इन अंशों में जीवन, मृत्यु, सत्य, ध्यान, अहंकार, प्रेम, समाज और धर्म जैसे गहन विषयों पर उनके विचार प्रस्तुत किए गए हैं।
मुख्य विषय और विचार:
1. मृत्यु का भय और जीवन का ज्ञान: ओशो के अनुसार, मृत्यु का भय उन समाजों में अधिक होता है, जो आत्मा की अमरता के बारे में सबसे अधिक बात करते हैं। यह एक विरोधाभास है। "इस देश में हमारी आत्मा की अमरता के बारे में अथक बातें होती हैं, और फिर भी क्या हम से ज्यादा कोई मृत्यु से डरता है? हमसे ज्यादा मृत्यु से कोई नहीं डरता!" वह बताते हैं कि मृत्यु का डर केवल जीवन से अपरिचित होने का प्रतीक है। "मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है, जीवन से अपरिचितता।" जीवन हर पल हमारे भीतर प्रवाहित हो रहा है, लेकिन हम उसे जानते नहीं हैं।
2. ध्यान और समाधि: जीवन को जानने का मार्ग: ध्यान को ओशो एक "होने की अवस्था" के रूप में परिभाषित करते हैं, न कि कोई क्रिया। "ध्यान कोई तकनीक नहीं है जो आपके मन में शांति लाए; बल्कि, यह मन से दूर जाने की तकनीक है।" यह मन की तरंगों से दूर हटने का एक साधन है। समाधि को "अस्तित्व के आनंद का अनुभव" के रूप में वर्णित किया गया है। यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति स्वयं में दृढ़ता से स्थापित हो जाता है। समाधि में, व्यक्ति ब्रह्मांड के साथ एक हो जाता है।
3. अहंकार और मुक्ति: अहंकार को ओशो व्यक्ति के "होने और जो वह बनना चाहता है" के बीच के तनाव के रूप में देखते हैं। "अहंकार इस तनाव से ही पैदा होता है।" अहंकार का अंत तब होता है जब व्यक्ति स्वयं को स्वीकार करता है। "अहंकार तब मर जाता है जब आप स्वीकार करते हैं कि आप क्या हैं।" अहंकार अतीत और भविष्य पर आधारित होता है और वर्तमान में मौजूद नहीं होता। "वर्तमान में आने पर अहंकार अलविदा कह देता है। वर्तमान में आना अहंकार की मृत्यु है।"
4. प्रेम और संबंध: ओशो के अनुसार, प्रेम एक स्वाभाविक और आंतरिक गुण है जिसे उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे अनावृत करने की आवश्यकता है। "प्रेम मनुष्य के भीतर बंद है; उसे केवल मुक्त करने की आवश्यकता है।" प्रेम दूसरों से प्राप्त होने वाली चीज़ नहीं है, बल्कि यह भीतर से प्रवाहित होती है। "प्रेम केवल आनंद की ऊंचाइयों से बहता है।" सच्चा प्रेम अपेक्षाओं से रहित होता है। ईर्ष्या को प्रेम का नकारात्मक पहलू माना गया है, जो अधिकार की भावना से उत्पन्न होती है।
5. समाज, धर्म और शिक्षा का विरोधाभास: ओशो समाज और पारंपरिक धर्मों की आलोचना करते हैं, जो व्यक्ति को गुलाम बनाते हैं। "मनुष्य गुलाम है - किसका गुलाम? वह अपनी मूर्खताओं, अपनी उदासी, अपनी अज्ञानता और अपनी असंवेदनशीलता का गुलाम है।" वे कहते हैं कि सबसे दुर्भाग्यशाली गुलाम वह है जो यह नहीं जानता कि वह गुलाम है। पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को भी आलोचना का पात्र बनाया गया है, क्योंकि यह व्यक्ति को स्वतंत्र और स्वस्थ बनाने के बजाय गुलामी को पोषित करती है। "शिक्षा निश्चित रूप से ऐसी नींव रख सकती है जो मनुष्य को स्वतंत्र बना सके।"
6. ज्ञान और अज्ञान: ज्ञान को ओशो एक आंतरिक अनुभव मानते हैं, जिसे बाहर से प्राप्त नहीं किया जा सकता। "सत्य अपने भीतर है। इसे न तो अध्ययन करना है, न सीखना है, न मांगना है - इसे अपने भीतर से खोद कर निकालना है।" बाहरी ज्ञान केवल भ्रम पैदा करता है। "ज्ञान का भ्रम स्वयं अज्ञान से भी अधिक खतरनाक साबित हुआ है।" सत्य को जानने के लिए, सभी पूर्वग्रहों और अवधारणाओं को छोड़ना होगा।
7. शरीर, मन और चेतना: ओशो शरीर, मन और चेतना के बीच के भेद को स्पष्ट करते हैं। शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा अमर है। मन विचारों का एक समूह है, और चेतना मन से परे है। "मन मन-द्वंद्व का माध्यम है, इसलिए चेतना कभी भी द्वंद्व को पार नहीं कर सकती।" समाधि की स्थिति में, मन के सभी द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं।
8. कुंडलिनी और ऊर्जा: कुंडलिनी को सात चक्रों को जोड़ने वाले एक मार्ग के रूप में वर्णित किया गया है। यह ऊर्जा शरीर में बिजली पैदा करती है, जो व्यक्ति को भीतर गहराई तक जाने में मदद करती है। कुंडलिनी के जागरण से शरीर में कंपन और ऊर्जा का उदय होता है। ध्यान के माध्यम से इस ऊर्जा को ऊपर की ओर ले जाया जा सकता है, जिससे कामुकता से मुक्ति मिलती है।
9. गुरु और परंपरा: ओशो का मानना है कि सच्चा गुरु वह है जो शिष्य को आत्म-निर्भर बनने में मदद करता है, न कि उसे बैसाखियों पर निर्भर रखता है। "एक सच्चा गुरु शिष्य का हाथ झटक देगा और उसे दृढ़ता से कहेगा कि वह अपने पैरों पर चले।" वे स्वयं किसी भी परंपरा से प्रभावित होने से इनकार करते हैं, क्योंकि उनके अनुभव स्वयं उनके सत्य के प्रमाण हैं।
10. अस्तित्व की समग्रता: अस्तित्व को ओशो एक अखंड इकाई के रूप में देखते हैं, जहाँ सब कुछ जुड़ा हुआ है। "कोई भी अकेला द्वीप नहीं है, कोई भी अलग नहीं है। प्रत्येक पूरे से जुड़ा है, और प्रत्येक हर समय दूसरे को प्रभावित कर रहा है और दूसरे से प्रभावित हो रहा है।" वह कहते हैं कि हर चीज़ में दोहरा आयाम होता है - अस्तित्व और गैर-अस्तित्व, प्रकाश और अंधकार।
संक्षेप में, ओशो इन प्रवचनों में व्यक्ति को स्वयं को जानने, अहंकार से मुक्त होने, प्रेम को अनुभव करने और अस्तित्व की समग्रता में लीन होने का आह्वान करते हैं। यह यात्रा बाहरी नियमों या मान्यताओं का पालन करने की नहीं, बल्कि आंतरिक जागरण और स्वयं के सत्य की खोज की है।
प्रश्न 1: जागरूकता या साक्षी भाव का क्या महत्व है, और यह मन और इच्छाओं से कैसे संबंधित है?
जागरूकता, जिसे साक्षी भाव भी कहा जाता है, आध्यात्मिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। मन के कार्यों, विचारों, भावनाओं और अनुभवों को बिना किसी जुड़ाव या निर्णय के देखना इसमें शामिल है। इस स्थिति में, व्यक्ति को यह एहसास होता है कि वह मन या शरीर नहीं है, बल्कि एक अलग पर्यवेक्षक है। जैसे-जैसे साक्षी भाव विकसित होता है, व्यक्ति अपने आंतरिक और बाहरी अनुभवों के प्रति अधिक जागरूक हो जाता है, जिससे बाहरी प्रभावों द्वारा हेरफेर होने की संभावना कम हो जाती है।
यह मन के साथ संघर्ष से बचने में मदद करता है। मन से लड़ने की कोशिश करने वाले लोग अक्सर असफल होते हैं क्योंकि मन लगातार नए विचारों का निर्माण करता है। विचारों को दबाने के बजाय, जागरूकता व्यक्ति को उनके जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया को समझने में सक्षम बनाती है। विचारों को बस देखा जाता है, और जब कोई उन पर ध्यान नहीं देता है या उनमें निवेश नहीं करता है, तो वे स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाते हैं। यह मन को शांत करने और आंतरिक शांति की स्थिति प्राप्त करने का मार्ग है।
साक्षी भाव इच्छाओं को समाप्त करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। मन अक्सर बाहरी वस्तुओं या अनुभवों पर केंद्रित होता है, जिससे इच्छाएं पैदा होती हैं। जब जागरूकता बढ़ती है, तो व्यक्ति यह देखना शुरू कर देता है कि इच्छाओं की पूर्ति अल्पकालिक होती है और अंततः अधिक इच्छाओं और असंतोष की ओर ले जाती है। इच्छाएं अपने आप खत्म हो जाती हैं, जिससे व्यक्ति को वास्तविक संतुष्टि और आंतरिक आनंद की स्थिति प्राप्त होती है, जो किसी भी चीज़ पर निर्भर नहीं करता है।
प्रश्न 2: आत्मज्ञान और ईश्वर के संबंध में "मैं" या अहंकार का क्या अर्थ है?
"मैं" या अहंकार आध्यात्मिक मार्ग पर एक महत्वपूर्ण बाधा है। जब तक कोई व्यक्ति अपने अहंकार से जुड़ा रहता है, वह यह महसूस नहीं कर सकता कि "जो है" वह एक अविभाज्य और अविभाज्य संपूर्ण है। अहंकार स्वयं को दूसरों से अलग मानता है, जिससे तुलना, प्रतिस्पर्धा और दूसरों पर हावी होने की इच्छा होती है। अहंकार के विघटन से ही स्वयं की सच्ची पहचान और ईश्वर से एकता का अनुभव होता है।
ईश्वर कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे इच्छा के रूप में मांगा जा सके, और न ही यह कुछ ऐसा है जिसे तार्किक रूप से समझा जा सके या शब्दों में व्यक्त किया जा सके। ईश्वर एक अनुभव है जो अहंकार के पूर्ण विघटन के बाद ही प्राप्त होता है। जब "मैं" चला जाता है, तब केवल "होना" या शुद्ध अस्तित्व की स्थिति शेष रहती है। इस स्थिति में, व्यक्ति को पता चलता है कि वह पहले से ही ईश्वर है, कि वह पूरी सृष्टि के साथ एक है।
ज्ञान और ज्ञान अक्सर अहंकार को मजबूत करते हैं। वे व्यक्ति को यह विश्वास दिलाते हैं कि वह जानता है, जबकि सच्चा ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब व्यक्ति अपनी अज्ञानता को स्वीकार करता है। ईश्वर को जानने के लिए स्वयं को जानने की आवश्यकता होती है, और यह ज्ञान प्राप्त ज्ञान या दूसरों पर निर्भरता के माध्यम से नहीं आता है। यह एक आंतरिक यात्रा है जहां व्यक्ति अपने आप को, अपनी मान्यताओं और अपने अनुभवों को चुनौती देता है, अंततः अहंकार के उन सभी परतों को दूर करता है जो सच्चे स्वयं को छिपाते हैं।
प्रश्न 3: ध्यान को एक गतिविधि के बजाय "होने की स्थिति" के रूप में क्यों वर्णित किया जाता है?
ध्यान को अक्सर "होने की स्थिति" के रूप में वर्णित किया जाता है, न कि केवल एक गतिविधि के रूप में। इसका मतलब यह है कि ध्यान कुछ ऐसा नहीं है जिसे "किया" जाए, बल्कि यह चेतना की एक ऐसी अवस्था है जिसे प्राप्त किया जाए। जबकि ध्यान तकनीकों में सक्रिय कार्य शामिल हो सकते हैं, उनका अंतिम लक्ष्य व्यक्ति को ऐसी स्थिति में लाना है जहां वह बस "हो" - बिना किसी विचार, इच्छा या बाहरी जुड़ाव के।
यह अवधारणा इस बात पर जोर देती है कि ध्यान का सार निष्क्रिय अवलोकन में निहित है। जब मन पूरी तरह से शांत हो जाता है और विचार अनुपस्थित हो जाते हैं, तो व्यक्ति आंतरिक शून्य का अनुभव करता है। यही शून्य दिव्य आनंद और आत्मज्ञान का प्रवेश द्वार है। इसमें शारीरिक या मानसिक गतिविधियों को रोकना शामिल नहीं है, बल्कि उन्हें बिना किसी निर्णय या जुड़ाव के बहने देना है।
उदाहरण के लिए, गहरी साँस लेने के अभ्यास या "मैं कौन हूँ?" जैसे प्रश्न पूछने से मन को इस आंतरिक स्थान तक पहुँचने में मदद मिलती है। इन तकनीकों का उद्देश्य चेतना को बाहरी विचलनों से दूर करना और आंतरिक रूप से केंद्रित करना है। जब ध्यान की अवस्था प्राप्त हो जाती है, तो व्यक्ति शरीर और मन से अपनी पहचान तोड़ता है, अपने सच्चे स्वभाव का अनुभव करता है जो शुद्ध चेतना और अस्तित्व है।
प्रश्न 4: प्रेम का क्या अर्थ है, और यह आध्यात्मिक विकास से कैसे संबंधित है?
