Saturday, July 5, 2025

रामानुजाचार्य - जीवन, दर्शन और शिक्षाएँ

जन्म और प्रारंभिक जीवन: रामानुजाचार्य का जन्म 1017 ईस्वी में तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर गाँव में एक भट्ट ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम कांतिमाती था। बचपन से ही वे असाधारण बुद्धिमत्ता के धनी थे और 15 वर्ष की आयु तक सभी शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था। उन्होंने कांची में अपने गुरु यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा प्राप्त की। कम उम्र में ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। उन्होंने 17 वर्ष की आयु में विवाह किया और 23 वर्ष की आयु में गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम के यतिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली।

यामुनाचार्य से संबंध और संकल्प: रामानुजाचार्य आलवार संत यामुनाचार्य के प्रमुख शिष्य थे, हालांकि वे उनसे व्यक्तिगत रूप से कभी मिल नहीं पाए। यामुनाचार्य की मृत्यु से पहले, उन्होंने अपने शिष्य के माध्यम से रामानुजाचार्य को बुलाया, लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही यामुनाचार्य का निधन हो गया। रामानुजाचार्य ने देखा कि यामुनाचार्य की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई थीं, जिससे वे समझ गए कि यामुनाचार्य चाहते थे कि वे ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधम् पर टीका लिखें। रामानुजाचार्य ने यामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम किया और उनकी इस अंतिम इच्छा को पूरा करने का संकल्प लिया।

विशिष्टाद्वैत दर्शन: रामानुजाचार्य के दर्शन का मूल 'विशिष्टाद्वैत' है, जो शंकराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्न है। इसमें सत्ता या परमसत् के तीन स्तर माने गए हैं:

  • ब्रह्म (ईश्वर): परम सत्ता।

  • चित् (आत्मा): व्यक्तिगत आत्माएँ।

  • अचित् (प्रकृति): भौतिक जगत।

रामानुजाचार्य के अनुसार, चित् (आत्मा) और अचित् (प्रकृति) ब्रह्म से अलग नहीं हैं, बल्कि वे विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं और ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं। वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं और ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं। यह संबंध "शरीर-शरीरी भाव" के रूप में वर्णित है, जहाँ शरीर आत्मा की पूर्ति के लिए कार्य करता है। इसका अर्थ है कि हालांकि जगत और जीवात्मा दोनों ब्रह्म से भिन्न हैं, वे ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं और सूर्य की किरणों की तरह ब्रह्म से संबंधित हैं। इसलिए, ब्रह्म एक होते हुए भी अनेक है।

मायावाद का खंडन: रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के 'मायावाद' को कड़ी चुनौती दी, जिसके अनुसार जगत माया है और मिथ्या है। रामानुज के अनुसार, जगत का निर्माण भी ब्रह्म ने ही किया है, अतः यह मिथ्या नहीं हो सकता। उनके अनुसार, 'माया' का अर्थ ईश्वर की अद्भुत रचना-शक्ति से है, जबकि 'अविद्या' का अर्थ जीव की अज्ञानता से है। रामानुज ने शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करने के लिए सात तर्क दिए हैं, जिन्हें 'सप्तानुपपत्ति' कहा जाता है।

ज्ञान और प्रमाण: रामानुजाचार्य 'ज्ञान' को द्रव्य मानते हैं और इसकी प्राप्ति के तीन साधन बताते हैं:

  • प्रत्यक्ष: प्रत्यक्ष अनुभव या इंद्रिय-ज्ञान।

  • अनुमान: तर्क या अनुमान।

  • शब्द: श्रुति (वेद) और स्मृति (स्मृतियां, इतिहास, पुराण आदि) जैसे शास्त्र।

रामानुज के अनुसार, सभी विज्ञान (ज्ञान) यथार्थ हैं।

आत्मा (जीव) का स्वरूप: रामानुजाचार्य के दर्शन में आत्मा (जीव) के स्वरूप पर महत्वपूर्ण विचार हैं:

  • ज्ञाता: आत्मा केवल जानने वाली है ("अज्ञाता, एक जानने वाला मात्र"), अर्थात ज्ञान आत्मा का एक विशिष्ट गुण है, जो निरंतर उसमें रहता है।

  • अणु (अणु-परिमाण): आत्मा परमाणु आकार की है, सूक्ष्म और अदृश्य, हृदय में निवास करती है। शंकराचार्य के विपरीत, रामानुजाचार्य यह नहीं मानते कि आत्मा सर्वव्यापी है।

  • नित्य और अविकारी: आत्मा शाश्वत और अपरिवर्तनीय है, जन्म-मृत्यु के चक्र से परे।

  • आनंद स्वरूप: आत्मा का सार आनंदमय है, जो कर्म के फलस्वरूप प्राप्त होता है।

  • अचिन्त्य और अव्यक्त: आत्मा अदृश्य या अगोचर है, इसे इंद्रियों द्वारा नहीं समझा जा सकता।

कर्मयोग और ज्ञानयोग: रामानुजाचार्य के अनुसार, कर्मयोग (निहित स्वार्थ के बिना कार्य करना) और ज्ञानयोग (आत्म-ज्ञान का मार्ग) दोनों मोक्ष के साधन हैं, लेकिन वे अंततः भक्ति की ओर ले जाते हैं। ज्ञानकर्मयोग से प्राप्त ज्ञान को अंततः आत्मन के स्वरूप की अनुभूति और ईश्वर के प्रति भक्ति में परिणत होना चाहिए। कर्मयोग को आत्मन के ज्ञान के साथ ही करना चाहिए, और ज्ञानयोग में निरंतर एकाग्रता आवश्यक है।

भक्ति मार्ग: रामानुजाचार्य ने भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम और सबसे सुलभ साधन बताया। उनके अनुसार, भक्ति का अर्थ केवल पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं है, बल्कि ईश्वर का गहन ध्यान और प्रार्थना करना है। भक्ति को उन्होंने जाति, वर्ग और लिंग के बंधनों से मुक्त किया, यह घोषणा करते हुए कि भक्ति किसी विशेष वर्ग की बपौती नहीं, बल्कि हर व्यक्ति का अधिकार है। उन्होंने प्रेम और विश्वास के साथ परमेश्वर के प्रति 'प्रपत्ति' (पूर्ण आत्मसमर्पण) पर बल दिया।

प्रमुख ग्रंथ और योगदान: रामानुजाचार्य ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जिनमें प्रमुख हैं:

  • श्रीभाष्यम्: ब्रह्मसूत्र पर उनका प्रमुख भाष्य।

  • वेदार्थ संग्रहम्: उनके दर्शन का एक व्यवस्थित व्याख्या।

  • गीता भाष्य: भगवद गीता पर टीका।

  • वेदांत दीपम्

  • वेदांत सारम्

  • शरणागतिगद्यम्

  • श्रीरंगगद्यम्

  • श्रीवैकुण्ठगद्यम्

  • नित्यग्रन्थम्

उनके सामाजिक योगदान में मंदिरों के द्वार सभी जातियों के लिए खोलना और वैदिक धर्म को लोकधर्म का रूप देना शामिल है। उन्होंने दक्षिण भारत के आलवार संतों और पंचरात्र परंपरा को अपनाकर भक्तिमार्ग को वैदिक परंपरा से जोड़ा।

मृत्यु और ममी का रखरखाव: रामानुजाचार्य का निधन 1137 ईस्वी में 120 वर्ष की आयु में तमिलनाडु के श्रीरंगम में हुआ। श्रीरंगम के रंगनाथ स्वामी मंदिर में आज भी उनका पार्थिव शरीर उपदेश मुद्रा में रखा हुआ है। इस शरीर को संरक्षित रखने के लिए दो साल में एक बार चंदन और केसर का लेप लगाया जाता है।

अंतिम शिक्षाएं और उपदेश: रामानुजाचार्य ने अपने अनुयायियों के लिए कई उपदेश दिए, जिनमें कुछ प्रमुख हैं:

  • गुरु और महान भक्तों की महिमा का स्मरण और उनकी सेवा करना।

  • गुरु-परंपरा का पालन करना।

  • भगवान (भगवद्-विषय) के अवतारों, लीलाओं और मोक्षदायक गतिविधियों का हमेशा अध्ययन करना।

  • सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति से बचना और अनावश्यक किताबें पढ़ने में समय बर्बाद न करना।

  • भगवान या भक्तों की निंदा करने वालों से दूर रहना।

  • भक्तों के साथ विनम्रता और सम्मान का व्यवहार करना, उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ मानना।

  • अपने पूर्व कर्मों के कारण होने वाले दुखों पर विलाप न करना, बल्कि इसे भगवान की इच्छा मानकर स्वीकार करना।

  • सभी कार्य केवल भगवान की सेवा के रूप में करना।

  • यदि संभव हो, तो श्रीभाष्य का अध्ययन और प्रचार करना, अन्यथा आलवारों की शिक्षाओं का प्रचार करना।

  • यदि यह भी संभव न हो, तो मंदिरों की सफाई और रखरखाव करना, या केवल भक्ति में रहकर 'द्वय मंत्र' का जाप करना।

  • ज्ञान, भक्ति और वैराग्य से संपन्न आध्यात्मिक गुरु की सेवा करना।

रामानुजाचार्य का जीवन और शिक्षाएं समानता, सेवा और प्रेममय भक्ति का प्रतीक हैं, जो आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करती हैं।


1. श्री रामानुजाचार्य कौन थे और उनका जन्म कब और कहाँ हुआ था?

श्री रामानुजाचार्य (जन्म: 1017 ईस्वी, मृत्यु: 1137 ईस्वी) एक महान भारतीय दार्शनिक, संत और समाज सुधारक थे, जो विशिष्टाद्वैत वेदांत दर्शन के प्रमुख प्रतिपादक के रूप में विख्यात हैं। उनका जन्म तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर गाँव में एक भट्ट ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम कांतिमाती था। उन्हें 'इलाया पेरुमल' (प्रकाशमान) नाम से भी जाना जाता था। बचपन से ही वे असाधारण बुद्धि के धनी थे और उन्होंने कांची में अपने गुरु यादवप्रकाश से वेदों की शिक्षा प्राप्त की।

2. विशिष्टाद्वैत दर्शन क्या है और यह अद्वैतवाद से कैसे भिन्न है?

विशिष्टाद्वैत रामानुजाचार्य का मुख्य दर्शन है, जिसके अनुसार ब्रह्म (ईश्वर), चित् (आत्मा या जीव) और अचित् (प्रकृति या पदार्थ) नामक तीन तत्व शाश्वत और वास्तविक हैं। यह शंकराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्न है, जो ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानता है और जगत को माया या भ्रम बताता है। रामानुज के अनुसार, चित् और अचित् ब्रह्म से अलग नहीं हैं, बल्कि वे ब्रह्म के ही विशेषण या शरीर हैं, और ब्रह्म उनकी आत्मा सदृश्य है। वे ब्रह्म पर आधारित और उसके अधीन हैं। जैसे शरीर आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य करता है, उसी प्रकार आत्मा और प्रकृति का ब्रह्म से पृथक कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। जगत को माया या असत्य कहने के स्थान पर, रामानुज इसे ब्रह्म की वास्तविक रचना मानते हैं, जो उसकी 'अद्भुत रचना शक्ति' का परिणाम है।

3. रामानुजाचार्य के अनुसार भक्ति का क्या अर्थ है और मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

रामानुजाचार्य के लिए भक्ति का अर्थ केवल कर्मकांड, कीर्तन-भजन या बाहरी पूजा नहीं था, बल्कि यह ईश्वर की गहन साधना, प्रार्थना और ध्यान पर केंद्रित था। उनके अनुसार, भक्ति प्रेम और विश्वास के साथ परमेश्वर (भगवान विष्णु या नारायण) के प्रति 'प्रपत्ति' (पूर्ण आत्मसमर्पण) का मार्ग है। उनका मानना था कि मोक्ष का अर्थ आत्मा का परमात्मा (ब्रह्म) में पूर्ण विलय नहीं है, बल्कि भक्ति के माध्यम से ब्रह्म को प्राप्त करके जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्ति पाना और ईश्वर के सामीप्य में निरंतर उनकी सेवा में लीन रहना है। उन्होंने भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम और सभी के लिए सुलभ साधन बताया।

4. रामानुजाचार्य के प्रमुख साहित्यिक योगदान क्या हैं?

