Saturday, July 26, 2025

भगवत गीता मुख्य विषय और शिक्षाएँ

 1. भगवद गीता का मुख्य संदेश क्या है?

भगवद गीता का मुख्य संदेश आत्म-ज्ञान, कर्तव्यपरायणता और परमात्मा की प्राप्ति है। यह विभिन्न योगों (ज्ञान, कर्म, भक्ति) के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने पर केंद्रित है। इसमें यह भी बताया गया है कि आत्मा अविनाशी है, और किसी को अपने धर्म (कर्तव्य) का पालन करना चाहिए, चाहे परिस्थितियां कितनी भी कठिन क्यों न हों।


2. सांख्य योग और कर्म योग में क्या अंतर है?

भगवद गीता दो मुख्य दृष्टिकोणों का वर्णन करती है: सांख्य योग और कर्म योग। सांख्य योग आत्म-ज्ञान पर आधारित है, जहाँ व्यक्ति यह समझता है कि आत्मा जन्म आदि छह परिवर्तनों से रहित है और इसलिए वह कर्ता नहीं है। यह आत्म-साक्षात्कार पर केंद्रित है। इसके विपरीत, कर्म योग क्रियाओं के प्रदर्शन पर केंद्रित है, इस धारणा पर आधारित है कि आत्म शरीर से भिन्न है, कर्ता और भोक्ता है, और धार्मिकता और अधार्मिकता के बीच विवेक से बनाए रखा गया है। दोनों ही अंततः परम शांति और ब्रह्म-ज्ञान की ओर ले जाते हैं।


3. 'त्रिगुणा' क्या हैं और वे मानव स्वभाव को कैसे प्रभावित करते हैं?

त्रिगुणा तीन प्रकार की प्रकृतिजन्य ऊर्जाएँ हैं जो सभी प्राणियों में विद्यमान हैं: सत्व (पवित्रता, प्रकाश, स्वास्थ्य), रजस (क्रिया, जुनून, लोभ) और तमस (अज्ञान, जड़ता, भ्रम)। यह गुण मनुष्य के स्वभाव, विश्वास, आहार, तपस्या, दान, बुद्धि और कर्मों को प्रभावित करते हैं, जिससे उनके कार्यों के परिणाम निर्धारित होते हैं। गीता का उद्देश्य इन गुणों से परे जाकर आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त करना है।


4. कर्म के विभिन्न प्रकार क्या हैं?

कर्म तीन प्रकार के होते हैं: सात्विक, राजसिक और तामसिक। सात्विक कर्म वे हैं जो आसक्ति के बिना और फल की इच्छा के बिना, कर्तव्य की भावना से किए जाते हैं। राजसिक कर्म वे हैं जो फल की इच्छा, अहंकार या बहुत प्रयास से किए जाते हैं, और दुख का कारण बन सकते हैं। तामसिक कर्म वे हैं जो मोह, विनाश, हिंसा, या लापरवाही से किए जाते हैं, और अज्ञानता और निराशा की ओर ले जाते हैं। गीता कर्म के फल की आसक्ति के बिना कर्म करने पर जोर देती है, क्योंकि यह मोक्ष की ओर ले जाता है।


5. भगवान कृष्ण के विश्वरूप दर्शन का क्या महत्व है?

भगवान कृष्ण का अर्जुन को विश्वरूप दर्शन कराना उनकी सर्व-शक्तिमानता, सर्व-व्यापकता और ब्रह्मांडीय स्वरूप को प्रकट करता है। यह दर्शन अर्जुन को यह समझने में मदद करता है कि कृष्ण ही सभी प्राणियों के आदि और अंत हैं, और वही सब कुछ हैं। यह अर्जुन के मोह को दूर करता है और उसे अपने कर्तव्य को समझने में सहायता करता है, क्योंकि वह देखता है कि कृष्ण ही सभी घटनाओं के पीछे की शक्ति हैं।


6. मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करने के लिए भक्ति का क्या महत्व है?

भक्ति योग को मोक्ष प्राप्त करने के एक शक्तिशाली साधन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि जो भक्त अनन्य भक्ति के साथ उनकी पूजा करते हैं, वे मृत्यु-संसार सागर से बचाए जाते हैं। जो व्यक्ति पूरे मन से भगवान पर ध्यान केंद्रित करते हैं और सभी कर्मों को उन्हें समर्पित करते हैं, वे परम शांति और मोक्ष प्राप्त करते हैं। भक्ति ज्ञान और त्याग से भी श्रेष्ठ मानी जाती है क्योंकि यह सीधा परमात्मा से जुड़ने का मार्ग प्रदान करती है।


7. एक प्रबुद्ध व्यक्ति या "स्थितप्रज्ञ" की क्या विशेषताएँ हैं?

एक स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति) वह है जो सभी इच्छाओं को त्याग देता है, मन से संतुष्ट होता है, सुख और दुख में अविचलित रहता है, राग, भय और क्रोध से मुक्त होता है। वह अपनी इंद्रियों को विषयों से उसी तरह हटा लेता है जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है। ऐसे व्यक्ति को इंद्रियों के विषयों से वैराग्य होता है, और वह आत्म-ज्ञान में स्थित होता है, जिससे उसे असीमित आनंद प्राप्त होता है।


8. भगवद गीता का दैनिक जीवन में क्या संदेश है?

भगवद गीता का संदेश केवल आध्यात्मिक मुक्ति तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें दैनिक जीवन के लिए भी व्यावहारिक शिक्षाएं शामिल हैं। यह व्यक्ति को अपने निर्धारित कर्तव्यों को निष्पक्ष रूप से और परिणाम की चिंता के बिना करने के लिए प्रोत्साहित करती है। यह क्रोध, लोभ और वासना जैसे नकारात्मक गुणों को त्यागने, सभी प्राणियों के प्रति दया और निस्वार्थता विकसित करने और निरंतर अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से मन को नियंत्रित करने के महत्व पर जोर देती है। यह सिखाती है कि व्यक्ति को अपने स्वाभाविक कर्मों को करना चाहिए, भले ही उनमें दोष हों, क्योंकि कर्म त्याग से भी बेहतर है।


श्रीमद्भगवद्गीता का विस्तृत विवेचन: मुख्य विषय और सार

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रमुख सिद्धांतों, अर्जुन और कृष्ण के संवाद के मुख्य बिंदुओं, तथा विभिन्न योग मार्गों की व्याख्या करता है, जैसा कि प्रदान किए गए स्रोतों से समझा गया है।


1. गीता का मूल संदेश और संदर्भ

श्रीमद्भगवद्गीता को "आत्म-धर्म का हृदय-सिद्धांत" कहा गया है और इसे सनातन ब्रह्म के महान रहस्य के रूप में वर्णित किया गया है। यह "निवृत्ति" (निवृत्ति-शास्त्र) और "प्रवृत्ति" (प्रवृत्ति-शास्त्र) दोनों को समाहित करता है, जिससे यह व्यापक रूप से लागू होता है।.

गीता का संवाद महाभारत के युद्धक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में होता है, जहाँ अर्जुन अपने ही संबंधियों के खिलाफ युद्ध लड़ने में संशय में पड़ जाता है। इस नैतिक दुविधा को "कार्पण्य दोष" (Karpanya Dosha) या "कृपणता-दोष" कहा गया है, जिसका अर्थ है कायरता और कर्तव्य से विमुख होना। कृष्ण इस दोष को दूर करते हैं और उसे उसके स्वधर्म का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। .


2. कर्म, अकर्म और विकर्म

गीता कर्म के महत्व पर बल देती है। भगवान कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति क्षण भर भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 8, Chapter 2, Verse 47) - "तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, फल में कभी नहीं। तुम कर्म के फल के हेतु मत बनो और न तुम्हारी अकर्मण्यता में आसक्ति हो।" यह कर्मयोग का सार है, जहाँ व्यक्ति को फल की आसक्ति के बिना अपना कर्तव्य करना चाहिए।

  1. कर्म (Action): वह कर्म जो शास्त्रों द्वारा निर्धारित हैं और उचित भावना से किए जाते हैं।

  2. विकर्म (Forbidden Action): वह कर्म जो शास्त्रों द्वारा वर्जित हैं और अनुचित हैं।

  3. अकर्म (Inaction in Action): वह अवस्था जहाँ व्यक्ति कर्म करता हुआ भी अकर्ता रहता है, क्योंकि वह फल की आसक्ति से मुक्त होता है। "कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 15, Chapter 4, Verse 18) - "जो कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी है, वह सम्पूर्ण कर्म करने वाला है।"

यह स्पष्ट किया गया है कि अज्ञान से मुक्त होने के लिए कर्म के फल का त्याग आवश्यक है। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 15, Chapter 4, Verse 20).


3. सांख्य योग और कर्म योग

श्रीमद्भगवद्गीता दो प्रमुख मार्ग प्रस्तुत करती है: सांख्य योग (ज्ञान का मार्ग) और कर्म योग (कर्म का मार्ग)।

  1. सांख्य योग (ज्ञान का मार्ग): यह आत्म-ज्ञान पर आधारित है, जहाँ आत्मा को जन्म, मृत्यु आदि छह विकारों से रहित, अकर्ता और अभोक्ता माना जाता है। श्लोक "अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 6, Chapter 2, Verse 11) से लेकर "स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 7, Chapter 2, Verse 31) तक भगवान ने आत्मा के स्वरूप का वर्णन किया है। इस मार्ग पर चलने वाले "सांख्य" कहलाते हैं। (Sri Sankara's Gita Bhashya.pdf, Page 4).

  2. कर्म योग (कर्म का मार्ग): यह इस धारणा पर आधारित है कि स्वयं शरीर से भिन्न है और कर्ता तथा भोक्ता है। यह शुभ और अशुभ (धर्म और अधर्म) के बीच विवेक पर निर्भर करता है, और इसमें कल्याण प्राप्त करने के साधन के रूप में कर्मों का प्रदर्शन शामिल है। इस मार्ग पर चलने वाले "योगी" कहलाते हैं। (Sri Sankara's Gita Bhashya.pdf, Page 4).

भगवद गीता अध्याय 3, श्लोक 3 में भगवान कहते हैं: "लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 11, Chapter 3, Verse 3) - "हे निष्पाप! इस लोक में मेरे द्वारा पहले दो प्रकार की निष्ठाएँ कही गई हैं - सांख्ययोगियों के लिए ज्ञानयोग से और योगियों के लिए कर्मयोग से।" शंकर के भाष्य के अनुसार, भगवान ने स्पष्ट रूप से ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा को दो अलग-अलग आधारों पर आधारित बताया है। (Sri Sankara's Gita Bhashya.pdf, Page 4).


4. गुणों का प्रभाव: सत्व, रजस, तमस

सृष्टि तीन गुणों - सत्व (पवित्रता, ज्ञान), रजस (क्रिया, इच्छा) और तमस (अज्ञान, जड़ता) - से बनी है। ये गुण सभी प्राणियों को बांधते हैं। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 44, Chapter 14, Verse 5).

  • सत्व (Sattva): निर्मल होने के कारण यह प्रकाशित करने वाला और निरोग होता है। यह सुख और ज्ञान की आसक्ति से बांधता है। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 44, Chapter 14, Verse 6).

  • रजस (Rajas): राग-रूप, तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होता है। यह देही को कर्म की आसक्ति से बांधता है। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 44, Chapter 14, Verse 7).

  • तमस (Tamas): अज्ञान से उत्पन्न होता है, जो सभी देहधारियों को मोहित करता है। यह प्रमाद (उपेक्षा), आलस्य और निद्रा से बांधता है। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 44, Chapter 14, Verse 8).

इन गुणों को पार करने वाला व्यक्ति जन्म, मृत्यु, जरा और दुःख से मुक्त होकर अमरत्व प्राप्त करता है। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 45, Chapter 14, Verse 20).


5. ईश्वर का स्वरूप और भक्ति मार्ग

भगवान स्वयं को जगत का मूल, संहारकर्ता और पोषणकर्ता बताते हैं। "मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 23, Chapter 7, Verse 7) - "हे धनंजय! मेरे से श्रेष्ठ दूसरा कोई भी नहीं है। यह सब सूत्र में मणियों की तरह मुझमें पिरोया हुआ है।"

भगवान अपने विश्वरूप का दर्शन कराते हैं, जिसमें अर्जुन सभी देवताओं, प्राणियों और ब्रह्मांड को एक साथ देखता है। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 34, Chapter 11, Verse 13). यह भगवान की सर्वव्यापकता और दिव्यता का प्रतीक है।

भक्ति योग को परम मार्ग के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अर्जुन पूछता है कि कौन से भक्त श्रेष्ठ हैं: वे जो साकार रूप की उपासना करते हैं, या वे जो निराकार, अविनाशी ब्रह्म की उपासना करते हैं। भगवान कहते हैं: "मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमा मताः॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 40, Chapter 12, Verse 2) - "जो मुझमें मन को एकाग्र कर और परम श्रद्धा से युक्त होकर निरंतर मेरा भजन करते हैं, वे मुझे योगियों में सबसे श्रेष्ठ मान्य हैं।"

कर्मों के फल को त्याग कर, भगवान के प्रति समर्पित होकर कर्म करने वाले व्यक्ति को परम शांति प्राप्त होती है। "मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 39, Chapter 11, Verse 55) - "जो मेरे लिए कर्म करता है, मुझमें ही परम आश्रय वाला है, मेरा भक्त है, आसक्ति से रहित है और सभी प्राणियों में वैर रहित है, वह मुझको प्राप्त होता है।"


6. आत्म-संयम और बुद्धि का महत्व

मनुष्य का मन चंचल और वश में करना कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है। "असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 21, Chapter 6, Verse 35) - "हे महाबाहो! निश्चय ही मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु अभ्यास से और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है।"

बुद्धि का उपयोग इच्छाओं को त्यागने और इन्द्रियों को वश में करने के लिए करना चाहिए। "प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 9, Chapter 2, Verse 55) - "जब मनुष्य मन में स्थित सभी कामनाओं को पूर्णतः त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।"

इन्द्रियों के विषयों का ध्यान करने से आसक्ति, कामना और क्रोध उत्पन्न होते हैं, जो अंततः बुद्धि के नाश और विनाश की ओर ले जाते हैं। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 9, Chapter 2, Verse 62-63).


