को पहचान नहीं पाता है, क्योंकि वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है।

अंतिम मुक्ति से संबंध:

जब ये तीनों प्रकार की पहचानें एक साथ समाप्त हो जाती हैं, तो जीव स्वयं को ब्रह्म के रूप में अनुभव करता है, जो अंतिम मुक्ति (मोक्ष) की ओर ले जाता है। इस अवस्था में:

  • शरीर के प्रति लगाव (देहाभिमान) समाप्त हो जाता है। व्यक्ति यह जान जाता है कि अहंकार से लेकर शरीर तक सभी आंतरिक सत्ताएँ केवल वस्तुएँ हैं और द्रष्टा (आत्मन) साक्षी है, जो इन परिवर्तनों से अप्रभावित है।

  • साधक आंतरिक और बाहरी वस्तुओं के प्रति उदासीन हो जाता है और अपने मन को ब्रह्म पर केंद्रित कर लेता है, जो आत्मन के समान है।

  • योगिक समाधि के निरंतर अभ्यास और सत्य के ज्ञान से, साधक सभी आंतरिक और बाहरी वस्तुओं को ब्रह्म के रूप में देखता है। ज्ञानी की दृष्टि में, नाम और रूप, जो अज्ञानी को वास्तविकता से रहित लगते हैं, वे भी शाश्वत ब्रह्म के रूप में देखे जाते हैं।

  • ब्रह्म का ज्ञान, जो शुरुआत में प्रयास से प्राप्त होता है, बाद में सहज और स्वाभाविक हो जाता है।

  • "उच्च और निम्न" (यानी ब्रह्मांड के कारण और प्रभाव) को देखने से हृदय के बंधन टूट जाते हैं, सभी संदेह हल हो जाते हैं, और सभी कर्म (गतिविधियाँ और उनके प्रभाव) नष्ट हो जाते हैं। यह आत्मा पर झूठे ढंग से आरोपित एजेंसी आदि के विचारों का अंत करता है।

  • इस प्रकार, जो ब्रह्म को जानता है, वह वास्तव में ब्रह्म बन जाता है और जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य, मुक्ति प्राप्त कर लेता है। वह दुख से परे हो जाता है और भयहीनता प्राप्त कर लेता है।


5. "दृग्-दृश्य-विवेक" में वर्णित विभिन्न प्रकार की समाधि का विस्तार से वर्णन करें, सविकल्प और निर्विकल्प समाधि के बीच अंतर पर प्रकाश डालें। समाधि का निरंतर अभ्यास परम स्वयं के बोध में कैसे परिणत होता है, और इस "सर्वोच्च बोध" के परिणाम क्या हैं?

"दृग्-दृश्य-विवेक" ग्रंथ अद्वैत वेदान्त के महत्वपूर्ण सिद्धांतों की व्याख्या करता है, जिसमें समाधि के विभिन्न प्रकार, आत्म-ज्ञान की प्रक्रिया और उसके परिणाम शामिल हैं। यह ग्रंथ "द्रष्टा" (दृग्) और "दृश्य" (दृश्य) के बीच के भेद की पड़ताल करता है।

समाधि के प्रकार:

"दृग्-दृश्य-विवेक" के अनुसार, समाधि (एकाग्रता) का अभ्यास हृदय के भीतर या बाहर दोनों जगह किया जा सकता है। समाधि मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है, और इन दोनों के भी उप-प्रकार हैं:

  1. सविकल्प समाधि:

    • परिभाषा: इस समाधि में अभ्यासी ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करता है, लेकिन ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैसे भेदों को पूरी तरह से खोता नहीं है। यह एकाग्रता के अभ्यास का प्रारंभिक चरण है।

    • सविकल्प समाधि के दो प्रकार हैं:

