Saturday, July 19, 2025

दृग्-दृश्य विवेक: गहन अध्यन

 अद्वैत वेदांत का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसे "वाक्यसुधा" भी कहते हैं। इसमें ४६ श्लोक हैं।

ग्रंथ का मुख्य विषय और उद्देश्य यह ग्रंथ 'द्रष्टा' (देखने वाला - दृग्) और 'दृश्य' (जो देखा जाता है - दृश्य) के स्वरूप की गहन जाँच करता है। इसका केंद्रीय विषय आत्मा (दृग्) और दृश्य जगत (दृश्य) के बीच के भेद को स्पष्ट करना है, यह बताते हुए कि आत्मा ही शुद्ध द्रष्टा (साक्षी) है, जो स्वयं प्रकाशित और अविनाशी है, जबकि दृश्य जगत परिवर्तनशील और नश्वर है। इसका अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करना है। यह वेदांत के छात्रों को तर्कसंगत और दार्शनिक जाँच की ओर ले जाता है, जिससे उच्च वेदांत दर्शन को समझने में सहायता मिलती है।

लेखकत्व "दृग्-दृश्य विवेक" को मुख्य रूप से विद्यारण्य स्वामी (लगभग १३५०  ई.) द्वारा रचित माना जाता है, जो 'पंचदशी' के लेखक भी हैं। कुछ लोग इसे भारती तीर्थ (विद्यारण्य स्वामी के गुरु) या आदि शंकराचार्य से भी जोड़ते हैं। यह भ्रम इसलिए हो सकता है क्योंकि ये सभी शंकराचार्य परंपरा के महत्वपूर्ण आचार्य थे। आम सहमति विद्यारण्य स्वामी को इसका लेखक मानती है, क्योंकि यह ग्रंथ "प्रकरण ग्रंथ" की श्रेणी में आता है, जो अद्वैत वेदांत के सभी विषयों का संक्षिप्त परिचय देता है।

वेदांत दर्शन में महत्व यह ग्रंथ वेदांत दर्शन का 'प्रकरण ग्रंथ' कहलाता है, जो अद्वैत वेदांत के सभी विषयों का संक्षिप्त परिचय प्रदान करता है और इसे अद्वैत वेदांत की 'भूमिका' भी कहा जा सकता है। यह उच्च वेदांत दर्शन को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह समाधि (एकाग्रता) के विभिन्न प्रकारों का विस्तृत विवरण प्रदान करता है। यह आत्मा और ब्रह्म की पहचान पर चर्चा करता है, और "तत् त्वम् असि" (तुम वह हो) जैसे प्रमुख वैदिक महावाक्यों के वास्तविक अर्थ को समझने में मदद करता है। यह दर्शाता है कि ज्ञान वेदांत में प्राथमिक है, कर्मकांड नहीं। ब्रह्म को जानने से हृदय के बंधन टूट जाते हैं, सभी संदेह दूर हो जाते हैं, और सभी कर्मों का क्षय हो जाता है, जिससे मुक्ति प्राप्त होती है।

द्रष्टा (दृग्) और दृश्य (दृश्य) का भेद ग्रंथ के अनुसार, 'द्रष्टा' वह है जो देखता है, और 'दृश्य' वह है जो देखा जाता है।

  • इंद्रियां और मन: इंद्रियां (जैसे आँखें) रूप को देखती हैं, लेकिन स्वयं इंद्रियां मन द्वारा देखी जाती हैं। मन भी दृश्य है, जिसे अंतःकरण की वृत्तियों के रूप में साक्षी (चेतना) द्वारा देखा जाता है।

  • परम द्रष्टा चेतना: अंततः, चेतना (आत्मा) ही परम द्रष्टा या साक्षी है, जो स्वयं किसी अन्य द्वारा नहीं देखी जा सकती। यह स्वयं-प्रकाशित और शाश्वत है। साक्षी अविनाशी और अपरिवर्तनीय है, जबकि दृश्य परिवर्तनशील और क्षणिक है। चेतना न तो उत्पन्न होती है और न ही अस्त होती है; यह बढ़ती या घटती नहीं है।

  • बुद्धि और अहंकार: बुद्धि चेतना के प्रतिबिंब के कारण चमकदार दिखाई देती है। यह दो प्रकार की होती है: अहंकार (अहंभाव) और मन। अहंकार एजेंसी और इच्छा के साथ बुद्धि को संपन्न करता है। अहंकार और चेतना के प्रतिबिंब की पहचान आग और गर्म लोहे की गेंद की पहचान के समान है। यह अहंकार, शरीर के साथ अपनी पहचान के कारण, एक सचेत इकाई के रूप में कार्य करता है।

  • अहंकार की पहचान के प्रकार:

  • प्राकृतिक (सहज): चेतना के प्रतिबिंब के साथ अहंकार की पहचान, जो अस्तित्व में आते ही होती है।

  • कर्मजन्य: अतीत के कर्मों के कारण शरीर के साथ अहंकार की पहचान।

  • अज्ञानजन्य (भ्रांतिजन्य): साक्षी के साथ अहंकार की पहचान, जो अज्ञान पर आधारित है।

  • पहचान का अंत: प्राकृतिक पहचान तब तक बनी रहती है जब तक उन्हें वास्तविक माना जाता है। कर्मजन्य पहचान कर्मों के परिणाम समाप्त होने के बाद गायब हो जाती है। अज्ञानजन्य पहचान ज्ञान की प्राप्ति से गायब हो जाती है, जो अहंकार को नष्ट करती है और इसे ब्रह्म में विलीन कर देती है।

माया और सृष्टि माया को ब्रह्म की दो शक्तियों के रूप में वर्णित किया गया है:

  • विक्षेप शक्ति (प्रक्षेपण): यह द्वैतहीन ब्रह्म को प्रकटित अनेक के रूप में प्रकट करती है, सूक्ष्म शरीर से लेकर सकल ब्रह्मांड तक सब कुछ बनाती है。

  • आवरण शक्ति (आवरण): यह द्रष्टा और दृश्य वस्तुओं के बीच अंतर को छुपाती है (शरीर के भीतर) और ब्रह्म और प्रकट ब्रह्मांड के बीच अंतर को छुपाती है (बाहर)। यह इस संसार का कारण है।

सृष्टि को अस्तित्व-चेतना-आनंद स्वरूप में सभी नामों और रूपों के प्रकट होने के रूप में वर्णित किया गया है, जैसे समुद्र में झाग। यह माया की विक्षेप शक्ति के कारण होता है। माया को न तो वास्तविक और न ही अवास्तविक बताया गया है, बल्कि अत्यंत भ्रामक है। जब आवरण शक्ति नष्ट हो जाती है, तो ब्रह्म और परिघटनात्मक ब्रह्मांड के बीच का अंतर स्पष्ट हो जाता है, और ब्रह्म पर आरोपित परिवर्तन गायब हो जाते हैं।

जीव की प्रकृति और ब्रह्म के साथ उसकी पहचान ग्रंथ में जीव (शरीरधारी इकाई) की तीन अवधारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं:

  1. उपधि (सीमाओं) से सीमित चेतना (जैसे आकाश बर्तनों से सीमित प्रतीत होता है)।

  2. मन में प्रस्तुत चेतना का आभास (जैसे पानी में सूर्य का प्रतिबिंब)।

  3. स्वप्न में कल्पित चेतना (जैसे स्वप्न में स्वयं को राजा या भिखारी मानना)।

इनमें से, ग्रंथ पहले सिद्धांत को जीव की वास्तविक प्रकृति के रूप में समर्थन करता है, यह बताते हुए कि जीवत्व (सीमित होने का विचार) ब्रह्म पर एक मायावी अधिरोपण है। जब अज्ञान (माया की आवरण शक्ति) दूर होती है, तो जीव और साक्षी के बीच का अंतर स्पष्ट हो जाता है, और जीव का स्वरूप साक्षी (आत्मा) में विलीन हो जाता है, जो ब्रह्म के समान है। यह मोक्ष का मार्ग है, जहाँ जीव अपनी पहचान ब्रह्म के रूप में स्थापित करता है। ग्रंथ दृढ़ता से जोर देता है कि जीव का ब्रह्म के साथ अभेद है। "तत् त्वम् असि" जैसे वैदिक कथन उपाधि के सिद्धांत से जीव की पहचान भागहीन ब्रह्म के साथ घोषित करते हैं।

समाधि और आत्म-साक्षात्कार का मार्ग ग्रंथ आत्म-साक्षात्कार के लिए एकाग्रता (समाधि) के अभ्यास पर जोर देता है, जो "तत् त्वम् असि" के ज्ञान को मजबूत करता है। समाधि के दो मुख्य प्रकार हैं:

  • सविकल्प समाधि: इसमें साधक ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करता है, लेकिन ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय जैसे भेदों को पूरी तरह से नहीं खोता है। इसे आगे दो प्रकारों में बांटा गया है:

  • दृश्य से संबंधित सविकल्प समाधि: जिसमें मन की इच्छाओं आदि को ज्ञेय वस्तुओं के रूप में देखा जाता है, और चेतना को उनके साक्षी के रूप में ध्यान किया जाता है।

  • शब्द (श्रुति) से संबंधित सविकल्प समाधि: जिसमें साधक 'मैं अस्तित्व-चेतना-आनंद, अनासक्त, स्वयं-प्रकाशित और द्वैत से मुक्त हूँ' जैसे कथनों पर चिंतन करता है।

  • निर्विकल्प समाधि: यह समाधि का उच्चतम स्तर है, जिसमें मन हवा रहित स्थान में दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाता है। इसमें ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय का भेद समाप्त हो जाता है, और साधक परम आनंद का अनुभव करता है, जो अज्ञान के नष्ट होने और ब्रह्म के साथ पहचान के माध्यम से प्राप्त होता है। साधक आत्मा की प्राप्ति के आनंद में पूरी तरह से लीन होकर सभी वस्तुओं और ध्वनियों के प्रति उदासीन हो जाता है। ज्ञानी हर जगह केवल ब्रह्म को ही देखता है।

अध्ययन की आवश्यकता और लाभ इस ग्रंथ के अध्ययन की आवश्यकता उन लोगों के लिए है जो संसार के दुखों से मुक्त होना चाहते हैं और आत्म-ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। यह उन जिज्ञासुओं के लिए है जो यह जान चुके हैं कि केवल कर्मों से अनंत सुख या अमरता प्राप्त नहीं की जा सकती। यह ग्रंथ अज्ञानी अवस्था से ज्ञानी बनने के मार्ग को प्रशस्त करता है।

इसके अध्ययन से प्राप्त होने वाले लाभों में शामिल हैं:

  • आत्म-साक्षात्कार: यह व्यक्ति को अपनी वास्तविक प्रकृति को समझने में मदद करता है, जो शरीर और मन से परे शुद्ध चेतना (साक्षी) है।

  • संदेहों का निवारण: सर्वोच्च सत्य के ज्ञान से सभी संशय दूर हो जाते हैं।

  • कर्मों का क्षय: अज्ञान के कारण होने वाले सभी कर्म और उनके प्रभाव समाप्त हो जाते हैं।

  • मोक्ष की प्राप्ति: यह जीवन के उच्चतम उद्देश्य - मुक्ति - की ओर ले जाता है, जहाँ व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है और ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव करता है।

यह ग्रंथ एक चिकित्सक की तरह कार्य करता है, जो हमारी आँखों को खोलता है ताकि हम दृश्य जगत के भ्रम से परे, जो दिखता नहीं, उसे भी देख सकें – अर्थात्, परम सत्य ब्रह्म को जान सकें। यह पाठ केवल एक सैद्धांतिक व्याख्या नहीं है, बल्कि आत्म-चिंतन और ध्यान के माध्यम से गहन आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शक भी है।

  • यह श्लोक ज्ञाता (देखने वाला) और ज्ञेय (जो देखा जाता है) के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है।

१. रूपं दृष्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृक्तु मानसम्। दृश्या: धीवृत्तयस्साक्षी दृगेव न तु दृश्यते॥ 

श्लोक का अर्थ और उसकी व्याख्या :

  • "रूप दृश्य है और नेत्र दृष्टा।"

    • इसका अर्थ है कि जो रूप (आकार, वस्तु, दृश्य) हम देखते हैं, वह देखा जाने वाला (दृश्य) है। और हमारी आँखें (लोचन) ही उस रूप को देखने वाली (दृक् या दृष्टा) हैं।

    • सरल शब्दों में, जब आप किसी चीज़ को देखते हैं, तो वह चीज़ 'दृश्य' होती है, और आपकी आँख 'दृष्टा' होती है।

  • "ये नेत्र-दृष्टा भी मन की दृष्टि से दृश्य की श्रेणी में आ जाते हैं।"

    • अब, यह विचार को एक कदम और आगे बढ़ाता है। हमारी आँखें जो 'दृष्टा' थीं, वे भी मन की दृष्टि से दृश्य बन जाती हैं।

    • जैसे, आप अपनी आँखों को देख नहीं सकते (सीधे तौर पर), लेकिन आप 'जानते' हैं कि आपकी आँखें देख रही हैं। यह 'जानना' या 'देखना' मन के स्तर पर होता है। तो, मन के लिए आँखें भी 'दृश्य' हो गईं, और मन 'दृष्टा' हो गया।

  • "मन शब्द से लक्षित सभी वृत्तियाँ भी साक्षी की दृष्टि से दृश्य हैं।"

    • यहाँ बात और सूक्ष्म हो जाती है। मन (इच्छाएं, विचार, भावनाएं, संकल्प-विकल्प) स्वयं भी जब साक्षी द्वारा देखा जाता है, तो वह 'दृश्य' बन जाता है।

    • हम अपने विचारों को 'देखते' हैं, अपनी भावनाओं को 'महसूस' करते हैं। यह 'देखने' और 'महसूस करने' वाला जो 'साक्षी' है, उसके लिए मन की सभी अवस्थाएँ (वृत्तियाँ) भी 'दृश्य' ही हैं।

  • "यह साक्षी किसी के द्वारा दृश्य नहीं बनता है, अतः वह ही वास्तविक दृष्टा है।"

    • यह सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। जो यह सब 'देख' रहा है – रूपों को, आँखों को, मन की वृत्तियों को – वह साक्षी स्वयं किसी और के द्वारा देखा नहीं जा सकता

    • अर्थात्, साक्षी ही परम दृष्टा है, असली देखने वाला। वह हमेशा देखने वाला होता है, कभी देखा जाने वाला नहीं। वह स्वयं प्रकाश स्वरूप है, जिसे प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य की आवश्यकता नहीं होती। अद्वैत वेदांत में इसी 'साक्षी' को आत्मा या ब्रह्म कहा गया है।

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के मूलभूत सिद्धांत को समझाता है कि हमारी चेतना (साक्षी) ही एकमात्र वास्तविक दृष्टा है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि हम शरीर, इंद्रियों और मन से परे हैं, और हमारा वास्तविक स्वरूप वह शुद्ध चेतना है जो सब कुछ देखती है लेकिन स्वयं नहीं देखी जा सकती। यह क्रम हमें स्थूल (बाह्य रूप) से सूक्ष्म (आँखें, मन) और फिर अति-सूक्ष्म (साक्षी/आत्मा) की ओर ले जाता है।

  • ज्ञाता (देखने वाला) और ज्ञेय (जो देखा जाता है) के भेद को समझने के लिए हमारी इन्द्रियों, विशेषकर आँख, के कार्य पर प्रकाश डालता है।

२. नीलपीतस्थूलसूक्ष्म ह्रस्वदीर्घादि भेदतः। नानाविधानि रूपाणि पश्येल्लोचनमेकधा॥

"हमारी आंख साक्षी बनकर नीला, पीला, स्थूल, सूक्ष्म, छोटा, बड़ा आदि अनेकों प्रकार के रूपों को देखती है।"

  • "हमारी आँख साक्षी बनकर..."

    • यहाँ पर आँख को एक साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह 'साक्षी' शब्द महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दर्शाता है कि आँख केवल एक यंत्र है जो देखता है, लेकिन वह देखी गई वस्तुओं से प्रभावित नहीं होती। वह बस 'देखती' है। जैसे एक गवाह घटना को देखता है लेकिन स्वयं घटना में शामिल नहीं होता।

  • "...नीला, पीला, स्थूल, सूक्ष्म, छोटा, बड़ा आदि भेदतः।"

    • यह पंक्ति उन विभिन्न प्रकार के रूपों (नानाविधानि रूपाणि) का वर्णन करती है जिन्हें आँख देख सकती है।

    • नीला, पीला: ये रंगों के भेद हैं।

    • स्थूल, सूक्ष्म: ये वस्तुओं के आकार के भेद हैं – कोई चीज़ बड़ी (स्थूल) दिखती है, कोई छोटी (सूक्ष्म)।

    • ह्रस्व, दीर्घ: ये लंबाई के भेद हैं – कोई चीज़ छोटी (ह्रस्व) दिखती है, कोई लंबी (दीर्घ)।

    • आदि भेदतः: 'आदि' शब्द दर्शाता है कि इसके अलावा भी अन्य भेद हैं जिन्हें आँख पहचानती है (जैसे गोल, चौकोर, त्रिभुजाकार आदि)।

  • "...अनेकों प्रकार के रूपों को पश्येल्लोचनमेकधा॥"

    • इसका अर्थ है कि हमारी एक ही आँख (लोचनम् एकधा) इन अनेकों प्रकार के रूपों (नानाविधानि रूपाणि) को देखती (पश्येत्) है।

    • यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि आँख स्वयं किसी रंग, आकार या लंबाई से रंगी नहीं जाती। वह नीला देखती है तो नीली नहीं हो जाती, पीला देखती है तो पीली नहीं हो जाती। वह बस निष्पक्ष भाव से सब कुछ देखती है।

यह श्लोक हमें सिखाता है कि जिस प्रकार हमारी आँख विभिन्न और विरोधाभासी रूपों (रंगों, आकारों) को देखती है लेकिन स्वयं उन भेदों से अछूती रहती है, उसी प्रकार वास्तविक दृष्टा (चेतना या आत्मा) भी मन, बुद्धि और इंद्रियों के माध्यम से देखे गए सभी दृश्यों (जगत्) का साक्षी है। यह दृष्टा स्वयं उन दृश्यों से प्रभावित नहीं होता, उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता, और वह स्वयं किसी भेद वाला नहीं है। यह अद्वैत वेदांत का आधार है कि जो 'देखने वाला' है, वह 'देखी जाने वाली' वस्तु से भिन्न और उससे परे है, और वह स्वयं निर्विकार (परिवर्तनहीन) है।

  • यह श्लोक बताता है कि कैसे हमारा मन विभिन्न इंद्रियों की अवस्थाओं और कार्यों का 'द्रष्टा' होता है।

३. आन्ध्यमान्द्यपदुत्वेषु नेत्रधर्मेषु चैकधा। संकल्पयेन्मनः श्रोत्र त्यगादौ योज्यतामिदम्॥

"उस आंख का अन्धापन, मन्दता या तीक्ष्णता आदि विविध धर्मों को हमारा एक मन जानता है।"

  • इस पंक्ति का अर्थ है कि आँख की विभिन्न अवस्थाएँ या गुण (धर्म) जैसे:

    • अन्धापन: आँख का न देख पाना।

    • मन्दता : आँख का धुंधला या कम देख पाना।

    • तीक्ष्णता : आँख का स्पष्ट और तेज देख पाना।

    • आदि विविध धर्मों: और इसी तरह के अन्य गुण।

  • इन सभी को हमारा एक ही मन जानता है। यानी, मन ही है जो इन अवस्थाओं का साक्षी है, न कि स्वयं आँख। आँख अंधी है या तेज, यह जानने वाला मन है।

"इसी प्रकार से कर्ण, त्वचा आदि इन्द्रियों के विषयों के बारे में भी समझना चाहिए।"

  • यह पंक्ति इस विचार को अन्य इंद्रियों तक विस्तारित करती है। जिस तरह आँख के गुणों को मन जानता है, उसी प्रकार:

    • कर्ण (कान): कानों की क्षमता (जैसे सुनने में कमी या अधिकता) को मन जानता है।

    • त्वचा : त्वचा के गुण (जैसे ठंडा, गर्म, खुरदुरा, मुलायम महसूस करना) को मन जानता है।

    • आदि इंद्रियों: और स्वाद (जिह्वा), गंध (नासिका) जैसी अन्य इंद्रियों के कार्यों और अवस्थाओं को भी मन ही जानता है।

यह श्लोक पिछले श्लोकों के विचार को आगे बढ़ाता है, जहाँ हमने देखा था कि आँख रूपों की द्रष्टा है और मन आँखों की द्रष्टा है। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि मन ही है जो सभी इंद्रियों (जैसे आँख, कान, त्वचा) की विभिन्न अवस्थाओं, क्षमताओं और उनके विषयों (जैसे देखना, सुनना, स्पर्श करना) को जानता है।

यह हमें यह समझने में मदद करता है कि मन स्वयं इन इंद्रियों से भिन्न और उनके ऊपर है। मन ही इंद्रियों का 'द्रष्टा' है, जो उनकी अच्छाई-बुराई, क्षमता-अक्षमता को पहचानता है। यह अद्वैत वेदांत के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को पुष्ट करता है कि जो आत्मा (या साक्षी) है, वह मन से भी परे है, क्योंकि वह मन की गतिविधियों और इंद्रियों के गुणों का भी साक्षी है।

  • यह श्लोक बताता है कि कैसे हमारी चेतना (चिति), जो कि साक्षी स्वरूप है, मन की सभी विविध अवस्थाओं और वृत्तियों को प्रकाशित करती है।

४. कामः संकल्पसंदेहौ श्रद्धाश्रद्धे धृतीतरे। ह्रीर्भीरित्येवमादीन् भासयत्येकधा चितिः॥

"कामना, संकल्प, संदेह, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, ज्ञान, भय आदि मन की विविध वृत्तियों को भी एक ही साक्षी चेतनता प्रकाशित करती है।"

  • "कामना, संकल्प, संदेह, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, ज्ञान, भय आदि..."

    • यह पंक्ति मन की विभिन्न वृत्तियों की एक सूची प्रस्तुत करती है। ये मन की वे अवस्थाएँ हैं जो हम लगातार अनुभव करते हैं।

    • कामना : किसी चीज़ की इच्छा।

    • संकल्प : कुछ करने का निश्चय।

    • संदेह : किसी बात पर अनिश्चितता।

    • श्रद्धा : विश्वास या आस्था।

    • अश्रद्धा : अविश्वास।

    • धैर्य : धीरज।

    • लज्जा : शर्म।

    • ज्ञान : जानकारी या बोध।

    • भय : डर।

    • आदि : यह 'आदि' शब्द दर्शाता है कि इसके अलावा भी मन की असंख्य वृत्तियाँ हैं (जैसे क्रोध, लोभ, मोह, प्रेम, घृणा, सुख, दुःख आदि)।

  • "...मन की विविध वृत्तियों को भी..."

    • ये सभी मन की अलग-अलग और अक्सर परस्पर विरोधी अवस्थाएँ हैं।

  • "...एक ही साक्षी चेतनता प्रकाशित करती है।"

    • यहाँ पर मुख्य संदेश है। इन सभी विविध वृत्तियों को (जो कि 'दृश्य' हैं) एक ही साक्षी और चेतना 'प्रकाशित' करती है। 'प्रकाशित करती है' का अर्थ है कि वह उन्हें जानने वाला, देखने वाला या अनुभव करने वाला है।

    • यह चेतना ही 'दृष्टा' है, जो इन सभी मानसिक अवस्थाओं का साक्षी है, लेकिन स्वयं इन वृत्तियों से अछूती और अप्रभावित रहती है। जैसे, टॉर्च का प्रकाश किसी भी वस्तु पर पड़े, टॉर्च का प्रकाश स्वयं उस वस्तु का रूप नहीं ले लेता।

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के 'दृग् दृष्य विवेक' के सिद्धांत को पूर्णता प्रदान करता है। हमने पिछले श्लोकों में देखा:

  • रूप (वस्तुएँ) दृश्य हैं, आँख दृष्टा है।

  • आँखें (इंद्रियाँ) दृश्य हैं, मन दृष्टा है।

  • और अब यह श्लोक कहता है कि मन की सभी वृत्तियाँ (विचार, भावनाएँ, इच्छाएँ) भी दृश्य हैं, और उन्हें प्रकाशित करने वाली 'एक ही साक्षी चेतनता' ही वास्तविक दृष्टा है।

यह 'साक्षी चेतनता' ही हमारी आत्मा या ब्रह्म है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप शरीर, इंद्रियों या मन नहीं है, बल्कि वह अपरिवर्तनशील, नित्य-शुद्ध, और साक्षी-स्वरूप चेतना है जो इन सभी क्षणभंगुर अनुभवों और अवस्थाओं को प्रकाशित करती है। यह चेतना स्वयं न तो कामना करती है, न संदेह करती है, न डरती है; वह बस इन सभी का अनुभव करती है।

  • यह श्लोक आत्मा या साक्षी चेतनता के स्वरूप का वर्णन करता है, जो कि अपरिवर्तनशील और स्वयं प्रकाशित है।

५. नोदेति नास्तमेत्येषा न वृद्धिं याति न क्षयम्। स्वयं विभात्यथान्यूनि भासयेत् साधनं विना॥

"साक्षी चेतनता का न ही उदय होता है, और न ही अस्त होता है। इसमें कोई वृद्धि अथवा क्षय नहीं होते हैं। यह स्वयं प्रकाशित होती है, तथा बगैर किसी साधन की अपेक्षा के अन्य समस्त को प्रकाशित करती है।"

आइए इसे और विस्तार से समझते हैं:

  • "साक्षी चेतनता का न ही उदय होता है, और न ही अस्त होता है।"

    • 'उदय' का अर्थ है जन्म लेना या प्रकट होना, और 'अस्त' का अर्थ है समाप्त होना या मर जाना।

    • यह पंक्ति बताती है कि साक्षी चेतनता - जिसे आत्मा या ब्रह्म भी कहते हैं - का न तो कभी जन्म होता है और न ही कभी मृत्यु होती है। यह अनादि और अनंत है। यह हमेशा से है और हमेशा रहेगी।

  • "इसमें कोई वृद्धि अथवा क्षय नहीं होते हैं।"

    • इसका मतलब है कि साक्षी चेतनता में न तो कोई बढ़ोतरी होती है और न ही कोई कमी आती है। यह हमेशा एक समान रहती है, अपरिवर्तनशील।

    • जैसे शरीर जन्म लेता है, बढ़ता है, बूढ़ा होता है और मर जाता है; मन में विचार आते-जाते हैं; इंद्रियां कमजोर होती हैं। लेकिन साक्षी चेतनता इन सब परिवर्तनों से परे है।

  • "यह स्वयं प्रकाशित होती है..."

