परिचय
माण्डूक्य उपनिषद वैदिक साहित्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे अक्सर "वेद का नवनीत" (essence of Veda) या उपनिषदों का सार माना जाता है। यह अथर्ववेद की शाखा से संबंधित है।
यहाँ माण्डूक्य उपनिषद के परिचय और उसकी अंतर्दृष्टि के प्रमुख बिंदु दिए गए हैं:
संक्षिप्तता और गहनता (Brevity and Profoundness)
यह सभी उपनिषदों में सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं।
अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, यह वेदांत के संपूर्ण दर्शन को समाहित करता है।
इसकी गहनता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि श्री आदि शंकराचार्य के परमागुरु श्री गौड़पाद ने इस पर सौ छंदों वाली 'कारिका' (टिप्पणी) लिखी थी, और स्वयं शंकराचार्य ने उपनिषद और गौड़पाद की कारिका पर भाष्य लिखा है।
मुक्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद का अकेला अध्ययन ही पर्याप्त माना गया है ("माण्डूक्यम् एकम एव अलम् मुमुक्षूणाम् विमुक्तये")।
नाम की व्युत्पत्ति (Origin of the Name)
इसका नाम माण्डूक्य ऋषि के नाम से लिया गया है।
एक कथा के अनुसार, भगवान वरुण ने प्रणव या ओंकार के महत्व को उजागर करने के लिए एक मेंढक (माण्डूक्य) का रूप धारण किया था।
मुख्य विषय - चेतना की चार अवस्थाएँ (Core Subject - Four States of Consciousness)
उपनिषद मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृत (waking), स्वप्न (dream), और सुषुप्ति (deep sleep) – का विश्लेषण करता है।
यह चौथी अवस्था, तुरीय (Turiya) को भी प्रस्तुत करता है, जिसे परम वास्तविकता माना जाता है। तुरीय कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि यह वह है जो इन तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनका साक्षी है।
उपनिषद यह स्पष्ट करता है कि आत्मा (स्वयं) जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में होने वाले अनुभवों से स्वतंत्र है, लेकिन उन सभी का साक्षी है।
तुरीय को अद्वैत (non-dual) और निर्गुण (बिना विशेषताओं वाला) बताया गया है।
ओंकार का महत्व (Significance of Omkara)
माण्डूक्य उपनिषद सत्य को समझने के लिए पवित्र एकाक्षर ओम् (AUM) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में उपयोग करता है।
ओम् के तीन अक्षर – अ (A), उ (U), और म (M) – क्रमशः जागृत (वैश्वानर), स्वप्न (तैजस), और सुषुप्ति (प्राज्ञ) अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ओम् का मौन – जहाँ से ध्वनि आती है और जिसमें विलीन होती है – तुरीय या शुद्ध चेतना का प्रतीक है।
ओम् ब्रह्मांड में सभी ध्वनियों और सभी नामों का प्रतिनिधित्व करता है, इस प्रकार ईश्वर के लिए सबसे सार्वभौमिक नाम है।
आत्मन और ब्रह्मन् (Atman and Brahman)
उपनिषद "अयम् आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ब्रह्म है) महावाक्य का स्रोत है।
यह बताता है कि आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) और ब्रह्मन् (सार्वभौमिक वास्तविकता) दो अलग-अलग सत्ताएं नहीं हैं, बल्कि एक ही चेतना के दो दृष्टिकोण हैं – व्यक्ति के स्तर पर आत्मा और समग्रता के स्तर पर ब्रह्मन्।
ब्रह्मन् को परम सत्य (सत्यम्) माना जाता है, जो रूप रहित अस्तित्व है।
माया और जगत की वास्तविकता (Maya and the Reality of the World)
वेदांत के अनुसार, सृष्टि या जगत को मिथ्या (illusory) माना जाता है, न कि परमार्थिक सत्य। इसे माया (अज्ञानता) के कारण होने वाली एक उपस्थिति या अध्यास के रूप में देखा जाता है।
रस्सी-साँप का दृष्टांत (rope-snake analogy) इस विचार को समझाने के लिए उपयोग किया जाता है: जिस प्रकार रस्सी पर साँप का भ्रम होता है, उसी प्रकार ब्रह्मन् पर जगत का भ्रम होता है। साँप वास्तविक नहीं है, केवल रस्सी ही है। जगत को अंततः नकारा जाता है ताकि ब्रह्मन्, जो उसका अधिष्ठान (आधार) है, प्रकट हो सके।
सृष्टि के विवरणों में भिन्न उपनिषदों में पाई जाने वाली असंगति इस बात का प्रमाण है कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि अद्वैत को स्थापित करने के लिए एक साधन मात्र है।
ब्रह्मन् को विवर्त उपादान कारणम् (Vivarta Karanam) के रूप में वर्णित किया गया है – एक अपरिवर्तित कारण जिससे जगत उत्पन्न होता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में ब्रह्मन् में कोई परिवर्तन नहीं होता।
ज्ञान और मुक्ति (Knowledge and Liberation)
मांडूक्य उपनिषद यह ज्ञान प्रदान करता है कि असीमित आत्मा शाश्वत रूप से वर्तमान है, और उसे पाने के लिए किसी बाहरी क्रिया की आवश्यकता नहीं है।
अज्ञानता और कष्ट से मुक्ति तब प्राप्त होती है जब व्यक्ति स्वयं को अपनी सीमित भूमिकाओं और अनुभवों (जो उपाधि कहलाते हैं) से परे शुद्ध चेतना के रूप में पहचानता है।
उपनिषद में वर्णित उपासना (पूजा) और कर्म योग जैसे अभ्यास अस्थायी होते हैं, जो उन लोगों के लिए हैं जो सीधे अद्वैत को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हैं, यह करुणा के साथ दिया गया एक मार्ग है।
ज्ञान का अंतिम लक्ष्य अद्वैत का बोध है, जहाँ ज्ञाता-ज्ञेय का द्वैत समाप्त हो जाता है।
अथर्ववेद का हिस्सा
मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद का एक हिस्सा है। विशेष रूप से, यह अथर्ववेद की मांडूक शाखा से संबंधित है।
स्रोत बताते हैं कि अथर्ववेद के उपनिषद अन्य वेदों के उपनिषदों की तुलना में संख्या में कहीं अधिक हैं। एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि अन्य वेदों के अधिकांश उपनिषद ब्राह्मणों का हिस्सा हैं, जबकि अथर्ववेद के उपनिषद नहीं हैं। हालाँकि, एक स्रोत यह भी कहता है कि मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद के ब्राह्मण भाग से लिया गया है, जो इस बात पर एक संभावित विरोधाभास प्रस्तुत करता है कि यह ब्राह्मणों का हिस्सा है या नहीं।
मांडूक्योपनिषद का नामकरण वरुण द्वारा मेंढक के रूप में अथर्ववेद में देखे जाने के बाद हुआ, जिससे इसे मांडूक्योपनिषद कहा जाने लगा।
परिचय के व्यापक संदर्भ में, मांडूक्योपनिषद को एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपनिषद माना जाता है। इसे सबसे छोटा उपनिषद कहा जाता है, जिसमें केवल बारह मंत्र हैं, फिर भी यह गहराई में बहुत महत्वपूर्ण है। यह संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। इस उपनिषद का मुख्य विषय रहस्यवादी शब्दांश 'ओम' की व्याख्या है, जिसका उद्देश्य मन को ध्यान में प्रशिक्षित करना है, ताकि मुक्ति प्राप्त की जा सके और व्यक्तिगत आत्मा को परम वास्तविकता के साथ जोड़ा जा सके। यह सत्यों की अंतर्दृष्टि प्रदान करता है और इसे वेदांत का सार माना जाता है।
गौड़पाद की कारिकाएँ, जिन्हें उपनिषद का एक विस्तृत रूप माना जाता है, शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य के कार्यों में उद्धृत की गई हैं।
सबसे छोटा उपनिषद (12 मंत्र)
मांडूक्य उपनिषद को सबसे छोटा उपनिषद माना जाता है, जिसमें केवल १२ मंत्र या श्लोक हैं। अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, इसे अत्यंत गहरा और महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि यह पूरे वेदांतिक शिक्षाओं के सार को समाहित करता है।
यहां मांडूक्य उपनिषद का विस्तृत परिचय दिया गया है:
अथर्ववेद से संबंध
मांडूक्य उपनिषद का संबंध अथर्ववेद से है।
महत्व और गूढ़ता
इसे उपनिषदों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
यह कहा जाता है कि एक साधक की मुक्ति के लिए केवल मांडूक्य उपनिषद ही पर्याप्त है ("मांदुक्यम एकम एव अलम मुमुक्षुणाम विमुक्तये")।
यदि इस अकेले उपनिषद के वास्तविक अर्थ को समझा जाए, तो अन्य उपनिषदों, जैसे छांदोग्य या बृहदारण्यक, का अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं हो सकती है।
यह मनुष्य के सामान्य स्वभाव और वास्तविकता के आवश्यक चरित्र के संबंध में सच्चे तथ्यों को सीधे बताता है, बिना किसी उपमा, कहानियों या तुलना के।
मुक्तिका उपनिषद में, भगवान राम हनुमान को मोक्ष के लिए केवल मांडूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह देते हैं। यदि यह अध्ययन पर्याप्त न हो, तो वे १०, ३२, या सभी १०८ उपनिषदों का अध्ययन करने का सुझाव देते हैं।
नाम की व्युत्पत्ति
मांडूक्य उपनिषद का नाम मांडूक्य ऋषि के नाम से व्युत्पन्न हुआ है।
"मांडूक्य" का शाब्दिक अर्थ "मेंढक" है। कथानुसार, भगवान वरुण ने प्रणव या ओंकार के महत्व को उजागर करने के लिए मेंढक का रूप धारण किया और इसे परम ब्रह्म के एकमात्र नाम और प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया।
मुख्य विषय वस्तु - चेतना की अवस्थाएँ और ओंकार
यह उपनिषद मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभव की गई अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), और सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था) का विश्लेषण करता है।
यह चेतना की चौथी अवस्था का भी गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसे 'तुरीय' या 'चौथा' कहा जाता है। तुरीय को निर्गुण और गुणों से परे परम वास्तविकता के रूप में वर्णित किया गया है। "तुरीय" शब्द का शाब्दिक अर्थ "चौथा" है, और इसका पहला प्रयोग गौड़पादाचार्य ने मांडूक्य कारिका में किया था।
उपनिषद में तीनों अवस्थाओं को ओंकार (प्रणव) के अक्षरों - अ, उ, म - और तुरीय को ओंकार की ध्वनिहीन अवस्था (अमात्र) के साथ जोड़ा गया है। मौन या ध्वनिहीनता चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।
यह सिखाता है कि आत्मा (स्वयं) तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, उनसे स्वतंत्र है, और तीनों अवस्थाएँ आत्मा पर निर्भर करती हैं। आत्मा को शुद्ध चेतना के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्याएँ और भाष्य
शंकराचार्य के परम गुरु गौड़पादाचार्य ने मांडूक्य उपनिषद पर मांडूक्य कारिका नामक एक अद्भुत भाष्य लिखा है, जिसमें १०० श्लोक हैं।
स्वयं शंकराचार्य ने भी इस पर भाष्य लिखा है, जो इस पाठ के महत्व का संकेत देता है।
यह उपनिषद हमें "सीमित प्राणी होने की धारणा से उत्पन्न पीड़ा को नष्ट करते हुए असीमित आनंदमय आत्म को प्रकट करने वाला 'निरपेक्ष' ज्ञान" प्रदान करता है।
संक्षेप में, मांडूक्य उपनिषद, अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, मानव अनुभव की विभिन्न चेतना अवस्थाओं और आत्म की परम प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रदान करता है, जिससे इसे आध्यात्मिक ज्ञान के लिए एक अद्वितीय और आवश्यक पाठ माना जाता है।
वेदांत का सार
स्रोत वेदांत को उपनिषदों का सार बताते हैं। वेदांत का मुख्य लक्ष्य असीम, आनंदमय आत्मा को प्रकट करना और सीमित प्राणी होने की मान्यता से उत्पन्न होने वाले दुख को नष्ट करना है। यह इस बात पर जोर देता है कि स्थायी सुख भीतर से आता है, बाहरी वस्तुओं या परिमित गतिविधियों से नहीं।
मांडूक्योपनिषद को संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान का सार माना जाता है [पूर्व बातचीत]। इसे सबसे छोटा उपनिषद (केवल 12 मंत्रों वाला) कहा जाता है, लेकिन यह गहराई में अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बिना किसी वाग्विस्तार के आध्यात्मिक विद्या के नवनीत को सूत्र रूप में प्रस्तुत करता है। यह कहा जाता है कि मुमुक्षु (मोक्ष के इच्छुक) के लिए केवल मांडूक्योपनिषद का सच्चा अर्थ समझना ही पर्याप्त है।
वेदांत के सार के प्रमुख अवधारणाएँ और उनका परिचय:
ॐ (प्रणव): मांडूक्योपनिषद का मुख्य विषय रहस्यवादी शब्दांश 'ॐ' की व्याख्या है। यह अविनाशी है और "यह सब" (इदं सर्वम्) है। 'ॐ' सभी ध्वनियों, सभी शब्दों और इस प्रकार पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है। इसे ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम माना जाता है। 'ॐ' के तीन घटक (अ, उ, म) चेतना की तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) को दर्शाते हैं, जबकि 'ॐ' की अभिन्न समग्रता अवस्थारहित निरपेक्ष आत्मा (तुरीय) को इंगित करती है। 'ॐ' के उच्चारण से पहले की खामोशी और जिसमें यह विलीन हो जाता है, वही तुरीय है, जो शुद्ध चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।
आत्मा/ब्रह्म:
उपनिषद असीम 'मैं', चेतना को ब्रह्मांड के समान मानता है।
"सर्वं ह्येतद् ब्रह्म" (यह सब वास्तव में ब्रह्म है) और "अयं आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ब्रह्म है) वेदांत के मूल कथन हैं।
आत्मा को विश्लेषण के उद्देश्य से चार चरणों वाला (चतुष्पाद) माना गया है, न कि शाब्दिक अर्थ में।
ये चार चरण आत्म-उत्कृष्टता की चार अवस्थाएँ हैं: जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी निद्रा अवस्था) और तुरीय (पारलौकिक आध्यात्मिक अवस्था)।
जाग्रत अवस्था (वैश्वानर): यह आत्मा का पहला 'पाद' या सबसे बाहरी स्वरूप है। यह व्यक्तिगत (विश्व) और ब्रह्मांडीय (विराट) दोनों पहलुओं से जुड़ा है। यह बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत है और इसके सात अंग और उन्नीस मुख हैं।
स्वप्न अवस्था (तैजस): यह जागृत चेतना के आंतरिक, सूक्ष्म कार्य से संबंधित है, जो व्यक्तिपरक रूप से तैजस और सार्वभौमिक रूप से हिरण्यगर्भ कहलाता है। स्वप्न के पदार्थ सूक्ष्म होते हैं। मांडूक्योपनिषद के अनुसार, जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या या आभासी हैं, क्योंकि इन दोनों की तुलना करने वाला साक्षी (आत्मा) इन अवस्थाओं से भिन्न है।
सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ): यह चेतना की तीसरी अवस्था है, जो गहरी नींद को दर्शाती है जहाँ कोई स्वप्न या जागरूकता नहीं होती है। हालाँकि, आत्मा मौजूद रहती है, सब कुछ जानती है, लेकिन बिना अनुभव के। यह कारण अवस्था (कारण शरीर) है जहाँ जागृत और स्वप्न के सभी संस्कार विलीन हो जाते हैं।
तुरीय अवस्था: यह चेतना की चौथी अवस्था है, जो तीनों अनुभवजन्य अवस्थाओं से परे है। इसे वास्तविक 'अवस्था' नहीं, बल्कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप (स्वरूपा) माना जाता है। यह शांति, अद्वैत, असीमता और आनंद की स्थिति है। यह सभी अवस्थाओं का साक्षी है। तुरीय न तो कारण है और न ही कार्य, और न ही इसका कारण-कार्य संबंधों से कोई संबंध है। तुरीय की प्राप्ति ही मोक्ष है।
माया और अविद्या:
माया वह है जो वास्तव में नहीं है, फिर भी प्रतीत होती है। यह वह शक्ति है जो ब्रह्म को ढँक कर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है।
माया ईश्वर की दिव्य शक्ति है जिसके माध्यम से सृष्टि का संचालन होता है, और ईश्वर माया के नियंत्रक हैं।
यह त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रजस, तमस) है।
अविद्या (अज्ञान) बंधन का मूल कारण है, और विवेक (भेदभाव) उसका नाश करने वाला है।
वेदांत का मूल सिद्धांत है: "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म ही है, कोई दूसरा नहीं)। यह अद्वैत का सार है।
गौड़पाद का योगदान:
आचार्य गौड़पाद अद्वैत सिद्धांत के प्रमुख प्रतिपादक थे। उन्होंने मांडूक्य कारिका की रचना की, जो मांडूक्योपनिषद पर एक महत्वपूर्ण भाष्य है।
उनकी कारिकाएँ चार प्रकरणों में विभाजित हैं: आगम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण और अलातशांति प्रकरण।
गौड़पाद ने 'अजातिवाद' (उत्पत्तिहीनता) के सिद्धांत को प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार जगत की उत्पत्ति हुई ही नहीं, बल्कि यह केवल मोह (माया) के कारण ही प्रतीत होता है। इसे शंकराचार्य के अद्वैत की अधिक कट्टरपंथी अभिव्यक्ति माना जाता है।
उन्होंने जगत के मिथ्यात्व को तर्क और युक्तियों से सिद्ध किया।
शंकराचार्य का योगदान:
आदि शंकराचार्य ने गौड़पाद की कारिकाओं पर भाष्य लिखा।
उन्होंने गौड़पाद के सिद्धांतों को विस्तृत रूप से समझाया और संसार के सामने रखा।
शंकराचार्य ने माया से ग्रसित जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करने के उद्देश्य से अपने भाष्य लिखे।
उन्होंने स्पष्ट किया कि आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है, न कि कोई कर्म या यज्ञ।
मोक्ष या आत्मज्ञान का मार्ग:
मोक्ष संसार से पूर्ण स्वतंत्रता (कैवल्य) है।
इसे व्यक्तिगत अस्तित्व (जीवत्व) को सार्वभौमिक अस्तित्व (ईश्वरत्व) में स्थानांतरित करके प्राप्त किया जा सकता है।
ज्ञान प्राप्त करने के लिए शास्त्र, गुरु का सानिध्य और मन की एकाग्रता आवश्यक है।
श्रवण (ज्ञान सुनना), मनन (चिंतन), निदिध्यासन (गहराई से आत्मसात करना) मुख्य साधन हैं।
विवेक (नित्य और अनित्य के बीच भेद करना) और वैराग्य (विषयों से अनासक्ति) भी महत्वपूर्ण हैं।
गौड़पाद के अनुसार, सही समझ के साथ खामोशी (तुरीय) पर ध्यान करने से मुक्ति मिलती है। शुद्ध चेतना को समझने के माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है, न कि किसी अवस्था को बदलने से।
अद्वैत वेदांत का मूल आधार
अद्वैत वेदांत का मूल आधार, जैसा कि इन स्रोतों में विस्तृत रूप से बताया गया है, ब्रह्म की परम वास्तविकता, जगत की मिथ्याता (अवास्तविकता), और जीव (व्यक्तिगत आत्मा) का ब्रह्म से अभिन्न होना है। यह दर्शन आत्मा और ब्रह्म की एकता पर केंद्रित है और अज्ञान को बंधन का मूल कारण मानता है।
अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांत:
ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं (ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः)। यह अद्वैत का सार है।
ब्रह्म की अवधारणा: ब्रह्म को परम वास्तविकता, सर्वव्यापी और अविकारी आत्मतत्व के रूप में वर्णित किया गया है। यह वह चेतना है जो सभी अनुभवों को प्रकाशित करती है। ब्रह्म को "असीम मैं" (limitless I) के रूप में भी समझा जाता है, जो शाश्वत रूप से उपस्थित है। मांडूक्योपनिषद के अनुसार, "यह सब ब्रह्म ही है" (सर्वं ह्येतद् ब्रह्म)।
जगत की मिथ्याता (अवास्तविकता): संसार को माया मात्र कहा गया है—"जो वस्तुतः नहीं है, फिर भी प्रतीत होता है"। जगत को मिथ्या इसलिए माना जाता है क्योंकि यह आदि और अंत में नहीं है, और इसका अस्तित्व केवल हमारी चेतना में एक उपस्थिति के रूप में है, न कि एक स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में। इसे माया के कारण उत्पन्न भ्रम बताया गया है, जैसे अंधेरे में रस्सी को साँप समझना। जगत का मिथ्यात्व गौड़पाद की कारिकाओं में भी युक्ति और तर्क द्वारा सिद्ध किया गया है।
जीव और ब्रह्म की अभिन्नता: जीव का मूल स्वरूप आत्मा है, और आत्मा ही ब्रह्म है। स्रोतों में जोर दिया गया है कि जीव वास्तव में ब्रह्म से अलग नहीं है। जीव अपनी वास्तविक प्रकृति से अनजान होकर स्वयं को शरीर, मन और इंद्रियों से जुड़ा हुआ मानता है, जिससे दुःख उत्पन्न होता है। आत्मा को नित्य, अविनाशी और अजन्मा बताया गया है।
माया और अविद्या का महत्व:
माया ब्रह्म की शक्ति है जो भ्रम उत्पन्न करती है, और भ्रम माया का परिणाम है। यह सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। माया त्रिगुणात्मक है (सत्त्व, रज, तम) और ये गुण व्यक्ति की चेतना पर प्रभाव डालते हैं।
अविद्या (अज्ञान) को बंधन का मूल कारण बताया गया है। जब तक आत्मा और ब्रह्म के भेद का अज्ञान बना रहता है, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है।
मोक्ष (मुक्ति) का मार्ग:
अद्वैत वेदांत का मूल लक्ष्य आत्मज्ञान के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति है। मोक्ष किसी कर्म या यज्ञ से नहीं, बल्कि ज्ञान (आत्मज्ञान) से ही प्राप्त होता है।
शंकराचार्य ने ज्ञान, श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन), निदिध्यासन (गहरा ध्यान), और समाधि को आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन बताया है। मन को शुद्ध करना और स्वयं के असीमित स्वरूप के बारे में गलत विचारों को हटाना महत्वपूर्ण है।
विवेक (नित्य और अनित्य का भेद करने की क्षमता) और वैराग्य (विषयों से अनासक्ति) को भी माया से मुक्ति पाने के उपाय बताया गया है।
महत्वपूर्ण ग्रंथ और आचार्य:
मांडूक्योपनिषद: यह अद्वैत वेदांत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और सबसे छोटा उपनिषद है, जिसमें केवल बारह मंत्र हैं, फिर भी यह संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। इसका मुख्य विषय रहस्यवादी शब्दांश 'ओम' की व्याख्या और चेतना की चार अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) का विश्लेषण है। तुरीय अवस्था को अद्वैत, आनंदमय और असीम बताया गया है, जहां आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं।
गौड़पाद की कारिकाएँ: गौड़पाद, शंकराचार्य के परंपारा-गुरु, ने मांडूक्योपनिषद पर एक विस्तृत भाष्य (कारिका) लिखा, जिसे अद्वैत सिद्धांत का प्रधान उद्घोषक माना जाता है। उनकी कारिकाएँ अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों जैसे मायावाद, विवर्तवाद और अजातिवाद (सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हुई) को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करती हैं। अजातिवाद यह तर्क देता है कि वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है, केवल एक अखंड चित्घन सत्ता ही मोहवश द्वैत रूप में भास रही है।
शंकराचार्य: उन्होंने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद्गीता पर भाष्य लिखे, जो भारतीय दर्शन के अमूल्य रत्न हैं। उनके भाष्यों का मूल उद्देश्य जीव, जगत और ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करना और माया से ग्रसित जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करना था। शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को अपने ग्रंथों में विस्तृत रूप से समझाकर प्रस्तुत किया।
चेतना की अवस्थाएँ और ओम:
मांडूक्योपनिषद ओम (AUM) को चेतना की तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) और चौथी तुरीय अवस्था से जोड़ता है।
जाग्रत अवस्था (वैश्वानर): स्थूल जगत का अनुभव। 'अ' अक्षर से संबंधित।
स्वप्न अवस्था (तैजस): आंतरिक, सूक्ष्म जगत का अनुभव (सपने)। 'उ' अक्षर से संबंधित।
सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ): गहरी नींद, जहां सभी अनुभव अव्यक्त हो जाते हैं, और आत्मा सब कुछ जानती है लेकिन अनुभवरहित रहती है। 'म' अक्षर से संबंधित।
तुरीय अवस्था: यह चौथी, अनिर्वचनीय अवस्था है जो तीनों से परे है। यह शांति, अद्वैत, असीमता और आनंद की स्थिति है, जहां आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं। यह ओम की ध्वनिहीन या अमात्र (silent) अवस्था से संबंधित है।
संक्षेप में, अद्वैत वेदांत का मूल आधार आत्मा और ब्रह्म की अविभाज्य एकता को समझना है, यह पहचानना है कि जगत माया के कारण एक उपस्थिति मात्र है, और अज्ञान को दूर करके इस परम सत्य का अनुभव करना है। मांडूक्योपनिषद और गौड़पाद की कारिकाएँ इस सिद्धांत को अत्यंत संक्षिप्त और गहन रूप से प्रस्तुत करती हैं।
मोक्ष के लिए पर्याप्त (शंकराचार्य)
मोक्ष के लिए पर्याप्त होने के संदर्भ में, मांडूक्योपनिषद को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह कहा गया है कि मुमुक्षु (मुक्ति के इच्छुक साधक) के लिए केवल मांडूक्योपनिषद ही पर्याप्त है। यदि कोई व्यक्ति इस अकेले उपनिषद का वास्तविक अर्थ समझने में सक्षम हो, तो उसे किसी अन्य उपनिषद का अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं हो सकती है, यहाँ तक कि छांदोग्य या बृहदारण्यक जैसे उपनिषदों की भी नहीं। यह उपनिषद "मुक्तिदायक उपनिषद" के रूप में वर्णित है। इसे संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान का सार कहा जाता है, जिसमें केवल बारह मंत्र हैं, फिर भी यह अत्यंत गहन और महत्वपूर्ण है।
शंकराचार्य के संदर्भ में:
जबकि ब्रह्मसूत्रों, भगवद गीता और अन्य उपनिषदों पर अपनी टिप्पणियों में शंकराचार्य ने मांडूक्योपनिषद से सीधे बहुत अधिक उद्धरण नहीं दिए हैं, उन्होंने स्वयं मांडूक्योपनिषद पर एक टीका लिखी और उसमें इसकी महत्ता का गुणगान किया। यह उनके द्वारा इस उपनिषद की स्वीकार्यता और महत्व का संकेत देता है।
गौड़पाद की कारिकाएँ, जो मांडूक्योपनिषद का विस्तृत रूप मानी जाती हैं, शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य के कार्यों में उद्धृत की गई हैं। गौड़पाद को शंकराचार्य का परम् गुरु भी कहा जाता है। गौड़पाद के सिद्धांत, जैसे 'अजातिवाद' (उत्पत्ति का न होना) और जगत का मिथ्यात्व, अद्वैत वेदांत के मूल हैं, जिसे शंकराचार्य ने विस्तृत रूप से समझाया। इस प्रकार, मांडूक्योपनिषद की शिक्षाएँ, गौड़पाद की कारिकाओं के माध्यम से, शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन की नींव का हिस्सा बन जाती हैं।
परिचय के व्यापक संदर्भ में, शंकराचार्य के अनुसार, वेदांत का मूल लक्ष्य ब्रह्म की प्राप्ति है, जो केवल उपनिषदों के अध्ययन, गुरु के सान्निध्य और मन की एकाग्रता से ही संभव है। वे बार-बार कहते हैं कि आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है, न कि कोई कर्म या यज्ञ। अविद्या (अज्ञान) को बंधन का मूल कारण और विवेक (भेदभाव) को उसका नाशक बताया गया है। आत्मा को ब्रह्म के रूप में जानने से ही जन्म-मरण का चक्र समाप्त होता है।
मांडूक्योपनिषद का मुख्य विषय रहस्यवादी शब्दांश 'ओम' की व्याख्या है, जिसका उद्देश्य मन को ध्यान में प्रशिक्षित करना है ताकि मुक्ति प्राप्त की जा सके और व्यक्तिगत आत्मा को परम वास्तविकता के साथ जोड़ा जा सके। यह उपनिषद चेतना की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का विश्लेषण करता है। तुरीय अवस्था को अव्यवहारिक, प्रपंचोपशम (सभी अभिव्यक्तियों का शांत होना), शिव (शुभ) और अद्वैत (गैर-द्वैत) कहा गया है। यह आत्मा का शुद्ध, अपरिवर्तित स्वरूप है। इस प्रकार, यह उपनिषद सीधे आत्म-साक्षात्कार और अद्वैत सिद्धांत पर केंद्रित है, जो शंकराचार्य के मोक्ष के मार्ग के अनुरूप है।
संक्षेप में, मांडूक्योपनिषद को अपनी संक्षिप्तता और गहरे अर्थ के कारण मोक्ष के लिए पर्याप्त माना जाता है, जो संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान को समाहित करता है। शंकराचार्य ने अपने स्वयं के भाष्य और गौड़पाद के कार्यों के माध्यम से इसके महत्व को स्वीकार किया, जो अद्वैत वेदांत के केंद्रीय सिद्धांतों को प्रतिपादित करता है, जहाँ आत्म-ज्ञान ही मुक्ति का एकमात्र साधन है।
श्री गौडपादचार्य की टीका (कारिका)
मांडूक्य उपनिषद और उस पर श्री गौडपादचार्य की टीका (कारिका) का परिचय निम्नलिखित है:
परिचय:
मांडूक्य उपनिषद अथर्ववेद से संबंधित है।
