Friday, March 14, 2025

योगवासिष्ठ जीवनमुक्त और मोक्ष

 जीवनमुक्त

एक जीवनमुक्त आनंदपूर्वक घूमता है। उसके पास न तो आकर्षण हैं और न ही लगाव। उसे न तो कुछ प्राप्त करना है, न ही उसे कुछ त्यागना है। वह संसार के कल्याण के लिए कार्य करता है। वह इच्छाओं, अहंकार और लालच से मुक्त है। वह एकांत में है, भले ही वह शहर के सबसे व्यस्त हिस्से में काम करता हो।

जीवनमुक्त, का अर्थ है "जीवन में ही मुक्त"। यह एक ऐसी अवस्था को संदर्भित करता है जिसमें एक व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी सांसारिक बंधनों और दुखों से मुक्त हो जाता है। यह व्यक्ति आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, और उसे यह ज्ञान हो जाता है कि वह आत्मा (आत्मन) और ब्रह्म एक ही हैं।

जीवनमुक्त की विशेषताएं:

  • आत्मज्ञान: जीवनमुक्त को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है। वह जानता है कि वह शरीर, मन और अहंकार से परे है।

  • ब्रह्मज्ञान: जीवनमुक्त को ब्रह्म का ज्ञान होता है। वह जानता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और सब कुछ ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।

  • शांति और आनंद: जीवनमुक्त को आंतरिक शांति और आनंद का अनुभव होता है। वह सांसारिक सुख-दुखों से अप्रभावित रहता है।

  • समभाव: जीवनमुक्त सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है। वह किसी से राग-द्वेष नहीं करता।

  • निष्काम कर्म: जीवनमुक्त कर्म तो करता है, लेकिन वह कर्मों के फल की इच्छा नहीं रखता। वह केवल कर्तव्य समझकर कर्म करता है।

  • साक्षी भाव: वह संसार में रहते हुए भी साक्षी भाव रखता है। वह संसार को एक नाटक की तरह देखता है।

  • वासनाओं का क्षय: जीवनमुक्त की सभी वासनाएं क्षीण हो जाती हैं।

जीवनमुक्त कैसे बनते हैं:

  • श्रवण, मनन, निदिध्यासन: जीवनमुक्त बनने के लिए शास्त्रों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना आवश्यक है।

  • गुरु का मार्गदर्शन: एक योग्य गुरु का मार्गदर्शन जीवनमुक्त बनने के मार्ग में सहायक होता है।

  • ध्यान और योग: ध्यान और योग के नियमित अभ्यास से मन को शांत और एकाग्र किया जा सकता है, जिससे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।

  • वैराग्य: सांसारिक सुखों के प्रति वैराग्य जीवनमुक्त बनने के लिए आवश्यक है।

  • विवेक: सत्य और असत्य के बीच विवेक जीवनमुक्त बनने के लिए आवश्यक है।

जीवन्मुक्त का स्वरूप:

  • जीवन्मुक्त वह ज्ञानी पुरुष है जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है और जो इस जीवन में रहते हुए भी मुक्त है।
  • वह वासनाओं से मुक्त होता है, विशेष रूप से मलिन वासनाओं से, जो पुनर्जन्म का कारण बनती हैं।
  • उसकी शुद्ध वासना केवल शरीर को बनाए रखने के लिए होती है, जैसे भुने हुए बीज में अंकुरित होने की शक्ति नहीं होती।
  • वह परमात्मा के तत्त्व को जानता है और संसार के भ्रम से मुक्त होता है।
  • उसकी स्थिति आकाश में नीले रंग के भ्रम के समान होती है, जहाँ वह जानता है कि वास्तविकता में कोई रंग नहीं है।

जगत का मिथ्यात्व:

  • योगवासिष्ठ के अनुसार, यह दृश्य जगत वास्तव में अस्तित्व में नहीं है, यह केवल एक भ्रम है।
  • यह भ्रम अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है, जैसे आकाश में नीले रंग का भ्रम।
  • जब आत्मज्ञान होता है, तो यह भ्रम दूर हो जाता है, और व्यक्ति को यह बोध होता है कि जगत केवल चेतना का एक प्रक्षेप है।
  • जगत का मिथ्यात्व मन के मार्जन से अनुभव होता है, जिससे परम निर्वाण की शांति प्राप्त होती है।

द्विविध वासना:

  • मलिन वासना:
    • यह अज्ञान और अहंकार से उत्पन्न होती है।
    • यह पुनर्जन्म का कारण बनती है और जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसाती है।
  • शुद्ध वासना:
    • यह ज्ञान से उत्पन्न होती है और मोक्ष की ओर ले जाती है।
    • यह केवल शरीर को बनाए रखने के लिए होती है और पुनर्जन्म का कारण नहीं बनती।
    • यह भुने हुए बीज के समान होती है, जिसमें अंकुरित होने की शक्ति नहीं होती।

जीवनमुक्त का महत्व:

  • जीवनमुक्त दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत होता है।

  • जीवनमुक्त समाज में शांति और सद्भाव स्थापित करने में सहायक होता है।

  • जीवनमुक्त यह सिद्ध करता है कि जीवन में ही मुक्ति संभव है।

वेदांत में जीवनमुक्त:

वेदांत में, जीवनमुक्त को सर्वोच्च अवस्था माना जाता है। यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है, जो मानता है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। जीवनमुक्त इस एकता का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और मुक्ति प्राप्त करता है।

उदाहरण:

  • ऋषि वशिष्ठ

  • ऋषि विश्वामित्र

  • राजा जनक

  • आदि शंकराचार्य

  • रमण महर्षि

जीवनमुक्त एक आदर्श अवस्था है जो हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है।

"आप सभी योग वसिष्ठ के अमृत का पान करें! आप सभी आत्मज्ञान के मधु का आस्वादन करें! आप सभी इसी जन्म में जीवनमुक्त बनें! ऋषि वसिष्ठ, ऋषि वाल्मीकि और अन्य ब्रह्म-विद्या गुरुओं का आशीर्वाद आप सभी पर बना रहे! आप सभी ब्रह्म के आनंद के सार का भागी बनें!"