    • यह बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है। साक्षी चेतनता स्वयं प्रकाशित है। इसे प्रकाशित करने के लिए किसी और चीज़ की आवश्यकता नहीं होती।

    • जैसे सूर्य स्वयं प्रकाशित होता है और किसी अन्य प्रकाश स्रोत पर निर्भर नहीं करता। उसी प्रकार, हमारी आत्मा स्वयं अपनी सत्ता से प्रकाशित होती है।

  • "...तथा बगैर किसी साधन की अपेक्षा के अन्य समस्त को प्रकाशित करती है।"

    • इसका अर्थ है कि यह साक्षी चेतनता बिना किसी बाहरी साधन की सहायता के अन्य सभी चीजों को प्रकाशित करती है

    • 'अन्य समस्त' में शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि और बाहरी जगत की सभी वस्तुएं शामिल हैं। यह चेतनता ही है जिसके कारण हम देख पाते हैं, सुन पाते हैं, सोच पाते हैं और पूरे संसार का अनुभव कर पाते हैं।

    • जैसे बिजली के कारण बल्ब जलता है, उसी प्रकार चेतनता के कारण यह पूरा अनुभव संसार 'प्रकाशित' होता है।

यह श्लोक आत्मा (साक्षी चेतनता) के परम और नित्य स्वरूप का वर्णन करता है। यह उस परम सत्ता को दर्शाता है जो:

  • अजन्मा और अमर है।

  • अपरिवर्तनशील है (न घटती है न बढ़ती है)।

  • स्वयं प्रकाशित है।

  • सभी चीजों की ज्ञाता और प्रकाशक है, लेकिन स्वयं किसी पर निर्भर नहीं करती।

यह 'दृग् दृष्य विवेक' का अंतिम चरण है, जहाँ यह स्थापित किया जाता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप वह साक्षी चेतनता ही है, जो 'दृश्य' (देखी जाने वाली) नहीं है, बल्कि स्वयं 'दृष्टा' (देखने वाली) है और अपने ही प्रकाश से सब कुछ प्रकाशित करती है। इसी की पहचान करना ही अद्वैत वेदांत का परम लक्ष्य है।

  • अगला श्लोक बताता है कि कैसे बुद्धि में चेतना का प्रतिबिंब पड़ने पर वह सक्रिय होती है और फिर दो मुख्य वृत्तियों (अवस्थाओं या कार्यों) के रूप में कार्य करती है।

६. चिच्छायावेशतो बुद्धौ भां धीस्तु द्विधा स्थिता। एकाहंकृतिरन्यस्यात् अन्तःकरणरूपिणी॥

"बुद्धि में चेतनता का प्रतिबिम्ब पड़ते ही जड़ बुद्धि स्फूर्ति से युक्त हो जाती है। तथा इसमें जानने का सामर्थ्य जग जाता है। तत्पश्चात यह बुद्धि दो प्रकार की विशिष्ट वृत्तियों से युक्त दिखने लगती है। प्रथम अहंकार और दूसरी अन्तःकरण वृत्ति।"

  • "बुद्धि में चेतनता का प्रतिबिम्ब पड़ते ही जड़ बुद्धि स्फूर्ति से युक्त हो जाती है। तथा इसमें जानने का सामर्थ्य जग जाता है।"

    • अद्वैत वेदांत के अनुसार, बुद्धि स्वयं जड़ है, यानी उसमें स्वतः चेतना या ज्ञान नहीं होता।

    • लेकिन जब इसमें चेतनता , जो कि आत्मा या ब्रह्म का स्वरूप है, का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तो यह जड़ बुद्धि स्फूर्ति से युक्त हो जाती है।

    • इस 'स्फूर्ति' के कारण ही बुद्धि में जानने का सामर्थ्य जागृत होता है। जैसे, एक दर्पण में सूर्य का प्रकाश पड़ने पर ही वह चमकता है और प्रतिबिम्ब दिखाता है, वैसे ही बुद्धि में चेतनता के प्रतिबिम्ब से ही उसमें ज्ञान की शक्ति आती है।

  • "तत्पश्चात यह बुद्धि दो प्रकार की विशिष्ट वृत्तियों से युक्त दिखने लगती है।"

    • जब बुद्धि चेतनता के प्रकाश से स्फूर्त हो जाती है, तब वह मुख्यतः दो विशिष्ट प्रकार की वृत्तियों के रूप में प्रकट होती है या कार्य करती है।

  • "प्रथम अहंकार और दूसरी अन्तःकरण वृत्ति।"

    • ये दो मुख्य वृत्तियाँ हैं जो बुद्धि में चेतनता के प्रतिबिम्ब के कारण उत्पन्न होती हैं:

      • अहंकार : यह वह वृत्ति है जो 'मैं हूँ', 'मैं करता हूँ', 'मैं जानता हूँ' का भाव पैदा करती है। यह व्यक्तित्व का केंद्र है और स्वयं को शरीर, मन या इंद्रियों से जोड़कर देखती है।

      • अन्तःकरण वृत्ति : 'अन्तःकरण' मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का सामूहिक नाम है। यहाँ 'अन्तःकरण वृत्ति' का अर्थ मन की वह अवस्था है जो विभिन्न विषयों को जानने या समझने के लिए बाहर की ओर जाती है। यह बुद्धि का वह पहलू है जो निर्णय लेने, विचार करने और बाहरी जगत के साथ बातचीत करने में शामिल होता है।

यह श्लोक समझाता है कि चेतना ही सभी ज्ञान और अनुभवों का मूल स्रोत है। यह जड़ बुद्धि को प्रकाशित करके उसे कार्य करने योग्य बनाती है। इस प्रकाशन के बाद ही बुद्धि दो प्राथमिक रूपों में स्वयं को प्रकट करती है: अहंकार (व्यक्तिगत 'मैं' का बोध) और अन्तःकरण की ज्ञान-प्राप्त करने वाली वृत्तियाँ (जो बाहरी दुनिया के अनुभवों को संसाधित करती हैं)।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि हमारी व्यक्तिगत पहचान (अहंकार) और जानने-समझने की हमारी क्षमता (अन्तःकरण) दोनों ही शुद्ध चेतना के प्रतिबिम्ब से उत्पन्न होती हैं, न कि स्वयं जड़ बुद्धि में निहित हैं। यह अद्वैत वेदांत का महत्वपूर्ण कदम है जो हमें यह समझने में मदद करता है कि हम इन मन की वृत्तियों के भी साक्षी हैं, और इनसे परे हैं।

आत्मा का प्रतिबिम्ब और शरीर की चेतनता 

७. छायाहंकारयोरैक्यं तप्तायः पिण्डवन्मतम् । तदहंकारतादात्म्यात् देहश्चेतनतामगात् ॥

प्रतिबिम्बित चेतनता और अहंकार का सम्बन्ध तपे हुए लोहे के गोले और अग्नि के समान होता है। अहंकार जब देह से तादात्म्य करता है, तब देह भी चेतनवान् हो जाता है।

यह श्लोक वेदांत दर्शन के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत को समझाता है कि किस प्रकार आत्मा (शुद्ध चेतनता), जो कि स्वयं निष्क्रिय है, शरीर को चेतनवान प्रतीत कराती है। इसे समझाने के लिए एक उपमा का प्रयोग किया गया है:

प्रतिबिम्बित चेतनता और अहंकार का संबंध (तप्त लोहे और अग्नि की उपमा)

श्लोक के पहले भाग में कहा गया है: "प्रतिबिम्बित चेतनता और अहंकार का सम्बन्ध तपे हुए लोहे के गोले और अग्नि के समान होता है।"

  • प्रतिबिम्बित चेतनता (आभास चैतन्य): हमारा मन और बुद्धि, जो कि जड़ हैं, आत्मा की उपस्थिति के कारण ही चेतन प्रतीत होते हैं। आत्मा स्वयं शुद्ध और अचल चेतनता है। जब यह आत्मा मन-बुद्धि (जिन्हें यहाँ 'अहंकार' शब्द से दर्शाया गया है) में प्रतिबिंबित होती है, तो यह प्रतिबिम्ब ही 'प्रतिबिम्बित चेतनता' कहलाता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे अग्नि स्वयं प्रकाशमान और उष्ण होती है।

  • अहंकार: अहंकार का अर्थ यहाँ केवल 'अहं' भाव (मैं-पन) नहीं है, बल्कि यह अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का समूह) का प्रतिनिधित्व करता है, जो कि जड़ प्रकृति का हिस्सा है। यह ठीक वैसे ही है जैसे लोहे का गोला स्वयं तो ठंडा और जड़ होता है।

  • संबंध: जैसे अग्नि के संपर्क में आने से लोहे का गोला तपने लगता है और स्वयं अग्नि की तरह लाल और उष्ण प्रतीत होता है, उसी प्रकार आत्मा की चेतनता के प्रतिबिम्ब से अहंकार चेतनवान और क्रियाशील प्रतीत होता है। लोहा वास्तव में अग्नि नहीं है, लेकिन वह अग्नि के गुणों को ग्रहण कर लेता है। इसी तरह, अहंकार स्वयं चेतन नहीं है, लेकिन आत्मा के प्रकाश से वह चेतन जैसा व्यवहार करने लगता है।

अहंकार और देह का तादात्म्य

श्लोक का दूसरा भाग कहता है: "अहंकार जब देह से तादात्म्य करता है, तब देह भी चेतनवान् हो जाता है।"

  • तादात्म्य: 'तादात्म्य' का अर्थ है एकात्मता स्थापित करना या स्वयं को अभिन्न समझना

  • अहंकार का देह से तादात्म्य: जब यह प्रतिबिम्बित चेतनता से युक्त अहंकार (या अन्तःकरण) शरीर (देह) के साथ जुड़ जाता है और स्वयं को शरीर ही मानने लगता है ("मैं यह शरीर हूँ"), तब यह जड़ शरीर भी चेतन और जीवंत प्रतीत होने लगता है।

  • देह का चेतनवान होना: जैसे तपा हुआ लोहे का गोला (जो अहंकार के समान है) जब किसी चीज से टकराता है, तो हमें लगता है कि लोहा मार रहा है, जबकि वास्तव में यह अग्नि की शक्ति है जो लोहे के माध्यम से कार्य कर रही है। उसी प्रकार, जब अहंकार शरीर से जुड़ जाता है, तो शरीर में चेतनता और क्रियाशीलता दिखाई देती है, जैसे कि चलना, बोलना, सोचना आदि। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि शरीर को स्वयं को चेतन मानने वाला अहंकार, आत्मा के प्रकाश से प्रकाशित होता है।

इस प्रकार, यह श्लोक यह समझाता है कि हमारी अनुभव की गई चेतनता वास्तव में आत्मा की शुद्ध चेतनता का मन-बुद्धि में प्रतिबिम्ब है, और जब यह मन-बुद्धि शरीर से जुड़ जाती है, तो शरीर भी चेतन और क्रियाशील प्रतीत होता है। यह आत्म-अनात्म विवेक (आत्मा को शरीर, मन, बुद्धि से अलग समझना) के लिए एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करता है।

८. अहंकारस्य तादात्म्य चिच्छायादेहसाक्षिभिः। सहजं कर्मजं भ्रान्ति जन्यं च त्रिविधं क्रमात्॥

अहंकार का चिदाभास, देह और साक्षी चैतन्य के साथ तादात्म्य क्रमशः सहज, कर्मज और भ्रान्तिजन्य होता है।

यह श्लोक वेदांत दर्शन के परिप्रेक्ष्य में अहंकार के विभिन्न प्रकार के तादात्म्यों (पहचान या एकात्मता) और उनके कारणों की व्याख्या करता है। 'अहंकार' यहाँ 'मैं हूँ' के भाव को उत्पन्न करने वाली चित्तवृत्ति (मन की एक अवस्था) को संदर्भित करता है। 'तादात्म्य' का अर्थ है किसी चीज़ के साथ खुद को एक मानना या अभिन्न समझना।

यह श्लोक बताता है कि अहंकार का तीन अलग-अलग तत्वों के साथ तादात्म्य होता है, और इन तादात्म्यों के भी तीन अलग-अलग कारण होते हैं:

1. चिदाभास के साथ सहज तादात्म्य       

  • चिदाभास: यह शुद्ध चैतन्य (आत्मा) का वह प्रतिबिम्ब है जो अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में पड़ता है। शुद्ध आत्मा स्वयं तो निष्क्रिय और निर्विकार है, लेकिन जब उसका प्रकाश अंतःकरण पर पड़ता है, तो अंतःकरण चेतन प्रतीत होता है। यह प्रतिबिंबित चैतन्य ही चिदाभास कहलाता है।

  • सहज तादात्म्य: अहंकार का चिदाभास के साथ तादात्म्य सहज (स्वाभाविक) होता है। इसका अर्थ है कि यह पहचान किसी बाहरी कारण या प्रयास से नहीं होती, बल्कि यह अहंकार की प्रकृति में ही निहित है कि वह चैतन्य के प्रकाश को ग्रहण करे और स्वयं को चेतन समझे। यह ठीक वैसे ही है जैसे किसी स्वच्छ दर्पण का प्रकाश को प्रतिबिंबित करना स्वाभाविक होता है। इस तादात्म्य के कारण ही अहंकार 'मैं चेतन हूँ', 'मैं देखता हूँ', 'मैं सोचता हूँ' जैसे भाव उत्पन्न करता है।

2. देह (शरीर) के साथ कर्मज तादात्म्य

  • देह: यहाँ देह का अर्थ है भौतिक शरीर (स्थूल शरीर), सूक्ष्म शरीर (प्राण, मन, बुद्धि) और कारण शरीर (अज्ञान)। ये सभी जड़ प्रकृति के बने हैं।

  • कर्मज तादात्म्य: अहंकार का देह के साथ तादात्म्य कर्मज (कर्मों के कारण) होता है। पूर्व जन्मों के संचित कर्मों (संस्कारों) के कारण आत्मा विभिन्न शरीरों को धारण करती है। जब आत्मा (चिदाभास से युक्त अहंकार के माध्यम से) किसी शरीर को धारण करती है, तो अहंकार उस शरीर के साथ अपनी पहचान स्थापित कर लेता है। यह पहचान 'मैं मनुष्य हूँ', 'मैं लंबा हूँ', 'मैं मोटा हूँ' आदि के रूप में प्रकट होती है। यह तादात्म्य हमारे पिछले कर्मों और उनसे उत्पन्न होने वाले अनुभवों के कारण बनता है।

3. साक्षी चैतन्य के साथ भ्रान्तिजन्य तादात्म्य

  • साक्षी चैतन्य: यह शुद्ध, अपरिवर्तनीय आत्मा है, जो सभी अनुभवों, विचारों और शरीर की गतिविधियों की साक्षी है। यह स्वयं किसी भी चीज़ से लिप्त नहीं होती, बस देखती रहती है।

  • भ्रान्तिजन्य तादात्म्य: अहंकार का साक्षी चैतन्य के साथ तादात्म्य भ्रान्तिजन्य (भ्रम के कारण उत्पन्न) होता है। अज्ञान या अविद्या के कारण, अहंकार अपनी वास्तविक प्रकृति (जो कि चिदाभास, मन और शरीर से भिन्न है) को भूल जाता है और स्वयं को शुद्ध साक्षी चैतन्य ही मान बैठता है। यह एक प्रकार का भ्रम है, क्योंकि अहंकार स्वयं जड़ है और साक्षी चैतन्य तो निर्विकार आत्मा है। इस भ्रम के कारण ही जीवात्मा स्वयं को 'मैं आत्मा हूँ' या 'मैं ब्रह्म हूँ' समझ बैठती है, जबकि वह अभी भी अहंकार और उसके गुणों से बंधी हुई है। यह तादात्म्य आत्मज्ञान की कमी और वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से उत्पन्न होता है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि अहंकार, जो 'मैं' के भाव का मूल है, तीन स्तरों पर पहचान स्थापित करता है:

  1. चिदाभास से सहज पहचान: चेतनता के प्रतिबिम्ब के कारण 'मैं चेतन हूँ' का भाव।

  2. देह से कर्मजन्य पहचान: पूर्व कर्मों के कारण शरीर को 'मैं' मानना।

  3. साक्षी चैतन्य से भ्रमजन्य पहचान: अज्ञानवश स्वयं को शुद्ध आत्मा मान लेना।

यह विवेचन आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण है, जहाँ साधक को इन भ्रमों और पहचानों को समझना और उनसे ऊपर उठना होता है ताकि वह अपने वास्तविक, शुद्ध आत्म-स्वरूप को जान सके।

यह श्लोक अहंकार के विभिन्न प्रकार के तादात्म्यों (पहचानों) से निवृत्ति (छुटकारा पाने) के तरीकों पर प्रकाश डालता है।

९. सम्बन्धिनोः सतोर्नास्ति निवृत्तिः सहजस्य तु। कर्मक्षयात् प्रबोधाच्च निवर्तेते क्रमादुभे॥

अहंकार का चित्प्रतिबिम्ब के साथ के सहज तादात्म्य है, उसकी निवृत्ति नहीं होती है। किन्तु शेष दो प्रकार के तादात्म्यों की निवृत्ति क्रमशः कर्मक्षय और तत्त्वज्ञान से होती है।

यह श्लोक पिछले श्लोक (जिसमें अहंकार के तीन तादात्म्यों - चिदाभास, देह और साक्षी चैतन्य के साथ - का वर्णन था) की निरंतरता में है। यह बताता है कि इन तीन तादात्म्यों में से केवल एक की निवृत्ति (समाप्ति) नहीं होती है, जबकि अन्य दो की निवृत्ति संभव है और उसके उपाय भी बताए गए हैं।

आइए, इसे एक-एक करके समझते हैं:

1. चिदाभास (चित्प्रतिबिम्ब) के साथ सहज तादात्म्य की निवृत्ति नहीं

श्लोक का पहला भाग कहता है: "अहंकार का चित्प्रतिबिम्ब के साथ के सहज तादात्म्य है, उसकी निवृत्ति नहीं होती है।"

  • चिदाभास (चित्प्रतिबिम्ब): यह शुद्ध चैतन्य (आत्मा) का वह प्रतिबिंब है जो अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार) में पड़ता है। अहंकार (या अंतःकरण) स्वयं जड़ है, लेकिन आत्मा के प्रकाश के कारण वह चेतन प्रतीत होता है।

  • सहज तादात्म्य: यह तादात्म्य स्वाभाविक या सहज है। यह अहंकार का मूल स्वभाव है कि वह चैतन्य के प्रकाश को ग्रहण करे और उस प्रकाश में स्वयं को चेतन समझे।

  • निवृत्ति क्यों नहीं होती?: चूंकि यह संबंध अहंकार की प्रकृति का ही एक अभिन्न अंग है, इसलिए इस तादात्म्य से पूरी तरह निवृत्ति संभव नहीं है जब तक अहंकार स्वयं मौजूद है। जब तक अंतःकरण (और अहंकार) है, उसमें चैतन्य का प्रतिबिंब पड़ेगा ही। यह ठीक वैसे ही है जैसे दर्पण का स्वाभाविक गुण है कि वह प्रकाश को प्रतिबिंबित करता है; आप दर्पण के इस गुण को तब तक समाप्त नहीं कर सकते जब तक दर्पण है।

2. शेष दो प्रकार के तादात्म्यों की निवृत्ति और उनके उपाय

श्लोक का दूसरा भाग कहता है: "किन्तु शेष दो प्रकार के तादात्म्यों की निवृत्ति क्रमशः कर्मक्षय और तत्त्वज्ञान से होती है।"

शेष दो तादात्म्य वे हैं जिनका उल्लेख पिछले श्लोक में किया गया था:

  1. देह (शरीर) के साथ कर्मज तादात्म्य

  2. साक्षी चैतन्य के साथ भ्रान्तिजन्य तादात्म्य

इन दोनों की निवृत्ति संभव है और उनके कारण भी बताए गए हैं:

अ. देह के साथ कर्मज तादात्म्य की निवृत्ति: कर्मक्षय से

  • देह के साथ कर्मज तादात्म्य: यह पहचान शरीर को 'मैं' मानने से उत्पन्न होती है, और यह हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों (संस्कारों) के कारण होती है। हमारे कर्म ही हमें विभिन्न प्रकार के शरीरों को धारण कराते हैं।

  • कर्मक्षय: 'कर्मक्षय' का अर्थ है कर्मों का क्षय होना या उनका फल समाप्त हो जाना। जब साधक निरंतर आध्यात्मिक अभ्यास (जैसे ध्यान, उपासना) और ज्ञान प्राप्ति के माध्यम से अपने संचित और क्रियमाण कर्मों के प्रभाव को समाप्त कर देता है, तो शरीर के साथ उसका कर्म-जनित तादात्म्य समाप्त हो जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि शरीर तुरंत नष्ट हो जाता है, बल्कि साधक शरीर में होते हुए भी स्वयं को शरीर से भिन्न अनुभव करता है, क्योंकि शरीर से उसकी कर्म-जनित आसक्ति समाप्त हो गई है। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है।

ब. साक्षी चैतन्य के साथ भ्रान्तिजन्य तादात्म्य की निवृत्ति: प्रबोध (तत्त्वज्ञान) से

  • साक्षी चैतन्य के साथ भ्रान्तिजन्य तादात्म्य: यह तादात्म्य अज्ञान या भ्रम के कारण होता है, जहाँ अहंकार स्वयं को शुद्ध, निर्विकार साक्षी चैतन्य मान बैठता है, जबकि वह स्वयं जड़ है।

  • प्रबोध (तत्त्वज्ञान): 'प्रबोध' का अर्थ है ज्ञान की प्राप्ति या तत्त्वज्ञान (ब्रह्मज्ञान)। जब साधक को यह बोध हो जाता है कि वह न तो शरीर है, न मन है, और न ही अहंकार है, बल्कि वह शुद्ध, साक्षी, असंग आत्मा है, तब यह भ्रम समाप्त हो जाता है। आत्मा और अनात्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होने पर अहंकार द्वारा साक्षी चैतन्य के साथ स्थापित यह मिथ्या पहचान नष्ट हो जाती है। यह बोध ही अंतिम मुक्ति का मार्ग है।

सारांश में:

  • अहंकार का चैतन्य के प्रतिबिम्ब से जो सहज संबंध है, वह अविनाशी है क्योंकि यह उसकी प्रकृति का हिस्सा है।

  • शरीर के साथ जो कर्म-जनित पहचान है, वह कर्मों के क्षय से समाप्त होती है।

  • शुद्ध आत्मा के साथ जो भ्रम-जनित पहचान है, वह तत्त्वज्ञान (ब्रह्मज्ञान) से समाप्त होती है।

अहंकार और अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति)

१०. अहंकारलये सुप्तौ भवेद् देहोप्यचेतनः। अहंकारविकासाथर्: स्वप्नः सर्वस्तु जागरः॥

अहंकार जब पूर्ण लय को प्राप्त होता है, उस समय देह की अचेतनता से लक्षित सुषुप्ति अवस्था प्राप्त होती है। अहंकार के अर्धविकास में स्वप्नावस्था तथा अहंकार के पूर्णविकास से जाग्रत अवस्था प्राप्त होती है।

यह श्लोक वेदांत दर्शन के अनुसार मनुष्य की तीन प्रमुख अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत), स्वप्न और सुषुप्ति (गहरी नींद) - को अहंकार के विकास या लय के साथ जोड़कर समझाता है। यहाँ 'अहंकार' का अर्थ केवल 'मैं-पन' का भाव नहीं, बल्कि व्यापक रूप से अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का समुच्चय) की क्रियाशीलता या निष्क्रियता से है।

1. सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद) 😴

श्लोक: "अहंकारलये सुप्तौ भवेद् देहोप्यचेतनः।" अनुवाद: "अहंकार जब पूर्ण लय को प्राप्त होता है, उस समय देह की अचेतनता से लक्षित सुषुप्ति अवस्था प्राप्त होती है।"

  • अहंकार का पूर्ण लय: सुषुप्ति अवस्था में, अहंकार (और उसके साथ मन और बुद्धि) पूरी तरह से अपने कारण रूप में विलीन हो जाते हैं। वे सक्रिय नहीं रहते, बल्कि एक अव्यक्त या निष्क्रिय अवस्था में चले जाते हैं। इसे 'लय' कहा जाता है, जिसका अर्थ है अपनी मूल कारण अवस्था में समाहित हो जाना।

  • देह की अचेतनता: जब अहंकार और मन निष्क्रिय हो जाते हैं, तो शरीर भी अचेतन हो जाता है। हमें गहरी नींद में अपने शरीर या आसपास की दुनिया का कोई बोध नहीं रहता। उस समय कोई इच्छा, विचार या अनुभव नहीं होता।

  • परिणाम: यह अवस्था सुषुप्ति कहलाती है, जो अज्ञान और आनंद की अवस्था मानी जाती है, क्योंकि इस दौरान दुःख या क्लेश का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में व्यक्ति को 'मैं कौन हूँ' या 'यह संसार क्या है' का कोई भी अहसास नहीं होता।

2. स्वप्न अवस्था 💭

श्लोक: "अहंकारविकासाथर्: स्वप्नः" अनुवाद: "अहंकार के अर्धविकास में स्वप्नावस्था..."

