Saturday, July 26, 2025

मांडूक्य उपनिषद: आत्मज्ञान और चेतना का विज्ञान

 मांडूक्योपनिषद नामक एक लघु, महत्वपूर्ण उपनिषद है। इसमें अद्वैत वेदांत के दर्शन पर जोर दिया गया है, जो आत्मा और ब्रह्म की एकता को प्रतिपादित करता है। विशेष रूप से, ये ग्रंथ 'ओम' की चार अवस्थाओं—जाग्रत (जागृति), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरीय (चौथी अवस्था)—पर विस्तार से चर्चा करते हैं। तुरीय अवस्था को सर्वोच्च सत्य और आत्मा की वास्तविक, अद्वैत प्रकृति के रूप में समझाया गया है, जहाँ सभी द्वैत समाप्त हो जाते हैं। इन स्रोतों में शंकराचार्य की टीकाओं और गौड़ापादाचार्य की कारिका के माध्यम से इन अवधारणाओं को स्पष्ट किया गया है, तथा यह भी दर्शाया गया है कि तुरीय अवस्था ही आत्म-साक्षात्कार का अंतिम लक्ष्य है।

मंडुक्य उपनिषद: चेतना और आत्म-बोध का सार

परिचय

मंडुक्य उपनिषद वेदों का सार है, जो सबसे महत्वपूर्ण, सबसे छोटा और सबसे गहरा उपनिषद माना जाता है। इसमें केवल 12 श्लोक (मंत्र) हैं, फिर भी यह संपूर्ण वेदांत शिक्षा को संपीड़ित और शक्तिशाली रूप में समाहित करता है। यह उपनिषद मुख्य रूप से चेतना के चार अवस्थाओं और पवित्र शब्दांश 'ओम्' पर केंद्रित है, जो आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष का मार्ग प्रस्तुत करता है।

उल्लेखनीय उद्धरण:

  • "मंडुक्य उपनिषद सबसे महत्वपूर्ण उपनिषद है, सबसे छोटा और सबसे गहरा।" (पवराजिका दिव्यनंदप्रणा)

  • "यह ग्रंथ केवल 12 मंत्रों (श्लोकों) का है, लेकिन इसकी गहराई और महत्व अद्वितीय है।" (सनातनवेब.कॉम)

  • भगवान राम ने हनुमान को कैवल्य या मोक्ष की प्राप्ति के लिए केवल मांडूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह दी थी। (ईटीवी भारत)

1. उपनिषद और इसका महत्व

'उपनिषद' शब्द का अर्थ है "एक शिक्षक के निकट बैठकर वेदों के सत्य को समझना।" वैदिक साहित्य विशाल है, लेकिन उपनिषद ज्ञान-कांड (ज्ञान खंड) का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो अनुष्ठानों और बलिदानों से जुड़े मंत्रों से अलग हैं। ये मनुष्य के अस्तित्व की प्रकृति में गहन पूछताछ पर केंद्रित हैं।

उल्लेखनीय उद्धरण:

  • "उपनिषद वेदों का सार हैं, वैदिक साहित्य का सार।" (पवराजिका दिव्यनंदप्रणा)

  • "उपनिषद ज्ञान कांड (या ज्ञान अध्याय) के अंतर्गत वर्गीकृत किए गए हैं। वे कर्म कांड (या कर्तव्य अध्याय) और उपासना कांड (या अनुष्ठान अध्याय) से अलग हैं।" (ईटीवी भारत)

  • उपनिषद किसी विशेष धर्म या जातीय समूह के लिए नहीं हैं, बल्कि "मानव जीवन के बारे में एक सार्वभौमिक कानून" हैं, जो "चेतना के विज्ञान" से संबंधित हैं। (पवराजिका दिव्यनंदप्रणा)

  • "इसका विषय है मानव व्यक्तित्व संरचना और मानव व्यक्तित्व संरचना का मूल।" (पवराजिका दिव्यनंदप्रणा)

2. ओम् का प्रतीकवाद

मंडुक्य उपनिषद का मुख्य विषय ओम् (या एयूएम) शब्दांश की महिमा है। ओम् को संपूर्ण अस्तित्व, चेतना और स्वयं का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है। यह भूत, वर्तमान और भविष्य, और तीनों कालों से परे के सभी को समाहित करता है।

उल्लेखनीय उद्धरण:

  • "इस उपनिषद में ओम्कार (प्रणव) की महिमा का वर्णन है।" (सनातनवेब.कॉम)

  • "ओम् इत्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ 1 ॥" (सनातनवेब.कॉम)

  • "मंडुक्य उपनिषद का प्रथम श्लोक हमें बताता है कि “ओम्” का स्वरूप सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है।" (सनातनवेब.कॉम)

ओम् का ध्यान मन को शांत करने में मदद करता है क्योंकि यह परम सत्य का ध्वनि प्रतीक है। यह व्यक्ति को स्वयं और दुनिया के बीच, समय-बद्ध अनुभवों और शाश्वत सत्यों के बीच भ्रामक अलगाव को पार करने में आमंत्रित करता है।

3. चेतना की चार अवस्थाएँ

मंडुक्य उपनिषद चेतना की चार अवस्थाओं और ओम् के साथ उनके संबंध को परिभाषित करने के लिए जाना जाता है:

  • जाग्रत (जागृत अवस्था): 'ए' ध्वनि से संबंधित, यह वह अवस्था है जहाँ चेतना बाहरी दुनिया पर केंद्रित होती है, इंद्रियों के माध्यम से भौतिक वस्तुओं और घटनाओं को perceived करती है।

  • स्वप्न (स्वप्न अवस्था): 'यू' ध्वनि से संबंधित, यह वह अवस्था है जहाँ चेतना भीतर की ओर मुड़ती है, मन द्वारा निर्मित एक व्यक्तिपरक वास्तविकता के साथ बातचीत करती है। इसमें अभी भी द्वैतवादी धारणाएं शामिल हैं।

  • सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था): 'एम' ध्वनि से संबंधित, यह वह अवस्था है जहाँ आंतरिक या बाहरी वस्तुओं की कोई जागरूकता नहीं होती है। आत्म पूर्ण शांति और आनंद में लीन होता है, जो अद्वैत के अनुभव के सबसे करीब होता है, हालाँकि इसमें चेतन रूप से एकता की पहचान नहीं होती है।

  • तुरीय (चौथी अवस्था/आत्मीय चेतना): यह ओम् ध्वनि के बाद की चुप्पी से संबंधित है। तुरीय शुद्ध चेतना है, वह अवस्था जहाँ आत्म ब्रह्म के साथ अपनी एकता को पहचानता है। यह पारंपरिक अर्थों में कोई अनुभव नहीं है, क्योंकि यह विषय और वस्तु, समय, स्थान और कार्य-कारण के भेद से परे है।

उल्लेखनीय उद्धरण:

  • "मंडुक्य उपनिषद चार अवस्थाओं के बारे में हिंदू रहस्योद्घाटन का स्रोत है और इन राज्यों को जागृत (जागने), स्वप्न (सपने देखना), सुसुप्ति (गहरी नींद), और तुर्य (चौथी अवस्था, जो आत्मज्ञान की स्थिति है) के रूप में परिभाषित करता है।" (टेस्टबुक)

  • "तुरीया अवस्था आत्मा की सबसे गहन और सर्वोच्च अवस्था है। यह अवस्था न जाग्रत है, न स्वप्न, न सुषुप्ति। यह अवस्था सभी अनुभवों और धारणाओं से परे है।" (सनातनवेब.कॉम)

  • मंडुक्य उपनिषद, श्लोक 7: "तुरीय वह नहीं है जो भीतर की दुनिया के प्रति सचेत है, न ही वह जो बाहरी दुनिया के प्रति सचेत है, न ही वह जो दोनों के प्रति सचेत है, न ही वह जो चेतना का एक द्रव्यमान है।" (टॉम दास)

4. आत्मन और ब्रह्म: अद्वैत वेदांत का सार

मंडुक्य उपनिषद का केंद्रीय दार्शनिक अंतर्दृष्टि आत्मन (व्यक्तिगत आत्म) को ब्रह्म (परम वास्तविकता) के साथ पहचानना है। यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है, जो स्वयं और परम वास्तविकता की गैर-द्वैतता को सिखाता है।

उल्लेखनीय उद्धरण:

  • "सर्वं ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥ 2 ॥ अर्थ: यह सब ब्रह्म है, यह आत्मा ब्रह्म है, और यह आत्मा चार भागों में विभाजित है।" (सनातनवेब.कॉम)

  • "यह अवस्था अनिवार्य रूप से इच्छा और पीड़ा रहित ज्ञान की शुद्ध अवस्था के बराबर है, या जिसे सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।" (ईटीवी भारत)

  • "‘आत्मा = ब्रह्म’"। (ईटीवी भारत, श्रोडिंगर के बारे में)

इस उपनिषद के अनुसार, तुरीय वह वास्तविक आत्म है, ब्रह्म, आत्मन, एक। जब इसका एहसास होता है, तो सभी भ्रम और पीड़ा दूर हो जाती है। यह शुद्ध आनंद है। यह मन की धारणाओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय चेतना पर ध्यान केंद्रित करता है।

5. मोक्ष और आत्म-साक्षात्कार का मार्ग

मंडुक्य उपनिषद का अध्ययन आत्म-ज्ञान, आंतरिक शांति और आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है। मोक्ष को अक्सर कष्टों की समाप्ति के रूप में समझा जाता है, और उपनिषदों में, यह ज्ञान के माध्यम से मुक्ति है।

उल्लेखनीय उद्धरण:

  • "मोक्ष का अर्थ है कष्टों की समाप्ति।" (अभिनंदन पांडे)

  • "मोक्ष हमें इसलिए चाहिए क्योंकि हम बंधन में हैं, बंधन से मुक्ति ही मोक्ष है।" (अभिनंदन पांडे)

  • "केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है।" (शंकराचार्य, ईटीवी भारत)

ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया में तीन चरण शामिल हैं:

  • श्रवण: गुरु के उपदेशों को श्रद्धापूर्वक सुनना।

  • मनन: गुरु के उपदेशों पर चिंतन और विचार करना।

  • निधिध्यासन: प्राप्त ज्ञान को निरंतर अभ्यास के माध्यम से बनाए रखना।

यह प्रक्रिया मन को शांत करने, विचारों को वश में करने और अंततः आत्म की शुद्ध अवस्था में प्रवेश करने पर जोर देती है। यह एक प्रथम-व्यक्ति अनुसंधान है, जहाँ सत्य को स्वयं अनुभव करना होता है, न कि किसी किताब या किसी और के विचारों से।

उल्लेखनीय उद्धरण:

  • "इस प्रकार की समझ कहीं भी नहीं है। यह एक प्रथम-व्यक्ति अनुसंधान है।" (पवराजिका दिव्यनंदप्रणा)

  • "योग ही इस ज्ञान का साधन है, योग चित्त वृत्ति निरोध है।" (पवराजिका दिव्यनंदप्रणा)