यह सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं।
अपने संक्षिप्त आकार के बावजूद, इसे संपूर्ण वेदान्त दर्शन का सार माना जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि केवल मांडूक्य उपनिषद का उचित अध्ययन और आत्मसात करना ही मोक्ष (मुक्ति) के लिए पर्याप्त है।
एक कथा के अनुसार, भगवान राम ने भी हनुमान को मोक्ष प्राप्ति के लिए इसी उपनिषद का अध्ययन करने की सलाह दी थी।
उपनिषद वैदिक परंपरा में ज्ञान कांड का हिस्सा हैं, जो कर्तव्यों और अनुष्ठानों से भिन्न हैं। ये प्रकृति, स्वयं और ब्रह्मांड की मौलिक वास्तविकताओं के बारे में ज्ञान प्रदान करते हैं।
श्री गौडपादचार्य की टीका (कारिका):
मांडूक्य उपनिषद की शिक्षाओं को और अधिक स्पष्ट करने के लिए श्री गौडपादचार्य ने इस पर एक महत्त्वपूर्ण टीका, जिसे 'कारिका' कहा जाता है, लिखी है।
गौडपादचार्य को श्री आदि शंकराचार्य का परमहंस गुरु माना जाता है।
गौडपाद की कारिकाएँ विश्व प्रसिद्ध हैं।
कुछ स्रोतों के अनुसार, गौडपादकारिका में लगभग सौ छंद हैं। हालांकि, अन्य विस्तृत स्रोतों में इसे 148 कारिकाएँ बताया गया है, जिन्हें चार मुख्य अध्यायों या प्रकरणों में विभाजित किया गया है:
आगम प्रकरण (29 कारिकाएँ): यह चेतना की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं तथा ओम् के महत्व का वर्णन करता है। इसमें बताया गया है कि ईश्वर अपनी माया (माया घटक) और चेतना (चेतना घटक) के माध्यम से जड़ और चेतन प्राणियों की सृष्टि करता है, जिसके लिए मकड़ी के धागे और अग्नि की छोटी-छोटी चिंगारियों के उदाहरण दिए गए हैं।
वैतथ्य प्रकरण (29 कारिकाएँ): यह द्वैत के संसार की भ्रामक प्रकृति (मिथ्यात्व) को प्रदर्शित करता है।
अद्वैत प्रकरण (48 कारिकाएँ): यह शास्त्र और तर्क के आधार पर अद्वैत (गैर-द्वैत) की स्थापना करता है।
अलातशांति प्रकरण (42 कारिकाएँ): यह अजातवाद (उत्पत्ति के अभाव का सिद्धांत) को प्रतिपादित करता है, यहाँ तक कि एक निर्माता की अवधारणा का भी खंडन करता है।
कारिका और मांडूक्य उपनिषद की केंद्रीय अवधारणाएँ:
मांडूक्य उपनिषद वास्तविकता के संज्ञान को चेतना की तीन अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न), और सुषुप्ति (गहरी नींद) - में वर्गीकृत करता है। इसमें तुरीय को चौथी, अपरिवर्तनीय अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है।
तुरीय को शुद्ध चेतना, इच्छा और पीड़ा से रहित, और सत्-चित्-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के समान माना जाता है।
उपनिषद 'ॐ' (ओम्) के पवित्र अक्षर को ब्रह्म और चेतना की चार अवस्थाओं के प्रतीक के रूप में उपयोग करता है। ओम के दो मंत्रों के बीच की शांति तुरीय का प्रतिनिधित्व करती है।
कारिकाएँ यह तर्क देती हैं कि सृष्टि की अवधारणा मिथ्या है, यानी भ्रामक है। उपनिषदों में सृष्टि के वर्णन का उद्देश्य वास्तव में सृष्टि की तथ्यात्मकता को स्थापित करना नहीं है, बल्कि अद्वैत के सिद्धांत को स्थापित करना है। यह सृष्टिक्रम के वर्णन में विभिन्न उपनिषदों में पाई जाने वाली विसंगतियों से सिद्ध होता है, जो दर्शाते हैं कि सृष्टि एक परमार्थिक वास्तविकता नहीं है।
'रज्जु-सर्प' (रस्सी में सांप का भ्रम) का उदाहरण यह समझाने के लिए उपयोग किया जाता है कि कार्य (जगत) अपने कारण (ब्रह्म) से भिन्न नहीं है, और अंततः कार्य मिथ्या है जबकि कारण सत्य है।
गौडपाद और शंकर अपने भाष्य में 'अध्यारोप-अपवाद' (अधिरोपण और निषेध) की विधि का उपयोग करके ब्रह्म को प्रकट करते हैं।
तुरीय को सीधे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है, बल्कि सभी गुणों और तीन अवस्थाओं का निषेध करके इसे प्रकट किया जाता है (जैसे 'नेति-नेति' की विधि से)। तुरीय तीनों अवस्थाओं का अधिष्ठान (आधारभूत वास्तविकता) है, जैसे रस्सी भ्रमित सर्प का अधिष्ठान है।
मांडूक्य के सिद्धांत शंकराचार्य के प्रसिद्ध और व्यापक कथन 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है) से जुड़े हैं। कुछ विद्वान शंकर के भाष्य और गौडपाद के अजातवाद के बीच विरोधाभास मानते हैं, लेकिन अद्वैत वेदान्त इस विरोधाभास को यह कहकर सुलझाता है कि सृष्टि के वर्णन केवल अद्वैत की समझ के लिए एक साधन हैं, तथ्य नहीं।
अद्वैतवादी (जो अद्वैत का पालन करते हैं) द्वैतवादियों (जो द्वैत का पालन करते हैं) के साथ संघर्ष नहीं करते हैं, क्योंकि वे द्वैत को यथार्थता के एक भिन्न, निम्न क्रम (व्यावहारिक सत्य) के रूप में देखते हैं, जो परमार्थिक सत्य से भिन्न है।
गौडपादचार्य और शंकराचार्य के भाष्य दोनों, इस ज्ञान को जीवन में पूरी तरह से आत्मसात करने पर जोर देते हैं, ताकि व्यक्ति केवल बौद्धिक रूप से इसे समझे नहीं, बल्कि इसे अपने अनुभव का हिस्सा बनाए और 'भूदेव' (पृथ्वी पर देवता) बन सके।
कुल मिलाकर, श्री गौडपादचार्य की कारिकाएँ मांडूक्य उपनिषद की गहन शिक्षाओं को व्यवस्थित और व्याख्यायित करने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, जो चेतना की अवस्थाओं और परम वास्तविकता की अद्वैत प्रकृति को समझने के लिए एक स्पष्ट और संरचित दृष्टिकोण प्रदान करती हैं।
हनुमान को भगवान राम द्वारा मोक्ष हेतु अध्ययन की सलाह
माण्डूक्य उपनिषद् हिंदू धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न माना जाता है। यह दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 मंत्र या श्लोक हैं। अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, इसे बहुत गहरा और प्रभावशाली माना जाता है, जो संपूर्ण वेदांतिक शिक्षाओं के सार को समाहित करता है।
हनुमान को भगवान राम द्वारा मोक्ष हेतु अध्ययन की सलाह: मुक्ति उपनिषद में एक कथा के अनुसार, हनुमान ने भगवान राम से मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग पूछा था। इस पर भगवान राम ने हनुमान को मांडूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह दी, यह कहते हुए कि मोक्ष या कैवल्य की प्राप्ति के लिए यह उपनिषद ही पर्याप्त है। भगवान राम ने आगे कहा कि यदि यह अध्ययन ईश्वर-प्राप्ति या मोक्ष के लिए पर्याप्त न हो, तो वे 10, 32 या संपूर्ण 108 उपनिषदों का अध्ययन करने की सलाह देंगे। यह प्रसंग मांडूक्य उपनिषद के अद्वितीय महत्व को रेखांकित करता है।
मांडूक्य उपनिषद् का व्यापक संदर्भ: मांडूक्य उपनिषद मानव चेतना के संपूर्ण स्पेक्ट्रम में गहराई से उतरता है, जिसमें जाग्रत (जागृत), स्वप्न, और सुषुप्ति की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभव की जाने वाली अवस्थाओं का विश्लेषण किया गया है। यह स्पष्ट रूप से कहता है कि परम वास्तविकता, जिसे 'तुरीय' या 'चौथी अवस्था' कहा जाता है, अद्वैत और निर्गुण है। तुरीय को शुद्ध चेतना, इच्छा और पीड़ा से रहित ज्ञान की अवस्था के बराबर माना जाता है, जिसे सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
यह उपनिषद ओंकार (AUM) के पवित्र एकाक्षर को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में उपयोग करके सत्य के लिए एक अनूठा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, इसके गहन दार्शनिक महत्व को विस्तृत करता है। ओंकार को पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है। अ, उ, म की ध्वनियाँ क्रमशः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं से संबंधित हैं, जबकि दो ओंकारों के जाप के बीच की शांति (अमात्रा) तुरीय, शुद्ध चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।
मांडूक्य उपनिषद की शिक्षाएँ, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत पर केंद्रित हैं। इसे अक्सर शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' ('केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है') से जोड़ा जाता है। श्री गौड़पादाचार्य, जो श्री आदि शंकराचार्य के परम्परा गुरु थे, उन्होंने इस उपनिषद पर अपनी प्रसिद्ध कारिकाएँ लिखीं, और शंकराचार्य ने इन दोनों पर भाष्य (टीका) लिखे हैं, जिनकी आज भी गहनता से व्याख्या की जाती है। गौड़पाद ने आत्मज्ञान को प्राप्त करने में साधक की सहायता के लिए छंदों में ध्यान को जोड़ा। यह ग्रंथ आंतरिक आत्म-ज्ञान और अनुभव की सीधी और तथ्यात्मक प्रस्तुति के लिए जाना जाता है।
वेद का ज्ञान कांड (वेदांत)
वेद का ज्ञान कांड, जिसे वेदांत के नाम से जाना जाता है, भारतीय दर्शन परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह अथर्ववेद का एक मूल्यवान रत्न है।
यहां वेदों के ज्ञान कांड (वेदांत) के बारे में जानकारी दी गई है:
वेदांत की परिभाषा और उद्देश्य
वेदांत वेदों का अंतिम भाग या निष्कर्ष है। "वेद" का अर्थ ज्ञान है और वेदांत ज्ञान के वे ग्रंथ हैं जो मनुष्य को उसके असीमित, आनंदमय स्वरूप (Self) का ज्ञान प्रदान करते हैं और उसके दुख को नष्ट करते हैं।
उपनिषद, जिन्हें वेदांत भी कहा जाता है, गोपनीय शिक्षाएं हैं जिनमें पृथ्वी के दायरे से परे का ज्ञान और वास्तविकता की प्रकृति पर महान ऋषियों की घोषणाएं शामिल हैं।
ज्ञान कांड का अन्य वैदिक खंडों से संबंध
वैदिक परंपरा में, वेदों को तीन मुख्य भागों में बांटा गया है:
मंत्र (संविधान): ये प्रकृति की शक्ति के प्रति भजन हैं।
ब्राह्मण: ये अनुष्ठानों और ध्यान के लिए विस्तृत निर्देश हैं, जिनका उद्देश्य धन, संतान, स्वास्थ्य, और सुखद परलोक जैसे सीमित परिणाम प्राप्त करना है। इन्हें कर्म कांड (कर्तव्य या क्रिया अध्याय) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जो कर्तव्यों और अनुष्ठानों के बारे में नियम-कानून हैं।
आरण्यक या उपनिषद (वेदांत): ये वेदों का तीसरा भाग हैं और ज्ञान कांड (ज्ञान अध्याय) के रूप में जाने जाते हैं। ये उपासना कांड (अनुष्ठान या पूजा अध्याय) से भी भिन्न हैं। उपनिषद प्रकृति, घटना विज्ञान, स्वयं और ब्रह्मांड की मौलिक वास्तविकताओं के बारे में ज्ञान प्रदान करते हैं।
मांडूक्य उपनिषद और वेदांत
मांडूक्य उपनिषद को समस्त वेदांत शिक्षाओं का सार कहा जाता है। यह सभी प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं, फिर भी यह अत्यंत गहरा और महत्वपूर्ण माना जाता है।
मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, मांडूक्य उपनिषद ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है, यदि इसे ठीक से आत्मसात किया जाए।
यह मानव चेतना के पूर्ण स्पेक्ट्रम में गहराई से उतरता है, जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं का विश्लेषण करता है।
यह निर्विवाद रूप से पुष्टि करता है कि अंतिम वास्तविकता, जिसे 'तुरीय' या 'चौथा' कहा जाता है, अद्वैत और गुणों से परे है। तुरीय अवस्था को प्रायः नकारात्मक शब्दों में परिभाषित किया जाता है, यह कहकर कि यह न तो अंतःप्रज्ञा है, न बाह्यप्रज्ञा, न ही यह प्रज्ञा मात्र है।
मांडूक्य उपनिषद सत्य को समझने के लिए पवित्र शब्दांश 'ओम्' (AUM) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में उपयोग करता है और इसके गहन दार्शनिक महत्व पर विस्तार से बताता है। इसमें जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं को ओम् के तीन अक्षरों (अ, उ, म) से और तुरीय को इन तीनों से परे की ध्वनिहीन अवस्था, मौन, से संबंधित किया गया है।
वेदांत के प्रमुख सिद्धांत मांडूक्य उपनिषद में
आत्मा और ब्रह्म की एकता: मांडूक्य उपनिषद के मूल सिद्धांतों में से एक 'अयम् आत्मा ब्रह्म' (यह आत्मा ही ब्रह्म है) का महावाक्य है। यह बताता है कि व्यक्तिगत चेतना (आत्मा) और सार्वभौमिक चेतना (ब्रह्म) एक ही हैं।
सत्यम् और मिथ्या: मांडूक्य के सिद्धांत अक्सर शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' ('केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है') से जुड़े होते हैं। यह सिखाता है कि जो कुछ भी निर्भर है वह मिथ्या (अवास्तविक) है, जैसे कपड़े से बनी कुर्ता या कागज से बनी किताब; जबकि अंतिम वास्तविकता रूप रहित अस्तित्व है, जो शुद्ध चेतना (आत्मा/ब्रह्म) है।
सृष्टि का आभासी स्वरूप: उपनिषद में सृष्टि के बारे में दिए गए वर्णन का उद्देश्य सृष्टि को एक तथ्य के रूप में स्थापित करना नहीं है, बल्कि अद्वैत को समझने में सहायता करना है। सृष्टि के वर्णन में विसंगतियां यह दर्शाती हैं कि सृष्टि वास्तविक नहीं है, बल्कि ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन है। ब्रह्म को विवर्त उपादान कारणम् (apparent material cause) के रूप में समझा जाता है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म बिना स्वयं में परिवर्तन किए ब्रह्मांड के रूप में प्रकट होता है।
राग-द्वेष और अद्वैत: अद्वैत दर्शन अन्य द्वैतवादी दर्शनों से संघर्ष नहीं करता क्योंकि यह द्वैत को परमार्थिक सत्य के बजाय वास्तविकता के निम्न स्तर (मिथ्या) पर मानता है। द्वैतवादी अपने सिद्धांतों से दृढ़ता से जुड़े रहते हैं और एक-दूसरे का खंडन करते हैं, लेकिन अद्वैती उन्हें स्वीकार करते हैं क्योंकि वे द्वैत को अद्वैत पर आरोपित मानते हैं।
संक्षेप में, वेदांत वेदों का ज्ञान कांड है जो परमार्थिक सत्य, आत्मा और ब्रह्म की अद्वैत प्रकृति को उजागर करता है, और मोक्ष के मार्ग के रूप में आत्म-साक्षात्कार पर जोर देता है, जैसा कि मांडूक्य उपनिषद में संक्षेप में और गहराई से वर्णित है।
माण्डूक्य उपनिषद और अद्वैत प्रकरण का परिचय माण्डूक्य उपनिषद वेदांत दर्शन के सबसे प्रभावशाली ग्रंथों में से एक है, जो अपने बारह मंत्रों में संपूर्ण वैदिक उपदेशों का सार समाहित करता है। इसे आकार में सबसे छोटा होने के बावजूद महत्व की दृष्टि से अत्यंत उच्च माना जाता है। भगवान राम ने हनुमान को मोक्ष प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह दी थी, यह दर्शाता है कि मुमुक्षुओं के लिए यह पर्याप्त है।
माण्डूक्य उपनिषद पर गौड़पाद ने "माण्डूक्य कारिका" या "गौड़पाद कारिका" नामक प्रसिद्ध टीका लिखी, जिसे अद्वैत वेदांत का पहला सुव्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। अद्वैत प्रकरण इसी कारिका का तीसरा अध्याय है, जो अद्वैत या अद्वैतवाद (गैर-द्वैतवाद) के दर्शन पर केंद्रित है। यह अध्याय आत्मा (व्यक्तिगत स्व) और ब्रह्म (परम वास्तविकता) की एकात्मकता और गैर-द्वैत को सिद्ध करने पर बल देता है।
अद्वैत प्रकरण का मूल दर्शन अद्वैत प्रकरण का केंद्रीय विषय आत्म-ब्रह्म की अभिन्नता है। यह तर्क देता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत (दुनिया) एक मिथ्या या दिखावा है।
अद्वैत (गैर-द्वैत): गौड़पाद का प्राथमिक लक्ष्य द्वैत की अवास्तविकता को सिद्ध करना है। उनके अनुसार, द्वैत ही सभी समस्याओं और संसार (जन्म-मृत्यु का चक्र) का मूल है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, जीव और ब्रह्म की भिन्नता का कारण माया (अविद्या) है। जब जीव अविद्या से रहित हो जाता है, तो वह स्वयं ब्रह्म बन जाता है।
अजातिवाद (गैर-उत्पत्ति): गौड़पाद का दर्शन अजातिवाद (कोई जन्म नहीं, कोई सृष्टि नहीं) के सिद्धांत पर केंद्रित है, जिसका अर्थ है कि तुरीय से कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं होता है। यदि तुरीय कारण होता, तो इससे उत्पन्न होने वाला कोई प्रभाव द्वैत को जन्म देता और गैर-द्वैत का उल्लंघन करता। चूंकि कोई जीव या ब्रह्मांड वास्तव में उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए तुरीय को उसका कारण नहीं कहा जा सकता।
प्रपंच का मिथ्यात्व: ब्रह्मांड (प्रपंच) को "असत्य" या "मिथ्या" माना जाता है, जिसका अर्थ है कि यह एक दिखावा है, वास्तविक नहीं। गौड़पाद इस तर्क पर जोर देते हैं कि संसार वास्तविक रूप से स्वतंत्र रूप से मौजूद नहीं है, बल्कि यह चेतना में एक उपस्थिति मात्र है।
जीव ब्रह्म ही है: जीव (व्यक्तिगत स्व) को ब्रह्म से अलग नहीं माना जाता है। यह उपनिषद इस बात पर बल देता है कि सभी जीव वास्तव में एक ही ब्रह्म हैं।
प्रमुख अवधारणाएँ और शब्दावली अद्वैत प्रकरण में कई महत्वपूर्ण अवधारणाओं की चर्चा की गई है:
तुरीय: इसे आत्मा की चौथी अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति (गहरी नींद) की तीन अवस्थाओं से परे है। यह शुद्ध चेतना है, अपरिवर्तनीय है, और सभी अवस्थाओं का साक्षी है। तुरीय ही आत्मा है जिसे अनुभव किया जाना है।
प्रपंच : इसका अर्थ है ब्रह्मांड, जो पाँच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) से बना है। इसे तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) या स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के रूप में भी वर्णित किया गया है। प्रपंच को अन-आत्मा (अनात्म) और असत्य माना जाता है।
माया (Maya): इसे ब्रह्म की जटिल मायावी शक्ति के रूप में समझाया गया है जिसके कारण ब्रह्म विभिन्न रूपों के भौतिक ब्रह्मांड के रूप में देखा जाता है। माया के दो मुख्य कार्य हैं: ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाना और उसके स्थान पर भौतिक जगत को प्रस्तुत करना।
उपाधि (Upadhis): ये सीमित करने वाले उपादान हैं (जैसे शरीर, मन, बुद्धि) जो एक ही आत्मा को कई जीवों के रूप में प्रकट करते हैं। आत्मा इन उपाधियों से अछूती रहती है।
अमनीभाव (Amanibhava): इसका अर्थ है "कोई मन नहीं", जहाँ मन अपनी वस्तुनिष्ठ प्रवृत्ति को त्याग देता है। यह बोध की एक व्यावहारिक विधि है जहाँ मन शांत होकर अपने आधार (आत्मा) में स्थापित हो जाता है।
अस्पर्श योग : यह Turia की विशेषता है कि उसका जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं या प्रकट होने वाले संसार से कोई संबंध या संपर्क नहीं है।
निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म: गौड़पाद तुरीय को निर्गुण (गुण रहित) ब्रह्म के रूप में वर्णित करते हैं। सगुण ब्रह्म (गुणों वाला) माया से जुड़ा ब्रह्म है जो भक्तों की पूजा के लिए व्यक्तिगत ईश्वर के रूप में प्रकट होता है, लेकिन दोनों एक ही सत्य के दो दृष्टिकोण हैं।
प्रमाण और तर्क गौड़पाद अद्वैत को सिद्ध करने के लिए तर्क और श्रुति (शास्त्र) दोनों का उपयोग करते हैं। उनका मानना है कि तर्क केवल सत्य की संभावना को इंगित कर सकता है, जबकि ऋषियों के प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित शास्त्र आत्म-ज्ञान के लिए अंतिम अधिकार हैं, क्योंकि मन सीधे गैर-द्वैत को नहीं समझ सकता।
दृष्टांत और उपमाएँ:
घटाकाश (घड़े का आकाश) और महाकाश (महान आकाश): इस उपमा का उपयोग यह समझाने के लिए किया जाता है कि आत्मा एक है, भले ही वह कई जीवों (घड़े के आकाश) के रूप में प्रकट होती है। जिस प्रकार घड़े के टूटने पर घटाकाश महाकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार शरीर के नष्ट होने पर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में बनी रहती है।
स्वप्न का उदाहरण: जाग्रत अवस्था को भी स्वप्न की तरह मिथ्या सिद्ध करने के लिए स्वप्न के अनुभवों का उपयोग किया जाता है। जैसे स्वप्न में देखी गई दुनिया मन में ही उत्पन्न होती है और जागने पर अदृश्य हो जाती है, उसी प्रकार जाग्रत दुनिया भी चेतना में एक दिखावा मात्र है।
रस्सी और सांप: यह उपमा अधिरोपण या भ्रम को दर्शाती है, जहाँ रस्सी पर सांप का भ्रम होता है। सांप की वास्तविकता रस्सी से उधार ली जाती है।
नेति नेति (यह नहीं, यह नहीं): आत्मा का वर्णन यह कहकर किया जाता है कि वह क्या नहीं है (न जाग्रत, न स्वप्न, न सुषुप्ति; न स्थूल, न सूक्ष्म, न कारण, आदि)।
अन्वय-व्यतिरेक (सह-उपस्थिति, सह-अनुपस्थिति): यह तर्क मन के द्वैत होने को स्थापित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
भेद और तुलना
गौड़पाद बनाम शंकर: गौड़पाद का दृष्टिकोण अधिक कट्टरपंथी है। वे व्यावहारिक (व्यवहारिक) और प्रतिभासिक (illusory) वास्तविकताओं को एक ही मानते हैं, दोनों को दिखावे (स्वप्न) के रूप में वर्गीकृत करते हैं। इसके विपरीत, शंकर तीन स्तरों की वास्तविकता (पारमार्थिक, व्यावहारिक, प्रतिभासिक) का परिचय देते हैं। गौड़पाद के दर्शन में कोई "मध्यस्थता" या "छूट" नहीं है, जबकि शंकर विश्व के शिक्षकों के रूप में लोगों को साथ ले जाने के लिए कुछ रियायतें देते हैं।
अद्वैत और द्वैतवादी दर्शन: अद्वैत द्वैत को गैर-द्वैत का एक प्रभाव मानता है और द्वैतवादी विचारों से विवाद नहीं करता, उन्हें अस्थायी कदम या भ्रम के रूप में समझता है। द्वैतवादी, हालांकि, अक्सर अपने विचारों से चिपके रहते हैं और आपस में झगड़ते हैं।
समाधि और गहरी नींद: नियंत्रित मन (समाधि) गहरी नींद से अलग है क्योंकि समाधि ज्ञान की ओर ले जाती है, जबकि गहरी नींद ज्ञान रहित एक निष्क्रिय अवस्था है। समाधि में, मन शांत होता है लेकिन ज्ञान मौजूद रहता है, जबकि गहरी नींद में ज्ञान की अनुपस्थिति होती है।
महत्व और लक्ष्य माण्डूक्य उपनिषद का अध्ययन करने का अंतिम लक्ष्य मोक्ष (मुक्ति या कैवल्य) प्राप्त करना है। यह स्वयं को उस असीम, गैर-द्वैत आत्म के रूप में पहचानने से होता है, जिससे सभी दुख समाप्त हो जाते हैं। यह उपनिषद पर्याप्त माना जाता है यदि इसे ठीक से समझा जाए और अनुभव में आत्मसात किया जाए।
मूल सिद्धांत
माण्डूक्य उपनिषद, जो सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है जिसमें केवल बारह मंत्र हैं, को वेदांत के संपूर्ण ज्ञान का सार माना जाता है। गौड़पाद ने माण्डूक्य उपनिषद पर अपनी प्रसिद्ध टीका, माण्डूक्य कारिका (या गौड़पाद कारिका) लिखी, जिसे अद्वैत वेदांत का पहला व्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। बाद में, आदि शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को विस्तृत किया और उपनिषदों पर भाष्य लिखे।
आपके प्रश्न के संदर्भ में, "अद्वैत प्रकरण" (तीसरा अध्याय) माण्डूक्य कारिका का एक महत्वपूर्ण भाग है जो अद्वैत दर्शन के मूल सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य आत्मन (स्वयं) की अद्वैतता और जगत (ब्रह्मांड) की मिथ्यात्व को स्थापित करना है।
अद्वैत प्रकरण में वर्णित प्रमुख मूल सिद्धांत और अवधारणाएँ इस प्रकार हैं:
ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है):
ब्रह्म ही परम सत्य और अंतिम वास्तविकता है।
जगत् (ब्रह्मांड) केवल एक प्रकट स्वरूप (appearance) है, वह ब्रह्म से स्वतंत्र कोई वास्तविकता नहीं है। यह रस्सी में सांप के भ्रम या स्वप्न के समान है।
जीव (व्यक्तिगत आत्मन) ब्रह्म से अभिन्न है। माया के कारण ही जीव खुद को ब्रह्म से अलग समझता है।
अजातिवाद (उत्पत्ति या सृष्टि का अभाव):
गौड़पाद का एक प्रमुख सिद्धांत अजातिवाद है, जिसका अर्थ है कि परम सत्य (तुरिया/ब्रह्म) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता।
जो कुछ भी "उत्पन्न" होता हुआ प्रतीत होता है, वह वास्तव में केवल एक मायावी प्रकट स्वरूप है, वास्तविक सृष्टि नहीं। यह सिद्धांत द्वैतवादियों के सृष्टि के सिद्धांत का खंडन करता है, जो ब्रह्म में परिवर्तन मानते हैं।
तुरिया (चौथी अवस्था):
माण्डूक्य उपनिषद चेतना की चार अवस्थाओं का विश्लेषण करता है: जाग्रत (जागृति), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरिया (चौथी अवस्था)।
तुरिया परम वास्तविकता है, जो अन्य तीन अवस्थाओं से परे है।
यह अनिर्वचनीय, अग्राह्य, अचिंत्य, और अव्यपदेश्य है। यह न तो बाहरी या आंतरिक दुनिया से अवगत है, न चेतना का ढेर है, और न ही चेतन या अचेतन है।
इसे सच्चिदानंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में वर्णित किया गया है और यह इच्छा और पीड़ा से रहित ज्ञान की शुद्ध अवस्था है।
तुरिया को आत्मन (स्वयं) के समान माना गया है, और इसका बोध ही मोक्ष की प्राप्ति है।
अस्पर्श योग (कोई संबंध नहीं):
यह सिद्धांत बताता है कि तुरिया का जाग्रत, स्वप्न, गहरी नींद या ब्रह्मांड के साथ कोई वास्तविक संबंध या जुड़ाव नहीं है। ब्रह्म को "असंग" आत्मा कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि इसका किसी भी चीज से कोई संपर्क नहीं है।
अमनी भाव (मन का अभाव):
अमनी भाव का अर्थ है मन की गतिविधियों का शमन। तुरिया का बोध प्राप्त करने के लिए, मन को उसकी सक्रिय और बीज अवस्थाओं से परे जाना चाहिए। इसका अर्थ मन को नष्ट करना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि मन अंतिम वास्तविकता नहीं है।
माया का स्वरूप:
अद्वैत मत के अनुसार, माया परमेश्वर की एक जटिल भ्रमकारी शक्ति है, जिसके कारण निर्गुण ब्रह्म सगुण ब्रह्म के रूप में और फिर अलग-अलग रूपों की भौतिक दुनिया के रूप में दिखाई देता है।
माया ब्रह्मांड का एक प्रकट स्वरूप है, और यह वर्णन योग्य नहीं है क्योंकि यह न तो पूरी तरह से वास्तविक है और न ही पूरी तरह से असत्य। यह जीव को भ्रम में रखती है।
तर्क और शास्त्र का महत्व:
गौड़पाद के अद्वैत प्रकरण में, गैर-द्वैतता और विविधता की मिथ्यात्व को सिद्ध करने के लिए तर्क (युक्ति) और शास्त्र (श्रुति प्रमाण) दोनों का उपयोग किया जाता है।
घट-आकाश (बर्तन में आकाश) का दृष्टांत एक महत्वपूर्ण तार्किक उपकरण है। यह बताता है कि कैसे व्यक्तिगत आत्माएं (घट-आकाश) असीमित ब्रह्म (महान आकाश) के केवल प्रकट स्वरूप हैं, और कैसे ब्रह्म स्वयं कई जीवों के जन्म या मृत्यु का कारण नहीं बनता है।
गौड़पाद और शंकराचार्य के बीच अंतर:
गौड़पाद अधिक कट्टरपंथी दृष्टिकोण अपनाते हैं, जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं दोनों को केवल प्रकट स्वरूप (प्रतीभासिक) के रूप में एक ही स्तर पर देखते हैं।
शंकराचार्य वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: पारमार्थिक (अंतिम), व्यावहारिक (सांसारिक), और प्रतीभासिक (भ्रामक)।
हालांकि, शंकराचार्य ने गौड़पाद के अजातिवाद को वेदांत के "पुराने स्कूल" के रूप में मान्यता दी, जबकि स्वयं "नए स्कूल" को आगे बढ़ाया जो दुनिया के लिए एक सापेक्ष वास्तविकता को स्वीकार करता है।
संक्षेप में, अद्वैत प्रकरण में माण्डूक्य उपनिषद के मूल सिद्धांत इस विचार पर केंद्रित हैं कि परम और एकमात्र वास्तविकता ब्रह्म है, जो तुरिया अवस्था में अनुभव किया जाने वाला आत्मन है। ब्रह्मांड और व्यक्तिगत अनुभव केवल माया के कारण प्रकट होते हैं, और मुक्ति इस मूलभूत गैर-द्वैतता को समझने से आती है।
ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या
माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद कारिका का "अद्वैत प्रकरण" अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांतों को गहराई से प्रस्तुत करता है, जिनमें "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है, कोई दूसरा नहीं) की अवधारणा केंद्रीय है।
