Monday, July 28, 2025

वेदांत दर्शन

 उपनिषद का विस्तृत सारांश

परिचय

उपनिषद, जिन्हें 'वेदांत' या "वेदों का अंत" भी कहा जाता है, हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों का एक मूलभूत और अत्यधिक प्रभावशाली संग्रह है। इन्हें श्रुति ("जो सुना गया है") माना जाता है, जिसका अर्थ है कि वे ऋषि-मुनियों द्वारा गहन ध्यान की अवस्था में सीधे ईश्वर से प्राप्त दिव्य रहस्योद्घाटन हैं। उनकी कालातीत ज्ञान, मानव मन की साधारण क्षमता से परे माना जाता है। लगभग 180-200 उपनिषद हैं, जिनमें से 13 सबसे प्रसिद्ध हैं जो वेदों में अंतर्निहित हैं।

यह सारांश उपनिषदों में मुख्य विषयों, महत्वपूर्ण विचारों और तथ्यों की समीक्षा करता है, जिसमें मूल स्रोतों के उद्धरण भी शामिल हैं।

1. ब्रह्म और आत्मन की परम वास्तविकता

उपनिषदों का केंद्रीय विषय ब्रह्म (परम वास्तविकता, ब्रह्मांडीय आत्मा) और आत्मन (व्यक्तिगत आत्मा या स्वयं) की अवधारणा है। मूल सिद्धांत यह है कि ब्रह्म और आत्मन अनिवार्य रूप से एक ही हैं। यह अद्वैत दर्शन का आधार है, जिसे "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है, अन्य कुछ नहीं) जैसे उद्धरणों में संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।

  • ब्रह्म की प्रकृति: ब्रह्म को अनंत, अविनाशी, निर्विकार, शुद्ध चेतना और सभी का मूल माना जाता है। "ब्रह्मविद ब्रह्ममेव भवति" (ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है) और "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" (ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनंत है) जैसे सूत्र इसकी प्रकृति को दर्शाते हैं। इसे "न यह, न यह" (नेति, नेति) के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है कि यह मन और इंद्रियों द्वारा समझी जाने वाली किसी भी अवधारणा से परे है।

  • आत्मन की प्रकृति: आत्मन शरीर, मन और इंद्रियों से भिन्न, अमर और अविनाशी आंतरिक स्वयं है। यह ब्रह्म का ही एक अंश है। "तत्वमसि" (वह तुम हो) और "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) जैसे महावाक्य इस पहचान पर जोर देते हैं। कैवल्य उपनिषद 1.16 में कहा गया है: "जो परब्रह्म सबकी आत्मा है, विश्व का महान आश्रय है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर और नित्य है – वही तुम हो, तुम ही वह हो।"

  • अद्वैत का सार: उपनिषद द्वैत (भेदभाव) को अज्ञान (अविद्या) का परिणाम मानते हैं। शुद्ध जल में शुद्ध जल मिलाने पर वह एक हो जाता है, जैसे ज्ञानी की आत्मा ब्रह्म से एकाकार हो जाती है। "जो यहाँ भेद देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है।" (कठोपनिषद 2-I-11)। इस पहचान की प्राप्ति ही मुक्ति की ओर ले जाती है।

2. माया: भ्रम और अभिव्यक्ति

माया, जिसका शाब्दिक अर्थ "भ्रम" या "जादू" है, उपनिषदों में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह वह सिद्धांत है जो निर्गुण ब्रह्म को सगुण (विशेषताओं वाला) के रूप में प्रकट करता है और आध्यात्मिक वास्तविकता के वास्तविक स्वरूप को छुपाता है।

  • माया की भूमिका: माया को ब्रह्म की अवर्णनीय और अकल्पनीय ब्रह्मांडीय गतिशील शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका उपयोग ब्रह्म भ्रम पैदा करने के लिए करता है। "यह एक महान कवि की तरह है जो अपने भीतर और अपने आप से बनी एक दुनिया को छायांकित करता है और फिर भी जानता है कि वह इससे अलग और स्वतंत्र है।"

  • त्रिविध गुण: माया में तीन मूलभूत घटक गुण होते हैं: सत्व (शुभ, सद्गुणी), रजस (सांसारिक जुनून, इच्छाएं) और तमस (अज्ञान, अंधकार, बुराई)। इन गुणों के विभिन्न संयोजन मनुष्य के अंतर्निहित स्वभाव को निर्धारित करते हैं।

  • भ्रम को दूर करना: माया एक भ्रम है जो मन में भ्रम पैदा करती है, जिससे यह विश्वास होता है कि जो देखा जा रहा है वह सत्य है। हालांकि, अद्वैत वेदांत के अनुसार, ज्ञान से माया का नाश होता है। "जैसे गंदगी हटाने पर वास्तविक पदार्थ प्रकट होता है; जैसे रात का अंधेरा छटने पर, अंधेरे में ढकी वस्तुएं स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं, जब अज्ञान [माया] दूर हो जाता है, तो सत्य का एहसास होता है।"


3. मुक्ति और जीवन के लक्ष्य

मुक्ति, या आध्यात्मिक मुक्ति और मोक्ष, उपनिषदों में मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। यह जन्म और मृत्यु के अंतहीन चक्र (संसार) से मुक्ति है।

  • कर्म और अज्ञान का संबंध: बंधन कर्म का परिणाम नहीं है, बल्कि अज्ञान की स्थिति में किए गए कर्म बंधन का भ्रम पैदा करते हैं। "क्रिया मनुष्य को नहीं बांधती।" (ईशा उपनिषद)। कामना, आंतरिक संघर्ष और दुख का भ्रम ही बाधा है।

  • मोक्ष के मार्ग: उपनिषद मोक्ष के विभिन्न मार्ग सुझाते हैं:

  • ज्ञान मार्ग (ज्ञान के माध्यम से मुक्ति): यह ब्रह्म और आत्मन की एकता को समझने और अनुभव करने पर केंद्रित है। "ज्ञान ही मुक्ति का निश्चित कारण है - 'मैं ब्रह्म हूँ'।"

  • कर्म मार्ग (निष्काम कर्म के माध्यम से मुक्ति): यह इच्छाओं को त्यागने और कर्मों को ईश्वर पर अर्पित करने पर जोर देता है। "त्याग से भोग करो।"

  • भक्ति मार्ग (प्रेम और भक्ति के माध्यम से मुक्ति): यह प्रेम और आराधना के माध्यम से ईश्वर के साथ एक होने पर केंद्रित है।

  • जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति:जीवनमुक्ति: यह इस भौतिक शरीर में रहते हुए भी दुनिया के बंधनों से मुक्त होने की अवस्था है। यह तब प्राप्त होता है जब व्यक्ति को यह एहसास हो जाता है कि वह कर्मों का भोक्ता या कर्ता नहीं है, बल्कि शरीर ही है जो कर्म करता है।

  • विदेहमुक्ति: यह शरीर के त्याग के बाद आत्मा की परम मुक्ति है, जब आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है। "आत्मन जब उसे घेरने वाले खोल को तोड़ देता है, तो वह अपने आसपास के अनंत आकाश में विलीन हो जाता है।"

  • आत्म-नियंत्रण और ध्यान: मुक्ति के लिए आत्म-नियंत्रण (यम और नियम), इंद्रियों पर नियंत्रण (प्रत्याहार), एकाग्रता (धारणा), ध्यान (ध्यान) और समाधि (आत्म-विस्मृति) जैसे योगिक अभ्यास आवश्यक हैं।

4. चेतना के स्तर और आंतरिक अनुभव

उपनिषद चेतना के विभिन्न स्तरों का विस्तृत वर्णन करते हैं और आंतरिक अनुभव की महत्वता पर जोर देते हैं।

  • जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति: मनुष्य के अनुभव के तीन प्रमुख तरीके हैं: जागृत अवस्था, स्वप्न अवस्था और सुषुप्ति (गहरी नींद)। ये तीनों अवस्थाएं एक ही साक्षी द्वारा अनुभव की जाती हैं।

  • जागृत अवस्था: इस अवस्था में व्यक्ति इंद्रियों के सुखों का अनुभव करता है।

  • स्वप्न अवस्था: इस अवस्था में मन अपनी पिछली छापों को पुनर्जीवित करता है और अपनी ही माया या अज्ञान से उत्पन्न अस्तित्व के दायरे में सुख-दुख का अनुभव करता है।

  • सुषुप्ति (गहरी नींद): इस अवस्था में मन निष्क्रिय हो जाता है और आत्मा अपने कारण शरीर के अनन्य क्षेत्र में विलीन हो जाती है, बाहरी दुनिया से विच्छेदित हो जाती है। यह आनंद और शांति की अस्थायी अवस्था है।

  • तुरीय अवस्था: तुरीय चेतना की चौथी अवस्था है, जो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे है। यह एक स्थायी सुषुप्ति की अवस्था है, जहां मन पूरी तरह से शांत होता है और द्वैत का अनुभव नहीं होता। यह शुद्ध चेतना और आनंद की अवस्था है।

  • आंतरिक साक्षी: इन सभी अवस्थाओं का एक अपरिवर्तनीय साक्षी है। यह साक्षी आत्मन है, जो अनदेखा द्रष्टा है।

5. प्राण और जीवन शक्ति

प्राण को ब्रह्मांडीय और व्यक्तिगत स्तरों पर जीवन की महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है।

  • ब्रह्म के रूप में प्राण: "प्राण ही ब्रह्म है" (प्रश्नोपनिषद)। यह सभी देवताओं का समावेश करता है और तत्वों के साथ प्रकट होता है।

  • प्राण के कार्य: प्राण शरीर और इंद्रियों की गतिविधियों को नियंत्रित करता है। यह श्वास (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान) के विभिन्न रूपों में प्रकट होता है।

  • प्राण और आत्मन: प्राण और मन एक साथ शरीर में निवास करते हैं और एक साथ ही शरीर से निकलते हैं। प्राण पर विजय प्राप्त करना मन पर विजय प्राप्त करने और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।

6. ॐ (ओम्) और मंत्रों का महत्व

ओम् (या प्रणव) को ब्रह्म और आत्मन के साथ समानार्थक माना जाता है। यह सभी वेदों का सार है और सभी ध्वनि का मूल है।

  • ओम् और ब्रह्म: "तुम ब्रह्म हो, ओम् अक्षर के साथ एक हो, जो सभी धर्मग्रंथों में है – सर्वोच्च अक्षर, सभी ध्वनि की जननी।" (कठोपनिषद)। ओम् का जप और ध्यान सर्वोच्च प्राप्ति का मार्ग है।

  • मंत्रों की शक्ति: विभिन्न देवी-देवताओं के मंत्र उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति हैं। राम-मंत्र को सर्वोच्च ब्रह्म की पूर्ण अभिव्यक्ति माना जाता है, जो मुक्ति और मोक्ष प्रदान करता है।

  • तारक मंत्र: राम का मंत्र 'तारक' (मुक्तिदाता और उद्धारकर्ता) कहलाता है। इस मंत्र का लगातार जाप करने से सभी पापों के बुरे प्रभावों को दूर करने में मदद मिलती है और व्यक्ति शाश्वत और परम आनंद का प्रतीक बन जाता है।

7. धर्म, नीति और सदाचार

उपनिषद नैतिकता और सदाचार को आध्यात्मिक यात्रा के लिए आवश्यक मानते हैं, हालांकि वे स्वयं को केवल नैतिक नियमों तक सीमित नहीं रखते।

  • सत्य, तपस, ज्ञान और ब्रह्मचर्य: "सत्य (सत्यनिष्ठा), तपस (दृढ़ता, तपस्या), सम्यज्ञान (सही ज्ञान), और ब्रह्मचर्य के निरंतर अनुसरण से, आत्मन (स्वयं) प्राप्त होता है।" (मुंडका उपनिषद 3.1.5)।

  • अहिंसा और परोपकार: वेदांत का केंद्रीय सत्य दुनिया की उच्चतम नैतिकता को एक ही वाक्यांश में समेटे हुए है: "जो हमारे भीतर है, वह दिव्य उपस्थिति है, और जो दूसरों में है, वह वही दिव्य उपस्थिति है। इसे याद रखना दुनिया के सभी नैतिक उपदेशों और नैतिक सिद्धांतों से कहीं अधिक मूल्यवान है।"

  • अज्ञान का त्याग: अज्ञान का त्याग और सभी प्राणियों में ईश्वर को देखना दुखों और संघर्षों से मुक्ति का मार्ग है।

8. ब्रह्मांडीय निर्माण और वर्णाश्रम धर्म

उपनिषद ब्रह्मांडीय निर्माण और सामाजिक व्यवस्था (वर्णाश्रम) की प्रकृति का भी वर्णन करते हैं।

  • विराट पुरुष और प्रकृति: राम को विराट पुरुष (ब्रह्मांडीय पुरुष) या विष्णु का प्रतीक माना जाता है, और सीता को प्रकृति (मूल प्रकृति) या ब्रह्म की गतिशील ऊर्जा के रूप में दर्शाया गया है। इन्हीं से चौदह भुवन (जगत) उत्पन्न हुए हैं।

  • अग्नि का महत्व: अग्नि को ब्रह्म का मुख माना गया है, और सभी यज्ञों और प्रसाद का उपभोग करती है।

  • सामाजिक व्यवस्था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की चार वर्णों का वर्णन किया गया है, जिन्हें विराट पुरुष से उत्पन्न माना जाता है। धर्म (धार्मिकता) को क्षत्रिय का नियंत्रक माना गया है, और इससे ऊपर कुछ भी नहीं है।

  • मृत्यु और पुनर्जन्म: मृत्यु के बाद आत्मा का भाग्य कर्मों और ज्ञान के अनुसार निर्धारित होता है। ज्ञानी आत्माएं अमरता प्राप्त करती हैं, जबकि अज्ञानी पुनर्जन्म के चक्र में फंस जाती हैं।

निष्कर्ष

उपनिषद हिंदू दर्शन के मूल में गहन आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। वे एक परम, अविनाशी वास्तविकता, ब्रह्म का प्रचार करते हैं, जो व्यक्तिगत आत्मा, आत्मन से अविभाज्य है। ज्ञान, आत्म-नियंत्रण, नैतिक आचरण और ध्यान के माध्यम से इस पहचान की प्राप्ति, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति (मुक्ति) की ओर ले जाती है। माया की अवधारणा, जो भ्रम और परिवर्तनशीलता की प्रकृति को समझाती है, यह भी केंद्रीय है, क्योंकि इसका त्याग ही सत्य के प्रत्यक्ष अनुभव को संभव बनाता है। उपनिषदों का संदेश कालातीत है, जो आत्म-साक्षात्कार और सार्वभौमिक एकता के लिए एक मार्ग प्रदान करता है।


1. आत्मा (Self) क्या है और इसका शरीर तथा मन से क्या संबंध है?


उपनिषदों के अनुसार आत्मा (जिसे Self या Atman भी कहा जाता है) शुद्ध चेतना और अपरिवर्तनीय है। यह शरीर का रथ है, बुद्धि सारथी है, और मन लगाम है। शरीर को भागों का एक समूह माना जाता है जिसमें अपनी कोई चेतना या इच्छा नहीं होती, लेकिन यह अंतर्निहित आत्मा के माध्यम से जीवित रहता है। आत्मा निष्क्रिय दर्शक है, जो किसी भी गतिविधि से परे है, जबकि शरीर, बुद्धि और मन "जीवन जीने" में सक्रिय रूप से शामिल हैं।

आत्मा शरीर या इंद्रियों द्वारा प्रभावित या परिवर्तित नहीं हो सकती। यह वही है जो यह है, ठीक वैसे ही जैसे ईश्वर वही है जो वह है। इसका स्वभाव शुद्ध चेतना है और कुछ नहीं। शरीर कर्मों का वाहन और उनका मूर्त रूप है, लेकिन आत्मा स्वयं उन कर्मों का अवतार नहीं है। यह उन सभी में व्याप्त है, लेकिन उनसे अछूता रहता है, ठीक वैसे ही जैसे एक कलाकार अपनी कलाकृतियों में होता है, लेकिन उनसे प्रभावित नहीं होता।


2. ब्रह्मन क्या है और इसका सृष्टि के साथ क्या संबंध है?