6. मंडुक्य उपनिषद पर टिप्पणियाँ

मंडुक्य उपनिषद की गहनता को गौड़पादाचार्य के 'मंडुक्य कारिका' (लगभग 1500-1600 साल पहले लिखा गया) और आदि शंकराचार्य की टिप्पणियों (लगभग 1400 साल पहले लिखा गया) ने आगे बढ़ाया है। गौड़पादाचार्य का कार्य अद्वैत वेदांत के सबसे पुराने बौद्धिक नींवों में से एक माना जाता है, जो उपनिषद के विचारों को विस्तार से समझाता है।

उल्लेखनीय उद्धरण:

  • "मांडूक्य उपनिषद को आज मांडूक्य कारिका के बिना लगभग अधूरा माना जाता है - जो कि आदि शंकराचार्य के महागुरु गौड़पादाचार्य द्वारा लिखी गई आलोचनात्मक टिप्पणी है।" (ईटीवी भारत)

  • "मंडुक्य उपनिषद पर गौड़पादाचार्य द्वारा रचित 'मंडुक्य कारिका' एक महत्वपूर्ण टीका है, जो उपनिषद के गूढ़ तात्त्विक और दार्शनिक विचारों को विस्तार से समझाती है।" (सनातनवेब.कॉम)


निष्कर्ष

मंडुक्य उपनिषद, अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, चेतना की प्रकृति, आत्मन और ब्रह्म की एकता, और आत्म-ज्ञान के मार्ग पर गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि मानव अस्तित्व की प्रकृति और चेतना को समझने के लिए एक व्यापक दार्शनिक ढांचा है। इसका कालातीत ज्ञान आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्मांड के साथ एकत्व के अनुभव की ओर एक मार्ग प्रदान करता है, जो आधुनिक मन विज्ञान और मनोविज्ञान के लिए भी प्रासंगिक है।


मांडूक्य उपनिषद: गहन दार्शनिक अंतर्दृष्टि और आधुनिक प्रासंगिकता का संक्षिप्त विवरण

पृष्ठभूमि और महत्व: मांडूक्य उपनिषद को सभी उपनिषदों का "सार" माना जाता है, जैसा कि मुक्तिकोपनिषद में घोषित किया गया है। शंकराचार्य ने भी इस पर टिप्पणी करना आवश्यक समझा, जो वेदांत दर्शन में इसके सर्वोच्च महत्व और मूल्य को दर्शाता है। यह अन्य उपनिषदों से इस मायने में भिन्न है कि यह विशेष रूप से दर्शनशास्त्र से संबंधित है, जबकि अन्य वेदांत के विभिन्न चरणों जैसे धर्म, धर्मशास्त्र, रहस्यवाद और विज्ञान से निपटते हैं।

दर्शन के मूलभूत प्रश्न: मांडूक्य उपनिषद दर्शन के तीन मूलभूत प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित करता है:

  1. बाहरी (भौतिक) और आंतरिक (मानसिक) दुनिया की प्रकृति।

  2. चेतना की प्रकृति।

  3. सत्य का अर्थ।

यह दर्शन इस बात पर जोर देता है कि केवल 'संतुष्टि' सत्य का मानदंड नहीं है, और वेदांत दर्शन के अध्ययन के लिए सबसे अच्छी तैयारी वैज्ञानिक पद्धति में प्रशिक्षण है, जिसमें 'सत्य के लक्ष्य तक पहुंचने तक न रुकने' का दृढ़ संकल्प शामिल है।

सत्य और अनुभव की समग्रता: उपनिषदों का दर्शन मानता है कि 'परम सत्य वह है जो किसी भी प्रकार के मतभेद को स्वीकार नहीं करता है।' इस परम सत्य को समझने के लिए, मानव अनुभव या ज्ञान की समग्रता पर विचार करना महत्वपूर्ण है। जबकि अन्य दार्शनिक प्रणालियाँ अक्सर केवल जाग्रत अवस्था पर आधारित होती हैं, उपनिषद के दार्शनिक मानते हैं कि परम सत्य के बारे में पूछताछ के लिए जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं का समन्वय आवश्यक है।

माया और द्वैत की अवास्तविकता: मांडूक्य उपनिषद का एक केंद्रीय विषय यह है कि प्रकट दुनिया, या द्वैत, माया (भ्रम) है और अंततः अवास्तविक है। "यह द्वैत (जो ज्ञात है) केवल भ्रम (माया) है। अद्वैत (अकेले) परम वास्तविकता है।" । यह दृष्टिकोण स्वप्न अनुभवों के दृष्टांतों से समर्थित है, जहाँ स्वप्न में देखी गई वस्तुएँ शरीर के भीतर स्थित होती हैं और सीमित स्थान में होती हैं, इस प्रकार उनकी अवास्तविकता सिद्ध होती है।

शंकराचार्य के अनुसार, बाहरी वस्तुएँ, इंद्रिय-अंगों द्वारा कथित, "कोई पूर्ण वास्तविकता नहीं रखतीं। वे अविद्या (अज्ञान) के कारण वास्तविक प्रतीत होती हैं।" चेतना, जिसे अद्वैत में आत्मा कहा जाता है, ही एकमात्र वास्तविकता है।

आत्मा और उसकी तीन अवस्थाएँ (चतुष्पाद): आत्मा को चार 'पाद' या 'चौथाई' के रूप में वर्णित किया गया है, हालांकि यह अविभाज्य है; यह विभाजन केवल समझने की सुविधा के लिए है:

  1. वैश्वानर (जाग्रत अवस्था): यह पहली तिमाही है, जिसका कार्यक्षेत्र जाग्रत अवस्था है। यह बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत है, इसमें सात अंग और उन्नीस मुख हैं, और इसका अनुभव सकल (भौतिक) वस्तुओं से बना है। "वैश्वानर वह है जो सर्वव्यापी है" ।

  2. तैजस (स्वप्न अवस्था): यह दूसरी तिमाही है, जिसका कार्यक्षेत्र स्वप्न अवस्था है। यह आंतरिक वस्तुओं के प्रति सचेत है और सूक्ष्म (मानसिक) वस्तुओं का अनुभव करता है। "तैजस वह है जो मन में भीतर से जानता है" । स्वप्न और जाग्रत अवस्थाओं में अनुभव की जाने वाली सभी वस्तुएँ "केवल मन के रूप या मन की कल्पनाएँ हैं" ।

  3. प्राज्ञ (सुषुप्ति अवस्था): यह तीसरी तिमाही है, जिसका कार्यक्षेत्र सुषुप्ति (गहरी नींद) की अवस्था है। इसमें कोई इच्छा या स्वप्न अनुभव नहीं होता है। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ सभी अनुभव एकीकृत हो जाते हैं और द्वैत की सभी वस्तुएँ अविभेदीकरण की अवस्था तक पहुँच जाती हैं। प्राज्ञ को "आनंदमय" कहा जाता है, जो "आनंद की प्रचुरता से संपन्न" है, लेकिन "यह स्वयं आनंद अनंत नहीं है"। प्राज्ञ को "सभी का स्वामी", "सभी का ज्ञाता" और "भीतर नियंत्रक" के रूप में वर्णित किया गया है ।

  4. तुरीय (परम वास्तविकता): यह चौथी अवस्था है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीनों अवस्थाओं से परे है। इसे किसी भी इंद्रिय अंग द्वारा "अदृश्य", "किसी भी चीज़ से संबंधित नहीं", "अगम्य" (मन द्वारा), "अनुमान नहीं किया जा सकने वाला", "अचिंतनीय" और "अवर्णनीय" के रूप में वर्णित किया गया है । तुरीय को शून्य नहीं माना जाता है, क्योंकि "बिना किसी आधार के कल्पना का अस्तित्व असंभव है" । तुरीय को केवल "सभी गुणों के निषेध" द्वारा ही इंगित किया जा सकता है। यह "शाश्वत और सर्व-प्रकाशमान" है ।

कार्य-कारण संबंध का खंडन: मांडूक्य उपनिषद, हुमे और ब्रैडली से सदियों पहले, तर्क देता है कि कार्य-कारण का "तथ्य में कोई आधार नहीं है" । यदि परम वास्तविकता स्वयं में पूर्ण और संतुष्ट है, तो सृष्टि के लिए कोई इच्छा नहीं हो सकती है। "उत्पत्ति या सृष्टि, जैसा कि पृथ्वी, लोहा, अग्नि की चिंगारी आदि के दृष्टांतों द्वारा वर्णित है, का एक और अर्थ है, अर्थात्, वे केवल अस्तित्व की एकता की प्राप्ति के साधन हैं। इसमें भेद जैसा कुछ भी नहीं है" ।

माया और अज्ञान (अविद्या) की भूमिका: सृष्टि की अवधारणा को माया के रूप में समझाया गया है, जो अज्ञान के कारण वस्तुओं को वैसे ही प्रकट करती है जैसे वे नहीं हैं। "माया या भ्रम वह नाम है जो हम किसी ऐसी चीज़ को देते हैं जो (वास्तव में) मौजूद नहीं है (लेकिन जिसे माना जाता है)" । माया को "अनादि" (शुरुआत रहित) माना जाता है, क्योंकि सापेक्षिक दृष्टिकोण से इसका कोई कारण नहीं ढूंढा जा सकता है। अद्वैत दर्शन यह बताता है कि अज्ञान के अधिग्रहण से ज्ञान का पता चलता है, लेकिन अज्ञान स्वयं अवास्तविक है और केवल आत्म-ज्ञान द्वारा ही नष्ट किया जा सकता है।

ज्ञान और मुक्ति: "अज्ञानता के कारण, मन, जो गैर-द्वैत आत्मा के समान है, बाहरी वस्तुओं का रूप धारण करता हुआ प्रतीत होता है। यह गलत ज्ञान, बाहरी वस्तुओं के अस्तित्व के बारे में, अज्ञान के कारण है..." । मुक्ति, या परम वास्तविकता की प्राप्ति, मन को द्वैत के भ्रम से मुक्त करके प्राप्त की जाती है। "जब मन, सत्य के ज्ञान के कारण कल्पना नहीं करता है, जो आत्मा है, तो यह बाहरी वस्तुओं की कमी के कारण शांत हो जाता है, जैसे ईंधन से न जलने वाली आग" ।

यह ज्ञान "जन्म रहित और सभी कल्पनाओं से मुक्त" है । यह आत्म-ज्ञान, या ब्रह्म के साथ अपनी पहचान का अनुभव, तात्कालिक और स्थायी है। "ज्ञानी की ज्ञान, जो आत्म-प्रकाश है, हमेशा वस्तुओं से अछूता रहता है।" ।

भारतीय दर्शन की विशिष्टता: भारतीय दर्शन, विशेष रूप से वेदांत, सत्य की खोज में अपनी अद्वितीय दृढ़ता और पूर्वाग्रहों के उन्मूलन पर जोर देने के लिए प्रतिष्ठित है। "भारत में ही कोई साधक न केवल अपनी सभी भौतिक संपत्ति का त्याग करते हुए देखता है, जैसा कि अन्य देशों में होता है, बल्कि हर भावना, विचार, दृष्टिकोण या धारणा का भी त्याग करता है जिससे वह शुरुआत में जुड़ा हो सकता है।" । आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए 'अहं' या व्यक्तिगत 'स्व' का पूर्ण उन्मूलन आवश्यक माना जाता है।