माण्डूक्य उपनिषद्, अपने केवल बारह मंत्रों के साथ, वेदांत के संपूर्ण ज्ञान का सार माना जाता है। गौड़पाद ने इस उपनिषद् पर अपनी प्रसिद्ध टीका, माण्डूक्य कारिका (या गौड़पाद कारिका) लिखी, जिसे अद्वैत वेदांत का पहला व्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। आदि शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को विस्तृत किया और उपनिषदों पर भाष्य लिखे, जिसमें उन्होंने माण्डूक्य उपनिषद् और कारिका को "वेदांत के सार का प्रतीक" बताया। अद्वैत प्रकरण (माण्डूक्य कारिका का तीसरा अध्याय) ब्रह्म की अद्वैतता और जगत की मिथ्यात्व को स्थापित करने के लिए तर्क (युक्ति) और शास्त्र (श्रुति प्रमाण) दोनों का उपयोग करता है।
ब्रह्म की सत्यता (ब्रह्म सत्यम्) अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही परम सत्य और अंतिम वास्तविकता है। इसे सीमित नहीं किया जा सकता, यह अपरिवर्तनीय है, और यह द्वैत से परे है।
निर्गुण ब्रह्म: ब्रह्म को निर्गुण कहा जाता है, जिसका अर्थ है बिना किसी गुण या विशेषता के। शंकराचार्य ब्रह्म के दो रूप मानते हैं: अविद्या (माया) उपाधि सहित (सगुण ब्रह्म), जिसे ईश्वर कहा जाता है, और सभी उपाधियों से रहित शुद्ध ब्रह्म (निर्गुण ब्रह्म)। निर्गुण ब्रह्म को सर्वोच्च ब्रह्म माना जाता है, जबकि सगुण ब्रह्म को सापेक्ष या व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाता है।
तुरिया (चौथी अवस्था): माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का विश्लेषण करता है: जाग्रत (जागृति), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरिया (चौथी अवस्था)। तुरिया को परम वास्तविकता, आत्मन, या ब्रह्म के समान माना गया है। यह अन्य तीन अवस्थाओं से परे है और उन्हें प्रकाशित करती है, लेकिन उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसे अनिर्वचनीय, अग्राह्य, अचिंत्य, और अव्यपदेश्य बताया गया है, जो इच्छा और पीड़ा से रहित ज्ञान की शुद्ध अवस्था है, जिसे सच्चिदानंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
अजातिवाद (उत्पत्ति का अभाव): गौड़पाद का एक मूलभूत सिद्धांत अजातिवाद है, जिसका अर्थ है कि परम सत्य (तुरिया/ब्रह्म) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। जो कुछ भी "उत्पन्न" होता हुआ प्रतीत होता है, वह वास्तव में केवल एक मायावी प्रकट स्वरूप है, वास्तविक सृष्टि नहीं। यह सिद्धांत ब्रह्म में परिवर्तन मानने वाले सृष्टि के सिद्धांतों का खंडन करता है।
जगत की मिथ्यात्व (जगत् मिथ्या) अद्वैत वेदांत के अनुसार, जगत् (ब्रह्मांड) केवल एक प्रकट स्वरूप (appearance) या भ्रम (illusion) है, यह ब्रह्म से स्वतंत्र कोई वास्तविकता नहीं है।
माया का स्वरूप: माया परमेश्वर की एक जटिल भ्रमकारी शक्ति है, जिसके कारण निर्गुण ब्रह्म सगुण ब्रह्म के रूप में और फिर अलग-अलग रूपों की भौतिक दुनिया के रूप में दिखाई देता है। माया ब्रह्मांड का एक प्रकट स्वरूप है, और यह अनिर्वचनीय है—न तो पूरी तरह से वास्तविक और न ही पूरी तरह से असत्य। यह जीव को भ्रम में रखती है।
जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं का मिथ्यात्व: गौड़पाद जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं दोनों को केवल प्रकट स्वरूप (प्रातिभासिक) के रूप में एक ही स्तर पर देखते हैं, क्योंकि दोनों ही अनुभव प्रकट स्वरूप या आभास हैं। शंकराचार्य वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: पारमार्थिक (अंतिम सत्य), व्यावहारिक (सांसारिक, जाग्रत अवस्था), और प्रातिभासिक (भ्रामक, स्वप्न या भ्रम)।
दृष्टांत: रस्सी में सांप के भ्रम और स्वप्न के दृष्टांत का उपयोग जगत की मिथ्यात्व को समझाने के लिए किया जाता है। स्वप्न में देखी गई दुनिया उतनी ही वास्तविक लगती है जितनी जाग्रत दुनिया, लेकिन जागने पर वह असत्य सिद्ध होती है। इसी तरह, जाग्रत दुनिया भी परम वास्तविकता नहीं है।
जीव ब्रह्म ही है (जीवो ब्रह्मैव नापरः) यह सिद्धांत बताता है कि व्यक्तिगत आत्मन (जीव) ब्रह्म से अभिन्न है। माया के कारण ही जीव खुद को ब्रह्म से अलग समझता है।
उपाधियों का प्रभाव: व्यक्तिगत जीव की विभिन्नता उपाधि (सीमित उपांगों या शरीरों) के कारण प्रतीत होती है। जैसे घट-आकाश (बर्तन में आकाश) महान आकाश से भिन्न नहीं होता, वैसे ही जीव भी परम आत्मन से भिन्न नहीं है। जब उपाधियाँ (शरीर, मन, बुद्धि) टूट जाती हैं या उनका निषेध किया जाता है, तो जीव अपने सच्चे स्वरूप (आत्मन) में विलीन हो जाता है।
मोक्ष: अद्वैत दर्शन में मोक्ष (मुक्ति) का अर्थ है इस मूलभूत गैर-द्वैतता को समझना या अनुभव करना। यह शरीर रहते हुए (जीवनमुक्ति) भी प्राप्त किया जा सकता है, जहाँ व्यक्ति सभी मायावी प्रकट स्वरूपों को केवल एक प्रकट स्वरूप के रूप में देखता है, वास्तविकता के रूप में नहीं।
माण्डूक्य कारिका का "अद्वैत प्रकरण" यह अध्याय अद्वैत दर्शन के मूल सिद्धांतों का व्यवस्थित प्रतिपादन करता है। गौड़पाद ने गैर-द्वैतता (अद्वैत) और विविधता की मिथ्यात्व (प्रपंचोपशम या मिथ्यात्व) को सिद्ध करने के लिए तर्क (युक्ति) और शास्त्र (श्रुति) दोनों का उपयोग किया है। इसमें द्वैतवादी सिद्धांतों को सांसारिक और अंतिम सत्य की प्राप्ति के लिए अपर्याप्त बताया गया है। अद्वैत प्रकरण में अजातिवाद (उत्पत्ति का अभाव), अस्पर्श योग (कोई संबंध नहीं), और अमनी भाव (मन का अभाव) जैसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर जोर दिया गया है, जो आत्मन की गैर-द्वैतता को सिद्ध करने के लिए आवश्यक हैं।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद कारिका का "अद्वैत प्रकरण" यह स्थापित करता है कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है, यह जगत माया के कारण एक मिथ्या प्रकट स्वरूप है, और व्यक्तिगत जीव वास्तव में इस ब्रह्म से अभिन्न है। इस अद्वैत स्वरूप की समझ ही मोक्ष और परम शांति की ओर ले जाती है।
जीवो ब्रह्मैव न परः
अद्वैत वेदान्त का मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव न परः" है, जिसका अर्थ है ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत एक मिथ्या है (या एक उपस्थिति है), और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह वाक्यांश अद्वैत दर्शन के केंद्रीय उपदेशों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है, जिसका विस्तृत विवेचन मांडूक्य उपनिषद और गौड़पाद की कारिकाओं में मिलता है।
जीव (व्यक्तिगत आत्मा) की प्रकृति: अद्वैत मत के अनुसार, माया के संबंध के कारण ही ब्रह्म जीव कहलाता है। यह माया जीव को अनादिकाल से ब्रह्म से भिन्न समझने का भ्रम देती है। स्वामी कृष्णानंद के अनुसार, जीव में द्वैत प्रकृति होती है: एक ईश्वरीय अंश जो उसका गरिमापूर्ण स्वभाव है, और दूसरा जीवत्व का अंश जो उसे संसार के बंधन में बांधता है। जीव की चेतना बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत होती है, वस्तुओं से प्रभावित होती है, और उन्हें अपनी इच्छाओं के अनुसार मूल्यांकित और न्याय करती है, जिससे उसे दुःख और बंधन होता है। जीव की चेतना सीमित (अल्पज्ञ) है और वह एक समय में केवल कुछ ही वस्तुओं का अनुभव कर सकता है, जबकि ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है।
ब्रह्म (परम सत्य) की प्रकृति: ब्रह्म को परम सत्य, अनंत, शुद्ध चेतना और द्वैतरहित के रूप में वर्णित किया गया है। यह निर्गुण (गुणरहित) ब्रह्म है, जिसे सगुण (गुणों सहित) ईश्वर के रूप में भी प्रकट होता है। ब्रह्म को अनादि, अव्यक्त और अपरिवर्तनीय बताया गया है। ब्रह्म सृष्टि का कारण नहीं है (अजातिवाद)। गोड़पाद तर्क देते हैं कि तुरीय कारण नहीं है, क्योंकि यदि यह कारण होता, तो इससे कुछ उत्पन्न होता और द्वैत आ जाता। चूंकि कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, इसलिए यह कारण नहीं है और द्वैत रहित है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है।
जीवात्मा और परमात्मा की अभिन्नता (अभेद/अनन्यत्व): "जीवो ब्रह्मैव न परः" का अर्थ है कि जीव ब्रह्म से अलग नहीं है। यह मांडूक्य उपनिषद का मुख्य संदेश है। इस पहचान को स्पष्ट करने के लिए कई उदाहरण और सिद्धांत दिए गए हैं:
महावाक्य: उपनिषदों के महावाक्य जैसे "तत्त्वमसि" (तुम वह हो), "अहम् ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ), और "अयमात्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ही ब्रह्म है) इस अभिन्नता की पुष्टि करते हैं।
घट-आकाश दृष्टांत: यह समझाने के लिए कि व्यक्तिगत आत्माएं (जीव) और परम आत्मा (ब्रह्म) वास्तव में भिन्न नहीं हैं, घट-आकाश (बर्तन के भीतर का स्थान) और महाकाश (कुल स्थान) का उदाहरण दिया जाता है। जिस प्रकार बर्तन के टूटने पर बर्तन के भीतर का आकाश महाकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार देह के नष्ट होने पर जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है। बर्तन के अंदर का स्थान और बाहर का स्थान अलग नहीं हैं; वे एक ही आकाश हैं।
स्वप्न दृष्टांत: मांडूक्य उपनिषद स्वप्न के उदाहरण का उपयोग करके यह सिद्ध करता है कि जागृत अवस्था भी स्वप्न जैसी ही है। जिस प्रकार स्वप्न का अनुभव करने वाले के मन में स्वप्न जगत उत्पन्न होता है और वह स्वप्न देखने वाले से भिन्न नहीं होता, उसी प्रकार जागृत जगत भी चेतना में एक उपस्थिति मात्र है। जब हम जागते हैं, तो स्वप्न की दुनिया अवास्तविक हो जाती है। इसी तरह, जब हम आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करते हैं, तो जागृत दुनिया भी अवास्तविक प्रतीत होती है।
उपाधियों का निषेध: जीव और ब्रह्म के बीच की भिन्नता उपाधियों (शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक आवरणों) के कारण है। जब इन उपाधियों को अवास्तविक जान लिया जाता है, तो आत्मा की शुद्ध, अदूषित प्रकृति प्रकट होती है।
माया और जगत की मिथ्यात्व: अद्वैत मत के अनुसार, जगत मिथ्या है। इसका अर्थ यह नहीं कि जगत का कोई अस्तित्व नहीं है, बल्कि यह एक अवास्तविक उपस्थिति है। माया ब्रह्म की वह शक्ति है जो ब्रह्मांड को प्रकट करती है और ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाती है। शंकराचार्य के अनुसार, माया को अनिर्वचनीय माना गया है, यानी यह न तो पूरी तरह से वास्तविक है और न ही पूरी तरह से असत्य। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विलय का भ्रम इसी माया के कारण होता है।
साक्षात्कार (मोक्ष) की प्रक्रिया: आत्म-साक्षात्कार का अर्थ "मैं वह हूँ" की पहचान है। यह किसी वस्तु को खोजने के बारे में नहीं है, बल्कि यह जानने के बारे में है कि आप पहले से ही वह हैं।
ज्ञान मार्ग: अद्वैत में, ज्ञान को मोक्ष का प्राथमिक साधन माना गया है, कर्म या भक्ति नहीं, हालांकि वे मन की शुद्धि में सहायक होते हैं।
अमनी भाव: आत्म-साक्षात्कार के लिए मन को 'मन-रहित' (अमनी भाव) अवस्था में लाना आवश्यक है। इस अवस्था में द्वैत (वस्तु-विषय का भेद) का बोध नहीं होता।
तुरीय अवस्था: चेतना की चौथी अवस्था, तुरीय, वह पारलौकिक अवस्था है जहां कोई द्वैत या घटना नहीं होती। यह शुद्ध आनंद और निडरता की स्थिति है, जहां आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं। मांडूक्य उपनिषद तुरीय को अवर्णनीय, अदृश्य, अविचारणीय, और व्यवहार से परे बताता है। श्री रमण महर्षि के अनुसार, तुरीय आत्म का ही दूसरा नाम है, और यह जीवनमुक्ति (इस जीवन में मुक्ति) की अवस्था है।
कुल मिलाकर, "जीवो ब्रह्मैव न परः" अद्वैत वेदान्त का सार है जो व्यक्तिगत आत्मा (जीव) की परम वास्तविकता (ब्रह्म) के साथ अंतिम अभिन्नता को घोषित करता है, और यह समझाता है कि इस अभिन्नता का अनुभव माया के कारण होने वाले भ्रम और द्वैत की उपस्थिति को दूर करके ही संभव है। यह मुक्ति का अंतिम लक्ष्य है।
प्रपंचोपशमम्, शान्तम, शिवम्, अद्वैतम
अद्वैत वेदान्त का मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव न परः" है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत एक मिथ्या (या उपस्थिति) है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह मूल सिद्धांत गौड़पाद की कारिका और उपनिषदों में विस्तृत रूप से प्रतिपादित है, विशेषकर मांडूक्य उपनिषद में।
प्रपंचोपशमम् (Prapañcopaśamam), शान्तम् (Śāntam), शिवम् (Śivam), अद्वैतम् (Advaitam), ये चार विशेषण चेतना की चौथी अवस्था तुरीय को परिभाषित करते हैं। तुरीय आत्मा का ही दूसरा नाम है और यह परम सत्य, ब्रह्म का स्वरूप है, जिसे प्राप्त करने पर सभी भ्रम और दुःख दूर हो जाते हैं।
आइए, इन शब्दों का विस्तार से विश्लेषण करते हैं, जो अद्वैत के मूल सिद्धांत को समझने में सहायक हैं:
प्रपंचोपशमम् (Prapañcopaśamam) - समस्त प्रपंच या द्वैत का उपशम या निवृत्ति:
"प्रपंच" शब्द का अर्थ है जगत या ब्रह्मांड। अद्वैत वेदान्त में, जगत को मिथ्या या एक उपस्थिति (appearance) माना जाता है, वास्तविक नहीं।
प्रपंचोपशमम् का अर्थ है द्वैत (द्वैतभाव) का अभाव या सभी घटनाओं का समाप्त हो जाना। यह नहीं कि जगत भौतिक रूप से नष्ट हो जाता है, बल्कि यह समझना कि जगत ब्रह्म से अलग एक स्वतंत्र वास्तविकता नहीं है, बल्कि चेतना में एक उपस्थिति मात्र है। शंकराचार्य के अनुसार, यह "सभी नाम और नामयोग्य वस्तुओं का गायब होना" है, जो मन और वाणी के ही रूप हैं।
तुरीय अवस्था में द्वैत का अनुभव नहीं होता। गौड़पाद तर्क देते हैं कि द्वैत ही संसार (जन्म, मृत्यु, दुःख, परिवर्तन) का मूल कारण है। द्वैत के समाप्त होने पर ही दुखों का नाश होता है।
माया ही ब्रह्मांड को प्रकट करती है और ब्रह्म को सामान्य मानव बोध से छिपाती है, जिससे द्वैत का भ्रम उत्पन्न होता है। प्रपंचोपशमम् की अवस्था माया के कारण होने वाले इस भ्रम से मुक्ति है।
यह अवस्था तब प्राप्त होती है जब मन को 'अमनी भाव' (मन-रहित अवस्था) में लाया जाता है। इस स्थिति में "ग्रहण योग्य वस्तुओं के अभाव में, यह (मन) इंद्रियों की भ्रम से मुक्त हो जाता है"।
शान्तम् (Śāntam) - शांत, स्थिर और निवृत्त:
तुरीय को पूरी तरह से शांत, प्रशांत (supra-praśāntaḥ) और निडरता (अभय) की स्थिति के रूप में वर्णित किया गया है।
यह वह अवस्था है जहाँ सभी मानसिक गतिविधियाँ शांत हो जाती हैं। जिस प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न के अनुभव शांत हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्म-साक्षात्कार पर जाग्रत अवस्था के अनुभव भी शांत हो जाते हैं।
यह उस परम शांति को दर्शाता है जो द्वैत की समाप्ति के साथ आती है।
शिवम् (Śivam) - शुभ, कल्याणकारी और आनंदमय:
तुरीय को पूर्ण शुभ (all good) और परम आनंद (pure bliss) के रूप में वर्णित किया गया है।
यह शुद्ध आनंद, निडरता और निर्विकारता (विकारों से रहित) की स्थिति है।
यह किसी भी नकारात्मकता या विपरीत से रहित है। आत्मा को आंतरिक रूप से शुद्ध और निष्कलंक माना जाता है, भले ही अज्ञान के कारण यह अशुद्ध प्रतीत हो।
अद्वैतम् (Advaitam) - अद्वैत, द्वितीय रहित:
यह अद्वैत वेदान्त का केंद्रीय दर्शन है कि कोई द्वितीय वस्तु नहीं है; केवल एक ही परम सत्य है।
इसकी पुष्टि 'अजातिवाद' (non-origination or no creation) के सिद्धांत से की जाती है, जो कहता है कि तुरीय (ब्रह्म) किसी भी जीव या जगत का कारण नहीं है, क्योंकि यदि कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैत आ जाता। "कोई भी जीव कभी उत्पन्न नहीं होता है"।
जीव और ब्रह्म की अभिन्नता: "जीवो ब्रह्मैव न परः" मूल सिद्धांत है। व्यक्तिगत आत्मा (जीव) ब्रह्म से भिन्न नहीं है, ठीक उसी तरह जैसे घट के भीतर का आकाश (घटाकाश) कुल आकाश (महाकाश) से भिन्न नहीं है।
"तत्त्वमसि", "अहम् ब्रह्मास्मि", और "अयमात्मा ब्रह्म" जैसे महावाक्य इस अभिन्नता की पुष्टि करते हैं।
यह तुरीय अवस्था काल, स्थान, व्यक्ति या वस्तुओं से परे है।
सारांश में, प्रपंचोपशमम्, शान्तम्, शिवम्, अद्वैतम् ये विशेषण तुरीय अवस्था को ब्रह्म के रूप में वर्णित करते हैं, जो समस्त द्वैत, माया और दुखों से रहित, परम शांत, शुभ और एकत्व की स्थिति है। इस अवस्था की प्राप्ति अद्वैत वेदान्त के मूल सिद्धांत "जीवो ब्रह्मैव न परः" का अंतिम अनुभव है, जहाँ जीव अपने वास्तविक ब्रह्म स्वरूप को जानकर संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है।
आत्मा की चार अवस्थाएँ (चतुष्पाद)
मांडूक्य उपनिषद, जिसे अद्वैत वेदान्त का एक संक्षिप्त और शक्तिशाली सार माना जाता है, चेतना की चार अवस्थाओं (चतुष्पाद) का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है। गौड़पाद की कारिका और आदि शंकराचार्य के भाष्य इन अवस्थाओं को अद्वैत प्रकरण के वृहत्तर संदर्भ में स्पष्ट करते हैं, जिसका मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव न परः" है—अर्थात् ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत मिथ्या (एक प्रतीति) है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है।
आत्मा को यहाँ "चतुष्पाद" या 'चार-पदा वाला' कहा गया है, जो आत्मा के चार पहलुओं या अवस्थाओं को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाता है, न कि कोई वास्तविक विभाजन। ये चार अवस्थाएँ इस प्रकार हैं:
जाग्रत् अवस्था (Waking State):
यह चेतना की पहली अवस्था है, जहाँ आत्मा स्थूल वस्तुओं का अनुभवकर्ता "वैश्वानर" (व्यक्तिगत) या "विराट" (सामूहिक/ब्रह्मांडीय) के रूप में जानी जाती है।
इस अवस्था में चेतना बाह्यमुखी (बहिःप्रज्ञ) होती है और इंद्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार, पाँच प्राणों तथा पाँच कर्मेन्द्रियों सहित उन्नीस मुखों (साधनों) के माध्यम से स्थूल जगत का अनुभव करती है।
सामान्य व्यक्ति के लिए यह अवस्था वास्तविक प्रतीत होती है। वैश्वानर अवस्था में भी इच्छाएँ (कामनाएँ) मौजूद होती हैं, जो जीव को संसार से जोड़ती हैं।
स्वप्न अवस्था (Dream State):
यह चेतना की दूसरी अवस्था है, जहाँ आत्मा सूक्ष्म वस्तुओं का अनुभवकर्ता "तैजस" (व्यक्तिगत) या "हिरण्यगर्भ" (सामूहिक/ब्रह्मांडीय मन) के रूप में जानी जाती है।
इस अवस्था में चेतना आंतरिकमुखी (अंतःप्रज्ञ) होती है, और जाग्रत् अवस्था के अनुभवों से उत्पन्न सूक्ष्म संस्कारों और विचारों का अनुभव करती है।
स्वप्न जगत, स्वप्न देखते समय वास्तविक प्रतीत होता है, लेकिन जाग्रत् होने पर अवास्तविक सिद्ध होता है। गौड़पाद और शंकराचार्य, जाग्रत् और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को प्रतीति मात्र मानते हैं।
सुषुप्ति अवस्था (Deep Sleep State):
यह चेतना की तीसरी अवस्था है, जहाँ सभी अनुभव अविभेदित चेतना के पुंज में विलीन हो जाते हैं। यहाँ न कोई इच्छा होती है, न बाहरी वस्तुएँ और न ही आंतरिक।
इस अवस्था में आत्मा "प्राज्ञ" (व्यक्तिगत) या "ईश्वर" (सामूहिक) के रूप में जानी जाती है।
यह जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं का कारण शरीर या बीज अवस्था मानी जाती है, जिससे अन्य दो अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं और जिसमें वे विलीन हो जाती हैं।
यह आनंदमय स्थिति है, क्योंकि इसमें मन की कोई हलचल नहीं होती। प्राज्ञ सर्वेश्वर और सर्वज्ञ है, तथा समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और लय का कारण है।
यह अवस्था साक्षी (गवाह) के रूप में देखी जाती है, जो सभी अन्य अवस्थाओं का साक्षी है, लेकिन स्वयं उनसे अप्रभावित रहता है।
तुरीय अवस्था (Turīya - The Fourth State):
तुरीय आत्मा का सच्चा और अंतिम स्वरूप है। यह ब्रह्म और आत्मा की अभिन्नता को दर्शाता है।
यह तीनों अवस्थाओं (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे है, न आंतरिक, न बाहरी, न प्रज्ञानघन, न ही चेतन या अचेतन।
तुरीय को चार मुख्य विशेषणों द्वारा परिभाषित किया जाता है, जो इसके परम स्वरूप को दर्शाते हैं:
प्रपंचोपशमम् (Prapañcopaśamam): इसका अर्थ है समस्त प्रपंच या द्वैत की निवृत्ति। यह जगत का भौतिक विनाश नहीं है, बल्कि यह बोध है कि जगत ब्रह्म से अलग एक स्वतंत्र वास्तविकता नहीं है, बल्कि चेतना में एक प्रतीति मात्र है। शंकराचार्य के अनुसार, यह "सभी नाम और नामयोग्य वस्तुओं का गायब होना" है, जो मन और वाणी के ही रूप हैं।
शान्तम् (Śāntam): तुरीय पूर्ण रूप से शांत, प्रशांत और निडरता (अभय) की स्थिति है। यह वह अवस्था है जहाँ सभी मानसिक गतिविधियाँ शांत हो जाती हैं।
शिवम् (Śivam): तुरीय को पूर्ण शुभ (all good) और परम आनंद (pure bliss) के रूप में वर्णित किया गया है। यह किसी भी नकारात्मकता या विपरीत से रहित है।
अद्वैतम् (Advaitam): यह अद्वैत वेदान्त का केंद्रीय दर्शन है कि कोई द्वितीय वस्तु नहीं है; केवल एक ही परम सत्य है। इसकी पुष्टि 'अजातिवाद' (non-origination or no creation) के सिद्धांत से की जाती है, जो कहता है कि तुरीय (ब्रह्म) किसी भी जीव या जगत का कारण नहीं है, क्योंकि यदि कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैत आ जाता। "जीवो ब्रह्मैव न परः" (जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है) इसका मूल सिद्धांत है।
तुरीय अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य है। इसे इंद्रियों द्वारा नहीं देखा जा सकता, मन द्वारा समझा नहीं जा सकता, अनुमान से प्राप्त नहीं किया जा सकता, और शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता।
आत्मा-अनुभूति (Self-Realization) का परम लक्ष्य तुरीय की प्राप्ति है, जिसे मोक्ष कहा जाता है। यह दुःख और भ्रम को दूर करता है। तुरीय कोई "अवस्था" नहीं है जिसे प्राप्त किया जाए, बल्कि यह वह है जो आप पहले से ही हैं।
तुरीयातीत (Turiyatita) शब्द, जिसका अर्थ 'चौथी से परे' है, वास्तव में तुरीय का ही एक और नाम है, जो इसकी किसी भी "अवस्था" के वर्गीकरण से परे की प्रकृति पर जोर देता है।
मांडूक्य कारिका के अद्वैत प्रकरण (तीसरा अध्याय) का मुख्य उद्देश्य आत्मा की अद्वैतता (तुरीय) को तार्किक और शास्त्रीय प्रमाणों से स्थापित करना है। यह प्रकरण द्वैत को संसार का मूल कारण मानता है, और अजातिवाद के माध्यम से यह सिद्ध करता है कि ब्रह्म किसी भी वस्तु का कारण नहीं है, जिससे उसकी अद्वैतता सिद्ध होती है। इस प्रकार, आत्मा की चार अवस्थाओं का यह विश्लेषण, विशेषकर तुरीय का वर्णन, अद्वैत वेदान्त के "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या" के मूल सिद्धांत की पुष्टि करता है, जहाँ जीव अंततः अपने ब्रह्म स्वरूप को पहचानकर सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है।
जाग्रत (वैश्वानर)
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं, जिन्हें आत्मा की चतुष्पाद कहा जाता है, का गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करता है। ये चार अवस्थाएँ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, और तुरीय हैं।
जाग्रत अवस्था (वैश्वानर) जाग्रत अवस्था, जिसे वैश्वानर (Waker) भी कहते हैं, आत्मा की पहली और सबसे बाहरी अवस्था है। इस अवस्था में चेतना बाह्य विषयों पर केंद्रित होती है।
स्थूल वस्तुओं का भोग: जाग्रत अवस्था में व्यक्ति स्थूल, यानी भौतिक वस्तुओं का उपभोग करता है, इसलिए इसे 'स्थूलभुक्' कहा गया है।
बाह्य चेतना: यह चेतना स्वयं पर केंद्रित न होकर बाहरी वस्तुओं और उनसे होने वाली क्रियाओं में व्यस्त रहती है। व्यक्ति बाहरी दुनिया के प्रति सचेत रहता है और वह सब कुछ ग्रहण करता है जो इंद्रियों और मन के माध्यम से उसके सामने आता है।
सप्त अंग और उन्नीस मुख: माण्डूक्य उपनिषद् जाग्रत चेतना को सात अंगों (सप्त अंग) और उन्नीस मुखों (एकान्नविंशतिमुख) वाला बताता है।
सात अंग (कॉस्मिक वैश्वानर): ये विराट पुरुष के ब्रह्मांडीय स्वरूप को दर्शाते हैं। मुण्डक उपनिषद् के अनुसार, अग्नि (स्वर्ग) उसका सिर है, सूर्य और चंद्रमा उसकी आँखें हैं, दिशाएँ उसके कान हैं, वेद उसकी वाणी हैं, वायु उसका प्राण है, समस्त ब्रह्मांड उसका हृदय है और पृथ्वी उसके पैर हैं। यह ब्रह्मांडीय चेतना, जो भौतिक ब्रह्मांड को चेतन करती है, विराट कहलाती है। विराट के लिए, चेतन और अचेतन पदार्थ में कोई अंतर नहीं होता।
उन्नीस मुख (व्यक्तिगत विश्व): ये व्यक्तिगत जीवात्मा (विश्व) के कार्य-साधन हैं, जिनके माध्यम से वह बाहरी दुनिया से संपर्क स्थापित करता है और उसे आत्मसात करता है। इनमें पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (कान, त्वचा, आँखें, जीभ, नाक), पाँच कर्मेंद्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननांग, गुदा), पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), और मन के चार अंग (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त या अवचेतन) शामिल हैं।
व्यक्तिगत और ब्रह्मांडीय पहलू: माण्डूक्य उपनिषद् जाग्रत अवस्था में आत्मा को सूक्ष्म और स्थूल दोनों दृष्टिकोणों से देखता है। जहाँ विश्व व्यक्तिगत जाग्रत चेतना है जो भौतिक शरीर को चेतन करती है, वहीं वैश्वानर ब्रह्मांडीय जाग्रत चेतना है जो समस्त भौतिक ब्रह्मांड पर शासन करती है।
अंतर: हालाँकि दोनों बाह्य रूप से सचेत (बहिःप्रज्ञ) हैं, जीवात्मा (विश्व) की चेतना बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत होती है और इच्छा, पसंद-नापसंद और निर्णय के कारण उसे संसार से बांधती है। इसके विपरीत, विराट की बाह्य चेतना "अहम् अस्मि" (मैं हूँ) के सार्वभौमिक affirmation (पुष्टि) के रूप में होती है, जिसमें कोई विरोधी वस्तु नहीं होती और इसलिए कोई पीड़ा या इच्छा नहीं होती। विराट का ज्ञान अंतर्दृष्टि है, जबकि जीव का ज्ञान इंद्रिय-आधारित होता है।
अनादि-भाव: अद्वैत वेदान्त के अनुसार, जाग्रत अवस्था सहित पूरा ब्रह्मांड माया का प्रभाव है। यह केवल एक आभास है, वास्तविक नहीं। जिस प्रकार अँधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना एक भ्रम है, उसी प्रकार इस मिथ्या संसार को सत्य मानना भी अविद्या (अज्ञान) के कारण है। अष्टावक्र ने राजा जनक के स्वप्न और जाग्रत अनुभवों की तुलना करते हुए समझाया कि न तो स्वप्न की दुनिया और न ही जाग्रत की दुनिया सत्य है, केवल 'आप' (चेतना) ही सत्य है।
यह जाग्रत अवस्था चेतना की चार अवस्थाओं में से पहली है, जो आत्मा के अन्वेषण और आत्म-ज्ञान की ओर बढ़ने के लिए एक आधार के रूप में कार्य करती है, ताकि अंततः तुरीय की परम वास्तविकता का अनुभव किया जा सके।
बाहरी जगत का अनुभव
माण्डूक्य उपनिषद् और अद्वैत वेदांत के अनुसार, बाहरी जगत का अनुभव जाग्रत अवस्था (वैश्वानर) में चेतना की एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है, जिसकी गहन व्याख्या विभिन्न स्रोतों में मिलती है।
यहाँ बाहरी जगत के अनुभव के संबंध में जाग्रत अवस्था की मुख्य बातें दी गई हैं:
जाग्रत अवस्था की प्रकृति (Nature of Waking State):
माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन करता है: जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय.
