तृप्तिदीप: संतोष पर प्रकाश
पञ्चदशी का सातवां अध्याय 'तृप्तिदीप' है, जिसका अर्थ है 'संतोष पर प्रकाश'। यह अध्याय इस बात पर विचार करता है कि वास्तविक संतोष क्या है और यह कैसे प्राप्त होता है।
आत्मानं चेत् विजानीयात् अयमस्मीति पुरुषः, किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् (1)।
अनुवाद: "यदि कोई पुरुष अपनी आत्मा को 'मैं यही हूँ' जानकर पहचान लेता है, तो वह किस वस्तु की इच्छा करता हुआ, किसके लिए, इस शरीर के पीछे दुख भोगता फिरेगा?"
व्याख्या: यह श्लोक बृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। यह प्रश्न उठाता है कि जब कोई व्यक्ति यह जान लेता है कि वह स्वयं ही सब कुछ है, तो उसे दुनिया में किसी और चीज की इच्छा क्यों होगी? जब हम चारों ओर से ब्रह्म से घिरे हुए हैं, जो सभी सुखों का स्रोत है, तो दुनिया की तुच्छ वस्तुओं की इच्छा करना ऐसा है, जैसे कोई मछली सागर के बीच में होकर पानी मांग रही हो। आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति के लिए यह स्थिति असंभव है।
अस्य श्रुतेरभिप्रायः सम्यगत्र विचार्यते, जीवन्मुक्तस्य या तृप्तिः सा तेन विशदायते (2)।
अनुवाद: "इस श्रुति (उपनिषद) का अभिप्राय यहाँ ठीक से विचार किया जा रहा है। जीवन्मुक्त को जो तृप्ति (संतोष) होती है, वह इससे स्पष्ट होती है।"
व्याख्या: यह श्लोक अध्याय का उद्देश्य बताता है। यह अध्याय इसी उपनिषद के महावाक्य के गहरे अर्थ की पड़ताल करेगा। इसका उद्देश्य यह समझाना है कि जीवन्मुक्त व्यक्ति को किस प्रकार का संतोष प्राप्त होता है।
माययाऽभासेन जीवेशौ करोतीति श्रुतत्वात्, कल्पितावेव जीवेशौ ताभ्यां सर्वं प्रकल्पितम् (3)।
अनुवाद: "यह सुना गया है कि माया के आभास (प्रतिबिंब) से जीव और ईश्वर बनते हैं। ये जीव और ईश्वर दोनों कल्पित (कल्पना मात्र) हैं और इन्हीं से सब कुछ कल्पित हुआ है।"
व्याख्या: यह श्लोक छठे अध्याय के एक श्लोक के समान ही है। यह बताता है कि ईश्वर और जीव दोनों ही एक ही ब्रह्म चेतना के दो प्रतिबिंब हैं, जो माया के गुणों से उत्पन्न होते हैं।
ईश्वर: ब्रह्म का शुद्ध सत्त्व गुण वाला प्रतिबिंब। वह सृष्टि की संचालक शक्ति है।
जीव: ब्रह्म का रजस और तमस गुण वाला प्रतिबिंब। वह संसार के दुख-सुख भोगने वाला है।
संक्षेप में, पूरी दुनिया ईश्वर की सृजन शक्ति और जीवों के भोग-विलास और दुखों का एक नाटक मात्र है।
ईश्वर-सृष्टि और जीव-सृष्टि
ईक्षणादि प्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन कल्पिता, जाग्रदादि विमोक्षान्तः संसारो जीवकल्पितः (4)।
अनुवाद: "ईक्षण (संकल्प) से लेकर (परमात्मा के) प्रवेश तक की सृष्टि ईश्वर द्वारा कल्पित है। जाग्रत अवस्था से लेकर मोक्ष तक का संसार जीव द्वारा कल्पित है।"
व्याख्या: यह श्लोक सृष्टि को दो भागों में विभाजित करता है:
ईश्वर-सृष्टि: यह सृष्टि ईश्वर द्वारा बनाई गई है। यह ब्रह्म के संकल्प से शुरू होकर, हिरण्यगर्भ, ईश्वर, पंचभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) और अंत में चेतना के हर वस्तु में प्रवेश करने तक का क्रम है। यह एक क्रमबद्ध और सार्वभौमिक सृष्टि है, जो बाहरी नहीं है, बल्कि चेतना से ओत-प्रोत है।
जीव-सृष्टि: यह सृष्टि व्यक्तिगत जीव द्वारा बनाई गई है। जब जीव अपनी सार्वभौमिक चेतना से अलग हो जाता है, तो वह बाहरी दुनिया को वास्तविक मानने लगता है। यह जाग्रत अवस्था से शुरू होकर, स्वप्न और सुषुप्ति के चक्र में फँस जाता है। यह चक्र ही संसार है, जो जीव के अपने भ्रम के कारण उत्पन्न होता है।
पुरुष कौन है?
भ्रमाधिष्ठानभूतात्मा कूटस्थाऽसंगचिद्वपुः, अन्योन्याध्यासतोऽसङ्गधीस्थो जीवोऽत्र पुरुषः (5)।
अनुवाद: "भ्रम का अधिष्ठान (आधार) आत्मा, जो कूटस्थ और असंग (अनासक्त) चेतना स्वरूप है, और उस असंग (अनासक्त) बुद्धि में स्थित जीव, इन दोनों के आपसी अध्यास (आरोप) के कारण, यहाँ 'पुरुष' शब्द से संदर्भित होता है।"
व्याख्या: इस श्लोक में यह समझाया गया है कि उपनिषद के मंत्र में जिस 'पुरुष' शब्द का प्रयोग किया गया है, वह कौन है। यह पुरुष कोई और नहीं, बल्कि जीव ही है, जो आत्मज्ञान की इच्छा रखता है।
जीव की मूल प्रकृति कूटस्थ चैतन्य (स्थिर और असंग चेतना) है, लेकिन अन्योन्याध्यास (आपसी आरोपण) के कारण वह स्वयं को भूल जाता है।
जीव की सीमितता का आरोपण कूटस्थ पर: इस आरोपण के कारण, जीव यह महसूस करता है कि वह छोटा, सीमित, और कमजोर है।
कूटस्थ की सार्वभौमिकता का आरोपण जीव पर: इस आरोपण के कारण, जीव यह महसूस करता है कि वह शाश्वत है और कभी मरेगा नहीं।
इसी आपसी आरोपण के कारण ही जीव उत्पन्न होता है। उपनिषद में यही जीव 'पुरुष' कहलाता है।
मोक्ष का अधिकारी कौन है?
साधिष्ठानो विमोक्षादौ जीवोऽधिक्रियते न तु, केवलो निरधिष्ठानविभ्रान्तेः क्वाप्यसिद्धितः (6)।
अनुवाद: "मोक्ष आदि का अधिकारी वह जीव है, जो अधिष्ठान (आधार) सहित है, न कि केवल शुद्ध चैतन्य। क्योंकि बिना आधार के भ्रम कहीं भी सिद्ध नहीं हो सकता।"
व्याख्या: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि मोक्ष की इच्छा कूटस्थ चैतन्य (शुद्ध, असंग चेतना) को नहीं होती। कूटस्थ तो पहले से ही मुक्त है। यह जीव है, जो मोक्ष की कामना करता है। जीव वह है जो कूटस्थ पर आरोपित होता है और जीवन के सुख-दुख को अनुभव करता है। जैसे घड़े में स्थित आकाश नहीं, बल्कि घड़े के पानी में प्रतिबिंबित आकाश ही मुक्ति की इच्छा करता है।
जीव का अहंकार
अधिष्ठानांशसंयुक्तं भ्रमांशमवलम्बते, यदा तदाऽहं संसारीति एवं जीवोऽभिमन्वते (7)। भ्रमांशस्य तिरस्कारादधिष्ठानप्रधानता, यदा तदा चिदात्माऽहमसंगोऽस्मीति बुध्यते (8)।
अनुवाद: "जब जीव अधिष्ठान (कूटस्थ) के अंश के साथ भ्रमांश (अहंकार) को पकड़ लेता है, तब वह 'मैं संसारी हूँ' ऐसा मानता है। जब भ्रमांश का तिरस्कार करके अधिष्ठान की प्रधानता होती है, तब वह 'मैं चिदात्मा हूँ, असंग हूँ' ऐसा समझता है।"
व्याख्या: ये श्लोक बताते हैं कि जब जीव कूटस्थ के आधार पर स्वयं को अहंकार से जोड़ लेता है, तो उसे लगता है कि वह संसारी है और दुखी है। लेकिन जब वह ध्यान और आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम से इस भ्रम को दूर करता है, तो वह महसूस करता है कि उसका वास्तविक स्वरूप कूटस्थ चैतन्य है, जो असंग और आनंदमय है।
अहंकार के तीन प्रकार
नाऽसंगेऽहंकृतिर्युक्ता कथंऽस्मीति चेच्छृणु, मुख्यो द्वौ चाऽमुख्यौ इत्यर्थस्त्रिविधोऽहमः (9)।
अनुवाद: "असंग (अनासक्त) में अहंकार कैसे उचित है, 'मैं' कैसा है, यह सुनो। 'अहं' तीन प्रकार का होता है - एक मुख्य और दो अमुख्य।"
व्याख्या: यह श्लोक अहंकार के स्वरूप को समझने के लिए एक प्रश्न उठाता है कि असंग चेतना में अहंकार कैसे उत्पन्न होता है। इसके उत्तर में, अहंकार के तीन प्रकार बताए गए हैं:
'मैं यह शरीर हूँ' (मुख्य अहंकार): यह बंधन का कारण है।
'मैं कुछ नहीं हूँ' (अमुख्य अहंकार): यह विनम्रता की भावना है।
'मैं सब कुछ हूँ' (अमुख्य अहंकार): यह आत्मज्ञान की भावना है।
शंकराचार्य और उनके शिष्य की कहानी यह बताती है कि या तो अहंकार को अनंत तक फैलाओ ('मैं सब कुछ हूँ') या उसे पूरी तरह नष्ट कर दो ('मैं कुछ नहीं हूँ'), लेकिन उसे सीमित मत करो ('मैं कुछ हूँ')।
चिदाभास और अहंकार
अन्योन्याध्यासरूपेण कूटाभासयोर्वपुः, एकीभूय भवेन्मुख्यस्तत्र मूढैः प्रयुज्यते (10)।
अनुवाद: "कूटस्थ और आभास (प्रतिबिंब) के बीच आपसी आरोपण से जो एकरूपता होती है, वही मुख्य अहंकार बन जाता है, जिसका प्रयोग मूर्खों द्वारा किया जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक मुख्य अहंकार के उद्भव को समझाता है। चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) जब कूटस्थ के साथ आपसी आरोपण से जुड़ जाता है, तो अहंकार उत्पन्न होता है।
चिदाभास वह चेतना है जो बुद्धि के माध्यम से प्रतिबिंबित होती है।
जैसे ही कूटस्थ की चेतना बुद्धि के माध्यम से प्रतिबिंबित होती है, अहंकार का जन्म होता है। ये दोनों अविभाज्य हैं। जब चिदाभास होता है, तो अहंकार भी होता है।
अहंकार के प्रकार और ज्ञानी का 'मैं'
पृथगाभासकूटस्थौ अमुखौ तत्र तत्त्ववित्, पर्यायेण प्रयुङ्क्तेऽहं शब्दं लोके च वैदिके (11)।
अनुवाद: "ज्ञानी व्यक्ति लोक और वेद में 'मैं' शब्द का प्रयोग क्रमशः आभास और कूटस्थ के लिए करता है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि ज्ञानी व्यक्ति भी 'मैं' शब्द का प्रयोग करता है, लेकिन उसका अर्थ अलग होता है। वह लौकिक व्यवहार में 'मैं' शब्द का प्रयोग शरीर से संबंधित कार्यों के लिए करता है (जैसे, 'मैं आ रहा हूँ'), जो चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) से जुड़ा होता है। वहीं, आध्यात्मिक संदर्भ में, वह 'मैं' शब्द का प्रयोग कूटस्थ चैतन्य (शुद्ध, असंग चेतना) के लिए करता है।
लौकिकव्यवहारेऽहं गच्छामीत्यादिके बुधः, विविच्चैव चिदाभासं कूटस्थात्तं विविक्षिति (12)।
अनुवाद: "लौकिक व्यवहार में, 'मैं जा रहा हूँ' आदि में ज्ञानी व्यक्ति चिदाभास को कूटस्थ से अलग जानता है और उसे अलग ही देखता है।"
व्याख्या: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि ज्ञानी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत चेतना (चिदाभास) और शाश्वत चेतना (कूटस्थ) के बीच के अंतर को जानता है। वह जानता है कि शरीर से जुड़े कार्य चिदाभास के हैं, न कि उसकी वास्तविक आत्म-सत्ता के।
असंगोऽहं चिदात्माऽहम् इति शास्त्रीयदृष्टितः, अहं शब्दं प्रयुङ्क्तेऽयं कूटस्थे केवले बुधः (13)।
अनुवाद: "शास्त्रों की दृष्टि से, 'मैं असंग हूँ', 'मैं चिदात्मा हूँ', इस प्रकार ज्ञानी व्यक्ति 'अहं' शब्द का प्रयोग केवल कूटस्थ के लिए करता है।"
व्याख्या: ज्ञानी व्यक्ति का 'मैं' शुद्ध अहंकार है, जो शास्त्रों के अध्ययन और गहन मनन से उत्पन्न होता है। यह अहंकार 'मैं शुद्ध चेतना हूँ' की भावना पर आधारित है। यह सामान्य अहंकार से पूरी तरह अलग है।
ज्ञान और अज्ञान का स्वरूप
ज्ञानिताज्ञनित्वे त्वाभासस्यैव न चात्मनः, तथा च कथमाभासः कूटस्थोऽस्मीति बुध्यताम् (14)।
अनुवाद: "ज्ञान और अज्ञान तो चिदाभास के गुण हैं, न कि आत्मा (कूटस्थ) के। फिर भी चिदाभास यह कैसे समझता है कि 'मैं कूटस्थ हूँ'?"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि ज्ञान और अज्ञान दोनों ही चिदाभास (बुद्धि में प्रतिबिंबित चेतना) के लक्षण हैं। कूटस्थ (आत्मा) न तो अज्ञानी है और न ही उसे जानने की इच्छा होती है। इसलिए, सत्य को जानने और न जानने की संभावना केवल चिदाभास में ही होती है।
नायं दोषश्चिदाभासः कूटस्थैकस्वभाववान्, आभासत्वस्य मिथ्यात्वात् कूटस्थत्वावशेषणात् (15)।
अनुवाद: "यह कोई दोष नहीं है कि चिदाभास यह समझता है कि वह कूटस्थ है। क्योंकि आभास (चिदाभास) मिथ्या है, और अंत में केवल कूटस्थ ही शेष रहता है।"
व्याख्या: चिदाभास, जो बुद्धि का प्रतिबिंब है, मिथ्या है। जब यह आभास समाप्त हो जाता है, तो केवल कूटस्थ ही शेष रह जाता है। कूटस्थ सूर्य की तरह असंग है। जैसे सूर्य के प्रकाश के कारण दुनिया में हर गतिविधि होती है, फिर भी वह स्वयं अप्रभावित रहता है, उसी तरह कूटस्थ चैतन्य के कारण ही चिदाभास, अहंकार और शरीर कार्य करते हैं, लेकिन कूटस्थ स्वयं उनसे पूरी तरह अलग है। चिदाभास की प्रकृति व्यक्ति-व्यक्ति के प्रारब्ध कर्मों के कारण भिन्न होती है, यही कारण है कि अहंकार की भावना भी हर व्यक्ति में अलग होती है।
कूटस्थोऽस्मीति बोधोऽपि मिथ्या चेन्नेति को वदेत्, न हि सत्यतयाभीष्टं रज्जुसर्पविसर्पणम् (16)।
अनुवाद: "यदि 'मैं कूटस्थ हूँ' यह बोध भी मिथ्या हो, तो कौन कहेगा कि ऐसा नहीं है? क्योंकि रस्सी में दिखे साँप का भागना सत्य नहीं माना जाता।"
व्याख्या: यह श्लोक एक गहरा दार्शनिक प्रश्न उठाता है: ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है? यदि ज्ञान किसी व्यक्ति के प्रयास से आता है, तो उस प्रयास के लिए भी कुछ ज्ञान की आवश्यकता होती है। तो यह चक्र कहाँ से शुरू होता है?