मोक्ष 

"मोक्ष” संकल्प ही संसार है; इसका विनाश मोक्ष है। यह केवल संकल्प है, जो पुनरुत्थान से परे नष्ट हो गया है, जो निर्मल ब्रह्म-पीठ या मोक्ष का गठन करता है। मोक्ष सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति (सर्व-दुःख निवृत्ति) और परम आनंद की प्राप्ति (परमानंद प्राप्ति) है। "दुःख" का अर्थ है पीड़ा या कष्ट। जन्म और मृत्यु सबसे बड़ा दर्द पैदा करते हैं। जन्म और मृत्यु से मुक्ति सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति है। ब्रह्म ज्ञान या आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष देगा।

मोक्ष। वस्तुओं के लिए इच्छाओं की अनुपस्थिति से मन में उत्पन्न शांति ही मोक्ष है।"

यह पाठ मोक्ष की अवधारणा को गहराई से समझाता है, जो भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं में मुक्ति की अंतिम अवस्था है।

मुख्य विचार:

  • संकल्प ही संसार:

    • हमारे मन में उठने वाले विचार या संकल्प ही संसार का कारण हैं। जब हम किसी चीज की इच्छा करते हैं, तो हम उससे बंध जाते हैं, और यही बंधन हमें जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसाता है।

    • इसलिए, संकल्पों का विनाश ही मोक्ष है।

  • ब्रह्म-पीठ:

    • जब सभी संकल्प पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं, तो हम ब्रह्म-पीठ या मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यह एक ऐसी अवस्था है जहां कोई इच्छा या बंधन नहीं रहता।

  • सर्व-दुःख निवृत्ति:

    • मोक्ष का मतलब है सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति। जन्म और मृत्यु सबसे बड़े दुख हैं, इसलिए इनसे मुक्ति पाना ही असली मोक्ष है।

  • परमानंद प्राप्ति:

    • मोक्ष में हमें परम आनंद की प्राप्ति होती है। यह एक ऐसी अवस्था है जहां कोई दुख या अशांति नहीं होती, केवल अनंत आनंद होता है।

  • ब्रह्म ज्ञान:

    • आत्मा का ज्ञान या ब्रह्म ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है। जब हम अपनी असली प्रकृति को जान लेते हैं, तो हम सभी बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।

  • इच्छाओं का अभाव:

    • वस्तुओं के प्रति इच्छाओं का ना होना, और मन में शांति का उत्पन्न होना ही मोक्ष है।

तात्पर्य:

मोक्ष कोई बाहरी स्थान या वस्तु नहीं है, बल्कि यह हमारे मन की एक अवस्था है। जब हम अपने मन को शुद्ध करते हैं और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं, तो हम मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।

"मोक्ष कोई प्राप्त करने वाली चीज नहीं है। यह पहले से ही मौजूद है। तुम वास्तव में बंधे हुए नहीं हो। तुम सदा शुद्ध और मुक्त हो। यदि तुम वास्तव में बंधे होते, तो तुम कभी मुक्त नहीं हो सकते थे। तुम्हें यह जानना होगा कि तुम अमर, सर्वव्यापी आत्मा हो। उसे जानना ही वह बनना है। यही मोक्ष है। यही जीवन का लक्ष्य है। यही अस्तित्व का परम कल्याण है। मन की अनाकर्षण की वह अवस्था, जब न तो "मैं" और न ही कोई अन्य स्व उसके लिए मौजूद होता है, और जब वह संसार के सुखों को त्याग देता है, उसे मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग के रूप में जाना जाना चाहिए।"

हिंदी में व्याख्या:

यह पाठ मोक्ष की अवधारणा को एक अलग दृष्टिकोण से समझाता है। यह बताता है कि मोक्ष कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे हमें प्राप्त करना है, बल्कि यह हमारी स्वाभाविक स्थिति है।

मुख्य विचार:

  • मोक्ष स्वाभाविक है:

    • पाठ कहता है कि मोक्ष पहले से ही हमारे भीतर मौजूद है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे हमें बाहर से प्राप्त करना है।

  • हम स्वाभाविक रूप से मुक्त हैं:

    • वास्तव में, हम कभी बंधे हुए नहीं थे। हम हमेशा से शुद्ध और मुक्त हैं। बंधन का अनुभव एक भ्रम है।

  • आत्म-ज्ञान:

    • मोक्ष का मार्ग आत्म-ज्ञान से होकर जाता है। हमें यह जानना होगा कि हम अमर और सर्वव्यापी आत्मा हैं।

  • जीवन का लक्ष्य:

    • मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य है। यह अस्तित्व का सबसे बड़ा कल्याण है।

  • मन का अनाकर्षण:

    • जब हमारा मन संसार के सुखों से विरक्त हो जाता है और "मैं" और "अन्य" का भेद मिट जाता है, तो हम मोक्ष के मार्ग पर होते हैं।

तात्पर्य:

मोक्ष कोई बाहरी वस्तु नहीं है, बल्कि यह हमारी आंतरिक स्थिति है। हमें अपने भीतर झांकना होगा और अपनी असली पहचान को जानना होगा। जब हम ऐसा कर लेते हैं, तो हम स्वाभाविक रूप से मुक्त हो जाते हैं।

"योग वशिष्ठ के अनुसार निरपेक्ष (परम सत्य) सच्चिदानंद परब्रह्म है, जो अद्वैत, अंशहीन, अनंत, स्व-प्रकाशित, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। वह सत्ता का सागर है जिसमें हम सभी रहते और चलते हैं। वह मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है। वह परम तत्व है। वह अनुभव के विषय और वस्तु के पीछे की एकता है। वह एक सजातीय सार है। वह सर्वव्यापी है। वह वर्णन से परे है। वह नामहीन, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालरहित, स्थावरहित, मृत्युहीन और जन्महीन है।"

हिंदी में व्याख्या:

