आदि शंकराचार्य भारतीय दर्शन के एक महानतम दार्शनिक और धर्म-प्रवर्तक थे, जिन्हें अद्वैत वेदांत दर्शन को सुदृढ़ आधार प्रदान करने का श्रेय दिया जाता है। उनके जीवन और दर्शन ने भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक परंपरा पर गहरा प्रभाव डाला है।
यहाँ उनके जीवन और दर्शन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है:
आदि शंकराचार्य का जीवन
शंकराचार्य का जन्म 11 मई, 788 ईस्वी को केरल के कोच्चि के पास कलाडी नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता शिवगुरु भट्ट और माता अयंबा थीं। वे बचपन से ही असाधारण मेधावी थे; कहा जाता है कि मात्र 2 वर्ष की आयु में उन्होंने वेदों, उपनिषदों, रामायण और महाभारत को कंठस्थ कर लिया था। 6 वर्ष की अवस्था में वे प्रकांड पंडित हो गए थे।
उनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ:
संन्यास और गुरु प्राप्ति: 8 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था। एक पौराणिक कथा के अनुसार, जब वे नदी में थे, एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया। उन्होंने अपनी माता से कहा कि यदि उन्हें संन्यास लेने की आज्ञा नहीं मिली, तो मगरमच्छ उन्हें खा जाएगा। भयभीत माता ने आज्ञा दे दी और मगरमच्छ ने पैर छोड़ दिया। संन्यास ग्रहण करने के बाद, उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ में अपने गुरु गोविन्दपाद से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया।
मातृ भक्ति और पूर्णा नदी: शंकराचार्य अपनी माता की बहुत सेवा और सम्मान करते थे। उन्होंने अपनी माता के स्नान के लिए गाँव से दूर बहने वाली पूर्णा नदी का रुख अपने गाँव कालड़ी की ओर मोड़ दिया था, जो उनकी मातृ भक्ति का प्रतीक है।
कनकधारा स्तोत्र: एक दिन भिक्षा माँगते हुए वे एक गरीब ब्राह्मण के घर पहुँचे, जिनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था और उनकी पत्नी ने शंकराचार्य को एक आँवला दिया। महिला की गरीबी देख बालक शंकर ने माँ लक्ष्मी की स्तुति में "कनकधारा स्तोत्र" की रचना की, जिससे प्रसन्न होकर लक्ष्मी माता ने उस घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी।
माता का अंतिम संस्कार: संन्यास लेते समय, शंकराचार्य ने अपनी माँ को वचन दिया था कि वे उनके अंतिम समय में उनके पास रहेंगे और स्वयं उनका दाह-संस्कार करेंगे। जब वे अपनी माँ के अंतिम संस्कार के लिए गाँव पहुँचे, तो संन्यासी होने के कारण लोगों ने उनका विरोध किया। उन्होंने उत्तर दिया कि जब वचन दिया था, तब वे संन्यासी नहीं थे। उन्होंने अपने घर के सामने ही माँ की चिता सजाकर अंतिम क्रिया की, जो केरल के कालड़ी में एक परंपरा बन गई।
मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ: शंकराचार्य ने बिहार के मिथिला प्रदेश (वर्तमान माहिष्मति नगरी, महेश्वर) में कर्मकांडी विद्वान मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया। यह शास्त्रार्थ 16 दिनों तक चला, जिसमें मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती ने निर्णायक की भूमिका निभाई। भारती देवी ने फूलों की मालाओं के सूखने (क्रोध के ताप से) के आधार पर शंकराचार्य को विजयी घोषित किया। इसके बाद भारती देवी ने कामशास्त्र पर प्रश्न किए, जिसके लिए शंकराचार्य ने एक माह का समय माँगा। उन्होंने योग बल से राजा अमरुक के मृत शरीर में प्रवेश कर कामकला का अनुभव प्राप्त किया और वापस आकर भारती को भी शास्त्रार्थ में पराजित किया। मंडन मिश्र ने अपनी हार स्वीकार की और उनके शिष्य बन गए।
चांडाल से भेंट (आत्मज्ञान): काशी में रहते हुए, एक चांडाल ने शंकराचार्य की राह रोकी। जब शंकराचार्य ने उसे हटने को कहा, तो चांडाल ने पूछा कि वे शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं, और वास्तविक आत्मज्ञान के बिना 'अब्राह्मण' कौन है। इस देववाणी को सुनकर शंकराचार्य अत्यंत प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु मानकर प्रणाम किया, जिसके बाद चांडाल के स्थान पर उन्हें शिव और चार देवों के दर्शन हुए। इस घटना ने शंकराचार्य को अंत:चक्षु में महामाया की लीला का अनुभव कराया और उनके मुख से मातृ वंदना की धारा फूट पड़ी।
भारत-यात्रा और मठों की स्थापना: उन्होंने पूरे भारतवर्ष में भ्रमण कर वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। उन्होंने सनातन धर्म के प्रचार और भारत की सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ करने के लिए देश के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना की: शृंगेरी (दक्षिण), गोवर्धन (पूर्व), शारदा (पश्चिम), और ज्योतिर्मठ (उत्तर)। ये मठ आज भी हिंदू संत समाज की गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाह करते हैं।
महाप्रयाण: 32 वर्ष की अल्पायु में, शंकराचार्य ने केदारनाथ के समीप समाधि ली।
आदि शंकराचार्य का दर्शन (अद्वैत वेदांत)
