Sunday, July 20, 2025

सांख्य दर्शन अध्ययन

 परिचय

सांख्य दर्शन भारतीय दर्शन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह द्वैतवादी और निरीश्वरवादी दर्शन है जिसका अंतिम लक्ष्य तत्वों के ज्ञान के माध्यम से विविध दुखों की निवृत्ति करके कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त करना है। यह दर्शन मुख्य रूप से दो मौलिक तत्वों को स्वीकार करता है: पुरुष और प्रकृति। सांख्य तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है, और इसका मानना है कि सृष्टि की उत्पत्ति के लिए किसी दैवीय एजेंसी की उपस्थिति आवश्यक नहीं है। यह प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति को मानता है।

प्रमुख अवधारणाएँ

1. सांख्य दर्शन का अंतिम लक्ष्य

सांख्य दर्शन का अंतिम लक्ष्य तत्वों के ज्ञान की प्राप्ति के माध्यम से विविध दुखों की निवृत्ति करके कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त करना है। तत्वज्ञान ही आत्मज्ञान है, जिससे परम पुरुषार्थ रूपी मोक्ष की प्राप्ति होती है।

2. पुरुष (चेतन तत्व)

पुरुष आत्मतत्व का वाचक शब्द है। यह चैतन्य स्वरूप, कूटस्थ, निरवयव (अंगहीन), असंग (अनासक्त), अपरिणामी (परिवर्तनहीन), नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव (नित्य शुद्ध, ज्ञान स्वरूप और मुक्त स्वभाव वाला), निरुपंजन (विकारहीन) तथा अनेक (बहुवचन) है। पुरुष अव्यक्त और व्यक्त प्रकृति से भिन्न, विवेकी, अविषय (ज्ञान का विषय नहीं), असामान्य और चेतन है।

  1. नित्यशुद्धस्वभाव: पुरुष में किसी प्रकार का विकार नहीं होता। वह सुख-दुख आदि की प्रतीति से अप्रभावित रहता है।

  2. नित्यबुद्धस्वभाव: पुरुष सदा चेतन या ज्ञान स्वरूप में अवस्थित रहता है। चेतना पुरुष का गुण नहीं, अपितु स्वभाव है। ज्ञान पुरुष का अधिष्ठाता है।

  3. नित्यमुक्तस्वभाव: पुरुष दुखों से छूटा हुआ है। दुःख का मूल कारण त्रिगुण (सत्त्व, रज और तम) हैं जो प्रकृति के स्वरूप हैं। पुरुष त्रिगुण रहित है और इन गुणों से प्रभावित नहीं होता। बंधन और मोक्ष प्रकृति के होते हैं, पुरुष कभी बंधता या मुक्त नहीं होता।

3. प्रकृति (मौलिक पदार्थ)

प्रकृति त्रिगुणों (सत्त्व, रज, तम) की साम्यावस्था को माना गया है। प्रकृति जड़ और एक है। यह अव्यक्त, त्रिगुणात्मक, विवेकी (ज्ञान का विषय), सामान्य (सबके लिए), अचेतन और परिणामी (परिवर्तनशील) है। यह पुरुष और प्रकृति के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई है। प्रकृति सूक्ष्म से स्थूल की ओर विकसित होती है और दृश्य जगत को अभिव्यक्त करती है। प्रकृति को परिणामी कहा जाता है क्योंकि यह लगातार बदलती रहती है और नए रूपों में विकसित होती है। त्रिगुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होने पर यह सूक्ष्म से स्थूल जगत में रूपांतरित होती है।

4. त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम)

प्रकृति के तीन घटक गुण हैं: सत्त्व, रज और तम। त्रिगुणों का संयुक्त कार्य एक दीपक के समान है क्योंकि जिस प्रकार दीपक तेल, अग्नि और बाती जैसे विरोधी तत्वों से मिलकर प्रकाश उत्पन्न करता है, उसी प्रकार सत्त्व, रज और तम भी परस्पर विरोधी होते हुए भी सृष्टि के निर्माण और अनुभव के लिए सहक्रिया करते हैं।

  1. सत्त्व: सुख और प्रकाश से संबंधित, हल्का और प्रकाशित करने वाला।

  2. रज: क्रिया और गति से संबंधित, उत्तेजित करने वाला और गतिशील।

  3. तम: जड़ता और अज्ञान से संबंधित, भारी और आवरण डालने वाला। ये गुण एक-दूसरे को वश में करते हैं, समर्थन करते हैं, उत्पन्न करते हैं, और एक साथ कार्य करते हैं। इनका संयुक्त कार्य एक दीपक के समान है, जो विभिन्न विरोधी तत्वों (तेल, आग, बाती) से बना होने पर भी एक सामान्य उद्देश्य (प्रकाश) को पूरा करता है।


5. सत्कार्यवाद (कार्य-कारण सिद्धांत)

सांख्य दर्शन सत्कार्यवाद का समर्थन करता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "अस्तित्व का प्रभाव।" यह सिद्धांत मानता है कि प्रभाव (कार्य) पहले से ही कारण में अव्यक्त रूप से मौजूद होता है। सत्कार्यवाद का मुख्य सिद्धांत यह है कि कार्य (प्रभाव) अपनी उत्पत्ति से पहले ही अपने कारण में अव्यक्त या संभावित रूप से मौजूद होता है। इसका अर्थ है कि कुछ भी नया उत्पन्न नहीं होता, केवल पहले से मौजूद का प्रकटीकरण होता है।

  1. असदकरणात: जो चीज मौजूद नहीं है, उसे बनाया नहीं जा सकता (जैसे रेत से तेल नहीं)।

  2. उपादान ग्रहणात्: प्रत्येक प्रभाव के लिए उपयुक्त सामग्री का चयन होता है (जैसे दही के लिए दूध)।

  3. सर्वसम्भवाभावात्: हर चीज हर चीज से उत्पन्न नहीं हो सकती (जैसे सोने से चांदी नहीं)।

  4. शक्तस्य शक्यकरणात्: सक्षम कारण केवल वही उत्पन्न करता है जो उसके लिए संभव है।

  5. कारणभावात्: कार्य कारण से भिन्न नहीं है, बल्कि उसका ही रूपांतरण है (जैसे कपड़े धागे से बनते हैं)। यह सिद्धांत बताता है कि कोई वास्तविक विनाश या निर्माण नहीं होता, केवल अभिव्यक्तिकरण और विघटन होता है।

6. सृष्टि का विकास (Evolution)

सृष्टि प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न होती है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है जिसमें सरल से जटिल और सूक्ष्म से स्थूल का विकास होता है।

  1. बुद्धि/महत्: प्रकृति का प्रथम विकास, चेतना का प्रारंभिक रूप। यह निर्धारण का कार्य करता है।

  2. अहंकार: बुद्धि से उत्पन्न होकर आत्म-चेतना का विकास करता है ("मैं जानता हूँ," "मैं करता हूँ")।

  3. पंच तन्मात्र: अहंकार से उत्पन्न सूक्ष्म तत्व (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध)।

  4. एकादश इन्द्रियाँ: पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (कान, त्वचा, आँख, जीभ, नाक) और पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, गुदा, जननांग) और मन (ग्यारहवीं इंद्रिय)। मन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों दोनों के कार्यों में सहायक होता है और संश्लेषण तथा निर्धारण का कार्य करता है।

  5. पंच महाभूत: पाँच सूक्ष्म तत्वों से उत्पन्न स्थूल तत्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी)।


7. प्रमाण (ज्ञान के साधन)

सांख्य दर्शन ज्ञान के तीन मान्य साधन मानता है:

  1. प्रत्यक्ष (Perception): इंद्रियों द्वारा विशिष्ट वस्तुओं का प्रत्यक्ष बोध।

  2. अनुमान (Inference): तर्क के माध्यम से अज्ञात का ज्ञान, जिसमें कारण से कार्य, कार्य से कारण, और सामान्य से सामान्य का अनुमान शामिल है।

  3. आगम/शब्द (Authoritative Testimony): विश्वसनीय या पवित्र ग्रंथों (वेद) और आप्त पुरुषों (योग्य शिक्षकों) के कथन से प्राप्त ज्ञान।

8. बंधन और मोक्ष

  • बंधन: पुरुष का प्रकृति और उसके परिवर्तनों के साथ तादात्म्य महसूस करना। यह अज्ञानता के कारण होता है।

  • मोक्ष/कैवल्य: पुरुष का प्रकृति से स्वयं को भिन्न समझना। यह विवेकी ज्ञान (तत्त्वज्ञान) के माध्यम से प्राप्त होता है। जब पुरुष अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेता है और प्रकृति से भिन्न हो जाता है, तो वह मुक्त हो जाता है।

  • सांख्य दर्शन के अनुसार, मोक्ष विवेकी ज्ञान (तत्वज्ञान) के माध्यम से प्राप्त होता है। यह ज्ञान तब आता है जब पुरुष प्रकृति और उसके सभी रूपों से स्वयं को पूरी तरह से भिन्न और अनासक्त पहचान लेता है, जिससे अज्ञानता के बंधन टूट जाते हैं।


अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण बिंदु

  1. द्वैतवाद: सांख्य का द्वैतवाद, आत्मा (पुरुष) और पदार्थ (प्रकृति) के बीच स्पष्ट अंतर को समझना।

  2. निरीश्वरवाद: सांख्य के निरीश्वरवादी दृष्टिकोण को समझना और यह कैसे सृष्टि की व्याख्या करता है।

  3. विकासवाद: प्रकृति के क्रमिक विकास क्रम (बुद्धि से महाभूतों तक) को याद रखना।

  4. त्रिगुण: सत्त्व, रज, तम के गुण और उनकी परस्पर क्रिया को समझना।

  5. सत्कार्यवाद: सत्कार्यवाद के तर्क और यह अन्य कार्य-कारण सिद्धांतों से कैसे भिन्न है, इसे समझना।

  6. पुरुष की बहुलता: सांख्य के पुरुष की बहुलता के तर्कों को समझना (जन्म, मृत्यु, इंद्रियों के पृथक्करण, एक साथ गतिविधि का अभाव, और गुणों की असमानता)।

  7. बंधन और मोक्ष का स्वरूप: यह समझना कि सांख्य में बंधन और मोक्ष आध्यात्मिक नहीं बल्कि बौद्धिक अज्ञानता और ज्ञान से संबंधित हैं।

 सांख्य दर्शन प्रश्न

  1. सांख्य दर्शन के द्वैतवादी और निरीश्वरवादी स्वरूप की विस्तृत व्याख्या करें और बताएं कि यह भारतीय दर्शन में अन्य प्रणालियों से किस प्रकार भिन्न है।

सांख्य दर्शन भारतीय दर्शन परंपरा का एक अत्यंत प्राचीन और महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हमें सृष्टि की रचना, उसके कार्य-व्यवहार और मनुष्य के दुखों के कारणों का विस्तृत वर्णन प्रदान करता है। सांख्य शब्द का अर्थ "संख्या" या "गणना" है। यह दर्शन तत्वों की गणना और उन्हें समझने पर जोर देता है।

सांख्य दर्शन के द्वैतवादी स्वरूप को समझने के लिए, यह जानना आवश्यक है कि यह ब्रह्मांड को दो मुख्य तत्वोंपुरुष (चेतना) और प्रकृति (पदार्थ) – के संयोजन द्वारा निर्मित मानता है।

  • पुरुष (चेतना)

    • पुरुष को शुद्ध चैतन्य स्वरूप माना गया है। यह किसी भी विकार से रहित है। सांख्य में पुरुष को अनादि, असंग, स्वतंत्र, निर्अवयवी, विवेकी, अविषमी, साक्षी आदि विशेषताओं से युक्त कहा गया है।

    • पुरुष का कोई आकार या गुण नहीं है। यह स्थिर और निष्क्रिय होता है, लेकिन इसका एकमात्र उद्देश्य अनुभव करना है।

    • पुरुष को आत्मा भी स्वीकार किया गया है। सांख्य दर्शन के अनुसार, जगत का विकास प्रकृति से होता है, जो पुरुष के अतिरिक्त एक अन्य सत्ता है।

    • पुरुष स्वयं न कर्ता है और न ही भोक्ता, बल्कि चेतना का स्वरूप है। यह निष्क्रिय है, जबकि प्रकृति सक्रिय है।

    • सांख्य प्रत्येक जीवात्मा की स्वतंत्र सत्ता बताता है। यह पुरुष के बहुत्व (अनेकता) के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है, जिसका प्रमाण जन्म-मरण, इंद्रियों के कार्यों में विभिन्नता, और गुणों के भेद से मिलता है। यह दर्शाता है कि यदि आत्मा एक होती, तो एक के जन्म या मृत्यु से सबका जन्म या मृत्यु हो जाती, या सभी की रुचि एक समान होती, जो वास्तविकता में नहीं देखा जाता।

  • प्रकृति (पदार्थ/जड़ तत्व)

    • प्रकृति वह शक्ति है जो पूरी सृष्टि को जन्म देती है। इसे जड़ या निष्क्रिय कहा जाता है, क्योंकि इसमें स्वयं से कोई चेतना या बुद्धि नहीं होती

    • प्रकृति तीन गुणों - सत्व, रज, और तम - से बनी है। ये गुण स्वभाव में एक-दूसरे के विपरीत होते हुए भी, सृष्टि की उत्पत्ति और विकास के लिए सदैव एक साथ रहते हैं। सांख्य इन गुणों के संबंध को समझाने के लिए दीपक के उदाहरण का प्रयोग करता है (तेल, बत्ती और अग्नि मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते हैं)।

    • सृष्टि के निर्माण में, प्रकृति के भीतर अनंत संभावनाएं छिपी होती हैं, लेकिन वे साकार रूप में आने के लिए बेचैन रहती हैं।

    • सृष्टि प्रक्रिया (उत्पत्ति क्रम):

      • जब सत्व, रज, तम गुण साम्यावस्था में होते हैं, उसे प्रलय कहा जाता है।

      • जब प्रकृति में संक्षोभ होता है, तो गुणों में विषमता आती है और सबसे पहले महत् (बुद्धि) उत्पन्न होती है। बुद्धि निर्णय लेने की क्षमता रखती है और पुरुष को जगाकर प्रकृति के अन्य तत्वों से मिलाती है।

      • बुद्धि से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार व्यक्ति को 'मैं' होने का विश्वास दिलाता है और अस्तित्व का बोध कराता है.।

      • अहंकार के तीन भेद होते हैं - सात्विक, राजसिक और तामसिक।

      • सात्विक अहंकार से एकादश इंद्रियों का विकास होता है, जिसमें पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण), पाँच कर्मेंद्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ, गुदा) और एक आंतरिक ज्ञानेंद्रिय मन शामिल हैं।

      • तामसिक अहंकार से पंच तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) का विकास होता है।

      • पंच तन्मात्राओं से पंच महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) का विकास होता है।

      • इस प्रकार, कुल 25 तत्व जो सृष्टि में मुख्य होते हैं, का विकास होता है। इसमें पुरुष 25वाँ तत्व है।

    • प्रकृति और पुरुष का संयोग: सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष का संयोग लंगड़े और अंधे व्यक्ति के समान बताया गया है। पुरुष चेतन है पर निष्क्रिय है, जबकि प्रकृति अचेतन है पर सक्रिय है। वे दोनों अपने उद्देश्य को तभी पूरा कर सकते हैं जब एक दूसरे की सहायता करें।

सांख्य के निरीश्वरवादी (नास्तिक) स्वरूप की व्याख्या:

सांख्य दर्शन हिंदू धर्म में नास्तिक दर्शन होने के कारण उल्लेखनीय है।

  • सृष्टि के सृष्टा का अभाव: सांख्य दर्शन में किसी रचनाकार (ईश्वर) के लिए कोई जगह नहीं मिलती। यह सृष्टि की उत्पत्ति को भगवान से नहीं मानता, बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझाता है।

  • प्रकृति ही मूल कारण: सांख्य में प्रकृति को ही सभी कार्यों की कर्ता और जगत का मूल उपादान कारण स्वीकार किया गया है। यह निरंतर गतिशील रहती है और सभी कार्य उसी से संपन्न होते हैं।

  • ईश्वर की भूमिका:

    • सांख्य ईश्वर को जगत का उपादान कारण स्वीकार नहीं करता, यानी वह यह नहीं मानता कि पत्थर ब्रह्म है।

    • हालांकि, यह ईश्वर को जगत का नियंत्रण करने वाला और अधिष्ठाता स्वीकार करता है।

    • ईश्वर-कृष्ण की सांख्यकारिका में ईश्वर का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह तर्क दिया गया है कि ईश्वर-कृष्ण ने जानबूझकर ईश्वर का उल्लेख नहीं किया, या उस समय तक ईश्वर की अवधारणा सांख्य में विकसित नहीं हुई थी।

    • सांख्यसूत्रों का गंभीर अध्ययन करने पर, ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर को अनीश्वरवादी कहना अज्ञान या दुराग्रह का परिणाम हो सकता है। सांख्य को नास्तिक होने के बावजूद, यह वेदों के महत्व को बरकरार रखता है।

भारतीय दर्शन में अन्य प्रणालियों से भिन्नता:

सांख्य दर्शन की द्वैतवादी और निरीश्वरवादी प्रकृति इसे अन्य भारतीय दर्शन प्रणालियों से भिन्न करती है:

  • अद्वैत वेदांत से भिन्नता:

    • सांख्य ने अद्वैतवादी दर्शन के प्रभुत्व को चुनौती दी है। अद्वैत वेदांत संसार के स्रोत को चेतना (ब्रह्म) मानता है और आत्मा की अंतिम नियति को ब्रह्म में समाहित होना बताता है।

    • इसके विपरीत, सांख्य ने अस्तित्व के द्वैतवादी धरातल का तर्क दिया (पुरुष और प्रकृति)।

