आचार्य निम्बार्क ब्रह्म (ईश्वर), जीव (आत्मा), और अचित् (जड़ पदार्थ) के स्वरूप, उनके संबंध और मोक्ष की अवधारणा पर चर्चा करते हैं। इसके अतिरिक्त, ये पाठ मोक्ष प्राप्त करने के लिए साधना और गुरु की भूमिका पर प्रकाश डालते हैं, तथा निम्बार्क के दार्शनिक मत को रामानुज के विशिष्टाद्वैत मत से तुलना करते हैं। निम्बार्क संप्रदाय के इतिहास, उनके गुरु-परंपरा और पूजा-पद्धति के विवरण भी शामिल हैं।
निम्बार्क संप्रदाय: एक विस्तृत समीक्षा
प्रस्तुत स्रोतों से निम्बार्क संप्रदाय के दर्शन, साधना, और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विस्तृत चित्र उभरता है। यह संप्रदाय भारतीय चिंतन परंपरा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, विशेषकर वेदान्त दर्शन की व्याख्याओं में।
1. संप्रदाय के प्रवर्तक और नामकरण
श्रीमत् निम्बार्काचार्य: निम्बार्क संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य श्रीमत् निम्बार्काचार्य माने जाते हैं। इनके अन्य नाम निम्बादित्य और नियमानंद भी मिलते हैं।
ब्रह्मसूत्रभाष्य: आचार्य निम्बार्क द्वारा रचित ब्रह्मसूत्रभाष्य का नाम "वेदान्तपारिजात सौरभ" है, जो अत्यंत संक्षिप्त है। उनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य द्वारा रचित "वेदान्तकौस्तुभ" इसका अधिक विस्तृत भाष्य है।
सिद्धान्त का नाम: इनके सिद्धान्त को "द्वैताद्वैत" या "भेदाभेद" कहा जाता है।
अन्य नाम: इस संप्रदाय को सन संप्रदाय, सनक संप्रदाय, चतुः-सन संप्रदाय, या हंस संप्रदाय भी कहा जाता है। यह परंपरा ब्रह्मा के मानस पुत्रों, सनक, सनन्दन, सनातन, और सनत्कुमार से संबंधित मानी जाती है।
2. गुरु परंपरा
पौराणिक परंपरा: विष्णुयामल तंत्र के अनुसार, गुरु परंपरा इस प्रकार है: हंस रूपी नारायण के शिष्य सनक, सनन्दन, सनातन, और सनत्कुमार, जिनके शिष्य देवर्षि नारद और नारद के शिष्य श्रीनिम्बार्काचार्य हैं। यह अष्टादशाक्षर मंत्र की परंपरा से जुड़ा है: "नारायणमुखाम्बुजान्मन्त्रस्त्वष्टादशक्षर:। आविर्भूत: कुमारैस्तु गृहीत्वा नारदाय वै ।। उपदिष्ट: स्वशिष्याय निम्बार्काय च तेन तु। एवं परम्पराप्राप्तो मन्त्रस्त्वष्टादशाक्षर:।।" (द्वेताद्वेत वेदान्त सिद्धान्त, पृष्ठ 2)।
निम्बार्क का कथन: स्वयं श्रीनिम्बार्काचार्य ब्रह्मसूत्र (1-1-8) के भाष्य में अपनी गुरु परंपरा का उल्लेख करते हैं: "परमाचार्यै: श्रीकुमारैरस्मद्गुरवे श्रीमन्नारदाय उपदिष्टो भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य इति।" (द्वेताद्वेत वेदान्त सिद्धान्त, पृष्ठ 2)।
3. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
आविर्भाव काल: निम्बार्काचार्य के आविर्भाव काल और जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। अनुयायी उन्हें प्राचीन मानते हैं, जबकि कुछ विद्वान (जैसे रामकृष्ण भंडारकर, राजेंद्रलाल मित्र, डॉ. रमा चौधरी) उन्हें रामानुज, मध्वाचार्य और वल्लभाचार्य के बाद मानते हैं।
प्राचीनता का दावा: जॉर्ज ग्रियर्सन और मोनियर विलियम्स का मानना है कि निम्बार्क संप्रदाय वैष्णव संप्रदायों में प्राचीनतम है। डॉ. अमरप्रसाद भट्टाचार्य के अनुसार, निम्बार्काचार्य और उनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के बाद और अद्वैताचार्य शंकराचार्य के पूर्व (ईस्वी 6वीं और 7वीं सदी के बीच) हुए थे।
जन्म और माता-पिता: संप्रदाय के अनुसार, श्रीनिम्बार्काचार्य भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार थे। उनकी माता का नाम जयंती और पिता का नाम अरुण ऋषि था।
जन्मस्थान: जन्मस्थान के संबंध में भी मतभेद है। वेदान्तरत्नमंजूषा के अनुसार, उनका जन्म आंध्र या तैलिंग देश में गोदावरी नदी के तट पर सुदर्शन आश्रम या अरुण आश्रम में हुआ था। आचार्यचरित ग्रंथ के अनुसार, यमुना नदी के किनारे वृंदावन में, और औदुंबर संहिता के अनुसार गोवर्धन के निकट निम्बग्राम में हुआ था। हालांकि, आंध्र प्रदेश में जन्म का मत अधिक मान्य है।
4. द्वैताद्वैत वेदान्त के मूल सिद्धान्त
निम्बार्क का सिद्धान्त एक प्रकार का "भेदाभेदवाद" है, जो रामानुज के सिद्धान्तों से कई विषयों पर समानता रखता है। यह संप्रदाय त्रित्ववादी है, जिसमें तीन तत्वों की चर्चा है: ब्रह्म, चित् (जीव), और अचित् (जड़)।
4.1. ब्रह्म
ब्रह्म का स्वरूप: निम्बार्क के सिद्धान्त में ब्रह्म को "कृष्ण" नाम से उल्लिखित किया गया है।
भेद-रहित, फिर भी स्वगत भेदवान: ब्रह्म सजातीय और विजातीय भेद से रहित होने पर भी स्वगत भेदवान है, जिसका अर्थ है कि जीव और जगत् उसके स्वगत भेद हैं।
सविशेष और सगुण: ब्रह्म निर्विशेष नहीं, बल्कि सविशेष है; वह निर्गुण नहीं, बल्कि सगुण है। वह भीषण (सर्वशक्तिमत्व, शासकत्व) और मधुर (सौंदर्य, आनंद, करुणा) दोनों गुणों का आधार है।
सृष्टि का कारण: ब्रह्म निष्क्रिय नहीं है; वह जगत् का स्रष्टा, पालक, और संहारक है। वह जगत् का निमित्त कारण और उपादान कारण दोनों है, इसलिए सारा जीव-जगत् उसी का परिणाम है। इन सभी सिद्धान्तों में निम्बार्क मत रामानुज मत के अनुरूप है।
4.2. चित् (जीव)
जीव का स्वरूप: चित् का अर्थ चेतन पदार्थ, अर्थात् जीव है। जीव ज्ञानस्वरूप और ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता, अणुपरिणाम, संख्या में अनेक, अनंत होते हैं, और प्रकार भेद से बद्ध और मुक्त दोनों हो सकते हैं।
4.3. अचित् (जड़)
अचित् के प्रकार: निम्बार्क के मतानुसार अचित् या जड़ तीन प्रकार के होते हैं: प्राकृत, अप्राकृत, और काल।
प्राकृत: प्रकृति से महदादि क्रम से संसार की सृष्टि होती है। प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण दृश्यमान संसार प्राकृत कहलाता है।
अप्राकृत: यह एक प्रकार का शुद्धतत्त्व है। यह ब्रह्म तथा मुक्तात्माओं के दिव्य शरीरों और ब्रह्मलोक में पाए जाने वाले द्रव्यों का उपादान कारण है।
काल: काल अचित् होने पर भी अंशविहीन, विभु (सर्वव्यापी), अपरिणामी (विभाजित नहीं किया जा सकता), और अविनाशी है।
रामानुज से समानता: यहां तक निम्बार्क और रामानुज मत में विशेष भिन्नता नहीं है।
4.4. ब्रह्म और जीव-जगत् का संबंध: स्वाभाविक भेदाभेदवाद
भिन्नाभिन्न संबंध: निम्बार्क के अनुसार ब्रह्म और जीव-जगत् स्वरूप में "भिन्नाभिन्न" हैं, अर्थात् भिन्न भी हैं और अभिन्न भी।
कारण-कार्य संबंध: ब्रह्म कारण है, जीव-जगत् कार्य; ब्रह्म शक्तिमान है, जीव-जगत् शक्ति; ब्रह्म अंशी है, जीव-जगत् अंश। ये परस्पर अभिन्न भी हैं और भिन्न भी।
उदाहरण: मिट्टी और घड़े का उदाहरण दिया गया है। घट मिट्टी से बना है, इसलिए उपादान की दृष्टि से अभिन्न है, लेकिन घट का एक भिन्न स्वरूप है जो मिट्टी में नहीं है, इसलिए भिन्न भी है।
ब्रह्मत्व, जीवत्व, जगत्त्व की भिन्नता: ब्रह्म का ब्रह्मत्व, जीव का जीवत्व, और जगत् का जगत्त्व परस्पर भिन्न हैं। ब्रह्म जीव या जगत् नहीं है।