शंकराचार्य के दर्शन का केंद्रीय सिद्धांत अद्वैत वेदांत है, जिसका अर्थ है ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है और जगत मिथ्या है। वे ब्रह्मसूत्रों पर अपनी टीकाओं के लिए प्रसिद्ध हैं।
ब्रह्म का स्वरूप:
परम सत्य: ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है। यह शाश्वत, शुद्ध चेतना और आनंद स्वरूप है।
निर्गुण और सगुण: शंकराचार्य ने निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म (ईश्वर) दोनों का समर्थन किया है। माया से युक्त ब्रह्म ही ईश्वर के रूप में जगत की सृष्टि करता है।
अखंड और निर्विशेष: ब्रह्म सभी प्रकार के भेदों से रहित है। यह अनिर्वचनीय (जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता) है।
जगत का कारण: ब्रह्म जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त (निर्माता) और उपादान (सामग्री) कारण है।
स्वयं-प्रकाश: ब्रह्म नित्य और स्वयं-प्रकाश है, जो अविर्भाव और तिरोभाव से परे है।
जगत् का स्वरूप:
मिथ्या: शंकराचार्य के अनुसार, यह दृश्यमान जगत मिथ्या है। "मिथ्या" का अर्थ यह नहीं है कि यह अस्तित्वहीन है, बल्कि यह सापेक्षिक या व्यावहारिक सत्य है। यह तब तक सत्य प्रतीत होता है जब तक ब्रह्म का वास्तविक ज्ञान नहीं हो जाता।
माया का परिणाम: जगत की प्रतीति माया या अविद्या के कारण होती है। माया को ब्रह्म की अनिर्वचनीय शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है।
आवरण और विक्षेप शक्ति: अविद्या की दो प्रमुख शक्तियाँ हैं:
आवरण शक्ति: यह आत्मा के वास्तविक स्वरूप को ढक लेती है।
विक्षेप शक्ति: यह ब्रह्म पर जगत का भ्रम आरोपित करती है।
उदाहरण: जैसे रस्सी में साँप का भ्रम या स्वप्न का जगत तब तक सत्य प्रतीत होता है जब तक वास्तविक ज्ञान नहीं हो जाता। उसी प्रकार मिट्टी से बने घड़े का अस्तित्व केवल नाम और रूप है, वास्तविक सत्ता मिट्टी की है। जगत ब्रह्म का ही नाम और रूप है, ब्रह्म के अतिरिक्त इसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
आत्मा (जीव) का स्वरूप:
ब्रह्म से अभिन्न: शंकराचार्य के अनुसार, आत्मा और ब्रह्म मूलतः एक हैं। अज्ञान के कारण हमें इनमें अंतर प्रतीत होता है।
अनात्म-भेद: आत्मा शरीर, मन, इंद्रियों आदि अनात्मा से भिन्न है। शरीर जड़ है, जबकि आत्मा प्रकाशक (जानने वाला) है।
साक्षी स्वरूप: आत्मा तीनों अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) का साक्षी है। यह कर्ता और भोक्ता नहीं है, बल्कि उपाधियों के कारण ऐसा प्रतीत होता है।
अज्ञान का प्रभाव: जीव अविद्या से ग्रसित होकर स्वयं को शरीर आदि अनात्मा से अभिन्न मान लेता है, जिससे अहंकार (मैं-भाव) और ममकार (मेरा-भाव) उत्पन्न होते हैं।
बंधन और मोक्ष (मुक्ति):
बंधन का कारण: जीव का शरीर और मन से संबंध ही बंधन कहलाता है। यह अविद्या के कारण होता है।
मोक्ष का स्वरूप: मोक्ष किसी नई वस्तु की प्राप्ति नहीं है, बल्कि अपने वास्तविक ब्रह्म स्वरूप को पहचानना है, जिसे अज्ञान के कारण भुला दिया गया था। यह अविद्या की निवृत्ति मात्र है।
ज्ञान मार्ग: शंकराचार्य के अनुसार, इस बंधन से मुक्ति केवल ज्ञान से ही संभव है। ज्ञान मार्ग को मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन माना गया है, जबकि कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग को चित्त शुद्धि के लिए गौण साधन माना गया है।
ज्ञान मार्ग के सोपान: ज्ञान प्राप्ति के तीन सोपान हैं:
श्रवण: शास्त्रों (विशेषकर उपनिषदों) को गुरु से सुनना।
मनन: सुनी हुई बातों पर तर्कपूर्ण विचार करना।
निदिध्यासन: सत्य का निरंतर और एकाग्र ध्यान करना।
वेदांत दर्शन में आत्म-ज्ञान की प्राप्ति और अज्ञान के निवारण के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन को तीन मूलभूत और पूरक चरणों के रूप में स्थापित किया गया है। यह प्रक्रिया अद्वैत वेदांत के केंद्रीय सिद्धांत पर आधारित है कि जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, और बंधन केवल अज्ञान (अविद्या) के कारण है। मोक्ष कोई नई प्राप्ति नहीं है, बल्कि वह उस प्राप्ति को महसूस करना है जो पहले से ही मौजूद है।
इन तीन चरणों का महत्व और पूरक प्रकृति इस प्रकार है:
श्रवण (शास्त्रों को सुनना):
यह ज्ञान प्राप्ति का पहला सोपान है। इसमें साधक गुरु से और शास्त्रों से आत्म-तत्व के संबंध में उपदेश सुनता है।
वेद स्वयं-प्रकाशित और स्व-सिद्ध हैं। "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) और "अयमात्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ब्रह्म है) जैसे महावाक्य इस चरण में सुने जाते हैं।
यह चरण ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप का सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान करता है, जो सत्य, ज्ञान और अनंत-स्वरूप है। यह बताता है कि आत्मा शुद्ध, अविनाशी, निर्गुण, निष्क्रिय और आनंदमय है, जो शरीर, इंद्रियों, मन और बुद्धि से भिन्न है।
मनन (चिंतन और तर्क):
श्रवण के माध्यम से प्राप्त ज्ञान में उत्पन्न सभी संदेहों को दूर करना इस चरण का लक्ष्य है। यह तार्किक विचार और तर्क के माध्यम से होता है।
