अद्वैत वेदांत: एक विस्तृत परिचर्चा
यह दस्तावेज़ अद्वैत वेदांत दर्शन के मुख्य विषयों, महत्वपूर्ण विचारों और तथ्यों की समीक्षा प्रस्तुत करता है, जिसमें दिए गए स्रोतों से प्रासंगिक उद्धरण शामिल हैं।
1. अद्वैत वेदांत का परिचय
अद्वैत वेदांत हिंदू दर्शन के छह आस्तिक (षड्दर्शन) विद्यालयों में से एक है। "अद्वैत" शब्द संस्कृत के दो शब्दों "अ-" (गैर-) और "द्वैत" (द्वैतवाद) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है "अ-द्वैत" या "गैर-द्वितीयता"। इसका अधिक सटीक अनुवाद "गैर-द्वितीयता" है, जो ब्रह्म की एकता को संदर्भित करता है। यह अक्सर एकेश्वरवाद के रूप में व्याख्या की जाती है: ब्रह्म के अलावा कोई अन्य वास्तविकता नहीं है, "वास्तविकता भागों से नहीं बनी है," और "अनुभव करने वाले स्वयं" (जीव) और "ब्रह्म", सत्ता के आधार के बीच वास्तव में कोई द्वैत नहीं है।
अद्वैत वेदांत का शाब्दिक अर्थ "वेदों का अंत" या "वेदों का अंतिम ज्ञान" है, क्योंकि यह वेदों के अंतिम भाग, उपनिषदों की शिक्षाओं से संबंधित है।
2. मुख्य अवधारणाएँ
अद्वैत वेदांत की मुख्य अवधारणाएँ इस प्रकार हैं:
2.1. ब्रह्म (सर्वोच्च वास्तविकता)
अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता (सत) है, जो अपरिवर्तनीय, बुद्धिमान चेतना है। यह ब्रह्मांड में सभी पदार्थ, ऊर्जा, समय, स्थान, अस्तित्व और उससे परे सब कुछ है। यह अजन्मा और अपरिवर्तनीय है, और अमर है। ब्रह्म को सभी परिवर्तनों का आधार और कारण माना जाता है। श्वेताश्वतर उपनिषद (1.3) के अनुसार, यह "ईश्वर की अपनी शक्ति है, जो अपने गुणों में छिपी हुई है।"
ब्रह्म को निर्गुण ब्रह्म (निराकार ब्रह्म) और सगुण ब्रह्म (रूप सहित ब्रह्म या ईश्वर) के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। निर्गुण ब्रह्म अवर्णनीय है, और उपनिषदों का "नेति नेति" (यह नहीं, वह नहीं) ब्रह्म की सभी वैचारिकताओं का खंडन करता है। ब्रह्म के गुणों को सत-चित-आनंद ("सच्चा अस्तित्व-चेतना-आनंद") के रूप में वर्णित किया गया है।
2.2. आत्मन् (स्वयं)
अद्वैत वेदांत का सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत यह है कि आत्मन् ब्रह्म है, जिसका अर्थ है कि जीवात्मा (व्यक्तिगत अनुभव करने वाला स्वयं) अंततः शुद्ध चेतना है जो गलती से शरीर और इंद्रियों से पहचानी जाती है, और आत्मन्/ब्रह्म, सर्वोच्च स्वयं या वास्तविकता से भिन्न नहीं है। इस सच्ची पहचान का ज्ञान ही मुक्तिदायक है।
शंकराचार्य के अनुसार, यह स्वयं-सिद्ध है कि आत्मन्, 'मैं', गैर-आत्मन् (भौतिक दुनिया) से 'प्रकाश अंधकार से जितना अलग है' उतना ही अलग है, जिसकी विशेषताओं को गलती से आत्मन् पर आरोपित कर दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप "मैं यह हूँ" और "यह मेरा है" जैसी धारणाएँ बनती हैं। वास्तविक स्वयं लगातार बदलता हुआ शरीर नहीं है, न इच्छाएँ हैं, न भावनाएँ हैं, न अहंकार है, न द्वैतवादी मन है, बल्कि अंतर्मुखी, आंतरिक रूप से आत्म-जागरूक "साक्षी" है, जो वास्तव में गैर-आत्मन् से पूरी तरह से विच्छेदित है।
2.3. अविद्या और माया (अज्ञान और भ्रम)
अविद्या शंकराचार्य के अद्वैत का एक केंद्रीय सिद्धांत है, और यह रामानुज की आलोचना का मुख्य लक्ष्य बन गया। शंकराचार्य के विचार में, अविद्या अध्यास है, "एक चीज़ के गुणों का दूसरे पर अध्यारोपण।" शंकराचार्य अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य की प्रस्तावना में समझाते हैं: "भेदभाव की अनुपस्थिति के कारण, 'मैं यह हूँ' या 'यह मेरा है' के रूप में एक प्राकृतिक मानवीय व्यवहार जारी रहता है; यह अविद्या है। यह एक चीज़ के गुणों का दूसरे पर अध्यारोपण है। आरोपित चीज़ को उससे अलग करके वास्तविक इकाई के स्वरूप का निर्धारण विद्या (ज्ञान, प्रबुद्धता) है।"
माया को अक्सर ब्रह्मांड के एक भ्रम या "ब्रह्म का एक अवास्तविक प्रकटीकरण (विवर्त)" के रूप में समझा जाता है। अविद्या के कारण, आत्मन् कोषों (परतों या शरीरों) से ढका होता है, जो मनुष्य के वास्तविक स्वरूप को छिपाते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद के अनुसार, आत्मन् पाँच कोषों से ढका होता है: अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष।
2.4. मोक्ष (मुक्ति)
मोक्ष, दुख और पुनर्जन्म से मुक्ति तथा अमरत्व प्राप्त करना, शरीर-मन परिसर से विच्छेद और आत्मज्ञान प्राप्त करने से प्राप्त होता है कि वह सार में आत्मन् है, और आत्मन् और ब्रह्म की पहचान का ज्ञान प्राप्त करने से होता है। शंकराचार्य के अनुसार, मोक्ष एक बार में प्राप्त होता है जब महावाक्यों (जैसे तत्वमसि – "वह तुम हो") को समझा जाता है, जो आत्मन् और ब्रह्म की पहचान को व्यक्त करते हैं।
3. ज्ञान प्राप्त करने की विधि
अद्वैत वेदांत परंपरा में सही ज्ञान (विद्या) प्राप्त करने के लिए कुछ चरण और अभ्यास बताए गए हैं:
3.1. चार-गुण (साधना-चतुष्टय)
अद्वैत वेदांत के छात्र को चार गुणों का विकास करना होता है:
नित्यानित्य वस्तु विवेकः: नित्य (स्थायी) और अनित्य (अस्थायी) के बीच विवेक। "ब्रह्म ही स्थायी पदार्थ है और उससे भिन्न सभी चीजें क्षणभंगुर हैं।"
इहामुत्रार्थ फलभोग विरागः: इस लोक और परलोक में कर्मों के फलों के भोग का वैराग्य।
शमादि षट्क सम्पत्तिः: छह सद्गुणों का खजाना:
शम: मानसिक शांति, मन को केंद्रित करने की क्षमता।
दम: आत्म-संयम, इंद्रियों को नियंत्रित करना।
उपरति: वैराग्य, सांसारिक सुखों की इच्छा का अभाव।
तितिक्षा: सहनशीलता, धैर्य।
श्रद्धा: शिक्षक और श्रुति (शास्त्र) ग्रंथों में विश्वास।
समाधान: सभी परिस्थितियों में मन की संतुष्टि, एकाग्रता।
मुमुक्षुत्वम्: स्वतंत्रता, मुक्ति और ज्ञान के लिए तीव्र लालसा, ज्ञान और समझ की खोज के लिए प्रेरित होना।
3.2. त्रिविध अभ्यास: श्रवण, मनन और निदिध्यासन
अद्वैत परंपरा सिखाती है कि सही ज्ञान, जो अविद्या (अज्ञान) को नष्ट करता है, तीन चरणों के अभ्यास के माध्यम से प्राप्त होता है:
श्रवण: सुनना। छात्र उपनिषदों और अद्वैत वेदांत पर ऋषियों के विचारों, अवधारणाओं, प्रश्नों और उत्तरों को सुनता और चर्चा करता है, गुरु (शिक्षक) की सहायता से वेदांत ग्रंथों का अध्ययन करता है।
मनन: सोचना। यह शिक्षण पर चिंतन और विभिन्न विचारों पर मनन का चरण है।
निदिध्यासन: ध्यान और आत्मनिरीक्षण का चरण। इस चरण का उद्देश्य सच्चाइयों, अद्वैत और एक ऐसी स्थिति की प्राप्ति और परिणामी दृढ़ विश्वास है जहाँ विचार और क्रिया, जानना और होना एक हो जाता है।
3.3. गुरु का महत्व
अद्वैत वेदांत परंपरा में गुरु (शिक्षक) का बहुत सम्मान किया जाता है और आध्यात्मिक खोज में एक सक्षम गुरु की तलाश करने की सिफारिश की जाती है, हालांकि यह अनिवार्य नहीं है। शंकराचार्य "शास्त्रोपदेशाचार्य" (शास्त्रों और शिक्षक के माध्यम से निर्देश) जैसे यौगिक शब्दों का उपयोग करते थे ताकि गुरु के महत्व पर जोर दिया जा सके।
3.4. प्रमाणास (ज्ञान के साधन)
अद्वैत परंपरा ज्ञान के छह प्रकार के प्रमाणास (ज्ञान के वैध साधन) को स्वीकार करती है:
प्रत्यक्ष: प्रत्यक्ष बोध।
अनुमान: अनुमान।
उपमान: तुलना, सादृश्य।
अर्थापत्ति: अभिधारणा, परिस्थितियों से व्युत्पत्ति।
अनुपलब्धि: गैर-बोध, नकारात्मक/संज्ञानात्मक प्रमाण।
शब्द: शब्द, अतीत या वर्तमान विश्वसनीय विशेषज्ञों की गवाही। शंकराचार्य ने धार्मिक अंतर्दृष्टि के संबंध में विश्वसनीय विशेषज्ञों के शब्द और गवाही पर भरोसा करते हुए शब्द पर जोर दिया।
4. वास्तविकता और जगत का दर्शन
अद्वैत वेदांत बताता है कि सभी वास्तविकता और अनुभव किए गए संसार में ब्रह्म में निहित है, जो अपरिवर्तनीय बुद्धिमान चेतना है। अद्वैतियों के लिए, एक निर्माता और सृजित ब्रह्मांड के बीच कोई द्वैत नहीं है। सभी वस्तुएँ, सभी अनुभव, सभी पदार्थ, सभी चेतना, सभी जागरूकता किसी न किसी रूप में ब्रह्म ही हैं। फिर भी, जानने वाले स्वयं को जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं के दौरान वास्तविकता के विभिन्न अनुभव होते हैं, और अद्वैत वेदांत स्वीकार करता है कि आनुभविक दृष्टिकोण से कई भेद हैं। इसे वास्तविकता के विभिन्न स्तरों की परिकल्पना करके और अपनी त्रुटियों के सिद्धांत (अनिर्वचनीय ख्याति) द्वारा समझाया गया है।
4.1. तुरीया (चौथी अवस्था)
अद्वैत "चौथी अवस्था", तुरीया को भी मानता है, जिसे कुछ लोग शुद्ध चेतना के रूप में वर्णित करते हैं, जो चेतना की इन तीन सामान्य अवस्थाओं को अंतर्निहित और अतिक्रमित करती है। तुरीया मुक्ति की अवस्था है, जहाँ अद्वैत दर्शन के अनुसार, व्यक्ति अनंत (अनंत) और अ-भिन्न (अद्वैत/अभेद) का अनुभव करता है, जो द्वैतवादी अनुभव से मुक्त है।
4.2. अध्यारोप और अपवाद (अध्यारोपण और अपवाद)
गौडपाद के समय से, अद्वैत वेदांत में अवर्णनीय को व्यक्त करने की एक केंद्रीय विधि अध्यारोप अपवाद कहलाती है। इस विधि में, आत्मन् पर एक गुण आरोपित किया जाता है ताकि उसके अस्तित्व को समझाया जा सके, जिसके बाद अध्यारोपण को हटा दिया जाता है ताकि आत्मन् के वास्तविक स्वरूप को अद्वैत और अवर्णनीय के रूप में प्रकट किया जा सके। "जो व्यक्त नहीं किया जा सकता, उसे झूठे आरोपण और उसके बाद इनकार के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।"
5. अद्वैत वेदांत के ग्रंथ
उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र अद्वैत वेदांत परंपरा के केंद्रीय ग्रंथ हैं, जो आत्मन् और ब्रह्म की पहचान और उनके अपरिवर्तनीय स्वरूप के सिद्धांतों को प्रामाणिकता प्रदान करते हैं। इन तीनों को सामूहिक रूप से प्रस्थानत्रयी कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "तीन स्रोत।"
उपनिषद: श्रुति प्रस्थान; वेदांत की श्रुति (वैदिक शास्त्र) नींव मानी जाती है।
ब्रह्मसूत्र: न्याय प्रस्थान / युक्ति प्रस्थान; वेदांत की तर्क-आधारित नींव मानी जाती है।
भगवद गीता: स्मृति प्रस्थान; वेदांत की स्मृति (याद की गई परंपरा) नींव मानी जाती है।
शंकराचार्य के भाष्य (टिप्पणियाँ) अद्वैत वेदांत दर्शन में केंद्रीय ग्रंथ बन गए हैं, लेकिन इस परंपरा में उपलब्ध या स्वीकृत कई प्राचीन और मध्ययुगीन पांडुलिपियों में से एक हैं। शंकराचार्य को प्रसिद्ध ग्रंथ निर्वाण शतक का भी श्रेय दिया जाता है।
6. अद्वैत वेदांत का इतिहास और प्रभाव
अद्वैत वेदांत केवल एक दार्शनिक प्रणाली नहीं, बल्कि मठवासी त्याग की भी एक परंपरा है। शंकराचार्य को अक्सर अद्वैत वेदांत विद्यालय का संस्थापक माना जाता है, लेकिन वे वास्तव में एक व्यवस्थितकर्ता थे, संस्थापक नहीं। शंकराचार्य ने दशनमी संप्रदाय के हिंदू भिक्षुओं को चार मठों में संगठित किया, जो भारत के चार कोनों में स्थित हैं।
स्मार्त परंपरा हिंदू धर्म के विभिन्न भारतीय धार्मिक विचारों और प्रथाओं का एक संश्लेषण है, जो हिंदू संश्लेषण के साथ विकसित हुआ, जो पहली शताब्दी ईस्वी की शुरुआत से है। स्मार्ट परंपरा में, अद्वैत वेदांत के विचार भक्ति के साथ मिलकर इसकी नींव बनाते हैं। शंकराचार्य को स्मार्ट का सबसे बड़ा शिक्षक और सुधारक माना जाता है।
अद्वैत वेदांत का प्रभाव हिंदू परंपराओं, जैसे वैष्णववाद, शैववाद और शक्तिवाद के प्राचीन और मध्ययुगीन ग्रंथों में प्रमुख रहा है। भगवद पुराण और शैव धर्म के आगमों में अद्वैत वेदांत का दर्शन एकीकृत है।
आधुनिक युग में, स्वामी विवेकानंद ने निर्वाविकल्प समाधि को वेदांत के आध्यात्मिक लक्ष्य के रूप में रेखांकित किया और योग अभ्यास को प्रोत्साहित किया जिसे उन्होंने राज योग कहा। विवेकानंद के प्रयासों से, अद्वैत वेदांत के आधुनिक सूत्र "भारतीय बौद्धिक विचार में एक प्रमुख शक्ति बन गए हैं।" महात्मा गांधी ने भी अद्वैत वेदांत के प्रति अपनी निष्ठा घोषित की।
7. अद्वैत वेदांत और बौद्ध धर्म
गौडपाद पर बौद्ध सिद्धांतों का प्रभाव एक विवादास्पद प्रश्न रहा है। आधुनिक छात्रवृत्ति आमतौर पर स्वीकार करती है कि गौडपाद बौद्ध धर्म से प्रभावित थे, कम से कम अपने विचारों को समझाने के लिए बौद्ध शब्दावली का उपयोग करने के संदर्भ में, लेकिन यह भी जोड़ती है कि गौडपाद एक वेदांती थे न कि बौद्ध। आदि शंकराचार्य ने "अपने स्वयं के तंत्र में माया की एक बौद्ध धारणा को शामिल किया जो उपनिषदों में सूक्ष्मता से विस्तृत नहीं की गई थी।" कुछ आलोचकों ने अद्वैत वेदांत को "गुप्त-बौद्ध धर्म" के रूप में संदर्भित किया है।
हालांकि, अद्वैत वेदांत परंपरा ने ऐतिहासिक रूप से आत्मन्, अनात्मन और ब्रह्म पर अपने संबंधित विचारों को उजागर करके क्रिप्टो-बौद्ध धर्म के आरोपों को खारिज कर दिया है। बौद्ध धर्म और अद्वैत वेदांत की ज्ञानमीमांसीय नींव अलग-अलग हैं। बौद्ध धर्म विश्वसनीय और सही ज्ञान के लिए दो वैध साधनों - प्रत्यक्ष और अनुमान - को स्वीकार करता है, जबकि अद्वैत वेदांत छह को स्वीकार करता है।
8. शुरुआती अध्ययन के लिए अनुशंसित ग्रंथ
अद्वैत वेदांत में रुचि रखने वाले शुरुआती लोगों के लिए कई ग्रंथ सुझाए गए हैं। इनमें से कुछ शंकराचार्य द्वारा लिखे गए माने जाते हैं, और कुछ बाद के आचार्यों द्वारा:
तत्व बोध
आत्म बोध
विवेक चूड़ामणि
वेदांतसार (श्री सदानंद योगेंद्र सरस्वती द्वारा) - यह ग्रंथ वेदांत के शब्दों और परिभाषाओं को प्रस्तुत करता है।
उपदेश सहस्री
पञ्चदशी
आरंभ करने के लिए, स्वामी विवेकानंद के पूर्ण कार्यों का अध्ययन करना भी उपयोगी है, क्योंकि उन्होंने अद्वैत और भक्ति का सामंजस्य स्थापित किया है। इसके अतिरिक्त, अनुभवी गुरु या शिक्षक के मार्गदर्शन में अध्ययन को अत्यधिक अनुशंसित किया जाता है।
अद्वैत वेदांत: एक विस्तृत अध्ययन मार्गदर्शिका
यह अध्ययन मार्गदर्शिका अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों, अवधारणाओं, पद्धतियों और ऐतिहासिक विकास की आपकी समझ की समीक्षा करने के लिए डिज़ाइन की गई है।
I. मुख्य अवधारणाएँ
अद्वैत वेदांत के मूल में कई केंद्रीय अवधारणाएँ हैं जो इस दार्शनिक प्रणाली को परिभाषित करती हैं:
अद्वैत (Non-duality): "अ-" (non-) और "द्वैत" (duality) से बना, अद्वैत का अर्थ है "गैर-द्वितीयता।" यह ब्रह्म की एकता को संदर्भित करता है, यह बताता है कि ब्रह्म के अलावा कोई अन्य वास्तविकता नहीं है, और अनुभव करने वाले स्वयं (जीव) और ब्रह्म के बीच कोई द्वैत नहीं है।
ब्रह्म (Brahman): अद्वैत वेदांत में सर्वोच्च वास्तविकता, अपरिवर्तनीय बुद्धिमान चेतना। यह सत्य (अस्तित्व), चित् (चेतना), और आनंद (परमानंद) से युक्त है। निर्गुण ब्रह्म निराकार है और सभी अवधारणाओं से परे है, जबकि सगुण ब्रह्म (ईश्वर) रूप वाला ब्रह्म है। ब्रह्म ही सब परिवर्तनों का आधार और कारण है, यह सभी अस्तित्व का भौतिक और कुशल कारण दोनों है।
आत्मा (Atman): व्यक्ति का वास्तविक आत्म। अद्वैत में, आत्मा को ब्रह्म के समान, शुद्ध चेतना माना जाता है, जो गलती से शरीर और इंद्रियों से जुड़ा हुआ है। इस सच्ची पहचान का ज्ञान मुक्तिदायक है।
माया (Maya): वह शक्ति जो ब्रह्म की अविभाज्य एकता पर दुनिया की भ्रमपूर्ण उपस्थिति को आरोपित करती है। यह अविद्या या अज्ञान का एक पहलू है।
अविद्या (Avidya/Ignorance): अज्ञान या अध्यास, "एक चीज़ के गुणों का दूसरे पर अध्यारोपण।" यह जीव को उसके वास्तविक स्वरूप से छुपाता है, जिससे "मैं यह हूँ" और "यह मेरा है" जैसी धारणाएँ पैदा होती हैं।
मोक्ष (Moksha): दुखों और पुनर्जन्म से मुक्ति और अमरता की प्राप्ति। यह आत्म-ज्ञान प्राप्त करके और आत्मा और ब्रह्म की पहचान को जानकर प्राप्त होता है।
तीन वास्तविकता के स्तर (Three Levels of Reality):पारमार्थिक सत्यम (Paramarthika Satyam): परम सत्य, ब्रह्म। यह अपरिवर्तनीय और अबाधित है।
व्यावहारिक सत्यम (Vyavaharika Satyam): पारंपरिक या अनुभवजन्य वास्तविकता, जिसमें अनुभव किया गया संसार, भौतिक वस्तुएँ, और व्यक्ति शामिल हैं। इसे माया के रूप में भी जाना जाता है।
प्रातिभासिक सत्यम (Pratibhasika Satyam): व्यक्तिपरक या भ्रमपूर्ण वास्तविकता, जैसे सपने या रस्सी में साँप का भ्रम।
अध्यारोप (Adhyaropa): अवास्तविक का वास्तविक पर अध्यारोपण, जैसे रस्सी में साँप का भ्रम। यह माया की प्रक्षेपण शक्ति को दर्शाता है।
अपवाद (Apavada): अध्यारोपण का वि-अध्यारोपण या निषेध। इसमें रस्सी में साँप के उदाहरण की तरह, अंतर्निहित वास्तविकता को प्रकट करने के लिए अवास्तविक का उन्मूलन शामिल है।
महावाक्य (Mahavakyas): महान कथन, मुख्य रूप से उपनिषदों से, जो आत्मा और ब्रह्म की पहचान को व्यक्त करते हैं। सबसे प्रसिद्ध "तत् त्वम् असि" ("तुम वह हो") है।
कोश (Koshas): अविद्या के कारण आत्मा को ढकने वाले पाँच आवरण या शरीर। ये सकल से सूक्ष्म तक हैं: अन्नमय कोष (भोजन), प्राणमय कोष (महत्वपूर्ण बल), मनोमय कोष (मन), विज्ञानमय कोष (बुद्धि), और आनंदमय कोष (परमानंद)।
त्रिपुटि (Triputi): ज्ञाता (ज्ञानी), ज्ञान (ज्ञान), और ज्ञेय (ज्ञात) की त्रिगुणात्मकता। मोक्ष में, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक हो जाते हैं।
तुरीय (Turiya): "चौथी" अवस्था, शुद्ध चेतना जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन सामान्य चेतना की अवस्थाओं को रेखांकित और पार करती है। यह मुक्ति की अवस्था है।
प्रमाण (Pramanas): ज्ञान प्राप्त करने के वैध साधन। अद्वैत वेदांत छह प्रमाण स्वीकार करता है: प्रत्यक्ष (धारणा), अनुमान (अनुमान), उपमान (तुलना), अर्थापत्ति (अनुमान), अनुपलब्धि (गैर-धारणा), और शब्द (शब्द या विश्वसनीय गवाह)।
वृत्ति-व्याप्ति (Vritti-Vyapti): अज्ञान को दूर करने के लिए किसी वस्तु को घेरने का विचार-कार्य।
फल-व्याप्ति (Phala-Vyapti): किसी वस्तु को प्रकट करना या प्रकाशित करना।
II. अद्वैत वेदांत की पद्धतियाँ
अद्वैत वेदांत आत्म-ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने के लिए कठोर अभ्यास का प्रस्ताव करता है:
साधन चतुष्टय (Sadhana Chatushtaya): चार-गुना गुण जो एक अद्वैत छात्र को विकसित करना चाहिए:
नित्य-अनित्य वस्तु विवेक (Nitya-anitya Vastu Viveka): स्थायी और क्षणिक चीजों के बीच विवेक।
इहामुत्रार्थफलभोगविराग (Ihamutraarthaphala Bhoga Viraaga): इस लोक और परलोक में कर्मों के फल के भोग से वैराग्य।
शमादि षट्क संपत्ति (Shamadi Shatka Sampatti): छह-गुना सद्गुण:
शम (Shama): मानसिक शांति, मन को एकाग्र करने की क्षमता।
दम (Dama): आत्म-संयम, इंद्रियों को रोकना।
उपरति (Uparati): वैराग्य, सांसारिक सुखों की इच्छा का अभाव।
तितिक्षा (Titiksha): धीरज, धैर्य।
श्रद्धा (Shraddha): शिक्षक और श्रुति (शास्त्र) ग्रंथों में विश्वास।
समाधान (Samadhana): एकाग्रता, मन की संतुष्टि।
मुमुक्षुत्व (Mumukshutva): स्वतंत्रता, मुक्ति और ज्ञान के लिए तीव्र लालसा।
