मुख्य विषय और महत्वपूर्ण तथ्य:
यह दस्तावेज़ 8वीं शताब्दी ई.पू. के दो प्रमुख भारतीय दार्शनिकों, मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य के बीच हुए प्रसिद्ध दार्शनिक वाद-विवाद की समीक्षा करता है। यह वाद-विवाद भारतीय दार्शनिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण घटना है, जो विभिन्न दार्शनिक मतों, विशेषकर मीमांसा और अद्वैत वेदांत के बीच तीव्र बौद्धिक आदान-प्रदान को दर्शाता है।
1. मंडन मिश्र: पृष्ठभूमि और दर्शन
परिचय: मंडन मिश्र 8वीं शताब्दी ई.पू. के एक हिंदू दार्शनिक थे जिन्होंने मीमांसा और अद्वैत दोनों प्रणालियों पर लिखा। वह कर्म मीमांसा दर्शन के अनुयायी और भाषा के समग्र स्फोट सिद्धांत के प्रबल रक्षक थे।
शिष्य और समकालीन: वह मीमांसा विद्वान कुमारिला भट्ट के शिष्य थे और आदि शंकराचार्य के समकालीन थे।
कार्य: उन्होंने मीमांसा पर कई ग्रंथ लिखे, साथ ही अद्वैत पर 'ब्रह्मसिद्धि' नामक एक महत्वपूर्ण कार्य भी लिखा। 'ब्रह्मसिद्धि' का अर्थ है "ब्रह्मन की प्राप्ति" या "परम सत्य का निश्चित ज्ञान"। मंडन
ब्रह्मसिद्धि के प्रमुख विचार:अनिर्वचनीयत्व: 'ब्रह्मसिद्धि' ने माया-अविद्या की "अस्तित्वमान या गैर-अस्तित्वमान के रूप में, ब्रह्म से समान या भिन्न के रूप में अवर्णनीयता" की अवधारणा पेश की। मंडन मिश्र का तर्क है कि अविद्या न तो ब्रह्म का सार है, न ही कोई अन्य चीज़। यह न तो पूर्ण रूप से गैर-अस्तित्वमान है, न ही अस्तित्वमान है। इसलिए इसे अविद्या (अज्ञान) और माया (भ्रम) कहा जाता है। मंडन
निर्उपाख्य: 'ब्रह्मसिद्धि' में एक और महत्वपूर्ण अवधारणा 'निर्उपाख्य' है, जिसका अर्थ "अवर्णनीय" है। मंडन मिश्र के अनुसार, "वास्तविक वर्णनीय है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जो कुछ भी वर्णनीय है वह पूरी तरह से वास्तविक है।"
त्रुटि का सिद्धांत: 'ब्रह्मसिद्धि' में निर्धारित "त्रुटि का सिद्धांत" अद्वैत वेदांत में त्रुटि का मानक सिद्धांत बन गया। मंडन मिश्र के अनुसार, त्रुटियां अवसर हैं क्योंकि वे "सत्य की ओर ले जाती हैं", और पूर्ण सही ज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति न केवल सत्य को समझे बल्कि त्रुटियों और जो सत्य नहीं है उसे भी जांचे और समझे। मंडन
प्रभाव: रिचर्ड ई. किंग और रूडुरमुन के अनुसार, 10वीं शताब्दी तक शंकराचार्य को उनके बड़े समकालीन मंडन मिश्र ने overshadowed किया था। शंकराचार्य के बाद की शताब्दियों में मंडन मिश्र को वेदांत का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि माना जाता था। उनके कार्य को "अद्वैत का एक गैर-शंकराचार्य ब्रांड" स्थापित करने वाला माना जाता है। मंडन
सुरेश्वर के साथ पहचान: मंडन मिश्र को अक्सर सुरेश्वर से पहचाना जाता है, हालांकि इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। फिर भी, श्रींगेरी के आधिकारिक दस्तावेज़ मंडन मिश्र को सुरेश्वर के रूप में पहचानते हैं। हालांकि, विद्वानों ने कुछ दार्शनिक बिंदुओं पर मतभेदों का हवाला देते हुए दोनों के अलग होने का तर्क दिया है, जैसे अविद्या का स्थान और मोक्ष की अवधारणा।
2. आदि शंकराचार्य: पृष्ठभूमि और दर्शन
परिचय: आदि शंकराचार्य (8वीं शताब्दी ई.पू.) अद्वैत वेदांत के एक प्रमुख प्रतिपादक थे। उनका लक्ष्य भारत को आध्यात्मिक रूप से एकीकृत करना था।
मीमांसा से चुनौती: शंकर के समय में, पूर्वमीमांसा का विद्यालय, जो अनुष्ठानों के कठोर और सैद्धांतिक पालन में विश्वास करता था, सर्वोच्च था। शंकर ने महसूस किया कि जब तक वह इस शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी को नहीं जीत लेते, तब तक भारत को आध्यात्मिक रूप से एकीकृत करने का उनका लक्ष्य पूरा करना मुश्किल होगा।
मीमांसा की प्रधानता: मंडन मिश्र मीमांसा दर्शन के एक प्रतिष्ठित अभ्यासकर्ता थे, जो मुख्य रूप से वेदों के कर्म कांड भाग से निकला है और अनुष्ठानों के महत्व पर जोर देता है।
कुमारिला भट्ट से भेंट: शंकर ने मीमांसा के सबसे प्रसिद्ध प्रतिपादक, कुमारिला भट्ट से मिलने का प्रयास किया, लेकिन कुमारिला भट्ट अपने गुरु के खिलाफ वाद-विवाद में उन्हें हराने सहित अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए आत्म-बलिदान कर रहे थे। कुमारिला भट्ट ने शंकर को अपने शिष्य मंडन मिश्र से मिलने की सलाह दी।
अद्वैत वेदांत: शंकर के दर्शन का मुख्य केंद्र अद्वैतवाद था, जो जीव और ब्रह्म की एकता पर बल देता है। "जीवात्मैक्यं" (जीव और ब्रह्म एक हैं) उनका विषय था। (शास्त्रार्थ PDF स्रोत)
माया और ब्रह्म का ज्ञान: शंकर का "माया" (भ्रम) का ज्ञान और "परम ब्रह्म" (अंतिम वास्तविकता) की अनुभूति उनके वाद-विवाद में उनकी जीत का कारण बनी।
3. मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य के बीच वाद-विवाद (शास्त्रार्थ)
प्रस्तावना: मंडन मिश्र के घर के द्वार पर पिंजरों में बंद तोतों को संस्कृत में जटिल दार्शनिक प्रश्न जैसे "क्या वेदों में स्वतः प्रमाणिकता है या वे किसी बाहरी प्राधिकारी पर निर्भर करते हैं?" और "क्या कर्म अपने फल सीधे देते हैं, या उन्हें ऐसा करने के लिए ईश्वर के हस्तक्षेप की आवश्यकता है?" पर चर्चा करते हुए पाया गया।
न्यायाधीश का चुनाव: मंडन मिश्र, जो शंकर से बहुत बड़े थे, ने शंकर को वाद-विवाद के लिए अपना न्यायाधीश चुनने की अनुमति दी। शंकर ने मंडन मिश्र की पत्नी भारती को न्यायाधीश चुना, जो स्वयं एक विद्वान थीं।
वाद-विवाद की शर्त: यह शर्त रखी गई थी कि पराजित व्यक्ति विजेता का शिष्य बन जाएगा और उसके दर्शन को स्वीकार करेगा।
वाद-विवाद की अवधि और विषय:वाद-विवाद छह महीने तक चला, जिसमें हजारों विद्वान सीखने के लिए प्रतिदिन एकत्र होते थे।
पहले चरण में, शंकर ने मंडन मिश्र को हराया। (जनसत्ता ऑनलाइन स्रोत)
मुख्य दार्शनिक बहस के विषयों में वेद की प्रमाणिकता (कर्मकांड या ज्ञानकांड), जीव और ब्रह्म की एकता (अद्वैतवाद बनाम भेद), कर्मों का फलदाता (ईश्वर या कर्म स्वयं), और अविद्या का स्थान शामिल थे।
भारती का हस्तक्षेप: जब मंडन मिश्र हार स्वीकार करने वाले थे, तब उनकी पत्नी भारती ने घोषणा की कि पति को हराने के लिए, प्रतिद्वंद्वी को उसकी पत्नी को भी हराना होगा, क्योंकि एक पत्नी अपने पति के शरीर का आधा हिस्सा होती है ("अर्धांगिनी")।
कामशास्त्र पर वाद-विवाद: भारती ने कामशास्त्र (यौन संबंध और वैवाहिक दायित्व) पर प्रश्न पूछना शुरू कर दिया, यह जानते हुए कि शंकर एक ब्रह्मचारी थे और उन्हें इस क्षेत्र में कोई अनुभव नहीं था। शंकर ने इस कमी को स्वीकार किया।
शंकर का परकाया प्रवेश: भारती ने शंकर को इस विषय का अध्ययन करने के लिए एक महीने का समय दिया। शंकर ने अपनी योग शक्तियों का उपयोग करके एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश किया और गृहस्थ जीवन के अनुभवों को सीखा।
इस घटना को "परकाया प्रवेश" के रूप में जाना जाता है, जहाँ एक योगी अपनी आत्मा को एक मृत शरीर में अस्थायी रूप से स्थानांतरित करता है।
शंकर के शिष्यों को उनके शरीर की रक्षा करने का निर्देश दिया गया था, जबकि राजा के मंत्री इस बात से अनजान थे कि उनके राजा के शरीर में एक बाहरी शक्ति है, और उन्होंने शंकर के मूल शरीर को जलाने की कोशिश की।
वाद-विवाद की समाप्ति: नई जानकारी के साथ सशक्त होकर, शंकर भारती के साथ वाद-विवाद को फिर से शुरू करने के लिए लौट आए और इस बार वह अजेय थे। भारती और मंडन मिश्र ने हार स्वीकार कर ली।
परिणाम: वाद-विवाद की शर्तों के अनुसार, मंडन मिश्र शंकर के शिष्य बन गए और उन्होंने 'सुरेश्वराचार्य' नाम ग्रहण किया। अद्वैत वेदांत परंपरा के अनुसार, मंडन मिश्र (सुरेश्वराचार्य के रूप में) शंकर के चार मुख्य शिष्यों में से एक थे और श्रींगेरी मठ के पहले प्रमुख बने।
4. वाद-विवाद का महत्व और निष्कर्ष
दार्शनिक परंपरा में योगदान: यह वाद-विवाद भारत में विभिन्न दर्शनों के अनुयायियों के बीच मौजूद स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पर प्रकाश डालता है। यह दर्शाता है कि दार्शनिकों में अपने विश्वासों का परीक्षण करने और तर्क की मांग पर अपने दर्शन को बदलने का खुला मन और अपार साहस था।
सत्य की खोज: "समान रूप से जैसे विभिन्न मार्ग अभी भी एक ही पर्वत के शिखर पर ले जा सकते हैं, वैसे ही सभी दर्शन आत्म-साक्षात्कार के एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं।"
खुलेपन का महत्व: यह वाद-विवाद इस बात पर जोर देता है कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए अपने मार्ग में दृढ़ विश्वास आवश्यक है, लेकिन बाधाओं का सामना करते समय नए विचारों, प्रयोगों या प्रश्नों के प्रति ग्रहणशील रहना चाहिए क्योंकि ये "हमारे दिमाग में कुछ गहरे दरवाजों को खोल सकते हैं।"
मंडन मिश्र: मीमांसा और अद्वैत के दार्शनिक
मंडन मिश्र कौन थे और उनकी दार्शनिक पृष्ठभूमि क्या थी? मंडन मिश्र 8वीं शताब्दी ई.पू. के एक प्रमुख हिंदू दार्शनिक थे, जिन्होंने मीमांसा और अद्वैत दोनों प्रणालियों पर ग्रंथ लिखे। वे कर्म मीमांसा दर्शन के अनुयायी और भाषा के समग्र स्फोट सिद्धांत के प्रबल समर्थक थे। उन्हें मीमांसा विद्वान कुमारिला भट्ट का छात्र माना जाता था। उन्होंने मीमांसा पर कई ग्रंथ लिखे, लेकिन अद्वैत पर भी एक महत्वपूर्ण कृति, "ब्रह्मसिद्धि" लिखी। यह उल्लेख किया गया है कि 10वीं शताब्दी ई.पू. तक वे आदि शंकराचार्य से अधिक प्रभावशाली अद्वैतवादी रहे होंगे।