साधक इस स्तर पर सुने गए उपदेशों पर गहराई से चिंतन करता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनमें कोई विसंगति या विरोधाभास नहीं है।
अज्ञान के कारण उत्पन्न होने वाली द्वैत की धारणा (जैसे 'मैं ईश्वर नहीं हूँ' या 'मैं शरीर हूँ') को इस चरण में तर्क से खंडित किया जाता है। शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि शरीर, इंद्रियाँ, मन और अहंकार अज्ञान के परिणाम हैं, और आत्मा इन उपाधियों से रहित है।
निदिध्यासन (गहन ध्यान):
यह श्रवण और मनन द्वारा प्राप्त ज्ञान को आंतरिककृत करने का अंतिम चरण है, जिससे प्रत्यक्ष अनुभव होता है।
इसमें साधक मन को ब्रह्म में एकाग्र करता है और सभी बाह्य और आंतरिक विचारों को विलय कर देता है। लक्ष्य "मैं ब्रह्म हूँ" की भावना को निरंतर बनाए रखना है।
यह चरण अज्ञान और उसके सभी विक्षेपों का पूर्णतः नाश करता है। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान से अविद्या का नाश होता है। यह अविद्या के आवरण (वेदान्त में 'आवरण शक्ति' और 'विक्षेप शक्ति' का उल्लेख है) को हटा देता है।
इस चरण में, जानने वाला (ज्ञाता), जानने की क्रिया (ज्ञान), और जानने योग्य (ज्ञेय) का भेद समाप्त हो जाता है। यह जीवानमुक्ति की स्थिति की ओर ले जाता है, जहाँ व्यक्ति जीवित रहते हुए भी ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
आपसी पूरकता: श्रवण, मनन और निदिध्यासन एक-दूसरे के पूरक हैं। श्रवण सैद्धांतिक आधार प्रदान करता है, मनन तार्किक स्पष्टता और संदेहों को दूर करता है, और निदिध्यासन उस ज्ञान को प्रत्यक्ष अनुभव में परिवर्तित करता है। अज्ञान के निवारण के लिए यह त्रिगुणीय प्रक्रिया अत्यंत आवश्यक है। जैसे एक किसान अपने खेत में पहले बीज बोता है (श्रवण), फिर उसकी देखभाल करता है, खरपतवार हटाता है (मनन), और अंत में फसल काटता है (निदिध्यासन) - उसी प्रकार यह आत्म-ज्ञान की यात्रा है जो व्यक्ति को उसके वास्तविक, आनंदमय स्वरूप की ओर ले जाती है।
साधन चतुष्टय: मोक्ष की इच्छा रखने वाले साधक के लिए चार शर्तें बताई गई हैं:
नित्यानित्य वस्तु विवेक (नित्य और अनित्य वस्तुओं में भेद),
इहामुत्रार्थ फल भोग वैराग्य (इस लोक और परलोक के फलों के प्रति वैराग्य),
शमदमादि साधन संपत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान जैसे छह गुण),
मुमुक्षुत्व (मोक्ष की तीव्र इच्छा)।
ज्ञान योग के लिए "साधना चतुष्टय सम्पत्ति" (चार साधन) को एक आवश्यक पूर्व शर्त माना गया है। ये चार योग्यताएँ साधक के मन को आत्म-ज्ञान के लिए तैयार करती हैं, जो मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन है। आदि शंकराचार्य के दर्शन में, अद्वैत वेदांत का केंद्रीय विषय ब्रह्म है, और आत्मा का आवश्यक मूल ब्रह्म ही है। ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप है।
ये चार साधन और उनका महत्व इस प्रकार है:
नित्यानित्य वस्तु विवेक (Nitya-Anitya Vastu Viveka):
यह वास्तविक (नित्य) और अवास्तविक (अनित्य) वस्तुओं के बीच भेदभाव करने की योग्यता है।
इस योग्यता का अर्थ है कि "आत्मा ही वास्तविक है। आत्मा के अलावा सभी चीजें अवास्तविक हैं"। सत वह है जो तीनों कालों में अपरिवर्तित रहता है।
यह साधक को नित्य (स्थायी) और अनित्य (अस्थायी) के बीच अंतर करने की क्षमता प्रदान करता है, जिससे वह सांसारिक प्रलोभनों से ऊपर उठ सके।
इहामुत्रफलभोगविराग (Ihamutra Phala Bhoga Viraga):
यह इस लोक और परलोक में कर्मों के फल के उपभोग की इच्छाओं से मुक्ति है।
इसका अर्थ है कि साधक के मन में इस लोक और परलोक के प्रति वैराग्य होना चाहिए, अर्थात् भौतिक और स्वर्गीय सुखों से विरक्ति। यह मन को बाहरी आसक्तियों से मुक्त करता है, जिससे वह आत्म-ज्ञान की ओर उन्मुख हो सके.
शमादिषट्कसम्पत्ति (Shamadi Shatka Sampatti):
यह छह सद्गुणों का समूह है जो मन और इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित करने में मदद करता है।
शम (Shama): मानसिक नियंत्रण, मन को बाहरी विषयों से हटाकर अंतर्मुखी करना।
दम (Dama): इंद्रियों पर नियंत्रण, बाहरी इंद्रियों को उनके विषयों से रोकना।
उपरति (Uparati): विषय वासना से दूर हटना, या बाहरी कर्मों से विराम लेना।
तितिक्षा (Titiksha): सहनशीलता, सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी आदि द्वंद्वों को सहन करने की क्षमता।
श्रद्धा (Shraddha): गुरु और शास्त्रों में विश्वास।
समाधान (Samadhana): चित्त को ज्ञान मार्ग में एकाग्र करना और शंकाओं का निराकरण करना।
ये सद्गुण मन को शुद्ध और स्थिर करते हैं, जो आत्म-ज्ञान के लिए एकाग्रता और आंतरिक शांति प्रदान करता है।
मुमुक्षुत्व (Mumukshutva):
यह मुक्ति या मोक्ष की तीव्र इच्छा है।
यह मोक्ष प्राप्ति की गहरी और निरंतर इच्छा को दर्शाता है, जो साधक को आत्म-ज्ञान के पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। यह योग्यता साधक को अन्य सभी इच्छाओं से मुक्त कर देती है और उसका एकमात्र लक्ष्य आत्म-ज्ञान बन जाता है.