यह पाठ योग वशिष्ठ के अनुसार परम सत्य या निरपेक्ष की व्याख्या करता है, जिसे सच्चिदानंद परब्रह्म कहा गया है।

मुख्य विचार:

  • सच्चिदानंद परब्रह्म:

    • परम सत्य को सच्चिदानंद परब्रह्म के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है सत्य, चेतना और आनंद का स्वरूप।

  • अद्वैत:

    • यह अद्वैत है, जिसका अर्थ है कि यह गैर-द्वैत है, अर्थात इसमें कोई दूसरा नहीं है।

  • अंशहीन, अनंत:

    • यह अंशहीन है, जिसका अर्थ है कि इसके कोई भाग नहीं हैं, और यह अनंत है, जिसका अर्थ है कि इसकी कोई सीमा नहीं है।

  • स्व-प्रकाशित, अपरिवर्तनीय, शाश्वत:

    • यह स्व-प्रकाशित है, जिसका अर्थ है कि यह स्वयं से प्रकाशित है, अपरिवर्तनीय है, जिसका अर्थ है कि यह कभी नहीं बदलता है, और शाश्वत है, जिसका अर्थ है कि यह हमेशा रहता है।

  • सत्ता का सागर:

    • यह सत्ता का सागर है, जिसमें हम सभी रहते और चलते हैं। इसका मतलब है कि यह सभी अस्तित्व का आधार है।

  • मन और इंद्रियों की पहुंच से परे:

    • यह मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है, जिसका अर्थ है कि इसे हमारी सामान्य समझ से नहीं समझा जा सकता है।

  • परम तत्व:

    • यह परम तत्व है, जिसका अर्थ है कि यह सभी चीजों का अंतिम आधार है।

  • विषय और वस्तु के पीछे की एकता:

    • यह अनुभव के विषय और वस्तु के पीछे की एकता है, जिसका अर्थ है कि यह सभी चीजों को एक साथ जोड़ता है।

  • एक सजातीय सार:

    • यह एक सजातीय सार है, जिसका अर्थ है कि यह एक ही पदार्थ से बना है।

  • सर्वव्यापी:

    • यह सर्वव्यापी है, जिसका अर्थ है कि यह हर जगह मौजूद है।

  • वर्णन से परे:

    • यह वर्णन से परे है, जिसका अर्थ है कि इसे शब्दों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।

  • नामहीन, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालरहित, स्थावरहित, मृत्युहीन, जन्महीन:

    • यह नामहीन, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालरहित, स्थावरहित, मृत्युहीन और जन्महीन है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई भौतिक गुण नहीं हैं।

योग वशिष्ठ के अनुसार, परम सत्य एक ऐसी वास्तविकता है जो हमारी सामान्य समझ से परे है। यह अनंत, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। यह सभी चीजों का आधार है और इसे शब्दों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।

यह पाठ हमें परम सत्य की प्रकृति के बारे में एक झलक देता है। यह हमें बताता है कि परम सत्य हमारी सामान्य समझ से परे है और इसे केवल अनुभव के माध्यम से ही जाना जा सकता है।

मोक्ष का मार्ग

"जिसका मन शांत है, जो मुक्ति के 'चार साधनों' से संपन्न है, जो दोषों और अशुद्धियों से मुक्त है, वह ध्यान के माध्यम से सहज रूप से आत्मा का अनुभव कर सकता है। शास्त्र और आध्यात्मिक गुरु हमें ब्रह्म नहीं दिखा सकते। वे केवल हमारी मार्गदर्शन कर सकते हैं और उपमाओं और दृष्टांतों के माध्यम से हमें संकेत दे सकते हैं।

शांति (मन की स्थिरता), संतोष (संतोष), सत्संग (संतों का संग) और विचार (आत्मिक जिज्ञासा) मोक्ष के द्वार की रक्षा करने वाले चार प्रहरी हैं। यदि आप उनसे मित्रता करते हैं, तो आप आसानी से मोक्ष के राज्य में प्रवेश कर जाएंगे। यदि आप उनमें से किसी एक के साथ भी संगति करते हैं, तो वह निश्चित रूप से आपको अपने अन्य तीन साथियों से मिलवाएगा।"

यह पाठ मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को सरल और स्पष्ट रूप से समझाता है।

मुख्य विचार:

  • शांत मन और चार साधन:

    • मोक्ष प्राप्ति के लिए शांत मन और मुक्ति के 'चार साधनों' का होना आवश्यक है। ये साधन व्यक्ति को दोषों और अशुद्धियों से मुक्त करते हैं।

  • ध्यान द्वारा आत्म-अनुभव:

    • शांत मन और शुद्ध अंतःकरण वाला व्यक्ति ध्यान के माध्यम से सहज रूप से आत्मा का अनुभव कर सकता है।

  • शास्त्र और गुरु केवल मार्गदर्शक:

    • शास्त्र और आध्यात्मिक गुरु हमें ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करा सकते, वे केवल हमें मार्गदर्शन दे सकते हैं और उपमाओं और दृष्टांतों के माध्यम से संकेत दे सकते हैं।

  • मोक्ष के चार प्रहरी:

    • शांति (मन की स्थिरता), संतोष (संतोष), सत्संग (संतों का संग) और विचार (आत्मिक जिज्ञासा) मोक्ष के द्वार की रक्षा करने वाले चार प्रहरी हैं।

  • मित्रता से मोक्ष प्राप्ति:

    • यदि व्यक्ति इन चार प्रहरियों से मित्रता करता है, तो वह आसानी से मोक्ष के राज्य में प्रवेश कर सकता है।

  • संगति का महत्व:

    • यदि व्यक्ति इनमें से किसी एक के साथ भी संगति करता है, तो वह निश्चित रूप से उसे अन्य तीन साथियों से मिलवाएगा।

  • मोक्ष पाने के लिए मन को शांत करना और चार अच्छी आदतों को अपनाना जरूरी है।

  • ध्यान से हम अपनी आत्मा को समझ सकते हैं।

  • धार्मिक किताबें और गुरु हमें रास्ता दिखाते हैं, लेकिन असली अनुभव हमें खुद करना होता है।