      • ज्ञेय वस्तु से संबंधित (दृश्यशब्दानुविद्ध समाधि): इसमें मन में उत्पन्न होने वाली इच्छा, संकल्प, संदेह, विश्वास, अविश्वास, धैर्य, लज्जा, बोध, भय जैसी सभी मानसिक अवस्थाओं को ज्ञेय वस्तुओं के रूप में देखा जाता है। अभ्यासी चैतन्य (आत्मन) को इन सबका साक्षी मानता है। इस प्रकार की एकाग्रता में, मन में जब भी कोई विचार आता है, उसे एक वस्तु माना जाता है और उसके प्रति उदासीनता बरती जाती है। आत्मन को अपना वास्तविक, शाश्वत स्वरूप माना जाता है। इस समाधि का अभ्यास आंतरिक (जैसे इच्छाएँ) या बाहरी (जैसे सूर्य) वस्तुओं पर किया जा सकता है, जिसमें अभ्यासी नाम और रूप को शुद्ध अस्तित्व (सच्चिदानंद) से अलग करता है।

      • शब्द (शास्त्र वाक्य) से संबंधित (शब्दशब्दानुविद्ध समाधि): इस सविकल्प समाधि में अभ्यासी चिंतन करता है कि "मैं सत्-चित्-आनंद स्वरूप, असंग, स्वयं-प्रकाशमान और द्वैत से रहित हूँ"। यह स्व-चेतना की एक सतत धारा है और विचारों से पूरी तरह मुक्त नहीं है। इसे एक "मध्यवर्ती अवशोषण" के रूप में वर्णित किया गया है, जो पिछली समाधि से श्रेष्ठ और निर्विकल्प समाधि से निम्न है। इसका अभ्यास आंतरिक (व्यक्तिपरक विचार) या बाहरी (वस्तुनिष्ठ विचार, जैसे ब्रह्म के गुण) विचार के साथ किया जा सकता है।

  2. निर्विकल्प समाधि:

    • परिभाषा: यह एकाग्रता का सर्वोच्च प्रकार है। इस समाधि में मन हवा रहित स्थान में रखे दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाता है। अभ्यासी ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैसे सभी भेदों के विचारों से मुक्त हो जाता है। यह आत्म-ज्ञान के आनंद में पूर्ण अवशोषण की स्थिति है। मन के कार्यकलाप रुक जाते हैं। इसमें विषय-वस्तु संबंध का ज्ञान अनुपस्थित रहता है।

    • गहरी नींद से भिन्नता: निर्विकल्प समाधि गहरी नींद या मूर्छा से अलग है। गहरी नींद में आत्म-ज्ञान नहीं होता, लेकिन निर्विकल्प समाधि में स्वयं को न जानने का कोई भाव नहीं होता, क्योंकि व्यक्ति सदा-जागृत आत्मन से एकात्म हो जाता है।

    • प्राप्ति: यह सविकल्प समाधि के निरंतर अभ्यास से प्राप्त होती है, जिससे मन सभी विक्षेपों से मुक्त हो जाता है। यह वास्तविक और अवास्तविक के बीच के विवेक के परिणामस्वरूप आती है, जिससे अत्यधिक अनासक्ति प्राप्त होती है। इसे प्राप्त करने के लिए पूर्ण त्याग और अत्यधिक ऊर्जावान प्रयास की आवश्यकता होती है।

    • परिणाम: इस समाधि में मन सभी विचारों से मुक्त होकर भी सर्वोच्च आनंद से भर जाता है।

सविकल्प और निर्विकल्प समाधि के बीच अंतर:

  • सविकल्प समाधि में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैसे भेद बने रहते हैं, जबकि निर्विकल्प समाधि इन सभी भेदों से मुक्त होती है।

  • सविकल्प समाधि में विचार या धारणाएँ (जैसे "मैं असंग हूँ") मौजूद रहती हैं, जबकि निर्विकल्प समाधि सभी विचारों से पूरी तरह मुक्त होती है।

  • सविकल्प समाधि एकाग्रता का प्रारंभिक चरण है, जबकि निर्विकल्प समाधि एक उच्चतर अवस्था है।