आत्म-ज्ञान के लिए मन की तैयारी:
ये चारों योग्यताएँ मिलकर साधक के मन को आत्म-ज्ञान के लिए तैयार करती हैं:
अज्ञान का उन्मूलन: शंकराचार्य के अनुसार, अविद्या (अज्ञान) ही बंधन का कारण है, और ज्ञान ही इसे समाप्त करता है, ठीक वैसे ही जैसे प्रकाश अंधकार को दूर करता है। "मैं शरीर हूँ" या "यह मेरा है" जैसी धारणाएँ अज्ञान के कारण उत्पन्न होती हैं। इन साधनों के अभ्यास से अज्ञान के आवरण का नाश होता है।
मन की शुद्धि और स्थिरता: शम और दम जैसी योग्यताएँ मन और इंद्रियों को नियंत्रित करती हैं, जिससे मन बाहरी विषयों से विमुख होकर आंतरिक चिंतन में स्थिर हो सके। यह एकाग्रता आत्मा के सूक्ष्म स्वरूप को समझने के लिए आवश्यक है।
आसक्ति का त्याग: वैराग्य और विषयों से उपरति व्यक्ति को कर्मफल की आसक्ति से मुक्त करती है, जिससे वह निष्काम कर्म कर सके। आसक्ति रहित कर्म चित्त को शुद्ध करता है।
ब्रह्म की पहचान: साधना के माध्यम से साधक यह अनुभव करता है कि वह शरीर, इंद्रियों, मन और अहंकार से भिन्न है। आत्मा स्वयं-प्रकाशित और असीम आनंदमय स्वरूप है। "नेति-नेति" (यह नहीं, यह नहीं) की प्रक्रिया द्वारा सभी उपाधियों (शरीर, मन, इंद्रियां) को नकार कर, साधक अंततः जीव और ब्रह्म की एकता को महसूस करता है। यह एकता का बोध ही मोक्ष की प्राप्ति है।
जिस प्रकार एक कुशल तैराक नदी के तेज बहाव में भी अपनी दिशा बनाए रखता है, उसी प्रकार साधना चतुष्टय सम्पत्ति से युक्त साधक संसार रूपी मोह के बहाव में भी अपने मन को अविचल रखते हुए आत्म-ज्ञान के लक्ष्य की ओर बढ़ता है।
जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति: शंकराचार्य ने जीवनमुक्ति (जीवित रहते हुए ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति) और विदेहमुक्ति (शरीर छूटने के बाद मुक्ति) की अवधारणाओं को स्वीकार किया। जीवनमुक्त होने के बाद भी प्रालब्ध कर्मों के अंश का उपभोग शरीर करता रहता है, जो शरीर के अंत तक चलता है।
गुरु की कृपा: शंकराचार्य ने गुरु की कृपा को आत्मज्ञान प्राप्ति में अत्यंत महत्वपूर्ण बताया है।
अविद्या और माया
अद्वैत वेदांत में, अविद्या और माया दो केंद्रीय अवधारणाएँ हैं जो संसार की प्रतीति को समझने और आत्म-ज्ञान की प्राप्ति की व्याख्या करने के लिए आवश्यक हैं। यद्यपि ये अक्सर एक-दूसरे के स्थान पर उपयोग की जाती हैं, फिर भी उनमें सूक्ष्म अंतर मौजूद है।
माया की अवधारणा माया वह शक्ति है जो ब्रह्म पर संसार का भ्रम अध्यारोपित करती है। यह अनिर्वचनीय है, अर्थात इसे न तो सत् (वास्तविक) कहा जा सकता है, न ही असत् (अवास्तविक), न ही दोनों। यह भिन्न भी नहीं है और अभिन्न भी नहीं है।
ब्रह्म से संबंध: माया अपनी सत्ता ब्रह्म से उधार लेती है, अर्थात इसका अस्तित्व ब्रह्म पर निर्भर करता है। ब्रह्म को माया का उपादान (सार तत्व) माना जाता है, लेकिन कारण (उत्पादक) नहीं, क्योंकि माया अनादि (अनादि) है और कोई उत्पन्न वस्तु नहीं है। यह ब्रह्म को अनेकरूपता के रूप में प्रकट करती है।
कार्य: माया ही वह शक्ति है जो नाम-रूप (नाम और स्वरूप) के विविध भेदों को उत्पन्न करती है और संपूर्ण दृश्य जगत की सृष्टि, स्थिति और लय का कारण बनती है। यह समस्त कार्य-कारण संबंधों को उत्पन्न करती है, जहाँ कार्य (जैसे घड़ा) कारण (जैसे मिट्टी) के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता, लेकिन कारण कार्य के बिना रह सकता है। यह द्वैत (द्वैतता) का भ्रम पैदा करती है जहाँ वास्तव में अद्वैत (एकता) है। परमार्थिक दृष्टि से, बंधन और मोक्ष जैसे विचार भी माया द्वारा उत्पन्न होते हैं।
अविद्या की अवधारणा अविद्या का शाब्दिक अर्थ अज्ञान है। यह विवेक की कमी या आत्म-ज्ञान का अभाव है, जिसके कारण हम स्वयं (आत्मा) को अनात्मा (शरीर, मन, इंद्रियां आदि) से अलग नहीं कर पाते।
जीव से संबंध: अविद्या जीव की एक उपाधि (सीमित करने वाली शर्त) है, जिससे जीव अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) को नहीं पहचान पाता।
कार्य: अविद्या के कारण ही "अहं" (मैं) और "मम" (मेरा) की भ्रांति उत्पन्न होती है, जिससे व्यक्ति शरीर, मन और इंद्रियों को ही अपना सच्चा स्वरूप मान लेता है। यह भ्रांति सभी व्यवहारिक लेन-देन और कर्म का आधार है। अविद्या जीव को सुख-दुःख, राग-द्वेष और भय जैसे सांसारिक अनुभवों में बांधती है। यह हमें आत्मा को "प्राप्त न किया हुआ" दिखाती है, भले ही वह हमेशा से प्राप्त हो, जैसे किसी को अपने गले में माला का न दिखना।