रामानुजाचार्य ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जिनमें उनके दर्शन की तर्कसंगत और सुव्यवस्थित व्याख्या मिलती है। उनके दो सबसे प्रसिद्ध और मूल ग्रंथ ब्रह्मसूत्र पर आधारित भाष्य हैं:

  • श्रीभाष्यम्: यह ब्रह्मसूत्र पर उनका विस्तृत भाष्य है, जो उनके विशिष्टाद्वैत दर्शन का आधार स्तंभ है।

  • वेदार्थ संग्रहम्: यह भी वेदांत दर्शन पर आधारित एक महत्वपूर्ण कार्य है।

इसके अतिरिक्त, उनकी अन्य प्रमुख रचनाओं में शामिल हैं:

  • गीता भाष्य: भगवद्गीता पर भाष्य।

  • वेदांत दीप

  • वेदांत सार

  • नित्य ग्रंथम

  • गद्य त्रयम: जिसमें शरणागति गद्य, श्री रंगम गद्य और श्री वैकुंठ गद्य शामिल हैं। ये सभी रचनाएँ संस्कृत भाषा में हैं और भारतीय दर्शन को उनकी महत्वपूर्ण देन हैं।

5. रामानुजाचार्य ने सामाजिक समरसता और समानता के लिए क्या कार्य किए?

रामानुजाचार्य अपने समय के एक प्रगतिशील समाज सुधारक थे। उन्होंने हिन्दू समाज में प्रचलित जातिगत भेदभाव और पिछड़े वर्गों की उपेक्षा को गंभीरता से महसूस किया। उन्होंने ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक सभी जाति-वर्गों के लिए सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना के द्वार खोल दिए, भले ही उन्हें इसके लिए भारी विरोध का सामना करना पड़ा। उनका मानना था कि व्यक्ति का कल्याण जाति से नहीं, बल्कि गुणों से होता है ("न जाति: कारणं लोके गुणा: कल्याणहेतव:")। उन्होंने शूद्र गुरुओं का शिष्यत्व स्वीकार किया और चांडाल के हाथ से भोजन करने में भी संकोच नहीं किया। उन्होंने मेलुकोट (दक्षिण बद्रिकाश्रम) स्थित तिरूनारायण पेरूमाल वैष्णव मंदिर के द्वार 'पंचमों' (शूद्रों से भी दूर कहे जाने वाले लोगों) के लिए खोल दिए। उन्होंने यह भी सिखाया कि क्षुद्र और निराश्रित मनुष्य भी अपनी भक्ति, समर्पण और ज्ञान के सहारे ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं।

6. रामानुजाचार्य के प्रमुख शिष्य कौन थे और उनकी विचारधारा का क्या प्रभाव पड़ा?

रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा ने भारत की धार्मिक चेतना को एक नया आयाम दिया। उनके प्रमुख शिष्यों में अलवार संत यमुनाचार्य (जो उनके गुरु थे, जिनसे वे व्यक्तिगत रूप से नहीं मिल पाए लेकिन उनकी शिक्षाओं से प्रभावित हुए), कुरंत्तालवार, महापूर्ण और परशारा भट्टर जैसे नाम उल्लेखनीय हैं। उनके बाद के शिष्यों में रामानंद का नाम विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिनके प्रभाव से संत कबीर, संत रैदास और सूरदास जैसे संतों ने भक्ति आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाया। इस प्रकार, रामानुज की विचारधारा ने न केवल वैष्णव परंपरा को पुष्ट किया, बल्कि भक्ति आंदोलन के माध्यम से सामाजिक क्रांति की नींव रखी, जिसने जाति, वर्ग और लिंग के बंधनों से मुक्त होकर भक्ति को सभी का अधिकार बताया।

7. रामानुजाचार्य के शरीर को आज भी कहाँ संरक्षित रखा गया है और कैसे?

रामानुजाचार्य का पार्थिव शरीर तमिलनाडु के श्रीरंगम में स्थित श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर के अंदर आज भी संरक्षित रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि वे वृद्धावस्था में इस मंदिर में आए थे और 120 वर्ष की आयु तक वहीं रहे, लोगों को उपदेश देते रहे। उनके शरीर को 'उपदेश मुद्रा' में रखा गया है और मंदिर में विधि-विधान से उनकी पूजा भी की जाती है। उनके शरीर को सुरक्षित रखने के लिए चंदन और केसर का लेप लगाया जाता है, जिसे हर दो साल में एक बार किया जाता है। यह मंदिर गोदावरी और कावेरी नदियों के बीच स्थित है और इसका ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि भगवान श्री राम ने रावण का वध करने के बाद यहाँ पूजन किया था।

8. रामानुजाचार्य के अंतिम उपदेश क्या थे और वे आज के समय में क्यों प्रासंगिक हैं?

रामानुजाचार्य ने अपने जीवन के अंत में अपने शिष्यों को 10 महत्वपूर्ण अंतिम आज्ञाएँ दीं, जो उनके संपूर्ण दर्शन और जीवनशैली का सार प्रस्तुत करती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख बातें हैं:

  • दैवीय इच्छा पर पूर्ण विश्वास: भगवान के प्रति समर्पित लोगों को यह मानना चाहिए कि उनके साथ जो कुछ भी होता है वह भगवान द्वारा नियत है, और इसलिए, उन्हें कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए।

  • कर्मों का महत्व: जीवन में होने वाली घटनाएँ पिछले कर्मों का परिणाम हैं, इसलिए विलाप का कोई कारण नहीं है।

  • निष्काम कर्म: सभी कार्य केवल भगवान की सेवा के रूप में किए जाने चाहिए, उन्हें साध्य का साधन नहीं बनाना चाहिए।

  • गुरु और भक्तों की सेवा: महान भक्तों की ईमानदारी से सेवा करें और उनके मार्गदर्शन में शास्त्रों का अध्ययन करें। भक्तों की पूजा भगवान की पूजा से भी श्रेष्ठ है।

  • सांसारिक सुखों से विरक्ति: कामुक सुखों के निरंतर आनंद और सांसारिक वस्तुओं में रुचि से बचना चाहिए।

  • आध्यात्मिक संगति: उन लोगों की संगति से बचें जो मन/शरीर से स्वयं को पहचानते हैं या भौतिकवादी हैं; इसके बजाय, आध्यात्मिक रूप से फायदेमंद संगति को बढ़ावा दें।

  • विनम्रता और आदर: वैष्णवों के साथ हमेशा विनम्र और आदरपूर्वक रहें, आत्म-प्रशंसा से बचें।

ये उपदेश आज भी अत्यंत प्रासंगिक हैं क्योंकि वे समता, समावेश, भक्ति और समाज सेवा पर जोर देते हैं। वे हमें सिखाते हैं कि सच्ची आस्था वह है जो सभी को साथ लेकर चलती है, सबमें ईश्वर को देखती है, और आंतरिक शांति तथा बाहरी सद्भाव के लिए व्यक्तिगत आचरण और आध्यात्मिक विकास पर ध्यान केंद्रित करती है। रामानुजाचार्य का जीवन और दर्शन एक समतामूलक, धर्मनिरपेक्ष और आध्यात्मिक समाज के निर्माण के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाशस्तंभ बने हुए हैं।

रामानुजाचार्य के दर्शन और जीवन पर विस्तृत अध्ययन गाइड

परिचय

यह अध्ययन गाइड श्री रामानुजाचार्य के जीवन, दर्शन और शिक्षाओं की आपकी समझ की समीक्षा करने के लिए डिज़ाइन किया गया है, जैसा कि प्रदान की गई स्रोत सामग्री में प्रस्तुत किया गया है। रामानुजाचार्य भारतीय दर्शन में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, विशेष रूप से विशिष्टाद्वैत वेदांत के अपने सिद्धांत के लिए जाने जाते हैं।

I. रामानुजाचार्य का जीवन और ऐतिहासिक संदर्भ

  • जन्म और प्रारंभिक जीवन:उनका जन्म वर्ष 1017 ईस्वी में तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

  • उनके पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम कांतिमाती था।

  • उन्होंने कांची में गुरु यादवप्रकाश से वेदों की शिक्षा प्राप्त की।

  • बचपन से ही असाधारण बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया।

  • आध्यात्मिक यात्रा और गुरु:आलवार संत यमुनाचार्य के कार्यों और विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए, हालांकि वे उनसे व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं मिले।

  • गुरु यमुनाचार्य की इच्छाओं के अनुसार ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्यप्रबन्धम् पर टीकाएं लिखने का संकल्प लिया।

  • गृहस्थ जीवन त्याग कर श्रीरंगम के संन्यासी यतिराज से दीक्षा ली।

  • पेरिया नंबि से भी दीक्षा ली और भगवान नारायण (विष्णु) की भक्ति का प्रचार करना शुरू किया।

  • यात्रा और प्रचार:मैसूर क्षेत्र में शालिग्राम में बारह साल तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया।

  • पूरे भारत की यात्रा की, काशी, अयोध्या, बद्रीनाथ, कश्मीर, जगन्नाथपुरी, द्वारिका जैसे तीर्थ स्थलों पर अपने आध्यात्मिक और सामाजिक विचारों का प्रचार किया।

  • निधन और विरासत:वर्ष 1137 ईस्वी में 120 वर्ष की आयु में श्रीरंगम, तमिलनाडु में ब्रह्मलीन हुए।

  • श्रीरंगम के रंगनाथ स्वामी मंदिर में उनका पार्थिव शरीर आज भी उपदेश मुद्रा में रखा हुआ है, जिसे चंदन और केसर के लेप से संरक्षित किया जाता है।

  • उनके शरीर को "ममी" के रूप में वर्णित किया गया है, जो इजिप्ट की ममियों के विपरीत प्राकृतिक तरीकों से संरक्षित है।

II. विशिष्टाद्वैत दर्शन

  • मूल सिद्धांत:सत्ता या परमसत् के तीन स्तर: ब्रह्म (ईश्वर), चित् (आत्मा), और अचित् (प्रकृति)।

  • चित् (व्यक्तिगत आत्मा) और अचित् (पदार्थ) ब्रह्म से अलग नहीं हैं, बल्कि उसके ही विशिष्ट रूप हैं और उस पर निर्भर करते हैं।

  • इसकी तुलना शरीर और आत्मा के संबंध से की जाती है: आत्मा और प्रकृति ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं, और ब्रह्म उनका आत्मा है।

  • अद्वैतवाद की चुनौती:आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद के "मायावाद" को कड़ी चुनौती दी, जिसमें जगत को "मिथ्या" या भ्रम बताया गया है।

  • रामानुज का तर्क है कि जगत मिथ्या नहीं हो सकता क्योंकि इसका निर्माण ब्रह्म ने ही किया है।

  • उनके अनुसार, माया का अर्थ ईश्वर की अद्भुत रचनात्मक शक्ति है, और अविद्या का अर्थ जीव की अज्ञानता है।

  • शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करने के लिए "सप्तानुपपत्ति" नामक सात तर्क दिए।

  • ज्ञानमीमांसा (प्रमाण):ज्ञान को एक पदार्थ (द्रव्य) मानते हैं।

  • ज्ञान प्राप्त करने के तीन साधन: प्रत्यक्ष (प्रत्यक्ष बोध), अनुमान (अनुमान), और शब्द (शास्त्र)।

  • विशिष्टाद्वैत में "सभी ज्ञान यथार्थ हैं" यह महत्वपूर्ण विचार है।

  • आत्मा (जीव) और ब्रह्म का संबंध:ब्रह्म या ईश्वर एक सगुण तत्व है (गुणों सहित)।

  • आत्मा (अणु) और ब्रह्म (विभु/सर्वव्यापी) में विशिष्ट अंतर हैं।

  • ब्रह्म पूर्ण और अनंत है, जबकि आत्मा ब्रह्म का एक अंश है और उस पर निर्भर है।

  • आत्मा कभी ब्रह्म नहीं हो सकती, जैसे अंश कभी पूर्ण नहीं हो सकता।

  • जीवात्मा के प्रकार:बद्ध आत्मा: भौतिक जगत में शरीर से बंधी हुई।

  • मुक्त आत्मा: ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त करने वाली।

  • नित्य आत्मा: ईश्वर के साथ वैकुंठ में निरंतर सेवा में लीन रहने वाली, जिनका पुनर्जन्म नहीं होता।

  • प्रकृति (अचित्) की अवधारणा:प्रकृति जड़ या अचेतन है, ज्ञान रहित और विकारी।

  • इसमें तीन गुण हैं: सत्व, रजस और तमस, जो सभी सांसारिक वस्तुओं में मिश्रित होते हैं।

  • ईश्वर प्रकृति और जीवात्माओं के संचित कर्मों के आधार पर संसार की रचना करता है।

  • माया प्रकृति को नहीं ढकती, बल्कि जीव के ज्ञान को ढकती है, जिससे जीव को भ्रम होता है कि आत्मा शरीर या इंद्रियों के समान है।