    • मोक्ष के संदर्भ में भी, अद्वैत वेदांत आत्मा के ब्रह्म में विलीन होने की बात करता है, जबकि सांख्य में मोक्ष का अर्थ पुरुष का प्रकृति से स्वयं को अलग करना और अपने शुद्ध स्वरूप में बने रहना है।

  • योग दर्शन से संबंध और भिन्नता:

    • सांख्य दर्शन और योग दर्शन एक-दूसरे के बहुत करीब हैं। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र सांख्य-पद्धति के कई सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं, जैसे प्रकृति का सिद्धांत, सत्व-रज-तम के तीन गुण, आत्मा का स्वरूप और कैवल्य (मुक्ति में आत्मा की स्थिति)।

    • योगसूत्र ने प्रकृति के विकास या उद्भव की चर्चा नहीं की है, यह दर्शाता है कि योग ने सांख्य के प्रकृति संबंधी विचारों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है।

    • मुख्य अंतर यह है कि सांख्य में ईश्वर को स्थान प्राप्त नहीं है, जबकि योग ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है। योग में ईश्वर को सर्वोच्च सर्वज्ञता का स्थान दिया गया है, हालांकि विश्व का सृष्टा स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है। योग आध्यात्मिक अनुशासन और अभ्यास (प्राणायाम, ध्यान) पर अधिक जोर देता है, जबकि सांख्य सम्यक ज्ञान पर अधिक केंद्रित है।

  • न्याय-वैशेषिक से भिन्नता:

    • न्याय और वैशेषिक दर्शन ने सृष्टि की रचना के लिए नौ द्रव्यों (मूल तत्वों) का उल्लेख किया है, जबकि कपिल ने सूक्ष्म दृष्टि से सृष्टि को केवल दो तत्वों (पुरुष और प्रकृति) से निर्मित माना, जो विज्ञान के नवीनतम सिद्धांतों से भी मिलता-जुलता है।

    • हालांकि, न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण (efficient cause) माना जाता है, जबकि सांख्य में, जैसा कि ऊपर बताया गया है, मूल रूप से कोई सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है, यद्यपि बाद में कुछ सांख्य विद्वानों ने ईश्वर को नियामक या अधिष्ठाता के रूप में स्वीकार किया।

  • मीमांसा से भिन्नता:

    • मीमांसा दर्शन मुख्य रूप से कर्मकांड और वेदों के विधि-निषेधों पर केंद्रित है, जिसका फल स्वर्ग आदि के रूप में मिलता है, लेकिन यह फल स्थायी नहीं होता।

    • सांख्य, इसके विपरीत, मोक्ष के लिए ज्ञान को एकमात्र उपाय मानता है, न कि कर्मकांड को। सांख्य का मानना है कि केवल ज्ञान के माध्यम से ही मनुष्य सभी दुखों से स्थायी निवृत्ति प्राप्त कर सकता है, जिसे कैवल्य कहते हैं।

सांख्य का मुख्य लक्ष्य मनुष्य के तीन प्रकार के दुखों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) की आत्यंतिक निवृत्ति (पूर्ण समाप्ति) है, जिसे पुरुषार्थ या मोक्ष कहा जाता है। यह ज्ञान प्राप्त करने का एकमात्र उपाय प्रमाणों द्वारा पदार्थों का तात्विक ज्ञान है।

सांख्य दर्शन एक नक्शे की तरह है, जिसमें पुरुष और प्रकृति, जैसे दो अलग-अलग देश, बताए गए हैं। यह नक्शा हमें सिखाता है कि हम यात्री (पुरुष) हैं और यह दुनिया एक रास्ता (प्रकृति) है, जिसमें बहुत सारे मोड़ और रास्ते हैं (सृष्टि के तत्व)। सांख्य हमें यह भी बताता है कि कोई ट्रैफिक कंट्रोलर (ईश्वर) नहीं है जो इस रास्ते को बनाता है, बल्कि यह रास्ता खुद ही अपनी गति से आगे बढ़ता है, और हमारा लक्ष्य बस इस रास्ते को समझकर अपने गंतव्य (कैवल्य) तक पहुंचना है, बिना इस रास्ते के साथ भ्रमित हुए।


  1. पुरुष और प्रकृति के अंतर्संबंध का विश्लेषण करें, यह समझाते हुए कि कैसे उनका संयोग सृष्टि की उत्पत्ति की ओर ले जाता है और पुरुष की मुक्ति कैसे प्राप्त होती है।

सांख्य दर्शन, भारतीय दर्शन परंपरा का एक अत्यंत प्राचीन और महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो सृष्टि की उत्पत्ति, उसके कार्य-व्यवहार और मनुष्य के दुखों के कारणों का विस्तार से वर्णन करता है। यह दर्शन मुख्य रूप से पुरुष और प्रकृति नामक दो मूल तत्वों पर केंद्रित है।

पुरुष और प्रकृति के अंतर्संबंध का विश्लेषण और उनके संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति तथा पुरुष की मुक्ति इस प्रकार है:

1. पुरुष (चेतना तत्व) का स्वरूप:

  • पुरुष शुद्ध चेतना है, जिसका कोई आकार या गुण नहीं होता।

  • यह न तो किसी तत्व से बनता है और न ही इससे कुछ उत्पन्न होता है।

  • पुरुष को आत्मा के नाम से भी जाना जाता है।

  • सांख्य दर्शन में पुरुष को अनादि (जिसका कोई आदि नहीं), अलिप्त (किसी से जुड़ा हुआ नहीं), स्वतंत्र, निरवयवी (अवयव रहित), विवेकी (भेद करने वाला), अविषयी (विषयों से रहित) और साक्षी (देखने वाला) कहा गया है।

  • पुरुष निष्क्रिय होता है।

  • सांख्य दर्शन प्रत्येक जीवात्मा की स्वतंत्र सत्ता मानता है, अर्थात पुरुष अनेक हैं। जन्म, मरण, इंद्रियों के कार्यों में भिन्नता, और त्रिगुणों के भेद से पुरुषों का बहुत्व सिद्ध होता है।

2. प्रकृति (जड़ तत्व) का स्वरूप:

  • प्रकृति वह शक्ति है जो संपूर्ण सृष्टि को जन्म देती है।

  • यह जड़ या अचेतन होती है, अर्थात इसमें स्वयं कोई चेतना या बुद्धि नहीं होती।

  • इसके भीतर अनंत संभावनाएं छिपी होती हैं।

  • प्रकृति निरंतर गतिशील (सक्रिय) रहती है।

  • प्रकृति को मूल प्रकृति, प्रधान, या अव्यक्त के नाम से भी जाना जाता है।

  • प्रकृति की व्याख्या तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस्) के माध्यम से की गई है। ये गुण विभिन्न अनुपातों में होते हैं और किसी व्यक्ति या प्रकृति के चरित्र को परिभाषित करते हैं।

3. प्रकृति और पुरुष का संयोग तथा सृष्टि की उत्पत्ति:

  • सांख्य दर्शन के अनुसार, ब्रह्मांड का निर्माण पुरुष-प्रकृति के संयोजन द्वारा होता है।

  • पुरुष चेतन है लेकिन निष्क्रिय है, जबकि प्रकृति अचेतन है लेकिन सक्रिय है।

  • दोनों अपने उद्देश्यों को तभी पूरा कर सकते हैं जब वे एक-दूसरे की सहायता करें।

  • सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति को लंगड़े और अंधे के समान माना गया है। जिस प्रकार एक लंगड़ा व्यक्ति देख सकता है लेकिन चल नहीं सकता, और एक अंधा व्यक्ति चल सकता है लेकिन देख नहीं सकता, उसी प्रकार पुरुष देखता है (साक्षी है) और प्रकृति कार्य करती है (सक्रिय है)।

  • जब प्रकृति और पुरुष एक साथ आते हैं, तो सृष्टि का निर्माण शुरू होता है। प्रकृति अपनी संभावनाओं को साकार करने के लिए बेचैन रहती है, और पुरुष अपनी चेतना को अनुभव में लाने के लिए। यह मिलन ही संसार के अस्तित्व का कारण है।

4. तत्वों का विकास क्रम (सृष्टि प्रक्रिया):

  • इस सृष्टि क्रम में कुल 25 तत्व होते हैं, जो मुख्य भूमिका में रहते हैं।

  • पुरुष (25वां तत्व) न तो प्रकृति है और न ही विकृति।

  • प्रकृति स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अन्य तत्वों को उत्पन्न करती है।

    • सर्वप्रथम प्रकृति में गुणों के परिणाम स्वरूप जो विकार उत्पन्न होता है, वह महत् (या बुद्धि) है। महत् निर्णय लेने की क्षमता रखता है।

    • बुद्धि से अगला विकार अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार का अर्थ 'मैं' या 'मेरा' का भाव है, जो बंधन का मूल कारण है।

    • अहंकार के तीन भेद हैं: सात्त्विक, राजसिक और तामसिक अहंकार।

      • सात्त्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रियों का विकास होता है। इनमें पांच बाहरी ज्ञानेंद्रियां (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण), पांच कर्मेन्द्रियां (वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ, गुदा), और एक आंतरिक ज्ञानेंद्रिय (मन) शामिल हैं।