7. धर्म, अधर्म और शाश्वत नियम

शास्त्रों के नियमों का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। जो शास्त्र-नियमों का त्याग कर कामना के वश में होकर कर्म करता है, उसे न सिद्धि मिलती है, न सुख, और न ही परम गति। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 49, Chapter 16, Verse 23). इसलिए, कर्म के उचित और अनुचित निर्धारण में शास्त्र को प्रमाण मानना चाहिए।

गीता विभिन्न प्रकार के तप, दान और आहार को गुणों (सत्व, रजस, तमस) के आधार पर वर्गीकृत करती है। सात्विक कर्म निस्वार्थ भाव से किए जाते हैं, जबकि राजसिक फल की इच्छा से और तामसिक अज्ञान और मोह से किए जाते हैं। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 50-51, Chapter 17).

अठारहवें अध्याय में, अर्जुन त्याग और संन्यास के सार को समझने की इच्छा व्यक्त करता है। भगवान उत्तर देते हैं कि काम्य कर्मों का त्याग 'संन्यास' है, और सभी कर्मों के फल का त्याग 'त्याग' है। (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 52, Chapter 18, Verse 1-2).


8. गीता का संरचनात्मक महत्व

भगवद्गीता के अध्यायों को विभिन्न "षटक" (groups of six chapters) में विभाजित किया गया है, जो ज्ञान, भक्ति और कर्म के विभिन्न पहलुओं पर केंद्रित हैं। उदाहरण के लिए, पहले छह अध्याय कर्मयोग पर केंद्रित हैं, अगले छह भक्ति पर और अंतिम छह ज्ञान पर।

  1. ज्ञान-षटक (Gnana-Shatkam): इसमें अध्याय 1-6 शामिल हैं, जो आत्मा के स्वरूप और ज्ञान मार्ग से संबंधित हैं। (THE HEART-DOCTRINE OF SRI BHAGAVAD GITA & ITS MESSAGE, Page 98).

  2. भक्ति-षटक (Bhakti-Shatkam): इसमें अध्याय 7-12 शामिल हैं, जो ईश्वर के विभिन्न अवतारों, उनकी महिमा और भक्ति के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। (THE HEART-DOCTRINE OF SRI BHAGAVAD GITA & ITS MESSAGE, Page 98).

  3. योग-षटक (Yoga-Shatkam): इसमें अध्याय 13-18 शामिल हैं, जो प्रकृति, पुरुष, गुणों और मोक्ष की अवधारणाओं की गहरी समझ प्रदान करते हैं। (THE HEART-DOCTRINE OF SRI BHAGAVAD GITA & ITS MESSAGE, Page 98).

गीता के अंतिम अध्याय (अध्याय 18) में, कृष्ण अर्जुन को सभी धर्मों का त्याग कर केवल उनकी शरण में आने का निर्देश देते हैं: "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 56, Chapter 18, Verse 66) - "सभी धर्मों का त्याग कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो।" यह गीता का अंतिम और परम संदेश है।


9. अन्य महत्वपूर्ण अवधारणाएँ

  1. आत्मा (Atma): अविनाशी, अजन्मा और शाश्वत। "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 7, Chapter 2, Verse 23) - "इसे शस्त्र काट नहीं सकते, इसे अग्नि जला नहीं सकती, इसे जल गीला नहीं कर सकता, और वायु सुखा नहीं सकती।"

  2. ब्राह्मण (Brahman): परम सत्य, जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है और जिसमें सब कुछ व्याप्त है।

  3. योग (Yoga): मन, इन्द्रियों और शरीर को वश में करने की तकनीक। इसे समत्व भी कहा गया है, "समत्वं योग उच्यते" (Bhagavad Gita by Sri Swami Sivananda.pdf, Page 8, Chapter 2, Verse 48).

  4. प्रकृति (Prakriti): भौतिक प्रकृति, जिससे ब्रह्मांड और उसके प्राणी उत्पन्न होते हैं।

  5. पुरुष (Purusha): आत्म-चेतन सिद्धांत, जो प्रकृति का भोक्ता है।

  6. मोक्ष (Moksha): जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति।


भगवद गीता अध्ययन मार्गदर्शिका

अध्ययन सामग्री

भगवद गीता के ये अंश विभिन्न स्रोतों से लिए गए हैं, जिनमें अभिनवगुप्त की टीका, सदगुरु श्री नन्नागरु के सार-संक्षेप, श्री स्वामी शिवानंद की भगवद गीता, संस्कृत-गीता-मूलम, श्री शंकर के गीता भाष्य, श्रीमद भगवद-गीता श्लोक (दैनिक पाठ के लिए), और श्रीमद भगवद-गीता गौरिया शामिल हैं। ये स्रोत गीता के विभिन्न अध्यायों, प्रमुख दार्शनिक अवधारणाओं, योग के मार्गों और टीकाओं पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।

मुख्य अवधारणाएँ

  1. धर्म और कर्म: गीता में धर्म और कर्म का केंद्रीय महत्व। अर्जुन की दुविधा और भगवान कृष्ण का उसे अपने धर्म का पालन करने का आग्रह।

  2. तीन गुण (सत्त्व, रजस, तमस): प्रकृति के तीन गुण जो सभी प्राणियों के स्वभाव को प्रभावित करते हैं और उनके कर्मों, विश्वासों और सुख-दुःख को निर्धारित करते हैं।

  3. ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग: मोक्ष या सर्वोच्च सत्य की प्राप्ति के विभिन्न मार्ग।

  4. ज्ञान योग (सांख्य): आत्म-साक्षात्कार, शरीर से आत्मा की भिन्नता का ज्ञान, और 'मैं कर्ता नहीं हूँ' की समझ के माध्यम से ज्ञान का मार्ग।

  5. कर्म योग: आसक्ति रहित होकर कर्म करना, फल की इच्छा के बिना कर्तव्यों का पालन करना।

  6. भक्ति योग: भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और भक्ति का मार्ग।

  7. ब्रह्म, आत्मा, परमात्मा: सर्वोच्च वास्तविकता, व्यक्तिगत आत्मा, और सर्वोच्च आत्मा के बीच संबंध। आत्मा की अविनाशी और अपरिवर्तनीय प्रकृति।

  8. मोक्ष और पुनर्जन्म: जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति (मोक्ष) की अवधारणा और पुनर्जन्म का कारण।

  9. विश्व-रूप दर्शन: अर्जुन को भगवान कृष्ण का लौकिक रूप का दर्शन, जो उनकी सर्वशक्तिमानता और सार्वभौमिकता को दर्शाता है।

  10. आसुरी और दैवी संपदा: मानव स्वभाव के दो विरोधी प्रकार - आसुरी (अज्ञानी, अहंकारी) और दैवी (पवित्र, परोपकारी) - और उनके परिणाम।

  11. शंका और अज्ञान का नाश: ज्ञान और भक्ति के माध्यम से संदेह और अज्ञान को दूर करने का महत्व।

  12. स्थिर-प्रज्ञ: वह व्यक्ति जिसकी बुद्धि स्थिर और अडिग है, जो सुख-दुःख, लाभ-हानि में समभाव रखता है और इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है।

अध्याय-वार अवलोकन (चयनित अध्यायों पर आधारित)

  1. अध्याय 1 (अर्जुन विषाद योग): अर्जुन का युद्ध से मोहभंग और उसकी नैतिक दुविधा, जिसमें वह अपने संबंधियों से लड़ने से हिचकिचाता है। यह अध्याय धर्म और कर्तव्य के विषय को उठाता है।

  2. अध्याय 2 (सांख्य योग): भगवान कृष्ण आत्मा की अमरता और अविनाशी प्रकृति के बारे में बताते हैं। यह ज्ञान योग का आधार स्थापित करता है और अर्जुन को युद्ध करने के उसके कर्तव्य की याद दिलाता है, यह बताते हुए कि आत्मा को मारा नहीं जा सकता। इसमें सांख्य-बुद्धि (आत्म-ज्ञान) और योग-बुद्धि (कर्म-केंद्रित) के बीच अंतर स्पष्ट किया गया है।

  3. अध्याय 3 (कर्म योग): कर्म के महत्व पर जोर दिया गया है, यहां तक कि ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी। आसक्ति रहित होकर कार्य करने और लोक-संग्रह (विश्व कल्याण) के लिए कर्म करने का उपदेश। काम (वासना) और क्रोध को मनुष्य के शत्रु के रूप में पहचाना गया है।

  4. अध्याय 4 (ज्ञान कर्म संन्यास योग): भगवान कृष्ण अपने दिव्य जन्म और धर्म की रक्षा के लिए युग-युग में प्रकट होने के उद्देश्य का वर्णन करते हैं। ज्ञान की सर्वोच्चता और कर्म को ज्ञान की अग्नि से भस्म करने की अवधारणा पर चर्चा की गई है।

  5. अध्याय 5 (संन्यास योग): कर्म-संन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्म-योग (फलों के प्रति आसक्ति का त्याग) के बीच तुलना की गई है। यह अध्याय कर्म योग को श्रेष्ठ बताता है, क्योंकि यह योगी को कर्म करते हुए भी अनासक्त रहने में मदद करता है।

  6. अध्याय 6 (आत्म-संयम योग): ध्यान और आत्म-नियंत्रण के अभ्यास पर केंद्रित है। मन को स्थिर करने, इंद्रियों को वश में करने और आंतरिक शांति प्राप्त करने के तरीके बताए गए हैं।

  7. अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग): भगवान कृष्ण स्वयं को सभी वस्तुओं का स्रोत और संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार बताते हैं। वह अपनी माया (दिव्य शक्ति) और चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हैं।

  8. अध्याय 8 (अक्षर ब्रह्म योग): ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ की परिभाषाएँ दी गई हैं। मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने और पुनर्जन्म से बचने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।

  9. अध्याय 9 (राजविद्या राजगुह्य योग): भगवान कृष्ण अपने सर्व-व्यापक और अव्यक्त रूप का वर्णन करते हैं। वह बताते हैं कि कैसे भक्त उन्हें विभिन्न रूपों में पूजते हैं और भक्ति का सर्वोच्च महत्व।

  10. अध्याय 10 (विभूति योग): भगवान कृष्ण अपनी दिव्य अभिव्यक्तियों और गुणों का वर्णन करते हैं, यह दर्शाते हुए कि कैसे वह हर वस्तु में सर्वश्रेष्ठ के रूप में प्रकट होते हैं।

  11. अध्याय 11 (विश्व-रूप दर्शन योग): अर्जुन को भगवान कृष्ण का लौकिक रूप का अद्भुत दर्शन, जिसमें वह ब्रह्मांड के सभी प्राणियों और घटनाओं को भगवान के भीतर देखता है। यह अर्जुन को भयभीत और आश्चर्यचकित कर देता है।

  12. अध्याय 12 (भक्ति योग): भगवान कृष्ण के साकार रूप की पूजा करने वाले भक्तों और अव्यक्त, निराकार ब्रह्म की पूजा करने वालों के बीच तुलना की गई है। साकार भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है।

  13. अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग): शरीर (क्षेत्र) और क्षेत्र के ज्ञाता (क्षेत्रज्ञ) के बीच अंतर स्पष्ट किया गया है। ज्ञान और ज्ञेय का वर्णन किया गया है।

  14. अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग): सत्त्व, रजस और तमस गुणों के विस्तृत प्रभाव का वर्णन किया गया है कि वे कैसे प्राणियों को बांधते हैं और उनसे परे होने का मार्ग क्या है।

  15. अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग): संसार को एक अश्वत्थ वृक्ष के रूप में वर्णित किया गया है और पुरुषोत्तम (सर्वोच्च पुरुष) को क्षर (नश्वर) और अक्षर (अविनाशी) से परे बताया गया है।

  16. अध्याय 16 (दैवासुर संपद विभाग योग): दैवी (दिव्य) और आसुरी (राक्षसी) गुणों का वर्णन किया गया है, उनके लक्षण और अंतिम परिणाम। यह अध्याय काम, क्रोध और लोभ को नरक के द्वार के रूप में पहचानता है।

  17. अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग): तीन प्रकार की श्रद्धा (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) और विभिन्न प्रकार के आहार, यज्ञ, तपस्या और दान पर उनके प्रभाव का वर्णन।

  18. अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग): संन्यास और त्याग की अवधारणाओं का सार-संक्षेप। यह अध्याय गुणों के आधार पर कर्म, ज्ञान, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के तीन प्रकारों का वर्णन करता है। यह गीता के समग्र संदेश का सार प्रस्तुत करता है, जिसमें स्वधर्म का पालन और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण मुक्ति का मार्ग बताया गया है।


अध्ययन प्रश्नोत्तरी

दस लघु-उत्तर प्रश्न (प्रत्येक 2-3 वाक्य)

  1. भगवद गीता के अध्याय 2 में 'सांख्य-बुद्धि' और 'योग-बुद्धि' के बीच क्या अंतर है?

सांख्य-बुद्धि आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है, यह समझ कि आत्मा शरीर से अलग और जन्म आदि छह परिवर्तनों से रहित है, इसलिए वह कर्ता नहीं है। योग-बुद्धि इस धारणा पर आधारित है कि आत्मा शरीर से भिन्न है लेकिन कर्ता और भोक्ता है, और यह मोक्ष प्राप्त करने के साधन के रूप में कर्मों के प्रदर्शन से संबंधित है।

  1. भगवान कृष्ण ने अध्याय 3 में अर्जुन को 'काम' (वासना) और 'क्रोध' को शत्रु के रूप में क्यों पहचानने का उपदेश दिया है?

अध्याय 3 में, भगवान कृष्ण ने 'काम' (वासना) और 'क्रोध' को मनुष्य के सबसे बड़े शत्रुओं के रूप में पहचाना है क्योंकि ये रजस गुण से उत्पन्न होते हैं और ज्ञान को ढक देते हैं। वे व्यक्ति को पापपूर्ण कर्मों में धकेलते हैं और आत्मा की शुद्धि में बाधा डालते हैं।

  1. भगवद गीता के अनुसार, कोई व्यक्ति अपने कर्मों के फल से अनासक्त कैसे रह सकता है?

भगवद गीता के अनुसार, कोई व्यक्ति अपने कर्मों के फल से अनासक्त रह सकता है जब वह 'योगस्थ' होकर कर्म करता है, यानी सिद्ध और असिद्ध दोनों में समभाव रखता है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति को अपना कर्तव्य आसक्ति और स्वार्थ के बिना, केवल कर्म के लिए करना चाहिए, न कि उसके परिणाम की इच्छा से।

  1. भगवद गीता के अध्याय 7 में भगवान कृष्ण द्वारा उल्लिखित चार प्रकार के भक्त कौन से हैं?

