संत रविदास का जीवन परिचय
जन्म और प्रारंभिक जीवन :
संत रविदास जी का जन्म 1377 ईस्वी (विक्रम संवत 1433) में वाराणसी (काशी) के सीर गोवर्धनपुर नामक गाँव में हुआ था। कुछ इतिहासकारों और लोककथाओं के अनुसार उनका जन्म वर्ष 1398 ईस्वी भी माना जाता है। उनके पिता का नाम रघु राम और माता का नाम करमा देवी (या मति देवी) था। वे चमार समुदाय से संबंध रखते थे, जो उस समय समाज में निम्न जाति मानी जाती थी और चमड़े का काम करती थी। उनका पैतृक व्यवसाय भी जूता बनाना और चमड़े का काम करना ही था।
बचपन से ही रविदास जी बहुत शांत, धार्मिक स्वभाव के और परोपकारी थे। वे ईश्वर भक्ति में लीन रहते थे और सामाजिक भेदभाव को कभी स्वीकार नहीं करते थे। अपनी विनम्रता और निष्ठा के कारण वे शीघ्र ही अपने माता-पिता और गाँव वालों के प्रिय बन गए।
यात्राएँ :
संत रविदास जी ने अपने जीवन में कई यात्राएँ कीं, जिनका मुख्य उद्देश्य उनके आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार और समाज में समानता का संदेश देना था। उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण किया। उनकी यात्राओं में मुख्य रूप से शामिल हैं:
उत्तर भारत: उन्होंने पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों का दौरा किया।
मेवाड़ (राजस्थान): वे विशेष रूप से चित्तौड़गढ़ में रानी झाली (राणा सांगा की पत्नी) और मीराबाई के साथ रहे। इन स्थानों पर उनके कई पद और उपदेश प्रचलित हुए।
दक्षिण भारत: कुछ मान्यताओं के अनुसार, उन्होंने दक्षिण भारत की भी यात्रा की, हालांकि इसके ठोस ऐतिहासिक प्रमाण कम मिलते हैं।
उनकी यात्राओं ने उन्हें विभिन्न संतों और भक्तों के संपर्क में आने का अवसर दिया, जिससे उनके दर्शन और उपदेशों का व्यापक प्रसार हुआ।
गुरु:
संत रविदास जी के गुरु का नाम स्वामी रामानंद था। स्वामी रामानंद 14वीं सदी के एक महान संत और भक्ति आंदोलन के अग्रणी थे, जिन्होंने बिना किसी जाति या लिंग के भेदभाव के सभी को शिष्य बनाया। संत रविदास जी ने उनसे दीक्षा ली और उनके मार्गदर्शन में आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़े। स्वामी रामानंद के प्रभाव से रविदास जी की भक्ति और अधिक गहरी हुई।
शिष्य :
संत रविदास जी के असंख्य शिष्य थे, जो विभिन्न जातियों और समुदायों से आते थे। उन्होंने दिखाया कि ईश्वर की भक्ति के लिए कोई जाति या वर्ण बाधा नहीं है। उनके प्रमुख शिष्यों में शामिल हैं:
मीराबाई: मेड़ता की प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई संत रविदास जी को अपना गुरु मानती थीं। उन्होंने रविदास जी की महिमा में कई पद रचे हैं।
रानी झाली: चित्तौड़गढ़ की रानी झाली भी संत रविदास जी की शिष्या थीं और उन्होंने रविदास जी से दीक्षा ली थी। उन्होंने रविदास जी के सम्मान में एक छतरी (स्मारक) भी बनवाई।
सिकंदर लोदी: दिल्ली सल्तनत के सुल्तान सिकंदर लोदी भी रविदास जी के आध्यात्मिक प्रभाव से प्रभावित थे और उन्होंने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की थी।