      • तामसिक अहंकार से पांच तन्मात्राओं (सूक्ष्म तत्व: शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) का विकास होता है।

    • पांच तन्मात्राओं से ही पांच महाभूतों (स्थूल तत्व: आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) का विकास होता है।

  • महत्, अहंकार, और पांच तन्मात्राएं प्रकृति और विकृति दोनों माने जाते हैं।

  • ये पंच महाभूत और मन सहित ग्यारह इंद्रियां विकृति कहलाती हैं, क्योंकि इनसे आगे चलकर किसी अन्य की उत्पत्ति नहीं होती।

5. दुखों का कारण और पुरुष की मुक्ति (कैवल्य):

  • मनुष्य जीवन में हमेशा दुखों से घिरा रहता है, और ये दुख व्यक्ति के स्वयं के अनुभव से सिद्ध होते हैं।

  • सांख्य दर्शन के अनुसार, अज्ञान ही दुख और बंधन का मूल कारण है। पुरुष (चेतना) प्रकृति के जाल में फंसकर यह भूल जाता है कि वह केवल एक निरीक्षक है और इस सृष्टि का हिस्सा नहीं है। वह खुद को प्रकृति का हिस्सा समझने लगता है, जैसे कि 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुखी हूँ', 'मैं बीमार हो गया हूँ'।

  • पुरुष का प्रकृति के गुणों के साथ स्वयं को मिला लेना, या अविवेक, उसे कर्म के बंधनों में बांधे रखता है और बार-बार जन्म-मरण के चक्र में डालता है।

  • सांख्य दर्शन तीन प्रकार के दुखों की बात करता है:

    • दैहिक दुख: शारीरिक और मानसिक पीड़ा (जैसे चोट, बीमारी, चिंता)।

    • आधिभौतिक दुख: चोर, बाघ, सर्प आदि जैसे बाहरी कारणों से उत्पन्न दुख।

    • आधिदैविक दुख: प्राकृतिक आपदाओं या भाग्य से जुड़े दुख (जैसे बाढ़, भूकंप, अत्यधिक गर्मी/सर्दी, गरीबी)।

  • इन दुखों से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय आत्मज्ञान या तात्विक ज्ञान है।

  • सांख्य दर्शन में इस पूर्ण स्वतंत्रता या मोक्ष को कैवल्य कहा गया है।

  • कैवल्य वह अवस्था है जब पुरुष यह समझ जाता है कि वह प्रकृति से अलग है, और प्रकृति के जाल से खुद को अलग कर लेता है। इस अवस्था में पुरुष अपनी शुद्ध चेतना में स्थित होकर सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

  • ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र उपाय प्रमाणों द्वारा पदार्थों का तात्त्विक ज्ञान है। ये प्रमाण तीन प्रकार के हैं:

    • प्रत्यक्ष (धारणा): सीधा अनुभव।

    • अनुमान: किसी वस्तु के लक्षणों के आधार पर अनुमान लगाना।

    • शब्द (श्रवण/आप्तवाक्य): आप्तजनों (योग्य व्यक्तियों) के उपदेश या शास्त्रों का ज्ञान।

  • जब मनुष्य विवेक ख्याति (जड़ और चेतन के बीच भेद का स्पष्ट ज्ञान) प्राप्त कर लेता है, तो उसके दुख दूर हो जाते हैं। प्रकृति की क्रिया पुरुष को बंधन से मुक्त करने के लिए होती है।

  • मोक्ष मार्ग आध्यात्मिक और बौद्धिक है, जबकि योग ने विस्तृत मानसिक अनुशासन, अभ्यास, प्रयास, प्राणायाम और ध्यान पर विशेष बल दिया है।

  • सांख्य दर्शन इस बात की भी सीख देता है कि हमें अपने जीवन में अनुशासन, ध्यान और आत्मनिरीक्षण को जगह देनी चाहिए।

सारांश में, सांख्य दर्शन में सृष्टि का ताना-बाना पुरुष और प्रकृति के नृत्य से बुना गया है। प्रकृति एक अनंत संभावनाओं वाली रंगमंच है, और पुरुष उसका शांत दर्शक। जब पुरुष अपनी भूमिका भूलकर खुद को मंच का हिस्सा मान लेता है, तो दुखों का नाटक शुरू हो जाता है। मुक्ति का अर्थ इस भ्रम से जागना, यह पहचानना कि आप केवल दर्शक हैं, अभिनेता नहीं। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक स्वप्न देखने वाला अपनी नींद से जाग जाए और महसूस करे कि उसके स्वप्न में देखे गए कष्ट वास्तविक नहीं थे।

  1. सत्कार्यवाद के सिद्धांतों की गहराई से जांच करें, सांख्य दर्शन द्वारा दिए गए तर्कों का मूल्यांकन करें और इसकी तुलना अन्य भारतीय दर्शनों के कार्य-कारण सिद्धांतों से करें।

सांख्य दर्शन, जिसे भारतीय ज्ञान परंपरा का एक अत्यंत प्राचीन और गहन हिस्सा माना जाता है, सृष्टि की रचना, उसके कार्य-व्यवहार और मानव दुखों के कारणों का विस्तार से वर्णन करता है। इस दर्शन का एक अत्यंत प्रसिद्ध और विशिष्ट सिद्धांत 'सत्कार्यवाद' (Satkaryavada) है, जो अन्य दर्शनों से इसे भिन्न करता है।

सत्कार्यवाद का सिद्धांत (Principle of Satkaryavada)

सत्कार्यवाद सांख्य दर्शन का मूल स्तंभ है। इस सिद्धांत के अनुसार:

  • कार्य (Effect) अपनी उत्पत्ति से पहले ही अपने कारण (Cause) में अव्यक्त (unmanifested) रूप से विद्यमान रहता है

  • उत्पत्ति और विनाश का अर्थ किसी नई वस्तु का निर्माण करना या पुरानी वस्तु को पूर्णतः नष्ट करना नहीं है, बल्कि यह केवल अवस्था का परिवर्तन (change of state) है

  • यह सिद्धांत इस मूलभूत विचार पर आधारित है कि असत्‌ (non-existent) से सत्‌ (existent) की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती

इसे समझने के लिए एक सरल सादृश्य का प्रयोग किया जाता है: जैसे एक विशाल बरगद का पेड़ अपने अत्यंत छोटे बीज में सूक्ष्म रूप से उपस्थित रहता है, उसी प्रकार यह संपूर्ण दृश्यमान जगत (कार्य जगत) अपनी मूल प्रकृति (Mula Prakriti) में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है। समय आने पर, यह अव्यक्त रूप व्यक्त (manifest) हो जाता है।

सत्कार्यवाद के समर्थन में सांख्य दर्शन के तर्क (Arguments in favor of Satkaryavada)

सांख्य दर्शन ने सत्कार्यवाद सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए पांच प्रमुख तर्क (हेतु) प्रस्तुत किए हैं, जो इसकी तार्किक नींव को मजबूत करते हैं:

  1. असद्‌करणात् (Asadkaranat - गैर-मौजूद से कुछ भी उत्पन्न न होना):

    • जो वस्तु असत्‌ है, जिसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है, उसे किसी भी उपाय से उत्पन्न नहीं किया जा सकता।

    • इसलिए, यदि कार्य पहले से कारण में मौजूद नहीं होता, तो वह कभी प्रकट नहीं हो पाता।

  2. उपादानग्रहणात् (Upadanagrahnat - उपादान कारण का स्वीकार्य होना):

    • किसी वस्तु को उत्पन्न करने के लिए एक विशिष्ट उपादान कारण की आवश्यकता होती है।

    • उदाहरण के लिए, तेल सरसों जैसे तिलहन से ही निकलता है, रेत से नहीं। यह दर्शाता है कि कार्य (तेल) अपने विशिष्ट कारण (सरसों) में पहले से ही विद्यमान था। यदि कार्य पहले से कारण में न होता तो किसी भी वस्तु से कुछ भी बन सकता था।

  3. सर्वसंभवाभावात् (Sarvasambhavabhavat - सभी चीजों का सभी से उत्पन्न न होना):

    • यदि कार्य और कारण के बीच पूर्व-विद्यमान संबंध न होता, तो किसी भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न हो सकता था।

    • लेकिन ऐसा नहीं होता; एक निश्चित कारण से ही एक निश्चित कार्य होता है, जो कारण में कार्य की पूर्व-मौजूदगी को दर्शाता है।

  4. शक्तस्य शक्यकरणात् (Shaktasya Shakyakaranat - सक्षम कारण केवल वही उत्पन्न करता है जो वह उत्पन्न करने में सक्षम है):

    • किसी कारण की "शक्ति" (क्षमता) का निर्धारण उस विशेष कार्य को उत्पन्न करने की उसकी क्षमता से होता है।

    • यह तर्क देता है कि यदि कार्य कारण में पहले से ही विद्यमान न हो, तो कारण में उस कार्य को करने की शक्ति कैसे हो सकती है? जैसे एक पहलवान अपनी शक्ति का प्रदर्शन इसलिए करता है क्योंकि उसमें बल पहले से मौजूद है।