  • शांति, संतोष, अच्छे लोगों के साथ रहना और खुद से सवाल पूछना, ये चार चीजें मोक्ष के द्वार तक ले जाती हैं।

  • अगर हम इनमें से किसी एक को भी अपनाते हैं, तो बाकी चीजें अपने आप मिल जाती हैं।

यह पाठ हमें बताता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए बाहरी साधनों से ज्यादा आंतरिक शुद्धि और सद्गुणों का विकास महत्वपूर्ण है। यह हमें एक सरल और व्यावहारिक मार्ग दिखाता है, जिस पर चलकर हम मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

ब्रह्मज्ञान और मुक्ति

"छात्र को यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, सब कुछ ब्रह्म है, ब्रह्म सभी प्राणियों का स्वयं है। तब उसे प्रत्यक्ष संज्ञान या अंतर्ज्ञान (अपरोक्षानुभव) के माध्यम से इस सत्य का बोध होना चाहिए। ब्रह्म का यह प्रत्यक्ष ज्ञान ही मुक्ति का साधन है।

जागृत और स्वप्न अनुभवों में कोई अंतर नहीं है। जागृत अवस्था एक लंबा स्वप्न है। जब मनुष्य अपनी जागृत अवस्था में वापस आता है तो स्वप्न अनुभव असत्य हो जाते हैं। इसी प्रकार, आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने वाले ऋषि के लिए जागृत अवस्था असत्य हो जाती है। स्वप्न देखने वाले व्यक्ति के लिए, जागृत अवस्था असत्य हो जाती है।"

हिंदी में व्याख्या:

यह पाठ ब्रह्मज्ञान और मुक्ति के मार्ग को स्पष्ट करता है, साथ ही जागृत और स्वप्न अवस्थाओं के बीच समानता को भी दर्शाता है।

मुख्य विचार:

  • ब्रह्म ही एकमात्र सत्य:

    • एक विद्यार्थी को यह अटल विश्वास होना चाहिए कि केवल ब्रह्म ही परम सत्य है। सब कुछ ब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है और ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है।

  • ब्रह्म सभी प्राणियों का स्वयं:

    • ब्रह्म ही सभी प्राणियों का वास्तविक स्वरूप है। हम सब उसी ब्रह्म के अंश हैं।

  • अपरोक्षानुभव (प्रत्यक्ष ज्ञान):

    • इस सत्य का बोध प्रत्यक्ष अनुभव या अंतर्ज्ञान (अपरोक्षानुभव) के माध्यम से होना चाहिए। केवल शास्त्रों के अध्ययन से या तर्क-वितर्क से ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता।

  • ब्रह्मज्ञान ही मुक्ति का साधन:

    • ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान ही मुक्ति का एकमात्र साधन है। जब तक हमें ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, तब तक हम जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हैं।

  • जागृत और स्वप्न अनुभवों में समानता:

    • जागृत और स्वप्न अवस्थाओं में कोई वास्तविक अंतर नहीं है। जागृत अवस्था भी एक लंबे स्वप्न की तरह है।

  • स्वप्न अनुभव असत्य:

    • जैसे ही हम जागृत अवस्था में आते हैं, स्वप्न अनुभव असत्य हो जाते हैं।

  • आत्म-साक्षात्कारी ऋषि के लिए जागृत अवस्था असत्य:

    • उसी प्रकार, जिस ऋषि ने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर लिया है, उसके लिए जागृत अवस्था भी असत्य हो जाती है।

  • स्वप्न देखने वाले के लिए जागृत अवस्था असत्य:

    • एक स्वप्न देखने वाले व्यक्ति के लिए, जागृत अवस्था असत्य हो जाती है, क्योंकि उस समय उसके लिए स्वप्न की वास्तविकता ही सत्य होती है।

  • हमें यह दृढ़ता से मानना चाहिए कि सब कुछ ब्रह्म है और हम भी ब्रह्म का ही रूप हैं।

  • इस बात का अनुभव हमें अपने अंदर से करना चाहिए, सिर्फ पढ़कर या सुनकर नहीं।

  • ब्रह्म को जानना ही मुक्ति का रास्ता है।

  • जैसे सपने झूठे लगते हैं जब हम जागते हैं, वैसे ही यह दुनिया भी एक ज्ञानी व्यक्ति के लिए झूठी लगती है।

यह पाठ हमें आत्मज्ञान और मुक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। यह हमें बताता है कि हमें अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना चाहिए और ब्रह्म के साथ एकरूप होना चाहिए।


०० योगवासिष्ठ प्रस्तावना

 

योगवासिष्ठ भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों पर आधारित है। यह ग्रंथ ऋषि वसिष्ठ और भगवान राम के बीच संवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें जीवन, मृत्यु, चेतना, और ब्रह्मांड की प्रकृति जैसे विषयों पर गहन विचार किया गया है।

योगवासिष्ठ के मुख्य सिद्धांत:

  • अद्वैत वेदांत:
    • यह ग्रंथ अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है, जिसके अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जगत एक भ्रम है।
    • यह मानता है कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, और अज्ञान के कारण ही द्वैत का अनुभव होता है।
  • चेतना की प्रधानता:
    • योगवासिष्ठ में चेतना को सर्वोच्च महत्व दिया गया है।
    • यह मानता है कि जगत और सभी अनुभव चेतना की ही अभिव्यक्ति हैं।
    • यह ग्रंथ कहता है कि चेतना ही सब कुछ है, और भौतिक जगत केवल चेतना का प्रक्षेप है।
  • मन की शक्ति:
    • यह ग्रंथ मन की शक्ति पर जोर देता है, और मानता है कि मन ही वास्तविकता का निर्माण करता है।
    • मन की शुद्धि और नियंत्रण के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
  • कर्म और पुनर्जन्म:
    • योगवासिष्ठ कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांतों को भी स्वीकार करता है।
    • यह मानता है कि कर्मों के अनुसार ही आत्मा विभिन्न योनियों में जन्म लेती है।
    • यह ग्रंथ कहता है कि ज्ञान प्राप्त करके और वासनाओं से मुक्त होकर ही पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पाई जा सकती है।
  • मोक्ष:
    • योगवासिष्ठ का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है।
    • यह मानता है कि ज्ञान और वैराग्य के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
    • मोक्ष का अर्थ है आत्मा का ब्रह्म में विलय, और सभी दुखों से मुक्ति।