भगवद गीता के अध्याय 7 में भगवान कृष्ण द्वारा उल्लिखित चार प्रकार के भक्त हैं: आर्त (दुखी), जिज्ञासु (ज्ञान की इच्छा रखने वाला), अर्थार्थी (भौतिक लाभ की इच्छा रखने वाला), और ज्ञानी (जो सत्य को जानता है)। इनमें से ज्ञानी भक्त को श्रेष्ठ माना जाता है।

  1. विश्व-रूप दर्शन ने अर्जुन पर क्या प्रभाव डाला? यह दर्शन भगवान कृष्ण की किस विशेषता को दर्शाता है?

विश्व-रूप दर्शन ने अर्जुन को अत्यधिक भयभीत और आश्चर्यचकित कर दिया, जिससे वह भय और व्याकुलता में पड़ गया। यह दर्शन भगवान कृष्ण की सर्वशक्तिमानता, सार्वभौमिकता और लौकिक स्वरूप को दर्शाता है, जो उन्हें संपूर्ण ब्रह्मांड का निर्माता, पालक और संहारक सिद्ध करता है।

  1. भगवद गीता के अध्याय 12 में साकार और निराकार भक्ति के बीच क्या अंतर है, और किसे श्रेष्ठ माना गया है?

भगवद गीता के अध्याय 12 में, साकार भक्ति भगवान के प्रत्यक्ष, व्यक्तिगत रूप की पूजा है, जबकि निराकार भक्ति अव्यक्त, निराकार ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करती है। भगवान कृष्ण साकार भक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं, क्योंकि यह शारीरिक प्राणियों के लिए अधिक सुलभ और कम क्लेशपूर्ण है।

  1. भगवद गीता में 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रज्ञ' को कैसे परिभाषित किया गया है?

भगवद गीता में, क्षेत्र को शरीर के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसे कर्मों का क्षेत्र माना जाता है, जिसमें सभी भौतिक तत्व, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि शामिल हैं। क्षेत्रज्ञ वह है जो इस क्षेत्र को जानता है, यानी व्यक्तिगत आत्मा (आत्मा) या सर्वोच्च आत्मा (परमात्मा), जो सभी शरीरों में ज्ञाता के रूप में विद्यमान है।

  1. सत्त्व, रजस और तमस गुण किसी व्यक्ति के स्वभाव और कार्यों को कैसे प्रभावित करते हैं? प्रत्येक का एक-एक उदाहरण दें।

सत्त्व गुण पवित्रता, प्रकाश और ज्ञान से जुड़ा है, जो खुशी और ज्ञान से बांधता है। रजस गुण जुनून, गतिविधि और इच्छा से जुड़ा है, जो कर्मों और आसक्ति से बांधता है, जिससे दुःख उत्पन्न होता है। तमस गुण अज्ञान, आलस्य और भ्रम से जुड़ा है, जो प्रमाद और निद्रा से बांधता है।

  1. भगवद गीता में 'स्थिर-प्रज्ञ' व्यक्ति के क्या लक्षण बताए गए हैं?

'स्थिर-प्रज्ञ' वह व्यक्ति है जिसकी बुद्धि स्थिर और अडिग होती है। ऐसे व्यक्ति दुखों में अविचलित, सुखों में अनासक्त होते हैं, राग, भय और क्रोध से मुक्त होते हैं। वे इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से पूरी तरह से समेट लेते हैं और सभी इच्छाओं को त्यागकर आत्म-संतुष्ट होते हैं।

  1. भगवान कृष्ण के अनुसार, मृत्यु के समय भगवान को याद करने का क्या महत्व है?

भगवान कृष्ण के अनुसार, मृत्यु के समय उनका स्मरण करने का अत्यंत महत्व है क्योंकि जिस भी भाव का व्यक्ति अंत में स्मरण करता है, वह उसी को प्राप्त होता है। इसलिए, जो व्यक्ति मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करते हुए शरीर त्यागता है, वह संशय रहित होकर भगवान के परम धाम को प्राप्त होता है और पुनर्जन्म के दुःखों से मुक्त हो जाता है।


निबंध-प्रारूप प्रश्न

  1. भगवद गीता में ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग के बीच के संबंध का विश्लेषण करें। क्या ये मार्ग परस्पर अनन्य हैं या एक-दूसरे के पूरक हैं? विभिन्न टीकाओं के दृष्टिकोण पर चर्चा करें।

भगवद गीता में ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग आध्यात्मिक उन्नति के तीन प्रमुख मार्ग हैं, जो परस्पर अनन्य न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं । गीता इन तीनों मार्गों को सर्वोच्च सत्य की ओर ले जाने वाले विभिन्न दृष्टिकोणों के रूप में प्रस्तुत करती है, जो व्यक्ति की प्रकृति और तैयारी के अनुरूप हैं।

१. ज्ञान योग (ज्ञान मार्ग): ज्ञान योग ज्ञान के माध्यम से सर्वोच्च सत्य को समझने पर केंद्रित है। गीता में, श्री भगवान ज्ञान को "परम पवित्र" बताते हैं। यह आत्म-साक्षात्कार का मार्ग है, जहाँ व्यक्ति शरीर से आत्मा के शाश्वत, अविनाशी स्वरूप को पहचानता है। ज्ञानी वह होता है जो यह पहचानता है कि आत्मा न तो मारती है और न मारी जाती है, वह अजन्मा, नित्य और शाश्वत है।

अर्जुन, समाधि में स्थित व्यक्ति के लक्षणों के बारे में पूछता है (स्थितप्रज्ञ)। श्री भगवान बताते हैं कि स्थितप्रज्ञ वह होता है जो मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है। वह दुखों से विचलित नहीं होता और सुखों की कामना से रहित होता है, तथा राग, भय और क्रोध से मुक्त होता है। जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही ज्ञानी अपनी इंद्रियों को विषयों से हटा लेता है। ज्ञान को श्रद्धावान, तत्पर और जितेंद्रिय व्यक्ति प्राप्त करता है, और इसे प्राप्त कर शीघ्र ही परम शांति को पाता है। अज्ञानी, अश्रद्धालु और संशयग्रस्त व्यक्ति का विनाश होता है। ज्ञान की तलवार से अज्ञानजनित संशय का नाश होता है।

२. कर्म योग (कर्म मार्ग): कर्म योग अनासक्त भाव से कर्तव्य कर्मों को करने पर बल देता है। यह मानता है कि कोई भी व्यक्ति क्षण भर भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता, क्योंकि सभी प्रकृति के गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं। श्री भगवान अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा देते हैं, क्योंकि अकर्मण्यता से कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म के बिना शरीर यात्रा भी संभव नहीं है।

कर्म योग में, कर्मफल की आसक्ति का त्याग किया जाता है। ज्ञानी व्यक्ति लोकसंग्रह के लिए आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं, जैसे अज्ञानी आसक्ति सहित करते हैं। जो व्यक्ति सभी कर्मों को ब्रह्म में अर्पित करके आसक्ति का त्याग करता है, वह पाप से वैसे ही अलिप्त रहता है, जैसे कमल का पत्ता जल से। जनक आदि ने भी कर्म से ही सिद्धि प्राप्त की है। श्री भगवान स्वयं कहते हैं कि वे तीनों लोकों में कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं होने पर भी कर्म में लगे रहते हैं, ताकि लोग उनके मार्ग का अनुसरण न करें और समाज में अव्यवस्था न फैले।

३. भक्ति योग (भक्ति मार्ग): भक्ति योग भगवान के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण का मार्ग है। श्री भगवान स्पष्ट करते हैं कि जो भक्त श्रद्धापूर्वक उनका निरंतर चिंतन करते हैं और उनमें मन लगाकर उपासना करते हैं, वे सर्वश्रेष्ठ योगी हैं। जो व्यक्ति सभी कर्मों को श्री भगवान को समर्पित करके, उनके परायण होकर, अनन्य योग से उनका ध्यान करते हुए उपासना करते हैं, उन परायण भक्तों का भगवान शीघ्र ही मृत्यु-संसार-सागर से उद्धार करते हैं।

गीता में भक्ति की सर्वोपरिता को कई स्थानों पर दर्शाया गया है:

  • जो कोई भक्त उन्हें प्रेम से पत्ता, फूल, फल या जल अर्पित करता है, वे उसे ग्रहण करते हैं।

  • श्री भगवान सभी प्राणियों में समभाव से व्याप्त हैं, लेकिन जो उन्हें प्रेम से भजते हैं, वे उनमें और वे उनमें प्रकट होते हैं।

  • यहां तक कि यदि कोई अत्यंत दुराचारी भी अनन्य भाव से भगवान को भजता है, तो उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि उसने सही निश्चय कर लिया है; वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। श्री भगवान प्रतिज्ञा करते हैं कि उनके भक्त का कभी विनाश नहीं होता।

  • स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि में उत्पन्न भी भगवान का आश्रय लेकर परम गति को प्राप्त करते हैं।

  • भगवान कहते हैं कि उनके विश्वरूप को वेदों, तपस्या, दान या यज्ञों से नहीं देखा जा सकता, बल्कि केवल अनन्य भक्ति से ही उन्हें जाना, देखा और उनमें प्रवेश किया जा सकता है।

  • जो उनका भक्त है, उनके लिए कर्म करता है, उन्हें परम लक्ष्य मानता है, आसक्ति रहित है, और सभी प्राणियों के प्रति वैर-भाव से रहित है, वह उन्हें प्राप्त करता है।

  • जो भक्त आकांक्षा रहित, शुद्ध, चतुर, उदासीन, और व्यथा से रहित है, तथा जिसने सभी आरम्भों का त्याग कर दिया है, वह भगवान को प्रिय है।

ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग के बीच संबंध:

भगवद गीता इन मार्गों को परस्पर अनन्य नहीं बल्कि एक-दूसरे के पूरक मानती है। यह मानव प्रकृति की विविधता को स्वीकार करती है और प्रत्येक के लिए उपयुक्त मार्ग प्रदान करती है।

  • कर्म योग ज्ञान और भक्ति का आधार: कर्म योग व्यक्ति को आत्म-शुद्धि (चित्त शुद्धि) प्रदान करता है, जो ज्ञान और भक्ति के लिए आवश्यक है। अनासक्त कर्म करने से मन शांत और स्थिर होता है, जिससे ज्ञान और भक्ति के गहरे अनुभव संभव होते हैं।

  • ज्ञान योग कर्म और भक्ति को पूर्णता देता है: सच्चा ज्ञान यह बोध कराता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं और आत्मा अकर्ता है। यह बोध व्यक्ति को कर्मों के बंधन से मुक्त करता है। जब ज्ञान व्यक्ति को इस सत्य का दर्शन कराता है कि सब कुछ भगवान में ही स्थित है और भगवान ही सब कुछ हैं, तो यह भक्ति को गहरा करता है।

  • भक्ति योग ज्ञान और कर्म को जीवंत करता है: भक्ति ज्ञान को केवल बौद्धिक समझ से परे एक जीवंत अनुभव में बदल देती है। यह कर्मों को स्वार्थ से हटाकर भगवान को अर्पित करने में सहायक होती है, जिससे कर्म बंधनकारी नहीं रहते। भगवान के प्रति अनन्य भक्ति ही माया के दुर्गम सागर को पार करने का एकमात्र उपाय है।

विभिन्न टीकाओं के दृष्टिकोण: भगवद गीता में इन तीनों योगों के संबंध पर विभिन्न टीकाकारों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रहे हैं, जो उनकी दार्शनिक परंपराओं पर आधारित हैं:

  • अद्वैतवादी दृष्टिकोण (जैसे शंकराचार्य): इस परंपरा के अनुसार, ज्ञान योग मोक्ष का सीधा और अंतिम मार्ग है। कर्म योग और भक्ति योग को चित्त शुद्धि और ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में देखा जाता है। कर्म योग व्यक्ति को निष्काम कर्म के माध्यम से शुद्ध करता है, जिससे वह ज्ञान प्राप्ति के लिए तैयार होता है। भक्ति को ज्ञान के लिए सहायक माना जाता है, क्योंकि यह मन को एकाग्र करती है और अहंकार को कम करती है, जो आत्मज्ञान के लिए आवश्यक है। इस दृष्टिकोण में, अंततः सभी मार्ग ज्ञान में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि ज्ञान ही अज्ञान का नाश करता है और मोक्ष प्रदान करता है। गीता प्रेस की टीका में भी ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कहा गया है।

  • विशिष्टाद्वैतवादी दृष्टिकोण (जैसे रामानुजाचार्य): इस परंपरा में, भक्ति योग को मोक्ष का सर्वोच्च और प्रत्यक्ष मार्ग माना जाता है। कर्म योग और ज्ञान योग को भक्ति के सहायक अंगों के रूप में देखा जाता है। कर्म योग और ज्ञान योग भक्ति को मजबूत करने और भगवान के स्वरूप को समझने में मदद करते हैं। व्यक्ति को भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए (कर्म योग) और भगवान के गुणों और महिमा को समझना चाहिए (ज्ञान योग), जिससे उसकी भक्ति और गहरी हो सके। अंतिम लक्ष्य भगवान के साथ एकांत प्रेम (अनन्य भक्ति) के माध्यम से भगवान को प्राप्त करना है।

  • द्वैतवादी दृष्टिकोण (जैसे माधवाचार्य): इस परंपरा में, भक्ति ही मोक्ष का अंतिम और एकमात्र साधन है। कर्म और ज्ञान दोनों को भक्ति के लिए आवश्यक पूर्व-शर्तें माना जाता है। बिना कर्म और ज्ञान के सच्ची भक्ति संभव नहीं है, लेकिन केवल भक्ति ही भगवान की कृपा प्राप्त करने और मोक्ष प्राप्त करने में सक्षम बनाती है।

  • अखंडनीयता का दृष्टिकोण (जैसे श्री अरविंदो): कुछ आधुनिक टीकाकार, जैसे श्री अरविंदो, इन मार्गों को एक ही अभिन्न योग के विभिन्न पहलुओं के रूप में देखते हैं, जहाँ सभी एक साथ मिलकर पूर्ण आत्म-साक्षात्कार और दिव्य जीवन की ओर ले जाते हैं। वे तीनों को एकीकृत करते हुए "पूर्ण योग" का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं।