त्रिविध अभ्यास: श्रवण, मनन, निधिध्यासन (Threefold Practice: Sravana, Manana, Nididhyasana):
श्रवण (Sravana): सुनना, उपनिषदों और अद्वैत वेदांत के विचारों को सुनना और चर्चा करना, गुरु की सहायता से वेदांत ग्रंथों का अध्ययन करना। इसमें छह चारित्रिक लक्षण (षड्विध लिंग) शामिल हैं: उपक्रम-उपसंहार (शुरुआत और निष्कर्ष), अभ्यास (पुनरावृत्ति), अपूर्वता (मौलिकता), फल (परिणाम), अर्थवाद (स्तुति), और उपपत्ति (प्रदर्शन)।
मनन (Manana): सोचना, श्रवण पर चिंतन करना और विचारों पर विचार करना, आत्म-अध्ययन और श्रवण के आधार पर।
निधिध्यासन (Nididhyasana): ध्यान और आत्मनिरीक्षण, सत्य की प्राप्ति और विश्वास का लक्ष्य रखना।
गुरु (Guru): अद्वैत वेदांत परंपरा में एक शिक्षक को अत्यधिक महत्व दिया जाता है और आध्यात्मिक खोज में एक सक्षम गुरु की तलाश करने की सिफारिश की जाती है, हालांकि यह अनिवार्य नहीं है। गुरु शास्त्र और उपनिषदों की शिक्षाओं को स्पष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
अध्यारोप अपवाद (Adhyaropa Apavada): अप्रत्यक्ष को व्यक्त करने के लिए एक केंद्रीय विधि। इसमें आत्मन पर एक गुण को आरोपित करना (अध्यारोप) शामिल है ताकि उसके अस्तित्व को समझा जा सके, जिसके बाद अध्यारोपण को हटा दिया जाता है (अपवाद) ताकि आत्मन के गैर-द्वैत और अनिर्वचनीय स्वरूप को प्रकट किया जा सके। इसे अक्सर "नेति नेति" (यह नहीं, वह नहीं) के रूप में व्यक्त किया जाता है।
ब्राह्मकारा वृत्ति (Brahmakara Vritti): "मैं ब्रह्म हूँ" का विचार। यह मन में उठने वाला अंतिम विचार-रूप है जो अज्ञान को नष्ट करता है, और अंततः स्वयं भी विलीन हो जाता है।
योगिक अभ्यास (Yogic Practices): यद्यपि कुछ अद्वैत ग्रंथ योगिक अभ्यासों के प्रति उदासीन थे, बाद के ग्रंथों ने उन्हें मुक्ति के साधन के रूप में शामिल किया। अष्टांग योग के आठ अंग हैं: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। समाधि को सविकल्प (अहं-चेतना के साथ) और निर्विकल्प (पूर्ण आत्म-अवशोषण) में विभाजित किया गया है।
III. ऐतिहासिक संदर्भ और प्रभाव
उत्पत्ति: "अद्वैत" शब्द वैदिक काल का है, और ऋषि याज्ञवल्क्य को इसका श्रेय दिया जाता है। वेदांत स्वयं हिंदू दर्शन के छह रूढ़िवादी विद्यालयों में से एक है, जिसका अर्थ है "वेदों का अंत" या "ज्ञान का अंतिम भाग"।
प्रारंभिक वेदांत: उपनिषद मूल ग्रंथ हैं जिनकी व्याख्या वेदांत करता है। ब्रह्म सूत्र उपनिषदों की शिक्षाओं का एक महत्वपूर्ण अध्ययन है।
प्रारंभिक अद्वैत वेदांत: गौडपाद और उनके मांडूक्य कारिका (7वीं शताब्दी) को प्रारंभिक अद्वैत वेदांत का महत्वपूर्ण पाठ माना जाता है। गौडपाद को बौद्ध धर्म से प्रभावित माना जाता है, खासकर उनके मनोधर्म्य (मन की प्रकृति) और चतुष्कोणीय निषेध पर शिक्षाओं के संबंध में।
आदि शंकराचार्य (8वीं शताब्दी ईस्वी): उन्हें अक्सर अद्वैत वेदांत विद्यालय का संस्थापक माना जाता है, लेकिन वे वास्तव में एक व्यवस्थितकर्ता थे। उनके भाष्य (टिप्पणियाँ) उपनिषद, ब्रह्म सूत्र और भगवद गीता पर केंद्रीय ग्रंथ बन गए। शंकराचार्य ने ज्ञान को मुक्तिदायक माना और कर्मकांडों के त्याग पर जोर दिया।
शंकराचार्य के बाद का अद्वैत:भामाती विद्यालय (Bhamati School): वाचस्पति मिश्र द्वारा स्थापित, जो मानता है कि जीव अविद्या का स्रोत है और मुक्ति के लिए चिंतन मुख्य कारक है।
विवरण विद्यालय (Vivarana School): प्रकाशत्मान द्वारा स्थापित, जिसने यह धारणा पेश की कि दुनिया भ्रमपूर्ण है।
आधुनिक अद्वैत (Modern Advaita):नव-वेदांत (Neo-Vedanta): स्वामी विवेकानंद जैसे उपनिवेश-काल के भारतीय विचारकों द्वारा विकसित एक "मानवतावादी, समावेशी" प्रतिक्रिया, जिसने अद्वैत वेदांत को एक सार्वभौमिक धर्म के रूप में प्रस्तुत किया।
नव-अद्वैत (Neo-Advaita): रमण महर्षि की शिक्षाओं की एक लोकप्रिय, पश्चिमी व्याख्या पर आधारित एक नया धार्मिक आंदोलन।
अन्य परंपराओं पर प्रभाव: अद्वैत वेदांत का वैष्णववाद, शैववाद और शाक्तवाद जैसी अन्य हिंदू परंपराओं पर बड़ा प्रभाव पड़ा है, जिसने उनकी शिक्षाओं में अद्वैतवादी परिसर को एकीकृत किया है।
बौद्ध धर्म से संबंध: अद्वैत वेदांत और बौद्ध धर्म के बीच समानताएं और अंतर हैं, विशेषकर शून्यवाद और आत्मा/अनात्मन की अवधारणाओं पर। अद्वैत वेदांत ने बौद्ध धर्म के "क्रिप्टो-बौद्ध धर्म" होने के आरोपों को ऐतिहासिक रूप से खारिज कर दिया है, लेकिन कुछ विद्वान दोनों के बीच मजबूत प्रभाव का दावा करते हैं।
IV. अद्वैत वेदांत में नैतिकता
अद्वैत वेदांत में मूल्य और नैतिकता मुक्तिदायक आत्म-ज्ञान की स्थिति से उत्पन्न होते हैं।
"आत्म ही सबका आत्म है, आत्म का ज्ञाता सभी प्राणियों में आत्म को और आत्म में सभी प्राणियों को देखता है।" इस समझ से घृणा समाप्त हो जाती है।
यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) जैसे नैतिक सिद्धांतों का पालन और ध्यान मन को आत्म-ज्ञान की यात्रा के लिए शुद्ध और तैयार करने में मदद करता है।
शंकराचार्य ने सभी प्राणियों की समानता पर जोर दिया, जिसमें वर्ग या जाति के आधार पर किसी भी भेद को अज्ञान का संकेत माना गया।
अद्वैत वेदांत पर प्रश्नोत्तरी
निर्देश: निम्नलिखित दस प्रश्नों में से प्रत्येक का उत्तर 2-3 वाक्यों में दें।
"अद्वैत" शब्द का क्या अर्थ है और यह अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांत को कैसे परिभाषित करता है?
"अद्वैत" का अर्थ है "गैर-द्वितीयता," और यह ब्रह्म की एकता को परिभाषित करता है, यह बताता है कि केवल ब्रह्म ही अंतिम वास्तविकता है और अनुभव करने वाले स्वयं और ब्रह्म के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं है। यह विचार इस दर्शन के केंद्रीय सिद्धांत को रेखांकित करता है कि सभी अस्तित्व अंततः एक, अविभाज्य वास्तविकता है।
ब्रह्म और आत्मा के बीच क्या संबंध है, जैसा कि अद्वैत वेदांत द्वारा समझा जाता है?
अद्वैत वेदांत में, आत्मा को व्यक्ति का वास्तविक आत्म माना जाता है, और इसे ब्रह्म के समान माना जाता है, जो सर्वोच्च, अपरिवर्तनीय वास्तविकता है। अंतिम ज्ञान यह पहचानना है कि जीव (व्यक्तिगत आत्म) अपनी गहरी प्रकृति में ब्रह्म से अविभाज्य है, जिससे मुक्ति मिलती है।
मोक्ष प्राप्त करने के लिए साधन चतुष्टय के किन्हीं दो गुणों का वर्णन करें।
साधन चतुष्टय में नित्य-अनित्य वस्तु विवेक शामिल है, जो स्थायी (ब्रह्म) और क्षणिक (विश्व) के बीच अंतर करने की क्षमता है। एक और महत्वपूर्ण गुण शमदि षट्क संपत्ति है, जिसमें मानसिक शांति (शम) और इंद्रियों पर नियंत्रण (दम) जैसे छह नैतिक सद्गुण शामिल हैं, जो मन को आत्म-ज्ञान के लिए तैयार करते हैं।
श्रवण, मनन, और निधिध्यासन के तिगुने अभ्यास का उद्देश्य क्या है?
श्रवण, मनन और निधिध्यासन का तिगुना अभ्यास अज्ञान को नष्ट करने और आत्मा और ब्रह्म की सच्ची पहचान का सही ज्ञान प्राप्त करने का लक्ष्य रखता है। श्रवण में शास्त्रों को सुनना शामिल है, मनन में उन पर विचार करना शामिल है, और निधिध्यासन में ध्यान के माध्यम से सत्य को आत्मसात करना शामिल है।
अद्वैत वेदांत माया की अवधारणा का उपयोग अनुभवजन्य दुनिया की व्याख्या कैसे करता है?
माया अद्वैत वेदांत में ब्रह्म की अविभाज्य एकता पर दुनिया की भ्रमपूर्ण उपस्थिति को आरोपित करने की शक्ति है। यह भौतिक दुनिया की परिवर्तनशील, अनुभवजन्य वास्तविकता की व्याख्या करता है, जिसे ब्रह्म से अलग नहीं माना जाता है, बल्कि इसका एक "अवास्तविक प्रकटीकरण" माना जाता है।
"तत् त्वम् असि" जैसे महावाक्य अद्वैत दर्शन में क्या भूमिका निभाते हैं?
"तत् त्वम् असि" जैसे महावाक्य अद्वैत वेदांत में आवश्यक हैं क्योंकि वे आत्मा (व्यक्तिगत आत्म) और ब्रह्म (परम वास्तविकता) की पहचान को स्पष्ट करते हैं। ये कथन ज्ञान के लिए सीधे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं, छात्र को यह महसूस करने में मदद करते हैं कि उनका वास्तविक आत्म ब्रह्म से अविभाज्य है।
ब्रह्मकारा वृत्ति क्या है, और यह अद्वैत अभ्यास में कैसे कार्य करती है?
ब्राह्मकारा वृत्ति "मैं ब्रह्म हूँ" का मानसिक विचार-रूप है जो योग्यता प्राप्त छात्र के मन में उत्पन्न होता है। यह वृत्ति अज्ञान (अविद्या) को नष्ट करने का अंतिम कार्य करती है जो स्वयं को छुपाता है। अपने कार्य को पूरा करने के बाद, यह वृत्ति स्वयं भी विलीन हो जाती है।
अद्वैत वेदांत में प्रमाण क्या हैं, और कितने प्रमाणों को स्वीकार किया जाता है?
प्रमाण अद्वैत वेदांत में विश्वसनीय ज्ञान प्राप्त करने के वैध साधन हैं। इस विद्यालय द्वारा छह प्रमाणों को स्वीकार किया जाता है: प्रत्यक्ष (धारणा), अनुमान (अनुमान), उपमान (तुलना), अर्थापत्ति (अनुमान), अनुपलब्धि (गैर-धारणा), और शब्द (शब्द या विश्वसनीय गवाह)।
नव-वेदांत और नव-अद्वैत में क्या अंतर है?
नव-वेदांत, स्वामी विवेकानंद जैसे उपनिवेश-काल के विचारकों द्वारा विकसित, अद्वैत वेदांत को एक समावेशी, सार्वभौमिक धर्म के रूप में प्रस्तुत करता है। नव-अद्वैत एक नया धार्मिक आंदोलन है, जो रमण महर्षि की शिक्षाओं की एक लोकप्रिय, पश्चिमी व्याख्या पर आधारित है, जो अक्सर पारंपरिक अद्वैत वेदांत के कठोर अभ्यासों को कम करता है।
अद्वैत वेदांत के अनुसार, आत्म-ज्ञान से नैतिकता कैसे उत्पन्न होती है?