उनके शिष्यों में न केवल निम्न वर्ग के लोग बल्कि उच्च वर्ग के ब्राह्मण और राजा-महाराजा भी शामिल थे, जो उनके आध्यात्मिक ज्ञान और समानता के संदेश से प्रभावित थे।
शिक्षाएँ :
संत रविदास जी की शिक्षाएँ मुख्यतः सामाजिक समानता, आंतरिक शुद्धि और सच्ची भक्ति पर केंद्रित थीं। उनकी प्रमुख शिक्षाएँ इस प्रकार हैं:
जाति-भेद का खंडन (Rejection of Caste Discrimination): रविदास जी ने जाति-भेदभाव का घोर विरोध किया। उनका मानना था कि सभी मनुष्य ईश्वर की संतान हैं और जन्म के आधार पर कोई भी श्रेष्ठ या नीच नहीं होता। उन्होंने कहा, "मन चंगा तो कठौती में गंगा" (यदि मन शुद्ध है तो कठौती में भी गंगा है), जिसका अर्थ है कि आंतरिक पवित्रता बाहरी रीति-रिवाजों और तीर्थयात्राओं से अधिक महत्वपूर्ण है।
ईश्वर की एकता और सर्वव्यापकता (Unity and Omnipresence of God): उन्होंने एक ही ईश्वर पर बल दिया जो सर्वव्यापी है और हर प्राणी में निवास करता है। उन्होंने मूर्ति पूजा से अधिक आंतरिक भक्ति और ध्यान पर जोर दिया।
कर्म की महत्ता (Importance of Karma): रविदास जी ने अपने पैतृक व्यवसाय को कभी नहीं छोड़ा और उसे ईश्वर की सेवा का माध्यम माना। उन्होंने सिखाया कि व्यक्ति को अपना कर्म पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करना चाहिए, क्योंकि कर्म ही व्यक्ति की पहचान बनाते हैं, न कि उसकी जाति।
प्रेम, दया और भाईचारा (Love, Compassion, and Brotherhood): उन्होंने समाज में प्रेम, दया और भाईचारे का संदेश दिया। उनका मानना था कि आपसी सद्भाव और सहयोग से ही एक समतावादी समाज का निर्माण हो सकता है।
साहस और आत्म-सम्मान (Courage and Self-Respect): उन्होंने दलितों और शोषितों को आत्म-सम्मान के साथ जीने और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया।
निर्वाण :
संत रविदास जी का देहावसान कब हुआ, इस पर निश्चित रूप से कोई तिथि उपलब्ध नहीं है, लेकिन माना जाता है कि उन्होंने अपने जीवन का अंतिम समय काशी में ही बिताया और लगभग 120-125 वर्ष की आयु में 1527 ईस्वी (विक्रम संवत 1584) में शरीर त्यागा।
संत रविदास की कवितायेँ
संत रविदास जी ने अपनी शिक्षाओं को सरल और सुबोध पदों (कविताओं) के माध्यम से व्यक्त किया। उनकी भाषा ब्रजभाषा, अवधी और राजस्थानी का मिश्रण थी, जिसे सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है। उनके पद सहजता और गंभीरता का अद्भुत संगम हैं। उनके 40 पद सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में भी संकलित हैं, जो उनकी व्यापक स्वीकार्यता और आध्यात्मिक महत्ता का प्रमाण है।
यहाँ उनका एक प्रसिद्ध पद है जो उनकी जाति-भेद के खंडन और आंतरिक शुद्धि की शिक्षा को दर्शाता है:
मन चंगा तो कठौती में गंगा
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी॥
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहि मिलत सुहागा॥
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै 'रविदास'॥
अर्थ :
"अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।" - अब मुझसे राम नाम का यह अटूट प्रेम कैसे छूटे? (यह राम नाम की रट मेरे रोम-रोम में समा गई है)।
