Wednesday, July 23, 2025

तत्त्वबोधः हिन्दी व्याख्या

 मंगलाचरण


वासु देवेन्द्रयोगीन्द्रं नत्वा ज्ञानप्रदं गुरुम्।
मुमुक्षूणां हितार्थाय तत्त्वबोधोऽभिधीयते॥


🔸 सरल हिन्दी व्याख्या:

  • वासुदेवेन्द्रयोगीन्द्रं: वासुदेवेंद्र नामक योगियों के राजा, जिनका समर्पण और ज्ञान विशेष है।

  • नत्वा: उन्हें नमस्कार करके (विनम्रतापूर्वक श्रद्धा अर्पित करके)।

  • ज्ञानप्रदं गुरुम्: जो ज्ञान देने वाले गुरु हैं।

  • मुमुक्षूणां हितार्थाय: उन लोगों के हित के लिए जो मोक्ष की इच्छा रखते हैं (मुमुक्षु)।

  • तत्त्वबोधोऽभिधीयते: तत्त्वबोध नामक ग्रंथ की रचना की जा रही है।


✨ भावार्थ:

"जो परम योगी हैं — श्री वासुदेवेंद्र, उन्हें प्रणाम करके हम उस गुरु को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जो आत्मज्ञान के प्रदाता हैं। अब हम उन आत्ममोक्ष की कामना करने वालों के हित के लिए 'तत्त्वबोध' का उपदेश प्रस्तुत करते हैं।"

१. अध्याय - अधिकारी

  1. "साधनचतुष्टयसंपन्नाधिकारिणां मोक्षसाधनभूत तत्वविवेक प्रकारे वक्ष्यामः।" ➤ हम उन लोगों के लिए तत्त्वबोध का वर्णन करेंगे, जो मोक्ष की इच्छा रखते हैं और साधनचतुष्टय से संपन्न हैं।

  2. साधनचतुष्टय क्या है? ➤ ये चार योग्यता के अंग हैं:

    • नित्य-अनित्य वस्तु विवेक – शाश्वत और नश्वर वस्तुओं का विवेक।

    • इहामुत्रार्थफलभोगविरागः – इस लोक और परलोक के सुखों से विरक्ति।

    • शमादि षट्कसम्पत्तिः – छह गुणों का संयम: शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान।

    • मुमुक्षुत्वम् – मोक्ष की तीव्र आकांक्षा।

🔎 चार साधन का विस्तृत भावार्थ:

साधन

अर्थ

भाव

विवेक

नित्य और अनित्य का भेद जानना

केवल ब्रह्म ही नित्य है, बाकी सब अनित्य

वैराग्य

भोग की इच्छा का अभाव

कर्मफल भोग से विरक्ति

षट् सम्पत्ति

मन और इंद्रियों पर नियंत्रण

शम: मन का संयम; दम: इंद्रिय-निग्रह; उपरति: कर्तव्य-पालन; तितिक्षा: सुख-दुख की सहनशीलता; श्रद्धा: गुरु-वेदांत में विश्वास; समाधान: चित्त की एकाग्रता

मुमुक्षुता

मोक्ष पाने की प्रबल इच्छा

"मुझे मोक्ष चाहिए" – यही लक्ष्य

3.   नित्य–अनित्य वस्तु विवेकः कः? 

3.1. नित्य वस्तु एकं ब्रह्म। तद्व्यतिरिक्तं सर्वमनित्यम्। अयमेव नित्य–अनित्य वस्तु विवेकः।

🔸 हिन्दी भावार्थ:

  • प्रश्न: नित्य और अनित्य वस्तु में विवेक क्या होता है?

  • उत्तर: जो वस्तु सदा एक समान बनी रहती है, कभी न बदलती है — वह नित्य है। यह केवल ब्रह्म है — एकमात्र सत्य, शाश्वत, अपरिवर्तनीय।
    ब्रह्म से अलग जो कुछ भी है — शरीर, मन, पदार्थ, अनुभव, विचार, समय — सब अनित्य है, अर्थात् परिवर्तनशील, नष्ट होने वाला।

🌿 गूढ़ अर्थ:

यह विवेक — नित्य और अनित्य में भेद करने की क्षमता — आत्मज्ञान की आधारशिला है। जब साधक समझ जाता है कि:

“मैं वह नहीं हूँ जो बदलता है, मैं वह हूँ जो सदा एक सा रहता है,”

तब आत्मा और ब्रह्म के एकत्व की ओर पहला कदम बढ़ता है।

4.1 वैरागः कः? 

4.2 इहस्वर्गभोगेषु इच्छाराहित्यम्।

🔸 हिन्दी व्याख्या:

  • प्रश्न: वैराग्य क्या है?

  • उत्तर: इस लोक (भौतिक संसार) और स्वर्गलोक (परलोक के सुख) के भोग-विलास के प्रति इच्छा का अभाव — यही वैराग्य है।

🌿 भावात्मक अर्थ:

वैराग्य का अर्थ त्याग नहीं, बुद्धिपूर्वक विरक्ति है — जहाँ साधक सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश से ऊपर उठकर आत्म-ज्ञान की ओर उन्मुख होता है। ऐसा नहीं कि भोगों को नकारना ही उद्देश्य हो — बल्कि उनसे परे होकर शाश्वत सत्य की खोज ही सच्चा वैराग्य है।

🔍 संदर्भ:

  • यह वैराग्य साधक को अस्थायी सुखों से मुक्त करके आत्मा की शाश्वत प्रकृति को पहचानने में सहायक होता है।

  • यह दृष्टिकोण 'नेति नेति' (यह नहीं, वह नहीं) की शैली को उत्पन्न करता है, जो अद्वैत वेदान्त की खोज का आधार है।

5.1. शमः कः?

मनोनिग्रहः शमः। 👉 शम का अर्थ है मन का निग्रह। जिसे संसार के विषयों की चंचलता से मुक्त करके एकाग्र किया जाता है।

5.2 दमः कः?

चक्षुरादि बाह्येन्द्रियनिग्रहः दमः। 👉 दम का अर्थ है इंद्रियों का नियंत्रण। आँख, कान, त्वचा आदि बाह्य इंद्रियों को विषयों की ओर आकर्षित न होने देना।

5.3 उपरमः कः? 

स्वधर्मानुष्ठानमेव उपरमः। 👉 उपरति का अर्थ है अपने कर्तव्य का पालन करना। बाह्य चंचलताओं से हटकर, ध्यानपूर्वक स्वधर्म में रमण।

5.4 तितिक्षा का?

शीतोष्णसुखदुःखसहनं तितिक्षा। 👉 तितिक्षा का भाव है सहनशीलता। गर्मी-ठंड, सुख-दुख आदि द्वंद्वों को बिना क्रोधित हुए सहन करना।

5.5 श्रद्धा  का?

गुरु-वेदान्त-वाक्येषु विश्वासः श्रद्धा। 👉 श्रद्धा का अर्थ है गुरु और उपनिषदों के वचनों में दृढ़ विश्वास रखना। संशय के बिना ज्ञान मार्ग में आगे बढ़ना।

5.6 समाधानं किम्?

चित्तैकाग्रता समाधानम्। 👉 समाधान का भाव है चित्त की एकाग्रता। मन का विषयों में भटकना बंद कर, आत्मज्ञान के लक्ष्य पर स्थिर हो जाना।

ये षट् सम्पत्ति — आत्म-शुद्धि की दिशा में अत्यंत शक्तिशाली साधन हैं। इनका विकास साधक को विवेक और वैराग्य के साथ मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।

गुण

संस्कृत परिभाषा

हिन्दी अर्थ

शमः

मनोनिग्रहः

मन का निग्रह — चंचल विचारों को शांत करना

दमः

चक्षुरादि बाह्येन्द्रिय निग्रहः

आँख, कान आदि इंद्रियों पर नियंत्रण

उपरमः

स्वधर्मानुष्ठानमेव

अपने धर्म और कर्तव्य का पालन

तितिक्षा

शीतोष्णसुखदुःखादि सहिष्णुत्वम्

गर्मी–सर्दी, सुख–दुख को सहन करने की क्षमता

श्रद्धा

गुरुवेदान्तवाक्येषु विश्वासः

गुरु और वेदांत के वचनों में अडिग विश्वास

समाधान

चित्तैकाग्रता

मन की एकाग्रता और स्थिरता


6.1 समाधाना किम्?

चित्तैकाग्रता समाधानम्। 👉 समाधान का अर्थ है मन की एकाग्रता। यह वह अवस्था है जब मन विषयों की चंचलता से मुक्त होकर पूर्णतः ज्ञान के लक्ष्य पर केंद्रित हो जाता है। भावार्थ: “मन केवल ब्रह्म या आत्मतत्त्व में स्थिर हो — यही समाधान है।”

6.2 मुमुक्षुत्वं किम्?