धर्म से भिन्नता और अभिन्नता: जीव और जगत् ब्रह्म की तरह सत्य और नित्य हैं। जीव ब्रह्म की तरह चेतन और आनंदमय है। हालांकि, ब्रह्म के सभी गुण जीव या जगत् में नहीं होते। जीव सृष्टिकर्ता नहीं होता, उसमें विभुत्व (सर्वव्यापित्व) या अविनाशित्व नहीं होता। जीवों के अनेक गुण (जैसे अणुत्व, सकाम कर्म, फलभोग) और जगत् का जड़त्व ब्रह्म में नहीं होते।
स्वाभाविक भेदाभेदवाद: इस दर्शन के अनुसार, भेद और अभेद, भिन्नता और अभिन्नता, समान रूप से सत्य, नित्य, स्वाभाविक और अविरुद्ध हैं। यही निम्बार्क के सिद्धान्त को "स्वाभाविक भेदाभेदवाद" बनाता है।
रामानुज से अंतर: रामानुज के विशिष्टाद्वैत में भेद और अभेद दोनों सत्य होते हुए भी अभेद को अधिक सत्य माना जाता है, जबकि निम्बार्क में दोनों को समान रूप से सत्य माना जाता है।
5. मुक्ति या मोक्ष
मोक्ष के दो अंग: निम्बार्क के सिद्धान्त के अनुसार, मुक्ति या मोक्ष के दो अंग हैं: ब्रह्मस्वरूप लाभ और आत्मस्वरूप लाभ।
कर्मों का नाश: मुमुक्षु (मुक्ति की इच्छा रखने वाले) की साधना और ब्रह्म की कृपा से प्रारब्ध कर्म को छोड़कर अन्य सभी कर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध कर्म के फल नष्ट नहीं होते, जब तक शरीर रहता है मुमुक्षु संसार में रहता है।
ब्रह्मलोक गमन: शरीर त्यागने के बाद वह देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक पहुँचते हैं और ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं। निम्बार्क जीवनमुक्ति स्वीकार नहीं करते हैं।
ब्रह्मसायुज्य लाभ: ब्रह्मस्वरूप लाभ का अर्थ ब्रह्म से एक या अभिन्न हो जाना नहीं, बल्कि ब्रह्मसायुज्य लाभ है, अर्थात् स्वरूपतः और धर्मतः ब्रह्म के सदृश होना।
आत्मस्वरूप का विकास: मुक्ति में जीवत्व का संपूर्ण विकास होता है। जीव आत्मस्वरूप का विनाश नहीं होता, बल्कि उसके यथार्थ स्वरूप और गुणों का चरम उत्कर्ष होता है।
मुक्ति में जीव के गुण: मुक्ति की अवस्था में जीव ब्रह्म की तरह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, और आनंदमय होता है। वह ब्रह्म की तरह शुद्ध चेतन स्वरूप और कल्याण गुणों से युक्त होता है।
ब्रह्म से भेद: ब्रह्म से एकमात्र भेद यह रहता है कि मुक्त जीव ब्रह्म की तरह विभु (सर्वव्यापी) नहीं होता और सृष्टि की शक्ति नहीं रखता। मुक्त जीव भी अणु, सृष्टिशक्ति हीन, और ब्रह्म के अधीन रहता है।
6. साधना
निष्काम कर्म: निम्बार्क निष्काम कर्म पर बहुत अधिक महत्व देते हैं। शास्त्र के अनुसार वर्णाश्रम धर्म के पालन से चित्त की शुद्धि होती है, जो ज्ञान की उत्पत्ति का कारण बनती है।
चार साधन: निम्बार्क चार साधनों का उल्लेख करते हैं: ज्ञान, भक्ति, ध्यान, प्रपत्ति और गुरुपसत्ति।
ज्ञान: ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान मुक्ति का उपाय है। ज्ञान के लिए संन्यास अनिवार्य नहीं है, सदाचारी गृहस्थ भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
भक्ति और ध्यान: ज्ञान की तरह ध्यान भी सीधे मोक्ष का उपाय है। गंभीर भगवत्प्रीति ही भक्ति है, जो परा और अपरा दो प्रकार की होती है। निम्बार्क और रामानुज की भक्ति में विशेष मतभेद नहीं है, सिवाय इसके कि रामानुज की भक्ति श्रद्धामूलक (ऐश्वर्यप्रधान) और निम्बार्क की भक्ति प्रीतिमूलक (माधुर्यप्रधान) है।
प्रपत्ति: ब्रह्म के प्रति संपूर्ण आत्मसमर्पण को प्रपत्ति कहते हैं।
गुरुपसत्ति: गुरु के प्रति आत्मसमर्पण को गुरुपसत्ति कहते हैं। यदि मुमुक्षु गुरु के प्रति आत्मसमर्पण करता है, तो गुरु ही शिष्य को ब्रह्म के पास पहुँचाते हैं। गुरुपसत्ति सीधे मुक्ति का उपाय है।
साधना के अधिकारी: ज्ञान और ध्यान के लिए उच्च वर्ण के साधक ही अधिकारी हैं, लेकिन प्रपत्ति और गुरुपसत्ति के लिए सभी वर्ण अधिकारी हैं।
उपास्य देव: इस संप्रदाय के अनुसार श्रीकृष्ण और श्रीराधाकृष्ण उपास्य हैं।
7. संप्रदाय का धार्मिक तत्व
उपास्य-उपासक संबंध: निम्बार्क संप्रदाय का धर्मतत्त्व ब्रह्म और जीव, अर्थात् उपास्य और उपासक के भेद या भिन्नता पर आधारित है। यह उपास्य-उपासक संबंध नित्य है, क्योंकि जीव मुक्त होने पर भी ब्रह्म से भिन्न और ब्रह्म का उपासक रहता है।
भावुकता प्रधान: यह मतवाद अधिकार धर्ममूलक और भावुकता प्रधान है, यद्यपि इसमें दार्शनिक चर्चा की कमी नहीं है। यह रामानुज मत की तरह उतना दर्शनमूलक और विचारबहुल नहीं है।
द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय
१. द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय क्या है और इसके संस्थापक कौन हैं?
द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण वैष्णव संप्रदाय है। इसके प्रवर्तक आचार्य श्री निम्बार्काचार्य माने जाते हैं, जिनके अन्य नाम निम्बादित्य और नियमानन्द भी मिलते हैं। यह संप्रदाय 'द्वैताद्वैत' या 'भेदाभेद' सिद्धांत का प्रतिपादन करता है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म, जीव और जगत स्वरूपतः भिन्न भी हैं और अभिन्न भी।
२. निम्बार्क संप्रदाय की गुरु परंपरा क्या है?
निम्बार्क संप्रदाय को सन संप्रदाय, सनक संप्रदाय, चतु:सन संप्रदाय या हंस संप्रदाय जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है। परंपरा के अनुसार, ब्रह्मा के मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार इस संप्रदाय के मूल आचार्य हैं। यह भी कहा जाता है कि स्वयं भगवान नारायण ने हंस का रूप धारण कर इन चार ऋषियों को तत्व का उपदेश दिया था। विष्णुयामल तंत्र के अनुसार, गुरु परंपरा इस प्रकार है: हंस रूपी नारायण के शिष्य सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार; उनके शिष्य देवर्षि नारद; और नारद के शिष्य श्री निम्बार्काचार्य।
३. निम्बार्काचार्य का काल और जन्मस्थान क्या है?
ऐतिहासिक दृष्टि से निम्बार्काचार्य के आविर्भाव काल और जन्मस्थान के विषय में निश्चित जानकारी का अभाव है। उनके अनुयायी उन्हें बहुत प्राचीन मानते हैं। हालांकि, रामकृष्ण भंडारकर और डॉ. रमा चौधरी जैसे विद्वान उन्हें रामानुज, मध्वाचार्य और वल्लभाचार्य के बाद मानते हैं। इसके विपरीत, जॉर्ज ग्रियर्सन और मोनियर विलियम्स का मत है कि वैष्णव संप्रदायों में निम्बार्क संप्रदाय सबसे प्राचीन है। डॉ. अमरप्रसाद भट्टाचार्य का मानना है कि श्री निम्बार्काचार्य और उनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के बाद और अद्वैताचार्य भगवान शंकराचार्य से पहले, यानी ईस्वी छठी और सातवीं शताब्दी के बीच प्रकट हुए थे। उनके जन्मस्थान को लेकर भी मतभेद हैं; कुछ ग्रंथों में आंध्र या तैलिंग देश में गोदावरी नदी के तट पर उनके जन्म का उल्लेख है, जबकि अन्य उन्हें वृंदावन या गोवर्धन के निकट निम्बग्राम का निवासी बताते हैं। कार्तिक पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ था।
४. द्वैताद्वैत सिद्धांत के अनुसार ब्रह्म का स्वरूप क्या है?