माया और अविद्या में सूक्ष्म अंतर अद्वैत वेदांत में माया और अविद्या के बीच के अंतर को समझना महत्वपूर्ण है:
माया को समष्टि अज्ञान (Cosmic Ignorance) माना जाता है। यह ईश्वर की उपाधि है, जो महदादि (महान तत्वों) के कारण के रूप में कार्य करती है। यह ब्रह्मांडीय भ्रम है जो संपूर्ण सृष्टि को अनेक नाम-रूपों में प्रकट करता है। यह ब्रह्म की शक्ति है जो संसार को एक जटिल और अनिर्वचनीय रूप में प्रस्तुत करती है।
अविद्या को व्यष्टि अज्ञान (Individual Ignorance) माना जाता है। यह जीव की उपाधि है, जो पंचकोश (पाँच आवरण) के प्रभावों से संबंधित है। यह व्यक्तिगत स्तर पर काम करती है, जिससे जीव अपने आप को शरीर, मन और इंद्रियों से पहचानता है और भेद देखता है। अविद्या जीव को संसार में दुःख और बंधन का अनुभव कराती है।
सरल शब्दों में, माया वह सार्वभौमिक शक्ति है जो भ्रम को उत्पन्न करती है, जबकि अविद्या उस भ्रम का व्यक्तिगत अनुभव है। माया प्रकृति के रूप में क्रियाशील है, जबकि अविद्या जीव के अज्ञान के रूप में प्रकट होती है। हालांकि, कुछ संदर्भों में अज्ञान या अविद्या शब्द का प्रयोग माया के व्यापक अर्थ में भी किया जाता है।
संसार के भ्रम को समझने में योगदान माया और अविद्या मिलकर संसार को एक भ्रम के रूप में प्रस्तुत करती हैं:
माया के कारण यह समस्त जगत, जो ब्रह्म से भिन्न नहीं है, नाम-रूप, गुण और विकारों के साथ असत्य (मिथ्या) प्रतीत होता है, ठीक वैसे ही जैसे मिट्टी के अतिरिक्त घड़े का कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता। यह संसार स्वप्न के समान है, जो अज्ञान के समय सत्यवत् प्रतीत होता है लेकिन ज्ञान होने पर असत्य सिद्ध हो जाता है।
अविद्या जीव को इस भ्रम में बांधती है। आत्मा और अनात्मा के बीच भेद न कर पाना ही अज्ञान है। "मैं शरीर हूँ" की मूल भ्रांति पर ही सारे व्यवहारिक कार्य और कर्म आधारित होते हैं। अविद्या के कारण ही जीव अपने आप को कर्ता, भोक्ता और दृष्टा मानता है, जबकि आत्मा वास्तव में इन गुणों से परे है। यह दुख, राग, द्वेष और भय आदि का मूल है।
आत्म-ज्ञान की प्राप्ति में योगदान आत्म-ज्ञान (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए माया और अविद्या दोनों को पार करना आवश्यक है:
ज्ञान ही अविद्या और माया का नाशक है। अद्वैत वेदांत ज्ञान मार्ग को मोक्ष का मुख्य साधन मानता है, जिसके तीन सोपान हैं: श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन करना) और निदिध्यासन (गहरा ध्यान)।
आत्म-अनात्म विवेक के माध्यम से स्वयं और अ-स्वयं में भेद करना ही अज्ञान को दूर करने का पहला कदम है।
"नेति-नेति" (यह नहीं, यह नहीं) की प्रक्रिया द्वारा सभी उपाधियों (शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि, अहंकार) का निषेध किया जाता है, क्योंकि ये सभी अज्ञान (अविद्या) की रचनाएँ हैं।
दृश्य जगत को आत्मा में विलीन करना (दृश्यं ह्यदृश्यतां नीत्वा) और यह जानना कि आत्मा के अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं है, अद्वैत ज्ञान की प्राप्ति है। यह मिट्टी और घड़े के उदाहरण से समझाया जाता है, जहाँ घड़ा केवल मिट्टी का नाम-रूप है।
अहंकार (अध्यास), जो अविद्या के कारण उत्पन्न होता है, को विज्ञान (ज्ञान) की तलवार से काटना आवश्यक है।
"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) और "तत्त्वमसि" (वह तुम हो) जैसे महावाक्यों का बोध, उपाधियों (माया/अविद्या द्वारा निर्मित) के शाब्दिक अर्थों को छोड़कर उनके लक्ष्यार्थों को समझने से होता है, जिससे जीव और ईश्वर की एकता सिद्ध होती है।
अज्ञान के आवरण के हटते ही आत्मा अपने शाश्वत स्वरूप का साक्षात्कार करती है। वास्तव में, मोक्ष अविद्या की निवृत्ति मात्र है।
अद्वैत वेदांत में, माया और अविद्या को दूर करने के लिए ज्ञान की एक तीव्र लौ को प्रज्वलित करने की आवश्यकता होती है, जैसे एक घने जंगल को जलाने के लिए आग की आवश्यकता होती है। यह ज्ञान हमें यह समझने में मदद करता है कि संसार एक जटिल भ्रम है, और आत्म-ज्ञान की प्राप्ति का अर्थ है इस भ्रम से मुक्त होकर अपने वास्तविक, अद्वैत, सत्-चित्-आनंद स्वरूप को जानना। यह ऐसा है जैसे एक परछाई किसी वस्तु की उपस्थिति का संकेत देती है, लेकिन परछाई स्वयं वस्तु नहीं होती। माया और अविद्या संसार की परछाई के समान हैं; ज्ञान सूर्य के समान है जो परछाई को मिटा देता है और हमें वास्तविक वस्तु (ब्रह्म) का दर्शन कराता है।