शंकराचार्य जैसे महान दार्शनिकों ने भी इस प्रश्न का कोई सीधा उत्तर नहीं दिया। इसका कोई तार्किक कारण नहीं है। इस तरह के मामलों में, अक्सर ईश्वर की कृपा को ही कारण माना जाता है।
यह श्लोक इस बात पर भी विचार करता है कि मोक्ष कौन प्राप्त करता है। कूटस्थ चैतन्य (शुद्ध आत्मा) को मोक्ष की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह पहले से ही मुक्त है। शरीर और मन भी मोक्ष प्राप्त नहीं करते, क्योंकि वे विलीन हो जाते हैं। तो फिर कौन प्राप्त करता है?
जीव ही मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखता है, लेकिन जीव अपने आप में कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यह कूटस्थ और पंचकोशों (शरीर, मन आदि) के बीच का एक अस्थायी संबंध है।
'जीव' का रहस्य
स्वामी शिवानंदजी महाराज की कहानी इस 'जीव' की विचित्र स्थिति को समझाती है।
एक शादी की दावत में एक अजनबी व्यक्ति, न तो लड़की वालों की तरफ से और न ही लड़के वालों की तरफ से, दोनों पार्टियों के बीच के भ्रम का फायदा उठाता है।
वह सोचता है कि दूसरी पार्टी का सदस्य होगा, और दूसरा भी यही सोचता है।
इस प्रकार, वह बिना किसी के पूछे, वहाँ कई दिनों तक खाता-पीता और मौज करता रहा। जब उससे पूछा गया कि वह कौन है, तो वह भाग गया।
यह जीव भी कुछ ऐसा ही है: यह न तो परम ब्रह्म का है, न ही भौतिक संसार का। फिर भी यह इन दोनों के बीच के भ्रम का फायदा उठाकर संसार में रहता है।
मोक्ष का स्वरूप
जिस प्रकार सपने में एक व्यक्ति को शेर का डर लगता है और वह चिल्लाकर जाग जाता है, तो शेर और उसका गर्जन दोनों ही झूठे थे, लेकिन जागना असली था।
उसी तरह, संसार और उसके दुख-सुख भी मायावी हैं, लेकिन उन सब से जागना (मोक्ष) ही वास्तविक है।
मोक्ष कोई 'अस्तित्व' नहीं है, बल्कि यह अज्ञान के भ्रम से जागना है।
सपने का उदाहरण
आपके दिए गए उदाहरण में, एक व्यक्ति सपने में शेर के गरजने से डरकर जाग जाता है।
अवास्तविक कारण: सपने का शेर और उसकी गर्जना। ये दोनों केवल कल्पना में थे, वास्तविक नहीं।
वास्तविक प्रभाव: डर से व्यक्ति का जागना। यह एक वास्तविक शारीरिक प्रतिक्रिया है।
यह दर्शाता है कि एक मानसिक या काल्पनिक घटना, जो एक निश्चित स्तर पर अवास्तविक है, दूसरे स्तर पर एक ठोस, वास्तविक प्रभाव उत्पन्न कर सकती है।
बीमार बच्चे का उदाहरण
एक बच्चा गलती से सोचता है कि उसने छिपकली निगल ली है।
अवास्तविक कारण: छिपकली को निगलने का भ्रम। वास्तव में, छिपकली दीवार पर ही थी।
वास्तविक प्रभाव: डर के कारण बच्चे का उल्टी करना और बीमार पड़ जाना।
यहाँ, बच्चे का अनुभव उसके लिए पूरी तरह से वास्तविक था, लेकिन इसका कारण पूरी तरह से काल्पनिक था। जब बच्चे ने असलियत देखी (कि छिपकली दीवार पर है), तो उसका वास्तविक अनुभव तुरंत समाप्त हो गया।
वास्तविकता के स्तर
यह प्रश्न अद्वैत वेदान्त के मूल सिद्धांतों से संबंधित है, जहाँ वास्तविकता के विभिन्न स्तरों का वर्णन किया गया है:
पारमार्थिक सत्ता (परम वास्तविकता): केवल ब्रह्म ही परम सत्य है। यह एकमात्र अंतिम वास्तविकता है।
व्यावहारिक सत्ता (व्यावहारिक वास्तविकता): यह वह दुनिया है जिसे हम अपनी इंद्रियों से अनुभव करते हैं। यह ब्रह्म की तुलना में अवास्तविक है, लेकिन हमारे दैनिक जीवन में यह वास्तविक प्रतीत होती है।
प्रातिभासिक सत्ता (भ्रामक वास्तविकता): यह वह वास्तविकता है जो हमारे भ्रम के कारण उत्पन्न होती है, जैसे रस्सी में साँप का दिखना या सपने में शेर का दिखना। यह सबसे निम्न स्तर की वास्तविकता है।
एक अवास्तविक कारण (प्रातिभासिक सत्ता) एक वास्तविक प्रभाव (व्यावहारिक सत्ता) उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि दोनों एक ही परम सत्य (ब्रह्म) के संदर्भ में अवास्तविक हैं। अद्वैत सिद्धान्त में, माया से उत्पन्न कोई भी कारण या कार्य पूर्णतः सत्य नहीं है, लेकिन इनका आपसी संबंध भ्रम को दूर करने के लिए काम आ सकता है।
गुरु का महत्व
गुरु के उपदेश की तुलना एक सपने के शेर की गर्जना से की गई है।
गुरु भी इसी मायावी संसार (सपने) का हिस्सा हैं, लेकिन उनके उपदेश (गर्जना) में इतनी शक्ति होती है कि वह हमें संसार के भ्रम (नींद) से जागा देती है, और हमें परम सत्य का अनुभव कराती है।
अवास्तविकता की श्रेणियां:
अत्यन्ताभाव (पूर्ण अभाव): जैसे मनुष्य के सिर पर सींग। यह कभी नहीं था, कभी नहीं है, और कभी नहीं होगा।
अन्योन्याभाव (सापेक्ष अभाव): जैसे रस्सी में साँप का दिखना। जब तक भ्रम है, तब तक वह मौजूद है; जब भ्रम टूटता है, तो वह गायब हो जाता है।
दुनिया की अवास्तविकता रस्सी में दिखे साँप के समान है - यह एक गलत धारणा (भ्रम) के कारण प्रतीत होती है।
सापेक्षिक उपचार और 'यक्षानुरूपो हि बलिः'
यह श्लोक एक महत्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न का उत्तर देता है: जब हमारा बंधन (संसार) एक अवास्तविक अनुभव है, तो उसे दूर करने के लिए हमें वास्तविक उपचारों (शास्त्रों, गुरु के उपदेश) की आवश्यकता क्यों है?
तादृशेनापि बोधेन संसारो हि निवर्तते, यक्षानुरूपो हि बलिः इत्याहुर्लौकिका जनाः (17)।
अनुवाद: "उस (अवास्तविक) ज्ञान से भी संसार का निवारण होता है। क्योंकि, जैसा यक्ष होता है, वैसी ही उसकी बलि (पूजा) होती है—ऐसा लौकिक लोग कहते हैं।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि हमारी अज्ञानता (संसार का बंधन) परम सत्य नहीं है, बल्कि यह एक सापेक्षिक वास्तविकता है। इसलिए, इसे दूर करने के लिए हमें एक परम सत्य उपचार की आवश्यकता नहीं है, बल्कि एक सापेक्षिक उपचार ही पर्याप्त है।
इस विचार को समझाने के लिए एक लोकप्रचलित कहावत का प्रयोग किया गया है: "यक्षानुरूपो हि बलिः" (जैसा यक्ष, वैसी बलि)।
यदि हम किसी शक्तिशाली देवता की पूजा करते हैं, तो हमें उसी के अनुरूप सामग्री चढ़ानी पड़ती है।
यदि हम किसी छोटे देवता (यक्ष) की पूजा करते हैं, तो उसकी पूजा भी उसी के अनुरूप होती है।
इस संदर्भ में, हमारी अज्ञानता एक यक्ष या राक्षस की तरह है। यह परम सत्य नहीं है, इसलिए इसे समाप्त करने के लिए परम सत्य की आवश्यकता नहीं होती।
शास्त्रों का अध्ययन, गुरु की सेवा और ध्यान जैसे उपचार, जो यद्यपि परम सत्य नहीं हैं, लेकिन अज्ञानता के सापेक्षिक स्तर पर काम करते हैं, इस अज्ञानता को दूर करने के लिए पर्याप्त हैं।
संसार का विरोधाभास
यह श्लोक इस विरोधाभास पर भी प्रकाश डालता है कि हम जिस संसार में रह रहे हैं, उसकी प्रकृति क्या है:
यदि संसार वास्तविक है, तो हम कभी इससे मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि वास्तविक चीजों को नष्ट नहीं किया जा सकता।
यदि संसार अवास्तविक है, तो हमें इसे नष्ट करने का प्रयास ही क्यों करना चाहिए?