निम्बार्क के सिद्धांत में ब्रह्म को 'कृष्ण' नाम से उल्लिखित किया गया है। इस मत में, ब्रह्म सजातीय और विजातीय भेदों से रहित होने पर भी स्वगत भेद वाला है, अर्थात जीव और जगत उसके स्वगत भेद हैं। इसलिए, ब्रह्म निर्विशेष नहीं बल्कि सविशेष है, निर्गुण नहीं बल्कि सगुण है। वह भीषण और मधुर दोनों गुणों का आधार है। सर्वशक्तिमत्ता और शासकत्व उसके भीषण गुण हैं, जबकि सौंदर्य, आनंद और करुणा उसके मधुर गुण हैं। ब्रह्म निष्क्रिय नहीं है, क्योंकि वह जगत का सृष्टा, पालक और संहारक है। वह जगत का निमित्त कारण और उपादान कारण दोनों है, इसलिए सारा जीव और जगत उसी का परिणाम है। इन सभी सिद्धांतों में निम्बार्क का मत रामानुज के मत के समान है।
५. चित् (जीव) और अचित् (जड़) क्या हैं?
'चित्' का अर्थ चेतन पदार्थ, यानी जीव है। जीवों को ज्ञानस्वरूप, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता, अणुपरिणाम, संख्या में अनेक, अनंत, और प्रकार भेद से बद्ध एवं मुक्त दोनों के रूप में वर्णित किया गया है। निम्बार्क के मतानुसार, 'अचित्' या जड़ पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं: प्राकृत, अप्राकृत और काल। प्रकृति से महदादि क्रम से संसार की सृष्टि होती है। अप्राकृत अचित् एक शुद्ध तत्व है, जो ब्रह्म और मुक्तात्माओं के दिव्य शरीरों तथा ब्रह्मलोक में पाए जाने वाले द्रव्यों का उपादान कारण है। काल अचित् होते हुए भी अंशविहीन, विभु (सर्वव्यापी), अपरिणामी और अविनाशी है। इन विषयों में भी निम्बार्क और रामानुज के मतों में विशेष भिन्नता नहीं है।
६. ब्रह्म और जीव-जगत के बीच संबंध को द्वैताद्वैत दर्शन कैसे समझाता है?
निम्बार्क के अनुसार, ब्रह्म और जीव-जगत स्वरूप में भिन्नाभिन्न हैं, जिसका अर्थ है कि वे भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। ब्रह्म कारण है जबकि जीव-जगत उसका कार्य है; ब्रह्म शक्तिमान है और जीव-जगत उसकी शक्ति है; ब्रह्म अंशी है और जीव-जगत उसका अंश है। उदाहरण के लिए, मिट्टी और उससे बना घड़ा उपादान की दृष्टि से अभिन्न (एक) हैं, लेकिन घड़े का एक भिन्न स्वरूप है जो मिट्टी में नहीं है। इसी प्रकार, ब्रह्म और जीव-जगत स्वरूप और धर्म से भिन्नाभिन्न हैं। ब्रह्म कारण और जीव-जगत उसका कार्य होने से, वे कार्य-कारण रूप में अभिन्न हैं। फिर भी, ब्रह्म का ब्रह्मत्व, जीव का जीवत्व और जगत का जगत्त्व परस्पर भिन्न हैं। ब्रह्म, जीव या जगत नहीं है। जीव और जगत ब्रह्म की तरह सत्य और नित्य हैं, और जीव ब्रह्म की तरह चेतन और आनंदमय है। हालांकि, ब्रह्म के सभी गुण जीव या जगत में नहीं होते। जीव सृष्टिकर्ता नहीं होते, उनमें विभुत्व (सर्वव्यापित्व) या अविनाशित्व नहीं होता। जीवों के अनेक गुण जैसे अणुत्व (क्षुद्रत्व), सकाम कर्म, फलभोग और जगत का जड़त्व ब्रह्म में नहीं होते। इसलिए, ब्रह्म और जीव-जगत परस्पर भिन्न भी हैं। इस दर्शन के अनुसार, भेद और अभेद, भिन्नता और अभिन्नता, समान रूप से सत्य, नित्य, स्वाभाविक और अविरुद्ध हैं, इसलिए इसे स्वाभाविक भेदाभेदवाद कहा जाता है।
७. निम्बार्क दर्शन के अनुसार मुक्ति या मोक्ष क्या है?
निम्बार्क के सिद्धांत के अनुसार, मुक्ति या मोक्ष के दो अंग हैं: ब्रह्मस्वरूप लाभ और आत्मस्वरूप लाभ। जब मुमुक्षु (मुक्ति की इच्छा रखने वाले) अपनी साधना से अधिकारी बनते हैं, तो ब्रह्म की कृपा से उनके प्रारब्ध कर्मों को छोड़कर अन्य सभी कर्मों के फल पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं। शरीरपात होने के उपरांत, वे देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक पहुँचते हैं और ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं। निम्बार्क जीवन्मुक्ति (जीवित रहते हुए मुक्ति) को स्वीकार नहीं करते। ब्रह्मस्वरूप लाभ का अर्थ ब्रह्म के साथ एक या अभिन्न हो जाना नहीं है, बल्कि ब्रह्मसायुज्य लाभ, अर्थात स्वरूप और धर्म से ब्रह्म के सदृश होना है। मुक्ति में ही जीवत्व का संपूर्ण विकास होता है, और आत्मा के यथार्थ स्वरूप एवं गुणों का चरम उत्कर्ष होता है। मुक्त अवस्था में जीव ब्रह्म के तुल्य होता है, लेकिन स्वयं ब्रह्म नहीं। मुक्त जीव सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और आनंदमय होता है, परंतु ब्रह्म की तरह विभु (सर्वव्यापी) नहीं होता और सृष्टि की शक्ति नहीं रखता। मुक्त जीव भी अणु, सृष्टिशक्तिहीन और ब्रह्म के अधीन रहते हैं।
८. निम्बार्क संप्रदाय में साधना के प्रमुख साधन क्या हैं?
साधना पक्ष में निम्बार्क निष्काम कर्म को अत्यधिक महत्व देते हैं। शास्त्रों के अनुसार वर्णाश्रम धर्म के ठीक-ठीक पालन से चित्त की शुद्धि होती है, जो ज्ञान की उत्पत्ति का कारण बनती है। निम्बार्क चार साधनों का उल्लेख करते हैं: ज्ञान, भक्ति, प्रपत्ति और गुरुपसत्ति।
ज्ञान: ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान मुक्ति का उपाय है। इसके लिए संन्यास अनिवार्य नहीं है, सदाचारी गृहस्थ भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
भक्ति और ध्यान: गंभीर भगवत्प्रीति ही भक्ति है, जो परा (ज्ञानमूलक) और अपरा (कर्ममूलक) दो प्रकार की होती है। भक्ति साक्षात् रूप से मोक्ष का उपाय है। निम्बार्क की भक्ति प्रीतिमूलक (माधुर्यप्रधान) है, जबकि रामानुज की भक्ति श्रद्धामूलक (ऐश्वर्यप्रधान) है।
प्रपत्ति: ब्रह्म के प्रति संपूर्ण आत्मसमर्पण को प्रपत्ति कहते हैं।
गुरुपसत्ति: गुरु के प्रति आत्मसमर्पण को गुरुपसत्ति कहते हैं। यदि मुमुक्षु गुरु के प्रति आत्मसमर्पण करते हैं, तो गुरु ही शिष्य को ब्रह्म के पास पहुँचाते हैं। गुरुपसत्ति सीधे मुक्ति का उपाय है। ज्ञान और ध्यान के लिए उच्च वर्ण के साधक ही अधिकारी हैं, जबकि प्रपत्ति और गुरुपसत्ति के लिए सभी वर्ण के लोग अधिकारी हैं।
निम्बार्क संप्रदाय का धर्मतत्त्व ब्रह्म और जीव (उपास्य और उपासक) के भेद या भिन्नता पर आधारित है, और यह उपास्य-उपासक संबंध नित्य है। इस संप्रदाय में श्रीकृष्ण और श्रीराधा उपास्य हैं।
द्वैताद्वैत वेदान्त सिद्धांत: एक विस्तृत अध्ययन मार्गदर्शिका
यह अध्ययन मार्गदर्शिका सत्कारि मुखोपाध्याय के "द्वैताद्वैत वेदान्त सिद्धांत" और संबंधित ग्रंथों से निम्बार्क संप्रदाय और उसके दार्शनिक सिद्धांतों की आपकी समझ की समीक्षा करने के लिए डिज़ाइन की गई है।
मुख्य अवधारणाएँ और सिद्धांत:
वेदांत दर्शन: भारतीय चिंतन और जीवन को नियंत्रित करने वाला एक उच्च कोटि का और जीवंत जीवन-दर्शन। यह कई धार्मिक और दार्शनिक संप्रदायों को पुष्ट और प्रतिष्ठित करता है।