प्रेम को एक स्व-विघटनकारी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है। सच्चा प्रेम अहं को भंग करने और स्वयं को अस्तित्व के साथ पूरी तरह से विलीन करने के बारे में है। स्रोत इस बात पर जोर देते हैं कि प्रेम कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसकी मांग की जा सके या जिसे बाहरी रूप से प्राप्त किया जा सके, बल्कि यह एक आंतरिक स्थिति है जो केवल तभी उत्पन्न होती है जब व्यक्ति दूसरों से प्रेम की आवश्यकता को पार कर लेता है।
प्रेम को एक बेतरतीब, शर्त रहित और निस्वार्थ शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। यह "क्योंकि" या "इसलिए" के तारों से नहीं जुड़ा है, और यह प्रतिफल की मांग नहीं करता है। जब प्रेम अस्तित्व की गहराई से उत्पन्न होता है, तो यह सब कुछ शामिल करता है और कोई सीमा नहीं जानता है। ऐसा प्रेम मुक्ति का मार्ग है, क्योंकि यह व्यक्ति को भौतिक दुनिया के सभी बंधनों और इच्छाओं से मुक्त करता है।
इसके विपरीत, जहां प्रेम के नाम पर स्वार्थ या मांगें शामिल होती हैं, वह सच्चा प्रेम नहीं होता है। ऐसा प्रेम एक बंधन बन जाता है, जिससे निराशा और मोहभंग होता है। आध्यात्मिक विकास के लिए, व्यक्ति को प्रेम को इसकी समग्रता में स्वीकार करना चाहिए, इसकी पवित्रता को पहचानना चाहिए और इसे बिना किसी प्रतिबंध के बहने देना चाहिए। ऐसा करने से, व्यक्ति अपनी उच्चतम दिव्यता प्राप्त कर सकता है और अस्तित्व के साथ गहरा संबंध अनुभव कर सकता है।
प्रश्न 5: मृत्यु और पुनर्जन्म का वास्तविक अर्थ क्या है, और वे जीवन और अमरता से कैसे संबंधित हैं?
मृत्यु को जीवन का अंत नहीं, बल्कि जीवन की एक प्राकृतिक निरंतरता और अस्तित्व के द्वैत का एक पहलू माना जाता है। जन्म के क्षण से ही मृत्यु की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक क्षण मृत्यु की ओर एक कदम है। मृत्यु केवल एक शरीर से दूसरे शरीर में परिवर्तन है, और आत्मा अमर है। जो व्यक्ति स्वयं को शरीर से पहचानता है, वह मृत्यु से भयभीत होता है, क्योंकि वह शरीर के अंत को अपने अंत के रूप में देखता है।
जो व्यक्ति मृत्यु के वास्तविक अर्थ को जानता है, वह उससे भयभीत नहीं होता। उसके लिए, मृत्यु एक "मिलन" है, ईश्वर के साथ एक पुनर्मिलन है, और यह जीवन के अंतिम पूर्णता का प्रतिनिधित्व करती है। मृत्यु की इस गहरी समझ से व्यक्ति जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसे पता चलता है कि वह अमर आत्मा है।
पुनर्जन्म तब होता है जब व्यक्ति की इच्छाएँ अभी भी अधूरी रहती हैं। यदि जीवन में मुक्ति नहीं पाई जाती है, तो व्यक्ति मृत्यु के बाद उसी अवस्था में पुनर्जन्म लेता है, क्योंकि मृत्यु स्वयं कोई परिवर्तन या विकास नहीं लाती है। केवल वे ही जो जीवित रहते हुए ही मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, यानी जो अपनी इच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं और अपने सच्चे स्वभाव को जान लेते हैं, वे ही पुनर्जन्म के चक्र से बाहर निकलते हैं। मृत्यु को पूरी तरह से स्वीकार करना और समझना ही अमरता के वास्तविक अनुभव की ओर ले जाता है।
प्रश्न 6: शास्त्रों और गुरुओं की भूमिका के संबंध में सत्य कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
सत्य को किसी भी बाहरी स्रोत से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, न तो शास्त्रों से और न ही गुरुओं के शब्दों से। शास्त्र केवल जानकारी प्रदान कर सकते हैं, लेकिन सच्चा ज्ञान अनुभव से आता है। जानकारी केवल एक विद्वान बना सकती है, बुद्धिमान नहीं। इसी तरह, गुरु केवल मार्ग दिखा सकते हैं; व्यक्तिगत यात्रा को स्वयं ही तय करना पड़ता है।
यह इस बात पर जोर देता है कि सत्य एक आंतरिक अनुभव है। यह शब्दों या अवधारणाओं से परे है, और इसे केवल तभी जाना जा सकता है जब मन सभी पूर्वकल्पित विचारों और विश्वासों से खाली हो। जो लोग दूसरों के ज्ञान को अपना मानते हैं, वे अपनी स्वयं की जिज्ञासा और खोज की क्षमता को दबा देते हैं। संदेह सत्य की तलाश का शुरुआती बिंदु है, और वास्तविक विश्वास तभी प्राप्त होता है जब व्यक्ति अपने स्वयं के अनुभव से सत्य को जानता है।
एक सच्चे गुरु की भूमिका व्यक्ति को बाहरी दुनिया से अपने भीतर की ओर मुड़ने में मदद करना है, ताकि वह अपने स्वयं के भीतर के सत्य को खोज सके। इसका अर्थ यह भी है कि गुरु व्यक्ति को इस भ्रम से मुक्त करने में मदद करता है कि वह स्वयं "करता" है। बल्कि, सब कुछ "होता है", और यह जागरूकता कि व्यक्ति केवल एक साक्षी है, ही सत्य का द्वार खोलती है।
प्रश्न 7: समाज, शिक्षा और मनुष्य के स्वभाव पर क्या विचार व्यक्त किए गए हैं?
समाज और शिक्षा को मनुष्य की समस्याओं के लिए काफी हद तक जिम्मेदार ठहराया जाता है, खासकर अहंकार को बढ़ावा देने और प्राकृतिक मानवीय आवेगों को दबाने के लिए। पारंपरिक शिक्षा केवल मस्तिष्क के विकास पर केंद्रित होती है, जिससे आंतरिक जड़ों से अलगाव होता है और बाहरी दुनिया में अधिक उलझाव होता है। यह प्रतिस्पर्धा, भय और लालच को भी बढ़ावा देता है, जिससे व्यक्ति लगातार दौड़ में रहता है और अपने भीतर के सार से कट जाता है।
नैतिकता और धर्म अक्सर पाखंड को बढ़ावा देते हैं, जहां लोग बाहर से एक तरह का व्यवहार करते हैं लेकिन अंदर से विपरीत विचार और इच्छाएं रखते हैं। इस आंतरिक संघर्ष से मानसिक विकार और असंतोष होता है। समाज लोगों को "अच्छे" या "बुरे" के रूप में निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित करता है, जो उन्हें उनकी पूरी क्षमता से जीने से रोकता है।
स्रोत एक ऐसे नए मनुष्य के जन्म का सुझाव देते हैं जो इस सामाजिक कंडीशनिंग से मुक्त है। ऐसा व्यक्ति अहंकार से मुक्त, स्वाभाविक रूप से प्यार करने वाला, और स्वयं और अस्तित्व के साथ सद्भाव में होगा। यह पारंपरिक शिक्षा प्रणालियों को चुनौती देने और एक ऐसी प्रणाली बनाने का आह्वान है जो भीतर के विकास, जागरूकता और सभी चीजों की एकता की मान्यता पर केंद्रित हो।
प्रश्न 8: कुंडलिनी ऊर्जा और शरीर के सूक्ष्म चक्रों के बारे में क्या बताया गया है?
कुंडलिनी ऊर्जा को मानव शरीर के भीतर सुप्त अनंत ऊर्जा के रूप में वर्णित किया गया है, जो एक फूल की कली के समान बंद चक्रों में स्थित है। जब ये चक्र जागृत होते हैं, तो यह जीवन के नए आयामों को खोलता है और व्यक्ति को अपनी पूरी क्षमता का अनुभव करने की अनुमति देता है। यह ऊर्जा शरीर और मन को विद्युतीकृत कर सकती है, जिससे अद्वितीय अनुभव और आध्यात्मिक विकास होता है।
विभिन्न ध्यान अभ्यास, जैसे गहरी सांस लेना और "मैं कौन हूँ?" जैसे प्रश्न पूछना, इन चक्रों को सक्रिय करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन तकनीकों का उद्देश्य मानसिक बाधाओं और दमन को दूर करना है जो कुंडलिनी ऊर्जा के ऊपर की ओर प्रवाह को रोकते हैं। जब यह ऊर्जा बिना किसी बाधा के प्रवाहित होती है, तो यह व्यक्ति को शरीर से अलग होने और अपनी सच्ची, ऊर्जावान प्रकृति का अनुभव करने की अनुमति देती है।
यह अवधारणा इस बात पर जोर देती है कि मन के सभी केंद्र, न केवल मस्तिष्क बल्कि हृदय के भी, विकास और जागरण की क्षमता रखते हैं। पारंपरिक शिक्षा अक्सर केवल मस्तिष्क पर केंद्रित होती है, जिससे भावनात्मक और आध्यात्मिक केंद्रों का विकास नहीं होता है। कुंडलिनी ऊर्जा का जागरण इन सभी केंद्रों के सामंजस्यपूर्ण विकास की ओर ले जाता है, जिससे व्यक्ति पूरी तरह से और एकीकृत रूप से जीने में सक्षम होता है।
मुख्य अवधारणाएँ और दार्शनिक अंतर्दृष्टि
मृत्यु की समझ: मृत्यु को समझने की अनिवार्यता। यह एक ऐसा अनुभव है जिसे केवल 'मरते समय' ही देखा जा सकता है, लेकिन उस समय चेतना नहीं होती। स्वेच्छा से मृत्यु के प्रयोग में प्रवेश करने का विचार।
गुरू और आध्यात्मिक हिंसा: गुरूओं द्वारा की जाने वाली आध्यात्मिक हिंसा की आलोचना, जहां वे शिष्यों पर अपने विचार और जीवन शैली थोपते हैं। सच्चा आध्यात्मिक मार्ग आंतरिक स्वतंत्रता पर आधारित है, न कि बाहरी नियंत्रण पर।
ध्यान और गतिहीनता: ध्यान में शरीर की गतिहीनता प्राप्त करने की चुनौती। मन की बेचैनी, तनाव और उत्तेजना शरीर को स्थिर रहने नहीं देती। गहन ध्यान के लिए मानसिक शांति और शारीरिक शिथिलता आवश्यक है।
अंधविश्वास और धैर्य: तत्काल उत्तर खोजने की हड़बड़ी के कारण अंधविश्वास का उदय। सत्य की खोज के लिए अत्यधिक धैर्य की आवश्यकता है, जहां खोज स्वयं उपलब्धि से अधिक महत्वपूर्ण है।
हिंसा और मृत्यु से पलायन: हिंसा को मृत्यु से बचने का एक रूप बताया गया है। जो व्यक्ति मृत्यु को जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है, वही अहिंसक हो सकता है।
चेतना और ध्यान: चेतना और अचेतना को ध्यान की विभिन्न घनत्व के रूप में परिभाषित किया गया है। गहरा और तीव्र ध्यान चेतना की उच्च अवस्था की ओर ले जाता है।
सत्य की खोज और बाहरी बंधन: सत्य की खोज के लिए सभी बाहरी दीवारों, शास्त्रों और हठधर्मिता से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि ये सत्य की प्राप्ति में बाधा डालते हैं।
स्वयं का ज्ञान: स्वयं को जानना सत्य की खोज में पहला, बिना शर्त कदम है। जो स्वयं को नहीं जानता, वह और कुछ भी नहीं जान सकता।
छद्म-ज्ञान का त्याग: सत्य की खोज शुरू करने के लिए सभी उधार लिए गए या खेती किए गए ज्ञान को त्यागना महत्वपूर्ण है। सच्चा ज्ञान भीतर से उत्पन्न होता है और किसी बाहरी स्रोत से नहीं आता।
शब्दों की सीमा और मौन: सत्य को शब्दों से संप्रेषित नहीं किया जा सकता। मन को खाली करना और 'शब्द-रहित' स्थिति में आना ही ध्यान है, जहां सत्य स्वयं प्रकट होता है।
गुरू और अनुभव: सच्चे गुरू के पास अनुभव होता है, शब्द नहीं। अनुभव आंतरिक होता है और संदेह से परे होता है।
भीड़ और सत्य: सत्य भीड़ में नहीं पाया जा सकता। ईश्वर का द्वार पूर्ण एकांत में खुलता है।
संवाद और मौन: सत्य को शब्दों से नहीं बताया जा सकता, बल्कि इसे 'होना' अधिक आवश्यक है। कबीर और शेख फरीद का मौन संवाद इसका उदाहरण है।
विचारों का बोझ: विचारों की भीड़ मन को अस्वस्थ और सत्य से विच्छेदित करती है। विचारों से मुक्ति के लिए उन्हें 'झूठा ज्ञान' समझना आवश्यक है।
साक्षी भाव: ध्यान का अभ्यास 'साक्षी भाव' या दर्शक अवस्था विकसित करने पर आधारित है, जहाँ व्यक्ति अपने आस-पास और भीतर होने वाली हर चीज़ का केवल अवलोकन करता है।
जीवन एक सपना: जीवन को एक सपने के रूप में वर्णित किया गया है, और इसमें एक साक्षी की तरह रहना महत्वपूर्ण है। साक्षी अवस्था में जीवन स्वयं एक तीर्थ बन जाता है।
सत्य की यात्रा और आत्म-प्रयास: सत्य तक पहुँचने के लिए स्वयं यात्रा करनी पड़ती है; कोई भी इसके लिए प्रॉक्सी नहीं हो सकता। कोई चिह्नित सड़कें नहीं हैं, व्यक्ति को अपनी राह स्वयं बनानी होती है।