‘मोक्षो मे भूयात्’ इति इच्छा। 👉 मुमुक्षुत्व का अर्थ है मोक्ष की तीव्र और प्रबल इच्छा। साधक के मन में यह भाव हो — “मुझे मोक्ष प्राप्त हो” — और यही उसकी प्राथमिक भावना हो, तो वही मुमुक्षु कहलाता है। भावार्थ: “स्वतंत्रता की गहन पुकार — वह साधक जिसे संसार की बंधन नहीं भाते, बल्कि आत्मा की मुक्ति ही लक्ष्य है।”

🌿 समग्र निष्कर्ष:

इन दोनों गुणों के बिना साधक की पात्रता अधूरी मानी जाती है।

  • समाधान प्रदान करता है मन की स्थिरता, जिससे ज्ञान ग्रहण संभव होता है।

  • मुमुक्षुत्व देता है प्रेरणा — एक ऐसा आंतरिक बल जो साधक को आत्म-बोध की ओर ले जाता है।

7. एतास्साधनचतुष्टयं ततस्तत्त्वविवेकाधिकरणो भवन्ति।

🔸 हिन्दी भावार्थ:

"ये ही चार साधन — अर्थात् विवेक, वैराग्य, शमादि षट् सम्पत्ति तथा मुमुक्षुत्व — यदि किसी साधक में विद्यमान हैं, तो वह 'तत्त्व विवेक' का अधिकारी बनता है।"

🔍 गूढ़ विवेचन:

  • यह श्लोक पूरे साधन चतुष्टय की व्याख्या को समेटकर यह निष्कर्ष देता है कि बिना इन चार योग्यता के तत्त्व का विवेक — अर्थात् आत्मा और अनात्मा का भेद — संभव नहीं है।

  • तत्त्व विवेक ही वह प्रक्रिया है जिसमें साधक "मैं कौन हूँ?" जैसे प्रश्नों के उत्तर खोजता है — और आत्मा को जानने के मार्ग पर अग्रसर होता है।


२. अध्याय - "आत्मतत्त्वविवेक" 

🧘‍♂️ आत्मतत्त्वविवेक का अर्थ:

  • यह शब्द तीन भागों से बना है: "आत्म" (स्वयं), "तत्त्व" (सत्य या तत्व), और "विवेक" (भेद या विश्लेषण)। अर्थात् — "स्वयं के तत्व का विश्लेषण"।

📖 इस अध्याय में क्या समझाया जाएगा?

इस अध्याय के अंतर्गत मुख्य रूप से यह स्पष्ट किया जाएगा कि:

  1. आत्मा क्या है — उसका स्वरूप, गुण, और भौतिक शरीर से उसका भेद।

  2. तीन शरीर — स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की पहचान।

  3. पञ्च कोश — शरीर के पांच आवरण: अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय।

  4. ‘मैं’ की पहचान — जिससे साधक जानता है कि वह न शरीर है, न मन है, बल्कि शुद्ध चैतन्य है।

✨ इस अध्याय का उद्देश्य:

साधक को यह बोध कराना कि जो वह "स्वयं" मानता है — वह वस्तुतः नश्वर शरीर, मन या बुद्धि नहीं है, बल्कि:

“साक्षी चैतन्य रूप आत्मा ही उसकी सच्ची पहचान है।”

8.1 तत्त्व विवेकः कः?

8.2 आत्मा सत्यं, तदन्यं सर्वं मिथ्येति।

🔸 हिन्दी व्याख्या:

  • प्रश्न: तत्त्व विवेक क्या है?

  • उत्तर: आत्मा ही सत्य है — शुद्ध, चैतन्य, नित्य और अपरिवर्तनीय। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है — शरीर, मन, बुद्धि, कर्म, संसार — सब मिथ्या हैं यानी माया के रूप में अस्थायी और अदृश्य।

भावार्थ: “जो बदलता नहीं — वही सत्य है। जो बदलता है — वह सत्य जैसा दिखता तो है, लेकिन अंततः मिथ्या है।”

🌿 गूढ़ विवेचन:

  • यह श्लोक आद्वैत वेदांत का मूल है — जहाँ केवल "ब्रह्म" को सत्य माना गया है, और संसार को “माया”।

  • “आत्मा” को सत्य कहने का अभिप्राय यह है कि वह साक्षी, निरपेक्ष, अद्वितीय है — जो न जन्म लेता है, न मरता है।

  • “मिथ्या” का अर्थ असत्य नहीं बल्कि नित्य नहीं — यानी जो दिखता है पर सच्चाई नहीं है।

9.1 आत्मा कः?

9.2 स्थूल–सूक्ष्म–कारण शरीरात् व्यतिरिक्तः, पञ्चकोशातीतः सन्, अवस्थात्रय साक्षी, सच्चिदानन्दस्वरूपः सन् यः तिष्ठति, स आत्मा।

🔸 हिन्दी अनुवाद और व्याख्या:

आत्मा वह है — ✅ जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से भिन्न है, ✅ जो पाँच कोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से अतीत है, ✅ जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति — इन तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, ✅ जो सच्चिदानन्दस्वरूप है — अर्थात् सत् (नित्य सत्ता), चित् (ज्ञान), और आनन्द (शाश्वत सुख)।

🌿 गूढ़ विवेचन:

  • आत्मा का कोई शरीर नहीं, लेकिन वह तीनों शरीरों को जानता है — वह उनका अनुभव करता है, पर उनसे बंधा नहीं होता।

  • पञ्च कोश — शरीर के पाँच आवरण — भी आत्मा पर परतें हैं, लेकिन आत्मा इन सबसे परे है।

  • अवस्थात्रय साक्षी — यह सबसे गहरा संकेत है कि आत्मा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में एक समान साक्षीभाव से बनी रहती है।

  • वह न बदलाव पाती है, न जन्म लेती है, न मरती है — यही सत्-चित्-आनंद है।

🪞 एक सरल दृष्टांत:

जैसे स्क्रीन पर अनेक दृश्य चलते हैं — फिल्में, रंग, आकृतियाँ — लेकिन स्क्रीन बदलती नहीं। वैसे ही आत्मा साक्षी है — वह सब देखती है, पर उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।

10.1 स्थूलशरीरं किं?

10.2 पञ्चीकृतपञ्चमहाभूतैः कृतं सकर्मजनं सुखदुःखादि भोगायतनं शरीरं, अस्ति, जायते, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यतीति षड्विकारवति स्थूलशरीरम्।

🔸 हिन्दी व्याख्या:

स्थूल शरीर क्या है? वह शरीर —

  • जो पञ्चीकृत पाँच महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) से बना है।

  • जो पूर्व जन्म के पुण्यकर्मों से प्राप्त हुआ है।

  • जो सुख-दुःख आदि के भोग का माध्यम है — यानी अनुभव का साधन।

  • जिसमें निम्नलिखित षड्विकार (छः परिवर्तन) होते हैं:

    1. अस्ति — अस्तित्व होता है

    2. जायते — जन्म लेता है

    3. वर्धते — बढ़ता है

    4. विपरिणमते — बदलता है

    5. अपक्षीयते — क्षय होता है

    6. विनश्यति — नष्ट हो जाता है

इस प्रकार का शरीर स्थूल शरीर कहलाता है।

🪶 भावात्मक दृष्टिकोण:

स्थूल शरीर वह है जिसे हम "मैं" समझने की भूल करते हैं — लेकिन वेदांत कहता है:

"यह शरीर तो परिवर्तनशील है, अनुभव का साधन है, आत्मा इससे भिन्न है।"

11.1 सूक्ष्मशरीरं किं?

11.2 अपञ्चीकृत पञ्चमहाभूतैः कृतम्, सत्कर्मजन्यम्, सुख-दुःखादि भोगसाधनम्, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, पञ्च प्राणाः, मनः, बुद्धिः — एवं सप्तदश कलाभिः सह वर्तिष्णु तत् सूक्ष्म शरीरम्।

🔸 हिन्दी व्याख्या:

सूक्ष्म शरीर क्या है? वह शरीर:

  • जो अपञ्चीकृत (अर्थात् पंचीकरण से पूर्व) पाँच महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) से बना है।

  • जो पूर्व जन्म के शुभ कर्मों से प्राप्त होता है।

  • जिसका उद्देश्य सुख-दुःख आदि का अनुभव करना होता है।

  • जो निम्नलिखित 17 तत्वों से युक्त होता है:

🧠 सप्तदश कला (17 अवयव)

श्रेणी

तत्व

5 ज्ञानेन्द्रिय

कान (श्रवण), त्वचा (स्पर्श), आँख (दृष्टि), जीभ (स्वाद), नाक (गंध)

5 कर्मेन्द्रिय

वाणी, हाथ, पाँव, गुदा, जननेंद्रिय

5 प्राण

प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान

1 मन

संकल्प–विकल्प का केंद्र

1 बुद्धि

विवेक और निर्णय की शक्ति

🌿 भावार्थ:

  • सूक्ष्म शरीर वह अंतःयंत्रणा है जिसमें सोचने, अनुभव करने और क्रिया करने की सारी शक्तियाँ निहित होती हैं।

  • यह शरीर अनुभवकर्ता की भूमिका निभाता है — जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में यही कार्यरत रहता है।

  • स्थूल शरीर बाह्य आवरण है, लेकिन यह सूक्ष्म शरीर ही जीवन की गति और क्रिया का संचालन करता है।