ब्रह्मन परम वास्तविकता है, असीमित, सर्वव्यापी और शाश्वत। उपनिषद ब्रह्मन को सभी का सार बताते हैं, जो स्थूल (विरट), सूक्ष्म (हिरण्यगर्भ) और कारण (ईश्वर) शरीरों में व्याप्त है। यह सभी देवी-देवताओं और संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। ब्रह्मन को 'Om' (ओम्) के बीजाक्षर (बीज मंत्र) के रूप में जाना जाता है, और यह सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार के तीनों पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है, जो क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूप में प्रकट होते हैं।

माया को ब्रह्मन की शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है, जो सृष्टि का भ्रम पैदा करती है। यह एक पारदर्शी आवरण की तरह है जो परम सत्य को ढँक देता है, जिससे सगुण ब्रह्मन (विशेषताओं वाला ब्रह्मन) प्रकट होता है, जबकि निर्गुण ब्रह्मन (विशेषताओं से रहित ब्रह्मन) उसकी वास्तविक प्रकृति बनी रहती है। सृष्टि को ब्रह्मन की माया का उत्पाद माना जाता है, जो एक भ्रम है जिसे ब्रह्मन ने स्वयं बनाया है।


3. 'Om' (ओम्) का क्या महत्व है और यह विभिन्न चेतना अवस्थाओं से कैसे संबंधित है?


'Om' (ओम्) ब्रह्मन का बीजाक्षर है और संपूर्ण ब्रह्मांड में ऊर्जावान स्पंदन भरता है। इसे एक शब्दांश के रूप में वर्णित किया गया है जिसे तीन अक्षरों 'अ', 'उ' और 'म' में विभाजित किया गया है, जो चेतना की तीन अवस्थाओं से संबंधित हैं:

  • अ (A): जाग्रत अवस्था (Waking state) में वैश्वानर (Visva) का प्रतिनिधित्व करता है, जो अखिल-व्यापकता या प्रथम होने के कारण है।

  • उ (U): स्वप्न अवस्था (Dream state) में तैजस (Taijasa) का प्रतिनिधित्व करता है, जो उत्कृष्टता या मध्यवर्ती स्थिति की समानता के कारण है।

  • म (M): सुषुप्ति अवस्था (Deep sleep state) में प्राज्ञ (Prajna) का प्रतिनिधित्व करता है, क्योंकि यह माप या वह इकाई है जिसमें सब कुछ समाहित हो जाता है।

इन तीनों अक्षरों से परे एक चौथी अवस्था है, जिसे तुरीया (Turiya) कहा जाता है। यह अक्षरहीन, अनुभव से परे, प्रपंच के शांतिकरण का प्रतीक है, और गैर-द्वैत है। तुरीया की अवस्था में, व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर, परम आत्मा (Paramatman) से जुड़ जाता है।


4. कर्म (Karma), ज्ञान (Jnana), और भक्ति (Bhakti) का मोक्ष (Liberation) से क्या संबंध है?


उपनिषद मुक्ति प्राप्त करने के लिए विभिन्न मार्ग सुझाते हैं:

  • कर्म (Action): अनुष्ठान और तपस्या हजारों वर्षों तक करने पर भी केवल सीमित परिणाम मिलते हैं, मोक्ष नहीं। हालांकि, अनासक्त होकर किए गए कर्म मन की शुद्धि में सहायक होते हैं।

  • ज्ञान (Knowledge): आत्मा को जानने से ही मोक्ष संभव है। ब्रह्म-ज्ञान अंतिम लक्ष्य है, क्योंकि यह अज्ञान को दूर करता है और व्यक्ति को अपनी वास्तविक, अपरिवर्तनीय प्रकृति का अनुभव कराता है। यह केवल श्रुति (शास्त्रों का श्रवण), मनन (चिंतन), और निधिध्यासन (निरंतर ध्यान) से ही प्राप्त किया जा सकता है।

  • भक्ति (Devotion): भगवान के प्रति समर्पण और उनकी सर्वव्यापकता को सभी प्राणियों में देखने से व्यक्ति को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है, जिसे सलोक्य-सारूप्य-सामीप्य (Salokya-Sarupya-Samipya) के रूप में वर्णित किया गया है, जहाँ प्राणी भगवान के निवास में रहता है, उनके समान दिव्य रूप धारण करता है, और उनके निकट रहता है।

वास्तविक मुक्ति प्राप्त करने के लिए, तीनों मार्गों का समन्वय आवश्यक है। कर्म मन को शुद्ध करते हैं, ज्ञान अज्ञान को नष्ट करता है, और भक्ति आत्म-प्राप्ति की ओर ले जाती है।


5. माया क्या है और यह आत्म-ज्ञान की प्रक्रिया में कैसे बाधा डालती है?


माया को ब्रह्मन की भ्रमित करने वाली शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। यह एक पारदर्शी, रंगीन आवरण की तरह है जो परम सत्य को ढँक देता है, जिससे यह सत्य अपनी वास्तविक, निर्गुण अवस्था के बजाय सगुण (विशेषताओं वाला) प्रतीत होता है। अज्ञानी व्यक्ति माया को ही वास्तविक मानते हैं, जबकि वे वास्तव में "माया के आवरण के माध्यम से देखा गया सत्य" देख रहे होते हैं।

माया का प्रभाव व्यक्ति को सीमित, नश्वर और बंधा हुआ महसूस कराता है, जबकि आत्मा वास्तव में अनंत, अमर और हमेशा स्वतंत्र है। इस भ्रम को तोड़ने के लिए, व्यक्ति को ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से माया की वास्तविकता को समझना चाहिए। जब माया के भ्रामक प्रभाव दूर हो जाते हैं, तो मन की बेचैनी शांत हो जाती है और व्यक्ति को शांति और आनंद प्राप्त होता है।


6. चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं और वे आत्म-ज्ञान के लिए कैसे प्रासंगिक हैं?


उपनिषद चेतना की चार मुख्य अवस्थाओं का वर्णन करते हैं:

  • जाग्रत (Waking State): यह चेतना की वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति बाहरी दुनिया के प्रति जागरूक होता है और इंद्रियों के माध्यम से वस्तुओं का अनुभव करता है।

  • स्वप्न (Dream State): यह वह अवस्था है जहाँ मन की अपनी सृष्टि होती है और व्यक्ति अपने अनुभवों के आधार पर आंतरिक दुनिया में विचरण करता है।

  • सुषुप्ति (Deep Sleep State): इस अवस्था में मन और इंद्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं, और आत्मा कारण शरीर के विशेष क्षेत्र में वापस आ जाती है। यह आत्मा की अपनी शुद्ध और आनंदमय प्रकृति को अस्थायी रूप से अनुभव करने की अवस्था है, जिसमें कोई स्वप्न या वस्तु-चेतना नहीं होती।

  • तुरीया (Turiya): यह चेतना की चौथी अवस्था है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे है। इसे शुद्ध चेतना, गैर-द्वैत और असीमित ब्रह्मन की अवस्था माना जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करने पर व्यक्ति मुक्ति और परम आत्मा के साथ एकत्व प्राप्त करता है।

ये अवस्थाएँ आत्म-ज्ञान के मार्ग पर महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे दिखाती हैं कि चेतना अपनी शुद्धतम अवस्था में कैसे प्रकट होती है जब वह बाहरी अनुभवों और मन की सीमाओं से मुक्त होती है।


7. आत्म-साक्षात्कार (Self-Realization) प्राप्त करने के क्या परिणाम हैं?


आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने से व्यक्ति को कई महत्वपूर्ण लाभ मिलते हैं:

  • दुःख से मुक्ति: जो व्यक्ति स्वयं को सभी प्राणियों में और सभी प्राणियों को स्वयं में देखता है, उसे कोई मोह या दुःख नहीं होता।

  • अमरता: आत्म-ज्ञान के माध्यम से, नश्वर व्यक्ति अमर हो जाता है और इस शरीर में ही ब्रह्मन को प्राप्त कर लेता है।

  • ब्रह्मन के साथ एकत्व: आत्म-ज्ञानी व्यक्ति ब्रह्मन के साथ एक हो जाता है। "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्मन हूँ) की घोषणा एक आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति का सच्चा और ईमानदार कथन है।

  • संपूर्णता: व्यक्ति धन, संतान और अन्य सांसारिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह जान जाता है कि उसकी वास्तविक पूर्णता स्वयं ब्रह्मन में है।

  • शांति और संतोष: माया के प्रभावों से मुक्त होने पर, मन की बेचैनी शांत हो जाती है, और व्यक्ति को परम शांति, संतोष और आनंद प्राप्त होता है।

  • असीमित शक्ति: ब्रह्मन के साथ एकत्व प्राप्त करने पर, व्यक्ति सभी वस्तुओं का स्वामी और नियंत्रक बन जाता है, क्योंकि वह स्वयं सभी का स्रोत है।


8. उपनिषद परम सत्य को कैसे व्यक्त करते हैं?


उपनिषद परम सत्य को सीधे "यह वह है" (Tat Tvam Asi) या "मैं ब्रह्मन हूँ" (Aham Brahmasmi) जैसे महावाक्यों के माध्यम से व्यक्त करते हैं, न कि तार्किक तर्क या वर्णनात्मक विशेषताओं के द्वारा। वे यह बताने के लिए कि ब्रह्मन क्या नहीं है, "यह नहीं, यह नहीं" (Neti, Neti) जैसी नकारात्मक अभिव्यक्तियों का भी उपयोग करते हैं।

उपनिषद अनुभव पर जोर देते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि ब्रह्मन को केवल व्यक्तिगत अनुभव और अंतर्ज्ञान के माध्यम से ही समझा जा सकता है, न कि केवल बौद्धिक समझ से। वे यह भी बताते हैं कि शास्त्रों का अध्ययन और गुरु का मार्गदर्शन आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है, लेकिन अंततः यह व्यक्ति का स्वयं का अनुभव है जो सत्य को प्रकट करता है। उपनिषद काव्य, प्रतीकात्मक और सुझावपूर्ण भाषा का उपयोग करते हैं ताकि पाठक को प्रकाश से प्रकाश की ओर ले जाया जा सके और उन्हें सत्य को स्वयं अनुभव करने में मदद मिल सके।


I. लघु उत्तरीय प्रश्न (2-3 वाक्य प्रत्येक)

  1. द्वंद्व की अवधारणा और पीड़ा से इसका संबंध समझाएं। उत्सव का अनुभव करने वाले क्षण में, हम द्वंद्व से बंध जाते हैं - अच्छा और बुरा, सुख और दुख। यह द्वंद्व अनिश्चितता और चिंता की ओर ले जाता है, क्योंकि हम लगातार सही और गलत के बीच सही चुनाव करने का प्रयास करते हैं, जो हमें खुशी और पीड़ा के निरंतर चक्र में फंसाता है।

  2. उपनिषदों में 'ब्रह्मन' और 'आत्मन' के बीच संबंध को कैसे चित्रित किया गया है? उपनिषद ब्रह्मन और आत्मन को एक के रूप में देखते हैं, यह पुष्टि करते हुए कि आत्मन (व्यक्तिगत आत्मा) ब्रह्मन (सर्वोच्च वास्तविकता) के साथ एक है। यह एकता शरीर की मृत्यु के बाद आत्मन की अमरता की स्मृति के माध्यम से महसूस की जाती है, जो इसके विकासवादी मार्ग पर होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट करती है।

  3. 'माया' और 'अज्ञान' के संबंध में 'संसार' को त्यागने की अवधारणा को समझाएं। उपनिषद शिक्षा देते हैं कि 'संसार' को त्यागने की धारणा, या भौतिक दुनिया से भागने की धारणा, माया के रूप में भ्रामक है। इसके बजाय, आत्मन को प्राप्त करने के लिए अज्ञानता को दूर करना आवश्यक है, यह पहचानते हुए कि शरीर और दुनिया आत्मन के ही प्रक्षेपण हैं।

  4. 'ॐ' ध्वनि का आध्यात्मिक महत्व क्या है जैसा कि चंदोग्य उपनिषद और अन्य ग्रंथों में बताया गया है? 'ॐ' को ब्रह्मन के समान माना जाता है और इसे सभी अस्तित्व के सार के रूप में समझा जाता है - इसमें चेतना की सभी संभावित अवस्थाएं, समय के सभी पहलू (अतीत, वर्तमान, भविष्य) और तीनों संसार (भौतिक, सूक्ष्म, कारण) शामिल हैं। यह ब्रह्मन की सार्वभौमिकता और मूलभूत प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है।

  5. मृत्यु को दूर करने के लिए ज्ञान के मार्ग की भूमिका पर प्रकाश डालें। स्रोत सामग्री के अनुसार, मृत्यु पर विजय पाने का एकमात्र मार्ग ज्ञान का मार्ग है। जब यह ज्ञान भीतर उठता है, तो मृत्यु स्वयं ही भंग हो जाती है और केवल अमरता ही शेष रहती है, क्योंकि ब्रह्मन स्वयं अमर है।

  6. ब्रह्मन के 'आंतरिक नियंत्रक' या अंतर्यामिन पहलू का वर्णन करें। ब्रह्मन को ब्रह्मांड के आंतरिक नियंत्रक (अंतर्यामिन) के रूप में वर्णित किया गया है। यह भगवान के मन में सभी अस्तित्व को धारण करके अपनी उपस्थिति से सभी सृजन को बनाए रखता है और एकजुट करता है, क्योंकि वे उसके विचार हैं जो दृश्यमान या मूर्त हो गए हैं।

  7. मैत्रेयी और याज्ञवल्क्य के बीच संवाद में 'आत्मन' के ज्ञान का क्या अर्थ है? मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य संवाद यह बताता है कि 'आत्मन' का ज्ञान ही सब कुछ जानने का अर्थ है, क्योंकि सब कुछ आत्मन की खातिर प्रिय है। यह द्वंद्व से परे एक अवस्था है जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाते हैं, और कोई अलग चेतना नहीं रहती है।

  8. विभिन्न 'पंच-अग्नि' का वर्णन करें, और वे पुनर्जन्म से कैसे संबंधित हैं? पंच-अग्नि अग्नि के रूपक हैं, जो ब्रह्मांडीय और व्यक्तिगत स्तरों पर विभिन्न परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व करते हैं: स्वर्गीय अग्नि (सूर्य), पर्जन्य अग्नि (वर्षा), यह संसार अग्नि (पृथ्वी), मनुष्य अग्नि (पुरुष) और महिला अग्नि (महिला)। ये अग्नि और इनमें की गई भेंट का चक्र पुनर्जन्म के चक्र का प्रतिनिधित्व करता है, यह दर्शाता है कि भौतिक बलिदान अमरता की ओर नहीं ले जा सकते हैं।

  9. ब्रह्मन को मापने या परिभाषित करने में शब्दों और इंद्रियों की सीमाएं क्या हैं? ब्रह्मन को "यह नहीं, यह नहीं" के रूप में वर्णित किया गया है, जो इसकी अलंघनीय प्रकृति पर जोर देता है। यह इंद्रियों या बुद्धि की पहुंच से परे है, क्योंकि यह स्वयं सभी धारणाओं, विचारों और ज्ञान का ज्ञाता, द्रष्टा और श्रोता है; इसे किसी भी उपकरण से जाना नहीं जा सकता है।

  10. ज्ञानियों और अज्ञानियों के लिए दुनिया का अनुभव कैसे अलग है? अज्ञानी के लिए, दुनिया को द्वंद्व और पीड़ा से भरा हुआ देखा जाता है, जो अज्ञानता और स्वार्थ पर आधारित होता है। इसके विपरीत, ज्ञानियों के लिए, दुनिया चेतना और आनंद से भरी हुई है, क्योंकि वे ब्रह्मन के साथ अपनी एकता का अनुभव करते हैं और अपनी इंद्रियों और मन के भ्रम से मुक्त होते हैं।


II. निबंध प्रश्न

  1. उपनिषद के दर्शन में 'संसार' को 'माया' और 'अज्ञान' के संदर्भ में कैसे समझा जाता है, और व्यक्ति इस चक्र से कैसे मुक्त हो सकता है? विभिन्न उपनिषदों के अंशों से उदाहरणों के साथ चर्चा करें।