आदि शंकराचार्य ने आत्मन (स्वयं) की प्रकृति को अनात्मन (जो स्वयं नहीं है) से अलग करने के लिए विभिन्न तर्कों और दृष्टांतों का उपयोग किया है। यह भेद ज्ञान योग के लिए एक आवश्यक पूर्व शर्त है, जिसे 'आत्म-अनात्म विवेक' कहा जाता है।
1. आत्मन और अनात्मन का परिचय: शंकराचार्य के दर्शन में, आत्मन ही एकमात्र वास्तविक (सत्य) सत्ता है। आत्मन को सत-चित-आनंद स्वरूप कहा गया है, जिसका अर्थ है सत्य, ज्ञान और आनंद। आत्मन तीनों कालों में अपरिवर्तित रहता है। यह मन, इंद्रियों और प्रकृति से भिन्न है।
इसके विपरीत, अनात्मन वह सब कुछ है जो आत्मन नहीं है, जैसे शरीर, इंद्रियाँ, मन, अहंकार और संपूर्ण जगत। अनात्मन को अनित्य (अस्थायी), मिथ्या (असत्य) और अविद्या (अज्ञान) का परिणाम माना गया है। अज्ञान ही बंधन का कारण है।
2. आत्मन को अनात्मन से अलग करने के तर्क और दृष्टांत:
शंकराचार्य ने इस भेद को स्थापित करने के लिए कई युक्तियाँ और दृष्टांत दिए हैं:
द्रक-दृश्य विवेक (द्रष्टा-दृश्य भेदभाव): शंकराचार्य इस सिद्धांत का उपयोग करते हैं कि आत्मन द्रष्टा (साक्षी) है और अनात्मन दृश्य (देखा जाने वाला) है। द्रष्टा और दृश्य कभी एक नहीं हो सकते। उदाहरण के लिए, वे बताते हैं कि जैसे आकाश में बादल चलते हैं तो अज्ञानी व्यक्ति को लगता है कि चंद्रमा चल रहा है, जबकि चंद्रमा स्थिर होता है। इसी प्रकार, आत्मन इंद्रियों, मन और बुद्धि के कार्यों का साक्षी है, लेकिन स्वयं निष्क्रिय रहता है।
तीन अवस्थाओं का विश्लेषण (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति): आत्मन तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) में साक्षी के रूप में विद्यमान रहता है। जाग्रत और स्वप्न अवस्था में मन और इंद्रियाँ सक्रिय होती हैं, और सुख-दुःख का अनुभव होता है। लेकिन सुषुप्ति (गहरी नींद) में मन और इंद्रियाँ शांत होती हैं, फिर भी आत्मन का अस्तित्व बना रहता है और वह आनंदमय होता है। यह दर्शाता है कि सुख-दुःख मन और अहंकार के धर्म हैं, आत्मन के नहीं।
पंचकोषों का निराकरण (पांच कोशों से भिन्नता): आत्मन को पांच कोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से भिन्न बताया गया है। इन कोशों का क्रमशः त्याग करके आत्मन के शुद्ध स्वरूप का बोध होता है।
अध्यास (अध्यारोप/अध्यास): अज्ञान के कारण अनात्मन का आत्मन पर अध्यारोप हो जाता है, जिससे साधक स्वयं को शरीर, मन या इंद्रियाँ समझने लगता है। शंकराचार्य इसे विभिन्न दृष्टांतों से समझाते हैं:
रस्सी में साँप का भ्रम: जैसे अँधेरे में रस्सी को साँप समझ लिया जाता है, और डर लगता है; जब रस्सी का वास्तविक ज्ञान हो जाता है, तो साँप का भ्रम और उससे उत्पन्न भय समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार, अज्ञान के कारण स्वयं को जीव समझने पर संसार का भय उत्पन्न होता है; आत्मज्ञान से यह भय दूर हो जाता है।
सीपी में चाँदी का भ्रम: जैसे सीपी (शंख) को चाँदी समझ लिया जाता है। जब सीपी का ज्ञान होता है, तो चाँदी का भ्रम समाप्त हो जाता है।
जार में सूर्य का प्रतिबिंब: जैसे एक जार के पानी में सूर्य का प्रतिबिंब देखा जाता है और अज्ञानी व्यक्ति उसे ही सूर्य मान लेता है। यह दर्शाता है कि प्रतिबिंब उपाधि के कारण होता है, आत्मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
आत्मन का स्वयंप्रकाश स्वरूप: आत्मन स्वयं प्रकाशित है, उसे किसी अन्य प्रकाश स्रोत की आवश्यकता नहीं है। जैसे दीपक को प्रकाशित करने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं होती। आत्मन ही बुद्धि, इंद्रियों और मन को प्रकाशित करता है।
जगत की मिथ्याता: जगत को अनित्य, अस्थायी और अवास्तविक (मिथ्या) बताया गया है। जैसे मिट्टी के घड़े, दीपक आदि मिट्टी से बने होते हैं और अंततः मिट्टी में ही विलीन हो जाते हैं, वैसे ही संपूर्ण जगत ब्रह्म से उत्पन्न होता है और ब्रह्म में ही लीन हो जाता है。 यह जगत स्वप्न के समान है जो जागने पर असत्य हो जाता है।
"नेति नेति" (यह नहीं, यह नहीं): शंकराचार्य आत्मन की पहचान करने के लिए "नेति नेति" के सिद्धांत का प्रयोग करते हैं। इसका अर्थ है कि आत्मन वह नहीं है जो इंद्रियों, मन या बुद्धि द्वारा अनुभव किया जा सकता है। सभी उपाधियों (शरीर, मन, इंद्रियों) का निषेध करके आत्मन के शुद्ध स्वरूप को समझा जाता है.