11.3 श्रोत्रं त्वक् चक्षुः रसनं घ्राणम् इति पंच ज्ञानेन्द्रियाणि।

👉 श्रोत्र (कान), त्वचा (स्पर्श), चक्षु (आँख), रसना (जीभ), और घ्राण (नाक) — ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।

11.4 — ज्ञानेन्द्रियों के देवता:

ज्ञानेन्द्रिय

अधिदेवता (दैवतम्)

श्रोत्र (कान)

दिशा / आकाश देवता

त्वचा (स्पर्श)

वायु

चक्षु (आँख)

सूर्य

रसना (जीभ)

वरुण

घ्राण (नाक)

अश्विनीकुमार (जुड़वां देवता)

🔸 इन अधिदेवताओं का कार्य है — इंद्रिय की शक्ति को बनाए रखना और अनुभव को संभव बनाना।

🌿 भावार्थ:

वेदान्त के अनुसार, शरीर की इंद्रियाँ स्वयं में क्रियाशील नहीं होतीं — बल्कि उन्हें शक्ति देने वाले अधिदेवता होते हैं। उदाहरण के लिए:

  • हम देखते हैं आँख से, लेकिन सूर्य दृष्टि की शक्ति का स्रोत है।

  • स्वाद का अनुभव जीभ से होता है, लेकिन वरुण उस शक्ति को प्रदान करते हैं।

यह दृष्टिकोण हमें शरीर की सीमाओं से परे जाकर सूक्ष्म जगत और देव-तत्त्वों की भूमिका को समझने में मदद करता है।

11.5 — ज्ञानेन्द्रियाँ और उनके विषय:

ज्ञानेन्द्रियाँ

कार्य / विषय का ग्रहण

श्रोत्र (कान)

शब्द ग्रहण करना

त्वचा (स्पर्श)

स्पर्श ग्रहण करना

चक्षु (आँख)

रूप देखना

रसना (जीभ)

स्वाद अनुभव करना

घ्राण (नाक)

गंध ग्रहण करना

🔸 इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान ग्रहण होता है। हर इन्द्रिय का विषय अलग होता है — जिससे आत्मा बाह्य जगत का अनुभव करती है।

11.6 — पञ्च कर्मेन्द्रियाँ:

कर्मेन्द्रियाँ

कार्य

वाक् (वाणी)

बोलना

पाणि (हाथ)

वस्तुओं को पकड़ना

पाद (पाँव)

चलना

पायू (गुदा)

मल त्याग

उपस्थ (जननेंद्रिय)

सृजन एवं सुखानुभूति

🔸 ये कर्मेन्द्रियाँ आत्मा को कर्म करने की शक्ति देती हैं — इन्हीं से शरीर के क्रियात्मक कार्य होते हैं।

🌿 समग्र भाव:

  • ज्ञानेन्द्रियाँ हमें बाहरी विश्व का अनुभव कराती हैं।

  • कर्मेन्द्रियाँ हमें उस अनुभव के अनुसार कार्य करने की क्षमता देती हैं।

  • आत्मा स्वयं न तो कुछ करती है न अनुभव करती है — वह साक्षी है, इन इंद्रियों के माध्यम से ही यह अनुभव और कर्म संभव होता है।

11.7 — कर्मेन्द्रिय देवता:

वाचो देवता वह्निः। हस्तयोः इन्द्रः। पादयोः विष्णुः। पायोः मृत्युः। उपस्थस्य प्रजापतिः इति कर्मेन्द्रिय देवताः।

🕉️ हिन्दी भावार्थ:

कर्म करने वाली इंद्रियों के देवता हैं:

कर्मेन्द्रिय

अधिदेवता (दैवी शक्ति)

वाणी (वाक्)

अग्नि देवता (वह्निः)

हाथ (पाणि)

इन्द्र

पाँव (पाद)

विष्णु

गुदा (पायुः)

मृत्यु (मृत्युः)

जननेंद्रिय (उपस्थ)

प्रजापति (सृष्टिकर्ता)

🔹 इन देवताओं का कार्य है इन इंद्रियों को शक्ति और संचालन देना।

 11.8 — कर्मेन्द्रियों के विषय:

वाचो विषयः भाषणम्। पाण्योः विषयः वस्तुग्रहणम्। पादयोः विषयः गमनम्। पायोः विषयः मलत्यागः। उपस्थस्य विषयः आनन्दः इति।

🌿 हिन्दी व्याख्या:

हर कर्मेन्द्रिय का एक विशिष्ट कार्य है:

कर्मेन्द्रिय

कार्य / विषय

वाणी (वाक्)

बोलना (भाषणम्)

हाथ (पाणि)

वस्तुओं को पकड़ना (ग्रहण)

पाँव (पाद)

चलना (गमनम्)

गुदा (पायुः)

मल त्याग

जननेंद्रिय (उपस्थ)

आनन्द / सृजन

🔸 यह क्रियाएँ सूक्ष्म शरीर के माध्यम से होती हैं, जिससे आत्मा भोग एवं अनुभव करती है।

12.1 कारणशरीरं किम्?

12.2 अनिर्वाच्याऽनादिवासना शरीरद्वयस्य कारणं सत् स्वरूपाज्ञानं निर्विकल्पकं यदस्ति तत् कारणशरीरम्।

🔸 हिन्दी व्याख्या:

कारण शरीर क्या है? वह शरीर:

  • जो अनिर्वचनीय है — स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता।

  • जिसका कोई आदि नहीं — अर्थात यह अनादि है।

  • जिसमें वासना (आदत, संस्कार) विद्यमान हैं — जो सूक्ष्म और स्थूल शरीर की उत्पत्ति का कारण बनती हैं।

  • जो सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा के अज्ञान से उत्पन्न होता है — यानी हम अपनी सच्ची पहचान को नहीं जानते।

  • जो निर्विकल्प है — उसमें कोई भेदभाव, विचार या विकल्प नहीं होता।

👉 यही अवस्था अविद्या की मूलभूत अवस्था है — जिसे कारण शरीर कहते हैं।

🌿 भावात्मक विवेचन:

  • कारण शरीर वह गहनतम परत है — जहाँ से हमारी अन्य सभी अनुभूतियाँ और शरीरों का निर्माण होता है।

  • यह शरीर गहरी निद्रा या सुषुप्ति अवस्था में सक्रिय होता है — जब व्यक्ति कुछ भी नहीं जानता, लेकिन अस्तित्व बना रहता है।

  • जब ज्ञान उत्पन्न होता है और हम अपने सच्चे स्वरूप को पहचानते हैं, तो यही कारण शरीर नष्ट हो जाता है।

13.1 — अवस्थानं किम्?

13.2 जाग्रत्–स्वप्न–सुषुप्तावस्था।

👉 हिन्दी भावार्थ: तीन अवस्थाएँ होती हैं —

  1. जाग्रत अवस्था

  2. स्वप्न अवस्था

  3. सुषुप्ति अवस्था यही अवस्थानं कहलाती हैं।

13.3 — जाग्रत् अवस्था का?

13.4 श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियैः शब्दादि विषयैः च ज्ञाने इति यत्र सा जाग्रत् अवस्था।

👉 हिन्दी व्याख्या: जब मनुष्य कान, आँख, त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से शब्द, रूप, स्पर्श आदि विषयों को जानता है — वह अवस्था जाग्रत अवस्था कहलाती है।

🌿 भावात्मक विवेचन:

  • जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर कार्यरत रहता है।

  • बाह्य जगत का प्रत्यक्ष अनुभव होता है — दृश्य, ध्वनि, स्पर्श आदि के माध्यम से।

  • यही वह अवस्था है जिसमें हम अपनी दैनिक गतिविधियाँ करते हैं।

13.5 — स्थूल शरीर अभिमानी आत्मा विश्व इत्युच्यते।

🔸 हिन्दी भावार्थ:

जो आत्मा स्थूल शरीर के साथ अपना अभिमान करता है — अर्थात् "मैं शरीर हूँ", "मैं स्त्री/पुरुष हूँ", "मैं अमुक हूँ" — उसी को विश्व कहा जाता है।

💡 विश्व वह नाम है जो आत्मा को जाग्रत अवस्था में दिया जाता है — जब वह इंद्रियों के माध्यम से संसार का अनुभव करता है।

13.6 — स्वप्नावस्था किः चेति? जागरदवस्थायां यद्दृष्टं यच्चुतं तज्जनितावासनया निद्रासमये यः प्रपञ्चः प्रतीयते सा स्वप्नावस्था।

🔸 हिन्दी व्याख्या:

स्वप्न अवस्था क्या है?