  • अहंकार का अर्धविकास: स्वप्न अवस्था में, अहंकार आंशिक रूप से सक्रिय होता है। यह पूरी तरह से लय नहीं हुआ होता और न ही पूरी तरह से विकसित होता है। यह एक मध्यवर्ती अवस्था है जहाँ मन और इंद्रियाँ बाहरी विषयों से कटे हुए होते हैं, लेकिन आंतरिक रूप से अहंकार और मन क्रियाशील रहते हैं।

  • परिणाम: इस अवस्था में मन अपनी पूर्व धारणाओं, अनुभवों और इच्छाओं के आधार पर स्वयं ही एक आंतरिक दुनिया का निर्माण करता है, जिसे हम स्वप्न कहते हैं। ये स्वप्न वास्तविक प्रतीत होते हैं, लेकिन उनका कोई बाहरी अस्तित्व नहीं होता। अहंकार, आंशिक रूप से सक्रिय होने के कारण, उन स्वप्न अनुभवों में स्वयं को 'कर्ता' और 'भोक्ता' के रूप में अनुभव करता है।

3. जाग्रत अवस्था ☀️

श्लोक: "सर्वस्तु जागरः॥" अनुवाद: "...तथा अहंकार के पूर्णविकास से जाग्रत अवस्था प्राप्त होती है।"

  • अहंकार का पूर्णविकास: जाग्रत अवस्था में, अहंकार (मन और बुद्धि सहित) पूरी तरह से विकसित और सक्रिय होता है। इंद्रियाँ बाहरी विषयों के संपर्क में होती हैं और मन बाहरी दुनिया का ज्ञान ग्रहण करता है।

  • परिणाम: इस अवस्था में व्यक्ति को बाहरी संसार का स्पष्ट बोध होता है। वह स्वयं को शरीर और मन के साथ पहचानता है, और बाहरी वस्तुओं को वास्तविक मानता है। वह अपने आपको 'कर्ता' (कार्य करने वाला) और 'भोक्ता' (अनुभव करने वाला) समझता है। यह वह अवस्था है जिसमें हम सामान्यतः दिन-प्रतिदिन के जीवन में रहते हैं।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि मानव चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ अहंकार की सक्रियता के स्तर पर निर्भर करती हैं:

  • सुषुप्ति: अहंकार का पूर्ण लय (निष्क्रियता)।

  • स्वप्न: अहंकार का अर्ध-विकास (आंशिक सक्रियता)।

  • जाग्रत: अहंकार का पूर्ण विकास (पूर्ण सक्रियता)।

यह विभाजन वेदांत दर्शन में जीव के अनुभवों और उसके वास्तविक स्वरूप (जो इन तीनों अवस्थाओं से परे है) को समझने में मदद करता है। आत्मा इन तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, लेकिन स्वयं इनमें से किसी से भी प्रभावित नहीं होती।

११. अन्तःकरणवृत्तिश्च चितिच्छायैक्यमागताः। वासनाः कल्पयेत् स्वप्ने बोधेऽद्वैर्विषयानबाहिः॥

बुद्धि की अन्तःकरण वृत्ति भी प्रतिबिम्बित चेतनता के साथ तादात्म्य कर जीवन्त हो जाती है। वासना के अनुरूप स्वप्न जगत् का सृजन करती है। जाग्रत् में भी इसी वृत्ति के द्वारा बाह्य विषयों की कल्पना होती है।

यह श्लोक वेदांत दर्शन के अनुसार अंतःकरण वृत्ति (मन की वृत्तियाँ या विचार) की कार्यप्रणाली को समझाता है, विशेष रूप से यह कैसे चेतनता (आत्मा के प्रतिबिम्ब) से जुड़कर जीवंत होती है और फिर स्वप्न तथा जाग्रत अवस्था में संसार का निर्माण करती है।

1. अंतःकरण वृत्ति का जीवंत होना

श्लोक का पहला भाग: "अन्तःकरणवृत्तिश्च चितिच्छायैक्यमागताः।" अनुवाद: "बुद्धि की अन्तःकरण वृत्ति भी प्रतिबिम्बित चेतनता के साथ तादात्म्य कर जीवन्त हो जाती है।"

  • अन्तःकरण वृत्ति: 'अन्तःकरण' का अर्थ मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का समूह है। 'वृत्ति' का अर्थ है मन की अवस्था या विचार। ये वृत्तियाँ स्वयं जड़ (निर्जीव) होती हैं।

  • प्रतिबिम्बित चेतनता (चितिच्छाया): यह शुद्ध आत्मा का वह प्रतिबिम्ब है जो अंतःकरण में पड़ता है। आत्मा स्वयं चेतन है, और उसका यह प्रतिबिम्ब ही अंतःकरण को चेतनता प्रदान करता है।

  • तादात्म्य कर जीवंत होना: जैसे एक दर्पण (अंतःकरण वृत्ति) सूर्य के प्रकाश (प्रतिबिम्बित चेतनता) को प्रतिबिंबित करके चमक उठता है, उसी प्रकार आत्मा की चेतनता के प्रतिबिम्ब से जुड़कर अंतःकरण की वृत्तियाँ जीवंत और कार्यशील हो जाती हैं। वे सोचने, जानने, अनुभव करने और कल्पना करने में सक्षम होती हैं। स्वयं में जड़ होने के बावजूद, वे चेतन प्रतीत होती हैं।

2. वासना के अनुरूप स्वप्न जगत् का सृजन

श्लोक का मध्य भाग: "वासनाः कल्पयेत् स्वप्ने" अनुवाद: "वासना के अनुरूप स्वप्न जगत् का सृजन करती है।"

  • वासना: 'वासना' का अर्थ है पूर्व जन्मों के या इस जन्म के अनुभवों और कर्मों से उत्पन्न सूक्ष्म संस्कार या छापें, जो मन में निहित रहती हैं। ये अव्यक्त इच्छाएँ, प्रवृत्तियाँ और स्मृतियाँ होती हैं।

  • स्वप्न जगत् का सृजन: जब व्यक्ति गहरी नींद से स्वप्न अवस्था में आता है, तब इंद्रियाँ बाहरी विषयों से विमुख हो जाती हैं। ऐसे में, अंतःकरण वृत्ति (जो अब चेतनता के प्रतिबिम्ब से जीवंत है) इन वासनाओं के आधार पर एक आंतरिक दुनिया की कल्पना करती है। ये कल्पनाएँ इतनी प्रबल होती हैं कि स्वप्न में हमें सब कुछ वास्तविक प्रतीत होता है - हम घटनाओं को देखते हैं, लोगों से मिलते हैं, भावनाओं का अनुभव करते हैं। यह सब हमारी अपनी वासनाओं का ही प्रक्षेपण होता है।

3. जाग्रत में बाह्य विषयों की कल्पना (वास्तविकता का बोध)

श्लोक का अंतिम भाग: "बोधेऽद्वैर्विषयानबाहिः॥" अनुवाद: "जाग्रत् में भी इसी वृत्ति के द्वारा बाह्य विषयों की कल्पना होती है।"

  • बोधे: यहाँ 'बोधे' का अर्थ जाग्रत अवस्था है (जब हम जागे हुए होते हैं)।

  • बाह्य विषयों की कल्पना: जाग्रत अवस्था में भी, अंतःकरण वृत्ति, चेतनता के प्रतिबिम्ब से जीवंत होकर, बाहरी विषयों (संसार की वस्तुओं और घटनाओं) को ग्रहण करती है और उनकी कल्पना या अनुभव करती है। हमारी आँखें, कान आदि इंद्रियाँ बाहरी वस्तुओं को देखती और सुनती हैं, लेकिन इन इंद्रियों से प्राप्त जानकारी को अर्थ और पहचान देने का कार्य अंतःकरण वृत्ति ही करती है। हम जो कुछ भी 'वास्तविक' के रूप में देखते या अनुभव करते हैं, वह भी अंतःकरण वृत्ति द्वारा निर्मित एक प्रकार की 'कल्पना' ही है, जो बाहरी उत्तेजनाओं के जवाब में होती है। यह 'कल्पना' स्वप्न की कल्पना से भिन्न है क्योंकि यहाँ बाहरी विषय मौजूद होते हैं।

निष्कर्ष: यह श्लोक यह बताता है कि हमारा मन (अंतःकरण वृत्ति) स्वयं जड़ होते हुए भी आत्मा के प्रकाश से चेतन होकर कार्य करता है। यह चेतन मन ही हमारी वासनाओं के आधार पर स्वप्न की दुनिया का निर्माण करता है। और जाग्रत अवस्था में भी, यह मन ही बाहरी इंद्रियों से प्राप्त जानकारी को संसाधित करके 'बाहरी दुनिया' का बोध कराता है। इस प्रकार, यह श्लोक यह संकेत देता है कि हम जिस दुनिया का अनुभव करते हैं (चाहे वह स्वप्न में हो या जाग्रत में), वह हमारे अपने अंतःकरण और वासनाओं से बहुत गहराई से जुड़ी हुई है।

अहंकार के तादात्म्य के प्रकार और उनकी निवृत्ति

१२. मनोऽहंकृत्युपादानं लिंगमेकं जडात्मकम्। अवस्थात्रयमन्वेति जायते म्रियते तथा।।

हिंदी अनुवाद: अन्तःकरण वृत्ति-मन तथा अहंकारवृत्ति का उपादान एक ही जड़ लिंगशरीर है। इस लिंग अथवा सूक्ष्म शरीर के आवागमन के कारण ही तीन अवस्थाओं की एवं जन्म-मरण की प्राप्ति होती है।

यह श्लोक वेदांत दर्शन के एक मूलभूत सिद्धांत को स्पष्ट करता है कि मन, बुद्धि और अहंकार जैसे सूक्ष्म तत्वों का मूल क्या है, और कैसे यह सूक्ष्म शरीर ही हमारी विभिन्न अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) और जन्म-मृत्यु के चक्र का कारण बनता है।

1. अन्तःकरण (मन, अहंकार) का उपादान: जड़ लिंगशरीर

श्लोक का पहला भाग: "मनोऽहंकृत्युपादानं लिंगमेकं जडात्मकम्।" अनुवाद: "अन्तःकरण वृत्ति-मन तथा अहंकारवृत्ति का उपादान एक ही जड़ लिंगशरीर है।"

  • अन्तःकरण वृत्ति-मन तथा अहंकारवृत्ति: ये मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार - इन चारों के समूह को अन्तःकरण कहा जाता है। 'वृत्ति' का अर्थ है इनकी कार्यप्रणाली या अवस्थाएँ।

  • उपादान: 'उपादान' का अर्थ है कारण सामग्री या मूल तत्व। जैसे घड़े का उपादान मिट्टी है, उसी प्रकार यहाँ बताया गया है कि मन और अहंकार का मूल उपादान या कारण लिंगशरीर है।

  • लिंगशरीर (सूक्ष्म शरीर): यह सूक्ष्म शरीर कहलाता है। यह अत्यंत सूक्ष्म तत्वों से बना होता है और इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान आदि), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर आदि), पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), और मन तथा बुद्धि (अहंकार सहित) शामिल होते हैं।

  • जडात्मकम्: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि यह लिंगशरीर जड़ स्वरूप का होता है। अर्थात्, यह स्वयं में चेतन या जीवंत नहीं होता। यह प्रकृति (जड़ शक्ति) से बना है। इसे चेतनता आत्मा से मिलती है, जिसका प्रतिबिंब इस जड़ शरीर पर पड़ता है।

2. लिंगशरीर के आवागमन से अवस्थाएँ और जन्म-मृत्यु

श्लोक का दूसरा भाग: "अवस्थात्रयमन्वेति जायते म्रियते तथा।।" अनुवाद: "इस लिंग अथवा सूक्ष्म शरीर के आवागमन के कारण ही तीन अवस्थाओं की एवं जन्म-मरण की प्राप्ति होती है।"

  • अवस्थात्रयमन्वेति (तीन अवस्थाएँ): पिछले श्लोकों में वर्णित मनुष्य की तीन अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति) इसी लिंगशरीर की विभिन्न क्रियाशीलताओं या निष्क्रियताओं के कारण ही होती हैं।

    • जाग्रत अवस्था: जब लिंगशरीर (मन, बुद्धि, अहंकार) पूर्ण रूप से सक्रिय होता है और इंद्रियों के माध्यम से बाहरी दुनिया से जुड़ा होता है।

    • स्वप्न अवस्था: जब लिंगशरीर आंशिक रूप से सक्रिय होता है और आंतरिक वासनाओं के आधार पर एक स्वप्निल दुनिया का निर्माण करता है।

    • सुषुप्ति अवस्था: जब लिंगशरीर अपने मूल कारण रूप में विलीन हो जाता है और पूरी तरह निष्क्रिय होता है। ये सभी अवस्थाएँ लिंगशरीर के कारण ही अनुभव की जाती हैं; आत्मा स्वयं इन अवस्थाओं से परे है, वह केवल इनका साक्षी है।

  • जायते म्रियते (जन्म-मरण): 'जायते' का अर्थ है जन्म लेना, और 'म्रियते' का अर्थ है मरना। आत्मा तो अमर और अविनाशी है, वह न जन्म लेती है न मरती है। जन्म और मृत्यु का अनुभव लिंगशरीर के आवागमन के कारण होता है। जब एक शरीर नष्ट होता है, तो आत्मा लिंगशरीर के साथ (अपने कर्मों के अनुसार) एक नया शरीर धारण करती है। यह सूक्ष्म शरीर ही एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है, जिसके कारण हम जन्म-मृत्यु के चक्र का अनुभव करते हैं।

सारांश में: यह श्लोक वेदांत के अनुसार सूक्ष्म शरीर (लिंगशरीर) के महत्व को बताता है। यह स्पष्ट करता है कि:

  1. मन, बुद्धि और अहंकार जैसे हमारे आंतरिक उपकरण जड़ लिंगशरीर के ही अंग हैं।

  2. यह लिंगशरीर ही हमारी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जैसी अनुभव की विभिन्न अवस्थाओं का कारण है।

  3. आत्मा के अमर होने के बावजूद, जन्म और मृत्यु का अनुभव इसी लिंगशरीर के एक देह से दूसरी देह में संक्रमण के कारण होता है।

यह श्लोक इस बात पर जोर देता है कि मुक्ति (मोक्ष) पाने के लिए इस लिंगशरीर से भी अनासक्ति और अंततः इसके विलय की आवश्यकता है, ताकि आत्मा अपने शुद्ध, अपरिवर्तनीय स्वरूप में स्थित हो सके।

 माया की दो शक्तियाँ: विक्षेप और आवरण 🌌

१३. शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरूपकम्। विक्षेपशक्तिर्लिंगादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत्॥

हिंदी अनुवाद: माया की दो शक्तियाँ है-विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति। विक्षेप शक्ति लिंग शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक का सृजन करती है।

यह श्लोक माया की दो प्रमुख शक्तियों का वर्णन करता है, जो अद्वैत वेदांत में सृष्टि की प्रक्रिया को समझाती हैं:

  1. विक्षेप शक्ति: यह वह शक्ति है जो वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) पर कुछ और आरोपित करती है, जिससे अनेकता या विविधता का आभास होता है। यह सृष्टि का कारण बनती है। श्लोक कहता है कि विक्षेप शक्ति लिंगशरीर (सूक्ष्म शरीर) से लेकर पूरे ब्रह्मांड (ब्रह्माण्डान्तं जगत्) तक का सृजन करती है। यानी, यह सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर और पूरे भौतिक संसार को प्रकट करती है।

  2. आवरण शक्ति: यह वह शक्ति है जो वास्तविक स्वरूप को ढक देती है। यह आत्मा के वास्तविक, निर्विकार स्वरूप को अज्ञान के परदे से ढक देती है, जिससे व्यक्ति स्वयं को शरीर-मन आदि मानने लगता है और ब्रह्म से अपनी एकता को भूल जाता है। इस श्लोक में इसका सीधा उल्लेख नहीं है, लेकिन संदर्भ से यह स्पष्ट है।

इस प्रकार, माया की ये दो शक्तियाँ (विक्षेप और आवरण) मिलकर ही हमें संसार की विविधता का अनुभव कराती हैं और हमें अपने वास्तविक स्वरूप से दूर रखती हैं।

१४. सृष्टिर्नाम ब्रह्मरूपे सच्चिदानन्दवस्तुनि। अब्धौ फेनादिवत् सर्व नामरूपप्रसारणा।।

हिंदी अनुवाद: जैसे एक सागर में अनेक फेन-बुद्बुदें आदि रूप उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक सत् चित् आनन्द स्वरूप ब्रह्म में अनेक नाम और रूपों के प्रसारण हो जाने को सृष्टि कहते हैं।

स्पष्टीकरण: यह श्लोक सृष्टि की अद्वैतवादी अवधारणा को समझाता है। यह कहता है कि सृष्टि का अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्म से कुछ नया और अलग उत्पन्न होता है, बल्कि यह ब्रह्म के भीतर ही नाम और रूपों का विस्तार है।

  • उदाहरण: जिस प्रकार एक ही सागर (अब्धौ) में अनेक फेन (झाग) और बुद्बुदें (बुलबुले) उत्पन्न होते हैं और फिर उसी में विलीन हो जाते हैं, ठीक उसी तरह सत्-चित्-आनंद स्वरूप ब्रह्म (जो स्वयं एक अखंड सत्ता है) में अनेक नाम (पहचानें) और रूप (आकार) प्रकट होते हैं।

  • ब्रह्म की प्रकृति: 'सत्' का अर्थ है अस्तित्व, 'चित्' का अर्थ है चेतना, और 'आनंद' का अर्थ है परमानंद। ब्रह्म इन्हीं गुणों वाला है।

  • सृष्टि का सार: सृष्टि ब्रह्म से भिन्न नहीं है, बल्कि ब्रह्म का ही एक अभिव्यक्ति है, ठीक वैसे ही जैसे झाग और बुलबुले सागर से अलग नहीं होते। यह श्लोक बताता है कि हम जिसे यह विविध संसार देखते हैं, वह वास्तव में ब्रह्म का ही नाम और रूप में प्रकटीकरण है, माया के प्रभाव से।

माया की आवरण शक्ति और संसार का कारण 

१५. अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः। आवूणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम्।।

हिंदी अनुवाद: अंदर द्रष्टा और दृश्य का भेद करके, बाहर ब्रह्म और सर्ग के भेदों को माया की आवरण शक्ति ढक देती है। यह ही संसार का कारण है।

स्पष्टीकरण: यह श्लोक माया की दूसरी शक्ति 'आवरण शक्ति' का वर्णन करता है, जो अज्ञान और संसार के मूल कारण को बताती है।

  1. 'अंदर' द्रष्टा और दृश्य का भेद ढकना (अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं आवूणोत्यपरा शक्तिः):

    • द्रष्टा (दृग्): यहाँ 'द्रष्टा' का अर्थ है शुद्ध आत्मा या साक्षी चैतन्य, जो देखने वाला, जानने वाला है।

    • दृश्य: 'दृश्य' का अर्थ है वह सब कुछ जो देखा जाता है, अनुभव किया जाता है – जैसे शरीर, मन, विचार, भावनाएँ, और सारा संसार।

    • भेद: वास्तव में, शुद्ध आत्मा (द्रष्टा) और शरीर-मन आदि (दृश्य) के बीच एक स्पष्ट भेद है। आत्मा असंग, निर्विकार और साक्षी है, जबकि शरीर-मन परिवर्तनशील और जड़ हैं।

    • ढकना (आवूणोति): माया की आवरण शक्ति इस मूलभूत भेद को ढक देती है। यह हमें यह नहीं जानने देती कि हम (आत्मा) शरीर और मन से अलग हैं। अज्ञान के कारण हम द्रष्टा (आत्मा) को दृश्य (शरीर-मन) के साथ एक मान बैठते हैं ("मैं यह शरीर हूँ", "मैं यह मन हूँ")।

  2. 'बाहर' ब्रह्म और सर्ग के भेदों को ढकना (बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः):

    • ब्रह्म: परम सत्य, जो एक, अद्वितीय और समस्त सृष्टि का आधार है।

    • सर्ग (सृष्टि): ब्रह्म में माया द्वारा प्रकट हुए अनेक नाम-रूप वाले संसार को सर्ग कहते हैं।

    • भेद: अद्वैत वेदांत के अनुसार, वास्तव में ब्रह्म और सृष्टि में कोई सच्चा भेद नहीं है। सृष्टि ब्रह्म से अलग नहीं है, बल्कि ब्रह्म का ही एक आभास या अभिव्यक्ति है (जैसे सागर में तरंगें)।

    • ढकना (आवूणोति): माया की आवरण शक्ति इस अद्वैत सत्य को भी ढक देती है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि ब्रह्म और संसार दो अलग-अलग सत्ताएँ हैं, और संसार एक स्वतंत्र, वास्तविक इकाई है। हम ब्रह्म को अपने वास्तविक स्वरूप के रूप में नहीं देख पाते और संसार की द्वैतता में उलझ जाते हैं।

  3. संसार का कारण (सा संसारस्य कारणम्):

    • श्लोक अंत में कहता है कि यह आवरण शक्ति ही संसार का कारण है

    • यहाँ 'संसार' का अर्थ केवल भौतिक दुनिया नहीं है, बल्कि जन्म-मृत्यु का चक्र, सुख-दुःख का अनुभव, और द्वैत की अनुभूति है।

    • जब तक आवरण शक्ति द्रष्टा-दृश्य और ब्रह्म-सृष्टि के बीच के भेदों को ढके रहती है, तब तक हम अज्ञान में रहते हैं, अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाते, और संसार के बंधन में फंसे रहते हैं। इस अज्ञान और भेद-दृष्टि के कारण ही हम संसार में बार-बार जन्म लेते हैं और कष्ट भोगते हैं।

संक्षेप में: यह श्लोक बताता है कि माया की आवरण शक्ति दो स्तरों पर काम करती है:

  1. व्यक्तिगत स्तर पर (अंदर): यह आत्मा (द्रष्टा) और मन-शरीर (दृश्य) के बीच के भेद को छिपा देती है, जिससे हम स्वयं को शरीर-मन समझने लगते हैं।

  2. समष्टिगत स्तर पर (बाहर): यह ब्रह्म और सृष्टि की एकात्मता को छिपा देती है, जिससे हम संसार को ब्रह्म से भिन्न और वास्तविक मानने लगते हैं।

ये दोनों ही आवरण  हमारे बंधन और संसार के कारण हैं। जब यह आवरण हट जाता है, तो हमें अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मा) का और ब्रह्म से अपनी एकता का बोध होता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

१६. साक्षिणः पुरतो भाति लिङ्गं देहेन संयुतम्। चितिच्छाया समावेशात् जीवः स्याद् व्यावहारिकः।।

साक्षी (शुद्ध चेतना) के सामने लिङ्ग-शरीर (सूक्ष्म-शरीर - मन, बुद्धि, अहंकार और पाँच प्राणों का समूह) देह (स्थूल-शरीर) से संयुक्त होकर प्रकाशित होता है। चिति (चेतनता) की छाया (प्रतिबिम्ब) के समावेश के कारण ही यह (लिङ्ग-शरीर और देह से युक्त) व्यावहारिक 'जीव' कहलाता है।

व्याख्या:

  • साक्षी : यहाँ साक्षी का अर्थ है शुद्ध चेतना, जो दृष्टा है, जो किसी भी चीज़ से अप्रभावित और तटस्थ रहती है। यह हमारी आत्मा का वह स्वरूप है जो सब कुछ देखता है लेकिन स्वयं कुछ नहीं करता।

  • लिङ्गं देहेन संयुतम् : लिङ्ग-शरीर (सूक्ष्म-शरीर) मन, बुद्धि, अहंकार और प्राणों से बना होता है। यह स्थूल-शरीर (जो हमें दिखाई देता है) के साथ मिलकर कार्य करता है।

  • चितिच्छाया समावेशात् : 'चिति' का अर्थ है शुद्ध चेतना। जब इस शुद्ध चेतना की 'छाया' या 'प्रतिबिम्ब' लिङ्ग-शरीर पर पड़ता है, तो लिङ्ग-शरीर में चेतनता का आभास होता है। यह ऐसा ही है जैसे किसी स्वच्छ दर्पण पर सूर्य का प्रकाश पड़ने से दर्पण प्रकाशित प्रतीत होता है, जबकि सूर्य ही प्रकाश का मूल स्रोत है।