इस विरोधाभास का समाधान यह है कि संसार न तो पूरी तरह से वास्तविक है और न ही पूरी तरह से अवास्तविक। यह अनिर्वाचनीय (अवर्णनीय) है।
यह एक रस्सी में साँप के भ्रम की तरह है। साँप अवास्तविक है, लेकिन उसके डर से कूदना वास्तविक है। यह एक ऐसी घटना है, जो सापेक्षिक रूप से वास्तविक और अवास्तविक दोनों है।
इसी तरह, हमारा बंधन और मुक्ति भी इसी तरह की सापेक्षिक वास्तविकताएँ हैं।
मोक्ष की आकांक्षा
तस्मादाभासपुरुषः सकूटस्थो विविच्चय तम्, कूटस्थोऽस्मीति विज्ञातुमर्हतीत्यभ्यधाच्छ्रुतिः (18)।
अनुवाद: "इसलिए, आभास रूपी पुरुष (जीव), कूटस्थ से उसे अलग कर, 'मैं कूटस्थ हूँ' यह जानने के योग्य है—ऐसा श्रुति (उपनिषद) कहती है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि जीव, जो कूटस्थ चैतन्य के प्रतिबिंब (चिदाभास) और पंचकोशों के बीच एक काल्पनिक इकाई है, वही मोक्ष की कामना करता है। यह जीव ही महसूस करता है कि वह बंधा हुआ है और इसीलिए मुक्ति की इच्छा रखता है। उपनिषद यही संदेश देते हैं कि जीव को अपने वास्तविक स्वरूप, जो कि असंग कूटस्थ है, को जानने का प्रयास करना चाहिए।
आत्मज्ञान की दृढ़ता
असन्दिग्धाविपर्यस्तबोधो देहात्मनीक्ष्यते, तद्वदत्र निर्णतुं अयमित्यभिधीयते (19)।
अनुवाद: "जिस तरह शरीर में असंदिग्ध और अविपरीत (निश्चित) ज्ञान देखा जाता है, उसी तरह यहाँ भी निश्चित करने के लिए 'अयं' (यह) कहा गया है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि हमें अपने शरीर के साथ अपनी पहचान पर कोई संदेह नहीं है। यह पहचान इतनी गहरी है कि हमें इसे सिद्ध करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। उसी तरह, ब्रह्म के साथ हमारी पहचान भी इतनी निश्चित होनी चाहिए कि उसमें कोई संदेह न रहे। ब्रह्म को जानने का मार्ग कठिन है, ठीक वैसे ही जैसे शरीर से हमारी पहचान बहुत दृढ़ है।
मोक्ष का सहज स्वभाव
देहात्मज्ञानवज्ज्ञानं देहात्मज्ञानबाधकम्, आत्मन्येव भवेद्यस्य स नेच्छन्नपि मुच्यते (20)।
अनुवाद: "जिस व्यक्ति को देह के आत्मज्ञान के समान ही, देह के आत्मज्ञान का बाधक (हटाने वाला) आत्मज्ञान हो जाता है, वह न चाहते हुए भी मुक्त हो जाता है।"
व्याख्या: जब ब्रह्म के साथ हमारी पहचान की दृढ़ता शरीर के साथ हमारी पहचान की दृढ़ता के समान हो जाती है, तो हमें मुक्ति सहज ही प्राप्त हो जाती है। यह वैसा ही है जैसे जब हम जागते हैं, तो सूर्य का प्रकाश हमारे चेहरे पर पड़ता है, चाहे हम उसे चाहें या न चाहें। इसी तरह, जब पूर्ण ज्ञान उदय होता है, तो मोक्ष स्वतः ही हो जाता है, भले ही हम इसकी इच्छा न करें।
'अहं' का स्वरूप
अयमित्यपरोक्षत्वमुच्यते चेत्तदुच्यताम्, स्वयंप्रकाशचैतन्यमपरोक्षं सदा यतः (21)।
अनुवाद: "यदि 'अयं' (यह) से अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) कहा जाता है, तो ऐसा कहा जाए। क्योंकि स्वयंप्रकाश चैतन्य (आत्मा) हमेशा अपरोक्ष ही रहता है।"
व्याख्या: यह श्लोक उपनिषद के महावाक्य में प्रयुक्त 'अयं' (यह) शब्द की व्याख्या करता है। यह 'यह' उस स्वयंप्रकाश आत्मा को इंगित करता है, जो हमेशा हमारे लिए प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है।
हालाँकि, हम आमतौर पर केवल शरीर और बाहरी दुनिया का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। लेकिन जब हम अपनी चेतना की प्रकृति पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हमें पता चलता है कि हमारी चेतना गहरी नींद की अवस्था में भी एक स्वयंप्रकाशित, स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में मौजूद थी, जिसका पंचकोशों से कोई संबंध नहीं था। यह चेतना ही हमारी सच्ची प्रकृति है।
दसवें आदमी की कहानी
परोक्षमपरोक्षं च ज्ञानमज्ञानमित्यदः, नित्यापरोक्षरूपेऽपि द्वयं स्याद्दशमे यथा (22)।
अनुवाद: "ज्ञान परोक्ष (अप्रत्यक्ष) और अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) दोनों तरह का होता है, और अज्ञान भी होता है। नित्य प्रत्यक्ष होते हुए भी दोनों (ज्ञान-अज्ञान) हो सकते हैं, जैसे दसवें व्यक्ति के मामले में।"
व्याख्या: यह श्लोक दसवें आदमी की प्रसिद्ध कहानी का उल्लेख करता है ताकि यह समझाया जा सके कि जिस तरह दसवां आदमी हमेशा प्रत्यक्ष रूप से मौजूद था, फिर भी उसके सहयात्री उसे देख नहीं पा रहे थे, उसी तरह आत्मा भी हमेशा हमारे भीतर मौजूद है, लेकिन अज्ञान के कारण हम उसे नहीं देख पाते।
कहानी का सार:
दस बुद्धिमान व्यक्ति एक नदी पार करते हैं। पार करने के बाद, वे यह सुनिश्चित करने के लिए गिनते हैं कि कोई डूबा तो नहीं।
हर कोई अपने सामने के नौ लोगों को गिनता है, लेकिन खुद को गिनना भूल जाता है।
वे यह मानकर दुखी हो जाते हैं कि दसवां आदमी डूब गया है।
यह स्थिति अज्ञान के दो पहलुओं को दर्शाती है:
आवरण (Veil): दसवें व्यक्ति के अस्तित्व के प्रति अज्ञानता। वे इस तथ्य को नहीं देख पा रहे थे कि दसवां व्यक्ति वहीं मौजूद था।
विक्षेप (Distraction): इस अज्ञान के कारण होने वाला दुख, रोना और छाती पीटना। यह दुख वास्तविक था, भले ही इसका कारण (दसवें आदमी का डूबना) अवास्तविक था।
गुरु का महत्व
कहानी में एक राहगीर (गुरु) आता है और उन्हें बताता है कि दसवां आदमी कोई और नहीं, बल्कि वह खुद है जो गिन रहा था।
यह सुनते ही उनका दुख तुरंत गायब हो जाता है।
यहाँ, गुरु की भूमिका एक ऐसे व्यक्ति की है जो हमें यह याद दिलाता है कि आत्मा कहीं बाहर नहीं है, बल्कि हमारे भीतर ही है।
हम अक्सर कस्तूरी मृग की तरह होते हैं, जो अपनी ही नाभि में कस्तूरी की सुगंध होने के बावजूद उसे बाहर खोजता फिरता है।
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमारी परेशानी का कारण कोई बाहरी घटना नहीं है, बल्कि हमारे भीतर का अज्ञान है।
यह संसार एक रहस्य है, और ये कहानियाँ हमें यह याद दिलाने के लिए हैं कि हमें इससे बहुत अधिक चिंतित नहीं होना चाहिए।
यह संसार अस्थायी है, और यदि ईश्वर है, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
दसवें आदमी का भ्रम
नवसंख्याहृतज्ञानो दशमो विभ्रमात् तदा, न वेत्ति दशमोऽस्मीति वीक्ष्यमाणोऽपि तान् नव (23)।
अनुवाद: "उस समय, दसवाँ व्यक्ति नौ की संख्या से मोहित होकर, इस भ्रम से कि 'मैं दसवाँ हूँ', यह नहीं जानता कि वह उन नौ लोगों को देख रहा है।"
व्याख्या: यह श्लोक दसवें आदमी की कहानी को जारी रखता है। यहाँ बताया गया है कि नौ लोगों को गिनने वाला व्यक्ति दसवाँ व्यक्ति ही था, लेकिन वह इस बात से अनजान था।
भ्रम का कारण: उसका मन केवल बाहरी दुनिया (नौ लोगों) पर केंद्रित था। वह अपने अंदर की चेतना (जो गिनती कर रही थी) के महत्व को भूल गया था।
गुणवत्ता और मात्रा: संसार की विशालता (मात्रा) हमें तुच्छ महसूस कराती है, लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि जो व्यक्ति ब्रह्मांड की विशालता को महसूस कर रहा है, वह स्वयं चेतन है। एक पत्थर जो किसी व्यक्ति को कुचलता है, वह नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है, जबकि व्यक्ति को पता होता है कि उसे कुचला जा रहा है। इसलिए, चेतना की गुणवत्ता मात्रा से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
आवरण और विक्षेप
न भाति नास्ति दशम इति स्वं दशमं तदा, मत्वा वक्ति तदज्ञानकृतमावरणं विदुः (24)।
अनुवाद: "वह दसवाँ व्यक्ति 'दसवाँ दिखाई नहीं देता, वह नहीं है' ऐसा अपने बारे में मानकर कहता है। इसे अज्ञान द्वारा किया गया आवरण कहते हैं।"
व्याख्या: यह श्लोक अज्ञान के दो पहलुओं को समझाता है:
आवरण (Veil): यह अज्ञान का वह हिस्सा है जो व्यक्ति को यह महसूस करने से रोकता है कि वह स्वयं दसवाँ व्यक्ति है। जब व्यक्ति का मन बाहरी वस्तुओं पर इतना केंद्रित हो जाता है कि वह अपने अस्तित्व को ही भूल जाता है, तो इस भूल को आवरण कहते हैं। यह चेतना के ऊपर एक पर्दा है।
विक्षेप (Distraction): आवरण के कारण, व्यक्ति यह निष्कर्ष निकालता है कि दसवाँ व्यक्ति नहीं है। फिर वह रोता है और दुखी होता है। यह विक्षेप कहलाता है, जो अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है।
इस प्रकार, यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि अज्ञान और आवरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अज्ञान एक वस्तु के अस्तित्व के बारे में न जानना है, जबकि आवरण उस वस्तु की उपस्थिति को छुपाता है।
अज्ञान और विक्षेप
नद्यां ममार दशम इति शोचन् प्ररोदिति, अज्ञानकृतविक्षेपं रोदनादिं विदुर बुधाः (25)।
अनुवाद: "'दसवां आदमी नदी में डूब गया' यह सोचकर वह शोक करता और रोता है। विद्वान लोग इस रोने आदि को अज्ञान से उत्पन्न विक्षेप कहते हैं।"
व्याख्या: यह श्लोक अज्ञान के एक और पहलू विक्षेप (विकर्षण या व्याकुलता) को स्पष्ट करता है। दसवां आदमी मौजूद है, इस तथ्य के अज्ञान के कारण, बाकी लोग यह मानने लगते हैं कि वह डूब गया है। इस गलत धारणा के कारण, वे दुखी होकर रोने और विलाप करने लगते हैं। यह शोक और रोना ही विक्षेप है, जो अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ है।
परोक्ष और अपरोक्ष ज्ञान
न मृतो दशमोऽस्तीति श्रुत्वाप्तवचनं तदा, परोक्षत्वेन दशमं वेत्ति स्वर्गादिलोकवत् (26)।
अनुवाद: "तब विश्वसनीय व्यक्ति का यह वचन सुनकर कि 'दसवां मरा नहीं, वह है', वे दसवें को स्वर्ग आदि लोकों की तरह परोक्ष (अप्रत्यक्ष) रूप से जानते हैं।"
व्याख्या: यह श्लोक परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge) को परिभाषित करता है। जब एक राहगीर (गुरु) उनसे कहता है कि "दसवां आदमी मरा नहीं है, वह यहीं मौजूद है," तो उन्हें इस बात का विश्वास हो जाता है। यह ज्ञान सीधे अनुभव से नहीं, बल्कि एक विश्वसनीय स्रोत (गुरु) के शब्दों से प्राप्त होता है। यह ज्ञान स्वर्ग के अस्तित्व को जानने जैसा है, जिसे हमने देखा नहीं है, लेकिन शास्त्रों के वचन से मानते हैं। यह ज्ञान एक सांत्वना देता है कि आत्मा का अस्तित्व है, भले ही हमने उसे सीधे अनुभव न किया हो।
त्वमेव दशमोऽसीति गणयित्वा प्रदर्शितः, अपरोक्षतया ज्ञात्वा हृष्यत्येव न रोदिति (27)।
अनुवाद: "'तू ही दसवाँ है', इस प्रकार गिनकर दिखाए जाने पर, उसे अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) रूप से जानकर वह हर्षित होता है और रोता नहीं है।"
व्याख्या: यह श्लोक अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge) को परिभाषित करता है। जब गुरु उस आदमी को गिनकर दिखाता है और कहता है "तुम ही दसवें हो," तो वह व्यक्ति स्वयं को दसवें के रूप में पहचान लेता है। यह ज्ञान केवल शब्दों से नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव से उत्पन्न होता है। यह व्यक्ति के लिए आत्म-साक्षात्कार है।
कबीर के दोहे के समान, यह श्लोक इस बात पर जोर देता है कि हम जिसे बाहर खोज रहे हैं, वह हमारे भीतर ही है। आत्मा को तीर्थयात्राओं या बाहरी खोजों से नहीं पाया जा सकता, बल्कि इसे आंतरिक जागरूकता और आत्म-ज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है।
जीव की आध्यात्मिक यात्रा के सात चरण
अज्ञानावृतिविक्षेपद्विविधज्ञानतृप्तयः, शोकापगम इत्येते योजनीयाश्चिदात्मनि (28)।
अनुवाद: "अज्ञान, आवरण, विक्षेप, दो प्रकार का ज्ञान (परोक्ष और अपरोक्ष), तृप्ति और शोक का अभाव—ये सात अवस्थाएँ चिदात्मा (जीव) में योजनीय हैं।"
व्याख्या: यह श्लोक जीव चेतना के आध्यात्मिक मार्ग पर सात चरणों को सूचीबद्ध करता है। यह पूरी 'तृप्तिदीप' अध्याय की रूपरेखा है।
अज्ञान (Ignorance): आत्मा के अस्तित्व के बारे में पूर्ण अज्ञानता।
आवरण (Veiling): यह मानना कि आत्मा का अस्तित्व नहीं है, क्योंकि वह दिखाई नहीं देती।
विक्षेप (Distraction): अज्ञान के कारण उत्पन्न होने वाली सांसारिक गतिविधियों और दुखों में फँसना।
परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge): गुरु या शास्त्रों से आत्मा के अस्तित्व के बारे में जानना।
अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge): आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव या आत्म-साक्षात्कार।
शोक का अभाव (Abolition of Sorrow): सभी दुखों का अंत।
तृप्ति (Satisfaction): परम संतोष और आनंद की प्राप्ति।
अज्ञान, आवरण और विक्षेप
संसारासक्तचित्तः सन् चिदाभासः कदाचन, स्वयंप्रकाशकूटस्थं स्वं तत्त्वं नैव वेत्त्ययम् (29)।
अनुवाद: "संसार में आसक्त चित्त वाला चिदाभास (जीव) कभी भी अपने स्वयंप्रकाश कूटस्थ रूपी तत्त्व को नहीं जानता।"