👉 जब हम जाग्रत अवस्था में जो कुछ देखते हैं, सुनते हैं, या अनुभव करते हैं — उनसे उत्पन्न वासना (छाप या संस्कार) के आधार पर, नींद के समय जो कल्पित संसार हमें प्रतीत होता है — वही स्वप्न अवस्था कहलाती है।

🔹 इसमें कोई इंद्रिय बाहर कार्यरत नहीं होती — सब कुछ आंतरिक मन में घटित होता है।

🌿 गूढ़ दृष्टि:

  • जाग्रत अवस्था में विश्व नाम की आत्मा स्थूल शरीर से जुड़ी होती है।

  • स्वप्न अवस्था में वही आत्मा सूक्ष्म शरीर से जुड़कर तैजस कहलाती है (अगले श्लोकों में इसका वर्णन मिलेगा)।

13.7 — सूक्ष्मशरीराभिमानी आत्मा तैजसः इति उच्यते।

🕉️ हिन्दी व्याख्या:

जो आत्मा सूक्ष्म शरीर के साथ अपना अभिमान करता है — यानी यह सोचता है "मैं मन हूँ", "मैं बुद्धि हूँ", वह तैजस कहलाता है।

🔸 यह नाम विशेष रूप से उस आत्मा को दिया जाता है स्वप्न अवस्था में, जहाँ व्यक्ति बाह्य इंद्रियों को छोड़कर केवल अंतःकरण (मन, बुद्धि) में ही अनुभव करता है।

🔹 13.8 — अथ सुषुप्तावस्था का?

🕉️ हिन्दी भावार्थ:

अब सुषुप्ति अवस्था (गहन निद्रा) क्या है — इस प्रश्न का उत्तर तैयार किया जा रहा है।

यह अगले श्लोक में पूर्ण रूप से आएगा, लेकिन यहाँ संकेत मिल रहा है कि स्वप्न के परे, जब सभी इंद्रियाँ और मन शिथिल हो जाते हैं, और केवल आत्मा शुद्ध रूप में निष्क्रिय साक्षी बनी रहती है — वही अवस्था सुषुप्ति कहलाती है।

🌿 भाव दृष्टिकोण:

  • जाग्रत अवस्था में आत्मा को विश्व कहा जाता है — क्योंकि वह स्थूल शरीर से जुड़ती है।

  • स्वप्न अवस्था में आत्मा को तैजस कहा जाता है — क्योंकि वह सूक्ष्म शरीर से जुड़ती है।

  • अगला नाम होगा प्राज्ञ — जो आत्मा का नाम है सुषुप्ति अवस्था में, जहाँ वह कारण शरीर से संबंधित होती है।

13.9 — सुषुप्तावस्था का? अयं किमपि न जानामि सुखेन मया निद्रासुखमभूत इति सुषुप्तावस्था।

🕉️ हिन्दी भावार्थ:

जब व्यक्ति नींद से जागकर कहता है — "मुझे कुछ भी पता नहीं था, लेकिन मैं सुखपूर्वक सोया," तो वह अनुभव सुषुप्ति अवस्था का होता है।

🔸 इसमें:

  • न इंद्रियाँ कार्य करती हैं

  • न मन चलता है

  • न कोई स्वप्न आता है

👉 फिर भी आत्मा बनी रहती है — साक्षी रूप में, बस अनुभव का अभाव होता है।

📜 — कारण शरीर अभिमानी आत्मा का नाम क्या है?

13.10 कारणशरीराभिमानी आत्मा प्राज्ञ इत्युच्यते।

🕉️ हिन्दी व्याख्या:

जो आत्मा कारण शरीर (अविद्या / अज्ञान) से जुड़कर सुषुप्ति अवस्था में रहती है, उसे प्राज्ञ कहा जाता है।

🔹 इस अवस्था में:

  • न कोई द्वंद्व है

  • न कोई विचार या विकल्प

  • केवल अज्ञान और आनंद की अनुभूति है — जिसे निद्रासुख कहा जाता है।

🌿 भावदृष्टि:

  • जाग्रत अवस्था → आत्मा = विश्व (स्थूल शरीर से जुड़ी)

  • स्वप्न अवस्था → आत्मा = तैजस (सूक्ष्म शरीर से जुड़ी)

  • सुषुप्ति अवस्था → आत्मा = प्राज्ञ (कारण शरीर से जुड़ी)

👉 ये तीनों नाम आत्मा के नहीं — बल्कि उसकी शरीर के साथ पहचान के अनुसार स्थितियाँ हैं।

🧘‍♂️ पंचकोश की परिभाषा

श्लोक: १४.१ पंचकोशाः के? अन्नमयः प्राणमयः मनोमयः विज्ञानमयः आनन्दमयः च।

हिंदी अर्थ: पाँच कोश कौन-कौन से हैं?

  1. अन्नमय कोश (शारीरिक — स्थूल शरीर)

  2. प्राणमय कोश (ऊर्जात्मक — प्राणशक्ति)

  3. मनोमय कोश (मानसिक — मन से संबंधित)

  4. विज्ञानमय कोश (बुद्धि — विवेक से जुड़ा)

  5. आनन्दमय कोश (आनंद — आत्मिक शांति का अनुभव)

🍚 अन्नमय कोश की व्याख्या

श्लोक: १४.२ अन्नमयः कः? अन्नरसेनैव भूता अन्नरसेनैव वृद्धिं प्राप्ता अन्नरूपपञ्चिक्यां च लीयते। तद्वन्नमयः कोशः स्थूलशरीरं।

हिंदी अर्थ: अन्नमय कोश क्या है?

  • जो अन्नरस से उत्पन्न होता है

  • अन्नरस से ही इसकी वृद्धि होती है

  • मृत्यु के समय पृथ्वी में विलीन हो जाता है

यह शरीर स्थूल है, अर्थात जो दिखाई देता है — हड्डियाँ, माँस, त्वचा इत्यादि। यह शरीर भोजन से बना हुआ है और अंततः उसी में लौट जाता है। इसे ही अन्नमय कोश कहते हैं।

प्राणमय कोश

श्लोक: १४.३ प्राणमयः कः? प्राणाः पञ्चवायवः वागादीन्द्रियाण्यकं प्राणमयः कोशः।

हिंदी अर्थ: प्राणमय कोश क्या है?

  • प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान — ये पाँच वायु

  • वाणी, हाथ, पैर, गुदा, जननेंद्रिय — ये पाँच कर्मेंद्रियाँ इन दोनों का समूह — प्राण और कर्मेंद्रियाँ — मिलकर जो शरीर की क्रियाओं को संचालित करते हैं, वह प्राणमय कोश कहलाता है।

🧠 मनोमय कोश

श्लोक: १४.४ मनोमयः कोशः कः? मनश्च ज्ञानेन्द्रियाणां च मिलित्वा भवति स मनोमयः कोशः।

हिंदी अर्थ: मनोमय कोश क्या है?

  • मन (चिंतन करने वाला तत्व)

  • पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ — कान, त्वचा, आंख, जीभ, नाक इनका समुच्चय मिलकर मनोमय कोश बनता है। यही मन हमारे अनुभवों का विश्लेषण करता है और प्रतिक्रियाएँ देता है।

🧩 विज्ञानमय कोश

श्लोक: १४.५ विज्ञानमयः कः? बुद्धिश्च ज्ञानेन्द्रियाणां च मिलित्वा भवति स विज्ञानमयः कोशः।

हिंदी अर्थ: विज्ञानमय कोश क्या है?

  • बुद्धि (विवेक, निर्णयशक्ति)

  • पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ जब बुद्धि ज्ञानेन्द्रियों से जुड़कर काम करती है, तब जो चेतन स्तर बनता है उसे विज्ञानमय कोश कहते हैं।

☀️ आनन्दमय कोश

श्लोक: १४.६ आनन्दमयः कः? एकमेव कारणरूपसूक्ष्मविज्ञानमलिनसत्वं प्रियादिवृत्तिरनिलसत्वं सत् आनन्दमयः कोशः।

हिंदी अर्थ: आनन्दमय कोश क्या है?

  • कारण शरीर से संबद्ध, अज्ञान के स्तर पर स्थित

  • प्रिय, मोद, प्रमोद — तीन आनंद की वृत्तियाँ जो गहन शांति, तृप्ति और परमानंद के भाव में स्थिर रहता है — यही आनन्दमय कोश है। यह आत्मा के सबसे समीपवर्ती आवरण है।

यह श्लोक "पंचकोशातीत आत्मा" की ओर संकेत करता है और अत्यंत महत्वपूर्ण है — क्योंकि अब हम पाँचों कोशों से परे आत्मा की पहचान कर रहे हैं। आइए इसे विस्तार से समझें:

🔍 श्लोक (संस्कृत मूल):

१५. मदीये शरीरे मदीयाः प्राणाः मदीयं मनश्च मदीया बुद्धिः निर्विवे ज्ञानमिति स्वमेव ज्ञात्वे तथाथ मदीयत्वेन ज्ञातं कटक्ककुण्डलगृहादिकं स्वमादृशं तथा पञ्चकोशादिकं मदीयत्वेन ज्ञातमात्मा न भवति।

📘 हिंदी अर्थ और व्याख्या:

जैसे —

  • मेरा कंघा, मेरे कुण्डल, मेरा घर इत्यादि — ये वस्तुएँ "मेरी" हैं, लेकिन मैं नहीं हूँ।

  • उसी प्रकार मेरा शरीर, मेरे प्राण, मेरा मन, मेरी बुद्धि और मेरा ज्ञान — ये सब "मेरे" हैं, परन्तु मैं नहीं हूँ।

➡️ चूँकि ये पाँच कोश "मेरे" हैं, तो स्वाभाविक रूप से ये "आत्मा" नहीं हो सकते। आत्मा इन सबसे परे है, वह न तो शरीर है, न प्राण है, न मन है, न बुद्धि है, न ज्ञान — आत्मा इन सबका साक्षी है।

🧭 मुख्य बिंदु:

  • 'मेरा' और 'मैं' में अंतर समझाना इस श्लोक का उद्देश्य है।

  • जिस प्रकार हम बाहरी वस्तुओं को "अपना" कहकर उनसे अलग पहचानते हैं, वैसे ही शरीर और मन भी "अपना" हैं — आत्मा नहीं।

🪞 दर्शनशास्त्र से जुड़ी टिप्पणी:

यह श्लोक नित्यता और साक्षित्व के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। आत्मा वह है जो साक्षी रूप में है — जो देखने वाला है, स्वयं कभी देखा नहीं जाता। पंचकोश (अन्न, प्राण, मन, बुद्धि, आनंद) आत्मा के आवरण हैं, लेकिन आत्मा स्वयं निरावरण, शुद्ध चैतन्य है।

अब हम आत्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप को विस्तार से समझते हैं। यह वह बिंदु है जहाँ तत्त्वबोध आत्मा की परिभाषा को गहराई से उजागर करता है। प्रस्तुत हैं संबंधित श्लोक तथा उनका हिंदी में व्याख्यात्मक अर्थ:

🕉️ श्लोक १६.१ – आत्मा कौन है?