मंडन मिश्र के "ब्रह्मसिद्धि" ग्रंथ के मुख्य योगदान क्या थे? मंडन मिश्र की "ब्रह्मसिद्धि" अद्वैत वेदांत परंपरा में बहुत प्रभावशाली थी, कुछ लोगों का मानना है कि इसने "एक गैर-शंकराचार्य ब्रांड का अद्वैत" स्थापित किया। इस ग्रंथ ने "अनिर्वचनीयत्व" की अवधारणा को पेश किया, जो माया-अविद्या की "अस्तित्ववान या गैर-अस्तित्ववान, ब्रह्म से समान या भिन्न के रूप में अकथनीयता" को दर्शाता है। मंडन मिश्र के अनुसार, अविद्या न तो ब्रह्म का सार है और न ही कोई अन्य चीज़; यह न तो पूरी तरह से गैर-अस्तित्ववान है और न ही अस्तित्ववान, इसलिए इसे अकथनीय कहा जाता है। "ब्रह्मसिद्धि" में निर्धारित "त्रुटि का सिद्धांत" अद्वैत वेदांत का मानक त्रुटि सिद्धांत बन गया। मंडन मिश्र का मानना था कि त्रुटियाँ अवसर होती हैं क्योंकि वे "सत्य की ओर ले जाती हैं," और पूर्ण सही ज्ञान के लिए न केवल सत्य को समझना आवश्यक है, बल्कि त्रुटियों के साथ-साथ जो सत्य नहीं है, उसे भी समझना आवश्यक है।
आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच प्रसिद्ध दार्शनिक बहस क्यों हुई? आदि शंकराचार्य के समय में, पूर्वमीमांसा का विद्यालय, जो अनुष्ठानों के सख्त और सैद्धांतिक पालन में विश्वास करता था, सर्वोच्च था। शंकराचार्य ने महसूस किया कि जब तक वे इस शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी को नहीं जीत लेते, तब तक भारत को आध्यात्मिक रूप से फिर से एकजुट करने का उनका लक्ष्य हासिल करना मुश्किल होगा। इस संप्रदाय के सबसे अग्रणी प्रस्तावक महान विद्वान कुमारिला भट्ट थे। अपनी मृत्यु से पहले, कुमारिला भट्ट ने शंकराचार्य को अपने शिष्य मंडन मिश्र से मिलने की सलाह दी, जो पूर्वमीमांसा स्कूल के सबसे प्रसिद्ध प्रतिपादक थे। यह बहस भारत में विभिन्न दर्शनों के अनुयायियों के बीच मौजूद स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को दर्शाती है, जहाँ खुले विचारों और मान्यताओं को चुनौती देने का साहस था।
मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच बहस के नियम और उसका परिणाम क्या था? बहस के नियम यह थे कि पराजित व्यक्ति विजेता का शिष्य बन जाएगा और उसके विचार को स्वीकार करेगा। मंडन मिश्र ने शंकराचार्य को न्यायाधीश चुनने की अनुमति दी, और शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की विद्वान पत्नी भारती को न्यायाधीश के रूप में चुना। भारती ने एक अनोखा नियम निर्धारित किया: बहस की शुरुआत में वे दोनों के गले में ताज़ी फूलों की मालाएँ डालेंगी, और जिसकी माला पहले मुरझा जाएगी, उसे हारा हुआ माना जाएगा। बहस छह महीने तक चली, और शंकराचार्य ने अपने ब्रह्म के ज्ञान और माया की समझ के कारण मंडन मिश्र के तर्कों पर आसानी से जीत हासिल की, जबकि मंडन मिश्र को उच्च आध्यात्मिक सत्यों की समझ की कमी थी।
भारती ने शंकराचार्य को चुनौती क्यों दी और इसका क्या परिणाम हुआ? मंडन मिश्र की हार और उनके संन्यासी बनने की संभावना से व्यथित होकर, भारती ने शंकराचार्य को चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि पत्नी पति के शरीर का आधा हिस्सा होती है, और इसलिए शंकराचार्य की जीत तभी पूरी मानी जाएगी जब वे उसे भी हरा दें। एक चतुर विद्वान के रूप में, भारती ने गृहस्थ जीवन और वैवाहिक दायित्वों से संबंधित प्रश्न पूछना शुरू कर दिया, यह जानते हुए कि शंकराचार्य एक सख्त ब्रह्मचारी थे और उन्हें इस क्षेत्र में कोई अनुभव नहीं था। शंकराचार्य ने इस विषय का अध्ययन करने के लिए समय माँगा। उन्होंने अपनी योगिक शक्तियों का उपयोग करके एक मरते हुए राजा के शरीर में प्रवेश किया और वैवाहिक जीवन का अनुभव प्राप्त किया। इस नए ज्ञान से सशक्त होकर, शंकराचार्य लौटे और भारती के साथ बहस फिर से शुरू की, और इस बार वे "स्पष्ट रूप से अपराजेय" थे। भारती और मंडन मिश्र दोनों ने हार स्वीकार कर ली और आदि शंकराचार्य के अनुयायी बन गए।
क्या मंडन मिश्र और सुरेशवर एक ही व्यक्ति थे? यह मुद्दा क्यों विवादास्पद है? मंडन मिश्र को अक्सर सुरेशवर के रूप में पहचाना जाता है। हिंदू धर्म में एक मजबूत परंपरा यह कहती है कि मंडन मिश्र ने मीमांसावादी के रूप में शुरुआत की, शंकराचार्य द्वारा बहस में पराजित होने के बाद संन्यासी और अद्वैती बन गए, और सुरेशवराचार्य का मठवासी नाम ग्रहण किया। हालांकि, इस पहचान की प्रामाणिकता संदिग्ध है। शर्मा, हिरियन्ना और कुप्पूस्वामी शास्त्री जैसे विद्वानों ने बताया है कि सुरेशवर और मंडन मिश्र के विभिन्न सैद्धांतिक बिंदुओं पर अलग-अलग विचार थे, जैसे कि अविद्या का locus (मंडन मिश्र के अनुसार व्यक्तिगत जीव, जबकि सुरेशवर के अनुसार ब्रह्म में स्थित ब्रह्म के संबंध में अविद्या) और मुक्ति का साधन (मंडन मिश्र के अनुसार मुक्ति के लिए केवल ध्यान से प्राप्त ब्रह्म का प्रत्यक्ष बोध पर्याप्त है, जबकि सुरेशवर के अनुसार महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान सीधे मुक्तिदायक है)। आर. बालसुब्रमण्यम इन तर्कों से असहमत हैं, यह तर्क देते हुए कि यह साबित करने के लिए कोई निर्णायक सबूत उपलब्ध नहीं है कि ब्रह्मसिद्धि के लेखक मंडन और नैष्कर्म्यसिद्धि और वार्तिक के लेखक सुरेशवर अलग-अलग हैं।
मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य की बहस का व्यापक महत्व क्या था? यह बहस भारत में विभिन्न दर्शनों के अनुयायियों के बीच मौजूद "स्वस्थ प्रतिस्पर्धा" पर प्रकाश डालती है। इसने दिखाया कि कैसे विद्वानों में अपनी मान्यताओं का परीक्षण करने, अपने सिद्धांतों पर सवाल उठाने और यदि तर्क की आवश्यकता हो तो उन्हें बदलने के लिए एक खुला दिमाग और अपार साहस था। निष्कर्ष में कहा गया है कि, जिस तरह विभिन्न मार्ग एक ही पर्वत के शीर्ष पर ले जा सकते हैं, उसी तरह सभी दर्शन आत्म-साक्षात्कार के एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। यह इस बात पर जोर देता है कि यद्यपि किसी के मार्ग में दृढ़ विश्वास आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है, बाधाओं का सामना करते समय नए विचारों, प्रयोगों या प्रश्नों के प्रति ग्रहणशील रहना चाहिए क्योंकि ये "हमारे दिमाग के कुछ गहरे दरवाजे खोल सकते हैं।"
शंकराचार्य के बाद अद्वैत वेदांत परंपरा में मंडन मिश्र का प्रभाव क्या रहा? शंकराचार्य के बाद अद्वैत वेदांत परंपरा में मंडन मिश्र का प्रभाव आमतौर पर स्वीकार किए जाने से अधिक रहा होगा। रिचर्ड ई. किंग और रुदुरमुन के अनुसार, 10वीं शताब्दी तक शंकराचार्य को उनके समकालीन मंडन मिश्र ने पीछे छोड़ दिया था। शंकराचार्य के बाद की शताब्दियों में मंडन मिश्र को वेदांत का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि माना जाता था। उनके छात्र वाचस्पति मिश्र, जिन्हें अद्वैत विचार को लोकप्रिय बनाने के लिए शंकराचार्य का अवतार माना जाता था, ने शंकराचार्य के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर एक टिप्पणी, भामती, और मंडन मिश्र के ब्रह्मसिद्धि पर एक टिप्पणी, ब्रह्मतत्व-समीक्षा लिखी। वाचस्पति मिश्र का विचार मुख्य रूप से मंडन मिश्र से प्रेरित था और उन्होंने शंकराचार्य के विचार को मंडन मिश्र के साथ सामंजस्य स्थापित किया।
अध्ययन मार्गदर्शिका: मंडन मिश्र बनाम आदि शंकराचार्य
यह अध्ययन मार्गदर्शिका मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य के बीच हुए दार्शनिक वाद-विवाद और उनके संबंधित दर्शनों की समीक्षा के लिए तैयार की गई है। इसमें मुख्य अवधारणाओं, ऐतिहासिक संदर्भ और वाद-विवाद के परिणामों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
I. मुख्य व्यक्ति और उनका संदर्भ
मंडन मिश्र (8वीं शताब्दी ईस्वी):
दर्शन: मीमांसा और अद्वैत दर्शन पर ग्रंथ लिखे। कर्म मीमांसा दर्शन के अनुयायी और भाषा के समग्र स्फोटा सिद्धांत के प्रबल समर्थक।
महत्व: आदि शंकराचार्य के समकालीन। 10वीं शताब्दी तक सबसे प्रमुख अद्वैतिन माने जाते थे, बाद की अद्वैत परंपरा द्वारा शंकराचार्य के अधीनस्थ करने का प्रयास।
शिक्षक: मीमांसा विद्वान कुमारिल भट्ट के शिष्य माने जाते हैं (हालांकि इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है)।
कार्य: ब्रह्म-सिद्धि (अद्वैत पर एक कार्य) के लेखक। इसमें अनिर्वचनीयत्व (माया-अविद्या की अनिर्वचनीयता) और निरुपाख्य (अनिर्वचनीय) की अवधारणाओं को प्रस्तुत किया। उनकी "त्रुटि का सिद्धांत" अद्वैत वेदांत का मानक सिद्धांत बन गया, जो त्रुटियों को सत्य की ओर ले जाने वाले अवसर मानता है।
पहचान सुरेंद्र से: श्रींगेरी के आधिकारिक दस्तावेज़ उन्हें सुरेंद्र के रूप में मान्यता देते हैं, हालांकि विद्वान उनके अलग-अलग दार्शनिक मतभेदों के कारण इस पहचान पर संदेह करते हैं (जैसे अविद्या का केंद्र और मुक्ति की प्रकृति)।
आदि शंकराचार्य (8वीं शताब्दी ईस्वी):
दर्शन: अद्वैत वेदांत के प्रमुख प्रतिपादक।