बौद्ध धर्म के साथ संबंध और अंतर: मांडूक्य उपनिषद के लेखक गौड़ापाद और शंकराचार्य को कभी-कभी बौद्ध विचारों से प्रभावित माना जाता है, विशेष रूप से शून्यता और विज्ञानवाद की अवधारणाओं से। हालांकि, पाठ इस आरोप का खंडन करता है, यह बताते हुए कि गौड़ापाद का दृष्टिकोण बौद्ध दर्शन से मौलिक रूप से भिन्न है। गौड़ापाद स्वयं "स्पष्ट संभव भाषा में निष्कर्ष पर कहते हैं कि 'यह (उनका अपना दृष्टिकोण) बुद्ध का दृष्टिकोण नहीं है।'" । जबकि बौद्ध विज्ञानवाद बाहरी वस्तुओं की वास्तविकता को नकार कर उपनिषदों की गैर-द्वैत चेतना के करीब आता है, अद्वैत वेदांत का जोर आत्मा के गैर-द्वैत ज्ञान पर है जो परम वास्तविकता है। बौद्ध शून्य को एक आधार के रूप में नहीं मानते हैं, जबकि अद्वैत का तर्क है कि भ्रम के लिए एक सकारात्मक आधार होना चाहिए (जैसे रस्सी के भ्रम के लिए रस्सी)।

आधुनिक विज्ञान के साथ प्रासंगिकता: ETV Bharat का लेख "माण्डूक्य उपनिषद वैज्ञानिक सोच को देता है बढ़ावा" यह उजागर करता है कि उपनिषदों के ज्ञान ने क्वांटम यांत्रिकी में बीसवीं सदी के सिद्धांतों को प्रभावित किया है। इरविन श्रोडिंगर जैसे वैज्ञानिक, जो उपनिषदिक दर्शन से प्रभावित थे, ने "आत्मा = ब्रह्म" समीकरण को 'दूसरे श्रोडिंगर समीकरण' के रूप में संदर्भित किया। मांडूक्य उपनिषद मन विज्ञान और मनोविज्ञान के समकालीन सिद्धांतों को भी प्रभावित करता रहा है, जिसमें प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में "चेतना की विभिन्न अवस्थाओं की व्याख्या" पर चर्चा की गई है।

लेख राजा जनक के स्वप्न के दृष्टांत को प्रस्तुत करता है, जहाँ जनक अपने स्वप्न अनुभव और जाग्रत वास्तविकता के बीच के सत्य पर सवाल उठाते हैं। ऋषि अष्टावक्र का संदेश यह है कि "हम केवल उतने ही सत्य हैं, और उससे अधिक सत्य नहीं हैं, जितना कि अंततः हमारी चेतना है - एक साथ एकल और सामूहिक।" यह इस विचार पर जोर देता है कि हमारी जाग्रत अवस्थाओं के दौरान वास्तविकता की अनुभूतियों के अनुभव हमेशा स्वप्न अनुभवों से कम झूठे या अविश्वसनीय नहीं होते।

लेख का निष्कर्ष है कि मांडूक्य और उपनिषदों का गहरा सबक यह है कि हमें "छोटे और भ्रामक लक्ष्यों के क्षितिज से बहुत आगे देखना चाहिए," जिसमें किसी विशेष राष्ट्रीय पहचान या सांस्कृतिक एकाधिकार के रूप में गहन सिद्धांतों का दावा करना शामिल है। उपनिषद विश्व के लिए भारत का योगदान हैं, और क्वांटम यांत्रिकी के सिद्धांतों ने वेदांतिक अवधारणाओं के साथ प्रतिध्वनि पाई है, लेकिन ये सभी अनुभव अंततः लौकिक और क्षणभंगुर हैं।

निष्कर्ष: मांडूक्य उपनिषद अद्वैत वेदांत का एक गहन दार्शनिक ग्रंथ है, जो आत्मा और ब्रह्म की गैर-द्वैत प्रकृति को परम वास्तविकता के रूप में स्थापित करता है। यह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं के विश्लेषण के माध्यम से द्वैत की अवास्तविकता पर जोर देता है और अज्ञान को सभी पीड़ाओं का मूल कारण बताता है। इसकी शिक्षाएँ केवल धार्मिक या रहस्यमय नहीं हैं, बल्कि कठोर दार्शनिक और वैज्ञानिक जाँच को प्रोत्साहित करती हैं, जैसा कि आधुनिक मन विज्ञान और क्वांटम भौतिकी में इसकी निरंतर प्रासंगिकता से पता चलता है। यह पूर्वाग्रहों के उन्मूलन और परम, अविभाज्य सत्य की प्राप्ति के लिए एक सार्वभौमिक मार्ग प्रदान करता है।

  • मांडूक्य उपनिषद में चेतना की तीन अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) और तुरीय की अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा करें। यह कैसे अद्वैत वेदान्त के परम वास्तविकता की प्रकृति को स्थापित करने के लिए एक व्यवस्थित दृष्टिकोण प्रदान करता है?

मांडूक्य उपनिषद वेदांत दर्शन के सार को प्रस्तुत करने वाला एक गहन ग्रंथ है, जो मुख्य रूप से चेतना की प्रकृति और परम वास्तविकता की पहचान पर केंद्रित है। यह उपनिषद दर्शनशास्त्र के तीन मूलभूत समस्याओं पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करता है: बाह्य (भौतिक) और आंतरिक (मानसिक) जगत की प्रकृति, चेतना की प्रकृति और विचार का अर्थ। यह "विचार" नामक वेदान्तिक विधि का पालन करता है, जहाँ आत्मा को जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं से जोड़ा जाता है, और फिर इन अवस्थाओं को तुरीय या परम वास्तविकता में विलीन होते हुए दिखाया जाता है। यह तब इंगित करता है कि अद्वैत आत्मा इन तीनों अवस्थाओं से अभिन्न है, और इसलिए जो कुछ भी मौजूद है वह ब्रह्म है।

मांडूक्य उपनिषद ओम् (प्रणव) को एक प्रतीक के रूप में उपयोग करता है ताकि लोगों को परम वास्तविकता को समझने में मदद मिल सके, जो समय, स्थान और कार्य-कारण के सभी श्रेणियों से परे है।

चेतना की तीन अवस्थाएँ:

मांडूक्य उपनिषद मानव अनुभव की कुल तीन अवस्थाओं का विश्लेषण करके वास्तविकता तक पहुँचने की विधि अपनाता है। ये अवस्थाएँ हैं:

  • जाग्रत अवस्था (वैश्वानर):

    • यह आत्मा का पहला पाद (भाग) है।

    • इस अवस्था में, व्यक्ति इंद्रियों के माध्यम से बाहरी दुनिया से जुड़ता है, और चेतना बाहरी रूप से केंद्रित होती है।

    • जाग्रत अवस्था में आत्मा बाहरी (स्थूल) वस्तुओं का अनुभव करती है। यह अवस्था सात अंगों (सात लोकों या धातुओं) और उन्नीस मुखों (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार) के माध्यम से स्थूल भोग का अनुभव करती है।

    • यह वैश्वानर (विराट पुरुष) कहलाता है, जो समस्त सकल शरीरों की समग्रता से अभिन्न है। इसे "पहला" पाद कहा जाता है क्योंकि बाद के पाद (अवस्थाएँ) इसी के माध्यम से अनुभूत होती हैं।

    • "ओम्" के ध्वनि प्रतीकों में, जाग्रत अवस्था को "अ" (A) ध्वनि से दर्शाया गया है। "अ" सभी ध्वनियों में व्याप्त है और पहला अक्षर है, ठीक वैसे ही जैसे वैश्वानर संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है और पहली अवस्था है।

  • स्वप्न अवस्था (तैजस):

    • यह आत्मा का दूसरा पाद है।

    • इस अवस्था में, चेतना आंतरिक अनुभवों और विचारों पर केंद्रित होती है।

    • तैजस सूक्ष्म भोग का अनुभव करता है, जो स्वयं के आंतरिक अंग द्वारा निर्मित होते हैं। यह अवस्था भी जाग्रत अवस्था की तरह सात अंगों और उन्नीस मुखों से युक्त होती है।

    • ओम् के ध्वनि प्रतीकों में, स्वप्न अवस्था को "उ" (U) ध्वनि से दर्शाया गया है। "उ" ध्वनि "अ" से श्रेष्ठ है और "अ" तथा "म" के बीच में आती है, जैसे तैजस विश्व और प्राज्ञ के बीच में है।

  • सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ):

    • यह आत्मा का तीसरा पाद है।

    • सुषुप्ति अवस्था वह है जहाँ व्यक्ति गहन निद्रा में होता है, न कोई स्वप्न देखता है और न कोई इच्छा करता है। इस अवस्था में सभी वस्तुएँ (सूक्ष्म और स्थूल दोनों) आत्मा के भीतर समाहित हो जाती हैं, जिससे सभी भेद और अंतर समाप्त हो जाते हैं।

    • प्राज्ञ को चेतना का एक पुंज कहा गया है, और यह पूर्ण शांति और आनंद की अवस्था है। इसे कारण अवस्था (अव्यक्त) भी कहा जाता है, क्योंकि जाग्रत और स्वप्न के अनुभव इसमें विलीन हो जाते हैं। यह सभी का स्रोत है, जिससे सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं और जिसमें वे अंततः विलीन हो जाते हैं।

    • प्राज्ञ स्वयं या गैर-स्वयं, सत्य या असत्य के बारे में कुछ भी नहीं जानता। यह केवल कारण से ही कंडीशन (शर्तरहित) होता है।

    • ओम् के ध्वनि प्रतीकों में, सुषुप्ति अवस्था को "म" (M) ध्वनि से दर्शाया गया है। "म" को "माप" और "जिसमें सभी एक हो जाते हैं" (अपीते:) दोनों के रूप में वर्णित किया गया है। वैश्वानर और तैजस प्राज्ञ द्वारा ही मापे जाते हैं और गहन निद्रा में प्राज्ञ में विलीन हो जाते हैं।

तुरीय (चौथी अवस्था):

  • तुरीय आत्मा की सबसे गहन और सर्वोच्च अवस्था है। इसे "चौथा" कहा जाता है क्योंकि यह तीन अवस्थाओं के बाद आता है, न कि एक क्रमिक अवस्था के रूप में। यह परम वास्तविकता है।

  • तुरीय की परिभाषा (विशेषताओं का निषेध): तुरीय वह नहीं है जो आंतरिक (व्यक्तिपरक) या बाहरी (वस्तुपरक) दुनिया के प्रति सचेत है, न ही वह जो दोनों के प्रति सचेत है, न ही वह जो चेतना का पुंज है, न ही वह जो साधारण चेतना है, न ही वह जो अचेत है।

  • तुरीय की अन्य विशेषताएँ: यह अदृश्य (न किसी इंद्रिय द्वारा देखा गया), अव्यवहार्य (किसी से संबंधित नहीं), अग्राह्य (मन द्वारा समझा नहीं जा सकता), अलक्षण (अनुमान योग्य नहीं), अचिंत्य (अचिंतनीय), अव्यपदेश्य (अवर्णनीय) है।