"प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी॥" - हे प्रभु, आप चंदन हैं और मैं पानी हूँ, जिसकी सुगंध कण-कण में समाई हुई है। (जैसे पानी चंदन में मिलकर उसकी सुगंध को और फैलाता है, वैसे ही मैं आपके नाम से जुड़कर आपके गुणों में लीन हो गया हूँ)।
"प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥" - हे प्रभु, आप घने बादल हैं और मैं जंगल में नाचने वाला मोर हूँ, जैसे चकोर चंद्रमा को निहारता रहता है। (जैसे मोर बादलों को देखकर प्रसन्न होता है और चकोर चांद को देखता है, वैसे ही मैं आपकी भक्ति में लीन हूँ)।
"प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती॥" - हे प्रभु, आप दीपक हैं और मैं उसकी बाती हूँ, जिसकी ज्योति दिन-रात जलती रहती है। (अर्थात्, आप ही मेरे प्रकाश स्रोत हैं और मैं आपकी भक्ति में जलता रहता हूँ)।
"प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहि मिलत सुहागा॥" - हे प्रभु, आप मोती हैं और मैं धागा हूँ, जैसे सोने के साथ सुहागा मिलकर उसे और शुद्ध करता है। (धागा मोतियों को एक माला में पिरोता है, जैसे मैं आपकी भक्ति में जुड़कर पूर्णता प्राप्त कर रहा हूँ)।
"प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै 'रविदास'॥" - हे प्रभु, आप स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ, रविदास ऐसी ही भक्ति करते हैं। (यह पद रविदास जी की अनन्य भक्ति और स्वयं को ईश्वर का सेवक मानने की भावना को दर्शाता है)।
1. 'रैदास' कहै जाकौ जस होई:
रैदास कहै जाकौ जस होई।
जाति-पाँति के फंद छूटै, मन माया की फाँस टूटै।
आपा मेटि मिलैं संसोई॥
ऊँच-नीच के बंध कटैं, समता की रसधार बटैं।
तब ही राम नाम से प्रीति होइ॥
अर्थ :
"रैदास कहै जाकौ जस होई।": रविदास कहते हैं कि जिसका यश होता है (यानी जो प्रभु का गुणगान करता है या सच्चा भक्त होता है)।
"जाति-पाँति के फंद छूटै, मन माया की फाँस टूटै।": उसके लिए जाति और पाँति के सभी बंधन टूट जाते हैं, और मन पर माया का जो फंदा है, वह भी टूट जाता है।
"आपा मेटि मिलैं संसोई॥": जब व्यक्ति अपना 'आपा' (अहंकार, स्वयं का भाव) मिटा देता है, तभी वह प्रभु के साथ सहज रूप से मिल पाता है।
"ऊँच-नीच के बंध कटैं, समता की रसधार बटैं।": ऊँच-नीच के सभी बंधन कट जाते हैं, और समानता की रसधारा (प्रेम और भाईचारे का भाव) प्रवाहित होने लगती है।
"तब ही राम नाम से प्रीति होइ॥": तभी (इस अवस्था को प्राप्त करने के बाद ही) व्यक्ति को सच्चे अर्थों में राम नाम से (ईश्वर से) प्रेम होता है।
यह पद रविदास जी के सामाजिक समरसता और अहंकार-त्याग के दर्शन को दर्शाता है।
2. हरि सो हीरा छाँड़ि कै, करै आन की आस:
हरि सो हीरा छाँड़ि कै, करै आन की आस।
ते नर पापी मूढ़ हैं, जनम जनम उठैं फाँस॥
जाति-जाति में जाति है, जो केतन के पात।
रैदास मनुष न जुड़ सकै, जब तक जाति न जात॥
अर्थ :
"हरि सो हीरा छाँड़ि कै, करै आन की आस। ते नर पापी मूढ़ हैं, जनम जनम उठैं फाँस॥": जो व्यक्ति भगवान (हरि) जैसे हीरे को छोड़कर किसी और से आशा करता है (यानी भौतिक वस्तुओं या क्षणिक सुखों के पीछे भागता है), वे पापी और मूर्ख हैं। ऐसे लोग जन्म-जन्मांतर तक दुखों के फंदों में फँसे रहते हैं।