III. भक्ति और मोक्ष का मार्ग

  • भक्ति की परिभाषा:रामानुज के अनुसार भक्ति का अर्थ केवल पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं है, बल्कि ईश्वर की गहन साधना, प्रार्थना और ध्यान है।

  • भक्ति को मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन माना जाता है।

  • सामाजिक समावेश:भक्ति को जाति, वर्ग और लिंग के बंधनों से मुक्त किया, इसे हर व्यक्ति का अधिकार बताया।

  • मंदिरों के द्वार दलितों और निम्न वर्गों के लिए खोले।

  • चांडाल के हाथ से भोजन करने में संकोच नहीं किया और शूद्र गुरुओं का शिष्यत्व स्वीकार किया।

  • माना कि "जाति नहीं, वरन गुण ही कल्याण का कारण है"।

  • प्रपत्ति (पूर्ण आत्मसमर्पण):भगवान तक पहुँचने का एक सरल मार्ग के रूप में प्रपत्ति (पूर्ण आत्मसमर्पण) पर बल दिया।

  • यह सिद्धांत कहता है कि जो व्यक्ति भगवान के प्रति समर्पण करता है, उसके साथ जो कुछ भी होता है, वह भगवान द्वारा निर्धारित होता है, और इसलिए उसे कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए।

  • प्रपत्ति को "साध्य का साधन नहीं, बल्कि साध्य स्वयं" माना जाता है।

  • मोक्ष की अवधारणा:मोक्ष को ब्रह्म में विलीन होना नहीं, बल्कि भक्त द्वारा ईश्वर की प्राप्ति और जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्ति के रूप में देखते हैं।

  • मोक्ष की अवस्था में आत्मा परमात्मा (ब्रह्म) के सदृश हो जाती है, लेकिन उसमें विलीन नहीं होती।

  • सेवा का महत्व:भगवान और भक्तों दोनों की सेवा को जीवन का एकमात्र उद्देश्य माना।

  • भक्तों की सेवा को भगवान की पूजा से भी श्रेष्ठ बताया।

  • गुरुओं और विद्वान वैष्णवों के प्रति सम्मान और सेवा पर जोर दिया।

  • रामानुजाचार्य के दस अंतिम उपदेशों में से एक यह है कि यदि ब्रह्मसूत्र और आलवारों की शिक्षाओं का प्रचार संभव नहीं है, तो मंदिरों की सफाई और रखरखाव करें।

IV. प्रमुख ग्रंथ और शिष्य परंपरा

  • रचनाएँ:श्रीभाष्यम्: ब्रह्मसूत्र पर उनका सबसे प्रसिद्ध भाष्य।

  • वेदार्थ संग्रह: उनके दर्शन की तर्कसंगत और सुव्यवस्थित व्याख्या।

  • गीता भाष्य: भगवद गीता पर टीका।

  • वेदांत दीप

  • वेदांत सार

  • नित्य ग्रंथम

  • गद्य त्रयम: शरणागति गद्य, श्री रंगम गद्य, श्री बैकुंठ गद्य।

  • शिष्य परंपरा और प्रभाव:उनके परवर्ती शिष्यों में रामानंद विशेष रूप से उल्लेखनीय थे।

  • रामानंद के प्रभाव से संत कबीर, संत रैदास और सूरदास जैसे संतों ने भक्ति आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाया।

  • रामानुज की विचारधारा ने न केवल वैष्णव परंपरा को मजबूत किया, बल्कि भक्ति आंदोलन के माध्यम से सामाजिक क्रांति की नींव भी रखी।

V. अन्य महत्वपूर्ण अवधारणाएँ

  • कर्म का नियम: व्यक्ति के जीवन में घटनाएँ उसके पिछले कर्मों (कार्य, भावनाएँ, विचार) के कारण होती हैं।

  • दैवी इच्छा और स्वतंत्रता: जीवात्मा के पास इच्छा शक्ति होती है और वह भगवान की इच्छा के अनुसार कार्य करने में सक्षम है। भगवान हस्तक्षेप नहीं करते बल्कि शुभ कार्यों को प्रोत्साहन और अशुभ कार्यों को अस्वीकृत करते हैं।

  • ज्ञान और अज्ञान: माया के कारण जीव को भ्रम होता है, लेकिन आत्म-साक्षात्कार से इस भ्रम को दूर किया जा सकता है।

  • जगत की वास्तविकता: शंकराचार्य के विपरीत, रामानुज जगत को वास्तविक मानते हैं, क्योंकि यह ईश्वर द्वारा निर्मित है।

क्विज़: रामानुजाचार्य के दर्शन और जीवन

निर्देश: प्रत्येक प्रश्न का उत्तर 2-3 वाक्यों में दें।

  • रामानुजाचार्य का जन्म कब और कहाँ हुआ था?

  • रामानुजाचार्य के दर्शन का मूल नाम क्या है और यह अद्वैतवाद से कैसे भिन्न है?

  • रामानुजाचार्य ने अपने गुरु यमुनाचार्य के किस तीन कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया था?

  • रामानुजाचार्य के अनुसार भक्ति का क्या अर्थ है?

  • उनके दर्शन में सत्ता या परमसत् के तीन स्तर क्या हैं?

  • श्रीरंगम में रामानुजाचार्य के पार्थिव शरीर को कैसे संरक्षित किया जाता है?

  • रामानुजाचार्य ने सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के लिए क्या उल्लेखनीय कार्य किए?

  • मोक्ष के संबंध में रामानुजाचार्य की अवधारणा क्या थी, और यह ब्रह्म में विलीनता से कैसे भिन्न है?

  • रामानुजाचार्य द्वारा रचित दो सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ कौन से हैं?

  • रामानुजाचार्य के दस अंतिम उपदेशों में से एक भक्ति सेवा के संबंध में क्या है, यदि ब्रह्मसूत्र और आलवारों की शिक्षाओं का प्रचार संभव न हो?

उत्तर कुंजी

  • रामानुजाचार्य का जन्म वर्ष 1017 ईस्वी में तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम केशव भट्ट था।

  • रामानुजाचार्य के दर्शन का मूल नाम विशिष्टाद्वैत वेदांत है। यह शंकराचार्य के अद्वैतवाद से इस मायने में भिन्न है कि यह ब्रह्म, चित् (आत्मा) और अचित् (प्रकृति) तीनों को वास्तविक मानता है, जहाँ चित् और अचित् ब्रह्म के अधीन होते हैं, जबकि अद्वैतवाद केवल ब्रह्म को ही परम सत्य मानता है।

  • रामानुजाचार्य ने अपने गुरु यमुनाचार्य की इच्छाओं के अनुसार ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्यप्रबन्धम् पर टीकाएं लिखने का संकल्प लिया था।

  • रामानुजाचार्य के अनुसार भक्ति का अर्थ केवल पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं है, बल्कि ईश्वर की गहन साधना, प्रार्थना और ध्यान है। वे भक्ति को मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन मानते थे।

  • उनके दर्शन में सत्ता या परमसत् के तीन स्तर ब्रह्म (ईश्वर), चित् (आत्मा), और अचित् (प्रकृति) हैं। ये तीनों एक-दूसरे से संबंधित हैं, जहाँ चित् और अचित् ब्रह्म के ही विशिष्ट रूप हैं।

  • श्रीरंगम में रामानुजाचार्य के पार्थिव शरीर को चंदन और केसर के लेप से संरक्षित किया जाता है। यह लेप हर दो साल में एक बार लगाया जाता है।

  • रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति, वर्ग और लिंग के बंधनों से मुक्त किया, मंदिरों के द्वार दलितों और निम्न वर्गों के लिए खोले, और चांडाल के हाथ से भोजन करने में भी संकोच नहीं किया, यह मानते हुए कि गुण जाति से अधिक महत्वपूर्ण हैं।

  • मोक्ष के संबंध में रामानुजाचार्य की अवधारणा यह थी कि यह ब्रह्म में विलीन होना नहीं है, बल्कि भक्त द्वारा ईश्वर की प्राप्ति और जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्ति है। इसमें आत्मा मोक्ष की अवस्था में परमात्मा के सदृश हो जाती है, लेकिन उसमें विलीन नहीं होती।

  • रामानुजाचार्य द्वारा रचित दो सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ ब्रह्मसूत्र पर उनका भाष्य 'श्रीभाष्यम्' और उनके दर्शन की व्याख्या करने वाला 'वेदार्थ संग्रह' हैं।

  • यदि ब्रह्मसूत्र और आलवारों की शिक्षाओं का प्रचार संभव न हो, तो रामानुजाचार्य के अंतिम उपदेशों में से एक है कि मंदिरों की सफाई और रखरखाव का ध्यान रखें, यह सुनिश्चित करें कि फूलों और सजावट की भेंट ठीक से की जाए।


निबंध प्रश्न

  1. रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत दर्शन की व्याख्या करें और इसकी तुलना आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद से करें, विशेष रूप से ब्रह्म, जीव और जगत की प्रकृति के संबंध में।

रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत दर्शन और आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद के बीच ब्रह्म, जीव और जगत की प्रकृति के संबंध में गहन मतभेद हैं।

रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत दर्शन (Qualified Non-Dualism)

रामानुजाचार्य वेदांत दर्शन में 'विशिष्टाद्वैत' के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं। इस दर्शन के अनुसार, सत्ता या परम सत्य के तीन स्तर हैं, जो आपस में अविभाज्य रूप से जुड़े हुए हैं, फिर भी एक दूसरे से भिन्न हैं:

  • ब्रह्म (ईश्वर): यह परम सत्य है, जो सगुण है, यानी सभी शुभ गुणों से युक्त है। ब्रह्म को सभी बुराइयों से रहित और सभी शुभ गुणों से संपन्न बताया गया है। यह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और अपनी सभी इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम है। ब्रह्म को जगत् का आत्मा (आंतरिक आत्मा) कहा गया है। रामानुज के अनुसार, ब्रह्म जगत का उपादान कारण (material cause) और निमित्त कारण (efficient cause) दोनों है। ब्रह्म की पहचान "मैं" के भाव से होती है।

  • चित् (आत्म तत्व/जीव): ये अनगिनत व्यक्तिगत आत्माएँ (जीव) हैं, जो वास्तविक हैं। जीव अणु रूप (atomic size) में होते हैं और हृदय में निवास करते हैं। जीव ब्रह्म का एक अंश (part) या उसका एक 'मोड' (mode) हैं, जो ब्रह्म पर निर्भर हैं। जीव ज्ञाता (knower) और कर्ता (doer) दोनों हैं, तथा सुख-दुःख का अनुभव करते हैं।

  • अचित् (प्रकृति तत्व/जगत): यह जड़ या अचेतन पदार्थ है, जो ज्ञान रहित और विकारी है। प्रकृति भी वास्तविक है और ब्रह्म का 'मोड' या 'शरीर' है। प्रकृति में तीन गुण (सत्व, रज, तम) होते हैं और सभी सांसारिक वस्तुएँ इन तीनों गुणों के मिश्रण से बनी होती हैं।

इन तीनों तत्वों का संबंध: रामानुजाचार्य के अनुसार, चित् और अचित् ब्रह्म से अलग नहीं हैं, बल्कि वे विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं और ब्रह्म पर ही आधारित हैं। जिस प्रकार शरीर और आत्मा एक-दूसरे से पूरक होते हैं और आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है, उसी प्रकार आत्मा और प्रकृति (चित् और अचित्) ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं। पूरा विश्व, उसकी आत्माओं और पदार्थ सहित, ब्रह्म का शरीर है क्योंकि इसे ब्रह्म द्वारा पूरी तरह से नियंत्रित और समर्थित किया जाता है। 'एक को जानने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है' (सतकार्यवाद) का अर्थ यह है कि कार्य कारण के समान ही है, लेकिन एक अलग अवस्था में।

मोक्ष की अवधारणा में, रामानुज का मानना है कि मोक्ष ब्रह्म में पूर्ण विलय नहीं है, बल्कि भक्त द्वारा ईश्वर की प्राप्ति और जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्ति है।

आदि शंकराचार्य का अद्वैतवाद दर्शन (Non-Dualism)

शंकराचार्य का अद्वैतवाद दर्शन यह मानता है कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है। उनके अनुसार:

  • ब्रह्म: यह निर्गुण (गुण रहित), निराकार और अखंड चैतन्य (undifferentiated consciousness) है। ब्रह्म को किसी भी प्रकार के गुणों, भेदों या द्वैत से रहित माना जाता है।

  • जीव: जीव की पृथक सत्ता वास्तविक नहीं है, बल्कि यह ब्रह्म का ही एक स्वरूप है। जीव और ब्रह्म में पूर्ण तादात्म्य (absolute identity) है।