अद्वैत वेदांत में, नैतिकता आत्म-ज्ञान की मुक्तिदायक स्थिति से उत्पन्न होती है। यह समझना कि "आत्म ही सबका आत्म है" और अन्य प्राणियों के साथ अपनी आत्मा की अविभाज्यता की पहचान करना, एक गहरी एकता और सभी के साथ संबंध की ओर ले जाता है, जिससे गैर-हिंसा और समानता जैसे सद्गुण स्वाभाविक रूप से प्रकट होते हैं।
निबंध प्रश्न
अद्वैत वेदांत में ब्रह्म की अवधारणा का आलोचनात्मक विश्लेषण करें, जिसमें निर्गुण और सगुण ब्रह्म के बीच के अंतर और विश्व की व्याख्या में उनकी भूमिका पर चर्चा करें।
आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया में ब्रह्म की अवधारणा अद्वैत वेदांत का मूल आधार है। अद्वैत वेदांत का मुख्य सिद्धांत यह है कि जीवात्मा (व्यक्तिगत अनुभव करने वाला स्व) अंततः शुद्ध चेतना है जो शरीर और इंद्रियों से गलती से पहचाना जाता है, और वह आत्मन/ब्रह्म से भिन्न नहीं है, जो सर्वोच्च स्व या वास्तविकता है। यह "अद्वितीयता" या "अद्वैत" को संदर्भित करता है, यानी ब्रह्म की एकात्मकता, जो एकमात्र वास्तविक सत्ता है।
ब्रह्म की अवधारणा अद्वैत वेदांत में, ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है। ब्रह्म को शुद्ध चेतना (चैतन्य) के रूप में वर्णित किया गया है। यह स्वयं-प्रकाशित (स्वयं प्रकाश), स्वयं-प्रमाणित और स्वयं-जागरूक है, तथा किसी भी तरह से स्थायी, शाश्वत, निरपेक्ष या अपरिवर्तनीय है। यह चेतना की शुद्ध, अविभाजित, सर्वोच्च शक्ति है, जो विचार से भी परे है और विषय-वस्तु के विभाजनों को पार करती है। ब्रह्म को सत्-चित्-आनंद (सत्: अस्तित्व, चित्: चेतना, आनंद: परमानंद) के रूप में भी समझाया गया है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, चेतना ब्रह्म का गुण नहीं, बल्कि उसका स्वरूप ही है।
निर्गुण और सगुण ब्रह्म के बीच अंतर
अद्वैत वेदांत में ब्रह्म को दो दृष्टिकोणों से समझा जाता है:
निर्गुण ब्रह्म (Nirguna Brahman):
यह ब्रह्म का निराकार, निर्विशेष और गुणरहित स्वरूप है। इसे शुद्ध चैतन्य और तुरीय अवस्था के रूप में जाना जाता है। यह माया और उसके प्रभावों से पूरी तरह से अप्रभावित है।
यह 'तत्' और 'त्वम्' महावाक्यों के लक्ष्यार्थ का प्रतिनिधित्व करता है। लक्ष्यार्थ वह अर्थ है जो विरोधाभासी शाब्दिक अर्थों को छोड़कर प्राप्त होता है, जैसे 'यह वह देवदत्त है' वाक्य में व्यक्ति की पहचान को उसके भूत या वर्तमान की विशिष्टताओं से अलग करना।
सगुण ब्रह्म (Saguna Brahman):
यह माया से युक्त ब्रह्म का स्वरूप है, जिसे ईश्वर के रूप में जाना जाता है।
ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सभी का नियंत्रक, अव्यक्त, अंतर्यामी और जगत् का कारण है।
माया वह शक्ति है जो ईश्वर से जुड़ी होती है। अज्ञान को अनिर्वचनीय (न सत और न असत), त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रजस, तमस से युक्त), ज्ञान का विरोधी और भावरूप बताया गया है।
अज्ञान के दो भेद हैं: समष्टि (समग्र) और व्यष्टि (व्यक्तिगत)।
समष्टि अज्ञान को माया कहा जाता है। यह शुद्ध सत्त्व प्रधान होती है और ईश्वर की उपाधि (सीमित करने वाला उपादान) है।
व्यष्टि अज्ञान को अविद्या कहा जाता है। यह मलिन सत्त्व प्रधान होती है और जीवात्मा (प्रज्ञ) की उपाधि है, जो अल्पज्ञ और अशक्त होता है।
'तत्' और 'त्वम्' महावाक्यों के वाच्यार्थ (शाब्दिक अर्थ) सगुण ब्रह्म और जीवात्मा को संदर्भित करते हैं, जो अज्ञान और उसके प्रभावों से जुड़े होते हैं।
विश्व की व्याख्या में उनकी भूमिका
अद्वैत वेदांत में, जगत् को ब्रह्म का विवर्त (आभासी परिवर्तन) माना जाता है, वास्तविक परिणाम नहीं। यह अध्यारोप (आरोपण) और अपवाद (निषेध) की विधि से समझाया जाता है। अध्यारोप अवास्तविक को वास्तविक पर थोपना है (जैसे रस्सी में सांप का भ्रम), और अपवाद उस थोपे गए गुण को हटाकर वास्तविक स्वरूप को प्रकट करना है।
सृष्टि प्रक्रिया में सगुण ब्रह्म/ईश्वर की भूमिका:
ईश्वर जगत् का निमित्त (कुम्हार की तरह) और उपादान (मिट्टी की तरह) दोनों कारण है। यह मकड़ी के उदाहरण से समझाया जाता है जो अपने लार से जाला बनाती है (उपादान कारण) और अपनी चेतना से उसे नियंत्रित करती है (निमित्त कारण)।
अज्ञान की दो शक्तियाँ हैं:
आवरण शक्ति: यह साधक के सच्चिदानन्द स्वरूप को ढक देती है, जैसे बादल सूर्य को ढकता है।
विक्षेप शक्ति: यह संपूर्ण नाम-रूपात्मक जगत् को उत्पन्न करती है।
विक्षेप शक्ति से ही सूक्ष्मभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) और फिर स्थूल जगत् का निर्माण होता है।
जगत् की अनित्यता: विवर्तवाद:
जगत् को ब्रह्म का विवर्त कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि जगत् ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है, लेकिन ब्रह्म अपने स्वरूप में अपरिवर्तित रहता है। यह "रस्सी में सांप के भ्रम" के समान है। सांप केवल प्रतीत होता है, रस्सी में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं होता। इसी प्रकार, यह संसार ब्रह्म पर आरोपित एक आभास मात्र है, ब्रह्म इससे प्रभावित नहीं होता।
आलोचनात्मक विश्लेषण और अंतर्दृष्टि
अद्वैत वेदांत का दर्शन इस विरोधाभास को सुलझाने का प्रयास करता है कि ब्रह्म एक और अपरिवर्तनीय होते हुए भी जगत् का कारण कैसे हो सकता है। इसका समाधान सगुण ब्रह्म (ईश्वर) की अवधारणा और विवर्तवाद में निहित है:
सगुण ब्रह्म माया के माध्यम से जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहार का संचालन करता है। यह व्यवहारिक स्तर पर जगत् की वास्तविकता को स्पष्ट करता है, जहाँ हम भेद और बहुलता का अनुभव करते हैं।
निर्गुण ब्रह्म पारमार्थिक सत्य है, जो अंतिम वास्तविकता को दर्शाता है। यह बताता है कि मौलिक रूप से, केवल ब्रह्म ही सत्य है और अन्य सभी आभास मिथ्या हैं।
अद्वैत वेदांत ज्ञान योग के मार्ग पर जोर देता है, जिसमें श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन) और निदिध्यासन (गहन ध्यान) के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया जाता है [Source: Previous conversation]। यह प्रक्रिया अज्ञान, झूठी धारणाओं और माया से उत्पन्न अहंकार-पहचान को दूर करती है [Source: Previous conversation]।
शंकराचार्य ने कहा कि ब्रह्म-ज्ञान सुनने के क्षण में ही उत्पन्न होता है और इसमें किसी "कार्य" या "कर्तृत्व" की आवश्यकता नहीं होती है। हालांकि, अद्वैत परंपरा विस्तृत प्रारंभिक अभ्यास का भी विधान करती है, जिसमें महावाक्यों का चिंतन शामिल है।
सदानंद योगीन्द्र सरस्वती ने अपने ग्रंथ वेदांतसार में अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को सरल और समन्वित रूप में प्रस्तुत किया, जिससे यह विषय सरल हो गया। उनके मंगलाचरण में उन्होंने अपने गुरु अद्वयानंद सरस्वती को नमन किया, जिन्हें द्वैत के भ्रम से मुक्त बताया गया है। यह दर्शाता है कि गुरु ही द्वैत के भ्रम को दूर करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
संक्षेप में, अद्वैत वेदांत में ब्रह्म की अवधारणा एक गहन और बहुआयामी विषय है, जो परम सत्य (निर्गुण ब्रह्म) को व्यावहारिक दुनिया (सगुण ब्रह्म और माया के माध्यम से) से जोड़ता है, जिससे साधक को अंतिम गैर-द्वैतवादी वास्तविकता की ओर मार्गदर्शन मिलता है।
अद्वैत वेदांत में मोक्ष की प्रक्रिया का वर्णन करें, जिसमें साधन चतुष्टय और श्रवण, मनन, निधिध्यासन के तिगुने अभ्यास की भूमिका पर जोर दिया गया है। इन चरणों की आवश्यकता क्यों है?
अद्वैत वेदांत में मोक्ष की प्रक्रिया, जिसे आत्मज्ञान या ब्रह्म-साक्षात्कार भी कहा जाता है, अविद्या (अज्ञान) के विनाश और आत्मा (व्यक्तिगत आत्म) तथा ब्रह्म (परम वास्तविकता) की अभिन्नता की पहचान के माध्यम से प्राप्त होती है। यह मोक्ष केवल ज्ञान से प्राप्त होता है, क्योंकि ब्रह्म सदैव विद्यमान है, और ब्रह्म-ज्ञान तत्काल है, जिसे प्राप्त करने के लिए किसी 'क्रिया' या 'कर्तापन' (प्रयास) की आवश्यकता नहीं होती। हालाँकि, इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए मन को तैयार करने हेतु जटिल प्रारंभिक अभ्यास निर्धारित किए गए हैं।
मोक्ष की प्रक्रिया में दो प्रमुख चरण शामिल हैं: साधन चतुष्टय और श्रवण, मनन, निधिध्यासन का तिगुना अभ्यास।
साधन चतुष्टय (ज्ञान के लिए चार साधन): यह ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधक (अधिकारी) के लिए आवश्यक चार मूलभूत योग्यताएँ या साधन हैं।
नित्य-अनित्य-वस्तु-विवेक (शाश्वत और क्षणभंगुर के बीच विवेक): इसका अर्थ है यह समझना कि केवल ब्रह्म ही नित्य वस्तु है, और इसके अतिरिक्त सभी कुछ अनित्य है।
इहामुत्र-फल-भोग-वैराग्य (इस लोक और परलोक के फलों के उपभोग से वैराग्य): यह इस लोक में माला, चंदन, सुंदर स्त्रियों आदि विषयों के उपभोगों और परलोक में स्वर्ग आदि विषयों के उपभोगों के प्रति पूर्ण विरक्ति है, क्योंकि ये सभी कर्मों से उत्पन्न होते हैं और इसलिए अनित्य हैं।
कर्मों का उद्देश्य: अद्वैत वेदांत में कर्मों को ज्ञान का प्रत्यक्ष साधन नहीं माना जाता, लेकिन वे मन की शुद्धि और एकाग्रता में सहायक होते हैं।
नित्य कर्म (जैसे संध्यावंदन): भविष्य में दुःख की संभावना को दूर करने के लिए किए जाते हैं।
नैमित्तिक कर्म (जैसे पुत्र जन्म पर जातष्टि यज्ञ): किसी विशेष अवसर पर किए जाते हैं।
प्रायश्चित्त कर्म (जैसे चांद्रायण व्रत): पापों को नष्ट करने के लिए किए जाते हैं।
उपासना कर्म (जैसे शांडिल्य विद्या): सगुण ब्रह्म से संबंधित मानसिक अभ्यास हैं।
काम्य कर्म (जैसे ज्योतिष्टोम यज्ञ) और निषिद्ध कर्म (जैसे ब्राह्मण-हत्या) से बचना चाहिए। नित्य, नैमित्तिक और प्रायश्चित्त कर्मों का मुख्य प्रयोजन बुद्धि की शुद्धि है, जबकि उपासना कर्मों का मुख्य प्रयोजन चित्त की एकाग्रता है।
शम-आदि-षट्-संपत्ति (छह प्रकार की संपत्तियाँ):
शम (मन का निग्रह): श्रवण आदि विषयों को छोड़कर मन को उनसे भिन्न विषयों से हटाना।
दम (इंद्रियों का निग्रह): श्रोत्र आदि बाह्य इंद्रियों को श्रवण आदि के अतिरिक्त विषयों से हटाना।
उपरति (विषयों से उपरामता): आंतरिक और बाह्य इंद्रियों का अपने-अपने विषयों से निवृत्त हो जाना, या विहित कर्मों (जैसे संध्यावंदन, अग्निहोत्र) का विधिपूर्वक त्याग (संन्यास ग्रहण करना)।
तितिक्षा (सहनशीलता): शीत-उष्ण, मान-अपमान, लाभ-हानि, जय-पराजय, निंदा-स्तुति आदि द्वंद्वों को सहन करना।