"जाति-जाति में जाति है, जो केतन के पात। रैदास मनुष न जुड़ सकै, जब तक जाति न जात॥": (यह उनकी जाति-विरोधी सबसे सीधी और सशक्त पंक्तियों में से एक है) जातियों के भीतर भी जातियाँ हैं, जैसे केले के पत्ते में परत-पर-परत होती है (यानी जाति व्यवस्था जटिल और अंतहीन है)। रविदास कहते हैं कि मनुष्य तब तक एक दूसरे से सच्चे अर्थों में जुड़ नहीं सकता, जब तक यह जाति (भेदभाव) खत्म नहीं हो जाती।
यह पद उनकी ईश्वर पर पूर्ण विश्वास और जातिवाद के प्रति उनकी घृणा को स्पष्ट करता है।
3. जाति ओछी, करम भी ओछा:
जाति ओछी, करम भी ओछा, ओछा कुल हमारा।
नाम जपां प्रभु तेरी चरणीं, हरि ने लीन्हा उबारा॥
मेरी जाति कुटबांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा।
अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाई।
रविदास दास उदास ढेडवंता।।
अर्थ :
"जाति ओछी, करम भी ओछा, ओछा कुल हमारा।": मेरी जाति निम्न है, मेरे कर्म भी निम्न माने जाते हैं, और मेरा कुल भी नीचा माना जाता है।
"नाम जपां प्रभु तेरी चरणीं, हरि ने लीन्हा उबारा॥": (लेकिन) मैं तो केवल प्रभु के नाम का जप करता हूँ और आपकी शरण में हूँ, और भगवान ने मुझे (इस जातिगत बंधन और निम्नता के भाव से) उबार लिया है।
"मेरी जाति कुटबांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा।": मेरी जाति के लोग और मेरा परिवार बनारस के आस-पास रोज़ जानवरों (मरे हुए) को ढोने का काम करते थे (जो उस समय निम्नतम कार्य माना जाता था)।
"अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाई।": (लेकिन) अब तो प्रमुख ब्राह्मण भी तेरी (प्रभु की) शरण में आने के कारण मुझे दण्डवत प्रणाम करते हैं।
"रविदास दास उदास ढेडवंता।।": रविदास (जो स्वयं को) उदास ढेड़ (अछूत) कहता था (वह अब प्रभु की कृपा से सम्मानित है)।
यह पद रविदास जी के व्यक्तिगत अनुभव को दर्शाता है कि कैसे ईश्वर की भक्ति ने उन्हें सामाजिक बाधाओं से ऊपर उठाया और उन्हें समाज में सम्मान दिलाया।
गुरु ग्रंथ साहिब में रविदास जी की कविताओं का स्थान
संत रविदास जी के 40 पद (शबद) सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। यह उनकी आध्यात्मिक गहराई और सार्वभौमिक संदेश की स्वीकृति का एक बड़ा प्रमाण है।
स्थान और महत्व:
'भगत बाणी' के अंतर्गत: गुरु ग्रंथ साहिब को विभिन्न रागों में व्यवस्थित किया गया है। गुरुओं की अपनी रचनाओं के बाद, 'भगत बाणी' (भक्तों की वाणी) नामक एक खंड है जहाँ विभिन्न संतों और भक्तों, जैसे कबीर, नामदेव, धन्ना, त्रिलोचन, और रविदास जी के पदों को संकलित किया गया है।
राग-वार संकलन: रविदास जी के पद गुरु ग्रंथ साहिब के विभिन्न रागों में पाए जाते हैं, जैसे:
सिरी राग (Sri Rag)
गउड़ी राग (Gauri Rag)
आसा राग (Asa Rag)
गूजरी राग (Gujri Rag)
सोरठि राग (Sorath Rag)
धनसारि राग (Dhanasari Rag)
जैतसरी राग (Jaitsri Rag)
सूही राग (Suhi Rag)
बिलावल राग (Bilawal Rag)