द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय: यह संप्रदाय भेदाभेदवाद के एक रूप के रूप में निम्बार्काचार्य द्वारा प्रवर्तित किया गया है, जो भेद (भिन्नता) और अभेद (अभिन्नता) दोनों को समान रूप से सत्य, नित्य, स्वाभाविक और अविरुद्ध मानता है।
श्रीमत् निम्बार्काचार्य: द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य। उनके अन्य नाम निम्बादित्य और नियमानंद भी हैं। उन्होंने "वेदांतपारिजात सौरभ" नामक ब्रह्मसूत्र भाष्य की रचना की।
श्रीनिवासाचार्य: निम्बार्काचार्य के शिष्य जिन्होंने "वेदांतकौस्तुभ" नामक विस्तृत भाष्य की रचना की, जो निम्बार्क दर्शन का एक पूरा चित्र प्रस्तुत करता है।
निम्बाकाचार्य का काल और जन्म स्थान: ऐतिहासिक दृष्टि से निश्चित जानकारी का अभाव है। कुछ विद्वान उन्हें रामानुज, मध्वाचार्य और वल्लभाचार्य के बाद मानते हैं, जबकि जॉर्ज ग्रियरसन और मोनियर विलियम्स इसे प्राचीनतम वैष्णव संप्रदायों में से एक मानते हैं। डॉ. अमरप्रसाद भट्टाचार्य का मत है कि वे शंकराचार्य से पूर्व (ईस्वी छठी और सातवीं शताब्दी के बीच) अवतीर्ण हुए थे। उनका जन्म आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर स्थित सुदर्शनआश्रम या अरुणआश्रम में माना जाता है।
सम्प्रदाय के अन्य नाम: सन संप्रदाय, सनक संप्रदाय, चतु:-सन संप्रदाय, या हंस संप्रदाय।
गुरुपरंपरा: इस संप्रदाय की गुरुपरंपरा विष्णुयामल तंत्र में वर्णित है: नारायण (हंस रूपी) से सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, उनके शिष्य देवर्षि नारद, और नारद के शिष्य निम्बार्काचार्य।
उपास्य देव: श्रीकृष्ण और श्रीराधा इस संप्रदाय के उपास्य हैं।
मूल सिद्धांत (त्रित्ववादी मत):
ब्रह्म (कृष्ण): सजातीय और विजातीय भेद से रहित, लेकिन स्वगत भेदवान् (जीव और जगत् उसका स्वगत भेद हैं)। वह सविशेष, सगुण (भीषण और मधुर गुणों का आधार), सक्रिय (जगत् का स्रष्टा, पालक, संहारक), निमित्त कारण और उपादान कारण है।
चित् (जीव): चेतन पदार्थ। जीव ज्ञानस्वरूप, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता, अणुपरिणाम, संख्या में अनेक, अनंत और प्रकार भेद से बद्ध एवं मुक्त दोनों हो सकते हैं।
अचित् (जड़) तीन प्रकार के होते हैं - प्राकृत, अप्राकृत और काल।
प्राकृत: प्रकृति से उत्पन्न संसार (महदादि)।
अप्राकृत: शुद्धतत्त्व, ब्रह्म तथा मुक्तात्माओं के दिव्य शरीरों और ब्रह्मलोक के द्रव्यों का उपादान कारण।
काल: अंशविहीन, विभु (सर्वव्यापी), अपरिणामी और अविनाशी।
ब्रह्म और जीव-जगत् का संबंध (स्वभाविक भेदाभेदवाद):
ब्रह्म एवं जीव-जगत् स्वरूप में भिन्नाभिन्न हैं (भिन्न भी और अभिन्न भी)।
ब्रह्म कारण है, जीव-जगत् कार्य; ब्रह्म शक्तिमान् है, जीव-जगत् शक्ति; ब्रह्म अंशी है, जीव-जगत् अंशमात्र है।
अभिन्नता: कार्यकारण रूप में, स्वरूप में ब्रह्म और जीव-जगत् अभिन्न हैं (जैसे मिट्टी और घड़ा)।
भिन्नता: ब्रह्म का ब्रह्मत्व, जीव का जीवत्व और जगत् का जगत्त्व परस्पर भिन्न हैं। ब्रह्म जीव या जगत् नहीं है।
धर्म से भिन्नता और अभिन्नता: जीव और जगत् ब्रह्म की तरह सत्य और नित्य हैं। जीव ब्रह्म की तरह चेतन और आनंदमय है। हालांकि, जीव सृष्टि कर्ता नहीं होते, उनमें विभुत्व (सर्वव्यापित्व) या अविनाशित्व नहीं होता। जीवों के अणुत्व, सकाम कर्म, फलभोग और जगत् के जड़त्व ब्रह्म में नहीं होते।
मुक्ति या मोक्ष:
दो अंग: ब्रह्मस्वरूप लाभ और आत्मस्वरूप लाभ।
मुक्ति पाने के इच्छुक व्यक्ति (मुमुक्षु) की साधना से ब्रह्म की कृपा से प्रारब्ध कर्म को छोड़कर अन्य सभी कर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं।
शरीरपात के उपरान्त, वे देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक पहुँचते हैं और ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं। निम्बार्क जीवन्मुक्ति स्वीकार नहीं करते।
ब्रह्मस्वरूप लाभ: ब्रह्म के साथ एक या अभिन्न हो जाना नहीं, बल्कि ब्रह्मसायुज्य लाभ अर्थात् स्वरूपतः एवं धर्मतः ब्रह्म के सदृश होना।
आत्मस्वरूप लाभ: मुक्ति में जीवत्व का संपूर्ण विकास होता है, आत्मा का विनाश नहीं होता, बल्कि उसके यथार्थ स्वरूप और गुणों का चरम उत्कर्ष होता है। मुक्त जीव ब्रह्म के तुल्य होते हैं, स्वयं ब्रह्म नहीं।
मुक्त जीव ब्रह्म की तरह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और आनंदमय होता है, शुद्ध चेतन स्वरूप और कल्याण गुणों से युक्त होता है। अंतर यह है कि वह ब्रह्म की तरह विभु (सर्वव्यापी) और सृष्टिकर्ता नहीं होता। मुक्त जीव अणु, सृष्टिशक्ति हीन और ब्रह्म के अधीन रहता है।
साधना:
निष्काम कर्म: शास्त्रों के अनुसार वर्णाश्रम धर्म का पालन चित्त शुद्धि और ज्ञान की उत्पत्ति का कारण बनता है।
चार साधन: ज्ञान, भक्ति, ध्यान, प्रपत्ति और गुरुपसत्ति।
ज्ञान: ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान मुक्ति का उपाय है। संन्यास अनिवार्य नहीं, गृहस्थ भी ज्ञान लाभ कर सकता है।
भक्ति: गंभीर भगवत्प्रीति। यह परा (ज्ञानमूलक) और अपरा (कर्ममूलक) दो प्रकार की है। निम्बार्क की भक्ति प्रीतिमूलक (माधुर्यप्रधान) है, जबकि रामानुज की श्रद्धामूलक (ऐश्वर्यप्रधान) है।
ध्यान: साक्षात् रूप से मोक्ष का उपाय।
प्रपत्ति: ब्रह्म के प्रति संपूर्ण आत्मसमर्पण।
गुरुपसत्ति: गुरु के प्रति आत्मसमर्पण। गुरु शिष्य को ब्रह्म तक पहुँचाते हैं। यह साक्षात् मुक्ति का उपाय है।
ज्ञान और ध्यान के लिए उच्च वर्ण के साधक अधिकारी हैं, जबकि प्रपत्ति और गुरुपसत्ति के लिए सभी वर्ण अधिकारी हैं।
धर्मतत्त्व: निम्बार्क संप्रदाय का धर्मतत्त्व ब्रह्म और जीव के भेद या भिन्नता पर आधारित है। उपास्य-उपासक संबंध नित्य है, क्योंकि मुक्त होने पर भी जीव ब्रह्म से भिन्न और ब्रह्म का उपासक रहता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कौन माने जाते हैं? उनके द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र भाष्य का क्या नाम है?
निम्बाकाचार्य द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत को और किस नाम से जाना जाता है? इस नाम का क्या अर्थ है?
निम्बाकाचार्य के मत में ब्रह्म के कौन-से दो मुख्य गुण बताए गए हैं? जगत् की सृष्टि और संहार के संदर्भ में ब्रह्म की क्या भूमिका है?
जीव के स्वरूप के बारे में निम्बार्क का क्या मत है? वे मुक्त और बद्ध जीवों के बीच क्या अंतर करते हैं?
अचित् को निम्बार्क ने कितने प्रकार का बताया है? प्रत्येक प्रकार का संक्षेप में वर्णन करें।
ब्रह्म और जीव-जगत् के बीच "भिन्नाभिन्न" संबंध का क्या अर्थ है? इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करें।
रामानुज के विशिष्टाद्वैत मत से निम्बार्क के स्वाभाविक भेदाभेदवाद का मुख्य अंतर क्या है?