लक्ष्य: भारत को आध्यात्मिक रूप से फिर से एकजुट करना।
संबंध मंडन मिश्र से: पौराणिक कथाओं के अनुसार, उन्होंने मंडन मिश्र को वाद-विवाद में हराया, जिसके बाद मंडन मिश्र उनके शिष्य बन गए और सुरेंद्र के नाम से जाने गए। यह भी कहा जाता है कि वह वाचस्पति मिश्र के रूप में पुनर्जन्म लेकर अद्वैत को लोकप्रिय बनाने आए थे।
अनुयायी (मान्यता प्राप्त): हस्थामलक, पद्मपाद, और तोतकाचार्य के साथ मंडन मिश्र (सुरेंद्र के रूप में) उनके चार मुख्य शिष्यों में से एक थे और श्रींगेरी मठ के पहले प्रमुख थे।
कुमारिल भट्ट:
मीमांसा स्कूल के अग्रणी प्रस्तावक, जो कर्मकांडों के सख्त पालन में विश्वास रखते थे।
शंकराचार्य के समकालीन। आत्मदाह कर रहे थे जब शंकराचार्य उनसे मिलने पहुंचे।
उन्होंने शंकराचार्य को मंडन मिश्र से मिलने की सलाह दी, जो पूर्व मीमांसा स्कूल के सबसे प्रसिद्ध प्रतिपादक थे।
वाचस्पति मिश्र:
मंडन मिश्र के छात्र।
भामती (शंकराचार्य के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर एक टिप्पणी) और ब्रह्मतत्व-समीक्षा (मंडन मिश्र के ब्रह्म-सिद्धि पर एक टिप्पणी) लिखी।
शंकराचार्य के विचारों को मंडन मिश्र के साथ सामंजस्य स्थापित किया। अद्वैत परंपरा मानती है कि शंकराचार्य ने भामती के माध्यम से अद्वैत प्रणाली को लोकप्रिय बनाने के लिए वाचस्पति मिश्र के रूप में पुनर्जन्म लिया।
II. दार्शनिक वाद-विवाद: मंडन मिश्र बनाम आदि शंकराचार्य
पृष्ठभूमि:
शंकराचार्य भारत को आध्यात्मिक रूप से एकजुट करना चाहते थे, जिसके लिए उन्हें मीमांसा स्कूल को जीतना आवश्यक था।
कुमारिल भट्ट के निर्देश पर, शंकराचार्य मंडन मिश्र से मिलने पहुंचे।
मंडन मिश्र का घर असामान्य था, जिसमें पिंजरों में तोते दार्शनिक बहस कर रहे थे (जैसे वेदों का आत्म-वैध होना या न होना, कर्मों का फल सीधा होना या ईश्वर के हस्तक्षेप की आवश्यकता, दुनिया का नित्य होना या मात्र आभास)।
मंडन मिश्र मीमांसा दर्शन के एक प्रतिष्ठित अभ्यासकर्ता थे, जो वेदों के कर्म कांड भाग से निकला है और अनुष्ठानों के महत्व पर जोर देता है।
वाद-विवाद की शर्तें और न्यायाधीश:
मंडन मिश्र ने शंकराचार्य को न्यायाधीश चुनने की अनुमति दी, यह मानते हुए कि युवा शंकराचार्य के प्रति यह निष्पक्ष होगा।
शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी भारती को न्यायाधीश चुना, जो स्वयं एक विद्वान थीं।
शर्त यह थी कि पराजित व्यक्ति विजेता का शिष्य बन जाएगा और उसके स्कूल को स्वीकार करेगा।
वाद-विवाद की प्रगति:
वाद-विवाद छह महीने तक बिना रुके चला।
मंडन मिश्र, अपनी उम्र के बावजूद, तेज बुद्धि और तर्क पर ठोस पकड़ रखते थे।
शंकराचार्य, हालांकि युवा थे, लेकिन ब्रह्म की उनकी समझ और माया के उनके ज्ञान ने उन्हें मंडन मिश्र के तर्कों पर हावी होने में सक्षम बनाया।
मंडन मिश्र एक निपुण कर्मकांडी थे, लेकिन शंकराचार्य के पास उच्च आध्यात्मिक सत्य की समझ थी।
भारती का हस्तक्षेप और कामशास्त्र पर वाद-विवाद:
जब मंडन मिश्र लगभग हार स्वीकार करने वाले थे, तो भारती ने घोषणा की कि पति को हराने के लिए, प्रतिद्वंद्वी को उसकी पत्नी को भी हराना होगा।
भारती ने तर्क दिया कि पत्नी पति के शरीर का आधा हिस्सा है (अर्धांगिनी), और इसलिए शंकराचार्य की जीत तभी पूरी होगी जब वह उसे हरा देंगे।
जानते हुए कि शंकराचार्य एक सख्त ब्रह्मचारी थे, भारती ने कामशास्त्र (संबंधों और वैवाहिक दायित्वों) पर चर्चा शुरू की।
शंकराचार्य ने स्वीकार किया कि उन्हें इस क्षेत्र में कोई ज्ञान नहीं था।
भारती ने शंकराचार्य को इस विषय का अध्ययन करने के लिए समय दिया।
शंकराचार्य का परकाया प्रवेश:
शंकराचार्य ने योगिक शक्तियों का उपयोग करके एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश किया।
उन्होंने राजा के शरीर में रहते हुए कामशास्त्र का अनुभव प्राप्त किया, राजा की पत्नियों में से एक से ज्ञान प्राप्त किया।
इस नए ज्ञान से सशक्त होकर, शंकराचार्य वाद-विवाद फिर से शुरू करने के लिए लौटे।
परिणाम:
शंकराचार्य ने भारती को भी हराया।
भारती और मंडन मिश्र ने हार स्वीकार कर ली और आदि शंकराचार्य के अनुयायी बन गए।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, मंडन मिश्र सुरेंद्रचार्य बन गए और श्रींगेरी मठ के पहले प्रमुख बने।
III. महत्वपूर्ण दार्शनिक अंतर (मंडन मिश्र और सुरेंद्र/शंकराचार्य के बीच)
अविद्या का केंद्र:
मंडन मिश्र: व्यक्तिगत जीव अविद्या का केंद्र है।
सुरेंद्र/शंकराचार्य: ब्रह्म के संबंध में अविद्या ब्रह्म में स्थित है।
यह भेद भामती स्कूल (मंडन मिश्र के अनुयायी) और विवरण स्कूल (शंकराचार्य के अनुयायी) की विरोधी स्थिति में परिलक्षित होता है।
मुक्ति:
मंडन मिश्र: महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान मुक्ति के लिए अपर्याप्त है; ब्रह्म का प्रत्यक्ष बोध ही मुक्ति दिलाता है, जो केवल ध्यान से प्राप्त होता है।
सुरेंद्र/शंकराचार्य: यह ज्ञान सीधे मुक्ति दिलाता है; ध्यान अधिक से अधिक एक उपयोगी सहायता है।
IV. ऐतिहासिक महत्व और बाद की व्याख्याएँ
मंडन मिश्र का प्रभाव:
कुछ विद्वानों (जैसे रिचर्ड ई. किंग) का तर्क है कि मंडन मिश्र 10वीं शताब्दी तक शंकराचार्य से अधिक प्रभावशाली थे।
उनकी ब्रह्म-सिद्धि ने "अद्वैत का एक गैर-शंकराचार्य ब्रांड" स्थापित किया।
उनकी "त्रुटि का सिद्धांत" अद्वैत वेदांत में मानक बन गया।
वाद-विवाद का महत्व:
यह भारत में विभिन्न दर्शनों के अनुयायियों के बीच मौजूद स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को दर्शाता है।
यह ज्ञान की खोज में खुले दिमाग और अपने विश्वासों पर सवाल उठाने के महत्व पर प्रकाश डालता है।
यह सुझाव देता है कि सभी दर्शन आत्म-साक्षात्कार के एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, और नई अवधारणाओं के प्रति ग्रहणशील रहना आध्यात्मिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है।
प्रश्नोत्तरी
निर्देश: प्रत्येक प्रश्न का उत्तर 2-3 वाक्यों में दें।
मंडन मिश्र के प्रमुख दार्शनिक कार्य का नाम क्या था और इस कार्य में उन्होंने कौन सी दो प्रमुख अवधारणाएँ प्रस्तुत कीं?
मंडन मिश्र के प्रमुख दार्शनिक कार्य का नाम ब्रह्म-सिद्धि था। इस कार्य में उन्होंने अनिर्वचनीयत्व (माया-अविद्या की अनिर्वचनीयता) और निरुपाख्य (अनिर्वचनीय) की अवधारणाओं को प्रस्तुत किया।
शंकराचार्य से वाद-विवाद के दौरान मंडन मिश्र के घर की पहचान कैसे की गई?
मंडन मिश्र के घर की पहचान पिंजरों में बंद तोतों की उपस्थिति से की गई, जो वेदों की आत्म-वैधता, कर्मों के फल और दुनिया की नित्य होने जैसी जटिल दार्शनिक समस्याओं पर चर्चा कर रहे थे। यह एक असामान्य और स्पष्ट संकेत था कि वहां एक महान विद्वान रहता था।
मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच वाद-विवाद का न्यायाधीश कौन था, और यह निर्णय किसने लिया?
मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच वाद-विवाद का न्यायाधीश मंडन मिश्र की पत्नी भारती थीं। स्वयं मंडन मिश्र ने शंकराचार्य को न्यायाधीश चुनने की अनुमति दी थी, और शंकराचार्य ने निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए भारती को चुना।
मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने वाद-विवाद के बीच में क्यों हस्तक्षेप किया?
भारती ने वाद-विवाद के बीच में हस्तक्षेप किया क्योंकि उन्होंने तर्क दिया कि पति को हराने के लिए प्रतिद्वंद्वी को उसकी पत्नी को भी हराना होगा। उन्होंने जोर दिया कि पत्नी पति के शरीर का आधा हिस्सा होती है, और इसलिए शंकराचार्य की जीत तभी पूरी होगी जब वह उन्हें भी हरा देंगे।
शंकराचार्य ने भारती के साथ अपने वाद-विवाद के लिए कामशास्त्र का ज्ञान कैसे प्राप्त किया?
शंकराचार्य ने भारती के साथ अपने वाद-विवाद के लिए कामशास्त्र का ज्ञान योगिक शक्तियों का उपयोग करके एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश करके प्राप्त किया। उन्होंने राजा के शरीर में रहते हुए व्यावहारिक अनुभव प्राप्त किया, विशेष रूप से राजा की पत्नियों में से एक से सीखा।
मीमांसा दर्शन का मुख्य जोर किस पर था, और यह शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत से कैसे भिन्न था?
मीमांसा दर्शन का मुख्य जोर वेदों के कर्म कांड भाग से उत्पन्न अनुष्ठानों और कर्मों के महत्व पर था, जो सटीक रूप से अभ्यास किए जाने पर तत्काल परिणाम देते हैं। यह शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत से भिन्न था, जो आत्म-साक्षात्कार और अंतिम ब्रह्म के गैर-द्वैतवादी स्वरूप को समझने पर केंद्रित था।
मंडन मिश्र और सुरेंद्र के बीच अविद्या के केंद्र के बारे में मुख्य दार्शनिक अंतर क्या था?
मंडन मिश्र के अनुसार, व्यक्तिगत जीव अविद्या का केंद्र है, जबकि सुरेंद्र (शंकराचार्य के एक शिष्य, जिसे मंडन मिश्र माना जाता है) का तर्क था कि ब्रह्म के संबंध में अविद्या ब्रह्म में स्थित है। यह मौलिक अंतर अद्वैत वेदांत के भामती और विवरण स्कूलों में परिलक्षित होता है।
मुक्ति प्राप्त करने के बारे में मंडन मिश्र और सुरेंद्र के विचार कैसे भिन्न थे?