श्लोक: आत्मा तावः कः? सच्चिदानन्दस्वरूपः। हिंदी अर्थ: आत्मा क्या है? जो सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना/ज्ञान), और आनन्द (सुख) स्वरूप है — वही आत्मा है। यह शरीर, प्राण, मन से भिन्न होकर साक्षी रूप में स्थित है।

🕰️ श्लोक १६.२ – सत् क्या है?

श्लोक: सत्किम्? कालत्रयेऽपि तिष्ठतीति सत्। हिंदी अर्थ: सत् वह है जो तीनों कालों — भूत, वर्तमान, और भविष्य — में यथावत् रहता है। टिप्पणी: जिसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता — वही सत्य है। शरीर नश्वर है, परंतु आत्मा अमर है।

🧠 श्लोक १६.३ – चित् क्या है?

श्लोक: चित्किम्? ज्ञानस्वरूपम्। हिंदी अर्थ: चित् वह है जो स्वभाव से ही ज्ञानमय है। टिप्पणी: आत्मा स्वयं ज्ञान है — उसे किसी बाह्य माध्यम से जानना नहीं पड़ता, वह जानने वाला ही है।

😊 श्लोक १६.४ – आनन्द क्या है?

श्लोक: आनन्दः कः? सुखस्वरूपः। हिंदी अर्थ: आनन्द वह है जिसका स्वरूप ही सुख है। टिप्पणी: यह स्थायी और परम सुख है — इंद्रिय सुख नहीं, बल्कि आत्मिक शांति और तृप्ति।

✨ संक्षेप में:

आत्मा = सत् + चित् + आनन्द

  • सत्: जो सदा है — अमर

  • चित्: जो चेतना है — साक्षी

  • आनन्द: जो परम सुख है — निर्भर नहीं किसी वस्तु पर

३. अध्याय - जगत की उत्पत्ति

🌱 श्लोक १७ – चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति का संकल्प

श्लोक: अथ चतुर्विंशतितत्त्वोत्पत्तिप्रकारं वक्ष्यामः। हिंदी अर्थ: अब हम चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति का तरीका बताएँगे।

🌫️ श्लोक १८ – मायातत्त्व की परिभाषा

श्लोक: ब्रह्माश्रया सत्त्वरजस्तमोगुणात्मिका माया अस्ति। हिंदी अर्थ: माया ब्रह्म के आश्रय में रहकर कार्य करती है। इसमें तीन गुण — सत्त्व (शुद्धता), रजस् (क्रिया), और तमस् (जड़ता) — समाहित होते हैं। यह अव्यक्त कारण है जिससे सृष्टि की आरंभ होती है।

🔥💧🌍 श्लोक १९ – पंचमहाभूतों की उत्पत्ति

श्लोक: ततः आकाशः सम्भूतः। आकाशात् वायुः। वायोः तेजः। तेजसः आपः। अद्भ्यः पृथिवी। हिंदी अर्थ: माया से:

  • आकाश (स्पेस) उत्पन्न हुआ,

  • आकाश से वायु (हवा),

  • वायु से अग्नि (तेज),

  • अग्नि से जल (आप),

  • जल से पृथ्वी (भूमि) उत्पन्न हुई।

➡️ ये पाँच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) ही समस्त स्थूल जगत के मूल हैं।

🧭 दर्शन की दृष्टि से टिप्पणी:

  • यह उत्पत्ति क्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर है — जैसे चेतना से पदार्थ तक।

  • पंचमहाभूतों से आगे विविध इंद्रियाँ, मन-बुद्धि और शरीर की रचना होती है — जिसे हम आगे के श्लोकों में देखेंगे।

🪷 श्लोक २०–२०.४ : पंचमहाभूतों से इंद्रियों की उत्पत्ति

🔊 २०. आकाश से श्रवणेन्द्रिय (कान)

श्लोक: एतेषां पञ्चतत्त्वानां मध्ये आकाशस्य सात्त्विकांशात् श्रोत्रेन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: पाँच तत्त्वों में से आकाश के सात्त्विक अंश से श्रवण इन्द्रिय (कान) की उत्पत्ति होती है।

🌬️ २०.१ वायु से स्पर्शनेंद्रिय (त्वचा)

श्लोक: वायोः सात्त्विकांशात् त्वचेद्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: वायु के सात्त्विक अंश से स्पर्श इन्द्रिय (त्वचा) की उत्पत्ति होती है।

🔥 २०.२ अग्नि से दृष्टि इन्द्रिय (नेत्र)

श्लोक: अग्नेः सात्त्विकांशात् चक्षुरिन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: अग्नि के सात्त्विक अंश से दृष्टि इन्द्रिय (नेत्र) उत्पन्न होती है।

💧 २०.३ जल से रसना इन्द्रिय (जीभ)

श्लोक: जलस्य सात्त्विकांशात् रसनेन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: जल के सात्त्विक अंश से स्वाद इन्द्रिय (जीभ) की उत्पत्ति होती है।

🌍 २०.४ पृथ्वी से घ्राणेन्द्रिय (नाक)

श्लोक: पृथिव्याः सात्त्विकांशात् घ्राणेन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: पृथ्वी के सात्त्विक अंश से गंध इन्द्रिय (नाक) की उत्पत्ति होती है।

📚 संक्षिप्त टिप्पणी:

  • पंचमहाभूतों के सात्त्विक अंश ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न करते हैं

  • इस क्रम में चेतनता को ग्रहण करने वाले उपकरण की रचना होती है

  • यह इंद्रियाँ आत्मा को जगत से अनुभव कराने का माध्यम बनती हैं

अंतःकरण - मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त — की उत्पत्ति और स्वभाव । 

🧠 श्लोक २१.१ – अंतःकरण की उत्पत्ति

श्लोक: एषोऽयं पञ्चत्वानां समष्टिसात्त्विकांशानां बुद्ध्यहंकारचित्तानांकरणानि समुत्पन्नानि। हिंदी अर्थ: पाँच महाभूतों के सात्त्विक अंशों के समष्टि से — मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त रूपी अंतःकरण की उत्पत्ति होती है। ➡️ इन्हें “अंतःकरण चतुष्टय” कहा जाता है — ये आत्मा के समीपस्थ सूक्ष्म उपकरण हैं।

📌 श्लोक २१.२ – मन का स्वभाव

श्लोक: संकल्पविकल्पात्मकः मनः। हिंदी अर्थ: मन का स्वभाव संकल्प-विकल्प से युक्त होता है — ➡️ अर्थात निर्णय लेने से पहले की स्थिति, जिसमें विकल्पों के बीच द्वंद्व चलता है। जैसे: “क्या करूँ?” — “यह या वह?” — यही मन है।

🎯 श्लोक २१.३ – बुद्धि का स्वभाव

श्लोक: निश्चयात्मकिका बुद्धिः। हिंदी अर्थ: बुद्धि का स्वभाव निश्चय करना है — ➡️ अर्थात विकल्पों में निर्णय करके “यही ठीक है” का निष्कर्ष निकालना। उदाहरण: मन सोचता है “जाऊँ या न जाऊँ?” — बुद्धि कहती है “जाना चाहिए!”