  5. कारणभावात् (Karanabhavat - कारण और कार्य की पहचान):

    • सांख्य में, कारण और कार्य को अभिन्न माना जाता है; वे एक ही वस्तु के दो पहलू हैं।

    • सत्‌ (मौजूद) रूपी कारण से असत्‌ (गैर-मौजूद) रूपी कार्य का संबंध कभी नहीं हो सकता।

अन्य भारतीय दर्शनों के कार्य-कारण सिद्धांतों से तुलना (Comparison with other Indian Philosophies)

सत्कार्यवाद का सिद्धांत अन्य भारतीय दर्शनों के कार्य-कारण सिद्धांतों से भिन्नता और समानता दोनों रखता है:

  • अद्वैत वेदांत (Advaita Vedanta) से भिन्नता:

    • सांख्य दर्शन पूरे ब्रह्मांड को प्रकृति का परिणाम (Parinam) मानता है, इसलिए इसके सिद्धांत को 'प्रकृति परिणामवाद' कहा जाता है।

    • इसके विपरीत, शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत 'विवर्तवाद' (Vivartavada) का प्रतिपादन करता है, जिसके अनुसार जगत ब्रह्म का वास्तविक परिणाम नहीं, बल्कि केवल आभास है, जैसे रस्सी में सांप का भ्रम।

    • सांख्य अद्वैतवादी दर्शनों के प्रभुत्व को चुनौती देता है और दृढ़ता से उस वेदांतिक दर्शन का खंडन करता है जो कहता है कि संसार का स्रोत चेतना है। सांख्य के अनुसार सृष्टि का विकास ईश्वर से नहीं, बल्कि एक विकासवादी प्रक्रिया (evolutionary process) के रूप में हुआ है

  • विशिष्टाद्वैत वेदांत (Vishishtadvaita Vedanta) से समानता:

    • रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्मांड ब्रह्म का परिणाम है, जिसे 'ब्रह्म परिणामवाद' कहा जाता है।

    • दोनों, सांख्य और रामानुज, जगत के भौतिक परिणाम (transformation) के प्रश्न पर सकारात्मक उत्तर देते हैं, जबकि शंकराचार्य नकारात्मक उत्तर देते हैं।

  • न्याय-वैशेषिक (Nyaya-Vaisheshika) से भिन्नता:

    • सांख्य का सत्कार्यवाद 'असत्कार्यवाद' (Asatkaryavada) के विपरीत है, जिसे न्याय-वैशेषिक दर्शनों द्वारा प्रतिपादित किया जाता है। असत्कार्यवाद के अनुसार, कार्य अपनी उत्पत्ति से पहले कारण में मौजूद नहीं होता, बल्कि एक नई रचना (new creation) है। हालांकि स्रोतों में न्याय-वैशेषिक का सीधा नाम नहीं लिया गया है, पर "भौतिक दृष्टि से विचार करने वाले दार्शनिक" के रूप में उनका परोक्ष उल्लेख है, जो कार्य-कारण संबंध का संतोषजनक समाधान नहीं दे पाते।

    • न्याय और वैशेषिक ने सृष्टि की रचना नौ द्रव्यों (मूल तत्वों) से बताई है, जबकि कपिल ने सूक्ष्म दृष्टि से सृष्टि को केवल दो तत्वों (प्रकृति और पुरुष) से निर्मित माना है, जो विज्ञान के नवीनतम सिद्धांतों से भी मिलता-जुलता है।

  • भगवद गीता (Bhagavad Gita) का समर्थन:

    • सत्कार्यवाद का सिद्धांत सीधे भगवद गीता में समर्थित है, जिसमें कहा गया है: "नासतो विद्यतो भावो नाभावो विद्यते सतः" (जो नहीं है, उसका अस्तित्व नहीं होता, और जो है, उसका अभाव नहीं होता)

कुल मिलाकर, सत्कार्यवाद सांख्य दर्शन की एक केंद्रीय अवधारणा है, जो सृष्टि की प्रकृति और उसमें होने वाले परिवर्तनों को समझने के लिए एक सुसंगत और तार्किक ढांचा प्रदान करती है, इसे अन्य प्रमुख भारतीय दर्शनों से अलग करती है और भगवद गीता जैसे सम्मानित ग्रंथों में भी इसका प्रतिध्वनि पाई जाती है।

सांख्य का सत्कार्यवाद सिद्धांत एक ऐसे कलाकार की तरह है जो मानता है कि एक सुंदर मूर्ति पहले से ही पत्थर के भीतर मौजूद है, बस उसे तराश कर प्रकट करने की आवश्यकता है, जबकि अन्य दर्शन मान सकते हैं कि कलाकार पत्थर से कुछ बिल्कुल नया बना रहा है।

  1. सांख्य दर्शन के अनुसार त्रिगुणों (सत्त्व, रज, तम) के स्वरूप, कार्यों और परस्पर क्रियाओं का विस्तृत वर्णन करें। इन गुणों की असमानताएँ सृष्टि की विविधता को कैसे प्रभावित करती हैं?

सांख्य दर्शन, भारतीय ज्ञान परंपरा का एक गहन और अद्भुत हिस्सा है, जो सृष्टि की रचना, उसके कार्य-व्यवहार, और मनुष्य के दुखों के कारणों का विस्तार से वर्णन करता है। इस दर्शन के अनुसार, संपूर्ण सृष्टि का निर्माण और उसकी विविधता त्रिगुणों – सत्त्व, रज और तम – की परस्पर क्रिया और भिन्न-भिन्न अनुपातों पर आधारित है।

त्रिगुणों का स्वरूप (Nature of Gunas): सत्त्व, रज, और तम मूल प्रकृति के तीन गुण हैं। ये गुण स्वभाव से एक-दूसरे के विपरीत होते हुए भी सदैव एक साथ रहते हैं। सांख्य दर्शन में इन्हें जन्मजात प्रवृत्तियों (innate tendencies) का सिद्धांत भी कहा जाता है।

  • सत्त्व गुण (Sattva Guna): यह अच्छाई, करुणा, शांति और सकारात्मकता का गुण है। यह प्रीति (प्रसन्नता), हल्कापन, संग, प्रीति, क्षमा, संतोष और सुख जैसे धर्मों से संबंधित है। सत्त्वगुण की प्रधानता से प्रकाश रूप धर्मों की अभिव्यक्ति होती है।

  • रजस गुण (Rajas Guna): यह गतिविधि, अराजकता, जुनून और आवेग का गुण है, जो संभावित रूप से अच्छा या बुरा हो सकता है। यह अप्रसन्नता (अप्रीति), शोक, तृष्णा, ईर्ष्या और दुःख जैसे धर्मों से जुड़ा है। रजोगुण की प्रबलता से अप्रीति और प्रवृत्ति रूप धर्मों की प्रधानता से अभिव्यक्ति होती है।

  • तमस गुण (Tamas Guna): यह अंधकार, अज्ञान, नीरसता, आलस्य, सुस्ती और नकारात्मकता का गुण है। यह निद्रा, आलस्य और मोह जैसे धर्मों से संबंधित है। तमोगुण की प्रबलता से विषाद और स्थिति रूप धर्मों की अभिव्यक्ति होती है।

त्रिगुणों के कार्य और परस्पर क्रियाएँ (Functions and Interactions of Gunas): प्रकृति में तीनों गुण विभिन्न अनुपात में विद्यमान रहते हैं। ये गुण मिलकर कार्य करते हैं और सृष्टि का निर्माण करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे दीपक को जलाने के लिए तेल, बाती और अग्नि तीनों की आवश्यकता होती है, भले ही वे अलग-अलग हों।

  • परस्पर अभिभव (Mutual Suppression): ये तीनों गुण एक-दूसरे को दबाने की चेष्टा करते रहते हैं, जिसे सांख्य की परिभाषा में 'अभिभववृत्ति' कहते हैं।

  • आश्रय वृत्ति (Mutual Dependence): कोई भी गुण अकेला तब तक किसी भी धर्म या कर्म की अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, जब तक उसे शेष दोनों गुणों की सहायता प्राप्त न हो।

  • चरित्र निर्धारण: इन गुणों की परस्पर क्रिया किसी व्यक्ति या प्रकृति के किसी तत्व के चरित्र को परिभाषित करती है और जीवन की प्रगति को निर्धारित करती है। ये गुण सृष्टि में मुख्य भूमिका में रहते हैं।

त्रिगुणों की असमानताएँ और सृष्टि की विविधता (Inequalities and Diversity of Creation): सांख्य दर्शन के अनुसार, सृष्टि की उत्पत्ति भगवान से न मानकर इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझाया गया है।

  • साम्यावस्था और वैषम्यावस्था: जब ये तीनों गुण साम्यावस्था (संतुलित अवस्था) में होते हैं, उस समय को प्रलय कहा जाता है। इस अवस्था में मूल प्रकृति और पुरुष के अतिरिक्त कुछ नहीं होता।

  • सृष्टि का आरंभ: जब पुरुष के सान्निध्य में प्रकृति में संक्षोभ होता है, तो तीनों गुणों में न्यूनाधिकता (विषम अवस्था) होने लगती है। यहीं से सृष्टि का आरंभ होता है।