उपनिषदों और वेदांत दर्शन में 'संसार' को माया और अज्ञान (अविद्या) के संदर्भ में समझा जाता है, जो व्यक्तिगत आत्मा (आत्मन्) और परम वास्तविकता (ब्रह्मन्) की अंतर्निहित एकता को छिपाते हैं। व्यक्ति इस भ्रम के चक्र से आत्म-साक्षात्कार और अज्ञान के विनाश के माध्यम से मुक्त हो सकता है।

यहाँ उपनिषद के दर्शन में 'संसार' को 'माया' और 'अज्ञान' के संदर्भ में समझने और उससे मुक्ति पाने के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है:

1. 'संसार' का स्वरूप: माया और अज्ञान के संदर्भ में

  • सत्य की ओट में भ्रम: उपनिषदों के अनुसार, जो कुछ भी हमें दिखाई देता है, वह माया का प्रगटीकरण है। यह संसार लगभग झूठा (मिथ्या) है। यह पूरी तरह असत्य नहीं है, बल्कि सत्य और असत्य के बीच की स्थिति है, जो असत्य होते हुए भी सत्य जैसा प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, अँधेरे में पड़ी रस्सी का साँप दिखाई देना या आँख को दबाने पर दो चाँद दिखाई देना। दूसरा चाँद वास्तविक नहीं है, लेकिन दिखाई देता है, और यह हमारी दृष्टि का भ्रम है।

  • अध्यास (Superimposition): 'माया' का एक महत्वपूर्ण पहलू अध्यास है, जिसका अर्थ है जो नहीं है उसका दिखाई पड़ना या प्रक्षेपण (Projection)। इसका मतलब है कि हम अपनी चेतना पर कुछ ऐसा आरोपित कर देते हैं जो वहाँ नहीं है। हम अपने आप को शरीर, मन, विचारों आदि से जोड़ लेते हैं, जबकि वास्तव में हम उनसे अलग हैं।

    • "मैं और मेरा" का भ्रम: यह अध्यास ही 'मैं' और 'मेरा' के भाव को जन्म देता है। उदाहरण के लिए, 'मेरा मकान', 'मेरा शरीर', 'मेरा मन', 'मेरे विचार' - ये सभी आरोपित भावनाएँ हैं, क्योंकि ये चीज़ें हमारे होने से पहले भी थीं और हमारे न रहने पर भी रहेंगी, या वे उधार की हैं (जैसे विचार)।

    • मन की भूमिका: मन निरंतर बाहरी वस्तुओं को पकड़ता है और उन पर अपनी धारणाएँ आरोपित करता है। आँख जो दिखाती है, वह मन के अनुभवों और चित्रों से प्रभावित होती है, जिससे हम ऐसी चीजें देखते हैं जो वास्तव में संसार में नहीं हैं। मन एक प्रोजेक्टर की तरह है जो पदार्थ (पर्दे) पर अपने चित्र प्रक्षेपित करता है।

  • अविद्या (अज्ञान): यह 'माया' ही अविद्या या अज्ञान के रूप में व्यक्तिगत स्तर पर कार्य करती है। अविद्या वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति अपनी वास्तविक आत्मा (ब्रह्मन्) को भूल जाता है और स्वयं को शरीर, मन और संसार से जुड़ा हुआ मान लेता है। इस अज्ञान के कारण ही कथित अलगाव उत्पन्न होता है और व्यक्ति बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में फँस जाता है।

2. बंधन और कर्म का चक्र

  • अहंकार का निर्माण: जब हम यह मानते हैं कि 'मैं' ही जगत का केंद्र हूँ, तो अहंकार उत्पन्न होता है। यह अहंकार ही हमारी दुख, अशांति और बेचैनी का मूल कारण है। हम दूसरों की आँखों में अपनी चमक (अहंकार की पूंजी) खोजते हैं, जिससे हम हमेशा बाहरी सत्यापन पर निर्भर रहते हैं।

  • कर्मों का संचय: अज्ञान के कारण, व्यक्ति निरंतर कर्मों का संचय करता रहता है – अच्छे और बुरे दोनों। हर पल, चाहे हम जाग रहे हों या सो रहे हों, कर्म हो रहा है। यह कर्मों का बोझ हमें उसी-उसी चक्र में फँसाए रखता है, जिससे जीवन उबाऊ और दोहराव वाला बन जाता है।

  • प्रारब्ध कर्म: संचित कर्मों का परिणाम प्रारब्ध कर्म के रूप में सामने आता है, जिसे जीवित रहते हुए भोगना पड़ता है। यहाँ तक कि मुक्त व्यक्ति (जीवनमुक्त) भी अपने प्रारब्ध कर्मों के कारण सुख-दुख का अनुभव करते हैं। हालांकि, मुक्त व्यक्ति इन्हें साक्षी भाव से देखते हैं, जिससे उन्हें कोई असर नहीं पड़ता।

3. मुक्ति का मार्ग

मुक्ति का लक्ष्य आत्मा (स्वयं) और ब्रह्मन् (परम वास्तविकता) की एकता का अनुभव करना है, जैसा कि महावाक्य "तत्त्वमसि" (वह तुम ही हो) द्वारा इंगित किया गया है। इस मुक्ति को आत्म-साक्षात्कार या आत्म-ज्ञान कहते हैं, जो अज्ञान (अविद्या) के समूल नाश से प्राप्त होता है।

  • अहंकार का विसर्जन: व्यक्ति को अहंकार से मुक्त होना होगा। जब तक 'मैं' का भाव नहीं मिटता, तब तक सत्य की पहचान नहीं हो सकती। यह "मैं" एक "उधार गड्ढा" है जिसमें कोई खजाना नहीं मिलता।

  • नेति-नेति (यह नहीं, यह नहीं): आत्म-साक्षात्कार के लिए "नेति-नेति" का मार्ग अपनाया जाता है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति अपनी वास्तविक पहचान को जानने के लिए निरंतर उन सभी चीज़ों को नकारता है जो वह नहीं है – 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं विचार नहीं हूँ'। अंत में, जब नकारने के लिए कुछ भी नहीं बचता, तब भी जो शेष रहता है, वही साक्षी या द्रष्टा है।

  • अनासक्ति (वैराग्य): संसार की चीजों और अनुभवों से अनासक्ति विकसित करना महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है किसी भी चीज़ के प्रति तीव्र इच्छा (वासना) न रखना, चाहे वह सुख हो या दुख। वैराग्य से ज्ञान प्राप्त होता है, ज्ञान से उपराम (विश्राम) और उपराम से शांति।

  • साक्षी-भाव (Witness Consciousness): साक्षी बनने का अर्थ है अपने शरीर, मन और अनुभवों से खुद को अलग करके एक द्रष्टा के रूप में देखना। जब व्यक्ति साक्षी बन जाता है, तो उसे यह अनुभव होता है कि बाहरी घटनाएं (गाली, सम्मान आदि) उसे प्रभावित नहीं करतीं।

  • आत्म-साक्षात्कार के चरण: उपनिषद आध्यात्मिक यात्रा के चार मुख्य चरण बताते हैं:

    1. श्रवण (सुनना): गुरु के वचनों को बिना किसी पूर्वधारणा या विरोध के सुनना। कान के पास चेतना का होना, विचारों का शांत होना।

    2. मनन (चिंतन): सुनी हुई बातों पर सहानुभूतिपूर्वक और प्रेमपूर्वक चिंतन करना, उनके सत्य की गहराई में जाना। यह तर्क या विवाद से अलग है।

    3. निदिध्यासन (गहन चिंतन): जो सुना और मनन किया गया है, उसे अपने चित्त में दृढ़ता से स्थापित करना और उसे जीवन में जीना शुरू करना।

    4. समाधि (अवशोषण): वह अवस्था जहाँ ध्याता, ध्यान और ध्येय (देखने वाला, देखने की क्रिया और जो देखा जा रहा है) तीनों एक हो जाते हैं, और चित्त केवल ध्येय के विषय में निश्चल हो जाता है। समाधि में कोई अनुभव नहीं होता क्योंकि अनुभव करने वाला मन भी वहाँ नहीं होता, फिर भी यह परमानंद की अवस्था होती है। समाधि को धर्म-मेघ भी कहा जाता है, जहाँ कर्मों का संचय (पुण्य और पाप दोनों) जड़ से कट जाता है।

  • निर्वाण: बौद्ध दर्शन में 'निर्वाण' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ 'दीए के बुझ जाने' जैसा है। यह बताता है कि आत्मा कहीं जाती नहीं, बल्कि अहंकार और 'मैं' का भाव पूरी तरह विलीन हो जाता है।

4. जीवनमुक्ति (Liberated while Living)

  • जीवनमुक्ति वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति जीवन जीते हुए ही बंधन से मुक्त हो जाता है।

  • अद्वैत का अनुभव: जीवनमुक्त वह है जिसे व्यक्तिगत आत्मा और ब्रह्मन्, तथा ब्रह्मन् और सृष्टि के बीच कोई भेद बुद्धि द्वारा दिखाई नहीं पड़ता। उसके लिए जीवन और मृत्यु, सुख और दुख, सभी एक समान होते हैं।

  • अकर्मण्यता में क्रिया: जीवनमुक्त व्यक्ति निष्क्रिय रहता है, क्योंकि उसका मन वासनाओं से रहित होता है, फिर भी वह क्रियाशील रहता है, लेकिन उसकी क्रियाएं बिना किसी पूर्व योजना या पश्चाताप के घटित होती हैं।

  • अतीत और भविष्य से मुक्ति: जीवनमुक्त व्यक्ति के लिए अतीत के कर्मों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, और भविष्य की कोई योजना या चिंता नहीं रहती। वह स्वयं को आकाश की तरह असंग और उदासीन जानता है।

  • चैतन्य का स्वभाव: जीवनमुक्त व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि वह अजर, अमर और अछूत है, और कोई भी कर्म उसे छू नहीं सकता। वह अपने आप को चैतन्य-स्वरूप, आनंदमय और सभी जगह व्याप्त पाता है।

इस प्रकार, उपनिषदों का केंद्रीय संदेश यह है कि संसार एक मायावी भ्रम है जो अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है, और इस भ्रम से मुक्ति आत्म-साक्षात्कार (स्वयं को ब्रह्म जानना) के माध्यम से ही संभव है। जब यह ज्ञान उदय होता है, तो व्यक्ति का 'मैं' का भाव विलीन हो जाता है, और वह जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जहाँ वह अपने वास्तविक, शाश्वत और आनंदमय स्वरूप में स्थित होता है।


    1. कठोपनिषद में नचिकेता और यम के बीच संवाद ब्रह्मन और अमरता के ज्ञान को कैसे उजागर करता है? नचिकेता के गुणों और इस गहन ज्ञान को प्राप्त करने के महत्व का विश्लेषण करें।

    उपनिषदों और वेदांत में ब्रह्मन् तथा अमरता का ज्ञान:

    उपनिषद और वेदांत का केंद्रीय तत्व अद्वैत है, जिसका अर्थ है गैर-द्वैत या एकता [पहले की बातचीत]। यह सिद्धांत बताता है कि व्यक्तिगत आत्मा (आत्मन्) और परम वास्तविकता (ब्रह्मन्) वास्तव में एक ही हैं [पहले की बातचीत]। यह कोई दो अलग-अलग अस्तित्व नहीं हैं, बल्कि एक ही परम सत्ता के विभिन्न पहलू हैं।

    • ब्रह्मन् का स्वरूप: ब्रह्मन् को परम, निराकार, अपरिवर्तनशील, सर्वव्यापी, अनंत और शाश्वत वास्तविकता के रूप में वर्णित किया गया है [पहले की बातचीत]। यह जगत का मूल स्रोत है, फिर भी उससे अप्रभावित रहता है [पहले की बातचीत]। इसे शुद्ध अस्तित्व-चेतना-आनंद (सच्चिदानंद) के रूप में वर्णित किया गया है [पहले की बातचीत]। ॐ (प्रणव) का पवित्र अक्षर इसी एकाक्षर ब्रह्मन् का प्रतिनिधित्व करता है [पहले की बातचीत]। ध्यानबिंदु-उपनिषद भी प्राण को करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान सभी मनुष्यों के अंतःकरण में विराजमान हंसात्मक प्रणव के रूप में वर्णित करता है, जिसका दर्शन करने वाले कृतकृत्य हो जाते हैं। यह ब्रह्म स्वयं वृद्धि को प्राप्त होता है तथा दूसरों को वृद्धि प्रदान करता है, अतः यह अविनाशी शाश्वत ब्रह्म कहलाता है। यह निर्विकार, निराकार और अवयवरहित वस्तु है।

    • आत्मा का स्वरूप: आत्मा को व्यक्तिगत स्व या आत्मा कहा गया है [पहले की बातचीत]। यह द्रष्टा या साक्षी है, जो शरीर, मन और विचारों से अलग है [पहले की बातचीत]। ओशो के प्रवचन में बताया गया है कि आँख, कान, हाथ सभी बाहरी वस्तुओं को देख, सुन और छू सकते हैं, लेकिन स्वयं को नहीं छू या देख सकते। आत्मा वह तत्व है जो तब बचता है जब सब कुछ नकार दिया जाता है ("यह भी मैं नहीं हूँ" - नेति-नेति का मार्ग) [पहले की बातचीत, 51, 52]। यह स्वाभाविक रूप से शुद्ध और ज्ञान स्वरूप है [पहले की बातचीत]। ध्यानबिंदु-उपनिषद के अनुसार, जिस प्रकार वृक्ष अपनी कला के साथ स्थित रहता है और उसकी छाया कलाहीन होती है, उसी प्रकार आत्मा कलात्मक स्वरूप और निष्कल (मायारूप) भाव से सभी जगह विद्यमान है। आत्मा अजर और अमर है।

    • एकता (अद्वैत) का संबंध: उपनिषदों की केंद्रीय शिक्षा आत्मा और ब्रह्मन् की गैर-द्वैतता या एकता है [पहले की बातचीत]। व्यक्तिगत आत्मा परम ब्रह्मन् से अलग नहीं है। इसे "तत्त्वमसि" (वह तुम ही हो) जैसे महावाक्यों के माध्यम से व्यक्त किया गया है [पहले की बातचीत]। यह स्थिति घड़े के भीतर के आकाश (आत्मा) का बड़े बाहरी आकाश (ब्रह्मन्) के साथ अंतर्निहित रूप से एक होने जैसा है [पहले की बातचीत, 89]। ब्रह्मन् को 'तत्' शब्द से प्रसिद्ध किया गया है, जो माया रूप उपाधि वाला, जगत का उत्पत्ति स्थान, सर्वज्ञता आदि लक्षणों से युक्त, परोक्ष रूप से मिश्रित, सत्य आदि स्वरूप वाला परमात्मा है। वहीं, 'मैं' जो अनुभव तथा शब्द का आश्रय है, जिसका ज्ञान अंतःकरण से मिथ्या है, उसे 'त्वम्' शब्द से पुकारा जाता है। उपनिषद जोर देते हैं कि आप परमात्मा हो जाएं

    • अमरता और मुक्ति: अमरता का ज्ञान इस अद्वैत भाव की अनुभूति से जुड़ा है। जब साधक शरीर, मन और अहंकार से अपना तादात्म्य तोड़ लेता है, तो उसे यह अनुभव होता है कि वह शाश्वत और अमूर्त है। यह मृत्यु के भय से मुक्ति दिलाता है, क्योंकि यह बताता है कि आत्मा को कोई भी कर्म छूता नहीं है। जिसे अहंभाव का उदय न हो, जो जीवन में ही होशपूर्वक मृत्यु को जान लेता है, और जो जीवन्मुक्त हो जाता है, वह परम सुख और परम दुःख दोनों को एक साथ भोग लेता है, क्योंकि उसके लिए समय कम होने से सभी चीजें संगृहीत और एकाग्र हो जाती हैं। शरीर तो अपने कर्मफल भोगेगा, लेकिन ज्ञानी उसे आकाश-भाव से भोगता है

    नचिकेता के गुण और गहन ज्ञान की प्राप्ति का महत्व:

    यद्यपि मैं नचिकेता के विशिष्ट गुणों पर कठोपनिषद से सीधे उद्धरण नहीं दे सकता, लेकिन ओशो के प्रवचन में गहन आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक गुणों का विस्तृत वर्णन मिलता है, जो नचिकेता जैसे किसी भी सच्चे साधक में होने चाहिए:

    1. उत्सुकता से बढ़कर मुमुक्षा:

      • ज्ञान प्राप्ति के लिए मात्र कौतूहल या बौद्धिक जिज्ञासा पर्याप्त नहीं है। कौतूहल क्षणिक होता है, जैसे बच्चे का राह चलते हुए किसी पेड़ का नाम पूछना। बौद्धिक जिज्ञासा केवल चर्चा या व्यायाम के लिए होती है, इससे जीवन में कोई अंतर नहीं आता।

      • सत्य की खोज के लिए मुमुक्षा (मुमुक्षत्व) आवश्यक है, जिसका अर्थ है होने की खोज। यह गहरी प्यास है कि "क्या मैं ईश्वर हो सकता हूँ?", "क्या मैं मुक्त हो सकता हूँ?"। इसमें व्यक्ति को दाँव पर लगना पड़ता है, यानी स्वयं को दाँव पर लगाने की हिम्मत होनी चाहिए। ओशो कहते हैं कि धर्म जुआरियों का काम है।

    2. अहंकार का त्याग (अहं-भाव का क्षय):

      • इस ज्ञान को प्राप्त करने की सबसे बड़ी बाधा अहंकार (अहं-भाव) है। अहंकार दूसरों की धारणाओं पर निर्भर करता है। हम एक झूठा केंद्र निर्मित कर लेते हैं जो दूसरों द्वारा बनाए गए चित्र पर आधारित होता है।

      • धर्म का जोर अहंकार को छोड़ देने पर इसलिए है, क्योंकि जिसे यह ख्याल है कि मैं जगत का केंद्र हूँ, वह कभी सत्य को नहीं जान पाएगा

      • अहंकार के क्षीण होने, टूटने, विसर्जित होने पर ही परमात्मा की खोज सच्ची होती हैअहं-भाव का उदय न हो, तब ज्ञान की परम अवधि समझना। गुरुजिएफ का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि दूसरों के ख्याल को छोड़ना अहंकार को बिखेर देता है और व्यक्ति को अपने केंद्र पर फेंक देता है।

    3. साक्षी-भाव और वैराग्य:

      • साक्षी (गवाह या देखने वाला) ज्ञान की आधारशिला है। यह नेति-नेति (यह नहीं, यह नहीं) की प्रक्रिया से प्राप्त होता है, जब शरीर, मन और विचारों को भी 'मैं नहीं हूँ' कहकर नकार दिया जाता है।

      • यह वह शुद्ध तत्व है जो सदा ही देखने वाला है और कभी दिखाई नहीं पड़ता। जो साक्षी हो जाता है, वह सब मालकियत छोड़ देता है, क्योंकि वह अपना मालिक हो जाता है

      • वैराग्य का अर्थ है पराई पर दृष्टि जानी बंद हो जाए। यह दूसरों से पूरी तरह छुटकारा है, चाहे वे मित्र हों या शत्रु, अनुकूल हों या प्रतिकूल। भोगने योग्य पदार्थ मौजूद हों और भीतर भोगने की वासना न हो, तब वैराग्य की अवधि होती है। यह आत्म-स्थित होने का मार्ग है, जहां व्यक्ति के प्राण कहीं और वस्तुओं या संबंधों में बंधे नहीं होते।

      • जो जीवन्मुक्त होता है, वह जीवात्मा तथा ब्रह्म का भेद और ब्रह्म तथा सृष्टि का भेद बुद्धि द्वारा कभी नहीं जानता। वह सम-भाव में रहता है।

    4. श्रावण, मनन, निदिध्यासन और समाधि:

      • ज्ञान प्राप्त करने के लिए ऋषियों ने चार चरण बताए हैं: श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि

      • श्रवण (सुनना): इसका अर्थ है कान भी वहाँ हों और आप भी वहाँ हों। इसमें बिना निर्णय लिए, बिना स्वीकार या अस्वीकार किए केवल सुनना होता है। यह मन के विचारों और चर्चा को बंद कर देता है।

      • मनन (चिंतन): यह श्रवण के बाद होता है और इसमें जो सुना गया है उस अर्थ पर युक्तिपूर्वक विचार करना शामिल है। यह चिंतन सहानुभूतिपूर्ण और प्रेमपूर्ण होना चाहिए, न कि तर्क या विवाद पर आधारित। इसका उद्देश्य सत्य की खोज करना है, न कि त्रुटियां खोजना।

      • निदिध्यासन (गहन चिंतन/अनुशीलन): श्रवण और मनन द्वारा जब अर्थ निर्विवाद हो जाए, तो चित्त को उसमें स्थापित करके एकतान बनना निदिध्यासन है। यह जो दिखा हो सही, फिर उसी को जीना शुरू कर देना है। इस चरण में साधक को अनुभव होता है कि मैं दूसरा हो गया, मैं नया हूँ, मेरा दूसरा जन्म हो गया

      • समाधि (गहरी एकाग्रता/अवशोषण): इसमें ध्याता तथा ध्यान का त्याग करके चित्त केवल एक ध्येय को ही विषय रूप माने और वायु रहित स्थान में रखे हुए दीए के समान निश्चल बन जाए। यह द्वंद्व से मुक्त (निर्विकल्प) अवस्था है [पहले की बातचीत]। समाधि की स्थिति में चित्त निर्विकार और निष्क्रिय रहता है। महावीर कहते हैं कि तीन जब तक बचे हैं, तब तक जानना कि तीन बचे हैं, यानी ध्येय, ध्याता, ध्यान में से केवल एक ही रह जाता है। यह ज्ञान का अंतिम परिणाम है, जहां प्रज्ञा का उदय होता है।

    ज्ञान प्राप्त करने का महत्व:

    इस गहन ज्ञान को प्राप्त करने का महत्व असाधारण है, क्योंकि यह व्यक्ति के संपूर्ण जीवन और अस्तित्व को रूपांतरित कर देता है:

    1. भ्रम से मुक्ति:

      • आत्मा और ब्रह्मन् के बीच का कथित अलगाव माया या अविद्या के कारण है [पहले की बातचीत]। माया वह है जो वास्तविक नहीं है लेकिन वास्तविक प्रतीत होता है। यह स्व-आरोपित भ्रम है, मन का प्रक्षेपण।

      • ज्ञान की प्राप्ति से यह भ्रम विलीन हो जाता है। जैसे प्रकाश में अंधेरा विलीन हो जाता है। जब ज्ञान होता है, तो सारा संसार, जो भी फैलाव था, वह सिमट जाता है और साक्षी में लीन हो जाता है

    2. दुःख और पीड़ा से मुक्ति:

      • व्यक्ति की बेचैनी इसलिए है क्योंकि वह विराट होकर भी छोटी देह में कैद है। दुःख का कारण यह है कि हम सुख चाहते हैं और अशांति का कारण यह है कि हम शांति चाहते हैं। हमारे चुनाव में ही हमारा संसार है

      • जब कोई व्यक्ति चयनरहित (निर्विकल्प) हो जाता है, तो उसे आत्मा का दर्शन होता है। वह सम-भाव में रहता है। ज्ञानी को सुख-दुःख अपने कर्मों के कारण आते रहते हैं, लेकिन वह उन्हें साक्षी भाव से देखता है और उनसे अप्रभावित रहता है।

    3. अहंकार और वासना का नाश:

      • ज्ञान का फल उपरति (विश्राम) है। जब ज्ञान का दीया जलता है, तो चित्त, चैतन्य, शरीर, अस्तित्व सब उपरति को उपलब्ध हो जाते हैं

      • कर्मों का फल भोगना अनिवार्य है, लेकिन ज्ञाता को प्रारब्ध कर्म का संबंध नहीं रहतापुण्य-पाप दोनों का समूह जड़ से कट जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि अच्छे कर्मों का औचित्य नहीं, बल्कि यह कि अच्छे कर्म सुख देते हैं, और जब सुख प्राप्त हो जाता है तो उसकी व्यर्थता दिखाई पड़ती है, जिससे व्यक्ति धर्म की यात्रा पर निकलता है।

      • यह ज्ञान व्यक्ति को निर्विकार और निष्क्रिय बनाता है, क्योंकि विचार तभी उठते हैं जब कुछ पाना बाकी हो।

    4. परम आनंद की प्राप्ति:

      • जब व्यक्ति भीतर शून्य होता है, तो आनंद उसका सहज परिणाम होता है। आनंद बाहरी वस्तुओं या परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता, बल्कि स्वयं के होने पर ही निर्भर करता है।

      • यह अकारण सुख है, जिसे कोई छीन नहीं सकता, क्योंकि यह व्यक्ति के भीतर से आता है

      • ज्ञान की प्राप्ति से अनंत, अखंड, आनंदमय अमृत के सागर में लीन होने का अनुभव होता है।

    यह ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग कठिन है, जिसमें स्वयं को खोजना, अहंकार को मिटाना और गहन आध्यात्मिक साधनाओं से गुजरना शामिल है। लेकिन यह मार्ग अंततः व्यक्ति को परम मुक्ति, शांति और आनंद की स्थिति तक ले जाता है, जहाँ वह स्वयं को ब्रह्मन् के रूप में अनुभव करता है।


    1. बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के बीच संवाद में आत्मन की प्रकृति और इसके महत्व पर विस्तृत चर्चा करें। यह संवाद द्वंद्व से परे ज्ञान की स्थिति को कैसे प्रस्तुत करता है?

    उपनिषद दर्शन में, 'संसार' को 'माया' और 'अज्ञान' के संदर्भ में समझा जाता है। व्यक्ति इस भ्रम के चक्र से आत्म-साक्षात्कार और अज्ञान के विनाश के माध्यम से मुक्त हो सकता है।

    1. 'संसार' का स्वरूप: माया और अज्ञान के संदर्भ में

    उपनिषदों के अनुसार, हमें जो कुछ भी दिखाई देता है, वह माया का प्रकटीकरण है। यह संसार लगभग झूठा (मिथ्या) है। यह पूरी तरह असत्य नहीं है, बल्कि सत्य और असत्य के बीच की स्थिति है, जो असत्य होते हुए भी सत्य जैसा प्रतीत होता है। यह एक प्रकार का अध्यास (Superimposition) है, जिसका अर्थ है जो नहीं है उसका दिखाई पड़ना या प्रक्षेपण (Projection)। हम अपनी चेतना पर कुछ ऐसा आरोपित कर देते हैं जो वहाँ नहीं है। हम अपने आप को शरीर, मन, विचारों आदि से जोड़ लेते हैं, जबकि वास्तव में हम उनसे अलग हैं। यह अध्यास ही 'मैं' और 'मेरा' के भाव को जन्म देता है।

    'माया' ही व्यक्तिगत स्तर पर अविद्या (अज्ञान) के रूप में कार्य करती है। अविद्या वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति अपनी वास्तविक आत्मा (ब्रह्मन्) को भूल जाता है और स्वयं को शरीर, मन और संसार से जुड़ा हुआ मान लेता है। इस अज्ञान के कारण ही कथित अलगाव उत्पन्न होता है और व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र में फँस जाता है, जिसे 'संसार' कहा जाता है।

    ओशो के अनुसार, यह जगत् हमारी ही आँखों का फैलाव है। जो हम देखते हैं, वह हमारा ही डाला हुआ है। हमारा मन निरंतर बाहरी वस्तुओं को पकड़ता है और उन पर अपनी धारणाएँ आरोपित करता है, जिससे हम ऐसी चीजें देखते हैं जो वास्तव में संसार में नहीं हैं। मन एक प्रोजेक्टर की तरह है जो पदार्थ (पर्दे) पर अपने चित्र प्रक्षेपित करता है।

    2. 'आत्मन' (ब्रह्मन्) की प्रकृति और महत्व

    आत्मन परम वास्तविकता है, जो शुद्ध चेतना और साक्षी स्वरूप है।

    • अद्वैत स्वरूप: ध्यानबिन्दु उपनिषद के अनुसार, आत्मन निर्विकार, निराकार और अवयवरहित है, जिसमें कोई भेद नहीं हो सकता। यह एक और अद्वैत ब्रह्म ही सब कुछ है, और कोई भी नहीं। यह परम तत्त्व एकस्वरूप ही है। वृक्ष अपनी संपूर्ण कला के साथ स्थित रहता है और उसकी छाया कलाहीन (निष्कल) होती है, उसी प्रकार आत्मा कलात्मक स्वरूप और निष्कल (मायारूप) भाव से सभी जगह विद्यमान है।

    • साक्षी भाव: हमारा वास्तविक स्वरूप साक्षी (Witness) है। साक्षी का अर्थ है देखने वाला, गवाह। जो देख रहा है, वही मैं हूँ, और जो दिखाई पड़ रहा है, वही जगत् है। अज्ञान या अध्यास के कारण, देखने वाला गलती से यह समझ लेता है कि जो दिखाई पड़ रहा है, वह मैं हूँ।

    • अछूता और अविकारी: आत्मन (ब्रह्मन्) वह है जिसे कर्म छूता नहीं है, मोक्ष भी नहीं छूएगा, ईश्वर भी नहीं छूएगा। यह सब कुछ होता है, और भीतर जो छिपा है वह जानता है कि कुछ भी नहीं छूटा। यह जीवन भी निकल जाता है, मृत्यु भी निकल जाती है; जवानी भी, बुढ़ापा भी; और भीतर वह जो कुँवारापन है, वह अछूता, अस्पर्शीय रह जाता है

    • ज्ञान और प्रकाश स्वरूप: आत्मन शुद्ध और ज्ञान स्वरूप है। यह स्वयं प्रकाश और अधिष्ठान-ब्रह्मरूप है। जिस प्रकार प्रकाश में अंधकार विलीन हो जाता है, वैसे ही अद्वैतीय परम तत्त्व में भ्रांति का कारण विलीन हो जाता है। यह परम तत्त्व एकस्वरूप ही है, उसमें भेद कैसे रह सकता है।

    • अनंत और अपरिमेय: परमात्मा सागर ही सागर है। इसका कोई किनारा नहीं जिस पर आपको फेंका जा सके। यह प्रलयकाल के समुद्र की तरह परिपूर्ण है।

    आत्मन का महत्व इस बात में है कि यह हमारी परम वास्तविकता है, जो हमें इस भ्रमपूर्ण संसार के बंधनों से मुक्त कर सकती है। इसे जाने बिना, व्यक्ति शरीर, मन और अहंकार के भ्रम में फँसा रहता है。

    3. द्वंद्व से परे ज्ञान की स्थिति और मुक्ति

    व्यक्ति इस चक्र से आत्म-साक्षात्कार और अज्ञान के विनाश के माध्यम से मुक्त हो सकता है। यह मुक्ति द्वंद्व से परे एक ज्ञान की स्थिति है।

    • अहंकार का विसर्जन: मुक्ति के लिए अहंकार का विसर्जन अनिवार्य है। अहंकार को पकड़ने से मुक्त हुआ मनुष्य ही आत्म-स्वरूप को प्राप्त करता है। यह "मैं" एक "उधार गड्ढा" है जिसमें कोई खजाना नहीं मिलता।

    • अध्यास का निराकरण: उपनिषद कहता है: 'देह, इन्द्रियाँ आदि अनात्म पदार्थ हैं, इनके ऊपर मैं-मेरा ऐसा जो भाव होता है, वह अध्यास है। इसलिए बुद्धिमान को ब्रह्मनिष्ठा द्वारा इस अध्यास को दूर करना चाहिए।' ब्रह्मनिष्ठा का अर्थ है स्वयं में निष्ठा। जैसे दर्पण में प्रतिबिंब दिखाई देता है, वैसे ही जिसमें इस जगत् का भास दिखाई पड़ता है, वही ब्रह्म मैं हूँ, इस प्रकार जानकर तू कृतार्थ हो।

    • आत्म-ज्ञान द्वारा मुक्ति: अज्ञान में ही बंधन निर्मित होते हैं, अतः यदि बंधनों को खोलना हो, तो ज्ञान से ही उनकी गाँठ खुल सकती है। आत्मा में ही सब वस्तुओं का आभास केवल आरोपित है, उसको दूर करने से स्वयं ही पूर्ण अद्वैत और क्रिया-शून्य परब्रह्म बन जाता है। दृष्टियाँ तभी क्षीण होती हैं, जब सभी वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं; क्योंकि हर दृष्टि वासना का खेल है, वासना का फैलाव है