समाधि का निरंतर अभ्यास और परम स्वयं का बोध:

  • निरंतर अभ्यास: अभ्यासी को इन छह प्रकार की समाधियों में लगातार समय बिताना चाहिए। यह अभ्यास लंबे समय तक और निरंतर, अत्यधिक प्रेम के साथ किया जाना चाहिए।

  • स्वतःस्फूर्त समाधि: निरंतर अभ्यास के परिणामस्वरूप, समाधि स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त हो जाती है।

  • परम स्वयं का बोध: जब शरीर के प्रति आसक्ति (देहाभिमान) समाप्त हो जाती है और परम आत्मन का बोध हो जाता है, तो मन जिस भी वस्तु की ओर जाता है, वह समाधि का अनुभव करता है। अभ्यासी आंतरिक और बाहरी सभी वस्तुओं को ब्रह्म के रूप में देखता है। यहां तक कि नाम और रूप भी, जो अज्ञानी को अवास्तविक लगते हैं, ज्ञानी द्वारा शाश्वत ब्रह्म के रूप में देखे जाते हैं। ब्रह्म का ज्ञान, जो पहले प्रयास से प्राप्त होता है, बाद में सहज और स्वाभाविक हो जाता है।

सर्वोच्च बोध (मुक्ति) के परिणाम:

जब साधक ब्रह्म का "सर्वोच्च बोध" प्राप्त कर लेता है, तो इसके निम्नलिखित परिणाम होते हैं:

  • हृदय की ग्रंथियाँ टूट जाती हैं (हृदयग्रंथिर्भिद्यते): यह आत्मन पर आरोपित कर्तापन आदि के झूठे विचारों का अंत करता है, जो अज्ञान के कारण होते हैं।

  • सभी संदेह दूर हो जाते हैं (छिद्यन्ते सर्वसंशयाः): आत्मन के स्वरूप के संबंध में सभी संदेहों का समाधान हो जाता है।

  • सभी कर्म (गतिविधियाँ और उनके प्रभाव) नष्ट हो जाते हैं (क्षीयन्ते चास्य कर्माणि): एक ज्ञानी के लिए संचित कर्म (संचित), तथा आगामी कर्म (आगामी) कोई परिणाम नहीं देते। केवल प्रारब्ध कर्म (फलोत्पादक कर्म), जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान शरीर प्राप्त हुआ है, अपने परिणाम देना जारी रखते हैं, लेकिन एक ज्ञानी जो देह-अभिमान से पूरी तरह मुक्त हो गया है, वह किसी भी कर्म के प्रभाव को महसूस नहीं करता।

  • ब्रह्म को जानने वाला वास्तव में ब्रह्म बन जाता है (ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति): वह जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य, यानी मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

  • दुःख से परे (तरति शोकमात्मवित्): आत्म-ज्ञान प्राप्त करने वाला दुःख से परे हो जाता है।

  • निर्भयता की प्राप्ति (अभयं वै जनक प्राप्तोऽसि): साधक भयहीनता को प्राप्त करता है।

  • अमरता (अमृतत्व): ज्ञानी अमरता प्राप्त करता है।

  • आत्मन ही सब कुछ है (आत्मैवेदं सर्वम्): उसे यह बोध होता है कि आत्मन ही यह सब कुछ है।

कालक्रम 

ईसा पूर्व 400 ईस्वी:

  • ब्रह्मसूत्र की रचना: बादरायण व्यास द्वारा ब्रह्मसूत्र की रचना की गई, जो उपनिषदों के सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है।

300 ईस्वी:

  • गौडपाद और अद्वैत वेदांत: गौडपाद, जो बाद में आदि शंकराचार्य के अनुयायी थे, ब्रह्म को प्रमुख मानकर जीव और जगत को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार, तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए।

700 ईस्वी:

  • आदि शंकराचार्य: आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत शाखा को आगे बढ़ाया, जिसमें "ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव तथा ब्रह्म अभिन्न हैं" का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया।