समाधान (चित्त की एकाग्रता): नियंत्रित चित्त को श्रवण आदि में और उनके अनुकूल विषयों (गुरु की सेवा, वेदांत ग्रंथों का संपादन) में स्थिर करना।
श्रद्धा (गुरु-उपदेशों में विश्वास): गुरु द्वारा उपदिष्ट वेदांत के वाक्यों में विश्वास रखना।
मुमुक्षुत्व (मोक्ष की तीव्र इच्छा): यह मोक्ष प्राप्त करने की तीव्र इच्छा है।
मोक्ष के लिए तिगुना अभ्यास: श्रवण, मनन, निधिध्यासन: अद्वैत परंपरा सिखाती है कि अविद्या (अज्ञान), जो आत्मन और ब्रह्म से संबंधित मनोवैज्ञानिक और संवेदी त्रुटियों को नष्ट करती है, ज्ञानयोग में तीन चरणों के अभ्यास के माध्यम से प्राप्त की जाती है। यह तीन-चरणीय पद्धति वृहदारण्यक उपनिषद के अध्याय 4 की शिक्षाओं में निहित है।
श्रवण (सुनना/अध्ययन): छात्र उपनिषदों और अद्वैत वेदांत के विचारों, अवधारणाओं, प्रश्नों और उत्तरों को सुनते और चर्चा करते हैं। इसमें गुरु के साथ चर्चा की सहायता से वेदांतिक ग्रंथों, जैसे ब्रह्मसूत्र, का अध्ययन करना शामिल है। श्रवण का तात्पर्य षड्-विध-लिंगों (छह संकेतों) के माध्यम से ब्रह्म में अद्वैत वस्तु के तात्पर्य को निर्धारित करना है, जिसमें उपक्रम (आरंभ), उपसंहार (निष्कर्ष), अभ्यास (पुनरावृत्ति), अपूर्वता (मौलिकता), फल (परिणाम), अर्थवाद (प्रशंसा) और उपपत्ति (तर्क) शामिल हैं।
मनन (चिंतन/मनन): इसमें स्वध्याय और श्रवण पर आधारित चर्चाओं पर विचार करना और विभिन्न विचारों पर चिंतन करना शामिल है। यह शिक्षाओं पर चिंतन का चरण है। मनन का अर्थ वेदांत-अनुकूल युक्तियों के माध्यम से अद्वैत तत्त्व ब्रह्म का निरंतर चिंतन करना है।
निधिध्यासन (ध्यान/आत्मनिरीक्षण): यह अभ्यास का वह चरण है जिसका उद्देश्य सच्चाइयों, अद्वैतता और विचार व क्रिया, जानने व होने के विलय की स्थिति को प्राप्त करना है। निधिध्यासन में देह आदि से संबंधित भिन्न-भिन्न जड़ पदार्थों में भिन्नता की भावना का परित्याग करके, सभी को एकमात्र ब्रह्म मानकर, विश्वास करना शामिल है।
महावाक्य इस अभ्यास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आदि शंकराचार्य ने इस बात पर जोर दिया कि ब्रह्म के सदा-विद्यमान होने के कारण, ब्रह्म-ज्ञान तत्काल होता है और इसमें किसी 'कार्य' या 'कर्तापन' (प्रयास) की आवश्यकता नहीं होती। फिर भी, अद्वैत परंपरा में महावाक्यों के चिंतन सहित विस्तृत प्रारंभिक अभ्यास निर्धारित किए गए हैं। शंकराचार्य, अपने उपदेशसाहस्री में, उपनिषदिक महावाक्य पर ध्यान की आवश्यकता के बारे में अस्पष्ट रहे हैं। वे कहते हैं कि "सही ज्ञान सुनने के क्षण में उत्पन्न होता है"। वे प्रसमचक्ष या प्रसंख्यान ध्यान को अस्वीकार करते हैं (यानी, वाक्यों के अर्थ पर ध्यान), लेकिन परिसंख्यान (आत्मन को जो कुछ भी आत्मन नहीं है उससे अलग करना) की सिफारिश करते हैं। फिर भी, वे यह कहकर निष्कर्ष निकालते हैं कि "आत्मन की अद्वैतता से संबंधित उपनिषदों के सभी वाक्यों पर पूरी तरह से चिंतन किया जाना चाहिए"।
अध्यारोप अपवाद भी एक केंद्रीय विधि है जिसका उपयोग अद्वैत वेदांत में अवर्णनीय को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। इस विधि में, आत्मन पर एक गुण आरोपित किया जाता है ताकि उसके अस्तित्व को समझा जा सके, जिसके बाद आत्मन के वास्तविक स्वरूप को अद्वैत और अनिर्वचनीय प्रकट करने के लिए आरोप को हटा दिया जाता है।
इन चरणों की आवश्यकता क्यों है? ये चरण आवश्यक हैं क्योंकि मन स्वाभाविक रूप से संसार की बहुलता को ही एकमात्र और सच्चा यथार्थ मानता है (लोक दृष्टि)। अविद्या (अज्ञान) के कारण, वास्तविक आत्मन/ब्रह्म का अज्ञान होता है, और आत्मन को शरीर-मन परिसर से गलत पहचान लिया जाता है [11, web 17]। इन अभ्यासों से मन शुद्ध और एकाग्र होता है, जो ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है। ज्ञान ही मुक्तिदाता है, लेकिन ये अभ्यास उस ज्ञान को सुगम बनाते हैं। अद्वैत वेदांत का मानना है कि शुद्ध तर्क दार्शनिक सच्चाइयों की ओर नहीं ले जा सकता है और केवल अनुभव और ध्यान संबंधी अंतर्दृष्टि ही ऐसा करती है।
इन अभ्यासों के माध्यम से, अविद्या दूर होती है और विद्या प्राप्त होती है, और भेद रहित ब्रह्म को सच्ची वास्तविकता के रूप में देखा जाता है (परमार्थ दृष्टि)। ज्ञान प्राप्त करने के बाद, व्यक्ति जीवनमुक्त हो जाता है। जीवनमुक्त एक ऐसी स्थिति है जो व्यक्ति के स्वभाव, गुणों और व्यवहार को बदल देती है। इस परिवर्तन के बाद, मुक्त व्यक्ति ऐसे गुण दिखाता है जैसे कि वह अनादर से परेशान नहीं होता, कठोर शब्दों को सहन करता है, दूसरों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करता है, क्रोधित व्यक्ति के सामने क्रोधित नहीं होता, बल्कि नरम और दयालु शब्दों से जवाब देता है, अत्याचार होने पर भी सत्य बोलता है और उस पर भरोसा करता है, दूसरों से आशीर्वाद या प्रशंसा की इच्छा नहीं रखता, किसी भी जीवन या प्राणी को चोट या नुकसान नहीं पहुंचाता (अहिंसा), सभी प्राणियों के कल्याण में लीन रहता है, अकेला रहना उतना ही सहज है जितना दूसरों की उपस्थिति में, बाहरी दिखावे और अनुष्ठान उसके लिए मायने नहीं रखते, केवल आत्म-ज्ञान मायने रखता है।
"अध्यारोप अपवाद" की विधि की व्याख्या करें, और बताएं कि अद्वैत वेदांत में अप्रत्यक्ष को व्यक्त करने के लिए यह कैसे एक केंद्रीय उपकरण है, विशेष रूप से "तत् त्वम् असि" जैसे महावाक्य के संदर्भ में।
अद्वैत वेदांत में "अध्यारोप अपवाद" (Adhyaropa Apavada) एक केंद्रीय विधि है जिसका उपयोग अप्रत्यक्ष या अवर्णनीय ब्रह्म की प्रकृति को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। यह सिद्धांत अद्वैत वेदांत के मूल tenets को समझने के लिए महत्वपूर्ण है, खासकर "तत् त्वम् असि" (तत्त्वमसि) जैसे महावाक्यों के संदर्भ में।
अध्यारोप अपवाद विधि की व्याख्या
"अध्यारोप" (Adhyaropa) और "अपवाद" (Apavada) दो पूरक प्रक्रियाएँ हैं:
अध्यारोप (Superimposition):
अध्यारोप का अर्थ है किसी वस्तु (सत्य वास्तविकता) पर अवस्तु (मिथ्या वास्तविकता) का आरोपण या थोपना।
इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण रस्सी में सर्प का भ्रम है। जैसे, अंधेरे में रस्सी को सर्प मान लिया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म (वस्तु) पर जगत् (अवस्तु) का आरोपण किया जाता है।
वेदांत दर्शन के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र वस्तु है (सत्-चित्-आनंद, अनंत, अद्वैत ब्रह्म)। इसके अतिरिक्त, अज्ञान आदि से लेकर संपूर्ण जड़ प्रपंच (जगत्) तक सब कुछ अवस्तु है।
अज्ञान को सत् और असत् दोनों से विलक्षण, अनिर्वचनीय, त्रिगुणात्मक और ज्ञान का विरोधी माना गया है।
अपवाद (Negation/Withdrawal):
अपवाद का अर्थ है आरोपित मिथ्यात्व को हटाना या नकारना, ताकि मूल सत्य वस्तु प्रकट हो सके।
जैसे, जब रस्सी को सर्प समझ लिया जाता है, और बाद में यह ज्ञान होता है कि यह केवल रस्सी है, तो सर्प का भ्रम दूर हो जाता है। इसी प्रकार, ब्रह्म पर आरोपित जगत् के मिथ्यात्व को हटाकर ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को उजागर करना ही अपवाद है।
शंकराचार्य के अनुसार, यह विधि व्यक्ति को सही मार्ग पर लाने और फिर धीरे-धीरे उसे अंतिम सत्य तक पहुँचाने के लिए है। उदाहरण के लिए, आत्मा को पहले साक्षी के रूप में वर्णित किया जाता है ताकि उसे अनात्म से अलग किया जा सके, फिर "साक्षी" होने की धारणा को भी छोड़ दिया जाता है, क्योंकि आत्मन् निर्गुण और अनिर्वचनीय है।
जगत् को ब्रह्म का विवर्त (apparent modification) माना जाता है, क्योंकि जगत् ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को बदले बिना उस पर प्रतीत होता है (जैसे रस्सी सर्प के रूप में प्रतीत होती है)। इसके विपरीत, विकार (modification) वह है जहाँ वस्तु अपना मूल रूप अपरिवर्तनीय रूप से बदल देती है (जैसे दूध से दही बनना)।
अप्रत्यक्ष को व्यक्त करने के लिए एक केंद्रीय उपकरण
"अध्यारोप अपवाद" की विधि अद्वैत वेदांत में अप्रत्यक्ष (अज्ञेय) ब्रह्म को व्यक्त करने का एक केंद्रीय साधन है। गौड़पाद ने बौद्धों की चतुष्कोटि निषेध से दार्शनिक अवधारणाओं को अनुकूलित किया, उन्हें वेदांतिक आधार और व्याख्या दी। यह विधि "झूठे आरोपण और बाद में खंडन के माध्यम से व्यक्त न किए जा सकने वाले को व्यक्त करती है"।
यह विधि विशेष रूप से महावाक्यों (Mahavakyas), जैसे "तत् त्वम् असि" (तत्त्वमसि), के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।
"तत् त्वम् असि" (तत्त्वमसि) महावाक्य में अध्यारोप अपवाद
"तत् त्वम् असि" का अर्थ है "वह तुम हो" या "तुम वह ब्रह्म हो"। यह महावाक्य आत्मा और ब्रह्म की एकता को प्रकट करता है। इस एकता को समझने के लिए अध्यारोप अपवाद की प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है:
"तत्" (वह) और "त्वम्" (तुम) पदों का शोधन (अर्थ निर्धारण):
अध्यारोप और अपवाद के माध्यम से, "तत्" और "त्वम्" शब्दों के अर्थों का शोधन किया जाता है।
"तत्" पद का वाच्यार्थ (literal meaning) ईश्वर को संदर्भित करता है, जो समष्टि अज्ञान (माया) से जुड़ा है और सर्वज्ञता, सर्वेश्वरत्व जैसे गुणों से युक्त है।
"त्वम्" पद का वाच्यार्थ व्यक्ति जीव को संदर्भित करता है, जो व्यष्टि अज्ञान (अविद्या) से जुड़ा है और अल्पज्ञता, अशक्तता जैसे गुणों से युक्त है।
इन वाच्यार्थों में विरोधाभास है (जैसे सर्वज्ञ और अल्पज्ञ)।
विरोधाभास का निराकरण और लक्ष्यार्थ (Implied meaning):
महावाक्य में तीन प्रकार के संबंध होते हैं: सामानाधिकरण्य (एक ही आश्रय का उल्लेख), विशेषण विशेष्य भाव (एक दूसरे को योग्य बनाना), और लक्ष्य लक्षण भाव (व्यंजना)।
"तत् त्वम् असि" में लक्ष्य लक्षण भाव (जिसे भाग लक्षणा भी कहा जाता है) का उपयोग किया जाता है। यह वह प्रक्रिया है जहाँ वाक्यार्थ के विरोधाभासी हिस्सों को त्याग दिया जाता है और एक अविरोधात्मक निहितार्थ (लक्ष्यार्थ) पर पहुँचा जाता है।
इस प्रक्रिया में, ईश्वर की सर्वज्ञता और जीव की अल्पज्ञता जैसे गुणों को छोड़ दिया जाता है, और दोनों पदों का लक्ष्यार्थ शुद्ध, उपाधि रहित, अखंड चैतन्य (ब्रह्म/आत्मन्) होता है। यही तुरीय (चौथा) अवस्था है।
इस प्रकार, "तत् त्वम् असि" महावाक्य अध्यारोप अपवाद की विधि से यह बोध कराता है कि जीव और ब्रह्म वास्तव में एक हैं और भेद केवल अज्ञान के कारण प्रतीत होता है।