  • यह आत्म-ज्ञान की एकरूपता का सार है। यह प्रपञ्चोपशमं (प्रकट दुनिया या घटनात्मक अस्तित्व का विलय/समाप्ति) है।

  • यह शांत, शिव, और अद्वैत है। यह सभी शुभ और गैर-द्वैत है।

  • यह सदा विद्यमान और सर्व-द्रष्टा है।

  • इसमें कोई भाग नहीं है और यह संबंध रहित है। इसमें कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, कोई सापेक्ष सत्य मौजूद नहीं है, और वस्तुओं या घटनाओं से इसका कोई संबंध नहीं है।

  • तुरीय कारण और प्रभाव से मुक्त है। अज्ञान (माया) वास्तविकता के दृष्टिकोण से मौजूद नहीं है।

  • ओम् के ध्वनि प्रतीकों में, तुरीय को "अमात्र" (soundless) भाग से दर्शाया गया है। यह मौन या आत्मा है।

अद्वैत वेदांत में परम वास्तविकता की स्थापना के लिए व्यवस्थित दृष्टिकोण:

मांडूक्य उपनिषद अवस्था-त्रय (तीन अवस्थाओं का विश्लेषण) और ओंकार उपासना (ओम् का प्रतीकवाद) के माध्यम से अद्वैत वेदांत के परम सत्य को स्थापित करता है।

  1. अनुभवों का विश्लेषण: उपनिषद हमारे अनुभवों का विश्लेषण करके वास्तविकता तक पहुँचता है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं का विश्लेषण करके, यह स्पष्ट होता है कि ये अवस्थाएँ परिवर्तनशील और नगण्य हैं, लेकिन इनमें उपस्थित चेतना स्थिर और अपरिवर्तनीय है। यह निष्कर्ष निकलता है कि ये तीन अवस्थाएँ "टालने योग्य" हैं, क्योंकि वे आत्मा में मौजूद नहीं हैं, ठीक वैसे ही जैसे रस्सी में सांप नहीं होता।

  2. ओम् का प्रतीकवाद: ओम् को "सभी शब्दों का शब्द" कहा गया है और यह परम वास्तविकता को जानने का एक साधन है। ओम् के तीन भाग (अ, उ, म) स्थूल, सूक्ष्म और कारण ब्रह्म के पहलुओं को दर्शाते हैं, जिन्हें जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से जोड़ा गया है। तुरीय को ओम् के ध्वनिहीन भाग ("अमात्र") के रूप में दर्शाया गया है। ओम् पर ध्यान करने से मन शांत होता है और अंततः परम वास्तविकता का बोध होता है।

  3. द्वैत का निषेध और जगत की अन वास्तविकता:

    • उपनिषद तर्कसंगत रूप से द्वैत की अन वास्तविकता को प्रदर्शित करता है; जब भ्रम नष्ट हो जाता है, तो अद्वैत का ज्ञान प्रकट होता है (जैसे रस्सी में सांप का भ्रम)।

    • वास्तविकता के दृष्टिकोण से, माया (अज्ञान) मौजूद नहीं है। सृष्टि को एक भ्रम या जादूगर का प्रदर्शन माना जाता है। गौड़पादाचार्य के अनुसार, सृष्टि के सिद्धांत अंतिम सत्य के दृष्टिकोण से रुचिहीन हैं।

    • यह माना गया है कि जो कुछ भी द्वैत के रूप में देखा जाता है, वह मन की कल्पना मात्र है। अविनाशी ब्रह्म माया के कारण ही परिवर्तित होता हुआ प्रतीत होता है, यदि यह परिवर्तन वास्तविक होता तो ब्रह्म नष्ट हो जाता। जीवात्माओं का जन्म एक भ्रामक वस्तु की तरह है, और वह भ्रम स्वयं गैर-मौजूद है।

  4. आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष:

    • मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य है, जो बंधनों और दुखों से मुक्ति है।

    • तुरीय का ज्ञान सभी दुखों का अंत करता है।

    • जो व्यक्ति ओम् (ध्वनिहीन, शुद्ध आत्मा के रूप में) को जानता है, वह अपने आप को आत्मा में विलीन कर लेता है।

    • अंतिम सत्य यह है कि ब्रह्म से अलग जीवात्मा का अस्तित्व कभी नहीं होता।

    • ज्ञान प्राप्त करने पर, मन शांत हो जाता है और व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार होता है।

    • ब्रह्म अजन्मा, निद्रा और स्वप्न से मुक्त, नाम और रूप रहित, सदा प्रकाशित और सर्वज्ञ है। इसके संबंध में कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है।

    • परम सत्य को जानने वाले, ज्ञान और ज्ञेय की पहचान से युक्त होते हैं।

    • यह उपनिषद आत्म-ज्ञान, आंतरिक शांति और आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

गौड़पादाचार्य की कारिका और शंकराचार्य की टिप्पणी मांडूक्य उपनिषद के गूढ़ विचारों को विस्तार से समझाते हैं, अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को तर्क और शास्त्र के माध्यम से स्थापित करते हैं। यह दृष्टिकोण मानव चेतना की गहराई को समझने और परम, अविभाज्य वास्तविकता के साथ उसके एकत्व को पहचानने का एक व्यवस्थित और गहन मार्ग प्रदान करता है।

  • गौडपाद और शंकर कारणता के विचार (जन्म, मृत्यु, सृष्टि) को भ्रम क्यों मानते हैं? "अजातिवाद" का सिद्धांत माया की अवधारणा से कैसे संबंधित है, और यह अद्वैत दर्शन को कैसे आकार देता है?

गौडपाद और शंकर वेदांत दर्शन में कारणता के विचार (जन्म, मृत्यु, सृष्टि) को भ्रम (माया) मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार परम सत्य (ब्रह्म या आत्मा) अद्वैत, अपरिवर्तनशील और अजन्मा है। यह दृष्टिकोण "अजातिवाद" के सिद्धांत से गहराई से जुड़ा है और अद्वैत दर्शन को मौलिक रूप से आकार देता है।

यहाँ इसका विस्तृत स्पष्टीकरण दिया गया है:

कारणता (जन्म, मृत्यु, सृष्टि) को भ्रम क्यों माना जाता है:

  • परम सत्य का स्वरूप: गौडपाद और शंकर के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्ता है, जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। यह एक है और इसमें कोई दूसरा नहीं है, इसलिए इसमें वास्तविक अर्थ में किसी भी प्रकार का जन्म, मृत्यु या परिवर्तन संभव नहीं है।

  • अज्ञान (माया/अविद्या) का रोल:

    • सृष्टि, जन्म और मृत्यु की धारणा माया या अविद्या (अज्ञान) के कारण उत्पन्न होती है। माया एक मिथ्या शक्ति है जो अजन्मा आत्मन को वास्तव में बिना किसी परिवर्तन के परिवर्तित या निर्मित होने जैसा प्रतीत कराती है। परमार्थिक दृष्टिकोण से, माया स्वयं अवास्तविक है

    • शंकर कहते हैं कि दुनिया का अस्तित्व केवल भ्रम (माया) है और यह वास्तव में कभी प्रकट ही नहीं हुआ था। जिस तरह रस्सी में साँप का भ्रम, या रेगिस्तान में मृगतृष्णा, वास्तविक नहीं होती, उसी तरह जन्म और मृत्यु सहित यह दृश्यमान संसार ब्रह्म पर आरोपित एक भ्रम है

  • मन की भूमिका: सभी कथित द्वैत, जिसमें वस्तुएं, समय और स्व शामिल हैं, अंततः मन की रचनाएं या कल्पनाएं हैं। जब मन विषय-वस्तु भेद के रूप में कार्य करना बंद कर देता है, तो द्वैत भी गायब हो जाता है

"अजातिवाद" का सिद्धांत, माया की अवधारणा से कैसे संबंधित है, और यह अद्वैत दर्शन को कैसे आकार देता है:

  • अजातिवाद की परिभाषा: अजातिवाद, या नो-क्रिएशन (उत्पत्तिहीनता) का सिद्धांत, यह दावा करता है कि आत्मन (स्व) शाश्वत रूप से अजन्मा (अजात), अपरिवर्तनशील है, और इसका कोई वास्तविक मूल या विनाश नहीं है। यह परमार्थिक सत्य में कारण और कार्य की अनुपस्थिति पर प्रकाश डालता है। गौडपाद स्वयं सृष्टि की वास्तविकता पर सवाल उठाते हैं, परम सत्य के दृष्टिकोण से।

  • अजातिवाद और माया का संबंध: माया ही वह आभासी शक्ति है जो अजन्मा आत्मन को रूपांतरित या निर्मित होने जैसा प्रतीत कराती है, जबकि वास्तव में कोई परिवर्तन नहीं होता है। यह वह भ्रामक आवरण है जो ब्रह्म के वास्तविक, अपरिवर्तनशील स्वरूप को छिपाता है। अद्वैत वेदांत यह सिखाता है कि अज्ञान के कारण ही जीव जन्म लेते हुए प्रतीत होते हैं, लेकिन अज्ञान के दूर होने पर जीव अपने मूल स्वरूप (ब्रह्म) में वापस आ जाते हैं

  • अद्वैत दर्शन को आकार देना:

    • अद्वैत का मूल: अद्वैत दर्शन यह मानता है कि ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है, और सभी विविधता अंततः एक भ्रम (माया) है। इसका लक्ष्य आत्मन और ब्रह्म की एकता को जानना है, सभी द्वैतवादी धारणाओं को पार करते हुए।

    • निषेध की विधि (नेति-नेति): इस अद्वैत सत्य को जानने का मार्ग सभी आरोपित गुणों और भ्रामक घटनाओं के निषेध (नेति-नेति - "यह नहीं, यह नहीं") को शामिल करता है। तुरीय को यह क्या नहीं है, यह बताकर वर्णित किया गया है।

    • तुरीय का महत्व: तुरीय चेतना की पारलौकिक चौथी अवस्था है, जो जाग्रत (जागने), स्वप्न (सपने देखने) और सुषुप्ति (गहरी नींद) से परे है। यह शुद्ध जागरूकता, अद्वैत, शांतिपूर्ण और आनंदमय है, जो ब्रह्म के साथ स्व की एकता की अंतिम प्राप्ति का प्रतिनिधित्व करता है। तुरीय में, कारण और कार्य का अस्तित्व नहीं होता है, और सभी घटनाएँ समाप्त हो जाती हैं

कुल मिलाकर, गौडपाद और शंकर का अजातिवाद का सिद्धांत अद्वैत दर्शन का एक केंद्रीय स्तंभ है, जो माया की अवधारणा के माध्यम से कारणता और विविधता की अवास्तविकता को स्पष्ट करता है, और परम सत्य के रूप में अजन्मा, अपरिवर्तनशील ब्रह्म की पहचान पर बल देता है।


  • "ओम्" (ॐ) के प्रतीक को मांडूक्य उपनिषद में आत्मा के ज्ञान के लिए एक आवश्यक साधन के रूप में कैसे समझाया गया है? ओम् के विभिन्न भाग चेतना की अवस्थाओं से कैसे संबंधित हैं, और ध्वनिहीन पहलू का क्या महत्व है?