820 ईस्वी:

  • इष्टसिद्धिः की रचना: विमुक्तात्मन द्वारा 'इष्टसिद्धिः' नामक ग्रंथ की रचना की गई।

850 ईस्वी:

  • भामाती, पंचपादिका, आत्मबोधव्याख्यानम्, संक्षेपशारीरकम की रचना: वाचस्पति मिश्र ने 'भामाती', पद्मपादाचार्य ने 'पञ्चपादिका' और 'आत्मबोधव्याख्यानम्', तथा सर्वज्ञात्म ने 'संक्षेपशारीरकम' की रचना की।

10वीं-11वीं शताब्दी:

  • पदार्थतत्त्वनिर्णय की रचना: गंगापुरि भट्टारक द्वारा 'पदार्थतत्त्वनिर्णय' की रचना की गई।

11वीं शताब्दी:

  • विशिष्टाद्वैत वेदांत का विकास: रामानुजाचार्य (11वीं शताब्दी) ने विशिष्टाद्वैत वेदांत का प्रचार किया, जो ईश्वर (ब्रह्म) को स्वतंत्र तत्व मानता है, लेकिन जीव को भी सत्य और ईश्वर से संबंधित बताता है।

12वीं शताब्दी:

  • खण्डनखण्डखाद्यम् की रचना: श्रीहर्ष द्वारा 'खण्डनखण्डखाद्यम्' की रचना की गई।

13वीं शताब्दी:

  • तत्त्वप्रदीपिका की रचना: चित्सुख द्वारा 'तत्त्वप्रदीपिका' की रचना की गई।

1328 - 1380 ईस्वी:

  • भारती तीर्थ श्रृंगेरी मठ के प्रमुख: भारती तीर्थ ने आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरी मठ के जगद्गुरु के रूप में कार्य किया।

1340 ईस्वी:

  • हरिहर प्रथम द्वारा अनुदान: विजयनगर के शासक हरिहर प्रथम और उनके भाइयों ने श्रृंगेरी मठ के रखरखाव के लिए भारती तीर्थ को भूमि अनुदान दिया।

लगभग 1350 ईस्वी:

  • द्रिग्-दृश्य-विवेक का लेखन: 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' या 'वाक्यसुधा' की रचना की गई, जिसका श्रेय भारती तीर्थ या विद्यारण्य स्वामी को दिया जाता है। कुछ पांडुलिपियों में इसे आदि शंकराचार्य को भी समर्पित किया गया है।

15वीं शताब्दी:

  • वेदांतसारः की रचना: सदानंद द्वारा 'वेदांतसारः' की रचना की गई।

16वीं शताब्दी:

  • सिद्धान्तलेशसङ्ग्रहः, अद्वैतसिद्धिः, वेदान्तपरिभाषा की रचना: अप्पय्यदीक्षितः ने 'सिद्धान्तलेशसङ्ग्रहः', मधुसूधन सरस्वती ने 'अद्वैतसिद्धिः', और धर्मराजाध्वरिः ने 'वेदान्तपरिभाषा' की रचना की।

17वीं शताब्दी:

  • सिद्धान्तसिद्धाञ्जनम्, तत्त्वकौस्तुभम्, आभोगः की रचना: कृष्णानंद ने 'सिद्धान्तसिद्धाञ्जनम्', भट्टोजि दीक्षित ने 'तत्त्वकौस्तुभम्', और लक्ष्मीनृसिंह ने 'आभोगः' की रचना की।

18वीं शताब्दी:

  • अद्वैतब्रह्मसिद्धिः की रचना: सदानंद काश्मीरक द्वारा 'अद्वैतब्रह्मसिद्धिः' की रचना की गई।

19वीं शताब्दी:

  • स्वराज्यसिद्धिः की रचना: गंगाधर सरस्वती द्वारा 'स्वराज्यसिद्धिः' की रचना की गई।