गोंड राग (Gond Rag)
रामकली राग (Ramkali Rag)
मारू राग (Maru Rag)
केदार राग (Kedar Rag)
भैरउ राग (Bhairao Rag)
बसांत राग (Basant Rag)
मलार राग (Malar Rag)
कानड़ा राग (Kanara Rag)
विषय वस्तु: गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित उनके पद मुख्य रूप से ईश्वर के नाम के महत्व, अहंकार के त्याग, जातिगत भेदभाव के खंडन, सच्ची भक्ति के स्वरूप और आंतरिक शुद्धि पर केंद्रित हैं। वे अक्सर अपनी निम्न सामाजिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी बताते हैं कि कैसे ईश्वर की कृपा से उन्होंने सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त की।
सांझा आध्यात्मिक धागा: सिखों के गुरुओं ने रविदास जी की शिक्षाओं को अपने दर्शन के साथ अत्यधिक संगत पाया। गुरुओं ने भी जातिवाद का खंडन किया और 'नाम सिमरन' (ईश्वर के नाम का स्मरण) के महत्व पर जोर दिया। इस समानता के कारण रविदास जी के पदों को गुरु ग्रंथ साहिब में स्थान मिला, जिससे यह स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक सत्य किसी जाति या सामाजिक स्थिति से बंधा नहीं है। यह गुरुओं की व्यापक दृष्टि और सभी सच्चे भक्तों के प्रति उनके सम्मान को भी दर्शाता है।
आपके स्रोतों के अनुसार, संत रविदास के 40 पद (शबद) सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। इन पदों का संपादन 16वीं शताब्दी में गुरु अर्जुन देव (साहिब) ने किया था।
हालांकि, दिए गए स्रोतों में गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल सभी 40 पदों के पूर्ण अर्थों के साथ पूरी सूची उपलब्ध नहीं है। स्रोतों में संत रविदास के कुछ प्रमुख पदों या उनके अंशों का उल्लेख उनके अर्थों या व्याख्याओं के साथ किया गया है।
यहाँ उन पदों और उनके अर्थों का विवरण दिया गया है जो आपके स्रोतों में उपलब्ध हैं:
- "नागर जनां मेरी जाति बिखिआत चमारं ॥ रिदै राम गोबिंद गुन सारं ॥१॥ रहाउ॥"
- अर्थ: हे नगर के लोगो! यह बात तो जानी-मानी है कि मेरी जाति चमार है (जिसे तुम लोग बहुत नीची समझते हो), पर मैं अपने हृदय में प्रभु के गुण याद करता रहता हूँ (इसलिए मैं नीच नहीं रह गया)।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा। अब बिप्र प्रधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाइ रविदासु दासा।"
- अर्थ: मेरी जाति के लोग (चमड़ा) कूटने और काटने वाले बनारस के इर्द-गिर्द रहते हैं और नित्य मरे पशु ढोते हैं; पर, (हे प्रभु!) उसी कुल में पैदा हुआ तेरा सेवक रविदास तेरे नाम की शरण आया है, उसको अब बड़े-बड़े ब्राह्मण नमस्कार करते हैं।
- "मिलत पिआरो प्रान नाथु कवन भगति ते ॥ साधसंगति पाई परम गते ॥ रहाउ॥"
- अर्थ: साधु-संगत में पहुँचकर मैंने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली है, (वरना) जिंद का साँई प्यारा प्रभु किसी और तरह की भक्ति से नहीं मिल सकता था।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "मैले कपरे कहा लउ धोवउ ॥ आवैगी नीद कहा लगु सोवउ ॥१॥"