अहं-मम भाव का त्याग: व्यक्ति को शरीर, इंद्रियों और मन में "मैं" (अहं) और "मेरा" (मम) के झूठे आरोपण को समाप्त करना चाहिए। यह बंधन का मूल कारण है, और इसका त्याग करके ही आत्मन का साक्षात्कार संभव है.
3. इस भेद को स्थापित करने में तर्क की भूमिका:
तर्क (मनन) ज्ञान योग के तीन सोपानों (श्रवण, मनन, निदिध्यासन) में से एक है। यह भेद स्थापित करने में तर्क की महत्वपूर्ण भूमिका है:
अज्ञान का उन्मूलन: शंकराचार्य के अनुसार, अविद्या (अज्ञान) ही बंधन का कारण है, और ज्ञान ही इसे समाप्त करता है, जैसे प्रकाश अंधकार को दूर करता है। तर्क के माध्यम से अज्ञान की परतें हटती हैं।
बुद्धि की शुद्धि और स्थिरता: तर्क साधना चतुष्टय सम्पत्ति में वर्णित शम, दम, तितिक्षा आदि गुणों के विकास में सहायक होता है। ये मन और इंद्रियों को नियंत्रित करके आत्म-ज्ञान के लिए एकाग्रता और आंतरिक शांति प्रदान करते हैं।
आसक्ति का त्याग: वैराग्य और विषयों से उपरति व्यक्ति को कर्मफल की आसक्ति से मुक्त करती है, जिससे वह निष्काम कर्म कर सके। तर्क से यह समझा जाता है कि भौतिक सुख अनित्य और दुखमय हैं।
भ्रांति का निराकरण: शंकराचार्य बल देते हैं कि भ्रांति से उत्पन्न कल्पना को कभी तथ्य नहीं माना जा सकता। तर्क व्यक्ति को सही और गलत, न्याय और अन्याय के बीच अंतर करने में मदद करता है। जगत को माया (भ्रम) के रूप में समझने के लिए ज्ञान और भक्ति की शक्ति आवश्यक है।
जीव और ब्रह्म की एकता का बोध: अंततः, विवेक और तर्क के माध्यम से साधक यह अनुभव करता है कि वह शरीर, इंद्रियों, मन और अहंकार से भिन्न है। वह जीव और ब्रह्म की एकता को महसूस करता है ("अहं ब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि")।
संक्षेप में, शंकराचार्य का तर्क आत्मन को अनात्मन से अलग करने में सहायक होता है, जैसे एक जौहरी कच्चे पत्थर से हीरे की चमक को बाहर निकालता है, अनावश्यक पदार्थों को हटाकर उसके वास्तविक मूल्य को प्रकट करता है।
वेदांत दर्शन में, विशेषकर आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत में, ज्ञान (बोध/विद्या) को मोक्ष प्राप्ति का प्रत्यक्ष और एकमात्र साधन माना गया है। इसका कारण यह है कि बंधन का मूल कारण अज्ञान (अविद्या) है। मोक्ष किसी नई वस्तु की प्राप्ति नहीं है, बल्कि उस आत्म-स्वरूप की अनुभूति है जो पहले से ही विद्यमान है, परन्तु अविद्या के कारण छिपा हुआ है। जिस प्रकार सूर्योदय होने पर अंधकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान से अविद्या का नाश होता है।
ज्ञान मार्ग की भूमिका:
अज्ञान का निवारण: अद्वैत वेदांत मानता है कि जीव और ब्रह्म मूलतः एक हैं, और जो भी भेद नज़र आता है वह केवल अज्ञान के कारण है। ज्ञान ही इस अज्ञान को दूर कर सकता है।
आत्म-स्वरूप की अनुभूति: आत्म-ज्ञान से साधक अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेता है, जो सच्चिदानंद-स्वरूप ब्रह्म है। यह ज्ञान "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) और "तत्त्वमसि" (वह तू ही है) जैसे महावाक्यों के माध्यम से होता है।
मोक्ष का प्रत्यक्ष साधन: कर्म (क्रिया) अविद्या को दूर नहीं कर सकता क्योंकि यह उससे भिन्न नहीं है, जबकि ज्ञान (विद्या) सीधे अविद्या को नष्ट करता है। अतः ज्ञान को ही मोक्ष का आसन्न साधन (proximate means) माना गया है। योगियों के लिए, "ज्ञान की महान तलवार" (महासिना विज्ञान) अहंकार को काट देती है और माया से उत्पन्न भ्रम के बंधन को तोड़ देती है, जिससे पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है।
ज्ञान मार्ग के तीन चरण (श्रवण, मनन, निदिध्यासन): ज्ञान प्राप्ति के लिए तीन पूरक चरण निर्धारित किए गए हैं, जिनका उद्देश्य प्रत्यक्ष अनुभूति है:
श्रवण (सुनना): गुरु और शास्त्रों से आत्म-तत्त्व संबंधी उपदेश सुनना। यह सैद्धांतिक ज्ञान का आधार है, जैसे "अहं ब्रह्मास्मि" जैसे महावाक्यों का बोध।
मनन (चिंतन): श्रवण से प्राप्त ज्ञान पर तार्किक रूप से विचार करना, सभी संदेहों और विरोधाभासों को दूर करना। यह आत्मा-अनात्मा विवेक (आत्म और अनात्म के बीच भेदभाव) के माध्यम से होता है, जिससे ज्ञान अज्ञान से अलग होता है। शंकराचार्य ने स्वयं मांडन मिश्र के साथ शास्त्रार्थों में तार्किक युक्तियों का प्रयोग कर अपने ज्ञान मार्ग को सिद्ध किया।