मांडूक्य उपनिषद में "ओम्" (ॐ) के प्रतीक को आत्मज्ञान के लिए एक आवश्यक साधन के रूप में समझाया गया है क्योंकि यह ब्रह्मांड के मूल सत्य, ब्रह्म (परम सत्ता) और आत्मा (व्यक्तिगत आत्मा) दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। यह न केवल अस्तित्व की समग्रता को समाहित करता है, बल्कि आध्यात्मिक प्राप्ति और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति का मार्ग भी है।

यहां "ओम्" के प्रतीक और आत्मा के ज्ञान से उसके संबंध का विस्तृत विवरण दिया गया है:

  • ओम् का समग्र स्वरूप: मांडूक्य उपनिषद में "ओम्" को संपूर्ण सृष्टि का आधार माना गया है। इसे समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक और ब्रह्म के स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह केवल वर्तमान में ही नहीं, बल्कि भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में भी विद्यमान है। जो कुछ तीनों कालों से परे है, वह भी "ओम्" ही है। इस प्रकार, "ओम्" सभी अनुभव स्तरों और वास्तविकताओं का प्रतिनिधित्व करता है, लौकिक से पारलौकिक तक। शंकर के अनुसार, सभी विभेदित वस्तुएं जो नामों से इंगित होती हैं, अपने संबंधित नामों से भिन्न नहीं हैं, और चूंकि विभिन्न नाम "ओम्" से भिन्न नहीं हैं, इसलिए यह सब वास्तव में "ओम्" ही है। उच्चतम ब्रह्म को "ओम्" के माध्यम से ही जाना जाता है।

  • ओम् के विभिन्न भागों का चेतना की अवस्थाओं से संबंध: मांडूक्य उपनिषद "ओम्" को चेतना की तीन अवस्थाओं और एक चौथी, तुरीय अवस्था से जोड़ता है, जो आत्मज्ञान की कुंजी है।

    • 'अ' (A) ध्वनि: यह जाग्रत अवस्था (जागने की अवस्था) का प्रतीक है। इस अवस्था में, चेतना बाहरी दुनिया के साथ इंद्रियों के माध्यम से जुड़ती है, स्थूल वस्तुओं और घटनाओं को समझती है। यह वैश्वानर (विराट पुरुष) द्वारा दर्शाया गया है, जो सात अंगों और उन्नीस मुखों के माध्यम से स्थूल भोग का अनुभव करता है। 'अ' ध्वनि की सर्वव्यापकता (सभी ध्वनियों में व्याप्त होना) और प्रथम होना, वैश्वानर की सर्वव्यापकता और अन्य अवस्थाओं से पहले आने के साथ समानता दर्शाती है।

    • 'उ' (U) ध्वनि: यह स्वप्न अवस्था (सपने देखने की अवस्था) का प्रतीक है। इस अवस्था में, चेतना आंतरिक अनुभवों और विचारों पर केंद्रित होती है, जहां सूक्ष्म भोग का अनुभव होता है। तैजस इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जो आत्मा की आंतरिक प्रज्ञा और अनुभवों का प्रतीक है। 'उ' का 'अ' से श्रेष्ठ होना और 'अ' और 'म' के बीच में आना, तैजस के विश्व और प्राज्ञ के बीच में होने और उससे श्रेष्ठ होने के साथ समानता दर्शाता है।

    • 'म' (M) ध्वनि: यह सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद की अवस्था) का प्रतीक है। यह पूर्ण शांति और आनंद की अवस्था है, जहाँ न कोई स्वप्न होता है और न कोई इच्छा। प्राज्ञ इस अवस्था का प्रतीक है, जो आत्मा की गहन प्रज्ञा और आनंद को दर्शाता है। 'म' को मापक और वह स्थान जहाँ सब एक हो जाते हैं (विलय) के रूप में देखा जाता है। जिस प्रकार 'अ' और 'उ' 'म' में विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार विश्व और तैजस सुषुप्ति में प्राज्ञ में विलीन हो जाते हैं।

  • ध्वनिहीन पहलू (अमात्रा / तुरीय) का महत्व:

    • ओम् का ध्वनिहीन पहलू, जिसे अमात्रा कहा जाता है, तुरीय (चौथी अवस्था) का प्रतीक है। यह चेतना की वह पारलौकिक अवस्था है जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है।

    • तुरीय शुद्ध चेतना, अद्वैत, शांतिपूर्ण और आनंदमय है। इसे सभी घटनाओं का विराम या प्रपंचोपशम कहा जाता है।

    • शंकर के अनुसार, तुरीय में कारण और कार्य दोनों का अस्तित्व नहीं होता है। प्राज्ञ (सुषुप्ति) कारण से बंधी है, लेकिन तुरीय नहीं।

    • यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य है। इसे "नेति-नेति" (यह नहीं, यह नहीं) कहकर वर्णित किया जाता है क्योंकि यह सभी गुणों और शब्दों से परे है।

    • तुरीय वास्तविकता का मूल स्वरूप है, जिसे रस्सी में साँप के भ्रम की तरह, माया के माध्यम से वस्तुओं के भ्रम के रूप में देखा जाता है। यह अकल्पना के बिना नहीं रह सकता, जैसा कि रस्सी, सीप या रेगिस्तान के बिना साँप, चाँदी या मृगतृष्णा का भ्रम नहीं हो सकता।

    • तुरीय की प्राप्ति से सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। जब द्वैत का भ्रम दूर हो जाता है, तो केवल अद्वैत ही रहता है, जो परम सत्य है।

    • यह ब्रह्म के साथ स्वयं की एकता की अंतिम प्राप्ति का प्रतिनिधित्व करता है। यह वह अवस्था है जहाँ ज्ञाता, ज्ञेय और जानने का कार्य तीनों में से कोई नहीं होता; ज्ञान स्वयं ही आत्म-स्वरूप की अवस्था है।

आत्मज्ञान के लिए ओम् की आवश्यकता: ओम् पर ध्यान करके, साधक सीधे और सहज रूप से ब्रह्म के सार को समझ सकते हैं, जिससे आत्मज्ञान और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है। ओम् को आत्मा का नाम बताया गया है, और एकाग्रता के साथ इसका उच्चारण ब्रह्म के प्रति चेतना को जगाने में मदद कर सकता है। मन को ओम् के साथ एकीकृत किया जाना चाहिए, क्योंकि ओम् ब्रह्म है, जो सदैव निर्भय है। ओम् को जानने से सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है और व्यक्ति "प्रथम" बन जाता है। ओम की ध्वनि में मन को शांत करने की शक्ति होती है। गौड़पाद और शंकर के अनुसार, यह कारण और कार्य की अवास्तविकता पर जोर देता है, और अजन्मा, अपरिवर्तनशील ब्रह्म को परम सत्य के रूप में पहचानता है।



  • अद्वैत वेदान्त अन्य दार्शनिक विद्यालयों की आलोचना क्यों करता है, विशेष रूप से बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं की? अद्वैत का दृष्टिकोण उनके साथ कैसे भिन्न है, और यह स्वयं को "विवाद-मुक्त" दर्शन के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है?

मांडूक्य उपनिषद, जो अद्वैत वेदान्त का सार प्रस्तुत करता है, अन्य दार्शनिक विद्यालयों की आलोचना करता है क्योंकि वे परम सत्य के बजाय माया (भ्रम) के दायरे में रहते हुए द्वैत (भेद) पर आधारित होते हैं। अद्वैत स्वयं को "विवाद-मुक्त" दर्शन के रूप में प्रस्तुत करता है क्योंकि इसका लक्ष्य एक ऐसे सत्य की खोज करना है जो सभी प्रकार के विवादों और सांप्रदायिक मतभेदों से परे हो।

यहाँ अद्वैत वेदान्त अन्य दार्शनिक विद्यालयों की आलोचना क्यों करता है, विशेष रूप से बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं की, और यह स्वयं को "विवाद-मुक्त" दर्शन के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है, इसका विस्तृत विवरण दिया गया है:

1. अद्वैत वेदान्त की आलोचना का आधार:

अद्वैत वेदान्त के अनुसार, संपूर्ण विविधतापूर्ण ब्रह्मांड, जिसे हम अपनी इंद्रियों और मन से अनुभव करते हैं, वह वास्तविक नहीं है, बल्कि अविद्या या माया के कारण एक भ्रम है। यह परम सत्ता (ब्रह्म) पर एक रज्जु में सर्प के भ्रम की तरह आरोपित है। अन्य दार्शनिक प्रणालियाँ इस मूल भ्रम को स्वीकार नहीं करतीं और इसलिए विभिन्न प्रकार की मान्यताओं और तर्कों में उलझ जाती हैं जो अंततः विरोधाभासी होती हैं।

  • विवाद और आसक्ति: अद्वैत मानता है कि द्वैतवादी दर्शन, चूंकि वे एक अलग वास्तविकता को स्वीकार करते हैं, इसलिए वे आसक्ति और घृणा जैसे विकारों का कारण बनते हैं। मन की गतिविधि के कारण ही द्वैत का बोध होता है, और मन के शांत होने पर द्वैत नहीं रहता।

  • कल्पना पर आधारित: शंकराचार्य कहते हैं कि सभी प्रकार की धारणाएँ, चाहे वे भौतिकवादी हों या सूक्ष्म, अंततः मन की कल्पनाएँ मात्र हैं। इन सिद्धांतों में कोई वास्तविक तार्किक प्रमाण नहीं होता।

  • सृष्टि के सिद्धांतों की अस्वीकृति: गौड़पाद और शंकराचार्य परम सत्य के दृष्टिकोण से सृष्टि के सिद्धांतों में कोई रुचि नहीं दिखाते। उनका मानना है कि सृष्टि स्वयं माया (भ्रम) का एक कार्य है। ब्रह्म पूर्ण इच्छाओं वाला है, उसे किसी प्रयोजन से सृष्टि करने की आवश्यकता नहीं है (जैसे आनंद या क्रीड़ा के लिए)। शंकराचार्य के अनुसार, सृष्टि के विभिन्न विवरण केवल आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए एक अलंकारिक रूपक हैं, क्योंकि सृष्टि के विवरणों से कोई सत्य प्राप्त नहीं होता।

2. बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं की आलोचना और अद्वैत का दृष्टिकोण:

हालाँकि गौड़पाद ने शून्यवाद और विज्ञानवाद जैसे बौद्ध शिक्षाओं को आत्मसात किया हो सकता है, लेकिन यह साबित नहीं होता कि उन्होंने "बौद्ध तर्ज पर सोचा" था। अद्वैत का तर्क है कि बौद्ध दर्शन के कुछ पहलुओं में कमियाँ हैं:

  • शून्यवाद (निहिलिज्म): शंकराचार्य बौद्ध निहिलवादियों की इस स्थिति की आलोचना करते हैं कि वे अनुभव और संज्ञान के तथ्य के बावजूद हर चीज़ को "शून्य" या "कुछ भी नहीं" मानते हैं। अद्वैत के अनुसार, कोई भी भ्रम (जैसे रस्सी में साँप का भ्रम) बिना किसी सकारात्मक आधार (अधिष्ठान) के मौजूद नहीं हो सकता। परम वास्तविकता शून्य या निषेध नहीं है, क्योंकि अनुभवजन्य अनुभव के लिए एक सकारात्मक आधार आवश्यक है।