  • जीवः स्याद् व्यावहारिकः : इसी चेतना के प्रतिबिम्ब के कारण, लिङ्ग-शरीर और स्थूल-शरीर से युक्त यह इकाई 'जीव' कहलाती है। यह वह 'जीव' है जो संसार में व्यवहार करता है, सुख-दुःख का अनुभव करता है, कर्म करता है और उनके फल भोगता है। यह 'जीव' आत्मा नहीं है, बल्कि आत्मा की चेतना का प्रतिबिम्ब लेकर कार्य करने वाली एक उपाधि है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि वास्तविक आत्मा (साक्षी) शुद्ध चेतना है, लेकिन जब इसकी चेतना का प्रतिबिम्ब सूक्ष्म-शरीर और स्थूल-शरीर पर पड़ता है, तो वह 'जीव' के रूप में प्रकट होता है, जो संसार में व्यवहार करता है। यह जीव आत्मा की चेतनता के कारण ही चेतन प्रतीत होता है, स्वयं चेतन नहीं होता।

१७. अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते। आवृत्तौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽुपयाति तत्॥

यह श्लोक अज्ञान और विवेक की स्थिति में 'जीव' और 'साक्षी' के संबंध को समझाता है।

  • अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते।

    • इसका अर्थ है कि (अज्ञानी मनुष्य द्वारा) इस जीव के 'जीवत्व' (जीव होने के स्वभाव) का आरोप (आरोपण) साक्षी में भी दिखाई देता है।

    • यानी, अज्ञानवश, लोग साक्षी (शुद्ध चेतन) को भी 'जीव' के रूप में ही समझते हैं, उस पर जीव के गुण-धर्मों का आरोप कर देते हैं। वे यह भेद नहीं कर पाते कि साक्षी तो केवल दृष्टा है, जबकि जीव कर्मों का कर्ता और भोक्ता है।

  • आवृत्तौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽुपयाति तत्॥

    • इसका अर्थ है कि जब 'आवरण' (अज्ञान की शक्ति, जो सत्य को ढँक देती है) नष्ट हो जाती है, तब भेद (जीव और साक्षी का स्पष्ट अंतर) प्रकट हो जाता है।

    • और जब यह भेद स्पष्ट हो जाता है, तब वह (जीवत्व का आरोप) उपशांत हो जाता है, यानी समाप्त हो जाता है।

व्याख्या:

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत को बताता है कि कैसे अज्ञान के कारण हम वास्तविक सत्य (साक्षी/ब्रह्म) को नहीं पहचान पाते और उस पर मायाजनित उपाधियों (जैसे जीवत्व) का आरोप कर देते हैं।

  1. जीवत्व का आरोप : 'जीव' वह है जो स्थूल और सूक्ष्म शरीरों से युक्त होकर संसार में कर्म करता है और उनका फल भोगता है। 'साक्षी' वह शुद्ध चेतना है जो इन सब से परे है, केवल दृष्टा है। अज्ञानी मनुष्य विवेक के अभाव में इस 'जीव' के कर्तापन, भोक्तापन आदि धर्मों का आरोप साक्षी पर कर देता है। उसे लगता है कि साक्षी ही कर्म कर रहा है, साक्षी ही सुख-दुःख भोग रहा है, जबकि साक्षी तो केवल प्रकाश की तरह सब कुछ प्रकाशित करता है, स्वयं किसी क्रिया में लिप्त नहीं होता।

  2. आवरण शक्ति का नाश : 'आवरण' अज्ञान की वह शक्ति है जो सत्य को ढँक देती है और उसे अप्रकट रखती है। जब विवेक (ज्ञान) उत्पन्न होता है, तो यह आवरण शक्ति नष्ट हो जाती है। विवेक के उदय होने पर मनुष्य जीव और साक्षी के बीच के वास्तविक भेद को स्पष्ट रूप से देख पाता है। उसे समझ आ जाता है कि साक्षी तो अविनाशी, निर्विकार और निष्क्रिय है, जबकि जीव परिवर्तनशील और क्रियाशील है।

  3. भेद का भासना और आरोप का उपशमन : जैसे ही जीव और साक्षी के बीच का यह स्पष्ट भेद अनुभव होता है, वैसे ही साक्षी पर किया गया जीवत्व का आरोप मिट जाता है। अज्ञानी व्यक्ति पहले साक्षी को ही जीव समझ रहा था, लेकिन ज्ञान होने पर उसे यह भ्रम दूर हो जाता है। यह स्थिति ज्ञानोदय की है जहाँ आत्मा के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि अज्ञान के कारण हम शुद्ध चेतन साक्षी पर जीवत्व का आरोप कर देते हैं। लेकिन जब विवेक (सही ज्ञान) प्राप्त होता है और अज्ञान का आवरण हटता है, तब जीव और साक्षी के बीच का वास्तविक भेद स्पष्ट हो जाता है, और साक्षी पर किया गया जीवत्व का यह आरोप स्वतः समाप्त हो जाता है।

१८. तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति। या शक्तिस्तद्दशाद् ब्रह्म विकृतत्वेन भासते॥

यह श्लोक 'आवरण शक्ति' (अज्ञान की शक्ति) के प्रभाव को और स्पष्ट करता है, खासकर ब्रह्म और सृष्टि के संबंध में।

  • तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति।

    • इसका अर्थ है कि वैसे ही (जैसे जीव और साक्षी के भेद को ढँका था), यह आवरण शक्ति सृष्टि (सर्ग) और ब्रह्म के भेद को भी ढक कर स्थित रहती है।

    • यानी, यह अज्ञान की शक्ति हमें यह नहीं समझने देती कि ब्रह्म और सृष्टि (जो हमें दिखाई देती है) वास्तव में भिन्न हैं या नहीं। यह उनके बीच के वास्तविक संबंध को अस्पष्ट कर देती है।

  • या शक्तिस्तद्दशाद् ब्रह्म विकृतत्वेन भासते॥

    • जिस शक्ति के कारण, उस दशा में (अर्थात भेद के ढके रहने की स्थिति में), ब्रह्म विकृत रूप में (परिवर्तित या सविकार) दिखाई देता है।

    • यानी, जब अज्ञान के कारण ब्रह्म और सृष्टि का वास्तविक भेद छिपा रहता है, तो वही निर्विकार ब्रह्म (जो स्वयं में कोई परिवर्तन नहीं करता) हमें सविकार, अनेक नाम-रूपों वाला और परिवर्तित होता हुआ प्रतीत होता है।

व्याख्या:

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के इस मूल सिद्धांत को समझाता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और यह जगत् (सृष्टि) उसी ब्रह्म में माया के कारण प्रतीत होता है।

  1. सर्ग और ब्रह्म का भेद : अद्वैत दर्शन के अनुसार, ब्रह्म निर्विकार, अपरिवर्तनशील और निराकार है। सृष्टि (जगत्) नाम-रूपों वाली, परिवर्तनशील और सविकार है। मूलतः, ब्रह्म और सृष्टि में कोई वास्तविक 'भेद' नहीं है, बल्कि सृष्टि ब्रह्म का ही आभास है। लेकिन, सामान्यतः हम सृष्टि को ब्रह्म से अलग एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में देखते हैं।

  2. आवरण शक्ति का कार्य : 'आवरण शक्ति' (अज्ञान या माया का एक पहलू) वह है जो सत्य को ढँक देती है। इस श्लोक में यह बताया गया है कि यह शक्ति ब्रह्म की निर्विकारता और सृष्टि के मिथ्यात्व के भेद को ढँक देती है। यानी, यह हमें यह समझने नहीं देती कि ब्रह्म स्वयं में अविकारी है और सृष्टि उसी में एक आभास मात्र है।

  3. ब्रह्म का विकृत प्रतीत होना : जब आवरण शक्ति इस भेद को ढँक देती है, तो हमें वह निर्विकार ब्रह्म ही विकारी या विकृत (परिवर्तित) प्रतीत होता है। हमें लगता है कि ब्रह्म ही इस विविध संसार के रूप में वास्तव में बदल गया है, जबकि वेदांत कहता है कि ब्रह्म अपरिवर्तित रहते हुए भी माया के कारण जगत के रूप में प्रतीत होता है (जैसे रस्सी में साँप का भ्रम)। ब्रह्म स्वयं विकारी नहीं होता, बल्कि अज्ञान के कारण ऐसा 'प्रतीत' होता है। इस भ्रम के कारण हम ब्रह्म को जन्म-मृत्यु, नाम-रूप, और परिवर्तन आदि से युक्त मानते हैं, जबकि वह इन सबसे परे है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि 'आवरण शक्ति' (अज्ञान) के कारण हम ब्रह्म और सृष्टि के वास्तविक संबंध को समझ नहीं पाते। यह शक्ति इस भेद को छिपा देती है कि निर्विकार ब्रह्म ही सृष्टि के रूप में प्रतीत हो रहा है। इसी अज्ञान के कारण हमें वह अपरिवर्तनशील ब्रह्म ही अनेक नाम-रूपों वाला और परिवर्तित होता हुआ दिखाई देता है।

१९. अत्राप्यावृत्तेर्नाशे न विभाति ब्रह्मसर्गयोः। भेदस्तयोर्विकारः स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित्॥

यह श्लोक पिछले श्लोकों के विचार को आगे बढ़ाते हुए बताता है कि अज्ञान के आवरण के हट जाने पर क्या स्पष्ट होता है, खासकर ब्रह्म और सृष्टि के संबंध में।

  • अत्राप्यावृत्तेर्नाशे न विभाति ब्रह्मसर्गयोः।

    • इसका अर्थ है कि यहाँ भी (इस संदर्भ में भी), आवरण (अज्ञान की शक्ति) के नष्ट होने पर, ब्रह्म और सृष्टि के बीच का भेद स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता (यानी भेद का भ्रम समाप्त हो जाता है)

    • पहले की तरह, जब अज्ञान का पर्दा हटता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्म और सृष्टि में कोई वास्तविक, स्वतंत्र भेद नहीं है जैसा अज्ञानवश प्रतीत होता है। यह वाक्य थोड़ा विरोधाभासी लग सकता है, लेकिन इसका अर्थ है कि भेद का जो भ्रम था, वह अब नहीं रहता।

  • भेदस्तयोर्विकारः स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित्॥

    • उन दोनों (ब्रह्म और सृष्टि) के बीच जो विकार (परिवर्तन, विकृति, दोष) है, वह सृष्टि में ही होता है, ब्रह्म में कहीं भी (क्वचित्) नहीं होता

    • यानी, परिवर्तनशीलता, नाशवानता, और सभी प्रकार के 'विकार' केवल सृष्टि में ही पाए जाते हैं। ब्रह्म स्वयं पूर्णतः निर्विकार और अपरिवर्तनशील है। ब्रह्म पर किसी भी प्रकार का विकार का आरोप अज्ञान के कारण होता है।

व्याख्या:

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के उस महत्वपूर्ण सिद्धांत को और पुष्ट करता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत् (सृष्टि) मिथ्या है या ब्रह्म का ही एक आभास मात्र है, जिसमें कोई वास्तविक विकार नहीं होता।

  1. आवरण का नाश और भेद का स्वरूप : जब विवेक या आत्मज्ञान के द्वारा 'आवरण शक्ति' (जो सत्य को ढँक देती है) का नाश होता है, तो अज्ञानी को जो ब्रह्म और सृष्टि के बीच एक वास्तविक और पृथक 'भेद' प्रतीत होता था, वह समाप्त हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई भेद है ही नहीं, बल्कि यह कि जो भेद अज्ञानवश सत्य माना जा रहा था (कि सृष्टि ब्रह्म से पूर्णतः भिन्न और स्वतंत्र है), वह भ्रम अब नहीं रहता। ज्ञानी को यह स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि ब्रह्म से भिन्न नहीं है, बल्कि ब्रह्म में ही माया के कारण प्रतीत होती है।

  2. विकार का वास्तविक स्थान : श्लोक का दूसरा भाग अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह स्पष्ट करता है कि संसार में जो कुछ भी बदलता है, नष्ट होता है, या विकृत होता है (जैसे जन्म, मृत्यु, वृद्धि, क्षय, रोग, परिवर्तन आदि), वह सब 'सर्ग' (सृष्टि) में ही होता है। ये सभी 'विकार' सृष्टि के धर्म हैं। ब्रह्म, जो कि परम सत्य है, इन सभी विकारों से पूर्णतः रहित है। ब्रह्म न तो जन्म लेता है, न मरता है, न बदलता है, और न ही किसी भी प्रकार से विकृत होता है। उस पर विकार का आरोप केवल अज्ञानवश होता है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि जब अज्ञान का आवरण हटता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्म और सृष्टि के बीच का जो कृत्रिम भेद प्रतीत होता था, वह वास्तव में नहीं है। साथ ही, यह सत्य भी प्रकट होता है कि समस्त विकार (परिवर्तन, दोष) केवल सृष्टि में ही होते हैं, निर्विकार ब्रह्म में उनका लेशमात्र भी नहीं होता।

२०. अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम्। आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम्॥

यह श्लोक संसार के प्रत्येक विषय या वस्तु में पाए जाने वाले पाँच अंशों (पंचकोश नहीं) का वर्णन करता है और बताता है कि उनमें से कौन से ब्रह्म के स्वरूप हैं और कौन से जगत् के।

  • अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम्।

    • इसका अर्थ है कि प्रत्येक जानने योग्य वस्तु (चेत्यं) में पाँच अंश होते हैं: अस्ति (होना/अस्तित्व), भाति (प्रतीत होना/प्रकाशित होना), प्रियं (प्रियता/आनंद), रूप (आकार), और नाम (पहचान)

    • यानी, संसार की कोई भी चीज जिसे हम जानते हैं या अनुभव करते हैं, इन पाँच गुणों से युक्त होती है। हर चीज का अस्तित्व होता है, वह हमें प्रतीत होती है, किसी न किसी रूप में प्रिय लगती है, उसका एक आकार होता है, और उसका एक नाम होता है।

  • आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम्॥

    • इनमें से पहले तीन (अस्ति, भाति, प्रियं) ब्रह्म के स्वरूप हैं।

    • और शेष दो (रूपं, नाम) जगत् के स्वरूप हैं।

    • यानी, अस्तित्व, प्रतीति (ज्ञानस्वरूपता) और प्रियता (आनंदस्वरूपता) ब्रह्म के मूल लक्षण हैं, जबकि नाम और रूप जगत् की विशेषताएँ हैं, जो माया द्वारा उत्पन्न होती हैं।

व्याख्या:

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के इस मौलिक सिद्धांत को संक्षेप में प्रस्तुत करता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत् (सृष्टि) केवल नाम-रूपों का विस्तार है, जो माया के कारण ब्रह्म पर आरोपित होता है।

  1. प्रत्येक वस्तु में पंच-अंश :

    • अस्ति: कोई भी वस्तु जिसे हम अनुभव करते हैं, उसका 'होना' या 'अस्तित्व' होता है। यह अस्तित्व स्वयं ब्रह्म का ही स्वरूप है। ब्रह्म 'सत्' (सत्य/अस्तित्व) है।

    • भाति : हर वस्तु हमें 'प्रतीत' होती है, दिखाई देती है या अनुभव में आती है। यह उसकी प्रतीति या प्रकाशन है। यह 'भाति' ब्रह्म के 'चित्' (ज्ञान/चेतना) स्वरूप को दर्शाता है। ब्रह्म 'चित्' है।

    • प्रियं : हर वस्तु किसी न किसी रूप में हमें प्रिय लगती है या आनंद देती है (चाहे वह अल्पकालिक ही क्यों न हो)। यह 'प्रियता' ब्रह्म के 'आनंद' स्वरूप का ही प्रतिबिम्ब है। ब्रह्म 'आनंद' है।

    • रूपं : हर वस्तु का एक निश्चित आकार या स्वरूप होता है, जिससे हम उसे पहचानते हैं। यह 'रूप' जगत् की विशेषता है।

    • नाम : हर वस्तु का एक नाम होता है, जिससे हम उसे पुकारते हैं या उसका उल्लेख करते हैं। यह 'नाम' भी जगत् की विशेषता है।

  2. ब्रह्मरूप और जगद्रूप का विभाजन :

    • आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं : श्लोक स्पष्ट करता है कि पहले तीन अंश - अस्ति (सत्), भाति (चित्), और प्रियं (आनंद) - ये तीनों ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप हैं। ये नित्य, शाश्वत और अपरिवर्तनशील हैं। यही कारण है कि ब्रह्म को 'सच्चिदानंद' कहा जाता है। हर वस्तु में हमें जो अस्तित्व, ज्ञान और आनंद का अनुभव होता है, वह वास्तव में ब्रह्म का ही अंश है।

    • जगद्रूपं ततो द्वयम् : अंतिम दो अंश - रूपं (आकार) और नाम (नाम) - ये जगत् के स्वरूप हैं। ये परिवर्तनशील, अनित्य और माया के कारण उत्पन्न होते हैं। जगत् इन्हीं नाम-रूपों का समुच्चय है, जो ब्रह्म पर आरोपित होते हैं।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि संसार की कोई भी वस्तु जिसे हम अनुभव करते हैं, वह पाँच घटकों से बनी होती है: अस्तित्व, प्रतीति, प्रियता, रूप और नाम। इनमें से पहले तीन (अस्तित्व, प्रतीति, प्रियता) ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप हैं, और अंतिम दो (रूप और नाम) जगत् के स्वरूप हैं, जो माया द्वारा उत्पन्न होते हैं। यह हमें समझने में मदद करता है कि कैसे निर्विकार ब्रह्म ही नाम-रूप वाले जगत् के रूप में प्रतीत होता है।

२१. खं वायु अग्निजलौर्वीषु देवतिर्यङ् नरादिषु। अभिन्नः सच्चिदानन्दो भिद्येते रूपनामनी।।

इस श्लोक का अर्थ है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी जैसे पंचमहाभूतों में, और देवता, पशु (तिर्यक्), मनुष्य आदि चेतन प्राणियों में, जो सच्चिदानंद (सत्-चित्-आनंद) तत्व है, वह अभिन्न (एक समान) है। उनमें कोई भेद नहीं है। भेद केवल रूप (आकार) और नाम (पहचान) के कारण ही होते हैं।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को पुष्ट करता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और वह सर्वव्यापक है, जबकि संसार की विविधता केवल नाम और रूप के कारण प्रतीत होती है, न कि किसी वास्तविक भेद के कारण।

  1. सच्चिदानंद की अभिन्नता :

    • खं वायु अग्निजलौर्वीषु : यह पंचमहाभूतों का उल्लेख करता है, जो संपूर्ण जड़ जगत् का निर्माण करते हैं। इन सभी जड़ पदार्थों में भी 'सत्' (अस्तित्व) है, वे 'प्रतीत' होते हैं (कुछ अर्थों में चित्), और किसी न किसी रूप में 'प्रियता' (जैसे पृथ्वी से प्रिय अन्न मिलता है) का अनुभव कराते हैं।

    • देवतिर्यङ् नरादिषु : यह चेतन प्राणियों का उल्लेख करता है। देवता, पशु और मनुष्य - इन सभी में भी 'सत्' (अस्तित्व), 'चित्' (चेतना) और 'आनंद' (प्रियता/सुख) का अनुभव होता है।

    • इन सभी जड़ और चेतन पदार्थों में जो मूल तत्व है - सत्-चित्-आनंद (वास्तविक अस्तित्व, चेतना और परमानंद) – वह अभिन्न (एक ही है, अविभाज्य है)। इसका तात्पर्य है कि ईश्वर या ब्रह्म अलग-अलग नहीं है, बल्कि वह एक ही सच्चिदानंद तत्व सबमें समान रूप से व्याप्त है।

  2. भेद का कारण: रूप और नाम :

    • भिद्येते रूपनामनी : श्लोक स्पष्ट करता है कि जब सच्चिदानंद तत्व सबमें एक ही है, तो हमें यह विविधता क्यों दिखाई देती है? इसका उत्तर है कि जो भेद हम देखते हैं (जैसे यह आकाश है, यह मनुष्य है, यह पशु है), वे केवल रूप (आकार, आकृति) और नाम (पहचान, संज्ञा) के कारण हैं।

    • जैसे, सोना एक ही तत्व है, लेकिन उसे कंगन, हार या अंगूठी जैसे अलग-अलग 'नाम' और 'रूप' दिए जा सकते हैं। ठीक उसी प्रकार, सच्चिदानंद एक ही है, लेकिन माया के कारण वह विविध नाम-रूपों में प्रकट होता प्रतीत होता है। ये नाम-रूप ही हमें भेद का अनुभव कराते हैं, जबकि अंतर्निहित तत्व हमेशा एक ही सच्चिदानंद ब्रह्म है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि ब्रह्मांड की हर जड़ और चेतन वस्तु में एक ही सच्चिदानंद ब्रह्म तत्व मौजूद है। जो भी विविधता या भेद हमें दिखाई देता है, वह केवल वस्तुओं के बाहरी नाम और रूप के कारण है, न कि उनके आंतरिक, मूलभूत सच्चिदानंद स्वरूप में किसी अंतर के कारण।

२२. उपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः। समाधिं सर्वदा कुर्यात् हृदये वाऽथवा बहिः॥

इस श्लोक का अर्थ है कि नाम और रूप इन दोनों की उपेक्षा करके (अर्थात् उन्हें गौण मानकर), जो व्यक्ति सच्चिदानंद (सत्-चित्-आनंद) में तत्पर (लीन) है, उसे हमेशा समाधि (एकाग्रता या ध्यान) का अभ्यास करना चाहिए, चाहे वह समाधि हृदय में (अपने भीतर) हो या बाहर (बाह्य जगत् में)

व्याख्या 

यह श्लोक आत्मसाक्षात्कार के लिए एक महत्वपूर्ण साधना पद्धति का वर्णन करता है। यह हमें सिखाता है कि कैसे संसार की क्षणभंगुरता से ऊपर उठकर शाश्वत सत्य (ब्रह्म) में लीन हुआ जाए।

  1. उपेक्ष्य नामरूपे द्वे :

    • पिछले श्लोकों में बताया गया था कि जगत् केवल नाम और रूप का विस्तार है, और ये अनित्य एवं परिवर्तनशील हैं। 'उपेक्षा' का अर्थ यहाँ उन्हें पूरी तरह से त्यागना नहीं, बल्कि उन्हें गौण समझना है। इसका मतलब है कि साधक को वस्तुओं के नाम और रूपों में उलझना नहीं चाहिए, बल्कि उनके पीछे छिपे शाश्वत तत्व पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

    • यह नाम और रूप वे ही हैं जो माया के कारण ब्रह्म पर आरोपित होते हैं और जगत् की विविधता का भ्रम पैदा करते हैं।

  2. सच्चिदानन्दतत्परः :

    • जो व्यक्ति सच्चिदानंद (सत् - अस्तित्व/सत्य, चित् - चेतना/ज्ञान, आनंद - परमानंद) में तत्पर है, अर्थात जिसका लक्ष्य और ध्यान केवल सच्चिदानंद ब्रह्म में लीन होना है। यह वही ब्रह्म है जो पिछले श्लोकों में वर्णित किया गया था कि वह हर वस्तु में अभिन्न रूप से व्याप्त है।

  3. समाधिं सर्वदा कुर्यात् :

    • ऐसे साधक को समाधि का अभ्यास हमेशा (सर्वदा) करना चाहिए। समाधि का अर्थ केवल आँखें बंद करके बैठना नहीं है, बल्कि चित्त की उस अवस्था को प्राप्त करना है जहाँ मन पूर्ण रूप से एकाग्र हो जाता है और बाह्य विषयों से विमुख होकर आंतरिक सत्य में लीन हो जाता है। यह निरंतर अभ्यास से ही संभव है।

  4. हृदये वाऽथवा बहिः :

    • यह महत्वपूर्ण निर्देश है कि समाधि का अभ्यास कहाँ करना है।

      • हृदये (अपने हृदय में/भीतर): इसका अर्थ है अंतर्मुखी होकर ध्यान करना, जहाँ साधक अपने भीतर ही सच्चिदानंद का अनुभव करने का प्रयास करता है। यह आंतरिक चिंतन और मनन का मार्ग है।

      • बहिः (बाहर/बाह्य जगत् में): इसका अर्थ है कि साधक को केवल आँखें बंद करके ही नहीं, बल्कि बाह्य जगत् में भी सच्चिदानंद का अनुभव करना चाहिए। उसे संसार की हर वस्तु में (भले ही उनके नाम और रूप अलग-अलग हों) उसी एक सच्चिदानंद तत्व को देखना चाहिए। यह दर्शाता है कि आत्मज्ञान केवल गुफाओं में बैठकर नहीं, बल्कि जगत् में रहते हुए भी प्राप्त किया जा सकता है, यदि दृष्टि सही हो।

संक्षेप में, यह श्लोक एक साधक को यह निर्देश देता है कि उसे संसार के क्षणभंगुर नाम और रूपों को गौण मानते हुए, अपनी चेतना को सदा सच्चिदानंद ब्रह्म में लीन रखने का प्रयास करना चाहिए। यह एकाग्रता या समाधि का अभ्यास उसे अपने भीतर भी करना चाहिए और बाहर के जगत् में भी, हर जगह ब्रह्म को देखते हुए।

समाधि के प्रकार 

२३. सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि। दृश्यशब्दानुवेधेन सविकल्पः पुनद्विर्धा॥

व्याख्या:

यह श्लोक समाधि के प्रकारों का परिचय देता है, जो ध्यान की उच्च अवस्थाएँ हैं।

  • सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि।

    • इसका अर्थ है कि समाधि मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है: 'सविकल्प' और 'निर्विकल्प'। ये दोनों हृदय (अर्थात् मन या चेतना) में ही अनुभूत होती हैं।

