Monday, March 31, 2025

४ योग वशिष्ठ चतुर्थ खंड : स्थिति प्रकरण संक्षिप्त ३५- ४७



४ योग वशिष्ठ चतुर्थ खंड : स्थिति प्रकरण संक्षिप्त (३५-४७ )

अध्याय 35 - वैराग्य और आनंद का वर्णन

वसिष्ठ वैराग्य और आनंद के स्वरूप का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि जिन्होंने अपने हृदय को अज्ञान से शुद्ध कर लिया है और अपने अनियंत्रित मन पर विजय प्राप्त कर ली है, वे धन्य हैं। आत्म-नियंत्रण ही संसार के दुखों से पार पाने का एकमात्र साधन है।

वसिष्ठ सभी ज्ञान का सार बताते हुए कहते हैं कि भोग की इच्छा बंधन है और उसका त्याग मुक्ति है। सभी सुख विषैले हैं और उनसे विषैले साँपों और आग की तरह दूर रहना चाहिए। इंद्रियों द्वारा अनुभव की जाने वाली हर चीज हानिकारक है। इच्छायेँ मन को दूषित करता है, जबकि इच्छा रहित मन शांत रहता है। अच्छे गुणों से मन शांत होता है और अज्ञान दूर होता है।

अच्छे लोगों की संगति शांति और मोक्ष प्रदान करती है। परिपक्व मन इच्छाओं और शत्रुता से मुक्त होता है और दुख-सुख के प्रति उदासीन हो जाता है। वह संदेहों, भ्रमों और त्रुटियों से मुक्त होकर आत्मा के कल्याण की ओर अग्रसर होता है।

वसिष्ठ मन को संसार का कारण बताते हैं और कहते हैं कि जब बुद्धि भ्रमित होती है तो वह मन कहलाती है। आत्मा शरीर नहीं है, अपितु एक निराकार चेतना है। मन अपनी इच्छाओं के अनुसार रूप लेता है और मनुष्य स्वयं को अपने कर्मों में फँसाता है।

अच्छे कर्म मनुष्य को महान बनाते हैं, जबकि बुरे कर्म नीचा दिखाते हैं। शुद्ध मन हमेशा अच्छे फल देता है। संसार एक भ्रम है और केवल ब्रह्म ही सत्य है। अहंकार बंधन का कारण है, जबकि अनंतता का ज्ञान मुक्ति का मार्ग है।

वसिष्ठ राम को अपनी आत्मा को सभी के समान मानने और सभी इच्छाओं से दूर रहने का उपदेश देते हैं। शास्त्रों के ज्ञान से शुद्ध मन ब्रह्म का प्रतिबिंब प्राप्त करता है। संसार की वास्तविकता को भूलकर ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने से परम का दर्शन होता है।

अंत में, वसिष्ठ राम को संसार की व्यर्थताओं से दूर रहने, शाश्वत आत्मा पर भरोसा करने और मन की चंचलता को नियंत्रित करने की सलाह देते हैं। इच्छाओं के समाप्त होने और मन शांत होने पर, अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है और आत्मा का प्रकाश चमकता है, जिससे परम आनंद की प्राप्ति होती है। शुद्ध मन सार्वभौमिक कल्याण की ओर मुड़ता है और अपने शरीर पर स्वामी की तरह शासन करता है। ज्ञानी पुरुष संसार के दुखों को करुणा की दृष्टि से देखते हुए शांतिपूर्ण जीवन जीते हैं।

वैराग्य और आनंद का स्वरूप: वैराग्य अज्ञान से हृदय को शुद्ध करने और अनियंत्रित मन पर विजय प्राप्त करने से प्राप्त होता है। ऐसे व्यक्ति धन्य हैं। आत्म-नियंत्रण ही सांसारिक दुखों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है।

ज्ञान का सार: भोग की इच्छा बंधन है और उसका त्याग मुक्ति है। सभी सांसारिक सुख विष के समान हैं, जिनसे विषैले साँपों और आग की तरह दूर रहना चाहिए। इंद्रियों द्वारा अनुभव की जाने वाली हर चीज हानिकारक हो सकती है। इच्छाएँ मन को दूषित करती हैं, जबकि इच्छा रहित मन शांत रहता है। अच्छे गुणों से मन शांत होता है और अज्ञान दूर होता है।

अच्छे संगति का महत्व: अच्छे लोगों की संगति शांति और मोक्ष प्रदान करती है। परिपक्व मन इच्छाओं और शत्रुता से मुक्त होता है और दुख-सुख के प्रति उदासीन हो जाता है। वह संदेहों, भ्रमों और त्रुटियों से मुक्त होकर आत्मा के कल्याण की ओर अग्रसर होता है।