  • जगत: शंकराचार्य के अनुसार, यह दृश्यमान जगत माया (illusion) है और मिथ्या (unreal) है। जगत वास्तविक नहीं है, बल्कि अज्ञान (अविद्या) के कारण उत्पन्न होने वाली एक भ्रामक उपस्थिति है।

तुलना और अंतर:

पहलू

रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत

आदि शंकराचार्य का अद्वैतवाद

ब्रह्म की प्रकृति

सगुण है, यानी शुभ गुणों से युक्त है। यह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला है। ब्रह्म जगत का उपादान और निमित्त दोनों कारण है।

निर्गुण है, यानी गुणों से रहित और अखंड चैतन्य है। यह निराकार, निर्विकार और भेदों से मुक्त है। ब्रह्म को जगत का केवल निमित्त कारण माना जाता है, उपादान नहीं [यह जानकारी स्रोतों में सीधे नहीं दी गई है, लेकिन शंकराचार्य के मायावाद से निहित है, जो जगत को अविद्यक मानता है]।

जीव की प्रकृति

वास्तविक हैं और ब्रह्म का एक अंश (part) या 'मोड' (mode) हैं, जो ब्रह्म पर निर्भर हैं। जीव ज्ञाता और कर्ता दोनों हैं। जीव अणु रूप में होते हैं। मोक्ष में जीव ब्रह्म में विलीन नहीं होता बल्कि ब्रह्म के समान ही होता है।

जीव की पृथक सत्ता भ्रामक है। जीव ब्रह्म ही है, और यह भेद अज्ञान (अविद्या) के कारण प्रतीत होता है। मोक्ष में जीव अपने ब्रह्म स्वरूप को पहचान लेता है और सभी भेदों का अंत हो जाता है।

जगत की प्रकृति

वास्तविक है, जिसे ब्रह्म द्वारा बनाया गया है और जो ब्रह्म के शरीर का निर्माण करता है। जगत ब्रह्म से भिन्न नहीं, बल्कि उसमें अंतर्निहित और अधीन है।

मिथ्या (अवास्तविक) या माया है। जगत एक भ्रामक उपस्थिति है जो अज्ञान (अविद्या) के कारण उत्पन्न होती है। शंकराचार्य के लिए, "माया" शब्द एक ऐसी अवधारणा को दर्शाता है जो एक झूठी बहुलतावादी दुनिया की भ्रामक उपस्थिति को उत्पन्न करती है।

जीव और ब्रह्म संबंध

जीव ब्रह्म का 'शरीर' या 'मोड' है, जो अविभाज्य रूप से जुड़ा है लेकिन फिर भी भिन्न है। "तत्त्वमसि" का अर्थ है कि जीव ब्रह्म का शरीर है और ब्रह्म उसका अंतर्यामी है। इसे विशिष्टाद्वैत (विशिष्ट अद्वैत) कहा जाता है।

जीव और ब्रह्म पूर्ण रूप से समान हैं, और कोई वास्तविक भेद नहीं है; सभी प्रतीत होने वाले भेद अज्ञान के कारण हैं। इसे अद्वैत (गैर-द्वैत) कहा जाता है।

माया/अविद्या की अवधारणा

माया का अर्थ ईश्वर की अद्भुत रचनात्मक शक्ति (अचित्/प्रकृति) से है, यह कोई भ्रम नहीं है। अविद्या का अर्थ जीव की अज्ञानता से है। रामानुज ने शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करने के लिए सात तर्क दिए, जिन्हें 'सप्तानुपपत्ति' कहा जाता है।

माया एक भ्रम है, जो एक झूठी बहुलतावादी दुनिया की भ्रामक उपस्थिति को उत्पन्न करती है। अविद्या इस भ्रम का कारण है और ज्ञान से इसका अंत होता है।

मोक्ष का साधन

भक्ति (ईश्वर के प्रति गहन प्रेम और साधना) और प्रपत्ति (ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण) को मोक्ष का सर्वोत्तम साधन बताया। ज्ञान को भक्ति का ही एक विशेष रूप माना जाता है।

ज्ञान (सत्य की पहचान) को मोक्ष का मुख्य साधन बताया। अज्ञान का अंत ज्ञान से ही होता है।

रामानुजाचार्य के दर्शन में, जगत वास्तविक है और ब्रह्म का शरीर है, जबकि शंकराचार्य इसे माया या भ्रम मानते हैं। जीव के संदर्भ में, रामानुजाचार्य जीव को ब्रह्म का अंश मानते हुए भी उसकी भिन्नता और वास्तविकता को स्वीकार करते हैं, जबकि शंकराचार्य जीव और ब्रह्म की पूर्ण अभिन्नता पर बल देते हैं।


  1. रामानुजाचार्य ने भारतीय समाज में सामाजिक समरसता और समावेशिता को बढ़ावा देने में क्या भूमिका निभाई? उनके प्रमुख योगदानों और उनके सामने आई चुनौतियों पर चर्चा करें।

रामानुजाचार्य ने भारतीय समाज में सामाजिक समरसता और समावेशिता को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके दर्शन और शिक्षाओं ने तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक ढाँचों को चुनौती दी, जिससे भक्ति आंदोलन को एक नया वैचारिक आधार मिला।

उनके प्रमुख योगदान और चुनौतियाँ इस प्रकार हैं:

प्रमुख योगदान:

  • भक्ति मार्ग का सार्वभौमीकरण:

    • रामानुजाचार्य का मानना था कि भक्ति किसी विशेष वर्ग की बपौती नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति का अधिकार है, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग या लिंग का हो

    • उन्होंने भक्ति का अर्थ केवल कीर्तन-भजन या बाहरी पूजा नहीं, बल्कि ईश्वर की गहन साधना, प्रार्थना और ध्यान बताया।

    • उनके अनुसार, मोक्ष भक्ति के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति और जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्ति है, न कि ब्रह्म में विलीनता। यह दृष्टिकोण जनसामान्य के लिए आध्यात्मिक अनुभव को सुलभ बनाता था।

  • सामाजिक समानता और भेदभाव का विरोध:

    • उन्होंने जन्म या जाति के बजाय व्यक्ति के आध्यात्मिक ज्ञान और गुणों के आधार पर सम्मान की बात की।

    • रामानुजाचार्य ने अछूतों (पंचमों/शूद्रों से भी दूर कहे जाने वाले लोगों) के साथ भेदभाव न करने की बात कही, यह कहते हुए कि विश्व-रचयिता ने कभी किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया।

    • उन्होंने ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक सभी जात-वर्गों के लिए सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना के द्वार खोल दिए, चाहे उन्हें आलोचना का सामना ही क्यों न करना पड़े।

    • उन्होंने श्री रंगपट्टम के उत्तर में मेलुकोट (दक्षिण बद्रिकाश्रम) स्थित तिरूनारायण पेरूमल वैष्णव मंदिर के द्वार पंचमों के लिए खोले

    • वह अपने अनेक शिष्यों को निम्न कही जाने वाली जातियों से स्वीकार करते थे।

    • भगवान की रथयात्रा के अवसर पर, तथाकथित निम्न जातियों वाले ही रथ पहले खींचते थे, और यह परंपरा आज भी जारी है।

  • व्यक्तिगत उदाहरण और व्यवहार:

    • उन्होंने शूद्र गुरुओं का शिष्यत्व स्वीकार किया और चांडाल के हाथ से भोजन करने में भी संकोच नहीं किया

    • उनकी वृद्धावस्था में, वह स्नान के लिए जाते समय दो ब्राह्मणों के कंधों पर हाथ रखकर जाते थे, और लौटते समय दो चर्मकारों (अत्यंत निम्न जाति के लोग) के कंधों का सहारा लेते थे। जब लोगों ने आपत्ति की, तो उन्होंने कहा कि "जाति नहीं, वरन गुण ही कल्याण का कारण है"

    • वह इस बात पर जोर देते थे कि ईश्वर की सेवा और भक्तों की सेवा समान होनी चाहिए, और भक्तों की पूजा भगवान की पूजा से श्रेष्ठ है।

  • ग्रंथों की रचना और दर्शन का प्रचार:

    • उन्होंने अपने दर्शन के माध्यम से प्राचीन भागवत (वैष्णव) धर्म की परंपरा को आगे बढ़ाया और उसे दार्शनिक आधार प्रदान किया।

    • उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ‘श्रीभाष्य’ और ‘वेदार्थ संग्रह’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जिन्होंने उनके विशिष्टाद्वैत दर्शन की तर्कसंगत और सुव्यवस्थित व्याख्या की।

    • उनके लेखन ने साधारण पाठक को भी ईश्वरतत्त्व को गहराई से समझने में मदद की।

  • भक्ति आंदोलन पर गहरा प्रभाव:

    • उनकी विचारधारा ने वैष्णव परंपरा को सशक्त किया और भक्ति आंदोलन के माध्यम से सामाजिक क्रांति की नींव रखी। उनके परवर्ती शिष्यों, जैसे रामानंद, के माध्यम से उनकी शिक्षाएं कबीर, रैदास और सूरदास जैसे संतों तक पहुँचीं, जिन्होंने भक्ति आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाया।

चुनौतियाँ:

  • सामाजिक विरोध और रूढ़िवादी आपत्ति:

    • रामानुजाचार्य को अपने सामाजिक विचारों, विशेषकर जाति और वर्ण व्यवस्था में भेदभाव के विरोध के कारण, स्थान-स्थान पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा

    • उनके द्वारा मंदिरों के द्वार सभी जातियों के लिए खोलने की पहल ने परंपरावादियों को नाराज किया।

  • यादव प्रकाश के साथ वैचारिक मतभेद और संघर्ष:

    • रामानुज ने अपने गुरु यादव प्रकाश के साथ कई वैचारिक मतभेदों का सामना किया। यादव प्रकाश, शंकर के अद्वैतवाद के अनुयायी थे और उनका "माया-दर्शन" रामानुज के विशिष्टाद्वैत से भिन्न था।

    • एक घटना में, जब यादव प्रकाश ने एक श्लोक की "अपमानजनक" व्याख्या की, तो रामानुज ने इसका कड़ा विरोध किया, जिससे यादव प्रकाश क्रोधित हो गए और उन्होंने रामानुज को चुनौती दी।

    • यादव प्रकाश और उनके शिष्यों ने रामानुज को समाप्त करने की साजिश रची और उन्हें तीर्थयात्रा के दौरान जहर देने का प्रयास किया

  • राजा क्रिमिकांथा से चुनौती और निर्वासन:

    • वह एक शैव राजा क्रिमिकांथा (चोल राजा) के समय में थे, जो शैव धर्म के प्रति कट्टर था और सभी से यह घोषणा करने को कहता था कि "शिव से बढ़कर कोई नहीं"।

    • रामानुजाचार्य ने इस घोषणा पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया, जिससे राजा नाराज हो गया और उसने रामानुज को पकड़ने के लिए अधिकारी भेजे।

    • इस स्थिति से बचने के लिए, उनके शिष्य अलवर ने उनके वस्त्र धारण कर लिए और राजा के सामने प्रस्तुत हुए, जिसके परिणामस्वरूप अलवर की आँखें निकाल ली गईं।

    • इस घटना के बाद, रामानुजाचार्य को मैसूर क्षेत्र के शालिग्राम में बारह वर्ष तक निर्वासन में रहना पड़ा

इन चुनौतियों के बावजूद, रामानुजाचार्य ने अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए, प्रेम, समानता और ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण (प्रपत्ति) के मार्ग का प्रचार किया, जिससे भारतीय समाज में एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक और आध्यात्मिक क्रांति आई।


  1. रामानुजाचार्य के लिए 'भक्ति' की अवधारणा का विस्तार से विश्लेषण करें। यह पूजा के अन्य रूपों से कैसे भिन्न है, और उन्होंने इसे मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन क्यों माना?