  • तत्त्वों का विकास क्रम: गुणों की प्रधानता के अनुसार तत्वों का क्रमबद्ध विकास होता है:

    1. सबसे पहले, सत्त्वगुण की प्रधानता से महत् (बुद्धि) की उत्पत्ति होती है। महत् निर्णय लेने की क्षमता रखता है।

    2. बुद्धि से अगला विकार अहंकार उत्पन्न होता है, जिसमें 'मैं' या 'मेरा' का भाव होता है और यह बंधन का मूल कारण है।

    3. अहंकार के तीन भेद हैं – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

      • सात्त्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रियों का विकास होता है, जिसमें पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ, गुदा) और एक मन (आंतरिक ज्ञानेंद्रिय) शामिल हैं।

      • तामसिक अहंकार से पाँच सूक्ष्म तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) का विकास होता है।

    4. पाँच तन्मात्राओं से ही पाँच महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) का विकास होता है।

  • विविध सृष्टि का निर्माण: इस प्रकार, कुल 25 तत्वों का विकास होता है। इन्हीं पाँच महाभूतों के मिलने और तीनों गुणों की न्यूनाधिकता (variation) के फलस्वरूप बाद में भौतिक और अभौतिक (स्थवर-जगम) विविध सृष्टि प्रकट होती है। प्रकृति निरंतर गतिशील रहती है, और सभी कार्य उसी से संपन्न होते हैं। संसार में दिखाई पड़ने वाली विषमता का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति के कारण के रूप में किया गया है।

इस प्रकार, सांख्य दर्शन में गुणों की असमानताएँ ही सृष्टि में हमें दिखाई देने वाली समस्त विविधता का मूल कारण हैं, चाहे वह व्यक्ति का चरित्र हो, प्राकृतिक घटनाएं हों, या स्वयं भौतिक जगत के विभिन्न रूप हों।

सांख्य दर्शन के त्रिगुणों की यह अवधारणा एक अदृश्य आर्किटेक्ट की तरह है, जो संसार रूपी इमारत के हर कोने में मौजूद है। भले ही हम सीधे उसे देख न पाएं, पर उसके प्रभाव से ही हर दीवार का रंग, हर कमरे का आकार और हर व्यक्ति की प्रकृति निर्धारित होती है।

  1. सांख्य के ज्ञानमीमांसा (प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम) की व्याख्या करें और चर्चा करें कि यह कैसे मोक्ष प्राप्त करने के लिए विवेकी ज्ञान के महत्व को दर्शाता है, विशेष रूप से अज्ञेय (अप्रत्यक्ष) तत्वों के ज्ञान के संदर्भ में।

सांख्य दर्शन, सृष्टि की रचना और मानव जीवन के दुखों के कारणों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करता है। इस दर्शन का परम लक्ष्य दुखों से आत्यंतिक (संपूर्ण) निवृत्ति पाना है, जिसे मोक्ष या कैवल्य कहा जाता है। सांख्य दर्शन के अनुसार, यह मोक्ष तात्त्विक ज्ञान (वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान) या विवेकी ज्ञान के माध्यम से ही प्राप्त होता है। यह ज्ञान पुरुष (चेतना) और प्रकृति (जड़ तत्व) के भेद को स्पष्ट रूप से समझकर हृदयंगम करने से मिलता है, क्योंकि यही मुक्ति का एकमात्र साधन है।

सांख्य दर्शन तीन प्रमाणों को स्वीकार करता है, जिनके द्वारा सही ज्ञान (प्रमा) प्राप्त किया जाता है: प्रत्यक्ष (प्रत्यक्ष बोध), अनुमान (तर्क से ज्ञान) और आप्तवाक्य (विश्वसनीय व्यक्ति या शास्त्र का वचन)।

सांख्य के ज्ञानमीमांसा (Pramanas) की व्याख्या:

  1. प्रत्यक्ष (Pratyaksha):

    • स्वरूप: प्रत्यक्ष प्रमाण को "प्रतिविषयाध्यवसाय" कहा गया है, जिसका अर्थ है विषय के प्रति निश्चित ज्ञान। यह वह ज्ञान है जो इंद्रियों के सीधे संपर्क से प्राप्त होता है।

    • कार्य: जब बुद्धि (महत्) इंद्रियों (जैसे नेत्र) के द्वारा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है, तो वह उस दृश्य का आकार ले लेती है। बुद्धि की इस स्थिति को "बुद्धिवृत्ति" कहते हैं, और इसे ही "विज्ञान" या "प्रत्यक्ष प्रमाण" कहा गया है। यह वृत्ति आत्मा के साथ विषय का संयोग कराती है और उसे सुख-दुःख का अनुभव कराती है।

    • सूक्ष्म तत्वों के संदर्भ में: स्थूल नेत्रों से तात्त्विक ज्ञान संभव नहीं है। बहुत से अर्थ चाक्षुष ज्ञान का विषय नहीं होते। हालांकि, योगी अपनी योग शक्ति के बल पर सूक्ष्म और अतींद्रिय विषयों (जो इंद्रियों से ग्रहण नहीं होते) का साक्षात्कार कर सकते हैं।

  2. अनुमान (Anumana):

    • स्वरूप: अनुमान का लक्षण "लिंगलिंगी पूर्वकम्" है, अर्थात लिंग (चिन्ह) से लिंगी (चिन्हित वस्तु) का ज्ञान। इसमें किसी चिन्ह या लक्षण को देखकर किसी अज्ञात वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

    • कार्य: अनुमान तीन प्रकार का होता है:

      • पूर्ववत्: जहाँ कारण से कार्य का अनुमान हो, जैसे बादलों को देखकर वर्षा का अनुमान।

      • शेषवत्: जहाँ कार्य से कारण का अनुमान हो, जैसे नदी में बाढ़ के बढ़ते पानी को देखकर यह अनुमान लगाना कि ऊपर की ओर वर्षा हुई होगी।

      • सामान्यतोदृष्ट: जहाँ सामान्य नियम या व्यवस्था से ज्ञान हो, जैसे गाय के सींग देखकर यह समझना कि सभी गायों के सींग होते हैं।

    • अज्ञेय तत्वों के संदर्भ में: अनुमान प्रकृति और पुरुष जैसे अज्ञेय (अव्यक्त) तत्वों के ज्ञान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

      • प्रकृति का अनुमान: प्रकृति दिखाई नहीं देती, वह अव्यक्त है। सत्त्व, रज और तम गुणों की साम्यावस्था को ही प्रकृति कहते हैं। सृष्टि की विविधता (वैषम्य) को देखकर प्रकृति का अनुमान किया जाता है। प्रकृति के कार्य जैसे महत् (बुद्धि), अहंकार और पंच तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के अस्तित्व से प्रकृति का ज्ञान होता है।

      • पुरुष का अनुमान: पुरुष का अस्तित्व पांच चिन्हों से सिद्ध होता है:

        1. संघातपरार्थत्वात् (संघात का दूसरे के लिए होना): जड़ पदार्थ अपने लिए कार्य नहीं करते, बल्कि किसी चेतन सत्ता (पुरुष) के लिए होते हैं।

        2. त्रिगुणादिविपर्ययात् (त्रिगुणों के विपरीत होना): पुरुष त्रिगुणों (सत्त्व, रज, तम) से भिन्न और अतीत है, जबकि प्रकृति त्रिगुणात्मक है।

        3. अधिष्ठानात् (अधिष्ठाता होने से): जड़ प्रकृति को कार्य करने के लिए किसी चेतन अधिष्ठाता (पुरुष) की आवश्यकता होती है, जैसे रथ को चलाने के लिए सारथी की।

        4. भोक्तृत्वभावात् (भोक्ता होने से): संसार के पदार्थ स्वयं का उपयोग नहीं कर सकते, उन्हें उपयोग करने के लिए किसी चेतन भोक्ता (पुरुष) की आवश्यकता होती है।

        5. कैवल्यार्थप्रवृत्तेश्च (मोक्ष की ओर प्रवृत्ति से): मनुष्य की मुक्ति की अभिलाषा और उसके लिए प्रयत्न यह दर्शाता है कि भीतर एक चेतन सत्ता है जो जड़ प्रकृति से भिन्न है और उससे पृथक होकर अपने वास्तविक स्वरूप में मिलना चाहती है।

  3. आप्तवाक्य/शब्द (Shabda/Aptavakya):

    • स्वरूप: आप्त उपदेश को शब्द प्रमाण कहा गया है। आप्त वह व्यक्ति होता है जो धर्मनिष्ठ, श्रेष्ठ आचरण वाला, ज्ञानी और सत्यवादी हो।

    • कार्य: आप्त पुरुषों के उपदेशों में भ्रम और प्रमाद आदि दोष नहीं होते, बल्कि उनमें यथार्थ ज्ञान और भ्रम का निवारण होता है। उनके निर्णय जन-कल्याण के पक्ष में लाभकारी होते हैं और विवाद होने पर आप्तजनों का निर्णय ही सर्वमान्य माना जाता है।