    • सविकल्प समाधि: इस अवस्था में ध्याता (ध्यान करने वाला), ध्येय (जिस पर ध्यान किया जा रहा है), और ध्यान (ध्यान की प्रक्रिया) का भेद बना रहता है, हालाँकि मन एकाग्र होता है। इसमें अभी भी कोई 'विकल्प' या विचार शेष रहते हैं, भले ही वे सूक्ष्म हों।

    • निर्विकल्प समाधि: यह समाधि की उच्चतम अवस्था है जहाँ ध्याता, ध्येय और ध्यान का भेद पूरी तरह मिट जाता है। मन पूरी तरह से शांत और निराकार हो जाता है, कोई 'विकल्प' या विचार नहीं रहता। यह ब्रह्म के साथ एकाकार होने की अवस्था है।

  • दृश्यशब्दानुवेधेन सविकल्पः पुनद्विर्धा॥

    • इसका अर्थ है कि सविकल्प समाधि भी आगे चलकर दो प्रकार की होती है: 'दृश्यशब्दानुवेध' और 'शब्दानुवेध'। (श्लोक में केवल 'दृश्यशब्दानुवेधेन' है, लेकिन व्याख्या से स्पष्ट है कि यह दो भेद इंगित करता है)।

    • दृश्यशब्दानुवेध सविकल्प समाधि: इस अवस्था में मन किसी स्थूल 'दृश्य' (जैसे कोई मूर्ति, प्रतीक, या मानसिक चित्र) पर एकाग्र होता है, और साथ ही उससे जुड़े 'शब्द' (मंत्र) का भी सहारा लिया जाता है।

    • शब्दानुवेध सविकल्प समाधि: इसमें मुख्य रूप से किसी 'शब्द' (मंत्र) पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है, और उसके अर्थ में लीन हुआ जाता है।

यह श्लोक समाधि के वर्गीकरण को दर्शाता है, जिसमें सविकल्प समाधि अभ्यास की प्रारंभिक अवस्था है और निर्विकल्प समाधि पूर्ण ज्ञान की ओर ले जाने वाली अंतिम अवस्था है।

दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि 

२४. कामादाश्चित्तगा दृश्याः तत्साक्षित्वेन चेतनम्। ध्यायद् दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः॥

यह श्लोक 'सविकल्प समाधि' के एक प्रकार, 'दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि' का वर्णन करता है।

यह कहता है कि काम (इच्छा), क्रोध आदि चित्त (मन) में स्थित वृत्तियां (विचार या भावनाएँ) 'दृश्य' (देखने योग्य/अनुभव करने योग्य) हैं। उनके 'साक्षी' होने के कारण चेतन (हमारी चेतना/आत्मा) को ध्याना चाहिए (ध्यान करना चाहिए)। इस प्रकार की समाधि को 'दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि' कहते हैं।

इसका अर्थ है कि जब साधक अपने मन में उठने वाली इच्छाओं, भावनाओं या विचारों (जो सब 'दृश्य' हैं) को केवल एक तटस्थ दृष्टा (साक्षी) के रूप में देखता है, यह अनुभव करते हुए कि 'मैं इन वृत्तियों का साक्षी हूँ, मैं ये वृत्तियां नहीं हूँ', तो यह चित्त की एकाग्रता की एक अवस्था है। इसमें मन की वृत्तियां अभी भी मौजूद हैं (इसलिए यह 'सविकल्प' है), लेकिन साधक उन वृत्तियों से स्वयं को अलग करके अपने साक्षी स्वरूप में स्थित होने का अभ्यास कर रहा है। इसी अभ्यास से प्राप्त समाधि को 'दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि' कहते हैं।

२५. असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः। अस्मीति शब्दानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जो असंग (निर्लेप), सच्चिदानंद (सत्-चित्-आनंद स्वरूप), स्वयं प्रकाशित और द्वैत रहित है - 'मैं वह हूँ' - इस प्रकार के शाब्दिक चिंतन या बोध से जो सविकल्प समाधि प्राप्त होती है, उसे 'शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि' कहते हैं।

व्याख्या 

यह श्लोक 'सविकल्प समाधि' के दूसरे प्रकार, 'शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि' का वर्णन करता है। यह साधना की वह अवस्था है जहाँ साधक शाब्दिक ज्ञान या शास्त्रोक्त गुणों के माध्यम से अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) का ध्यान करता है।

  1. असंगः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः :

    • ये ब्रह्म या आत्मा के प्रमुख लक्षण हैं:

      • असंग : जो किसी भी चीज़ से लिप्त नहीं होता, अप्रभावित रहता है।

      • सच्चिदानंद : जो सत् (वास्तविक अस्तित्व), चित् (शुद्ध चेतना/ज्ञान), और आनंद (परमानंद) स्वरूप है।

      • स्वप्रभ: जो स्वयं प्रकाशित होता है, जिसे प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य की आवश्यकता नहीं होती।

      • द्वैतवर्जित : जिसमें कोई दूसरा नहीं है, जो अद्वितीय है, अभेद है।

  2. अस्मीति :

    • 'अस्मि' का अर्थ है 'मैं हूँ'। यह महावाक्य 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) के सार को दर्शाता है। साधक इन ब्रह्म-लक्षणों को अपने स्वरूप के रूप में पहचानता है और 'मैं ही असंग, सच्चिदानंद, स्वप्रभ, द्वैतवर्जित हूँ' ऐसा दृढ़ता से चिंतन करता है।

  3. शब्दानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः :

    • शब्दानुविद्ध: इसका अर्थ है 'शब्दों से अनुगत' या 'शब्दों से युक्त'। इस समाधि में साधक केवल बाहरी नाम-रूपों पर ध्यान नहीं देता (जैसा कि 'दृश्यनुविद्ध' में था), बल्कि शास्त्रोक्त 'शब्दों' या लक्षणों (जैसे 'असंग', 'सच्चिदानंद' आदि) का चिंतन करता है और उनके गहरे अर्थ को अपने स्वरूप के रूप में अनुभव करने का प्रयास करता है।

    • सविकल्पकः: यह समाधि अभी भी 'सविकल्प' है क्योंकि इसमें अभी भी 'शब्दों' या 'लक्षणों' का सहारा लिया जा रहा है, और ध्याता-ध्येय-ध्यान का सूक्ष्म भेद पूरी तरह से मिटा नहीं है। मन अभी भी इन शाब्दिक विचारों पर एकाग्र है, लेकिन यह मन को शुद्ध करने और निर्विकल्प अवस्था की ओर बढ़ने का एक महत्वपूर्ण सोपान है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि 'शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि' वह साधना है जहाँ योगी शास्त्रोक्त लक्षणों (जैसे मैं असंग, सच्चिदानंद, स्वप्रकाशी और द्वैत से रहित हूँ) का चिंतन करते हुए अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होता है। यह शब्दों के माध्यम से परम सत्य का बोध प्राप्त करने का एक तरीका है, जो अंततः निर्विकल्प समाधि की ओर ले जाता है।

२६. स्वानुभूतिरसावेशात् दृश्यशब्दावुपेक्ष्य तु। निर्विकल्पस्ससमाधिः स्यात् निवातस्थित दीपवत्॥

इस श्लोक का अर्थ है कि अपनी स्वयं की अनुभूति (आत्मानुभूति) के रस (आनंद) में लीन होकर, और दृश्य (बाहरी पदार्थ) तथा शब्द (शाब्दिक विचार) दोनों की उपेक्षा करके, जो समाधि प्राप्त होती है, वह 'निर्विकल्प समाधि' कहलाती है। यह ऐसी होती है जैसे बिना हवा वाले स्थान पर स्थित दीपक की लौ स्थिर रहती है।

व्याख्या 

यह श्लोक समाधि की परम अवस्था, 'निर्विकल्प समाधि' का वर्णन करता है। यह उस स्थिति को बताता है जहाँ साधक पूर्ण आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

  1. स्वानुभूतिरसावेशात् :

    • 'स्वानुभूति' का अर्थ है स्वयं की आत्मा का अनुभव, आत्मसाक्षात्कार।

    • 'रस' का अर्थ यहाँ आनंद या सार है।

    • 'आवेशात्' का अर्थ है उसमें पूरी तरह से लीन हो जाना।

    • इसका मतलब है कि जब साधक को अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मा) का सीधा अनुभव हो जाता है और वह उस अनुभव से प्राप्त होने वाले दिव्य आनंद में पूरी तरह से डूब जाता है। यह कोई मानसिक कल्पना नहीं, बल्कि एक प्रत्यक्ष अनुभव है।

  2. दृश्यशब्दावुपेक्ष्य तु :

    • पिछले सविकल्प समाधि के प्रकारों में 'दृश्य' (जैसे मानसिक चित्र या इंद्रियों के विषय) और 'शब्द' (जैसे मंत्र या शास्त्रोक्त विचार) का सहारा लिया जाता था।

    • 'उपेक्ष्य' का अर्थ यहाँ त्याग देना या गौण कर देना है।

    • निर्विकल्प समाधि की अवस्था में, साधक को अब न तो किसी बाहरी 'दृश्य' की आवश्यकता होती है और न ही किसी 'शब्द' (विचार या मंत्र) की। मन इन सभी आलंबनों से परे चला जाता है क्योंकि अब वह सीधे आत्मा के स्वरूप में स्थित है। यह मन की उस अवस्था को दर्शाता है जहाँ मन पूरी तरह से शांत और निराकार हो जाता है, कोई विचार या विकल्प शेष नहीं रहता।

  3. निर्विकल्पस्ससमाधिः स्यात् :

    • जब ये सभी शर्तें पूरी हो जाती हैं, अर्थात जब साधक अपनी आत्मानुभूति के आनंद में लीन होकर दृश्य और शब्द दोनों को छोड़ देता है, तब उसे 'निर्विकल्प समाधि' प्राप्त होती है। यह समाधि की सर्वोच्च अवस्था है जहाँ द्वैत का कोई अनुभव नहीं रहता, और आत्मा अपने शुद्ध, अद्वैत स्वरूप में स्थित होती है।

  4. निवातस्थित दीपवत् :

    • यह एक प्रसिद्ध उपमा है जो निर्विकल्प समाधि की स्थिरता और अविचल स्वभाव को दर्शाती है।

    • जैसे एक दीपक की लौ जब हवा नहीं होती, तो वह बिलकुल स्थिर और शांत रहती है, उसी प्रकार निर्विकल्प समाधि में योगी का मन भी पूर्णतः शांत, स्थिर और बिना किसी विक्षेप के रहता है। कोई भी बाहरी या आंतरिक विचार (विकल्प) उसे विचलित नहीं कर पाता।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि जब साधक को अपनी आत्मा का सीधा अनुभव हो जाता है और वह उस परमानंद में लीन हो जाता है, और जब वह बाहरी दृश्यों व शाब्दिक विचारों दोनों से ऊपर उठ जाता है, तब उसे 'निर्विकल्प समाधि' प्राप्त होती है। इस अवस्था में उसका मन ऐसे स्थिर हो जाता है जैसे हवा रहित स्थान में दीपक की लौ। यह पूर्ण आत्मज्ञान और ब्रह्म के साथ एकाकार होने की अवस्था है।

२७. हृदीव बाह्यदेशेऽपि यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि। समाधिराधात्सन्मात्रात् नामरूपपृथक्कृतिः॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जैसे हृदय (अपने भीतर) में समाधि होती है, वैसे ही बाहर (बाह्य जगत्) में भी किसी भी वस्तु में, 'सत्' (अस्तित्व) को छोड़कर उसके नाम और रूप को अलग करके समाधि को स्थापित करना चाहिए।

व्याख्या 

यह श्लोक समाधि के अभ्यास को आंतरिक से बाहरी जगत् तक विस्तारित करने का निर्देश देता है, विशेष रूप से 'दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि' के संदर्भ में। यह बताता है कि केवल अपने मन में ही नहीं, बल्कि संसार की हर वस्तु में भी सत्य को कैसे देखा जाए।

  1. हृदीव बाह्यदेशेऽपि :

    • 'हृदि' का अर्थ है 'हृदय में' या 'अपने भीतर'। पिछले श्लोकों में सविकल्प और निर्विकल्प समाधि के अभ्यास का आंतरिक संदर्भ था।

    • 'बाह्यदेशेऽपि' का अर्थ है 'बाहर के क्षेत्र में भी' या 'बाह्य जगत् में भी'।

    • यह बताता है कि आत्मज्ञान का अभ्यास केवल आंतरिक चिंतन तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे बाहरी संसार में भी लागू करना चाहिए।

  2. यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि :

    • इसका अर्थ है कि संसार की किसी भी वस्तु में – चाहे वह जड़ हो या चेतन, छोटी हो या बड़ी – हर एक वस्तु में इस अभ्यास को करना है। कोई विशेष वस्तु या स्थान निर्धारित नहीं है।

  3. समाधिराधात्सन्मात्रात् :

    • 'समाधिं आधत्त' का अर्थ है समाधि को स्थापित करना या प्राप्त करना।

    • 'सन्मात्रात्' का अर्थ है 'केवल सत् (अस्तित्व) से'। यहाँ 'सत्' का तात्पर्य उस वास्तविक, अपरिवर्तनशील अस्तित्व से है जो ब्रह्म का स्वरूप है। पिछले श्लोक (अस्ति भाति प्रियं...) में 'अस्ति' (होना/अस्तित्व) को ब्रह्मरूप बताया गया था।

    • इसका मतलब है कि साधक को किसी भी वस्तु में उसके नाम और रूप से परे जाकर, केवल उसके मूल 'अस्तित्व' पर ध्यान केंद्रित करके समाधि को स्थापित करना चाहिए।

  4. नामरूपपृथक्कृतिः 

    • यह अभ्यास का मुख्य तरीका है। 'नामरूपपृथक्कृतिः' का अर्थ है नाम और रूप को अलग करना या उनसे स्वयं को पृथक करना।

    • संसार की हर वस्तु का एक विशिष्ट नाम (जैसे 'मेज', 'पेड़', 'व्यक्ति') और एक विशिष्ट रूप (आकार, रंग, आकृति) होता है। ये नाम और रूप परिवर्तनशील और अनित्य होते हैं, और माया के कारण ब्रह्म पर आरोपित होते हैं।

    • साधक को यह विवेक करना चाहिए कि वस्तु का नाम और रूप तो बदलता रहता है, लेकिन उसका मूल 'अस्तित्व' (सत्) वही रहता है। उसे नाम और रूप को छोड़कर वस्तु के 'सत्' स्वरूप पर ही अपनी चेतना को एकाग्र करना चाहिए।

संक्षेप में, यह श्लोक एक योगी को यह निर्देश देता है कि उसे केवल अपने भीतर ही नहीं, बल्कि बाहरी दुनिया की प्रत्येक वस्तु में भी समाधि का अभ्यास करना चाहिए। इस अभ्यास में उसे वस्तु के परिवर्तनशील नाम और रूप को गौण मानते हुए, उसके पीछे स्थित शाश्वत 'अस्तित्व' (सत्) पर अपनी चेतना को एकाग्र करना चाहिए। यह अभ्यास साधक को सर्वव्यापी ब्रह्म का अनुभव करने में मदद करता है।

२८. अखण्डैकरसं वस्तु सच्चिदानन्द लक्षणम्। इत्यविच्छिन्न चिन्तेयं समाधिर्मध्यमो भवेत्॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जो वस्तु (परम सत्य) अखंड है, एकरस (एक समान भाव वाली) है, और सच्चिदानंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) जिसके लक्षण हैं, उस पर 'यह वही है' इस प्रकार से अविच्छिन्न (निरंतर) चिंतन करना 'मध्यम प्रकार की समाधि' होती है।

व्याख्या

यह श्लोक समाधि के एक प्रकार का वर्णन करता है, जिसे 'मध्यम समाधि' या 'शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि' के रूप में समझा जा सकता है, जैसा कि नीचे की हिंदी व्याख्या में भी संकेत दिया गया है। यह वह अवस्था है जहाँ साधक शाब्दिक ज्ञान या शास्त्रोक्त गुणों के माध्यम से अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) का निरंतर ध्यान करता है।

  1. अखण्डैकरसं वस्तु :

    • अखण्ड : जिसका कोई खंड नहीं किया जा सकता, जो संपूर्ण है। यह ब्रह्म की अविभाज्यता को दर्शाता है।

    • एकरसं : जिसमें कोई विविधता या भेद नहीं है, जो हर स्थिति में एक समान है। जैसे चीनी का घोल हर जगह मीठा होता है, वैसे ही ब्रह्म हर अवस्था में एकरस है।

    • वस्तु : यहाँ 'वस्तु' का अर्थ परम सत्य या ब्रह्म से है।

  2. सच्चिदानन्द लक्षणम् :

    • यह उस वस्तु (ब्रह्म) के स्वरूप को और स्पष्ट करता है जिसके बारे में चिंतन करना है। उसके लक्षण सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना) और आनंद (परमानंद) हैं। यह ब्रह्म का मूल स्वरूप है।

  3. इत्यविच्छिन्न चिन्तेयं :

    • इति : यहाँ 'इति' का प्रयोग पिछले वर्णित गुणों (अखंड, एकरस, सच्चिदानंद) को संक्षेप में संदर्भित करने के लिए है, जैसे 'वह' या 'वही है'।

    • अविच्छिन्न : बिना किसी रुकावट के, निरंतर।

    • चिन्तेयं : इसका अर्थ है लगातार ध्यान करना या मनन करना। यह अभ्यास दृढ़ता और निरंतरता पर जोर देता है। साधक लगातार यह मनन करता है कि 'मैं ही वह अखंड, एकरस, सच्चिदानंद स्वरूप हूँ'।

  4. समाधिर्मध्यमो भवेत् :

    • जब इस प्रकार का अविच्छिन्न चिंतन किया जाता है, तो वह 'मध्यम' प्रकार की समाधि कहलाती है। जैसा कि मूल व्याख्या में भी बताया गया है, यह 'शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि' का ही एक रूप है। इसमें अभी भी 'शब्दों' (ब्रह्म के गुणों) का सहारा लिया जा रहा है, और मन पूर्णतः निर्विकार नहीं हुआ है, लेकिन यह मन को एकाग्र करने और सत्य की ओर ले जाने का एक प्रभावी तरीका है। यह निर्विकल्प समाधि से एक कदम पहले की अवस्था है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि जब साधक उस परम सत्य (ब्रह्म) का निरंतर चिंतन करता है, जो अखंड है, एकरस है, और जिसके लक्षण सच्चिदानंद हैं, तो यह अभ्यास 'मध्यम' प्रकार की समाधि को जन्म देता है। यह शब्दों के माध्यम से की जाने वाली एकाग्रता है जो साधक को आत्म-अनुभूति की ओर ले जाती है।

२९. स्तब्धीभावो रसास्वादात् तृतीयं पूर्ववन्मतः। एतैस्समाधिभिः षड्भिः नयेत्कालं निरन्तरम्॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जब (आत्म) रस के आस्वादन से (मन का) स्तब्ध होना (निष्क्रिय हो जाना) जैसी अवस्था होती है, तब उसे पहले बताए गए तरीके से तीसरा (प्रकार की समाधि, अर्थात् निर्विकल्प समाधि) माना जाता है। इन छह समाधियों के साथ (या इन छह प्रकार की समाधियों का अभ्यास करते हुए) निरंतर समय व्यतीत करना चाहिए।

व्याख्या 

यह श्लोक 'निर्विकल्प समाधि' की एक और विशेषता बताता है और फिर साधना के अभ्यास की निरंतरता पर जोर देता है।

  1. स्तब्धीभावो रसास्वादात् :

    • स्तब्धीभावः: इसका अर्थ है मन का स्तब्ध हो जाना, जड़ हो जाना, या अपनी सभी वृत्तियों (गतिविधियों) को छोड़ देना। यह मन के शांत और निष्क्रिय होने की अवस्था है।

    • रसास्वादात्: 'रस' यहाँ आत्मानुभूति के दिव्य आनंद या सार को संदर्भित करता है (जैसा कि पिछले श्लोक 'स्वानुभूतिरसावेशात्' में आया था)। 'आस्वादात्' का अर्थ है उस रस के अनुभव या आस्वादन से।

    • यह बताता है कि जब साधक अपने आत्म-स्वरूप के आनंद का अनुभव करता है, तो उसके फलस्वरूप मन की सारी चंचलता, विचार और वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं। मन बाहरी विषयों से पूरी तरह हटकर स्तब्ध और शांत हो जाता है।

  2. तृतीयं पूर्ववन्मतः :

    • 'तृतीयं' यहाँ समाधि के प्रकारों में तीसरी अवस्था को संदर्भित करता है, जो 'निर्विकल्प समाधि' है।

    • 'पूर्ववन्मतः' का अर्थ है 'पहले बताए गए तरीके से माना जाता है' या 'पहले की तरह ही समझा जाता है'। यह संभवतः पिछले श्लोकों में वर्णित निर्विकल्प समाधि की विशेषताओं की निरंतरता में है, जैसे कि निवातस्थित दीपक की उपमा। यहाँ यह 'स्तब्धीभाव' को निर्विकल्प समाधि का एक और लक्षण या परिणाम बता रहा है।

  3. एतैस्समाधिभिः षड्भिः :

    • 'एतैः' का अर्थ है 'इनसे'।

    • 'षड्भिः' का अर्थ है 'छह से' या 'छह प्रकार की'। यहाँ 'छह समाधियाँ' पिछले वर्णित समाधि के प्रकारों का योग हैं:

      • सविकल्प समाधि के दो प्रकार:

        1. दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि (दृश्य को साक्षी रूप में देखना)

        2. शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि (शास्त्रीय गुणों का चिंतन)

      • निर्विकल्प समाधि के दो प्रकार: 3. स्वानुभूतिरसावेश से उत्पन्न निर्विकल्प समाधि (रस से स्तब्धीभाव) 4. निर्विकल्प समाधि (निवातस्थित दीपक के समान स्थिरता)

      • शेष दो प्रकारों का उल्लेख इन श्लोकों में स्पष्ट रूप से नहीं है, लेकिन हो सकता है कि ये गुरु-शिष्य परंपरा में बताए गए हों, या किसी अन्य संदर्भ में, जैसे 'आनंदानुविद्ध' और 'अस्मितानुविद्ध' समाधियाँ योगदर्शन में वर्णित हैं, या यहाँ कुछ व्यावहारिक चरणों को गिना गया हो। यह सामान्यतः समाधि के विभिन्न अभ्यासों को संदर्भित करता है।

  4. नयेत्कालं निरन्तरम् :

    • 'नयेत्कालं' का अर्थ है 'समय व्यतीत करना चाहिए' या 'समय बिताना चाहिए'।

    • 'निरन्तरम्' का अर्थ है 'बिना रुके', 'लगातार', 'सतत'।

    • यह अंतिम वाक्य साधना में निरंतरता और अभ्यास के महत्व पर जोर देता है। साधक को इन विभिन्न प्रकार की समाधियों का अभ्यास लगातार करते रहना चाहिए, जब तक कि वह आत्म-साक्षात्कार की पूर्ण अवस्था को प्राप्त न कर ले।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि जब अपनी आत्मा के आनंद का अनुभव होता है तो मन पूरी तरह से शांत और स्थिर हो जाता है, यह निर्विकल्प समाधि की एक पहचान है। साधक को इन विभिन्न (कुल छह) समाधियों का अभ्यास निरंतर करते रहना चाहिए, जिससे वह आत्मज्ञान की ओर अग्रसर हो सके।

३०. देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि। यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जब देह (शरीर) के अभिमान (मैं-मेरापन का भाव) का नाश हो जाता है और परमात्मा का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तब मन जहाँ-जहाँ भी जाता है, वहाँ-वहाँ (ही) समाधि होती है।

व्याख्या 

यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति (ज्ञानी) की स्थिति का वर्णन करता है। यह बताता है कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने पर समाधि केवल विशेष आसन या ध्यान की अवस्था तक सीमित नहीं रहती, बल्कि जीवन के हर पल में सहज रूप से बनी रहती है।

  1. देहाभिमाने गलिते:

    • देहाभिमान: यह 'मैं शरीर हूँ' या 'यह शरीर मेरा है' ऐसी गलत पहचान है। अज्ञानी व्यक्ति स्वयं को शरीर, मन और इंद्रियों तक ही सीमित मानता है।

    • गलिते: इसका अर्थ है 'नष्ट हो जाने पर' या 'पिघल जाने पर'।

    • जब आत्मज्ञान के द्वारा साधक को यह बोध हो जाता है कि वह शरीर नहीं है, बल्कि शरीर से परे शुद्ध आत्मा है, तब शरीर के साथ उसकी यह आसक्ति या पहचान पूरी तरह से मिट जाती है।

  2. विज्ञाते परमात्मनि :

    • विज्ञाते: इसका अर्थ है 'विशेष रूप से जान लेने पर' या 'प्रत्यक्ष अनुभव कर लेने पर'। यह केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं, बल्कि अनुभवजन्य ज्ञान है।

    • परमात्मनि: परम आत्मा, ब्रह्म।

    • जब साधक को यह प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है कि उसका अपना आत्मा ही परब्रह्म है, और वह इस सार्वभौमिक चेतना के साथ एक है।

  3. यत्र यत्र मनो याति :

    • यत्र यत्र: जहाँ-जहाँ।

    • मनो याति: मन जाता है।

    • ज्ञानी व्यक्ति का मन अब किसी एक बिंदु पर सीमित नहीं रहता, बल्कि वह संसार के किसी भी विषय या अनुभव की ओर जा सकता है। वह सांसारिक कार्यों में लिप्त हो सकता है, लोगों से बात कर सकता है, या अपनी दिनचर्या निभा सकता है।