रामानुजाचार्य के दर्शन में 'भक्ति' की अवधारणा अत्यंत केंद्रीय और गहन है, जो इसे पूजा के अन्य रूपों से विशिष्ट बनाती है और इसे मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन मानती है।

'भक्ति' की अवधारणा: रामानुजाचार्य के अनुसार, भक्ति केवल बाहरी कर्मकांड या अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है। यह मात्र पूजा-पाठ, कीर्तन-भजन या बाह्य पूजा नहीं है, बल्कि ईश्वर की गहन साधना, प्रार्थना और ध्यान है। इसे एक विशेष प्रकार का ज्ञान माना जाता है, जिसमें व्यक्ति को ईश्वर के प्रति असीमित प्रेम होता है और यह अन्य सभी इच्छाओं तथा रुचियों का अंत कर देता है। भक्ति में पूर्ण आत्मसमर्पण (प्रपत्ति) का भाव निहित है, जिसे भगवान तक पहुँचने का एक सरल मार्ग बताया गया है। इसमें अपने सभी कर्मों को ईश्वर की सेवा के रूप में करना शामिल है।

पूजा के अन्य रूपों से भिन्नता: रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति, वर्ग और लिंग के बंधनों से मुक्त किया। उन्होंने ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक सभी वर्गों के लोगों के लिए सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना के द्वार खोल दिए, चाहे उन्हें इसके लिए कितना भी विरोध क्यों न झेलना पड़ा हो। उन्होंने शूद्र गुरुओं का शिष्यत्व भी स्वीकार किया और चांडालों के हाथ से भोजन करने में भी संकोच नहीं किया। उनके अनुसार, सच्ची भक्ति केवल दिखावा या कर्मकांड नहीं है, बल्कि इसमें गहन आंतरिक संलग्नता और श्रद्धा की आवश्यकता होती है।

वे उन लोगों की निंदा करते थे जो:

  • भगवान के प्रतीक को मात्र पत्थर की मूर्ति मानते हैं।

  • गुरु को किसी अन्य सामान्य व्यक्ति के समान समझते हैं।

  • वैष्णवों को उनके जन्म के आधार पर वर्गीकृत करते हैं।

  • पवित्र जल (तीर्थ) और प्रसाद को केवल वस्तुएँ मानते हैं।

  • श्रीमान नारायण को कई देवताओं में से एक मानते हैं।

रामानुजाचार्य ने यह भी सिखाया कि भगवान के भक्तों की सेवा और सम्मान करना स्वयं भगवान की पूजा से भी अधिक प्रभावी है। भक्तों का अनादर करना भगवान का अपमान करने से भी अधिक गंभीर पाप है। उनके अनुसार, भक्तों के चरणों का जल (श्री-पाद-तीर्थ) स्वयं भगवान के चरणों के जल से भी अधिक पवित्र है।

मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन क्यों: रामानुजाचार्य ने भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना। उनका मानना था कि जब व्यक्ति भगवान की पूर्णता का अनुभव करता है और भक्ति के माध्यम से उन्हें प्रसन्न करता है, तो भगवान प्रसन्न होकर उसके सभी कर्मों को नष्ट कर देते हैं और उसे जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त कर देते हैं। भक्ति के द्वारा, जीव (आत्मा) पूरी तरह से ब्रह्म में विलीन नहीं होता, बल्कि ब्रह्म के सदृश हो जाता है, और इस प्रकार जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।

रामानुजाचार्य के अनुसार, हमारे अच्छे और बुरे कर्म भगवान को प्रसन्न या अप्रसन्न करते हैं, और भविष्य के सुख या दुख, तथा अंतिम मोक्ष, भगवान की कृपा पर निर्भर करते हैं। इसलिए, सच्ची भक्ति के माध्यम से भगवान को प्रसन्न करना मोक्ष के लिए महत्वपूर्ण है।

प्रपत्ति (पूर्ण आत्मसमर्पण) को भगवान के चरणों तक पहुँचने का सबसे आसान और सीधा मार्ग बताया गया है। यदि अन्य साधन संभव न हों, तो ज्ञान, भक्ति और वैराग्य से संपन्न आध्यात्मिक गुरु की विनम्र सेवा करना भी मुक्ति के मार्ग पर चलने का एक महत्वपूर्ण तरीका है।


  1. प्रपत्ति (पूर्ण आत्मसमर्पण) के सिद्धांत की विवेचना करें, जैसा कि रामानुजाचार्य द्वारा सिखाया गया है। यह व्यक्तिगत प्रयास और कर्म के नियम के साथ कैसे संबंधित है?

प्रपत्ति (पूर्ण आत्मसमर्पण) का सिद्धांत (रामानुजाचार्य के अनुसार)

रामानुजाचार्य के अनुसार, प्रपत्ति भगवान श्रीमन नारायण (विष्णु) के प्रति पूर्ण और अटूट समर्पण का अंतिम और सबसे सीधा मार्ग है। यह मार्ग उन लोगों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त माना जाता है जो भक्ति योग के कठोर नियमों (जैसे निरंतर ध्यान, ज्ञान प्राप्ति के जटिल अभ्यास, या विशिष्ट कर्मकांड) का पालन करने में असमर्थ महसूस करते हैं। प्रपत्ति में भक्त अपनी सभी जिम्मेदारियों और मोक्ष प्राप्त करने के प्रयासों को पूरी तरह से भगवान पर छोड़ देता है, यह विश्वास करते हुए कि भगवान ही उसे मुक्ति प्रदान करेंगे।

प्रपत्ति के छह अंग माने जाते हैं:

  1. आनुकूल्यस्य संकल्पः (ईश्वर के अनुकूल रहने का संकल्प): भगवान को प्रसन्न करने वाले कर्मों को करने की इच्छा रखना।

  2. प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् (ईश्वर के प्रतिकूल कर्मों का त्याग): भगवान को अप्रसन्न करने वाले या उनके विरुद्ध जाने वाले सभी कर्मों का त्याग करना।

  3. रक्षिष्यतीति विश्वासः (भगवान रक्षा करेंगे, ऐसा दृढ़ विश्वास): यह अटल विश्वास कि भगवान निश्चित रूप से मेरी रक्षा करेंगे और मुझे मुक्ति प्रदान करेंगे। यह प्रपत्ति का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।

  4. गोप्तृत्व-वरणम् (भगवान को रक्षक के रूप में स्वीकार करना): भगवान को अपने एकमात्र और परम रक्षक के रूप में चुनना और स्वीकार करना।

  5. आत्म-निक्षेपः (आत्मा को भगवान को सौंपना): अपनी आत्मा को पूरी तरह से भगवान के चरणों में समर्पित कर देना, अपनी इच्छाशक्ति को भगवान की इच्छा में विलीन कर देना।

  6. कार्पण्यम् (दीनता का भाव): अपनी सीमाओं, कमजोरियों और अयोग्यता को पहचानना, और यह अनुभव करना कि स्वयं के बल पर मोक्ष प्राप्त करना असंभव है, और इसलिए पूरी तरह भगवान पर निर्भर रहना।

रामानुज के लिए, प्रपत्ति एक ऐसी स्थिति है जहाँ भक्त अपनी ओर से किए जाने वाले सभी प्रयासों को छोड़ देता है और पूरी तरह से भगवान की कृपा (ईश्वरानुग्रह) पर निर्भर हो जाता है। यह अहंकार का पूर्ण त्याग है, जहाँ 'मैं' और 'मेरा' का भाव समाप्त हो जाता है और केवल 'भगवान का' का भाव शेष रहता है।


व्यक्तिगत प्रयास और कर्म के नियम के साथ संबंध

प्रपत्ति का सिद्धांत व्यक्तिगत प्रयास (पुरुषार्थ) और कर्म के नियम (कर्मफल सिद्धांत) के साथ एक जटिल लेकिन सामंजस्यपूर्ण संबंध रखता है:

  1. प्रपत्ति बनाम व्यक्तिगत प्रयास (पुरुषार्थ):

    • भक्ति योग में व्यक्तिगत प्रयास: रामानुजाचार्य भक्ति योग को 'मार्जार-किशोर न्याय' (बिल्ली के बच्चे का न्याय) के रूप में देखते हैं, जहाँ बिल्ली का बच्चा स्वयं माँ को पकड़ता है और माँ उसे ले जाती है। यहाँ भक्त को ज्ञान, कर्म और भक्ति के कठिन अभ्यास में निरंतर व्यक्तिगत प्रयास करना पड़ता है।

    • प्रपत्ति में व्यक्तिगत प्रयास: प्रपत्ति को 'वानर-शावक न्याय' (बंदर के बच्चे का न्याय) के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ बंदर का बच्चा स्वयं माँ को पकड़ने की कोशिश नहीं करता, बल्कि पूरी तरह से माँ पर निर्भर करता है कि वह उसे संभाले। प्रपत्ति में, भक्त मोक्ष के लिए अपने व्यक्तिगत प्रयासों (पुरुषार्थ) को गौण कर देता है या उन्हें पूरी तरह से भगवान पर छोड़ देता है।

    • सूक्ष्म भेद: ऐसा नहीं है कि प्रपत्ति में बिल्कुल भी प्रयास नहीं होता। प्रपत्ति स्वयं में एक चरम प्रयास है, लेकिन यह प्रयास किसी 'फल' को प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि स्वयं को समर्पित करने के लिए होता है। इसमें भक्त को विश्वास, दीनता और शरणागति के छह अंगों का पालन करने का प्रयास करना पड़ता है। यह 'मैं ही करूँगा' के अहंकार को छोड़ने का प्रयास है। यह कर्म के फल की इच्छा का त्याग है।

  2. प्रपत्ति बनाम कर्म का नियम:

    • कर्मफल सिद्धांत: हिंदू दर्शन में कर्म का नियम अकाट्य माना जाता है: जैसा कर्म करोगे, वैसा फल मिलेगा। यह प्रत्येक जीव को उसके अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी बनाता है और जन्म-मृत्यु के चक्र का कारण बनता है।

    • प्रपत्ति का प्रभाव: रामानुज के अनुसार, जब भक्त भगवान की अनन्य शरण में चला जाता है, तो भगवान अपनी अहैतुकी कृपा से उसके संचित कर्मों (जो भविष्य में फल देने वाले हैं) और क्रियमाण कर्मों (जो वर्तमान में किए जा रहे हैं) के फलों को नष्ट कर देते हैं। प्रपन्न व्यक्ति को उनके फलों से मुक्त कर देते हैं।

    • प्रारब्ध कर्म: हालाँकि, प्रारब्ध कर्म (वे कर्म जिनका फल वर्तमान जीवन में भोगना शुरू हो गया है) को प्रपन्न व्यक्ति को भी भोगना पड़ता है। लेकिन यह भोग भी भगवान की इच्छा से होता है और भक्त इसे सहन करने की शक्ति प्राप्त करता है, या भगवान उसे इस भोग को सहने योग्य बनाते हैं। यह भोग भी उसे बंधन में नहीं डालता क्योंकि भक्त का मन भगवान में लीन रहता है।

    • शरण के बाद के कर्म: एक बार प्रपत्ति हो जाने के बाद, भक्त के शेष जीवन के कर्म भी भगवान की सेवा के रूप में देखे जाते हैं, और वे बंधनकारी नहीं होते क्योंकि वे फलासक्ति रहित और ईश्वरार्पण बुद्धि से किए जाते हैं।

निष्कर्ष:

रामानुजाचार्य द्वारा सिखाई गई प्रपत्ति व्यक्तिगत प्रयास और कर्म के नियम को रद्द नहीं करती, बल्कि उन्हें अतिक्रमित करती है। यह व्यक्ति के स्वयं के बल पर मोक्ष प्राप्त करने की अक्षमता को स्वीकार करती है और भगवान की असीम कृपा पर पूर्ण विश्वास रखती है। यह मोक्ष के लिए भगवान पर पूर्ण निर्भरता का मार्ग है, जहाँ भक्त अपने अहंकार और कर्तापन के भाव को छोड़कर भगवान को ही अपना एकमात्र आश्रय मानता है। इस परम शरणागति के माध्यम से, भगवान अपनी कृपा से भक्त को कर्म के बंधनों से मुक्त कर देते हैं और उसे अपने धाम में स्थान प्रदान करते हैं। यह व्यक्तिगत प्रयास का अंत नहीं, बल्कि प्रयास के स्वरूप का एक मौलिक परिवर्तन है - स्वयं के लिए करने से हटकर केवल ईश्वर की इच्छा के प्रति समर्पित होना।


  1. रामानुजाचार्य के ज्ञानमीमांसा संबंधी विचारों का पता लगाएं, जिसमें ज्ञान की प्रकृति और इसके अधिग्रहण के लिए स्वीकार किए गए साधनों पर विशेष जोर दिया गया है। उनके इस दावे का क्या निहितार्थ है कि "सभी ज्ञान यथार्थ हैं"?