निम्बाकाचार्य के अनुसार मुक्ति या मोक्ष के दो मुख्य अंग कौन-कौन से हैं? क्या निम्बार्क जीवन्मुक्ति को स्वीकार करते हैं?
मुक्ति की अवस्था में जीव की स्थिति का वर्णन करें। मुक्त जीव में कौन-से गुण ब्रह्म के समान होते हैं और कौन-से नहीं?
निम्बार्क संप्रदाय में साधना के चार प्रमुख साधन कौन-कौन से हैं? इनमें से कौन से साधन सभी वर्णों के लिए उपलब्ध हैं?
उत्तर कुंजी
द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य श्रीमत् निम्बार्काचार्य माने जाते हैं। उनके द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र भाष्य का नाम "वेदांतपारिजात सौरभ" है।
निम्बाकाचार्य द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत को भेदाभेद भी कहा जाता है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म और जीव-जगत् दोनों भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं, और यह भेद-अभेद का संबंध स्वाभाविक, नित्य और अविरुद्ध है।
निम्बार्क के मत में ब्रह्म के भीषण (जैसे सर्वशक्तिमत्त्व, शासकत्व) और मधुर (जैसे सौंदर्य, आनंद, करुणा) दोनों गुण बताए गए हैं। वह जगत् का स्त्रष्टा, पालक एवं संहारक होने के कारण इसका निमित्त कारण और उपादान कारण भी है।
जीव ज्ञानस्वरूप और ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता, अणुपरिणामी और संख्या में अनेक हैं। निम्बार्क के अनुसार, जीव प्रकार भेद से बद्ध और मुक्त दोनों हो सकते हैं, जिसका अर्थ है कि वे अपनी कर्मफल के आधार पर संसार में फंसे हो सकते हैं या मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
अचित् को निम्बार्क ने तीन प्रकार का बताया है: प्राकृत, अप्राकृत और काल। प्राकृत प्रकृति से उत्पन्न संसार है, अप्राकृत ब्रह्म और मुक्तात्माओं के दिव्य शरीरों का उपादान कारण है, और काल अंशविहीन, सर्वव्यापी तथा अविनाशी है।
"भिन्नाभिन्न" संबंध का अर्थ है कि ब्रह्म और जीव-जगत् एक साथ भिन्न और अभिन्न दोनों हैं। उदाहरण के लिए, मिट्टी और घड़ा उपादान की दृष्टि से अभिन्न हैं क्योंकि घड़ा मिट्टी से बनता है, लेकिन घड़े की एक भिन्न आकृति और कार्य होता है जो मिट्टी में नहीं होता, जिससे वे भिन्न भी होते हैं।
रामानुज के विशिष्टाद्वैत मत से निम्बार्क के स्वाभाविक भेदाभेदवाद का मुख्य अंतर यह है कि रामानुज के अनुसार, भेद और अभेद दोनों सत्य होने पर भी अभेद को भेद से अधिक सत्य माना जाता है, जबकि निम्बार्क दोनों को समान रूप से सत्य, नित्य और स्वाभाविक मानते हैं।
निम्बाकाचार्य के अनुसार मुक्ति या मोक्ष के दो मुख्य अंग ब्रह्मस्वरूप लाभ और आत्मस्वरूप लाभ हैं। निम्बार्क जीवन्मुक्ति को स्वीकार नहीं करते, उनका मानना है कि मुक्ति शरीरपात के उपरान्त ही प्राप्त होती है।
मुक्ति की अवस्था में जीव ब्रह्म की तरह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और आनंदमय होता है, तथा शुद्ध चेतन स्वरूप और कल्याण गुणों से युक्त होता है। हालांकि, वह ब्रह्म की तरह विभु (सर्वव्यापी) नहीं होता और सृष्टिशक्ति नहीं रखता, बल्कि अणु और ब्रह्म के अधीन रहता है।
निम्बार्क संप्रदाय में साधना के चार प्रमुख साधन ज्ञान, भक्ति, ध्यान, प्रपत्ति और गुरुपसत्ति हैं। इनमें से प्रपत्ति और गुरुपसत्ति सभी वर्णों के लिए उपलब्ध हैं, जबकि ज्ञान और ध्यान के लिए उच्च वर्ण के साधक अधिकारी हैं।
निबंध प्रश्न
निम्बाकाचार्य के द्वैताद्वैत वेदांत में ब्रह्म, चित् और अचित् के स्वरूप और उनके परस्पर संबंध का विस्तृत विश्लेषण करें। यह सिद्धांत अन्य वेदांत संप्रदायों से कैसे भिन्न है?
निम्बाकाचार्य के द्वैताद्वैत वेदांत दर्शन में ब्रह्म, चित् (जीव), और अचित् (जड़) के स्वरूप और उनके परस्पर संबंध का विस्तृत विश्लेषण इस प्रकार है:
परिचय द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य श्रीमत् निम्बार्काचार्य माने जाते हैं। उनके अन्य नाम निम्बादित्य और नियमानन्द भी सुने जाते हैं। उनके ब्रह्मसूत्र भाष्य का नाम "वेदांतपारिजात सौरभ" है, और उनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य द्वारा रचित भाष्य "वेदांतकौस्तुभ" अधिक विस्तृत है। इन दोनों ग्रंथों से इस दर्शन के सिद्धांतों का पूरा चित्र मिलता है। निम्बार्क का सिद्धांत द्वैताद्वैत और भेदाभेद कहलाता है।
ब्रह्म का स्वरूप निम्बार्क के सिद्धांत में ब्रह्म को कृष्ण नाम से उल्लिखित किया जाता है। इस मत के अनुसार ब्रह्म में सजातीय और विजातीय भेद नहीं होते, किंतु वह स्वगत भेदवान् है। इसका अर्थ है कि जीव और जगत् उसके अपने ही स्वगत भेद हैं। इसीलिए ब्रह्म निर्विशेष नहीं है, बल्कि सविशेष है, और वह निर्गुण नहीं बल्कि सगुण है।
ब्रह्म में दोनों प्रकार के गुण पाए जाते हैं:
भीषण गुण: जैसे सर्वशक्तिमत्त्व और शासकत्व।
मधुर गुण: जैसे सौंदर्य, आनंद और करुणा।
ब्रह्म निष्क्रिय या क्रियाहीन नहीं है, क्योंकि वह जगत् का स्त्रष्टा (सृष्टिकर्ता), पालक (पालनकर्ता), और संहारक (संहारकर्ता) है। वह जगत् का निमित्त कारण (efficient cause) और उपादान कारण (material cause) दोनों है। इसलिए, संपूर्ण जीव और जगत् उसी का परिणाम हैं। इन सभी सिद्धांतों में, निम्बार्क का मत रामानुज के मत के समान है।
चित् (जीव) का स्वरूप चित् का अर्थ चेतन पदार्थ है, अर्थात जीव। जीव के ये स्वरूप बताए गए हैं:
ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञाता: जीव ज्ञानमय भी है और जानने वाला भी।
कर्ता एवं भोक्ता: जीव कर्म करने वाला और उनके फल का भोग करने वाला है।
अणुपरिणाम: जीव आकार में अणु (सूक्ष्म) है।
संख्या में अनेक एवं अनंत: जीव संख्या में अनेक हैं और अनंत हैं।
प्रकार भेद: जीव बद्ध (संसार से बंधे हुए) और मुक्त (मोक्ष प्राप्त) दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
अचित् (जड़) का स्वरूप निम्बार्क के मतानुसार अचित् या जड़ पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं:
प्राकृत: प्रकृति से महदादि क्रम से संसार की सृष्टि होती है। प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण दृश्यमान संसार प्राकृत कहलाता है।
अप्राकृत: यह एक प्रकार का शुद्धतत्त्व है। यह अप्राकृत अचित्, ब्रह्म तथा मुक्तात्माओं के दिव्य शरीरों और ब्रह्मलोक में पाए जाने वाले द्रव्यों का उपादान कारण है।
काल (समय): काल अचित् होने पर भी अंशविहीन और विभु (सर्वव्यापी) है। यह अपरिणामी (परिवर्तन रहित) और अविनाशी है। अचित् के स्वरूप के वर्णन में भी निम्बार्क और रामानुज के मतों में विशेष भिन्नता नहीं है।
ब्रह्म, चित् और अचित् के परस्पर संबंध यहीं पर निम्बार्क और रामानुज के संप्रदायों में मतभेद होता है। निम्बार्क के अनुसार, ब्रह्म और जीव-जगत् स्वरूप में भिन्नाभिन्न हैं। 'भिन्नाभिन्न' का अर्थ है कि वे भिन्न भी हैं और अभिन्न भी।
अभिन्नता (Non-difference):
ब्रह्म कारण है, और जीव-जगत् उसके कार्य हैं।
ब्रह्म शक्तिमान् है, और जीव-जगत् उसकी शक्ति हैं।
ब्रह्म अंशी (पूर्ण) है, और जीव-जगत् अंशमात्र (भाग) हैं।
कार्य और कारण, शक्तिमान् और शक्ति, अंशी और अंश परस्पर अभिन्न भी होते हैं।
उदाहरण के लिए, मिट्टी (कारण) से बना घट (कार्य) उपादान की दृष्टि से अभिन्न है, क्योंकि घट मिट्टी का ही बना है।
इसी प्रकार, ब्रह्म और जीव-जगत् कार्य-कारण रूप में और स्वरूप में अभिन्न हैं।
भिन्नता (Difference):
घट का एक भिन्न स्वरूप होता है जो मिट्टी में नहीं होता; "घट लाओ" कहने पर कोई मिट्टी नहीं लाता। अतः घट और मिट्टी स्वरूप से भिन्न भी हैं।
इसी प्रकार, ब्रह्म का ब्रह्मत्व, जीव का जीवत्व और जगत् का जगत्त्व परस्पर भिन्न हैं – एक नहीं। ब्रह्म, ब्रह्म ही है, वह जीव या जगत् नहीं है।
जीव और जगत् ब्रह्म की तरह सत्य और नित्य हैं। जीव ब्रह्म की तरह चेतन और आनंदमय है।
किंतु, ब्रह्म के सभी गुण जीव या जगत् में नहीं होते। जीव सृष्टिकर्ता नहीं होते, उनमें विभुत्व (सर्वव्यापित्व) या अविनाशित्व नहीं होता। जीवों के अनेक गुण जैसे अणुत्व (क्षुद्रत्व), सकाम कर्म, फलभोग और जगत् का जड़त्व ब्रह्म में नहीं होते। अतः ब्रह्म और जीव-जगत् परस्पर भिन्न भी हैं।
इसलिए, इस दर्शन के अनुसार, भेद और अभेद (भिन्नता और अभिन्नता) समान रूप से सत्य, नित्य, स्वाभाविक और अविरुद्ध हैं। इसीलिए निम्बार्क के सिद्धांत को स्वाभाविक भेदाभेदवाद कहा जाता है।
यह सिद्धांत अन्य वेदांत संप्रदायों से कैसे भिन्न है?