दमन की आलोचना: दमन (जैसे धन या काम का) अहंकार को दोगुना करता है और पाखंड पैदा करता है। सच्चा वैराग्य भीतर की बुराई को दबाने के बजाय अच्छाई को जागृत करने से आता है।
प्रकाश और अंधकार: क्रोध, लोभ, काम जैसे 'बुराइयों' को अंधकार के रूप में देखा जाता है। अंधकार से लड़ना नहीं, बल्कि ज्ञान के दीपक जलाना आवश्यक है।
सत्य की निजी यात्रा: कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के लिए सत्य प्राप्त नहीं कर सकता। यह एक व्यक्तिगत यात्रा है जिसे प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं तय करना होता है।
आस्था और संदेह: सत्य जानने के लिए आस्था से बंधे होने से इंकार करना, बल्कि स्वयं के अनुभव के माध्यम से सत्य को खोजना।
समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं: एक सवाल का जवाब मिलने से दूसरा सवाल पैदा होता है, जिससे मन में 'खुजली' बनी रहती है। सवालों से चिपके रहने से जवाब नहीं मिलते।
ईश्वर की प्रकृति: ईश्वर को 'है भी और नहीं भी' के रूप में वर्णित किया गया है, जो विरोधाभासों को समाहित करता है और आस्तिक या नास्तिक दोनों के लिए अप्राप्य है।
वर्तमान में जीना: दुख और चिंता अतीत या भविष्य से उत्पन्न होती है; वर्तमान में कोई दुख नहीं है। मन की मृत्यु ही ईश्वर का अनुभव है।
सन्यास का प्रयोग: सन्यास एक अनुभव है जिसे प्रयोग करके ही जाना जा सकता है। यह मन की बाधाओं को दूर करने और भीतर की कंपन को जागृत करने से आता है।
अहंकार और स्वयं का ज्ञान: अहंकार ही हमें सत्य जानने से रोकता है। स्वयं को जानना अहंकार से मुक्ति है, जहां व्यक्ति स्वयं को 'मैं' के बजाय 'पूरा' अनुभव करता है।
ज्ञान का भ्रम: किताबों से प्राप्त ज्ञान केवल जानने का भ्रम पैदा करता है, जो अज्ञान से भी अधिक खतरनाक है। सच्चा ज्ञान भीतर से उत्पन्न होता है।
चेतना और अचेतना: चेतना और अचेतना को ध्यान की विभिन्न घनत्व के रूप में वर्णित किया गया है। ध्यान की गहराई चेतना की तीक्ष्णता से निर्धारित होती है।
मृत्यु का अनुभव: व्यक्ति अपनी मृत्यु का अनुभव नहीं कर पाता क्योंकि मरते समय मन अचेत हो जाता है। दूसरों की मृत्यु को देखकर हम केवल शरीर के तंत्र की विफलता को जानते हैं, भीतर छिपी सत्ता को नहीं।
पूर्व जन्मों की स्मृति: यदि व्यक्ति अपने पूर्व जन्मों को याद कर सके, तो बहुत समय और ऊर्जा बच जाएगी, क्योंकि हर जन्म में 'एबीसी' से शुरू करने की आवश्यकता नहीं होगी।
सत्य का प्रकटीकरण: सत्य के प्रकटीकरण में तीन चीजें शामिल हैं: सत्य का अनुभव, अभिव्यक्ति, और श्रोता की उपस्थिति।
शरीर और इंद्रियां: हमारी इंद्रियां केवल रूप और आकार को समझ सकती हैं; वे नाम और रूप से परे को नहीं समझ सकतीं।
ईश्वर एक ऊर्जा: ईश्वर एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक ऊर्जा है। इसलिए, प्रार्थना और पूजा का कोई अर्थ नहीं है; आध्यात्मिक अभ्यास का अर्थ है स्वयं को रूपांतरित करना।
शक्तिपात और अहंकार: शक्तिपात एक प्राकृतिक घटना है जो अहंकार रहित माध्यम से घटित होती है। यदि अहंकार मौजूद है, तो यह एक मानसिक घटना या सम्मोहन बन जाता है।
ध्यान के प्रारंभिक चरण: ध्यान के प्रारंभिक चरण सम्मोहन के समान हो सकते हैं क्योंकि यात्रा मन से शुरू होती है।
सात शरीर और सन्यास: व्यक्ति को सन्यास लेने से पहले सभी सात शरीरों से होकर गुजरना चाहिए ताकि आगे की यात्रा सहज और आनंदपूर्ण हो सके।
महिला की प्रतिरोधक क्षमता: महिला की प्रतिरोधक क्षमता पुरुष की तुलना में अधिक होती है, विशेष रूप से दर्द सहन करने की क्षमता में।
कृतज्ञता और बंधन: कृतज्ञता की भावना बंधन नहीं बल्कि मुक्तिदायक होती है, बशर्ते यह स्पष्ट हो कि सभी बंधन आध्यात्मिक यात्रा में बोझ हैं।
परम आनंद की बाधा: दुख और पीड़ा उतनी बाधा नहीं डालते जितनी आनंद डालता है। परम आनंद एक अनुभव है, लेकिन परम अवस्था में सभी अनुभव समाप्त हो जाते हैं।
निराकार से साक्षात्कार: अंतिम परदा व्यक्तिीकरण द्वारा बनता है, जिसे केवल निराकार के माध्यम से होने वाली घटना से ही हटाया जा सकता है।
मन की तरंगें: मन एक सूक्ष्म भौतिक ऊर्जा है जिसकी तरंगों को मापा और जांचा जा सकता है।
भारतीय इतिहास और पौराणिक कथाएँ: भारत ने कभी इतिहास नहीं लिखा क्योंकि वह जन्म और मृत्यु के विवरण के बजाय सार पर केंद्रित था।
प्रतिक्रिया का समय: क्रोध या अन्य प्रतिक्रियाओं में देरी करने से उनके प्रभाव को कम किया जा सकता है।
स्व-धोखा: हम स्वयं को धोखा देने में बहुत चतुर होते हैं, खासकर सन्यास या आत्म-ज्ञान के मामलों में।
इंद्रियों का थकना: गहन और तीव्र साँस लेने से इंद्रियां थक जाती हैं, जिससे ऊर्जा भीतर की ओर मुड़ जाती है और ध्यान संभव होता है।
जन्म और मृत्यु का संबंध: जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; जन्म में ही मृत्यु छिपी होती है।
अंधविश्वास का आधार: अंधविश्वासी विश्वास भय पर आधारित होते हैं, ज्ञान पर नहीं।
चेतना का केंद्र: मनुष्य की जीवन-ऊर्जा का केंद्र नाभि है, लेकिन हमारा ध्यान अक्सर इस केंद्र पर केंद्रित नहीं होता।
सही आहार, श्रम और नींद: ध्यान के लिए सही आहार, श्रम और नींद आवश्यक हैं, क्योंकि ये नाभि केंद्र के खुलने में सहायक होते हैं।
विचारों को पानी देना: बाहरी विचारों को इकट्ठा करने से ज्ञान नहीं मिलता, बल्कि मन में अशांति पैदा होती है। विचारों को शांत करने के लिए उनकी जड़ों को पानी देना बंद करना होगा।
अज्ञानता का ज्ञान: जो यह जानता है कि वह अज्ञानी है, वही वास्तव में ज्ञानी है।
आंतरिक संघर्ष: मन के भीतर के विरोधाभासी विचार हमें मार रहे हैं।
दोहरी ऊर्जा आयाम: ऊर्जा के दो आयाम हैं – अस्तित्व और गैर-अस्तित्व।
योग का अर्थ 'संपूर्ण': योग का अर्थ 'संपूर्ण' या 'एकीकृत' है। योगी वह है जो संपूर्ण को जानता है और किसी भी चीज़ से नहीं चिपकता।
चेतना का जागरण: चेतना के सक्रिय होने से शरीर के सभी केंद्र जागृत होते हैं।
वैज्ञानिक और धार्मिक मन: विज्ञान और धर्म के मिलन से ही पांचवें शरीर में प्रवेश संभव है।
सनायस एक स्वतंत्रता: सन्यास एक स्वतंत्रता है, बंधन नहीं। यह सभी के लिए उपलब्ध होना चाहिए, भले ही सीमित अवधि के लिए हो।
अहंकार से मुक्ति: अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। अहंकार से मुक्त होना ही वास्तविक स्वतंत्रता है।
गुरु के उपदेशों को सुनना: गुरु के उपदेशों को सुनना एक पूर्ण परिवर्तन की मांग करता है, जिसमें व्यक्ति को अपने सिर (विचारों) को घर पर छोड़ना होता है।
अस्तित्व का कंपन: जब मन शांत होता है, तो ओमकार की ध्वनि भीतर कंपन करती है, जिससे आनंद और शांति फैलती है।
नृत्य और संगीत का महत्व: संगीत और नृत्य जैसे कला रूप समाधि तक पहुँचने के द्वार हो सकते हैं।
मृत्यु की याद: ज्ञानी व्यक्ति मृत्यु को याद रखता है, जबकि अज्ञानी इससे भागता है। मृत्यु की याद अहंकार को कमजोर करती है।
ईश्वर का नाम: ईश्वर का कोई एक नाम नहीं है; सभी नाम मानव मन की उपज हैं।
जीवन का बीज: जीवन में महत्वपूर्ण वही है जो स्वयं के अनुभव से जाना जाता है।
प्रेम एक ऊर्जा: प्रेम एक ऊर्जा है जो बिना किसी वापसी की इच्छा के देना सिखाती है।
सत्य की प्रकृति: सत्य बनाया या खरीदा नहीं जा सकता; यह पहले से मौजूद है।
भ्रम से मुक्ति: सत्य की प्राप्ति केवल भ्रांति से मुक्ति है।
अखंड धर्म: सत्य का कोई संप्रदाय नहीं होता। जब व्यक्ति सत्य को जानता है, तो वह सभी संप्रदायों से मुक्त होकर केवल 'धर्म' में प्रवेश करता है।
आत्मा का पता लगाना: आत्मा को इंद्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता क्योंकि वह स्वयं जानने वाला है।
साक्षीभाव का फैलाव: साक्षीभाव को शारीरिक और मानसिक गतिविधियों में फैलने देना अहंकार को समाप्त करता है और वास्तविक आत्म को प्रकट करता है।
नदी का प्रवाह: जीवन नदी के प्रवाह की तरह है; इसके साथ संघर्ष करने से शत्रुता पैदा होती है।
आत्म-रक्षा का भ्रम: जितना अधिक हम स्वयं को बचाने की कोशिश करते हैं, उतना ही अधिक हम दुख और अर्थहीनता में पड़ते हैं।
सौंदर्य और कुरूपता: सौंदर्य का अनुभव कुरूपता के अनुभव के बिना नहीं हो सकता।
पूर्वधारणा का त्याग: किसी भी विषय पर पूर्वधारणा के बिना अवलोकन करना आवश्यक है, अन्यथा यह वास्तविक निष्कर्ष पर पहुंचने में बाधा डालेगा।
विपरीतताओं का नियम: अस्तित्व विपरीतताओं के नियम पर आधारित है। जीवन मृत्यु के बिना नहीं हो सकता, और सुख दुख के बिना नहीं।
सरलता और जटिलता: जो सरल है, वह अपनी सरलता के प्रति सचेत नहीं होता। चेतना का हर भाग जो हम जानते हैं, वह बीमार होता है।
लाओत्से का समर्पण: लाओत्से का दर्शन जीवन के प्रति पूर्ण समर्पण पर जोर देता है।
अहंकार और सिद्धियाँ: अहंकार सिद्धियों और आत्म-ज्ञान में बाधा डालता है।
स्त्री ऊर्जा और स्वीकार्यता: स्त्री ऊर्जा ग्रहणशील होती है, जिसमें व्यक्ति अस्तित्व के प्रति आक्रामक होने के बजाय ग्रहणशील हो जाता है।
पुरुष-चेतना की पूर्णता: पुरुष-चेतना अपनी पूर्णता पर पहुंच गई है, और अब स्त्री-चेतना की ओर बढ़ना आवश्यक है ताकि संतुलन स्थापित हो सके।
शिक्षण और विद्रोह: सच्चा शिक्षक वह होता है जो बच्चों में विद्रोह की भावना को सही दिशा देता है, ताकि वे पुरानी रूढ़ियों को तोड़ सकें।
शिक्षा का दोष: वर्तमान शिक्षा भय, लोभ, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा सिखाती है, जो ज्ञान के बजाय अज्ञानता का प्रचार करती है।
जीवन की गुणवत्ता का क्षरण: ज्ञान बढ़ने के साथ-साथ जीवन की गुणवत्ता का क्षरण हो रहा है क्योंकि हम केवल बुद्धि के विकास पर केंद्रित हैं।
क्रोध का ज्ञान: क्रोध से लड़ना नहीं, बल्कि उसे जानना आवश्यक है। क्रोध को जानकर व्यक्ति उस पर महारत हासिल करता है।
अहंकार का त्याग: अहंकार को त्यागना ही वास्तविक मुक्ति है, जहाँ व्यक्ति स्वयं को 'मैं' के बजाय 'सब कुछ' के रूप में अनुभव करता है।
कर्मफल की आसक्ति: कर्मफल की आसक्ति का त्याग करने पर कर्म स्वयं छूट जाते हैं।
दूरदर्शिता और टेलीपैथी: भविष्य में टेलीपैथी जैसे चैनलों का विकास अंतरिक्ष यात्रा में महत्वपूर्ण हो सकता है।
कृष्ण की बहु-आयामीता: कृष्ण का व्यक्तित्व बहु-आयामी है, जो सभी विरोधाभासों को समाहित करता है।
शिष्यत्व और मित्रता: कृष्ण अर्जुन के मित्र थे, लेकिन अर्जुन एक शिष्य था। शिष्यत्व सीखने की तत्परता है।
अकर्मण्यता में कार्रवाई: साक्षीभाव की अवस्था में व्यक्ति निष्क्रिय होता है, फिर भी सब कुछ घटित होता है।
सत्य की यात्रा: सत्य की यात्रा ज्ञात से अज्ञात की ओर एक छलांग है, न कि तार्किक सोच का परिणाम।
नाम और रूप का त्याग: सत्य को जानने के लिए नाम और रूप से परे जाना होता है।
प्रश्नोत्तरी
ओशो के अनुसार, मृत्यु को समझने की क्या चुनौती है, और इसे जानने का एकमात्र तरीका क्या है?