1931 ईस्वी:

  • द्रिग्-दृश्य-विवेक का अंग्रेजी अनुवाद: स्वामी निखिलानांदा द्वारा "द्रिग्-दृश्य-विवेक" का अंग्रेजी अनुवाद और नोट्स के साथ "श्री रामकृष्ण आश्रम मैसूर" द्वारा प्रकाशित किया गया।

आधुनिक काल:

  • आधुनिक वेदांतियों का उदय: रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद, स्वामी करपात्री और रमण महर्षि जैसे प्रमुख वेदांती हुए, जिन्होंने अद्वैत वेदांत शाखा का प्रतिनिधित्व किया। ज्ञानेश्वर महाराज और तुकाराम महाराज जैसे संतों ने भी वेदांत पर कई ग्रंथ लिखे।

पात्र 

  • आदि शंकराचार्य : वेदांत की अद्वैत शाखा के प्रमुख पुरस्कर्ता। उनके अनुसार, संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव और ब्रह्म अलग नहीं हैं। 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' ग्रंथ की रचना का श्रेय कुछ लोग उन्हें भी देते हैं।

  • बादरायण व्यास : ब्रह्मसूत्र के रचयिता, जो उपनिषदों के दार्शनिक सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं।

  • गौडपाद : अद्वैत वेदांत के एक महत्वपूर्ण आचार्य और आदि शंकराचार्य के पूर्ववर्ती। उन्होंने ब्रह्म को प्रधान मानते हुए जीव और जगत को उससे अभिन्न बताया।

  • भारती तीर्थ : आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरी मठ के एक जगद्गुरु (1328-1380 ईस्वी)। उन्हें 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' के लेखक के रूप में सबसे अधिक श्रेय दिया जाता है। वे विद्यारण्य के गुरु भी थे।

  • विद्यारण्य स्वामी : 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' के संभावित लेखक। वे 'पंचदशी' के लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं और भारती तीर्थ के शिष्य थे।

  • स्वामी निखिलानांदा : 1931 में 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' का अंग्रेजी अनुवाद और नोट्स के साथ प्रकाशित करने वाले विद्वान।

  • वी. सुब्रह्मण्य अय्यर : स्वामी निखिलानांदा द्वारा प्रकाशित 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' के संस्करण के लिए प्रस्तावना लिखने वाले विद्वान। उन्होंने वेदांत के ज्ञान पर जोर दिया और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को स्वीकार किया।

  • स्वामी सिद्धेश्वरानंद : श्री रामकृष्ण आश्रम, मैसूर के अध्यक्ष, जिन्होंने 1931 में 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' का प्रकाशन किया।

  • श्री कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ : मैसूर के महाराजा, जिन्हें स्वामी निखिलानांदा ने अपनी पुस्तक समर्पित की। उन्हें वेदांतिक सत्य के प्रति उनकी महान भक्ति और दर्शन तथा आधुनिक विज्ञान के गहरे ज्ञान के लिए सराहा गया है। उनके पिता ने स्वामी विवेकानंद को शिकागो में धर्म संसद में जाने के लिए प्रोत्साहित किया था।

  • स्वामी विवेकानंद : रामकृष्ण मिशन के संस्थापक, जिन्होंने भारत के बाहर वेदांत दर्शन के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  • आचार्य शंकरानंद : कुछ सूत्रों के अनुसार, पंचदशी के कुछ अध्यायों के संभावित लेखक।

  • ब्रह्मानंद भारती : 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' के एक टीकाकार, जो कुछ विद्वानों के अनुसार 'वाक्यशुद्ध' नामक एक टिप्पणी भी लिखी थी।

  • आनंद ज्ञान/आनंदगिरी : 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' के एक अन्य टीकाकार, जिन्हें कुछ पांडुलिपियों में आदि शंकराचार्य के रूप में संदर्भित किया गया है।