संक्षेप में, अध्यारोप अपवाद एक शिक्षण उपकरण है जो पहले सीमित अवधारणाओं को आरोपित करता है (अध्यारोप) और फिर उन्हें नकारता है (अपवाद) ताकि शिक्षार्थी को असीमित, अवर्णनीय सत्य (आत्मन्/ब्रह्म) का प्रत्यक्ष बोध हो सके।
अद्वैत वेदांत और बौद्ध धर्म के बीच ऐतिहासिक और दार्शनिक संबंध की जांच करें, जिसमें विद्वानों की इस बहस पर राय पर विचार किया गया हो कि क्या शंकराचार्य "छिपे हुए बौद्ध" थे। दोनों परंपराओं के बीच मुख्य समानताओं और अंतरों पर चर्चा करें।
अद्वैत वेदांत और बौद्ध धर्म के बीच ऐतिहासिक और दार्शनिक संबंध जटिल और गहन शोध का विषय रहा है, जिसके केंद्र में आदि शंकराचार्य को "छिपे हुए बौद्ध" (प्रच्छन्न बौद्ध) कहने की बहस है। दिए गए स्रोत इन दोनों परंपराओं के बीच समानताओं और भिन्नताओं पर प्रकाश डालते हैं।
गौड़पाद का प्रभाव
अद्वैत वेदांत के शुरुआती लेखकों में से एक, गौड़पाद (7वीं शताब्दी) ने बौद्ध धर्म से दार्शनिक अवधारणाओं को अनुकूलित किया, उन्हें वेदांतिक आधार और व्याख्या दी। विशेष रूप से, उन्होंने बौद्धों की चतुष्कोटि निषेध (चार-कोणीय निषेध) को अपनाया, जो 'परम सत्य' के किसी भी सकारात्मक विधेय का खंडन करता है। यह "अव्यक्त को झूठे आरोपण और बाद में खंडन के माध्यम से व्यक्त करने" की विधि, जिसे अध्यारोप अपवाद कहा जाता है, अद्वैत वेदांत में एक केंद्रीय विधि बन गई।
आदि शंकराचार्य और "छिपे हुए बौद्ध" की बहस
आदि शंकराचार्य (8वीं शताब्दी ईस्वी) को आम तौर पर अद्वैत वेदांत परंपरा के सबसे प्रमुख प्रतिपादक के रूप में माना जाता है। उन्होंने गौड़पाद द्वारा वेदांतीकृत बौद्ध अवधारणाओं को और भी वेदांतीकृत किया। हालांकि, कुछ विद्वानों ने उनकी प्रारंभिक प्रभावकारिता और मौलिकता पर सवाल उठाए हैं, यह तर्क देते हुए कि कुछ प्रमुख अद्वैत-प्रस्ताव अन्य अद्वैतिनों से आते हैं, और शंकराचार्य स्वयं "एक मूल विचारक नहीं थे, बल्कि मौजूदा अद्वैत के एक संश्लेषक और प्राचीन शिक्षा के पुनरुत्थानकर्ता और रक्षक थे"।
"प्रच्छन्न बौद्ध" (Crypto-Buddhist) की बहस इस बात पर केंद्रित है कि क्या शंकराचार्य के दर्शन में बौद्ध विचारों का इतना गहरा प्रभाव था कि इसे अनिवार्य रूप से बौद्ध धर्म का एक छिपा हुआ रूप माना जा सकता है। स्रोत सीधे इस शब्द का उपयोग नहीं करते हैं, लेकिन यह संकेत मिलता है कि गौड़पाद ने बौद्ध अवधारणाओं को अनुकूलित किया, और शंकराचार्य ने उन्हें और भी वेदांतीकृत किया। यह, साथ ही बाद के अद्वैत वेदांत में योगिक तत्वों का समावेश और अन्य भारतीय परंपराओं पर प्रभाव, इस बात की ओर इशारा करता है कि अद्वैत वेदांत एक "बड़ी अद्वैत वेदांत" या "अनुभवात्मक अद्वैत" धारा का हिस्सा है जिसमें विभिन्न दार्शनिक तत्वों का सम्मिश्रण है।
मुख्य समानताएँ
जगत की प्रतीति (Appearance of the World): दोनों परंपराएँ अनुभवजन्य जगत (empirical world) को अवास्तविक या केवल एक आभास मानती हैं। बौद्ध धर्म में, नागार्जुन के लिए अनुभवजन्य जगत मात्र एक आभास है, क्योंकि इसमें प्रकट होने वाले सभी धर्म नश्वर और अन्य धर्मों द्वारा वातानुकूलित हैं, उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
अव्यक्त/अनिर्वचनीय को व्यक्त करने की विधि: अद्वैत वेदांत में अध्यारोप अपवाद की विधि का उपयोग अनिर्वचनीय ब्रह्म को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। यह बौद्धों के चतुष्कोटि निषेध के समान है, जो 'परम सत्य' के किसी भी सकारात्मक विधेय का खंडन करता है।
ज्ञान की केंद्रीयता: अद्वैत वेदांत में मोक्ष ब्रह्म के मुक्त करने वाले ज्ञान (विद्या) के माध्यम से प्राप्त होता है। बौद्ध धर्म भी आत्मज्ञान और प्रज्ञा के माध्यम से मुक्ति पर जोर देता है।
कर्मकांडों का त्याग: आदि शंकराचार्य ने सभी धार्मिक कर्मकांडों को त्याग दिया, क्योंकि आत्म-ज्ञान "तत् त्वम् असि" जैसे वाक्यों को सुनकर ही प्राप्त होता है, किसी क्रिया से नहीं। यह बौद्ध धर्म के कर्मकांडों के त्याग के समान दृष्टिकोण हो सकता है।
परस्पर प्रभाव: स्रोतों में यह स्वीकार किया गया है कि वेदांत और बौद्ध धर्म दोनों ने एक-दूसरे को प्रभावित किया है।
मुख्य अंतर
आत्मन/अनात्मन (Self/Non-Self) की अवधारणा:
अद्वैत वेदांत: अद्वैत का मूल सिद्धांत यह है कि जीवात्मन (व्यक्तिगत अनुभव करने वाला आत्मन) अंततः शुद्ध चेतना है, जो शरीर और इंद्रियों से गलती से पहचाना जाता है, और आत्मान/ब्रह्म से भिन्न नहीं है, जो उच्चतम आत्म या वास्तविकता है। आत्मान को "वास्तविक आत्म" या व्यक्ति का "सार" माना जाता है, जो शुद्ध चेतना (चैतन्य) है, स्वयं-प्रकाशित (स्वयं प्रकाश), और स्थायी, शाश्वत, निरपेक्ष या अपरिवर्तनीय है। ब्रह्म को एकमात्र वास्तविक सत्ता माना जाता है।
बौद्ध धर्म: इसके विपरीत, बौद्ध धर्म, विशेष रूप से बुद्ध की शिक्षाएँ, अनात्मन (गैर-आत्मन) की वकालत करती हैं। बुद्ध ने तर्क दिया कि कोई ऐसी इकाई नहीं है जिसे "मैं" वास्तव में दर्शाता है। वे आत्मा जैसी अज्ञेय (unobservable) संस्थाओं के अस्तित्व को स्थापित करने के प्रयासों के प्रति शत्रुतापूर्ण थे। बुद्ध का अस्थायित्व (impermanence) का तर्क (स्कन्धों के संदर्भ में) यह बताता है कि कोई स्थायी आत्म नहीं है।
परम सत्य का स्वरूप:
अद्वैत वेदांत: ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है। ब्रह्म को शुद्ध अस्तित्व, शुद्ध चेतना और शुद्ध आनंद के रूप में वर्णित किया गया है। यह गुणों से रहित और अपरिवर्तनीय चेतना है।
बौद्ध धर्म: नागार्जुन के लिए, केवल अपरिभाषित "शून्यता" (Śūnyatā) जिसे ध्यान में समझा जाता है और निर्वाण में प्राप्त किया जाता है, वास्तविक वास्तविकता है। हालांकि दोनों अवर्णनीय परम सत्य की बात करते हैं, अद्वैत का ब्रह्म एक सत् (वास्तविक) अस्तित्व है, जबकि शून्यता को प्रायः पदार्थ के निषेध के रूप में देखा जाता है।
तर्क और अनुभव का महत्व: अद्वैत वेदांत यह मानता है कि शुद्ध तर्क दार्शनिक सत्यों तक नहीं ले जा सकता, केवल अनुभव और ध्यान संबंधी अंतर्दृष्टि ही ऐसा करती हैं। यह श्रुति (वैदिक ग्रंथों) को "मुक्तिदायक ज्ञान के बारे में अनुभव और ध्यान संबंधी अंतर्दृष्टि का संग्रह" मानता है।
"तत् त्वम् असि" और अध्यारोप अपवाद
"तत् त्वम् असि" (वह तुम हो) जैसे महावाक्यों में अप्रत्यक्ष को व्यक्त करने के लिए अध्यारोप अपवाद एक केंद्रीय उपकरण है। यह विधि ब्रह्म और आत्मन की एकता को समझने में मदद करती है:
अध्यारोप (आरोपण): यह ब्रह्म (सत्य वस्तु) पर जगत् (मिथ्या वस्तु) के आरोपण को संदर्भित करता है, जैसे रस्सी पर सर्प का भ्रम। जीव की सीमितताएँ (अल्पज्ञता, अशक्तता) और ईश्वर की सर्वज्ञता जैसे गुण ब्रह्म पर आरोपित किए जाते हैं, जो मूल रूप से उपाधि रहित है। "तत्" पद का वाच्यार्थ (शाब्दिक अर्थ) ईश्वर को संदर्भित करता है, जो समष्टि अज्ञान (माया) से जुड़ा है और सर्वज्ञता, सर्वेश्वरत्व जैसे गुणों से युक्त है। "त्वम्" पद का वाच्यार्थ व्यक्ति जीव को संदर्भित करता है, जो व्यष्टि अज्ञान (अविद्या) से जुड़ा है और अल्पज्ञता जैसे गुणों से युक्त है। ये वाच्यार्थ विरोधाभासी हैं।
अपवाद (निषेध): यह आरोपित मिथ्यात्व को हटाने या नकारने की प्रक्रिया है। जैसे, रस्सी के सर्प के भ्रम को दूर करने के लिए, सर्प के मिथ्यात्व को हटा दिया जाता है। इसी तरह, "तत्" और "त्वम्" पदों के विरोधाभासी हिस्सों (जैसे सर्वज्ञता और अल्पज्ञता) को लक्षणा (भाग लक्षणा) के माध्यम से त्याग दिया जाता है। यह प्रक्रिया उपाधि रहित, अखंड चैतन्य को प्रकट करती है, जो ब्रह्म और आत्मन का लक्ष्यार्थ है।
इस प्रकार, अध्यारोप अपवाद एक शिक्षण उपकरण के रूप में कार्य करता है जो पहले सीमित, आरोपित धारणाओं (जैसे जीव और ईश्वर के गुण) को प्रस्तुत करता है, और फिर उन्हें अस्वीकार करता है ताकि शिष्य को अंतिम, असीमित, अवर्णनीय सत्य (शुद्ध आत्मन/ब्रह्म) का बोध हो सके। यह दर्शाता है कि जगत का अस्तित्व एक प्रतीति मात्र है, और केवल ब्रह्म ही वास्तविक सत्ता है।
समकालीन संदर्भ में अद्वैत वेदांत की प्रासंगिकता का मूल्यांकन करें, जिसमें नव-वेदांत और नव-अद्वैत के विकास और पश्चिम में गैर-द्वैतवाद के प्रति रुचि पर विचार किया गया हो। ये आधुनिक व्याख्याएं पारंपरिक अद्वैत से कैसे भिन्न या समान हैं?
अद्वैत वेदांत एक हिन्दू परंपरा है जिसका मूल सिद्धांत यह है कि जीवात्मा (व्यक्तिगत अनुभव करने वाला स्व) अंततः शुद्ध चेतना है जो गलती से शरीर और इंद्रियों के साथ पहचान की जाती है, और यह आत्मा/ब्रह्म (सर्वोच्च स्व या वास्तविकता) से भिन्न नहीं है। अद्वैत शब्द का शाब्दिक अर्थ "गैर-द्वितीयता" है, जिसे आमतौर पर "अद्वैतवाद" के रूप में अनुवादित किया जाता है। यह ब्रह्म की एकता को संदर्भित करता है।
समकालीन संदर्भ में अद्वैत वेदांत की प्रासंगिकता का मूल्यांकन करने के लिए, हमें इसके आधुनिक विकासों और पश्चिमी दर्शन में रुचि पर विचार करना होगा:
समकालीन अद्वैत वेदांत: समकालीन अद्वैत वेदांत को "योगिक अद्वैत" और "वृहत्तर अद्वैत वेदांत" के रूप में वर्णित किया गया है। यह एक मध्यकालीन और आधुनिक समकालिक परंपरा है जिसमें योग और अन्य परंपराओं को शामिल किया गया है, और यह स्थानीय भाषाओं में भी कार्य करती है। "अद्वैत वेदांत" शब्द, अपने सख्त अर्थ में, शंकराचार्य द्वारा स्थापित ग्रंथ व्याख्या और मठवासी संस्थानों की विद्वतापूर्ण परंपरा को संदर्भित कर सकता है। हालांकि, व्यापक अर्थ में "अद्वैत" योगिक विचार और अभ्यास और भारतीय धार्मिकता के अन्य पहलुओं, जैसे कश्मीर शैववाद और नाथ परंपरा के साथ अद्वैतिक विचार की एक व्यापक धारा को संदर्भित कर सकता है।
नव-वेदांत (Neo-Vedanta): नव-वेदांत को पॉल हैकर द्वारा "पारंपरिक" अद्वैत वेदांत से विचलन के रूप में देखा गया था। नव-वेदांत शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के बजाय भेदाभेद-वेदांत के करीब प्रतीत होता है, क्योंकि यह दुनिया की वास्तविकता को स्वीकार करता है। रामकृष्ण, स्वामी विवेकानंद, और अरबिंदो (और एम.के. गांधी) को "नव-वेदांती" के रूप में लेबल किया गया है, एक ऐसा दर्शन जो इस अद्वैतियों के दावे को खारिज करता है कि दुनिया मायावी है।
नव-अद्वैत (Neo-Advaita): नव-अद्वैत एक समकालीन पश्चिमी गैर-द्वैत आंदोलन है । इसकी शुरुआत एच.डब्ल्यू.एल. पूंजा और उनके छात्रों के माध्यम से हुई थी, जिन्होंने 1990 के दशक में "नो-पाथ" दृष्टिकोण के साथ गैर-द्वैत की शिक्षा देना शुरू किया । नव-अद्वैत इस बात पर जोर देता है कि मुक्ति आत्म-बोध के बिना तत्काल है और किसी प्रारंभिक अभ्यास की आवश्यकता नहीं है । हालांकि, माइकल कोमांस जैसे विद्वानों ने नव-अद्वैत की इस स्थिति की आलोचना की है कि यह पारंपरिक अद्वैत ग्रंथों में समाधि (एक गहन ध्यान अवस्था) के महत्व को छोड़ देता है ।