गीता स्वयं विभिन्न अध्यायों में इन मार्गों पर अलग-अलग जोर देती है, जो यह दर्शाता है कि यह एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है जहाँ ये तीनों मार्ग एक-दूसरे को पुष्ट करते हैं। अध्याय 2 में ज्ञान योग (सांख्य योग) का वर्णन है, अध्याय 3 में कर्म योग का, और अध्याय 12 में भक्ति योग का विस्तृत वर्णन है। अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन) और 18 (मोक्ष-संन्यास योग) में इन सभी का समावेश और समन्वय देखा जा सकता है, जहाँ अंततः अर्जुन भगवान की आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार होता है, अपने मोह को त्यागकर और स्मृति प्राप्त करके। यह ज्ञान (मोह-नाश), कर्म (आज्ञा पालन), और भक्ति (भगवान की कृपा से) का संगम है।

संक्षेप में, भगवद गीता में ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग एक ही लक्ष्य—मोक्ष या भगवत्प्राप्ति—की ओर ले जाने वाले विभिन्न मार्ग हैं, जो एक-दूसरे के पूरक हैं। कोई भी मार्ग अकेले अपूर्ण नहीं है, बल्कि वे एक साथ मिलकर आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक पूर्ण और शक्तिशाली प्रणाली बनाते हैं।


  1. अर्जुन की दुविधा और भगवान कृष्ण के उत्तरों के माध्यम से भगवद गीता में धर्म और स्वधर्म की अवधारणाओं का अन्वेषण करें। युद्ध में क्रूरता के पहलुओं के संबंध में श्री शंकर के भाष्य की प्रासंगिकता की चर्चा करें।

अर्जुन की दुविधा और भगवान कृष्ण के उत्तरों के माध्यम से भगवद गीता में धर्म और स्वधर्म की अवधारणाएँ गहनता से प्रकट होती हैं।

अर्जुन की दुविधा: कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में, अर्जुन अपने ही गुरुजनों, दादाओं, चाचाओं, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों और सम्बन्धियों को दोनों ओर युद्ध के लिए खड़े देखते हैं। इस दृश्य को देखकर वे अत्यधिक करुणा और शोक से भर जाते हैं। उनकी इंद्रियाँ शिथिल पड़ने लगती हैं, मुँह सूख जाता है, शरीर काँपता है और रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि यदि उन्हें अपने ही सम्बन्धियों का वध करना पड़े, तो विजय, राज्य या सुखों का क्या लाभ? वे तीनों लोकों के राज्य के लिए भी उन्हें मारना नहीं चाहते, फिर पृथ्वी के लिए तो क्या ही कहेंगे।

अर्जुन यह भी मानते हैं कि धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करने से उन्हें पाप लगेगा। उनका तर्क है कि यदि लोभ के कारण वे (धृतराष्ट्र के पुत्र) कुल के विनाश और मित्रद्रोह के पाप को नहीं देख पाते, तो उन्हें (पांडवों को) इस पाप से क्यों नहीं बचना चाहिए? उन्हें भय है कि कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाएँगे, अधर्म फैल जाएगा, स्त्रियाँ दूषित हो जाएँगी और वर्णसंकर उत्पन्न होंगे, जिससे कुलघाती और उनके पितर नरक में गिरेंगे। वे राज्य-सुख के लोभ से अपने ही सम्बन्धियों को मारने का प्रयास करने को महापाप मानते हैं। शोक-संतप्त मन से अर्जुन अपने धनुष-बाण त्यागकर रथ पर बैठ जाते हैं और कहते हैं कि वे युद्ध नहीं करेंगे। वे कृष्ण से पूछते हैं कि वे पूजनीय भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजनों से बाणों से कैसे लड़ सकते हैं। उनका मानना है कि ऐसे गुरुजनों को मारकर रक्त से सने हुए भोगों को भोगने की बजाय भिक्षा माँगकर जीवन व्यतीत करना श्रेयस्कर है। वे यह भी नहीं जानते कि उनके लिए क्या श्रेष्ठ है – युद्ध जीतना या हारना, क्योंकि जिन्हें मारकर वे जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र उनके सामने खड़े हैं। वे स्वीकार करते हैं कि उनका चित्त धर्म के विषय में मोहित है और शिष्य के रूप में कृष्ण से निश्चित कल्याणकारी मार्ग बताने का आग्रह करते हैं। वे कहते हैं कि वे ऐसा कोई उपाय नहीं देखते जिससे उनकी इंद्रियों को सुखाने वाला शोक दूर हो सके, चाहे उन्हें पृथ्वी का निष्कंटक समृद्ध राज्य या देवताओं का आधिपत्य ही क्यों न मिल जाए।

भगवान कृष्ण के उत्तर: भगवान कृष्ण अर्जुन की दुविधा को कई पहलुओं से संबोधित करते हैं, जिससे धर्म और स्वधर्म की गहरी अवधारणाएँ स्पष्ट होती हैं:

  • आत्मा की अमरता का उपदेश:

    • कृष्ण अर्जुन को शोक न करने योग्य व्यक्तियों के लिए शोक करने और पंडितों के समान बात करने के लिए फटकारते हैं, क्योंकि पंडित न तो जीवितों के लिए और न ही मृतकों के लिए शोक करते हैं।

    • वे कहते हैं कि न तो कभी ऐसा था जब वे नहीं थे, न तुम नहीं थे, न ये राजा नहीं थे, और न ही ऐसा होगा कि हम सब भविष्य में नहीं होंगे।

    • जैसे जीवात्मा इस शरीर में बाल्यकाल, युवावस्था और वृद्धावस्था को प्राप्त करता है, वैसे ही अन्य शरीर को प्राप्त होता है; धीर पुरुष इसमें मोहित नहीं होता।

    • शीत-उष्ण, सुख-दुःख देने वाले इंद्रिय-विषयों के संयोग अस्थायी और अनित्य हैं, अर्जुन को उन्हें सहन करना सीखना चाहिए।

    • यह आत्मा अविनाशी, नित्य, अजन्मा, शाश्वत और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता। शस्त्र इसे काट नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। यह अव्यक्त, अचिंत्य और अविकारी है। इसे ऐसा जानकर अर्जुन को शोक नहीं करना चाहिए।

    • यदि अर्जुन इसे नित्य जन्मा हुआ या नित्य मरा हुआ भी मानते हैं, तब भी उन्हें शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मरा है, उसका जन्म निश्चित है; इसलिए इस अपरिहार्य विषय पर शोक नहीं करना चाहिए। सभी प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त होते हैं, मध्य में व्यक्त होते हैं, और मृत्यु के बाद फिर अव्यक्त हो जाते हैं; इसमें शोक की क्या बात है?। सभी शरीरों में यह आत्मा अवध्य है; अतः अर्जुन को किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए।

  • क्षत्रिय का स्वधर्म:

    • कृष्ण अर्जुन को उनके स्वधर्म का विचार करके भी विचलित न होने का उपदेश देते हैं।

    • एक क्षत्रिय के लिए धर्मसंगत युद्ध से बढ़कर और कोई श्रेयस्कर कार्य नहीं है।

    • यदि अर्जुन इस धर्मयुद्ध को नहीं करेंगे, तो वे अपने स्वधर्म और कीर्ति को छोड़कर पाप को प्राप्त होंगे।

    • सभी प्राणी उनकी अक्षय अपकीर्ति का कथन करेंगे, और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर होती है।

    • महारथी उन्हें भय से युद्ध से विरत हुआ मानेंगे, और जिन पर उनका बहुत सम्मान था, उनकी दृष्टि में वे हल्के हो जाएँगे।

    • उनके शत्रु उनके सामर्थ्य की निंदा करते हुए अनेक अवाच्य वचन कहेंगे; इससे बढ़कर दुःख क्या हो सकता है?

  • युद्ध के परिणाम:

    • यदि युद्ध में मारे गए, तो स्वर्ग को प्राप्त होंगे; यदि जीत गए, तो पृथ्वी का उपभोग करेंगे।

    • इसलिए अर्जुन को सुख-दुःख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान मानकर युद्ध के लिए दृढ़ निश्चय करके उठना चाहिए, ऐसा करने से उन्हें पाप नहीं लगेगा।

  • कर्मयोग की अवधारणा:

    • कृष्ण अर्जुन के कर्म से श्रेष्ठ बुद्धि वाले प्रश्न के उत्तर में दो प्रकार की निष्ठाएँ बताते हैं: ज्ञानयोग (सांख्य योगियों के लिए) और कर्मयोग (योगियों के लिए)।

    • केवल कर्मों का आरंभ न करने से पुरुष नैष्कर्म्य (कर्म से मुक्ति) को प्राप्त नहीं होता, और न ही केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त होती है।

    • कोई भी मनुष्य क्षण भर के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता, क्योंकि सभी प्रकृति के गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं।

    • जो कर्मेन्द्रियों को रोककर मन से इंद्रिय-विषयों का स्मरण करता है, वह मूढात्मा मिथ्याचारी कहलाता है।

    • लेकिन जो मन से इंद्रियों को नियंत्रित करके अनासक्त भाव से कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है।

    • इसलिए अर्जुन को अपना नियत कर्म करना चाहिए, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, और कर्म के बिना शरीर-निर्वाह भी संभव नहीं होगा।

    • यह लोक यज्ञ के निमित्त किए गए कर्मों के अतिरिक्त अन्य कर्मों से बँधा है; इसलिए अर्जुन को अनासक्त होकर यज्ञ के निमित्त कर्तव्य-कर्म करना चाहिए।

    • जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे।

    • श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही करते हैं; वह जो प्रमाण स्थापित करता है, लोक उसी का अनुसरण करता है।

    • कृष्ण कहते हैं कि उन्हें तीनों लोकों में न तो कोई कर्तव्य है और न ही कोई अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी है, फिर भी वे कर्म में प्रवृत्त रहते हैं।

    • यदि वे सावधानीपूर्वक कर्म न करें, तो सभी मनुष्य उनके ही मार्ग का अनुसरण करेंगे, और ये लोक नष्ट हो जाएँगे।

    • अज्ञानी जिस प्रकार आसक्ति से कर्म करते हैं, ज्ञानी को भी उसी प्रकार अनासक्त होकर लोक-संग्रह (विश्व-कल्याण) के लिए कर्म करना चाहिए।

    • जो पुरुष समस्त कर्मों और उनके फल में आसक्ति का त्याग करके संसार के आश्रय से रहित और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्म में अच्छी प्रकार प्रवृत्त होने पर भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।

    • जो अपने समस्त कर्मों को ब्रह्म में अर्पित करके, आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है, वह पाप से वैसे ही निर्लिप्त रहता है जैसे कमल का पत्ता जल से।

    • योगी शरीर, मन, बुद्धि और केवल इंद्रियों द्वारा भी आसक्ति का त्याग करके आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

    • फल की इच्छा का त्याग करने वाला योगी परम शांति प्राप्त करता है, जबकि अयुक्त (योगरहित) व्यक्ति कामना के कारण फल में आसक्त होकर बँध जाता है।

    • मन से सभी कर्मों का संन्यास करके, वश में किया हुआ देही नौ द्वारों वाले शरीर-नगर में सुखपूर्वक रहता है, न स्वयं कुछ करता है और न ही किसी से करवाता है।

  • भगवद् स्वरूप का दर्शन (विभूति योग एवं विश्व रूप दर्शन):

    • कृष्ण स्वयं को सभी का उद्भवकर्ता और सभी के प्रवर्तक के रूप में बताते हैं। ज्ञानीजन इसे जानकर भक्तिपूर्वक उनकी उपासना करते हैं।

    • जो भक्त निरन्तर उनसे जुड़े रहते हैं, प्रेमपूर्वक उनका भजन करते हैं, उन्हें वे बुद्धियोग प्रदान करते हैं, जिससे वे उन्हें प्राप्त कर लेते हैं।

    • उनकी करुणावश, उनके हृदय में स्थित होकर, वे अज्ञान से उत्पन्न अंधकार को ज्ञान के प्रकाशमान दीपक से नष्ट करते हैं।

    • अर्जुन कृष्ण को परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, शाश्वत दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी मानते हैं।

    • कृष्ण अपने ईश्वरीय योग शक्ति को दिखाते हैं, जिसमें अर्जुन उनके विश्वरूप का दर्शन करते हैं।

    • इस रूप में, कृष्ण के अनेक मुख, नेत्र, भुजाएँ, उदर और दाढ़ें हैं, जो भयानक प्रतीत होती हैं।

    • इस रूप को देखकर अर्जुन का हृदय भयभीत हो जाता है और वे शांति नहीं पा पाते।

    • कृष्ण स्वयं को काल (समय), लोकों का संहार करने वाला बताते हैं, जो लोकों का संहार करने के लिए ही प्रकट हुए हैं।

    • कृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि अर्जुन के बिना भी युद्ध में खड़े सभी योद्धा पहले से ही उनके द्वारा मारे जा चुके हैं, और अर्जुन तो केवल निमित्त मात्र हैं।

    • यह विश्वरूप दर्शन अर्जुन को कृष्ण की सर्वोच्च सत्ता और उनकी नियति को समझने में मदद करता है कि युद्ध का परिणाम पहले से ही सुनिश्चित है।

  • मन पर नियंत्रण और योग:

    • कृष्ण स्वीकार करते हैं कि मन चंचल और वश में करना कठिन है, परंतु अभ्यास (अभ्यास) और वैराग्य (वैराग्य) से इसे वश में किया जा सकता है।

    • बिना मन को वश में किए योग की प्राप्ति कठिन है, लेकिन प्रयत्नशील और संयमी पुरुष उचित उपाय से इसे प्राप्त कर सकता है।

    • कृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि जो योगी योग से विचलित होता है, उसका न तो इस लोक में और न ही परलोक में नाश होता है; कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। ऐसा व्यक्ति पुण्यात्माओं के लोकों में जाकर बहुत समय तक निवास करता है और फिर पवित्र तथा श्रीमानों के घर में जन्म लेता है। अथवा, वह बुद्धिमान योगियों के कुल में जन्म लेता है; ऐसा जन्म संसार में अत्यंत दुर्लभ है। वहाँ वह अपने पूर्व शरीर से प्राप्त बुद्धिसंयोग को प्राप्त करता है और सिद्धि के लिए और अधिक प्रयत्न करता है। वह पूर्व अभ्यास के बल से विवश होकर भी खींच लिया जाता है; योग का जिज्ञासु भी वेदों के कर्मकांड का अतिक्रमण कर जाता है। प्रयत्नशील योगी पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों की सिद्धि से परम गति को प्राप्त होता है। योगी तपस्वियों से, ज्ञानियों से और कर्मकाण्डियों से भी श्रेष्ठ है; इसलिए अर्जुन, योगी बनो। सभी योगियों में से, जो श्रद्धावान होकर मुझमें मन लगाकर मेरा भजन करता है, वह मुझे सबसे श्रेष्ठ योगी मान्य है।

इन उत्तरों के माध्यम से कृष्ण अर्जुन को व्यक्तिगत भावनाओं और भौतिक परिणामों से परे, आत्मा की अमरता, कर्म के सिद्धांत, स्वधर्म के पालन और परमात्मा की सर्वव्यापकता को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। वे अर्जुन को कर्तव्य के प्रति निष्ठावान रहने और आसक्ति रहित होकर कर्म करने का मार्ग दिखाते हैं, जिससे वे न केवल युद्ध के भय और शोक से मुक्त हो सकें, बल्कि आध्यात्मिक मुक्ति भी प्राप्त कर सकें।

युद्ध में क्रूरता के पहलुओं के संबंध में श्री शंकर का भाष्य: दिए गए स्रोतों में श्री शंकर के भाष्य का सीधा उल्लेख या युद्ध में क्रूरता के पहलुओं पर उनकी विशिष्ट टिप्पणियाँ उपलब्ध नहीं हैं। हालाँकि, भगवद गीता का मूल संदेश, जैसा कि कृष्ण अर्जुन को देते हैं, युद्ध की क्रूरता को व्यक्तिगत पाप या दुःख के रूप में नहीं देखता, बल्कि इसे धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए एक आवश्यक कर्तव्य मानता है। शंकर का भाष्य भी आमतौर पर इसी दार्शनिक दृष्टिकोण का समर्थन करता है, जिसमें कर्म को उसकी आसक्ति और फल से मुक्त करके करने पर जोर दिया जाता है, न कि कर्म के नैतिक परिणामों पर व्यक्तिगत स्तर पर। उनके भाष्य में आत्मा की अमरता (जो मृत्यु के भय को दूर करती है) और ज्ञानयोग की श्रेष्ठता पर विशेष बल दिया जाता है, जिससे कर्म के बाहरी रूप से अधिक उसके आंतरिक भाव और निष्काम स्वरूप पर ध्यान केंद्रित होता है। दिए गए स्रोतों में "गीता-माहात्म्य" में विभिन्न भाष्यों का उल्लेख है, जिनमें शंकराचार्य का भाष्य भी शामिल है, लेकिन उनकी विस्तृत सामग्री प्रस्तुत नहीं की गई है।


  1. भगवद गीता में वर्णित तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) की विस्तृत व्याख्या करें। ये गुण किसी व्यक्ति के कर्मों, विश्वासों और आध्यात्मिक प्रगति को कैसे प्रभावित करते हैं? इन गुणों से परे जाने का मार्ग क्या है?

भगवद गीता में वर्णित तीन गुण (सत्त्व, रजस और तमस) प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और शरीर में रहने वाले अविनाशी जीवात्मा को बाँधते हैं। ये गुण व्यक्ति के कर्मों, विश्वासों और आध्यात्मिक प्रगति को विभिन्न तरीकों से प्रभावित करते हैं:

तीन गुणों की विस्तृत व्याख्या:

  • सत्त्व गुण (सत्त्वगुण):

    • स्वरूप और प्रभाव: यह गुण निर्मल होने के कारण प्रकाशमय और विकाररहित होता है। यह जीवात्मा को सुख के संबंध से और ज्ञान के संबंध से बाँधता है।

    • वृद्घि के लक्षण: जब यह गुण बढ़ता है, तो शरीर में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता, विवेकशक्ति और ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है।

    • मृत्यु पर प्रभाव: सत्त्वगुण की वृद्धि में मरने वाला महान् ज्ञानियों के निर्मल लोक को प्राप्त करता है।

    • कर्म: सत्त्वगुण से युक्त कर्म वह कहलाता है जो शास्त्रविधि से नियत, कर्तापन के अभिमान से रहित, राग-द्वेष से रहित और फल की इच्छा से रहित होकर किया जाता है।

    • बुद्धि: सत्त्वगुण वाली बुद्धि प्रवृत्ति (कर्तव्य मार्ग) और निवृत्ति (अकर्तव्य मार्ग) को, कार्य (करने योग्य) और अकार्य (न करने योग्य) को, भय और अभय को, तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है।

    • धृति (धारणशक्ति): सत्त्वगुण वाली धृति वह है जिससे मनुष्य ध्यानयोग के अभ्यास से मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता है।

    • सुख: सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाला सुख आरंभ में विष के समान प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य होता है, क्योंकि वह आत्म-विषयक बुद्धि की निर्मलता से उत्पन्न होता है।

    • कर्ता (कार्य करने वाला): सत्त्वगुणी कर्ता संग (आसक्ति) से रहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त होता है, और सिद्धि-असिद्धि में विकारों से रहित रहता है।

  • रजस गुण (रजोगुण):

    • स्वरूप और प्रभाव: यह राग (इच्छा, आसक्ति) स्वरूप है और तृष्णा एवं आसक्ति से उत्पन्न होता है। यह देहधारी जीवात्मा को कर्मों के संग से बाँधता है

    • वृद्घि के लक्षण: रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति (कर्मों में चेष्टा), स्वार्थबुद्धि से कर्मों का आरंभ, अशांति और विषयभोगों की लालसा उत्पन्न होती है।

    • मृत्यु पर प्रभाव: रजोगुण की वृद्धि में मरने वाला कर्मों में आसक्त मनुष्यों में जन्म लेता है।

    • कर्म: रजोगुण से युक्त कर्म फल की इच्छा रखने वाले, अहंकारयुक्त और अत्यंत परिश्रम से किया जाता है।

    • बुद्धि: रजोगुण वाली बुद्धि धर्म और अधर्म को, तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ नहीं जान पाती

    • धृति: रजोगुण वाली धृति वह है जिससे मनुष्य फल की इच्छा और आसक्ति के कारण धर्म, अर्थ और काम को धारण करता है।

    • सुख: रजोगुण से उत्पन्न होने वाला सुख आरंभ में अमृत के समान प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में विष के तुल्य होता है। यह विषय और इंद्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है।

    • कर्ता: रजोगुणी कर्ता आसक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला, लोभी, दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्ध आचरण वाला, और हर्ष-शोक से लिप्त रहता है।

  • तमस गुण (तमोगुण):

    • स्वरूप और प्रभाव: यह अज्ञान से उत्पन्न होता है और सभी देहधारियों को मोहित करता है। यह देहधारी को प्रमाद (बेसुध रहने का स्वभाव), आलस्य और निद्रा द्वारा बाँधता है।

    • वृद्घि के लक्षण: तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति, व्यर्थ चेष्टाएँ, प्रमाद और निद्रा आदि मोह उत्पन्न करने वाली वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं।

    • मृत्यु पर प्रभाव: तमोगुण की वृद्धि में मरने वाला अज्ञानी जीवों की मूढ़ योनियों में जन्म लेता है।

    • कर्म: तमोगुण से किया गया कर्म वह है जो मोह के कारण आरंभ किया जाता है, जिसमें परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य का विचार नहीं किया जाता।

    • बुद्धि: तमोगुण से ढकी हुई बुद्धि अधर्म को धर्म मान लेती है और सभी पदार्थों को विपरीत रूप में देखती है।

    • धृति: तमोगुण वाली धृति वह है जिससे मनुष्य निद्रा, भय, शोक, विषाद और उन्माद को नहीं छोड़ता।

    • सुख: तमोगुण से उत्पन्न होने वाला सुख भोगकाल और परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला होता है। यह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है।

    • कर्ता: तमोगुणी कर्ता अयुक्त (अयोग्य), शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त, दूसरों की जीविका नष्ट करने वाला, शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (काम को टालने वाला) होता है।

गुणों का व्यक्ति के कर्मों, विश्वासों और आध्यात्मिक प्रगति पर प्रभाव:

  • ये तीनों गुण, प्रकृति से उत्पन्न होकर, जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं।

  • वास्तव में, सारे कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही किए जाते हैं, परंतु अहंकार से मोहित मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है।

  • ज्ञानी पुरुष समझता है कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, और वह आसक्त नहीं होता।

  • बुद्धि, कर्म और कर्ता भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार के होते हैं।

  • जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, उसे न तो सिद्धि प्राप्त होती है, न परमगति और न सुख ही।

  • जो भक्त श्रद्धा से युक्त होकर अन्य देवताओं को पूजते हैं, वे भी कृष्ण को ही पूजते हैं, लेकिन अविधिपूर्वक, यानी ज्ञान के बिना।

  • भगवान कृष्ण कहते हैं कि वे सभी यज्ञों के भोक्ता और स्वामी हैं, लेकिन जो उन्हें तत्व से नहीं जानते, वे गिर जाते हैं (जन्म-मृत्यु के चक्र में वापस आते हैं)।

  • देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं, परंतु कृष्ण के भक्त कृष्ण को ही प्राप्त होते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता

इन गुणों से परे जाने का मार्ग:

इन तीनों गुणों से अतीत होकर, मनुष्य जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सभी दुखों से मुक्त होकर अमृतत्व को प्राप्त होता है

  • अभ्यास और वैराग्य: मन को वश में करना निस्संदेह कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है।

  • अविचल भक्ति (अव्यभिचारिणी भक्ति): जो मनुष्य अनन्य प्रेम से भगवान की भक्ति का सेवन करता है, वह इन गुणों को अतिक्रमण कर जाता है और ब्रह्मभाव को प्राप्त होने में समर्थ होता है।

  • सत्त्वगुण में स्थित होना: रजोगुण और तमोगुण को जीतकर सत्त्वगुण में स्थित होकर ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है।

  • गुणातीत के लक्षण (जिन्होंने गुणों को पार कर लिया है):

    • जो प्रकाश (सत्त्वगुण का कार्य), प्रवृत्ति (रजोगुण का कार्य) और मोह (तमोगुण का कार्य) के प्रकट होने पर उनसे द्वेष नहीं करता और न ही उनके निवृत्त होने पर उनकी इच्छा करता है

    • जो साक्षी के समान स्थित रहता है, गुणों द्वारा विचलित नहीं होता, और यह समझते हुए कि "गुण ही गुणों में बरतते हैं" स्थिर रहता है

    • जो सुख-दुःख में सम रहता है, अपने स्वरूप में स्थित रहता है, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को समान मानता है

    • जो प्रिय और अप्रिय में समान रहता है, अपनी निंदा और स्तुति में भी समान रहता है।

    • जो मान और अपमान में सम है, मित्र और शत्रु के पक्ष में भी सम है, और सभी कर्मों को त्याग चुका है, वह गुणातीत कहलाता है।

यह समझा जाता है कि ब्रह्मलोक तक के सभी लोक पुनरावर्ती हैं, लेकिन भगवान को प्राप्त होने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता क्योंकि वे काल से अतीत हैं


  1. भगवान कृष्ण के विश्व-रूप दर्शन का अर्जुन पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका वर्णन करें। यह दर्शन भगवद गीता के समग्र संदेश और भगवान की सर्वशक्तिमान प्रकृति को कैसे सुदृढ़ करता है?

अर्जुन को भगवान कृष्ण के विश्व-रूप का दर्शन भगवद गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णित है, और इसका अर्जुन पर गहरा प्रभाव पड़ा, साथ ही इसने भगवान की सर्वशक्तिमान प्रकृति और गीता के समग्र संदेश को भी सुदृढ़ किया।

अर्जुन पर विश्व-रूप दर्शन का प्रभाव:

  • उत्सुकता और प्रार्थना: अर्जुन ने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि वे उन्हें अपना ईश्वरीय रूप दिखाएँ, क्योंकि कृष्ण ने पहले ही उनके जन्म और कर्मों को दिव्य बताया था।

  • दिव्य दृष्टि की प्राप्ति: भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वह अपनी सामान्य आँखों से उनके विश्व-रूप को नहीं देख सकते। इसलिए, कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे वह भगवान के अद्भुत और ऐश्वर्यपूर्ण रूप को देख सकें।

  • अद्भुत दर्शन: संजय ने धृतराष्ट्र को बताया कि महायोगेश्वर श्री हरि (कृष्ण) ने अर्जुन को अपना परम ईश्वरीय रूप दिखाया। अर्जुन ने उस रूप को अनेक मुखों और नेत्रों वाला, अनेक अद्भुत दृश्यों से युक्त, अनेक दिव्य आभूषणों से सुशोभित, हाथों में अनेक दिव्य शस्त्रों को धारण किए हुए, दिव्य माला और वस्त्र पहने हुए, दिव्य गंधों से लेपित, सर्व-आश्चर्यमय, अनंत और सब ओर मुख किए हुए देखा। अर्जुन ने देखा कि यदि आकाश में एक साथ सहस्रों सूर्यों का प्रकाश उत्पन्न हो जाए, तो वह भी उस महात्मा के प्रकाश के समान नहीं हो सकता। उन्होंने भगवान कृष्ण के शरीर में ही एक स्थान पर चर-अचर सहित संपूर्ण जगत को अनेक प्रकार से विभक्त देखा

  • आश्चर्य और भय: इस अद्भुत रूप को देखकर अर्जुन आश्चर्य से चकित हो गए, उनके रोंगटे खड़े हो गए, और उन्होंने सिर झुकाकर भगवान को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। अर्जुन ने भगवान के शरीर में सभी देवताओं, विभिन्न प्रकार के प्राणियों के समूहों, ब्रह्मा को कमल के आसन पर बैठे हुए, तथा सभी ऋषियों और दिव्य सर्पों को देखा।

  • परेशानी और घबराहट: अर्जुन ने कृष्ण के अनेक मुख, नेत्र, भुजाएँ, उदर और दांत देखे, जो भयानक थे और सभी लोकों और स्वयं उन्हें भी व्यथित कर रहे थे। उन्होंने कृष्ण के मुखों को भयानक दाँतों वाला, प्रज्वलित काल की अग्नि के समान देखा। वह दिशाओं को नहीं जान पा रहे थे और शांति भी प्राप्त नहीं कर पा रहे थे।