मुक्ति प्राप्त करने के बारे में मंडन मिश्र का मानना था कि महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान मुक्ति के लिए अपर्याप्त है और केवल ध्यान के माध्यम से ब्रह्म का प्रत्यक्ष बोध ही मुक्ति दिलाता है। सुरेंद्र का मानना था कि यह ज्ञान सीधे मुक्ति दिलाता है, जबकि ध्यान केवल एक उपयोगी सहायता है।
रिचर्ड ई. किंग जैसे विद्वानों के अनुसार, आदि शंकराचार्य के संबंध में मंडन मिश्र का ऐतिहासिक प्रभाव क्या था?
रिचर्ड ई. किंग जैसे विद्वानों के अनुसार, मंडन मिश्र 10वीं शताब्दी तक शंकराचार्य से अधिक प्रभावशाली थे, और उनका कार्य "अद्वैत का एक गैर-शंकराचार्य ब्रांड" स्थापित करता है। उनकी "त्रुटि का सिद्धांत" अद्वैत वेदांत में मानक बन गया।
वाचस्पति मिश्र की भूमिका क्या थी, और उनके कार्य मंडन मिश्र और शंकराचार्य के विचारों को कैसे जोड़ते थे?
वाचस्पति मिश्र मंडन मिश्र के छात्र थे, और उन्होंने शंकराचार्य के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर भामती नामक टिप्पणी लिखी। उनके विचार मुख्य रूप से मंडन मिश्र से प्रेरित थे, और उन्होंने शंकराचार्य के विचारों को मंडन मिश्र के साथ सामंजस्य स्थापित किया, जिससे दोनों दर्शनों के बीच एक पुल का निर्माण हुआ।
निबंध प्रश्न
मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य के बीच दार्शनिक वाद-विवाद की ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर चर्चा करें। पाठ के आधार पर उन कारणों का विश्लेषण करें जिनके कारण इस वाद-विवाद की कथा परंपरा में इतनी प्रमुखता से उभरी है।
मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य के बीच हुए दार्शनिक वाद-विवाद की ऐतिहासिक प्रामाणिकता एक जटिल विषय है जिस पर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं, जबकि पारंपरिक कथा इस घटना को बहुत महत्वपूर्ण मानती है।
दार्शनिक वाद-विवाद की ऐतिहासिक प्रामाणिकता:
पारंपरिक दावा और मान्यताएँ:
पारंपरिक रूप से, मंडन मिश्र (8वीं शताब्दी ईस्वी) को आदि शंकर का समकालीन माना जाता है।
प्रचलित कथाओं के अनुसार, आदि शंकर ने मंडन मिश्र को एक दार्शनिक बहस में पराजित किया था, जिसके बाद मंडन उनके शिष्य बन गए और सुरेश्वराचार्य का नाम धारण कर लिया।
अद्वैत वेदांत परंपरा के अनुसार, मंडन मिश्र (सुरेश्वराचार्य के रूप में) हस्तामलक, पद्मपाद और तोटकाचार्य के साथ शंकर के चार मुख्य शिष्यों में से एक थे, और श्रृंगेरी मठ के पहले प्रमुख भी थे, जिसकी स्थापना शंकर ने की थी।
आधिकारिक श्रृंगेरी दस्तावेज मंडन मिश्र को ही सुरेश्वर के रूप में मान्यता देते हैं।
इस वाद-विवाद में मंडन की पत्नी, उभय भारती, ने निर्णायक की भूमिका निभाई थी। कथा में उनके पांडित्य और शंकर के साथ कामशास्त्र पर उनके वाद-विवाद का भी विस्तृत वर्णन है, जिसके लिए शंकर को परकाया प्रवेश करना पड़ा था। अंततः, भारती ने भी शंकर की जीत को स्वीकार किया।
कुछ स्रोतों में कुमारिल भट्ट ने भी शंकराचार्य को मंडन मिश्र से मिलने की सलाह दी थी।
प्रामाणिकता पर संदेह और मतभेद:
मंडन मिश्र और सुरेश्वर के एक ही व्यक्ति होने की प्रामाणिकता संदेहास्पद है।
शर्मा, हिरियन्ना और कुप्पुस्वामी शास्त्री जैसे विद्वानों ने मंडन मिश्र और सुरेश्वर के बीच कई महत्वपूर्ण दार्शनिक मतभेदों की ओर इशारा किया है:
अविद्या का स्थान (Locus of Avidya): मंडन मिश्र के अनुसार, व्यक्तिगत 'जीव' अविद्या का स्थान है, जबकि सुरेश्वर का तर्क है कि ब्रह्म के संबंध में अविद्या ब्रह्म में स्थित है। ये दृष्टिकोण भामती स्कूल (मंडन के विचारों का समर्थन) और विवरण स्कूल (सुरेश्वर के विचारों का समर्थन) में भी दिखाई देते हैं।
मुक्ति (Liberation): मंडन मिश्र का मानना था कि 'महावाक्य' से उत्पन्न ज्ञान मुक्ति के लिए अपर्याप्त है; ब्रह्म की प्रत्यक्ष प्राप्ति ही मुक्तिदायक है, जो केवल ध्यान के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है। उनका यह भी मानना था कि अग्निहोत्र जैसे कर्म ज्ञान के सहकारी हो सकते हैं। इसके विपरीत, सुरेश्वर का मानना था कि यह ज्ञान सीधे मुक्तिदायक है, जबकि ध्यान अधिकतम एक उपयोगी सहायता है।
शब्दाद्वैत और अन्यथाख्यातिवाद: मंडन ने 'शब्दाद्वैत' का समर्थन किया, जबकि सुरेश्वर इस पर मौन रहे। मंडन ने 'अन्यथाख्यातिवाद' का काफी हद तक समर्थन किया, जिसे सुरेश्वर ने खंडित किया।
कुप्पुस्वामी शास्त्री का तर्क है कि मंडन मिश्र द्वारा प्रतिपादित अद्वैत का स्वरूप शंकर के दर्शन से कुछ महत्वपूर्ण विवरणों में भिन्न है, जबकि सुरेश्वर के विचार शंकर के प्रति बहुत वफादार हैं।
कुछ विद्वानों के अनुसार, मंडन और शंकर के बीच शास्त्रार्थ की बात ही पूरी तरह से काल्पनिक और रणनीतिक है, जिसे मध्यकाल में शंकर के मठ द्वारा प्रचारित किया गया था। सुरेश्वर के विचार "शत-प्रतिशत शंकराचार्य के अनुगामी" हैं, और वे मंडन का "असहिष्णुता की हद तक विरोध" करते हैं, उन्हें एक अलग स्कूल के अद्वैत वेदांती के रूप में वर्णित करते हैं।
'शंकर-दिग्विजय' नामक ग्रंथ को कुछ विद्वानों द्वारा "नितांत अप्रामाणिक कथा-पुस्तक" माना जाता है, जो इस कहानी का मुख्य स्रोत है।
हालांकि, आर. बालासुब्रमण्यम कुप्पुस्वामी शास्त्री और अन्य के तर्कों से असहमत हैं, उनका कहना है कि यह साबित करने के लिए कोई निर्णायक सबूत उपलब्ध नहीं है कि 'ब्रह्मसिद्धि' के लेखक मंडन, 'नैष्कर्म्यसिद्धि' और 'वार्तिका' के लेखक सुरेश्वर से भिन्न हैं।
इस वाद-विवाद की कथा परंपरा में प्रमुखता से उभरने के कारण:
इस वाद-विवाद की कथा ने कई कारणों से परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया:
शंकर के दर्शन की श्रेष्ठता स्थापित करना:
यह कथा बाद की अद्वैत परंपरा के प्रयासों को दर्शाती है, जिसका उद्देश्य मंडन मिश्र को उस स्थान पर प्रतिष्ठित करना था जो शंकर ने बाद के समय में हासिल किया।
मंडन मिश्र 10वीं शताब्दी ईस्वी तक शंकर से अधिक प्रभावशाली अद्वैती रहे होंगे, और शंकर के बाद की शताब्दियों में उन्हें वेदांत का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि माना जाता था। उनके कार्य, 'ब्रह्म-सिद्धि' में एक "गैर-शंकरन ब्रांड का अद्वैत" प्रस्तुत किया गया था। मंडन पर शंकर की विजय की कथा ने शंकर के विशिष्ट अद्वैत को प्रमुखता दी।
वाद-विवाद में शंकर की सहज जीत, विशेषकर माया और ब्रह्म के ज्ञान पर, उनकी दार्शनिक श्रेष्ठता को स्थापित करती है।
दार्शनिक विचारों का सामंजस्य और परंपरा का एकीकरण:
मंडन के शिष्य वाचस्पति मिश्र ने शंकर के 'ब्रह्म सूत्र भाष्य' पर 'भामती' नामक टीका लिखी, साथ ही मंडन की 'ब्रह्म-सिद्धि' पर भी टिप्पणी की। वाचस्पति मिश्र के विचार मंडन मिश्र से काफी प्रेरित थे और उन्होंने शंकर के विचारों को मंडन के साथ सामंजस्य स्थापित किया।
यह परंपरा कि शंकर ने वाचस्पति मिश्र के रूप में पुनर्जन्म लिया ताकि 'भामती' के माध्यम से अद्वैत प्रणाली को लोकप्रिय बनाया जा सके, मंडन के प्रभावशाली विचारों को शंकर की परंपरा में एकीकृत करने का एक तरीका हो सकता है, जिससे अद्वैत वेदांत के भीतर भिन्नता के बजाय एकता की भावना को बढ़ावा मिले।
शास्त्रार्थ में जैमिनी मुनि का प्रकट होकर अपने ही सूत्रों की व्याख्या को शंकर के दृष्टिकोण के अनुसार प्रमाणित करना, मीमांसा और वेदांत के बीच सामंजस्य और शंकर के वेदांत की वैधता को स्थापित करने का प्रयास दर्शाता है।
भारतीय शास्त्रार्थ परंपरा का आदर्श चित्रण:
यह वाद-विवाद "भारत में विभिन्न दर्शनों के अनुयायियों के बीच मौजूद स्वस्थ प्रतिस्पर्धा" पर प्रकाश डालता है।
यह इस बात का प्रमाण है कि भारतीय बुद्धिजीवी अहंकार रहित थे और सत्य की खोज के लिए अपने विश्वासों को चुनौती देने और कारण के आधार पर अपनी दार्शनिक स्थिति को बदलने का अपार साहस रखते थे।
हारने वाले का विजेता का शिष्य बनना बौद्धिक ईमानदारी और ज्ञान के प्रति समर्पण की गहरी जड़ें जमाई हुई संस्कृति को दर्शाता है।
उभय भारती जैसी विद्वान स्त्री का निर्णायक होना और शंकर को कामशास्त्र के व्यावहारिक ज्ञान की कमी के कारण एक बिंदु पर पराजित करना, उस समय समाज में महिलाओं के सम्मान और बौद्धिक योग्यता की उच्च स्थिति को भी दर्शाता है।
संक्षेप में, मंडन मिश्र और शंकर का वाद-विवाद एक महत्वपूर्ण कथा है जो न केवल दार्शनिक श्रेष्ठता को स्थापित करती है बल्कि एक समृद्ध बौद्धिक परंपरा और विभिन्न विचारों के सामंजस्य को भी दर्शाती है, भले ही इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर विद्वानों में मतभेद हों।
मंडन मिश्र के "त्रुटि के सिद्धांत" और ब्रह्म-सिद्धि में प्रस्तुत अनिर्वचनीयत्व और निरुपाख्य की अवधारणाओं के महत्व की पड़ताल करें। ये अवधारणाएँ शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों में कैसे योगदान करती हैं या उनसे भिन्न हैं?