निदिध्यासन (गहन ध्यान): श्रवण और मनन द्वारा प्राप्त ज्ञान को आंतरिककृत करने और प्रत्यक्ष अनुभव में बदलने के लिए निरंतर ध्यान करना। यह आत्म-साक्षात्कार की बाधाओं को दूर करता है और मन को अंतरात्मा में स्थापित करता है। शंकराचार्य कहते हैं कि श्रवण, मनन और निदिध्यासन जब एक हो जाते हैं, तभी ब्रह्म-एकत्व का सम्यक् दर्शन (सही दर्शन) प्राप्त होता है, केवल श्रवण से नहीं।
भक्ति (उपासना) की भूमिका:
ज्ञान की सीढ़ी: अद्वैत वेदांत में भक्ति को सीधे मोक्ष का साधन नहीं माना गया है (मोक्ष के हेतु नहीं है)। हालांकि, इसे ज्ञान प्राप्ति की एक महत्वपूर्ण सीढ़ी (ज्ञान हेतु) या सहायक साधन के रूप में स्वीकार किया गया है।
चित्त शुद्धि और एकाग्रता: सगुण ब्रह्म की उपासना (सगुणोपासना) चित्त की एकाग्रता में सहायक होती है। यह मानसिक एकाग्रता निर्विशेष ब्रह्म के साक्षात्कार के लिए आवश्यक है। भक्ति योग मार्ग को शक्ति प्रदान करता है।
शंकराचार्य का व्यवहार: आदि शंकराचार्य ने स्वयं न केवल ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर भाष्य तथा प्रकरण ग्रंथ (जैसे आत्म बोध, विवेकचूड़ामणि) लिखे, बल्कि उन्होंने विभिन्न देवी-देवताओं (शिव, विष्णु, देवी, गणेश) के लिए भक्तिपूर्ण स्तोत्रों (जैसे सौन्दर्यलहरी, भजगोविंदम्) की रचना भी की। उन्होंने यह अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने सगुण उपासना को निर्गुण तक पहुँचने के लिए एक अपरिहार्य सीढ़ी माना।
पूरकता: अतः, वेदांत में ज्ञान और भक्ति एक-दूसरे के पूरक हैं। भक्ति मन को शुद्ध और एकाग्र करके ज्ञान प्राप्ति के मार्ग को सुगम बनाती है, जबकि ज्ञान ही अंततः अज्ञान को दूर कर आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष की प्रत्यक्ष प्राप्ति कराता है। ज्ञान को सभी साधनाओं की परम उपलब्धि बताया गया है।
संक्षेप में, अद्वैत वेदांत में ज्ञान प्रत्यक्ष मार्ग है, जबकि भक्ति एक पूरक साधन है जो मन को शुद्ध करके ज्ञान के उदय के लिए परिस्थितियाँ तैयार करती है।
इसे एक नदी की यात्रा के रूप में समझा जा सकता है: ज्ञान वह मुख्य नदी है जो सीधे ब्रह्म के महासागर में मिलती है, जबकि भक्ति वे सहायक नदियाँ हैं जो इस मुख्य नदी में जल भरकर उसे अधिक शक्तिशाली और शुद्ध बनाती हैं, जिससे वह निर्बाध रूप से अपने अंतिम गंतव्य तक पहुँच सके।
शंकराचार्य के प्रमुख कार्य
शंकराचार्य की कृतियों को तीन समूहों में रखा जाता है: भाष्य (वैदिक ग्रंथों पर टीकाएँ), प्रकरण ग्रंथ (दार्शनिक ग्रंथ), और स्तोत्र (देवताओं की स्तुति में रचे गए श्लोक)।
भाष्य: उन्होंने उपनिषदों (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, छांदोग्य), ब्रह्मसूत्रों (ब्रह्मसूत्रभाष्य), और भगवद्गीता पर विस्तृत भाष्य लिखे।
प्रकरण ग्रंथ: इनमें विवेकचूडामणि, आत्मबोध, अपरोक्षानुभूति, उपदेशसाहस्री, निर्वाणशतकम् आदि शामिल हैं।
स्तोत्र: उन्होंने शिव, विष्णु, देवी, गणेश और सुब्रमण्य सहित विभिन्न देवताओं की स्तुति में अनेक भक्तिपूर्ण स्तोत्रों की रचना की।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रभाव
शंकराचार्य ने भारत में हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, खासकर उस समय जब बौद्ध धर्म लोकप्रिय हो रहा था। उन्हें "प्रच्छन्न बौद्ध" (छिपे हुए बौद्ध) भी कहा गया, हालाँकि शंकराचार्य ने बौद्धों के शून्यवाद का खंडन किया। उन्होंने अपने अकाट्य तर्कों से शैव, शाक्त और वैष्णव संप्रदायों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना (गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव और देवी की पूजा) का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने भारत को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक एकता के सूत्र में बाँधा।
शंकराचार्य का दर्शन हमें यह सिखाता है कि जिस प्रकार एक फिल्म प्रोजेक्टर से निकलने वाला प्रकाश (ब्रह्म) स्वयं स्थिर और अपरिवर्तित रहता है, लेकिन एक मायावी लेंस (अविद्या/माया) के माध्यम से पर्दे पर विभिन्न प्रकार के गतिशील और बदलते दृश्यों (जगत) का भ्रम पैदा करता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी अपनी अचिंत्य शक्ति माया के कारण इस जगत के रूप में प्रतीत होता है। जब तक प्रोजेक्टर के प्रकाश के वास्तविक स्वरूप और लेंस के मायावी प्रभाव को नहीं समझा जाता, तब तक दर्शक पर्दे पर दिख रहे दृश्यों को ही परम सत्य मानते रहते हैं।
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