  • विनाशकारी दृष्टि: अर्जुन ने देखा कि धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, राजाओं के समूह, भीष्म, द्रोण, कर्ण, और उनके अपने पक्ष के भी प्रधान योद्धा, सभी तेजी से कृष्ण के भयानक मुखों में प्रवेश कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ योद्धाओं के सिर कृष्ण के दाँतों के बीच फँसकर चूर्ण हो रहे थे। अर्जुन ने इस दृश्य की तुलना नदियों के वेग से समुद्र में प्रवेश करने और पतंगों के विनाश के लिए जलती हुई अग्नि में कूदने से की। उन्होंने देखा कि कृष्ण अपने प्रज्वलित मुखों से सभी लोकों को भस्म करते हुए और अपनी तेज किरणों से संपूर्ण जगत को संतप्त करते हुए उन्हें चारों ओर से चाट रहे थे।

  • पहचान और निर्देश: अर्जुन ने भयभीत होकर कृष्ण से पूछा कि वे इस उग्र रूप वाले कौन हैं और उनकी प्रवृत्ति क्या है, क्योंकि वे उन्हें समझ नहीं पा रहे थे। भगवान कृष्ण ने उत्तर दिया कि वे काल (समय) हैं, लोकों का नाश करने वाले और वे इन लोकों को संहार करने के लिए प्रकट हुए हैं। कृष्ण ने अर्जुन को खड़े होने, यश प्राप्त करने, शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से संपन्न राज्य भोगने का निर्देश दिया, क्योंकि वे सभी योद्धा पहले से ही कृष्ण द्वारा मारे जा चुके थे। कृष्ण ने अर्जुन को केवल निमित्त मात्र बनने के लिए कहा।

  • प्रशंसा और क्षमा याचना: अर्जुन ने फिर से कृष्ण की स्तुति की और उन्हें ब्रह्मांड के पिता, पूजनीय गुरु, और अद्वितीय परमेश्वर के रूप में संबोधित किया। उन्होंने स्वीकार किया कि तीनों लोकों में कृष्ण के समान या उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। अर्जुन ने कृष्ण से अपने अनजाने में किए गए अपराधों के लिए क्षमा मांगी, क्योंकि उन्होंने कृष्ण को मित्र मानकर हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे जैसे शब्दों से संबोधित किया था।

  • पुनः सामान्य रूप की इच्छा: विश्व-रूप देखकर अर्जुन को आनंद तो हुआ, लेकिन भय से उनका मन व्याकुल हो गया। उन्होंने कृष्ण से उनके चतुर्भुज (चार भुजाओं वाले) रूप को दिखाने की विनती की। कृष्ण ने फिर से अपना सौम्य (मनुष्य-जैसा) रूप धारण कर लिया और अर्जुन को सांत्वना दी। अर्जुन को अपना मन शांत और प्रकृतिस्थ महसूस हुआ।

भगवद गीता के समग्र संदेश और भगवान की सर्वशक्तिमान प्रकृति का सुदृढ़ीकरण:

यह विश्व-रूप दर्शन भगवद गीता के कई मूलभूत सिद्धांतों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से पुष्ट करता है:

  • भगवान की सर्वव्यापकता और सर्वशक्तिमान प्रकृति: अर्जुन ने कृष्ण के विश्व-रूप में संपूर्ण ब्रह्मांड को समाहित देखा। यह इस बात पर ज़ोर देता है कि भगवान कृष्ण ही सभी प्राणियों के आदि, मध्य और अंत हैं और उन्हीं में सब कुछ निहित है, जैसे धागे में मोती। कृष्ण पहले भी कहते हैं कि यह संपूर्ण जगत उन्हीं से व्याप्त है, और सभी प्राणी उनमें स्थित हैं, परंतु वे उनमें स्थित नहीं हैं। विश्व-रूप इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि भगवान केवल एक व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि ब्रह्मांड के सभी रूपों और शक्तियों का समुच्चय हैं।

  • ईश्वर ही काल (समय) और संहारक हैं: जब अर्जुन ने कृष्ण से उनके उग्र रूप का उद्देश्य पूछा, तो कृष्ण ने स्वयं को काल (समय), लोकों का नाश करने वाला बताया। यह दर्शाता है कि सृष्टि, स्थिति और संहार के सभी कार्य भगवान की इच्छा से होते हैं और वे ही परम नियंत्रक हैं। इस दर्शन ने अर्जुन को युद्ध के परिणाम के प्रति आसक्ति छोड़ने और केवल एक निमित्त मात्र बनकर अपना क्षत्रिय धर्म निभाने के लिए प्रेरित किया।

  • ज्ञान और भक्ति का महत्व: कृष्ण बताते हैं कि उनका यह विश्व-रूप न तो वेदों, न तपस्या, न दान, और न ही यज्ञों द्वारा देखा जा सकता है। केवल अनन्य भक्ति (अविभाजित भक्ति) के माध्यम से ही कोई उन्हें तत्वतः जान सकता है, देख सकता है और उनमें प्रवेश कर सकता है। जो व्यक्ति कृष्ण के लिए कर्म करता है, उन्हें परम मानता है, उनका भक्त होता है, आसक्ति रहित होता है, और सभी प्राणियों से वैर-भाव नहीं रखता, वह कृष्ण को प्राप्त होता है। यह भक्ति योग के महत्व को दर्शाता है, जिसे भगवान ने अर्जुन को "सबसे उत्तम योगी" बताया है।

  • ब्रह्म और परमात्मा की अवधारणा: विश्व-रूप दर्शन ने भगवान कृष्ण को परम ब्रह्म, आदिदेव, सनातन पुरुष और संपूर्ण जगत का परम आश्रय सिद्ध किया। यह दर्शाता है कि कृष्ण ही वह अविनाशी सत्य हैं जिसकी वेदों में चर्चा की गई है और जिसे योगी प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं।

संक्षेप में, विश्व-रूप दर्शन अर्जुन के लिए एक परिवर्तनकारी अनुभव था, जिसने उन्हें भगवान कृष्ण की असीमित शक्ति, सर्वव्यापकता और ब्रह्मांडीय भूमिका का प्रत्यक्ष अनुभव कराया। इस दर्शन ने अर्जुन के भय को मिटाया, उन्हें अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए प्रेरित किया, और भगवद गीता के केंद्रीय संदेश को पुष्ट किया कि भगवान ही परम सत्य हैं और उन्हें केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है।


  1. भगवद गीता में मोक्ष की अवधारणा और इसे प्राप्त करने के विभिन्न तरीकों पर चर्चा करें। आत्म-ज्ञान, कर्म-त्याग और ईश्वर के प्रति भक्ति मोक्ष के मार्ग में कैसे योगदान करते हैं?

भगवद गीता में मोक्ष की अवधारणा और इसे प्राप्त करने के विभिन्न तरीकों पर विस्तार से चर्चा की गई है, जिसमें आत्म-ज्ञान, कर्म-त्याग और ईश्वर के प्रति भक्ति प्रमुख मार्ग हैं।

मोक्ष की अवधारणा श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, मोक्ष का अर्थ है जन्म और मृत्यु के दुःखमय और क्षणभंगुर चक्र से मुक्ति प्राप्त करना और परमात्मा की परम सिद्धि को प्राप्त करना। गीता में इसे परम गति, सनातन ब्रह्म, और दुख रहित पद के रूप में वर्णित किया गया है। ब्रह्मालोक तक के सभी लोक पुनरावर्ती हैं, लेकिन भगवान को प्राप्त करने के बाद पुनर्जन्म नहीं होता है।

मोक्ष प्राप्त करने के विभिन्न तरीके भगवान कृष्ण ने मोक्ष प्राप्ति के लिए मुख्य रूप से दो मार्ग बताए हैं: सांख्य योग (ज्ञान योग) और कर्म योग।

  1. आत्म-ज्ञान (ज्ञान योग)

    • आत्म-ज्ञान की प्रकृति: गीता के अनुसार, पंडित लोग न तो जीवित के लिए शोक करते हैं और न ही मृत के लिए, क्योंकि वे जानते हैं कि आत्मा अविनाशी है। आत्मा न तो कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है; यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरती। शस्त्र इसे काट नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता, और वायु इसे सुखा नहीं सकती। यह आत्मा अव्यक्त, अचिंत्य और अविकारी कही जाती है।

    • ज्ञान योग से मोक्ष:

      • ज्ञान योग में संपूर्ण पदार्थों को मायामय समझने से मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का भाव नहीं रहता और सब कुछ भगवान का समझकर उनमें लीन रहना होता है।

      • ज्ञान यज्ञ (ज्ञान का यज्ञ) द्रव्यमय यज्ञ से श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ, संपूर्ण कर्म ज्ञान में ही समाप्त हो जाते हैं।

      • ज्ञान रूपी अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है।

      • जो मनुष्य क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा/परमात्मा) के भेद को तत्व से जानता है, वह परमात्मा को प्राप्त होता है।

      • जो मनुष्य प्रिय को पाकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता, वह स्थिरबुद्धि, संशय रहित ब्रह्मवेत्ता मनुष्य सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित रहता है।

      • गीता में तेरहवें अध्याय में, भगवान शरीर को 'क्षेत्र' और इसे जानने वाले को 'क्षेत्रज्ञ' कहते हैं। वे स्वयं को सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ बताते हैं। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। ज्ञेय वह ब्रह्म है जो अनादि, मत्पर, न सत् कहा जाता है और न असत्।

  2. कर्म-त्याग (संन्यास योग)

    • कर्म-त्याग की प्रकृति: कर्म-त्याग का अर्थ कर्मों को छोड़ना नहीं है, बल्कि कर्मों के फल की इच्छा का त्याग करना है। भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह अपने नियत कर्म (शास्त्र-विहित कर्तव्य) करे, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से शरीर का निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।

    • कर्म-त्याग से मोक्ष:

      • जो मनुष्य संपूर्ण कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभांति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।

      • जो मनुष्य कर्मफल में आसक्ति का त्याग कर देते हैं, वे बुद्धि से युक्त होकर जन्मबंधन से मुक्त हो जाते हैं और दुख रहित परम पद को प्राप्त होते हैं।

      • ज्ञानयोगी और कर्मयोगी दोनों ही परम कल्याण को करने वाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।

      • जो आसक्ति रहित होकर ब्रह्म में कर्म करता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता।

      • त्याग तीन प्रकार का बताया गया है: सात्विक, राजसिक और तामसिक। राजसिक त्याग में, जो कर्म शरीर-क्लेश के भय से या दुःख रूप समझकर त्याग दिया जाता है, वह राजसिक त्याग कहा गया है। तामसिक त्याग में, मोह के कारण कर्मों का त्याग करना तामसिक त्याग है। सात्विक त्याग वह है जब नियत कर्म फल की इच्छा का त्याग करके आसक्ति रहित होकर किया जाता है।

  3. ईश्वर के प्रति भक्ति (भक्ति योग)

    • भक्ति की प्रकृति: भक्ति योग भगवान के प्रति अनन्य प्रेम और श्रद्धा का मार्ग है। भगवान स्वयं कहते हैं कि जो भक्त अनन्य प्रेम से उनका निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं, उन नित्य-युक्त भक्तों के लिए वे सुलभ हैं।

    • भक्ति योग से मोक्ष:

      • सभी योगियों में से, जो योगी श्रद्धावान होकर अपने अंतःकरण को मुझमें लगाकर मुझे निरंतर भजता है, वह मुझे परम श्रेष्ठ योगी मान्य है।

      • जो भक्त अनन्य प्रेम से मेरा चिंतन करते हैं और निष्काम भाव से मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योग-क्षेम मैं स्वयं प्राप्त करा देता हूँ।

      • जो महापुरुष मेरी शरण होकर जरा और मृत्यु से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे उस ब्रह्म को, संपूर्ण अध्यात्म को और संपूर्ण कर्म को जानते हैं।

      • जो मनुष्य केवल मेरे लिए संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति रहित है और संपूर्ण भूत प्राणियों में वैर भाव से रहित है, वह अनन्यभक्तियोगी मुझको ही प्राप्त होता है।

      • अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाने के बाद, भगवान कहते हैं कि इस रूप को न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञों से देखा जा सकता है, केवल अनन्य भक्ति से ही मुझे इस प्रकार देखा, जाना और प्रवेश किया जा सकता है।

      • अत्यंत दुराचारी भी यदि अनन्य भाव से भगवान को भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि उसने यथार्थ निश्चय कर लिया है।

      • जो कोई भी भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ।

      • हे अर्जुन, मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।

      • स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि में उत्पन्न भी जो कोई मेरे शरण होते हैं, वे भी परम गति को प्राप्त होते हैं।

      • अपने मन को मुझमें लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो, और मुझे प्रणाम करो; ऐसा करने से तुम मुझे ही प्राप्त करोगे, यह मैं तुम्हें सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तुम मेरे अत्यंत प्रिय हो।

मार्गों का अंतर्संबंध गीता में ज्ञान योग और कर्म योग को भिन्न-भिन्न साधन बताया गया है, परंतु उनका परिणाम एक ही है, अर्थात् परम तत्व की प्राप्ति। सांख्य और योग (कर्म योग) को अलग-अलग कहने वाले मूर्ख होते हैं, पंडित नहीं, क्योंकि दोनों में से किसी एक में भी भलीभांति स्थित मनुष्य दोनों के फल रूप परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। जो ज्ञानयोगी परमात्मा को प्राप्त करते हैं, वही कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं। जो सांख्य (ज्ञान) और योग (कर्म) को एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।

संक्षेप में, भगवद्गीता मोक्ष को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति और परमात्मा के साथ एकत्व की प्राप्ति के रूप में परिभाषित करती है। यह इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आत्म-ज्ञान (आत्मा की अमरता और ब्रह्म के साथ उसके एकत्व को समझना), कर्म-त्याग (फल की आसक्ति के बिना कर्म करना), और ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति (परमात्मा पर पूर्ण श्रद्धा और समर्पण) जैसे विभिन्न मार्गों का प्रस्ताव करती है। ये मार्ग अंततः एक ही गंतव्य की ओर ले जाते हैं, साधक की प्रकृति और योग्यता के अनुसार भिन्न हो सकते हैं।