जाग्रत अवस्था चेतना की वह पहली अवस्था है जो इंद्रिय-प्रत्यक्ष और मानसिक बोध पर आधारित होती है. इस अवस्था में व्यक्ति बाहरी वस्तुओं के प्रति जागरूक होता है और स्थूल विषयों का अनुभव करता है.
जब चेतना भौतिक ब्रह्मांड को अपने शरीर के रूप में देखती है, तो इस अवस्था में आत्मा को वैश्वानर (ब्रह्मांडीय जाग्रत) कहा जाता है. व्यक्तिगत स्तर पर, इस अवस्था में आत्मा विश्व कहलाती है.
जाग्रत चेतना बहिःप्राज्ञ (बाहरी रूप से सचेत) होती है, जिसका अर्थ है कि यह केवल बाहरी वस्तुओं के प्रति जागरूक होती है, आंतरिक वस्तुओं के प्रति नहीं.
बाहरी जगत का अनुभव (Experience of the External World):
जाग्रत अवस्था में व्यक्ति स्वयं को एक जाग्रत सत्ता के रूप में देखता है, और यह विश्वास कि वह एक जाग्रत है, इस दृढ़ विश्वास के साथ आता है कि जाग्रत अवस्था के भौतिक, भावनात्मक और बौद्धिक पदार्थ वास्तविक हैं.
उपनिषदों के अनुसार, जाग्रत चेतना के उन्नीस मुख होते हैं, जिनमें पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, पांच प्राण और चार आंतरिक मानसिक अंग (मन, बुद्धि, अहंकार, और चित्त/स्मृति) शामिल हैं. इन्हीं मुखों के माध्यम से व्यक्ति बाहरी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करता है और स्थूल भौतिक वस्तुओं का अनुभव करता है.
आत्मन्, जाग्रत अवस्था में, शरीर-मन-बुद्धि के माध्यम से चमकती है और भौतिक व सूक्ष्म दोनों प्रकार के संसार का अनुभव करती है.
जाग्रत जगत की यथार्थता पर अद्वैत वेदांत का दृष्टिकोण (Advaita Vedanta's View on the Reality of the Waking World):
अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और यह जगत मिथ्या है (ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या). गौडपाद के अनुसार, जगत एक प्रतीति (appearance) मात्र है, कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं.
जिस प्रकार स्वप्न की दुनिया हमें वास्तविक लगती है जब तक हम जाग नहीं जाते, उसी प्रकार जाग्रत दुनिया भी तब तक वास्तविक प्रतीत होती है जब तक हमें आत्म-ज्ञान नहीं हो जाता. गौडपाद जाग्रत अवस्था को भी स्वप्न के समान ही मानते हैं, यह दर्शाते हुए कि दोनों ही केवल प्रतीतियां हैं.
आदि शंकर वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: पारमार्थिक (परम सत्य ब्रह्म), व्यावहारिक (जाग्रत अवस्था का लेन-देन संबंधी संसार), और प्रातिभासिक (भ्रम या स्वप्न). गौडपाद, अपने अधिक कट्टरपंथी मत में, व्यावहारिक और प्रातिभासिक दोनों को प्रातिभासिक मानते हुए उन्हें एक कर देते हैं.
ज्ञान के उदय होने पर यह भौतिक जगत का अस्तित्व विलीन हो जाता है, और यह जगत वास्तविक नहीं है. यह जगत की मिथ्याता एक अंतिम वास्तविकता नहीं है, बल्कि ब्रह्म के अलावा सब कुछ असत्य या मिथ्या है.
जीव और ईश्वर के परिप्रेक्ष्य में अनुभव (Experience from the Perspective of Jiva and Ishvara):
जीव (व्यक्तिगत आत्मा) के लिए, बाहरी चेतना उसे संसार (जन्म-मृत्यु का चक्र) से बांधती है, क्योंकि वह दुनिया का मूल्यांकन करता है, इच्छा करता है, या उससे विमुख होता है. यह बंधन जीव की अपनी कल्पना और इच्छाओं द्वारा बनाए गए जाल के कारण होता है.
ईश्वर (वैश्वानर/विराट) के लिए, उसकी बाहरी चेतना एक मुक्त अवस्था है. वह एक साथ समस्त सृष्टि से अवगत होता है (सर्वज्ञता). ईश्वर में इच्छा नहीं होती, जो जीव को संसार से बांधती है.
ईश्वर-सृष्टि अपने आप में विद्यमान है, जबकि जीव-सृष्टि व्यक्ति और नाम के संबंधित रूप के बीच स्थापित मनोवैज्ञानिक संबंध है.
माया के साथ जुड़ा हुआ ब्रह्म ही ईश्वर कहलाता है, और उसे ब्रह्मांड का निर्माता, पालनकर्ता और संहारक माना जाता है. यही निर्गुण ब्रह्म भक्तों की पूजा के लिए सगुण ब्रह्म के रूप में प्रकट होता है.
ज्ञान और अज्ञान का प्रभाव (Impact of Knowledge and Ignorance):
अज्ञान (अविद्या) के कारण ही जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न समझता है और इस मिथ्या संसार को सत्य मानता है.
केवल ब्रह्म के ज्ञान से ही माया का नाश होता है, जिससे जीव और ब्रह्म के बीच का भेद समाप्त हो जाता है.
अष्टावक्र का प्रसिद्ध संदेश राजा जनक के स्वप्न और जाग्रत अवस्था के भ्रम को दूर करता है: "न तो यह सत्य है और न ही वह सत्य था. केवल आप ही सत्य हैं.". यह दर्शाता है कि हमारी जाग्रत अवस्था में उत्पन्न वास्तविकता के अनुभव सपनों के अनुभवों से कम झूठे या अविश्वसनीय नहीं होते.
स्थूल शरीर
मांडूक्य उपनिषद और गौड़पाद कारिका के अनुसार, स्थूल शरीर को जाग्रत (जागरित) अवस्था और वैश्वानर के संदर्भ में समझाया गया है, जो चेतना की विभिन्न अवस्थाओं को समझने के लिए महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं।
जाग्रत अवस्था और स्थूल शरीर जाग्रत अवस्था मानव चेतना की चार मुख्य अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, और तुरीय) में से पहली है। यह वह अवस्था है जहाँ चेतना बाह्य जगत के प्रति जागरूक रहती है। इस अवस्था में, व्यक्ति भौतिक और वास्तविक बाह्य वस्तुओं का बोध प्राप्त करता है और उनका अनुभव करता है।
स्थूल शरीर जाग्रत अवस्था से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। मांडूक्य उपनिषद में जाग्रत अवस्था में अनुभवकर्ता को वैश्वानर कहा गया है, जो स्थूल वस्तुओं का उपभोक्ता होता है (स्थूलभुक्)। यह शारीरिक क्रियाओं और इंद्रियों के माध्यम से बाहरी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करता है। व्यक्ति की चेतना भौतिक शरीर से बंधी होती है, और यह भौतिक संसार के प्रति जागरूक रहती है।
वैश्वानर: व्यक्तिगत और ब्रह्मांडीय पहलू वैश्वानर जाग्रत चेतना का व्यक्तिगत (विश्व) और ब्रह्मांडीय (विराट) दोनों पहलुओं को समाहित करता है।
व्यक्तिगत विश्व (Viśva): यह व्यक्तिगत चेतना है जो भौतिक शरीर को चेतन करती है। व्यक्ति की जाग्रत चेतना "उन्नीस मुखों" वाली मानी गई है। ये उन्नीस मुख पाँच ज्ञानेंद्रियों (कान, त्वचा, आँखें, जीभ, नाक), पाँच कर्मेंद्रियों (वाणी, हाथ, पैर, जननांग, गुदा), पाँच प्राणों (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), और चार मानसिक अंगों (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) से मिलकर बने हैं। ये मुख व्यक्ति और ब्रह्मांड के बीच के संबंध और ग्रहण का माध्यम हैं, जिनसे व्यक्ति भौतिक संसार का अनुभव करता है।
ब्रह्मांडीय वैश्वानर (Virāt): यह ब्रह्मांडीय चेतना है जो संपूर्ण भौतिक ब्रह्मांड को चेतन करती है। विराट-पुरुष को "सात अंग" वाला कहा गया है। ब्रह्मांडीय वैश्वानर के लिए, सारा ब्रह्मांड उसका अपना शरीर है। यह सभी जीवित और निर्जीव वस्तुओं में अंतर्यामी रूप से उपस्थित होता है और सबके प्रति "मैं- हूँ" की सार्वभौमिक स्वीकृति रखता है, बिना किसी विरोधी वस्तु के। वैश्वानर के लिए, कोई इच्छा या द्वेष नहीं होता क्योंकि सब कुछ उसकी चेतना के भीतर समाहित है।
स्थूल शरीर और जगत की मिथ्यात्व यद्यपि जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर और भौतिक जगत वास्तविक प्रतीत होते हैं, वेदांत दर्शन यह सिखाता है कि यह सब दिखावा (appearance) मात्र है और अंततः मिथ्या (false) है। ठीक वैसे ही जैसे एक सपने में अनुभव किया गया संसार जागने पर अवास्तविक सिद्ध होता है। गौड़पाद ने जाग्रत अवस्था को भी स्वप्न के समान ही दिखावा बताया है, और शंकर ने भी इसे 'अव्यावहारिक' या व्यावहारिक वास्तविकता के रूप में वर्गीकृत किया है। स्थूल शरीर और जगत चेतना पर माया (अज्ञान) के कारण हुए आरोपण (superimposition) के परिणाम हैं।
अतः, स्थूल शरीर, जाग्रत अवस्था, और वैश्वानर सभी चेतना के अस्थायी और सापेक्षिक पहलू हैं, जो परमार्थिक सत्य, तुरीय (चौथी अवस्था) से अलग हैं। तुरीय वह अवस्था है जो इन तीनों अवस्थाओं से परे है, और जहाँ कोई द्वैत या भौतिक घटनाएँ नहीं होतीं।
7 अंग, 19 मुख
माण्डूक्य उपनिषद् अद्वैत वेदान्त का एक मूलभूत ग्रंथ है, जो चेतना और वास्तविकता की संक्षिप्त किंतु गहन व्याख्या के लिए प्रसिद्ध है। यह मानवीय चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन करता है: जाग्रत् (जाग्रत), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरीय (चौथी या पारलौकिक अवस्था)।
जाग्रत् अवस्था और वैश्वानर: आत्मन् (स्वयं) का पहला पाद या पहलू वैश्वानर है, जो जाग्रत् अवस्था से मेल खाता है। इस अवस्था में, चेतना बाहर की ओर उन्मुख (बहिष्प्रज्ञ) होती है, और व्यक्ति भौतिक दुनिया की स्थूल वस्तुओं का अनुभव करता है और उनका भोग करता है (स्थूल-भुक्)।
माण्डूक्य उपनिषद् वैश्वानर को "सप्तांग एकोनविंशति-मुखः" (सात अंगों वाला और उन्नीस मुखों वाला) के रूप में परिभाषित करता है। यह वर्णन जाग्रत अवस्था के ब्रह्मांडीय पहलू, विराट्, साथ ही व्यक्तिगत पहलू, विश्व, दोनों पर लागू होता है।
सप्तांग (सात अंग): "सात अंग" (सप्तांग) जाग्रत अवस्था में कॉस्मिक सेल्फ (विराट्) की संरचनात्मक संरचना को संदर्भित करते हैं। ये अंग प्रतीकात्मक हैं और ब्रह्मांडीय तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सार्वभौमिक सत्ता के "शरीर" का गठन करते हैं। उपनिषद् पहचान के कुछ प्रतीकात्मक उदाहरण प्रदान करता है, जहां साधक अपनी चेतना को विशाल ब्रह्मांड तक विस्तारित करने के लिए किसी भी प्रतीक का चयन कर सकता है, ब्रह्मांडीय तत्वों को अपने शरीर से पहचान सकता है। उदाहरण के लिए, वैश्वानर ध्यान (वैश्वानर विद्या) में, व्यक्ति ब्रह्मांड को अपने शरीर के रूप में देखता है, जहाँ सूर्य दाहिनी आँख है, चंद्रमा बाईं आँख है, पृथ्वी पैर है, और स्वर्ग सिर है। पुरुष-सूक्त भी कहता है कि दुनिया में सभी सिर, आँखें और पैर विराट-पुरुष के हैं। स्रोत ईज्ञानकोश इंगित करता है कि "सात अंग" अग्निहोत्र यज्ञ से लिए गए हैं।
एकोनविंशति-मुख (उन्नीस मुख): "उन्नीस मुख" (एकोनविंशति-मुख) कार्यात्मक तंत्रों को संदर्भित करते हैं जिनके माध्यम से जाग्रत अवस्था में व्यक्ति (जीव) बाहरी दुनिया से कंपन प्राप्त करता है और अवशोषित करता है। ये "मुख" ऐसे अंग हैं जिनके द्वारा हम चीजों का "उपभोग" करते हैं, जिससे संवेदी धारणाएं हमारे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालती हैं। वे व्यक्ति और ब्रह्मांड के बीच का माध्यम या कड़ी हैं।
उन्नीस मुखों का विभाजन इस प्रकार है:
ज्ञान के पाँच इंद्रिय (ज्ञानेन्द्रियाँ):
कान (श्रोत्र)
त्वचा (त्वक्)
आँखें (चक्षुस्)
जीभ (जिह्वा)
नाक (घ्राण)
कर्म के पाँच अंग (कर्मेन्द्रियाँ):
वाणी (वाक्)
हाथ (पाणि)
पैर (पाद)
जननांग (उपस्थ)
गुदा (पायु)
पाँच प्राण (प्राण - महत्वपूर्ण वायु/परिचालन गतिविधियां):
प्राण (Prāna)
अपान (Apāna)
व्यान (Vyāna)
उदान (Udāna)
समान (Samāna)
चतुर्विध आंतरिक अंग (अन्तःकरण-चतुष्टय):
मन (मनस्) – विचार करता है और मनन करता है
बुद्धि (बुद्धि) – तर्क करती है, समझती है, निर्णय लेती है
अहंकार (अहंकार) – स्वयं को आरोपित करता है और चीजों को अपनाता है
चित्त (चित्त) – पिछली छापें रखता है (स्मृति/उपचेतन)
ये उन्नीस मुख भौतिक दुनिया के साथ बातचीत को सुविधाजनक बनाते हैं, और उनके सभी कार्य भौतिक वस्तुओं से जुड़े होते हैं।
अद्वैत वेदान्त के संदर्भ में महत्व: जाग्रत् अवस्था और वैश्वानर (7 अंग और 19 मुखों के साथ) का विस्तृत वर्णन माण्डूक्य उपनिषद् में आत्म-उत्क्रमण (आत्म-अनुभूति) के लिए प्रारंभिक बिंदु के रूप में कार्य करता है। यह इंद्रियों द्वारा अनुभव की गई तत्काल वास्तविकता से शुरू होता है, जिसे मन स्वीकार करता है। उपनिषद् का उद्देश्य व्यक्ति (जीव) और ब्रह्मांडीय (ईश्वर) के बीच सामंजस्य स्थापित करना है, जो सूक्ष्म जगत और वृहद जगत के बीच की कथित खाई को पाटता है।
हालांकि, अद्वैत वेदान्त का दावा है कि जाग्रत अवस्था और उसके उपकरणों के इन विस्तृत वर्णनों के बावजूद, इस अवस्था में अनुभव, सपनों की तरह, उच्चतम दृष्टिकोण से अंततः अवास्तविक (मिथ्या) हैं। जाग्रत दुनिया में perceived भेद, और स्वयं ब्रह्मांड का अस्तित्व, आत्म पर माया या अज्ञानता के प्रक्षेप माने जाते हैं।
आत्मन् (स्वयं) जाग्रत अवस्था की स्थूल वस्तुओं और अनुभवों से स्वाभाविक रूप से अछूता है, ठीक वैसे ही जैसे एक घड़े के अंदर का स्थान उसकी सामग्री से अप्रभावित रहता है। वास्तविकता का अनेकता में भेद विशुद्ध रूप से माया द्वारा प्रेरित एक भ्रम है। अंतिम लक्ष्य तुरीय की प्राप्ति है, चौथी अवस्था, जो अद्वैत, शुद्ध, शाश्वत और अपरिवर्तनीय ब्रह्मन् है, जहाँ सभी घटनाएँ (जाग्रत अवस्था और उसके गुण सहित) समाप्त हो जाती हैं या उनका कभी भी वास्तविक रूप से उद्भव नहीं हुआ, ऐसा अनुभव होता है।
जबकि जाग्रत अवस्था में व्यक्तिगत चेतना (जीव) स्थानीयकृत होती है और क्रम से कुछ ही चीजों को जानती है, ब्रह्मांडीय वैश्वानर (विराट्) सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, जो अपनी चेतना में पूरे ब्रह्मांड को समाहित करता है। यह जीव के विपरीत, वासना रहित है और एक मुक्त अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। वैश्वानर की समझ जीव के ईश्वर के साथ और अंततः परम ब्रह्म के साथ परम एकता को साकार करने की दिशा में एक कदम है।
स्थूल वस्तुओं का उपभोक्ता
माण्डूक्य उपनिषद् में "स्थूल वस्तुओं का उपभोक्ता" (स्थूलभुक्) की अवधारणा जाग्रत अवस्था (जाग्रत्) और उसके ब्रह्मांडीय प्रतिरूप वैश्वानर से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है।
जाग्रत अवस्था (जाग्रत्)
माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की चार मुख्य अवस्थाओं का वर्णन करता है: जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।
जाग्रत अवस्था चेतना की पहली अवस्था है, जिसमें व्यक्ति बाहरी या भौतिक वस्तुओं का अनुभव करता है। यह वह चेतना है जो व्यक्ति के जागृत होने की स्थिति में रहती है और केवल बाहरी संसार के प्रति सचेत होती है। इस अवस्था में हम अपने शरीर के बाहर की चीजों से अवगत होते हैं और उनसे व्यवहार करते हैं।
वैश्वानर
जाग्रत अवस्था को दोहरे दृष्टिकोण से देखा जाता है: व्यक्तिगत (व्यष्टि) और ब्रह्मांडीय (समष्टि)।
व्यष्टि रूप में (Individual Aspect): जाग्रत अवस्था में व्यक्तिगत आत्मा को विश्व कहा जाता है। विश्व वह आत्मा है जो भौतिक शरीर को जीवंत करती है।
समष्टि रूप में (Cosmic Aspect): ब्रह्मांडीय स्तर पर, जाग्रत चेतना को वैश्वानर कहा जाता है। वैश्वानर वह चेतना है जो पूरे भौतिक ब्रह्मांड को चेतन करती है। इसे समस्त भौतिक निकायों की कुल चेतना के रूप में देखा जाता है, जिसमें सभी चेतन और अचेतन अस्तित्व शामिल होते हैं।
स्थूल वस्तुओं का उपभोक्ता (स्थूलभुक्)
जाग्रत अवस्था की मुख्य विशेषता यह है कि यह स्थूल वस्तुओं का उपभोक्ता (स्थूलभुक्) है। इसका अर्थ है कि यह चेतना भौतिक दुनिया की वस्तुओं को ग्रहण करती है और उनका अनुभव करती है।
इस उपभोक्ता प्रकृति को विस्तार से निम्नलिखित पहलुओं के माध्यम से समझाया गया है:
उन्नीस मुख (Nineteen Mouths): जाग्रत अवस्था को उन्नीस मुखों वाला बताया गया है। ये "मुख" पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (कान, त्वचा, आँखें, जीभ, नाक), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननांग, गुदा), पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), और मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्त नामक आंतरिक उपकरण हैं। इन सभी उपकरणों के माध्यम से चेतना बाहरी दुनिया से संपर्क स्थापित करती है और "उपभोग" करती है।
सात अंग (Seven Limbs): जाग्रत चेतना को सात अंगों वाला भी कहा गया है। ये ब्रह्मांडीय वैश्वानर के विराट-पुरुष रूप से जुड़े हैं, जो भौतिक ब्रह्मांड को चेतन करता है।
बाह्य चेतना (Outwardly Conscious - बहिःप्रज्ञ): इस अवस्था में चेतना बहिःप्रज्ञ है, यानी बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत है। विश्व बाहरी वस्तुओं से अवगत होता है, जबकि वैश्वानर की बाह्य-जागरूकता एक सार्वभौमिक 'मैं हूँ' की पुष्टि है, जो अपने सामने किसी विरोधी वस्तु को नहीं देखती।
यथार्थता का पहलू: माण्डूक्य उपनिषद् और गौडपाद की कारिकाएं तर्क देती हैं कि जाग्रत अवस्था के अनुभव, स्वप्न अनुभव की तरह, मिथ्या (अवास्तविक) या प्रपंच (दिखावा) हैं। यह चेतना में एक उपस्थिति मात्र है, स्वयं में कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं।
ओंकार के 'अ' अक्षर से संबंध: ओंकार (ॐ) के तीन अक्षरों में से 'अ' अक्षर जाग्रत अवस्था और वैश्वानर से जुड़ा है। इस सामंजस्य पर ध्यान करने से इच्छाओं की पूर्ति होती है और व्यक्ति सभी प्राणियों में अग्रणी बन जाता है।
ध्यान का उद्देश्य: वैश्वानर ध्यान में, साधक ब्रह्मांड को अपने शरीर के रूप में देखता है, अपने गुणों को दैवीय अस्तित्व में स्थानांतरित करता है। जब मन द्वारा कल्पित वस्तु को ब्रह्मांडीय शरीर के साथ पहचाना जाता है, तो वह वस्तु मन को परेशान करना बंद कर देती है, क्योंकि वह अब बाहरी नहीं रहती, बल्कि ध्यान करने वाले के शरीर का हिस्सा बन जाती है। यह ध्यान आत्म-साक्षात्कार की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है।
संक्षेप में, जाग्रत अवस्था में स्थूल वस्तुओं का उपभोक्ता होना चेतना की वह पहली और सबसे बाहरी अभिव्यक्ति है, जहाँ आत्मा स्वयं को व्यक्तिगत (विश्व) और ब्रह्मांडीय (वैश्वानर) दोनों स्तरों पर भौतिक दुनिया के साथ जोड़ती है, हालाँकि अद्वैत वेदांत दर्शन इस अवस्था को अंततः मिथ्या मानता है।
समष्टि में विराट पुरुष
जाग्रत (वैश्वानर) अवस्था माण्डूक्य उपनिषद् में वर्णित चेतना की चार अवस्थाओं में से पहली है। यह मानव अनुभव की वह अवस्था है जो हमारी इंद्रियों को प्रस्तुत तत्काल वास्तविकता से संबंधित है। इस अवस्था में, व्यक्ति भौतिक दुनिया, इंद्रियों और मन की सीमाओं को अनुभव करता है। माण्डूक्य उपनिषद् में, जाग्रत अवस्था से संबंधित व्यक्तिगत चेतना को विश्व कहा जाता है, जबकि इसका ब्रह्मांडीय प्रतिरूप वैश्वानर या विराट पुरुष कहलाता है।
समष्टि में विराट पुरुष (वैश्वानर) विराट पुरुष, जिसे वैश्वानर भी कहते हैं, ब्रह्मांडीय जाग्रत अवस्था की चेतना है। यह वह चेतना है जो संपूर्ण भौतिक ब्रह्मांड को चेतन करती है।
ब्रह्मांडीय शरीर: विराट पुरुष के अंगों की पहचान ब्रह्मांडीय तत्वों से की जाती है, जिससे ब्रह्मांड में ऐसा कुछ भी नहीं है जो विराट के शरीर का जैविक हिस्सा न हो। उदाहरण के लिए, सूर्य को दाहिनी आँख, चंद्रमा को बाईं आँख, पृथ्वी को पैर और स्वर्ग को सिर के रूप में पहचाना जाता है। अथर्ववेद के पुरुष-सूक्त में कहा गया है कि इस संसार में हम जितने भी सिर, आँखें और पैर देखते हैं, वे सभी विराट-पुरुष के ही हैं।
विशेषताएँ:
सप्तांग और एकोन्नविंशतिमुख (सात अंग और उन्नीस मुख): जाग्रत अवस्था की चेतना को "सप्तांग" (सात अंगों वाला) और "एकोन्नविंशतिमुख" (उन्नीस मुखों वाला) बताया गया है। ये विशेषताएँ व्यक्तिगत (विश्व) और ब्रह्मांडीय (विराट) दोनों पर समान रूप से लागू होती हैं। सात अंग ब्रह्मांडीय स्व (Cosmic Self) की परिभाषा से संबंधित हैं, जबकि उन्नीस मुख व्यक्ति की अपने परिवेश से संपर्क स्थापित करने की कार्यात्मक क्षमताओं को दर्शाते हैं। इन उन्नीस मुखों में पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (कान, त्वचा, आँखें, जीभ, नाक), पाँच कर्मेंद्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननांग, गुदा), पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), और चार अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) शामिल हैं।
स्थूलभुक (स्थूल का उपभोग करने वाला): विराट पुरुष स्थूल वस्तुओं का उपभोग करता है, क्योंकि यह भौतिक ब्रह्मांड से जुड़ा है।
अन्तर्यामी (अंदर छिपा हुआ): विराट को अन्तर्यामी भी कहा जाता है क्योंकि यह सभी चीजों में (चाहे सचेत हों या अचेत) गुप्त रूप से मौजूद होता है। विराट के लिए सजीव और निर्जीव पदार्थ में कोई अंतर नहीं होता, क्योंकि वे वास्तविकता की अभिव्यक्ति की विभिन्न डिग्री हैं।
सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ: विराट की चेतना एक साथ होने की अवस्था है, इसलिए यह सर्वज्ञता है। यह हर जगह मौजूद है (सर्वांतर्यामी) और सर्वशक्तिमान है।
जाग्रत अवस्था में व्यक्ति (विश्व) और विराट पुरुष का संबंध माण्डूक्य उपनिषद् व्यक्ति और ब्रह्मांडीय, जीव और ईश्वर, या सूक्ष्म और स्थूल के बीच कोई अलगाव नहीं मानता है। यह दोनों को चेतना की एक ही वास्तविकता के पहलू के रूप में देखता है।
बहिष्प्रज्ञ (बाहरी रूप से सचेत): व्यक्तिगत जाग्रत चेतना (विश्व) और ब्रह्मांडीय जाग्रत चेतना (वैश्वानर) दोनों ही 'बहिष्प्रज्ञ' या बाहरी रूप से सचेत हैं। हालाँकि, इनमें सूक्ष्म अंतर है। जीव बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत है और इच्छा, निर्णय और लगाव के कारण संसार से बंधा हुआ है। इसके विपरीत, वैश्वानर की बाहरी चेतना एक सार्वभौमिक 'मैं-हूँ' की पुष्टि है, जिसमें कोई विरोधी वस्तु नहीं होती, कोई इच्छा नहीं होती, और इसलिए यह बंधनकारी नहीं होती। इच्छा रहित जीव ईश्वर बन जाता है, और इच्छा सहित ईश्वर जीव बन जाता है।
ब्रह्म की अभिव्यक्ति: संपूर्ण ब्रह्मांड, जिसमें वैश्वानर भी शामिल है, ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है। इसे माया की शक्ति द्वारा ब्रह्म पर प्रक्षेपित एक उपस्थिति माना जाता है। जिस प्रकार मिट्टी से बने सभी बर्तन मिट्टी ही होते हैं, उसी प्रकार यह संपूर्ण ब्रह्मांड ब्रह्म ही है।
ॐ के साथ संबंध: ॐ ब्रह्मांड का प्रतीक है। ॐ के 'अ' अक्षर को जाग्रत अवस्था और वैश्वानर से जोड़ा गया है, क्योंकि यह सभी ध्वनियों का आरंभ और सबसे व्यापक है। इस सामंजस्य पर ध्यान करने से सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है और व्यक्ति सभी प्राणियों में प्रमुख बन जाता है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् में जाग्रत अवस्था (वैश्वानर) को ब्रह्म की ब्रह्मांडीय स्थूल अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो संपूर्ण भौतिक ब्रह्मांड को चेतन करती है। यह व्यक्ति की जाग्रत अवस्था का मैक्रोकोस्मिक प्रतिरूप है, जो सभी वस्तुओं में चेतना की एकता को दर्शाता है, भले ही वे अलग-अलग दिखें।
स्वप्न (तैजस)
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिन्हें सामूहिक रूप से आत्मा की चतुष्पाद (चार पाद वाली) अवस्थाएँ कहा जाता है। ये अवस्थाएँ न केवल मानव अनुभव के विभिन्न स्तरों को दर्शाती हैं, बल्कि आत्म-अनुभूति की ओर बढ़ने के चरणों को भी इंगित करती हैं। ये चार अवस्थाएँ हैं: जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था), और तुरीय (चौथी, पारलौकिक अवस्था)।
इन चार अवस्थाओं में से, स्वप्न अवस्था (तैजस) चेतना का दूसरा पाद या चरण है।
स्वप्न (तैजस) की विशेषताएँ और संदर्भ:
आंतरिक चेतना: स्वप्न अवस्था में, चेतना अन्तःप्रज्ञ (आंतरिक रूप से सचेत) होती है। यह बाहरी भौतिक वस्तुओं के बजाय आंतरिक जगत, जैसे विचारों, भावनाओं और कल्पनाओं के प्रति सचेत होती है।
सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोक्ता: तैजस प्रविविक्तभुक् कहलाता है, जिसका अर्थ है कि यह सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोग करता है। स्वप्नलोक में अनुभव की जाने वाली वस्तुएँ जाग्रत अवस्था के अनुभवों की वासनाओं (छापों) का पुनर्मूल्यांकन होती हैं, जो चित्रात्मक रूप में अभिव्यक्त होती हैं। ये सूक्ष्म वस्तुएँ मन द्वारा निर्मित होती हैं।
सप्तांग और एकोनविंशतिमुख: जिस प्रकार जाग्रत अवस्था की चेतना (विश्व) को सप्तांग (सात अंगों वाला) और एकोनविंशतिमुख (उन्नीस मुखों वाला) कहा गया है, उसी प्रकार तैजस की भी यही विशेषताएँ बताई गई हैं। ये उन्नीस मुख पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (कान, त्वचा, आँखें, जीभ, नाक), पाँच कर्मेंद्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननांग, गुदा), पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), और चार अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) हैं। ये व्यक्ति की अपने परिवेश से संपर्क स्थापित करने की कार्यात्मक क्षमताओं को दर्शाते हैं।
ब्रह्मांडीय प्रतिरूप: तैजस का ब्रह्मांडीय या समष्टिगत प्रतिरूप हिरण्यगर्भ कहलाता है। हिरण्यगर्भ को सृष्टि चक्र में 'प्रथम-जन्मा' (First-Born) माना जाता है, जिससे सूक्ष्म और फिर स्थूल संसार उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार तैजस सूक्ष्म चेतना है, उसी प्रकार हिरण्यगर्भ ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना है।
जाग्रत और सुषुप्ति के बीच: स्वप्न अवस्था को जाग्रत और सुषुप्ति के बीच का मध्य मार्ग माना जाता है। यह जाग्रत अनुभव से उत्पन्न होती है और जागृति और गहरी नींद के बीच विद्यमान होती है।
ॐ के साथ संबंध: ॐ के 'उ' अक्षर को स्वप्न अवस्था और तैजस से जोड़ा गया है। यह 'अ' से उच्चतर माना जाता है और सभी स्वर-रूपों के मध्य में आता है। इस पर ध्यान करने से ज्ञान में वृद्धि होती है और व्यक्ति समाज में एक समकारी (equalizing) कारक बन जाता है, जिससे उसके मन में कोई संघर्ष नहीं रहता और वह अपने भीतर और बाहर शांति स्थापित करता है।
जाग्रत (वैश्वानर) के साथ संबंध और गौड़पाद का दृष्टिकोण:
माण्डूक्य उपनिषद् जाग्रत अवस्था से संबंधित व्यक्तिगत चेतना को विश्व कहता है, जबकि इसका ब्रह्मांडीय प्रतिरूप वैश्वानर कहलाता है। वैश्वानर ब्रह्मांडीय जाग्रत अवस्था की चेतना है, जो संपूर्ण भौतिक ब्रह्मांड को चेतन करती है।
सप्तांग और एकोनविंशतिमुख की विशेषताएँ विश्व (व्यक्तिगत जाग्रत) और वैश्वानर (ब्रह्मांडीय जाग्रत) पर भी समान रूप से लागू होती हैं। वैश्वानर को स्थूलभुक (स्थूल का उपभोग करने वाला) भी कहा जाता है।
समान आभास: गौड़पाद, माण्डूक्यकारिका में, जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को एक समान "स्वप्न" या "आभास" मानता है। उनके अनुसार, जाग्रत और स्वप्न दोनों ही केवल दिखावे हैं। वह तर्क देता है कि जब हम स्वप्न में होते हैं, तो वह भी एक वास्तविक दुनिया जैसा महसूस होता है, जिसमें निरंतरता का भाव होता है, ठीक वैसे ही जैसे जाग्रत अवस्था में होता है।
माया का प्रभाव: अद्वैत वेदांत के अनुसार, मन ही वह द्वैत है जो हम अपने चारों ओर देखते हैं, और यह मन आत्मा पर एक अधिरोपण है। गौड़पाद ने तर्क दिया कि द्वैत है ही नहीं; मस्तिष्क जाग्रत अवस्था या स्वप्न में माया में ही विचरण करता है; और सिर्फ अद्वैत ही परम सत्य है। माया की अज्ञानता के कारण यह सत्य छिपा हुआ है। संपूर्ण ब्रह्मांड, जिसमें वैश्वानर और हिरण्यगर्भ भी शामिल हैं, ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है और इसे माया की शक्ति द्वारा ब्रह्म पर प्रक्षेपित एक उपस्थिति माना जाता है।
अजातिवाद: गौड़पाद का दर्शन अजातिवाद (non-origination/no creation) पर केंद्रित है, जिसका अर्थ है कि वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है। संसार, लोगों सहित, तुरिया से उत्पन्न नहीं हुआ है; यह केवल एक आभास है। स्वप्नलोक की भांति, जाग्रतलोक भी चेतना में एक आभास मात्र है, जो अवास्तविक है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् में स्वप्न (तैजस) को जाग्रत (वैश्वानर) के एक सूक्ष्म प्रतिरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया है। गौड़पाद के अद्वैत दर्शन में, इन दोनों अवस्थाओं को अवास्तविक आभास माना जाता है, जो मन और माया द्वारा निर्मित होते हैं, जबकि अंतिम वास्तविकता तुरीय है, जो द्वैत से परे और शाश्वत है। यह विश्लेषण आत्म-ज्ञान के मार्ग पर बढ़ने के लिए चेतना की परतों को समझने और उनसे परे जाने में सहायक है।
भीतरी जगत का अनुभव
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिनमें से दूसरी अवस्था स्वप्न (तैजस) है। यह व्यक्ति के भीतरी जगत का अनुभव से संबंधित है, जिसका ब्रह्मांडीय प्रतिरूप हिरण्यगर्भ कहलाता है।
स्वप्न अवस्था (तैजस) में भीतरी जगत का अनुभव स्वप्न अवस्था में, व्यक्ति की चेतना बाहर की बजाय भीतर की ओर मुड़ जाती है। इस अवस्था में चेतना को तैजस कहा जाता है, जिसका अर्थ "प्रकाशमय" है, क्योंकि आत्मा (चेतना) तैजस के माध्यम से चमकती है, ठीक वैसे ही जैसे यह जाग्रत अवस्था में चमकती है।
अनुभव का स्वरूप: तैजस सूक्ष्म वस्तुओं का अनुभव करता है, जो जाग्रत अवस्था में एकत्रित हुए वासनाओं (पिछली अनुभूतियों के अव्यक्त छाप या संस्कार) का एक पुनरावृत्ति (रिप्ले) होता है, जो चित्रात्मक रूप में व्यक्त होते हैं। इस भीतरी जगत में विचार और भावनाएँ ही प्रमुख वास्तविकताएँ होती हैं। स्वप्न में व्यक्ति उन्हीं अनुभवों से गुजरता है जो जाग्रत अवस्था में होते हैं - जैसे कि स्थान, समय, वस्तुएँ, लोग, लेन-देन और गतिविधियाँ।
सप्तांग और एकोन्नविंशतिमुख: जाग्रत अवस्था के व्यक्तिगत (विश्व) और ब्रह्मांडीय (विराट) चेतना की तरह, स्वप्न अवस्था के तैजस को भी "सप्तांग" (सात अंगों वाला) और "एकोन्नविंशतिमुख" (उन्नीस मुखों वाला) बताया गया है। ये उन्नीस मुख पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच प्राण, और चार अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) होते हैं, जिनके माध्यम से व्यक्ति अपने आंतरिक जगत के अनुभवों को ग्रहण करता है। तैजस की भीतरी चेतना इसलिए होती है क्योंकि उसके विषय भौतिक न होकर सूक्ष्म होते हैं।
प्रविविक्तभुक्: तैजस को प्रविविक्तभुक् भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोग करने वाला या सूक्ष्म चीजों को आत्मसात करने वाला।
स्वप्न जगत की वास्तविकता जब व्यक्ति स्वप्न अवस्था में होता है, तो उसे स्वप्न जगत की अनुभूतियाँ पूरी तरह से वास्तविक लगती हैं। वह अपने स्वप्न मित्र से हाथ मिला सकता है, स्वप्न शत्रु से लड़ सकता है, और यहाँ तक कि स्वप्न में मृत्यु का भी अनुभव कर सकता है। स्वप्न का भोजन स्वप्न की भूख को शांत कर सकता है।
हालांकि, जागने पर, व्यक्ति को यह एहसास होता है कि स्वप्न में जो कुछ भी अनुभव किया, वह वास्तविक नहीं था। गौड़पाद ने तर्क दिया कि जिस प्रकार स्वप्न की दुनिया झूठी होती है, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था भी झूठी होती है। उनके अनुसार, जाग्रत और स्वप्न दोनों ही माया द्वारा उत्पन्न मात्र आभास (प्रतीतिभासिक) हैं, और दोनों की वास्तविकता मिथ्या है। जो कुछ भी देखा जाता है, वह मन द्वारा निर्मित द्वैत है, और जब मन का अतिक्रमण हो जाता है, तो द्वैत भी अनुभव नहीं होता।
व्यक्तिगत (तैजस) और ब्रह्मांडीय (हिरण्यगर्भ) पहलू माण्डूक्य उपनिषद् व्यक्ति और ब्रह्मांड के बीच कोई अलगाव नहीं देखता। स्वप्न अवस्था में व्यक्तिगत चेतना को तैजस कहते हैं, और उसका ब्रह्मांडीय प्रतिरूप हिरण्यगर्भ कहलाता है, जो ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना है। तैजस और हिरण्यगर्भ का संरचनात्मक स्वरूप समान होता है, हालाँकि हिरण्यगर्भ तैजस से अधिक सूक्ष्म होता है। हिरण्यगर्भ को सृष्टि के चक्र में प्रथम-जात माना जाता है, जिससे सूक्ष्म और फिर स्थूल जगत की उत्पत्ति होती है। यह ब्रह्मांडीय मन है जिससे स्वप्न जगत के विचार और भावनाएँ उत्पन्न होती हैं।
स्वप्न की उत्पत्ति के कारण पश्चिमी मनोवैज्ञानिक सपनों को दबी हुई इच्छाओं का परिणाम मानते हैं, जबकि भारतीय दर्शन, जैसे कि योग और वेदान्त के दार्शनिक, इसे पूर्व कर्मों के प्रभावों और यहाँ तक कि टेलीपैथिक प्रभावों से भी जोड़ते हैं। उदाहरण के लिए, एक गुरु की कृपा से शिष्य को जाग्रत अवस्था में होने वाले कष्टों का अनुभव स्वप्न में ही हो सकता है।
जाग्रत और स्वप्न का संबंध जाग्रत अवस्था और स्वप्न अवस्था का तुलनात्मक विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि दोनों में से कोई भी परम सत्य नहीं है, क्योंकि दोनों का अनुभव करने वाला एक साक्षी चेतना है। स्वप्न अवस्था को अक्सर जाग्रत अवस्था के अनुभवों की छाप का परिणाम माना जाता है। हालाँकि, गौड़पाद का तर्क है कि यदि स्वप्न जाग्रत अवस्था की छापों का परिणाम है, तो जाग्रत अवस्था भी किसी अन्य उच्चतर अवस्था की छापों का परिणाम हो सकती है।
साक्षी चेतना (तुरीय) माण्डूक्य उपनिषद् के अनुसार, स्वप्न, जाग्रत और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी तुरीय है। तुरीय वह चेतना है जो इन तीनों अवस्थाओं से परे है और इन सभी को प्रकाशित करती है। जिस प्रकार स्वप्नद्रष्टा का मन स्वप्न के भीतर की हर वस्तु का निर्माण करता है और वह वस्तु मन से भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के सभी अनुभव तुरीय चेतना से अभिन्न हैं। ultimate reality isTurya is that which is different from them and which is the witness of these states. तुरीय केवल शांति, अद्वैत, असीमता और आनंद की स्थिति है।
सूक्ष्म शरीर
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन करता है: जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। ये अवस्थाएँ आत्मा के स्वरूप के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण हैं।
स्वप्न (तैजस) अवस्था स्वप्न अवस्था चेतना की दूसरी अवस्था है, जहाँ बाहरी इंद्रियाँ निष्क्रिय रहती हैं और चेतना आंतरिक विषयों के प्रति सचेत होती है। व्यक्तिगत स्तर पर इस अवस्था से संबंधित चेतना को तैजस कहा जाता है, जिसका अर्थ है "चमकदार" या "तेजस", क्योंकि आत्मा की चेतना तैजस के माध्यम से चमकती है, जैसे यह जाग्रत अवस्था में वैश्वानर के माध्यम से चमकती है। ब्रह्मांडीय स्तर पर, स्वप्न अवस्था का प्रतिरूप हिरण्यगर्भ कहलाता है, जिसे ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना या ब्रह्मांडीय मन के रूप में वर्णित किया गया है। तैजस और हिरण्यगर्भ दोनों ही प्रविविक्तभुक् (सूक्ष्म का उपभोग करने वाला) होते हैं।
सूक्ष्म शरीर (Subtle Body) और स्वप्न अवस्था से संबंध स्वप्न अवस्था का अनुभव सूक्ष्म शरीर के माध्यम से होता है। सूक्ष्म शरीर को लिंग-शरीर (लिङ्ग-शरीर) या लिंग-देह भी कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "चिह्न" या "संकेत"। यह भौतिक शरीर की रूपरेखा निर्धारित करता है और स्वयं भौतिक शरीर के लिए एक साँचे के रूप में कार्य करता है। सूक्ष्म शरीर भौतिक शरीर से आंतरिक और अदृश्य होता है।
सूक्ष्म शरीर तनमात्राओं (सूक्ष्म कंपन), मन (मानसिक प्रक्रियाएँ), और बुद्धि (समझ और निर्णय लेने की क्षमता) से बना होता है। यह वासनाओं (पूर्व अनुभवों की अव्यक्त छापें) से स्पंदित होता है। स्वप्न अवस्था में, आत्मा अपने स्वयं के संसार का निर्माण कर लेता है, जिसमें व्यक्ति अपनी वासनाओं के आधार पर अनुभव करता है। सपने में देखे गए स्थान, समय, वस्तुएँ, लोग और घटनाएँ (जैसे व्यवहार और लेनदेन) सभी मन के भीतर ही उत्पन्न होते हैं। जब कोई व्यक्ति जागता है, तो इन स्वप्न अनुभवों को अवास्तविक माना जाता है, जो केवल मानसिक कल्पनाएँ होती हैं।
तैजस, व्यक्तिगत सूक्ष्म चेतना के रूप में, सात अंगों और उन्नीस मुखों वाला बताया गया है। ये उन्नीस मुख पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (कान, त्वचा, आँखें, जीभ, नाक), पाँच कर्मेंद्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननांग, गुदा), पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), और चार अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) होते हैं। इन्हीं के माध्यम से व्यक्ति बाहरी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करता है। तैजस सूक्ष्म चीजों का उपभोग करता है।
जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं की तुलना माण्डूक्य उपनिषद् में गौडपाद ने जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं के बीच की सीमाओं को धुंधला कर दिया है। वह तर्क देते हैं कि दोनों ही अवस्थाएँ, जाग्रत और स्वप्न, केवल दिखावा या भ्रम हैं। हालाँकि जाग्रत अवस्था में निरंतरता का बोध होता है, जबकि सपने में नहीं, गौडपाद कहते हैं कि सपने में भी एक निरंतरता होती है, और विच्छेद केवल जाग्रत अवस्था के परिप्रेक्ष्य से ही प्रतीत होता है। स्वप्न अवस्था को जाग्रत अनुभवों का परिणाम या प्रभाव माना जाता है।
दोनों अवस्थाएँ, जाग्रत (विश्व) और स्वप्न (तैजस), चेतना की एक ही वास्तविकता के पहलू हैं। वे उपाधियों (शरीर, मन, बुद्धि आदि सीमित उपांगों) के साथ आत्मा के संबंध के कारण उत्पन्न होती हैं। माण्डूक्य उपनिषद् यह बताता है कि एक ही चेतना इन दोनों अवस्थाओं की साक्षी है, जो यह दर्शाता है कि चेतना इन अवस्थाओं से अलग और परे है। मन ही द्वैत का कारण है, जो जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में सक्रिय रहता है। गहरी नींद की अवस्था में मन निष्क्रिय हो जाता है, जिससे द्वैत का अनुभव समाप्त हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण आधुनिक मनोविज्ञान में, सिगमंड फ्रायड, एडलर और कार्ल जंग जैसे मनोवैज्ञानिकों ने सपनों का विश्लेषण किया है, उन्हें व्यक्तित्व के विभिन्न परिसरों से जोड़ा है, जैसे यौन इच्छाएँ, हीनता की भावनाएँ और विकास की सामान्य इच्छा। इन विश्लेषकों ने मानव चेतना के अवचेतन और अचेतन स्तरों में गहराई तक प्रवेश किया है, लेकिन आध्यात्मिक या आत्मिक स्तर तक नहीं पहुँचे हैं।
आत्मन/ब्रह्म से संबंध संपूर्ण ब्रह्मांड, जिसमें सूक्ष्म और स्थूल दोनों स्तर शामिल हैं, ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है। इसे माया की शक्ति द्वारा ब्रह्म पर प्रक्षिप्त एक उपस्थिति माना जाता है। आत्मा जन्महीन और अमर है; यह अनुभवों या पापों से दूषित नहीं होती। जीव की असत्यता की धारणा प्रत्येक श्लोक के साथ गहरी होती जाती है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाएँ आत्मा में प्रकट और विलीन होती हैं। तुरीय अवस्था इन तीनों अवस्थाओं से परे है और इन सबका साक्षी है। आत्म-साक्षात्कार के लिए, मन को अंततः निर्मन (मन-रहित) अवस्था में लाना आवश्यक है, जिससे द्वैत का अनुभव समाप्त हो जाता है।
7 अंग, 19 मुख
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करता है: जाग्रत (वैश्वानर), स्वप्न (तैजस), सुषुप्ति (प्राज्ञ), और तुरीय।
स्वप्न (तैजस) अवस्था स्वप्न अवस्था चेतना की दूसरी अवस्था है, जहाँ व्यक्ति की चेतना आंतरिक रूप से उन्मुख होती है और सूक्ष्म वस्तुओं का अनुभव करती है। व्यक्तिगत स्तर पर इस अवस्था की चेतना को तैजस कहा जाता है, जिसका अर्थ "प्रकाशमय" या "चमकदार" है, क्योंकि आत्मा या चेतना तैजस के माध्यम से चमकती है, भले ही जाग्रत इंद्रियाँ निष्क्रिय हों। ब्रह्मांडीय स्तर पर, स्वप्न अवस्था का प्रतिरूप हिरण्यगर्भ कहलाता है, जो ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना का प्रतिनिधित्व करता है। स्वप्न अवस्था में अनुभव किया गया संसार, जिसमें लोग, स्थान, समय और गतिविधियाँ शामिल हैं, स्वप्न देखने वाले के मन में ही उत्पन्न होता है; यह जाग्रत अवस्था के अनुभवों का एक पुनर्कथन मात्र है।
सात अंग (सप्तांग) और उन्नीस मुख (एकोन्नविंशतिमुख) माण्डूक्य उपनिषद् में तैजस की पहचान "सप्तांग" (सात अंगों वाला) और "एकोन्नविंशतिमुख" (उन्नीस मुखों वाला) के रूप में की गई है। ये विशेषताएँ जाग्रत अवस्था की चेतना (विश्व/वैश्वानर) पर भी लागू होती हैं, यह दर्शाते हुए कि ब्रह्मांडीय चेतना (विराट और हिरण्यगर्भ) में समान संरचनात्मक स्वरूप होता है, भले ही वे सूक्ष्मता के स्तर में भिन्न हों।
सात अंग (सप्तांग): ये ब्रह्मांडीय आत्म (कॉस्मिक सेल्फ) की परिभाषा से संबंधित हैं। यद्यपि उपनिषद् कुछ प्रतीकात्मक उदाहरण देता है, जैसे जाग्रत अवस्था के लिए सूर्य को दाहिनी आँख, चंद्रमा को बाईं आँख, पृथ्वी को पैर और स्वर्ग को सिर के रूप में पहचानना, ये अंग विराट पुरुष के अंगों को ब्रह्मांडीय तत्वों से जोड़ते हैं, जिसका अर्थ है कि ब्रह्मांड में ऐसा कुछ भी नहीं है जो विराट के शरीर का जैविक हिस्सा न हो। ये सात अंग जाग्रत अवस्था के विश्व या वैश्वानर और स्वप्न अवस्था के तैजस या हिरण्यगर्भ दोनों के लिए वर्णित हैं।
उन्नीस मुख (एकोन्नविंशतिमुख): ये व्यक्ति की अपने परिवेश से संपर्क स्थापित करने की कार्यात्मक क्षमताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। तैजस और हिरण्यगर्भ, दोनों में ये उन्नीस मुख सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोग करते हैं। इन उन्नीस मुखों में निम्नलिखित शामिल हैं:
पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (सेंस ऑफ़ नॉलेज):
कान (श्रोत्र)
त्वचा (त्वक्)
आँखें (चक्षु)
जीभ (जिह्वा)
नाक (घ्राण)
पाँच कर्मेंद्रियाँ (ऑर्गन्स ऑफ़ एक्शन):
वाणी (वाक्)
हाथ (पाणि)
पैर (पाद)
जननांग (उपस्थ)
गुदा (पायु)
पाँच प्राण: ये सूक्ष्म और भौतिक शरीर दोनों में परिचालन गतिविधियाँ हैं।
प्राण
अपान
व्यान
उदान
समान
चार अंतःकरण (मनोवैज्ञानिक अंग): ये हमारे कार्यों का आंतरिक मूल हैं।
मन (मनस): जो सोचता और विचार-विमर्श करता है।
बुद्धि (बुद्धि): जो तर्क-वितर्क करती है, समझती है और निर्णय लेती है।
अहंकार (अहंकार): जो चीजों को अपने लिए आरक्षित करता है।
चित्त (चित्त): जिसकी मुख्य विशेषता स्मृति और पिछली छापों का प्रतिधारण है, जिसे अवचेतन मन भी कहा जाता है।
इन उन्नीस मुखों के माध्यम से तैजस बाहर की दुनिया से संपर्क स्थापित करता है और कंपन प्राप्त करता है। जाग्रत अवस्था में व्यक्ति भौतिक वस्तुओं का अनुभव करता है, जबकि स्वप्न अवस्था में तैजस सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोग करता है, जो मन के भीतर की छापें हैं। तैजस और हिरण्यगर्भ दोनों ही अंतःप्रज्ञ (आंतरिक रूप से सचेत) हैं, क्योंकि उनके अनुभव की वस्तुएँ भौतिक नहीं, बल्कि सूक्ष्म हैं।
व्यापक संदर्भ अद्वैत वेदांत के अनुसार, जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ केवल उपस्थिति या भ्रम (मिथ्या) हैं, न कि परम सत्य। गौड़पाद और शंकर जैसे दार्शनिकों ने तर्क दिया है कि जिस प्रकार स्वप्न का अनुभव करते समय वह वास्तविक लगता है, लेकिन जागने पर अवास्तविक सिद्ध होता है, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था का संसार भी, जब तुरीय अवस्था का ज्ञान हो जाता है, तो अवास्तविक प्रतीत होता है। माण्डूक्य उपनिषद् इस सिद्धांत पर बल देता है कि सभी अनुभव, चाहे वे जाग्रत हों, स्वप्न हों या सुषुप्ति हों, परम चेतना (ब्रह्म या आत्मन) पर एक प्रक्षेपण हैं, जो स्वयं अद्वैत है और सभी भेदों से परे है। तैजस की उन्नीस मुखों की अवधारणा भी इसी बात पर जोर देती है कि हमारी चेतना जिस भी रूप में प्रकट होती है, वह अंततः ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।
सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोक्ता
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिनमें से एक स्वप्न अवस्था है। स्वप्न अवस्था में चेतना को तैजस कहा जाता है।
स्वप्न (तैजस) अवस्था में सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोक्ता: माण्डूक्य उपनिषद् के अनुसार, तैजस चेतना की वह अवस्था है जिसका अनुभव क्षेत्र स्वप्न अवस्था है और यह सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोक्ता (प्रविविक्तभुक्) है। यह व्यक्तिगत चेतना भीतर की ओर मुड़ी होती है, जहाँ वह आंतरिक दुनिया के अनुभवों का उपभोग करती है, जो इंद्रियों और मन के प्रभाव से उत्पन्न होती है।
विशेषताएँ: तैजस की पहचान भी सात अंगों और उन्नीस मुखों से की जाती है, जो कि जाग्रत अवस्था के व्यक्तिगत (विश्व) और ब्रह्मांडीय (विराट) चेतना के समान है। ये उन्नीस मुख पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेंद्रियों, पाँच प्राणों और चार अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) से बने हैं। हालाँकि, स्वप्न में ये सभी सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोग करते हैं।
आंतरिक चेतना (अन्तःप्रज्ञ): जाग्रत अवस्था के विपरीत, जहाँ चेतना बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत होती है (बहिष्प्रज्ञ), स्वप्न अवस्था में चेतना आंतरिक रूप से सचेत (अन्तःप्रज्ञ) होती है। तैजस की चेतना अंदर की ओर मुड़ी हुई होती है, जो केवल सूक्ष्म वस्तुओं को प्रकाशित करती है। ये सूक्ष्म वस्तुएँ मन के भीतर से उत्पन्न होती हैं, जैसे कि वासनाएँ (अतीत के अनुभवों के छाप)।
स्वप्न जगत की प्रकृति: स्वप्न अवस्था में देखी गई दुनिया, लोग, स्थान, समय और गतिविधियाँ सभी स्वप्न देखने वाले के मन के भीतर उत्पन्न होती हैं। ये अनुभव जाग्रत अवस्था के अनुभवों के दोहराव या उनसे उत्पन्न होते हैं। माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद दोनों ही स्वप्न और जाग्रत अवस्था के बीच की वास्तविकता के अंतर को चुनौती देते हैं, यह तर्क देते हुए कि दोनों ही स्वरूप में स्वप्नवत और असत्य हैं।
ब्रह्मांडीय प्रतिरूप (हिरण्यगर्भ): जिस प्रकार व्यक्तिगत जाग्रत अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप वैश्वानर (विराट पुरुष) है, उसी प्रकार व्यक्तिगत स्वप्न अवस्था (तैजस) का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप हिरण्यगर्भ है। हिरण्यगर्भ ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना है, जो ब्रह्मांडीय मन से जुड़ी है।
माया और अविद्या का प्रभाव: स्वप्न और जाग्रत अवस्थाएँ दोनों ही माया (अविद्या) की शक्ति से उत्पन्न होती हैं। माया के कारण ही द्वैत का अनुभव होता है, और यह द्वैत मन द्वारा परिलक्षित होता है। जब मन को पार कर लिया जाता है, तो द्वैत का अनुभव नहीं होता।