    • अज्ञेय तत्वों के संदर्भ में: जिन विषयों को प्रत्यक्ष या अनुमान से नहीं जाना जा सकता, उनके लिए शब्द प्रमाण ही एकमात्र साधन है। पुरुष एक परोक्ष विषय है जो त्रिगुणातीत और निर्लिप्त है, इसलिए इसका अस्तित्व प्रत्यक्ष या अनुमान से सिद्ध नहीं किया जा सकता। इसे जानने का एकमात्र साधन शब्द प्रमाण या आगम है। वेद और उपनिषद आप्त ग्रंथ माने जाते हैं।

मोक्ष प्राप्त करने के लिए विवेकी ज्ञान का महत्व:

सांख्य दर्शन के अनुसार, दुःखों का मूल कारण अज्ञान (अविवेक) है। पुरुष (चेतना) मूलतः शुद्ध चैतन्य स्वरूप और निर्विकार है, लेकिन प्रकृति के संपर्क में आने से वह स्वयं को प्रकृति से घुला-मिला मानने लगता है। जब मनुष्य कहता है कि "मैं सुखी हूँ", "मैं दुखी हूँ", "मैं बीमार हो गया हूँ", तो वह शरीर के धर्मों को अपने ऊपर आरोपित कर लेता है। यह अविवेक या अज्ञान ही जीव को कर्म-बंधन में बांधे रखता है और बार-बार विभिन्न योनियों में जन्म लेने को विवश करता है।

मोक्ष की प्राप्ति तभी होती है जब पुरुष यह समझ जाता है कि वह प्रकृति से अलग है। यह "विवेक ख्याति" (पुरुष और प्रकृति के भेद का स्पष्ट ज्ञान) ही इस भ्रमयुक्त आरोप को समाप्त कर देती है और दुखों का अंत हो जाता है। सांख्य मानता है कि तीन प्रकार के दुःख हैं: दैहिक (शारीरिक व मानसिक), दैविक (भाग्य या प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित), और प्राकृतिक (प्राकृतिक तत्वों से उत्पन्न)। इन सभी दुखों से आत्यंतिक निवृत्ति ही मोक्ष है।

कर्मकाण्ड या सांसारिक प्रयास, चाहे वे कितने भी शुभ क्यों न हों, केवल तात्कालिक या सीमित फल देते हैं और दुखों से स्थायी निवृत्ति नहीं दिला सकते। वे जीव को स्वर्ग आदि उच्च लोकों में पहुँचा सकते हैं, लेकिन वहाँ से भी कर्मफल समाप्त होने पर वापस संसार में लौटना पड़ता है। इसलिए, सांख्य के अनुसार, केवल ज्ञान ही दुखों से स्थायी छुटकारा दिला सकता है।

इस प्रकार, सांख्य दर्शन के प्रमाणों का उद्देश्य केवल बाहरी ज्ञान प्राप्त करना नहीं है, बल्कि अज्ञेय और सूक्ष्म तत्वों - विशेष रूप से पुरुष और प्रकृति - के वास्तविक स्वरूप को समझना है। यह समझ ही अज्ञान के बंधन को तोड़ती है और जीव को मोक्ष की ओर ले जाती है।

सांख्य दर्शन के प्रमाणों को एक प्रकाशस्तंभ की तरह समझा जा सकता है जो गहरे समुद्र में फंसे जहाजों को रास्ता दिखाते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण एक सीधा टॉर्च है जो पास की वस्तुओं को रोशन करता है। अनुमान प्रमाण एक शक्तिशाली दूरबीन है जो दूर की या छिपी हुई वस्तुओं को उनके संकेतों के माध्यम से पहचानने में मदद करता है। और आप्तवाक्य प्रमाण एक अनुभवी नाविक का नक्शा और मार्गदर्शन है, जो उन रास्तों के बारे में बताता है जहाँ सीधी दृष्टि या तर्क काम नहीं आते। ये सभी उपकरण मिलकर चेतना रूपी जहाज को प्रकृति के भ्रमजाल से निकालकर कैवल्य रूपी शांत किनारे तक पहुँचाते हैं।


समयरेखा

प्राचीन काल (वेदों और उपनिषदों का समय):

  • सांख्य दर्शन के मूल सिद्धांतों की नींव वैदिक और उपनिषद काल में रखी गई।

  • पुरुष (आत्मा) और प्रकृति (पदार्थ) के बीच द्वैतवाद की प्रारंभिक अवधारणा।

  • ज्ञान प्राप्ति और विभिन्न दुखों से मुक्ति का अंतिम लक्ष्य।

  • ऋषि कपिल का काल (सांख्य दर्शन के संस्थापक):

  • ऋषि कपिल को सांख्य सूत्र के निर्माण और प्रारंभिक दार्शनिक प्रणाली के विकास का श्रेय दिया जाता है।

  • सांख्य दर्शन अपनी वैज्ञानिक जांच प्रणाली और तर्कसंगत दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्ध हुआ।

  • प्रारंभिक सांख्य दर्शन में दुनिया के निर्माण के लिए दैवीय एजेंसी (ईश्वर) की उपस्थिति को आवश्यक नहीं माना गया, बल्कि प्रकृति को सृष्टि का श्रेय दिया गया (निरीश्वरवादी सांख्य)।

  • सांख्य दर्शन ने योग दर्शन के लिए सैद्धांतिक नींव का गठन किया।

आसुरि और पंचशिख के माध्यम से ज्ञान का प्रसार:

  • ऋषि कपिल ने अपने शिष्य आसुरि को सांख्य का ज्ञान दिया।

  • आसुरि ने इस ज्ञान को अपने शिष्य पंचशिख तक पहुँचाया, जिन्होंने इसे व्यापक रूप से प्रचारित किया।

चौथी शताब्दी ईस्वी के दौरान (सांख्य प्रणाली का विकास):

  • पुरुष (आत्मा) को सांख्य प्रणाली में एक तत्व के रूप में पेश किया गया।

  • प्रकृति और पुरुष दोनों को मिलकर दुनिया के निर्माण का श्रेय दिया गया, जिससे सांख्य द्वैतवादी दर्शन बन गया (शुरुआत में भौतिकवादी से बाद में आध्यात्मिकवादी)।

  • त्रैगुण्य सिद्धांत (सत्त्व, रजस, तमस) का विकास, जिसमें पदार्थ (प्रकृति) में तीन गुणों का विभिन्न अनुपात में मौजूद होना बताया गया, जो चरित्र और जीवन को निर्धारित करते हैं।

ईश्वरकृष्ण का काल (सांख्यकारिका का संकलन):

  • ईश्वरकृष्ण ने ऋषि कपिल द्वारा आसुरि और पंचशिख के माध्यम से विस्तृत किए गए पारंपरिक सांख्य ज्ञान को 70 कारिकाओं (छंदों) में संक्षेप में "सांख्यकारिका" में प्रस्तुत किया।

  • यह ग्रंथ दार्शनिक क्षेत्र में अत्यधिक सम्मानित हो गया, इसकी प्रामाणिकता और ज्ञान की गहनता के कारण।

शंकराचार्य का काल (सांख्य मत का खंडन):

  • शंकराचार्य और अन्य अद्वैतवादियों ने सांख्य दर्शन पर कुछ आपत्तियाँ उठाईं, विशेष रूप से पुरुष और प्रकृति के बीच संबंध की अस्पष्टता और सात इंद्रियों के उल्लेख जैसे बिंदुओं पर, जो वर्तमान सांख्य ग्रंथों में नहीं मिलते।

  • हालांकि, सांख्य विचारक पुरुष के अस्तित्व और प्रकृति के कार्यप्रणाली के लिए साक्षी, दृष्टा, निर्लिप्त, अकर्ता, उदासीन जैसे शब्दों का प्रयोग करते हुए अपनी स्थिति बनाए रखते हैं।

परवर्ती व्याख्याकार और विद्वान (साहित्यिक योगदान):

  • सांख्यकारिका पर कई महत्वपूर्ण भाष्य और व्याख्याएं लिखी गईं, जैसे गौड़पाद का भाष्य, वाचस्पति मिश्र की सांख्य-तत्त्व-कौमुदी, नारायण की टीका, और विज्ञानभिक्षु की टीका।

  • ये टीकाएं सांख्य के प्रमुख अवधारणाओं जैसे दुखत्रय, प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्तवाक्य), सत्कार्यवाद, गुण-विवेचन, पुरुष-प्रकृति संबंध, सृष्टि-प्रक्रिया, लिंग शरीर और प्रत्यय सर्ग को स्पष्ट करती हैं।

आधुनिक काल:

  • सांख्य दर्शन भारतीय दर्शन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, यद्यपि योग दर्शन को अधिक लोकप्रियता मिली है।

  • आधुनिक विद्वानों और दार्शनिकों द्वारा सांख्य सिद्धांतों का विश्लेषण और पश्चिम के विचारों (जैसे कांट, स्पिनोज़ा, हर्टमैन, हक्सले) के साथ तुलना जारी है।