व्याख्या: यहाँ जीव (चिदाभास) की पहली अवस्था बताई गई है। यह जीव चेतना, जो कूटस्थ के प्रकाश से ही मौजूद है, अपने स्रोत (कूटस्थ) को नहीं जानती। यह ऐसा है जैसे हम अपनी पीठ नहीं देख सकते। जीव केवल अपने प्रतिबिंब (चिदाभास) से पहचान बना लेता है, और यह भूल जाता है कि यह प्रतिबिंब कहाँ से आ रहा है।
न भाति नास्ति कूटस्थः इति वक्ति प्रसङ्गतः, कर्ता भोक्ताहमस्मीति विक्षेपं प्रतिपद्यते (30)।
अनुवाद: "वह प्रसङ्गवश (बिना सोचे-समझे) कहता है कि 'कूटस्थ नहीं दिखता, वह नहीं है'। फिर वह 'मैं कर्ता और भोक्ता हूँ' इस विक्षेप को प्राप्त होता है।"
व्याख्या: यह श्लोक अज्ञान के दोहरे प्रभाव को बताता है।
आवरण: जीव यह सोचता है कि कूटस्थ आत्मा का अस्तित्व नहीं है, क्योंकि उसे देखा नहीं जा सकता। यह एक तरह का आवरण है जो सत्य को ढक लेता है।
विक्षेप: इस अज्ञान के कारण, जीव यह गलत धारणा बना लेता है कि 'मैं ही सब काम करने वाला (कर्ता) हूँ और मैं ही सुख-दुख भोगने वाला (भोक्ता) हूँ'। यह झूठा अहंकार ही विक्षेप है। यह एक दर्पण के समान है जो सोचता है कि वह स्वयं प्रकाशवान है, जबकि वह केवल दूसरे के प्रकाश को प्रतिबिंबित कर रहा होता है।
ज्ञान की प्राप्ति
अस्ति कूटस्थ इत्यादौ परोक्षं वेत्ति वार्तया, पश्चात्कूटस्थ एवास्मीत्येवं वेत्ति विचारतः (31)।
अनुवाद: "पहले वह वाणी (गुरु या शास्त्रों के वचन) से 'कूटस्थ है' ऐसा परोक्ष रूप से जानता है, और बाद में विचार से 'मैं ही कूटस्थ हूँ' ऐसा अपरोक्ष रूप से जानता है।"
व्याख्या: यह श्लोक ज्ञान की दो अवस्थाओं को बताता है।
परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge): यह वह चरण है जब जीव को गुरु के उपदेशों, शास्त्रों के प्रमाणों और तर्कों से यह विश्वास हो जाता है कि आत्मा (कूटस्थ) का अस्तित्व है। यह ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है क्योंकि इसका अभी तक सीधा अनुभव नहीं हुआ है।
अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge): यह वह चरण है जब साधक गहन विचार और ध्यान के माध्यम से स्वयं को कूटस्थ आत्मा के साथ एकरूप अनुभव करता है। यह आत्म-साक्षात्कार है, जहाँ व्यक्ति स्वयं को 'मैं ही वह कूटस्थ हूँ' के रूप में जानता है।
ज्ञान की प्राप्ति के बाद की संतुष्टि
कर्ता भोक्तेत्येवमादि शोकजातं प्रमुञ्चति, कृतं कृत्यं प्रापणीयं प्राप्तमित्येव तुष्यति (32)।
अनुवाद: "आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद, व्यक्ति 'मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ' जैसे सभी दुखों को त्याग देता है, और 'जो करना था, वह कर लिया; जो प्राप्त करना था, वह प्राप्त कर लिया' ऐसा सोचकर संतुष्ट हो जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष अनुभव) के बाद उत्पन्न होने वाली परम संतुष्टि का वर्णन करता है। ज्ञानी पुरुष के भीतर एक दृढ़ भाव उत्पन्न होता है कि उसने वह सब कुछ कर लिया है जो किया जाना था (कृतकृत्य), वह सब कुछ प्राप्त कर लिया है जो प्राप्त किया जाना था (प्राप्तप्राप्य), और वह सब कुछ जान लिया है जो जाना जाना था (ज्ञातज्ञातव्य)। इस अवस्था में, वह अब खुद को किसी भी कर्म का कर्ता या किसी भोग का भोक्ता नहीं मानता। वह जानता है कि समस्त ब्रह्मांड में केवल एक ही शक्ति कार्य कर रही है।
बंधन और मुक्ति के सात चरण
अज्ञानमावृतिस्तद्वद्विक्षेपश्च परोक्षधीः, अपरोक्षमतिः शोकमोक्षस्तृप्तिर्निरङ्कुशा (33)। सप्तावस्था इमाः सन्ति चिदाभासस्य तास्वमौ, बन्धमोक्षौ स्थितौ तत्र तिस्रो बन्धकृताः स्मृताः (34)।
अनुवाद: "अज्ञान, आवरण, विक्षेप, परोक्ष ज्ञान, अपरोक्ष ज्ञान, शोक का अभाव और निरंकुश (असीम) तृप्ति—ये सात अवस्थाएँ हैं। ये चिदाभास (जीव) की हैं और इन्हीं में बंधन और मोक्ष स्थित हैं। इनमें से पहली तीन बंधन पैदा करने वाली मानी गई हैं।"
व्याख्या: ये श्लोक आध्यात्मिक यात्रा के सात चरणों को फिर से दोहराते हैं और बताते हैं कि ये केवल चिदाभास (जीव) की अवस्थाएँ हैं, न कि ब्रह्म की।
इन सात में से, अज्ञान, आवरण और विक्षेप ये पहले तीन चरण बंधन की अवस्थाएँ हैं।
शेष चार चरण परोक्ष ज्ञान, अपरोक्ष ज्ञान, शोक का अभाव और तृप्ति धीरे-धीरे मुक्ति की ओर ले जाते हैं।
अज्ञान का स्वरूप
न जानामीत्युदासीनव्यवहारस्य कारणम्, विचारप्रागभावेन युक्तमज्ञानमीरीतम् (35)।
अनुवाद: "'मैं नहीं जानता'—इस उदासीन व्यवहार का कारण, विचार के अभाव से युक्त अज्ञान है।"
व्याख्या: यह श्लोक अज्ञान (ignorance) को परिभाषित करता है। अज्ञान वह प्रारंभिक अवस्था है जहाँ व्यक्ति कहता है, "मैं नहीं जानता।" यह अज्ञान केवल तब तक रहता है जब तक विवेक और विचार शक्ति का उदय नहीं होता। एक बार जब व्यक्ति में ज्ञान और विचार की भावना जागृत हो जाती है, तो इस तरह का अज्ञानजन्य कथन संभव नहीं होता।
अज्ञान और आवरण
अमार्गेण विचार्याथ नास्ति नोभाति चेत्यसौ, विपरीतव्यवहृतिरावृतेः कार्यमिष्यते (36)।
अनुवाद: "गलत तरीके से विचार करके, यह मान लेना कि (आत्मा) न तो है और न ही दिखाई देता है, यह विपरीत व्यवहार आवरण का कार्य माना जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक आवरण को परिभाषित करता है। जब कोई व्यक्ति गलत तर्क या दृष्टिकोण के कारण यह मानता है कि ईश्वर या आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि उसे देखा नहीं जा सकता, तो इसे आवरण कहा जाता है। यह एक ऐसा पर्दा है जो सत्य को हमारी चेतना से छुपा देता है। इस अवस्था में, व्यक्ति नास्तिक या अज्ञेयवादी बन जाता है।
विक्षेप का स्वरूप
देहद्वयचिदाभासरूपो विक्षेप ईरितः, कर्तृत्वाद्यखिलः शोकः संसारोऽस्य बन्धकः (37)।
अनुवाद: "विक्षेप (विकर्षण) को दो शरीरों (सूक्ष्म और स्थूल) और चिदाभास (प्रतिबिंबित चेतना) का रूप कहा गया है। कर्तृत्व (कर्ता होने का भाव) आदि से उत्पन्न होने वाले समस्त दुख, जो संसार कहलाते हैं, इसी के बंधन हैं।"
व्याख्या: यहाँ विक्षेप को स्पष्ट किया गया है। विक्षेप वह अवस्था है जब जीव चेतना (चिदाभास), स्थूल और सूक्ष्म शरीर से खुद की पहचान कर लेती है। यह पहचान ही दुख और बंधन का मूल कारण है। इसके कारण जीव यह मान लेता है कि 'मैं ही काम करने वाला (कर्ता) हूँ' और 'मैं ही फल भोगने वाला (भोक्ता) हूँ'। इस अहंकार के कारण ही व्यक्ति संसार में दुख और पीड़ा का अनुभव करता है।
विक्षेप और उसके कारण का संबंध
अज्ञानमावृतिश्चैते विक्षेपात्प्राक् प्रसिद्धधतः, यद्यप्यथाप्यवस्थे ते विक्षेपस्यैव नात्मनः (38)।
अनुवाद: "यद्यपि अज्ञान और आवरण, विक्षेप से पहले होते हैं, फिर भी वे दोनों अवस्थाएँ विक्षेप (जीव) की ही हैं, आत्मा (ब्रह्म) की नहीं।"
व्याख्या: यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण और गहरा दार्शनिक प्रश्न उठाता है: जब अज्ञान और आवरण विक्षेप से पहले होते हैं, तो वे विक्षेप (जीव) की अवस्थाएँ कैसे हो सकते हैं?
इसका उत्तर यह है कि किसी भी चीज का कारण हमेशा उसके प्रभाव से पहले आता है। यहाँ अज्ञान और आवरण, विक्षेप (जीव के रूप में) के कारण हैं। लेकिन ये अवस्थाएँ जीव की ही मानी जाती हैं, क्योंकि ये ब्रह्म की नहीं हैं।
इसे एक फल के पकने के उदाहरण से समझाया गया है: फल शुरू से ही भीतर से पकना शुरू हो जाता है, भले ही वह बाहर से कच्चा दिखता हो। जब वह पूरी तरह पक जाता है, तो हम कहते हैं कि वह पक गया है।
इसी तरह, अज्ञान और आवरण की अवस्थाएँ जीव की ही हैं, भले ही जीव चेतना (विक्षेप) पूरी तरह से बाद में ही प्रकट होती है।
इसलिए, ये शुरुआती तीन चरण (अज्ञान, आवरण और विक्षेप) जीव के ही हैं और बंधन के कारण बनते हैं।
विक्षेप और उसके संस्कार
विक्षेपोत्पत्तितः पूर्वमपि विक्षेपसंस्कृतिः, अस्त्येव तदवस्थत्वमविरुद्धं ततस्तयोः (39)।
अनुवाद: "विक्षेप की उत्पत्ति से पहले भी विक्षेप के संस्कार (संभावना) मौजूद होते हैं, इसलिए उन दोनों (विक्षेप और उसके संस्कारों) का एक ही जीव की अवस्था होना विरोधाभास नहीं है।"
व्याख्या: यह श्लोक पिछले श्लोक में उठाए गए प्रश्न का उत्तर देता है। यह बताता है कि भले ही विक्षेप (जीव चेतना) तीसरे चरण में प्रकट होता है, लेकिन उसके संस्कार (संभावनाएँ या बीज) पहले से ही अज्ञान और आवरण के रूप में मौजूद होते हैं।
जैसे किसी बीमारी के लक्षण प्रकट होने से पहले भी उसके रोगाणु शरीर में मौजूद होते हैं, उसी तरह जीव के प्रकट होने से पहले भी उसके बंधन के बीज (अज्ञान और आवरण) मौजूद रहते हैं।
इसलिए, यह मानना कि अज्ञान और आवरण, विक्षेप की ही अवस्थाएँ हैं, किसी भी तरह से विरोधाभासी नहीं है।
ब्रह्म और जीव का भेद
ब्रह्मण्यारोपितत्वेन ब्रह्मावस्थे इमे इति, न शङ्कनीयं सर्वेषां ब्रह्मण्येवाधिरोपणात् (40)।
अनुवाद: "यह शंका नहीं करनी चाहिए कि ये अवस्थाएँ ब्रह्म की हैं, क्योंकि सब कुछ ब्रह्म पर ही आरोपित है।"
व्याख्या: यह श्लोक इस बात पर जोर देता है कि जीव की ये सात अवस्थाएँ (अज्ञान, आवरण, विक्षेप आदि) केवल जीव से संबंधित हैं, ब्रह्म से नहीं।
यह सही है कि सब कुछ अंततः ब्रह्म पर ही आरोपित है, लेकिन यह आरोपण ब्रह्म को प्रभावित नहीं करता।
इसका उदाहरण रस्सी में साँप के भ्रम से दिया गया है: जब हम रस्सी में साँप देखते हैं, तो हमें लगता है कि साँप हिल रहा है और हमें काट सकता है। लेकिन वास्तव में, रस्सी पर इन गुणों का केवल आरोपण किया गया है। रस्सी स्वयं न तो हिली और न ही उसने काटा।
इसी तरह, जीव के अनुभवों, दुखों और बंधनों का ब्रह्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ब्रह्म हमेशा असंग (अलिप्त) रहता है।
जीव की अवस्थाएँ, ब्रह्म की नहीं
ब्रह्मण्यारोपितत्वेन ब्रह्मावस्थे इमे इति, न शङ्कनीयं सर्वेषां ब्रह्मण्येवाधिरोपणात् (40)।
अनुवाद: "यह शंका नहीं करनी चाहिए कि ये अवस्थाएँ ब्रह्म की हैं, क्योंकि सब कुछ ब्रह्म पर ही आरोपित है।"
व्याख्या: यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि अज्ञान से लेकर मोक्ष तक की सात अवस्थाएँ केवल जीव से संबंधित हैं, ब्रह्म से नहीं। जिस तरह बादल सूरज को नहीं ढकते, बल्कि हमारी सूरज को देखने की दृष्टि को रोकते हैं, उसी तरह ये अवस्थाएँ भी जीव की हैं, ब्रह्म की नहीं। ब्रह्म पर इन अवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, भले ही संपूर्ण ब्रह्मांड उसी पर आरोपित हो।
जीव का बंधन और मोक्ष का अनुभव
संसारी अहं विबुद्धोऽहं निःशोकस्तुष्ट इत्यपि, जीवगा उत्तरावस्था भान्ति न ब्रह्मगा यदि (41)। तर्ह्यज्ञोऽहं ब्रह्मसत्त्वभाने मद्दृष्टितो न हि, इति पूर्वे अवस्थे च भासेते जीवगे खलु (42)।
अनुवाद: "यह अनुभव कि 'मैं संसारी हूँ', 'मैं मुक्त हूँ', 'मैं शोक रहित हूँ' और 'मैं संतुष्ट हूँ'—ये सब जीव की बाद की अवस्थाएँ हैं, न कि ब्रह्म की। अगर ऐसा है, तो 'मैं अज्ञानी हूँ', 'मेरी दृष्टि में ब्रह्म का अस्तित्व नहीं है'—ये पहले की अवस्थाएँ भी जीव की ही हैं।"
व्याख्या: ये श्लोक इस बात पर जोर देते हैं कि बंधन और मुक्ति दोनों का अनुभव जीव ही करता है, ब्रह्म नहीं।
जब कोई कहता है, "मैं अज्ञानी हूँ" या "मैं संसारी हूँ," तो यह अनुभव जीव का होता है। उसी तरह, जब कोई कहता है, "मैं मुक्त हूँ" या "मैं संतुष्ट हूँ," तो यह अनुभव भी जीव का ही होता है।
इन सभी अवस्थाओं (अज्ञान, आवरण, विक्षेप, और ज्ञान, मोक्ष, तृप्ति) का संबंध केवल जीव से है, क्योंकि ब्रह्म में न तो अज्ञान हो सकता है और न ही मुक्ति की आवश्यकता।
यह एक कठिन दार्शनिक प्रश्न है कि इन अवस्थाओं का आधार क्या है। जैसे नदी को बहने के लिए एक स्थिर तल (नदी का तल) की आवश्यकता होती है, उसी तरह इन अवस्थाओं के लिए भी एक आधार होना चाहिए।
यह तर्क दिया जाता है कि ब्रह्म ही सभी चीजों का आधार है, लेकिन वह इन प्रक्रियाओं से अलिप्त रहता है।
चूंकि हमारे सामने केवल दो सिद्धांत हैं—ब्रह्म और जीव—और इन अवस्थाओं का श्रेय ब्रह्म को नहीं दिया जा सकता, इसलिए इन्हें अनिवार्य रूप से जीव को ही सौंपा जाना चाहिए।
अज्ञान का आधार: ब्रह्म या जीव?
अज्ञानस्याश्रयो ब्रह्मेति अधिष्ठानतया जगुः, जीवावस्थात्वमज्ञानाभिमानीत्वादिवादिषम् (43)।
अनुवाद: "अधिष्ठान (आधार) के रूप में यह कहा गया है कि अज्ञान का आश्रय ब्रह्म है, लेकिन अज्ञान के अभिमानी होने के कारण यह जीव की ही अवस्था है।"
व्याख्या: यह श्लोक एक महत्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न को संबोधित करता है: अज्ञान का आधार क्या है?