🔥 श्लोक २१.४ – अहंकार का स्वरूप

श्लोक: अहंकर्ता अहंकारः। हिंदी अर्थ: “I am the doer” — यह करने की भावना ही अहंकार कहलाती है। ➡️ जब व्यक्ति किसी कर्म में अपने कोकर्ता मानता है — यही भाव अहंकार है।

टिप्पणी:

  • अहंकार आत्मा से अलग एक सूक्ष्म आवरण है।

  • यह ही ‘मैं’ और ‘मेरा’ की अलगाव की अनुभूति कराता है।

🧠 श्लोक २१.५ – चित्त का स्वरूप

श्लोक: चिन्तनकर्ता चित्तम्। हिंदी अर्थ: जो चिन्तन करता है — अर्थात यादें संजोता है, स्मृतियाँ लिपिबद्ध करता है — वह चित्त कहलाता है। ➡️ यह मन-बुद्धि-अहंकार का सहेजने वाला भाग है, जिसमें संस्कार और वृत्तियाँ स्थित होती हैं।

टिप्पणी:

  • चित्त विचारों की पुनरावृत्ति, स्मरण और भावों की गहराई में कार्य करता है।

  • यह ध्यान और समाधि में अत्यंत प्रमुख भूमिका निभाता है।

🌕🧘‍♂️ श्लोक २१.६ – अंतःकरण के देवता

श्लोक: मनसो देवता चन्द्रमाः, बुद्धेर्ब्रह्मा, अहंकारस्य रुद्रः, चित्तस्य वासुदेवः।

हिंदी अर्थ:

  • मन के देवता: चन्द्रमा — मन में भावों की तरंगें, चन्द्र से जुड़ी मानी जाती हैं।

  • बुद्धि के देवता: ब्रह्मा — सृजन, निर्णय और विवेक के प्रतीक।

  • अहंकार के देवता: रुद्र — संहारक शक्ति, 'मैं' की दृढ़ता।

  • चित्त के देवता: वासुदेव — परमात्मा, गहराई की शुद्ध चेतना।

✨ संक्षेप में – अंतःकरण चतुष्टय

तत्व

कार्य

देवता

मन

संकल्प-विकल्प

चन्द्रमा

बुद्धि

निश्चय

ब्रह्मा

अहंकार

करता की भावना

रुद्र

चित्त

स्मरण, चिन्तन

वासुदेव

🗣️ श्लोक २२.१ – आकाश से वाक् इन्द्रिय

श्लोक: एषां पञ्चतत्त्वानां मध्ये आकाशस्य राजसांशात् वागिन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: पंचमहाभूतों में से आकाश के राजस अंश से वाक् इन्द्रिय (बोलने की शक्ति) की उत्पत्ति होती है।

🤲 श्लोक २२.२ – वायु से हस्त इन्द्रिय

श्लोक: वायोः राजसांशात् पाणिन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: वायु के राजस गुण से हस्त इन्द्रिय (हाथ की क्रिया शक्ति) उत्पन्न होती है।

🦵 श्लोक २२.३ – अग्नि से पाद इन्द्रिय

श्लोक: अग्नेः राजसांशात् पादेन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: अग्नि के राजस अंश से पाद इन्द्रिय (पैर चलाने की शक्ति) उत्पन्न होती है।

🚽 श्लोक २२.४ – जल से पायु-उपस्थ इन्द्रिय

श्लोक: जलस्य राजसांशात् पायूपस्थेन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: जल के राजस गुण से पायु और उपस्थ इन्द्रियाँ (विसर्जन और जननक्रिया संबंधी) उत्पन्न होती हैं।

🌍 श्लोक २२.५ – पृथ्वी से गुदा इन्द्रिय

श्लोक: पृथिव्या राजसांशात् गुदेन्द्रियं सम्भूतम्। हिंदी अर्थ: पृथ्वी के राजस अंश से गुदा इन्द्रिय की उत्पत्ति होती है — यह भी एक कर्मेन्द्रिय है।

🧩 संक्षेप में – पंचमहाभूतों के राजस गुण से कर्मेन्द्रियाँ

महाभूत

राजस अंश से उत्पन्न कर्मेन्द्रिय

आकाश

वाक् (बोलना)

वायु

पाणि (हाथ)

अग्नि

पाद (पैर)

जल

पायु/उपस्थ (विसर्जन/जनन)

पृथ्वी

गुदा (सक्रिया अंग)

🔬 श्लोक २३ – पंच प्राणों की उत्पत्ति

श्लोक: एषां समष्टि राजसांशात् पंच प्राणाः सम्भूताः। हिंदी अर्थ: पाँच महाभूतों के राजस गुण के समष्टि अंश से पाँच प्राण उत्पन्न होते हैं:

  • प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान ➡️ ये शरीर की गति-विधियों और ऊर्जा के प्रवाह के लिए उत्तरदायी हैं।

🧩 श्लोक २४.१ – प्रश्न: पंचीकरणं कं इति चेत्?

हिंदी अर्थ: यदि कोई पूछे — पंचीकरण क्या है? ➡️ इसका उत्तर अगले श्लोक में विस्तार से दिया गया है।

🌀 श्लोक २४.२ – पंचीकरण की विधि

श्लोक: एषां पञ्चमहाभूतानां तामसांशात् स्वस्वरूप एकमेके भूते तिष्ठति। विष्णुप एकमेकेनांशः पृथक् व्यवस्थितानां परस्परं चतुर्थं विष्णुप स्वस्वरूपेणैव अर्धं स्वमात्राद्वय संज्ञेन कार्यम्। तत् पंचीकरण भवति।

🧪 हिंदी व्याख्या (सरल शब्दों में):

पंचीकरण की प्रक्रिया इस प्रकार है:

  1. प्रत्येक महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) के तामस गुण को दो भागों में बाँटा जाता है।

  2. एक भाग को वैसा ही रख लिया जाता है (स्वरूप में)।

  3. दूसरे भाग को चार बराबर हिस्सों में बाँट दिया जाता है।

  4. इन चार हिस्सों में से प्रत्येक को अन्य चार महाभूतों के अर्धांश में मिला दिया जाता है।

🔄 इस प्रकार हर महाभूत में थोड़ा-थोड़ा अन्य चारों तत्वों का मिश्रण हो जाता है।

📘 परिणाम क्या होता है?
  • यह प्रक्रियायुक्त पंचीकरण के बाद ही स्थूल भूत बनते हैं — जिससे स्थूल शरीर, इंद्रियाँ, और जगत की रचना संभव होती है।

  • बिना पंचीकरण, भूत केवल सूक्ष्म रहते हैं — जिन्हें अनुभव नहीं किया जा सकता।

💪 श्लोक २५ – स्थूल शरीर की उत्पत्ति

श्लोक: एतेभ्यः पञ्चीकृतपञ्चमहाभूतैः स्थूलशरीरं भवति।

🗣️ हिंदी अर्थ:

इन पञ्चीकृत पञ्चमहाभूतों — यानी जिन पाँच महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) में पंचीकरण की प्रक्रिया हो चुकी हो — उनसे स्थूल शरीर का निर्माण होता है।

➡️ स्थूल शरीर में पंचमहाभूत इस प्रकार सम्मिलित रहते हैं कि हर एक तत्व में बाकी चार तत्वों का अंश भी होता है। यही कारण है कि शरीर ठोस, दृश्य और कार्यशील बनता है।

🧘‍♂️ स्थूल शरीर का स्वरूप:
  • यह शरीर जन्म से मृत्यु तक के बीच कार्य करता है

  • इसमें इंद्रियाँ, अंग, पाचन, चलन आदि की क्रियाएँ होती हैं

  • यह आत्मा का आवरण है — लेकिन आत्मा इससे परे, साक्षी रूप में स्थित है

🧪 पंचीकरण की भूमिका:

पंचीकरण के बिना महाभूत केवल सूक्ष्म रूप में रहते हैं — अनुभूति नहीं होती। पंचीकरण के बाद वे स्थूल बनते हैं — जिससे दृश्य, ठोस जगत की उत्पत्ति होती है, जैसे शरीर, वस्तुएँ, इंद्रियाँ।

४. अध्याय - जीव ब्रह्म ऐक्य

🪐 श्लोक २६ – पिण्ड-ब्रह्माण्ड ऐक्य

श्लोक: एवं पिण्डब्रह्माण्डयोरेकं समभूतम्।

हिंदी अर्थ: इस प्रकार पिण्ड (मानव शरीर) और ब्रह्माण्ड (सृष्टि) में ऐक्य सिद्ध होता है।

व्याख्या: जो कुछ इस शरीर में है, वही तत्व पूरे ब्रह्माण्ड में भी हैं। शरीर सूक्ष्म ब्रह्माण्ड के समान है — ➡️ “यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे” यह उपनिषदों का सिद्धान्त है।

🌟 श्लोक २७ – जीव का प्रतिबिंब स्वरूप

श्लोक: सूक्ष्मशरीराभिमानी जीवात्मानकं ब्रह्मप्रतिबिंबं भवति, स एव जीवः प्रकृत्या स्वस्मात् ईश्वरं भिन्नत्वेन जानाति।

हिंदी अर्थ: सूक्ष्म शरीर से युक्त जीवात्मा ब्रह्म का प्रतिबिंब है। ➡️ परंतु वह अपने स्वभाव से ईश्वर को अपने से भिन्न समझता है।

टिप्पणी:

  • जैसे दर्पण में दिखाई देने वाली आकृति मूल नहीं होती — जीव ब्रह्म का ही प्रतिबिंब है।

  • अविद्या के कारण जीव को लगता है कि वह ईश्वर से अलग है।

🧠 श्लोक २८ – अविद्या से युक्त आत्मा ही जीव

श्लोक: अविद्या उपाधिः सन् आत्मा जीवः इति उच्यते।

हिंदी अर्थ: जब आत्मा अविद्या के उपाधि से युक्त होती है — तभी उसे जीव कहा जाता है।