पात्रों का विवरण

  • ऋषि कपिल: सांख्य दर्शन के संस्थापक और "सांख्य सूत्र" के रचयिता माने जाते हैं। उन्हें एक महान ऋषि के रूप में वर्णित किया गया है जिनके पास ज्ञान, वैराग्य और शक्ति थी। वे निरीश्वरवादी सांख्य के प्रारंभिक प्रणेता थे, जो प्रकृति को सृष्टि का श्रेय देते थे।

  • आसुरि: ऋषि कपिल के शिष्य, जिन्हें कपिल ने सांख्य का ज्ञान दिया था।

  • पंचशिख: आसुरि के शिष्य, जिन्होंने सांख्य के ज्ञान को बड़े पैमाने पर प्रचारित किया।

  • ईश्वरकृष्ण: "सांख्यकारिका" के रचयिता। उन्होंने ऋषि कपिल से शिष्य-परंपरा के माध्यम से प्राप्त विस्तृत सांख्य ज्ञान को 70 छंदों में संक्षेप में प्रस्तुत किया। उन्हें "धर्म-प्रेमी" और "सिद्ध-सत्य" के रूप में वर्णित किया गया है।

  • गौड़पाद: सांख्यकारिका के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण व्याख्याकारों में से एक। उनके भाष्य को "गौड़पादभाष्य" के नाम से जाना जाता है। वे शंकराचार्य के पूर्ववर्ती गुरुओं में से एक माने जाते हैं।

  • नारायण (तीर्थ): सांख्यकारिका के एक अन्य महत्वपूर्ण व्याख्याकार, जिनकी टीका को "सांख्यचन्द्रिका" कहा जाता है। वे श्री राम गोविंद तीर्थ के शिष्य थे।

  • वाचस्पति मिश्र: सांख्यकारिका के प्रसिद्ध टीकाकार, जिन्होंने "सांख्य-तत्त्व-कौमुदी" नामक व्याख्या लिखी। उनका दृष्टिकोण और व्याख्या अक्सर नारायण की व्याख्या के समान होती है।

  • विज्ञानभिक्षु: एक अन्य प्रमुख टीकाकार, जिन्होंने सांख्य प्रवचन पर भाष्य लिखे। उनके विचार अक्सर सांख्य के कुछ अवधारणाओं, जैसे तीन शरीर (सूक्ष्म, वाहिक, और स्थूल) के विभाजन में बाद के परिशोधनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

  • शंकराचार्य: अद्वैत वेदांत के महान दार्शनिक, जिन्होंने सांख्य दर्शन के कुछ पहलुओं, विशेषकर पुरुष और प्रकृति के बीच संबंध और ईश्वर की भूमिका पर, कड़ी आलोचना की।

  • पतंजलि: योग दर्शन के संस्थापक। सांख्य दर्शन उनके योग दर्शन की सैद्धांतिक नींव बनाता है। पतंजलि ने ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए सांख्य के निरीश्वरवादी दृष्टिकोण में एक सेतु का काम किया।

  • एच. एच. विल्सन: 19वीं सदी के एक प्रोफेसर और विद्वान, जिन्होंने सांख्यकारिका का अंग्रेजी में अनुवाद किया और उस पर टिप्पणी की।

  • जॉन डेविस: एक विद्वान जिन्होंने "हिंदू फिलॉसफी" में सांख्यकारिका का अनुवाद किया और उस पर टिप्पणी की।

  • डॉ. एफ. हॉल: एक विद्वान जिन्होंने सांख्य सार पर टिप्पणी लिखी और सांख्य दर्शन के विभिन्न पहलुओं पर विचार प्रस्तुत किए।

  • डॉ. गर्बे: एक विद्वान जिन्होंने अनिरुद्ध के भाष्य का अनुवाद किया और सांख्य दर्शन पर शोध किया।

  • उमेश चंद्र भट्टाचार्य: एक विद्वान जिन्होंने सांख्य दर्शन पर बंगाली पत्रिका "साधना" में लेख लिखे।

  • टेलंग: भगवद गीता के अनुवादक, जिनकी टिप्पणियां सांख्य के गुणों (गुणों) के सिद्धांत को समझने में सहायक हैं।

  • डॉ. डी. पी. चट्टोपाध्याय: एक आधुनिक दार्शनिक जिन्होंने लोकायत पर लिखा है और सांख्य दर्शन पर भी टिप्पणी की है।


प्रमुख शब्दों का शब्दावली

  • आगम/शब्द (Āgama/Śabda): ज्ञान का एक प्रमाण; आप्त पुरुषों या पवित्र ग्रंथों (वेद) से प्राप्त विश्वसनीय मौखिक गवाही।

  • अहंकार (Ahaṃkāra): सांख्य दर्शन में प्रकृति का दूसरा विकास; आत्म-चेतना या "मैं" की भावना।

  • अव्यक्ता (Avyakta): अप्रकट; प्रकृति का मौलिक, असीमित और अविभेदित स्वरूप।

  • अनुमान (Anumāna): ज्ञान का एक प्रमाण; प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर तर्क या निष्कर्ष निकालना।

  • अपरिणामी (Apariṇāmi): जो परिवर्तित न हो; पुरुष का एक गुण।

  • असंग (Asaṅga): अनासक्त; पुरुष का एक गुण, जिसका अर्थ है कि वह किसी भी चीज़ से जुड़ा नहीं है।

  • आस्तिकता (Āstikatā): ऐसे दर्शन जो वेदों को ज्ञान का विश्वसनीय स्रोत मानते हैं; सांख्य दर्शन एक आस्तिक दर्शन है।

  • कैवल्य (Kaivalya): मोक्ष या परम मुक्ति की अवस्था, जिसमें पुरुष स्वयं को प्रकृति से पूरी तरह भिन्न अनुभव करता है।

  • कूटस्थ (Kūṭastha): अपरिवर्तनशील; पुरुष का एक गुण, जो इसकी स्थिर प्रकृति को दर्शाता है।

  • ज्ञानेंद्रियाँ (Jñānendriyas): पाँच ज्ञान की इंद्रियाँ: कान (श्रोत्र), त्वचा (त्वक्), आँख (चक्षु), जीभ (रसना), नाक (घ्राण)।

  • तम (Tamas): प्रकृति का एक गुण; जड़ता, अंधकार, अज्ञान और निष्क्रियता से संबंधित।

  • तन्मात्र (Tanmātra): सूक्ष्म तत्व; अहंकार से उत्पन्न पाँच मौलिक संवेदी रूप (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) जिनसे स्थूल महाभूतों का विकास होता है।

  • त्रिगुण (Triguṇa): प्रकृति के तीन घटक गुण: सत्त्व, रज और तम।

  • द्वैतवाद (Dvaitavāda): एक दार्शनिक सिद्धांत जो दो स्वतंत्र मौलिक वास्तविकताओं (पुरुष और प्रकृति) के अस्तित्व को मानता है।

  • परिणामी (Pariṇāmi): जो परिवर्तित हो; प्रकृति का एक गुण।

  • पुरुष (Puruṣa): सांख्य दर्शन में चेतन तत्व; शुद्ध चेतना, आत्मा या स्वयं जो अपरिवर्तनशील, अनासक्त और भोक्ता है।

  • प्रकृति (Prakṛti): सांख्य दर्शन में मौलिक अचेतन पदार्थ; त्रिगुणों की साम्यावस्था, जिससे सृष्टि का विकास होता है।

  • प्रत्यक्ष (Pratyakṣa): ज्ञान का एक प्रमाण; इंद्रियों द्वारा किसी वस्तु का सीधा और तत्काल बोध।

  • प्रमाण (Pramāṇa): ज्ञान के साधन या वैध ज्ञान के स्रोत।

  • बुद्धि/महत् (Buddhi/Mahat): प्रकृति का प्रथम विकास; निर्धारण, निर्णय और चेतना का कार्य करता है।

  • मन (Manas): ग्यारहवीं इंद्रिय; ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच समन्वय स्थापित करता है और संश्लेषण व धारण का कार्य करता है।

  • मोक्ष (Mokṣa): दुखों से मुक्ति; आत्म-साक्षात्कार और पुरुष का प्रकृति से विलग होना।

  • व्यक्त (Vyakta): प्रकट; प्रकृति के विकसित या अभिव्यक्त स्वरूप।

  • विमुक्ति (Vimukti): मोक्ष का ही एक पर्यायवाची, जिसका अर्थ है बंधन से मुक्ति।

  • विवेकी ज्ञान (Vivekī Jñāna): प्रकृति और पुरुष के बीच के अंतर का भेदभावपूर्ण ज्ञान; मोक्ष का कारण।

  • सत्त्व (Sattva): प्रकृति का एक गुण; प्रकाश, स्पष्टता, संतुलन और सुख से संबंधित।

  • सत्कार्यवाद (Satkāryavāda): कार्य-कारण का सिद्धांत जो मानता है कि कार्य अपने कारण में पहले से ही अव्यक्त रूप से मौजूद होता है।

  • संस्कार (Saṃskāra): पूर्व कर्मों या अनुभवों से उत्पन्न मानसिक छापें या प्रवृत्तियाँ जो व्यक्ति के भविष्य के अनुभवों को प्रभावित करती हैं।


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