योगवासिष्ठ का महत्व:

  • यह ग्रंथ भारतीय दर्शन की एक महत्वपूर्ण कृति है, जो अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को गहराई से समझाता है।
  • यह जीवन के अर्थ और उद्देश्य के बारे में गहन विचार प्रदान करता है।
  • यह मन की शक्ति और चेतना की प्रकृति के बारे में ज्ञान प्रदान करता है।
  • यह ग्रंथ आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों के लिए एक मूल्यवान मार्गदर्शक है।

"यह एक अत्यंत प्रेरणादायक पुस्तक है। वेदान्त का प्रत्येक विद्यार्थी इस पुस्तक को निरंतर अध्ययन करते रहना चाहिए । यह ज्ञान योग के मार्ग पर चलने वाले विद्यार्थी के लिए एक निरंतर साथी है। यह एक प्रक्रिया ग्रन्थ नहीं है। यह वेदान्त की प्रक्रियाओं या श्रेणियों से संबंधित नहीं है। केवल उन्नत विद्यार्थी ही इस पुस्तक को अपने अध्ययन के लिए ले सकते हैं। शुरुआती विद्यार्थियों को योग वसिष्ठ के अध्ययन से पहले श्री शंकराचार्य के आत्म बोध, तत्त्व बोध और आत्मानात्मा विवेक और पंचीकरण का पहले अध्ययन करना चाहिए।"

योग वसिष्ठ के अनुसार, विभिन्न वस्तुओं, समय, स्थान और नियमों के साथ अनुभव की यह दुनिया मन की रचना है, यानी एक विचार या कल्पना है। जिस प्रकार स्वप्न में मन द्वारा वस्तुएँ बनाई जाती हैं, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी सब कुछ मन द्वारा बनाया जाता है। मन का विस्तार संकल्प है। संकल्प, अपनी विभेदन शक्ति के माध्यम से इस ब्रह्मांड को उत्पन्न करता है। समय और स्थान केवल मानसिक रचनाएँ हैं। वस्तुओं में मन के खेल के माध्यम से, निकटता एक बड़ी दूरी और इसके विपरीत प्रतीत होती है। मन की शक्ति के माध्यम से, एक कल्प को एक क्षण और इसके विपरीत माना जाता है। जागृत अनुभव का एक क्षण स्वप्न में वर्षों के रूप में अनुभव किया जा सकता है। मन एक छोटे से अंतराल के भीतर मीलों का अनुभव कर सकता है और मीलों का अनुभव केवल एक अवधि के रूप में भी किया जा सकता है। मन ब्रह्म से अलग और पृथक कुछ भी नहीं है। ब्रह्म स्वयं को मन के रूप में प्रकट करता है। मन रचनात्मक शक्ति से संपन्न है। मन बंधन और मुक्ति का कारण है।

मुख्य अवधारणाएँ:

  • दृष्टि-सृष्टिवाद : देखने से सृष्टि होना।

  • अजातवाद : उत्पत्ति का अभाव, सृष्टि का न होना।

दृष्टि-सृष्टिवाद, जिसे "धारणा के माध्यम से सृजन का सिद्धांत" भी कहा जाता है, अद्वैत वेदांत की एक शाखा है। यह सिद्धांत मानता है कि कथित अभूतपूर्व दुनिया केवल दुनिया के अवलोकन की प्रक्रिया में अस्तित्व में आती है जिसे व्यक्ति की अपनी मानसिक रचना की दुनिया के रूप में देखा जाता है; कोई 1 बाहरी दुनिया नहीं है। दृष्टिसृष्टिवाद के अनुसार, जो कुछ भी हम देखते हैं, वह हमारी अपनी चेतना की उपज है। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो हम वास्तव में उसे बना रहे होते हैं। जब हम देखना बंद कर देते हैं, तो वस्तु का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

यह मानता है कि हम न केवल ब्रह्म को देख रहे हैं, बल्कि हम इसे बना रहे हैं। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो हम अपनी चेतना का उपयोग करके उसे ब्रह्म से बाहर निकाल रहे होते हैं। जब हम देखना बंद कर देते हैं, तो वस्तु ब्रह्म में वापस विलीन हो जाती है।

दृष्टिसृष्टिवाद एक विवादास्पद सिद्धांत है, लेकिन यह अद्वैत वेदांत के कुछ सबसे महत्वपूर्ण विचारों को समझने का एक उपयोगी तरीका है। यह हमें यह देखने में मदद करता है कि हमारी चेतना कितनी शक्तिशाली है। यह हमें यह भी देखने में मदद करता है कि हम वास्तव में कितने जुड़े हुए हैं।

दृष्टिसृष्टिवाद के कुछ मुख्य बिंदु:

  • केवल एक ही वास्तविकता है, जिसे ब्रह्म कहा जाता है।

  • हम जो कुछ भी देखते हैं, वह ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।

  • जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो हम अपनी चेतना का उपयोग करके उसे ब्रह्म से बाहर निकाल रहे होते हैं।

  • जब हम देखना बंद कर देते हैं, तो वस्तु ब्रह्म में वापस विलीन हो जाती है।

दृष्टिसृष्टिवाद के कुछ लाभ:

  • यह हमें यह देखने में मदद करता है कि हमारी चेतना कितनी शक्तिशाली है।

  • यह हमें यह देखने में मदद करता है कि हम वास्तव में कितने जुड़े हुए हैं।

  • यह हमें अधिक जिम्मेदार बनने में मदद कर सकता है कि हम दुनिया को कैसे देखते हैं।

दृष्टिसृष्टिवाद के कुछ नुकसान:

  • यह एक विवादास्पद सिद्धांत है।

  • यह समझना मुश्किल हो सकता है।

  • यह कुछ लोगों के लिए निराशावादी हो सकता है।

अंततः, दृष्टिसृष्टिवाद को मानना या न मानना व्यक्तिगत पसंद है। हालांकि, यह एक दिलचस्प सिद्धांत है जो हमें अपनी चेतना और वास्तविकता के बारे में सोचने के लिए मजबूर करता है।

अजातवाद 

"अजातवाद" एक दार्शनिक सिद्धांत है जो वेदान्त, विशेष रूप से गौडपाद के "माण्डूक्य कारिका" से जुड़ा हुआ है। "अजात" का मतलब है "जो पैदा नहीं हुआ" और "वाद" का मतलब है "सिद्धांत"। इसलिए, "अजातवाद" का अर्थ है "उत्पत्ति का अभाव" या "जो कभी पैदा नहीं हुआ।"

मुख्य बातें:

  • ब्रह्म (परम सत्य): अजातवाद के अनुसार, ब्रह्म, जो परम सत्य है, वह अजन्मा, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। वही एकमात्र वास्तविक सत्य है।

  • संसार एक भ्रम (माया): हमें जो संसार दिखाई देता है, जिसमें बहुत सारी चीजें और परिवर्तन होते हैं, वह केवल एक भ्रम (माया) है। यह भ्रम ब्रह्म पर आरोपित होता है। इस भ्रम के कारण हमें ऐसा लगता है कि चीजें पैदा होती हैं, बदलती हैं और मर जाती हैं, लेकिन वास्तव में, कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है और कुछ भी समाप्त नहीं होता है।

  • अनुत्पत्ति: इसका मूल सिद्धांत यह है कि वास्तव में कोई उत्पत्ति या सृजन नहीं है। सभी दिखने वाले परिवर्तन केवल अपरिवर्तनीय ब्रह्म पर आरोपित होते हैं। जैसे कि मंद प्रकाश में एक रस्सी को साँप समझ लेना, वैसे ही अज्ञान (अविद्या) के कारण संसार को ब्रह्म पर आरोपित किया जाता है।

  • मोक्ष (मुक्ति): ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप और संसार के भ्रमपूर्ण स्वरूप का ज्ञान ही दुख और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाता है।

महत्व:

अजातवाद अद्वैत वेदान्त का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हमें वास्तविकता की प्रकृति और मुक्ति के मार्ग के बारे में एक अनूठा दृष्टिकोण प्रदान करता है।

योग वसिष्ठ के अनुसार, मोक्ष, आत्मज्ञान के माध्यम से ब्रह्म के आनंद के सार की प्राप्ति है। यह जन्मों और मृत्युओं से मुक्ति है। यह ब्रह्म का निर्मल और अविनाशी आसन है जिसमें न तो संकल्प हैं और न ही वासनाएँ। मन यहाँ अपनी स्थिरता प्राप्त करता है। मोक्ष के अनंत आनंद की तुलना में संपूर्ण विश्व के सभी सुख एक बूंद मात्र हैं।

जिसे मोक्ष कहा जाता है, वह न तो देवलोक में है, न पाताल में और न ही पृथ्वी पर। जब सभी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं, तो विस्तारित मन का विलोपन ही मोक्ष है। मोक्ष में न तो स्थान है और न ही समय; न ही इसमें कोई बाहरी या आंतरिक अवस्था है। यदि "मैं" या अहंकार का भ्रामक विचार नष्ट हो जाता है, तो विचारों का अंत (जो माया है) अनुभव होता है, और वही मोक्ष है। सभी वासनाओं का विलोपन मोक्ष का गठन करता है। संकल्प ही संसार है; इसका विनाश मोक्ष है। यह केवल संकल्प है, पुनरुत्थान से परे नष्ट हो गया, जो निर्मल ब्रह्म पद या मोक्ष का गठन करता है। मोक्ष सभी प्रकार के दुखों (सर्व-दुःख निवृत्ति) से मुक्ति और परम आनंद (परमानंद प्राप्ति) की प्राप्ति है। "दुःख" का अर्थ दर्द या पीड़ा है। जन्म और मृत्यु सबसे बड़ा दर्द पैदा करते हैं। जन्म और मृत्यु से मुक्ति सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति है। ब्रह्म ज्ञान या आत्मज्ञान ही मोक्ष देगा। वस्तुओं के लिए इच्छाओं की अनुपस्थिति से मन में उत्पन्न होने वाली स्थिरता ही मोक्ष है।"

"मोक्ष प्राप्त करने की कोई वस्तु नहीं है। यह पहले से ही वहाँ है। तुम वास्तव में बंधे हुए नहीं हो। तुम सदा शुद्ध और मुक्त हो। यदि तुम वास्तव में बंधे होते तो कभी मुक्त नहीं हो सकते थे। तुम्हें यह जानना होगा कि तुम अमर, सर्वव्यापी आत्मा हो। यह जानना ही वह बनना है। यही मोक्ष है। यही जीवन का लक्ष्य है। यही अस्तित्व का परम लक्ष्य है। मन की अनाकर्षण की वह अवस्था, जब न तो "मैं" और न ही कोई और स्वयं उसके लिए मौजूद होता है, और जब वह संसार के सुखों को त्याग देता है, मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग के रूप में जानी जानी चाहिए।"

"योग वसिष्ठ के अनुसार परम सत्य सच्चिदानंद परब्रह्म है, जो अद्वैत, अंशातीत, अनंत, स्वयंप्रकाशित, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। वह सत्ता का सागर है जिसमें हम सभी रहते और चलते हैं। वह मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है। वह परम तत्व है। वह अनुभव के विषय और वस्तु के पीछे एकता है। वह एक सजातीय सार है। वह सर्वव्यापी है। वह वर्णन से परे है। वह नामरहित, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालातीत, स्थानातीत, मृत्युहीन और जन्महीन है।"