ओशो के अनुसार, मृत्यु को समझने की चुनौती यह है कि इसे केवल 'मरते समय' ही देखा जा सकता है, लेकिन उस क्षण चेतना नहीं होती है। इसे जानने का एकमात्र तरीका स्वेच्छा से मृत्यु के प्रयोग में प्रवेश करना है, एक सचेत और जानबूझकर अभ्यास के माध्यम से।
गुरूओं द्वारा की जाने वाली आध्यात्मिक हिंसा की ओशो किस प्रकार आलोचना करते हैं?
ओशो गुरुओं द्वारा की जाने वाली आध्यात्मिक हिंसा की आलोचना करते हैं, जो शिष्यों पर अपने विचार और जीवन शैली थोपते हैं, जैसे कि कपड़े, बाल, या खाने की आदतें। वह कहते हैं कि सच्चा आध्यात्मिक मार्ग बाहरी नियंत्रण के बजाय आंतरिक स्वतंत्रता पर आधारित है।
ध्यान में शरीर को स्थिर रखना क्यों मुश्किल है, और मन की बेचैनी इसमें क्या भूमिका निभाती है?
ध्यान में शरीर को स्थिर रखना मुश्किल है क्योंकि मन की बेचैनी, तनाव और उत्तेजना शरीर को लगातार हिलाती रहती है। गहन ध्यान के लिए मानसिक शांति और शारीरिक शिथिलता आवश्यक है, क्योंकि शरीर मन की आंतरिक स्थिति को दर्शाता है।
सत्य की खोज में अंधविश्वास और धैर्य की भूमिका क्या है?
ओशो के अनुसार, अंधविश्वास तत्काल उत्तर खोजने की हड़बड़ी से उत्पन्न होता है, जिससे व्यक्ति बिना गहराई से खोजे तैयार विश्वासों को स्वीकार कर लेता है। सत्य की खोज के लिए अत्यधिक धैर्य की आवश्यकता होती है, जहाँ खोज की प्रक्रिया स्वयं उपलब्धि से अधिक महत्वपूर्ण होती है।
ओशो कैसे बताते हैं कि हिंसा मृत्यु से बचने का एक रूप है, और अहिंसा के लिए क्या आवश्यक है?
ओशो बताते हैं कि हिंसा मृत्यु से बचने का एक रूप है, क्योंकि हिंसक व्यक्ति दूसरों को मारकर अपनी स्वतंत्रता की पुष्टि करना चाहता है और यह मानता है कि यदि वे दूसरों को मार सकते हैं, तो उन्हें कोई नहीं मार सकता। केवल वही व्यक्ति अहिंसक हो सकता है जो मृत्यु को जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है।
चेतना और अचेतना को ध्यान के संदर्भ में कैसे समझाया गया है?
चेतना और अचेतना को ध्यान की विभिन्न घनत्व के रूप में समझाया गया है, जिसमें 'ध्यान' नामक तत्व मुख्य भूमिका निभाता है। गहरा और तीव्र ध्यान चेतना की उच्च अवस्था की ओर ले जाता है, जबकि कम ध्यान अचेतना में परिणत होता है।
सत्य की खोज के लिए छद्म-ज्ञान को क्यों त्यागना चाहिए?
सत्य की खोज शुरू करने के लिए सभी उधार लिए गए या खेती किए गए ज्ञान को त्यागना चाहिए क्योंकि यह केवल जानने का भ्रम पैदा करता है, जो वास्तविक अज्ञान से भी अधिक खतरनाक है। सच्चा ज्ञान व्यक्ति के भीतर से उत्पन्न होता है और बाहरी स्रोतों पर निर्भर नहीं करता है।
शब्दों की सीमा को ध्यान में रखते हुए, सत्य को कैसे संप्रेषित किया जा सकता है?
सत्य को शब्दों से संप्रेषित नहीं किया जा सकता क्योंकि शब्द उसे खोखला और सतही बना देते हैं। सत्य को व्यक्त करने का सबसे अच्छा तरीका मौन है। जब मन 'शब्द-रहित' स्थिति में आता है, तो सत्य स्वयं प्रकट होता है।
साक्षी भाव का अभ्यास करने से व्यक्ति के आंतरिक अनुभव पर क्या प्रभाव पड़ता है?
साक्षी भाव का अभ्यास करने से व्यक्ति अपने भीतर और बाहर होने वाली हर चीज़ का केवल अवलोकन करता है, बिना प्रतिक्रिया या हस्तक्षेप के। जैसे-जैसे यह अवलोकन गहरा होता है, विचार फीके पड़ने लगते हैं और एक गहरी आंतरिक शांति उत्पन्न होती है, जिससे व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप के प्रति जागृत होता है।
ओशो के अनुसार, वर्तमान समय में जीने का क्या महत्व है, और यह दुख से कैसे संबंधित है?
ओशो के अनुसार, वर्तमान में जीना महत्वपूर्ण है क्योंकि दुख और चिंता हमेशा अतीत या भविष्य से उत्पन्न होती है। वर्तमान क्षण में कोई दुख या चिंता नहीं होती है, क्योंकि यह इतना छोटा होता है कि दुख इसमें फिट नहीं हो सकता, और यह हमेशा शांति और आनंद से भरा होता है।
निबंध प्रश्न
ओशो विभिन्न अवधारणाओं, जैसे प्रेम, ज्ञान और आध्यात्मिक अभ्यास को समझने में 'शब्दों की सीमा' और 'मौन के महत्व' पर कैसे जोर देते हैं? इस संदर्भ में कबीर और शेख फरीद के मौन संवाद का विश्लेषण करें।
ओशो विभिन्न अवधारणाओं, जैसे प्रेम, ज्ञान और आध्यात्मिक अभ्यास को समझने में 'शब्दों की सीमा' और 'मौन के महत्व' पर गहरा जोर देते हैं।
शब्दों की सीमा और मौन का महत्व
ओशो के अनुसार, विचार समग्र को एक साथ नहीं ले सकता, बल्कि यह एक "बहुत छोटी खिड़की" की तरह है जिससे हम केवल "टुकड़े-टुकड़े" को ही देख पाते हैं। विचार हमें "ताओ से बाहर" कर देता है, अर्थात्, हमारी सहज प्रकृति और सत्य से दूर ले जाता है। इसलिए, वे इस बात पर बल देते हैं कि ज्ञान की उपलब्धि निर्विचार अवस्था में होती है। उनका तर्क है कि विचार की तरंगें मन को दर्पण नहीं बनने देतीं, जिससे सत्य का स्पष्ट प्रतिबिंब बाधित होता है।
वे मौन और शांति को सत्य की झलक पाने के लिए आवश्यक बताते हैं। ध्यान का चौथा चरण विश्राम, शांति, मौन और शून्यता है, जो शब्दों से परे की स्थिति है। इस अवस्था में, व्यक्ति को सब कुछ छोड़ देना होता है - प्रश्न पूछना, श्वास लेना, और केवल विश्राम करना होता है। इसी शून्यता में कुछ घटित होता है, जैसे कोई फूल खिलते हैं, प्रकाश फैलता है, या शांति की धारा फूट पड़ती है।
कुछ अनुभवों की प्रकृति ऐसी होती है कि उन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से, साधना के अंतिम और उच्चतम चरण, जिसे सातवां शरीर या निर्वाण काया कहा जाता है, के अनुभव को शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। ओशो बताते हैं कि बुद्ध ने भी इस उच्चतम सत्य को बताने के लिए निषेधात्मक भाषा का उपयोग किया, यह कहते हुए कि "सब नकार है, सब निषेध है"। वे यह भी कहते हैं कि 'ओम्' जैसे शब्द इसलिए बनाए गए क्योंकि उनका कोई शाब्दिक अर्थ नहीं होता, और वे इस शब्दों से परे की अवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ओशो यह भी समझाते हैं कि जब एक ज्ञानी व्यक्ति अज्ञानी व्यक्ति से मिलता है, तो वह अक्सर मौन रहना पसंद करता है। ज्ञानी व्यक्ति के अनुभव इतने गहरे और अवाच्य होते हैं कि उन्हें शब्दों में व्यक्त करने पर या तो उन्हें कोई नहीं समझेगा, या गलत समझेगा, या उनसे विपरीत अर्थ निकालेगा। इस प्रकार, मौन या अप्रत्यक्ष संचार अधिक उपयुक्त हो जाता है।
विभिन्न अवधारणाओं पर शब्दों की सीमा और मौन का महत्व:
ज्ञान (Knowledge): जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, ज्ञान की वास्तविक उपलब्धि निर्विचार अवस्था में होती है, न कि विचारों या शब्दों के माध्यम से। जब व्यक्ति वास्तव में जानता है, तो जानने वाला, जो जानता है, और जिसे जाना जाता है, उनके बीच कोई फासला नहीं रह जाता; केवल एक ही रह जाता है। इस अवस्था को शब्दों में बांधना असंभव है, क्योंकि शब्द हमेशा भेद पैदा करते हैं।
प्रेम (Love): ओशो प्रेम को भी शब्दों और साधारण समझ की सीमाओं से परे देखते हैं। वे बताते हैं कि साधारण प्रेम अक्सर घृणा का दूसरा पहलू होता है, और यह द्वंद्व तीसरे शरीर तक मौजूद रहता है। सच्चा प्रेम इस द्वंद्व से परे है, जो केवल मौन और निर्विचार की गहराई में अनुभव किया जा सकता है। प्रेम में सच्ची स्वतंत्रता तब आती है जब व्यक्ति अपनी अपेक्षाओं और "मैं" के भाव से मुक्त होता है, जो मौन और आत्म-जागरूकता के माध्यम से प्राप्त होता है।
आध्यात्मिक अभ्यास (Spiritual Practice): ओशो की ध्यान पद्धतियों में मौन और निर्विचार की अवस्था तक पहुँचने पर बहुत जोर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, "मैं कौन हूँ?" जैसे प्रश्न साधना के तीसरे चरण में साधक को अपने भीतर गहरे जाने में मदद करते हैं, जहाँ शब्दों से परे एक मूलभूत अस्तित्वगत सत्य प्रकट होता है। अंतिम चरण में, साधक को सब कुछ छोड़ कर केवल मौन और शून्यता में प्रवेश करना होता है। यह मौन ही वह द्वार है जहाँ परमात्मा निकट आता है।
कबीर और शेख फरीद का मौन संवाद
प्रदान किए गए स्रोतों में कबीर और शेख फरीद के बीच किसी विशिष्ट "मौन संवाद" का कोई उल्लेख या विश्लेषण नहीं है। स्रोतों में कबीर का कई बार उल्लेख किया गया है, विशेष रूप से उनके अनुभवों और वचनों के संदर्भ में, जो शब्दों की सीमाओं से परे सत्य को व्यक्त करते हैं।
उदाहरण के लिए, कबीर कहते हैं: "बूंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।। समुंद समाना बुांद में, सो कत हेरी जाई।।"। यह उनके उस अनुभव को दर्शाता है जहाँ सत्य इतना विशाल और अद्वितीय होता है कि उसे सामान्य शब्दों या तर्कों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। वे पहले सोचते हैं कि बूंद समुद्र में गिर गई है, लेकिन बाद में महसूस करते हैं कि समुद्र ही बूंद में समा गया है - एक ऐसा अनुभव जो तार्किक रूप से विरोधाभासी लगता है, लेकिन सत्य की अवाच्य प्रकृति को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि उच्चतम अनुभव शब्दों से परे होते हैं और उन्हें व्यक्त करने के लिए सामान्य भाषा अपर्याप्त हो जाती है।
हालाँकि, शेख फरीद के साथ किसी मौन संवाद का विशिष्ट विवरण इन स्रोतों में अनुपस्थित है। यदि आप किसी अन्य विशिष्ट घटना के बारे में पूछ रहे हैं, तो कृपया अधिक जानकारी प्रदान करें।
ओशो के दर्शन में अहंकार की भूमिका और व्यक्ति के आंतरिक विकास में इसके त्याग की क्या आवश्यकता है? शक्तिपात, सन्यास और आत्म-ज्ञान के संदर्भ में इसकी व्याख्या करें।
ओशो के दर्शन में अहंकार (Ego) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है, और वे इसे व्यक्ति के आंतरिक विकास में सबसे बड़ी बाधा मानते हैं। उनके अनुसार, अहंकार का त्याग आध्यात्मिक जागृति और आत्म-ज्ञान की परम आवश्यकता है।
अहंकार की भूमिका
ओशो के अनुसार, अहंकार 'मैं' का एक गहरा भ्रम है। यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति अपनी मान्यताओं, विचारों और पहचान को स्वयं सत्य मान लेता है।
भ्रम और अज्ञान का स्रोत: अहंकार एक "भ्रांति" है जो हमें यह भ्रम देती है कि हम मूल्यवान हैं और पूरा जगत हमें पकड़ने के लिए उत्सुक है। यह हमें अपनी वास्तविक, विराट प्रकृति से काट देता है और एक "छोटे गड्ढे" में कैद कर देता है, जहाँ से हमें कोई खजाना नहीं मिल सकता।
द्वंद्व और संघर्ष: अहंकार द्वैत उत्पन्न करता है—जैसे सुख और दुःख, प्रेम और घृणा—जिसके कारण जीवन में निरंतर बेचैनी, पीड़ा और संघर्ष बना रहता है। यह व्यक्ति को 'सही' होने के भ्रम में रखता है, जिससे वह लगातार दूसरों के साथ या स्वयं के साथ विवाद में रहता है।
असत्य पर आधारित: अहंकार उस "मैं" को निर्मित करता है जो वास्तव में है ही नहीं। यह हमें अपने कर्मों (जो हम करते हैं) से अपनी पहचान बनाने पर मजबूर करता है, जबकि हमारा वास्तविक 'होना' (being) इससे परे है।