- अर्थ: (साधु-संगत की इनायत से) अब मैंने पराई निंदा करनी छोड़ दी है, (सत्संग में रहने के कारण) ना मुझे अज्ञानता की नींद आएगी और ना ही मैं गाफिल होऊँगा।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "जोई जोई जोरिओ सोई सोई फाटिओ ॥ झूठै बनजि उठि ही गई हाटिओ ॥2॥"
- अर्थ: जो भी जोड़ा, वही फट गया। झूठे व्यापार में दुकान उठ गई।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "कहु रविदास भइओ जब लेखो ॥ जोई जोई कीनो सोई सोई देखिओ ॥3॥1॥3॥1293॥"
- अर्थ: रविदास कहते हैं, जब हिसाब-किताब हुआ, तो जो-जो किया था, वही-वही देखा।
- "बेगम पुरा सहर को नाउ ॥ दूखु अंदोहु नही तिहि ठाउ ॥ नां तसवीस खिराजु न मालु ॥ खउफु न खता न तरसु जवालु ॥1॥"
- अर्थ: मेरे शहर का नाम बेगमपुरा है, जहाँ न दुख है, न दुख की चिंता, न माल है, न लगान की फिक्र। न खौफ है, न खता, न गिरने का भय। यह संत रविदास के समता मूलक स्वप्न का साकार रूप है, जहाँ कोई दुख, चिंता, गम नहीं है।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "अब मोहि खूब वतन गह पाई ॥ ऊहां खैरि सदा मेरे भाई ॥1॥ रहाउ ॥"
- अर्थ: अब मुझे खूब वतन (घर) मिल गया है। वहाँ हमेशा खैर (कल्याण) है, मेरे भाई।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "काइमु दाइमु सदा पातिसाही ॥ दोम न सेम एक सो आही ॥ आबादानु सदा मसहूर ॥ ऊहां गनी बसहि मामूर ॥2॥"
- अर्थ: वहाँ की बादशाहत हमेशा कायम और स्थायी है। न कोई द्वितीय है, न कोई तीसरा, सब एक समान हैं। वह हमेशा आबाद और मशहूर है। वहाँ धनी (संत) भरे रहते हैं।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै ॥ महरम महल न को अटकावै ॥ कहि रविदास खलास चमारा ॥ जो हम सहरी सु मीतु हमारा ॥3॥2॥345॥"
- अर्थ: जैसे चाहें वैसे भ्रमण करें, कोई महल में आने-जाने से नहीं रोकता। रविदास चमार कहता है, जो मेरे शहर का है, वही मेरा मित्र है।
- "जल की भीति पवन का थ्मभा रक्त बुंद का गारा ॥ हाड मास नाड़ीं को पिंजरु पंखी बसै बिचारा ॥1॥"
- अर्थ: यह शरीर जल की दीवार, हवा का खंभा, रक्त की बूंदों का गारा है। हड्डियों और मांस का पिंजरा है जिसमें बेचारा पक्षी (आत्मा) रहता है।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "प्रानी किआ मेरा किआ तेरा ॥ जैसे तरवर पंखि बसेरा ॥1॥ रहाउ ॥"
- अर्थ: हे प्राणी, क्या मेरा और क्या तेरा? जैसे वृक्ष पर पक्षी का बसेरा।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "राखहु कंध उसारहु नीवां ॥ साढे तीनि हाथ तेरी सीवां ॥2॥"
- अर्थ: तू दीवारें बनाता है, नींव उठाता है, (पर) तेरी सीमा केवल साढ़े तीन हाथ है।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "बंके बाल पाग सिरि डेरी ॥ इहु तनु होइगो भसम की ढेरी ॥3॥"
- अर्थ: सुंदर बाल, सिर पर पगड़ी का ढेर (लगता है), यह शरीर राख की ढेरी हो जाएगा।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "ऊचे मंदर सुंदर नारी ॥ राम नाम बिनु बाजी हारी ॥4॥"
- अर्थ: ऊँचे महल, सुंदर नारी (होने पर भी), राम नाम के बिना बाजी हार जाएगा।
- (उपरोक्त पद का विस्तार): "मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा ॥ तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा ॥5॥6॥659॥"