रामानुजाचार्य (1017-1137 ई.) विशिष्टाद्वैत वेदांत के प्रमुख प्रतिपादक थे। उनका ज्ञानमीमांसा संबंधी दृष्टिकोण अद्वैत वेदांत से भिन्न है, विशेष रूप से उनके "सभी ज्ञान यथार्थ हैं" (सर्वं ज्ञानं यथार्थम्) के दावे के कारण।


रामानुजाचार्य के ज्ञानमीमांसा संबंधी विचार

रामानुजाचार्य के ज्ञानमीमांसा (Epistemology) में ज्ञान की प्रकृति, उसके स्रोत और उसकी यथार्थता को प्रमुखता से विवेचित किया गया है।

1. ज्ञान की प्रकृति:

  • ज्ञान एक गुण है, आत्मा का स्वरूप नहीं: रामानुज के अनुसार, ज्ञान (जिसे वे 'धर्मभूत-ज्ञान' कहते हैं) आत्मा (चेतन जीव) का एक गुण या विशेषता है, न कि स्वयं आत्मा का स्वरूप (जैसा कि अद्वैत वेदांत में माना जाता है कि आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है)। आत्मा ज्ञानी है (ज्ञाता), और उसका ज्ञान उसका गुण है, जैसे अग्नि का गुण उष्णता है।

  • ज्ञान सविशेष है: रामानुज मानते हैं कि ज्ञान हमेशा किसी वस्तु या विशेषण से युक्त होता है। निर्विशेष (विशेषण रहित) ज्ञान संभव नहीं है। जब हम कुछ जानते हैं, तो हम हमेशा कुछ 'विशेष' के बारे में जानते हैं।

  • ज्ञान प्रकाशक है: ज्ञान वस्तुओं को प्रकाशित करता है, उन्हें बोधगम्य बनाता है। जैसे प्रकाश वस्तुओं को दिखाता है, वैसे ही ज्ञान उन्हें प्रकट करता है।

  • ज्ञान का विस्तार (संकोच-विकास): रामानुज के अनुसार, धर्मभूत-ज्ञान (ज्ञान का गुण) संकुचित या विस्तृत हो सकता है। मोक्ष की स्थिति में यह ज्ञान पूरी तरह से विस्तृत हो जाता है और जीव सभी ज्ञान प्राप्त कर लेता है। संसार की स्थिति में, यह अज्ञान (कर्म के प्रभाव) से संकुचित रहता है।

2. ज्ञान के अधिग्रहण के साधन (प्रमाण):

रामानुजाचार्य तीन प्रकार के प्रमाणों (ज्ञान के वैध स्रोतों) को स्वीकार करते हैं:

  • प्रत्यक्ष (Perception):

    • यह इंद्रियों और मन के सीधे संपर्क से प्राप्त होने वाला ज्ञान है।

    • रामानुज के लिए, प्रत्यक्ष ज्ञान भी हमेशा सविशेष होता है (यानी किसी विशेष गुण या विशेषता वाली वस्तु का ज्ञान)। वे निर्विशेष प्रत्यक्ष को नहीं मानते।

    • उदाहरण: किसी वस्तु को सीधे देखना, किसी ध्वनि को सीधे सुनना।

  • अनुमान (Inference):

    • यह किसी ज्ञात सत्य के आधार पर अज्ञात सत्य का ज्ञान प्राप्त करना है। इसमें तर्क और युक्ति का प्रयोग होता है।

    • उदाहरण: पर्वत पर धुआँ देखकर अग्नि का अनुमान लगाना।

  • शब्द (Verbal Testimony/Scriptures):

    • यह आप्त-पुरुषों (विश्वसनीय व्यक्तियों) के वचन या वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, महाभारत (भगवद गीता सहित) और पुराणों जैसे शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान है।

    • रामानुज के लिए, परोक्ष (अप्रत्यक्ष) और अत्यंत सूक्ष्म विषयों (जैसे ब्रह्म का स्वरूप, मोक्ष) के ज्ञान के लिए शब्द प्रमाण ही अंतिम और सबसे विश्वसनीय स्रोत है। अनुभव (प्रत्यक्ष) या तर्क (अनुमान) से ब्रह्म के सगुण स्वरूप का पूरा ज्ञान नहीं हो सकता।


"सभी ज्ञान यथार्थ हैं" के दावे का निहितार्थ

रामानुजाचार्य का यह दावा कि "सर्वं ज्ञानं यथार्थम्" (सभी ज्ञान यथार्थ हैं) उनके दर्शन की एक केंद्रीय विशेषता है और अद्वैत वेदांत के 'जगत मिथ्या' सिद्धांत से सीधा विरोधाभास रखता है।

इस दावे के निहितार्थ हैं:

  1. ज्ञान की वैधता (Validity of All Knowledge):

    • रामानुज का मानना है कि कोई भी ज्ञान पूरी तरह से असत्य या अमान्य नहीं हो सकता। यदि हमें किसी वस्तु का ज्ञान होता है, तो वह वस्तु किसी न किसी रूप में, किसी न किसी स्तर पर वास्तविक होती है।

    • यह अद्वैत के उस विचार का खंडन करता है कि कुछ ज्ञान (जैसे रस्सी में साँप का भ्रम, या स्वप्न का अनुभव) पूरी तरह से मिथ्या या असत्य होता है।

  2. भ्रम की व्याख्या (Explanation of Error/Illusion):

    • यदि सभी ज्ञान यथार्थ हैं, तो भ्रम (जैसे रस्सी में साँप का भ्रम) की व्याख्या कैसे की जाए? रामानुज इसे 'असत्य' नहीं मानते, बल्कि 'अपूर्ण' या 'अव्यापक' ज्ञान मानते हैं।

    • यथार्थख्यातिवाद (Realism of Error): रामानुज 'यथार्थख्यातिवाद' के सिद्धांत का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार, भ्रम में भी कुछ यथार्थता होती है। जब हम रस्सी को साँप समझते हैं, तो वहाँ 'साँपपन' (सर्पत्व) का गुण पूरी तरह से अनुपस्थित नहीं होता, बल्कि हम रस्सी में 'साँप के कुछ गुणों' (जैसे वक्रता, धूसरता) को देखते हैं और उस पर 'साँप' का आरोप कर देते हैं। यानी, ज्ञान में कुछ वास्तविकता होती है, भले ही वह पूरी वास्तविकता न हो।

    • उनके अनुसार, भ्रम इसलिए होता है क्योंकि हम वस्तु के कुछ गुणों को देखते हैं (जो वास्तविक होते हैं) और उन पर अन्य गुणों का आरोप कर देते हैं जो उस क्षण में उपस्थित नहीं होते, या हम वस्तु के संपूर्ण स्वरूप को नहीं देख पाते। ज्ञान कभी भी पूरी तरह से गलत नहीं होता, बस वह 'अपूर्ण' होता है।

  3. जगत की यथार्थता (Reality of the World):

    • "सभी ज्ञान यथार्थ हैं" का सबसे महत्वपूर्ण निहितार्थ यह है कि यह दृश्यमान जगत भी वास्तविक है (सत्य है)। रामानुज अद्वैत के 'जगत मिथ्या' सिद्धांत को अस्वीकार करते हैं।

    • उनके लिए, जगत ब्रह्म का शरीर है, और ब्रह्म अपने शरीर (जगत्) के साथ ही सत्य है। जगत ब्रह्म से पृथक नहीं है, लेकिन यह ब्रह्म से भिन्न है (विशिष्ट अद्वैत)। जगत ब्रह्म का कार्य है, और कार्य अपने कारण से सत्य होता है (जैसे मिट्टी से बना घड़ा मिट्टी से भिन्न नहीं है, पर मिट्टी से अलग एक 'रूप' है)।

    • यह दावा जीव, ईश्वर और जगत के बीच के भेद को भी बनाए रखता है, जबकि अद्वैत तीनों को अंततः एक ही ब्रह्म के रूप में देखता है।

  4. ज्ञान का उद्देश्य (Purpose of Knowledge):

    • रामानुज के लिए, ज्ञान का उद्देश्य ब्रह्म के सगुण, कल्याणगुणाकर स्वरूप को जानना है, जो भक्ति का आधार बनता है।

    • चूंकि सभी ज्ञान यथार्थ हैं, इसलिए संसार का ज्ञान भी पूरी तरह से अमान्य नहीं है। इसका उपयोग ईश्वर के ऐश्वर्य और महिमा को समझने में किया जा सकता है।

संक्षेप में, रामानुजाचार्य की ज्ञानमीमांसा आत्मा के ज्ञान को उसके एक गुण के रूप में देखती है, जो हमेशा सविशेष होता है। वे प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द (शास्त्र) को ज्ञान के वैध साधन मानते हैं। उनके लिए, सभी ज्ञान यथार्थ होते हैं, और जगत भी वास्तविक है, भले ही वह ब्रह्म पर निर्भर हो। यह उनके विशिष्टाद्वैत दर्शन का आधार स्तंभ है, जो अद्वैत के मायावाद और जगत की मिथ्याता के सिद्धांतों से भिन्न है।

रामानुजाचार्य के जीवन की प्रमुख घटनाओं ने उनके दर्शन और शिक्षाओं को गहराई से आकार दिया, जिससे उनके विशिष्टाद्वैत वेदांत और भक्ति मार्ग की सार्वभौमिक पहुँच की स्थापना हुई।

यहाँ उनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ और उनका उनके दर्शन पर प्रभाव दिया गया है:

  • प्रारंभिक जीवन और यादव प्रकाश से मतभेद: रामानुजाचार्य का जन्म 1017 ईस्वी में श्रीपेरुंबदूर, तमिलनाडु में हुआ था। उन्होंने कांची में अपने गुरु यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। यादव प्रकाश के साथ उनकी शुरुआती मुठभेड़ों में, रामानुजाचार्य ने उपनिषदों की व्याख्याओं पर उनसे मतभेद किया। उदाहरण के लिए, "कप्याजम" घटना में, रामानुजाचार्य ने उपनिषद के एक अंश की अधिक सकारात्मक व्याख्या प्रस्तुत की, जिससे यादव प्रकाश नाराज हो गए। इस घटना ने उन्हें शास्त्रों की व्याख्या के लिए एक विशिष्ट दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रेरित किया, जो ब्रह्म के सर्वशक्तिमान और कल्याणकारी स्वरूप पर जोर देता था, और अद्वैत वेदांत के मायावाद के विपरीत था।

  • यामुनाचार्य का प्रभाव और अंतिम इच्छाएँ: रामानुजाचार्य अलवार संत यामुनाचार्य के प्रमुख शिष्य थे। यद्यपि वे यामुनाचार्य से व्यक्तिगत रूप से नहीं मिल पाए और उनके निधन के ठीक बाद पहुँचे, यामुनाचार्य की तीन मुड़ी हुई अंगुलियों ने उनके लिए तीन महान कार्यों का संकेत दिया: ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधम् पर टीकाएँ लिखना। इस घटना ने रामानुजाचार्य के साहित्यिक कार्यों और उनके दर्शन के व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण को सीधे प्रेरित किया, जिसमें उन्होंने विशिष्टाद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को स्थापित किया।

  • संन्यास और व्यापक यात्राएँ: 23 वर्ष की आयु में उन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग कर श्रीरंगम के यतिराज से संन्यास की दीक्षा ली। उन्होंने 12 वर्षों तक मैसूर क्षेत्र के शालिग्राम में वैष्णव धर्म का प्रचार किया और फिर पूरे भारत का भ्रमण किया। इन यात्राओं ने उन्हें विभिन्न सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं को देखने का अवसर दिया, जिससे सामाजिक समरसता और धार्मिक सहिष्णुता के उनके विचारों को और बल मिला।

  • सामाजिक सुधार और मंदिरों के द्वार खोलना: रामानुजाचार्य ने समाज के पिछड़े वर्गों की उपेक्षा को गहराई से महसूस किया। उन्होंने ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक सभी जाति-वर्गों के लिए सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना के द्वार खोल दिए, भले ही उन्हें इसके लिए भारी विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने शूद्र गुरुओं का शिष्यत्व स्वीकार किया और चांडालों के हाथ से भोजन करने में भी संकोच नहीं किया। उन्होंने ज्ञान और आध्यात्मिक सम्मान को जन्म या जाति से ऊपर माना। उनके अनुसार, जाति नहीं, बल्कि गुण ही कल्याण का कारण हैं ("न जाति: कारणं लोके गुणा: कल्याणहेतव:")। इन कार्यों ने उनके भक्ति दर्शन को सार्वभौमिक और समावेशी बनाया, यह सिखाते हुए कि मोक्ष प्राप्ति का भक्ति मार्ग सभी के लिए सुलभ है।

  • ज्ञानमीमांसा और "सभी ज्ञान यथार्थ हैं" का दावा: रामानुजाचार्य की ज्ञानमीमांसा में एक महत्वपूर्ण दावा यह था कि "सभी ज्ञान यथार्थ हैं"। यह उनके इस विश्वास को दर्शाता है कि अनुभव या ज्ञान से प्राप्त कुछ भी भ्रम या मिथ्या नहीं है, बल्कि वास्तविकता का एक पहलू है। यह दृष्टिकोण शंकराचार्य के मायावाद (जगत को मिथ्या मानना) का खंडन करता है। उनकी बौद्धिक बहसें और मायावाद के विरुद्ध "सत्तनपुक्की" नामक सात तर्क उनके इस यथार्थवादी ज्ञान संबंधी दृष्टिकोण को और मजबूत करते हैं।