नियंत्रण और भय: अहंकार नियंत्रण और सुरक्षा की आवश्यकता से उत्पन्न होता है। व्यक्ति दूसरों की राय और स्वीकृति पर निर्भर होकर अपनी झूठी पहचान को मजबूत करता है। यह भयभीत व्यक्ति को किसी से 'बंधे' रहने की चाह पैदा करता है, जिससे वह कभी अकेला खड़ा नहीं रह पाता।
आनंद में बाधक: जब तक व्यक्ति अहंकार में रहता है, तब तक वह आनंद को एक वासना (इच्छा) के रूप में देखता है, जिसे प्राप्त करने की कोशिश करता है, लेकिन आनंद एक 'परिणाम' है जो अनायास घटित होता है, वासना से नहीं।
आंतरिक विकास में अहंकार के त्याग की आवश्यकता
ओशो का मानना है कि वास्तविक आत्म-ज्ञान और आध्यात्मिक विकास के लिए अहंकार का त्याग अनिवार्य है।
सत्य की उपलब्धि के लिए: ज्ञान की उपलब्धि "निर्विचार अवस्था" में होती है। विचार की तरंगें मन को दर्पण नहीं बनने देतीं, जिससे सत्य का स्पष्ट प्रतिबिंब बाधित होता है। जब अहंकार (मैं) समाप्त हो जाता है, तो केवल 'हूं' (अस्मिता) या 'होने का बोध' बचता है।
निर्द्वंद्वता की प्राप्ति: जब द्वंद्व और विकल्प समाप्त हो जाते हैं, तब मन निर्विचार और शांत हो जाता है, और व्यक्ति द्वंद्व से परे हो जाता है। यह अवस्था ही आत्मा के दर्शन का मार्ग है।
साक्षी भाव का उदय: अहंकार के मिटने से व्यक्ति साक्षी (witness) बन जाता है, जहाँ वह सब कुछ होते हुए देखता है, लेकिन उससे लिप्त नहीं होता। यह साक्षी भाव ही व्यक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराता है, जो अमर और अछूता है।
महामृत्यु का अनुभव: अहंकार का त्याग एक "महामृत्यु" है, जहाँ व्यक्ति स्वयं ही मिट जाता है, न कि केवल शरीर बदलता है। यह एक गहरा अनुभव है जहाँ सब कुछ बदल जाता है—संबंध, वृत्तियां, संसार—लेकिन यह एक नये जीवन का द्वार खोलता है।
पूर्णता की ओर: जब तक व्यक्ति स्वयं को 'अलग' इकाई मानता है, तब तक पूर्णता का अनुभव नहीं हो सकता, क्योंकि सीमाएं दो अस्तित्वों के बीच बनती हैं, जबकि पूर्ण स्वयं अकेला है, जिसकी कोई सीमा नहीं।
संदर्भित व्याख्या
शक्तिपात (Shaktipat):
ओशो स्पष्ट करते हैं कि शक्तिपात कोई 'कर' नहीं सकता, बल्कि किसी 'से' हो सकता है। यदि कोई दावा करता है कि "मैं शक्तिपात करता हूँ", तो वह धोखाधड़ी है।
शक्तिपात का माध्यम (medium) अहंशून्य होना चाहिए। जब कोई व्यक्ति इतना शून्य होता है कि उसमें "मैं करता हूँ" का भाव नहीं होता, तो परमात्मा की विराट शक्ति उसके माध्यम से प्रवाहित हो सकती है।
सच्ची 'ग्रेस' (प्रसाद) केवल तभी उतरती है जब अहंकार मिट जाता है। अहंकार ही ग्रेस के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
झूठे शक्तिपात अक्सर 'सम्मोहन' (hypnosis) या 'मैग्नेटिक प्रोसेसेस' का उपयोग होते हैं, जहाँ 'कर्ता' के अहंकार का दावा होता है।
शक्तिपात साधक के पहले शरीर पर होता है, जबकि ग्रेस चौथे शरीर पर।
सन्यास (Sannyas):
वास्तविक संन्यास द्वंद्व रहित (निर्द्वंद्व) अवस्था है, न कि संसार को छोड़कर भागना। जो व्यक्ति संसार को छोड़कर संन्यास लेता है, वह अभी भी द्वंद्व में है, क्योंकि वह 'छोड़ने' और 'पाने' के विचार से जुड़ा है।
अहंकार संन्यास के मार्ग में भी एक बाधा है, क्योंकि यह व्यक्ति को 'कुछ होने' या 'कुछ पाने' की वासना में फँसाए रखता है।
महावीर ने वस्त्र तक छोड़ दिए ताकि यह कहने को कुछ न बचे कि "यह मेरा है"। यह अहंकार के विस्तार को समेटने का एक मार्ग था, ताकि 'मैं' का केंद्र प्रकट हो सके।
यदि व्यक्ति लोगों की हंसी या लोक-लज्जा के डर से स्वयं को बदलता नहीं है, तो वह अपने अहंकार को मजबूत करता है।
संन्यास के माध्यम से व्यक्ति स्वयं को अपने 'होने' से जोड़ता है, न कि अपने 'कर्मों' से।
आत्म-ज्ञान (Self-knowledge):
आत्म-ज्ञान की यात्रा का मूलभूत प्रश्न है "मैं कौन हूँ?"। यह प्रश्न मन की गहराइयों तक पहुँचकर उस केंद्र पर चोट करता है जो अज्ञात है, और जहाँ व्यक्ति अपने वास्तविक अस्तित्व का अनुभव करता है।
अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को अलग इकाई मानता है, जिससे वास्तविक आत्म-ज्ञान बाधित होता है। जब व्यक्ति इस "मैं" को छोड़ देता है, तो वह जानता है कि जानने वाला, जानने का साधन और जानने वाला सब एक ही हैं, कोई द्वैत नहीं।
ओशो इसे 'अद्वैत' के अनुभव से जोड़ते हैं, जहाँ अस्तित्व केवल एक है, और जड़ व चेतन का भेद भी समाप्त हो जाता है।
ज्ञान निर्विचार में उपलब्ध होता है, क्योंकि विचार हमेशा भेद पैदा करते हैं और समग्र को एक साथ नहीं देख पाते।
जब मन शांत होता है और अहंता मिट जाती है, तभी परमात्मा निकट आता है।
संक्षेप में, ओशो के अनुसार, अहंकार व्यक्ति के दुख, अज्ञान और सीमितता का मूल कारण है। इसके त्याग से ही व्यक्ति द्वंद्व से मुक्त होता है, निर्विचार अवस्था को प्राप्त करता है, और अंततः अपने वास्तविक, अद्वैत स्वरूप को जानता है, जो आनंद, शांति और पूर्णता से भरा है। यह त्याग शक्तिपात, संन्यास और आत्म-ज्ञान के मार्ग में एक केंद्रीय और अनिवार्य शर्त है।
"जीवन एक सपना है" और "साक्षी की तरह जीओ" के सूक्त की ओशो के समग्र शिक्षाओं में क्या भूमिका है? इस अवधारणा को ध्यान और मृत्यु की समझ से कैसे जोड़ा जा सकता है?
आपकी जिज्ञासा "जीवन एक सपना है" और "साक्षी की तरह जीओ" के सूक्तों की ओशो के समग्र शिक्षाओं में भूमिका तथा उनके ध्यान और मृत्यु की समझ से संबंध को स्पष्ट करती है। ओशो के दर्शन में, ये अवधारणाएँ आत्म-ज्ञान और परम मुक्ति की ओर यात्रा के मूलभूत स्तंभ हैं।
"जीवन एक सपना है" की अवधारणा:
ओशो के अनुसार, जिसे हम सत्य समझते हैं, वह अक्सर परिवर्तनशील होता है, और जो बदलाव होता है, वह स्वप्न के समान है। हमारा मन हमें लगातार आरोपित भास दिखाता है, जो वास्तव में वहाँ नहीं होते। उदाहरण के लिए, जिस तरह अंधेरे में एक रस्सी को सांप समझा जा सकता है, उसी तरह हमारी इंद्रियाँ और मन हमें भ्रमित करते हैं; हालाँकि सांप वास्तविक नहीं होता, उससे उत्पन्न भय और पसीना वास्तविक होते हैं। यह दर्शाता है कि हमारी आंखें हमें वही दिखाती हैं जो हमारा मन हमें दिखाना चाहता है, न कि वह जो वास्तव में है।
जब एक गुरु शिष्य से कहते हैं कि "यह सारा जगत स्वप्न है", तो शिष्य को अचानक ऐसा लगता है कि जिस जगत को वह अब तक वास्तविक मानता था, वह गायब हो गया है। यह दर्शाता है कि हमारा सारा जीवन एक स्वप्न की तरह है, जिसमें हमारा मन ही सब कुछ बनाता और बिगाड़ता है। यह समझ कि "जीवन एक सपना है" अज्ञान से मुक्ति की दिशा में पहला कदम है।
"साक्षी की तरह जीओ" की अवधारणा:
साक्षी-भाव का अर्थ है अपने आप को अपने विचारों, भावनाओं और क्रियाओं से अलग देखना। यह उस 'मैं' को पहचानने की प्रक्रिया है जो शरीर, मन, चित्त और अहंकार से परे है। जब आप अपने भीतर सब कुछ काटते चले जाते हैं – यह भी मैं नहीं हूँ, वह भी मैं नहीं हूँ – तो अंत में जो शेष रहता है, वही साक्षी है।
साक्षी भोक्ता नहीं होता; वह अपनी वासनाओं, अस्मिता और 'मेरे-पन' के भाव को त्याग देता है। जब आप साक्षी होते हैं, तो आपको बाहर की घटनाओं से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती; चाहे कोई गाली दे या सम्मान करे, आपके भीतर कुछ भी प्रवेश नहीं करता। यह साक्षी-भाव आपको मन के बाहर ले जाता है और परम उपरति (पूर्ण वैराग्य या अलिप्तता) की स्थिति प्राप्त कराता है।
ध्यान के अभ्यास में साक्षी-भाव महत्वपूर्ण है। ओशो स्पष्ट करते हैं कि उनकी ध्यान विधि सम्मोहन से भिन्न है क्योंकि इसमें साक्षी-भाव लगातार मौजूद रहता है - "मैं जान रहा हूं देख रहा हूं कि श्वास आई और गई; मैं जान रहा हूं देख रहा हूं कि शरीर कंपित हो रहा है, घूम रहा है। मैं जान रहा हूं देख रहा हूं—यह जो भाव है, वह साक्षी-भाव है"। जहाँ अहंकार या कर्ता का भाव होता है, वह अनुभव केवल मानसिक या सम्मोहन जनित हो सकता है, आध्यात्मिक नहीं।
ध्यान (Meditation) से संबंध:
ओशो की ध्यान विधियों में, विशेषकर "मैं कौन हूँ?" का प्रयोग, साक्षी-भाव की स्थापना के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है। इस प्रश्न को गहराई से पूछने से आप शरीर और श्वास से अपनी पहचान तोड़ पाते हैं, और अंततः उस सकारात्मक आत्म-ज्ञान तक पहुँचते हैं कि "मैं कौन हूँ"। यह प्रक्रिया मन की परतों को भेदने और भीतर छिपे सत्य को उजागर करने में मदद करती है, जैसे जमीन खोदकर पानी निकालना।
ध्यान की चार सीढ़ियों में से, पहली तीन केवल तैयारी हैं, और चौथी ही वास्तविक ध्यान (विश्राम) है। इन प्रारंभिक चरणों में व्यक्ति को तीव्र तनाव से गुजरना पड़ता है (जैसे गहरी श्वास, शारीरिक गतिविधि), ताकि वह अंततः गहरे विश्राम को प्राप्त कर सके। जब मन शांत हो जाता है, तो आत्मा का पता चलता है, क्योंकि मन आत्मा की विक्षिप्त अवस्था है और आत्मा मन की शांत अवस्था है।
मृत्यु (Death) से संबंध:
ओशो के लिए, ध्यान "महामृत्यु" है। यह शारीरिक मृत्यु से कहीं अधिक गहरा है, क्योंकि शारीरिक मृत्यु केवल शरीर बदलती है, लेकिन व्यक्ति नहीं बदलता। ध्यान, हालांकि, आपके अहंकार और स्वयं के बोध को मिटा देता है, जो आपको लगता है कि आप हैं। यह जोखिम भरा है, लेकिन जो लोग जोखिम उठाने को तैयार होते हैं, वे ही वास्तव में जीवित होते हैं, जबकि जो डरते हैं, वे मरे हुए के समान हैं।
जब आप साक्षी-भाव में जीते हैं, तो आप गहरे में जान जाते हैं कि शरीर मरता है, "मैं" नहीं मरूंगा। यह बोध आपको मृत्यु के भय से मुक्त करता है। जो व्यक्ति होशपूर्वक अपने जन्म को जानता है, वह अपनी मृत्यु को भी होशपूर्वक अनुभव कर सकता है। सामान्यतः, लोग बेहोशी में मरते हैं, जैसे वे बेहोशी में सो जाते हैं, क्योंकि वे शरीर से अपनी पहचान नहीं तोड़ पाते।
आत्म-ज्ञान की प्राप्ति स्वयं को खोने की तैयारी है। निर्वाण काय (सातवाँ शरीर), एक अर्थ में, महामृत्यु है, जहाँ व्यक्ति 'होने' से 'न होने' में छलांग लगाता है। यह दीपक के बुझ जाने जैसा है। जब जन्म दूसरों से हुआ हो, तो मृत्यु भी पराई होती है; लेकिन यदि व्यक्ति स्वयं से जन्म लेता है, तो मृत्यु भी उसकी अपनी होती है।
अतः, "जीवन एक सपना है" की समझ और "साक्षी की तरह जीओ" का अभ्यास व्यक्ति को शरीर और मन से अपनी पहचान तोड़ने में मदद करता है। यह आध्यात्मिक यात्रा में व्यक्ति को अहंकार की मृत्यु (महामृत्यु) की ओर ले जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वह शारीरिक मृत्यु को केवल एक प्रक्रिया के रूप में देखता है, न कि स्वयं के अस्तित्व का अंत।
ओशो वर्तमान शिक्षा प्रणाली की आलोचना कैसे करते हैं, और उनका प्रस्तावित "क्रांतिकारी" शिक्षण दृष्टिकोण बच्चों में भय, लोभ और प्रतिस्पर्धा को कैसे संबोधित करता है?