"योग वसिष्ठ के अनुसार परम सत्य सच्चिदानंद परब्रह्म है, जो अद्वैत, अंशातीत, अनंत, स्वयंप्रकाशित, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। वह सत्ता का सागर है जिसमें हम सभी रहते और चलते हैं। वह मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है। वह परम तत्व है। वह अनुभव के विषय और वस्तु के पीछे एकता है। वह एक सजातीय सार है। वह सर्वव्यापी है। वह वर्णन से परे है। वह नामरहित, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालातीत, स्थानातीत, मृत्युहीन और जन्महीन है।"

"जिसका मन शांत है, जो मोक्ष के 'चार साधनों' से संपन्न है, जो दोषों और अशुद्धियों से मुक्त है, वह ध्यान के माध्यम से सहज रूप से आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। शास्त्र और आध्यात्मिक गुरु हमें ब्रह्म नहीं दिखा सकते। वे केवल दृष्टांतों और उदाहरणों के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं और हमें संकेत दे सकते हैं।"

मुख्य अवधारणाएँ:

चार साधन : 

  1. शम (मन की शांति), 

  2. दम (इंद्रियों का दमन), 

  3. उपरति (बाहरी विषयों से विरक्ति), और 

  4. तितिक्षा (सहनशीलता) को संदर्भित करता है।

मोक्ष के द्वार की रक्षा करने वाले चार प्रहरी हैं। 

  1. शांति (मन की स्थिरता), 

  2. संतोष (संतोष), 

  3. सत्संग (संतों का संग) और 

  4. विचार (आत्मिक जिज्ञासा) 

यदि आप उनसे मित्रता करते हैं, तो आप आसानी से मोक्ष के राज्य में प्रवेश कर जाएंगे। यदि आप उनमें से किसी एक का भी साथ रखते हैं, तो वह निश्चित रूप से आपको अपने अन्य तीन साथियों से परिचित कराएगा।"

विद्यार्थी को यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, कि सब कुछ ब्रह्म है, कि ब्रह्म ही सभी प्राणियों का वास्तविक स्वरूप है। फिर उसे प्रत्यक्ष अनुभूति या अंतर्ज्ञान (अपरोक्षानुभव) के माध्यम से इस सत्य का बोध करना चाहिए। ब्रह्म का यह प्रत्यक्ष ज्ञान ही मुक्ति का साधन है।

  • ब्रह्म ही एकमात्र सत्य:

    • यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि केवल ब्रह्म ही परम वास्तविकता है।

    • ब्रह्म अनंत, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है।

    • भौतिक संसार और सभी प्राणी ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं।

  • सब कुछ ब्रह्म है:

    • यह सिद्धांत बताता है कि दृश्यमान संसार और उसमें मौजूद सभी वस्तुएँ ब्रह्म से अलग नहीं हैं।

    • यह एकता और अभिन्नता की भावना को स्थापित करता है।

  • ब्रह्म ही सभी प्राणियों का वास्तविक स्वरूप है:

    • प्रत्येक प्राणी की आत्मा (आत्मन) ब्रह्म का ही अंश है।

    • वास्तविक स्वरूप को जानने का अर्थ है अपनी आत्मा और ब्रह्म के बीच के संबंध को समझना।

  • प्रत्यक्ष अनुभूति या अंतर्ज्ञान (अपरोक्षानुभव) के माध्यम से सत्य का बोध:

    • केवल बौद्धिक ज्ञान पर्याप्त नहीं है। इस सत्य को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करना आवश्यक है।

    • यह अनुभव ध्यान, योग, और आत्म-चिंतन के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

    • अपरोक्षानुभव यानी बिना किसी माध्यम के सीधे अनुभव।

संक्षेप में: यह कथन बताता है कि वास्तविक मुक्ति तब प्राप्त होती है जब कोई व्यक्ति यह समझता है कि वह ब्रह्म से अलग नहीं है और इस सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। यह ज्ञान, जो अंतर्ज्ञान और प्रत्यक्ष अनुभव के माध्यम से प्राप्त होता है, अज्ञानता के बंधन को तोड़ता है और मुक्ति की ओर ले जाता है।

अपरोक्षानुभव, जिसे प्रत्यक्षानुभूति या साक्षात् अनुभव भी कहा जाता है, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है "प्रत्यक्ष अनुभव" या "सीधा ज्ञान"। यह एक ऐसी अवस्था को संदर्भित करता है जिसमें कोई व्यक्ति किसी सत्य या वास्तविकता को बिना किसी मध्यस्थता के, सीधे अनुभव करता है। यह बौद्धिक ज्ञान या सैद्धांतिक समझ से अलग है, जो अप्रत्यक्ष या परोक्ष होता है।

अपरोक्षानुभव की विशेषताएं:

  • प्रत्यक्षता: यह अनुभव सीधे और तात्कालिक होता है। इसमें कोई मध्यस्थता या व्याख्या शामिल नहीं होती है।

  • निर्विकल्प: यह अनुभव विचारों, शब्दों या अवधारणाओं से परे होता है। यह एक शुद्ध और निर्विकल्प चेतना की अवस्था है।

  • अखंडता: यह अनुभव विषय और वस्तु के बीच के भेद को मिटा देता है। अनुभवकर्ता और अनुभव की वस्तु एक हो जाते हैं।

  • परिवर्तनकारी: यह अनुभव व्यक्ति के जीवन को गहराई से बदल सकता है। यह अज्ञानता को दूर करता है और ज्ञानोदय की ओर ले जाता है।

  • अकथनीयता: यह अनुभव शब्दों में व्यक्त करना कठिन होता है। यह एक आंतरिक और व्यक्तिगत अनुभव है।

अपरोक्षानुभव का महत्व:

  • यह आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति का मार्ग है।

  • यह अज्ञानता और भ्रम को दूर करता है।

  • यह आंतरिक शांति और आनंद की प्राप्ति में सहायक होता है।

  • यह वास्तविकता की गहरी समझ प्रदान करता है।

अपरोक्षानुभव कैसे प्राप्त करें:

  • ध्यान : नियमित ध्यान अभ्यास मन को शांत और एकाग्र करने में मदद करता है, जिससे अपरोक्षानुभव की संभावना बढ़ती है।

  • योग : योग शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, जो अपरोक्षानुभव के लिए आवश्यक है।

  • आत्म-चिंतन : आत्म-चिंतन के माध्यम से, व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करता है, जो अपरोक्षानुभव की ओर ले जाता है।

  • गुरु का मार्गदर्शन : एक योग्य गुरु अपरोक्षानुभव के मार्ग में मार्गदर्शन कर सकता है।

  • श्रद्धा और समर्पण : अपरोक्षानुभव के लिए श्रद्धा और समर्पण आवश्यक हैं।

वेदांत में अपरोक्षानुभव:

वेदांत में, अपरोक्षानुभव को ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान की प्राप्ति के रूप में देखा जाता है। यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है, जो मानता है कि आत्मा (आत्मन) और ब्रह्म एक ही हैं। अपरोक्षानुभव के माध्यम से, व्यक्ति इस एकता का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और मुक्ति प्राप्त करता है।

उदाहरण:

जैसे हम किसी फल को देखकर और खाकर उसके स्वाद का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, उसी प्रकार अपरोक्षानुभव में हम ब्रह्म या आत्मन का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।

अपरोक्षानुभव एक गहन और परिवर्तनकारी अनुभव है जो व्यक्ति को वास्तविकता की गहरी समझ प्रदान करता है।

  • ब्रह्म का यह प्रत्यक्ष ज्ञान ही मुक्ति का साधन है:

    • जब कोई व्यक्ति ब्रह्म के साथ अपनी एकता का प्रत्यक्ष अनुभव करता है, तो वह अज्ञान, दुख और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है।

    • यह मुक्ति ही मोक्ष है।

"जागने और सपने के अनुभवों में कोई अंतर नहीं है। जागने की अवस्था एक लंबा सपना है। जैसे ही मनुष्य अपनी जागने की अवस्था में वापस आता है, सपने के अनुभव असत्य हो जाते हैं। इसी प्रकार, आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने वाले ऋषि के लिए जागने की अवस्था असत्य हो जाती है। सपने देखने वाले व्यक्ति के लिए जागने की अवस्था असत्य हो जाती है।"





Wednesday, March 5, 2025

From Vijayanagar to Jabalpur: The Deb Family Saga

During my visit to Kolkata for the 2013 Durga Puja, I became curious about the festival's origins in India. To my surprise, I discovered that the first organized Durga Puja in Kolkata was held in 1757. This inaugural celebration was hosted by Raja Nabokrishno Deb at Shobhabazar Rajbari to commemorate the victory over Siraj-ud-Daulah, the last Nawab of Bengal, with the assistance of the British army led by Lord Clive.

Durga Puja 2013 at Rajbari

Interestingly, my ancestor, Balaram Deb, and Raja Nabokrishno Deb shared a common father, Sri Ramchandra Deb. While visiting the Shobhabazar Rajbari, we encountered an elderly gentleman (seen left) who recounted the historical context of the Puja. He explained that we were Kshatriyas of the Bharadwaj gotra, one of the seven gotras sent eastward from the Vijayanagar Empire around 800 years ago to prevent the conversion of Hindus to Islam.



Rajbari Shobha Bazaar Kolkata

Our ancestors established themselves in West Bengal and became Zamindars of Sutanauti village. In the mid-17th century, the Portuguese established a trading outpost in Sutanuti, followed by the Dutch, who constructed a canal near the present Central Business District. The old Fort William was built in 1696 to protect the English settlement.

Gun carriage Factory Jabalpur
The city gained notoriety in 1756 when Siraj-ud-Daulah captured the fort and, according to British accounts, suffocated 43 British residents in the Black Hole of Calcutta. Robert Clive recaptured the city for the British in 1757. To celebrate this victory, the first community Durga Puja was organized in 1757, with Lord Clive in attendance.

Following this, Balaram Deb relocated from Kolkata to Fatehgarh and was granted land holdings. However, during the 1857 Hindu-Muslim riots, the family moved to Allahabad and later to Jabalpur in 1904 when the British established the Gun Carriage Factory there.





Tuesday, October 29, 2024

Meditation on 29th October 2024

This morning's meditation was extraordinary. The entire universe vanished. I ceased to exist; there was neither light nor darkness. Absent were both happiness and sorrow. No past or future, no birth or death, no time or space. All was an empty void. External sounds were audible, yet I was not present. The sensation persisted even when I continued meditation in first and ground floor. It was the second instance of such an experience. 

Evening meditation was as usual but deep and long. 

Monday, April 22, 2024

Retrograde Mercury


 This April, during Mercury retrograde, I've encountered a series of unexpected glitches: 

  1. An unfortunate jackfruit fall snapped my optical cable, and it's still causing issues even after attempted repairs. 
  2. My main electrical line tripped due to a squirrel's cotton stash near the transformer fuse. 
  3. To top it off, the display on my AC's main panel has malfunctioned. 
With Mercury retrograde lasting until April 25th 2024, I can't help but wonder what other surprises might be in store.

Saturday, April 6, 2024

Accept

I received a message from Boora informing me that his father had passed away on March 17, 2024. Tripti promptly sent a condolence message. I remarked that Boora is quite mature, unlike Rekha, who tends to be emotional.
A few days later, I called Boora. He shared that his father had passed away on the evening of the 17th when he got up with short breathing problems. Thankfully, it was a painless death. However, Boora was emotionally shaken and even broke a photo of Swami in his distress. That same night, Swami appeared in Boora’s dream. Boora confronted Swami, asking why he had come. Swami’s response surprised him: ‘I only want you to accept.’ Astonishingly, the next day, Boora’s depression lifted, akin to the effect of Ignatia.

Friday, December 8, 2023

Bhoo Devi is Tired

Dr. Boora called regarding his clinic software. He has been getting repeated dream of Bhoo Devi, SHE showing how her shoulder is tiered and changing from left to right. There may be massive Earthquack over the Northwest India aftecting Gujarat and Maharastra.