  • निश्चलदासा : 'वृत्ति प्रभाकर' के लेखक, जिन्होंने 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' को विद्यारण्य को समर्पित किया।

  • बाबू दुर्गाचरण चट्टोपाध्याय : बनारस के एक संस्कृत विद्वान, जिन्होंने 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' का बंगाली अनुवाद किया।

  • रामानुजाचार्य : 11वीं शताब्दी के आचार्य जिन्होंने विशिष्टाद्वैत वेदांत का प्रचार किया।

  • मध्वाचार्य : 12वीं शताब्दी के आचार्य जिन्होंने द्वैत वेदांत का प्रचार किया।

  • निम्बारकाचार्य : द्वैताद्वैत वेदांत के आचार्य।

  • रामकृष्ण परमहंस : एक महान आध्यात्मिक शिक्षक और वेदांत के अनुयायी, जिनके बारे में प्रो. मैक्स मुलर ने 'वास्तविक महात्मा' के रूप में उल्लेख किया।

  • मैथ्यू अर्नोल्ड : प्रसिद्ध इतिहासकार जिन्होंने अद्वैत वेदांत को भारत का प्रतिनिधि दर्शन माना।

  • द्रविदाचार्य श्री रामकृष्णन स्वामीजी : 'द्रिग्-दृश्य-विवेक' पर सबसे उल्लेखनीय अंग्रेजी टीकाकारों में से एक।




V. प्रमुख शब्दों की शब्दावली

  • अद्वैत वेदांत (Advaita Vedanta): हिंदू दर्शन की एक शाखा जो गैर-द्वैतवाद पर जोर देती है, जिसमें ब्रह्म (परम वास्तविकता) को ही एकमात्र सत्य माना जाता है, और आत्मा (व्यक्तिगत स्वयं) को ब्रह्म के समान माना जाता है।

  • अहंकार (Ahamkara): व्यक्तिगत अहंकार या अहंभाव; चेतना के प्रतिबिंब के कारण बुद्धि का एक संशोधन, जो इसे एजेंसी, इच्छा आदि से संपन्न करता है।

  • अज्ञान (Ajñāna): अज्ञान, विशेष रूप से स्वयं या परम वास्तविकता की वास्तविक प्रकृति का अज्ञान।

  • अन्वय व्यतिरेक (Anvaya Vyatireka): भारतीय न्याय प्रणाली में सहमति और असहमति की एक तार्किक विधि, जिसका उपयोग किसी कारण और उसके प्रभाव के बीच संबंध स्थापित करने के लिए किया जाता है।

  • अंतःकरण (Antahkarana): आंतरिक अंग, जिसमें मन (मनस), बुद्धि (बुद्धि), चित्त (चित्त) और अहंकार (अहंकार) शामिल हैं।

  • आत्मान (Atman): व्यक्ति का वास्तविक स्वयं या आत्मा, जिसे अद्वैत वेदांत में ब्रह्म के समान माना जाता है।

  • आवरण शक्ति (Avarana Shakti): माया की आवरण शक्ति, जो वास्तविक वास्तविकता को छुपाती है और भेद की धारणा पैदा करती है।

  • ब्रह्म (Brahman): परम वास्तविकता, सार्वभौमिक आत्मा, सभी अस्तित्व का आधार और स्रोत।

  • ब्रह्मविद्या (Brahmavidya): ब्रह्म का ज्ञान।

  • बुद्धि (Buddhi): बुद्धि या निर्धारित करने वाली संकाय; आंतरिक अंग का वह भाग जो निर्णय लेता है।

  • चित्त (Chitta): मन-पदार्थ, चेतना की सीट; मन के संशोधन।

  • दृग् (Drig): द्रष्टा, पर्यवेक्षक; स्वयं या चेतना जो देखती है।

  • दृश्य (Drishya): दृश्य, देखा गया; इंद्रियों और मन के माध्यम से देखी गई वस्तुएं।