सैद्धांतिक रूप से (अधिष्ठान): सभी चीजों का अंतिम आधार ब्रह्म है। इस दृष्टिकोण से, यह कहा जा सकता है कि अज्ञान भी ब्रह्म पर ही आधारित है।
व्यावहारिक रूप से (अज्ञान का अनुभव): लेकिन, अगर अज्ञान का सीधा संबंध ब्रह्म से होता, तो ब्रह्म स्वयं अज्ञानी होता, जो संभव नहीं है। इसलिए, यह तर्क दिया जाता है कि अज्ञान का अनुभव करने वाला और उससे प्रभावित होने वाला केवल जीव है।
इसे एक चोर के उदाहरण से समझाया गया है: सूरज की रोशनी में चोरी करना आसान होता है, लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि सूरज भी चोरी में भागीदार है? नहीं। सूरज केवल प्रकाश प्रदान करता है, लेकिन चोरी का दोष चोर का ही है।
इसी तरह, ब्रह्म संसार के लिए आधार प्रदान करता है, लेकिन जीव की अवस्थाओं (अज्ञान, बंधन) का आरोपण ब्रह्म पर नहीं किया जा सकता।
ज्ञान द्वारा अज्ञान का नाश
ज्ञानद्वयेन नष्टेऽस्मिन्नज्ञाने तत्कृता वृतिः, न भाति नास्ति चेत्येषा द्विविधापि विनश्यति (44)।
अनुवाद: "जब इन दो प्रकार के ज्ञानों (परोक्ष और अपरोक्ष) से यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, तो उसके द्वारा उत्पन्न आवरण, 'वह नहीं दिखता' और 'वह नहीं है', ये दोनों प्रकार के भ्रम भी नष्ट हो जाते हैं।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि परोक्ष और अपरोक्ष ज्ञान कैसे अज्ञान और उसके प्रभावों को दूर करते हैं।
अज्ञान का प्रभाव: अज्ञान के कारण दो तरह के भ्रम पैदा होते हैं:
'ब्रह्म नहीं दिखता': यह मानना कि हमें ईश्वर दिखाई नहीं देता, इसलिए वह अस्तित्व में नहीं है।
'ब्रह्म नहीं है': यह निष्कर्ष निकालना कि ईश्वर का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
जब व्यक्ति को दो प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं:
परोक्ष ज्ञान: शास्त्रों और गुरु से यह जानना कि ब्रह्म का अस्तित्व है।
अपरोक्ष ज्ञान: ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव करना।
ये दोनों ज्ञान एक साथ काम करके अज्ञान और उसके द्वारा उत्पन्न सभी भ्रमात्मक विचारों को पूरी तरह से नष्ट कर देते हैं।
दो प्रकार के अज्ञान और उनका निवारण
परोक्षज्ञानातो नश्येत् असत्त्वावृतिहेतुता, अपरोक्षज्ञानानाश्य ह्याभानावृतेहेतुता (45)।
अनुवाद: "परोक्ष ज्ञान से असत्त्वावरण (अस्तित्व न होने का भ्रम) का कारण नष्ट हो जाता है, और अपरोक्ष ज्ञान से अभानावरण (अप्रकाशित रहने का भ्रम) का कारण नष्ट होता है।"
व्याख्या: यह श्लोक अज्ञान के दो पहलुओं और उन्हें दूर करने के तरीके बताता है:
असत्त्वावरण (Asattavarana): यह वह अज्ञान है जो हमें यह मानने पर मजबूर करता है कि ब्रह्म का अस्तित्व ही नहीं है। परोक्ष ज्ञान (गुरु के उपदेश, शास्त्रों का अध्ययन) इस भ्रम को दूर करता है।
अभानावरण (Abhanavarana): यह वह अज्ञान है जो यह मानता है कि ब्रह्म का अस्तित्व तो है, लेकिन वह अप्रत्यक्ष और अगम्य है। अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष आत्म-अनुभव) इस भ्रम को दूर करता है।
मोक्ष और तृप्ति की अवस्था
अभानावृते नष्टे जीवात्वारोपसंक्षयात्, कर्तृत्वाद्यखिलः शोकः संसार आख्यो निवर्तते (46)। निवृत्ते सर्वसंसारे नित्यमुक्तत्वभासनात्, निरङ्कुशा भवेत् तृप्तिः पुनःशोकासमुद्भवात् (47)।
अनुवाद: "जब अभानावरण नष्ट हो जाता है, तो जीवत्व के आरोपण के कारण उत्पन्न हुआ कर्तृत्व आदि समस्त दुख, जो संसार कहलाता है, समाप्त हो जाता है। जब समस्त संसार समाप्त हो जाता है और नित्यमुक्त होने का अनुभव होता है, तब असीम तृप्ति उत्पन्न होती है, क्योंकि शोक दोबारा उत्पन्न नहीं हो सकता।"
व्याख्या: ये श्लोक बताते हैं कि जब अपरोक्ष ज्ञान से अभानावरण का पर्दा हट जाता है, तो जीव का अहंकार (कर्ता और भोक्ता होने का भाव) पूरी तरह से समाप्त हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप, जीवन के सभी दुख और संसार का बंधन समाप्त हो जाता है।
इस स्थिति में, व्यक्ति अपनी नित्यमुक्त (हमेशा मुक्त) प्रकृति का अनुभव करता है, जिससे उसे असीम और अविनाशी संतोष (तृप्ति) प्राप्त होता है, क्योंकि अब दुख के उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं रहता।
उपनिषद के महावाक्य की व्याख्या
अपरोक्षज्ञानशोकनिवृत्त्याख्य उभे इमे, अवस्थे जीवगे ब्रूते आत्मानं चेदिति श्रुतिः (48)।
अनुवाद: "यह श्रुति (उपनिषद) कि 'यदि कोई अपनी आत्मा को जान ले' (बृहदारण्यक उपनिषद), अपरोक्ष ज्ञान और शोक के अभाव नामक इन दो अवस्थाओं को जीव की ही बताती है।"
व्याख्या: यह श्लोक अध्याय की शुरुआत में उद्धृत बृहदारण्यक उपनिषद के महावाक्य को वापस जोड़ता है।
बृहदारण्यक उपनिषद का मंत्र: "यदि कोई पुरुष अपनी आत्मा को 'मैं यही हूँ' जानकर पहचान लेता है, तो वह किस वस्तु की इच्छा करता हुआ, किसके लिए, इस शरीर के पीछे दुख भोगता फिरेगा?"
व्याख्या का सार: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि इस मंत्र में जिस 'पुरुष' की बात की गई है, वह वही जीव है जिसकी सात अवस्थाओं का इस अध्याय में वर्णन किया गया है।
यह मंत्र अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष अनुभव) और शोक के अभाव (दुखों की समाप्ति) की दो अवस्थाओं को इंगित करता है, और ये दोनों अवस्थाएँ केवल जीव को ही प्राप्त होती हैं, क्योंकि ब्रह्म में न तो अज्ञान है और न ही दुख।
अपरोक्ष ज्ञान के दो रूप
अयमित्यपरोक्षत्वमुक्तं तद् द्विविधं भवेत्, विषयस्वप्रकाशत्वात् धियाप्येवं तदीक्षणात् (49)।
अनुवाद: "उपनिषद में 'यह' (अयं) से जिस अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान का वर्णन किया गया है, वह दो प्रकार का होता है, क्योंकि विषय (आत्मा) स्वयं प्रकाशमान है और बुद्धि द्वारा भी उसे देखा जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान (अपरोक्षत्व) दो तरीकों से अनुभव किया जाता है:
विषयस्वप्रकाशत्व (आत्म-प्रकाश): आत्मा स्वयं प्रकाशमान है। यह एक तत्काल अनुभव है, जो तर्कों से परे है। हम हमेशा यह महसूस करते हैं कि 'मैं हूँ'। यह 'मैं हूँ' की चेतना इतनी गहरी है कि इसे भविष्य में प्राप्त करने वाली चीज नहीं माना जा सकता। ब्रह्म का अनुभव किसी भविष्य की घटना के रूप में नहीं, बल्कि 'अभी और यहाँ' के रूप में होता है।
धियाप्येवं तदीक्षणत् (बुद्धि द्वारा अवलोकन): जब बुद्धि आत्मा को जानने का प्रयास करती है, तो वह उसे एक भविष्य की वस्तु के रूप में देखती है। यह वह चरण है जहाँ हम सोचते हैं कि आत्म-साक्षात्कार 'कल या परसों' होगा। यह परोक्ष ज्ञान की ओर ले जाता है।
परोक्ष ज्ञान का महत्व
परोक्षज्ञानकालेऽपि विषयस्वप्रकाशता, समा ब्रह्मस्वप्रकाशमस्तीत्येवं विबोधनात् (50)।
अनुवाद: "परोक्ष ज्ञान के समय भी, विषय (ब्रह्म) की आत्म-प्रकाशता समान रूप से बनी रहती है, क्योंकि 'ब्रह्म स्वयं प्रकाशमान है' ऐसा ज्ञान उत्पन्न हो जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक परोक्ष ज्ञान के महत्व पर प्रकाश डालता है। भले ही यह प्रत्यक्ष अनुभव न हो, लेकिन गुरु और शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान हमें यह दृढ़ विश्वास दिलाता है कि ब्रह्म का अस्तित्व है और वह स्वयं प्रकाशमान है।
यह विश्वास हमारे मन में एक प्रकार का ज्ञान पैदा करता है। भले ही हमने ब्रह्म का साक्षात्कार न किया हो, लेकिन यह दृढ़ विश्वास ही हमें आगे की आध्यात्मिक यात्रा में मदद करता है।
इस परोक्ष ज्ञान के चरण में, ब्रह्म का प्रकाश गुरु के शब्दों, मनन और निदिध्यासन के माध्यम से शिष्य तक पहुँचता है। यह आध्यात्मिक मार्ग पर एक महत्वपूर्ण कदम है।
परोक्ष ज्ञान का महत्व
अहं ब्रह्मेत्यनुल्लिख्य ब्रह्मास्तीत्येवमुल्लिखेत्, परोक्षज्ञानमेतन्न भ्रान्तं बाधानिरूपणात् (51)।
अनुवाद: "यह न कहते हुए कि 'मैं ब्रह्म हूँ', केवल 'ब्रह्म है' ऐसा कहना परोक्ष ज्ञान है। यह भ्रांति नहीं है, क्योंकि इसका खंडन नहीं किया जा सकता।"
व्याख्या: यह श्लोक परोक्ष ज्ञान की वैधता पर जोर देता है। 'ब्रह्म है' ऐसा ज्ञान 'मैं ब्रह्म हूँ' के ज्ञान से अलग है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह गलत है। यह ज्ञान आध्यात्मिक यात्रा का एक आवश्यक और उपयोगी चरण है। जिस तरह एक बच्चा एक दिन बड़ा होकर विद्वान बन जाता है, उसी तरह 'ब्रह्म है' का ज्ञान भी परिपक्व होकर 'मैं ब्रह्म हूँ' के प्रत्यक्ष अनुभव में बदल जाता है।
ब्रह्मा नास्तीति मानं चेत् स्यात् बाध्येत ततो ध्रुवम्, न चैवं प्रबलं मानं पश्यामोनोतो न बाध्यते (52)।
अनुवाद: "यदि 'ब्रह्म नहीं है' ऐसा कोई प्रबल प्रमाण होता, तो वह अवश्य ही बाधित हो जाता। लेकिन ऐसा कोई प्रबल प्रमाण नहीं देखा जाता, इसलिए वह बाधित नहीं होता।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि 'ब्रह्म का अस्तित्व नहीं है' ऐसी भावनाएँ किसी भी ठोस प्रमाण पर आधारित नहीं होतीं। ब्रह्म के अस्तित्व को नकारने वाला कोई भी प्रमाण इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह इस बात को पूरी तरह से खंडित कर सके। यह भावना एक ऐसे अनुभव से खंडित हो जाती है जो यह सिद्ध करता है कि ब्रह्म न केवल मौजूद है, बल्कि वह अनुभव करने वाले से भी अविभाज्य है।
व्यत्तयनुल्लेखा मात्रेण भ्रमत्वे स्वर्गधीरपि, भ्रान्ति स्यात् व्यक्तयनुल्लेखात् सामान्योल्लेखदर्शनात् (53)।
अनुवाद: "यदि केवल व्यक्ति (प्रत्यक्ष अनुभव) के उल्लेख न होने मात्र से कोई ज्ञान भ्रांति हो जाए, तो स्वर्ग के बारे में हमारा ज्ञान भी भ्रांति होगा, क्योंकि उसमें केवल सामान्य उल्लेख ही देखा जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक परोक्ष ज्ञान की उपयोगिता को फिर से स्थापित करता है। हम सीधे तौर पर स्वर्ग का अनुभव नहीं करते, लेकिन शास्त्रों से हमें जो ज्ञान मिलता है, वह हमें यह मानने के लिए प्रेरित करता है कि स्वर्ग जैसी कोई चीज मौजूद है। यह ज्ञान भी हमारे लिए उपयोगी है, भले ही वह प्रत्यक्ष न हो। इसी तरह, ब्रह्म के बारे में परोक्ष ज्ञान भी सार्थक है और यह आध्यात्मिक विकास का एक आवश्यक हिस्सा है।
अपरोक्षत्व योग्यस्य न परोक्षमत्रं भ्रमः, परोक्षमित्यनुल्लेखात् अर्थादपरोक्ष्यसंभवात् (54)।
अनुवाद: "जो अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) होने के योग्य है, उसके लिए परोक्ष ज्ञान भ्रांति नहीं है, क्योंकि 'यह परोक्ष है' ऐसा उल्लेख नहीं है और इसलिए प्रत्यक्ष अनुभव संभव है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि परोक्ष ज्ञान भ्रांति नहीं है, क्योंकि यह ब्रह्म के प्रत्यक्ष ज्ञान का आधार बनता है। यह ज्ञान हमें यह सांत्वना देता है कि एक सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान शक्ति मौजूद है, जो हमारे दुखों को दूर कर सकती है। यह ज्ञान एक सीढ़ी की तरह है, जिस पर खड़े होकर हम ऊँचे ज्ञान तक पहुँचते हैं। उच्च ज्ञान, निम्न ज्ञान का खंडन नहीं करता, बल्कि उसे परिपक्व करता है और उससे परे चला जाता है।
आंशिक ज्ञान और उसकी उपयोगिता