ॐ से संबंध: माण्डूक्य उपनिषद् में चेतना की अवस्थाओं को ॐ के अक्षरों से जोड़ा गया है। स्वप्न अवस्था और तैजस को ॐ के 'उ' अक्षर से जोड़ा गया है। 'उ' को 'अ' से 'ऊँचा' या 'उत्कृष्ट' माना जाता है, जो तैजस के जाग्रत अवस्था के बाद आने का प्रतीक है। इस सामंजस्य पर ध्यान करने से ज्ञान की स्थिति में वृद्धि होती है और व्यक्ति समाज में एक समानीकरण कारक बन जाता है।
संक्षेप में, तैजस स्वप्न अवस्था में चेतना का व्यक्तिगत रूप है, जो सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोग करता है, और ब्रह्मांडीय स्तर पर हिरण्यगर्भ से संबंधित है। यह अवस्था वेदांत में वास्तविकता की प्रकट प्रकृति को समझने और अंततः द्वैत को पार कर अद्वैत सत्य को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है।
समष्टि में हिरण्यगर्भ
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करता है: जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। इन अवस्थाओं को व्यष्टि (व्यक्तिगत) और समष्टि (ब्रह्मांडीय) दोनों स्तरों पर समझा जाता है। स्वप्न (तैजस) चेतना की दूसरी अवस्था है, जबकि इसका ब्रह्मांडीय प्रतिरूप हिरण्यगर्भ कहलाता है।
स्वप्न अवस्था (तैजस) स्वप्न अवस्था वह मानसिक अवस्था है जहाँ व्यक्ति बाहरी इंद्रियों के उपयोग के बिना अनुभवों को प्राप्त करता है। इस अवस्था में चेतना भीतर की ओर मुड़ी हुई होती है और सूक्ष्म वस्तुओं, विचारों, भावनाओं और स्मृतियों के संसार का अनुभव करती है, जो जाग्रत अवस्था के संस्कारों (वासनाओं) का पुनरावृत्ति होती है। स्वप्न अवस्था में, आत्म सूक्ष्म शरीर में ज्ञान या अनुभूति उत्पन्न करता है। स्वप्न देखने वाला (तैजस) जाग्रत अवस्था के समान ही अनुभव के लिए उपकरणों से लैस होता है, जैसे स्वप्न इंद्रियाँ स्वप्न वस्तुओं का उपभोग करने के लिए, स्वप्न मन भावनाओं और भावनाओं के लिए, स्वप्न बुद्धि विचारों के लिए, और स्वप्न अहंकार स्वप्न जीवन का अनुभव करने के लिए। तैजस को "प्रकाशमान" (shining one) कहा जाता है, जो चेतना के रूप में इसकी प्रकृति को दर्शाता है। तैजस को 'उ' अक्षर से जोड़ा जाता है, जो ॐ का दूसरा अक्षर है।
समष्टि में हिरण्यगर्भ (Cosmic Subtle Consciousness) हिरण्यगर्भ ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना है, जो स्वप्न अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप है। इसे कॉस्मिक माइंड (cosmic mind) से जुड़ी चेतना के रूप में वर्णित किया गया है। जैसे व्यक्ति की भौतिक चेतना को चेतन करने वाली आत्मा 'विश्व' (Waker) है, वैसे ही ब्रह्मांड की भौतिक चेतना को चेतन करने वाली आत्मा 'विराट' (Cosmic Waker/Vaishvanara) है। इसी तरह, सूक्ष्म स्तर पर, व्यक्तिगत स्वप्न चेतना 'तैजस' है, जबकि ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना 'हिरण्यगर्भ' है।
तैजस और हिरण्यगर्भ के बीच संबंध और विशेषताएँ:
सूक्ष्म अनुभव: तैजस व्यक्तिगत स्तर पर सूक्ष्म वस्तुओं का अनुभव करता है, जबकि हिरण्यगर्भ ब्रह्मांडीय स्तर पर सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोग करता है। ये सूक्ष्म वस्तुएँ तनमात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) से बनी होती हैं।
अन्तःप्रज्ञ (Internally Conscious): तैजस और हिरण्यगर्भ दोनों ही 'अन्तःप्रज्ञ' या आंतरिक रूप से सचेत माने जाते हैं, क्योंकि उनके अनुभव के विषय भौतिक नहीं, बल्कि सूक्ष्म होते हैं।
सप्तांग और एकोन्नविंशतिमुख (Seven-limbed and Nineteen-mouthed): जाग्रत अवस्था के विश्व या वैश्वानर की तरह, तैजस और हिरण्यगर्भ दोनों को "सप्तांग" (सात अंग) और "एकोन्नविंशतिमुख" (उन्नीस मुख) वाला भी वर्णित किया गया है। उन्नीस मुखों में पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच प्राण और चार अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) शामिल हैं।
सृष्टि में भूमिका:
हिरण्यगर्भ को सृष्टि चक्र में प्रथम-जन्मा (First-Born) माना जाता है। कारण चेतना (ईश्वर) से सूक्ष्म और फिर स्थूल संसार उत्पन्न होते हैं, और ईश्वर तथा सृष्टि के बीच हिरण्यगर्भ का जन्म होता है, जिसे सृष्टि का गर्भ (Womb of Creation) कहा जाता है।
व्यक्तिगत स्तर पर, स्वप्न को जाग्रत अनुभवों के छापों (वासनाओं) का परिणाम माना जाता है। हालाँकि, ब्रह्मांडीय स्तर पर, इसके विपरीत संबंध होता है: ईश्वर हिरण्यगर्भ का कारण है, और हिरण्यगर्भ विराट का कारण है।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मांडीय ज्ञान रखता है, जबकि जीव को ऐसा ज्ञान नहीं होता।
हिरण्यगर्भ ईश्वर का स्वरूप है, और तैजस जीव का स्वरूप है।
उपनिषदों में निंदा: ईशावास्य उपनिषद् में हिरण्यगर्भ की पूजा की निंदा की गई है। इसका अर्थ यह है कि संसार के बंधन से मुक्ति पाने के लिए हिरण्यगर्भ की उपासना को त्यागना आवश्यक है। यह निंदा हमें संसार से बाहर निकलने और स्थायी मुक्ति प्राप्त करने के लिए है, क्योंकि हिरण्यगर्भ घटनात्मक अस्तित्व के स्तर पर कार्य करता है।
माया और प्रतीति: स्वप्न संसार मन द्वारा प्रक्षेपित होने के कारण सूक्ष्म और अभौतिक है। जिस प्रकार स्वप्न एक प्रतीति मात्र है, उसी प्रकार waking world भी है। माया की शक्ति के कारण ब्रह्म ही विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, जिसमें सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म शामिल हैं।
ॐ के साथ संबंध: ॐ का 'उ' अक्षर स्वप्न अवस्था और तैजस (और हिरण्यगर्भ) से जुड़ा है। 'उ' को 'अ' से ऊपर उठा हुआ माना जाता है, जो शब्दों के उच्चारण के अनुक्रम में 'अ' के बाद आता है और जाग्रत अवस्था से अधिक सूक्ष्म है। जो साधक ॐ के 'उ' अक्षर और तैजस के बीच इस सामंजस्य पर ध्यान करता है, उसका ज्ञान बढ़ता है और वह समाज में एक सामंजस्य स्थापित करने वाला तत्व बन जाता है। संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् तैजस और हिरण्यगर्भ को चेतना की स्वप्न अवस्था के व्यक्तिगत और ब्रह्मांडीय पहलुओं के रूप में प्रस्तुत करता है। वे दोनों ही सूक्ष्म वस्तुओं से संबंधित हैं और आंतरिक रूप से सचेत हैं, जो इस बात पर जोर देते हैं कि ब्रह्मांड की सूक्ष्म अभिव्यक्ति व्यक्तिगत अनुभवों से अविभाज्य है, और अंततः ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।
सुषुप्ति (प्राज्ञ)
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है, जिन्हें आत्मा के चतुष्पाद या चार पहलू कहा गया है। ये अवस्थाएँ हैं: जाग्रत् (जाग्रत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था), और तुरीय (शुद्ध चेतना या चौथी अवस्था)। इन अवस्थाओं का अध्ययन आत्म-अनुभूति और ब्रह्म को जानने के लिए महत्वपूर्ण है।
सुषुप्ति (प्राज्ञ) सुषुप्ति चेतना की तीसरी अवस्था है, जिसे गहरी नींद की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति किसी बाहरी या आंतरिक वस्तु का अनुभव नहीं करता। यहाँ इंद्रियाँ और मन पूरी तरह से शांत होते हैं, और कोई इच्छा या स्वप्न उत्पन्न नहीं होता। तैत्तरीय उपनिषद् में वर्णित पाँच कोशों के अनुसार, सुषुप्ति अवस्था को कारण शरीर या आनन्दमय कोश भी कहा जाता है, जो मूल अज्ञान (अविद्या) या बीज-अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।
इस अवस्था से संबंधित चेतना को प्राज्ञ कहा जाता है। प्राज्ञ को चेतना का पुंज या ज्ञानघन (mass of consciousness) कहा गया है। यह सर्वज्ञ (all-knowing) होता है, लेकिन अनुभवरहित या आत्म-अज्ञानी (self-ignorant) होता है। इसका मतलब है कि प्राज्ञ में सभी अनुभव अविभेदित रूप में समाहित होते हैं, जैसे बीज में एक पूरा पेड़ समाहित होता है।
समष्टि में हिरण्यगर्भ और ईश्वर के साथ संबंध: जैसे व्यक्तिगत जाग्रत् अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप विराट (कॉस्मिक वेकर/वैश्वानर) है, और व्यक्तिगत स्वप्न अवस्था का प्रतिरूप हिरण्यगर्भ (कॉस्मिक माइंड) है [7, 227 footnote 18, 296, 304, 306], वैसे ही सुषुप्ति अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप ईश्वर है। ईश्वर को ब्रह्मांड का अधिपति, सर्वज्ञ और अंतर्यामी नियंत्रक (इंड्वेलिंग कंट्रोलर) माना जाता है। कारण के रूप में सुषुप्ति/प्राज्ञ का महत्व है क्योंकि यह जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं का मूल है। व्यक्तिगत स्तर पर, स्वप्न जाग्रत् के अनुभवों के छापों (वासनाओं) का परिणाम माना जाता है। लेकिन ब्रह्मांडीय स्तर पर, इसके विपरीत संबंध है: ईश्वर हिरण्यगर्भ का कारण है, और हिरण्यगर्भ विराट का कारण है। माण्डूक्य उपनिषद् यह बताता है कि सभी प्राणी ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं।
तुरीय से अंतर: हालांकि सुषुप्ति (प्राज्ञ) अवस्था में विषय-वस्तु का अभाव होता है और यह एक प्रकार की अद्वैत स्थिति प्रतीत होती है, इसमें अभी भी द्वैत का बीज या अज्ञान का मूल मौजूद रहता है। यही कारण है कि व्यक्ति गहरी नींद से उठने के बाद फिर से जाग्रत् या स्वप्न अवस्था में आता है। इसके विपरीत, तुरीय अवस्था (चौथा) इन तीनों अवस्थाओं से परे है; यह शुद्ध चेतना है जहाँ अज्ञान का कोई बीज या संभावना नहीं होती। तुरीय सर्वज्ञ होने के साथ-साथ जन्म रहित, अवर्णनीय और अद्वैत है, जिसमें सभी परिघटनाएँ समाप्त हो जाती हैं। सुषुप्ति केवल अज्ञान की एक परत हटाती है, लेकिन तुरीय में कोई अज्ञान नहीं होता।
ॐ के साथ संबंध: माण्डूक्य उपनिषद् ॐ के तीन अक्षरों (अ, उ, म) को चेतना की तीन अवस्थाओं से जोड़ता है।
'अ' अक्षर जाग्रत् अवस्था (वैश्वानर) से जुड़ा है।
'उ' अक्षर स्वप्न अवस्था (तैजस) से जुड़ा है।
'म' अक्षर सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ) से जुड़ा है। प्राज्ञ को माप करने वाला (measure) और विलय करने वाला (dissolver) कहा गया है, क्योंकि जिस प्रकार ॐ के उच्चारण में 'अ' और 'उ' 'म' में विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार जाग्रत् और स्वप्न के सभी अनुभव सुषुप्ति में समाहित हो जाते हैं। जो साधक ॐ के 'म' अक्षर और प्राज्ञ के बीच इस सामंजस्य पर ध्यान करता है, वह सर्वज्ञ बन जाता है।
कोई इच्छा या स्वप्न नहीं
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है, जिन्हें आत्मा के चतुष्पाद या चार पहलू कहा गया है। ये अवस्थाएँ हैं: जाग्रत् (जाग्रत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था), और तुरीय (शुद्ध चेतना या चौथी अवस्था)। इन अवस्थाओं का अध्ययन आत्म-अनुभूति और ब्रह्म को जानने के लिए महत्वपूर्ण है।
सुषुप्ति (प्राज्ञ) सुषुप्ति चेतना की तीसरी अवस्था है, जिसे गहरी नींद की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में आत्मा को प्राज्ञ कहा गया है।
सुषुप्ति की विशेषताएँ (कोई इच्छा या स्वप्न नहीं) सुषुप्ति अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ, विशेष रूप से "कोई इच्छा या स्वप्न नहीं" के संदर्भ में, निम्नलिखित हैं:
इच्छा और स्वप्न का अभाव: गहरी नींद की अवस्था में कोई स्वप्न या जागरूकता नहीं होती। इस अवस्था में व्यक्ति न तो सूक्ष्म या स्थूल वस्तुओं को देखता है और न ही उनकी इच्छा करता है। सुखमूलक वस्तुओं की कोई इच्छा नहीं होती, बल्कि केवल इच्छा की अनुपस्थिति होती है।
विचारों का अभाव: सुषुप्ति अवस्था में कोई विचार उत्पन्न नहीं होते।
अव्यक्त या बीज अवस्था: सुषुप्ति को अव्यक्त वस्तुओं का अनुभवकर्ता कहा गया है। इसमें जाग्रत और स्वप्न अवस्था के अनुभव सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित होते हैं। इस अवस्था में वासनाएँ (पिछले अनुभवों के संस्कार) निष्क्रिय (dormant) हो जाती हैं, और यह "बीज अवस्था" कहलाती है। अहंकार और बुद्धि अपने स्रोत में विलीन हो जाते हैं।
द्वैत का बीज: यद्यपि सुषुप्ति में विषय-वस्तु द्वैत (subject-object duality) का अनुभव नहीं होता और चेतना एक अद्वैत अंधकार में विलीन प्रतीत होती है, फिर भी द्वैत का बीज इसमें विद्यमान रहता है। यही बीज जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में प्रकट होता है।
कारण अवस्था: सुषुप्ति को कारण अवस्था (causal state) माना गया है। यह जाग्रत और स्वप्न के सभी अनुभवों का कारण है। गहरी नींद में दबी हुई अधूरी इच्छाओं की हलचल के कारण ही व्यक्ति जाग्रत अवस्था में आता है।
आनंद का अनुभव: गहरी नींद में चेतना विचारों, भावनाओं या धारणाओं में खंडित नहीं होती, इसलिए इस अवस्था में परमानंद या आनंद का अनुभव होता है। इसे आनंदभुक् (आनंद का भोग करने वाला) भी कहते हैं।
शुद्ध चेतना/साक्षी: सुषुप्ति में चेतना अपनी शुद्ध प्रकृति में होती है, जो सब कुछ जानती है लेकिन किसी बाहरी चीज़ से जुड़ी नहीं होती। इसे "ज्ञान का भंडार" और इस अवस्था का "साक्षी" कहा गया है। यह अनुभवरहित होते हुए भी सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) है। यहाँ चेतना अपनी दिशा खो देती है और निराकार हो जाती है। यह सचेत होती है, लेकिन जाग्रत या स्वप्न से भिन्न, यह अविभाजित चेतना की विशेषता है।
आत्मा के चतुष्पाद के बड़े संदर्भ में सुषुप्ति
व्यक्तिगत और ब्रह्मांडीय पहलू: सुषुप्ति चेतना का व्यक्तिगत पहलू है जिसे प्राज्ञ कहा जाता है, जबकि इसका ब्रह्मांडीय प्रतिरूप ईश्वर है। ईश्वर सभी चीजों का कारण, सभी का स्वामी (सर्वेश्वर), सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। प्राज्ञ को ईश्वर की ब्रह्मांडीय कारण अवस्था का एक हिस्सा माना जाता है।
तुरीय से संबंध: सुषुप्ति और तुरीय दोनों में द्वैत या वस्तुओं का कोई संज्ञान नहीं होता, लेकिन एक महत्वपूर्ण अंतर है: सुषुप्ति में अज्ञानता का बीज (बीज) मौजूद होने के कारण आत्मा का अनुभव नहीं होता, जबकि तुरीय में यह अज्ञानता का बीज मौजूद नहीं होता। तुरीय को निद्राहीन और स्वप्नहीन अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है, इस प्रकार यह "जगत-रहित" (worldless) है। सुषुप्ति अभी भी घटनाओं की क्षमता रखती है, जबकि तुरीय उन सभी से पूरी तरह मुक्त है। सुषुप्ति चेतना की अंतिम अवस्था नहीं है।
सत्य की ओर मार्ग: उपनिषद का मुख्य उद्देश्य अद्वैत ब्रह्म की वास्तविकता को प्रकट करना है। तीनों अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) प्रपंच का हिस्सा हैं, जो कि मिथ्या (झूठा) है। इन तीनों अवस्थाओं का विश्लेषण करके, व्यक्ति तुरीय की ओर बढ़ता है, जो आत्मन की शुद्ध, शांत और अद्वैत स्थिति है। सुषुप्ति अवस्था इस यात्रा में एक महत्वपूर्ण चरण है, क्योंकि यह चेतना को सूक्ष्म स्तर पर ले जाकर गहरी आंतरिक अवस्थाओं का अनुभव कराती है, भले ही उसमें अभी भी अज्ञानता का बीज मौजूद हो।
अविभाजित चेतना का पुंज
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं, जिन्हें आत्मा के चतुष्पाद या चार पहलू कहा गया है, का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। ये अवस्थाएँ हैं: जाग्रत् (जाग्रत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था), और तुरीय (शुद्ध चेतना या चौथी अवस्था)। इन अवस्थाओं का अध्ययन आत्म-अनुभूति और ब्रह्म को जानने के लिए महत्वपूर्ण है।
सुषुप्ति (प्राज्ञ)
सुषुप्ति चेतना की तीसरी अवस्था है, जिसे गहरी नींद की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति किसी बाहरी या आंतरिक वस्तु का अनुभव नहीं करता। यहाँ इंद्रियाँ और मन पूरी तरह से शांत होते हैं, और कोई इच्छा या स्वप्न उत्पन्न नहीं होता। इस अवस्था में चेतना सुख और शांति से परिपूर्ण होती है। माण्डूक्य उपनिषद् के अनुसार, सुषुप्ति अवस्था को कारण शरीर भी कहा जाता है, जो मूल अज्ञान (अविद्या) या बीज-अवस्था (seed state) का प्रतिनिधित्व करता है।
इस अवस्था से संबंधित चेतना को प्राज्ञ कहा जाता है। प्राज्ञ को चेतना का पुंज (mass of consciousness) भी कहा गया है। गहरी नींद में चेतना निराकार हो जाती है और उसमें भेद का अभाव होता है। यह अवस्था ज्ञान से परिपूर्ण होती है, लेकिन इसमें कोई विशिष्ट अनुभव नहीं होता। प्राज्ञ आनन्दभुक् (आनन्द का अनुभव करने वाला) भी कहलाता है।
अविभाजित चेतना का पुंज (Mass of Consciousness) प्राज्ञ को अविभाजित चेतना का पुंज इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस अवस्था में चेतना खंडित नहीं होती और उसमें विभेद का अभाव होता है। जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं में चेतना विचारों, भावनाओं और धारणाओं के माध्यम से विभाजित होती है, जबकि सुषुप्ति में यह विभाजन समाप्त हो जाता है। हालाँकि, यह चेतना का एक पुंज (mass) है, फिर भी इसमें कोई मात्रात्मक पहलू नहीं है, क्योंकि चेतना स्थानिक या गणितीय नहीं है।
सुषुप्ति का महत्व और अन्य अवस्थाओं से संबंध:
कारण अवस्था: सुषुप्ति को जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं का कारण माना जाता है। यह वह अवस्था है जहाँ वासनाएँ (past impressions) सुप्तावस्था में रहती हैं, जिनसे जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं, जैसे एक बीज से पौधा निकलता है। इसलिए, सुषुप्ति हमारे अनुभवों की माप (measure) और विलय का स्थान (dissolver) है।
ईश्वर से संबंध: व्यक्तिगत स्तर पर प्राज्ञ (सुषुप्ति) का ब्रह्मांडीय स्तर पर ईश्वर (Universal Causal Condition) से संबंध है। गौडपाद के अनुसार, प्राज्ञ सभी अभिव्यक्तियों का स्रोत है, या माया का बीज है, जिससे सभी अभिव्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। ईश्वर को सर्वेश्वर (सर्वोच्च स्वामी), सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) और सर्वशक्तिमान (सर्वशक्तिशाली) कहा जाता है। जो प्राज्ञ की एकता पर ध्यान करता है, वह सर्वज्ञ और स्वयं ईश्वर बन जाता है।
द्वैत का बीज: यद्यपि सुषुप्ति अवस्था में विषय-वस्तु का द्वैत (subject-object duality) अनुपस्थित होता है और यह अद्वैत प्रतीत होती है, इसमें द्वैत का बीज अभी भी मौजूद होता है। यह बीज ही जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं में फिर से अंकुरित होता है।
तुरीय से अंतर: सुषुप्ति और तुरीय दोनों में द्वैत या वस्तुओं का अनुभव नहीं होता। हालाँकि, सुषुप्ति में अज्ञान का कारण या बीज (seed of ignorance) उपस्थित रहता है, जिसके कारण आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात नहीं होता। तुरीय में, यह अज्ञान का बीज अनुपस्थित होता है, जिससे यह पूर्ण और शुद्ध चेतना की अवस्था बनती है। इसलिए, सुषुप्ति तुरीय के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य कर सकती है, लेकिन स्वयं तुरीय नहीं है।
आनंद से युक्त
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है, जिन्हें आत्मा के चतुष्पाद या चार पहलू कहा गया है. ये अवस्थाएँ हैं: जाग्रत् (जाग्रत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था), और तुरीय (शुद्ध चेतना या चौथी अवस्था). इन अवस्थाओं का अध्ययन आत्म-अनुभूति और ब्रह्म को जानने के लिए महत्वपूर्ण है.
सुषुप्ति (प्राज्ञ) सुषुप्ति चेतना की तीसरी अवस्था है, जिसे गहरी नींद की अवस्था भी कहते हैं. इस अवस्था में व्यक्ति किसी बाहरी या आंतरिक वस्तु का अनुभव नहीं करता. यहाँ इंद्रियाँ और मन पूरी तरह से शांत होते हैं, और कोई इच्छा या स्वप्न उत्पन्न नहीं होता. इस अवस्था में मन अपनी संकल्प शक्ति को बंद कर देता है और केवल इच्छा की अनुपस्थिति होती है. तैत्तरीय उपनिषद् में वर्णित पाँच कोशों के अनुसार, सुषुप्ति अवस्था को कारण शरीर भी कहा जाता है. यह अवस्था मूल अज्ञान (अविद्या) या बीज-अवस्था का प्रतिनिधित्व करती है, जहाँ जाग्रत और स्वप्न की अनुभूतियाँ सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित होती हैं.
इस अवस्था से संबंधित चेतना को प्राज्ञ कहा जाता है. प्राज्ञ को चेतना का पुंज या ज्ञानघन (mass of consciousness) कहा गया है. यह सर्वज्ञ (all-knowing) होता है, लेकिन अनुभवरहित या आत्म-अज्ञानी (self-ignorant) होता है. इसका मतलब है कि प्राज्ञ में सभी अनुभव अविभेदित रूप में समाहित होते हैं, जैसे बीज में एक पूरा पेड़ समाहित होता है.
आनन्द से युक्त (Endowed with Bliss) सुषुप्ति अवस्था को आनन्दभुक् (enjoyer of bliss) कहा गया है. इस अवस्था में चेतना आनन्द से परिपूर्ण होती है. गहरी नींद की अवस्था आनंदमय होती है क्योंकि चेतना विचारों, भावनाओं और धारणाओं में विभाजित नहीं होती है, जैसा कि जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में होता है. यहाँ आनंद अविभाजित रहता है और बाधित नहीं होता. जब हम गहरी नींद से जागते हैं, तो हमें उस आनंद और शांति का अनुभव होता है, जिससे यह पता चलता है कि चेतना यहाँ सुख में डूबी हुई थी. यह आनंद आनन्दमय कोश से जुड़ा है.
समष्टि में ईश्वर के साथ संबंध: जैसे व्यक्तिगत जाग्रत् अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप विराट (Cosmic Waker/वैश्वानर) है, और व्यक्तिगत स्वप्न अवस्था का प्रतिरूप हिरण्यगर्भ (Cosmic Mind) है [6, 190 footnote 18, 234, 291, 300, 302, 307], वैसे ही सुषुप्ति अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप ईश्वर है. ईश्वर को ब्रह्मांड का अधिपति (Overlord of all), सर्वज्ञ (all-knowing), और सर्वशक्तिमान (all-powerful) कहा गया है. ईश्वर समस्त ब्रह्मांड का निर्माता, पालक और संहारक है. प्राज्ञ (व्यक्तिगत गहरी नींद की अवस्था) को ईश्वर की ब्रह्मांडीय कारण अवस्था का एक हिस्सा माना गया है. ईश्वर माया से जुड़ा हुआ ब्रह्म है, और माया ही वह शक्ति है जिसके माध्यम से ईश्वर सभी नाम और रूपों के साथ वस्तुगत दुनिया को प्रकट करता है.
सुषुप्ति और तुरीय के बीच भेद: यद्यपि सुषुप्ति अवस्था में विषय-वस्तु द्वैत का कोई अनुभव नहीं होता और यह शांत होती है, फिर भी यह तुरीय से भिन्न है. सुषुप्ति एक अवस्था है, जो आती-जाती रहती है. इसमें अभी भी द्वैत का बीज या सुप्त वासनाएँ (संस्कार) मौजूद होती हैं. ये बीज ही बाद में जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में प्रकट होते हैं.
इसके विपरीत, तुरीय चेतना की चौथी अवस्था है जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से परे है. यह किसी भी प्रकार के बाहरी या आंतरिक अनुभव से रहित है और चेतना का पुंज भी नहीं है, क्योंकि यह मात्रात्मक नहीं है. तुरीय किसी भी घटना का अंत है, यह निर्विकल्प, शांतिपूर्ण, शिव, और अद्वैत है. यह न तो कारण है और न ही कार्य. प्राज्ञ अज्ञानता की बीज अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि तुरीय उस अज्ञान के बीज से मुक्त है. तुरीय ही वास्तविक आत्मा है जिसे आत्म-अनुभूति के माध्यम से प्राप्त करना है.
मांडूक्य उपनिषद् चेतना की इन अवस्थाओं के विश्लेषण के माध्यम से परम सत्य, ब्रह्म को जानने का मार्ग दिखाता है, जहाँ सुषुप्ति (प्राज्ञ) आनंद की गहन अवस्था के रूप में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, लेकिन द्वैत के बीज से मुक्त होकर पूर्ण अद्वैत तुरीय में विलीन होना ही अंतिम लक्ष्य है.