मंडन मिश्र, 8वीं शताब्दी ईस्वी के एक हिंदू दार्शनिक थे, जिन्होंने मीमांसा और अद्वैत दर्शन प्रणालियों पर लिखा था। वे मीमांसा विद्वान कुमारिला भट्ट के शिष्य थे और उन्होंने मीमांसा पर कई ग्रंथ लिखे, साथ ही अद्वैत पर ब्रह्म-सिद्धि नामक एक महत्वपूर्ण कृति भी लिखी।
मंडन मिश्र के "त्रुटि के सिद्धांत" (theory of error) और ब्रह्म-सिद्धि में प्रस्तुत अवधारणाएँ:
"त्रुटि का सिद्धांत": मंडन मिश्र के अनुसार, त्रुटियाँ अवसर होती हैं क्योंकि वे "सत्य की ओर ले जाती हैं"। उनका मानना था कि पूर्ण सही ज्ञान के लिए न केवल सत्य को समझना आवश्यक है, बल्कि त्रुटियों के साथ-साथ जो सत्य नहीं है, उसकी भी जाँच और समझ होनी चाहिए। यह सिद्धांत ब्रह्म-सिद्धि में स्थापित किया गया था और अद्वैत वेदांत में त्रुटि का एक मानक सिद्धांत बन गया।
अनिर्वचनीयत्व (Anirvacaniyatva): यह अवधारणा ब्रह्म-सिद्धि में प्रस्तुत की गई थी और यह माया-अविद्या की "अस्तित्वहीन या गैर-अस्तित्वहीन के रूप में, या ब्रह्म के समान या उससे भिन्न के रूप में अकथनीयता" को संदर्भित करती है। यह अद्वैत में एक सामान्य धारणा है जो शंकराचार्य से नहीं निकली। मंडन मिश्र तर्क देते हैं कि अविद्या न तो ब्रह्म का सार है, न ही कोई अन्य वस्तु; यह न तो पूरी तरह से गैर-अस्तित्वहीन है, न ही अस्तित्व में है, इसलिए इसे अविद्या (अज्ञान) या माया (भ्रम) कहा जाता है।
निरुपाख्य (Nirupākhya): यह अवधारणा "अवर्णनीय" को दर्शाती है। मंडन मिश्र के अनुसार, "वास्तविक वर्णनीय है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जो कुछ भी वर्णनीय है वह पूरी तरह से वास्तविक है"। उन्होंने यह भी कहा कि "ब्रह्म का मौखिक ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान से पूरक या रूपांतरित होना चाहिए, उन्होंने कहीं नहीं कहा कि ब्रह्म शब्दों से परे है"।
शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों के साथ संबंध या भिन्नता:
मंडन मिश्र संभवतः 10वीं शताब्दी ईस्वी तक अद्वैत वेदांत परंपरा में सामान्यतः स्वीकार किए जाने से अधिक प्रभावशाली थे। रिचर्ड ई. किंग और रूडुरमुन के अनुसार, शंकराचार्य 10वीं शताब्दी तक अपने बड़े समकालीन मंडन मिश्र से ढके हुए थे, और शंकराचार्य के बाद की शताब्दियों में मंडन मिश्र को वेदांत का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि माना जाता था। उनका प्रभाव इतना था कि कुछ लोग उनके कार्य को "अद्वैत का एक गैर-शंकराचार्य ब्रांड स्थापित करने वाला" मानते हैं।
मंडन मिश्र और शंकराचार्य के विचारों में एक सामंजस्य उनके छात्र वाचस्पति मिश्र के कार्यों में देखा जा सकता है। वाचस्पति मिश्र, जिन्हें अद्वैत मत को लोकप्रिय बनाने के लिए शंकराचार्य का अवतार माना जाता है, ने शंकराचार्य के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर एक टीका भामती लिखी, और मंडन मिश्र की ब्रह्म-सिद्धि पर एक टीका ब्रह्मतत्व-समीक्षा भी लिखी। वाचस्पति मिश्र का विचार मुख्य रूप से मंडन मिश्र से प्रेरित था और उन्होंने शंकराचार्य के विचार को मंडन मिश्र के साथ सामंजस्य स्थापित किया।
हालांकि, मंडन मिश्र और सुरेशवर (जिन्हें अक्सर शंकराचार्य के शिष्य के रूप में पहचाना जाता है, हालांकि इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है) के बीच कुछ सैद्धांतिक मतभेद थे:
अविद्या का स्थान (locus of avidya): मंडन मिश्र के अनुसार, व्यक्तिगत जीव अविद्या का स्थान है, जबकि सुरेशवर का तर्क है कि ब्रह्म से संबंधित अविद्या ब्रह्म में स्थित है। ये दो भिन्न स्थितियाँ भामाती स्कूल (जो मंडन का अनुसरण करता है) और विवरण स्कूल की विरोधी स्थितियों में भी परिलक्षित होती हैं।
मोक्ष (Liberation): मंडन मिश्र के अनुसार, महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान मोक्ष के लिए अपर्याप्त है। केवल ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति ही मुक्तिदायक है, जो केवल ध्यान (meditation) से प्राप्त की जा सकती है। इसके विपरीत, सुरेशवर के अनुसार, यह ज्ञान सीधे मुक्तिदायक है, जबकि ध्यान अधिकतम एक उपयोगी सहायता है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आर. बालासुब्रमण्यम जैसे कुछ विद्वान इस बात से असहमत हैं कि ब्रह्म-सिद्धि के लेखक मंडन और नैष्कर्म्यसिद्धि और वार्तिका के लेखक सुरेशवर अलग-अलग हैं, उनका तर्क है कि इसे साबित करने के लिए कोई निर्णायक सबूत उपलब्ध नहीं है।
संक्षेप में, मंडन मिश्र के "त्रुटि के सिद्धांत" और अनिर्वचनीयत्व और निरुपाख्य की अवधारणाओं ने अद्वैत वेदांत परंपरा में महत्वपूर्ण योगदान दिया, खासकर अविद्या और माया की प्रकृति को समझने में। हालांकि, उनके विचार शंकराचार्य और उनके अनुयायियों के कुछ पहलुओं से भिन्न थे, जैसा कि अविद्या के स्थान और मोक्ष प्राप्त करने के साधन पर उनके मतभेदों में देखा जा सकता है। वाचस्पति मिश्र जैसे बाद के विद्वानों ने इन विभिन्न विचारों को सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया, जिससे अद्वैत वेदांत परंपरा के भीतर विभिन्न विद्यालयों का विकास हुआ।
मीमांसा दर्शन और अद्वैत वेदांत के बीच मुख्य दार्शनिक मतभेदों का विस्तार से वर्णन करें, जैसा कि मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य के वाद-विवाद में दर्शाया गया है। प्रत्येक स्कूल के केंद्रीय जोर क्या थे, और शंकराचार्य ने मीमांसा दृष्टिकोण को क्यों जीतना महत्वपूर्ण माना?
मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य के बीच हुए वाद-विवाद में मीमांसा दर्शन और अद्वैत वेदांत के बीच के मुख्य दार्शनिक मतभेद विस्तार से सामने आते हैं। मंडन मिश्र (8वीं शताब्दी ईस्वी) एक हिंदू दार्शनिक थे जिन्होंने मीमांसा और अद्वैत दोनों प्रणालियों पर लिखा था। वे मीमांसा विद्वान कुमारिला भट्ट के शिष्य थे। दूसरी ओर, आदि शंकराचार्य एक प्रमुख अद्वैत वेदान्ती थे, जिन्होंने भारत को आध्यात्मिक रूप से एकजुट करने का लक्ष्य रखा था।
मीमांसा दर्शन का केंद्रीय जोर (मंडन मिश्र का दृष्टिकोण):
कर्मकांड पर बल: मीमांसा दर्शन मुख्य रूप से वेदों के कर्मकांड भाग से निकला है और अनुष्ठानों के महत्व पर जोर देता है। यह मानता है कि यदि किसी विशेष अनुष्ठान का सही ढंग से अभ्यास किया जाए, तो उसके परिणाम तत्काल प्राप्त होते हैं, जो एक सीधा कारण-कार्य संबंध प्रदर्शित करता है।
वेदों की प्रामाणिकता: मीमांसा के अनुसार, वेद मुख्य रूप से क्रिया (कार्यों) से संबंधित हैं। मंडन का तर्क था कि वेद याग (बलिदान) और अन्य अनुष्ठानों का प्रतिपादन करने में सार्थक हैं, जो कर्म का भाग है, न कि केवल ब्रह्म का।
कर्म फलदाता है: मंडन मिश्र ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि कर्म स्वयं ही फल का दाता है, और इसके लिए ईश्वर के हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने ईश्वर की परिकल्पना का खंडन भी किया था जो जगत के उदय का कारण है।
मोक्ष का मार्ग: मंडन मिश्र के अनुसार, महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान मुक्ति के लिए अपर्याप्त है। उनके मत में, केवल ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति ही मुक्तिदायक है, जो केवल ध्यान (meditation) से ही प्राप्त की जा सकती है।
अविद्या का आश्रय: मंडन मिश्र का मानना था कि व्यक्तिगत जीव (जीव) अविद्या (अज्ञान) का आश्रय है।
अद्वैत वेदांत का केंद्रीय जोर (आदि शंकराचार्य का दृष्टिकोण):
ज्ञान और संन्यास पर बल: शंकराचार्य ज्ञान मार्ग और संन्यास पर बल देते थे।
ब्रह्म की परम वास्तविकता: अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही परम सत्य है, और यह जगत माया (भ्रम) के कारण एक उपस्थिति मात्र है।
जीव और ब्रह्म की एकता: शंकराचार्य का मुख्य सिद्धांत जीव और ब्रह्म की अभिन्नता (जीवब्रह्मैक्य) था, जिसे वे "तत्त्वमसि", "अहं ब्रह्मास्मि" जैसे उपनिषद वाक्यों से सिद्ध करते थे।
वेदों की प्रामाणिकता: शंकराचार्य ने तर्क दिया कि वेद का मुख्य तात्पर्य अद्वैत ब्रह्म के प्रतिपादन में है, न कि कर्मकांड में। उन्होंने कहा कि वेदांत वाक्य अज्ञात (अपूर्व) अर्थ, जैसे जीव और ब्रह्म की एकता, का प्रतिपादन करते हैं जो लोक में प्रसिद्ध नहीं है, इसलिए वे अधिक शक्तिशाली हैं।
मोक्ष का मार्ग: शंकराचार्य के मत में, महावाक्य से उत्पन्न ज्ञान सीधे मुक्तिदायक है, जबकि ध्यान अधिकतम एक उपयोगी सहायता है। वे मानते थे कि ब्रह्म ज्ञान कोई क्रिया नहीं है जो मनुष्य की इच्छा पर निर्भर हो, बल्कि यह वस्तुनिष्ठ सत्य है।
अविद्या का आश्रय: शंकराचार्य के स्कूल (सुरेश्वर के माध्यम से) का मत है कि ब्रह्म से संबंधित अविद्या स्वयं ब्रह्म में ही स्थित है।
मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य के वाद-विवाद में दर्शाए गए मुख्य दार्शनिक मतभेद:
वेदों का मुख्य तात्पर्य (तात्पर्य):
मंडन मिश्र: उन्होंने मीमांसा सिद्धांत का पालन किया कि वेद क्रिया (कर्म) परक हैं। उनके अनुसार, वेद के ज्ञानकांड का तात्पर्य कर्मकांड के लिए सिद्ध वस्तु (ब्रह्म) के लिए नहीं है।
शंकराचार्य: उन्होंने जोर दिया कि वेदांत का मुख्य तात्पर्य अद्वैत ब्रह्म के प्रतिपादन में है। उनके अनुसार, वेदांत वाक्य ब्रह्म का बोध कराते हैं, जो किसी कर्म का विषय नहीं है।
कर्मफल का दाता:
मंडन मिश्र: उन्होंने माना कि कर्म स्वयं ही फल देते हैं, और ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है।