स्पष्टीकरण:

  • अविद्या = आत्मा को शरीर, मन, बुद्धि आदि के साथ जोड़ देना

  • यही पहचान भ्रम है — जिससे जीव का जन्म होता है

🌀 श्लोक २९ – माया से युक्त आत्मा ही ईश्वर

श्लोक: मायोपाधिः सन् ईश्वरः इत्युच्यते।

हिंदी अर्थ: माया की उपाधि से युक्त आत्मा को ईश्वर कहते हैं।

टिप्पणी:

  • जहाँ अविद्या का संकुचित प्रभाव होता है → वह जीव

  • जहाँ माया की व्यापक सत्ता जुड़ती है → वह ईश्वर ➡️ दोनों ब्रह्म के प्रतिबिंब हैं — भिन्नता उपाधियों की है, न आत्मा की।

🧭 अद्वैत वेदान्त का संकेत:

स्थिति

उपाधि

नाम

ब्रह्म

कोई नहीं

शुद्ध आत्मा

ब्रह्म + माया

समष्टि उपाधि

ईश्वर

ब्रह्म + अविद्या

व्यक्तिपरक उपाधि

जीव

🔁 श्लोक ३० – भेद दृष्टि से जन्म-मरण का चक्र

श्लोक: एकस्माद्‌ भेदजो जीवेश्वरयोः भेददृष्टिव्यवधायवर्तते तावत्‌ यावन्‌ जन्ममरणलक्षणः संसारो न निवर्तते।

हिंदी अर्थ: जब तक उपाधिभेद के कारण जीव-ईश्वर में भेद दृष्टि बनी रहती है, ➡️ तब तक जन्म-मरण रूपी संसार समाप्त नहीं होता।

व्याख्या:

  • 'भेद दृष्टि' यानी "ईश्वर अलग है, मैं अलग हूँ" — यह अज्ञान का मूल है

  • इस दृष्टिकोण से हम बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसे रहते हैं

  • मुक्ति के लिए इस भेद दृष्टि का निवारण आवश्यक है

🚫 श्लोक ३१ – भेद दृष्टि का अस्वीकरण

श्लोक: तस्मात्‌ कारणात्‌ जीवेश्वरयोः भेददृष्टिः न स्वीकार्या।

हिंदी अर्थ: इसलिए, जीव और ईश्वर के बीच भेद की दृष्टि को स्वीकार नहीं करना चाहिए।

व्याख्या:

  • उपनिषदों के अनुसार जीव और ब्रह्म एक ही हैं

  • उपाधियाँ (शरीर, मन, बुद्धि) अस्थायी हैं — आत्मा शुद्ध चैतन्य है

  • अतः भेद का त्याग ही अद्वैत ज्ञान की आधारशिला है

🧘‍♂️ श्लोक ३२ – महावाक्य से अद्वैतबोध संभव?

श्लोक: नु साक्षात्कारात् किंचिदस्त्यस्य जीवस्य निःसङ्करस्य सर्वस्य ईश्वरस्य तत्समत्वात् महावाक्यालम्बनात् एव स्वात्मनः। विश्वधर्मत्वात् नित्यं शुद्धः।

हिंदी अर्थ: प्रश्न उठता है — अहंकारयुक्त सीमित जीव, पूर्ण निःसङ्कर ईश्वर के साथ कैसे महावाक्य ("तत्त्वमसि") से एक हो सकता है?

उत्तर व दृष्टिकोण:

  • जीव के उपाधियों (मन, बुद्धि, अहंकार) को हटाकर देखे जाने पर वह आत्मा है

  • ईश्वर भी माया की उपाधि छोड़ने पर शुद्ध ब्रह्म ही है

  • इस प्रकार महावाक्य "तत्त्वमसि" — जीव को ईश्वर के समरूप घोषित करता है

  • यह समत्व शुद्ध चैतन्य के स्तर पर संभव है — जहाँ कोई भेद नहीं रहता

✨ निचोड़ – अद्वैत की घोषणा

तत्व

उपाधि

पहचान

ब्रह्म

कोई नहीं

शुद्ध आत्मा

ब्रह्म + माया

समष्टि उपाधि

ईश्वर

ब्रह्म + अविद्या

व्यक्तिपरक उपाधि

जीव

➡️ भेद केवल उपाधियों का है — आत्मा सदा एक ही है।

🧩 श्लोक ३३ – त्वंपद का वाच्यार्थ व लक्ष्यार्थ

श्लोक: न, स्थूलसूक्ष्मशरीराभिमानी त्वंपदवाच्यार्थः। उपाधिविनिर्मुक्तं समाधिकसामान्यम्। शुद्धं चैतन्यम् त्वंपद लक्ष्यार्थः।

हिंदी अर्थ: ‘तत्त्वमसि’ वाक्य में “त्वं” शब्द का वाच्यार्थ है — जो स्थूल व सूक्ष्म शरीर को ‘मैं’ मानता है। ➡️ लेकिन इसका लक्ष्यार्थ है — वह शुद्ध चैतन्य आत्मा, जो उपाधियों से मुक्त है।

टिप्पणी:

  • वाच्यार्थ = प्रत्यक्ष अर्थ: शरीर-बुद्धि-संवेदनयुक्त जीव

  • लक्ष्यार्थ = गूढ़, संकेतात्मक अर्थ: उपाधियों से रहित शुद्ध आत्मा

☀️ श्लोक ३४ – तत्पद का वाच्यार्थ व लक्ष्यार्थ

श्लोक: एवं सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट ईश्वरः तत्पदवाच्यार्थः। उपाधिविनिर्मुक्तं शुद्धचैतन्यं तत्पद लक्ष्यार्थः।

हिंदी अर्थ: इस तरह “तत” शब्द का वाच्यार्थ है — सर्वज्ञता आदि से युक्त ईश्वर। ➡️ और इसका लक्ष्यार्थ है — उपाधियों से रहित शुद्ध ब्रह्म चैतन्य।

🪷 श्लोक ३४.१ – जीव-ईश्वर में चैतन्यरूप से अभेद

श्लोक: एवं च जीवेश्वरयोः चैत्यरूपेण अभेदे बाधकाभावः।

हिंदी अर्थ: इस प्रकार चैतन्य रूप में जीव और ईश्वर में कोई बाधा नहीं है — अर्थात अंतर नहीं है

स्पष्टीकरण:

  • उपाधियाँ भेद कराती हैं — शरीर, मन, बुद्धि

  • चैतन्य तो एक ही है — आत्मा और ब्रह्म में कोई यथार्थ अंतर नहीं

🕉️ श्लोक ३५ – वेदान्त की निर्णायक घोषणा

श्लोक: एवं च वेदान्तवाक्यैः सच्चिदानन्दरूपेण च सर्वज्ञत्वादि भेदो मिथ्या इत्येव ब्रह्मात्मैकत्वं ते।

हिंदी अर्थ: वेदान्त वाक्यों द्वारा यह स्पष्ट होता है कि:

  • ब्रह्म और जीव में जो सर्वज्ञता, शरीर, बुद्धि आदि का भेद है — वह मिथ्या है

  • सच्चिदानन्द रूप में — जीव और ब्रह्म का एकत्व है

🧠 चरणबद्ध सारांश: तत्त्वमसि का अद्वैत विवेचन

पद

वाच्यार्थ

लक्ष्यार्थ

त्वं

शरीर, मन, जीव

शुद्ध चैतन्य आत्मा

तत्

सर्वज्ञ ईश्वर

शुद्ध ब्रह्म चैतन्य

समत्व

जीव = ब्रह्म (लक्ष्यार्थ में)

भेद केवल उपाधियों से; आत्मा में नहीं


५. अध्याय -  जीवन्मुक्तः

🕉️ श्लोक ३६ – जीवन्मुक्तः कः?

श्लोक: ततः को जीवन्मुक्तः?