ओशो वर्तमान शिक्षा प्रणाली और सामाजिक संरचना की आलोचना करते हुए एक ऐसे क्रांतिकारी दृष्टिकोण का प्रस्ताव रखते हैं जो व्यक्ति को भय, लोभ और प्रतिस्पर्धा से मुक्त कर उसकी अंतर्निहित संभावनाओं को जाग्रत करता है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली और सामाजिक संरचना की ओशो द्वारा आलोचना:
ओशो के अनुसार, हमारी सभ्यता ने मनुष्य को इस कदर जकड़ा है कि वह अपनी सहजता और स्वाभाविक आनंद को अभिव्यक्त नहीं कर पाता, यहाँ तक कि नाच भी नहीं पाता। बच्चे, जो स्वाभाविक रूप से नाचते-कूदते हैं, उन्हें घर में डाँटा-फटकारा जाता है, जिससे उनकी सहजता दब जाती है। समाज और शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को बाहरी स्वीकृति और दूसरों की राय पर अत्यधिक निर्भर बना देती है, जिससे व्यक्ति लगातार यह चिंता करता रहता है कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं। यह व्यवस्था अहंकार को बढ़ावा देती है और व्यक्ति को स्वयं को "सही" मानने के इस व्यर्थ के संघर्ष में उलझा देती है, जो उसके कष्टों का एक बड़ा कारण है।
वर्तमान प्रणाली में शिक्षा केवल "क्या करते हैं" (कर्म) का परिचय देती है, न कि "क्या हैं" (स्वभाव) का। यह विचारों को फिल्टर करने वाले मन को बढ़ावा देती है, जो केवल अनुकूल जानकारी को स्वीकार करता है और प्रतिकूल को अस्वीकार कर देता है, जिससे वास्तविक समझ और परिवर्तन बाधित होता है। ओशो कहते हैं कि विज्ञान ने हमें इतने रहस्य दिए हैं कि हमारी आश्चर्यचकित होने की क्षमता कम हो गई है, जबकि आश्चर्य ही आनंद का द्वार है। यहाँ तक कि विश्वविद्यालय शिक्षा की लंबी अवधि और उसके वास्तविक जीवन से जुड़ाव पर भी प्रश्न उठाए जाते हैं, जहाँ छात्र तत्काल जीवन के अनुभवों को प्राथमिकता देने लगते हैं।
ओशो यह भी इंगित करते हैं कि हमारा मन अक्सर भ्रम पैदा करता है और हमें एक स्वप्न जैसी वास्तविकता में फंसाए रखता है। लोग इन भ्रमों से चिपके रहते हैं क्योंकि उन्होंने उनमें बहुत निवेश किया होता है, जिससे वे सत्य को देख नहीं पाते। यह भी एक विडंबना है कि जो व्यक्ति दूसरों में बेईमानी और गलतियाँ देखता है, वह स्वयं ईमानदार नहीं रह पाता, क्योंकि उसकी धारणाएँ उसके अपने आंतरिक राज्य को दर्शाती हैं।
ओशो का प्रस्तावित "क्रांतिकारी" शिक्षण दृष्टिकोण और भय, लोभ व प्रतिस्पर्धा का समाधान:
ओशो का क्रांतिकारी शिक्षण दृष्टिकोण व्यक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराता है और उसे भय, लोभ तथा प्रतिस्पर्धा जैसी बाधाओं से मुक्त करता है:
भय का समाधान:
वर्तमान शिक्षा प्रणाली भय पैदा करती है—दूसरों के निर्णय का भय, अपनी आंतरिक सच्चाई को खोने का भय, और अपने दमित भावनाओं का सामना करने का भय।
ओशो का दृष्टिकोण जोखिम को गले लगाने का साहस देता है: "जितना खतरा उठाते हैं हम, उतने ही जीवित हैं"। वे ध्यान को "महामृत्यु" कहते हैं, जो अहंकार की मृत्यु है, क्योंकि शारीरिक मृत्यु केवल वस्त्र बदलती है, व्यक्ति को नहीं। यह व्यक्ति को मृत्यु के भय से मुक्त करता है।
ध्यान के दौरान दबी हुई भावनाओं को बाहर निकलने देना (जैसे रोना, चिल्लाना) भय को संबोधित करता है।
यह बाहरी स्वीकृति की आवश्यकता को त्यागने पर जोर देता है, जिससे व्यक्ति इस बात की परवाह नहीं करता कि दूसरे क्या सोचते या कहते हैं।
साक्षी-भाव का अभ्यास व्यक्ति को अपनी प्रतिक्रियाओं से मुक्त करता है। जब गाली या सम्मान मिले तो भीतर कोई प्रतिक्रिया न हो, क्योंकि गाली बाहर घूमती है, भीतर प्रवेश नहीं करती। यह साक्षी-भाव ही भय से मुक्ति दिलाता है।
स्वप्न या भ्रम जैसी जगत की अवधारणा को समझने से भय की जड़ खत्म हो जाती है, क्योंकि व्यक्ति समझ जाता है कि जिन चीजों से वह डर रहा है, वे वास्तव में मौजूद नहीं हैं।
लोभ का समाधान:
वर्तमान प्रणाली व्यक्ति में निरंतर कुछ पाने की इच्छा (लोभ) पैदा करती है, चाहे वह धन, पद या आध्यात्मिक सिद्धियाँ हों। यह एक सौदेबाजी वाला व्यवहार सिखाती है, जहाँ त्याग भी कुछ पाने की आशा से किया जाता है।
ओशो का दृष्टिकोण अ-लक्ष्य उन्मुखीकरण पर आधारित है: आनंद या ज्ञान को सीधे लक्ष्य बनाने के बजाय, यह उन्हें सहज परिणाम (byproduct) मानता है।
यह बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के त्याग पर जोर देता है।
कुंडलिनी जागरण से मिलने वाली अत्यधिक आंतरिक ऊर्जा व्यक्ति को बाहरी लाभों से निरपेक्ष कर देती है, जिससे बाहरी लोभ का महत्व कम हो जाता है।
ओशो सिखाते हैं कि परम आनंद की स्थिति में कुछ भी पाने या त्यागने जैसा नहीं होता, जिससे लोभ का कोई आधार नहीं रहता।
अहंकार और "मेरा" के भाव को छोड़ने से व्यक्ति भौतिक संग्रह और उनसे जुड़े लोभ से मुक्त होता है।
प्रतिस्पर्धा का समाधान:
वर्तमान प्रणाली दूसरों से तुलना और खुद को "सही" साबित करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है।
ओशो का दृष्टिकोण आत्म-रूपांतरण पर केंद्रित है, दूसरों से तुलना या प्रतिस्पर्धा पर नहीं।
यह अपने आपको हमेशा "सही" मानने की प्रवृत्ति को छोड़ने की बात करता है, जो दूसरों से संघर्ष का एक बड़ा कारण है।
ओशो सम-भाव को विकसित करने की सलाह देते हैं, जहाँ व्यक्ति सम्मान या अपमान के प्रति तटस्थ रहता है और भीतर कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती। इससे श्रेष्ठता या हीनता की भावनाएँ समाप्त होती हैं।
ध्यान के माध्यम से, व्यक्ति अपने विचारों पर नियंत्रण प्राप्त करता है, जिससे वह मन की द्वंद्वात्मक प्रकृति से ऊपर उठ जाता है।
ओशो सहजता और प्रामाणिकता को महत्व देते हैं, जहाँ व्यक्ति को स्वयं होने के लिए दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने की आवश्यकता नहीं होती।
ओशो का क्रांतिकारी शिक्षण दृष्टिकोण (सार):
अनुभवात्मक शिक्षा: सीखना तभी शुरू होता है जब व्यक्ति उसमें "उतर जाए"।
गहन ध्यान विधियाँ: ओशो तीव्र श्वास, शारीरिक गतिविधि और "मैं कौन हूँ?" जैसे मौलिक प्रश्न पर आधारित ध्यान की वकालत करते हैं। यह आंतरिक तनाव को चरम पर ले जाकर गहन विश्राम की ओर ले जाता है, जो एक "जीवित शांति" का अनुभव कराता है।
साक्षी-भाव का विकास: ध्यान के दौरान, व्यक्ति को अपने शरीर, श्वास, विचारों और भावनाओं का साक्षी बने रहना चाहिए, उनसे पहचान तोड़ते हुए।
पूर्ण स्वीकृति और समर्पण: शारीरिक या मानसिक प्रक्रियाओं का विरोध न करना, उन्हें होने देना, यहाँ तक कि अहंकार की मृत्यु (महामृत्यु) को भी स्वीकार करना।
आत्म-जिज्ञासा: "मैं कौन हूँ?" का प्रश्न सबसे मूलभूत प्रश्न है जो व्यक्ति को शरीर और मन से परे, अपने अस्तित्व की गहराई तक ले जाता है।
प्रामाणिकता और सहजता: जीवन की सहजता को वापस लाना और सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर स्वाभाविक रूप से जीना।
मन का रूपांतरण: व्यक्ति विचारों के अधीन होने के बजाय विचारों का स्वामी बन जाता है।
आंतरिक अन्वेषण: बाहरी सुखों के बजाय भीतर के आनंद और सत्य की खोज करना।
साहस और प्रयास: आध्यात्मिक विकास के लिए जोखिम उठाने और पूर्ण संकल्प व प्रयास करने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है।
संक्षेप में, ओशो का दृष्टिकोण वर्तमान शिक्षा के सतहीपन और उसके द्वारा पैदा किए गए भय-लोभ-प्रतिस्पर्धा के चक्र को तोड़ने पर केंद्रित है, ताकि व्यक्ति अपनी गहरी आंतरिक क्षमता को जागृत कर सके और पूर्ण रूप से प्रामाणिक, आनंदमय तथा भयमुक्त जीवन जी सके।
लाओत्से के "विपरीतताओं के नियम" और "मध्य मार्ग" के दर्शन को ओशो कैसे प्रस्तुत करते हैं? यह दृष्टिकोण व्यक्ति को खुशी, दुख, अच्छाई और बुराई के पारंपरिक विचारों से कैसे मुक्त करता है?