- अर्थ: मेरी जाति नीची है, मेरी पंक्ति नीची है, मेरा जन्म हीन है। रविदास चमार कहता है, मैं राजा राम चंद्र की शरण में हूँ।
- "सह की सार सुहागनि जानै ॥ तजि अभिमानु सुख रलीआ मानै ॥"
- अर्थ: पति के महत्व को सुहागिन स्त्री जानती है। अभिमान त्याग कर सुख का आनंद लेती है।
- "जो दिन आवहि सो दिन जाही ॥ करना कूचु रहनु थिरु नाही ॥"
- अर्थ: जो दिन आते हैं, वे चले जाते हैं। कूच करना है, ठहरना स्थायी नहीं है।
- "ऊचे मंदर साल रसोई ॥ एक घरी फुनि रहनु न होई ॥1॥"
- अर्थ: ऊँचे महल और रसोई (होते हुए भी), एक घड़ी भी रहना नहीं होता।
- "दारिदु देखि सभ को हसै ऐसी दसा हमारी ॥ असट दसा सिधि कर तलै सभ क्रिपा तुमारी ॥1॥"
- अर्थ: मेरी ऐसी दशा है कि गरीबी देखकर सब हंसते हैं। अठारह सिद्धियाँ मेरे हाथ में हैं, यह सब आपकी कृपा है।
- "जिह कुल साधु बैसनौ होइ ॥ बरन अबरन रंकु नही ईसुरु बिमल बासु जानीऐ जगि सोइ ॥1॥ रहाउ ॥"
- अर्थ: जिस कुल में साधु वैष्णव होता है, चाहे वह किसी भी वर्ण या जाति का हो, गरीब या धनी हो, उसकी निर्मल सुगंध संसार में जानी जाती है।
- "मुकंद मुकंद जपहु संसार ॥ बिनु मुकंद तनु होइ अउहार ॥"
- अर्थ: हे संसार के लोगो, मुकुंद (मुक्ति देने वाले) का जाप करो। मुकुंद के बिना यह शरीर व्यर्थ हो जाता है।
- "पड़ीऐ गुनीऐ नामु सभु सुनीऐ अनभउ भाउ न दरसै ॥ लोहा कंचनु हिरन होइ कैसे जउ पारसहि न परसै ॥1॥"
- अर्थ: चाहे कितना भी पढ़ो, गुणगान करो, नाम सुनो, लेकिन जब तक वास्तविक अनुभव और प्रेम प्रकट नहीं होता, तब तक क्या लाभ? लोहा सोना कैसे बन सकता है यदि वह पारस (स्पर्श पत्थर) को न छुए।
- "ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै ॥ गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥1॥ रहाउ ॥"
- अर्थ: हे मेरे प्यारे! तेरे बिना ऐसा कौन कर सकता है? मेरा गरीब नवाज (गरीबों पर दया करने वाला) ईश्वर मेरे माथे पर छत्र धारण करता है।
- "सुख सागर सुरितरु चिंतामनि कामधेन बसि जा के रे ॥ चारि पदार्थ असट महा सिधि नव निधि कर तल ता कै ॥1॥"
- अर्थ: सुख का सागर, कल्पवृक्ष, चिंतामणि और कामधेनु जिसके वश में हैं। चारों पदार्थ, अष्ट महासिद्धियाँ और नौ निधियाँ उसके हाथ में हैं।
- "खटु करम कुल संजुगतु है हरि भगति हिरदै नाहि ॥ चरनारबिंद न कथा भावै सुपच तुलि समानि ॥1॥"
- अर्थ: जो छह कर्मों (ब्राह्मणों के कर्म) से युक्त है, लेकिन जिसके हृदय में हरि भक्ति नहीं है, जिसे कमल के समान चरणों की कथा पसंद नहीं है, वह चांडाल के समान है।
- "जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात, रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।"
- अर्थ: जाति-पाति का भेदभाव समाज में कृत्रिम रूप से बनाया गया है। असली इंसान वही है जो जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करता।
- "मन चंगा तो कठौती में गंगा।"
- अर्थ: यदि मन पवित्र और निर्मल है, तो किसी भी स्थान पर किया गया कार्य पवित्र ही होगा। बाहरी आडंबरों की बजाय आंतरिक शुद्धता अधिक महत्वपूर्ण है।