  • पवित्र मंत्रों का सार्वजनिक प्रकटीकरण: उन्होंने पारंपरिक गोपनीयता को तोड़ते हुए द्वय मंत्र और अष्टक्षर मंत्र जैसे पवित्र मंत्रों को आम लोगों के लिए सार्वजनिक रूप से प्रकट किया। यह उनके इस विश्वास का एक उदाहरण था कि आध्यात्मिक ज्ञान तक पहुंच को किसी विशेष वर्ग तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि यह सभी के लिए सुलभ होना चाहिए, जो उनके प्रपत्ति (पूर्ण आत्मसमर्पण) के सिद्धांत के अनुरूप है।

  • शिष्य परंपरा और अंतिम उपदेश: रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में विभिन्न पृष्ठभूमि के लोग शामिल थे, जैसे शूद्र जाति के धनुर्दास। अपने जीवन के अंत में, उन्होंने 74 उपदेश और 10 अंतिम आज्ञाएँ प्रदान कीं, जो उनके दर्शन के व्यावहारिक और नैतिक पहलुओं को विस्तृत करते हैं। ये उपदेश गुरु की सेवा, वैष्णवों के प्रति सम्मान, मंदिर में निष्ठा और भक्ति तथा प्रपत्ति के मार्ग पर जोर देते हैं।

इन घटनाओं और अनुभवों ने रामानुजाचार्य के दर्शन को एक समावेशी, यथार्थवादी और प्रेमपूर्ण भक्ति मार्ग के रूप में आकार दिया, जो आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष के लिए ईश्वर पर पूर्ण आत्मसमर्पण पर केंद्रित था।

रामानुजाचार्य की शिक्षाओं ने समकालीन दार्शनिक विचारों, विशेषकर आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत को कई प्रमुख तरीकों से चुनौती दी और उन्हें प्रभावित किया:

  1. मायावाद का खंडन और यथार्थवादी ज्ञान की स्थापना:

    • रामानुजाचार्य ने आदि शंकराचार्य के इस दावे को चुनौती दी कि जगत मिथ्या (माया) है या एक भ्रम है। रामानुज के अनुसार, माया ईश्वर की अद्भुत रचना शक्ति है, न कि कोई भ्रम। वे मानते थे कि जगत ब्रह्म द्वारा ही निर्मित है, अतः वह मिथ्या नहीं हो सकता।

    • उन्होंने इस दावे पर जोर दिया कि "सभी ज्ञान यथार्थ हैं"। यह दावा सीधे तौर पर अद्वैत के मायावाद का खंडन करता था, क्योंकि रामानुज के लिए अनुभव से प्राप्त कोई भी ज्ञान भ्रम या मिथ्या नहीं है, बल्कि वास्तविकता का एक पहलू है।

    • रामानुज ने शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करने के लिए सात तर्क प्रस्तुत किए, जिन्हें 'सत्तनपुक्की' के नाम से जाना जाता है।

  2. ब्रह्म और जीव के संबंध की भिन्न व्याख्या (विशिष्टाद्वैत):

    • शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन ब्रह्म को निराकार, निर्गुण और अविभाज्य मानता है, जहाँ व्यक्तिगत आत्मा (जीव) अंततः ब्रह्म के समान ही है ("तत् त्वम् असि" का अर्थ 'तुम वही हो', पूर्ण पहचान)।

    • रामानुजाचार्य ने इसके विपरीत विशिष्टाद्वैत वेदांत का प्रतिपादन किया। उनके दर्शन के अनुसार, सत्ता या परमसत् के तीन स्तर हैं: ब्रह्म (ईश्वर), चित् (आत्म तत्व), और अचित् (प्रकृति तत्व)

    • वे मानते थे कि ये चित् और अचित् तत्व ब्रह्म से पृथक नहीं हैं, बल्कि विशेष रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं और उस पर ही आधारित हैं। यह संबंध वैसा ही है जैसे शरीर और आत्मा का होता है—आत्मा शरीर के बिना अधूरी है, और शरीर आत्मा का साधन है।

    • इस प्रकार, रामानुज ने "तत् त्वम् असि" जैसे महावाक्यों की व्याख्या पूर्ण अभेद (पहचान) के बजाय "विशेषण-विशेष्य भाव" के रूप में की। उनके अनुसार, 'तुम' और 'वह' दोनों ब्रह्म को संदर्भित करते हैं, लेकिन 'तुम' उस ब्रह्म को दर्शाता है जिसका शरीर व्यक्तिगत आत्मा है, और 'वह' उस ब्रह्म को दर्शाता है जो संपूर्ण जगत का कारण है। यह दावा किया गया था कि व्यक्तिगत आत्मा और ब्रह्म के बीच अंतर भी है, क्योंकि उन्हें विषय और विधेय के रूप में रखा गया है।

    • रामानुज ने यह भी कहा कि ब्रह्म सगुण है, अर्थात वह अनगिनत कल्याणकारी गुणों से संपन्न है, जो उसे अन्य सभी चीजों से अलग करता है। यह निर्गुण ब्रह्म की अद्वैत अवधारणा के विपरीत था।

    • उन्होंने शंकराचार्य के "एक आत्मा" सिद्धांत का खंडन किया, यह तर्क देते हुए कि जीवों की बहुलता का अस्तित्व है, जो सांसारिक असमानताओं और कर्म के नियम की व्याख्या करता है।

  3. भक्ति मार्ग का सार्वभौमीकरण और सामाजिक सुधारों के माध्यम से प्रभाव:

    • रामानुजाचार्य ने भक्ति को मोक्ष का सर्वोत्तम और सभी के लिए सुलभ साधन बताया। यह दृष्टिकोण केवल ज्ञान या कर्म पर केंद्रित समकालीन दार्शनिक रास्तों को चुनौती देता था, क्योंकि उन्होंने सभी के लिए मोक्ष के मार्ग को खोलने की वकालत की।

    • उन्होंने समाज के पिछड़े वर्गों की पीड़ा और उपेक्षा को महसूस किया। उनके अनुसार, ज्ञान और आध्यात्मिक सम्मान जन्म या जाति से ऊपर थे, और उन्होंने इस विचार को चुनौती दी कि आध्यात्मिक ज्ञान तक पहुँच कुछ वर्गों तक सीमित होनी चाहिए।

    • उन्होंने मंदिरों के द्वार सभी जातियों के लिए खोल दिए, जिससे सामाजिक समरसता और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा मिला। यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसने उस समय की जाति-आधारित धार्मिक प्रथाओं को सीधे चुनौती दी।

  4. शास्त्रों की व्याख्या और व्यवस्थित प्रस्तुति:

    • रामानुज ने उपनिषदों की व्याख्या के लिए एक विशिष्ट दृष्टिकोण विकसित किया, जो ब्रह्म के सर्वशक्तिमान और कल्याणकारी स्वरूप पर जोर देता था। उन्होंने शंकराचार्य के मायावाद के विरुद्ध उपनिषदों के विभिन्न अंशों की अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं, यह दर्शाते हुए कि उनके अनुसार, ग्रंथ जगत की अवास्तविकता का समर्थन नहीं करते।

    • उनके ब्रह्मसूत्र पर 'श्रीभाष्य' और 'वेदार्थ संग्रह' जैसे ग्रंथों ने विशिष्टाद्वैत दर्शन को एक सुव्यवस्थित और तार्किक आधार प्रदान किया। इन कार्यों ने शंकराचार्य के भाष्य की चुनौती के रूप में एक मजबूत विकल्प प्रस्तुत किया।

  5. आधुनिक भक्ति आंदोलन पर प्रभाव:

    • रामानुजाचार्य के दर्शन ने भारत में भक्ति आंदोलन को गहराई से प्रभावित किया। उनके शिष्य परंपरा में विभिन्न पृष्ठभूमि के लोग शामिल थे, जैसे शूद्र जाति के धनुर्दास।

    • उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाया, जिसमें रामानंद भी शामिल थे, जिनके माध्यम से संत कबीर, संत रैदास और सूरदास जैसे संतों ने भक्ति आंदोलन को उत्तर भारत में फैलाया। यह उनके दर्शन के दूरगामी प्रभाव को दर्शाता है, जिसने पूरे भारतीय धार्मिक परिदृश्य को बदल दिया।

संक्षेप में, रामानुजाचार्य की शिक्षाओं ने समकालीन विचारों को चुनौती दी, विशेष रूप से शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के प्रमुख सिद्धांतों (जैसे माया की प्रकृति और ब्रह्म-जीव की पहचान) को, एक समावेशी, यथार्थवादी और प्रेम-केंद्रित भक्ति मार्ग स्थापित करके जिसने भारतीय दर्शन और समाज को गहराई से प्रभावित किया।

रामानुजाचार्य की शिक्षाओं का उनके अनुयायियों और उनके द्वारा स्थापित परंपराओं पर गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ा, जिसने भारतीय दार्शनिक और सामाजिक परिदृश्य को महत्वपूर्ण रूप से चुनौती दी और प्रभावित किया। उनके प्रभाव का आकलन निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं के माध्यम से किया जा सकता है:

1. विशिष्टाद्वैत परंपरा का विस्तार और सुदृढ़ीकरण:

  • दार्शनिक आधार: रामानुजाचार्य ने आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद को बौद्धिक आधार पर कड़ी चुनौती दी और विशिष्टाद्वैत वेदांत का प्रतिपादन किया। उनके दर्शन में, ब्रह्म (ईश्वर), चित् (आत्म तत्व) और अचित् (प्रकृति तत्व) तीनों को नित्य माना गया है। उन्होंने समझाया कि चित् और अचित् तत्व ब्रह्म से पृथक नहीं हैं, बल्कि विशेष रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं और उसी पर आधारित हैं, जैसे शरीर और आत्मा का संबंध होता है। रामानुज ने मायावाद का खंडन किया और कहा कि जगत मिथ्या या भ्रम नहीं है, क्योंकि इसका निर्माण ब्रह्म ने ही किया है। उनके अनुसार, "सभी ज्ञान यथार्थ हैं"

  • ग्रंथों की रचना और भाष्य: गुरु यामुनाचार्य की इच्छा के अनुरूप, रामानुज ने ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधम् पर टीका लिखने का संकल्प लिया था। उनके प्रमुख दार्शनिक कार्य 'श्रीभाष्यम्' (ब्रह्मसूत्र पर भाष्य) और 'वेदार्थ संग्रहम्' विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने विशिष्टाद्वैत दर्शन को सुव्यवस्थित और तार्किक आधार प्रदान किया। उन्होंने 'गीता भाष्य', 'वेदांत दीप', 'वेदांत सार', 'नित्य ग्रन्थ' और 'गद्य त्रयम्' (शरणागति गद्य, श्रीरंगम गद्य, श्री वैकुंठ गद्य) की भी रचना की।

2. गुरु-शिष्य परंपरा और शिक्षाओं का प्रसार:

  • यामुनाचार्य से उत्तराधिकार: रामानुजाचार्य स्वयं आलवार संत यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। यामुनाचार्य ने अपनी मृत्यु से पहले रामानुज को अपने अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए चुना था।

  • अनुयायियों का समूह: रामानुजाचार्य ने अपने जीवनकाल में बड़ी संख्या में शिष्यों को आकर्षित किया, जिन्होंने उनकी शिक्षाओं को आगे बढ़ाया। इनमें धनुर्दास (जिन्हें रामानुज ने ईश्वर के प्रति अधिक सुंदर अनुभव दिखाया और जो बाद में श्री रंगनाथ के अंगरक्षक बने), कनकंबा (धनुर्दास की प्रेमिका, जो उनकी शिष्या बनी और आध्यात्मिक रूप से उत्कृष्ट हुई), गोविंद (जो उनके प्रभाव से पुनः दीक्षित हुए), माधुरा कवि, अल्विन (जो ब्रह्मसूत्र भाष्य लिखने में उनके सहायक थे, और जिन्होंने उनके लिए चोल राजा का सामना भी किया), एंबार (जिन्हें रामानुज ने अपना ही नाम दिया), अनातर्या, वर रंग और पिल्लन (जिन्हें रामानुज ने अपना आध्यात्मिक पुत्र और उत्तराधिकारी बनाया और उन्हें 'भगवद विषय' की रचना का कार्य सौंपा) शामिल थे।

  • 74 मुख्य शिष्य: रामानुजाचार्य ने अपने 74 मुख्य शिष्यों को शंक और चक्र (भगवान विष्णु के प्रतीक) और अपने 'श्री भाष्य' और पिल्लन की 'दिव्य प्रबंध' पर लिखी टीका की प्रतियां दीं, जिससे उनकी शिक्षाएं व्यवस्थित रूप से फैल सकें।