इस सिद्धांत का मुख्य अंतर रामानुज के विशिष्टाद्वैत से है:
रामानुज के अनुसार, भेद और अभेद दोनों के सत्य होने के बावजूद, अभेद की अपेक्षा भेद अधिक सत्य है।
रामानुज मानते हैं कि जीव-जगत् ब्रह्म से धर्मतः भिन्न होने पर भी, स्वरूपतः अभिन्न है।
इसके विपरीत, निम्बार्क का द्वैताद्वैत भेद और अभेद दोनों को समान रूप से सत्य, नित्य और स्वाभाविक मानता है।
इसके अतिरिक्त, सूत्रों में यह भी उल्लेख है कि निम्बार्क का मत रामानुज के मत की तरह उतना दर्शनमूलक और विचारबहुल नहीं है। यह मतवाद अधिक धर्ममूलक और भावुकता प्रधान है, यद्यपि इसमें दार्शनिक चर्चा की कमी नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ विद्वान निम्बार्क को रामानुज, मध्वाचार्य और वल्लभाचार्य के बाद मानते हैं, जबकि अन्य उन्हें वैष्णव संप्रदायों में प्राचीनतम मानते हैं और बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के बाद एवं अद्वैताचार्य भगवान् शंकराचार्य के पूर्व अवतीर्ण मानते हैं।
निम्बार्क के मत में "स्वभाविक भेदाभेदवाद" की अवधारणा को विस्तार से समझाइए। इस सिद्धांत को मिट्टी और घड़े के उदाहरण के माध्यम से कैसे स्पष्ट किया गया है?
निम्बार्क के मत में "स्वभाविक भेदाभेदवाद" (Svabhāvika Bhedābhedavāda) का सिद्धांत द्वैताद्वैत दर्शन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिसे भेदाभेदवाद भी कहा जाता है। यह सिद्धांत ब्रह्म (ईश्वर), चित् (जीव), और अचित् (जड़ जगत) के बीच संबंध को स्पष्ट करता है।
स्वभाविक भेदाभेदवाद की अवधारणा: इस सिद्धांत के अनुसार, ब्रह्म और जीव-जगत का संबंध स्वरूप में भिन्नाभिन्न है। "भिन्नाभिन्न" का अर्थ है कि वे भिन्न भी हैं और अभिन्न भी।
ब्रह्म कारण है, जीव-जगत उसका कार्य है। ब्रह्म शक्तिमान है, जीव-जगत उसकी शक्ति है। ब्रह्म अंशी (अंशों वाला) है, तो जीव-जगत उसके अंश मात्र हैं।
कार्य और कारण, शक्तिमान और शक्ति, अंशी और अंश आपस में अभिन्न भी होते हैं और भिन्न भी।
निम्बार्क का यह सिद्धांत मानता है कि भेद (भिन्नता) और अभेद (अभिन्नता) दोनों समान रूप से सत्य, नित्य, स्वाभाविक और अविरुद्ध हैं। इसीलिए इसे स्वाभाविक भेदाभेदवाद कहा जाता है।
मिट्टी और घड़े के उदाहरण से स्पष्टीकरण: इस जटिल अवधारणा को समझाने के लिए मिट्टी और घड़े का उदाहरण दिया गया है:
अभिन्नता (Non-difference): एक घड़ा मिट्टी (मृत्पिण्ड) से बना होता है। मिट्टी कारण है और घड़ा उसका कार्य है। घड़ा मिट्टी का ही बना है, इसलिए उपादान (मूल पदार्थ) की दृष्टि से दोनों अभिन्न हैं, यानी एक ही हैं।
भिन्नता (Difference): हालाँकि, घड़े का एक अपना अलग स्वरूप होता है जो मिट्टी में नहीं होता। यदि कोई "घड़ा लाओ" कहे, तो वह मिट्टी नहीं लाता। अतः, घड़ा और मिट्टी स्वरूप से परस्पर भिन्न भी हैं।
धर्म के आधार पर भिन्नाभिन्नता: मिट्टी और घड़ा धर्म (गुणों और कार्यों) से भी भिन्नाभिन्न हैं।
घड़े की एक विशिष्ट आकृति होती है और उसका कार्य पानी लाना है, जो मिट्टी का न तो धर्म है और न ही कार्य।
फिर भी, दोनों अभिन्न हैं क्योंकि मिट्टी के कुछ धर्म दोनों में मौजूद होते हैं। मिट्टी एक ही पदार्थ होने के कारण घड़े से अभिन्न है, लेकिन उससे घड़े के अतिरिक्त अन्य वस्तुएँ भी बन सकती हैं, इसलिए वह घड़े से भिन्न भी है।
ब्रह्म और जीव-जगत पर लागू करना: इसी प्रकार, ब्रह्म और जीव-जगत स्वरूप से और धर्म से भिन्नाभिन्न हैं:
अभिन्नता: ब्रह्म कारण है और जीव एवं जगत उसी का कार्य है। कार्य-कारण रूप में और स्वरूप में ब्रह्म और जीव-जगत अभिन्न हैं।
भिन्नता: फिर भी, ब्रह्म का ब्रह्मत्व, जीव का जीवत्व और जगत का जगतत्व परस्पर भिन्न हैं—एक नहीं हैं। ब्रह्म, ब्रह्म ही है, वह जीव या जगत नहीं है।
धार्मिक भिन्नता और अभिन्नता: जीव और जगत ब्रह्म की तरह सत्य और नित्य हैं। जीव ब्रह्म की तरह चेतन और आनंदमय है। लेकिन ब्रह्म के सभी गुण जीव या जगत में नहीं होते। जैसे, जीव सृष्टिकर्ता नहीं होते, उनमें विभुत्व (सर्वव्यापित्व) या अविनाशित्व नहीं होता। जीवों के कई गुण जैसे अणुत्व (क्षुद्रत्व), सकाम कर्म और फलभोग, तथा जगत का जड़त्व ब्रह्म में नहीं होते। अतः, ब्रह्म और जीव-जगत परस्पर भिन्न भी हैं।
यह सिद्धांत रामानुज के विशिष्टाद्वैत से इस बात में भिन्न है कि रामानुज के अनुसार भेद और अभेद दोनों सत्य होते हुए भी समान रूप से सत्य नहीं हैं, बल्कि अभेद भेद की अपेक्षा अधिक सत्य है। रामानुज के मत में जीव-जगत ब्रह्म से धर्मतः भिन्न होते हुए भी स्वरूपतः अभिन्न हैं। इसके विपरीत, निम्बार्क के सिद्धांत में भेद और अभेद दोनों को समान रूप से स्वाभाविक और सत्य माना जाता है।
मोक्ष या मुक्ति के संबंध में निम्बार्क के दृष्टिकोण की विवेचना करें। उनके अनुसार, ब्रह्मस्वरूप लाभ और आत्मस्वरूप लाभ का क्या अर्थ है और जीवन्मुक्ति के प्रति उनका क्या मत है?