अंशागृहीतेर्भ्रान्तिश्चेत् घटज्ञानं भ्रमो भवेत्, निरंशस्यापि सांशत्वं व्यावृत्यांशाविभेदतः (55)।
अनुवाद: "यदि आंशिक रूप से ग्रहण करने से ज्ञान को भ्रांति माना जाए, तो घड़े का ज्ञान भी भ्रांति होगा। निरंश (बिना अंश वाले) का भी अंशों के रूप में विवेचन किया जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक परोक्ष ज्ञान की उपयोगिता पर एक और तर्क प्रस्तुत करता है। कुछ लोग यह मान सकते हैं कि परोक्ष ज्ञान अधूरा होता है, इसलिए वह व्यर्थ है।
इस श्लोक का उत्तर है कि यह तर्क सही नहीं है। जब हम किसी घड़े को देखते हैं, तो हम उसका केवल एक हिस्सा ही देख पाते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि घड़े का हमारा ज्ञान गलत है। इसी तरह, परोक्ष ज्ञान हमें ब्रह्म का केवल एक पहलू (उसका अस्तित्व) दिखाता है, लेकिन यह ज्ञान अपने आप में गलत नहीं है।
भले ही ब्रह्म स्वयं निरंश (बिना अंश वाला) है, फिर भी हम अपनी सीमित समझ के कारण उसके अंशों (जैसे अस्तित्व, ज्ञान, आनंद) के रूप में उसका विवेचन कर सकते हैं। यह आंशिक ज्ञान भी आध्यात्मिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है।
दो प्रकार के आवरणों का निवारण
असत्त्वांशो निवर्तते परोक्षज्ञानतस्तथा, अभानांशनिवृत्तिः स्यादपरोक्षधिया कृता (56)।
अनुवाद: "उसी प्रकार, असत्त्वांश (अस्तित्वहीनता का भाव) परोक्ष ज्ञान से नष्ट होता है, और अभानांश (अप्रकाशित होने का भाव) अपरोक्ष ज्ञान से दूर होता है।"
व्याख्या: यह श्लोक अज्ञान के दो प्रकार के आवरणों को और अधिक स्पष्ट करता है, और बताता है कि उन्हें कैसे हटाया जाता है:
असत्त्वावरण (Asattavarana): यह वह भ्रम है कि ब्रह्म का अस्तित्व नहीं है। यह आवरण परोक्ष ज्ञान से दूर होता है। जब कोई व्यक्ति शास्त्रों के अध्ययन या गुरु के उपदेश से यह जानता है कि ब्रह्म का अस्तित्व है, तो यह पहला भ्रम दूर हो जाता है।
अभानावरण (Abhanavarana): यह वह भ्रम है कि ब्रह्म अगम्य और अप्रकाशित है। यह आवरण अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष आत्म-अनुभव) से दूर होता है। जब कोई व्यक्ति अपने भीतर ब्रह्म के प्रकाश का अनुभव करता है, तो यह दूसरा भ्रम भी समाप्त हो जाता है।
इस प्रकार, परोक्ष और अपरोक्ष ज्ञान दोनों ही हमारी आध्यात्मिक यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
नमस्ते, यहाँ पञ्चदशी के सातवें अध्याय, 'तृप्तिदीप' के श्लोकों 57 और 58 का हिंदी अनुवाद और उनकी व्याख्या दी गई है।
परोक्ष ज्ञान: विश्वास से प्रत्यक्ष अनुभव तक
दशमोऽस्तीति विभ्रान्तं परोक्षज्ञानमीक्ष्यते, ब्रह्मास्तीत्यपि तद्वत् स्यादज्ञानावर्णं समम् (57)।
अनुवाद: "यह भ्रम कि 'दसवां आदमी है' - यह परोक्ष ज्ञान कहलाता है। उसी तरह, 'ब्रह्म है' यह भी परोक्ष ज्ञान है, जो अज्ञान के आवरण को दूर करता है।"
व्याख्या: यह श्लोक परोक्ष ज्ञान को एक बार फिर से दसवें आदमी की कहानी के माध्यम से समझाता है। जब दस बुद्धिमान लोगों को यह बताया जाता है कि "दसवां व्यक्ति मौजूद है," तो यह जानकारी उनके लिए परोक्ष ज्ञान होती है। उन्हें इस बात पर विश्वास हो जाता है कि एक दसवां आदमी मौजूद है, भले ही उन्होंने उसे देखा न हो।
इसी तरह, जब एक विश्वसनीय गुरु या शास्त्र हमें बताते हैं कि "ब्रह्म का अस्तित्व है," तो यह परोक्ष ज्ञान हमारे अज्ञान के आवरण को दूर करता है। यह ज्ञान विश्वास पर आधारित होता है और हमें यह दृढ़ता देता है कि एक परम वास्तविकता मौजूद है।
अपरोक्ष ज्ञान: आत्म-साक्षात्कार
आत्मा ब्रह्मेति वाक्यार्थे निःशेषण विचारिते, व्यक्तिरुल्लिख्यते यद्वद्दशमस्त्वमसीत्यतः (58)।
अनुवाद: "जब 'आत्मा ही ब्रह्म है' इस वाक्य पर पूरी तरह विचार किया जाता है, तो व्यक्ति को उसी तरह प्रत्यक्ष अनुभव होता है जैसे 'तुम ही दसवें हो' कहने पर होता है।"
व्याख्या: यह श्लोक अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष अनुभव) का सार बताता है। परोक्ष ज्ञान हमें बताता है कि "ब्रह्म है," लेकिन अपरोक्ष ज्ञान हमें बताता है कि "मैं ही वह ब्रह्म हूँ।"
जैसे दसवें आदमी को यह बताया गया कि "दसवां आदमी मौजूद है" (परोक्ष ज्ञान), लेकिन जब उसे कहा गया "तुम ही दसवें हो," तो उसे तुरंत अपनी वास्तविकता का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ।
इसी तरह, जब हम यह विचार करते हैं कि आत्मा और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं है, तो हमारा ज्ञान अप्रत्यक्ष जानकारी से हटकर आत्म-साक्षात्कार में बदल जाता है। यह अनुभव हमें यह दृढ़ता देता है कि ब्रह्म कोई दूर की इकाई नहीं, बल्कि हमारी अपनी चेतना का सबसे विशाल और सच्चा रूप है।
दसवां आदमी: आत्म-जागरूकता का प्रतीक
दशमः क इति प्रश्ने त्वमेवेति निराकृते, गणयित्वा स्वेन सह स्वमेव दशमं स्मरेत् (59)।
अनुवाद: "'दसवां कौन है?' इस प्रश्न का उत्तर मिलने पर कि 'तुम ही हो', वह अपने साथ गिनकर स्वयं को ही दसवां याद करता है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि आत्म-ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है। जब वह व्यक्ति जो खुद को गिनना भूल गया था, यह पूछता है कि "दसवां कौन है?", तो उसे बताया जाता है कि "तुम ही वह हो।"
इस बोध के बाद, वह न केवल दूसरों को गिनता है, बल्कि खुद को भी गिनता है और पाता है कि कुल दस लोग हैं।
यह कहानी इस बात का प्रतीक है कि हम अक्सर अपनी आत्मा को भूलकर बाहरी दुनिया (नौ लोगों) पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
हमारा स्व-मूल्य पहले आता है, और वही हमें दूसरों के मूल्य को समझने में मदद करता है।
संसार के हर व्यक्ति और हर वस्तु में एक आत्मा होती है। हमें दूसरों को केवल अपने उद्देश्यों की पूर्ति का साधन नहीं मानना चाहिए, बल्कि उन्हें भी एक स्वतंत्र और सम्मानजनक इकाई मानना चाहिए। यह एक महत्वपूर्ण नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा है।
आत्म-ज्ञान की स्थिरता
दशमोऽस्मीति वाक्योत्था न धीरस्य विहन्यते, आदिमध्यावसानेषु न नवत्वस्य संशयः (60)।
अनुवाद: "एक बार 'मैं दसवां हूँ' ऐसा ज्ञान हो जाने पर, यह बुद्धिमान व्यक्ति का ज्ञान नष्ट नहीं होता। उसे आदि, मध्य और अंत में कभी भी नौ होने का संदेह नहीं होता।"
व्याख्या: यह श्लोक आत्म-ज्ञान की स्थायी प्रकृति का वर्णन करता है। एक बार जब व्यक्ति को यह एहसास हो जाता है कि वह दसवां व्यक्ति है, तो यह ज्ञान कभी नहीं मिटता।
वह कहीं से भी गिनना शुरू करे—शुरू से, बीच से, या अंत से—उसे हमेशा कुल दस लोग ही मिलेंगे।
यह सिखाता है कि आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के बाद, व्यक्ति का दृष्टिकोण हमेशा के लिए बदल जाता है।
वह यह समझ जाता है कि हर चीज में एक आत्मा होती है। इस ज्ञान के बाद, व्यक्ति दुनिया के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाता है।
हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम खुद के साथ करते हैं, क्योंकि हर चीज में एक ही आत्मा मौजूद है। यह दुनिया साधनों का नहीं, बल्कि साध्यों का साम्राज्य है।
अवान्तर वाक्य और महावाक्य
सदेवेत्यादिवाक्येन ब्रह्मसत्त्वं परोक्षतः, गृहीत्वा तत्त्वमस्यादि वाक्यात् व्यक्तिं समुल्लिखेत् (61)।
अनुवाद: "'सत् ही था' इत्यादि वाक्यों से ब्रह्म के अस्तित्व को परोक्ष रूप से ग्रहण करके, फिर 'तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्यों से उसे प्रत्यक्ष रूप से जानना चाहिए।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि उपनिषदों में ज्ञान दो प्रकार के वाक्यों से दिया जाता है:
अवान्तर वाक्य: ये प्रारंभिक वाक्य होते हैं जो केवल यह बताते हैं कि 'ब्रह्म है' (सत् एव)। यह परोक्ष ज्ञान है, जहाँ शिष्य को केवल ब्रह्म के अस्तित्व के बारे में बताया जाता है।
महावाक्य: ये महान वाक्य होते हैं, जैसे 'तत्त्वमसि' (वह तुम हो)। ये हमें सीधे यह बताते हैं कि हम उस ब्रह्म से अलग नहीं हैं। यह अपरोक्ष ज्ञान है, जहाँ शिष्य को ब्रह्म के साथ अपनी पहचान का बोध होता है।
ये दोनों वाक्य एक दूसरे के पूरक हैं। पहला वाक्य हमें आधार देता है, और दूसरा वाक्य हमें उस आधार से जोड़ता है।
अपरोक्ष अनुभव की स्वतःस्फूर्तता
आदिमध्यावसानेषु स्वस्य ब्रह्मत्व धीरियम्, नैव व्यभिचरेत् तस्मादपरोक्ष्यं प्रतिष्ठितम् (62)।
अनुवाद: "आदि, मध्य और अंत में अपनी ब्रह्मता का यह ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता, इसलिए अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान प्रतिष्ठित हो जाता है।"
व्याख्या: जब हमें यह बताया जाता है कि 'एक ही था, दूसरा कोई नहीं था', तो यह स्वाभाविक रूप से समझ में आ जाता है कि हम उससे अलग नहीं हो सकते। यदि हम उससे अलग होते, तो 'एक ही था' का कथन झूठा हो जाता। यह सहज बोध ही अपरोक्ष अनुभव है। यह ज्ञान इतना गहरा और दृढ़ होता है कि इसे किसी भी तर्क से खंडित नहीं किया जा सकता।
भृगु और वरुण की कहानी
जन्मादिकारणत्वाख्य लक्षणेन भृघुः, पुरा परोक्षेण गृहीत्वाथ विचारात् व्यक्तिमैक्षत (63)।
अनुवाद: "पहले भृगु ने 'जिससे सभी जन्म लेते हैं' इस लक्षण से परोक्ष रूप से ब्रह्म को ग्रहण किया, और बाद में विचार से उसे प्रत्यक्ष रूप से देखा।"
व्याख्या: यह श्लोक तैत्तिरीय उपनिषद की प्रसिद्ध कहानी का उल्लेख करता है, जहाँ शिष्य भृगु अपने पिता और गुरु वरुण से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है।
गुरु वरुण ने भृगु को पहले ब्रह्म की एक परोक्ष परिभाषा दी: "जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है, जिसमें सब कुछ स्थित है और जिसमें सब कुछ लीन हो जाता है, वही ब्रह्म है।"
इस परिभाषा के आधार पर, भृगु ने बारी-बारी से अन्नमय (भौतिक), प्राणमय (प्राण शक्ति), मनोमय (मन), विज्ञानमय (बुद्धि) और आनंदमय (आनंद) कोशों पर विचार किया।
हर बार जब वह किसी एक कोश को ब्रह्म मानता था, तो उसे असंतोष होता था, क्योंकि वह उस अनुभव को अपूर्ण पाता था।
अंततः, जब उसने आनंदमय कोश को ब्रह्म के रूप में अनुभव किया, तो वह संतुष्ट हो गया और उसे वापस गुरु के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। यह कहानी परोक्ष ज्ञान से अपरोक्ष ज्ञान तक की यात्रा को दर्शाती है, जहाँ अंत में सभी संदेह समाप्त हो जाते हैं।
गुरु का उपदेश और शिष्य का प्रयास
यद्यपि त्वमसीत्यत्र वाक्यं नोचे भृगोः पिता, तथाप्यन्नं प्राणमिति, विचार्य स्थलममुक्तवान् (64)।
अनुवाद: "भले ही भृगु के पिता (वरुण) ने 'वह तुम हो' यह महावाक्य नहीं कहा, फिर भी उन्होंने अन्न, प्राण इत्यादि पर विचार करने के लिए स्थान दिया।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि गुरु वरुण ने अपने पुत्र भृगु को सीधे 'तत्त्वमसि' जैसा महावाक्य नहीं कहा। इसके बजाय, उन्होंने उसे अन्नमय, प्राणमय आदि कोशों पर विचार करने के लिए प्रेरित किया। यह एक क्रमिक शिक्षण पद्धति थी।