  • जाग्रत (Jagrat): जाग्रत अवस्था; अहंकार की पूर्ण अभिव्यक्ति के साथ सकल बाहरी वस्तुओं का अनुभव।

  • जगत (Jagat): ब्रह्मांड, घटनात्मक दुनिया।

  • जीव (Jiva): देहधारी प्राणी; व्यक्तिगत आत्मा जो अहंकार और शरीर से पहचान रखती है, जिसके परिणामस्वरूप कर्मों और संसार का अनुभव होता है।

  • ज्ञान (Jnana): ज्ञान, विशेष रूप से आत्मन या ब्रह्म का ज्ञान।

  • कर्म (Karma): क्रिया या कर्म और उनके परिणाम; भाग्य।

  • लिंगम (Lingam): सूक्ष्म शरीर, मन और अहंकार का भौतिक कारण।

  • माया (Maya): ब्रह्मांड को प्रकट करने वाली ब्रह्मांडीय शक्ति; यह वास्तविकता का भ्रम पैदा करती है और ब्रह्म की वास्तविक प्रकृति को छुपाती है। इसे न तो वास्तविक और न ही अवास्तविक के रूप में वर्णित किया जा सकता है।

  • मोक्ष (Moksha): आध्यात्मिक मुक्ति, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति।

  • निर्विकल्प समाधि (Nirvikalpa Samadhi): एकाग्रता की उच्चतम अवस्था जिसमें सभी मानसिक संशोधन रुक जाते हैं, और साधक ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के भेदों से मुक्त हो जाता है, स्वयं के शुद्ध आनंद में विलीन हो जाता है।

  • प्रकरण ग्रंथ (Prakarana Grantha): एक परिचयात्मक ग्रंथ जो वेदांत दर्शन के किसी विशेष पहलू या मुख्य उद्देश्य को समझाता है।

  • प्रातिभासिक जीव (Pratibhasika Jiva): मायावी जीव; स्वप्न अवस्था में अनुभव किया गया जीव और दुनिया।

  • सच्चिदानंद (Satchidananda): अस्तित्व-चेतना-आनंद; ब्रह्म के आवश्यक गुण।

  • साक्षी (Sakshin): साक्षी, परम द्रष्टा; सभी अनुभवों और मानसिक संशोधनों का अपरिवर्तनीय पर्यवेक्षक।

  • समाधि (Samadhi): एकाग्रता, मन की एक-बिंदुता; ध्यान की गहरी अवस्थाएँ।

  • संसार (Samsara): जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र; दुनिया की सांसारिक अस्तित्व।

  • सविकल्प समाधि (Savikalpa Samadhi): एकाग्रता की एक अवस्था जिसमें मन अभी भी ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैसे भेदों को बनाए रखता है, जबकि ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करता है।

  • सुषुप्ति (Sushupti): गहरी नींद की अवस्था; द्वैत की किसी भी धारणा की अनुपस्थिति।

  • स्वप्न (Swapna): स्वप्न अवस्था; अहंकार के मानसिक संशोधनों के माध्यम से अनुभवों की आधी अभिव्यक्ति।

  • तत् त्वम् असि (Tat Tvam Asi): "वह तुम हो"; चार महावाक्यों में से एक, जो जीव (व्यक्तिगत स्वयं) और ब्रह्म (परम वास्तविकता) की मूलभूत पहचान को दर्शाता है।

  • उपाधि (Upadhi): सीमित करने वाला सहायक; एक सीमित करने वाला गुण या स्थिति जो किसी चीज की वास्तविक प्रकृति को छुपाता या विकृत करता प्रतीत होता है।

  • विक्षेप शक्ति (Vikshepa Shakti): माया की प्रक्षेपण शक्ति, जो गैर-द्वैतहीन वास्तविकता को प्रकटित बहुलता के रूप में प्रकट करती है।

  • व्यावहारिक जीव (Vyavaharika Jiva): अनुभवजन्य जीव; जाग्रत अवस्था में अनुभव किया गया जीव और दुनिया।


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