  4. तत्र तत्र समाधयः :

    • तत्र तत्र: वहाँ-वहाँ।

    • समाधयः: समाधि (यहाँ बहुवचन में प्रयोग, जिसका अर्थ है समाधि की अवस्था ही बनी रहती है)।

    • यह इस श्लोक का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। जब देहाभिमान नष्ट हो जाता है और परमात्मा का ज्ञान हो जाता है, तो ज्ञानी व्यक्ति के लिए समाधि कोई विशेष क्रिया या अवस्था नहीं रह जाती जिसे उसे प्राप्त करना हो। बल्कि, उसका मन जहाँ कहीं भी जाता है, वह स्वयं ही समाधि की स्थिति में होता है। उसके लिए सारा जगत् ही ब्रह्ममय हो जाता है। वह हर वस्तु में परमात्मा को देखता है, और उसका मन निरंतर उसी ब्रह्म में लीन रहता है, भले ही वह सामान्य सांसारिक कार्य कर रहा हो। इसे 'सहज समाधि' भी कहते हैं।

संक्षेप में, यह श्लोक एक आत्मज्ञानी व्यक्ति की परम अवस्था का वर्णन करता है, जहाँ देह के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है और परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है। ऐसी स्थिति में, मन कहीं भी विचरण करे, ज्ञानी के लिए हर पल और हर जगह सहज रूप से समाधि की अवस्था बनी रहती है, क्योंकि वह हर वस्तु में ब्रह्म को ही देखता है।

३१. भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जब 'पर' और 'अपर' (श्रेष्ठ और निम्न, या कारण और कार्य, या ब्रह्म और जगत्) स्वरूप वाले उस दिव्य तत्व का दर्शन हो जाता है, तब हृदय की ग्रंथि टूट जाती है, सभी संशय (शंकाएँ) छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, और उसके (जीव के) कर्म भी क्षय (नाश) हो जाते हैं।

व्याख्या 

यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार (ब्रह्मज्ञान) के परम फल का वर्णन करता है। यह बताता है कि जब व्यक्ति को वास्तविक सत्य का अनुभव हो जाता है, तो उसके जीवन में क्या मूलभूत परिवर्तन आते हैं। यह मुण्डक उपनिषद् (2.2.8) के एक प्रसिद्ध श्लोक से लिया गया है।

  1. भिद्यते हृदयग्रन्थिः :

    • हृदयग्रन्थिः: यह अज्ञान, कामनाओं, और आसक्तियों से बनी मन की वह 'गाँठ' है जो व्यक्ति को संसार से बाँधे रखती है। इसमें अविद्या (अज्ञान), काम (इच्छाएँ), और कर्म (बंधनकारक क्रियाएँ) शामिल हैं। यह ग्रंथि ही व्यक्ति को 'मैं शरीर हूँ', 'मैं कर्ता हूँ' जैसे भ्रम में रखती है।

    • भिद्यते: इसका अर्थ है 'टूट जाती है' या 'छिन्न-भिन्न हो जाती है'।

    • जब आत्मज्ञान होता है, तो अज्ञान के कारण हृदय में बनी यह मूलभूत ग्रंथि टूट जाती है, जिससे व्यक्ति सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है।

  2. छिद्यन्ते सर्वसंशयाः :

    • सर्वसंशयाः: सभी प्रकार की शंकाएँ, दुविधाएँ, और अज्ञान के कारण उत्पन्न होने वाले प्रश्न।

    • छिद्यन्ते: इसका अर्थ है 'कट जाते हैं' या 'पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं'।

    • आत्मज्ञान प्राप्त होने पर, व्यक्ति को सत्य का सीधा अनुभव हो जाता है। उसे वेदों, शास्त्रों, गुरु के उपदेशों या स्वयं के अस्तित्व के बारे में कोई शंका नहीं रहती। सभी बौद्धिक और आध्यात्मिक संशय पूरी तरह से दूर हो जाते हैं।

  3. क्षीयन्ते चास्य कर्माणि :

    • कर्माणि: यहाँ संचित और प्रारब्ध कर्मों को संदर्भित किया जा सकता है जो जीव को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसाते हैं।

    • क्षीयन्ते: इसका अर्थ है 'क्षय हो जाते हैं' या 'नाश हो जाते हैं'।

    • ज्ञानी व्यक्ति के कर्मफल की शक्ति क्षीण हो जाती है। यह ऐसा नहीं है कि वह कर्म करना बंद कर देता है, बल्कि उसके कर्म बंधनकारी नहीं रहते क्योंकि वे आसक्ति या 'कर्तापन' के अभिमान से नहीं किए जाते। उसके संचित कर्म (जो भविष्य में फल देने वाले थे) नष्ट हो जाते हैं और वर्तमान में किए जाने वाले कर्म भी उसे बांधते नहीं हैं। प्रारब्ध कर्म (जो इस जीवन का अनुभव दे रहे हैं) तो भोगने पड़ते हैं, लेकिन उनसे कोई नया बंधन नहीं बनता।

  4. तस्मिन् दृष्टे परावरे :

    • तस्मिन् दृष्टे: 'उसे देख लेने पर' या 'उसका साक्षात्कार हो जाने पर'।

    • परावरे: यह 'पर' और 'अपर' का संयोजन है।

      • पर : यहाँ ब्रह्म के निर्गुण, निराकार, अव्यक्त स्वरूप को संदर्भित करता है।

      • अपर : यहाँ ब्रह्म के सगुण, साकार, व्यक्त स्वरूप को संदर्भित करता है (जैसे ईश्वर, जगत का कारण) या स्वयं जगत को भी।

    • जब व्यक्ति उस परम सत्य (ब्रह्म) का साक्षात्कार कर लेता है जो 'पर' (सभी से परे) भी है और 'अपर' (सभी में व्याप्त) भी है, अर्थात जो निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में अनुभूत होता है, तब ये सभी शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं। यह पूर्ण आत्मज्ञान की अवस्था है।

संक्षेप में, यह श्लोक ब्रह्मज्ञान के तीन महान फलों का वर्णन करता है: हृदय की अज्ञान-ग्रंथि का टूटना, सभी संशयों का मिट जाना, और कर्मबंधनों का क्षय होना। ये सभी तब होते हैं जब व्यक्ति उस परम् सत्य (ब्रह्म) का साक्षात्कार कर लेता है, जो 'पर' (सूक्ष्म और अव्यक्त) भी है और 'अपर' (स्थूल और व्यक्त) भी है। यह मोक्ष की स्थिति का वर्णन है।

३२. अवच्छिन्नाचिदाभासस्तृतीयः स्वप्रकल्पितः । विज्ञेयस्त्रिविधो जीवस्तत्राद्यः पारमार्थिकः ॥ ३२ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि अज्ञान के कारण सीमित (अवच्छिन्न) हुई चेतना का आभास (प्रतिबिम्ब) तीसरा (जीव का प्रकार है), जो स्वयं (जीव) के द्वारा ही कल्पित है। इस प्रकार जीव को तीन प्रकार का जानना चाहिए, उनमें से पहला (प्रकार) 'पारमार्थिक' (परमार्थ सत्य) है।

व्याख्या 

यह श्लोक 'जीव' के तीन प्रकारों का वर्णन करता है, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से। यह बताता है कि 'जीव' की जो पहचान हम करते हैं, वह वास्तविक नहीं है, बल्कि माया या अज्ञान के कारण उत्पन्न होती है।

  1. अवच्छिन्नाचिदाभासस्तृतीयः स्वप्रकल्पितः :

    • अवच्छिन्नाचिदाभासः:

      • अवच्छिन्ना : यह उस चेतना को संदर्भित करता है जो उपाधियों (जैसे मन, बुद्धि, शरीर) द्वारा सीमित या प्रतिबंधित प्रतीत होती है।

      • चित् : शुद्ध चेतना या ब्रह्म।

      • आभासः : चित् का प्रतिबिम्ब या आभास।

      • यह पद उस जीव को संदर्भित करता है जो अज्ञान और उपाधियों के कारण शुद्ध चेतना का सीमित या खंडित प्रतिबिम्ब प्रतीत होता है।

    • तृतीयः यह इंगित करता है कि यहाँ जीव के तीसरे प्रकार की बात हो रही है। (पहले दो प्रकारों का उल्लेख इससे पहले के श्लोकों में किया गया होगा, लेकिन इस श्लोक में स्पष्ट रूप से नहीं है। सामान्यतः, अद्वैत में जीव के 'ईश्वर-रूप', 'प्राज्ञ-रूप' और 'विश्व-रूप' जैसे विभाजन होते हैं, या फिर 'पारमार्थिक', 'व्यावहारिक' और 'प्रातिभासिक' जीव। यहाँ 'स्वप्रकल्पित' तीसरे प्रकार के रूप में 'प्रातिभासिक' जीव को दर्शा सकता है।)

    • स्वप्रकल्पितः : इसका अर्थ है कि यह जीव स्वयं के अज्ञान या संकल्प के कारण ही उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है। यह जीव अपने लिए ही एक सीमित अस्तित्व की कल्पना कर लेता है। यह माया द्वारा उत्पन्न भ्रम है।

  2. विज्ञेयस्त्रिविधो जीवस्तत्राद्यः पारमार्थिकः ॥ ३२ ॥ :

    • विज्ञेयस्त्रिविधो जीवः : जीव को तीन प्रकार का समझना चाहिए। ये तीन प्रकार सामान्यतः अद्वैत वेदांत में 'पारमार्थिक', 'व्यावहारिक' और 'प्रातिभासिक' जीव के रूप में जाने जाते हैं:

      • पारमार्थिक जीव: यह वास्तव में शुद्ध ब्रह्म है, जिसमें कोई जीवत्व नहीं है। यह परमार्थ सत्य है।

      • व्यावहारिक जीव: यह वह जीव है जो स्थूल और सूक्ष्म शरीरों से युक्त होकर संसार में कर्ता और भोक्ता के रूप में व्यवहार करता है। यह अज्ञान की अवस्था में सत्य प्रतीत होता है।

      • प्रातिभासिक जीव: यह वह जीव है जो केवल भ्रम या कल्पना में ही अस्तित्व रखता है, जैसे स्वप्न में अनुभव किया गया जीव। यह अज्ञान के भी सबसे निम्न स्तर पर होता है।

    • तत्राद्यः पारमार्थिकः : इन तीन प्रकारों में से जो पहला प्रकार है, वह 'पारमार्थिक' है। इसका अर्थ है कि परमार्थतः (परम सत्य के रूप में) जीव ब्रह्म से अभिन्न है, वह स्वयं ब्रह्म ही है। यह जीव का वास्तविक और शुद्धतम स्वरूप है, जिसमें कोई भेद या सीमा नहीं है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि हम जिस जीव को स्वयं मानते हैं, वह अज्ञान के कारण शुद्ध चेतना का एक सीमित और स्वयं-कल्पित आभास मात्र है। वेदांत के अनुसार, जीव को तीन प्रकार का जानना चाहिए (जो संभवतः पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक हैं), और इन तीनों में से पहला (पारमार्थिक) जीव वास्तव में शुद्ध ब्रह्म ही है, अर्थात परमार्थतः कोई जीवत्व है ही नहीं, केवल ब्रह्म ही है।

३३. अवच्छेदः कल्पितः स्यादवच्छेद्यं तु वास्तवम् । तस्मिन् जीवत्वमारोपाद् ब्रह्मत्वं तु स्वभावतः ॥ ३३ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जो सीमा या परिछेद (अवच्छेद) है, वह कल्पित (माया द्वारा बनाया गया) है, लेकिन जो अवच्छेद्य (जिसे सीमित किया जाता है, अर्थात ब्रह्म) है, वह वास्तव (सत्य) है। उस (वास्तविक तत्व) पर जीवत्व (जीव होने का स्वभाव) का आरोप किया जाता है, जबकि ब्रह्मत्व (ब्रह्म होने का स्वभाव) तो उसका स्वाभाविक (स्वभावतः) गुण है।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के केंद्रीय सिद्धांत को स्पष्ट करता है कि जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, और जीवत्व केवल एक अज्ञानजनित आरोप है, जबकि ब्रह्मत्व उसका मूल स्वभाव है। यह सीमा (अवच्छेद) और सीमित वस्तु (अवच्छेद्य) के बीच के संबंध को समझाता है।

  1. अवच्छेदः कल्पितः स्यादवच्छेद्यं तु वास्तवम् :

    • अवच्छेदः : यह किसी चीज को सीमित करने वाली या विभाजित करने वाली उपाधि है। जैसे, एक ही आकाश को 'घटाकाश' (घड़े के भीतर का आकाश) या 'मठाकाश' (कुएँ के भीतर का आकाश) कहकर सीमित किया जाता है। घड़ा और कुआँ 'अवच्छेदक' हैं।

    • कल्पितः स्यात् : यह बताया गया है कि यह सीमा या विभाजन वास्तविक नहीं है, बल्कि कल्पित है, अर्थात अज्ञान या माया के कारण उत्पन्न हुआ भ्रम है। आकाश वास्तव में सीमित नहीं होता, उसे सीमित मान लेना एक कल्पना है।

    • अवच्छेद्यं तु वास्तवम् : 'अवच्छेद्य' वह वस्तु है जिसे सीमित किया जा रहा है (जैसे आकाश)। श्लोक कहता है कि वह 'वास्तवम्' (वास्तविक) है। यहाँ 'अवच्छेद्य' शुद्ध चेतना या ब्रह्म है, जो स्वयं में असीम है, लेकिन उपाधियों के कारण सीमित प्रतीत होता है।

  2. तस्मिन् जीवत्वमारोपाद् ब्रह्मत्वं तु स्वभावतः ॥ ३३ ॥ :

    • तस्मिन् जीवत्वमारोपात् : 'तस्मिन्' उस अवच्छेद्य (वास्तविक) तत्व को संदर्भित करता है। उस वास्तविक तत्व (ब्रह्म/शुद्ध चेतना) पर जीवत्व (जीव होने का स्वभाव) का आरोप किया जाता है।

      • जैसे, घटाकाश वास्तव में आकाश ही है, लेकिन घड़े की उपाधि के कारण उसे 'घटाकाश' (सीमित आकाश) का जीवत्व मिल जाता है। उसी प्रकार, शुद्ध चेतना (ब्रह्म) पर मन, बुद्धि, शरीर आदि की उपाधियों का आरोप होने से वह 'जीव' प्रतीत होती है। यह 'जीवत्व' वास्तविक नहीं, बल्कि आरोपजन्य है, अज्ञान का परिणाम है।

    • ब्रह्मत्वं तु स्वभावतः : इसके विपरीत, उस वास्तविक तत्व का ब्रह्मत्व (ब्रह्म होने का स्वभाव) तो उसका स्वभावतः (स्वाभाविक रूप से) ही है।

      • जैसे घटाकाश का वास्तविक स्वभाव आकाश ही है, उसी प्रकार जीव का वास्तविक स्वभाव ब्रह्म ही है। शुद्ध चेतना कभी भी 'जीव' नहीं बनती; वह हमेशा ब्रह्म ही रहती है। 'जीवत्व' एक अस्थायी और आरोपित अवस्था है, जबकि 'ब्रह्मत्व' उसका शाश्वत और अपरिवर्तनशील स्वरूप है।

संक्षेप में, यह श्लोक अद्वैत वेदांत के 'जीवो ब्रह्मैव नापरः' (जीव ब्रह्म ही है, कोई और नहीं) के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। यह बताता है कि सीमा (जैसे शरीर, मन) केवल एक कल्पना है, जबकि जो सीमित प्रतीत होता है (शुद्ध चेतना), वह वास्तविक है। शुद्ध चेतना पर जीव होने का भाव तो अज्ञानवश आरोपित किया गया है, जबकि उसका वास्तविक और स्वाभाविक स्वरूप तो ब्रह्म ही है।

३४. अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणाऽऽकताम् । तत्त्वमस्यादिवाक्यानि जगुर्नेतरजीवयोः ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि 'तत्त्वमसि' (वह तुम हो) आदि महावाक्य सीमित (उपाधियों से युक्त) जीव की पूर्ण ब्रह्म के साथ एकता का ही प्रतिपादन करते हैं। वे अन्य दो प्रकार के जीवों (व्यावहारिक और प्रातिभासिक) की एकता का प्रतिपादन नहीं करते।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के प्रमुख महावाक्यों, विशेष रूप से 'तत्त्वमसि' के महत्व को समझाता है। यह स्पष्ट करता है कि ये महावाक्य किस 'जीव' के लिए हैं और वे क्या प्रतिपादित करते हैं। यह पिछले श्लोक (जीव के तीन प्रकार) से जुड़ा हुआ है।

  1. अवच्छिन्नस्य जीवस्य :

    • 'अवच्छिन्न' का अर्थ है जो किसी सीमा या उपाधि (जैसे शरीर, मन, बुद्धि) से युक्त होकर 'सीमित' प्रतीत होता है। यह जीव का वह स्वरूप है जो अपने आप को इन उपाधियों से जुड़ा हुआ और उनके द्वारा सीमित मानता है।

    • पिछले श्लोकों में 'जीव' के तीन प्रकार बताए गए थे: पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक। यहाँ 'अवच्छिन्न जीव' मुख्य रूप से व्यावहारिक जीव को संदर्भित करता है, जो अज्ञान के कारण स्वयं को सीमित मानता है।

  2. पूर्णेन ब्रह्मणाऽऽकताम् :

    • पूर्णेन ब्रह्मणा: पूर्ण, असीम, सर्वव्यापक ब्रह्म के साथ। ब्रह्म वह परम् सत्य है जो किसी भी सीमा या उपाधि से रहित है।

    • ऐकताम् : यह बताता है कि 'तत्त्वमसि' जैसे महावाक्य इस सीमित प्रतीत होने वाले जीव की उसी पूर्ण ब्रह्म के साथ 'एकता' या 'अभिन्नता' को स्थापित करते हैं। इसका अर्थ है कि जीव और ब्रह्म वास्तव में दो नहीं हैं, बल्कि एक ही हैं। जीव का जीवत्व केवल एक भ्रम या आरोप है, उसका मूल स्वरूप तो ब्रह्म ही है।

  3. तत्त्वमस्यादिवाक्यानि :

    • तत्त्वमसि (वह तुम हो): यह सबसे प्रसिद्ध महावाक्य है, जो छांदोग्य उपनिषद में आता है। यह शिष्य को बताता है कि वह (जीव) वही परब्रह्म है।

    • आदिवाक्यानि : इसके अलावा भी अन्य महावाक्य हैं जो जीव और ब्रह्म की एकता को प्रतिपादित करते हैं, जैसे:

      • अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) - बृहदारण्यक उपनिषद

      • अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है) - माण्डूक्य उपनिषद

      • प्रज्ञानं ब्रह्म (प्रज्ञान ब्रह्म है) - ऐतरेय उपनिषद

    • ये सभी महावाक्य जीव और ब्रह्म की परमार्थिक एकता का ज्ञान कराते हैं।

  4. जगुर्नेतरजीवयोः 

    • जगुः : इन महावाक्यों का प्रतिपादन है।

    • नेतरजीवयोः : 'इतर' का अर्थ है 'अन्य'। यहाँ 'अन्य दो जीव' पिछले श्लोक में वर्णित 'व्यावहारिक' और 'प्रातिभासिक' जीव को छोड़कर, संभवतः 'प्राज्ञ' या 'विश्व' जैसे भेदों को या फिर सिर्फ यह दर्शाता है कि ये महावाक्य अज्ञानजन्य जीवत्व (जैसे प्रातिभासिक जीव जो केवल स्वप्न या भ्रम में होता है, या व्यावहारिक जीव जो व्यवहारिक जगत में कर्ता-भोक्ता है) की पहचान को सत्य नहीं मानते।

    • यह महत्वपूर्ण है कि 'तत्त्वमसि' जैसे वाक्य उस जीव की बात नहीं करते जो खुद को सिर्फ स्थूल या सूक्ष्म शरीर मानता है (व्यावहारिक जीव), और न ही उस जीव की जो केवल भ्रम में उत्पन्न होता है (प्रातिभासिक जीव)। ये महावाक्य जीव के पारमार्थिक स्वरूप को उद्घाटित करते हैं, जो वास्तव में ब्रह्म ही है। वे अज्ञानजनित जीवत्व का निषेध करके उसके मूल स्वरूप को बताते हैं।

संक्षेप में, यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि 'तत्त्वमसि' जैसे उपनिषदिक महावाक्य उस जीव की बात करते हैं जो अज्ञानवश स्वयं को सीमित मानता है, और उसे बताते हैं कि वह वास्तव में पूर्ण, असीम ब्रह्म से अभिन्न है। ये महावाक्य जीव के अज्ञानजनित रूपों की एकता का प्रतिपादन नहीं करते, बल्कि उसके वास्तविक, परमार्थिक स्वरूप की एकता का बोध कराते हैं।

३५. ब्रह्मण्यवस्थिता माया विक्षेपावृत्तिरूपिणी । आवृत्याखण्डतां तस्मिन् जगज्जीवौ प्रकल्पयेत् ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि ब्रह्म में स्थित माया, जो विक्षेप (विकार पैदा करने वाली) और आवरण (सत्य को ढँकने वाली) स्वरूप वाली है, उस (ब्रह्म) की अखंडता को ढककर उसी में जगत् (सृष्टि) और जीव (प्राणी) की कल्पना (रचना) करती है।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अनुसार माया की शक्ति और उसके कार्यों का वर्णन करता है। यह बताता है कि कैसे माया, ब्रह्म में रहते हुए भी, जगत् और जीव के भ्रम को उत्पन्न करती है।

  1. ब्रह्मण्यवस्थिता माया :

    • माया: अद्वैत वेदांत में माया को एक अनिर्वचनीय (जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता) शक्ति माना जाता है, जो न तो सत् (वास्तविक) है और न ही असत् (अवास्तविक), बल्कि भाव-रूप है। यह ब्रह्म की ही शक्ति है।

    • ब्रह्मण्यवस्थिता: माया स्वयं ब्रह्म में ही स्थित है, यानी वह ब्रह्म से अलग कोई दूसरी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यह ब्रह्म की आंतरिक शक्ति है जिसके कारण वह स्वयं को विविध रूप में प्रकट करता प्रतीत होता है।

  2. विक्षेपावृत्तिरूपिणी :

    • यह माया की दो प्रमुख शक्तियों का वर्णन करता है:

      • विक्षेप शक्ति : यह शक्ति वस्तुओं के नाम और रूपों को प्रकट करती है, जिससे ब्रह्म जगत् के रूप में विविध प्रतीत होता है। यह संसार के निर्माण का कारण बनती है।

      • आवरण शक्ति : यह शक्ति सत्य (ब्रह्म की अखंडता) को ढँक देती है, जिससे व्यक्ति ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाता। यह अज्ञान का मूल कारण है।

    • इस प्रकार, माया का स्वरूप ही ऐसा है कि वह एक तरफ सत्य को छिपाती है और दूसरी तरफ असत्य को प्रकट करती है।

  3. आवृत्याखण्डतां तस्मिन्:

    • आवृत्य: 'ढँककर' या 'आवरण करके'।

    • अखण्डताम्: ब्रह्म की अखंडता, उसकी अविभाज्यता, उसका एकरस स्वरूप।

    • तस्मिन्: 'उसमें' या 'उस ब्रह्म में'।

    • माया अपनी आवरण शक्ति से उस ब्रह्म की मूल अखंडता को ढँक देती है। यह हमें यह समझने नहीं देती कि ब्रह्म वास्तव में अद्वितीय और अविभाज्य है।

  4. जगज्जीवौ प्रकल्पयेत् :

    • प्रकल्पयेत्: 'कल्पना करती है', 'रचना करती है' या 'प्रकट करती है'।

    • जगत् : यह पूरा दृश्यमान संसार, जिसमें सभी जड़ और चेतन वस्तुएँ शामिल हैं।

    • जीवौ : और जीव (प्राणी)।

    • जब माया अपनी आवरण शक्ति से ब्रह्म की अखंडता को ढँक देती है, तो अपनी विक्षेप शक्ति से उसी ब्रह्म में जगत् (जिसमें विविधता और परिवर्तन है) और जीव (जो स्वयं को सीमित और कर्ता-भोक्ता मानता है) की कल्पना करती है, या उन्हें प्रकट करती है। ये दोनों (जगत् और जीव) माया के ही उत्पाद हैं, ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप नहीं।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि माया, जो ब्रह्म में ही स्थित एक अनिर्वचनीय शक्ति है, अपने दो गुणों (विक्षेप और आवरण) के माध्यम से कार्य करती है। यह ब्रह्म की अखंडता को छिपा देती है, और फिर उसी अखंड ब्रह्म में विविध जगत् और सीमित जीव की रचना या कल्पना करती है। यह वेदांत के अनुसार संसार के भ्रमपूर्ण स्वरूप और जीव के वास्तविक ब्रह्म-स्वरूप को समझने की कुंजी है।

३६. जीवो धीस्थचिदाभासो भवेद्भोकता हि कर्मकृत् । भोग्यरूपमिदं सर्वं जगत् स्याद्भूतभौतिकम् ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि बुद्धि में स्थित (या बुद्धि के माध्यम से प्रतिबिंबित) चेतना का आभास (प्रतिबिम्ब) ही जीव है। यह जीव ही भोक्ता (भोगने वाला) और कर्मकृत् (कर्म करने वाला) होता है। यह सारा जगत्, जो भोग्य-स्वरूप (भोगने योग्य रूप वाला) है, वह भूतभौतिक (पंचभूतों से बना हुआ) होता है।