हिंदी अर्थ: अब प्रश्न उठता है — तो जीवन्मुक्त कौन है? ➡️ यह श्लोक जीवन्मुक्त की विशेषताएँ स्पष्ट करने हेतु प्रस्तुत है।

🧘‍♂️ श्लोक ३६.१ – उपाधियों का त्याग और आत्मबोध

संस्कृत आशय: जो पुरुष यह दृढ़ता से जानता है कि —

  • ‘मैं शरीर नहीं हूँ’,

  • ‘मैं ब्राह्मण/शूद्र/पुरुष नहीं हूँ’,

  • बल्कि — ‘मैं सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक चैतन्य हूँ’ — और यह अपरोक्ष ज्ञान उसकी अनुभव में स्थापित हो चुका है, ➡️ वही जीवन्मुक्त है।

हिंदी व्याख्या: जीवन्मुक्त वह है जो:

  • सभी सामाजिक, जातीय, देहात्म भाव से मुक्त है

  • जिसे अपने आत्मस्वरूप — सच्चिदानन्द चैतन्य — का अनुभव हुआ है

  • जो उपाधियों को केवल आवरण मानता है, स्वयं उनसे असंग है

🔓 श्लोक ३६.२ – कर्मबंधन से मुक्ति

संस्कृत आशय: जिसे यह अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त हो जाता है — ➡️ वह व्यक्ति कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।

हिंदी व्याख्या:

  • ज्ञान से वह कर्म के फल का भोगकर्ता नहीं रहता

  • न स्वर्ग की इच्छा, न पुनर्जन्म का भय

  • ज्ञान के प्रकाश में सभी पूर्व संस्कार और भविष्य की गति शांत हो जाती है

✨ जीवन्मुक्त का सार परिचय

लक्षण

विवरण

देहादि उपाधियों से असंग

‘मैं शरीर हूँ’ की भावना का निराकरण

आत्मबोध

‘मैं सच्चिदानन्द चैतन्य हूँ’ का अनुभव

अपरोक्ष ज्ञान

शास्त्रानुकूल सीधा अनुभव

कर्ममुक्ति

पुण्य-पाप और फल की गति से मुक्ति

⚖️ श्लोक ३७.१ – कर्म के प्रकार

श्लोक: कर्माणि कतिविधानि सन्तीति चेत्? आगामि-संचित-प्रारब्धभेदेन त्रिविधानि सन्ति। हिंदी अर्थ: यदि पूछा जाए — कर्म कितने प्रकार के होते हैं? ➡️ आगामी, संचित और प्रारब्ध — ये तीन प्रकार के कर्म होते हैं।

🔄 श्लोक ३७.२ – आगामी कर्म

श्लोक: ज्ञानोत्पत्तिसमये ज्ञानीदेहेन उपचरितानि पुण्य-पापरूपाणि कर्म यानि, तानि आगामिकर्माणि इति विदुः। हिंदी अर्थ: ज्ञान प्राप्ति के बाद ज्ञानी के शरीर से जो कर्म (पाप या पुण्य) होते हैं — ➡️ वे आगामी कर्म कहलाते हैं।

टिप्पणी:

  • ये कर्म पहले नहीं थे, अब उत्पन्न हुए हैं

  • ज्ञानी के लिए इनका फल बंधन नहीं बनता — क्योंकि वह अहंभाव से रहित है

🌱 श्लोक ३७.३ – संचित कर्म का प्रश्न

श्लोक: संचित कर्म किम्? हिंदी अर्थ: संचित कर्म क्या होता है?

🧬 श्लोक ३७.४ – संचित कर्म की परिभाषा

श्लोक: अनन्तकोटि-जनमान्तरेषु बीजभूतानि सत् यत्कर्माणां पूर्वस्मिन्ति तिष्ठन्ति, तानि संचितं कर्म। हिंदी अर्थ: अनेकों जन्मों में जो कर्म किए गए हैं — ➡️ और जो बीज रूप में फल देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं — उन्हें संचित कर्म कहा जाता है।

टिप्पणी:

  • यह ज्ञानी के ज्ञान से नष्ट हो जाते हैं

  • जैसे सूर्य के प्रकाश में अंधकार मिट जाता है

🕰️ श्लोक ३७.५ – प्रारब्ध कर्म का प्रश्न

श्लोक: प्रारब्धं कर्म किमिति चेत्? हिंदी अर्थ: प्रारब्ध कर्म क्या होता है?

➡️ इसका उत्तर अगला श्लोक देगा — जिसमें बताया जाएगा कि कौन-से कर्म ज्ञान प्राप्ति के बाद भी शरीर में फल देते हैं।

🕰️ श्लोक ३७.६ – प्रारब्ध कर्म का क्षय

संस्कृत: इदं शरीरमुत्सृज्य इह लोके एवं सुखदुःखादीनि यत्कर्माणि ततान्यं भोगेन नष्टं भवति। प्रारब्धकर्मणो भोगादेव क्षय इति।

हिंदी अर्थ: जो कर्म इस शरीर को उत्पन्न करके इस लोक में सुख-दुःख आदि देने वाले हैं, ➡️ उनका नाश केवल भोग से ही होता है।

स्पष्टीकरण:

  • ज्ञान प्राप्ति के बाद भी शरीर चलता है — क्योंकि प्रारब्ध का फल भुगतना शेष रहता है।

  • ज्ञानी व्यक्ति उन सुख-दुःख को साक्षी भाव से सहता है — किंतु उनमें आसक्ति नहीं रखता।

  • यह प्रारब्ध का स्वाभाविक क्षय है — नए कर्म नहीं जुड़ते।

🧘‍♂️ श्लोक ३८ – संचित कर्म का क्षय

संस्कृत: संचित कर्म ब्रह्मविद्या निश्चयात्मकज्ञानेन नश्यति।

हिंदी अर्थ: संचित कर्म — “मैं ही ब्रह्म हूँ” इस प्रकार के निश्चयात्मक ज्ञान से नष्ट हो जाते हैं।

टिप्पणी:

  • संचित कर्म अनगिनत जन्मों के बीज हैं

  • जब पूर्ण आत्मबोध हो जाता है, तो यह ज्ञानी अपने को कर्मफल का भोक्ता नहीं मानता ➡️ इस अहंभाव के मिटने से संचित कर्म निष्फल हो जाते हैं — जैसे सूरज के प्रकाश से अंधकार मिटता है।

🪷 संक्षेप में:

कर्म प्रकार

क्षय का मार्ग

आगामी

ज्ञान के बाद उत्पन्न नहीं होते

संचित

ब्रह्म ज्ञान से नष्ट हो जाते हैं

प्रारब्ध

भोग से ही समाप्त होते हैं

🌊 श्लोक ३८.१ – ज्ञानी और आगामी कर्म

संस्कृत: आगामि कर्म अति ज्ञाने नष्टवति किंच आगामिकर्मणि नलिनीदलजलवत् ज्ञानी न स्पृश्यते नासिता।

हिंदी अर्थ: ज्ञान से प्राप्त व्यक्ति के लिए आगामी कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। ➡️ और यदि कुछ बचा भी हो, तो वह कमलपत्र पर जल की बूंद जैसा होता है — ज्ञानी उससे प्रभावित नहीं होता।

टिप्पणी:

  • यह दृष्टांत दर्शाता है कि ज्ञानी की अंत:स्थिति अग्रहणीय है — कर्म उसके चित्त को बाँध नहीं सकते।

🕊️ श्लोक ३८.२ – ज्ञानी के पुण्य-पाप के फल का स्थानांतरण

संस्कृत: ये ज्ञानीं स्तुवन्ति भजन्ति अर्चयन्ति तानां ज्ञानीकृतं आगामि पुण्यं गच्छति। ये ज्ञानीं निन्दन्ति द्विषन्ति तानां ज्ञानीकृतं सर्वमागामि क्रियमाणं यद्वाचं कर्म पापानकं तदुपच्यते।

हिंदी अर्थ:

  • जो लोग ज्ञानी की स्तुति, भक्ति, या अर्चना करते हैं — उन्हें ज्ञानी द्वारा किए गए पुण्य कर्मों का फल मिलता है।

  • और जो निन्दा, द्वेष, या पीड़ा पहुँचाते हैं — उन्हें ज्ञानी के पाप रूप कर्मों का फल मिलता है।

टिप्पणी:

  • यह सिद्धांत दर्शाता है कि ज्ञानी स्वयं कर्मफल से अलिप्त रहता है — वह फल का भोक्ता नहीं, बल्कि दातृत्व में स्थित होता है।

✨ श्लोक ३८.३ – आत्मानन्द से ब्रह्मानन्द तक का मार्ग

संस्कृत: ते आत्मानन्दस्वरूपं तीर्त्वा ब्रह्मानन्दं प्राप्नोति। ‘अत्रैव शोकोऽ आत्मानन्दः’ इति श्रुतिः।

हिंदी अर्थ: ज्ञानी आत्मानन्द स्वरूप से आगे बढ़कर ब्रह्मानन्द को प्राप्त करता है। ➡️ श्रुति कहती है — “यहाँ ही शोक का अंत आत्मानन्द के द्वारा होता है।”

टिप्पणी:

  • आत्मानन्द = स्वानुभूत शांति

  • ब्रह्मानन्द = परमानंद, पूर्णता

  • ज्ञानी संसार से परे जाकर यह सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करता है

🌙 श्लोक ३८.४ – कर्म का मूल कारण और स्वप्नदृष्टि

संस्कृत: ‘तत्तु स्वयं वा कारणं स्वप्नवद् गृह्यते’। ‘नास्मिन्स्त्रेषु नास्मिन्स्त्रेषु विनाश्यते विनाश्यते’ इति श्रुतेः।

हिंदी अर्थ:

  • तत्त्व (आत्मा) स्वयं ही कारण है — परंतु स्वप्न की भाँति ग्रहण किया जाता है।

  • और यह तत्व विनाश को प्राप्त नहीं होता — श्रुति इसका प्रमाण देती है।

टिप्पणी:

  • जैसे स्वप्न में बहुत कुछ घटता है परन्तु वह वास्तविक नहीं होता — वैसे ही संसार का अनुभव ब्रह्म दृष्टि से अवास्तविक है।

  • आत्मा शाश्वत है — कर्मों और शरीर के विनाश से प्रभावित नहीं होती।


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