शंकराचार्य: उन्होंने इस तर्क का खंडन किया, यह बताते हुए कि जगत एक कार्य (कार्य) है और उसे किसी कर्ता (ईश्वर) की आवश्यकता होती है। उनका जोर ज्ञान पर था जिससे कर्मों का क्षय हो जाता है।
अविद्या का स्थान (locus of avidya):
मंडन मिश्र: उनके अनुसार, अविद्या व्यक्तिगत जीव (jiva) में स्थित होती है।
शंकराचार्य (सुरेश्वर के माध्यम से): उनके स्कूल का मानना था कि ब्रह्म से संबंधित अविद्या स्वयं ब्रह्म में ही स्थित है। ये मतभेद अद्वैत के भीतर भामती स्कूल (मंडन के अनुयायी) और विवरण स्कूल के विरोधी विचारों में परिलक्षित होते हैं।
मोक्ष का साधन:
मंडन मिश्र: उनका मानना था कि महावाक्यों से उत्पन्न ज्ञान (शाब्दिक ज्ञान) मुक्ति के लिए अपर्याप्त है। उनके लिए, केवल ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति ही मुक्तिदायक है, और यह अनुभूति केवल ध्यान (meditation) से प्राप्त की जा सकती है।
शंकराचार्य (सुरेश्वर के माध्यम से): इसके विपरीत, सुरेशवर (और शंकराचार्य का स्कूल) का मत था कि महावाक्यों से प्राप्त ज्ञान सीधे मुक्तिदायक है, जबकि ध्यान अधिकतम एक उपयोगी सहायता है। शंकराचार्य ने यह भी तर्क दिया कि ज्ञान वस्तुतः है और पुरुष के अधीन नहीं है, जबकि कर्म पुरुष के अधीन हैं।
जीव और ब्रह्म के बीच भेद/अभेद:
मंडन मिश्र: उन्होंने प्रत्यक्ष (perception) और अनुमान (inference) जैसे प्रमाणों का उपयोग करते हुए जीव और ईश्वर के बीच भेद की वास्तविकता पर जोर दिया। उन्होंने 'द्वा सुपर्णा' जैसे श्रुति वाक्यों को भेद-बोधक माना।
शंकराचार्य: उन्होंने तर्क दिया कि भेद औपाधिक (अविद्या के कारण) है, जबकि परमार्थिक स्तर पर जीव और ब्रह्म अभिन्न हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रत्यक्ष इंद्रियों द्वारा ब्रह्म का भेद अगृहीत है क्योंकि ब्रह्म अशब्द और अरूप है। उन्होंने 'तत्त्वमसि' जैसे अभेद-बोधक श्रुति वाक्यों को अधिक बलवती माना क्योंकि वे अपूर्व (अज्ञात) अर्थ का बोध कराते हैं।
शंकराचार्य ने मीमांसा दृष्टिकोण को क्यों जीतना महत्वपूर्ण माना:
भारत के आध्यात्मिक पुनरेकीकरण का लक्ष्य: शंकराचार्य के समय में, पूर्वमीमांसा स्कूल, जो अनुष्ठानों के कड़े और सैद्धांतिक पालन में विश्वास करता था, सर्वोच्च था।
शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी को जीतना: शंकराचार्य ने महसूस किया कि जब तक वे इस शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी को नहीं जीत लेते, तब तक भारत को आध्यात्मिक रूप से पुन: एकजुट करने का उनका लक्ष्य पूरा करना मुश्किल होगा। मंडन मिश्र इस मीमांसा संप्रदाय के सबसे प्रसिद्ध समर्थक थे।
अद्वैत विचार को लोकप्रिय बनाना: यह वाद-विवाद शंकराचार्य के लिए अपने अद्वैत सिद्धांत को सिद्ध करने और उसे लोकप्रिय बनाने का एक महत्वपूर्ण मंच था। उनके शिष्य वाचस्पति मिश्र ने भी मंडन मिश्र के विचारों को शंकराचार्य के विचारों के साथ सामंजस्य बिठाने का प्रयास किया, जिससे अद्वैत परंपरा को और बढ़ावा मिला।
सत्य की खोज: वाद-विवाद की परंपरा यह दर्शाती है कि भारतीय दर्शन में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा मौजूद थी, जहां दार्शनिक अपने विश्वासों का परीक्षण करने, उन पर सवाल उठाने और यदि तर्क की मांग हो तो अपने दर्शन को बदलने के लिए खुले दिमाग और immense साहस रखते थे। शंकराचार्य ने तर्क दिया कि त्रुटियाँ भी अवसर होती हैं क्योंकि वे "सत्य की ओर ले जाती हैं" और पूर्ण ज्ञान के लिए त्रुटियों को भी समझना आवश्यक है।
पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति: मंडन मिश्र की पत्नी भारती के साथ शंकराचार्य के वाद-विवाद का एक हिस्सा, जिसमें कामशास्त्र पर प्रश्न शामिल थे, ने शंकराचार्य के सांसारिक अनुभव की कमी को उजागर किया। यह इंगित करता है कि शंकराचार्य का लक्ष्य केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि उच्चतर आध्यात्मिक सत्य की पूर्ण अनुभूति भी था, जो केवल कर्मकांड पर आधारित नहीं हो सकता था। उन्होंने योगिक शक्तियों का उपयोग करके राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश करके इस ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास किया।
संक्षेप में, मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच का वाद-विवाद भारतीय दर्शन में दो प्रमुख विचारों, कर्मकांड-प्रधान मीमांसा और ज्ञान-प्रधान अद्वैत वेदांत के बीच एक मौलिक संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें अंततः शंकराचार्य ने अद्वैत के सार्वभौमिक सत्य को स्थापित किया।
मंडन मिश्र और सुरेंद्र के बीच पहचान की बहस का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें। अविद्या के केंद्र और मुक्ति की प्रकृति के संबंध में उनके दार्शनिक मतभेदों पर चर्चा करें, और यह अद्वैत परंपरा के भीतर विभिन्न स्कूलों को कैसे जन्म देता है।
मंडन मिश्र (8वीं शताब्दी ईस्वी) और सुरेश्वर की पहचान को लेकर एक दार्शनिक बहस है, जिसमें उनके विचारों की समानता और अंतर दोनों पर प्रकाश डाला गया है।
पहचान संबंधी बहस और आलोचनात्मक मूल्यांकन:
परंपरागत रूप से, मंडन मिश्र को अक्सर सुरेश्वर के रूप में पहचाना जाता है। श्रींगेरी के आधिकारिक दस्तावेज़ भी मंडन मिश्र को सुरेश्वर के रूप में मान्यता देते हैं।
हालांकि, इस पहचान की प्रामाणिकता संदेहास्पद है। विद्वानों, जैसे शर्मा, हिरियन्ना और कुप्पुस्वामी शास्त्री ने मंडन मिश्र और सुरेश्वर के बीच कई सैद्धांतिक मतभेदों की ओर इशारा किया है, जिससे पता चलता है कि वे एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते।
कुप्पुस्वामी शास्त्री का तर्क है कि ब्रह्मसिद्धि के लेखक मंडन मिश्र का नैष्कर्म्यसिद्धि और वार्तिक के लेखक सुरेश्वर से अलग होना संभावित नहीं है। इसके बावजूद, वे स्वीकार करते हैं कि मंडन मिश्र और शंकर समकालीन थे।
आर. बालसुब्रमण्यम कुप्पुस्वामी शास्त्री और अन्य के तर्कों से असहमत हैं, उनका तर्क है कि यह साबित करने के लिए कोई निर्णायक सबूत उपलब्ध नहीं है कि ब्रह्मसिद्धि के लेखक मंडन, नैष्कर्म्यसिद्धि और वार्तिक के लेखक सुरेश्वर से अलग हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदी विकिपीडिया के अनुसार, मंडन मिश्र और शंकर के बीच शास्त्रार्थ की बात "नितान्त काल्पनिक और रणनीतिक" है, जिसे मध्यकाल में शंकर के मठ द्वारा प्रचारित किया गया था। यह स्रोत यह भी बताता है कि अधिकांश प्रमाण मंडन और सुरेश्वर की भिन्नता के पक्ष में हैं, और सुरेश्वर के विचार शत-प्रतिशत शंकराचार्य के अनुयायी हैं, जबकि मंडन के विचार अलग हैं।
रिचर्ड ई. किंग के अनुसार, 10वीं शताब्दी तक शंकर पर उनके बड़े समकालीन मंडन मिश्र का प्रभाव अधिक था, और शंकर के बाद की शताब्दियों में मंडन मिश्र को वेदांत का सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि माना जाता था। उनके प्रभाव का इतना बड़ा असर था कि कुछ लोग उनके कार्य को "अद्वैत का एक गैर-शंकर ब्रांड" स्थापित करने वाला मानते हैं। ब्रह्मसिद्धि में प्रतिपादित "त्रुटि का सिद्धांत" अद्वैत वेदांत का मानक त्रुटि सिद्धांत बन गया।
दार्शनिक मतभेद और अद्वैत परंपरा के विभिन्न स्कूल:
मंडन मिश्र और सुरेश्वर के बीच मुख्य दार्शनिक मतभेद दो प्रमुख बिंदुओं पर केंद्रित थे, जिन्होंने अद्वैत वेदांत परंपरा के भीतर विभिन्न स्कूलों को जन्म दिया:
अविद्या का केंद्र (Locus of Avidya):
मंडन मिश्र के अनुसार, अविद्या का केंद्र व्यक्तिगत जीव (जीव) है।
सुरेश्वर के अनुसार, ब्रह्म के संबंध में अविद्या ब्रह्म में स्थित है।
इन दो भिन्न दृष्टिकोणों के कारण भामती स्कूल और विवरण स्कूल नामक दो विरोधी स्थिति उत्पन्न हुईं। भामती स्कूल मंडन मिश्र का अनुयायी है, जबकि विवरण स्कूल सुरेश्वर के सिद्धांतों पर चलता है।
मुक्ति की प्रकृति (Nature of Liberation):
मंडन मिश्र के अनुसार, महावाक्य से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मुक्ति के लिए अपर्याप्त है। केवल ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति ही मुक्ति दिलाती है, जो केवल ध्यान से ही प्राप्त की जा सकती है।
सुरेश्वर के अनुसार, यह ज्ञान सीधे ही मुक्तिदायक है, जबकि ध्यान अधिकतम एक उपयोगी सहायता है। हिंदी विकिपीडिया भी इस बात पर जोर देता है कि सुरेश्वर शुद्ध ज्ञान को मोक्ष का मार्ग मानते हैं, जबकि मंडन के अनुसार वेदांत के श्रवण मात्र से मोक्ष नहीं मिलता, जब तक अग्निहोत्र आदि कर्म ज्ञान के सहकारी न हों।
मंडन मिश्र के शिष्य वाचस्पति मिश्र ने भामती नामक शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र भाष्य पर एक टीका लिखी, और ब्रह्मसिद्धि पर एक टीका, ब्रह्मतत्व-समीक्षा भी लिखी। वाचस्पति मिश्र का विचार मुख्य रूप से मंडन मिश्र से प्रेरित था और उन्होंने शंकराचार्य के विचार को मंडन मिश्र के साथ सामंजस्य स्थापित किया। अद्वैत परंपरा के अनुसार, शंकर ने वाचस्पति मिश्र के रूप में पुनर्जन्म लिया ताकि उनकी भामती के माध्यम से अद्वैत प्रणाली को लोकप्रिय बनाया जा सके।
मंडन मिश्र और शंकराचार्य के वाद-विवाद में भारती की भूमिका का विश्लेषण करें। वाद-विवाद के परिणाम को आकार देने में उनकी बुद्धि, ज्ञान और हस्तक्षेप कितने महत्वपूर्ण थे, और इस कथा के माध्यम से भारतीय समाज में महिलाओं की विद्वता को कैसे दर्शाया गया है?
मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच वाद-विवाद में उनकी पत्नी भारती (जिसे उभय भारती या शारदा भी कहा जाता है) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक थी। उनकी बुद्धि, ज्ञान और हस्तक्षेप ने इस वाद-विवाद के परिणाम को न केवल आकार दिया, बल्कि भारतीय समाज में महिला विद्वता के चित्रण में भी एक विशिष्ट स्थान बनाया।
यहां भारती की भूमिका का विश्लेषण किया गया है:
न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति और विधि
जब आदि शंकराचार्य मंडन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ के लिए पहुंचे, तो मंडन मिश्र, जो कर्म मीमांसा दर्शन के बड़े प्रसिद्ध आचार्य थे, ने शंकर को अपनी पसंद का निर्णायक चुनने की अनुमति दी।
शंकर ने चतुराई से मंडन मिश्र की पत्नी भारती को निर्णायक चुना। यह चुनाव स्वयं भारती की विद्वता का प्रमाण था, क्योंकि वह स्वयं एक बड़ी विदुषी थीं। कुछ स्रोतों में उन्हें साक्षात् सरस्वती का अवतार भी कहा गया है।
भारती ने वाद-विवाद को न्यायसंगत तरीके से आयोजित करने के लिए एक अद्वितीय नियम निर्धारित किया: उन्होंने दोनों विद्वानों के गले में फूलों की माला पहनाई, और यह घोषणा की कि जिसकी माला पहले मुरझा जाएगी, उसे पराजित माना जाएगा। यह एक बुद्धिमान तरीका था, क्योंकि शारीरिक या मानसिक तनाव से माला मुरझा सकती थी, जो वाद-विवाद में पराजय का संकेत देता।
उनके हस्तक्षेप और ज्ञान की परीक्षा
मंडन मिश्र, जो उस समय काफी वृद्ध थे, शंकर के तर्क से धीरे-धीरे हार रहे थे। छह महीने तक चले शास्त्रार्थ के अंत में, जब मंडन मिश्र लगभग हार स्वीकार करने वाले थे, तब भारती ने हस्तक्षेप किया।
उन्होंने तर्क दिया कि एक पत्नी अपने पति के शरीर का आधा हिस्सा होती है (अर्धांगिनी)। इसलिए, शंकर की विजय तभी पूर्ण होगी जब वे उनसे भी शास्त्रार्थ में जीतें।
एक अत्यंत चतुर विद्वान होने के नाते, भारती ने शंकराचार्य को कामशास्त्र के व्यावहारिक ज्ञान से संबंधित प्रश्न पूछना शुरू कर दिया। उन्हें अच्छी तरह पता था कि शंकराचार्य एक ब्रह्मचारी सन्यासी थे, और गृहस्थ जीवन के इन पहलुओं का उन्हें कोई अनुभव नहीं था।
शंकराचार्य ने स्वीकार किया कि उन्हें इस क्षेत्र में कोई ज्ञान नहीं है। भारती ने उन्हें एक महीने (या कुछ स्रोतों में छह महीने) का समय दिया ताकि वे इस विषय का अध्ययन कर सकें।
इसके बाद, शंकराचार्य ने योग शक्तियों का उपयोग करके एक मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश किया (परकाया प्रवेश) ताकि वे कामशास्त्र का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर सकें। इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद, शंकर लौटे और भारती से पुनः शास्त्रार्थ किया, जिसमें वे अंततः विजयी हुए।
परिणाम और भारतीय समाज में महिला विद्वता का चित्रण
भारती की बुद्धिमत्ता, ज्ञान और अडिग दृढ़ता ने शंकराचार्य को भी चुनौती दी, जिससे उन्हें अपने ज्ञान की सीमाओं से परे जाकर सीखने का अवसर मिला। यह घटना दर्शाती है कि भारती न केवल एक महान विद्वान थीं, बल्कि उन्होंने शंकराचार्य के ज्ञान को भी एक नए आयाम तक विस्तारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस कथा के माध्यम से भारतीय समाज में महिलाओं की विद्वता को उत्कृष्ट रूप से दर्शाया गया है। भारती को एक ऐसे निर्णायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो निष्पक्ष, बुद्धिमान और निडर है। उनका शास्त्रार्थ में भाग लेना और सबसे बड़े विद्वानों को चुनौती देना यह बताता है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को उच्च शिक्षा और दार्शनिक बहसों में भाग लेने की स्वतंत्रता और सम्मान प्राप्त थी। यह उस समय की 'वाद और विचार की संस्कृति' को दर्शाता है, जहां हारने वाला विजेता का शिष्य बन जाता था।
हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मंडन मिश्र और शंकर के बीच शास्त्रार्थ की बात को कुछ विद्वान "नितान्त काल्पनिक और रणनीतिक" मानते हैं, जिसे मध्यकाल में शंकर के मठ द्वारा प्रचारित किया गया ताकि बाद की अद्वैत परंपरा में मंडन के प्रभाव को शंकर के अधीन किया जा सके। इसके बावजूद, यह कथा महिला विद्वानों के महत्व और सम्मान को दर्शाती है, भले ही यह एक पारंपरिक कथा ही क्यों न हो।
शंकराचार्य और मंडन मिश्रा का शास्त्रार्थ
घटनाओं की विस्तृत समय-सीमा:
आठवीं शताब्दी ईस्वी:
कुमारिल भट्ट का जीवनकाल: कुमारिल भट्ट, पूर्व मीमांसा दर्शन के एक प्रमुख विद्वान और मंडन मिश्रा के गुरु, प्रयाग में रहते थे। उन्होंने बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया ताकि वे वैदिक लोकाचार के खिलाफ उसके हमले का बेहतर ढंग से मुकाबला कर सकें।
मंडन मिश्रा का जीवनकाल: मंडन मिश्रा का जन्म बिहार के सहरसा जिले के महिषी गाँव में एक मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वह मीमांसा और अद्वैत विचार प्रणालियों पर लिखने वाले एक हिंदू दार्शनिक थे। वह कुमारिल भट्ट के छात्र थे और आदि शंकराचार्य के समकालीन भी थे।
आदि शंकराचार्य का जीवनकाल: शंकराचार्य एक युवा, आकर्षक अद्वैत वेदांती थे, जिन्होंने भारत को आध्यात्मिक रूप से फिर से जोड़ने के उद्देश्य से देशव्यापी यात्रा शुरू की।
मंडन मिश्रा और आदि शंकराचार्य की बहस से पहले की घटनाएँ:
कुमारिल भट्ट का आत्मदाह: अपनी युवावस्था में बौद्ध मठ में एक बौद्ध का भेष बनाकर अध्ययन करने और फिर अपने गुरु को बहस के लिए चुनौती देने और हराने के पापों का प्रायश्चित करने के लिए कुमारिल भट्ट चावल की भूसी से जलती हुई एक बड़ी चिता पर आत्मदाह कर रहे थे।
शंकराचार्य का कुमारिल भट्ट से मिलना: अपने अभियान के दौरान, शंकराचार्य कुमारिल भट्ट से मिले, जो प्रयाग में थे और आत्मदाह कर रहे थे। शंकराचार्य के कुमारिल भट्ट को चिता से उतरने का अनुरोध सफल नहीं हुआ।
कुमारिल भट्ट का मंडन मिश्रा से मिलने का सुझाव: मरने से पहले, कुमारिल भट्ट ने शंकराचार्य को अपने शिष्य मंडन मिश्रा से मिलने की सलाह दी, जो पूर्वमीमांसा दर्शन के सबसे प्रसिद्ध प्रतिपादक थे।
मंडन मिश्रा और आदि शंकराचार्य के बीच बहस (छह महीने तक चली):
शंकराचार्य का महिषी गाँव पहुँचना: शंकराचार्य मंडन मिश्रा से मिलने महिषी गाँव पहुँचे। उन्होंने वहाँ की दासियों से मंडन मिश्रा के घर का पता पूछा, जिन्होंने बताया कि उनका घर वह है जहाँ पिंजरों में तोते वेदों की प्रामाणिकता और कर्मों के फल जैसे दार्शनिक विषयों पर बहस कर रहे हैं।
शंकराचार्य का मंडन मिश्रा के घर में प्रवेश: शंकराचार्य मंडन मिश्रा के घर पहुँचे, जहाँ का दरवाज़ा बंद था। उन्होंने योगिक शक्तियों से घर के आँगन में प्रवेश किया और देखा कि मंडन मिश्रा यज्ञ कर रहे थे और अपने तपोबल से महर्षि व्यास और जैमिनी को आमंत्रित कर उनके चरणों की पूजा कर रहे थे।
मंडन मिश्रा और शंकराचार्य के बीच शुरुआती शाब्दिक टकराव: मंडन मिश्रा ने शंकराचार्य को एक सन्यासी के रूप में देखकर गुस्सा किया और उनसे शाब्दिक बहस की, जिसमें मुंडी (सन्यासी), पथ (मार्ग), सुरा (शराब) और कट्ठा (गधा ढोने वाला) जैसे शब्दों पर हास्यपूर्ण कटाक्ष और दार्शनिक दलीलें शामिल थीं।
व्यास और जैमिनी का हस्तक्षेप: व्यास मुनि ने मंडन मिश्रा को शांत किया और शंकराचार्य का सम्मान करने की सलाह दी, यह बताते हुए कि शंकराचार्य स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं।
बहस की शर्त: शंकराचार्य ने मंडन मिश्रा को बहस के लिए चुनौती दी, जिसमें शर्त यह थी कि जो हारेगा वह विजेता का शिष्य बन जाएगा और उसके दर्शन को स्वीकार कर लेगा।
न्यायाधीश का चुनाव: मंडन मिश्रा ने शंकराचार्य को न्यायाधीश चुनने की अनुमति दी, और शंकराचार्य ने मंडन मिश्रा की पत्नी, भारती को न्यायाधीश के रूप में चुना। भारती ने दोनों के गले में ताज़ी फूलों की माला डाली और घोषणा की कि जिसकी माला पहले मुरझा जाएगी, वह हारा हुआ माना जाएगा।
छह महीने की बहस: बहस छह महीने तक बिना रुके चली, जिसमें हजारों विद्वान हर दिन इकट्ठा होते थे। मंडन मिश्रा अपनी उम्र के बावजूद तीक्ष्ण बुद्धि और तर्क पर मज़बूत पकड़ रखते थे, लेकिन शंकराचार्य के अंतिम ब्रह्म के ज्ञान और माया की समझ ने उन्हें मंडन मिश्रा के तर्कों पर आसानी से जीत हासिल करने में सक्षम बनाया। मंडन मिश्रा अपनी कर्मकांडी विशेषज्ञता के बावजूद कुछ उच्च आध्यात्मिक सत्यों को समझने में चूक गए, जिनका शंकराचार्य को अनुभव था।
भारती का हस्तक्षेप और कामशास्त्र पर बहस:
भारती का चुनौती: छह महीने के अंत में, जब मंडन मिश्रा हार स्वीकार करने वाले थे, तो उनकी पत्नी भारती ने घोषणा की कि पति को हराने के लिए उसकी पत्नी को भी हराना ज़रूरी है, क्योंकि पत्नी पति का आधा अंग होती है।
भारती का प्रश्न: भारती ने शंकराचार्य को गृहस्थ जीवन और वैवाहिक संबंधों के व्यावहारिक ज्ञान से संबंधित कामशास्त्र पर बहस करने के लिए चुनौती दी। शंकराचार्य ने कबूल किया कि उन्हें इस क्षेत्र में कोई ज्ञान नहीं था क्योंकि वे एक ब्रह्मचारी थे।
शंकराचार्य का समय मांगना: भारती ने शंकराचार्य को इस विषय का अध्ययन करने के लिए एक महीने का समय दिया (कुछ स्रोतों में छह महीने का उल्लेख है)। शंकराचार्य ने यह प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लिया और अध्ययन के लिए प्रस्थान किया।
शंकराचार्य का परकाया प्रवेश: अपनी योगिक शक्तियों के माध्यम से, शंकराचार्य को एक राजा के बारे में पता चला जो मरने वाला था। उन्होंने अपने शिष्यों को अपने शरीर को सुरक्षित रखने का निर्देश दिया और अस्थायी रूप से मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश कर लिया।