निम्बार्क के मत में मोक्ष या मुक्ति की अवधारणा द्वैताद्वैत वेदान्त का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इस सिद्धांत के अनुसार, मुक्ति के दो मुख्य अंग हैं:
ब्रह्मस्वरुप लाभ (ब्रह्म के स्वरूप को प्राप्त करना)
आत्मस्वरुप लाभ (अपने आत्मा के स्वरूप को प्राप्त करना)
ब्रह्मस्वरुप लाभ का अर्थ: निम्बार्क के अनुसार, ब्रह्मस्वरूप लाभ का अर्थ ब्रह्म के साथ एक या अभिन्न हो जाना नहीं है। इसका तात्पर्य है ब्रह्मसायुज्य लाभ, अर्थात् स्वरूप और धर्म दोनों से ब्रह्म के समान, ब्रह्म जैसा होना। यह ब्रह्म में विलीन होना नहीं, बल्कि ब्रह्म के साथ समानता प्राप्त करना है।
आत्मस्वरुप लाभ का अर्थ: मुक्ति की अवस्था में जीव अपने जीवत्व (व्यक्तित्व) का संपूर्ण विकास प्राप्त करता है। इस अवस्था में, जीव के आत्मस्वरूप का विनाश नहीं होता, बल्कि उसके यथार्थ स्वरूप और गुणों का चरम उत्कर्ष (सर्वोच्च विकास) होता है। चूंकि मुक्ति में जीव के अपने स्वरूप और धर्मों का पूर्ण विकास होता है, इसलिए वह ब्रह्म के तुल्य हो जाता है, पर स्वयं ब्रह्म नहीं बनता।
मुक्त जीव के गुण: छान्दोग्य श्रुति के अनुसार, मुक्त आत्मा भूख, प्यास, जरा (बुढ़ापा), शोक और पाप से रहित होती है, और सत्यकाम (जिसकी इच्छाएँ सत्य हों) तथा सत्यसंकल्प (जिसका संकल्प सत्य हो) होती है। निम्बार्क के अनुसार, आत्मा को इन गुणों की उपलब्धि केवल मुक्ति की अवस्था में ही होती है, सामान्य अवस्था में नहीं। मुक्ति से पहले, जीव में ज्ञातृत्व (ज्ञान होना), कर्तृत्व (कार्य करने की क्षमता) और भोक्तृत्व (भोगने की क्षमता) तो होते हैं, लेकिन वे बहुत सीमित होते हैं। शरीर और मन की शक्ति कम होने के कारण, ज्ञान होते हुए भी जीव अल्पज्ञ और भ्रमित होता है, कर्ता होने पर भी सत्यसंकल्प या कामाचार नहीं होता, और भोक्ता होने पर भी पूरी तरह आनंदमय नहीं हो सकता। किंतु, मुक्ति की अवस्था में जीव ब्रह्म की ही तरह सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला), सर्वशक्तिमान् (सब कुछ करने में समर्थ) और आनंदमय हो जाता है। वह ब्रह्म की ही तरह शुद्ध चेतन स्वरूप और कल्याण गुणों से युक्त होता है। ब्रह्म से एकमात्र अंतर यह रहता है कि मुक्त जीव ब्रह्म की तरह विभु (सर्वव्यापी) नहीं होता और सृष्टि की शक्ति (सृजन की शक्ति) नहीं रखता। मुक्त जीव अणु (सूक्ष्म), सृष्टिशक्ति हीन और ब्रह्म के अधीन ही रहता है।
जीवन्मुक्ति के प्रति निम्बार्क का मत: निम्बार्क के सिद्धांत के अनुसार, जब कोई साधक अपनी साधना से अधिकारी बनता है, तो ब्रह्म की कृपा से उसके प्रारब्ध कर्म को छोड़कर अन्य सभी कर्मों के फल पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध कर्मों के फल तब तक नष्ट नहीं होते, और उनके फलस्वरूप जब तक शरीर रहता है, साधक को संसार में ही रहना पड़ता है। शरीर छूटने के बाद ही वह देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक पहुँचता है और ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। अतः, निम्बार्क जीवन्मुक्ति (जीवनकाल में मुक्ति) को स्वीकार नहीं करते हैं।
निम्बार्क संप्रदाय में भक्ति की अवधारणा पर प्रकाश डालें। परा और अपरा भक्ति के बीच क्या अंतर है और यह रामानुज की भक्ति से कैसे भिन्न या समान है?
निम्बार्क संप्रदाय में भक्ति एक केंद्रीय अवधारणा है और मोक्ष प्राप्त करने के साधन के रूप में इसका अत्यधिक महत्व है।
निम्बार्क के दृष्टिकोण में भक्ति की अवधारणा:
निम्बार्क के अनुसार, गंभीर भगवत्प्रीति ही भक्ति है। इसका अर्थ है कि भगवान् के प्रति गहरा प्रेम ही भक्ति का मूल है।
यह संप्रदाय एक वैष्णव संप्रदाय है, जिसके उपास्य श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा हैं। इस संप्रदाय में रागानुगा भक्ति को साधना का मुख्य साधन माना जाता है।
निम्बार्क संप्रदाय का धर्मतत्त्व ब्रह्म एवं जीव के बीच उपास्य (उपासना के योग्य) और उपासक (उपासना करने वाला) के भेद या भिन्नता पर आधारित है। यह उपास्य-उपासक संबंध नित्य है, क्योंकि जीव मुक्त होने पर भी ब्रह्म से भिन्न और ब्रह्म का उपासक ही रहता है।
परा और अपरा भक्ति के बीच अंतर: निम्बार्क के सिद्धांत में भक्ति दो प्रकार की होती है – परा और अपरा।
परा भक्ति को ज्ञानमूलक भक्ति कहा जाता है। यह ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान पर आधारित होती है, जो मुक्ति का एक उपाय है।
अपरा भक्ति को कर्ममूलक भक्ति कहा जाता है। यह शास्र के अनुसार निष्काम कर्म और वर्णाश्रम धर्म के ठीक पालन से चित्त की शुद्धि पर जोर देती है, जिससे ज्ञान की उत्पत्ति होती है।
रामानुज की भक्ति से भिन्नता या समानता:
भक्ति के सिद्धांत में निम्बार्क और रामानुज के बीच अधिक मतभेद नहीं है। यह इंगित करता है कि दोनों संप्रदाय भक्ति को मुक्ति के लिए एक महत्वपूर्ण या आवश्यक साधन मानते हैं।
हालांकि, उनके भक्ति के स्वरूप में एक महत्वपूर्ण अंतर है:
रामानुज की भक्ति "श्रद्धामूलक" है, अर्थात् "ऐश्वर्यप्रधान"। इसका अर्थ है कि रामानुज के मत में भक्ति में भगवान् के ऐश्वर्य, महिमा और प्रभुत्व पर अधिक जोर दिया जाता है।
इसके विपरीत, निम्बार्क की भक्ति "प्रीतिमूलक" है, अर्थात् "माधुर्यप्रधान"। निम्बार्क के सिद्धांत में भक्ति में भगवान् की मधुरता, सौंदर्य और प्रेम पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाता है, विशेष रूप से राधा-कृष्ण के उपास्य स्वरूप के संदर्भ में।
संक्षेप में, निम्बार्क संप्रदाय में भक्ति भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीराधा के प्रति गहरे प्रेम (प्रीति) पर केंद्रित है, जिसे दो रूपों (ज्ञानमूलक परा और कर्ममूलक अपरा) में देखा जाता है। यह रामानुज की श्रद्धा-आधारित ऐश्वर्यप्रधान भक्ति से भिन्न होकर माधुर्य-प्रधान भक्ति पर बल देती है, फिर भी दोनों संप्रदायों में भक्ति का महत्व समान है।
निम्बाकाचार्य के ऐतिहासिक काल निर्धारण को लेकर विद्वानों में क्या मतभेद हैं? विभिन्न विद्वानों के विचारों को प्रस्तुत करते हुए इस मुद्दे पर एक आलोचनात्मक चर्चा करें।
निम्बाकाचार्य के ऐतिहासिक काल निर्धारण को लेकर विद्वानों में मतभेद है, क्योंकि उनके आविर्भाव काल (समय) और जन्मस्थान के संबंध में अधिक पुष्ट ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। यह एक खेद का विषय है कि इस महत्वपूर्ण आचार्य के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।
विभिन्न विद्वानों के विचारों और इस मुद्दे पर एक आलोचनात्मक चर्चा निम्नलिखित है:
संप्रदाय की पारंपरिक मान्यता: निम्बार्क संप्रदाय के अनुगामी आचार्य निम्बार्काचार्य को बहुत प्राचीन मानते हैं। यह दर्शाता है कि संप्रदाय की आंतरिक परंपरा उन्हें एक सुदूर अतीत के व्यक्ति के रूप में देखती है, जो संभवतः अन्य प्रमुख आचार्यों से पहले रहे होंगे। संप्रदाय के अनुसार, श्रीनिम्बार्काचार्य भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार थे।