कारण शरीर (बीज अवस्था)
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं - जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, और तुरीय - का विस्तृत वर्णन करता है, जिन्हें आत्मा के चतुष्पाद (चार पहलू) कहा गया है। ये अवस्थाएँ आत्म-अनुभूति और ब्रह्म को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
सुषुप्ति (प्राज्ञ) – चेतना की तीसरी अवस्था सुषुप्ति चेतना की तीसरी अवस्था है, जिसे गहरी नींद की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति किसी बाहरी या आंतरिक वस्तु का अनुभव नहीं करता। यहाँ इंद्रियाँ और मन पूरी तरह से शांत होते हैं, और कोई इच्छा या स्वप्न उत्पन्न नहीं होता। यह एक ऐसी अवस्था है जो आनंद से परिपूर्ण होती है, क्योंकि इसमें चेतना विचारों और भावनाओं के विभाजनों में नहीं टूटती, जैसा कि जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं में होता है।
इस अवस्था से संबंधित चेतना को प्राज्ञ कहा जाता है। प्राज्ञ को चेतना का पुंज या ज्ञानघन (mass of consciousness) कहा गया है। यह सर्वज्ञ (all-knowing) होता है, लेकिन अनुभवरहित या आत्म-अज्ञानी (self-ignorant) होता है। इसका अर्थ है कि प्राज्ञ में सभी अनुभव अविभेदित रूप में समाहित होते हैं, जैसे बीज में एक पूरा पेड़ समाहित होता है। गहरी नींद से उठने के बाद व्यक्ति को "अच्छी नींद" का अनुभव याद रहता है, जो यह दर्शाता है कि प्राज्ञ अवस्था में चेतना मौजूद थी।
कारण शरीर (बीज अवस्था) के रूप में सुषुप्ति सुषुप्ति अवस्था को कारण शरीर (causal body) भी कहा जाता है। इसे बीज अवस्था (seed state) के रूप में वर्णित किया गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं के सभी अनुभव इस अवस्था में सुप्तावस्था या बीज रूप में समाहित होते हैं। माण्डूक्य उपनिषद् में वर्णित पाँच कोशों के अनुसार, सुषुप्ति अवस्था को आनंदमय कोश भी कहा जाता है। यह मूल अज्ञान (अविद्या) या सभी अभिव्यक्तियों के स्रोत का प्रतिनिधित्व करती है।
मूल कारण: सुषुप्ति को जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं का मूल कारण माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जाग्रत् अवस्था की अपूर्ण इच्छाएँ और वासनाएँ गहरी नींद की अवस्था में ही निहित होती हैं, और यही वासनाएँ हमें नींद से जाग्रत् अवस्था में वापस लाती हैं।
अनुभवों का माप: सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ) अनुभवों को मापती है, क्योंकि जाग्रत् और स्वप्न के अनुभव, सुषुप्ति अवस्था में संचित कर्मों (संचित संस्कार और वासनाएँ) के छापों से निर्धारित होते हैं।
समष्टि में ईश्वर के साथ संबंध जैसे व्यक्तिगत जाग्रत् अवस्था (विश्व) का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप विराट (वैश्वानर) है, और व्यक्तिगत स्वप्न अवस्था (तैजस) का प्रतिरूप हिरण्यगर्भ (कॉस्मिक माइंड) है, वैसे ही सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ) का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप ईश्वर है।
ईश्वर के गुण: ईश्वर को ब्रह्मांड का अधिपति (सर्वेश्वर), सर्वज्ञ (सभी जानने वाला), और अंतर्यामी नियंत्रक माना जाता है। उनका ज्ञान संवेदी या अवधारणात्मक न होकर अंतर्ज्ञान (intuitional) पर आधारित होता है, और यह अस्तित्व के साथ एकाकार होता है।
कारण-कार्य संबंध: व्यक्तिगत स्तर पर स्वप्न को जाग्रत् अनुभवों के छापों (वासनाओं) का परिणाम माना जाता है। लेकिन ब्रह्मांडीय स्तर पर, इसके विपरीत संबंध है: ईश्वर हिरण्यगर्भ का कारण है, और हिरण्यगर्भ विराट का कारण है। माण्डूक्य उपनिषद् यह बताता है कि सभी प्राणी ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं। प्राज्ञ की व्यक्तिगत कारण अवस्था ब्रह्मांडीय कारण अवस्था ईश्वर का ही एक अंश है।
सुषुप्ति (प्राज्ञ) और तुरीय में अंतर हालांकि सुषुप्ति (प्राज्ञ) अवस्था में विषय-वस्तु का अभाव होता है और यह एक प्रकार की अद्वैत स्थिति प्रतीत होती है, इसमें अभी भी द्वैत का बीज या अज्ञान का मूल (मूल अविद्या) मौजूद रहता है। यही कारण है कि व्यक्ति गहरी नींद से उठने के बाद फिर से जाग्रत् या स्वप्न अवस्था में आता है। इसमें अभी भी "मास ऑफ कॉन्शियसनेस" के रूप में विभाजन की संभावना निहित है। यह एक अस्थायी अवस्था है जो आती-जाती रहती है।
इसके विपरीत, तुरीय अवस्था (चौथा) इन तीनों अवस्थाओं से परे है; यह शुद्ध चेतना है जहाँ अज्ञान का कोई बीज या संभावना नहीं होती। तुरीय न तो कारण है और न ही कार्य। इसमें कोई वास्तविक दूसरी वस्तु नहीं होती, भले ही सब कुछ प्रकट होता हुआ प्रतीत हो। तुरीय घटनाओं की समाप्ति (cessation of phenomena) है। यह पूर्ण सकारात्मकता, अद्वैत है, और इसमें समय, स्थान, व्यक्ति या वस्तुओं का कोई द्वैत नहीं होता। यह अजात (जन्मरहित), अपरिवर्तनीय, आनंदमय और शांतिपूर्ण है। रामना महर्षि स्पष्ट करते हैं कि तुरीय "जगरहित" है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई उद्देश्य घटनाएँ मौजूद नहीं होतीं।
सारांश में, सुषुप्ति (प्राज्ञ) चेतना की तीसरी अवस्था है जो गहरे अज्ञान या कारण शरीर का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें जाग्रत् और स्वप्न के बीज निहित होते हैं, और जिसका ब्रह्मांडीय प्रतिरूप ईश्वर है। यह तुरीय से भिन्न है क्योंकि इसमें अभी भी द्वैत की संभावना का बीज रहता है, जबकि तुरीय शुद्ध, अद्वैत चेतना है जो सभी अवस्थाओं और अज्ञान के बीज से परे है।
समष्टि में ईश्वर
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं - जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का वर्णन करता है, जिन्हें आत्मा के चतुष्पाद के रूप में देखा जाता है। ये अवस्थाएँ आत्म-अनुभूति और परम सत्य ब्रह्म को समझने के लिए केंद्रीय हैं।
सुषुप्ति (प्राज्ञ) - व्यक्तिगत अवस्था सुषुप्ति चेतना की तीसरी अवस्था है, जिसे गहरी नींद के रूप में जाना जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति किसी भी बाहरी या आंतरिक वस्तु का अनुभव नहीं करता। न तो कोई इच्छा होती है और न ही कोई स्वप्न उत्पन्न होता है। इसे इंद्रियों और मन के पूर्ण शांत होने की स्थिति माना जाता है। इस अवस्था में, चेतना विषय-वस्तु से रहित होती है, और इसे कारण शरीर या आनन्दमय कोश कहा जाता है, जिसमें जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं के अनुभव सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित होते हैं। तैत्तरीय उपनिषद् में वर्णित पंच कोशों में, सुषुप्ति को मूल अज्ञान (अविद्या) का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है।
इस अवस्था से संबंधित व्यक्तिगत चेतना को प्राज्ञ कहा जाता है। प्राज्ञ को चेतना का पुंज या ज्ञानघन (mass of consciousness) कहा गया है। यह सर्वज्ञ होता है, लेकिन अनुभवरहित या आत्म-अज्ञानी होता है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राज्ञ में सभी अनुभव अविभेदित रूप में समाहित रहते हैं, जैसे एक बीज में पूरा वृक्ष समाया रहता है। गहरी नींद में व्यक्ति असीमितता और आनंद का अनुभव करता है, क्योंकि इस अवस्था में चेतना विचारों, भावनाओं और धारणाओं में विभाजित नहीं होती है।
समष्टि में ईश्वर - सुषुप्ति का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप जिस प्रकार जाग्रत् अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप विराट (Cosmic Waker/वैश्वानर) है, और स्वप्न अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप हिरण्यगर्भ (Cosmic Mind) है, उसी प्रकार सुषुप्ति अवस्था का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप ईश्वर है। ईश्वर को ब्रह्मांड का अधिपति और सर्वोच्च ईश्वर माना जाता है। माण्डूक्य उपनिषद् प्राज्ञ को ईश्वर के ब्रह्मांडीय कारण अवस्था का एक हिस्सा मानता है।
ईश्वर के गुण और कार्य: ईश्वर को निम्नलिखित गुणों से वर्णित किया गया है:
कारणस्वरूप: ईश्वर को सभी वस्तुओं का कारण और कारण शरीर माना जाता है। ब्रह्मांडीय स्तर पर, ईश्वर हिरण्यगर्भ का कारण है, और हिरण्यगर्भ विराट का कारण है। माण्डूक्य उपनिषद् बताता है कि सभी प्राणी ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं।
सर्वज्ञ (All-knowing): ईश्वर सर्वज्ञ होता है। उसके बोध से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता। ईश्वर का ज्ञान सहज ज्ञान (intuitional) होता है, जो जीवा के इंद्रियजन्य ज्ञान से भिन्न है।
सर्वेश्वर (Overlord of all): ईश्वर सभी का अधिपति है। वह ब्रह्मांड का निर्माता, पालक और संहारक है। वह दुनिया में सब कुछ देखता है और सभी प्राणियों को उचित तरीके से नियंत्रित करता है। वह समस्त जीवों के हृदय में निवास कर समस्त ब्रह्मांड को नियंत्रित करता है।
सर्वशक्तिमान (All-powerful): ईश्वर सर्वशक्तिमान है। उसकी शक्ति वस्तुओं को अपने हाथों से पकड़ने के कारण नहीं है, बल्कि सभी चीजों में अंतर्यामी होने के कारण है। जीवा की सीमित इच्छाशक्ति के विपरीत, ईश्वर की शक्ति उसकी इच्छाहीनता में निहित है।
सर्वव्यापी (Omnipresent): ईश्वर सर्वव्यापी है। जीवा की स्थानिक सीमा के विपरीत, ईश्वर हर जगह उपस्थित है।
सगुण ब्रह्म: माया से जुड़ा ब्रह्म ईश्वर कहलाता है, और इसे सगुण ब्रह्म के नाम से भी जाना जाता है। सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म दो भिन्न ब्रह्म नहीं हैं; वही निर्गुण ब्रह्म भक्तों की पवित्र पूजा के लिए सगुण ब्रह्म के रूप में प्रकट होता है। यह दो अलग-अलग दृष्टिकोणों से एक ही सत्य है।
माया से संबंध: ईश्वर माया में निहित वह शक्ति है जिसके माध्यम से वह सभी प्रकार के नामों और रूपों के साथ वस्तुगत दुनिया को प्रकट करता है। हालांकि, ईश्वर सदा अविद्या से मुक्त रहता है।
प्राज्ञ और ईश्वर का संबंध: प्राज्ञ, व्यक्तिगत गहरी नींद की अवस्था, को ब्रह्मांडीय कारण अवस्था ईश्वर का ही एक भाग माना जाता है। प्राज्ञ में व्यक्तिगत वासनाएं (पूर्व अनुभवों के छाप) सुप्त अवस्था में होती हैं, जबकि ईश्वर में ब्रह्मांडीय वासनाएं (सभी प्राणियों के अनुभवों के छाप) निहित होती हैं। जिस प्रकार गहरी नींद से जागने पर व्यक्तिगत जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार ईश्वर से हिरण्यगर्भ और विराट की उत्पत्ति होती है।
ईश्वर की सीमाएँ उसके ज्ञान को प्रभावित नहीं करतीं। वह विश्व की सभी गतिविधियों के साथ सामंजस्य बिठाता है। जीवा का माया का अंश ईश्वर का सहायक होता है, और संपूर्ण ब्रह्मांड माया का प्रभाव है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, ईश्वर संसार का भौतिक कारण और प्रभावी कारण है। यद्यपि वह ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है, वास्तविकता में दोनों में कोई अंतर नहीं है।
संक्षेप में, सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ) व्यक्तिगत स्तर पर सभी अनुभवों के विलय और अज्ञान के बीज की स्थिति है, जबकि ईश्वर (ब्रह्मांडीय सुषुप्ति) ब्रह्मांडीय स्तर पर उसी अज्ञान के कारण, उत्पत्ति, स्थिति और लय का नियंत्रक है। ईश्वर सभी जीवात्माओं का आधार है, और कोई भी जीवा ईश्वर के अस्तित्व से पृथक नहीं हो सकता। माण्डूक्य उपनिषद् इन दोनों (प्राज्ञ और ईश्वर) के बीच के संबंध को जैविक एकात्मता के रूप में देखता है, यह दर्शाता है कि जीवा का ईश्वरात्व में विलय होने पर वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान बन जाता है।
तुरीय (चतुर्थ)
आपके द्वारा दिए गए स्रोतों के अनुसार, आत्मा की चार अवस्थाएँ (चतुष्पाद) मांडूक्य उपनिषद् और अद्वैत वेदांत दर्शन के केंद्रीय विषयों में से एक हैं। मांडूक्य उपनिषद्, जो सभी उपनिषदों में सबसे छोटा है, इन चार अवस्थाओं का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करता है, जिनमें तुरीय (चौथी अवस्था) सबसे महत्वपूर्ण है। गौडपाद ने मांडूक्य उपनिषद् पर अपनी प्रसिद्ध 'कारिका' लिखी, जिसे अद्वैत वेदांत का पहला सुव्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। शंकराचार्य ने भी इस उपनिषद् और गौडपाद की कारिका पर भाष्य लिखे, उनके अनुसार यह "वेदांत के सार का प्रतीक" है।
आत्मा की चार अवस्थाएँ (चतुष्पाद):
मांडूक्य उपनिषद् आत्मा या चेतना को चार चरणों या पहलुओं में प्रस्तुत करता है। ये चार अवस्थाएँ निम्न प्रकार हैं:
जाग्रत् अवस्था (जागृत अवस्था):
यह चेतना का पहला चरण है, जिसमें जीव (व्यक्तिगत) बाहरी भौतिक संसार का अनुभव करता है।
इस अवस्था में चेतना बाह्य-प्रज्ञ (बाहर की ओर उन्मुख) होती है।
व्यक्तिगत रूप से इसे विश्व कहा जाता है, जबकि ब्रह्मांडीय स्तर पर इसे वैश्वानर या विराट कहा जाता है।
वैश्वानर को सात अंगों और उन्नीस मुखों वाला बताया गया है, जो इंद्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार और प्राणों के माध्यम से स्थूल वस्तुओं का उपभोग करता है।
जाग्रत अवस्था को सामान्यतः वास्तविक माना जाता है।
स्वप्न अवस्था (स्वप्न अवस्था):
यह चेतना का दूसरा चरण है, जहाँ जीव आंतरिक, सूक्ष्म संसार का अनुभव करता है।
इस अवस्था में चेतना अंतः-प्रज्ञ (अंदर की ओर उन्मुख) होती है।
व्यक्तिगत रूप से इसे तैजस और ब्रह्मांडीय स्तर पर हिरण्यगर्भ कहा जाता है।
यह सूक्ष्म वस्तुओं का भोक्ता होता है, और मन ही इस संसार का निर्माण करता है, जिसमें अंतरिक्ष, समय और गतिविधियां शामिल होती हैं।
गौडपाद का तर्क है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ भ्रमपूर्ण उपस्थिति हैं, चाहे जाग्रत अवस्था अधिक स्थिर लगे।
सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद की अवस्था):
यह चेतना का तीसरा चरण है, जहाँ सभी अनुभव एक अविभेदित चेतना के पुंज में विलीन हो जाते हैं।
व्यक्तिगत रूप से इसे प्राज्ञ और ब्रह्मांडीय स्तर पर ईश्वर कहा जाता है।
इस अवस्था में कोई इच्छा या बाहरी/आंतरिक वस्तु नहीं होती।
यह कारण अवस्था या "बीज अवस्था" है, जिससे जाग्रत और स्वप्न की अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं।
इसे आनंद की स्थिति माना जाता है, क्योंकि इसमें विचारों और भावनाओं के विभाजन का अभाव होता है।
हालांकि, इसमें अभी भी अज्ञान का बीज मौजूद होता है, जो जाग्रत और स्वप्न की पुनरावृत्ति का कारण बनता है।
तुरीय अवस्था (चौथी अवस्था):
मांडूक्य उपनिषद् की सबसे गहन शिक्षा तुरीय है, जो कि आत्मा की चौथी अवस्था है।
अवस्थाओं से परे: तुरीय को तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे माना जाता है।
वास्तविक स्वरूप: यह असीमित आत्मन, ब्रह्म या एकमात्र वास्तविकता है। यह हमारी वास्तविक पहचान है।
शुद्ध चेतना: इसे शुद्ध चेतना, ज्ञान, अद्वैत, शांतिपूर्ण और आनंदमय (सत्-चित-आनंद) के रूप में वर्णित किया गया है।
अनिर्वचनीय और अचन्त्य: तुरीय अदृश्य, अव्यावहारिक, अग्राह्य, अलक्ष्य, अचन्त्य और अव्यपदेश्य है। इसे मन या शब्दों से समझा या वर्णित नहीं किया जा सकता है।
द्वैत का अभाव: यह द्वैत रहित (अद्वैत) है, अर्थात इसमें कोई भेद या विविधता नहीं है। इसमें कोई घटनाएँ या प्रपंच नहीं होते।
अजन्मा और अमर: तुरीय अजन्मा (अजाति) और अमर है। गौडपाद का अजातिवाद का सिद्धांत यह बताता है कि कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं होता है।
कारण और कार्य से परे: यह न तो कोई कारण है और न ही कोई कार्य।
साक्षी: तुरीय सभी अवस्थाओं का साक्षी है, जो उनके आने-जाने का साक्षी है, लेकिन स्वयं अप्रभावित रहता है।
सुषुप्ति से भिन्नता: तुरीय सुषुप्ति से भिन्न है क्योंकि सुषुप्ति में अज्ञान का "बीज" (वासनाएं/latent impressions) मौजूद होता है, जिससे जाग्रत और स्वप्न फिर से उत्पन्न हो सकते हैं। तुरीय इस अज्ञान के बीज से पूरी तरह मुक्त है। सुषुप्ति में ज्ञान का अभाव होता है, जबकि तुरीय शुद्ध ज्ञान है।
तुरीय की प्राप्ति/अनुभव:
तुरीय कोई ऐसी अवस्था नहीं है जिसे प्राप्त करना है, बल्कि यह वह है जो हम पहले से ही हैं। यह एक ज्ञान या आत्म-साक्षात्कार है, न कि कोई प्रक्रिया या परिवर्तन।
यह मन की अमनीभाव (मन-रहित) अवस्था में प्रकट होता है, जहाँ मन सभी संकल्पों और द्वैत की धारणाओं को छोड़ देता है।
ज्ञान ("तत्वमसि") इस अवस्था के लिए पर्याप्त है, और एक बार जब यह ज्ञान दृढ़ हो जाता है, तो बाहरी साधनाओं की आवश्यकता नहीं होती है।
ध्यान और मन को शुद्ध करने के लिए सही साधन और बुद्धिमान अभ्यास की आवश्यकता होती है।
तुरीय को ओम के निस्वन भाग (soundless aspect) से भी जोड़ा जाता है, जो ओम के तीन अक्षरों (अ, उ, म) के परे है, जो क्रमशः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ऋषि के लिए, तुरीय को "जागृत नींद" के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है कि वे वास्तविकता के प्रति जागृत हैं लेकिन संसार के प्रति "नींद" में हैं।
मोक्ष और तुरीय: तुरीय की प्राप्ति से दुख समाप्त होता है और मोक्ष (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) प्राप्त होता है। यह वह स्थिति है जहाँ व्यक्तिगत आत्मा परम वास्तविकता के साथ विलय हो जाती है।
अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य
मांडुक्य उपनिषद, जिसे सभी उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, चेतना की चार अवस्थाओं का गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करता है: जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद) और तुरीय (चौथी अवस्था)। तुरीय, या 'चौथी अवस्था', मनुष्य के वास्तविक स्वरूप, आत्मा या ब्रह्म को संदर्भित करती है। यह इन तीनों परिचित अवस्थाओं से परे है और इन्हें अपने में समाहित करती है, फिर भी स्वयं उनसे भिन्न और अप्रभावित है।
मांडुक्य उपनिषद के सातवें मंत्र में तुरीय की प्रकृति का वर्णन निषेधात्मक पद्धति ('नेति-नेति' – यह नहीं, यह नहीं) से किया गया है, क्योंकि यह अनुभवजन्य जगत की किसी भी परिभाषा से परे है। इस संदर्भ में, अलक्षण, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य शब्द तुरीय के अवर्णनीय और अगम्य स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं:
अलक्षण (Alakshanam): इस शब्द का अर्थ 'बिना विशेषताओं वाला' या 'अनुमेय नहीं' है। तुरीय को किसी भी विशिष्ट गुण या लक्षण से परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि लक्षण केवल उन वस्तुओं पर लागू होते हैं जो इंद्रियों या मन द्वारा अनुभव की जा सकती हैं। यह इंद्रियों द्वारा 'अदृश्य' और 'अग्राह्य' (अबोधगम्य) है।
अचिन्त्य (Acintyam): इसका अर्थ 'अकल्पनीय' या 'मन से अगम्य' है। स्वामी सर्वप्रियनांद के अनुसार, मन आत्मा को वस्तुनिष्ठ नहीं कर सकता। तुरीय मन की पहुँच से परे है, क्योंकि मन केवल उन्हीं चीजों की कल्पना या विचार कर सकता है जो समय और स्थान के दायरे में आती हैं, जबकि तुरीय इन सभी सीमाओं से परे है। यह न तो कारण है और न ही कार्य।
अव्यपदेश्य (Avyapadesyam): इस शब्द का अर्थ 'अवर्णनीय' या 'अपरिभाषित' है। तुरीय को शब्दों या किसी भी भाषा के माध्यम से वर्णित नहीं किया जा सकता, क्योंकि सभी शब्द और परिभाषाएँ द्वैत पर आधारित होती हैं। तुरीय, हालांकि, अद्वैत (गैर-द्वैत) है। इसकी महिमा का वर्णन कोई शास्त्र या संत भी नहीं कर सकते।
तुरीय के वृहद संदर्भ में इनका महत्व:
द्वैत से परे: ये निषेधात्मक विवरण यह स्पष्ट करते हैं कि तुरीय द्वैत के सभी पहलुओं से परे है। द्वैत संसार के अनुभव, जिसमें भेद, परिवर्तन, कारण और कार्य शामिल हैं, को गौड़पाद ने 'मिथ्या' (एक उपस्थिति) या 'प्रपंच' कहा है। तुरीय इस 'प्रपंच' की 'समाप्ति' है।
अजातवाद का समर्थन: गौड़पाद का 'अजातवाद' (गैर-उत्पत्ति का सिद्धांत) यह स्थापित करता है कि तुरीय से कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं होता है। यदि तुरीय को किसी लक्षण, विचार या वर्णन से समझा जा सकता, तो यह एक वस्तु बन जाता या किसी चीज का कारण या प्रभाव होता, जिससे इसकी गैर-द्वैतता और अनादि प्रकृति खंडित हो जाती।
शुद्ध चेतना के रूप में आत्मा: तुरीय को जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जैसी सभी अवस्थाओं का 'साक्षी' बताया गया है, जो इन अवस्थाओं के आने-जाने से अप्रभावित रहता है। यह वह 'शुद्ध चेतना' है जो स्वयं अपरिवर्तनीय है।
मन से परे की प्राप्ति: तुरीय को समझने के लिए मन को 'नो माइंड' (अमनी-भाव) की स्थिति में लाना आवश्यक है। जब मन की सभी वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं, तो द्वैत का अनुभव नहीं होता, और व्यक्ति अपने वास्तविक, अद्वैत स्वरूप को अनुभव करता है। तुरीय वह अवस्था है जहाँ 'ज्ञाता', 'ज्ञेय' और 'जानने की क्रिया' तीनों समाप्त हो जाते हैं।
परम सत्य और मोक्ष: तुरीय परम सत्य, शांतिपूर्ण और आनंदमय है। यह मोक्ष (मुक्ति) की अवस्था है, जहां व्यक्ति सभी पीड़ाओं और भ्रमों से मुक्त हो जाता है। रामना महर्षि के अनुसार, "तुरीय केवल आत्मन का दूसरा नाम है"।
संक्षेप में, अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य जैसे शब्द तुरीय के पारमार्थिक स्वरूप को इंगित करते हैं, जो अनुभवजन्य दुनिया और मन की सीमाओं से परे है। ये शब्द हमें यह समझने में मदद करते हैं कि तुरीय कोई वस्तु नहीं है जिसे परिभाषित, कल्पना या वर्णन किया जा सके, बल्कि यह स्वयं का सारभूत, गैर-द्वैत और असीमित स्वरूप है।
एकात्मप्रत्ययसारम् (एकत्व का सार)
माण्डूक्य उपनिषद् और अद्वैत वेदान्त के संदर्भ में, एकात्मप्रत्ययसारम् (एकत्व का सार) तुरीय अवस्था का एक महत्वपूर्ण गुण है, जो परम सत्य और आत्म-साक्षात्कार को दर्शाता है।
तुरीय (चतुर्थ अवस्था) का परिचय माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन करता है: जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। तुरीय, शाब्दिक अर्थ में 'चौथा', जाग्रत्, स्वप्न और गहरी नींद की तीन अवस्थाओं से परे की अवस्था को संदर्भित करता है जो एक व्यक्ति के रूप में हमारे जीवन के अनुभव को बनाते हैं। तुरीय को वास्तविक आत्म, ब्रह्म, आत्मा, एक के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसे जानने पर सभी भ्रम और दुख दूर हो जाते हैं, और यह शुद्ध आनंद की स्थिति है। माण्डूक्य उपनिषद् इस अवस्था को सीधे इसके सकारात्मक गुणों द्वारा वर्णित करता है।
एकात्मप्रत्ययसारम् की परिभाषा और तुरीय से संबंध माण्डूक्य उपनिषद् के सातवें श्लोक में तुरीय को एकात्मप्रत्ययसारम् के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसका अर्थ है आत्मन की एकता के बोध का सार। यह वह अवस्था है जहाँ ग्रहणकर्ता, ग्राह्य वस्तु, और ग्रहण की क्रिया — तीनों का अभाव होता है। यह वर्णन करता है कि आत्मन स्वयं को अन्य किसी रूप या अवधारणा से परिभाषित नहीं कर सकता है। यह 'एकत्व', 'आत्मत्व' और 'सारत्व' के तीन शब्दों से परिभाषित है। आत्मा वही है जो स्वयं को जानता है, बिना किसी साधन के, अपने स्वयं के अस्तित्व से।
तुरीय को बाह्य या आंतरिक जगत के प्रति सचेत नहीं माना गया है; यह चेतना का समूह भी नहीं है। यह न तो सचेत है और न ही अचेत। यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य है। यह सभी घटनाक्रमों का निरोध है, अद्वैत शांति-पवित्रता-आनंद है। तुरीय में कोई द्वैत या बहुलता नहीं होती।
अद्वैत वेदांत के व्यापक संदर्भ में एकात्मप्रत्ययसारम् का यह विचार अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" (केवल ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है) के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है।
जगत की मिथ्याता और अजातिवाद: माण्डूक्य कारिका के रचयिता गौड़पाद ने जगत की मिथ्याता पर जोर दिया है, यह बताते हुए कि यह एक प्रतीति मात्र है, यथार्थ नहीं। उन्होंने अजातिवाद (गैर-उत्पत्ति का सिद्धांत) का प्रचार किया, जिसके अनुसार आत्मन या तुरीय से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि यदि कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैत उत्पन्न होता और अद्वैत भंग हो जाता। यदि कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है, तो आत्मा कारण भी नहीं है और इस प्रकार गैर-द्वैत बनी रहती है।
घट-आकाश सादृश्य: गौड़पाद ने घट-आकाश (बर्तन में आकाश) के सादृश्य का उपयोग किया है। जिस प्रकार एक बर्तन में सीमित आकाश और विशाल आकाश अलग-अलग प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में आकाश एक ही है, उसी प्रकार जीवात्माएँ (व्यक्तिगत चेतनाएँ) और ब्रह्मन एक ही हैं। यह दर्शाता है कि आत्मा, चाहे वह विशु और वैश्वानर (जागृत अवस्था), तैजस और हिरण्यगर्भ (स्वप्न अवस्था), या प्राज्ञ और ईश्वर (गहरी नींद की अवस्था) के रूप में प्रतीत हो, अंततः एक ही तुरीय है।