राजा के रूप में शंकराचार्य: मृत राजा अमरुक, जिसमें शंकराचार्य ने प्रवेश किया था, जीवित हो उठा और एक बदला हुआ व्यक्ति प्रतीत हुआ। शंकराचार्य ने राजा की पत्नियों से वैवाहिक अनुभवों और कामशास्त्र के बारे में सब कुछ सीखा। मंत्रीगणों को राजा के चरित्र में आए बदलाव से संदेह हुआ और उन्होंने मृत शरीर को जलाने का आदेश दिया ताकि वह वापस न लौट सकें।
शंकराचार्य की वापसी: ज्ञान प्राप्त करने के बाद, शंकराचार्य अपने शरीर में लौट आए और भारती के साथ बहस फिर से शुरू करने के लिए वापस आ गए।
बहस का निष्कर्ष और उसके बाद की घटनाएँ:
शंकराचार्य की निर्णायक जीत: इस बार, शंकराचार्य कामशास्त्र पर भारती के तर्कों को हराने में स्पष्ट रूप से अजेय थे।
भारती और मंडन मिश्रा की हार: भारती और मंडन मिश्रा ने विनम्रतापूर्वक सिर झुकाए और अपनी हार स्वीकार कर ली।
मंडन मिश्रा का शंकराचार्य का शिष्य बनना: सहमत शर्त के अनुसार, मंडन मिश्रा शंकराचार्य के शिष्य बन गए और उन्होंने 'सुरेश्वराचार्य' का नाम ग्रहण किया। (हालांकि इस पहचान पर विद्वानों में मतभेद है)।
भारती का अपने धाम वापस जाना: भारती ने शंकराचार्य को बताया कि वह सरस्वती का अवतार हैं और उनका श्राप उनके विजय के साथ समाप्त हो गया है, और वह अब अपने धाम वापस जा रही हैं। शंकराचार्य ने उन्हें अपनी नवगंतुक मुद्रा द्वारा बांध लिया क्योंकि वे उन्हें भी हराना चाहते थे, लेकिन फिर उनकी प्रार्थना पर उन्हें अपने धाम जाने की अनुमति दी।
शंकराचार्य द्वारा मठों की स्थापना: अद्वैत वेदांत परंपरा के अनुसार, मंडन मिश्रा (सुरेश्वराचार्य के रूप में) हस्टमलका, पद्मपदा और तोटकाचार्य के साथ शंकराचार्य के चार मुख्य शिष्यों में से एक थे और श्रृंगेरी मठ के पहले प्रमुख बने, जो शंकराचार्य द्वारा बाद में स्थापित चार मठों में से एक है।
पात्रों का विवरण:
आदि शंकराचार्य (आठवीं शताब्दी ईस्वी): एक युवा और आकर्षक अद्वैत वेदांती जिन्होंने भारत को आध्यात्मिक रूप से फिर से जोड़ने के लिए देशव्यापी यात्रा की। उन्होंने मीमांसा दर्शन के सिद्धांतों पर बहस की और उन्हें पराजित किया, विशेष रूप से मंडन मिश्रा के साथ। उन्हें ब्रह्मचारी और ज्ञानी व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है, जिन्हें सर्वोच्च ब्रह्म का ज्ञान है। वे चार मठों के संस्थापक भी थे।
मंडन मिश्रा (आठवीं शताब्दी ईस्वी): एक हिंदू दार्शनिक, जो मीमांसा और अद्वैत विचार प्रणालियों पर लिखते थे। वे कर्म मीमांसा दर्शन के अनुयायी और भाषा के समग्र स्फोटा सिद्धांत के प्रबल समर्थक थे। वे कुमारिल भट्ट के शिष्य और आदि शंकराचार्य के समकालीन थे। उन्हें एक महान विद्वान और कर्मकांडी के रूप में वर्णित किया गया है, जो अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के लिए जाने जाते थे। बहस में हारने के बाद वे शंकराचार्य के शिष्य बन गए और सुरेश्वराचार्य का नाम ग्रहण किया, श्रृंगेरी मठ के पहले प्रमुख बने।
भारती / उभय भारती: मंडन मिश्रा की पत्नी, जो स्वयं एक महान और बुद्धिमान विद्वान थीं। उन्होंने शंकराचार्य और मंडन मिश्रा के बीच की बहस में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया। उन्होंने कामशास्त्र के व्यावहारिक ज्ञान से संबंधित विषयों पर शंकराचार्य को चुनौती दी और शुरुआती तौर पर उन्हें हराया। कुछ परंपराओं में उन्हें देवी सरस्वती का अवतार माना जाता है।
कुमारिल भट्ट: पूर्व मीमांसा दर्शन के एक महान विद्वान और मंडन मिश्रा के गुरु। वे वैदिक लोकाचार के खिलाफ बौद्ध धर्म के हमलों का मुकाबला करने के लिए जाने जाते थे। उन्होंने अपने गुरु को हराने के पापों के प्रायश्चित के लिए आत्मदाह किया और मरने से पहले शंकराचार्य को मंडन मिश्रा से मिलने का निर्देश दिया।
व्यास: एक महर्षि जो मंडन मिश्रा के यज्ञ में उपस्थित थे। उन्होंने मंडन मिश्रा को शंकराचार्य का सम्मान करने की सलाह दी और बाद में उनके बीच की बहस के न्यायाधीशों में से एक बने।
जैमिनी: एक महर्षि जो मंडन मिश्रा के यज्ञ में उपस्थित थे और व्यास के साथ बहस के न्यायाधीशों में से एक बने। उन्होंने मंडन मिश्रा के भ्रम को दूर करने और शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन को स्वीकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
राजा अमरुक: एक राजा जिसके मरने वाले शरीर में शंकराचार्य ने कामशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी योगिक शक्तियों के माध्यम से प्रवेश किया। उन्हें एक दुष्ट राजा के रूप में वर्णित किया गया है, लेकिन शंकराचार्य के शरीर में प्रवेश के बाद वे बदल गए और उनकी कायिक कुशलता से मंत्रियों को संदेह हुआ।
वाचस्पति मिश्रा (शंकराचार्य के बाद): मंडन मिश्रा के छात्र, जिन्हें शंकराचार्य का अवतार माना जाता है ताकि अद्वैत मत को लोकप्रिय बनाया जा सके। उन्होंने शंकराचार्य के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर भामाती नामक एक टिप्पणी और मंडन मिश्रा के ब्रह्मसिद्धि पर ब्रह्मत्व-समिक्षा नामक एक टिप्पणी लिखी।
सनंदन (पद्मपदा): शंकराचार्य के एक शिष्य। जब शंकराचार्य ने राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश करने का निर्णय लिया, तो उन्होंने सनंदन को अपने शरीर की रक्षा करने का निर्देश दिया। पद्मपदा शंकराचार्य के चार मुख्य शिष्यों में से एक थे।
हस्टमलका और तोटकाचार्य: अद्वैत वेदांत परंपरा के अनुसार शंकराचार्य के अन्य दो मुख्य शिष्य, जो मंडन मिश्रा और पद्मपदा के साथ थे।
प्रमुख शब्दों का शब्दावली
अद्वैत वेदांत: हिंदू दर्शन का एक स्कूल, जो ब्रह्म और आत्मा (आत्मा) के गैर-द्वैतवादी स्वरूप पर जोर देता है। आदि शंकराचार्य इसके प्रमुख प्रतिपादक थे।
अविद्या: आध्यात्मिक अज्ञान, भ्रम या अज्ञानता। अद्वैत वेदांत में, इसे वह शक्ति माना जाता है जो द्वैत और संसारी दुनिया की उपस्थिति पैदा करती है।
अनिर्वचनीयत्व: अनिर्वचनीयता की अवधारणा, विशेष रूप से माया-अविद्या के संदर्भ में, जिसे न तो पूरी तरह से अस्तित्व में माना जा सकता है और न ही गैर-अस्तित्व में, और न ही ब्रह्म से समान या भिन्न। मंडन मिश्र द्वारा प्रस्तुत।
अर्धांगिनी: संस्कृत शब्द का अर्थ है "पति के शरीर का आधा हिस्सा", जो हिंदू परंपरा में पत्नी की अभिन्न भूमिका को दर्शाता है।
आत्म-साक्षात्कार: आध्यात्मिक ज्ञान और ब्रह्म के साथ अपनी सच्ची पहचान का बोध प्राप्त करना, अद्वैत वेदांत में मुक्ति का अंतिम लक्ष्य।
इस्माम्बा: एक स्थान जिसका उल्लेख मंडन मिश्र के निवास स्थान के रूप में किया गया है।
कर्मकांड: वेदों का वह भाग जो अनुष्ठानों, समारोहों और धार्मिक कृत्यों से संबंधित है, जिसका पालन मीमांसा स्कूल द्वारा किया जाता है।
कर्म मीमांसा: हिंदू दर्शन का एक स्कूल जो वेदों के कर्मकांड भाग पर केंद्रित है और अनुष्ठानों और धार्मिक कर्तव्यों के पालन के महत्व पर जोर देता है।
कुमारिल भट्ट: 8वीं शताब्दी के मीमांसा दार्शनिक, मंडन मिश्र के शिक्षक और शंकराचार्य के समकालीन।
गुरु-द्रोह: अपने गुरु को चुनौती देने या उसे हराने का पाप, कुमारिल भट्ट द्वारा एक गंभीर अधर्म माना जाता है।
जिव (जीव): व्यक्तिगत आत्मा या चेतना।
पद्मपाद: आदि शंकराचार्य के चार मुख्य शिष्यों में से एक।
ब्रह्म: हिंदू दर्शन में अंतिम वास्तविकता, सर्वोच्च ब्रह्मांडीय भावना, जो सब कुछ में व्याप्त है।
ब्रह्म-सिद्धि: मंडन मिश्र द्वारा लिखित अद्वैत वेदांत पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ, जिसमें अनिर्वचनीयत्व और निरुपाख्य की अवधारणाओं का परिचय दिया गया है।
भामती स्कूल: अद्वैत वेदांत के भीतर एक उप-स्कूल जो मंडन मिश्र के दार्शनिक विचारों का अनुसरण करता है, विशेष रूप से अविद्या के केंद्र के संबंध में।
महावाक्य: "महान कथन" या "महान वाक्य" जो उपनिषदों में पाए जाते हैं, जैसे "तत्वमसि" (वह तुम हो), जो व्यक्ति और ब्रह्म की एकता को व्यक्त करते हैं।
माया: ब्रह्मांड का भ्रम या प्रकट स्वरूप, अद्वैत वेदांत में अविद्या का एक पहलू माना जाता है।
मीमांसा: हिंदू दर्शन के छह रूढ़िवादी स्कूलों में से एक, जो वेदों के कर्मकांड भाग पर केंद्रित है।
योगिक शक्तियाँ: योगिक अभ्यास के माध्यम से प्राप्त अलौकिक क्षमताएँ।
वाचस्पति मिश्र: मंडन मिश्र के छात्र, जिन्होंने शंकराचार्य के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर भामती नामक टिप्पणी लिखी, शंकराचार्य और मंडन मिश्र के विचारों को सामंजस्य स्थापित किया।
विवरण स्कूल: अद्वैत वेदांत के भीतर एक उप-स्कूल जो शंकराचार्य के दार्शनिक विचारों का पालन करता है, विशेष रूप से अविद्या के केंद्र के संबंध में।
वेदांत: हिंदू दर्शन के छह रूढ़िवादी स्कूलों में से एक, जो वेदों के ज्ञान खंड, उपनिषदों पर केंद्रित है।
शंकराचार्य (आदि शंकराचार्य): 8वीं शताब्दी के महान भारतीय दार्शनिक और अद्वैत वेदांत स्कूल के संस्थापक।
श्रींगेरी मठ: आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख मठों में से एक, जिसमें मंडन मिश्र (सुरेंद्र के रूप में) पहले प्रमुख माने जाते हैं।
स्फोटा: भाषा का एक समग्र सिद्धांत, जिसका अर्थ है कि एक शब्द या वाक्य का अर्थ उसकी व्यक्तिगत ध्वनियों या शब्दों से नहीं, बल्कि एक समग्र, अविभाज्य इकाई से उत्पन्न होता है। मंडन मिश्र इसके प्रबल समर्थक थे।
सुरेंद्र (सुरेश्वराचार्य): एक विद्वान जिसे कुछ परंपराओं में मंडन मिश्र के रूप में पहचाना जाता है, जो शंकराचार्य के शिष्य बनने के बाद उनका नया नाम बन गया।
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