पश्चिम में गैर-द्वैतवाद के प्रति रुचि: नव-वेदांत ने नए धार्मिक आंदोलनों को प्रभावित किया है [9.6.4, 515]। पश्चिम में गैर-द्वैतवाद के प्रति रुचि बढ़ी है, जिसमें आध्यात्मिक शिक्षकों जैसे रामना महर्षि, निशर्गदत्त महाराज, एच.डब्ल्यू.एल. पूंजा, और गंगाजी की शिक्षाओं से प्रभावित लोग शामिल हैं।
आधुनिक व्याख्याएं पारंपरिक अद्वैत से कैसे भिन्न या समान हैं:
समानताएं:
आत्मन और ब्रह्म की पहचान: नव-वेदांत और नव-अद्वैत, पारंपरिक अद्वैत की तरह, इस केंद्रीय सिद्धांत को बनाए रखते हैं कि व्यक्तिगत स्वयं (जीवात्मा) अंततः ब्रह्म से भिन्न नहीं है।
चेतना की प्रकृति: शुद्ध चेतना (चित्) की अवधारणा, जिसे स्वयं प्रकाश (स्वयं-प्रकाशमान) माना जाता है, आधुनिक और पारंपरिक दोनों व्याख्याओं में मौलिक है।
भिन्नताएं:
ज्ञान प्राप्ति का मार्ग:
पारंपरिक अद्वैत: आदि शंकराचार्य ने इस बात पर जोर दिया कि, चूंकि ब्रह्म सदैव उपस्थित है, ब्रह्म-ज्ञान तत्काल है और इसे प्राप्त करने के लिए किसी 'कार्य' या 'कर्तापन' (यानी, प्रयास) की आवश्यकता नहीं है। शंकराचार्य प्रसम्चाक्सा या प्रसंख्यान ध्यान को अस्वीकार करते हैं, जो वाक्यों के अर्थ पर ध्यान है। हालांकि, उन्होंने परिसांख्यन की सिफारिश की है, जो आत्मा को उन सभी चीजों से अलग करता है जो आत्मा नहीं हैं। इसके बावजूद, अद्वैत परंपरा, जैसा कि मंडन मिश्र और भामती स्कूल द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया है, विस्तृत प्रारंभिक अभ्यास को भी निर्धारित करती है, जिसमें महावाक्यों का चिंतन भी शामिल है।
आधुनिक/समकालीन अद्वैत: समकालीन अद्वैत परंपरा के अनुसार, आत्मन/ब्रह्म का ज्ञान धीरे-धीरे प्राप्त होता है, स्वाध्याय (स्वयं और वैदिक ग्रंथों का अध्ययन) द्वारा। इसमें चार चरण शामिल हैं: विराग (त्याग), श्रवण (ऋषियों की शिक्षाओं को सुनना), मनन (शिक्षाओं पर चिंतन), और निदिध्यासन (महावाक्यों पर गहन और बार-बार ध्यान)। यह ध्यान भ्रामक विचारों, झूठे ज्ञान और झूठी अहं-पहचान को नकारता है जो माया में निहित हैं और ब्रह्म की एकता और आत्मा/ब्रह्म के रूप में किसी की सच्ची पहचान के अंतिम सत्य को अस्पष्ट करते हैं। यह शंकराचार्य द्वारा संदर्भित अनुभव (तत्काल अंतर्ज्ञान, एक प्रत्यक्ष जागरूकता जो निर्माण-मुक्त है) में समाप्त होता है।
नव-अद्वैत: नव-अद्वैत का "नो-पाथ" दृष्टिकोण प्रारंभिक अभ्यासों की आवश्यकता को खारिज करता है और तत्काल बोध पर जोर देता है । यह पारंपरिक अद्वैत वेदांत में एक विरोधाभास पैदा करता है जो तैयारी के अभ्यास पर जोर देता है। आलोचकों का तर्क है कि नव-अद्वैत में "समर्पण" या "अनुशासन" जैसे शब्द ढीले ढंग से उपयोग किए जाते हैं, और यह अक्सर पारंपरिक तैयारी के बिना "बोध" के अनुभव पर जोर देता है ।
जगत की वास्तविकता:
पारंपरिक अद्वैत (शंकराचार्य): शंकराचार्य के दर्शन के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है, और यह दुनिया मिथ्या है, जिसका अर्थ है कि इसे न तो वास्तविक और न ही अवास्तविक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
नव-वेदांत: नव-वेदांत शंकराचार्य के इस दावे को खारिज करता है कि दुनिया मायावी है, दुनिया की वास्तविकता को स्वीकार करता है। यह एक महत्वपूर्ण अंतर है, क्योंकि यह अनुभवजन्य दुनिया के प्रति एक अलग दृष्टिकोण की ओर ले जाता है।
ग्रंथों और परंपराओं का उपयोग:
पारंपरिक अद्वैत: शंकराचार्य जैसे प्रमुख प्रतिपादक ने मुख्य रूप से संस्कृत में विद्वतापूर्ण कार्यों पर जोर दिया।
समकालीन/योगिक अद्वैत: यह योग और अन्य परंपराओं को शामिल करता है, और स्थानीय भाषाओं में कार्य करता है।
नव-अद्वैत: यह अक्सर परंपराओं और प्रारंभिक प्रथाओं को दरकिनार करता है, तत्काल और अनायास बोध पर ध्यान केंद्रित करता है ।
संक्षेप में, जबकि अद्वैत वेदांत का मूल संदेश - आत्मन और ब्रह्म की एकता - समकालीन व्याख्याओं में बना हुआ है, ज्ञान प्राप्ति के मार्ग और दुनिया की वास्तविकता के बारे में आधुनिक दृष्टिकोणों में महत्वपूर्ण भिन्नताएं हैं। नव-वेदांत और नव-अद्वैत पारंपरिक अद्वैत से इस मायने में भिन्न हैं कि वे दुनिया के अस्तित्व को अलग तरह से देखते हैं और आत्म-बोध के लिए आवश्यक प्रारंभिक प्रथाओं की भूमिका पर अलग-अलग विचार रखते हैं।
अद्वैत वेदांत: विकास और प्रमुख व्यक्तित्व
यह एक विस्तृत समयरेखा और Advaita Vedanta से संबंधित मुख्य घटनाओं और व्यक्तियों का विवरण है, जैसा कि आपके स्रोतों में दर्शाया गया है।
Advaita Vedanta: मुख्य घटनाओं और व्यक्तियों की विस्तृत समयरेखा
Advaita Vedanta एक प्रमुख हिंदू दार्शनिक परंपरा है, जो ब्राह्मण की अद्वितीयता पर केंद्रित है। यह समयरेखा इस दर्शन के विकास और इसमें शामिल प्रमुख व्यक्तियों को दर्शाती है।
प्रारंभिक काल (8वीं-7वीं शताब्दी ईसा पूर्व - 15वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व)
8वीं-7वीं शताब्दी ईसा पूर्व: वैदिक ऋषि याज्ञवल्क्य को "अद्वैत" शब्द गढ़ने का श्रेय दिया जाता है, जो बृहदारण्यक उपनिषद में एक विशिष्ट वेदांतिक संदर्भ में दिखाई देता है।
1000 ईसा पूर्व से 500 ईस्वी: उपनिषद, वेदांत दर्शन के मूलभूत ग्रंथ हैं। प्रारंभिक उपनिषद जैसे बृहदारण्यक उपनिषद और छांदोग्य उपनिषद अद्वैत वेदांत की व्याख्याओं के लिए विशेष रूप से अनुकूल हैं।
200 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी: बादरायण द्वारा ब्रह्म सूत्र का संकलन, जो उपनिषदों की शिक्षाओं को व्यवस्थित करने का प्रयास करता है। यह वेदांत के लिए एक तर्क-आधारित आधार (न्याय प्रस्थान) माना जाता है।
ईस्वी की पहली शताब्दी: संन्यास उपनिषद, जिनमें से कुछ का अद्वैत वेदांत दृष्टिकोण स्पष्ट है, रचित हैं।
5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध: भर्तृहरि ने "वाक्यपदीय" लिखा, जो अद्वैत दर्शन पर एक प्रारंभिक ग्रंथ है।
लगभग 480–लगभग 540 ईस्वी: बौद्ध दार्शनिक दिग्नाग ने 'स्वयं-प्रकाश' की अवधारणा पेश की, जिसे बाद में वेदांत परंपरा ने अपनाया।
6वीं शताब्दी: गौडपादा ने "मांडुक्य कारिका" लिखा या संकलित किया। यह अद्वैत वेदांत से संबंधित सबसे पुराना जीवित पूर्ण ग्रंथ है। गौडपादा को गोविंद भगवतपाद के गुरु और आदि शंकराचार्य के परगुरु (गुरु के गुरु) के रूप में भी जाना जाता है।
लगभग 600 ईस्वी या इससे पहले: सुंदरपांड्या ने आत्मा और ब्रह्म की गैर-द्वैतता सिखाई, जिसे बाद में आदि शंकर ने उद्धृत किया।
9वीं शताब्दी ईस्वी: भेदभेद वेदांत स्कूल के हिंदू दार्शनिक भास्कर ने आदि शंकर के अद्वैत परंपरा पर "यह तुच्छ टूटा हुआ मायावाद जो महायान बौद्धों द्वारा गाया गया है" कहकर आलोचना की।
8वीं-9वीं शताब्दी ईस्वी: मंडना मिश्र, शंकर के समकालीन, एक मीमांसा विद्वान और कुमारिला के अनुयायी थे, जिन्होंने अद्वैत पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ "ब्रह्म-सिद्धि" लिखा।
8वीं शताब्दी ईस्वी के अंत / 9वीं शताब्दी ईस्वी की शुरुआत: आदि शंकर (आदि शंकराचार्य) अद्वैत वेदांत के महानतम प्रणालीकार और प्रचारक। उन्होंने ब्रह्म सूत्र, मुख्य उपनिषदों और भगवद गीता पर भाष्य (टीका) लिखे। उन्होंने भारत में चार मठों की स्थापना की: द्वारका, जगन्नाथ पुरी, श्रृंगेरी, और बद्रीकाश्रम। उन्हें "निर्वाण शतकम" का श्रेय भी दिया जाता है।
लगभग 800 ईस्वी: पद्मपाद, शंकर के प्रत्यक्ष शिष्य, ने "पंचपदिका" लिखा, जो शंकर-भाष्य पर एक टीका है।
लगभग 800–900 ईस्वी: सुरेश्वरा, शंकर के समकालीन, को अद्वैत वेदांत की पूर्व-शंकर शाखा के संस्थापक के रूप में भी श्रेय दिया जाता है।
9वीं-10वीं शताब्दी ईस्वी: वाचस्पति मिश्र, मंडना मिश्र के शिष्य, ने शंकर के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर "भामती" नामक एक टीका लिखी, और मंडना मिश्र के ब्रह्म-सिद्धि पर "ब्रह्मतत्व-समीक्षा" नामक एक टीका लिखी।
मध्यकालीन और आधुनिक काल (14वीं शताब्दी ईस्वी - वर्तमान)
14वीं शताब्दी ईस्वी:विद्यारण्य (जिसे माधव भी कहा जाता है), श्रृंगेरी शारदा पीठम के जगद्गुरु (लगभग 1374-1380 से 1386 तक) और विजयनगर साम्राज्य में एक मंत्री थे। उन्होंने अद्वैत वेदांत के बढ़ते प्रभाव में केंद्रीय भूमिका निभाई। उनके प्रभाव से शंकर की जीवनी "शंकर दिग्विजयम" लिखी जाने लगी, जो शंकर को एक विजयी विजेता के रूप में प्रस्तुत करती है।
योग वसिष्ठ 14वीं शताब्दी में अद्वैत वेदांत परंपरा में एक आधिकारिक स्रोत पाठ बन गया।
15वीं शताब्दी ईस्वी: श्री सदानंद योगेंद्र सरस्वती ने "वेदांत-सार" नामक एक ग्रंथ लिखा, जो अद्वैत के पारिभाषिक शब्दों और परिभाषाओं का एक संक्षिप्त परिचय है।
16वीं शताब्दी ईस्वी: महाराष्ट्रीय संत एकनाथ ने अद्वैत वेदांत पर लोकप्रिय कृतियाँ लिखीं।
16वीं-17वीं शताब्दी ईस्वी: कुछ नाथ और हठ योग ग्रंथ अद्वैत वेदांत परंपरा के दायरे में आए।
1479–1531 ईस्वी: वल्लभाचार्य, शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद के प्रस्तावक, ने माया जैसे किसी बाहरी कारक से संबंध के बिना ईश्वर द्वारा निर्मित दुनिया के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
1791–1863 ईस्वी: निश्छलदास, एक अद्वैत दादू-पंथी भिक्षु और "विचार-सागर" के लेखक, ने प्रारंभिक आधुनिक उत्तर भारत में अद्वैत वेदांत के प्रभाव और लोकप्रियता में योगदान दिया।
19वीं शताब्दी: स्वामी विवेकानंद ने अद्वैत वेदांत को लोकप्रिय बनाया, विशेष रूप से निर्वाकल्प समाधि पर जोर दिया और इसे राज योग से जोड़ा। उन्होंने इसे "भारतीय बौद्धिक विचार में एक प्रमुख शक्ति" बनाया।
20वीं शताब्दी:रमना महर्षि ने नव-अद्वैत को प्रभावित किया और आत्म-पूछताछ (आत्म-विचार) की प्रथा पर जोर दिया।
निसर्गदत्त महाराज और एच.डब्ल्यू.एल. पूनजा नव-अद्वैत के उल्लेखनीय शिक्षक बने।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर और बाद में भारत के राष्ट्रपति, ने अद्वैत वेदांत को "हिंदू धर्म का सार" के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसे और लोकप्रिय बनाया।
महात्मा गांधी ने अद्वैत वेदांत के प्रति अपनी निष्ठा घोषित की।