व्याख्या 

यह श्लोक 'जीव' की प्रकृति और उसके संसार के साथ संबंध को स्पष्ट करता है, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से। यह बताता है कि कौन कर्ता-भोक्ता है और क्या भोग्य है।

  1. जीवो धीस्थचिदाभासो भवेद्भोकता हि कर्मकृत् (Jiva is the reflection of consciousness situated in the intellect, indeed he is the enjoyer and the doer of actions):

    • जीवो: 'जीव' का अर्थ यहाँ व्यावहारिक जीव से है, जैसा कि पिछले श्लोकों में भी बताया गया था।

    • धीस्थचिदाभासः:

      • धीस्थ (Situated in the intellect/buddhi): 'धी' का अर्थ बुद्धि या अंतःकरण है।

      • चित् (Consciousness): शुद्ध चेतना या ब्रह्म।

      • आभासः (Reflection/Appearance): चित् का प्रतिबिम्ब या आभास।

      • इसका अर्थ है कि जीव वास्तव में शुद्ध चेतना (ब्रह्म) का वह प्रतिबिंब है जो 'बुद्धि' नामक उपाधि में स्थित होता है। यह बुद्धि ही चेतना के प्रकाश से प्रकाशित होकर चेतन प्रतीत होती है।

    • भवेत् (Becomes/Is):

    • भोक्ता हि कर्मकृत् (Indeed the enjoyer and the doer of actions):

      • भोक्ता (Enjoyer): जो सुख-दुःख आदि अनुभवों को भोगता है।

      • कर्मकृत् (Doer of actions): जो शुभ-अशुभ कर्मों को करता है।

      • श्लोक स्पष्ट करता है कि यह 'बुद्धि में प्रतिबिंबित चेतना' (यानी जीव) ही संसार में कर्ता (कर्म करने वाला) और भोक्ता (कर्मों के फल भोगने वाला) होता है। शुद्ध आत्मा (साक्षी) स्वयं निष्क्रिय रहती है, वह न तो कुछ करती है और न ही कुछ भोगती है; यह कार्य जीव के माध्यम से होते हैं।

  2. भोग्यरूपमिदं सर्वं जगत् स्याद्भूतभौतिकम् ॥ ३६ ॥ (This entire world, being in the form of enjoyable objects, is made of elements and their modifications):

    • भोग्यरूपमिदं सर्वं जगत् (This entire world, being in the form of enjoyable objects): यह बताता है कि यह पूरा संसार (जगत्), जिसे हम अनुभव करते हैं, भोग्य स्वरूप वाला है। यानी, यह जीव के भोगने के लिए ही बना हुआ है। इसमें वे सभी विषय शामिल हैं जो इंद्रियों द्वारा अनुभव किए जा सकते हैं।

    • स्याद्भूतभौतिकम् (Is made of elements and their modifications):

      • भूत (Elements): पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश)।

      • भौतिकम् (Made of elements/modifications of elements): भूतों से उत्पन्न होने वाले पदार्थ, भूतों के विकार।

      • इसका अर्थ है कि यह संपूर्ण भोग्य जगत् मूल पंचमहाभूतों और उनके विभिन्न संयोजनों तथा विकारों (जैसे पहाड़, नदियाँ, शरीर आदि) से बना है।

संक्षेप में, यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अनुसार जीव की पहचान और संसार के स्वरूप को स्पष्ट करता है। यह बताता है कि 'जीव' वह चेतना का प्रतिबिम्ब है जो बुद्धि में स्थित है, और वही कर्ता व भोक्ता है। जबकि यह सारा संसार, जिसे जीव भोगता है, पंचमहाभूतों और उनके विकारों से बना हुआ है। यह जीव और जड़ जगत् के संबंध को परिभाषित करता है, और अंततः यह संकेत देता है कि वास्तविक आत्मा इन दोनों से परे है।

 ३७. अनादिकालमारभ्य मोक्षात् पूर्वमिदं द्वयम् । व्यवहारे स्थितं तस्मादुभयं व्यावहारिकम् ॥ ॥

अनादि काल से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक, यह दो (जीव और जगत्) व्यवहार में स्थित रहते हैं। इसलिए ये दोनों ही 'व्यावहारिक' (यानी व्यावहारिक रूप से सत्य) हैं।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के परिप्रेक्ष्य में 'व्यावहारिक सत्ता' की अवधारणा को स्पष्ट करता है, विशेषकर जीव और जगत् के संबंध में। यह जीव और जगत् की वास्तविकता को स्वीकार करता है, लेकिन केवल 'व्यवहार' के स्तर पर, परमार्थ के स्तर पर नहीं।

  1. अनादिकालमारभ्य (Beginning from beginningless time):

    • 'अनादि काल' का अर्थ है जिस काल का कोई आदि (प्रारंभ) नहीं है। यह बताता है कि जीव और जगत् का यह संबंध कब से है।

    • यह दर्शाता है कि माया का प्रभाव और उसके कारण जीव व जगत् का अनुभव अत्यंत प्राचीन काल से चला आ रहा है।

  2. मोक्षात् पूर्वमिदं द्वयम् (Until liberation, these two):

    • मोक्षात् पूर्वम्: मोक्ष की प्राप्ति होने से पहले तक।

    • इदं द्वयम्: 'यह दो' - यहाँ यह जीव (जो स्वयं को कर्ता-भोक्ता मानता है) और जगत् (जिसे वह भोग्य मानता है) को संदर्भित करता है, जैसा कि पिछले श्लोकों में वर्णित किया गया था।

    • इसका अर्थ है कि जब तक व्यक्ति को मोक्ष (आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान) प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक जीव और जगत् की यह प्रतीति बनी रहती है।

  3. व्यवहारे स्थितं (Are situated in practical existence/experience):

    • 'व्यवहार' का अर्थ है दैनिक जीवन का अनुभव, लेन-देन, क्रिया-कलाप। यह वह स्तर है जिस पर हम संसार का अनुभव करते हैं और उसके साथ बातचीत करते हैं।

    • श्लोक कहता है कि जीव और जगत् का यह स्वरूप 'व्यवहार' में स्थित रहता है, अर्थात यह हमारे दैनंदिन अनुभवों में सत्य प्रतीत होता है।

  4. तस्मादुभयं व्यावहारिकम् ॥ ३७ ॥ (Therefore, both are 'Vyavaharika' (practically real). Verse 37):

    • तस्मात् (Therefore): उपर्युक्त कारणों से।

    • उभयं (Both): जीव और जगत्।

    • व्यावहारिकम् (Practically real/Phenomenal): अद्वैत वेदांत में सत्ता के तीन स्तर माने गए हैं:

      • पारमार्थिक सत्ता: ब्रह्म की सत्ता, जो परम सत्य है और तीनों कालों में अपरिवर्तनशील है।

      • व्यावहारिक सत्ता: जगत् और जीव की सत्ता, जो व्यवहार में सत्य प्रतीत होती है लेकिन परमार्थतः मिथ्या है (जैसे स्वप्न से जागने पर स्वप्न की दुनिया मिथ्या हो जाती है, वैसे ही ब्रह्मज्ञान होने पर यह जगत् मिथ्या प्रतीत होता है)।

      • प्रातिभासिक सत्ता: भ्रम या कल्पना की सत्ता, जैसे रस्सी में साँप का भ्रम, जो केवल थोड़े समय के लिए ही सत्य प्रतीत होता है।

    • यह श्लोक स्पष्ट करता है कि जीव और जगत् 'व्यावहारिक' हैं। इसका मतलब है कि वे हमारे अनुभव में आते हैं, उनके साथ हमारा व्यवहार होता है, और जब तक अज्ञान है, तब तक वे सत्य प्रतीत होते हैं। लेकिन मोक्ष प्राप्त होने पर उनका यह 'व्यवहारिक' स्वरूप बदल जाता है, और केवल ब्रह्म ही परम सत्य के रूप में शेष रह जाता है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि अनादि काल से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक, जीव और जगत् का अनुभव व्यवहार में सत्य प्रतीत होता है। इसलिए अद्वैत वेदांत इन्हें 'व्यावहारिक सत्ता' के रूप रूप में वर्गीकृत करता है, यह स्वीकार करते हुए कि ये व्यवहार के स्तर पर मौजूद हैं, हालांकि परमार्थतः ये ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं।

 ३८. चिदाभासस्थिता निद्रा विक्षेपावृत्तिरूपिणी । आवृत्य जीवजगती पूर्वे नूतने तु कल्पयेत् ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि चित्ताभास (चेतना के प्रतिबिम्ब) में स्थित 'निद्रा' (अज्ञान), जो विक्षेप (विकार उत्पन्न करने वाली) और आवरण (सत्य को ढँकने वाली) स्वरूप वाली है, वह जीव को ढँककर (या जीव को आच्छादित कर) पहले से ही विद्यमान जगत् में ही नए (पदार्थों) की कल्पना करती है।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अनुसार अज्ञान (जिसे यहाँ 'निद्रा' कहा गया है) की शक्ति और उसके कार्यों का वर्णन करता है, विशेष रूप से जीव के स्तर पर। यह बताता है कि कैसे अज्ञान, जीव के चेतन स्वरूप पर आरोपित होकर, उसे नए भ्रमों में फँसाता है।

  1. चिदाभासस्थिता निद्रा (The 'sleep' (ignorance) situated in the reflection of consciousness):

    • चिदाभासस्थिता: 'चिदाभास' का अर्थ है चेतना का प्रतिबिम्ब (जो जीव का व्यावहारिक स्वरूप है)। 'स्थिता' का अर्थ है उसमें स्थित।

    • निद्रा: यहाँ 'निद्रा' का अर्थ सामान्य नींद नहीं, बल्कि अज्ञान से है, जो हमें वास्तविक सत्य (ब्रह्म) से अनभिज्ञ रखता है और संसार को सत्य मानने का भ्रम पैदा करता है। यह अज्ञान उस चेतना के आभास (जीव) में स्थित होता है।

  2. विक्षेपावृत्तिरूपिणी (Of the nature of projection and concealment):

    • यह पद 'माया' की दो शक्तियों के समान ही 'अज्ञान' की दो शक्तियों का वर्णन करता है:

      • विक्षेप शक्ति (Projecting power): यह शक्ति नए भ्रमों और कल्पनाओं को उत्पन्न करती है।

      • आवृत्ति शक्ति (Concealing power): यह शक्ति सत्य (जीव के ब्रह्म-स्वरूप) को ढँक देती है।

    • इस प्रकार, अज्ञान का स्वरूप ही ऐसा है कि वह एक तरफ सत्य को छिपाता है और दूसरी तरफ असत्य को प्रकट करता है, विशेष रूप से जीव के अनुभव के संदर्भ में।

  3. आवृत्य जीवजगती (Having concealed the Jiva and the world):

    • आवृत्य: 'ढँककर' या 'आवरण करके'।

    • जीवजगती: यह 'जीव' और 'जगत्' दोनों को संदर्भित करता है।

    • अज्ञान अपनी आवरण शक्ति से जीव के वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म से उसकी अभिन्नता) को ढँक देता है, और जगत् के वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म से उसकी अभिन्नता) को भी ढँक देता है। यह हमें यह समझने नहीं देता कि जीव और जगत् दोनों ब्रह्म ही हैं।

  4. पूर्वे नूतने तु कल्पयेत् ॥ ३८ ॥ (It (the ignorance) projects new things onto the pre-existing ones):

    • पूर्वे (Pre-existing/Previous): यह उन वस्तुओं को संदर्भित करता है जो पहले से ही मौजूद हैं (यानी, जगत् और जीव, जो व्यावहारिक स्तर पर अनादि काल से हैं, जैसा कि पिछले श्लोक में बताया गया था)।

    • नूतने (New): इसका अर्थ है 'नए' या 'अतिरिक्त' पदार्थ, कल्पनाएँ या भ्रम।

    • तु कल्पयेत् (It, however, projects/creates): 'कल्पना करती है' या 'उत्पन्न करती है'।

    • जब अज्ञान अपनी आवरण शक्ति से सत्य को ढँक देता है, तो वह अपनी विक्षेप शक्ति से पहले से ही विद्यमान जगत् और जीव में ही नए-नए भ्रम, कल्पनाएँ, इच्छाएँ और अनुभव उत्पन्न करता है। जैसे, स्वप्न में व्यक्ति ऐसी चीजें देखता है जो वास्तविक नहीं होतीं, लेकिन उसे सत्य प्रतीत होती हैं। उसी प्रकार, जाग्रत अवस्था में भी, अज्ञान के कारण जीव संसार में अनेक ऐसी चीज़ों और अनुभवों की कल्पना करता रहता है जो वास्तव में हैं नहीं, या जिनका स्वरूप वह नहीं है जैसा वे प्रतीत होती हैं। यह माया का ही विस्तार है जो जीव के स्तर पर अज्ञान के रूप में कार्य करती है।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि जीव के चिदाभास में स्थित अज्ञान (जिसे 'निद्रा' कहा गया है), अपनी आवरण और विक्षेप शक्तियों के साथ, जीव के वास्तविक स्वरूप को ढँक देता है। फिर वह (अज्ञान) पहले से ही विद्यमान व्यावहारिक जगत् और जीव में नए-नए भ्रम, कल्पनाएँ और अनुभव उत्पन्न करता है। यह जीव के संसार में फँसे रहने का कारण स्पष्ट करता है।

३९. प्रतीतिकाल एवैते स्थितत्वात् प्रातिभासिके । न हि स्वप्नप्रबुद्धस्य पुनः स्वप्ने स्थितिश्चयोः ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि ये (जीव और जगत्) केवल प्रतीति काल (अनुभव के समय) में ही स्थित होते हैं, इसलिए ये 'प्रातिभासिक' (भ्रमपूर्ण) हैं। क्योंकि स्वप्न से जागा हुआ व्यक्ति फिर से स्वप्न में स्थित नहीं होता (अर्थात् स्वप्न के जीव और जगत् में वापस नहीं जाता)।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अनुसार 'प्रातिभासिक सत्ता' की अवधारणा को स्पष्ट करता है। यह बताता है कि कैसे कुछ अनुभव केवल भ्रम या कल्पना के स्तर पर ही सत्य होते हैं और उनके नष्ट होने पर उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता। यह जीव और जगत् के उन स्वरूपों को संदर्भित करता है जो अत्यंत क्षणभंगुर होते हैं, जैसे स्वप्न के अनुभव।

  1. प्रतीतिकाल एवैते स्थितत्वात् प्रातिभासिके (These exist only during the time of their appearance, hence they are 'Pratibhasika'):

    • प्रतीतिकाल एवैते (These exist only during the time of their appearance): 'प्रतीति' का अर्थ है आभास या अनुभव। श्लोक कहता है कि कुछ चीजें केवल तभी तक अस्तित्व में होती हैं जब तक उनका अनुभव हो रहा होता है। जैसे, स्वप्न में देखे गए पदार्थ केवल स्वप्न देखने के समय तक ही सत्य प्रतीत होते हैं।

    • स्थितत्वात् (Because they exist):

    • प्रातिभासिके (Pratibhasika / Illusory): यह सत्ता का तीसरा और सबसे निम्न स्तर है (पहला पारमार्थिक, दूसरा व्यावहारिक)। 'प्रातिभासिक' वह है जो केवल प्रतीति या भ्रम के समय तक ही सत्य होता है, और उसके बाद उसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं रह जाता। रस्सी में साँप का भ्रम, मृगतृष्णा, या स्वप्न की दुनिया इसके उदाहरण हैं।

  2. न हि स्वप्नप्रबुद्धस्य पुनः स्वप्ने स्थितिश्चयोः ॥ ३९ ॥ (For a person awakened from a dream, there is no re-entry into the dream):

    • न हि (Indeed not):

    • स्वप्नप्रबुद्धस्य (Of one awakened from a dream): जो व्यक्ति स्वप्न देख रहा था और अब उस स्वप्न से जाग गया है।

    • पुनः स्वप्ने स्थितिश्चयोः (Re-entry into the dream): जागने के बाद वह व्यक्ति फिर से उसी स्वप्न में प्रवेश नहीं करता। स्वप्न की दुनिया जागने के साथ ही समाप्त हो जाती है।

    • यह उदाहरण 'प्रातिभासिक' सत्ता की अस्थायी और भ्रमपूर्ण प्रकृति को स्पष्ट करता है। जिस प्रकार स्वप्न का जगत् और उसमें का जीव स्वप्न टूटने पर विलीन हो जाते हैं और जाग्रत व्यक्ति उसमें वापस नहीं जाता, उसी प्रकार प्रातिभासिक जगत् और जीव (जैसे इंद्रजाल या गहरे अज्ञान के भ्रम) भी ज्ञान होने पर नष्ट हो जाते हैं और उनका कोई स्थायी अस्तित्व नहीं होता।

संक्षेप में, यह श्लोक 'प्रातिभासिक' सत्ता की व्याख्या करता है, जिसमें जीव और जगत् केवल अनुभव या भ्रम के समय तक ही सत्य प्रतीत होते हैं। स्वप्न के उदाहरण से यह समझाया गया है कि जैसे जागने के बाद स्वप्न की दुनिया का कोई अस्तित्व नहीं रहता, उसी प्रकार प्रातिभासिक अनुभव भी ज्ञान होने पर पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं और उनका कोई वास्तविक या स्थायी आधार नहीं होता।

४०. प्रातिभासिकजीवो यस्तज्जगत् प्रातिभासिकम् । वास्तवं मन्यतेऽन्यस्तु मिथ्येति व्यावहारिकः ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जो 'प्रातिभासिक जीव' है, वह उस प्रातिभासिक जगत् को ही वास्तविक (सत्य) मानता है। जबकि दूसरा (व्यावहारिक जीव) उसे (प्रातिभासिक जगत् को) मिथ्या (झूठा) मानता है।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत में सत्ता के विभिन्न स्तरों (विशेष रूप से प्रातिभासिक और व्यावहारिक) की जीव की धारणा के संदर्भ में व्याख्या करता है। यह जीव के दो अलग-अलग स्तरों की जागरूकता को दर्शाता है।

  1. प्रातिभासिकजीवो यस्तज्जगत् प्रातिभासिकम् (That Pratibhasika Jiva, considers that Pratibhasika world):

    • प्रातिभासिकजीवो (Pratibhasika Jiva): यह वह जीव है जो केवल भ्रम या कल्पना के स्तर पर ही अस्तित्व में होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वप्न में अनुभव किया गया जीव है। स्वप्न में जो 'मैं' होता है, वह 'प्रातिभासिक जीव' है।

    • यस्तत् जगत् प्रातिभासिकम् (That Pratibhasika world): 'जगत्' यहाँ प्रातिभासिक जगत् को संदर्भित करता है, यानी वह संसार जो केवल भ्रम के समय ही सत्य प्रतीत होता है, जैसे स्वप्न की दुनिया।

    • इसका अर्थ है कि स्वप्न में जो जीव होता है (प्रातिभासिक जीव), वह स्वप्न में देखे गए संसार (प्रातिभासिक जगत्) को ही वास्तविक मानता है। जब तक स्वप्न चल रहा होता है, स्वप्न के भीतर का 'मैं' उस स्वप्न के संसार को पूरी तरह से सत्य अनुभव करता है, भले ही वह जागने पर मिथ्या सिद्ध हो।

  2. वास्तवं मन्यतेऽन्यस्तु मिथ्येति व्यावहारिकः ॥ ४० ॥ (As real, while the other (Vyavaharika Jiva) considers it false.):

    • वास्तवं मन्यते (Considers as real): प्रातिभासिक जीव उस प्रातिभासिक जगत् को वास्तविक सत्य मानता है।

    • अन्यस्तु (But the other one): यहाँ 'अन्य' से तात्पर्य दूसरे प्रकार के जीव से है।

    • मिथ्येति (As false): वह 'अन्य' जीव उस प्रातिभासिक जगत् को मिथ्या या झूठा मानता है।

    • व्यावहारिकः (Vyavaharika): यह 'अन्य' जीव 'व्यावहारिक जीव' है। 'व्यावहारिक जीव' वह है जो जाग्रत अवस्था में संसार का अनुभव करता है और उसे व्यवहारिक रूप से सत्य मानता है।

    • यह बताता है कि जब एक व्यक्ति स्वप्न से जाग जाता है (अर्थात् व्यावहारिक स्तर पर आ जाता है), तो वह (व्यावहारिक जीव) अपने द्वारा स्वप्न में देखे गए जगत् को (जो प्रातिभासिक था) मिथ्या या अवास्तविक मानता है।

संक्षेप में, यह श्लोक अद्वैत वेदांत में सत्ता के दो स्तरों - प्रातिभासिक और व्यावहारिक - के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है। यह दर्शाता है कि जिस स्तर पर अनुभव हो रहा है, उस स्तर पर वह अनुभव सत्य प्रतीत होता है। प्रातिभासिक जीव के लिए प्रातिभासिक जगत् सत्य होता है, लेकिन जब वही जीव 'जाग्रत' होकर व्यावहारिक स्तर पर आता है, तो वह उस प्रातिभासिक जगत् को मिथ्या मानता है। यह उपमा बताती है कि कैसे एक ज्ञानी व्यक्ति के लिए यह पूरा व्यावहारिक जगत् भी अंततः मिथ्या सिद्ध होता है, जब वह परमार्थिक सत्य का अनुभव कर लेता है।

४१. व्यावहारिकजीवो यस्तज्जगद् व्यावहारिकम् । सत्यं प्रत्येति मिथ्येति मन्यते पारमार्थिकः ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जो 'व्यावहारिक जीव' है, वह उस व्यावहारिक जगत् को ही सत्य मानता है। जबकि 'पारमार्थिक' (ज्ञानी) उसे (व्यावहारिक जगत् को) मिथ्या (झूठा) मानता है।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत में सत्ता के विभिन्न स्तरों (विशेष रूप से व्यावहारिक और पारमार्थिक) की जीव की धारणा के संदर्भ में व्याख्या करता है। यह जीव के दो अलग-अलग स्तरों की जागरूकता को दर्शाता है – अज्ञानी की दृष्टि (जो व्यावहारिक है) और ज्ञानी की दृष्टि (जो पारमार्थिक है)।

  1. व्यावहारिकजीवो यस्तज्जगद् व्यावहारिकम् (That Vyavaharika Jiva, considers that Vyavaharika world):

    • व्यावहारिकजीवो (Vyavaharika Jiva): यह वह जीव है जो जाग्रत अवस्था में संसार का अनुभव करता है और स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि आदि से युक्त मानता है। यह हमारे और अधिकांश लोगों का सामान्य जीव स्वरूप है।

    • यस्तत् जगत् व्यावहारिकम् (That Vyavaharika world): 'जगत्' यहाँ व्यावहारिक जगत् को संदर्भित करता है, यानी वह संसार जो हमारे दैनिक जीवन में सत्य प्रतीत होता है और जिसके साथ हम व्यवहार करते हैं।

    • इसका अर्थ है कि जो व्यावहारिक जीव है, वह इस जाग्रत अवस्था में अनुभव किए जाने वाले जगत् (व्यावहारिक जगत्) को ही सत्य मानता है। उसके लिए संसार वास्तविक है और वह उसमें कर्ता-भोक्ता है।

  2. सत्यं प्रत्येति मिथ्येति मन्यते पारमार्थिकः ॥ ४१ ॥ (Considers as true, while the 'Paramarthika' (the enlightened one) considers it false.):

    • सत्यं प्रत्येति (Considers as true/perceives as real): व्यावहारिक जीव इस जगत् को सत्य के रूप में देखता और अनुभव करता है।

    • मिथ्येति मन्यते (Considers as false): वह (जगत्) मिथ्या या झूठा है, ऐसा मानता है।

    • पारमार्थिकः (Paramarthika / The enlightened one): यहाँ 'पारमार्थिक' शब्द ऐसे जीव के लिए प्रयुक्त हुआ है जिसने परमार्थ सत्य (ब्रह्म) का साक्षात्कार कर लिया है। यह ज्ञानी पुरुष है।

    • यह बताता है कि जब कोई जीव 'पारमार्थिक' स्तर को प्राप्त कर लेता है, अर्थात उसे ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है, तब वह (ज्ञानी) उसी व्यावहारिक जगत् को मिथ्या (अवास्तविक या केवल प्रतीत होने वाला) मानता है। जैसे स्वप्न से जागा हुआ व्यक्ति स्वप्न की दुनिया को मिथ्या मानता है, वैसे ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति के लिए यह पूरा जगत् (नाम और रूप वाला) केवल एक भ्रम या माया का खेल प्रतीत होता है, और उसके लिए केवल ब्रह्म ही परम सत्य रह जाता है।

संक्षेप में, यह श्लोक अद्वैत वेदांत में सत्य के दो स्तरों की धारणा को स्पष्ट करता है: व्यावहारिक और पारमार्थिक। यह दर्शाता है कि अज्ञानी व्यावहारिक जीव के लिए संसार सत्य है, जबकि आत्मज्ञान प्राप्त ज्ञानी (पारमार्थिक) के लिए वही संसार मिथ्या प्रतीत होता है। यह जीव की जागरूकता के स्तर में परिवर्तन को दर्शाता है जब उसे परम सत्य का बोध होता है।