माया की भूमिका: अद्वैत मत के अनुसार, जीव और ब्रह्म की भिन्नता का कारण माया है, जिसे अविद्या भी कहा जाता है। यह माया ही है जो द्वैत और बहुलता का भ्रम पैदा करती है। जब ज्ञान होता है, तो अविद्या का नाश होता है, और जीव को प्रतीति होती है कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या। तुरीय की प्राप्ति में, मन का 'अमन' (कोई मन नहीं) हो जाना आवश्यक है, जिससे द्वैत की अनुभूति समाप्त हो जाती है।
राज जनक का दृष्टांत: राज जनक का स्वप्न का दृष्टांत यह दर्शाता है कि जाग्रत अवस्था के अनुभव स्वप्न के अनुभवों से कम मिथ्या नहीं होते हैं। अष्टावक्र ने उन्हें सिखाया कि न तो जागृत अवस्था और न ही स्वप्न अवस्था सत्य है, केवल स्वयं ('आप') ही सत्य है, जो अंततः 'एकल और सामूहिक चेतना' है। यह एकात्मप्रत्ययसारम् की अवधारणा को पुष्ट करता है।
साक्षात्कार का महत्व तुरीय का साक्षात्कार, जो एकात्मप्रत्ययसारम् के रूप में वर्णित है, मोक्ष या मुक्ति का मार्ग है। यह परम लक्ष्य है। यह अनुभव वाणी से परे है और इसमें कर्ता, कर्म और क्रिया का भेद नहीं होता। ज्ञान ही आत्म होने की अवस्था का नाम है।
संक्षेप में, एकात्मप्रत्ययसारम् तुरीय अवस्था की केंद्रीय विशेषता है, जो स्वयं की गैर-द्वैतवादी, अखंड और अपरिवर्तनीय प्रकृति को दर्शाती है, जिसे माया के भ्रम को दूर करने और परम मुक्ति प्राप्त करने के लिए महसूस किया जाना है।
प्रपंचोपशमम् (घटनाओं का अंत)
वेदांत दर्शन में तुरीय (चौथी अवस्था) चेतना का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो प्रपंचोपशमम् (घटनाओं के अंत) की अवधारणा से गहराई से जुड़ा हुआ है।
तुरीय (चौथी अवस्था) क्या है? तुरीय चेतना की वह चौथी अवस्था है जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं से परे है। यह आत्मा, ब्रह्म, या स्वयं का सच्चा स्वरूप है, और इसे परम आनंद की स्थिति माना जाता है। तुरीय को न तो बाहरी या आंतरिक दुनिया के प्रति सचेत कहा गया है, न ही चेतना का एक मात्र समूह है। यह न तो देखा जा सकता है, न किसी से संबंधित है, न ही समझ में आता है, न ही अनुमान योग्य है, न सोचा जा सकता है, और न ही इसका वर्णन किया जा सकता है।
स्वामी सर्वप्रियानंद के अनुसार, तुरीय कोई 'अवस्था' नहीं है, बल्कि वह चेतना है जो सभी अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, यहाँ तक कि समाधि या कोमा जैसी क्षणिक अवस्थाओं) की साक्षी है। यह अपरिवर्तनीय है, सभी संबंधों से मुक्त है। मांडूक्य उपनिषद में इसे 'चतुर्थ' कहा गया है। श्री रमण महर्षि के अनुसार, तुरीय आत्मा का ही दूसरा नाम है और यह व्यक्ति का सच्चा स्वरूप है।
प्रपंचोपशमम् (घटनाओं का अंत) क्या है? प्रपंचोपशमम् का शाब्दिक अर्थ है "ब्रह्मांड का मौन या समाप्ति"। वेदांत में इसका अर्थ है "विश्व की मिथ्याता" या "सभी घटनाओं की समाप्ति"। यह इस बात का बोध है कि ब्रह्मांड एक बाहरी वास्तविकता के बजाय अपनी ही चेतना के भीतर एक 'उपस्थिति' मात्र है। शंकर के अनुसार, इसका तात्पर्य "सभी नामों और नाम योग्य वस्तुओं का गायब होना है, जो केवल वाणी और मन के रूप हैं"। रमण महर्षि इसे "विश्वहीन" और "द्वैत की समाप्ति" के रूप में वर्णित करते हैं।
तुरीय और प्रपंचोपशमम् के बीच संबंध:
घटनाओं की समाप्ति के रूप में तुरीय: मांडूक्य उपनिषद स्पष्ट रूप से तुरीय को "सभी घटनाओं की समाप्ति" और "बिना भागों और बिना संबंध के" के रूप में परिभाषित करता है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती।
मिथ्याता की प्राप्ति: जब ब्रह्मांड की "समाप्ति" की बात होती है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि ब्रह्मांड गायब हो जाएगा, बल्कि यह कि इसे एक उपस्थिति के रूप में महसूस किया जाता है, एक वास्तविकता के रूप में नहीं जो आपको धमकी दे रही हो। इस अहसास को मिथ्या कहा जाता है, यानी ब्रह्मांड का मिथ्यात्व। गौड़पाद ने वैतथ्य प्रकरण (दूसरा अध्याय) में इस मिथ्यात्व को सिद्ध करने के लिए तर्क का इस्तेमाल किया।
मन का क्षय (अमनीभाव): मन को "द्वैत" माना गया है, और जब मन सक्रिय होता है, तो संसार (भौतिक अस्तित्व) मौजूद होता है। तुरीय को प्राप्त करने के लिए मन का "अमन" या "मनोहीन अवस्था" में आना आवश्यक है, जिसे अमनीभाव कहा जाता है। शंकर के अनुसार, ब्रह्मांड की सभी वस्तुएँ मन द्वारा निर्मित होती हैं। मन की हलचलों का निषेध आंतरिक आत्मा, यानी अपने सब्सट्रेटम को खोजने की ओर ले जाता है।
अजातवाद (गैर-उत्पत्ति) का सिद्धांत: गौड़पाद का प्रसिद्ध सिद्धांत, अजातवाद, जोर देता है कि तुरीय से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है। अजातवाद का अर्थ है "कोई उत्पत्ति नहीं या कोई रचना नहीं"। गौड़पाद ने तर्क दिया कि तुरीय न तो जीवात्माओं का कारण है और न ही ब्रह्मांड का कारण है, क्योंकि वास्तव में न तो जीवात्माएँ और न ही ब्रह्मांड इससे उत्पन्न हुए हैं, भले ही वे प्रकट होते हों। "अजन्मा ही अजन्मा को जानता है"। रमण महर्षि भी कहते हैं कि तुरीय में "जन्म वह है जो महान व्यक्ति नहीं देखता"।
माया की भूमिका: द्वैत और संसार का मूल कारण माया (भ्रम) है। मन को माया के भ्रम के तहत बहुलतावादी दुनिया का निर्माणकर्ता माना जाता है। सुषुप्ति (गहरी नींद) की अवस्था को "द्वैत का बीज" और माया के बीज के रूप में वर्णित किया गया है, जहाँ जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं को प्रक्षेपित करने वाले वासना (छाप) निष्क्रिय हो जाते हैं। तुरीय में, अज्ञान का यह "बीज-नींद" मौजूद नहीं होता है।
द्वैत के रूप में संसार: द्वैत को सभी समस्याओं का स्रोत माना जाता है, जिसमें जन्म, विकास, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु शामिल है। यह हमें अपनी अनंत वास्तविकता से सीमित, दयनीय प्राणियों में कम कर देता है। तुरीय में, द्वैत का कोई अनुभव नहीं होता है।
संक्षेप में, प्रपंचोपशमम् तुरीय की आवश्यक विशेषता है, जहाँ चेतना सभी घटनाओं, द्वैत और मन के भ्रम से मुक्त होती है। यह विश्व की मिथ्याता और आत्मा की अजन्मा, अविनाशी प्रकृति की सीधी समझ है। यह आत्म-साक्षात्कार का अंतिम लक्ष्य है, जहाँ साधक अपने स्वयं को आत्मा में विलीन कर लेता है।
शांतम्, शिवम्, अद्वैतम्
आपके द्वारा प्रदान किए गए स्रोतों के अनुसार, शांतम्, शिवम्, अद्वैतम् ये तीनों तुरीय (चतुर्थ) अवस्था के मूल गुण हैं, जो अद्वैत वेदान्त दर्शन के केंद्र में है। तुरीय वह चौथी अवस्था है जो मानव चेतना की तीन सामान्य अवस्थाओं—जाग्रत् (waking), स्वप्न (dreaming), और सुषुप्ति (deep sleep)—से परे है। इस अवस्था को ही वास्तविक आत्मन् (Self) या ब्रह्मन् (Brahman) माना जाता है। यह मुक्ति (मोक्ष) का लक्ष्य है और भ्रम तथा पीड़ा को दूर करता है।
शांतम् (Tranquil/Peaceful) तुरीय को शांतम् (पूर्ण शांति), सुप्रशांतः (परम शांति) और अचल (स्थिर) के रूप में वर्णित किया गया है।
आत्मन् की यह अवस्था मन की सभी गतिविधियों और विचारों की समाप्ति है।
स्वामी सर्वप्रियानंद बताते हैं कि तुरीय की यह चुप्पी द्वैत के सभी कोलाहल को शांत करती है, इंद्रियों के शोर को समाहित करती है, और सभी तर्कों की तुलना में एक अधिक पूर्ण व्याख्या प्रदान करती है।
यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ चेतना पूरी तरह से शांत, विश्रामपूर्ण, संतुष्ट और चिंतामुक्त होती है।
गौड़पाद के अनुसार, मन को 'अमन' या 'नो माइंड' की स्थिति में लाना आवश्यक है, क्योंकि जब मन सक्रिय होता है, तभी संसार (जन्म-मरण का चक्र) होता है।
यह अवस्था किसी भी बाहरी या आंतरिक चेतना से परे है; न तो आंतरिक और न ही बाहरी विषय ज्ञात होते हैं।
शिवम् (Auspicious/Blissful/Benign) तुरीय को शिवम् (शुभ/आनंदमय/मंगलकारी), आनंद और शुद्ध सकारात्मकता के रूप में वर्णित किया गया है।
यह अस्तित्व-चेतना-आनंद (सत्-चित्-आनंद) के बराबर है।
गहरी नींद की अवस्था भी आनंदमय अनुभव है क्योंकि उसमें चेतना विचारों और भावनाओं में विभाजित नहीं होती है।
व्यक्ति के सभी प्रयास स्थायी आनंद प्राप्त करने की दिशा में होते हैं, जो तुरीय की प्राप्ति है।
यह समस्त नकारात्मकता से रहित है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई विपरीत नहीं है।
अद्वैतम् (Non-duality) तुरीय अवस्था अद्वैत है, जिसका अर्थ है गैर-द्वैत (non-dual)। यह अद्वैत वेदान्त का मूल सिद्धांत है, जो यह प्रतिपादित करता है कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है, और संसार (जगत) मिथ्या (अवास्तविक) है।
द्वैत ही संसार है: गौड़पाद के अनुसार, द्वैत (भेद, विभिन्नता) ही संसार और सभी समस्याओं का मूल कारण है।
तुरीय अकारण है (अजातिवाद): अद्वैत को सिद्ध करने के लिए, गौड़पाद तर्क देते हैं कि तुरीय न तो कोई कारण है और न ही कोई कार्य है। यदि तुरीय किसी दूसरी वस्तु को उत्पन्न करता, तो द्वैत की स्थिति पैदा हो जाती। अजातिवाद (non-origination या non-creation) का अर्थ है कि न तो कोई जीव उत्पन्न हुआ है और न ही कोई ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ है; आप पहले से ही तुरीय हैं।
संसार की मिथ्याता (जगत मिथ्या): संसार एक प्रतीति (appearance) मात्र है, कोई वास्तविक सत्ता नहीं। यह चेतना के भीतर एक प्रतीति है, जो 'माया' के कारण उत्पन्न होती है। गौड़पाद तर्क और स्वप्न के उदाहरणों का उपयोग करके संसार की मिथ्याता को सिद्ध करते हैं। स्वप्न की दुनिया की तरह, जाग्रत् और सुषुप्ति के अनुभव भी तुरीय चेतना से भिन्न नहीं हैं।
आत्मन् ब्रह्म है (जीव ब्रह्म न परः): हम स्वयं ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं। तुरीय ही आत्मन्, ब्रह्मन् है। एक ही तुरीय चेतना विभिन्न शरीरों, मनों और व्यक्तित्वों के रूप में प्रतीत होती है, लेकिन स्वयं एक ही है。
असंग आत्मन्: तुरीय का संसार के साथ कोई संबंध नहीं है, भले ही संसार उसमें प्रतीत होता है। यह कार्य या कारण नहीं है, और इस प्रकार यह संसार के प्रभाव से अप्रभावित रहता है।
द्वैत माया का परिणाम: द्वैत को अज्ञान (अविद्या) का परिणाम माना जाता है। शंकर के अनुसार, माया ब्रह्म की एक जटिल 'मायावी शक्ति' है जिसके कारण ब्रह्म को विभिन्न रूपों की भौतिक दुनिया के रूप में देखा जाता है।
अद्वैत विवाद से परे: अद्वैतवादी अन्य दार्शनिकों के साथ तर्क-वितर्क में नहीं पड़ते, क्योंकि वे सभी में आत्मन् को देखते हैं, और द्वैत को केवल एक भ्रम मानते हैं। द्वैत को अद्वैत का एक 'प्रभाव' या 'उत्पाद' भी माना जाता है, जो माया द्वारा ब्रह्म पर उत्पन्न होता है।
तुरीय की समग्र व्याख्या मांडूक्य उपनिषद् का सातवां मंत्र तुरीय को विस्तार से परिभाषित करता है। इसके अनुसार, यह न तो आंतरिक रूप से सचेत है, न बाहरी रूप से सचेत, न दोनों का संयुक्त रूप, न चेतना का एक पिंड। यह न तो साधारण चेतना है और न ही अचेतना। यह अदृश्य, अव्यवहार्य (सांसारिक व्यवहारों से असंबद्ध), अग्राह्य (अगम्य), अलक्षण (अनिर्धारणीय), अचिंत्य (अकल्पनीय) और अव्यपदेश्य (अवर्णीय) है। यह आत्मन् के एकत्व के बोध का सार (एक आत्म प्रत्ययसारं) है, प्रपञ्चोपशमं (प्रकटित संसार का शमन) है, शांतम् (शांत) है, शिवम् (शुभ/आनंदमय) है, और अद्वैतम् (अद्वैत) है।
शंकराचार्य का योगदान: शंकराचार्य ने गौड़पाद के कार्य को ब्रह्म सूत्र के साथ एकीकृत किया और अद्वैत वेदान्त की मानक व्याख्या प्रदान की। उन्होंने पुष्टि की कि तुरीय वह है जिसमें सभी घटनाएँ समाप्त हो गई हैं और सभी नामों और नामनीय वस्तुओं का लोप हो गया है, जो केवल वाणी और मन के रूप हैं।
रामना महर्षि का दृष्टिकोण: रामना महर्षि ने तुरीय को निराकार ब्रह्म और स्वयं का सच्चा स्वरूप बताया है। उनके अनुसार, तुरीय 'जगत्-रहित' है, जिसका अर्थ है कि उसमें कोई वस्तुनिष्ठ घटना नहीं होती। जैसे ही तुरीय का ज्ञान हो जाता है, तीनों अनुभवकर्ता (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) और यह विचार कि आत्मन् एक साक्षी है, लुप्त हो जाते हैं, इसलिए इसे 'तुरीयातीत' (चौथी से परे की स्थिति) भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि यह स्वयं ही एकमात्र वास्तविकता है।
संक्षेप में, शांतम्, शिवम्, अद्वैतम् तुरीय के मूलभूत और अपरिहार्य गुण हैं, जो उस परम, अद्वैत, और अप्रभावित चेतना को दर्शाते हैं जो सभी अनुभवों, द्वैत और सांसारिक दुखों से परे है, और स्वयं ही परम वास्तविकता और आनंद का स्रोत है।
आत्मा ही तुरीय है
माण्डूक्य उपनिषद, जो कि उपनिषदों में सबसे छोटा होने के बावजूद अपने गहन अर्थ के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है, चेतना की चार अवस्थाओं का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है: जाग्रत् (जागृत), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरीय (चौथी अवस्था). इन सभी अवस्थाओं में, तुरीय को ही आत्मन् या ब्रह्मन् के रूप में पहचाना जाता है.
यहाँ तुरीय (चौथी अवस्था) के वृहत्तर संदर्भ में "आत्मा ही तुरीय है" की अवधारणा का विस्तृत विवरण दिया गया है:
तुरीय (चौथी अवस्था) का स्वरूप: तुरीय, जिसका शाब्दिक अर्थ 'चौथा' है, चेतना की वह अवस्था है जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं से परे है. यह वह सच्चा आत्मन् है जो स्वयं ब्रह्मन् है, और जिसके बोध से सभी भ्रम और दुःख दूर हो जाते हैं, जिससे परम आनंद की प्राप्ति होती है.
निर्वचनीय और अद्वितीय: तुरीय को अवर्णनीय, अदृश्य, अविचारणीय और अचिन्त्य बताया गया है. यह शुद्ध चेतना का एक ऐसा स्वरूप है जो शांत, शिव (शुभ), और अद्वैत (गैर-द्वैतवादी) है.
द्वैत और घटना से परे: तुरीय को 'निष्कल' (बिना भागों के) और 'असंबंध' (बिना संबंध के) बताया गया है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई वस्तु या घटना नहीं उठ सकती, और इसका किसी वस्तु या घटना से कोई संबंध नहीं है. यह सभी द्वैत और घटनाओं का शमन है. यह असीम, आनंदमय, और शांतिपूर्ण है.
अकारण और अपरिवर्तनीय: तुरीय न तो कोई कारण है और न ही कोई कार्य. यह अविनाशी है और इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता. इसका अर्थ है कि इससे कोई दूसरी वस्तु उत्पन्न नहीं होती, जिससे इसकी गैर-द्वैतता स्थापित होती है.
अन्य तीन अवस्थाओं से तुरीय का भेद: माण्डूक्य उपनिषद तुरीय को चेतना की अन्य तीन अवस्थाओं से भिन्न बताता है, भले ही तुरीय उन सभी का साक्षी हो.
जाग्रत अवस्था (वैश्वानर/विश्व): यह बाहरी स्थूल वस्तुओं के अनुभव से संबंधित है. इसमें चेतनता बाहर की ओर केंद्रित होती है. वैश्वानर ब्रह्मांड के भौतिक शरीर को चेतन करने वाली चेतना है, जबकि विश्व एक व्यक्तिगत शरीर को चेतन करने वाला आत्मन् है.
स्वप्न अवस्था (तैजस/हिरण्यगर्भ): इसमें चेतना सूक्ष्म आंतरिक वस्तुओं को अनुभव करती है, जो जाग्रत अनुभव के संस्कारों का पुनरावृत्ति होती हैं. तैजस व्यक्तिगत स्वप्न चेतना है, जबकि हिरण्यगर्भ ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना है.
सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ/ईश्वर): यह गहरी नींद की अवस्था है जहाँ सभी अनुभव एक अज्ञानता के बीज-रूप (वासना) में विलीन हो जाते हैं, और कोई चेतना या इच्छा नहीं होती. प्राज्ञ व्यक्तिगत गहरी नींद की अवस्था है, और इसे सभी अनुभवों का कारण माना जाता है. ईश्वर ब्रह्मांडीय कारण अवस्था है, जिससे हिरण्यगर्भ और विराट उत्पन्न होते हैं.
तुरीय इन तीनों से भिन्न है क्योंकि:
यह न तो आंतरिक रूप से सचेत है और न ही बाहरी रूप से सचेत; न ही यह चेतना का एक द्रव्यमान है.
सुषुप्ति अवस्था में 'अज्ञान का बीज' (माया) उपस्थित होता है, जिससे द्वैत की संभावना बनी रहती है और जाग्रत व स्वप्न अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं. इसके विपरीत, तुरीय में अज्ञान का यह बीज मौजूद नहीं होता. यह स्वयं शुद्ध चेतना है जो सभी अवस्थाओं में रहती है, परंतु स्वयं किसी भी अवस्था से प्रभावित नहीं होती.
गौड़पाद का दृष्टिकोण (माण्डूक्य कारिका): गौड़पाद (छठी शताब्दी ईस्वी के आसपास) ने माण्डूक्य उपनिषद पर अपनी प्रसिद्ध 'माण्डूक्य कारिका' या 'गौड़पाद कारिका' लिखी, जिसे अद्वैत वेदान्त का पहला सुव्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है.
उन्होंने 'अजातिवाद' (उत्पत्तिहीनता का सिद्धांत) पर जोर दिया, जिसका अर्थ है कि वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं होता. उन्होंने तर्क दिया कि ब्रह्मांड एक भ्रामक उपस्थिति मात्र है, एक वास्तविकता नहीं. जैसे स्वप्न की दुनिया मन में पैदा होती है और वास्तविक नहीं होती, वैसे ही जाग्रत दुनिया भी केवल एक उपस्थिति है.
गौड़पाद ने जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को 'स्वप्न-तुल्य' माना. उनका मानना था कि अद्वैत ही परम सत्य है और द्वैत केवल माया या अज्ञानता के कारण प्रकट होता है.
उनके लिए, तुरीय, आत्मन् या ब्रह्मन्, किसी भी चीज़ का कारण नहीं है क्योंकि कोई भी दूसरी चीज़ उससे उत्पन्न नहीं होती; यदि कोई दूसरी चीज़ उससे उत्पन्न होती तो उसकी गैर-द्वैतता नष्ट हो जाती.
शंकराचार्य का दृष्टिकोण: आदि शंकराचार्य (788-820 ईस्वी) ने गौड़पाद के कार्यों का विस्तार किया और उपनिषदों पर भाष्य लिखे, जिनमें माण्डूक्य उपनिषद और गौड़पाद कारिका पर उनके भाष्य शामिल हैं.
शंकराचार्य ने 'ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या' (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, संसार मिथ्या है) के सिद्धांत को स्पष्ट किया. उनके अनुसार, यह दुनिया अज्ञानता (माया) के कारण उत्पन्न एक भ्रम है, जैसे अंधेरे में रस्सी को सांप समझना.
उन्होंने वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार किया: प्रातिभासिक (भ्रम या स्वप्न), व्यावहारिक (जाग्रत अवस्था की संव्यवहारात्मक वास्तविकता), और पारमार्थिक (परम सत्य, ब्रह्मन्). गौड़पाद ने व्यावहारिक और प्रातिभासिक दोनों को एक ही 'भ्रम' की श्रेणी में रखा, लेकिन शंकराचार्य ने उन्हें अलग-अलग किया. तुरीय पारमार्थिक सत्य के अनुरूप है.
श्री रमण महर्षि का दृष्टिकोण: श्री रमण महर्षि (20वीं शताब्दी) ने तुरीय पर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गहन शिक्षाएँ दीं:
उन्होंने कहा कि "तुरीय आत्मन् का ही दूसरा नाम है".
महर्षि के अनुसार, तुरीय "जगत से रहित" (worldless) है, यानी इसमें कोई वस्तुगत घटनाएँ मौजूद नहीं होतीं. यह व्यक्ति का "अपना सच्चा स्वरूप" है जिसमें संत दृढ़ता से स्थापित होते हैं.
तुरीय और 'तुरीयातीत' (चौथी अवस्था से परे) के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए, रमण महर्षि ने बताया कि 'तुरीय' शब्द का उपयोग इसलिए किया जाता है ताकि आत्मन् को जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के अनुभवों से भिन्न और उनके साक्षी के रूप में दर्शाया जा सके. एक बार जब इस आत्मन् को जान लिया जाता है, तो तीनों अनुभवकर्ता और 'साक्षी' होने की अवधारणा भी विलीन हो जाती है, और तब इसे 'तुरीयातीत' कहा जाता है. यह कोई अलग अवस्था नहीं, बल्कि सत्य की पूर्ण समझ है.
तुरीय का बोध: तुरीय को प्राप्त करने के लिए किसी बाहरी क्रिया की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह पहले से ही हमारा वास्तविक स्वरूप है. यह आत्म-बोध (आत्म-सत्य-अनुबोध) के माध्यम से प्राप्त होता है, जहाँ मन शांत होकर विचारों और अवधारणाओं से मुक्त हो जाता है. उपनिषदों का ज्ञान और गुरु का निर्देश हमें इस सत्य को पहचानने में मदद करता है कि हम पहले से ही वह असीम आत्मन् हैं.
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद और अद्वैत वेदान्त का केंद्रीय संदेश यह है कि आत्मा ही तुरीय है – वह चौथी, गैर-द्वैतवादी, शांत और आनंदमय चेतना जो चेतना की सभी सापेक्ष अवस्थाओं को समाहित करती है, लेकिन स्वयं उनसे परे है और उनकी साक्षी है.
यही मोक्ष है
हिन्दू दर्शन में, विशेषकर अद्वैत वेदांत में, तुरीय अवस्था को मोक्ष के पर्यायवाची के रूप में देखा जाता है, और यह माना जाता है कि "यही मोक्ष है" की अवधारणा तुरीय की सीधी पहचान से आती है।
यहाँ विभिन्न स्रोत इस विषय पर क्या कहते हैं:
तुरीय अवस्था का परिचय:
माण्डूक्य उपनिषद मानव चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन करता है: जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था), और तुरीय (चौथी अवस्था)।
तुरीय इन तीनों से परे की अवस्था है। इसे बाहरी या भीतरी दुनिया के प्रति सचेत नहीं माना जाता, न ही यह चेतना का समूह है, न ही यह साधारण चेतना है, और न ही अचेतना है।
यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य है।
यह कोई ऐसी अवस्था नहीं है जो आती-जाती हो, बल्कि यह उन सभी अवस्थाओं का साक्षी है। स्वामी सर्वप्रियानंद के अनुसार, यह वह चेतना है जो इन सभी अवस्थाओं का साक्षी है, न कि स्वयं एक अवस्था।
तुरीय ही मोक्ष है:
माण्डूक्य उपनिषद स्पष्ट रूप से कहता है कि "तुरीय अवस्था ही मोक्ष है"। यह आत्मा या ब्रह्म का शुद्ध, शांत, अद्वैत और शिव रूप है।
यह अवस्था अनिवार्य रूप से इच्छा और पीड़ा रहित ज्ञान की शुद्ध अवस्था के बराबर है, जिसे सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
मुक्ति उपनिषद में भगवान राम हनुमान को कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए केवल माण्डूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह देते हैं।
मोक्ष का अर्थ केवल आत्म-ज्ञान नहीं है, बल्कि आत्म-ज्ञान ही स्वयं मोक्ष है। स्वामी कृष्णानंद के अनुसार, मोक्ष वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति स्वयं के अधिकार से अस्तित्व में आता है (ईश्वरत्व), न कि जीवत्व (व्यक्तिगतता) के संबंध से; यह पूर्ण स्वतंत्रता (कैवल्य) है।
यह उस सत्य का बोध है कि आप पहले से ही वह हैं, इसे एक वस्तु के रूप में प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। स्वामी सर्वप्रियानंद बताते हैं कि तुरीय का बोध "मैं वह हूँ" को अपनाना है, आत्मा को वस्तुनिष्ठ बनाने का प्रयास करना नहीं है।
श्री रमण महर्षि के अनुसार, तुरीय आत्मा का ही दूसरा नाम है। यह वह अवस्था है जहाँ ज्ञाता, ज्ञेय और जानने की क्रिया तीनों नहीं होती।
रमना महर्षि यह भी बताते हैं कि तुरीय 'जगत-रहित' है, यानी इसमें कोई वस्तुनिष्ठ घटना मौजूद नहीं होती। यह दुखों को नष्ट करने में सक्षम है।
यह ज्ञान की स्थिति है जिसमें मन की सभी गतिविधियाँ समाप्त हो जाती हैं, जिसे 'अमनीभाव' भी कहा जाता है। यह मन का नाश नहीं है, बल्कि मन का स्थिर होना है।
गौडपाद के अनुसार, द्वैत (माया या जगत) कभी वास्तव में अस्तित्व में नहीं आया; यदि कोई कल्पना करता है कि यह अस्तित्व में आया, तो आत्म-साक्षात्कार पर यह गायब हो जाता है। तुरीय में द्वैत या वस्तुओं की कोई अनुभूति नहीं होती, और गहरी नींद में मौजूद अज्ञान का बीज इसमें अनुपस्थित होता है।
अद्वैत वेदांत और तुरीय:
अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है: "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" (ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है)। तुरीय इस परम सत्य ब्रह्म का ही स्वरूप है।
गौडपाद की मांडूक्य कारिका, अद्वैत वेदांत पर सबसे पुराना पूर्ण ग्रंथ है। गौडपाद दृढ़ता से तर्क देते हैं कि द्वैत अस्तित्व में है ही नहीं; मन जाग्रत या स्वप्न अवस्था में माया में ही विचरण करता है; और केवल अद्वैत ही परम सत्य है।
शंकराचार्य ने गौडपाद के सिद्धांतों को विकसित किया। वे ब्रह्म के दो रूपों को स्वीकार करते हैं: सगुण ब्रह्म (उपाधियों सहित, माया से जुड़ा हुआ, ईश्वर) और निर्गुण ब्रह्म (सभी उपाधियों से रहित शुद्ध ब्रह्म)। निर्गुण ब्रह्म परमार्थिक दृष्टिकोण से उच्चतर है, जबकि सगुण ब्रह्म व्यावहारिक दृष्टिकोण से निम्नतर है। तुरीय निर्गुण ब्रह्म से अभिन्न है।
अज्ञान (अविद्या) के कारण ही जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न समझता है। जब जीव अविद्या से रहित होकर "अहम् ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) की अवस्था को प्राप्त करता है, तो जीव का जीवत्व नष्ट हो जाता है।
शंकराचार्य यह भी बताते हैं कि सभी चीजें मन द्वारा निर्मित हैं।
अष्टावक्र गीता की कहानी में, सम्राट जनक को बताया गया कि न तो जाग्रत अवस्था सत्य है और न ही स्वप्न अवस्था, केवल 'आप ही सत्य हैं'। यह संदेश है कि हम उतनी ही सत्य हैं जितनी हमारी चेतना है – जो एक साथ एकल और सामूहिक है।
स्वामी सर्वप्रियानंद के अनुसार, 'अस्पर्श योग' का अर्थ है तुरीय का संसार से कोई संबंध नहीं है, भले ही संसार इसमें प्रकट होता हो।
संक्षेप में, तुरीय अवस्था का बोध व्यक्ति को उसकी अपनी वास्तविक, असीम, अविभाज्य चेतना के साथ जोड़ता है, जिससे सभी काल्पनिक द्वैत और दुःख समाप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि इसे सीधे मोक्ष के रूप में पहचाना जाता है, जो प्राप्त करने योग्य एक बाहरी वस्तु नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर की एक अंतर्निहित वास्तविकता है।
No comments:
Post a Comment