- "ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न। छोट-बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।"
- अर्थ: संत रविदास एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ कोई भूखा न रहे, सब समान हों और किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो।
- "कह रैदास खालिक सब, एक राम करिम। रहमान रहीम करीम कह, हिंदू तुरक न भेद।।"
- अर्थ: ईश्वर सबके लिए एक समान है, चाहे कोई उसे राम कहें या रहीम। हिंदू और मुस्लिम का भेद सिर्फ मानव निर्मित है, ईश्वर के लिए सब समान हैं।
- "अब कैसे छूटै राम नाम रट लागा। मैं तो राम रतन धन पायो।।"
- अर्थ: जब एक बार भक्त को राम नाम की लगन लग जाती है, तो वह सांसारिक मोह-माया से मुक्त होकर केवल ईश्वर के प्रेम में लीन हो जाता है।
- "हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा। दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।"
- अर्थ: हिंदू और तुर्क में कोई भेद नहीं है, सभी में एक ही रक्त और मांस है। दोनों एक ही हैं, कोई दूसरा नहीं, रविदास ने ऐसा देखा है।
- "कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।"
- अर्थ: कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव - जब तक एक को नहीं देखा, तब तक वेद, किताबें, कुरान, पुराणों में भी सहज एक को नहीं देखा।
- "रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं। तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।"
- अर्थ: रविदास कहते हैं कि जैसे सोना और कंगन में कोई अंतर नहीं है, वैसे ही हिंदू और तुर्क में भी कोई अंतर नहीं है।
- "ब्राह्मण को मत पूजिए जो होवे गुणहीन। पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीन।।"
- अर्थ: गुणहीन ब्राह्मण की पूजा मत करो, बल्कि गुणवान चांडाल के चरणों की पूजा करो। संत रविदास इस बात के पक्षधर थे कि कर्म के आधार पर व्यक्ति को सम्मान मिलना चाहिए, न कि जन्म के आधार पर।
संत रविदास के दर्शन का मूल वर्ण व्यवस्था और सामाजिक गैर-बराबरी को चुनौती देना था, हालांकि कबीर की तरह प्रत्यक्ष चुनौती नहीं, बल्कि वे अपनी जाति को रेखांकित करते हुए कहते थे कि भले ही मेरी जाति कुछ भी हो, वास्तविक धार्मिकता मेरे भीतर है। वे अनिवार्य रूप से अपनी कविताओं के अंत में "कहि रैदास खलास चमारा" (रैदास चमार यह बात कह रहा है) जोड़ते थे, जो कबीर की रचनाओं में इस अनिवार्यता से नहीं मिलता। उनका मानना था कि मनुष्य जन्म से नीच नहीं होता, बल्कि बुरे कर्म उसे नीच बनाते हैं।
वे जन्म और जाति के आधार पर भेदभाव के कट्टर विरोधी थे और उनका संदेश था कि सभी प्राणी समान हैं क्योंकि सभी में ईश्वर की ज्योति निवास करती है। वे मूर्तिपूजा, सामाजिक आडंबरों, और पशुबलि जैसे कर्मकांडों का खुलकर विरोध करते थे। उनका मानना था कि ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं, बल्कि कण-कण में विद्यमान है। वे राम नाम के स्मरण को सर्वोच्च महत्व देते थे।
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