भगवद गीता: एक कालक्रम और पात्र

कालक्रम (Timeline)

  1. 3102 ईसा पूर्व (Kali-yuga की शुरुआत): यह कलियुग के लिए बेंचमार्क शून्य वर्ष है, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इस कैलेंडर को वास्तव में कब अपनाया गया था। प्राचीन भारतीय साहित्य में इसके अनुसार डेटिंग का कोई स्थापित अभ्यास नहीं था।

  2. तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व (महाभारत की पारंपरिक डेटिंग): पारंपरिक डेटिंग के अनुसार, महाभारत और उसमें निहित भगवद गीता की घटनाएं इस अवधि में हुई थीं।

  3. 500 ईसा पूर्व - 200 ईस्वी (महाभारत का अंतिम रूप): पश्चिमी विद्वानों का मानना है कि महाभारत अपने अंतिम रूप में इस अवधि के दौरान सामने आया, जिसमें भगवद गीता अध्याय 23 से 40 तक, भीष्म पर्व के छठे खंड में शामिल है।

  4. 270-230 ईसा पूर्व (सम्राट अशोक का शासनकाल): इस अवधि में बौद्ध सम्राट अशोक मौर्य का शासन था, जिन्होंने उच्च नैतिक मूल्यों के पक्ष में अपनी युद्ध-कला को त्याग दिया था।

  5. ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी (गीता का उद्भव): कृष्ण की दिव्यता पहली बार भगवद गीता में जानी जाती है, जो महाभारत के भीतर एक छोटे से खंड के रूप में अपनी प्रारंभिक पहचान पाती है।

  6. 1785 ईस्वी (चार्ल्स विल्किंस द्वारा पहला अंग्रेजी अनुवाद): चार्ल्स विल्किंस ने भगवद गीता का पहला अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया, जिसने भारत और पश्चिम में "निष्पक्ष" और "महत्वपूर्ण" छात्रवृत्ति की एक प्रवृत्ति शुरू की।

  7. 1789 ईस्वी (विलियम जोन्स द्वारा "सकोंटाला" का अनुवाद): विलियम जोन्स का कालिदास के नाटक "सकोंटाला या घातक अंगूठी" का अनुवाद प्रकाशित हुआ, जिसने गीता के प्रकाशन की तुलना में अधिक रुचि पैदा की।

  8. 1802-1804 ईस्वी (उपनिशदों का लैटिन अनुवाद): फ्रांसीसी जेसुइट पुजारी-भाषाविद् अब्राहम-हयसिंथे अक्वाटिल डुपरॉन द्वारा उपनिषदों का लैटिन अनुवाद (ओपनेखट) प्रकाशित हुआ, जिसने भारत और उसकी संस्कृति के बारे में जानने की इच्छा को और बढ़ाया।

  9. 1802 ईस्वी (फ्रेडरिक मायर द्वारा गीता का जर्मन अनुवाद): हर्डर के अनुयायी फ्रेडरिक मायर ने विल्किंस के अनुवाद से पूरी भगवद गीता का जर्मन में अनुवाद किया।

  10. 1808 ईस्वी (श्लेगल का "यूबर डी स्प्रेचे एंड वेइसहेट डेर इंडियर"): श्लेगल ने भारतीय भाषा और दर्शन पर एक विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन, "यूबर डी स्प्रेचे एंड वेइसहेट डेर इंडियर: आइन बेट्रेग ज़ुर बेगरुंडुंग डेर अल्टरटम्सकुंडे" प्रकाशित किया, जिसमें भगवद गीता के अंशों के सीधे अनुवाद शामिल थे।

  11. 1824 ईस्वी (अलेक्जेंड्रे लैंग्लॉइस द्वारा श्लेगल के अनुवाद की आलोचना): फ्रांसीसी संस्कृतविद् अलेक्जेंड्रे लैंग्लॉइस ने जर्नल एशियाटिक में श्लेगल के अनुवाद की कड़ी आलोचना प्रकाशित की।

  12. 1825-1826 ईस्वी (हम्बोल्ट द्वारा श्लेगल का बचाव): हम्बोल्ट ने बर्लिन में रॉयल प्रशिया एकेडमी ऑफ साइंसेज में दो व्याख्यान दिए, जिसमें उन्होंने गीता को "सभी ज्ञात साहित्य की सबसे सुंदर, शायद एकमात्र वास्तविक दार्शनिक कविता" घोषित किया।

  13. 1882 ईस्वी (के.टी. तेलंग द्वारा गीता का अंग्रेजी अनुवाद): के.टी. तेलंग ने एक महत्वपूर्ण और विस्तृत परिचय के साथ गीता का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया, जो भारतीय छात्रवृत्ति का प्रारंभिक उदाहरण था।

  14. 1885 ईस्वी (एडविन अर्नोल्ड का "द सॉन्ग सेलेशियल"): एडविन अर्नोल्ड का गीता का काव्यात्मक अनुवाद "द सॉन्ग सेलेशियल" प्रकाशित हुआ, जिसने युवा गांधी पर गहरा प्रभाव डाला।

  15. 1888 या 1889 ईस्वी (गांधी द्वारा गीता का पहला पाठ): महात्मा गांधी ने लंदन में कानून का अध्ययन करते हुए थियोसोफिकल मित्रों के साथ "द सॉन्ग सेलेशियल" को पहली बार पढ़ा।

  16. 1893 ईस्वी (स्वामी विवेकानंद का शिकागो दौरा): स्वामी विवेकानंद ने शिकागो की यात्रा की, जो गीता और हिंदुत्व पर प्रवचन देने वाले कई प्रमुख स्वामियों में से पहले थे।

  17. 1904 ईस्वी (श्री अरबिंदो द्वारा योगिक प्रथाओं की शुरुआत): श्री अरबिंदो ने बड़ौदा में अपनी योगिक प्रथाओं की शुरुआत की और महाराष्ट्र के योगी विष्णु भास्कर लेले द्वारा उनमें दीक्षा ली।

  18. 1905-1908 ईस्वी (स्वदेशी आंदोलन): स्वदेशी आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रवाद में एक नई चेतना और राजनीति को जन्म दिया, जिसने भारत के विभाजन का विरोध किया।

  19. 1906 ईस्वी (श्री अरबिंदो द्वारा बड़ौदा सेवा से इस्तीफा): श्री अरबिंदो ने बंगाल के विभाजन के मद्देनजर राष्ट्रवादी संघर्ष में शामिल होने के लिए बड़ौदा में अपनी सेवा से इस्तीफा दे दिया और कलकत्ता में बंगाल नेशनल कॉलेज के प्रिंसिपल बन गए।

  20. 1910 ईस्वी (सावरकर की लंदन में गिरफ्तारी): धनंजय कीर के अनुसार, सावरकर ने लंदन में गिरफ्तारी के बाद एक पुलिस अधिकारी से कहा, "हम हिंदू हैं। हमने गीता पढ़ी है।"

  21. 1935 ईस्वी (श्री पुरोहित स्वामी द्वारा गीता का अनुवाद): श्री पुरोहित स्वामी द्वारा गीता का अनुवाद "द गीता: द गॉस्पेल ऑफ द लॉर्ड श्री कृष्ण" प्रकाशित हुआ।

  22. 1942 ईस्वी (स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा "गीता हृदय" का समापन): स्वामी सहजानंद सरस्वती ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए जेल में रहते हुए हिंदी में गीता पर अपनी टिप्पणी "गीता हृदय" पूरी की।

  23. 1944 ईस्वी (स्वामी प्रभावनंद और क्रिस्टोफर इशेरवुड द्वारा गीता का अनुवाद): स्वामी प्रभावनंद और क्रिस्टोफर इशेरवुड द्वारा गीता का अनुवाद "द सॉन्ग ऑफ गॉड" प्रकाशित हुआ।

  24. 1945 ईस्वी (एल्डस हक्सले का "द पेरेनियल फिलॉसफी"): एल्डस हक्सले ने अपनी पुस्तक "द पेरेनियल फिलॉसफी" प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने गीता को अन्य रहस्यमय धार्मिक कार्यों के साथ एक "अनादिवादी" परंपरा में रखा।

  25. 1947 ईस्वी (भारत की स्वतंत्रता): 15 अगस्त को भारत स्वतंत्र हुआ, जो श्री अरबिंदो के जन्म की 75वीं वर्षगांठ थी।

  26. 1948 ईस्वी (स्वामी सहजानंद सरस्वती की "गीता हृदय" का पहला प्रकाशन): स्वामी सहजानंद सरस्वती की "गीता हृदय" पहली बार प्रकाशित हुई।

  27. 1950 के दशक (सावरकर ने गीता का उपयोग किया): कीर का दावा है कि 1950 के दशक में सावरकर ने गीता का उपयोग ईसाइयों के हिंदुओं को परिवर्तित करने के प्रयासों को "असहिष्णु" और "अन्यायपूर्ण" बताने के तरीके के रूप में किया।

  28. 1960 के दशक (पश्चिमी देशों में भारतीय गुरुओं का उदय): विवेकानंद और अरबिंदो जैसे गुरुओं ने प्राचीन हिंदू ग्रंथों और शिक्षाओं को भारत और पूरी दुनिया में नए आधुनिक दर्शकों के लिए अपनाया।

  29. 1991 ईस्वी (करवे की टिप्पणी): करवे ने प्राचीन भारत में दो प्रकार के साहित्य पर टिप्पणी की - वेदों जैसे प्रकट कार्य, और रामायण और महाभारत जैसे गाथात्मक आख्यान।

  30. 1993 ईस्वी (अभिनवगुप्त की टिप्पणी का अंग्रेजी अनुवाद): अभिनवगुप्त की भगवद गीता पर टिप्पणी का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ, जिसमें कश्मीरी पाठ के भिन्नताओं पर प्रकाश डाला गया।

  31. 1997 ईस्वी (एकनाथ ईश्वरन का "द भगवद गीता फॉर डेली लिविंग"): एकनाथ ईश्वरन ने अपनी प्रमुख पुस्तक "द भगवद गीता फॉर डेली लिविंग" प्रकाशित की, जिसमें गीता को "दैनिक जीवन के लिए एक व्यावहारिक नियमावली" के रूप में प्रस्तुत किया गया।

  32. 1998 ईस्वी (ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का "द भगवद गीता अस इट इज"): ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का "द भगवद गीता अस इट इज" प्रकाशित हुआ, जिसमें कृष्ण को "सर्वोच्च व्यक्तित्व भगवान" के रूप में वर्णित किया गया।

  33. 2000 ईस्वी (स्वामी रंगनाथनंद का "यूनिवर्सल मैसेज ऑफ द भगवद गीता"): स्वामी रंगनाथनंद ने गीता पर अपनी तीन-खंडों वाली पुस्तक "यूनिवर्सल मैसेज ऑफ द भगवद गीता: एन एक्सपोजिशन ऑफ द गीता इन द लाइट ऑफ मॉडर्न थॉट एंड मॉडर्न नीड्स" प्रकाशित की।

  34. 2003 ईस्वी (कुरुक्षेत्र उत्सव-गीता जयंती समारोह): कुरुक्षेत्र में कुरुक्षेत्र उत्सव-गीता जयंती समारोह आयोजित किया गया।

  35. 2006 ईस्वी (ओशो की टिप्पणी): ओशो ने स्पष्ट किया कि अनासक्ति आसक्ति का विपरीत नहीं है, बल्कि एक शर्त रहित स्वीकृति है।

  36. 2011 ईस्वी (स्वामी दयानंद सरस्वती की टिप्पणी): स्वामी दयानंद सरस्वती की टिप्पणी में कर्म-योग पर जोर दिया गया है और आत्मा या ब्रह्म की मौलिक वास्तविकता पर प्रकाश डाला गया है।

  37. 2014 ईस्वी (रिचर्ड एच. डेविस का "द भगवद गीता: ए बायोग्राफी"): रिचर्ड एच. डेविस ने "द भगवद गीता: ए बायोग्राफी" प्रकाशित की, जो गीता की उत्पत्ति, व्याख्याओं और स्थायी विरासत को कवर करती है।


पात्रों की सूची (Cast of Characters)

  1. अभिनवगुप्त: एक कश्मीरी विद्वान और दार्शनिक जिन्होंने भगवद गीता पर "गीतार्थ-संग्रह" नामक एक महत्वपूर्ण टिप्पणी लिखी, जिसमें कश्मीरी पाठ के भिन्नताओं पर प्रकाश डाला गया।

  2. आचार्य (द्रोण): कौरवों और पांडवों के शिक्षक, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरवों की सेना में प्रमुख योद्धा थे।

  3. अधिरथा: कर्ण के दत्तक पिता।

  4. अफजल खान: शिवाजी द्वारा मारे गए एक सरदार, जिसका उदाहरण तिलक और अन्य लोगों द्वारा गीता में समर्थित हिंसा की व्याख्या के लिए इस्तेमाल किया गया था।

  5. अंबेडकर, भीमराव रामजी (बी.आर. अंबेडकर): एक भारतीय राष्ट्रवादी जिन्होंने गीता के युद्ध के शाब्दिक पाठ की आलोचना की और दलितों के लिए न्याय और आत्म-सम्मान की वकालत की।

  6. अर्नोल्ड, एडविन: एक अंग्रेजी कवि और लेखक जिन्होंने "द सॉन्ग सेलेशियल" (1885) नामक गीता का एक लोकप्रिय काव्यात्मक अनुवाद किया, जिसने गांधी को प्रभावित किया।

  7. अर्जुन: पांडवों में से एक, एक कुशल धनुर्धर और कुरुक्षेत्र के युद्ध का नायक। वह कृष्ण के उपदेशों का प्राप्तकर्ता है, जो गीता की मुख्य सामग्री का निर्माण करते हैं। उसे धनंजय, पारस, गुडाकेश और पार्थ जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है।

  8. अश्वत्थामा: द्रोण के पुत्र और कौरव सेना में एक शक्तिशाली योद्धा।

  9. असिता: एक महान ऋषि जिन्होंने कृष्ण की दिव्यता की पुष्टि की।

  10. अरबिंदो घोष, श्री: एक क्रांतिकारी राजनेता, शिक्षक, दार्शनिक और रहस्यवादी, जिन्होंने बाद में हिंदुत्व और आध्यात्मिकता के संश्लेषण पर ध्यान केंद्रित किया, गीता को एक नए आध्यात्मिक संश्लेषण के लिए एक प्रारंभिक बिंदु के रूप में देखते हुए।