    • निर्विकल्प समाधि: जब निर्विकल्प समाधि द्वारा आत्मा का दर्शन होता है, उसी समय हृदय की अज्ञानरूप गाँठ का पूर्ण नाश हो जाता है। निर्वाण शब्द का अर्थ है दीये के बुझ जाने को। जब दीया बुझता है, तो आप बता सकते हैं ज्योति कहाँ चली गई? वह कहीं नहीं जाती, बस बुझ गई, खो गई, लीन हो गई।

    • साक्षी भाव का विकास: जब भीतर साक्षी होता है, तब गाली या सम्मान दोनों से कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं होती। भीतर कुछ होता ही नहीं। यह अवस्था आत्मगत समता है, जिसका अर्थ है कि चाहे कुछ भी बाहर होता रहे, मैं साक्षी से ज्यादा नहीं हूँ।

    • निर्विकार और निष्क्रिय स्थिति: जब भीतर का आकाश बाहर के आकाश में एक हो जाता है, जब भीतर का शून्य बाहर के शून्य से मिल जाता है, तब सब निर्विकार और निष्क्रिय हो जाता है। विचार ही विकार है। जब तक कुछ भी पाने को बाकी है, विचार जारी रहेगा। जिस दिन आप राजी हैं इस बात के लिए कि अब कुछ भी पाने को नहीं है, उस दिन विचार समाप्त हो जाता है।

    • कर्म और प्रारब्ध का साक्षीपन: ज्ञानी को प्रारब्ध कर्म का संबंध नहीं रहता। देह की भ्रांति ही प्राणी के प्रारब्ध कर्म की कल्पना है। आरोपित अथवा भ्रांति से जो कल्पित हो, वह सच्चा कहाँ से होगा? जो असत् है, जो है ही नहीं, उसका जन्म कहाँ से होता है? जिसका जन्म नहीं हुआ उसका नाश कहाँ होता है? जो दिखायी पड़ता है, और था नहीं, उसका जन्म भी नहीं होता, उसकी मृत्यु भी नहीं होती; वह सिर्फ भ्रांति है।

    ज्ञान की यह स्थिति उस समय प्राप्त होती है जब साधक द्वंद्व से मुक्त हो जाता है—सुख-दुःख, प्रेम-घृणा, सफलता-असफलता—इन सभी विपरीतताओं से ऊपर उठ जाता है। यह चुनाव का त्याग है, निर्विकल्प स्थिति है। यह संसार चुनाव है, मोक्ष अचुनव है। जो चुनव-रहित हो जाता है, जो निर्विकल्प हो जाता है, उसे आत्मा का दर्शन होता है।

    संक्षेप में, याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद (जिसकी अवधारणाएँ अन्य उपनिषदों में भी प्रतिध्वनित होती हैं) में आत्मा की प्रकृति को परम वास्तविकता, शुद्ध चेतना और साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो माया और अज्ञान से उत्पन्न द्वंद्वपूर्ण संसार से परे है। मुक्ति का मार्ग अहंकार के विसर्जन, अध्यास के निराकरण, आत्म-ज्ञान की प्राप्ति, और निर्विकल्प समाधि तथा साक्षी भाव में प्रतिष्ठित होने से प्रशस्त होता है। यह ऐसी स्थिति है जहाँ व्यक्ति न केवल सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है, बल्कि द्वंद्वों से भी परे होकर शाश्वत आनंद और शांति का अनुभव करता है।


    1. विभिन्न उपनिषदों में वर्णित 'ॐ' के प्रतीकवाद और महत्व की जाँच करें। 'ॐ' ब्रह्मन और सृष्टि की एकता को कैसे समाहित करता है, और ध्यान प्रथाओं में इसकी क्या भूमिका है?

    उपनिषदों में 'ॐ' को एक अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण प्रतीक माना गया है, जो गहन दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थों से ओत-प्रोत है।

    'ॐ' का प्रतीकवाद और महत्व:

    • एकाक्षर ब्रह्म और परम ज्योति: 'ॐ' को एकाक्षर ब्रह्म के रूप में वर्णित किया गया है, जो सभी मुमुक्षुओं (मोक्ष चाहने वालों) का लक्ष्य है। इसे समग्रता का कारण और परम ज्योति कहा गया है।

    • सृष्टि की त्रिमूर्ति और ब्रह्मांडीय आयामों का समावेशन: 'ॐ' तीन अक्षरों — 'अ' (अकार), 'उ' (उकार), और 'म' (मकार) — का संयोजित रूप है। ये तीनों अक्षर ब्रह्मांडीय शक्तियों और लोकों का प्रतिनिधित्व करते हैं:

      • 'अकार': इसमें पृथ्वी, अग्नि, ऋग्वेद, भूः लोक और ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) का लय होता है। इसे पीत वर्ण (पीला रंग) और रजोगुण (गतिशील गुण) से युक्त बताया गया है।

      • 'उकार': इसमें अंतरिक्ष, यजुर्वेद, वायु, भुः लोक और जनार्दन विष्णु (पालनकर्ता) का लय होता है। इसे श्वेत वर्ण (सफेद रंग) और सात्त्विक गुण (शुद्धता का गुण) से युक्त बताया गया है।

      • 'मकार': इसमें द्यौ (स्वर्ग), सूर्य, सामवेद, स्वः लोक और महेश्वर (शिव, संहारकर्ता) का लय होता है। इस प्रकार, 'ॐ' ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति और उनसे जुड़े वेदों तथा लोकों को समाहित करता है, जो ब्रह्मांड की संपूर्णता और उसकी उत्पत्ति, स्थिति तथा लय को दर्शाता है।

    • हंसात्मक प्रणव: इसे 'हंसात्मक प्रणव' भी कहा गया है, जो गमन और आगमन में विद्यमान होते हुए भी गमन आदि से रहित है। यह करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान सभी मनुष्यों के अंतःकरण में विराजमान है। यह मनुष्य के भीतर स्थित आत्मतत्व का प्रतीक है।

    'ॐ' ब्रह्मन और सृष्टि की एकता को कैसे समाहित करता है:

    • 'ॐ' का प्रत्येक घटक (अ, उ, म) सृष्टि के एक पहलू का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि 'ॐ' का समग्र रूप इन सभी से परे और इनका कारण (परम ज्योति) है। यह इंगित करता है कि ब्रह्मांड की विविधता (सृष्टि) अंततः एक ही अविभाज्य सत्ता (ब्रह्मन) से निकली है और उसी में विलीन होती है

    • यह स्वयं (आत्मा) और ब्रह्मांड (ब्रह्मन) के बीच की एकता को दर्शाता है। जो योगी इस 'हंसात्मक प्रणव' का दर्शन करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं, जिसका अर्थ है कि वे स्वयं को ब्रह्मांडीय चेतना के साथ एक अनुभव कर लेते हैं।

    ध्यान प्रथाओं में इसकी भूमिका:

    'ॐ' ध्यान प्रथाओं में केंद्रीय भूमिका निभाता है और विभिन्न योगिक क्रियाओं में इसका उपयोग किया जाता है:

    लक्ष्य के रूप में: 'ॐ' सभी मुमुक्षुओं का लक्ष्य है।

    प्राणायाम और कुण्डलिनी जागरण:

    योगी को 'प्रणव ध्वनि' (ॐ ध्वनि) का तब तक ध्यान करना चाहिए जब तक कि नाद पूरी तरह से विलीन न हो जाए।

    सांडिल्य उपनिषद में इड़ा नाड़ी से वायु को १६ मात्रा में खींचते हुए 'अकार' का ध्यान करने, फिर ६४ मात्रा में अंतः कुंभक करते हुए 'उकार' का ध्यान करने और ३२ मात्रा में पिंगला नाड़ी से रेचक करते हुए 'मकार' का ध्यान करने की विधि बताई गई है। इस अभ्यास को बार-बार करने से कुम्भक सिद्ध होता है और अंततः कुंडलिनी शक्ति जागृत हो जाती है

    प्रणव की अर्धमात्रा (अव्यक्त नाद उच्चारण) को रस्सी बनाकर हृदय कमल रूपी कूप नाल (सुषुम्ना) मार्ग द्वारा जल रूपा कुंडलिनी को भौहों के मध्य में लय किया जाता है।

    आंतरिक चेतना का अनुभव: 'ॐ' के ध्यान से मन शांत होता है, विचारों का प्रवाह रुकता है, और आंतरिक चेतना का अनुभव होता है। यह हठ योग में भी सहायक है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास से चित्त आकाश में विचरण करने लगता है और साधक काल के बंधन से मुक्त हो जाता है, जिसमें 'ॐ' ध्वनि का महत्व है।

    मोक्ष और कैवल्य की प्राप्ति: ध्यानबिंदु उपनिषद के अनुसार, 'ह' कार स्फटिक प्रभायुक्त आकाश रूप 'समान' का बीज है, और 'समान' प्राण एक हैं, दोनों एक ही जीव हैं। चित्त को दृढ़ता से समाहित कर पूरक, कुम्भक, रेचक तीनों क्रियाएं संपन्न करते हुए प्रणव (ॐकार) का उच्चारण करने वाले योगी कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त करते हैं।


    1. बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित पंच-अग्नि सिद्धांत की व्याख्या करें और इसकी प्रतीकात्मकता और आध्यात्मिक निहितार्थों का विश्लेषण करें। यह सिद्धांत मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र की हमारी समझ में कैसे योगदान देता है, और ज्ञान इस चक्र से मुक्ति का मार्ग कैसे प्रदान करता है?

    आपके द्वारा प्रदान किए गए स्रोतों में बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित पंच-अग्नि सिद्धांत पर प्रत्यक्ष रूप से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। विशेष रूप से, "बृहदारण्यक उपनिषद Krishnanand.pdf" नामक स्रोत के उद्धरणों में इस सिद्धांत का कोई उल्लेख नहीं मिला।

    हालाँकि, आपके प्रश्न के अन्य भाग, जैसे मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र की समझ और ज्ञान द्वारा इस चक्र से मुक्ति, पर उपलब्ध स्रोतों में विस्तृत चर्चा की गई है। मैं इन्हीं स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर आपके प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करूँगा, साथ ही यह स्पष्ट कर दूँगा कि पंचाग्नि सिद्धांत की व्याख्या इसमें शामिल नहीं है।

    उपनिषद दर्शन में मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र तथा ज्ञान द्वारा मुक्ति:

    उपनिषदों के अनुसार, हमारा यह दृश्यमान संसार माया का प्रकटीकरण है। इसे मिथ्या या लगभग झूठा कहा गया है, जिसका अर्थ है कि यह पूरी तरह असत्य नहीं है, बल्कि सत्य और असत्य के बीच की स्थिति है, जो असत्य होते हुए भी सत्य जैसा प्रतीत होता है। यह एक प्रकार का अध्यास (Superimposition) है, जहाँ जो नहीं है उसका दिखाई पड़ना या प्रक्षेपण (Projection) होता है। हम अपनी चेतना पर कुछ ऐसा आरोपित कर देते हैं जो वहाँ नहीं है, जैसे स्वयं को शरीर, मन, विचारों आदि से जोड़ लेना। यह अध्यास ही 'मैं' और 'मेरा' के भाव को जन्म देता है।

    1. 'संसार' का स्वरूप: माया और अज्ञान के संदर्भ में

    • माया: यह जगत् हमारी ही आँखों का फैलाव है; जो हम देखते हैं, वह हमारा ही डाला हुआ है। मन एक प्रोजेक्टर की तरह है जो पदार्थ (पर्दे) पर अपने चित्र प्रक्षेपित करता है। जैसे आँख को दबाकर दो चाँद दिखाई दें, वैसे ही मन के अनुभवों से हमारी दृष्टि दबी हुई है और हम जो देखते हैं, मन हमें वही दिखाता है।

    • अविद्या (अज्ञान): 'माया' ही व्यक्तिगत स्तर पर अविद्या (अज्ञान) के रूप में कार्य करती है। अविद्या वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति अपनी वास्तविक आत्मा (ब्रह्मन्) को भूल जाता है और स्वयं को शरीर, मन और संसार से जुड़ा हुआ मान लेता है। इसी अज्ञान के कारण व्यक्ति का अहंकार (अहं-भाव) पैदा होता है, जहाँ उसे लगता है कि 'मैं' जगत का केंद्र हूँ। यह अहंकार दूसरों की धारणाओं पर निर्भर करता है, और यह एक झूठा केंद्र है। इस अज्ञान के कारण ही कथित अलगाव उत्पन्न होता है और व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र में फँस जाता है, जिसे 'संसार' कहा जाता है।

    2. कर्म और पुनर्जन्म का चक्र

    • व्यक्ति प्रतिदिन, प्रतिपल कर्मों का संग्रह करता रहता है। ये कर्म अच्छे या बुरे हो सकते हैं। इन कर्मों का समूह ही पुनर्जन्म का कारण बनता है। संसार में जो सुख और दुःख हम भोगते हैं, वे हमारे कर्मों के फल हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति कर्म करता है, वह अपने होने (सत्ता) को दबाता चला जाता है।

    • अनादि संसार में करोड़ों कर्म इकट्ठे हो जाते हैं। ये कर्म एक रिकॉर्ड की तरह हैं, जैसे एक घिसी हुई रिकॉर्ड जिस पर सुई फँस जाती है और वही आवाज़ बार-बार आती है।

    • मृत्यु: उपनिषद में मृत्यु को "जीवन की अंतिम परिणति" कहा गया है। हम अपनी मृत्यु को कभी नहीं जानते क्योंकि हम मरने से पहले बेहोश हो जाते हैं। यही कारण है कि हमें कभी यह भरोसा नहीं होता कि हम भी मरेंगे, क्योंकि हमने अपनी मृत्यु का अनुभव नहीं किया है। जीवन और मृत्यु दोनों ही हमें अनुभव नहीं होते, और उनके बीच की जीवनधारा भी अपरिचित रह जाती है।

    3. 'आत्मन' (ब्रह्मन्) की प्रकृति और महत्व

    • आत्मन परम वास्तविकता है, जो शुद्ध चेतना और साक्षी स्वरूप है। ध्यानबिन्दु उपनिषद के अनुसार, आत्मन निर्विकार, निराकार और अवयवरहित है, जिसमें कोई भेद नहीं हो सकता। यह एक और अद्वैत ब्रह्म ही सब कुछ है, और कोई भी नहीं

    • शंडिल्य उपनिषद के अनुसार, जिस प्रकार तिलों में तेल और पुष्पों में गंध आश्रित है, उसी प्रकार पुरुष के शरीर के भीतर और बाहर आत्मतत्त्व विद्यमान है। यह वृक्ष की तरह अपनी संपूर्ण कला के साथ स्थित रहता है और इसकी छाया कलाहीन (निष्कल) होती है।

    • हमारा वास्तविक स्वरूप साक्षी (Witness) है – देखने वाला, गवाह। आत्मन वह है जिसे कर्म छूता नहीं है; यह अछूता, अस्पर्शीय रह जाता है।

    • यह स्वयं प्रकाश और अधिष्ठान-ब्रह्मरूप है। जिस प्रकार प्रकाश में अंधकार विलीन हो जाता है, वैसे ही अद्वितीय परम तत्त्व में भ्रांति का कारण विलीन हो जाता है।

    4. द्वंद्व से परे ज्ञान की स्थिति और मुक्ति का मार्ग

    • ज्ञान का अर्थ है उस परम सत्य को जान लेना जो अद्वैत है, जहाँ कोई भेद नहीं है। जब आत्मा और ब्रह्म का भेद, तथा ब्रह्म और सृष्टि का भेद बुद्धि द्वारा नहीं जाना जाता, तब वह जीवन्मुक्त कहलाता है।

    • साक्षी भाव: यह सबसे महत्वपूर्ण शब्द है। जब व्यक्ति को साक्षी का अनुभव होता है, तो वह मालिक होने की वासना छोड़ देता है, क्योंकि उसे ज्ञान हो जाता है कि किसी और का मालिक होने का कोई उपाय नहीं है। साक्षी भाव से व्यक्ति सब कुछ होता हुआ देखता है, लेकिन स्वयं अछूता रहता है। वह संसार में रहते हुए भी उससे अलिप्त रहता है, जैसे मदिरा से भरा घड़ा मदिरा की गंध से लिप्त नहीं होता।