  • कार्य-कारण संबंध (जाति) बनाम अजन्मा (अजाति): बौद्ध धर्म की कुछ शाखाएं अजाति (गैर-उत्पत्ति) पर जोर देती हैं, जिसे अद्वैत "स्वीकार" करता है। हालाँकि, अद्वैत का अजाति एक शून्य नहीं है। अद्वैत यह तर्क देता है कि कार्य-कारण संबंध को तार्किक रूप से स्थापित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि कारण और कार्य की अग्रता और अनुवर्तीता को निश्चित रूप से इंगित नहीं किया जा सकता है। जो चीज़ शुरुआत और अंत में मौजूद नहीं है, वह बीच में भी मौजूद नहीं है, जैसे भ्रम। यह अजाति को परम सत्य के रूप में स्थापित करता है।

  • मन की प्रकृति: पश्चिमी मनोविज्ञान में विचारों और भावनाओं को चेतना के रूप में देखा जाता है, जबकि भारतीय (वेदांतिक) दृष्टिकोण में मन को आत्मा (चेतना) द्वारा प्रकाशित माना जाता है जो उसके पीछे स्थित है।

3. अन्य द्वैतवादी प्रणालियों (जैसे सांख्य, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, आदि) की आलोचना:

अद्वैत वेदान्त इन सभी प्रणालियों को "मन की कल्पना" मानता है।

  • सांख्य दर्शन: सांख्य मानता है कि प्रकृति से जगत की उत्पत्ति होती है, जो पहले से ही विद्यमान कारण का विकास है। लेकिन अद्वैत इसे अतार्किक और विरोधाभासी मानता है। पुरुष को मात्र भोक्ता मानना भी असंगत है, क्योंकि यदि उपभोग उसका स्वभाव है, तो यह बाहरी वस्तुओं की आवश्यकता का अर्थ होगा।

  • न्याय और वैशेषिक दर्शन: ये मानते हैं कि कार्य एक गैर-मौजूद कारण से उत्पन्न होता है, जिसे अद्वैत तार्किक रूप से गलत मानता है (जैसे खरगोश के सींग)।

  • मीमांसा दर्शन: मीमांसा कर्म और उसके फलों के बीच परस्पर निर्भरता को मानती है, जिससे कार्य और कारण की चक्रीय प्रक्रिया होती है जो स्वयं में विरोधाभासी है और जिसका कोई आरंभ नहीं है।

4. अद्वैत स्वयं को "विवाद-मुक्त" दर्शन के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है:

वेदान्त का उद्देश्य एक ऐसे सत्य को खोजना है जो "सभी विवादों से मुक्त हो" और "विचार के किसी भी स्कूल या धर्म या शास्त्रों की व्याख्या का विरोध न करे"। इसकी सच्चाई पंथ, पंथ, रंग, जाति, लिंग और विश्वास से स्वतंत्र है।

  • अद्वैत का सार: अद्वैत मानता है कि केवल ब्रह्म ही वास्तविक है। यह अजन्मा, अपरिवर्तनीय, कारण और प्रभाव से रहित, सदा शुद्ध और प्रकाशित है। द्वैत सिर्फ माया या अविद्या के कारण एक भ्रम है।

  • अविरोध और सामंजस्य: "अस्पर्शयोग" (वह योग जो किसी भी चीज़ से संबंधित नहीं है) संघर्ष से मुक्त और प्रकृति में विरोधाभास रहित है। एक अद्वैतवादी, चूंकि सब कुछ स्वयं को ही मानता है, वह किसी और का विरोध नहीं करता। जैसे एक हाथी पर सवार व्यक्ति एक पागल से नहीं लड़ता जो खुद को हाथी पर सवार होने का दावा करता है।

  • ज्ञान के स्तर: अद्वैत ज्ञान के विभिन्न स्तरों को स्वीकार करता है। यह लौकिक या व्यवहारिक स्तर पर द्वैत को स्वीकार करता है, जबकि परमार्थिक स्तर पर केवल अद्वैत ही सत्य है।

  • सर्वोत्तम साधन: आत्मज्ञान के लिए "ओम्" को एक आवश्यक साधन के रूप में समझाया गया है क्योंकि यह ब्रह्मांड के मूल सत्य, ब्रह्म (परम सत्ता) और आत्मा (व्यक्तिगत आत्मा) दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। "ओम्" पर ध्यान करके, साधक सीधे ब्रह्म के सार को समझ सकते हैं।

  • तुरीय की स्थिति: तुरीय चेतना की चौथी अवस्था है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है। यह शुद्ध चेतना, अद्वैत, शांतिपूर्ण और आनंदमय है। तुरीय में ज्ञाता, ज्ञेय और जानने की क्रिया तीनों नहीं होते। यह वह अवस्था है जहाँ सभी दुख समाप्त हो जाते हैं।

  • साधन-चतुष्टय: आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए विवेक (नित्य-अनित्य वस्तु का भेदभाव), वैराग्य (लौकिक और पारलौकिक भोगों से विरक्ति), शमदमादि-षट्-संपत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान) और मुमुक्षुत्व (मोक्ष की तीव्र इच्छा) आवश्यक हैं।

इस प्रकार, अद्वैत वेदान्त अन्य दार्शनिक प्रणालियों की आलोचना करता है क्योंकि वे द्वैत पर आधारित हैं और परम सत्य को नहीं जान पाते, और स्वयं को "विवाद-मुक्त" दर्शन के रूप में प्रस्तुत करता है क्योंकि इसका अंतिम लक्ष्य सभी द्वैत और विरोधाभासों से परे, परम अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति है।


  • "आत्म-उन्मूलन" (ego elimination) के महत्व को स्पष्ट करें जैसा कि उपनिषदिक दर्शन में प्रस्तुत किया गया है। यह "ज्ञानी" के जीवन और संसार के प्रति उनके दृष्टिकोण को कैसे प्रभावित करता है?

उपनिषदिक दर्शन में "आत्म-उन्मूलन" (ego elimination) का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि इसे परम सत्य की प्राप्ति और बंधन से मुक्ति के लिए एक अनिवार्य शर्त माना जाता है। यह आत्म-उन्मूलन केवल अहंकार को दूर करने से कहीं अधिक है; यह आत्म-ज्ञान के लिए आवश्यक पूर्वाग्रहों, पूर्वकल्पनाओं और विषयपरक लगाव से मन को शुद्ध करने की प्रक्रिया है।

आत्म-उन्मूलन का महत्व:

  • ज्ञान के मार्ग में बाधाओं का उन्मूलन: उपनिषदिक दर्शन सिखाता है कि अहंकार, जो अज्ञान का पहला रूप है, सत्य की खोज में सभी बाधाओं की जड़ है। जब तक अहंकार से कोई संबंध रहता है, अज्ञान से मुक्ति की कोई बात नहीं हो सकती।

  • निष्कपटता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण: वेदांत दर्शन एक वैज्ञानिक पद्धति पर बल देता है जिसमें सत्य की पूर्ण प्राप्ति तक रुकना नहीं होता। इसमें व्यक्तिगत भावनाओं या पूर्वाग्रहों से रहित निर्णय लेने के लिए आत्म-उन्मूलन का प्रयास शामिल है। किसी भी वैज्ञानिक निष्कर्ष की वैधता व्यक्तिपरक तत्व के उन्मूलन पर निर्भर करती है

  • भ्रम से मुक्ति: अज्ञान के कारण होने वाले द्वैत के भ्रम, जैसे कि सुख-दुख के साथ स्वयं की पहचान और अहंकार, ही पीड़ा का कारण हैं। वेदांत का लक्ष्य मन को इस विश्वास से अमोहित करना है कि द्वैत वास्तव में मौजूद है

आत्म-उन्मूलन की प्रक्रिया: आत्म-उन्मूलन केवल एक वैचारिक समझ नहीं है, बल्कि यह एक गहन साधना है। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  • पूर्वकल्पनाओं और पूर्वाग्रहों को दूर करना: सत्य तक पहुँचने के लिए एकाग्रता प्राप्त करने हेतु लगाव से उत्पन्न सभी पूर्वकल्पनाओं और पूर्वाग्रहों को मन से पूरी तरह से साफ करना आवश्यक है।

  • आत्म-निर्भरता का त्याग: भगवान कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं कि "मैं" के विचार से मुक्त व्यक्ति, जिसकी बुद्धि अच्छे या बुरे से प्रभावित नहीं होती, वह किसी को मार कर भी नहीं मारता और कर्म से बंधा नहीं होता। सबसे महान उपलब्धियाँ उन लोगों द्वारा की गई हैं जिन्होंने अपने अहंकार का कोई विचार नहीं रखा है।

  • माया और द्वैत की अवास्तविकता का बोध: साधक को यह समझना चाहिए कि दुनिया में देखी जाने वाली सभी वस्तुएँ (जैसे पहाड़ या हाथी) और अनुभव, जैसे शिक्षक, शिष्य और शास्त्र, केवल मानसिक कल्पनाएँ हैं। वे तब तक मौजूद रहते हैं जब तक मन में उनका विचार रहता है। शंकर कहते हैं कि अज्ञान (अविद्या) मन के बाहर नहीं है; मन ही अविद्या है, जो संसार के बंधन का कारण है। जब मन नष्ट हो जाता है, तो सब कुछ नष्ट हो जाता है।

  • जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति का अतिक्रमण: मांडूक्य उपनिषद चेतना की तीन अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न), और सुषुप्ति (गहरी नींद) - का वर्णन करता है। आत्म-उन्मूलन का अर्थ है तुरीया, जो चौथी अवस्था है, को पहचानना, जो इन तीनों अवस्थाओं से परे है और विशुद्ध चेतना है। यह तुरीया ही आत्म-ज्ञान है, जिसमें स्वयं की ब्रह्म से एकता का अनुभव होता है।

  • इंद्रियों और मन पर नियंत्रण: ऋषि कहते हैं कि मन और उसकी गतिविधियाँ वास्तव में गैर-द्वैत ब्रह्म हैं, जो हमेशा शुद्ध, मुक्त और प्रकाशित रहता है। मन को शांत करना और विचारों को रोकना आवश्यक है, क्योंकि हमारी जागरूकता विचारों से जुड़ी हुई है। पतंजलि के योग सूत्रों के अनुसार, योग चित्त वृत्तियों का निरोध (मन की गतिविधियों को रोकना) है, जो मन को अनुशासित करने और विचारों से मुक्त करने की एक तकनीक है।

  • अधिरोपण (Superimposition) को समझना: वेदांत में, अधिरोपण (अध्यास) का अर्थ है किसी ऐसी चीज़ को आरोपित करना जहाँ वह नहीं है, जैसे रस्सी को साँप समझना। अज्ञान के कारण, हम वास्तविकता और अवास्तविकता को मिला देते हैं। मन को स्पष्ट करने से इस अध्यारोप को दूर करने में मदद मिलती है।

"ज्ञानी" (आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति) पर प्रभाव: आत्म-उन्मूलन के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने वाले ज्ञानी के जीवन और संसार के प्रति दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन आता है:

  • द्वैत का अंत और एकता का अनुभव: ज्ञानी सर्वत्र और सभी गतिविधियों में केवल गैर-द्वैत ब्रह्म का अनुभव करता है। वह जानता है कि नाम, रूप और संबंध उनकी परिवर्तनशीलता के कारण मायावी हैं। उसके लिए, "न तो यह सत्य है और न ही वह सत्य था। केवल तुम ही सत्य हो"। वह देखता है कि दृश्यमान संसार वास्तव में कभी प्रकट ही नहीं हुआ था, क्योंकि यह सब माया है

  • दुख और भय से मुक्ति: तुरीया सभी दुखों को समाप्त करने में सक्षम है। ज्ञानी के लिए, द्वैत की धारणा का अभाव होता है, और वह वास्तविक आनंद का अनुभव करता है, जिससे भय समाप्त हो जाता है।

  • शांत और अनासक्त जीवन: ज्ञानी शांत रहता है और सुख-दुख से अप्रभावित रहता है। वह बाहरी वस्तुओं को वास्तविक नहीं मानता है और इस प्रकार उनसे अनासक्त रहता है। अहंकार-रहित व्यक्ति सबसे बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करता है। भगवान कृष्ण के अनुसार, अहंकार के विचार से मुक्त होने पर, व्यक्ति कर्मों से बंधा नहीं होता।

  • परिवर्तित दृष्टिकोण और व्यवहार: ज्ञानी मन और इंद्रियों को गैर-द्वैत ब्रह्म के समान मानता है। वह समस्त संसार को अपने ही विचार का प्रक्षेपण मानता है। ज्ञानी के लिए, शांति और निर्भयता स्वाभाविक हैं। वह अहंकार-मुक्त होकर, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं से मुक्त हो जाता है, और उसके लिए केवल तुरीया ही शेष रहती है

  • जीवन का सहज प्रवाह: ज्ञानी अपने मन की गतिविधियों में भी ब्रह्म को देखता है, जिससे मन की गतिविधियां उसके शाश्वत सुख में बाधक नहीं बनतीं। वह नित्य-शुद्ध, नित्य-मुक्त आत्मा है।

विस्तृत समयरेखा

8वीं - 1वीं शताब्दी ईसा पूर्व (संभावित, कुछ बाद में लिखे गए):

  • उपनिषदों की रचना, जिसमें मांडूक्य उपनिषद भी शामिल है। इन्हें ज्ञान कांड (ज्ञान अध्याय) के तहत वर्गीकृत किया गया है, जो कर्म कांड (कर्तव्य अध्याय) और उपासना कांड (अनुष्ठान अध्याय) से भिन्न हैं।

प्राचीन काल:

  • मांडूक्य उपनिषद को "एकमात्र उपनिषद" घोषित किया गया है जिसे पढ़ना पर्याप्त है, क्योंकि इसमें सभी उपनिषदों का सार निहित है।

  • गौड़पाद, शंकराचार्य के परमतात्पर्य गुरु (गुरु के गुरु), मांडूक्य उपनिषद पर अपनी कारिका की रचना करते हैं। परंपरा के अनुसार, गौड़पाद ने बदरिकाश्रम, हिमालय के भीतरी भाग में महान तपस्या की थी।

  • शंकराचार्य ने गौड़पाद की कारिका पर टिप्पणी लिखी, जो अद्वैत वेदांत के दर्शन के लिए इसकी सर्वोच्च महत्ता और मूल्य को दर्शाता है।

  • राजा जनक का भयानक स्वप्न और बाद में ऋषि अष्टावक्र द्वारा उनकी जागृति।

17वीं शताब्दी:

  • दारा शिकोह द्वारा नियुक्त उपनिषदों के फ़ारसी अनुवाद का यूरोप में अनुवाद होना शुरू हुआ।

1918:

  • इरविन श्रोडिंगर को 19वीं सदी के शुरुआती जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेनहावर के कार्यों के माध्यम से उपनिषदिक दर्शन से परिचित कराया गया।

  • श्रोडिंगर ने मजाक में समीकरण 'आत्मा = ब्रह्म' को अपने "दूसरे श्रोडिंगर समीकरण" के रूप में संदर्भित किया।

1930 के दशक:

  • 24 जून 1932: स्वामी निखिलानंद ने प्रॉविडेंस, रोड आइलैंड, यूएसए में "मांडूक्य उपनिषद और कारिका शंकराचार्य भाष्य के साथ - स्वामी निखिलानंद" पुस्तक की प्रस्तावना लिखी।

  • 1935: डब्ल्यू.बी. येट्स द्वारा लिखित एक निबंध क्राइटेरियन में मांडूक्य उपनिषद पर थॉमस स्टर्न्स इलियट द्वारा प्रकाशित किया गया।

  • 1936: श्री रामकृष्ण आश्रम, मैसूर द्वारा "मांडूक्य उपनिषद और कारिका शंकराचार्य भाष्य के साथ - स्वामी निखिलानंद" का पहला संस्करण प्रकाशित किया गया। इस संस्करण की समीक्षा फरवरी 2009 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा ऑनलाइन प्रकाशित हुई।

1939:

  • कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा "मांडूक्य उपनिषद और कारिका शंकराचार्य भाष्य के साथ - स्वामी निखिलानंद" की एक अकादमिक समीक्षा प्रकाशित की गई।

1944:

  • "मांडूक्य उपनिषद और कारिका शंकराचार्य भाष्य के साथ - स्वामी निखिलानंद" का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ।

1949:

  • "मांडूक्य उपनिषद और कारिका शंकराचार्य भाष्य के साथ - स्वामी निखिलानंद" का तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ।

1975:

  • जॉन जी. हॉवेल्स ने "वर्ल्ड हिस्ट्री ऑफ़ साइकियाट्री" में 'चेतना की विभिन्न अवस्थाओं की व्याख्या' के रूप में मांडूक्य पर चर्चाएँ शामिल कीं।

अगस्त 2, 2024:

  • एटीयू भारत द्वारा अरूप के. चटर्जी का एक लेख "मांडूक्य उपनिषद वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देता है" प्रकाशित हुआ, जिसमें उपनिषदों की प्राचीनता और आधुनिक विज्ञान, विशेषकर क्वांटम यांत्रिकी और मन विज्ञान पर उनके प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है।

पात्रों की सूची

प्रमुख आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व:

  1. भगवान राम: हनुमान को मोक्ष प्राप्ति के लिए मांडूक्य उपनिषद का अध्ययन करने की सलाह दी थी।

  2. हनुमान: भगवान राम के एक समर्पित भक्त, जिन्हें राम ने मांडूक्य उपनिषद का अध्ययन करने की सलाह दी थी।

  3. गौड़पाद (श्री गौड़पाद): अद्वैत वेदांत के एक प्रमुख आचार्य और शंकराचार्य के परमतात्पर्य गुरु (गुरु के गुरु)। उन्होंने मांडूक्य उपनिषद पर कारिका नामक एक महत्वपूर्ण टीका लिखी। उन्हें बदरिकाश्रम, हिमालय में महान तपस्या करने वाला बताया गया है।

  4. शंकराचार्य (श्री शंकराचार्य): अद्वैत वेदांत दर्शन के महान प्रतिपादक। उन्होंने भगवद गीता, उपनिषदों और ब्रह्म सूत्र जैसे सबसे प्रामाणिक वेदांतिक कार्यों पर टिप्पणी लिखी है, और गौड़पाद की कारिका पर भी एक टिप्पणी को महत्वपूर्ण माना है।

  5. स्वामी विवेकानंद: एक आधुनिक वेदांती, जिन्हें प्रोफेसर जेम्स (अमेरिका) द्वारा "वेदांतियों के प्रतिमान" के रूप में वर्णित किया गया है। उन्होंने शंकराचार्य की तरह मानवता के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित किया।

  6. श्री रामकृष्ण परमहंस: एक महान संत, जिन्होंने सार्वभौमिक प्रेम का संदेश दिया और जिनकी प्रार्थना का एक अंश स्रोत में उद्धृत किया गया है।

  7. राजा जनक: विदेह के महान सम्राट और सीता के पिता, जिन्हें एक भयानक स्वप्न से जागने के बाद अष्टावक्र ने सत्य का बोध कराया।

  8. अष्टावक्र: एक वैदिक ऋषि और अष्टावक्र गीता के लेखक, जिन्होंने राजा जनक को सत्य का संदेश दिया कि वास्तविकता अंततः हमारी चेतना है।

  9. बादरायण: एक प्राचीन दार्शनिक, जिनका उल्लेख शंकराचार्य के साथ स्वप्न अनुभव और जाग्रत अनुभव के बीच अंतर के संबंध में किया गया है।

  10. नागार्जुन: एक बौद्ध दार्शनिक, जिनकी द्वंद्वात्मक तर्क-पद्धति का गौड़पाद के साथ तुलना की गई है, हालांकि मांडूक्य उपनिषद के लेखक उनकी शून्यवाद की स्थिति की आलोचना करते हैं।

  11. अश्वघोष, असंग और वसुबंधु: बौद्ध शिक्षक जिनका प्रोफेसर एस.एन. दास गुप्ता ने गौड़पाद के बाद फलने-फूलने का तर्क दिया है, हालांकि स्रोत इसका खंडन करता है।

अकादमिक और लेखक व्यक्तित्व:

  1. स्वामी निखिलानंद: "मांडूक्य उपनिषद और कारिका शंकराचार्य भाष्य के साथ" के अनुवादक और टिप्पणीकार। उन्होंने वेदांतसार और दृग् दृस्य विवेका का भी अनुवाद किया है और भारतीय पत्रिकाओं में धर्म और दर्शन पर लिखा है।

  2. वी. सुब्रमण्यम अय्यर: मैसूर विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त रजिस्ट्रार, जिन्होंने स्वामी निखिलानंद की पुस्तक के लिए प्रस्तावना लिखी और उन्हें कारिका के गूढ़ दर्शन को समझने में मदद की। उन्हें एक "साहसी विचारक" के रूप में वर्णित किया गया है।

  3. श्री सच्चिदानंद शिवाभिनव नरसिम्हा भारती स्वामी (श्रृंगेरी): प्रस्तावना के लेखक के "परम पूज्य गुरु", जिन्होंने उन्हें कारिका का अध्ययन करने से परिचित कराया और जिनसे उन्हें "अमूल्य विशेषाधिकार" प्राप्त हुआ।

  4. प्रोफेसर एस.एन. दास गुप्ता: "ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसफी" के लेखक, जिन्होंने तर्क दिया कि गौड़पाद संभवतः एक बौद्ध थे और उनका दर्शन बौद्ध धर्म से उधार लिया गया था, जिसे स्रोत में खंडित किया गया है।

  5. प्रोफेसर राधाकृष्णन: "इंडियन फिलॉसफी" (खंड II) के लेखक, जिन्होंने गौड़पाद के दर्शन का अनुमान लगाया और कुछ शब्दों के बौद्धिक प्रयोग पर टिप्पणी की।