शिवानंद सरस्वती, चिन्मयानंद सरस्वती, दयानंद सरस्वती (अर्श विद्या), स्वामी परमार्थानंद, स्वामी तत्वविदानंद सरस्वती, नारायण गुरु जैसे समकालीन शिक्षकों ने अद्वैत परंपरा को आगे बढ़ाया।
वर्तमान: अद्वैत वेदांत ने पश्चिमी आध्यात्मिकता और न्यू एज में गैर-द्वैतवाद के रूप में ध्यान आकर्षित किया है, जहां विभिन्न परंपराओं को एक ही गैर-द्वैत अनुभव द्वारा संचालित देखा जाता है।
प्रमुख पात्रों की सूची
यहाँ स्रोतों में उल्लिखित प्रमुख व्यक्तियों की सूची उनके संक्षिप्त जीवन परिचय के साथ दी गई है:
याज्ञवल्क्य (Yajnavalkya): (8वीं या 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व) वैदिक ऋषि। उन्हें बृहदारण्यक उपनिषद में "अद्वैत" शब्द गढ़ने का श्रेय दिया जाता है।
बादरायण (Badarayana): (200 ईसा पूर्व और 200 ईस्वी के बीच अनुमानित) ब्रह्म सूत्र के संकलनकर्ता, जो उपनिषदों की शिक्षाओं को व्यवस्थित करने का प्रयास करता है।
भर्तृहरि (Bhartrihari): (5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध) "वाक्यपदीय" के लेखक, जो अद्वैत दर्शन पर एक प्रारंभिक ग्रंथ है।
दिग्नाग (Dignaga): (लगभग 480–लगभग 540 ईस्वी) बौद्ध दार्शनिक जिन्होंने 'स्वयं-प्रकाश' की अवधारणा पेश की, जिसे बाद में वेदांत परंपरा ने अपनाया।
सुंदरपांड्या (Sundarapandya): (लगभग 600 ईस्वी या इससे पहले) उन्होंने आत्मा और ब्रह्म की गैर-द्वैतता सिखाई, जिसे बाद में आदि शंकर ने उद्धृत किया।
गौडपादा (Gaudapada): (6वीं शताब्दी) "मांडुक्य कारिका" के लेखक/संकलनकर्ता। उन्हें आदि शंकराचार्य के परगुरु (गुरु के गुरु) के रूप में जाना जाता है और उन्हें योगचार शिक्षण और चतुष्कोणीय निषेध को अद्वैत वेदांत में एकीकृत करने का श्रेय दिया जाता है।
मंडना मिश्र (Mandana Misra): (8वीं-9वीं शताब्दी ईस्वी) शंकर के एक बड़े समकालीन, मीमांसा विद्वान और "ब्रह्म-सिद्धि" के लेखक, जो अद्वैत पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
आदि शंकर (Adi Shankara): (8वीं-9वीं शताब्दी ईस्वी) अद्वैत वेदांत स्कूल के महानतम प्रणालीकार। उन्होंने ब्रह्म सूत्र, मुख्य उपनिषदों और भगवद गीता पर महत्वपूर्ण भाष्य लिखे। उन्होंने भारत में चार प्रमुख मठों की स्थापना करके संगठित संन्यास परंपरा को मजबूत किया। उन्हें "निर्वाण शतकम" का श्रेय भी दिया जाता है।
पद्मपाद (Padmapada): (लगभग 800 ईस्वी) शंकर के प्रत्यक्ष शिष्य और "पंचपदिका" के लेखक, जो शंकर-भाष्य पर एक टीका है।
सुरेश्वरा (Suresvara): (लगभग 800–900 ईस्वी) शंकर के समकालीन। उन्हें अद्वैत वेदांत की एक पूर्व-शंकर शाखा के संस्थापक के रूप में भी श्रेय दिया जाता है।
वाचस्पति मिश्र (Vachaspati Misra): (9वीं/10वीं शताब्दी ईस्वी) मंडना मिश्र के शिष्य। उन्होंने शंकर के ब्रह्म सूत्र भाष्य पर "भामती" नामक एक टीका और मंडना मिश्र के ब्रह्म-सिद्धि पर "ब्रह्मतत्व-समीक्षा" लिखी।
विद्यारण्य (Vidyaranya): (जिन्हें माधव भी कहा जाता है) (14वीं शताब्दी ईस्वी) श्रृंगेरी शारदा पीठम के जगद्गुरु और विजयनगर साम्राज्य में एक मंत्री। उन्होंने अद्वैत वेदांत के सांस्कृतिक प्रभाव और शंकर के महिमामंडन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
श्री सदानंद योगेंद्र सरस्वती (Sri Sadananda Yogindra Saraswati): (लगभग 15वीं शताब्दी के मध्य) "वेदांत-सार" के लेखक, जो अद्वैत दर्शन के पारिभाषिक शब्दों और परिभाषाओं का एक महत्वपूर्ण परिचय है।
एकनाथ (Eknath): (16वीं शताब्दी) एक महाराष्ट्रीय संत और लोकप्रिय अद्वैत कार्यों के लेखक।
निश्छलदास (Nischaldas): (लगभग 1791–1863) एक दादू-पंथी भिक्षु और "विचार-सागर" के लेखक, जिन्होंने प्रारंभिक आधुनिक उत्तर भारत में अद्वैत वेदांत को लोकप्रिय बनाया।
स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda): (1863-1902) 19वीं शताब्दी के एक प्रमुख हिंदू भिक्षु और दार्शनिक। उन्होंने अद्वैत वेदांत को पश्चिमी दुनिया और आधुनिक भारत में लोकप्रिय बनाया, विशेष रूप से निर्वाकल्प समाधि और राज योग पर जोर दिया।
रमना महर्षि (Ramana Maharshi): (1879-1950) एक भारतीय आध्यात्मिक शिक्षक जिन्होंने आत्म-जांच (आत्म-विचार) की प्रथा पर जोर दिया और नव-अद्वैत को प्रभावित किया।
शिवानंद सरस्वती (Sivananda Saraswati): (1887-1963) एक प्रमुख आधुनिक अद्वैत शिक्षक और डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन (Sarvepalli Radhakrishnan): (1888-1975) एक प्रसिद्ध दार्शनिक और भारत के दूसरे राष्ट्रपति। उन्होंने अद्वैत वेदांत को हिंदू धर्म के सार के रूप में प्रस्तुत करके इसे लोकप्रिय बनाया।
महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi): (1869-1948) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेता। उन्होंने अद्वैत वेदांत के प्रति अपनी निष्ठा घोषित की।
निसर्गदत्त महाराज (Nisargadatta Maharaj): (1897-1981) नव-अद्वैत के एक उल्लेखनीय शिक्षक।
चिन्मयानंद सरस्वती (Chinmayananda Saraswati): (1916-1993) चिन्मय मिशन के संस्थापक और एक प्रभावशाली अद्वैत शिक्षक।
एच.डब्ल्यू.एल. पूनजा (H.W.L. Poonja): (1910-1997) रमना महर्षि के शिष्य और नव-अद्वैत के एक प्रमुख शिक्षक।
दयानंद सरस्वती (Davananda Saraswati): (अर्श विद्या) (1930-2015) अद्वैत वेदांत के एक पारंपरिक शिक्षक।
स्वामी परमार्थानंद (Swami Paramarthananda): वर्तमान में अद्वैत वेदांत के एक प्रमुख जीवित शिक्षक के रूप में अनुशंसित।
स्वामी तत्वविदानंद सरस्वती (Swami Tattvavidananda Sarasvati): समकालीन अद्वैत शिक्षक।
नारायण गुरु (Narayana Guru): (1856-1928) एक समाज सुधारक और आध्यात्मिक नेता जिन्होंने अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों पर आधारित एक सार्वभौमिक नैतिकता का प्रचार किया।
स्वामी त्यागनंद (Swami Tyagananda): वेदांत सोसाइटी, बोस्टन में एक स्वामी, जिन्होंने कर्म योग और ज्ञान योग पर किताबें लिखी हैं।
शब्दावली
अद्वैत (Advaita): "गैर-द्वितीयता" या "गैर-द्वितीयता" का अर्थ है, ब्रह्म की एकता को संदर्भित करता है।
ब्रह्म (Brahman): अद्वैत वेदांत में सर्वोच्च वास्तविकता, अपरिवर्तनीय बुद्धिमान चेतना।
निर्गुण ब्रह्म (Nirguna Brahman): ब्रह्म का निराकार, गुणरहित पहलू।
सगुण ब्रह्म (Saguna Brahman): ब्रह्म का रूप वाला, गुणों वाला पहलू, अक्सर ईश्वर से पहचाना जाता है।
आत्मा (Atman): व्यक्ति का वास्तविक आत्म, ब्रह्म के समान माना जाता है।
माया (Maya): वह शक्ति जो ब्रह्म पर भ्रमपूर्ण विश्व को आरोपित करती है; अज्ञान की एक शक्ति।
अविद्या (Avidya): अज्ञान या अज्ञानता, जो आत्म को उसके वास्तविक स्वरूप से छुपाती है।
मोक्ष (Moksha): दुखों और पुनर्जन्म से आध्यात्मिक मुक्ति और अमरता।
पारमार्थिक सत्यम (Paramarthika Satyam): परम सत्य, ब्रह्म।
व्यावहारिक सत्यम (Vyavaharika Satyam): अनुभवजन्य या पारंपरिक वास्तविकता।
प्रातिभासिक सत्यम (Pratibhasika Satyam): व्यक्तिपरक या भ्रमपूर्ण वास्तविकता।
अध्यारोप (Adhyaropa): अवास्तविक का वास्तविक पर अध्यारोपण।
अपवाद (Apavada): अध्यारोपण का वि-अध्यारोपण या निषेध।
महावाक्य (Mahavakyas): उपनिषदों के "महान कथन" जो आत्मा और ब्रह्म की पहचान व्यक्त करते हैं, जैसे "तत् त्वम् असि"।
कोश (Koshas): आत्म को ढकने वाले पाँच आवरण या शरीर: अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय।
त्रिपुटि (Triputi): ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिगुणात्मकता।
तुरीय (Turiya): चेतना की "चौथी" अवस्था जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति को पार करती है।
प्रमाण (Pramanas): ज्ञान प्राप्त करने के वैध साधन (धारणा, अनुमान, तुलना, अनुमान, गैर-धारणा, शब्द)।
वृत्ति-व्याप्ति (Vritti-Vyapti): अज्ञान को दूर करने के लिए विचार द्वारा वस्तु को घेरना।
फल-व्याप्ति (Phala-Vyapti): विचार द्वारा वस्तु को प्रकाशित करना।
साधन चतुष्टय (Sadhana Chatushtaya): मोक्ष के लिए आवश्यक चार-गुना गुण: विवेक, वैराग्य, शमादि षट्क संपत्ति, और मुमुक्षुत्व।
श्रवण (Sravana): वेदांत शास्त्रों को गुरु के मार्गदर्शन में सुनना।
मनन (Manana): सुनी गई शिक्षाओं पर विचार करना और चिंतन करना।
निधिध्यासन (Nididhyasana): आत्मा और ब्रह्म की पहचान को आत्मसात करने के लिए ध्यान और आत्मनिरीक्षण।
ब्राह्मकारा वृत्ति (Brahmakara Vritti): "मैं ब्रह्म हूँ" का अंतिम मानसिक विचार जो अज्ञान को नष्ट करता है।
जीवा (Jiva): व्यक्तिगत अनुभव करने वाला आत्म, जो अविद्या के कारण शरीर और मन से बंधा हुआ प्रतीत होता है।
ईश्वर (Ishvara): सगुण ब्रह्म, ब्रह्म का व्यक्तिगत या शासक पहलू।
सूत्रात्मा (Sootraatma): सूक्ष्म ब्रह्मांडीय आत्म, हिरण्यगर्भ के समान, जो सूक्ष्म शरीरों को व्याप्त करता है।
हिरण्यगर्भ (Hiranyagarbha): ब्रह्मांडीय गर्भ या सोने का अंडा, जो ब्रह्मांडीय सूक्ष्म शरीर का प्रतिनिधित्व करता है।
वैश्वानर (Vaishvanara): जाग्रत अवस्था का सार्वभौमिक आत्म, स्थूल ब्रह्मांडीय शरीर से पहचाना जाता है।
तैजस (Taijasa): स्वप्न अवस्था का व्यक्तिगत आत्म, सूक्ष्म शरीर से पहचाना जाता है।
प्राज्ञ (Prajna): सुषुप्ति अवस्था का व्यक्तिगत आत्म, कारण शरीर से पहचाना जाता है।
सच्चिदानंद (Saccidānanda): ब्रह्म के गुण: अस्तित्व (सत), चेतना (चित्), और परमानंद (आनंद)।
गुरु (Guru): आध्यात्मिक शिक्षक या मार्गदर्शक।
श्रुति (Sruti): वैदिक साहित्य, विशेष रूप से उपनिषद, जिसे अद्वैत वेदांत में एक विश्वसनीय ज्ञान स्रोत माना जाता है।
स्मृति (Smriti): हिंदू ग्रंथों का एक शरीर जो श्रुति के बाद लिखा गया है, जिसमें धर्मशास्त्र और महाकाव्य शामिल हैं।
पंचीकरण (Panchikarana): वह प्रक्रिया जिसके द्वारा सूक्ष्म तत्व मिश्रित होकर स्थूल तत्व बनाते हैं।
नेति नेति (Neti Neti): "यह नहीं, वह नहीं" या "न यह, न वह" का अर्थ है, ब्रह्म को सभी अवधारणाओं और गुणों को नकार कर वर्णित करने की एक विधि।
जिवन्मुक्ता (Jivanmukta): वह व्यक्ति जिसने इस जीवनकाल में ही मुक्ति प्राप्त कर ली है।
कर्मकांड (Karma-kanda): वेदों का वह भाग जो कर्मकांडों और धार्मिक कर्तव्यों से संबंधित है।
ज्ञानकांड (Jnana-kanda): वेदों का वह भाग जो ज्ञान और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि से संबंधित है, मुख्य रूप से उपनिषद।
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