मन और आत्मा की प्रकृति: मन संसार का कारण है और बुद्धि के भ्रमित होने पर वह मन कहलाता है। आत्मा शरीर नहीं है, बल्कि एक निराकार चेतना है। मन अपनी इच्छाओं के अनुसार रूप लेता है और मनुष्य स्वयं को अपने कर्मों में फँसाता है।

कर्मों का प्रभाव: अच्छे कर्म मनुष्य को महान बनाते हैं, जबकि बुरे कर्म नीचा दिखाते हैं। शुद्ध मन हमेशा अच्छे फल देता है।

वास्तविकता का ज्ञान: संसार एक भ्रम है और केवल ब्रह्म ही सत्य है। अहंकार बंधन का कारण है, जबकि अनंतता का ज्ञान मुक्ति का मार्ग है।

आत्मा की एकता और इच्छाओं का त्याग: वसिष्ठ राम को अपनी आत्मा को सभी के समान मानने और सभी इच्छाओं से दूर रहने का उपदेश देते हैं।

ईश्वर पर ध्यान: शास्त्रों के ज्ञान से शुद्ध मन ब्रह्म का प्रतिबिंब प्राप्त करता है। संसार की वास्तविकता को भूलकर ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने से परम का दर्शन होता है।

अंतिम उपदेश: वसिष्ठ राम को संसार की व्यर्थताओं से दूर रहने, शाश्वत आत्मा पर भरोसा करने और मन की चंचलता को नियंत्रित करने की सलाह देते हैं। इच्छाओं के समाप्त होने और मन शांत होने पर, अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है और आत्मा का प्रकाश चमकता है, जिससे परम आनंद की प्राप्ति होती है। शुद्ध मन सार्वभौमिक कल्याण की ओर मुड़ता है और अपने शरीर पर स्वामी की तरह शासन करता है। ज्ञानी पुरुष संसार के दुखों को करुणा की दृष्टि से देखते हुए शांतिपूर्ण जीवन जीते हैं।

संक्षेप में, वसिष्ठ इस कथन के माध्यम से वैराग्य, आत्म-नियंत्रण, अच्छे संगति, इच्छाओं के त्याग और ब्रह्म के ज्ञान के महत्व पर जोर देते हैं। वे मन को बंधन का कारण बताते हैं और आत्मा की एकता को समझने तथा ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ज्ञानी पुरुष संसार के दुखों से मुक्त होकर शांतिपूर्ण और आनंदमय जीवन जीते हैं।

अध्याय 36 - बुद्धि की सृष्टि का वर्णन

वसिष्ठ राम को बताते हैं कि यह सांसारिक व्यवस्था अलौकिक निराकार आत्मा में कैसे मौजूद है। वे कहते हैं कि लोकों का परम मन के सिवा कोई अलग अस्तित्व नहीं है; वे दिव्य चेतना में भविष्य की लहरों की तरह स्थित हैं। चेतना सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देती, जैसे सर्वव्यापी आकाश अपने पदार्थ की कमी के कारण अदृश्य है।

वसिष्ठ बताते हैं कि अवास्तविक संसार दिव्य आत्मा में संभावित रूप से मौजूद है। बुद्धि के पात्र में विद्यमान लोकों का बाहरी बुद्धि से कोई संपर्क नहीं है, जैसे आकाश में बादल आकाश को नहीं छूते। निराकार आत्मा शरीर रूपी पात्र में असंबद्ध रहती है और केवल हमारे ज्ञान के लिए खुद को प्रतिबिंबित करती है।

चेतना इच्छा और पदनाम से रहित है, लेकिन हमारी बुद्धि इसे नाम और रूप देती है। यह पारदर्शी पवन से भी अधिक स्पष्ट और सूक्ष्म है और विद्वानों द्वारा अविभाजित पूर्ण के रूप में जानी जाती है, जो इसे पूरे अविभाजित संसार के साथ समान मानते हैं। चेतना अपनी गति के विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करती है, जैसे समुद्र का जल लहरों में विभिन्न रूप दिखाता है। "मैं," "तुम," और "ये" का ज्ञान चेतना के सागर में लहरों की तरह है - ये झूठी धारणाएँ हैं जो एक ही तत्व, चेतना के प्रतिनिधित्व हैं।

चेतना (चित), चेतना का प्रयोग (चिंता), बुद्धि (चित्तम) और बोधगम्य (चैत्य) सभी आत्मा के मुख्य सिद्धांत से संबंधित हैं। चेतना बुद्धिमान और मूर्ख लोगों के लिए अलग-अलग पहलू प्रस्तुत करती है। अज्ञानियों के लिए यह संसार की यथार्थवादी अवधारणा में अपनी अवास्तविक प्रकृति दिखाती है, जबकि विद्वानों के लिए यह सभी चीजों की ईश्वर के साथ पहचान में अपना प्रकाशमय रूप प्रदर्शित करती है।