    • अहंकार का त्याग: अहंकार को छोड़ देने पर ही व्यक्ति आत्म-स्वरूप को प्राप्त करता है। जब अहंकार क्षीण होता है, टूटता है, विसर्जित होता है, तभी परमात्मा की खोज सफल होती है। जब अहं-भाव का उदय न हो, तब ज्ञान की परम अवधि समझनी चाहिए。

    • निर्वाण: बुद्ध ने मोक्ष की जगह निर्वाण शब्द चुना। निर्वाण का अर्थ है दीये का बुझ जाना, जहाँ ज्योति कहीं जाती नहीं, बल्कि खो जाती है, लीन हो जाती है। यह अहंकार का बुझ जाना है, ताकि जो नहीं बुझ सकता (ब्रह्म) उसका अनुभव हो सके।

    • निर्द्वंद्व और निर्विकल्प: जहाँ-जहाँ द्वंद्व है (सुख-दुःख, प्रेम-घृणा, सफलता-असफलता), वहाँ-वहाँ सत्य नहीं है। जो सदा अपरिवर्तित एकरूप है, वही सत्य है। जो द्वंद्व से परे (निर्द्वंद्व) हो जाता है, जो निर्विकल्प हो जाता है, उसे आत्मा का दर्शन होता है। ऐसे व्यक्ति को न कुछ त्यागना होता है, न कुछ लेना होता है, क्योंकि भोग और त्याग दोनों विलीन हो जाते हैं।

    • ज्ञान की प्रक्रिया (श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि):

      1. श्रवण (सुनना): गुरु के उपदेशों को केवल सुनना, बिना स्वीकार या अस्वीकार किए। इसमें चित्त विचारहीन और तर्कहीन होता है, ताकि कही गई बात सीधे हृदय तक उतर सके।

      2. मनन (चिंतन): सुनी हुई बातों का युक्तिपूर्वक विचार करना। यह परिचित विषय के साथ बुद्धि की प्रक्रिया है, जहाँ सहानुभूति और प्रेम से चिंतन किया जाता है।

      3. निदिध्यासन (गहराई से आत्मसात करना): श्रवण और मनन द्वारा संदेह रहित हुए अर्थ में चित्त को स्थापित करके एकाग्र होना। जो सही दिखाई दे, उसे जीना शुरू कर देना।

      4. समाधि: ध्याता (देखने वाला) और ध्यान का त्याग करके चित्त केवल एक ध्येय (लक्ष्य) को विषय रूप माने और वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान निश्चल बन जाए। समाधि में कोई अनुभव नहीं होता, फिर भी यह परम आनंद का अनुभव है, क्योंकि इसमें द्वैत और मन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसे धर्म-मेघ कहा जाता है, जहाँ धर्म (स्वभाव) की सहस्रधाराओं की वर्षा होती है। इसमें पुण्य-पाप दोनों का समूह जड़ से कट जाता है।

    ज्ञान से चक्र से मुक्ति में योगदान:

    • कर्मों का नाश: जब व्यक्ति को "मैं ब्रह्म हूँ" ऐसा ज्ञान होता है, तो करोड़ों जन्मों से संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, जैसे जागने से स्वप्न की क्रिया नष्ट हो जाती है। ज्ञाता को सुख-दुःख आते रहेंगे क्योंकि वे उसके पिछले कर्मों से संबंधित हैं, लेकिन वह उन्हें साक्षी भाव से देखेगा और उनसे अप्रभावित रहेगा।

    • अजर-अमरता का अनुभव: जो अपने को अजर, अमर और आत्मारूप स्वीकार करता है, वह आत्मारूप ही रहता है। तब उसे प्रारब्ध कर्मों की कल्पना नहीं होती, क्योंकि अज्ञान द्वारा कल्पित देह का ज्ञान द्वारा समूल नाश हो जाता है।

    • संसार का विसर्जन: जब योगी यह जान लेता है कि अतीत का कोई भी कर्म उसे छू नहीं सका, तो भविष्य के कर्म भी उसके लिए व्यर्थ हो जाते हैं。 जीवन्मुक्त का कोई भविष्य नहीं होता।

    • अहंकार का अभाव: ज्ञान की परम अवधि तब होती है जब भीतर कोई भी चीज अहम्-भाव को निर्मित नहीं करती।

    • परम शांति: ज्ञान का फल उपरति (विश्राम) है, और उपरति का फल शांति है। यह गहरी शांति है जो व्यक्ति को अंदर से प्रफुल्लित करती है।

    संक्षेप में, उपनिषद का मुख्य संदेश यह है कि संसार, जन्म और मृत्यु का चक्र अज्ञान (अविद्या) और अहंकार का परिणाम है। इस चक्र से मुक्ति तभी संभव है जब व्यक्ति अपनी वास्तविक प्रकृति (आत्मन/ब्रह्मन्) को जान ले, जो शुद्ध चेतना, निर्विकार और अद्वैत है। यह ज्ञान अहंकार, कर्मों और द्वैत की भावना को विलीन कर देता है, जिससे व्यक्ति जीवन्मुक्त हो जाता है और परम आनंद तथा शांति की स्थिति प्राप्त करता है। यह साक्षात्कार केवल सुनने, चिंतन करने, आत्मसात करने और समाधि के माध्यम से प्राप्त होता है, जिससे व्यक्ति बाहरी दुनिया और अपनी आंतरिक पहचान के बीच के सभी भेदों से परे चला जाता है।

    उपनिषद और वेदांत का केंद्रीय तत्व ब्रह्मन् और आत्मा के संबंध में क्या है?

    उपनिषदों और वेदांत का केंद्रीय तत्व ब्रह्मन् और आत्मा के संबंध में अद्वैत है, जिसका अर्थ है गैर-द्वैत या एकता। यह दर्शाता है कि व्यक्तिगत आत्मा (आत्मन्) और परम वास्तविकता (ब्रह्मन्) एक ही हैं, न कि दो अलग-अलग अस्तित्व

    यहां इस संबंध के मुख्य पहलू दिए गए हैं:

    • ब्रह्मन् का स्वरूप:

      • ब्रह्मन् को परम, निराकार (बिना रूप वाला), अपरिवर्तनशील (निर्विकार), सर्वव्यापी (सभी जगह विद्यमान), अनंत (कोई अंत नहीं), और शाश्वत (सदा रहने वाला) वास्तविकता के रूप में वर्णित किया गया है।

      • यह जगत का मूल स्रोत है, फिर भी यह उससे अप्रभावित रहता है

      • ब्रह्मन् हवा की तरह सूक्ष्म है, हर जगह मौजूद है, लेकिन इंद्रियों द्वारा सीधे अनुभव नहीं किया जा सकता।

      • इसे शुद्ध अस्तित्व-चेतना-आनंद (सच्चिदानंद) के रूप में वर्णित किया गया है, और यह अतुलनीय है।

      • ॐ (प्रणव) का पवित्र अक्षर इसी एकाक्षर ब्रह्मन् का प्रतिनिधित्व करता है।

    • आत्मा का स्वरूप:

      • आत्मा व्यक्तिगत स्व या आत्मा है।

      • इसे द्रष्टा या साक्षी के रूप में वर्णित किया गया है, जो शरीर, मन और विचारों से अलग है।

      • यह वह तत्व है जो तब बचता है जब सब कुछ नकार दिया जाता है ("यह भी मैं नहीं हूं" - यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं)।

      • आत्मा स्वाभाविक रूप से शुद्ध और ज्ञान स्वरूप है। यह "मैं स्वयं ही हूं" जिसे भुला दिया गया है, और यह एकमात्र वास्तविक संपत्ति है।

    • एकता का संबंध (तत्त्वमसि):

      • उपनिषदों की केंद्रीय शिक्षा आत्मा और ब्रह्मन् की गैर-द्वैतता (अद्वैत) या एकता है।

      • व्यक्तिगत आत्मा परम ब्रह्मन् से अलग नहीं है। इसे "मैं परमात्मा हूं" (मैं ही ईश्वर/ब्रह्म हूं) जैसे वाक्यों के माध्यम से व्यक्त किया गया है, और महावाक्य "तत्त्वमसि" (वह तुम ही हो) इसका सीधा संकेत है।

      • सूत्रों में बूंद का सागर में विलीन होना, या इसके विपरीत, सागर का बूंद में समा जाना जैसे रूपकों का उपयोग किया गया है।

      • घड़े के भीतर का आकाश (आत्मा) बड़े बाहरी आकाश (ब्रह्मन्) के साथ अंतर्निहित रूप से एक है।

      • एक जीवन्मुक्त (जीवित मुक्त व्यक्ति) वह होता है जो व्यक्तिगत आत्मा और ब्रह्मन् के बीच, या ब्रह्मन् और सृष्टि के बीच कोई भेद नहीं देखता। यह अनुभूति तब होती है जब द्वैतवादी धारणा (मन/बुद्धि के माध्यम से) पार हो जाती है

    • माया और अविद्या (भ्रम/अज्ञान):

      • आत्मा और ब्रह्मन् के बीच की कथित अलगाव, और जगत की वास्तविकता, माया या अविद्या के कारण है।

      • माया को ऐसा बताया गया है जो वास्तविक नहीं है लेकिन वास्तविक प्रतीत होता है (लगभग झूठ)। यह स्व-आरोपित भ्रम है, हमारे अपने मन का एक प्रक्षेपण है।

      • शरीर, इंद्रियों और दुनिया से जुड़ा "मैं" और "मेरा" का भाव अध्यास (अधिरोपण) है। इस भ्रम को ब्रह्मन् में दृढ़ निष्ठा (ब्रह्मनिष्ठा) से दूर करना चाहिए।

      • साक्षी (देखने वाला) के लिए, जो कुछ भी दिखाई देता है वह जगत है, और जो देखने वाला है वह स्वयं है।

    • आत्म-साक्षात्कार का मार्ग:

      • इस एकता को महसूस करने के लिए एक गहरी आध्यात्मिक यात्रा की आवश्यकता होती है। उल्लिखित प्रमुख अभ्यास और सिद्धांत निम्नलिखित हैं:

        • इच्छाओं और अहंकार का त्याग: "मैं" (अहंकार) और "मेरा" के भाव को पार करना चाहिए। यहां तक कि आध्यात्मिक लक्ष्यों की इच्छाएं भी मन को सक्रिय रखती हैं।

        • नेति-नेति (यह नहीं, यह नहीं) का मार्ग: जो कुछ भी हम नहीं हैं उसे लगातार नकारना ("यह भी मैं नहीं हूं") जब तक कि वास्तविक स्व शेष न रह जाए।

        • साक्षी-भाव (साक्षी चेतना): प्रतिक्रियाओं और अनुभवों से अलग होने के लिए साक्षी के भाव को विकसित करना।

        • समाधि (गहरी एकाग्रता): यह द्वैत से मुक्त (निर्विकल्प) एक अवशोषण की स्थिति है, जहां मानसिक गतिविधि समाप्त हो जाती है।

        • श्रद्धा (गहरी आस्था): गुरु की शिक्षाओं के प्रति गहरी आस्था और आंतरिक ग्रहणशीलता, जो सत्य को गहराई तक पहुंचने देती है।

        • समझ के चरण: श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन), निदिध्यासन (गहन चिंतन), और समाधि (अवशोषण) - ये आध्यात्मिक अभ्यास के चार चरण हैं।

    संक्षेप में, उपनिषद और वेदांत सिखाते हैं कि ब्रह्मन् और आत्मा मूलभूत रूप से एक ही हैं, जिसमें माया और अविद्या इस अंतर्निहित एकता को छिपाती हैं, और आध्यात्मिक अभ्यास से इस सत्य का बोध होता है।

    'मिथ्या' शब्द का क्या अर्थ है?

    'मिथ्या' शब्द भारतीय आध्यात्मिक परंपरा, विशेषकर उपनिषदों और वेदांत में, एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह जो असत्य है, लेकिन सत्य जैसा भासिता है उसे संदर्भित करता है।

    इस अवधारणा को समझने के लिए, भारतीय चिंतन परंपरा तीन श्रेणियों में भेद करती है:

    • सत्य: वह जो शाश्वत है और कभी बदलता नहीं (जैसे ब्रह्म)।

    • असत्य: वह जिसका कभी कोई अस्तित्व नहीं होता (जैसे खरगोश के सींग)।

    • मिथ्या: वह जो वास्तविक नहीं है, लेकिन वास्तविक प्रतीत होता है; जिसकी प्रतीति तो होती है, पर वह परमार्थतः (परम सत्य के रूप में) विद्यमान नहीं होता।

    'मिथ्या' की अवधारणा को समझाने के लिए कई उदाहरण दिए गए हैं:

    • रस्सी और साँप का दृष्टांत: अंधेरे में पड़ी एक रस्सी को साँप समझ लेना 'मिथ्या' का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। साँप वहाँ नहीं था (असत्य), फिर भी उसकी प्रतीति हुई और उस प्रतीति के कारण भय, पसीना, और हृदय गति का बढ़ना जैसी वास्तविक शारीरिक प्रतिक्रियाएँ हुईं। जब प्रकाश में यह ज्ञात होता है कि वह रस्सी थी, तो साँप का भ्रम समाप्त हो जाता है। इस कथित साँप का न तो कोई वास्तविक जन्म हुआ था और न ही कोई मृत्यु, यह केवल एक भ्रम था।

    • दर्पण का प्रतिबिंब: दर्पण में दिखाई देने वाला शहर या चेहरा वास्तविक नहीं होता है; वास्तविक तो केवल दर्पण है जिसमें प्रतिबिंब उत्पन्न होता है। इसी प्रकार, हमारे भीतर एक 'घूमता हुआ दर्पण' है जो जगत को देखता रहता है, और हम अक्सर प्रतिबिंबों को ही वास्तविकता मान लेते हैं।

    • दृष्टि दोष: आँख को दबाने पर दो चंद्रमा का दिखाई देना भी मिथ्या का उदाहरण है। दूसरा चंद्रमा वास्तव में मौजूद नहीं होता, फिर भी वह दिखाई देता है। यह हमारी 'दृष्टि की भूल' है जो मन के अनुभवों और चित्रों से दबी हुई है।

    • सिनेमा का पर्दा: सिनेमा के पर्दे पर दिखाई देने वाली गतिशील छवियाँ (जैसे घोड़ा या भाला) वास्तविक नहीं होतीं, फिर भी दर्शक उनसे भयभीत होकर प्रतिक्रिया करते हैं। यह मन के स्वयं द्वारा आरोपित किए गए भ्रम का परिणाम है।

    मिथ्या का स्रोत और स्वभाव (माया और अविद्या):

    • 'मिथ्या' का अर्थ है "जो नहीं है उसका दिखाई पड़ना"। यह एक प्रक्षेपण (Projection) या आरोपण है, जहाँ हम अपने भीतर से कुछ ऐसी चीजों को आरोपित करते हैं जो वास्तव में वहाँ नहीं होतीं।

    • हम जो देखते हैं, वह वही नहीं होता जो है, बल्कि हमारी आँख और मन हमें दिखाते हैं। यह पूरा जगत हमारी ही आँखों का फैलाव है, हमारा ही डाला हुआ है।

    • व्यक्तिगत आत्मा (आत्मन्) और परम वास्तविकता (ब्रह्मन्) के बीच का कथित अलगाव, और जगत की वास्तविक प्रतीति, माया या अविद्या के कारण है। माया वह है "जो वास्तविक नहीं है लेकिन वास्तविक प्रतीत होता है"। 'अविद्या' व्यक्ति के स्तर पर 'माया' है।

    • मन की छवियाँ आत्मा पर प्रतिबिंबित होती रहती हैं, और धीरे-धीरे आत्मा को ऐसा लगने लगता है कि जो मन में है, वही वह स्वयं है। यही हमारी 'गाँठ' है, हमारा संसार।

    आध्यात्मिक मुक्ति में मिथ्या की भूमिका:

    • ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया में, इस 'मिथ्या' की पहचान करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब कोई व्यक्ति वास्तव में जागृत होता है (जैसे उपनिषदों के ऋषि या बुद्ध), तो उसे इस बात पर हँसी आती है कि उसने अज्ञानवश जो वास्तविक नहीं था उसे देखा, उसे पकड़ा, और उसे छोड़ने का प्रयास भी किया।

    • 'मिथ्या' का न तो कोई जन्म होता है और न ही कोई मृत्यु; यह केवल एक भ्रम है जो मन द्वारा आरोपित होता है।

    • इस 'गाँठ' (भ्रम) को खोलने का एकमात्र उपाय है कि मन को थोड़ी देर के लिए शांत करके बिना किसी आरोपण के सत्य को देखा जाए

    • शिष्य जब गुरु के उपदेश को सही अर्थों में सुनता है, तो उसे जगत का वह रूप जिसे वह वास्तविक मानता था, विलीन होता हुआ प्रतीत होता है। वह आश्चर्यचकित होकर पूछता है, "जगत को मैंने अभी-अभी देखा था, कहाँ गया? ... क्या वह नहीं है?"। यह 'मिथ्या' की पहचान है, जिससे अज्ञान का पर्दा हटता है।

    • जब संसार 'मिथ्या' प्रतीत होता है, तो भोग और त्याग दोनों का ही अर्थ समाप्त हो जाता है।

    बंधन और मोक्ष की अवधारणाएँ व्यक्तिगत अनुभव और सार्वभौमिक वास्तविकता से कैसे संबंधित हैं?

    भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में बंधन और मोक्ष की अवधारणाएँ व्यक्ति के अनुभव और सार्वभौमिक वास्तविकता से गहराई से जुड़ी हुई हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि बंधन कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं रखता, बल्कि एक भ्रम या अज्ञान का परिणाम है, जबकि मोक्ष इस भ्रम से मुक्ति और परम सत्य की पहचान है

    बंधन (Bondage): एक आरोपित भ्रम

    • मूलभूत अज्ञान और मिथ्या: बंधन का मूल 'अज्ञान' में है, जो हमें सत्य के स्वरूप को जानने नहीं देता। इसे 'मिथ्या' कहा जाता है, जिसका अर्थ है "जो असत्य है, लेकिन सत्य जैसा भासिता है"। यह ऐसा है जैसे अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना। साँप वहाँ नहीं था, फिर भी भय और पसीने जैसी वास्तविक प्रतिक्रियाएँ हुईं। यह 'दृष्टि-दोष' है, हमारी देखने की भूल। इसी तरह, हम जो जगत देखते हैं, वह हमारी आँख और मन का आरोपण (प्रक्षेपण) है।

    • अध्यास और तादात्म्य: बंधन का मुख्य कारण 'अध्यास' है, यानी जो नहीं है उसका दिखाई पड़ना, या अपने भीतर से ऐसी चीजों को आरोपित करना जो वास्तव में वहाँ नहीं होतीं। हम स्वयं को शरीर, मन, इंद्रियों और अहंकार से जोड़ लेते हैं। यह 'मैं-मेरा' का भाव ही बंधन है। हम अपने पद, धन, रिश्ते-नातों को 'मेरा' मानते हैं, जबकि वे शाश्वत नहीं हैं।

    • कर्मों का संचय: हम जो भी कार्य करते हैं (कर्म), वे हमारे स्वभाव (धर्म) पर एक परत की तरह चढ़ते जाते हैं, जिससे हमारा वास्तविक होना दब जाता है। ये कर्म (पुण्य और पाप दोनों) हमें भविष्य के अनुभवों से जोड़ते हैं, जिससे जन्मों-जन्मों का चक्र चलता रहता है। हम उसी क्रोध, लोभ, मोह को बार-बार दोहराते रहते हैं, जैसे कोई घिसा हुआ रिकॉर्ड बज रहा हो।

    • वासना और अपेक्षाएँ: हमारी सभी वासनाएँ (इच्छाएँ) और अपेक्षाएँ दुःख का कारण बनती हैं। हम सुख की तलाश में बाहर भागते हैं, जिससे अशांति पैदा होती है। हम अपनी ही कल्पनाओं को वास्तविकता मान लेते हैं, जैसे सिनेमा के परदे पर दिखाए गए चित्र वास्तविक लगते हैं।

    मोक्ष (Liberation): भ्रम का विलय और आत्म-साक्षात्कार

    • अध्यास का निवारण: मोक्ष 'अध्यास' को दूर करने की प्रक्रिया है। यह उस गाँठ को खोलना है जिसे हमने स्वयं रूमाल पर बाँधा है, न कि उसे काटना। यह जानना कि हमारी आत्मा में ही सब वस्तुओं का आभास केवल आरोपित है

    • साक्षी-भाव की प्राप्ति: मोक्ष तब घटित होता है जब व्यक्ति स्वयं को शरीर, मन, विचारों और इंद्रियों से अलग केवल 'साक्षी' (देखने वाला, गवाह) के रूप में जान लेता है। जब भीतर कोई 'मैं' का स्वर नहीं उठता, तब व्यक्ति अपने वास्तविक 'मैं' पर खड़ा हो जाता है, जिसका नाम आत्मा है।

    • निर्वाण और समाधि: बुद्ध ने मोक्ष के लिए 'निर्वाण' शब्द का प्रयोग किया, जिसका अर्थ है दीपक का बुझ जाना – ज्योत कहीं जाती नहीं, बस खो जाती है, लीन हो जाती है। यह परम अवस्था 'निर्विकल्प समाधि' कहलाती है, जहाँ कोई विकल्प या द्वंद्व नहीं रहता, और हृदय की अज्ञानरूपी गांठ का नाश हो जाता है।

    • उपरति और शांति: ज्ञान का फल 'उपरति' है, यानी पूर्ण विश्राम और तनाव का अभाव। जब ज्ञान का दीया जलता है, तो तनाव का कोई कारण नहीं रहता। यह अशांति की विपरीत शांति को चाहने से नहीं, बल्कि द्वंद्वरहित होने से आती है。

    • कर्मों का क्षय: समाधि द्वारा करोड़ों कर्म (पुण्य और पाप दोनों) नष्ट हो जाते हैं। यह जानना कि बुरे कर्म अच्छे कर्मों से काटे नहीं जा सकते, बल्कि उन्हें भोग कर ही क्षय किया जा सकता है, व्यक्ति को बुरे कर्म करने से बचाता है।

    • सम-भाव और अद्वैत: जीवनमुक्त व्यक्ति 'सम-भाव' में रहता है। उसे प्रशंसा और अपमान, सुख और दुःख दोनों से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, क्योंकि भीतर कोई प्रवेश ही नहीं करता। वह इस परम सत्य को जान लेता है कि 'यह परम तत्त्व एकस्वरूप ही है, उसमें कोई भेद नहीं हो सकता'। यह जीव (व्यक्तिगत आत्मा) और ब्रह्म (परम वास्तविकता) का भेद तथा ब्रह्म और सृष्टि का भेद बुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकता।

    व्यक्तिगत अनुभव और सार्वभौमिक वास्तविकता से संबंध:

    • बंधन (व्यक्तिगत अनुभव):

      • व्यक्ति अज्ञानवश खुद को शरीर, मन और बाहरी वस्तुओं का स्वामी समझता है।

      • यह "मेरा" का भाव ही दुःख का कारण बनता है; जब "मेरा" भाव हटता है, तो शरीर पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का स्वयं से संबंध नहीं रह जाता।

      • हम दूसरों की आँखों में अपनी कीमत तलाशते हैं, दूसरों के विचारों पर निर्भर रहते हैं, जिससे एक झूठा केंद्र (अहंकार) निर्मित होता है।

      • हम अपनी ही वासनाओं और अपेक्षाओं से खुद को बांधते हैं।

      • हमारी दृष्टि (दृष्टिकोण) ही जगत को बदल देती है, जैसे युवा और वृद्ध की दुनिया अलग होती है।

      • हम बार-बार वही पुरानी आदतों को दोहराते हैं, जिससे जीवन उबाऊ हो जाता है।

    • मोक्ष (व्यक्तिगत अनुभव):

      • यह व्यक्तिगत अहंकार के विसर्जन से शुरू होती है। जब भीतर 'मैं' का स्वर नहीं उठता, तब व्यक्ति अपने वास्तविक 'मैं' पर खड़ा होता है।

      • व्यक्ति बाहरी सुख की तलाश छोड़ कर अपने भीतर आनंद का स्वाद लेना शुरू करता है।

      • वह जानता है कि सुख का स्रोत भीतर ही है, और दूसरों से कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं है।

      • ज्ञान प्राप्त होने पर व्यक्ति का संसार के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है, भले ही संसार वही रहे। वह संसार को एक बड़े स्वप्न के रूप में देखता है।

      • जीवनमुक्त व्यक्ति सुख-दुःख को प्रारब्ध कर्मों का फल मानते हुए तटस्थ भाव से भोगता है।

      • व्यक्ति यह जान लेता है कि वह कर्ता नहीं है और भोक्ता भी नहीं है।

      • यह असीम विश्राम की अवस्था है जहाँ कुछ भी पाने या खोने को नहीं रहता।

    • सार्वभौमिक वास्तविकता (बंधन से संबंध):

      • यह जगत 'माया' है, जो ब्रह्म की छाया की तरह है। यह एक भ्रम है, वास्तविक नहीं है, लेकिन इसकी प्रतीति होती है।

      • संसार सत्य नहीं है, बल्कि 'लगभग झूठा' है। यह निर्विकार, निराकार, और अवयवरहित ब्रह्म में दिखाई पड़ने वाला भेद है।

      • हमारे मन का आरोपण ही इस जगत को साकार करता है।

      • दुःख और पीड़ा ब्रह्मांडीय स्तर पर स्वीकार्य हैं, ब्रह्म इससे परेशान नहीं होता; पीड़ा व्यक्तिगत स्तर पर अज्ञान के कारण होती है।

    • सार्वभौमिक वास्तविकता (मोक्ष से संबंध):

      • मोक्ष इस 'माया' और 'अविद्या' से मुक्त होकर परब्रह्म की पहचान है।

      • यह परम तत्त्व एकस्वरूप है, जिसमें कोई भेद नहीं है।

      • जैसे प्रकाश में अंधकार लीन हो जाता है, वैसे ही अद्वितीय परम तत्त्व में भ्रांति का कारण विलीन हो जाता है।

      • यह पहचान है कि जीवात्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।

      • यह ब्रह्म क्रियारहित, सूक्ष्म, विकल्प रहित, स्वतःसिद्ध, शुद्ध-बुद्ध और अद्वितीय है। इसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती।

      • व्यक्ति यह जानता है कि वह उस अछूते आकाश (अंतर-आकाश) की तरह है, जिसे जीवन या मृत्यु छू नहीं सकती।

      • यह 'कैवल्य' है, उस एक को जान लेना।

    संक्षेप में, बंधन हमारी स्वयं बनाई हुई धारणाओं, पहचानों और इच्छाओं का जाल है जो हमें एक भ्रमपूर्ण व्यक्तिगत अनुभव में फँसाता है, जबकि मोक्ष इस भ्रम को पहचानकर और त्यागकर स्वयं को सार्वभौमिक, अद्वैत, और असीम ब्रह्म के रूप में जानने की अवस्था है। यह बाहर कुछ बदलने से नहीं, बल्कि भीतर की दृष्टि बदलने से घटित होता है।

    मोक्ष और निर्वाण में क्या अंतर है?

    मोक्ष और निर्वाण के बीच का अंतर दिए गए स्रोतों में, विशेष रूप से ओशो के अध्यात्म उपनिषद पर दिए गए प्रवचनों में, विस्तार से समझाया गया है।

    यहाँ दोनों शब्दों के बीच का अंतर दिया गया है:

    • मोक्ष (Moksha):

      • परंपरागत रूप से, मोक्ष को व्यक्तिगत मुक्ति के रूप में समझा जाता है।

      • मोक्ष की अवधारणा में, ऐसा प्रतीत होता है कि 'मैं' या 'आत्मा' का अस्तित्व बना रहेगा, और वही मुक्त होकर आनंद का अनुभव करेगा। ओशो इसे "मेरा" भाव से जोड़ते हैं, जहाँ व्यक्ति को लगता है कि "मैं तो बचा ही रहूँगा"।

      • यह विचार कि 'स्वयं' शाश्वत रूप से बचेगा और मुक्ति का आनंद लेगा, ओशो के अनुसार, मन में एक प्रकार का 'रस' (आकर्षण) बनाए रखता है। यह वैसी ही स्थिति है जैसे कोई व्यक्ति स्वर्ग में अपने लिए महल मिलने की आशा में त्याग करता है - यह एक प्रकार का 'सौदा' बन जाता है।

    • निर्वाण (Nirvana):

      • बुद्ध ने 'मोक्ष' शब्द के बजाय 'निर्वाण' शब्द को प्राथमिकता दी, क्योंकि उन्हें लगा कि 'मोक्ष' में 'मेरा' का भाव बचा रहता है।

      • निर्वाण का अर्थ है दीए का बुझ जाना। जैसे दीया बुझता है, तो उसकी ज्योति कहीं जाती नहीं, बल्कि वह बस बुझ जाती है, खो जाती है, विलीन हो जाती है। इसे कहीं खोजा नहीं जा सकता, यह अनंत में विलीन हो जाती है।

      • निर्वाण में, आत्मा के साथ अपनी पहचान भी टूट जाती है। यह "मैं आत्मा हूँ" का अंतिम अध्यास (आरोपण) भी समाप्त हो जाता है। जब यह अध्यास टूट जाता है, तो व्यक्ति और समष्टि (संपूर्ण ब्रह्मांड) के बीच के सारे फासले, सारी सीमाएं गिर जाती हैं, और बूंद सागर हो जाती है।

      • निर्वाण की स्थिति में, व्यक्ति 'मैं आत्मा हूँ' यह भी नहीं कहता, बल्कि उसका अर्थ यह होता है कि 'मैं परमात्मा हूँ'। बुद्ध के अनुसार, व्यक्ति को कुछ भी बचाने योग्य नहीं है, और 'मैं बचूँ' की यह वासना भी निरर्थक है।

      • निर्वाण एक सूत्र है जहाँ सब कुछ (पुण्य-पाप, कर्म) जड़ से कट जाता है, न केवल बुरे कर्म बल्कि अच्छे कर्म भी।

    मुख्य अंतर: मोक्ष की पारंपरिक धारणा में 'स्वयं' या 'आत्मा' का अस्तित्व बना रहता है जो मुक्ति का अनुभव करता है, जबकि निर्वाण में यह 'स्वयं' भी पूरी तरह से विलीन हो जाता है, जैसे एक दीये की लौ बुझ जाती है, जिसका अर्थ है अहंकार और व्यक्तिगत पहचान का पूर्ण अंत।

    बंधन और मोक्ष की अवधारणाएँ व्यक्तिगत अनुभव और सार्वभौमिक वास्तविकता से कैसे संबंधित हैं?