गुरु ने शिष्य को अपने व्यक्तिगत प्रयास से सत्य तक पहुँचने का अवसर दिया। गुरु ने केवल दिशा दिखाई, और शिष्य ने स्वयं अपनी साधना और चिंतन के माध्यम से ब्रह्म को जानने का प्रयास किया।
आनंदमय कोश और ब्रह्म का संकेत
अन्नप्राणादिकोषेषु सुविचार्य पुनः पुनः, आनन्दव्यक्तिमीक्षित्वा ब्रह्मलक्ष्म्याप्ययोज्यत (65)।
अनुवाद: "अन्न और प्राण आदि कोशों पर बार-बार अच्छी तरह विचार करके, आनंद की अभिव्यक्ति को देखकर, उसे ब्रह्म के लक्षण से जोड़ा गया।"
व्याख्या: यह श्लोक समझाता है कि भृगु ने पंचकोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय) पर गहन चिंतन किया। अंत में, जब वह आनंदमय कोश तक पहुँचा, तो उसे लगा कि यही ब्रह्म है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यहाँ लेखक यह कहते हैं कि आनंदमय कोश ब्रह्म का एक संकेत है, न कि स्वयं ब्रह्म। यह एक संकेतस्थल की तरह है जो बताता है कि ब्रह्म आ रहा है, लेकिन अभी तक प्रकट नहीं हुआ है।
जैसे गहरी नींद में हमें सुख का अनुभव होता है, वह आनंदमय कोश का अनुभव है। यह ब्रह्म के आनंद का एक संकेत मात्र है। यदि हम सचमुच ब्रह्म में लीन हो जाते, तो हम नींद से वापस जाग्रत अवस्था में नहीं आते।
ब्रह्म का स्वरूप और ज्ञान का मार्ग
सत्यं ज्ञानमनन्तं चेत्येवं ब्रह्म स्वलक्षणम्, उक्त्वा गुहाहित्वेन, कोशेष्वेतत् प्रदर्शितम् (66)।
अनुवाद: "उपनिषदों ने 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' (ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनंत है) कहकर ब्रह्म का स्वरूप बताया, और फिर 'गुहा में स्थित' कहकर इसे कोशों में दिखाया।"
व्याख्या: यह श्लोक तैत्तिरीय उपनिषद के महावाक्य 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' की व्याख्या करता है।
पहले उपनिषद ब्रह्म के स्वरूप को परिभाषित करता है (सत्य, ज्ञान, अनंत)।
फिर, वह इस ब्रह्म को 'गुहा' (हृदय की गुफा) में स्थित बताता है। यहाँ 'गुहा' से तात्पर्य हमारे पंचकोशों के भीतर की चेतना से है।
यह शिक्षा हमें यह समझने में मदद करती है कि ब्रह्म कोई दूर की इकाई नहीं, बल्कि हमारे ही भीतर मौजूद है। यह क्रमिक शिक्षा हमें यह महसूस कराती है कि हम उस ब्रह्म से अलग नहीं हैं जो सत्य, ज्ञान और अनंत है।
इंद्र का दृढ़ प्रयास
परोक्षेण विभुध्येन्द्रो य आत्मेत्यादिलक्षणात्, अपरोक्षीकर्तुमिच्छंश्चतुर्वारं गुरुं ययौ (67)।
अनुवाद: "इंद्र ने 'जो आत्मा है' इत्यादि लक्षणों से परोक्ष रूप से ब्रह्म को जानकर उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करने की इच्छा से चार बार गुरु के पास गए।"
व्याख्या: यह श्लोक छांदोग्य उपनिषद की प्रसिद्ध कहानी का उल्लेख करता है, जहाँ देवों के राजा इंद्र ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रजापति के पास जाते हैं।
इंद्र ब्रह्म के बारे में परोक्ष रूप से कुछ लक्षणों को जानते थे, लेकिन उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते थे।
इसी इच्छा से वे बार-बार अपने गुरु के पास गए। यह दिखाता है कि परोक्ष ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है; हमें ज्ञान को प्रत्यक्ष अनुभव में बदलने के लिए दृढ़ता और गुरु की कृपा की आवश्यकता होती है।
मिला रेपा की कहानी
यह कहानी मिलारेपा, एक तिब्बती योगी की है। यह कहानी शिष्य की दृढ़ता, समर्पण और गुरु की कठोर परीक्षा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
अज्ञान से विक्षेप तक: मिलारेपा का जीवन अज्ञान (अपने पिता की संपत्ति का नुकसान) से शुरू होता है, जिससे उसकी माँ के कहने पर उसे विक्षेप (ब्लैक मैजिक) की ओर धकेला जाता है।
गुरु की परीक्षा: मिलारेपा अपने कर्मों पर पश्चाताप करता है और महान गुरु मार्पा के पास जाता है। मार्पा, जो सर्वज्ञ थे, मिलारेपा के पिछले पापों के कारण उसे तुरंत स्वीकार नहीं करते। वह उसे कठोर शारीरिक यातनाएं और असंभव कार्य देते हैं, जैसे बार-बार पहाड़ पर घर बनाना और उसे फिर से तोड़ना।
शिष्य की दृढ़ता: मिलारेपा इतनी यातना सहता है कि उसके शरीर पर घाव हो जाते हैं और वह भूख से पीड़ित रहता है। लेकिन वह अपने गुरु के प्रति पूरी तरह समर्पित रहता है और कभी पीछे नहीं हटता।
ज्ञान की प्राप्ति: यह कहानी अंत में बताती है कि मिलारेपा की दृढ़ता और समर्पण के कारण ही उसे ज्ञान प्राप्त हुआ। गुरु की कठोरता उसके अहंकार और पिछले कर्मों को शुद्ध करने के लिए थी। यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल इच्छा ही काफी नहीं है, बल्कि उसके लिए असीम दृढ़ता, समर्पण और गुरु के प्रति पूर्ण विश्वास की आवश्यकता होती है।
दोष का पता लगना: मिलारेपा के मामा गुरु ने उसे दीक्षा दी और कहा कि उसे तीसरे, पांचवें और सातवें दिन विशेष अनुभव होंगे। लेकिन, कोई अनुभव नहीं हुआ। मामा गुरु को संदेह हुआ कि दीक्षा सही होने के बावजूद कुछ गड़बड़ है।
असली गुरु का संदेश: उसी समय, असली गुरु (मार्पा) का एक पत्र आया, जिसमें लिखा था, "उस कुत्ते को वापस भेज दो।" मामा गुरु को पूरी बात समझ में आ गई। उन्होंने मिलारेपा से सच बताने के लिए कहा।
गुरु की डाँट और स्वीकार: सच जानने पर, मामा गुरु ने मिलारेपा को अपने पास से जाने के लिए कहा। मिलारेपा वापस मार्पा के पास गया, लेकिन मार्पा ने भी उसे अनदेखा किया और कठोरता दिखाई। यह कहानी गुरु-शिष्य संबंध की जटिलता और गुरु की कृपा प्राप्त करने के लिए शिष्य के कठोर परिश्रम को दर्शाती है।
गुरु का शिक्षण और शिष्य की प्रगति
शिक्षण का तरीका: गुरु अपने शिष्यों को उनकी आध्यात्मिक प्रगति और स्वभाव के अनुसार अलग-अलग तरीकों से पढ़ाते हैं।
वरुण और भृगु का उदाहरण: तैत्तिरीय उपनिषद में वरुण ने अपने पुत्र भृगु को एक-एक करके पाँच कोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) का अनुभव कराया। यह शिक्षा धीरे-धीरे और व्यवस्थित तरीके से दी गई थी।
आनंद का अनुभव: जब भृगु ने आनंदमय कोश का अनुभव किया, तो उसे लगा कि वह ब्रह्म ही है। यह अनुभव, जो गहरी नींद की अवस्था में प्रकट होता है, ब्रह्म के आनंद का एक संकेत मात्र है। यह दिखाता है कि पूर्ण ज्ञान तक पहुँचने के लिए एक व्यवस्थित और क्रमिक मार्ग की आवश्यकता होती है।
इंद्र और प्रजापति की कहानी (छांदोग्य उपनिषद)
परोक्षेण विभुध्येन्द्रो य आत्मेत्यादिलक्षणात्, अपरोक्षीकर्तुमिच्छंश्चतुर्वारं गुरुं ययौ (67)।
अनुवाद: "इंद्र ने 'जो आत्मा है' इत्यादि लक्षणों से परोक्ष रूप से ब्रह्म को जानकर उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करने की इच्छा से चार बार गुरु (प्रजापति) के पास गए।"
व्याख्या: यह श्लोक छांदोग्य उपनिषद की प्रसिद्ध कहानी का सार बताता है। इंद्र (देवों के राजा) और विरोचन (असुरों के राजा) दोनों ने प्रजापति से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा की।
पहला उपदेश (स्थूल शरीर): प्रजापति ने उन्हें बताया कि 'जो तुम जल में देखते हो, वही आत्मा है।' विरोचन ने इसे अपने भौतिक शरीर के रूप में समझा और संतुष्ट हो गया। लेकिन इंद्र को संदेह हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि शरीर आत्मा है, तो आत्मा भी नाशवान, रोगी और दुखी होगी।
दूसरा उपदेश (स्वप्न): इंद्र वापस गए और प्रजापति ने उन्हें बताया कि 'जो तुम स्वप्न में देखते हो, वही आत्मा है।' इंद्र ने इस पर विचार किया और पाया कि स्वप्न में भी दुख और मृत्यु का अनुभव होता है।
तीसरा उपदेश (सुषुप्ति): इंद्र तीसरी बार गए, और प्रजापति ने उन्हें बताया कि 'जो गहरी नींद में सुख का अनुभव करता है, वही आत्मा है।' इंद्र को फिर संदेह हुआ कि यह आत्मा तो न खुद को जानती है और न ही दूसरों को।
अंतिम उपदेश (अधिष्ठान): अंत में, इंद्र चौथी बार गए। प्रजापति ने बताया कि इन तीनों अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे, जो एक अमर और निर्लिप्त चेतना है, वही आत्मा है।
यह कहानी परोक्ष ज्ञान (गुरु के शुरुआती उपदेशों) से अपरोक्ष ज्ञान (आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव) तक की कठिन और क्रमिक यात्रा को दर्शाती है। इंद्र की बार-बार वापसी उनकी दृढ़ता और सत्य की गहन खोज का प्रतीक है।
ऐतरेय उपनिषद का महावाक्य
आत्म वा इदं इत्यादौ परोक्षं ब्रह्म लक्षितम्, अध्यारोपापवादाभ्यां प्रज्ञानं ब्रह्म दर्शितम् (68)।
अनुवाद: "'आत्मा ही यह सब था' इत्यादि वाक्यों से परोक्ष रूप से ब्रह्म का वर्णन किया गया है। फिर अध्यारोप और अपवाद के द्वारा 'प्रज्ञानं ब्रह्म' (चेतना ही ब्रह्म है) को दिखाया गया है।"
व्याख्या: यह श्लोक ऐतरेय उपनिषद की शिक्षण विधि का वर्णन करता है:
परोक्ष ज्ञान (अध्यारोप): उपनिषद पहले कहता है, "सृष्टि से पहले केवल आत्मा ही थी।" यह एक परोक्ष कथन है जो हमें ब्रह्म के अस्तित्व पर विश्वास दिलाता है।
अपरोक्ष ज्ञान (अपवाद): इसके बाद, उपनिषद सृष्टि की पूरी प्रक्रिया का वर्णन करता है। यह दिखाता है कि कैसे एक विराट चेतना (ब्रह्म) हर चीज में व्याप्त है। फिर, इस वर्णन के बाद, यह सभी आरोपों (अध्यारोप) को हटाकर अंतिम निष्कर्ष देता है: 'प्रज्ञानं ब्रह्म', जिसका अर्थ है 'चेतना ही ब्रह्म है'।
यह विधि पहले एक परोक्ष विचार (अध्यारोप) को स्थापित करती है और फिर उस पर विचार करके सभी अवास्तविकताओं को हटा देती है (अपवाद)। इस प्रक्रिया से हमें ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है।
अवान्तर वाक्य और महावाक्य
अवान्तरेण वाक्येन परोक्षा ब्रह्मधीर्भवेत्, सर्वत्रैव महावाक्यविचारादपरोक्षधीः (69)।
अनुवाद: "अवान्तर वाक्यों से ब्रह्म के बारे में परोक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है, और सभी महावाक्यों पर विचार करने से प्रत्यक्ष ज्ञान (अपरोक्ष) उत्पन्न होता है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि आध्यात्मिक शिक्षा दो प्रकार के वाक्यों के माध्यम से दी जाती है:
अवान्तर वाक्य: ये प्रारंभिक कथन होते हैं, जैसे "सब कुछ ब्रह्म है," या "सत्य, ज्ञान, अनंत ही ब्रह्म है।" ये कथन शिष्य को ब्रह्म के अस्तित्व के बारे में परोक्ष ज्ञान देते हैं।
महावाक्य: ये महान वाक्य होते हैं, जैसे "तत्त्वमसि" (वह तुम हो)। इन पर गहन विचार करने से शिष्य को ब्रह्म के साथ अपनी पहचान का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।
महावाक्यों का उद्देश्य
ब्रह्मापरोक्ष्यसिद्धयर्थयं महावाक्यमितीरितम्, वाक्यवृत्ता वतो ब्रह्मापरोक्ष्ये विमतिर्न हि (70)।
अनुवाद: "महावाक्य ब्रह्म के प्रत्यक्ष ज्ञान की सिद्धि के लिए कहे गए हैं। इसलिए, वाक्यवृत्ति (वाक्यों के अर्थ का विचार) से ब्रह्म के प्रत्यक्ष ज्ञान में कोई संदेह नहीं रहता।"
व्याख्या: यह श्लोक आदि शंकराचार्य के एक छोटे ग्रंथ, 'वाक्यवृत्ति' का उल्लेख करता है। यह ग्रंथ बताता है कि महावाक्यों का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि शिष्य के मन में ब्रह्म का सीधा और प्रत्यक्ष अनुभव उत्पन्न करना है।
महावाक्य का जाप मात्र तोते की तरह नहीं, बल्कि उसके अर्थ पर गहरे मनन के साथ होना चाहिए। जब शिष्य महावाक्यों के अर्थ को हृदय से समझता है, तो उसे ब्रह्म का अनुभव होता है।