बाद के काल में रखने वाले विद्वानों के मत:
कुछ विद्वान, जैसे रामकृष्ण भण्डारकर, राजेन्द्रलाल मित्र, और डॉ० रमा चौधरी, निम्बार्काचार्य को रामानुज, मध्वाचार्य और वल्लभाचार्य के बाद अवतीर्ण मानते हैं। यह दृष्टिकोण उन्हें 11वीं शताब्दी के बाद के समय में रखता है, जब वैष्णव संप्रदायों का विकास और अधिक स्पष्ट रूप से हुआ।
प्राचीन काल में रखने वाले विद्वानों के मत:
इसके विपरीत, जॉर्ज ग्रियरसन और मोनियर विलियम्स जैसे प्रसिद्ध विद्वानों का कहना है कि वैष्णव सम्प्रदायों में निम्बार्क संप्रदाय ही सबसे प्राचीनतम है। यह मत निम्बार्काचार्य को रामानुज जैसे आचार्यों से भी पहले के काल में स्थापित करता है।
डॉ० अमरप्रसाद भट्टाचार्य का मत है कि श्री निम्बार्काचार्य एवं उनके साक्षात् शिष्य श्रीनिवासाचार्य बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के बाद और अद्वैताचार्य भगवान् शंकराचार्य के पूर्व आविर्भूत हुए थे। इस आकलन के अनुसार, निम्बार्काचार्य का आविर्भाव ईस्वी 6वीं और 7वीं सदी के बीच होना चाहिए। यह मत उन्हें शंकराचार्य (जो आमतौर पर 8वीं शताब्दी में माने जाते हैं) से भी पहले स्थापित करता है, जिससे यह संप्रदाय काफी प्राचीन हो जाता है।
आलोचनात्मक चर्चा: ऐतिहासिक काल निर्धारण को लेकर यह मतभेद मुख्य रूप से सुनिश्चित प्रमाणों के अभाव के कारण है। कोई भी मत सर्वमान्य रूप से स्वीकृत नहीं है क्योंकि पर्याप्त ऐतिहासिक या पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं जो आचार्य के जन्मस्थान या काल को निश्चित रूप से स्थापित कर सकें। संप्रदाय की अपनी परंपराएँ हैं जो उन्हें अत्यंत प्राचीन मानती हैं और उन्हें ब्रह्मा के मानस पुत्रों सनक, सनन्दन, सनातन, एवं सनत्कुमार तथा देवर्षि नारद की गुरु-शिष्य परंपरा से जोड़ती हैं। वहीं, आधुनिक विद्वान उपलब्ध साहित्यिक और दार्शनिक साक्ष्यों के आधार पर अनुमान लगाते हैं।
इस अनिश्चितता के बावजूद, डॉ. अमरप्रसाद भट्टाचार्य का मत, जो उन्हें शंकराचार्य से पूर्व रखता है, निम्बार्क संप्रदाय की प्राचीनता और भारतीय दार्शनिक चिंतन में उसके प्रारंभिक योगदान को रेखांकित करता है। यह दर्शाता है कि अद्वैतवाद के उदय से पहले ही द्वैताद्वैत जैसे विशिष्ट भेदाभेदवाद के सिद्धांत भारतीय दर्शन में विकसित हो रहे थे। हालाँकि, जब तक और अधिक ठोस ऐतिहासिक या पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिलते, निम्बार्काचार्य के वास्तविक काल को लेकर विद्वानों के बीच यह मतभेद बना रहेगा।
शब्दावली (Glossary)
वेदांत: भारतीय दर्शन की एक प्रमुख शाखा, जो उपनिषदों पर आधारित है और ब्रह्म के स्वरूप, जीव और जगत् के साथ उसके संबंध और मोक्ष प्राप्ति के साधनों की विवेचना करती है।
द्वैताद्वैत वेदांत: निम्बार्काचार्य द्वारा प्रवर्तित एक दार्शनिक सिद्धांत जो द्वैत (भिन्नता) और अद्वैत (अभिन्नता) दोनों को समान रूप से सत्य मानता है। इसे भेदाभेदवाद भी कहते हैं।
श्रीमत् निम्बार्काचार्य: द्वैताद्वैत वेदांत संप्रदाय के संस्थापक आचार्य, जिन्होंने ब्रह्मसूत्र पर "वेदांतपारिजात सौरभ" नामक भाष्य की रचना की।
वेदांतपारिजात सौरभ: निम्बार्काचार्य द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र पर एक संक्षिप्त भाष्य, जो द्वैताद्वैत सिद्धांत की व्याख्या करता है।
वेदांतकौस्तुभ: श्रीनिवासाचार्य, निम्बार्काचार्य के शिष्य, द्वारा रचित एक विस्तृत भाष्य, जो निम्बार्क दर्शन का व्यापक चित्र प्रस्तुत करता है।
ब्रह्म: निम्बार्क दर्शन में सर्वोच्च वास्तविकता, जिसे कृष्ण के नाम से भी जाना जाता है। इसे सविशेष, सगुण और जगत् का निमित्त और उपादान कारण माना जाता है।
चित्: चेतन पदार्थ, अर्थात जीव। इसे ज्ञानस्वरूप, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता और अणुपरिणामी माना जाता है।
अचित्: जड़ पदार्थ, जो तीन प्रकार के होते हैं: प्राकृत, अप्राकृत और काल।
प्राकृत: प्रकृति से उत्पन्न होने वाला संसार।
अप्राकृत: एक प्रकार का शुद्ध तत्व जो ब्रह्म और मुक्तात्माओं के दिव्य शरीरों का उपादान कारण है।
काल: समय, जिसे अचित् माना जाता है, जो अंशविहीन, सर्वव्यापी और अविनाशी है।
भिन्नाभिन्न: भिन्न भी और अभिन्न भी। यह द्वैताद्वैत सिद्धांत की केंद्रीय अवधारणा है, जो ब्रह्म और जीव-जगत् के संबंध का वर्णन करती है।
स्वभाविक भेदाभेदवाद: निम्बार्क का सिद्धांत जो भेद और अभेद दोनों को स्वाभाविक, नित्य और समान रूप से सत्य मानता है।
मुक्ति/मोक्ष: दुखों से मुक्ति और ब्रह्म के साथ सायुज्य प्राप्त करना। निम्बार्क के अनुसार, इसके दो अंग हैं - ब्रह्मस्वरूप लाभ और आत्मस्वरूप लाभ।
जीवन्मुक्ति: जीवनकाल में ही मुक्ति प्राप्त करने की अवधारणा। निम्बार्क इसे स्वीकार नहीं करते।
ब्रह्मसायुज्य लाभ: ब्रह्म के साथ एक हो जाना नहीं, बल्कि स्वरूपतः और धर्मतः ब्रह्म के सदृश होना।
साधना: आध्यात्मिक अभ्यास जो मुक्ति की ओर ले जाते हैं, जिसमें ज्ञान, भक्ति, ध्यान, प्रपत्ति और गुरुपसत्ति शामिल हैं।
निष्काम कर्म: बिना किसी फल की इच्छा के कर्तव्यों का पालन करना, जो चित्त शुद्धि और ज्ञान प्राप्ति में सहायक होता है।
ज्ञान: ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान, मुक्ति का एक साधन।
भक्ति: ब्रह्म के प्रति गंभीर प्रेम या समर्पण, जिसे परा (ज्ञानमूलक) और अपरा (कर्ममूलक) में वर्गीकृत किया गया है।
ध्यान: ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करना, मुक्ति का एक प्रत्यक्ष साधन।
प्रपत्ति: ब्रह्म के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण।
गुरुपसत्ति: गुरु के प्रति आत्मसमर्पण, जिसे मुक्ति का सीधा साधन माना जाता है।
उपास्य: जिसकी पूजा या आराधना की जाती है, जैसे निम्बार्क संप्रदाय में श्रीकृष्ण और श्रीराधा।
विष्णुयामल तन्त्र: एक प्राचीन तंत्र ग्रंथ जिसमें निम्बार्क संप्रदाय की गुरुपरंपरा का वर्णन मिलता है।
सुदर्शन चक्र: भगवान विष्णु का चक्र; निम्बार्क को इसका अवतार माना जाता है।
सविशेष: विशिष्ट गुणों से युक्त। निम्बार्क के अनुसार ब्रह्म सविशेष है।
निर्विशेष: गुणों से रहित। निम्बार्क निर्विशेष ब्रह्म को स्वीकार नहीं करते।
निमित्त कारण: वह कारण जो किसी वस्तु के बनने का कारण बनता है (जैसे कुम्हार घड़ा बनाने के लिए निमित्त कारण है)।
उपादान कारण: वह सामग्री जिससे कोई वस्तु बनी होती है (जैसे मिट्टी घड़ा बनाने के लिए उपादान कारण है)।
अणुपरिणाम: सूक्ष्म आकार वाला। जीव को अणुपरिणामी माना जाता है।
विभु: सर्वव्यापी। ब्रह्म को विभु माना जाता है, जबकि मुक्त जीव विभु नहीं होता।
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