    बंधन और मोक्ष की अवधारणाएँ व्यक्तिगत अनुभव और सार्वभौमिक वास्तविकता से गहराई से जुड़ी हुई हैं, और इन्हें समझने के लिए 'आत्मा', 'ब्रह्म', 'अध्यास' और 'माया' जैसे प्रमुख सिद्धांतों को जानना आवश्यक है ।

    बंधन (Bondage): व्यक्तिगत अनुभव से सार्वभौमिक वास्तविकता का भ्रम

    बंधन का मूल कारण 'अध्यास' (सुपरइम्पोजिशन या आरोपण) है । यह 'अध्यास' वह भ्रांति है जिसमें व्यक्ति जो नहीं है, उसे ही देखता या मानता है । यह भ्रम व्यक्ति के 'मैं' और 'मेरा' के भाव से उत्पन्न होता है ।

    • व्यक्तिगत अनुभव:

      • हम शरीर , मन , और इंद्रियों को 'मैं' या 'मेरा' मान लेते हैं ।

      • यह 'मेरा' का भाव मकान , खेत, बगीचा जैसी बाहरी वस्तुओं तक विस्तृत होता है, जिससे अहंकार का महल खड़ा हो जाता है । यह अहंकार ही सबसे बड़ा बंधन है ।

      • मन की यह प्रवृत्ति है कि वह लगातार अनुभवों को पकड़ता रहता है और उन्हें अपनी स्मृतियों और धारणाओं में ढालता रहता है। यह 'आरोपण' हमारी दृष्टि को प्रभावित करता है; हम वही देखते हैं जो हमारी आँखें दिखाती हैं, न कि जो वास्तविकता में है ।

      • जैसे रस्सी में साँप का दिखना , या सिनेमा हॉल में परदे पर चलती तस्वीरें , ये सब भ्रम (मिथ्या) के उदाहरण हैं। ये चीजें वास्तविक नहीं होतीं, लेकिन उनके प्रभाव वास्तविक होते हैं (जैसे डर, पसीना) ।

      • हमारी वासनाएँ (इच्छाएँ) भी बंधन का कारण बनती हैं । हम संसार में सुख, शक्ति, धन, पद आदि की तलाश करते हैं, लेकिन वास्तव में यह अहंकार की तृप्ति की इच्छा होती है ।

      • हम अपने ही द्वारा पकड़े गए हैं, अपनी ही भ्रांतियों के कारण ।

    • सार्वभौमिक वास्तविकता से संबंध:

      • बंधन की जड़ यह है कि हम उस वास्तविकता से चूक गए हैं जो हमारे भीतर ही छिपी है, जो हमारे इतने करीब है कि हृदय की धड़कन या साँसें भी उतनी करीब नहीं हैं ।

      • परमात्मा "सागर ही सागर" है, जिसका कोई किनारा नहीं । हम उस सागर में एक मछली की तरह हैं जो सागर में रहकर भी उसे नहीं जान पाती, क्योंकि उसे दूरी नहीं मिलती ।

      • यह माया है, जिसे भारतीय चिंतन में सत्य और असत्य के बीच की तीसरी श्रेणी 'मिथ्या' कहा गया है । यह वह है जो असत्य है, लेकिन सत्य जैसा भासित होता है

      • इस संसार का वास्तविक निर्माता ब्रह्म है, जो स्वयं माया के साथ क्रीड़ा करता है । माया ब्रह्म की छाया है, और अविद्या व्यक्ति के तल पर माया है ।

    मोक्ष और निर्वाण (Liberation): सार्वभौमिक वास्तविकता की प्राप्ति

    मुक्ति या मोक्ष की अवधारणा स्वयं को इन भ्रांतियों और बंधनों से मुक्त करने की प्रक्रिया है। ओशो 'मोक्ष' और 'निर्वाण' शब्दों में एक सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण अंतर करते हैं [Osho_Rajneesh_Adhyatma_Upanishad.pdf, 82]।

    • मोक्ष (पारंपरिक अवधारणा):

      • मोक्ष में अक्सर 'मेरा' का भाव बचा रहता है । ऐसा लगता है कि 'मैं' या 'आत्मा' का अस्तित्व बना रहेगा और वही सिद्धशिला पर बैठकर आनंद का अनुभव करेगा । यह 'मैं बचूँ' की वासना से जुड़ा है ।

    • निर्वाण (बुद्ध की अवधारणा):

      • बुद्ध ने 'निर्वाण' शब्द को प्राथमिकता दी, जिसका अर्थ है "दीए का बुझ जाना" । जैसे दीया बुझता है, उसकी ज्योति कहीं जाती नहीं, बल्कि खो जाती है, विलीन हो जाती है

      • निर्वाण में, आत्मा के साथ अपनी पहचान भी टूट जाती है । "मैं आत्मा हूँ" का अंतिम अध्यास भी समाप्त हो जाता है ।

      • जब यह अध्यास टूट जाता है, तो व्यक्ति और समष्टि (संपूर्ण ब्रह्मांड) के बीच के सारे फासले, सारी सीमाएं गिर जाती हैं, और बूँद सागर हो जाती है । यह 'मैं परमात्मा हूँ' की स्थिति है ।

      • निर्वाण की स्थिति में, पुण्य और पाप दोनों ही कर्म जड़ से कट जाते हैं

    बंधन और मोक्ष/निर्वाण का व्यक्तिगत अनुभव और सार्वभौमिक वास्तविकता से संबंध:

    बंधन और मोक्ष/निर्वाण का संबंध व्यक्तिगत अनुभव और सार्वभौमिक वास्तविकता के बीच एक गहरा परिवर्तन है:

    • व्यक्तिगत अनुभव में परिवर्तन:

      • मुक्ति का मार्ग अहंकार के विसर्जन से शुरू होता है ।

      • व्यक्ति को 'साक्षी' (witness) होना सीखना होता है । साक्षी भाव में, व्यक्ति स्वयं को शरीर, मन, भावनाओं और यहाँ तक कि अपने विचारों से भी अलग कर लेता है ।

      • जैसे ही व्यक्ति शरीर से मुँह मोड़ता है, वह तत्काल आकाश की ओर उन्मुख हो जाता है ।

      • सम-भाव की स्थिति आती है, जहाँ व्यक्ति सुख और दुःख, सम्मान और अपमान, सज्जन और दुर्जन के प्रति समान रहता है । यह चेष्टा से नहीं, बल्कि आंतरिक साक्षी भाव से होता है ।

      • ज्ञान का फल 'उपरति' (विश्राम) है, जहाँ चित्त, चैतन्य, शरीर, अस्तित्व, सब विश्राम को प्राप्त होते हैं, कोई तनाव नहीं रहता।

      • यह अवस्था निविकल्प समाधि द्वारा प्राप्त होती है, जहाँ चुनाव रहितता होती है और मन पूरी तरह से शांत हो जाता है ।

    • सार्वभौमिक वास्तविकता की प्राप्ति:

      • जब व्यक्ति स्वयं को 'मैं' और 'मेरा' के भ्रम से मुक्त करता है, तो उसे यह अनुभव होता है कि वह स्वयं ही परमात्मा है

      • आत्मा अखंडित है । ध्यानबिन्दु उपनिषद के अनुसार, "पुरुष के शरीर के भीतर और बाहर आत्मतत्त्व बिद्यमान है" ।

      • यह व्यक्तिगत चेतना का ब्रह्मांडीय चेतना के साथ एक हो जाना है। जैसे एक छोटे घड़े के भीतर का आकाश बाहर के महाकाश में विलीन हो जाता है, वैसे ही व्यक्तिगत आत्मा परमात्मा में एकरूप हो जाती है, जहाँ कोई अंतराल नहीं रहता ।

      • बंधन एक आरोपित अवधारणा है, जबकि आत्मा का मूल स्वरूप हमेशा शुद्ध और ज्ञानमय है । शांडिल्य उपनिषद भी परब्रह्म को "सत्य, निज्ञाि एिां अिन्त रूपोां में सांर्व्ाि" बताता है ।

      • यह सार्वभौमिक सत्य है कि अस्तित्व एकरूप है, उसमें कोई भेद नहीं हो सकता ।

    संक्षेप में, बंधन व्यक्तिगत मन द्वारा वास्तविकता पर आरोपित भ्रमों (अध्यास) का परिणाम है, जबकि मोक्ष या निर्वाण इन भ्रमों से पूरी तरह से जागना है, जिससे व्यक्ति अपनी वास्तविक पहचान को सार्वभौमिक वास्तविकता (ब्रह्म/परमात्मा) के रूप में अनुभव करता है, जहाँ कोई अलगाव या 'मैं' का भाव नहीं रह जाता। यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें व्यक्ति अपने सीमित अनुभव से उठकर असीमित और अखंडित सत्य का हिस्सा बन जाता है ।


    विभिन्न उपनिषद विभिन्न आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति के मार्गों को कैसे दर्शाते हैं?


    विभिन्न उपनिषद आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति के मार्गों को अलग-अलग तरीकों से दर्शाते हैं, फिर भी उनका मूल लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और परब्रह्म के साथ एकात्मता की प्राप्ति है। दिए गए स्रोतों के आधार पर, यहाँ कुछ प्रमुख अवधारणाओं और मार्गों का विस्तृत वर्णन दिया गया है:

    मोक्ष और निर्वाण का अंतर (ओशो के प्रवचनों के अनुसार)

    ओशो अध्यात्म उपनिषद पर अपने प्रवचनों में मोक्ष और निर्वाण के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर स्पष्ट करते हैं:

    • मोक्ष: परंपरागत रूप से, मोक्ष को व्यक्तिगत मुक्ति के रूप में समझा जाता है। इसमें ऐसा प्रतीत होता है कि 'मैं' या 'आत्मा' का अस्तित्व बना रहेगा और वही मुक्त होकर आनंद का अनुभव करेगा। ओशो इसे "मेरा" भाव से जोड़ते हैं, जहाँ व्यक्ति को लगता है कि "मैं तो बचा ही रहूँगा"। यह विचार मन में एक प्रकार का 'रस' (आकर्षण) बनाए रखता है, जैसे कोई स्वर्ग में अपने लिए महल मिलने की आशा में त्याग करता है—यह एक प्रकार का 'सौदा' बन जाता है।

    • निर्वाण: बुद्ध ने 'मोक्ष' शब्द के बजाय 'निर्वाण' शब्द को प्राथमिकता दी, क्योंकि उन्हें लगा कि 'मोक्ष' में 'मेरा' का भाव बचा रहता है। निर्वाण का अर्थ है "दीए का बुझ जाना"। जैसे दीया बुझता है, तो उसकी ज्योति कहीं जाती नहीं, बल्कि वह बस बुझ जाती है, खो जाती है, विलीन हो जाती है। इसे कहीं खोजा नहीं जा सकता, यह अनंत में विलीन हो जाती है। निर्वाण में, आत्मा के साथ अपनी पहचान भी टूट जाती है, "मैं आत्मा हूँ" का अंतिम अध्यास (आरोपण) भी समाप्त हो जाता है। जब यह अध्यास टूट जाता है, तो व्यक्ति और समष्टि (संपूर्ण ब्रह्मांड) के बीच के सारे फासले, सारी सीमाएं गिर जाती हैं, और "बूंद सागर हो जाती है"। निर्वाण एक सूत्र है जहाँ सब कुछ (पुण्य-पाप, कर्म) जड़ से कट जाता है, न केवल बुरे कर्म बल्कि अच्छे कर्म भी।

    विभिन्न उपनिषदों द्वारा दर्शाए गए प्रमुख आध्यात्मिक ज्ञान और मार्ग

    1. आत्मा और परमात्मा का स्वरूप:

    • अध्यात्म उपनिषद: यह उपनिषद बताता है कि मनुष्य शरीर नहीं है, मन भी नहीं। अंततः, "मैं आत्मा हूँ" का अध्यास भी टूट जाता है, और व्यक्ति "परमात्मा हूँ" की स्थिति में आ जाता है। यह आत्म-साक्षात्कार ही ब्रह्म-रूप होने की स्थिति है, जहाँ व्यक्ति स्वयं को अखंड आनंदमय चित्त-आत्मा में स्थापित करता है।

    • ध्यानबिन्दु उपनिषद: इस उपनिषद में कहा गया है कि आत्मतत्त्व पुरुष के शरीर के भीतर और बाहर विद्यमान है, जैसे तेल बीजों में और गंध फूलों में। वृक्ष अपनी संपूर्ण कला के साथ स्थित रहता है और उसकी छाया कलाहीन (निष्कल) होकर रहती है, उसी प्रकार आत्मा कलात्मक स्वरूप और निष्कल (छाया स्थानीय मायारूप) भाव से सभी जगह विद्यमान है।

    • शाण्डिल्य उपनिषद: यह परब्रह्म को सत्य, विज्ञान और अनंत रूप में व्याप्त बताता है। यह अपाणिपाद, अचक्षुः, अश्रोत्र, अमानजिह्वा, अशरीर, अग्राह्य और अनिर्देश्य है। इस अरूप परब्रह्म के तीन स्वरूप हैं - सकल, निष्कल, और सकल-निष्कलरूप। आत्मा वह है जो सभी में व्याप्त है, सब कुछ ग्रहण करता है, और सब कुछ खाता है।

    2. अध्यास और माया की अवधारणा:

    • अध्यात्म उपनिषद: अध्यास का अर्थ है "जो नहीं है उसका दिखाई पड़ना"। ओशो के अनुसार, यह मन का प्रक्षेपण है, जैसे मरुस्थल में पानी का भ्रम या रस्सी में सांप का भ्रम। संसार हमारी ही आँखों का फैलाव है, और हम वही देखते हैं जो हमारी आँखें हमें दिखाती हैं। इस अध्यास को ब्रह्मनिष्ठा द्वारा दूर करना चाहिए।

    • शाण्डिल्य उपनिषद: इसमें माया को ब्रह्म की शक्ति बताया गया है, जो लाल, श्वेत और कृष्ण रंगों से युक्त है और जिसकी सहायता से देव (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि) इस जगत का निर्माण करते हैं और इसका नियंत्रण करते हैं।

    3. आध्यात्मिक मार्ग और अभ्यास: उपनिषद विभिन्न साधनाओं और अभ्यासों का उल्लेख करते हैं:

    • साक्षी भाव (अध्यात्म उपनिषद): यह पूरब के चिंतन का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है। साक्षी का अर्थ है देखने वाला या गवाह। जब व्यक्ति साक्षी भाव का अनुभव करने लगता है, तो वह अपने का मालिक हो जाता है और मालकियत की वासना समाप्त हो जाती है। ज्ञानी सुख-दुख को भी आकाश-भाव से भोगता है, उनसे प्रभावित नहीं होता।

    • वैराग्य (अध्यात्म उपनिषद): वैराग्य का अर्थ है मन को संसार की दौड़ से हटा लेना। यह केवल भौतिक त्याग नहीं है, बल्कि वासनाओं का अंत है। जब 'मेरा' का भाव शरीर, मन और आत्मा से भी हट जाता है, तभी वैराग्य आता है।

    • अष्टांग योग (शाण्डिल्य उपनिषद): शाण्डिल्य उपनिषद योग के विस्तृत पहलुओं पर प्रकाश डालता है, जिनमें यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि) और नियम (तप, संतोष, आस्तिक्य आदि) शामिल हैं। इसमें आसन (जैसे स्वस्तिकासन, गोमुखासन, पद्मासन), प्राणायाम (रेचक, पूरक, कुम्भक), और प्रत्याहार (इंद्रियों को विषयों से हटाकर आत्मा की ओर मोड़ना) का भी वर्णन है।

    • मुद्राएँ और बंध (ध्यानबिन्दु और शाण्डिल्य उपनिषद): खेचरी मुद्रा और मूलबंध व उड्डियान बंध जैसी क्रियाएं बताई गई हैं, जो शरीर और मन पर नियंत्रण के लिए आवश्यक हैं।

    • ओंकार ध्यान और अजपा गायत्री (ध्यानबिन्दु उपनिषद): ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म का लक्ष्य बताया गया है। अजपा गायत्री, जो 'हंस' 'हंस' मंत्र के रूप में लगातार चलती रहती है, योगियों को मोक्ष प्रदान करती है और इसके संकल्प मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं।

    4. कर्म और उसकी निवृत्ति:

    • अध्यात्म उपनिषद: ओशो का प्रवचन बताता है कि कर्मों को 'भोगा ही काटता है'। समाधि द्वारा करोड़ों कर्म नष्ट हो जाते हैं, जिसमें पुण्य और पाप दोनों का समूह जड़ से कट जाता है। यह सिद्धांत बताता है कि कर्मों का फल अनिवार्य रूप से भोगना पड़ता है, चाहे व्यक्ति ज्ञानी हो या अज्ञानी। ज्ञानी अपने प्रारब्ध कर्मों को आकाश-भाव से देखता है और उनसे अप्रभावित रहता है।

    5. गुरु का महत्व और अनुभव की अनिवार्यता:

    • अध्यात्म उपनिषद: उपनिषद सिर्फ सिद्धांत नहीं, बल्कि अनुभव की बातें करते हैं। ओशो इस बात पर जोर देते हैं कि ज्ञानी वह है जो जीता है, न कि केवल शब्दों या सिद्धांतों को जानता है। शिष्य सिर्फ गुरु को देखकर और सुनकर भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है, यदि उसमें पूरी श्रद्धा हो।

    संक्षेप में, विभिन्न उपनिषद आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति के मार्गों को विविध दृष्टिकोणों से प्रस्तुत करते हैं, जिनमें आत्म-ज्ञान, अहंकार का विलय, साक्षी भाव, योगिक अभ्यास और कर्मों से मुक्ति शामिल है। जबकि कुछ उपनिषद योगिक क्रियाओं और तपस्या पर ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्य आत्म-साक्षात्कार और मिथ्या संसार की समझ पर अधिक जोर देते हैं, लेकिन सभी का लक्ष्य एक ही परम सत्य की प्राप्ति है।



No comments:

Post a Comment