  11. एल्डस हक्सले: एक ब्रिटिश उपन्यासकार जिन्होंने स्वामी प्रभावनंद के साथ गीता के अनुवाद के लिए परिचय लिखा और "अनादि दर्शन" की वकालत की।

  12. एकनाथ ईश्वरन: एक आधुनिक गीता टिप्पणीकार और लेखक जिन्होंने "द भगवद गीता फॉर डेली लिविंग" लिखा, जिसमें गीता को दैनिक जीवन के लिए एक व्यावहारिक नियमावली के रूप में प्रस्तुत किया गया।

  13. कर्ण: कुंती का पुत्र और दुर्योधन का एक निष्ठावान सहयोगी, पांडवों के खिलाफ युद्ध में लड़ रहा है।

  14. कुरुक्षेत्र: वह पवित्र मैदान जहां पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध हुआ था, और जहां कृष्ण ने अर्जुन को गीता के उपदेश दिए थे।

  15. कृष्ण: भगवद गीता में केंद्रीय दिव्य व्यक्ति, अर्जुन के सारथी और उपदेशक। वह सर्वोच्च भगवान (परमेश्वर) हैं जो अर्जुन को आत्मज्ञान, धर्म और कर्म के बारे में सिखाते हैं। उन्हें जनार्दन, केशव, मधुसूदन, वासुदेव और ऋषिकेश जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है।

  16. केशि: कृष्ण द्वारा बचपन में मारे गए एक घोड़े के रूप में एक दानव।

  17. के.टी. तेलंग: एक भारतीय विद्वान जिन्होंने 1882 में एक महत्वपूर्ण परिचय के साथ गीता का अंग्रेजी अनुवाद किया, जो भारत में "निष्पक्ष" छात्रवृत्ति का प्रारंभिक उदाहरण है।

  18. कृपा (कृपाचार्य): कौरवों के एक शिक्षक और शक्तिशाली योद्धा।

  19. क्षत्रिय: योद्धा वर्ग, जिसका धर्म युद्ध लड़ना और धर्म की रक्षा करना है।

  20. गंगा: गंगा नदी को दर्शाता है।

  21. गांधी, मोहनदास करमचंद (महात्मा गांधी): एक प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादी और आध्यात्मिक नेता, जिन्होंने गीता को अपने जीवन के लिए एक "आध्यात्मिक संदर्भ पुस्तक" के रूप में माना और अहिंसा और अनासक्ति-योग की अपनी अवधारणाओं को विकसित करने के लिए इसका उपयोग किया।

  22. चित्तरथ: एक गंधर्व।

  23. चार्जर्स, विष्णु एस. सुक्थांकर: महाभारत के संपादक।

  24. जयद्रथ: सोमदत्त का पुत्र, कौरव सेना में एक योद्धा।

  25. जनक: एक संत राजा, जिसने कर्म के माध्यम से मोक्ष प्राप्त किया।

  26. जेम्स मिल: एक ब्रिटिश इतिहासकार जिन्होंने भारत पर पश्चिमी विचारों को थोपा।

  27. टी.एच. ग्रीन: एक दार्शनिक जिन्होंने गीता में निहित "अनादि अमूर्त एकता" के विचार की तलाश की।

  28. तिलक, बाल गंगाधर (बी.जी. तिलक): एक भारतीय राष्ट्रवादी जिन्होंने गीता की एक प्रभावशाली व्याख्या लिखी, "भगवद गीता रहस्य," जिसमें उन्होंने कर्म-योग को युद्ध में कार्रवाई के रूप में जोर दिया।

  29. देवकी: कृष्ण की माँ।

  30. देवल: एक महान ऋषि जिन्होंने कृष्ण की दिव्यता की पुष्टि की।

  31. द्रौपदी: पांडवों की पत्नी, जिनके पुत्र भी युद्ध में लड़े।

  32. द्रोण (आचार्य द्रोण): पांडवों और कौरवों के शिक्षक।

  33. धृतराष्ट्र: अंधे राजा और कौरवों के पिता, जिन्होंने संजय से युद्ध के बारे में जानने के लिए पूछा।

  34. धृष्टकेतु: एक शक्तिशाली योद्धा।

  35. नकुल: पांडवों में से एक।

  36. नारद: एक दिव्य ऋषि जिन्होंने कृष्ण की दिव्यता की पुष्टि की।

  37. नाथूराम गोडसे: गांधी के हत्यारे, जिनके कार्यों को कुछ लोगों द्वारा सावरकर की अशोक पर ऐतिहासिक टिप्पणी से प्रेरित माना जाता है।

  38. पांडव: अर्जुन और उनके भाई (युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव), कौरवों के खिलाफ युद्ध में लड़ रहे हैं।

  39. परशुराम: एक ऋषि जिन्होंने द्रोण को मार्शल आर्ट का ज्ञान सिखाया।

  40. प्रभावनंद, स्वामी: कैलिफोर्निया स्थित वेदांत सोसाइटी के शिक्षक जिन्होंने क्रिस्टोफर इशेरवुड के साथ गीता का अनुवाद किया।

  41. पुरुजित: कुंती का भाई।

  42. पुष्यमित्र: एक व्यक्ति जिसने मौर्य साम्राज्य को बहाल करने के लिए बृहद्रथ मौर्य की हत्या कर दी और गैर-हिंसा की नीति को छोड़ दिया।

  43. प्रभुपाद, ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी: इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) के संस्थापक, जिन्होंने "भगवद गीता अस इट इज" का अनुवाद और टिप्पणी की, जिसमें कृष्ण को सर्वोच्च व्यक्तित्व भगवान के रूप में जोर दिया गया।

  44. प्रिया नाथ: परमहंस योगानंद के गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर का युवा नाम।

  45. भीम: पांडवों में से एक, जिसकी भयानक शक्ति है और जो पौंड्रा शंख बजाता है।

  46. भीष्म: कौरव सेना के महान सेनापति और पितामह।

  47. भरत: एक वंश का नाम जिसके सदस्य, जैसे अर्जुन, को संदर्भित किया जाता है।

  48. बृहद्रथ मौर्य: एक सम्राट जिसे पुष्यमित्र ने मारा था।

  49. बंसी कौल: एक नोटेड थिएटर निर्देशक और कोरियोग्राफर जिन्होंने "समर मंथन" का निर्देशन किया था।

  50. बर्नार्ड बोसेंक्विट: एक दार्शनिक जिन्होंने गीता में निहित "अनादि अमूर्त एकता" के विचार की तलाश की।

  51. विष्णु भास्कर लेले: एक महाराष्ट्रियन योगी जिन्होंने श्री अरबिंदो को योगिक प्रथाओं में दीक्षित किया।

  52. विष्णु एस. सुक्थांकर: महाभारत के संपादक।

  53. विकर्ण: धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से तीसरा।

  54. विरता: मत्स्य का राजा, जिसके संरक्षण में पांडवों ने अपने निर्वासन का अंतिम वर्ष बिताया।

  55. विवासवत: सूर्य-देव, जिसे कृष्ण ने प्राचीन काल में योग सिखाया था।

  56. व्यासा: एक महान ऋषि और महाभारत के लेखक (जिसमें गीता भी शामिल है), जिन्होंने कृष्ण की दिव्यता की पुष्टि की। उन्हें चिरंजीव (अमर) भी माना जाता है।

  57. संयज: धृतराष्ट्र के सारथी और सलाहकार, जिन्होंने युद्ध के मैदान में होने वाली घटनाओं को धृतराष्ट्र को सुनाया।

  58. सावरकर, विनायक दामोदर: एक भारतीय राष्ट्रवादी जिन्होंने गीता की एक हिंसक व्याख्या की वकालत की और हिंदू राष्ट्रवाद के बौद्धिक संस्थापकों में से एक थे।

  59. सैबिया: देविका के पिता, युधिष्ठिर की पत्नियों में से एक।

  60. सहदेव: पांडवों में से एक।

  61. सत्यकी (युयुधाना): भगवान कृष्ण के एक करीबी और प्यारे सेवक, जो एक वीर योद्धा थे।

  62. सरस्वती, मधुसूदन: एक अद्वैत विद्वान जिन्होंने अद्वैत दर्शन और भक्ति साहित्य दोनों को समृद्ध किया, अद्वैतवाद और व्यक्तिगत देवता के प्रति समर्पण के बीच कोई संघर्ष नहीं देखा।

  63. सरस्वती, स्वामी सहजानंद: एक आधुनिक टिप्पणीकार जिन्होंने गीता की व्याख्या "सक्रिय आध्यात्मिकवाद" के रूप में की, जो प्रेम और सामाजिक न्याय के लिए सक्रिय भागीदारी में प्रकट होता है।

  64. सरस्वती, स्वामी दयानंद: एक आधुनिक टिप्पणीकार जिन्होंने कर्म-योग, ईश्वर के प्रति समर्पण और आत्मा की नित्यता पर जोर दिया।

  65. स्वामी मुख्तानंद: एक गुरु जिन्होंने राम दास को गीता सिखाने के लिए प्रोत्साहित किया।

  66. स्वामी श्री युक्तेश्वर: परमहंस योगानंद के गुरु, जिन्होंने लोगों को योगियों के बारे में किए गए दावों की सावधानीपूर्वक जांच करने के लिए सावधान किया।

  67. श्री राम: "आध्यात्मिक वचन" के लेखक।

  68. श्री राधा रानी: भगवान कृष्ण की प्रिय।

  69. शेर शाह सूरी: एक ऐतिहासिक शासक, जिसके नाम पर एक मार्ग का नाम रखा गया है।

  70. संकराचार्य (आदि शंकरा): एक प्रमुख भारतीय दार्शनिक और अद्वैत वेदांत के मुख्य प्रतिपादक, जिन्होंने भगवद गीता पर एक प्रभावशाली टिप्पणी (भाष्य) लिखी।

  71. सी.वी. रमन: एक वैज्ञानिक।

  72. सुभद्र: अर्जुन की पत्नी, जिनके पुत्रों ने भी युद्ध में भाग लिया।

  73. सुकरा (उशना कवि): ऋषियों में से एक, जिसे बुद्धिमान और विद्वान माना जाता है।

  74. हरबर्ट स्पेंसर: एक दार्शनिक जिन्होंने विकासवादी विचारों का प्रस्ताव रखा।

  75. हम्बोल्ट, विल्हेम वॉन: एक प्रशियाई दार्शनिक और भाषाविद् जिन्होंने गीता के महत्व का बचाव किया और भाषाओं की संरचना और अनुवाद की प्रकृति पर चर्चा की।

  76. हेनरी बर्गसन: एक दार्शनिक जिन्होंने गीता में निहित "अनादि अमूर्त एकता" के विचार की तलाश की।


प्रमुख शब्दों की शब्दावली

  • अध्यात्म: व्यक्तिगत आत्मा या आत्म-ज्ञान।

  • अक्षर ब्रह्म: अविनाशी, सर्वोच्च ब्रह्म।

  • अनासक्त: आसक्ति रहित, फलों के प्रति उदासीन।

  • असुर: राक्षसी, भौतिकवादी, दैवी गुणों के विपरीत।

  • आत्मा: व्यक्तिगत आत्मा या स्वयं।

  • इंद्रियाँ: पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेंद्रियाँ।

  • कर्म: क्रिया, कार्य; भाग्य या कर्म-फल का नियम।

  • कर्म योग: आसक्ति रहित होकर कर्म करने का मार्ग।

  • काम: वासना, इच्छा।

  • क्षेत्र: शरीर या कर्मों का क्षेत्र।

  • क्षेत्रज्ञ: क्षेत्र का ज्ञाता (आत्मा या परमात्मा)।

  • क्रोध: गुस्सा, क्रोध।

  • गुण: प्रकृति के तीन मूल घटक: सत्त्व (पवित्रता), रजस (क्रिया), तमस (अज्ञान)।

  • ज्ञान योग (सांख्य): आत्म-ज्ञान के माध्यम से मोक्ष का मार्ग।

  • धर्म: धार्मिकता, कर्तव्य, नैतिक कानून, जीवन का सही तरीका।

  • धृति: धैर्य, दृढ़ता, स्थिरता।

  • परमात्मा: सर्वोच्च आत्मा, भगवान।

  • प्रकृति: आदिम पदार्थ, ब्रह्मांड का मूल स्रोत।

  • प्रमाद: आलस्य, लापरवाही।

  • पुरुषोत्तम: सर्वोच्च पुरुष, परमात्मा।

  • भक्ति योग: भगवान के प्रति भक्ति का मार्ग।

  • भय: डर।

  • मन: मन, सोचने की शक्ति।

  • माया: भगवान की रहस्यमय शक्ति जो ब्रह्मांड का भ्रम पैदा करती है।

  • मोक्ष: जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति।

  • रजस: जुनून, गतिविधि का गुण।

  • लोक-संग्रह: विश्व कल्याण, समाज का हित।

  • विश्व-रूप: भगवान कृष्ण का लौकिक रूप।

  • वासुदेव: भगवान कृष्ण का एक नाम।

  • विज्ञान: विशेष ज्ञान, अनुभवी ज्ञान।

  • बुद्धि: बुद्धि, विवेक।

  • ब्रह्म: सर्वोच्च वास्तविकता।

  • भविष्य: भविष्य।

  • सांख्य: ज्ञान का दार्शनिक विद्यालय, जो आत्मा और पदार्थ के बीच अंतर पर केंद्रित है।

  • सत्त्व: पवित्रता, प्रकाश और ज्ञान का गुण।

  • संन्यास: त्याग, विशेषकर कर्मों के फल का त्याग।

  • संशय: संदेह।

  • स्वधर्म: व्यक्ति का अपना कर्तव्य या धर्म।

  • स्थिर-प्रज्ञ: स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति।

  • तमस: अज्ञान, आलस्य और निष्क्रियता का गुण।

  • तपस्या: तपस्या, आत्म-नियंत्रण का अभ्यास।

  • योग: दिव्य मिलन, आत्म-नियंत्रण का अनुशासन।

  • योगी: योग का अभ्यास करने वाला।

  • हृषीकेश: भगवान कृष्ण का एक नाम, जिसका अर्थ है इंद्रियों का स्वामी।


No comments:

Post a Comment