'त्वं' पद का अर्थ
आलम्बनत्या भाति योऽस्मत्प्रत्ययशब्दयोः, अन्तःकरणसम्भिन्नबोधः स त्वं पदाभिधः (71)।
अनुवाद: "वह बोध जो 'मैं' और 'तुम' शब्दों का आलंबन बनकर प्रकाशित होता है, और अंतःकरण से जुड़ा हुआ है, उसे ही 'त्वं' (तुम) पद कहते हैं।"
व्याख्या: यह श्लोक 'तत् त्वम असि' महावाक्य में 'त्वं' (तुम) पद का अर्थ बताता है।
'तुम' या 'मैं' शब्द किसी व्यक्ति की सीमित चेतना को दर्शाते हैं।
यह चेतना केवल मन (अंतःकरण) की गतिविधियों तक ही सीमित होती है, इसलिए यह पूर्ण नहीं होती।
यह सीमित चेतना ही 'जीव' है।
'तत्' पद का अर्थ: ईश्वर
मायोपाधिर्जगद्योनिः सर्वज्ञत्वादिलक्षणः, परोक्ष्यशबलः सत्याद्यात्मकस्तत्पदाभिधः (72)।
अनुवाद: "वह जो माया की उपाधि वाला, जगत् का कारण, सर्वज्ञता आदि लक्षणों से युक्त, परोक्ष, और सत्-चित्-आनंद स्वरूप है, उसे ही 'तत्' पद से कहा गया है।"
व्याख्या: यह श्लोक 'तत् त्वम् असि' महावाक्य में 'तत्' (वह) पद का अर्थ बताता है।
माया की उपाधि: 'तत्' ईश्वर को इंगित करता है, जो सृष्टि, स्थिति और संहार के लिए माया को अपनी शक्ति के रूप में धारण करता है।
सर्वज्ञता: ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक है।
परोक्ष: जीव के लिए ईश्वर एक दूरस्थ और अप्रत्यक्ष वास्तविकता है, क्योंकि जीव अपनी सीमित चेतना से ईश्वर को पूरी तरह से नहीं जान सकता।
सत्-चित्-आनंद: फिर भी, यह ईश्वर ही सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना) और आनंद का मूल है।
जीव और ईश्वर की भिन्नता
प्रत्यक्परोक्षतैकास्य सद्वितीयतापू्र्णता, विरुध्यते यतस्तस्माल्लक्षणा संप्रवर्तते (73)।
अनुवाद: "चूंकि प्रत्यक् (प्रत्यक्ष) और परोक्ष, सद्वितीयता (द्वैत) और पूर्णता, ये सब विरोधाभासी हैं, इसलिए उन दोनों (जीव और ईश्वर) की एकता को समझाने के लिए लक्षणा (रूपक) का प्रयोग किया जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि जीव और ईश्वर की पहचान को सीधे शब्दों में समझाना मुश्किल है, क्योंकि उनमें कई विरोधाभासी लक्षण हैं:
प्रत्यक्ष बनाम परोक्ष: जीव का अनुभव सीधा और प्रत्यक्ष होता है, जबकि ईश्वर दूर और परोक्ष लगता है।
सांत बनाम अनंत: जीव सीमित और द्वैत (दूसरों से अलग) है, जबकि ईश्वर पूर्ण और असीम है।
इन विरोधाभासों को दूर करने के लिए, उपनिषद 'लक्षणा' (रूपक या लक्षण-कथन) का उपयोग करते हैं।
लक्षण-कथन के तीन प्रकारों की चर्चा:
जहत्-लक्षणा: इसमें वाक्य के एक हिस्से को त्याग दिया जाता है। उदाहरण: 'गंगा में गाँव है' का अर्थ 'गंगा के किनारे गाँव है' होता है। यहाँ 'गंगा' शब्द को त्याग कर 'किनारे' को जोड़ा जाता है।
अजहत्-लक्षणा: इसमें कुछ भी त्याग नहीं किया जाता, बल्कि कुछ और जोड़ दिया जाता है। उदाहरण: 'छाते जा रहे हैं' का अर्थ 'छाते पकड़े हुए लोग जा रहे हैं' होता है। यहाँ 'पकड़े हुए लोग' जोड़ा जाता है।
ये लक्षणा के प्रकार हमें बताते हैं कि कैसे हम भाषा की सीमाओं के भीतर, उन चीजों को समझ सकते हैं जो विरोधाभासी लगती हैं।
जहदजहत्-लक्षणा (भाग-त्याग लक्षणा)
जहदजहत्-लक्षणा, जिसे भाग-त्याग लक्षणा भी कहते हैं, तीसरा तरीका है जिससे विरोधाभासी दिखने वाले पदों का अर्थ समझा जाता है।
इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है: 'सोऽयं देवदत्तः' (यह वही देवदत्त है)।
यहाँ 'सो' (वह) पद दूर के स्थान और अतीत के समय को दर्शाता है।
'अयं' (यह) पद पास के स्थान और वर्तमान समय को दर्शाता है।
ये दोनों (स्थान और समय) विरोधाभासी हैं। इसलिए, हम इन दोनों की सीमाओं (स्थान और समय) को त्याग देते हैं और केवल मूल सार (देवदत्त की पहचान) को ग्रहण करते हैं।
इसी तरह, 'तत् त्वम् असि' (वह तुम हो) महावाक्य में:
'तत्' (ईश्वर) की परोक्षता, सर्वज्ञता और अनंतता को दर्शाता है।
'त्वम्' (जीव) की प्रत्यक्षता, अल्पज्ञता और सीमितता को दर्शाता है।
इन दोनों पदों के सीमित गुणों को त्यागकर (जैसे ईश्वर की परोक्षता और जीव की सीमितता) केवल उनके मूल सार (शुद्ध चेतना) को ग्रहण किया जाता है। जब इस शुद्ध चेतना के स्तर पर देखा जाता है, तो जीव और ईश्वर में कोई भेद नहीं रहता।
जीव और ईश्वर का संबंध
तत्त्वमस्यादिवाक्येषु लक्षणा भागलक्षणा, सोऽयमित्यादिवाक्यस्थ पदयोरिव नापरा (74)। संसर्गो वा विशिष्टो वा वाक्यार्थो नात्र संमतः, अखण्डैकरसत्वेन वाक्यार्थो विदुषां मतः (75)।
अनुवाद: "'तत् त्वम् असि' इत्यादि महावाक्यों में भाग-त्याग लक्षणा का ही प्रयोग किया जाता है, जैसा कि 'यह वही' इत्यादि वाक्यों के पदों में होता है, कोई और लक्षणा नहीं। विद्वान लोग वाक्यार्थ को अखंडैकरसता मानते हैं, न कि संसर्ग (जुड़ाव) या विशिष्टता।"
व्याख्या: ये श्लोक बताते हैं कि जीव और ईश्वर के बीच का संबंध संसर्ग (संपर्क) या विशिष्टता (गुण) नहीं है।
संपर्क नहीं: चेतना एक ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी दूसरी चेतना से संपर्क कर सके। यह एक दूसरे में विलय होने जैसा है, जैसे नदी का जल सागर में मिल जाता है।
गुण नहीं: जीव, ईश्वर का गुण या विशेषता नहीं है। कुछ मतों (जैसे विशिष्टाद्वैत) में जीव और जगत को ईश्वर के गुण के रूप में माना जाता है, लेकिन अद्वैत वेदांत में यह स्वीकार्य नहीं है।
अखंडैकरसता (Undivided Essence): विद्वानों के अनुसार, इन महावाक्यों का अर्थ अखंडैकरसता है। इसका मतलब है कि जीव और ईश्वर अपनी मूल चेतना के स्तर पर अविभाज्य हैं, जैसे सागर की एक लहर स्वयं सागर से अलग नहीं होती। यह एक ऐसी एकता है जहाँ कोई भेद नहीं है।
जीव और ईश्वर की एकता
प्रत्यग् बोधो य आभाति सोऽद्वयानन्दलक्षणः, अद्वयानन्दरूपश्च प्रत्यग्बोधैकलक्षणः (76)।
अनुवाद: "जो प्रत्यक् (आंतरिक) बोध के रूप में प्रकाशित होता है, वह अद्वितीय आनंद के लक्षण वाला है, और जो अद्वितीय आनंद स्वरूप है, वह प्रत्यक् बोध का एकमात्र लक्षण है।"
व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि हमारी आंतरिक चेतना (प्रत्यक् बोध) और ईश्वर की अनंत चेतना (अद्वय आनंद) एक ही हैं।
हमारी चेतना अविभाज्य है, उसे खंडों में नहीं बाँटा जा सकता। इसी तरह, ईश्वर की चेतना भी अविभाज्य और आनंदस्वरूप है।
इन दोनों की एकता इस बात से सिद्ध होती है कि दोनों का मूल स्वरूप 'चेतना' है। जैसे सागर की एक बूंद सागर से अलग नहीं होती, उसी तरह हमारी चेतना भी उस परम चेतना से अलग नहीं है।
महावाक्य का फल
इत्थमन्योन्यतादात्म्यप्रतिपत्तिर्यदा भवेत्, अब्रह्मत्वं त्वमर्थस्य व्यावर्तनं तदैव हि (77)। तदर्थस्य च पारोक्ष्यं यद्येवं किं ततः शृणु, पूर्णानन्दैकरूपेण प्रत्यग्बोधोऽवतिष्ठते (78)।
अनुवाद: "जब इस प्रकार दोनों (जीव और ईश्वर) की परस्पर एकता का ज्ञान हो जाता है, तभी 'त्वं' (जीव) के अब्रह्मत्व (ब्रह्म न होने का भाव) का निवारण होता है और 'तत्' (ईश्वर) की परोक्षता दूर हो जाती है। यदि ऐसा होता है तो क्या? सुनो: आंतरिक बोध (आत्मा) पूर्ण आनंद के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।"
व्याख्या: ये श्लोक बताते हैं कि जब भाग-त्याग लक्षणा के माध्यम से जीव और ईश्वर की एकता समझ में आ जाती है, तो दो महत्वपूर्ण बातें होती हैं:
जीव की सीमाएं समाप्त: जीव को यह पता चलता है कि वह ब्रह्म से अलग नहीं है। 'मैं सीमित हूँ' का भाव नष्ट हो जाता है।
ईश्वर की दूरी समाप्त: ईश्वर अब एक दूरस्थ और अपरोक्ष इकाई नहीं रह जाता, बल्कि स्वयं का ही एक हिस्सा बन जाता है।
इस बोध के बाद, हमारी आंतरिक चेतना (जो पहले सीमित लग रही थी) पूर्ण और आनंदमय रूप में स्थापित हो जाती है।
प्रत्यक्ष ज्ञान की सिद्धि
एवं सति महावाक्यात् परोक्षज्ञानमीर्यते, येषां तेषां शास्त्रसिद्धान्तविज्ञानं शोभते तराम् (79)।
अनुवाद: "ऐसी स्थिति में, जो यह कहते हैं कि महावाक्य से परोक्ष ज्ञान ही मिलता है, उनका शास्त्र-सिद्धांत विज्ञान बहुत सुंदर लगता है।"
व्याख्या: यह श्लोक उन लोगों पर व्यंग्य करता है जो यह मानते हैं कि महावाक्य से केवल अप्रत्यक्ष या बौद्धिक ज्ञान ही प्राप्त होता है।
लेखक का तर्क है कि चेतना एक प्रत्यक्ष और तत्काल अनुभव है। हमें हमेशा यह एहसास होता है कि 'मैं हूँ'। यह आत्म-पहचान का अनुभव ही चेतना का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
यदि चेतना अप्रत्यक्ष होती, तो हमें खुद के अस्तित्व का एहसास नहीं होता, और हम अपने आप को कहीं और महसूस करते। चूँकि ऐसा नहीं होता, यह स्पष्ट है कि चेतना प्रत्यक्ष और तत्काल है।
इसलिए, महावाक्य केवल परोक्ष ज्ञान नहीं देते, बल्कि वे उस प्रत्यक्ष चेतना के अनुभव को दृढ़ करते हैं जो पहले से ही हमारे भीतर मौजूद है।
ब्रह्म का ज्ञान और स्वर्ग का ज्ञान
आस्तां शास्त्रस्य सिद्धान्तो युक्त्या वाक्यात् परोक्षधीः, स्वर्गादिवाक्यवन्नैवम् दशमे व्यभिचारतः (80)।
अनुवाद: "शास्त्र का सिद्धांत तो ठीक है, लेकिन तर्क के अनुसार, वाक्य से मिलने वाला परोक्ष ज्ञान स्वर्ग आदि के ज्ञान जैसा नहीं है, क्योंकि 'दसवें' के उदाहरण में यह सिद्ध होता है।"
व्याख्या: यह श्लोक परोक्ष ज्ञान के दो रूपों में अंतर करता है: स्वर्ग के बारे में ज्ञान और ब्रह्म के बारे में ज्ञान।
स्वर्ग का ज्ञान: स्वर्ग एक दूरस्थ स्थान है जहाँ जाने के लिए प्रयास और यात्रा की आवश्यकता होती है। यह एक भौतिक दूरी है।
ब्रह्म का ज्ञान: ब्रह्म सर्वव्यापी है, इसलिए उसे 'पाने' के लिए कोई दूरी तय नहीं करनी पड़ती। ब्रह्म का अनुभव किसी स्थान पर जाने जैसा नहीं है, बल्कि यह भीतर से जागृत होने जैसा है, जैसे सपने से जागना।
जिस तरह सपने और जागने की अवस्था के बीच कोई भौतिक दूरी नहीं होती, उसी तरह मनुष्य और ब्रह्म के बीच भी कोई वास्तविक दूरी नहीं होती। ब्रह्म का अनुभव एक आंतरिक रोशनी, चेतना का विस्तार है।
आत्मा: स्वयं और उसकी पहचान
स्वतःपरोक्षजीवस्य ब्रह्मत्वमभिवान्छतः, नश्येत् सिद्धापरोक्षत्वमिति युक्तिर्महत्त्यहो (81)।
अनुवाद: "यह कितनी महान युक्ति है कि ब्रह्म होने की इच्छा करने वाले स्वतःसिद्ध अपरोक्ष जीव का प्रत्यक्ष होना ही नष्ट हो जाता है।"
व्याख्या: यह श्लोक इस बात पर जोर देता है कि हमारी चेतना अपने आप में एक प्रत्यक्ष अनुभव है। हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि 'मेरी आत्मा', क्योंकि आत्मा कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे हम धारण करते हैं। हम स्वयं ही आत्मा हैं।
'मैं हूँ' की भावना ही हमारी चेतना का सबसे बड़ा प्रमाण है। यह चेतना न तो हमारे भीतर है और न ही हमारे बाहर, यह बस 'है'।
इस प्रत्यक्ष चेतना का अनुभव ही इस बात का प्रमाण है कि हम स्वयं ब्रह्म हैं। यदि यह बात इतने सारे तर्कों के बाद भी समझ में नहीं आती, तो यह मानव बुद्धि की एक बड़ी विफलता है।
हमारी अपनी चेतना की प्रत्यक्षता ही उसकी पूर्णता का प्रमाण है, और यह पूर्णता ही उस पूर्ण सत्ता (ब्रह्म) के अस्तित्व का भी प्रमाण है।
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