४२. पारमार्थिकजीवस्तु ब्रह्मैक्यं पारमार्थिकम् । प्रत्येति वीक्षते नान्यद्वीक्षते त्वनृतात्मना ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जो 'पारमार्थिक जीव' है, वह ब्रह्म के साथ अपनी पारमार्थिक (परमार्थतः) एकता का अनुभव करता है और देखता है। वह किसी अन्य (भेद) को नहीं देखता, क्योंकि वह असत्य आत्मा (अज्ञान या उपाधियों) से मुक्त होता है।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अंतिम लक्ष्य, यानी आत्म-साक्षात्कार प्राप्त ज्ञानी (पारमार्थिक जीव) की स्थिति का वर्णन करता है। यह बताता है कि ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसकी दृष्टि कैसी हो जाती है और उसे क्या अनुभव होता है। यह पिछले श्लोकों की श्रृंखला का निष्कर्ष है, जहाँ सत्ता के तीन स्तरों (प्रातिभासिक, व्यावहारिक, पारमार्थिक) की बात की गई थी।

  1. पारमार्थिकजीवस्तु (But the Paramarthika Jiva):

    • पारमार्थिकजीवः: यह वह जीव है जिसने परमार्थ सत्य (ब्रह्म) का साक्षात्कार कर लिया है। यह ज्ञानी व्यक्ति है, जो अब स्वयं को उपाधियों से बँधा हुआ जीव नहीं मानता, बल्कि शुद्ध ब्रह्म के रूप में ही अनुभव करता है। यह उसकी वास्तविक, मूल पहचान है।

  2. ब्रह्मैक्यं पारमार्थिकम् (The essential oneness with Brahman):

    • ब्रह्म-ऐक्यम्: ब्रह्म के साथ एकता या अभिन्नता।

    • पारमार्थिकम्: परमार्थतः, यानी परम सत्य के स्तर पर।

    • श्लोक कहता है कि यह पारमार्थिक जीव (ज्ञानी) अपनी ब्रह्म के साथ परमार्थिक एकता का अनुभव करता है। उसे स्पष्ट रूप से यह बोध होता है कि वह स्वयं ही ब्रह्म है और ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह केवल बौद्धिक समझ नहीं, बल्कि सीधा अनुभव है।

  3. प्रत्येति वीक्षते नान्यत् (He perceives and sees no other (difference):

    • प्रत्येति (He perceives/understands): उसे इस एकता का बोध होता है।

    • वीक्षते (He sees): वह देखता है।

    • नान्यत् (No other/No difference): उसे कोई भेद या दूसरा अस्तित्व दिखाई नहीं देता।

    • जब ज्ञानी को अपनी ब्रह्म के साथ एकता का अनुभव हो जाता है, तो उसे संसार में कोई द्वैत (भेद) दिखाई नहीं देता। उसके लिए सब कुछ ब्रह्ममय हो जाता है। उसे न तो कोई दूसरा जीव (जो उससे भिन्न हो) दिखाई देता है और न ही कोई दूसरा जगत् (जो ब्रह्म से भिन्न हो)। सब कुछ एक ही ब्रह्म का स्वरूप प्रतीत होता है।

  4. वीक्षते त्वनृतात्मना ॥ ४२ ॥ (He indeed sees with the unreal self.):

    • त्वनृतात्मना (Indeed with the unreal self/due to the false self):

      • 'अनृतात्मा' का अर्थ है 'असत्य आत्मा' या 'अवास्तविक आत्मा'। यहाँ इसका तात्पर्य अज्ञान से उत्पन्न होने वाली उपाधियों (जैसे मन, बुद्धि, शरीर) से है, जिनके कारण जीव स्वयं को सीमित और अलग मानता है। यह 'अनात्म' का भाव है।

    • इस पंक्ति का अर्थ है कि जब तक कोई व्यक्ति अज्ञान के कारण अपने आप को 'अनृतात्मा' (असत्य या सीमित आत्मा/उपाधियों) से युक्त मानता है, तभी तक उसे 'भेद' (दूसरापन) दिखाई देता है। एक बार जब वह इस असत्य आत्मा के बोध से मुक्त हो जाता है और अपनी पारमार्थिक ब्रह्म-सत्ता का अनुभव कर लेता है, तो उसे कोई भेद नहीं दिखता।

संक्षेप में, यह श्लोक बताता है कि आत्मज्ञान प्राप्त 'पारमार्थिक जीव' को ब्रह्म के साथ अपनी परमार्थिक एकता का सीधा अनुभव होता है। ऐसी स्थिति में उसे किसी भी प्रकार का भेद या दूसरापन दिखाई नहीं देता, क्योंकि वह अज्ञान (असत्य आत्मा) के कारण उत्पन्न होने वाले द्वैत के भ्रम से पूरी तरह मुक्त हो चुका होता है। यह अद्वैत वेदांत में कैवल्य या मोक्ष की स्थिति का वर्णन है।

४३. माधुर्यद्रवशैत्यानि नीरधर्मास्तरङ्गके । अनुगम्याथ तन्निष्ठे फेनेऽप्यनुगता यथा ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि जैसे मधुरता, द्रवता (तरलता) और शीतलता - ये जल के धर्म हैं, और ये तरंगों में भी विद्यमान होते हैं, और फिर तरंगों में स्थित होने के कारण (ये ही धर्म) फेन (झाग) में भी चले जाते हैं (अर्थात् फेन में भी ये ही गुण पाए जाते हैं)।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत में ब्रह्म, जगत्, और जीव के बीच के संबंध को एक सुंदर उदाहरण के माध्यम से समझाता है। यह बताता है कि कैसे मूल कारण (जल) के गुण उसके कार्य (तरंग और फेन) में भी अनुस्यूत होते हैं। यह दृष्टांत जीव और ब्रह्म की एकता को समझने में सहायक है।

  1. माधुर्यद्रवशैत्यानि नीरधर्मास्तरङ्गके (Sweetness, liquidity, and coolness, the qualities of water, are present in waves):

    • माधुर्य (Sweetness), द्रव (Liquidity/Flowing nature), शैत्य (Coolness): ये जल के स्वाभाविक गुण हैं। जल में ये तीनों गुण विद्यमान होते हैं।

    • नीरधर्माः (Qualities of water): ये जल के धर्म या स्वाभाविक गुण हैं।

    • तरङ्गके (In the wave): तरंग जल का एक रूप या विकार है।

    • यह बताता है कि जल के जो स्वाभाविक गुण हैं (मधुरता, द्रवता, शीतलता), वे उस जल से उत्पन्न होने वाली तरंगों में भी पाए जाते हैं। तरंगें जल से भिन्न नहीं होतीं, वे जल का ही एक अभिव्यक्त रूप हैं।

  2. अनुगम्याथ तन्निष्ठे फेनेऽप्यनुगता यथा ॥ ४३ ॥ (And having reached there (in the waves), they (these qualities) are also present in the foam that is dependent on them):

    • अनुगम्य (Having followed/Reached): यहाँ तात्पर्य है कि जल के गुण तरंगों में "प्रविष्ट" हो गए हैं या उनका "अनुसरण" कर रहे हैं।

    • अथ (And then):

    • तन्निष्ठे (Dependent on them/Situated in them): 'तन्निष्ठ' का अर्थ है जो तरंगों पर आश्रित है। यहाँ यह 'फेन' को संदर्भित करता है।

    • फेनेऽप्यनुगता (Are also present in the foam): फेन (झाग) तरंगों का एक और सूक्ष्म रूप है, जो जल और तरंग दोनों पर निर्भर करता है।

    • यथा (Just as): यह एक दृष्टांत को प्रस्तुत कर रहा है।

    • यह बताता है कि जब जल के गुण तरंगों में होते हैं, तो वे गुण आगे तरंगों पर आधारित फेन (झाग) में भी स्वतः ही विद्यमान होते हैं। फेन में भी वही मधुरता, द्रवता और शीतलता पाई जाती है जो मूल जल में होती है।

इस दृष्टांत का आध्यात्मिक अर्थ:

  • जल (नीर): यह ब्रह्म का प्रतीक है, जो परमार्थतः सत्य, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्ता है, जिसके गुण (सच्चिदानंद) अपरिवर्तनीय हैं।

  • तरंग (तरङ्ग): यह जगत् का प्रतीक है। जगत् ब्रह्म से भिन्न नहीं है, बल्कि ब्रह्म पर ही आरोपित एक अभिव्यक्ति है, जैसे तरंगें जल से भिन्न नहीं होतीं। जगत् में भी ब्रह्म के गुण (सत्, चित्, आनंद - अर्थात् अस्तित्व, प्रकाशन, प्रियता) अनुस्यूत हैं।

  • फेन (फेन): यह जीव का प्रतीक है। जैसे फेन तरंगों पर आश्रित होता है, वैसे ही जीव जगत् और अज्ञान पर आश्रित प्रतीत होता है। लेकिन मूलतः, फेन भी जल ही है। इसी प्रकार, जीव भी मूलतः ब्रह्म ही है। जल के जो गुण तरंग और फेन में होते हैं, वे दर्शाते हैं कि ब्रह्म के गुण जीव और जगत् दोनों में व्याप्त हैं।

संक्षेप में, यह श्लोक जल, तरंग और फेन के उदाहरण से यह समझाता है कि जैसे जल के मूल गुण (मधुरता, द्रवता, शीतलता) उसकी तरंगों और फेन में भी अनुस्यूत होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म के मूलभूत गुण (सच्चिदानंद) उससे उत्पन्न होने वाले जगत् और जीव में भी विद्यमान होते हैं। यह जीव और जगत् की ब्रह्म से अभिन्नता को स्थापित करता है, यह बताता है कि भेद केवल नाम-रूप का है, सार का नहीं।

४४. साक्षिस्थाः सच्चिदानन्दाः सम्बन्धव्यवहारिके । तद्वारेणानुगच्छन्ति तथैव प्रातिभासिके ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि साक्षी (शुद्ध चेतना) में स्थित सच्चिदानंद (सत्-चित्-आनंद) गुण, व्यावहारिक (जगत् और जीव) के साथ संबंध के माध्यम से अनुगमन करते हैं, और उसी प्रकार प्रातिभासिक (जगत् और जीव) में भी (अनुगमन करते हैं)।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अनुसार सच्चिदानंद ब्रह्म के गुणों (सत्, चित्, आनंद) का विभिन्न सत्ता-स्तरों (व्यावहारिक और प्रातिभासिक) में किस प्रकार अनुभव होता है, इसे स्पष्ट करता है। यह पिछले श्लोकों में दिए गए जल-तरंग-फेन के उदाहरण को आगे बढ़ाता है।

  1. साक्षिस्थाः सच्चिदानन्दाः (Satchidananda qualities, existing in the Witness):

    • साक्षिस्थाः (Existing in the Witness): 'साक्षी' यहाँ शुद्ध चेतना या ब्रह्म को संदर्भित करता है, जो सभी दृश्यों और अनुभवों का साक्षी मात्र है, स्वयं उनसे प्रभावित नहीं होता। सच्चिदानंद ब्रह्म का मूल स्वरूप है।

    • सच्चिदानन्दाः (Satchidananda): सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना/ज्ञान), आनंद (परम सुख)। ये ब्रह्म के स्वरूपभूत लक्षण हैं, जो उससे अभिन्न हैं।

    • यह बताता है कि सत्, चित्, आनंद - ये गुण साक्षी रूप ब्रह्म के अपने स्वरूप हैं, वे उसमें स्वाभाविक रूप से स्थित हैं।

  2. सम्बन्धव्यवहारिके (Through connection with the Vyavaharika):

    • सम्बन्ध (Connection/Relation):

    • व्यवहारिके (In the Vyavaharika/Practical): यह व्यावहारिक जगत् और व्यावहारिक जीव को संदर्भित करता है, जो जाग्रत अवस्था में सत्य प्रतीत होते हैं।

    • श्लोक कहता है कि साक्षी में स्थित ये सच्चिदानंद गुण व्यावहारिक जगत् और जीव के साथ संबंध स्थापित करके उनमें प्रकट होते हैं। अर्थात्, व्यावहारिक स्तर पर हम देखते हैं कि सभी वस्तुएँ 'हैं' (सत्), चेतन जीव 'जानते हैं' (चित्), और सभी प्रिय वस्तुएँ 'सुख' देती हैं (आनंद)। ये गुण वास्तव में साक्षी ब्रह्म से ही आते हैं, जो व्यावहारिक स्तर पर प्रतिबिंबित होते हैं।

  3. तद्वारेणानुगच्छन्ति (They pervade through that means/channel):

    • तद्वारेण (Through that channel/means): यहाँ 'वह माध्यम' व्यावहारिक जगत् और जीव हैं।

    • अनुगच्छन्ति (They pervade/follow): ये सच्चिदानंद गुण उस माध्यम से जगत् और जीव में अनुस्यूत होते हैं, जैसे जल के गुण तरंग और फेन में अनुस्यूत होते हैं。

    • इसका अर्थ है कि सच्चिदानंद गुण ब्रह्म से निकलकर व्यावहारिक संसार में वस्तुओं और प्राणियों के अस्तित्व, चेतना और प्रियता के रूप में प्रकट होते हैं।

  4. तथैव प्रातिभासिके ॥ ४४ ॥ (And similarly in the Pratibhasika as well):

    • तथैव (And similarly):

    • प्रातिभासिके (In the Pratibhasika/Illusory): यह प्रातिभासिक जगत् और प्रातिभासिक जीव को संदर्भित करता है, जो केवल भ्रम या कल्पना के समय तक ही सत्य प्रतीत होते हैं (जैसे स्वप्न)।

    • श्लोक कहता है कि जैसे सच्चिदानंद गुण व्यावहारिक स्तर पर प्रकट होते हैं, उसी प्रकार वे प्रातिभासिक स्तर पर भी प्रकट होते हैं। स्वप्न में देखी गई वस्तुएँ भी 'होती हुई' प्रतीत होती हैं (सत्), स्वप्न का जीव 'जानता हुआ' प्रतीत होता है (चित्), और स्वप्न में भी प्रिय वस्तुएँ 'सुख' देती हुई प्रतीत होती हैं (आनंद)। ये गुण भी अंततः साक्षी ब्रह्म से ही आते हैं, भले ही उनका अनुभव केवल भ्रम के स्तर पर हो।

संक्षेप में, यह श्लोक अद्वैत वेदांत के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को पुष्ट करता है कि ब्रह्म का स्वरूपभूत सच्चिदानंद गुण, साक्षी रूप में स्थित होकर, माया के कारण उत्पन्न होने वाले सभी सत्ता-स्तरों (व्यावहारिक और प्रातिभासिक) में भी अनुस्यूत होता है। यह दर्शाता है कि तीनों स्तरों पर अनुभव की जाने वाली सत्ता, चेतना और आनंद का मूल स्रोत एक ही ब्रह्म है, भले ही उनके प्रकट होने का तरीका और उनकी वास्तविकता का स्तर भिन्न हो। यह 'अस्ति-भाति-प्रिय' के सिद्धांत से भी जुड़ता है।

४५. लये फेनस्य तद्धर्मा द्रवाद्याः स्युस्तरङ्गके । तस्यापि विलये नीरे तिष्ठन्त्येते यथा पुरा ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि फेन (झाग) का लय (विलय/समाप्ति) होने पर उसके धर्म (जैसे द्रवता आदि) तरंगों में चले जाते हैं (यानी तरंगों में ही शेष रहते हैं)। और उस (तरंग) के भी जल में विलीन हो जाने पर, ये ही (गुण) पहले की तरह जल में ही स्थित रहते हैं।

व्याख्या

यह श्लोक पिछले श्लोक (43) में दिए गए जल, तरंग और फेन के उदाहरण को आगे बढ़ाता है, और यह समझाता है कि कैसे कार्य (फेन, तरंग) का नाश होने पर भी उसका मूल कारण (जल) और उसके गुण (द्रवता आदि) बने रहते हैं। यह दृष्टांत जीव, जगत् और ब्रह्म के संबंध में लय (विनाश) की प्रक्रिया और ब्रह्म की अवशिष्टता को स्पष्ट करता है।

  1. लये फेनस्य तद्धर्मा द्रवाद्याः स्युस्तरङ्गके (Upon the dissolution of foam, its qualities like liquidity etc. remain in the wave):

    • लये फेनस्य (Upon the dissolution/merger of foam): 'फेन' (झाग) का अर्थ है उसका समाप्त हो जाना या जिससे वह बना है, उसमें मिल जाना।

    • तद्धर्माः (Its qualities): फेन के गुण।

    • द्रवाद्याः (Like liquidity etc.): यहाँ 'द्रव' का अर्थ 'तरलता' और 'आद्याः' का अर्थ 'आदि' यानी अन्य गुण जैसे मधुरता, शीतलता भी।

    • स्युस्तरङ्गके (Remain in the wave): 'तरंग' में रहते हैं।

    • यह बताता है कि जब फेन (जो तरंग पर आश्रित था) समाप्त हो जाता है, तो उसके जो भी गुण थे (जो मूलतः जल के ही थे), वे फेन के मूल कारण यानी तरंग में ही वापस मिल जाते हैं या तरंग में ही अनुस्यूत रहते हैं। फेन का नाश होने पर भी गुण नष्ट नहीं होते, बल्कि अपने उपादान कारण में लौट जाते हैं।

  2. तस्यापि विलये नीरे तिष्ठन्त्येते यथा पुरा ॥ ४५ ॥ (And upon its (the wave's) dissolution in water, these same (qualities) remain in the water as before.):

    • तस्यापि विलये (And upon its (the wave's) dissolution): 'तस्य' यहाँ 'तरंग' को संदर्भित करता है। जब तरंग भी विलीन हो जाती है या शांत हो जाती है।

    • नीरे (In the water): अपने मूल कारण, जल में।

    • तिष्ठन्त्येते (These remain): 'ये' गुण (द्रवता, मधुरता, शीतलता) शेष रहते हैं।

    • यथा पुरा (As before): जैसे वे पहले थे।

    • यह बताता है कि जब तरंगें भी (जो जल पर आश्रित थीं) जल में शांत होकर विलीन हो जाती हैं, तो वे सभी गुण (द्रवता, मधुरता, शीतलता) अपने मूल कारण जल में ही यथावत् (पहले की तरह) विद्यमान रहते हैं। जल का स्वरूप अपरिवर्तित रहता है।

इस दृष्टांत का आध्यात्मिक अर्थ:

  • फेन का लय (Dissolution of Foam): फेन को प्रातिभासिक जीव/जगत् का प्रतीक माना गया है। जैसे स्वप्न की दुनिया जागने पर विलीन हो जाती है। जब प्रातिभासिक सत्ता (स्वप्न आदि) का लय होता है, तो वह व्यावहारिक सत्ता (जाग्रत अवस्था) में मिल जाती है। प्रातिभासिक जीव के गुण (सत्, चित्, आनंद का आभास) व्यावहारिक जीव/जगत् में समाहित हो जाते हैं।

  • तरंग का लय (Dissolution of Wave): तरंग को व्यावहारिक जीव/जगत् का प्रतीक माना गया है। जैसे जल में तरंगें उठती-गिरती रहती हैं। जब व्यावहारिक सत्ता (यह जाग्रत संसार और उसमें स्थित जीव) का लय होता है (जैसे मोक्ष की प्राप्ति या ज्ञानोदय पर), तो वह अपने मूल कारण ब्रह्म (जल) में विलीन हो जाती है। व्यावहारिक जीव के गुण (सत्, चित्, आनंद का व्यवहारिक अनुभव) ब्रह्म में समाहित हो जाते हैं।

  • जल की अवशिष्टता (Persistence of Water): जल ब्रह्म का प्रतीक है। फेन और तरंगों के लय होने के बाद भी जल अपनी मूल अवस्था में बना रहता है, उसके गुण (द्रवता, मधुरता, शीतलता) अपरिवर्तित रहते हैं। इसी प्रकार, जीव और जगत् के तीनों स्तरों (प्रातिभासिक, व्यावहारिक) का लय होने पर भी, ब्रह्म अपने सच्चिदानंद स्वरूप में अपरिवर्तित और नित्य बना रहता है। वह ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है।

संक्षेप में, यह श्लोक जल, तरंग और फेन के क्रमिक विलय के उदाहरण से यह समझाता है कि कैसे प्रातिभासिक सत्ता व्यावहारिक में विलीन होती है, और व्यावहारिक सत्ता अंततः ब्रह्म में विलीन हो जाती है। यह दर्शाता है कि जगत् और जीव के सभी रूप क्षणभंगुर हैं और उनका मूल आश्रय तथा परम सत्य केवल ब्रह्म ही है, जो हमेशा अपनी मूल सच्चिदानंद अवस्था में स्थित रहता है।

४६. प्रातिभासिकजीवस्य लये स्युर्व्यावहारिके । तल्लये सच्चिदानन्दाः पर्यवस्यन्ति साक्षिणि ॥ ॥

इस श्लोक का अर्थ है कि प्रातिभासिक जीव (जैसे स्वप्न का जीव) के लय होने पर वे (उसके गुण) व्यावहारिक (जीव/जगत्) में चले जाते हैं। उस (व्यावहारिक जीव/जगत्) के लय होने पर (उसके गुण) सच्चिदानंद साक्षी (शुद्ध ब्रह्म) में पर्यवसित (समाप्त या विलीन) हो जाते हैं।

व्याख्या 

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के अनुसार सत्ता के तीनों स्तरों (प्रातिभासिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक) के क्रमिक विलय (लय) की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है, यह दर्शाता है कि अंततः सब कुछ ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है। यह पिछले श्लोकों में जीव और जगत् के प्रकारों तथा जल-तरंग-फेन के दृष्टांत की परिणति है।

  1. प्रातिभासिकजीवस्य लये स्युर्व्यावहारिके (Upon the dissolution of the Pratibhasika Jiva, they (its qualities) remain in the Vyavaharika):

    • प्रातिभासिकजीवस्य लये: जब प्रातिभासिक जीव का लय होता है, यानी वह समाप्त हो जाता है। प्रातिभासिक जीव वह है जो केवल भ्रम या कल्पना के समय तक ही सत्य प्रतीत होता है, जैसे स्वप्न का जीव। जब स्वप्न टूटता है, तो स्वप्न के भीतर का जीव और उसकी दुनिया समाप्त हो जाती है।

    • स्युर्व्यावहारिकः: 'वे (उसके गुण) व्यावहारिक में चले जाते हैं' या 'व्यावहारिक में समाहित हो जाते हैं'।

    • इसका अर्थ है कि जब प्रातिभासिक जीव (जैसे स्वप्न से जागने पर) समाप्त होता है, तो उसके अनुभव और गुण अपने से उच्चतर स्तर, यानी व्यावहारिक जीव और जगत् में वापस मिल जाते हैं। जैसे, स्वप्न का अनुभव जागने पर जाग्रत अवस्था में ही समाहित हो जाता है।

  2. तल्लये सच्चिदानन्दाः पर्यवस्यन्ति साक्षिणि ॥ ४६ ॥ (Upon its (Vyavaharika's) dissolution, Satchidananda rests in the Witness):

    • तल्लये: 'उसका लय होने पर'। 'तत्' यहाँ 'व्यावहारिक' को संदर्भित करता है। जब व्यावहारिक जीव और जगत् का लय होता है। व्यावहारिक जीव वह है जो जाग्रत अवस्था में संसार का अनुभव करता है और व्यवहारिक रूप से सत्य मानता है। अनादि काल से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक, जीव और जगत् व्यवहार में स्थित रहते हैं, इसलिए ये दोनों ही 'व्यावहारिक' हैं।

    • सच्चिदानन्दाः: सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना/ज्ञान), आनंद (परम सुख)। ये ब्रह्म के स्वरूपभूत लक्षण हैं जो साक्षी में स्थित हैं।

    • पर्यवस्यन्ति साक्षिणि: 'साक्षी' में पर्यवसित हो जाते हैं। 'साक्षी' शुद्ध चेतना या ब्रह्म है, जो परमार्थ सत्य है। 'पर्यवस्यन्ति' का अर्थ है अंततः विलीन हो जाना या अपनी मूल स्थिति में वापस आ जाना।

    • इसका अर्थ है कि जब व्यावहारिक जीव और जगत् का भी लय हो जाता है (जैसे आत्मज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति पर), तो उनसे संबंधित सभी गुण और अनुभव अंततः अपने मूल कारण, शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप साक्षी ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। ज्ञानी व्यक्ति (पारमार्थिक जीव) के लिए ब्रह्म के साथ उसकी पारमार्थिक एकता का अनुभव होता है, और वह किसी अन्य भेद को नहीं देखता।

सारांश में:

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के मूलभूत सिद्धांत को संक्षेप में प्रस्तुत करता है कि कैसे:

  1. प्रातिभासिक सत्ता (Illusory/Dream-like existence): यह सबसे निचला स्तर है, जैसे स्वप्न या भ्रम। इसका जीव और जगत् तब तक ही सत्य प्रतीत होता है जब तक भ्रम रहता है। जब यह समाप्त होता है, तो यह व्यावहारिक सत्ता में विलीन हो जाता है।

  2. व्यावहारिक सत्ता (Empirical/Practical existence): यह जाग्रत अवस्था का जगत् और जीव है, जिसे हम व्यवहार में सत्य मानते हैं। जब आत्मज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति होती है, तो यह पारमार्थिक सत्ता में विलीन हो जाता है।

  3. पारमार्थिक सत्ता (Absolute/Ultimate existence): यह केवल ब्रह्म का स्वरूप है, जो सत्, चित् और आनंद स्वरूप है। अंततः, सभी भेद और कल्पनाएँ इसी शुद्ध, अविनाशी ब्रह्म में विलीन हो जाती हैं।

यह श्लोक जीव और जगत् की नश्वरता और ब्रह्म की परमार्थिक नित्यता को स्थापित करता है, यह दर्शाता है कि अंततः सब कुछ ब्रह्म में ही समाहित है।
























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