  • मार्गदर्शक उपदेश: रामानुज ने अपने शिष्यों और अनुयायियों के लिए 74 उपदेश दिए, जिनमें गुरु और महान भक्तों की महिमा का स्मरण, आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन, कामुक सुखों से बचना, वैष्णवों का सम्मान, सामाजिक व्यवहार के नियम, और भगवान को भोजन अर्पित करने जैसी बातें शामिल थीं।

  • अंतिम वचन: अपने ब्रह्मलीन होने से पहले, उन्होंने अपने शिष्यों को 10 अंतिम आज्ञाएँ दीं, जिनमें दिव्य इच्छा का स्वीकार करना, सभी कार्यों को भगवान की सेवा के रूप में करना, 'श्री भाष्य' और आलवारों की शिक्षाओं का अध्ययन और प्रचार करना, मंदिरों की देखभाल करना, और भक्ति में लीन रहना शामिल था।

  • मंदिरों का प्रबंधन: वे श्रीरंगम श्री रंगनाथस्वामी मंदिर के मुख्य पुजारी और आध्यात्मिक मार्गदर्शक बने। उन्होंने मंदिर की परंपराओं का पुनरुत्थान किया और वहां दैनिक, पाक्षिक, मासिक और वार्षिक उत्सवों के व्यवस्थित आयोजन का कार्य संभाला। उन्होंने तिरुपति में पूजा पद्धति में सुधार के लिए भी प्रयास किए। उनका पार्थिव शरीर श्रीरंगम मंदिर में "उपदेश मुद्रा" में सुरक्षित रखा गया है, जिस पर चंदन और केसर का लेप लगाया जाता है, जो उनकी शिक्षा परंपरा की निरंतरता का प्रतीक है।

3. सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं पर प्रभाव (भक्ति आंदोलन):

  • भक्ति का सार्वभौमीकरण: रामानुजाचार्य की सबसे बड़ी देन यह थी कि उन्होंने भक्ति को मोक्ष का सर्वोत्तम और सभी के लिए सुलभ साधन बताया। यह केवल पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं, बल्कि ईश्वर की गहन साधना, प्रार्थना और ध्यान था। उन्होंने जाति, वर्ग और लिंग के बंधनों से भक्ति को मुक्त किया।

  • जाति भेदभाव को चुनौती: रामानुज ने समाज के पिछड़े वर्गों की पीड़ा को महसूस किया और ज्ञान और आध्यात्मिक सम्मान को जन्म या जाति से ऊपर माना। उन्होंने मंदिरों के द्वार सभी जातियों, विशेषकर दलितों और निम्नवर्गों, के लिए खोल दिए। उन्होंने स्वयं कथित निम्न कही जाने वाली जातियों के शिष्यों को स्वीकार किया। उन्होंने इस विचार का भी समर्थन किया कि आध्यात्मिक ज्ञान तक पहुँच कुछ वर्गों तक सीमित नहीं होनी चाहिए। यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसने उस समय की जाति-आधारित धार्मिक प्रथाओं को चुनौती दी।

  • सामाजिक समरसता के वाहक: रामानुजाचार्य ने स्वयं शूद्र गुरुओं का शिष्यत्व स्वीकार किया (हालांकि सूत्रों में इस संबंध में भिन्न मत हैं, जैसे कांछी पूर्णा का प्रकरण, जहां रामानुज ने अपनी विनम्रता और जाति से ऊपर भक्ति के सिद्धांत का प्रदर्शन किया, न कि कांछी पूर्णा को अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया) और चांडाल के हाथ से भोजन करने में भी संकोच नहीं किया। स्नान से लौटते समय वे दो ब्राह्मणों और दो चांडालों के कंधों का सहारा लेते थे, यह कहते हुए कि "मन की कलुषता को समाप्त करो" और "जाति नहीं, वरन गुण ही कल्याण का कारण है"। यह उनके समतामूलक दृष्टिकोण को दर्शाता है।

  • भक्ति आंदोलन पर दूरगामी प्रभाव: उनकी शिक्षाओं ने भारत में भक्ति आंदोलन को गहराई से प्रभावित किया। उनके शिष्य परंपरा में विभिन्न पृष्ठभूमि के लोग शामिल थे, जैसे शूद्र जाति के धनुर्दास। उनके परवर्ती शिष्यों में रामानंद भी शामिल थे, जिनके माध्यम से संत कबीर, संत रैदास और सूरदास जैसे संतों ने भक्ति आंदोलन को उत्तर भारत में फैलाया, जिससे एक सामाजिक क्रांति की नींव रखी गई।

4. दार्शनिक विरासत और समकालीन प्रासंगिकता:

  • मायावाद का खंडन: रामानुज ने आदि शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करने के लिए सात तर्क दिए, जिन्हें 'सत्तनपुक्की' के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों, जैसे माया की प्रकृति और ब्रह्म-जीव की पहचान, को चुनौती दी।

  • सगुण ब्रह्म की अवधारणा: उन्होंने ब्रह्म को सगुण तत्व माना, अर्थात वह अनगिनत कल्याणकारी गुणों से संपन्न है, जो उसे अन्य सभी चीजों से अलग करता है। यह निर्गुण ब्रह्म की अद्वैत अवधारणा के विपरीत था और भक्तों को ईश्वर के साथ एक व्यक्तिगत संबंध स्थापित करने में मदद मिली।

  • शास्त्रों की व्याख्या: उन्होंने उपनिषदों की व्याख्या के लिए एक विशिष्ट दृष्टिकोण विकसित किया, जो ब्रह्म के सर्वशक्तिमान और कल्याणकारी स्वरूप पर जोर देता था। उन्होंने शंकराचार्य के मायावाद के विरुद्ध उपनिषदों के विभिन्न अंशों की अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं, यह दर्शाते हुए कि उनके अनुसार, ग्रंथ जगत की अवास्तविकता का समर्थन नहीं करते।

  • शाश्वत प्रासंगिकता: रामानुजाचार्य का दर्शन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितनी वह 11वीं-12वीं शताब्दी में था। उनका विशिष्टाद्वैत और समभाव का दर्शन, विशेषकर समाज में जातिगत, धार्मिक और सामाजिक भेदभावों के संदर्भ में, एक प्रकाशस्तंभ के समान मार्गदर्शन करता है।

संक्षेप में, रामानुजाचार्य की शिक्षाओं ने अपने अनुयायियों के माध्यम से एक सुदृढ़ दार्शनिक परंपरा (विशिष्टाद्वैत) की स्थापना की, भक्ति मार्ग को सार्वभौमिक बनाया, सामाजिक भेदभाव को चुनौती दी, और भारतीय धार्मिक व सामाजिक चेतना को गहराई से प्रभावित करते हुए एक स्थायी विरासत छोड़ी।



मुख्य शब्दों की शब्दावली

  • अचित्: रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत दर्शन में भौतिक पदार्थ या प्रकृति को संदर्भित करता है। यह जड़, अचेतन और परिवर्तनीय है, जिसमें सत्व, रजस और तमस के तीन गुण शामिल हैं।

  • अद्वैतवाद: आदि शंकराचार्य का एक हिंदू दर्शन जो परम सत्य के रूप में एक ही वास्तविकता (ब्रह्म) को मानता है, और जगत को माया या भ्रम मानता है।

  • आलवार संत: 7वीं से 10वीं शताब्दी के दक्षिण भारतीय रहस्यवादी और भक्त कवि, जिन्होंने वैष्णव भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बनाया। रामानुजाचार्य उनकी शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थे।

  • आत्मा: व्यक्तिगत आत्मा या स्व। रामानुजाचार्य के दर्शन में, यह ब्रह्म से अलग है लेकिन उसका एक अंश है और उस पर निर्भर है।

  • कर्म: एक आध्यात्मिक सिद्धांत जो बताता है कि व्यक्ति के कार्य और इरादे भविष्य के अनुभवों को प्रभावित करते हैं। रामानुजाचार्य ने इसे व्यक्ति के जीवन में घटनाओं का कारण माना।

  • चित्: रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत दर्शन में व्यक्तिगत आत्माओं या जीवों को संदर्भित करता है। यह चेतन है और ब्रह्म पर निर्भर है।

  • जीव: व्यक्तिगत आत्मा या आत्मन का दूसरा नाम। रामानुजाचार्य के अनुसार, जीवात्मा तीन प्रकार की होती है: बद्ध, मुक्त और नित्य।

  • ज्ञान: ज्ञान या बोध। रामानुजाचार्य ने ज्ञान को एक पदार्थ (द्रव्य) माना और तर्क दिया कि सभी ज्ञान यथार्थ हैं।

  • नित्य आत्मा: जीवात्माओं का वह प्रकार जो जन्म और मृत्यु के चक्र में प्रवेश नहीं करती है और ईश्वर के साथ वैकुंठ में निरंतर सेवा में लीन रहती है।

  • प्रकृति: अचित् के समान, यह ब्रह्मांड का भौतिक आधार है, जो तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस) से बना है।

  • प्रत्यक्ष: ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन, जो प्रत्यक्ष बोध या धारणा के माध्यम से प्राप्त होता है।

  • प्रपत्ति: ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण का सिद्धांत, जिसे रामानुजाचार्य ने मोक्ष प्राप्त करने का एक सरल और प्रभावी साधन बताया।

  • ब्रह्म: हिंदू दर्शन में सर्वोच्च वास्तविकता या परम सत्य। रामानुजाचार्य के लिए, ब्रह्म सगुण (गुणों सहित) है और जगत का निर्माता, पालक और संहारक है।

  • भक्ति: ईश्वर के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति, सेवा और पूर्ण समर्पण। रामानुजाचार्य ने इसे ईश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग माना।

  • माया: शंकराचार्य के अद्वैतवाद में भ्रम या अवास्तविकता की शक्ति। रामानुजाचार्य के लिए, माया ईश्वर की रचनात्मक शक्ति है जो जगत को उत्पन्न करती है, लेकिन जगत स्वयं वास्तविक है।

  • मोक्ष: जन्म और मृत्यु के चक्र (संसार) से मुक्ति और आध्यात्मिक मुक्ति। रामानुजाचार्य के लिए, इसमें आत्मा का ब्रह्म में विलीन होना शामिल नहीं है, बल्कि उसके सदृश होना और दिव्य आनंद प्राप्त करना है।

  • यमुनाचार्य: रामानुजाचार्य के गुरु, एक प्रमुख वैष्णव संत जिनके कार्यों ने रामानुजाचार्य के दर्शन को बहुत प्रभावित किया।

  • रजस: प्रकृति के तीन गुणों में से एक, जो गतिविधि, जुनून और इच्छा से जुड़ा है।

  • वैष्णव धर्म: हिंदू धर्म की एक शाखा जो भगवान विष्णु को सर्वोच्च ईश्वर के रूप में पूजती है। रामानुजाचार्य इस परंपरा में एक केंद्रीय व्यक्ति थे।

  • विशिष्टाद्वैत: रामानुजाचार्य द्वारा प्रचारित वेदांत का दर्शन। यह एक योग्य अद्वैतवाद है, जो मानता है कि ब्रह्म सर्वोच्च वास्तविकता है, लेकिन चित् (आत्मा) और अचित् (प्रकृति) भी वास्तविक हैं और ब्रह्म के अधीन हैं।

  • विष्णु सहस्रनाम: भगवान विष्णु के एक हजार नामों की एक सूची, जिस पर रामानुजाचार्य ने टीका लिखने का संकल्प लिया था।

  • वेदार्थ संग्रह: रामानुजाचार्य द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ जो उनके विशिष्टाद्वैत दर्शन की व्यवस्थित व्याख्या प्रदान करता है।

  • शब्द: ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन, जो वैध शास्त्रों और विश्वसनीय स्रोतों के माध्यम से प्राप्त होता है।

  • श्रीभाष्यम्: ब्रह्मसूत्र पर रामानुजाचार्य का सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध भाष्य, जो उनके विशिष्टाद्वैत दर्शन की विस्तृत व्याख्या करता है।

  • संसार: जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र, जिससे मोक्ष के माध्यम से मुक्ति मिलती है।

  • सप्तानुपपत्ति: शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करने के लिए रामानुजाचार्य द्वारा दिए गए सात तर्क।

  • सत्व: प्रकृति के तीन गुणों में से एक, जो शुद्धता, अच्छाई, ज्ञान और शांति से जुड़ा है।

  • तमस: प्रकृति के तीन गुणों में से एक, जो जड़ता, अज्ञान, अंधकार और निष्क्रियता से जुड़ा है।