ओशो के अनुसार, लाओत्से का "विपरीतताओं का नियम" और "मध्य मार्ग" का दर्शन अस्तित्व की अद्वैत प्रकृति को समझने पर केंद्रित है, जिससे व्यक्ति सुख, दुख, अच्छाई और बुराई की पारंपरिक धारणाओं से मुक्त हो सकता है।
विपरीतताओं के नियम (Law of Opposites):
ओशो बताते हैं कि अस्तित्व में जड़ और चेतन जैसी दो अलग वस्तुएँ नहीं हैं; जिसे हम जड़ कहते हैं वह सोया हुआ चेतन है, और जिसे चेतन कहते हैं वह जागा हुआ जड़ है। मूलतः, अस्तित्व एक ही है, जिसे परमात्मा या ब्रह्म कहा गया है। इसी प्रकार, मन को आत्मा की विक्षुब्ध अवस्था और आत्मा को मन की शांत अवस्था के रूप में देखा जाता है; अहंकार, बुद्धि और चित्त मन के ही विभिन्न रूप या चेहरे हैं, जो आत्मा की विक्षुब्धता के कारण प्रकट होते हैं।
विपरीतताओं का नियम इस बात पर बल देता है कि सभी द्वंद्व—जैसे सुख और दुख, प्रेम और घृणा, सफलता और असफलता—एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
सुख और दुख: यदि आप सुख चाहते हैं, तो आपको दुख भी झेलना पड़ेगा, क्योंकि दुख सुख का मूल्य है और उसकी छाया की तरह साथ आता है। ओशो के अनुसार, पीड़ा किसी घटना से नहीं होती, बल्कि इस विचार से होती है कि वह घटना नहीं होनी चाहिए थी। यदि व्यक्ति इसे स्वीकार कर लेता है कि जो हुआ वह होना ही था, तो कोई पीड़ा नहीं रहती।
प्रेम और घृणा: प्रेम और घृणा एक ही ऊर्जा की तरंगें हैं; अंतर केवल उनकी तीव्रता या आपके प्रति उनके प्रभाव में है—एक सुखद है और दूसरा अप्रिय।
सफलता और असफलता: यदि आप सफलता चाहते हैं, तो असफलता भी आपके जीवन में आएगी, क्योंकि वह सफलता की छाया है। संसार में 'हार' नियति है, और कोई कभी जीतता नहीं है।
प्रकाश और अंधकार: जैसे प्रकाश होने पर अंधकार कहीं जाता नहीं, बल्कि प्रकाश में विलीन हो जाता है, इसका अर्थ है कि प्रकाश अधिक मौलिक है और अंधकार उसकी अनुपस्थिति मात्र है।
परमात्मा और माया: ब्रह्म (परमात्मा) के स्तर पर सब कुछ स्वीकार्य है, जिसमें माया का अस्तित्व भी शामिल है; ब्रह्म उसका कोई इनकार नहीं करता, इसलिए कोई पीड़ा भी नहीं होती।
ओशो इस बात पर भी जोर देते हैं कि व्यक्ति के भीतर जो भी वह इनकार करता है, उसका विपरीत उसके छाया व्यक्तित्व में मौजूद होता है।
मध्य मार्ग (Middle Path) और द्वंद्वों से परे जाना:
मध्य मार्ग का अर्थ है इन द्वंद्वों के पार जाना, उनकी मौलिक एकता को समझना, और उन्हें स्वीकार करना। यह दृष्टिकोण व्यक्ति को पारंपरिक धारणाओं से मुक्त करता है:
विचार और साक्षीभाव: ओशो सुझाव देते हैं कि ताओ की साधना का अर्थ है सोच-विचार छोड़कर केवल चेतना और होश में खड़े होना। विचार प्रकृति के बाहर एक छलांग है, लेकिन यह केवल विचार में ही होता है। जब कोई विचार नहीं होता, तो जो सत्य है वह केवल दिखाई ही नहीं देता, बल्कि वह घटित होना भी शुरू हो जाता है। यह साक्षीभाव—अर्थात, घटनाएँ घटित हो रही हैं, लेकिन आप उन्हें केवल देख रहे हैं, बिना किसी प्रतिक्रिया या चुनाव के।
निर्विकल्प और निर्विचार स्थिति: द्वंद्वों का मूल मन (चित्त) है। जब चित्त एकाग्र और निर्विकल्प हो जाता है (यानी सभी विपरीत विकल्पों से मुक्त हो जाता है), तो कोई भेद नहीं रहता। निर्विकार की पूरी उपलब्धि पांचवें शरीर में होती है, जबकि इसकी झलक चौथे शरीर से शुरू होती है। इस स्थिति में मन और आत्मा के बीच का विभाजन समाप्त हो जाता है, क्योंकि आत्मा मन की शांत अवस्था है।
अहंकार से मुक्ति: अहंकार को छोड़ देने से व्यक्ति आत्म-स्वरूप को प्राप्त करता है। व्यक्ति का 'मैं' किसी 'तू' को दबाने के लिए होता है; जब 'तू' नहीं रहता, तो 'मैं' भी समाप्त हो जाता है। यह 'मैं' अहंकार है, जबकि 'हूं' अस्मिता (होने का बोध) है। पांचवें शरीर में 'मैं' का भाव समाप्त हो जाता है, केवल 'हूं' का भाव रहता है, जबकि छठे शरीर में 'हूं' भी समाप्त हो जाता है और केवल 'है' (existence) का बोध रह जाता है।
माया को स्वीकार करना: संसार को 'मिथ्या' (लगभग झूठ) समझना भारतीय चिंतन में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। मिथ्या वह है जो असत्य है, लेकिन सत्य जैसा प्रतीत होता है (जैसे रस्सी को सांप समझना)। यह वास्तविक परिणाम दे सकता है, भले ही वह परम सत्य न हो। ज्ञानी माया को स्वीकार कर लेता है, क्योंकि यह ब्रह्म की छाया है, और इस स्वीकृति से कोई पीड़ा नहीं रहती।
खुशी, दुख, अच्छाई और बुराई के पारंपरिक विचारों से मुक्ति:
यह दृष्टिकोण व्यक्ति को इन पारंपरिक धारणाओं से मुक्त करता है क्योंकि:
सुख और दुख से परे: जब व्यक्ति यह जान लेता है कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और अनिवार्य रूप से जुड़े हुए हैं, तो वह सुख की इच्छा छोड़ देता है। जब आप सब तरफ दौड़कर हार जाते हैं और सब कुछ पा लेने के बाद भी वह व्यर्थ हो जाता है, तो आनंद की अभीप्सा जगती है। आनंद की सच्ची प्राप्ति तब होती है जब आप आनंद की कामना छोड़ देते हैं, क्योंकि आनंद एक "बाई-प्रोडक्ट" (उत्पाद) है, जिसे लक्ष्य बनाने से वह हाथ से फिसल जाता है।
नैतिकता और अनैतिकता से परे (Good and Evil): ताओ को जीने वाला व्यक्ति न तो नैतिक होता है और न ही अनैतिक, न पापी होता है और न ही पुण्यात्मा। वह जानता है कि जो कुछ हो सकता है, वही हो रहा है, और वह स्वयं कुछ भी 'करता' नहीं है। जब द्वंद्वों का पता चलता है कि जिन दो चीजों को दो माना गया था वे वास्तव में एक थीं, तो व्यक्ति द्वंद्व से मुक्त होने लगता है।
कर्मों के बंधन से मुक्ति: जीवन्मुक्त व्यक्ति के लिए कर्मों का फल अभी भी भोगना पड़ता है, क्योंकि शरीर उस जड़त्व को पूरा करता है जो ज्ञान के उदय से पहले उत्पन्न हुआ था। हालांकि, ज्ञान कर्मों का नाश नहीं करता, बल्कि ज्ञानी उन्हें साक्षी भाव से भोगता है। पुण्य और पाप दोनों का समूह ज्ञान से जड़ से कट जाता है, क्योंकि वे दोनों द्वैत के हिस्से हैं।
कुल मिलाकर, ओशो लाओत्से के दर्शन को एक गहन अद्वैतवादी अनुभव के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जहां व्यक्ति सभी द्वंद्वों की एकता को पहचानता है। यह 인식 व्यक्ति को इच्छाओं, भय और पारंपरिक नैतिक धारणाओं के बंधन से मुक्त करता है, जिससे वह अस्तित्व के साथ सहजता और स्वीकृति के एक नए स्तर पर जीना सीखता है।
विस्तृत समयरेखा
20,000 वर्ष पूर्व (और उससे पहले):
योग की अंतर्दृष्टि विकसित हुई, और इसका इतिहास 20,000 वर्षों से अधिक का है।
मनु जैसे व्यक्ति, 5,000 वर्ष पहले भी, समाज पर गहरा प्रभाव डालते थे (उनके नियम गांधी और राजा राम मोहन राय जैसे बाद के नेताओं के लिए भी चुनौती बने)।
प्राचीन आयुर्वेदिक धर्मग्रंथों में गर्भनिरोधक और यौन संबंध से जुड़ी चिंताओं का उल्लेख मिलता है, जो मानव के यौन ऊर्जा के प्रति भय और नियंत्रण की इच्छा को दर्शाता है।
आधुनिक विज्ञान के कुछ निष्कर्ष (जैसे "मैक्रोकोस्म माइक्रोकोस्म में है") योग के सबसे पुराने सूत्रों के साथ प्रतिध्वनित होते हैं, जो हजारों साल पहले इन अवधारणाओं के अस्तित्व का सुझाव देते हैं।
"अनापानसती" (श्वास जागरूकता) जैसी ध्यान विधियाँ, जो शरीर और मन के बीच की खाई को कम करने में मदद करती हैं, प्राचीन काल से मौजूद हैं।
दुनिया भर में समाधियों (मृतक को दफनाने के स्थान) का अस्तित्व, भारत में इतिहास न लिखने और पुराणों (पौराणिक कथाओं) को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति को दर्शाता है, जो घटनाओं के "सार" को महत्व देते हैं, न कि शाब्दिक ऐतिहासिक विवरणों को।
मूर्ति पूजा की परंपराएँ हजारों वर्षों से दुनिया भर के समाजों में मौजूद हैं, जो असीम को समझने की मानवीय आवश्यकता को दर्शाती हैं।
ज्ञान का संचय, जिसमें 20,000 से अधिक वर्षों का ज्ञान शामिल है, पीढ़ियों से चलता आ रहा है।
2,500 वर्ष पूर्व (महावीर और बुद्ध का काल):
महावीर का जन्म, जो अपनी अहिंसा के लिए जाने जाते हैं। उनके मार्ग में 12 साल का मौन और उपवास शामिल था, जिसका उद्देश्य दूसरों को अपने अनुभव के लिए तैयार करना था।
ऋषभ से पार्श्व तक के शुरुआती तीर्थंकरों ने अहिंसा के धर्मसूत्रों में ब्रह्मचर्य को एक अलग नारा के रूप में शामिल नहीं किया था।
महावीर के जीवन में एक घटना का उल्लेख है, जहाँ उनके कुछ शिष्यों (लगभग 500 मुनियों) ने उनकी उपस्थिति में ही उनसे नाता तोड़ लिया, क्योंकि वे महावीर के इस विचार से असहमत थे कि जो कुछ भी हो रहा है वह "पहले ही हो चुका है"।
बुद्ध का जन्म, और उनके ज्ञानोदय के अनुभव, जिसके बारे में कहा जाता है कि इससे "फूल बिना मौसम के खिल गए" और शारीरिक परिवर्तन हुए (जैसे उनका शरीर लुप्त हो जाना)।
बुद्ध के शिष्यों ने शुरू में उनकी मूर्ति नहीं बनाई, क्योंकि उनका शरीर ज्ञानोदय के बाद अदृश्य हो जाता था, लेकिन 500 साल बाद, जब गहरी दृष्टि वाले लोग कम हो गए, तो उनकी मूर्तियाँ स्थापित की गईं।
महावीर और बुद्ध दोनों ही अपने दुख से जंगल में गए और ज्ञान प्राप्त करने के बाद शहर लौट आए, यह खुशी को बांटने की इच्छा को दर्शाता है।
महाभारत युद्ध होता है, जिसमें कृष्ण अर्जुन के सारथी के रूप में कार्य करते हैं, और उनके नेतृत्व में भारत ने अभूतपूर्व ऊँचाई हासिल की।
लगभग 2,500 वर्ष पूर्व (लाओ त्ज़ु का काल):
लाओ त्ज़ु की शिक्षाएँ सामने आती हैं, जो "कुछ नहीं है" के सिद्धांत पर केंद्रित थीं, जो भारतीय शिक्षाओं से अलग थीं, जिनमें "आत्मा का भी अस्तित्व नहीं है" (बुद्ध) शामिल था।
कन्फ्यूशियस, लाओ त्ज़ु के समकालीन, नैतिकता और सदाचार के बारे में उनसे चर्चा करते हैं।
लाओ त्ज़ु अपने जीवन के अंत में चीन से गायब हो जाते हैं, एक शिष्य को अपने "पुस्तकों" (उनकी मौखिक शिक्षाओं के बाद लिखे गए) को फैलाने के लिए छोड़ जाते हैं।
1,800 वर्ष पूर्व (ईसा मसीह का काल):
ईसा मसीह का क्रूसीकरण होता है, एक घटना जिसे बाद में रहस्यवादी द्वारा उनके शब्दों को "शाश्वत अमृत का झरना" बनाने के लिए स्वयं यीशु द्वारा व्यवस्थित किए जाने का सुझाव दिया गया था।
मैरी मैग्डलीन, एक वेश्या और ईसा मसीह की एक समर्पित अनुयायी, उनके क्रूसीकरण के समय मौजूद थीं।
150 वर्ष पूर्व से हाल तक:
राजा राम मोहन राय से लेकर गांधी तक भारतीय नेता, मनु द्वारा स्थापित सामाजिक व्यवस्थाओं से संघर्ष करते हैं।
गांधी के अहिंसा के सिद्धांतों का अभ्यास किया जाता है, लेकिन देश के विभाजन के साथ उनकी प्रभावकारिता पर सवाल उठाया जाता है, और "विपरीत प्रभाव का नियम" सामने आता है।
कार्ल मार्क्स धर्मों को "अफ़ीम" कहते हैं, जो वास्तविक धर्म के लिए नहीं, बल्कि इसके संगठित, अनुष्ठानिक रूपों के लिए प्रासंगिक है।
वैज्ञानिक प्रगति, विशेष रूप से परमाणु ऊर्जा की खोज, पदार्थ के सबसे सूक्ष्म कणों में निहित असीमित ऊर्जा की प्राचीन समझ की पुष्टि करती है।
मनोवैज्ञानिक, जैसे फ्रायड, जंग और एडलर, मानव मन और इसके विकृतियों की जांच करते हैं, जिसमें हीन भावना और श्रेष्ठता की इच्छा शामिल है।
आधुनिक विज्ञान नींद के चरणों और सपनों की निगरानी के लिए उपकरण विकसित करता है, जो मानव मन के आंतरिक कामकाज की बढ़ती समझ को दर्शाता है।
सोवियत रूस के एक वैज्ञानिक फिआडोव, टेलीपैथी के प्रयोग करते हैं, जो विचारों की यात्रा की पुष्टि करते हैं।
जे. कृष्णमूर्ति और उनके भाई नित्यानंद पर "बुद्ध के तीन शरीर" को प्राप्त करने के लिए रहस्यमय प्रयोग किए जाते हैं, जिसमें मैडम ब्लावात्स्की, एनी बेसेंट और लीडबीटर जैसे लोग शामिल थे।
पूरी दुनिया में औसत जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है (उदाहरण के लिए, रूस में 1917 में 23 साल से बढ़कर स्वीडन और स्विट्जरलैंड में 82 साल हो गई है)।