  6. श्री कृष्णराज वडियार बहादुर IV (मैसूर के महाराजा): मैसूर के महाराजा, जिन्हें स्वामी निखिलानंद की पुस्तक समर्पित है। उन्हें "सत्य की खोज में अविचलित दृढ़ता" के लिए उच्च सम्मान में रखा गया है, और उनके पास दर्शन का "गहरा और व्यापक ज्ञान" था, विशेष रूप से मांडूक्य उपनिषद और कारिका के लिए। उन्होंने लेखक को गौड़पाद का आलोचनात्मक अध्ययन करने में भी प्रोत्साहित किया।

  7. के.ए. कृष्णस्वामी अय्यर: बैंगलोर के एक वेदांती, जिन्हें लेखक अपनी "असीम कृतज्ञता" व्यक्त करते हैं।

  8. श्री रामकृष्ण ऑर्डर के स्वामी: लेखक उन लोगों के प्रति भी ऋणी हैं जिन्होंने मैसूर में उनके साथ रहकर सत्य की दार्शनिक खोज के लिए अपना जीवन समर्पित किया है।

  9. जे.ए. थॉमसन: वैज्ञानिक जिनकी टिप्पणियों को स्रोत में उद्धृत किया गया है कि "वैज्ञानिक व्यक्ति को सबसे ऊपर आत्म-उन्मूलन के लिए प्रयास करना चाहिए"।

  10. अरूप के. चटर्जी: "मांडूक्य उपनिषद वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देता है" के लेखक, जो उपनिषदों और क्वांटम यांत्रिकी के बीच संबंध पर टिप्पणी करते हैं।

  11. जॉन जी. हॉवेल्स: "वर्ल्ड हिस्ट्री ऑफ़ साइकियाट्री" (1975) के लेखक, जिन्होंने 'चेतना की विभिन्न अवस्थाओं की व्याख्या' के रूप में मांडूक्य पर चर्चाएँ शामिल कीं।

  12. इरविन श्रोडिंगर: क्वांटम क्रांति के प्रमुख व्यक्तियों में से एक, जिन्हें 1918 में उपनिषदिक दर्शन से परिचित कराया गया था और जिन्हें आत्मा को अपने कुत्ते का नाम देने के लिए जाना जाता है।

  13. आर्थर शोपेनहावर: 19वीं सदी के शुरुआती जर्मन दार्शनिक, जिनके कार्यों के माध्यम से श्रोडिंगर को उपनिषदिक दर्शन से परिचित कराया गया था। उन्होंने उपनिषदों को दुनिया में अध्ययन की सबसे 'उन्नत' वस्तु और अपने जीवन और मृत्यु का 'सांत्वना' माना।

  14. थॉमस स्टर्न्स इलियट: एक अंग्रेजी कवि, जिन्होंने डब्ल्यू.बी. येट्स द्वारा लिखित एक निबंध, क्राइटेरियन (1935) में मांडूक्य उपनिषद पर प्रकाशित किया था।

  15. डब्ल्यू.बी. येट्स: लेखक जिन्होंने क्राइटेरियन (1935) में मांडूक्य उपनिषद पर एक निबंध लिखा था।

  16. मधुसूदन सरस्वती और वाचस्पति मिश्र: दो दार्शनिकों का उल्लेख इस बात के उदाहरण के रूप में किया गया है कि दार्शनिक समकालीन विचार प्रणालियों का अध्ययन कर सकते हैं।

अन्य उल्लिखित या संदर्भित व्यक्तित्व (सामान्य या दार्शनिक विद्यालयों के प्रतिनिधि):

  1. विष्णु, शिव: हिंदू धर्म के देवता, जिन्हें कुछ दार्शनिक विद्यालयों द्वारा परम वास्तविकता के रूप में कल्पना की गई है।

  2. असुरा: राक्षस या बुरी प्रवृत्तियाँ।

  3. देवा: देवता या अच्छी प्रवृत्तियाँ।

  4. नियायिक: एक दार्शनिक विद्यालय (न्याय), जिसके सिद्धांतों पर शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र (2-2-37) में खंडन किया है।

  5. सांख्य: एक दार्शनिक विद्यालय, जिसके विचारों की आलोचना की गई है (जैसे कि आत्मा का शरीर तक सीमित होना, प्रकृति और पुरुष की अवधारणा, दुख का बुद्धि से अविभाज्य रूप से संबंधित होना)।

  6. वैशेषिक: एक दार्शनिक विद्यालय, जिनकी श्रेणियों और आत्मा के गुणों पर चर्चा और खंडन किया गया है।

  7. पशुपत: एक दार्शनिक विद्यालय, जो सांख्य के सिद्धांतों में छह अतिरिक्त श्रेणियाँ जोड़ते हैं।

  8. चरवाक: एक नास्तिक दार्शनिक विद्यालय।

  9. बौद्ध: बौद्ध दार्शनिक विद्यालयों के अनुयायी (जैसे क्षणिक विज्ञानवादी, शून्यवादी), जिनके विचारों की अक्सर मांडूक्य उपनिषद और शंकराचार्य की टिप्पणियों में चर्चा और खंडन किया जाता है।

  10. जैन: एक दार्शनिक विद्यालय, जिसका उल्लेख किया गया है।

  11. आगमिक: एक दार्शनिक विद्यालय, जो देवता के रूप में एक व्यक्ति को परम वास्तविकता मानते हैं (जैसे शिव या विष्णु)।

  12. कर्मकाण्डी: कर्मकाण्डों और अनुष्ठानों (यज्ञ) के समर्थक, जो उन्हें परम वास्तविकता मानते हैं।

  13. व्याकरणिक: व्याकरणविद, जो वास्तविकता को लिंग (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग) के रूप में देखते हैं।


मुख्य शब्दों की शब्दावली

  • अद्वैत वेदान्त: हिंदू दर्शन की एक गैर-द्वैतवादी प्रणाली जो ब्रह्म (परम वास्तविकता) और आत्मा (व्यक्तिगत आत्मा) की पहचान पर जोर देती है।

  • अज्ञान (अविद्या): अज्ञानता, वह शक्ति जो द्वैत के भ्रम को उत्पन्न करती है और व्यक्ति को आत्मा की वास्तविक प्रकृति से अज्ञात रखती है।

  • अजातिवाद: गौडपाद द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत कि कोई भी चीज वास्तविक रूप से उत्पन्न नहीं होती या बनाई नहीं जाती है; परम वास्तविकता अजन्मा है।

  • आत्मा: व्यक्तिगत आत्मा या आत्म, जो अद्वैत वेदान्त में परम वास्तविकता, ब्रह्म के समान है।

  • उपाधि: एक सीमाकारी उपाधि या स्थिति जो परम वास्तविकता पर आरोपित होती है, जिससे यह भिन्न प्रतीत होती है (उदाहरण के लिए, एक बर्तन आकाश को "सीमित" करता है)।

  • उपनिषद: वेदों के दार्शनिक ग्रंथ जो हिंदू दर्शन की आधारशिला हैं, मुख्य रूप से ब्रह्म और आत्मा की प्रकृति से संबंधित हैं।

  • ओम् (ॐ): एक पवित्र ध्वनि और प्रतीक जो परम वास्तविकता, ब्रह्म और आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें चेतना की तीनों अवस्थाओं से संबंधित भाग होते हैं और एक ध्वनिहीन, पारलौकिक पहलू होता है।

  • कर्मकांड: वैदिक परंपरा का वह खंड जो कर्मकांडों और कर्तव्यों से संबंधित है।

  • कारिका: गौडपाद द्वारा लिखित श्लोकों का संग्रह, जो मांडूक्य उपनिषद पर एक टीका है।

  • ज्ञान: सच्चा ज्ञान या बोध, विशेष रूप से परम वास्तविकता का ज्ञान।

  • ज्ञान कांड: वैदिक परंपरा का वह खंड जो ज्ञान और दार्शनिक सिद्धांतों से संबंधित है (उपनिषद इस श्रेणी में आते हैं)।

  • ज्ञानी: वह व्यक्ति जिसने आत्मज्ञान या परम सत्य का बोध प्राप्त कर लिया है।

  • जागृत (विश्वर): चेतना की जागृत अवस्था, जिसमें व्यक्ति बाहरी स्थूल वस्तुओं का अनुभव करता है।

  • तैजस: चेतना की स्वप्न अवस्था, जिसमें व्यक्ति आंतरिक, सूक्ष्म वस्तुओं या पिछली छापों का अनुभव करता है।

  • तुरीय: चेतना की चौथी, पारलौकिक अवस्था जो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है; आत्मा की अनिर्वचनीय, गैर-द्वैत प्रकृति।

  • प्राज्ञ: चेतना की गहरी नींद (सुषुप्ति) अवस्था में आत्मा, जहाँ सभी अनुभव एक अनावेशित, कारण अवस्था में विलीन हो जाते हैं।

  • ब्रह्म: परम वास्तविकता, ब्रह्मांडीय आत्मा या चेतना, जो अद्वैत वेदान्त में आत्मा के समान है।

  • भाष्य (भाष्य): एक टिप्पणी या विस्तृत व्याख्या, विशेष रूप से शंकर की टीका।

  • माया: ब्रह्मांड का भ्रम या प्रकट शक्ति, जिसे वास्तविक नहीं माना जाता है, लेकिन अज्ञान के कारण अनुभव किया जाता है।

  • मोक्ष: मुक्ति या अज्ञान और संसार के बंधन से मुक्ति; आत्मज्ञान का अंतिम लक्ष्य।

  • वासनस: पिछली छापों या प्रवृत्तियों का संग्रह जो स्वप्न अनुभवों और मानसिक गतिविधियों को आकार देता है।

  • विवाद-अविरुद्ध: गौडपाद द्वारा वर्णित दर्शन का एक गुण, जिसका अर्थ है कि यह अन्य विद्यालयों के साथ संघर्ष नहीं करता क्योंकि यह सभी द्वैत को मायावी मानता है।

  • विवर्तवाद: अद्वैत वेदान्त में एक सिद्धांत जो बताता है कि ब्रह्मांड ब्रह्म की एक भ्रमपूर्ण उपस्थिति है, बिना ब्रह्म में कोई वास्तविक परिवर्तन किए (एक रस्सी एक सांप के रूप में दिखाई देती है, लेकिन रस्सी बदलती नहीं है)।

  • वैश्वानर: जागृत अवस्था में आत्मा, जो बाहरी स्थूल वस्तुओं का अनुभव करती है।

  • शंकर (शंकराचार्य): अद्वैत वेदान्त के सबसे प्रभावशाली दार्शनिकों में से एक, जिन्होंने उपनिषदों पर महत्वपूर्ण भाष्य लिखे।

  • शून्यवाद: बौद्ध धर्म के कुछ विद्यालयों द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत जो सभी वास्तविकताओं के पूर्ण गैर-अस्तित्व पर जोर देता है (जिसे अद्वैत वेदान्त खंडित करता है)।

  • श्रुति: वैदिक ग्रंथ, विशेष रूप से उपनिषद, जिन्हें दैवीय रूप से प्रकट सत्य माना जाता है।

  • सुषुप्ति: गहरी नींद की अवस्था, जहाँ चेतना सभी द्वैतवादी अनुभवों से रहित होती है।

  • स्वामी विवेकानंद: एक प्रमुख भारतीय संत और वेदान्त के प्रसारक जिन्होंने पश्चिमी दुनिया में अद्वैत वेदान्त की शिक्षाओं का प्रसार किया।


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