योग वशिष्ठ के अनुसार, रामजी ने मुनिवर वशिष्ठजी से जगत (विश्व) के स्वरूप, उसकी उत्पत्ति और उसके लीन होने के संबंध में गहन प्रश्न पूछे हैं, जैसे कि "यह जगत क्या है?" और "इसकी उत्पत्ति कैसे हुई?"। इन प्रश्नों के उत्तर में, वशिष्ठजी बताते हैं कि जगत का निर्माण मन, चित्शक्ति (चेतना की शक्ति), संकल्प और वासनाओं से होता है, और यह वास्तव में ब्रह्म का ही एक आभास है।
मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:
जगत का मूल स्वरूप (The Fundamental Nature of the World):
जगत को मिथ्या असत् रूप बताया गया है। यह वास्तव में अस्तित्व में नहीं आया है, बल्कि संकल्प से दिखाई देता है, और संकल्प के मिटने से जगत की कल्पना भी मिट जाती है।
इसे असाररूप कहा गया है, जैसे देखने में विशाल लगने वाला बाँस भीतर से शून्य होता है या केले के वृक्ष में कोई सार नहीं होता।
वशिष्ठजी दृष्टांत देते हैं कि जैसे मरीचिका (मृगतृष्णा) में जल दिखाई देता है, वैसे ही आत्मा में जगत दिखाई देता है।
जब आत्मज्ञान होता है, तो जगत अलग से नहीं दिखाई देता , ठीक वैसे ही जैसे जागने पर स्वप्न के पदार्थ नहीं भासते।
मुक्ति प्राप्त पुरुष (जीवनमुक्त) को सब कुछ ब्रह्मस्वरूप ही दिखाई देता है।
मन की भूमिका (Role of the Mind):
यह सारा जगत आडंबर मन ने ही रचा है, और सब कुछ मनरूप ही है।
मन ही कर्मरूप है।
मन, परमात्मा से उत्पन्न हुआ है और उसने ही मोह (भ्रम) के कारण बंध और मोक्ष की कल्पना की है, तथा दृश्य प्रपंच (दृश्यमान संसार) को रचा है।
सभी पदार्थ आत्मा में मन द्वारा कल्पित होते हैं।
मन को वृत्तिरूप कहा गया है, और यह चित्त की पाँच वृत्तियों (प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा-अभाव, स्मृति) का अभिमानी (प्रेरक) है।
चित्शक्ति (चेतना की शक्ति) और उसका स्पंदन (Pulsation of Consciousness):
जगत ब्रह्म में ही स्थित है, उससे इतर (अलग) कुछ नहीं है।
ब्रह्मसत्ता ही जगत रूप होकर भासती है।
आदि चित्शक्ति जब स्पंद रूप (स्पंदनशील) होकर भासती है, तब वह जगत के आकार में प्रतीत होती है। जब यह स्पंदन शांत होता है, तब ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक जगत का अभाव हो जाता है।
शुद्ध चित्मात्र सत्ता जब 'अहं अस्मि' (मैं हूँ) के रूप में चेतन में स्फुरित होती है, तब उसे जीव कहते हैं। जब यह दृश्य (पदार्थों) की ओर स्फुरित होती है, तब जगत दृश्य होकर दिखाई देता है और नाना प्रकार के कार्य-कारण प्रतीत होते हैं।
चित् से जो चैत्यमय वासना स्फुरित होती है, वह संसार के पदार्थों को उत्पन्न करती है।
संकल्प और वासना का प्रभाव (Influence of Sankalpa and Vasana):
जगत वासना (संस्कारों या प्रवृत्तियों) के कारण ही उदय हुआ प्रतीत होता है, यद्यपि वह वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है।
जिसका जैसा संस्कार दृढ़ होता है, उसे वैसा ही अनुभव होता है।
संकल्प ही अविद्या (अज्ञान) का मूल कारण है, और अविद्यारूपी जगत संकल्प से ही उत्पन्न होता है और संकल्प से ही नष्ट हो जाता है।
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