आधुनिक शिक्षा प्रणालियों की आलोचना की जाती है क्योंकि वे प्रतिस्पर्धा, महत्वाकांक्षा और बाहरी मान्यताओं पर जोर देती हैं, जिससे संघर्ष और असंतोष होता है।
पात्रों की सूची
ओशो: इस दस्तावेज़ के अधिकांश अंशों के वक्ता और केंद्रीय शिक्षक। वह विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं पर चर्चा करते हैं, अपनी शिक्षाओं को व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित करते हैं, और अक्सर पारंपरिक दृष्टिकोणों की आलोचना करते हैं, विशेषकर धर्म, यौन संबंध और अहंकार से संबंधित। वह ध्यान और आत्म-ज्ञान के लिए प्रयोगात्मक दृष्टिकोणों की वकालत करते हैं।
महावीर: जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर। उन्हें अहिंसा के लिए जाना जाता है और ओशो ने उनके 12 साल के मौन और उपवास का उल्लेख किया है, जिसका उद्देश्य दूसरों को अपने अनुभव को सिखाना था। ओशो इस बात पर भी चर्चा करते हैं कि महावीर की शिक्षाओं ने उनके कुछ शिष्यों (500 मुनियों) को उनकी "पहले से ही घटित" की अवधारणा के कारण कैसे विभाजित किया।
बुद्ध: बौद्ध धर्म के संस्थापक। उनके ज्ञानोदय और उनके शारीरिक रूप के लुप्त होने का उल्लेख किया गया है, साथ ही इस बात का भी कि 500 साल बाद उनकी मूर्तियाँ कैसे स्थापित की गईं। उनकी शिक्षाएँ और विभिन्न स्थितियों में उनके उत्तरों (जैसे ईश्वर के अस्तित्व के बारे में) की भी चर्चा की गई है।
ईसा मसीह (जीसस): ईसाई धर्म की केंद्रीय हस्ती। उनके क्रूसीकरण का उल्लेख किया गया है, और यह सुझाव दिया गया है कि यह आत्म-बलिदान का एक कार्य था। मैरी मैग्डलीन के साथ उनकी बातचीत और समाज के गैर-अनुरूपता पर भी चर्चा की गई है।
कृष्ण: हिंदू धर्म में एक प्रमुख देवता और महाभारत में अर्जुन के सारथी। ओशो उनके अहिंसक दृष्टिकोण की तुलना गांधी के दृष्टिकोण से करते हैं, और उन्हें "अपने समय से बहुत आगे" पैदा हुए व्यक्ति के रूप में देखते हैं। वह पुरुष और महिला ऊर्जा के मिलन के प्रतीक के रूप में उनके महारास नृत्य का भी उल्लेख करते हैं।
गांधी (महात्मा गांधी): भारत के एक प्रमुख राजनीतिक और आध्यात्मिक नेता, जो अहिंसा के लिए जाने जाते हैं। ओशो उनकी अहिंसा के दृष्टिकोण की आलोचना करते हैं, यह सुझाव देते हुए कि यह एक "विपरीत प्रभाव" पैदा करता है और इस पर सवाल उठाते हैं कि क्या यह वास्तव में अहिंसक था।
लाओ त्ज़ु: ताओवाद के संस्थापक। उनकी शिक्षाओं पर विस्तार से चर्चा की गई है, विशेषकर उनकी "कुछ नहीं है" की अवधारणा, सहजता, अहंकार का त्याग, और विरोधाभासों को स्वीकार करना।
लाओ त्ज़ु का शिष्य: लाओ त्ज़ु के गांव से निकलने पर उनके साथ गया और बाद में उनकी शिक्षाओं को फैलाने के लिए वापस लौट आया।
कबिर: एक रहस्यवादी कवि और संत। उनके विरोधाभासी बयानों पर चर्चा की गई है, विशेषकर मृत्यु, अहंकार और शब्दों की सीमाओं के बारे में।
कमल: कबिर के पुत्र, जिनके बारे में अफवाह थी कि वह एक भोगी थे, लेकिन कबिर ने उन्हें अपना बेटा स्वीकार किया।
मियां मुल्ला नसिरुद्दीन (नासिरुद्दीन): एक रहस्यवादी और सूफी कहानियों में एक लोकप्रिय चरित्र, जिसका उपयोग ओशो अपनी शिक्षाओं को चित्रित करने के लिए करते हैं। उनका उल्लेख विभिन्न प्रसंगों में किया गया है, जैसे कि उनके कपड़े, अहंकार, और सत्य की खोज।
नासिरुद्दीन का मित्र: जिसने उसे एक शराब की बोतल दी और उसके उपवास को मापने की कोशिश की।
स्वामी राम (रामतीर्थ): एक भारतीय रहस्यवादी और दार्शनिक। उनका उल्लेख "मैं हूं" की घोषणाओं और जापान में एक जलते हुए घर की कहानी के संबंध में किया गया है।
रामकृष्ण: एक बंगाली रहस्यवादी। उनकी माँ काली की पूजा, सभी धर्मों के साधनाओं का अभ्यास, और विवेकानंद के साथ उनकी बातचीत का उल्लेख किया गया है।
विवेकानंद: रामकृष्ण के एक शिष्य और एक प्रभावशाली आध्यात्मिक व्यक्ति। रामकृष्ण के साथ उनकी बातचीत, ईश्वर को खोजने की उनकी तीव्र प्यास, और महर्षि देवेंद्रनाथ के साथ उनकी मुलाकात का उल्लेख किया गया है।
महर्षि देवेंद्रनाथ: एक महान द्रष्टा और रवींद्रनाथ टैगोर के दादा। विवेकानंद के साथ उनकी बातचीत का उल्लेख किया गया है।
नित्यानंद: जे. कृष्णमूर्ति के बड़े भाई, जिनकी रहस्यमय "तीन बुद्ध शरीरों" के प्रयोग के दौरान मृत्यु हो गई।
जे. कृष्णमूर्ति: एक भारतीय दार्शनिक और शिक्षक। उन पर किए गए "बुद्ध के तीन शरीर" के प्रयोग का उल्लेख किया गया है, जो विफल रहा।
मैडम ब्लावात्स्की: इस सदी की सबसे गहरी रहस्यवादी महिला, जिनके पास गुप्त विज्ञान का ज्ञान था, जिन्होंने नित्यानंद और कृष्णमूर्ति पर प्रयोगों में भाग लिया।
एनी बेसेंट: एक और रहस्यवादी जिन्होंने कृष्णमूर्ति पर प्रयोगों में भाग लिया।
लीडबीटर: एक और रहस्यवादी जिन्होंने कृष्णमूर्ति पर प्रयोगों में भाग लिया।
गोरख: एक योगी और संत। उनके संतुलित आसन, भोजन और नींद के सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है।
अष्टावक्र: एक ज्ञानी संत, जिनके बारे में कहा गया है कि उन्होंने राजा जनक को "आई एम अवेयरनेस" के तलवार से शरीर-चेतना के फंदे को काटने में मदद की।
राजा जनक: अष्टावक्र के एक शिष्य और एक राजा, जिन्होंने आत्म-ज्ञान प्राप्त किया।
कन्फ्यूशियस: एक चीनी दार्शनिक और लाओ त्ज़ु के समकालीन, जिन्होंने उनसे नैतिकता और सदाचार पर चर्चा की।
सूदास: एक गरीब मोची जिसने बुद्ध को अपना कमल का फूल बेचने से मना कर दिया क्योंकि वह इसे स्वयं बुद्ध के चरणों में चढ़ाना चाहता था।
फरीद: एक सूफी फकीर। उनकी अकबर से मिलने की कहानी और सत्य की तलाश में अपनी सब कुछ जोखिम में डालने की शिक्षा का उल्लेख किया गया है।
अकबर: एक मुगल सम्राट, जिसने फरीद से अपने राज्य के विस्तार के लिए प्रार्थना की।
यूक्लिड: एक प्राचीन ग्रीक गणितज्ञ, जिनके शून्य के बारे में सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है।
रदरफोर्ड: एक वैज्ञानिक, जिनके मैक्रोकोस्म और माइक्रोकोस्म के सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है।
कार्ल मार्क्स: एक दार्शनिक और अर्थशास्त्री, जिन्होंने धर्म को "अफ़ीम" कहा था और साम्यवादी समाज में स्वतंत्रता के साथ समानता के संबंध पर चर्चा की थी।
आर्थर कोस्टलर: एक विचारक, जिसका उल्लेख वैज्ञानिक और रहस्यवादी अनुभव के बीच की खाई के संदर्भ में किया गया है।
फ्रायड (सिगमंड फ्रायड): एक मनोविश्लेषक, जिन्होंने प्रेम और घृणा के विरोधाभासी स्वभाव पर चर्चा की।
जंग (कार्ल जंग): एक मनोविश्लेषक, जिनका उल्लेख पशु व्यवहार और न्यूरोसिस के संदर्भ में किया गया है।
एडलर (अल्फ्रेड एडलर): एक मनोविश्लेषक, जिनका श्रेष्ठता के लिए प्रयास करने वाले व्यक्तियों की हीन भावना पर उनके सिद्धांत के संबंध में उल्लेख किया गया है।
तर्गनेव (इवान तुर्गनेव): एक रूसी लेखक, जिनकी कहानी एक बुद्धिमान और एक मूर्ख व्यक्ति के बारे में बताई गई है।
मालुकादसा: एक रहस्यवादी, जिन्होंने कहा कि पक्षी काम नहीं करते और अजगर काम नहीं ढूंढते, क्योंकि राम उनकी देखभाल करते हैं।
बाअल शेम: एक यहूदी रहस्यवादी, जो ईश्वर से झगड़ते थे।
दियाजोनेस (डायोजनीज): एक यूनानी दार्शनिक। स्वतंत्रता के उनके दृष्टिकोण और स्वेच्छा से गुलाम बनने की उनकी इच्छा का उल्लेख किया गया है।
श्रोन: बुद्ध का एक शिष्य, जो वीणा बजाने में माहिर था, जिसका उपयोग बुद्ध ने जीवन में संतुलन की अवधारणा को समझाने के लिए किया था।
वचस्पति: एक विद्वान व्यक्ति, जिसने 12 साल बाद अपनी पत्नी को देखा और उसके अस्तित्व पर सवाल उठाया, क्योंकि वह अपने काम में लीन था।
गुरु नानक: सिख धर्म के संस्थापक। ओमकार के महत्व, आत्म-समर्पण की आवश्यकता, और सत्य को समझने के लिए हृदय से सुनने की आवश्यकता पर उनकी शिक्षाओं पर विस्तार से चर्चा की गई है।
मर्दना और बाला: नानक के दो विशेष शिष्य, एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम।
महात्मे और अनुयायी: ओशो अक्सर "महात्माओं" और उनके "अनुयायियों" की आलोचना करते हैं, यह सुझाव देते हुए कि वे अक्सर वास्तविक आध्यात्मिक परिवर्तन के बजाय बाहरी प्रदर्शन और व्यक्तित्व पंथ में फंस जाते हैं।
दार्शनिक: जिन लोगों के विचार सत्य, ज्ञान और ईश्वर के विभिन्न पहलुओं पर टिप्पणी करने के लिए उपयोग किए जाते हैं, अक्सर शब्दों के माध्यम से सत्य को समझने की सीमाओं को उजागर करने के लिए।
शब्दावली
अद्य और अत्र (Now and Here): ओशो की शिक्षाओं का शीर्षक, जो वर्तमान क्षण में जीने और अपनी पूरी चेतना के साथ अनुभव करने पर जोर देता है।
अहंकार (Ego): स्वयं की व्यक्तिगत पहचान या "मैं" की भावना, जिसे अक्सर आध्यात्मिक विकास में एक बाधा के रूप में देखा जाता है।
अहिंसा (Non-violence): हिंसा का अभाव, जिसे मृत्यु की वास्तविकता को स्वीकार करने और आंतरिक शांति प्राप्त करने के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, न कि बाहरी दमन से।
अज्ञान (Ignorance): स्वयं के वास्तविक स्वरूप और अस्तित्व की प्रकृति की कमी।
ध्यान (Meditation): एक आंतरिक अभ्यास जिसका उद्देश्य मन को शांत करना, विचारों से मुक्त होना और स्वयं के वास्तविक स्वरूप का अनुभव करना है।
ज्ञान (Knowledge): ओशो के संदर्भ में, बाहरी स्रोतों से प्राप्त जानकारी के बजाय आंतरिक अनुभव से उत्पन्न होने वाली गहरी समझ और अंतर्दृष्टि।
गुरु (Guru): एक आध्यात्मिक शिक्षक या मार्गदर्शक, जिसकी भूमिका शिष्य को बाहरी बंधनों से मुक्त करके आंतरिक अनुभव की ओर ले जाना है।
जिवनमुक्त (Jivanamukta): वह व्यक्ति जो जीवित रहते हुए ही मुक्ति प्राप्त कर चुका हो, जिसने मृत्यु का अनुभव किया हो।
द्विज (Dvij): "दो बार जन्मा" व्यक्ति; वह जिसने भौतिक जन्म के साथ-साथ आध्यात्मिक जन्म का भी अनुभव किया हो।
धर्म (Dharma): अस्तित्व का मूल नियम या प्रकृति, स्वयं का वास्तविक स्वभाव।
निर्विकल्प समाधि (Nirvikalpa Samadhi): योग की उच्चतम अवस्था, पूर्ण खालीपन और एकांत का अनुभव, जहाँ कोई विचार या कल्पना नहीं होती।
प्रार्थना (Prayer): ईश्वर के साथ संवाद का एक रूप; ओशो के संदर्भ में, यह धन्यवाद और कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है, न कि इच्छाओं की मांग।
ब्रह्मज्ञान (Brahma Gyan): ब्रह्म या ब्रह्मांडीय वास्तविकता का अनुभव, आत्मज्ञान से परे एक उच्च अवस्था।
मन (Mind): विचारों, भावनाओं और इच्छाओं का संग्रह, जिसे अक्सर सत्य की प्राप्ति में एक बाधा के रूप में देखा जाता है।
माया (Maya): भ्रम या अवास्तविक दुनिया, जिसे हम अपनी इंद्रियों और मन के माध्यम से अनुभव करते हैं।
योग (Yoga): "एकीकरण" या "संपूर्ण" का अर्थ, जिसका उद्देश्य स्वयं को अस्तित्व के साथ जोड़ना है।
शक्तिपात (Shaktipat): एक गुरु से शिष्य में ऊर्जा का स्थानांतरण, जो आध्यात्मिक जागृति को प्रेरित कर सकता है।
शब्द (Word): भाषा का एक माध्यम, जिसे ओशो सत्य को व्यक्त करने में सीमित मानते हैं, क्योंकि सत्य शब्दों से परे है।
श्रुति (Shruti): प्राचीन भारतीय ग्रंथों को संदर्भित करता है जो सुनकर सीखे जाते थे, न कि लिखकर।
सन्यास (Sannyas): एक आध्यात्मिक मार्ग या जीवन शैली जिसमें त्याग और आत्म-ज्ञान पर जोर दिया जाता है, अक्सर पारंपरिक बंधनों से मुक्ति शामिल होती है।
समाधि (Samadhi): ध्यान की एक गहरी अवस्था जहाँ व्यक्ति पूर्ण शांति और चेतना का अनुभव करता है, सभी द्वैत से परे।
साक्षी भाव (Witness-state): ध्यान में एक अवस्था जहाँ व्यक्ति अपने विचारों, भावनाओं और शारीरिक संवेदनाओं का केवल एक दर्शक या पर्यवेक्षक होता है, बिना उनमें लिप्त हुए।
आत्मज्ञान (Atma Gyan): स्वयं या आत्मा का ज्ञान, व्यक्तिगत चेतना की जागृति।
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