चेतना अपनी आंतरिक प्रकाश से सूर्य और तारों को प्रकाशित करती है, स्वाद देती है और अपने जन्मजात विचारों से सभी प्राणियों को जन्म देती है। यह न तो उगती है, न अस्त होती है, न कहीं जाती है और न कहीं नहीं होती। शुद्ध चेतना अपने भीतर संसार नामक भ्रमजाल को प्रदर्शित करती है।

वसिष्ठ बताते हैं कि चेतना अपनी प्रकृति से स्वयं-प्रकट और सर्वव्यापी है और अपनी अभिव्यक्ति, एकीकरण, पृथक्करण, संचय और स्राव के माध्यम से संसार का विकास और आवरण करती है। अपनी त्रुटि से यह अपनी अनंतता को भूल जाती है और अहंकार के कारण अज्ञानी बन जाती है। विशेषज्ञता के कारण यह सामान्य ज्ञान से विशेष ज्ञान तक गिर जाती है और भेद करने लगती है। यह इंद्रिय शरीर में संघर्ष करती है और पृथ्वी से निकलने वाले खरपतवारों की तरह बढ़ती है।

चेतना ही हर चीज के लिए स्थान बनाती है, पवन और जल बनाती है, पृथ्वी को दृढ़ करती है, अग्नि को तेज करती है और समय का उपयोग करती है। यह फूलों को सुगंध देती है, वनस्पतियों को उगाती है और पेड़ों को फल देती है। यह ऋतुओं का निर्माण करती है और सृष्टि के चक्र को चलाती है। चेतना के आदेश स्थिर हैं और पृथ्वी सभी चीजों को धारण करती है। इसने चौदह लोकों में चौदह प्रकार के प्राणियों को बनाया है जो अपने जीवन के तरीकों और रूपों में भिन्न हैं। ये बार-बार उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं और अनंतता के सागर में बुलबुलों की तरह अपने अभ्यस्त मार्गों में चलते रहते हैं। यहाँ दुखी प्राणी व्यर्थ संघर्ष करते हैं और रोग और मृत्यु के अधीन रहते हैं, लगातार जन्म लेते और मरते रहते हैं।

यह कथन वसिष्ठ द्वारा राम को सांसारिक व्यवस्था की परम आत्मा में उपस्थिति की गहन व्याख्या है, जो अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों पर आधारित है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

लोकों का परम मन के सिवा कोई अलग अस्तित्व नहीं: वसिष्ठ स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्मांड और सभी लोक परम मन (दिव्य चेतना) से भिन्न कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं रखते। वे दिव्य चेतना में भविष्य की संभावनाओं या विचारों की तरह स्थित हैं।

चेतना की सूक्ष्मता और अदृश्यता: चेतना इतनी सूक्ष्म है कि वह भौतिक रूप से दिखाई नहीं देती, ठीक उसी प्रकार जैसे सर्वव्यापी आकाश अपने पदार्थ की कमी के कारण अदृश्य है।

अवास्तविक संसार की संभावित उपस्थिति: अवास्तविक प्रतीत होने वाला संसार दिव्य आत्मा में एक संभावित रूप में मौजूद है, जैसे बीज में वृक्ष की संभावना होती है।

बुद्धि में लोकों का असंपर्क: बुद्धि रूपी पात्र में विद्यमान लोक बाहरी बुद्धि को प्रभावित नहीं करते, जैसे आकाश में बादल आकाश को नहीं छूते। निराकार आत्मा शरीर रूपी पात्र में असंग रहती है और केवल हमारे ज्ञान के लिए स्वयं को प्रतिबिंबित करती है।

नाम और रूप बुद्धि द्वारा आरोपित: चेतना मूल रूप से इच्छा और नाम-रूप से रहित है, लेकिन हमारी बुद्धि इसे नाम और रूप देती है, जिससे विविधता का अनुभव होता है।

चेतना की सूक्ष्मता और पूर्णता: चेतना पारदर्शी पवन से भी अधिक स्पष्ट और सूक्ष्म है और विद्वानों द्वारा अविभाजित पूर्ण के रूप में जानी जाती है, जो इसे पूरे अविभाजित संसार के साथ समान मानते हैं।

चेतना की गति और अभिव्यक्ति: चेतना अपनी गति के विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करती है, जैसे समुद्र का जल लहरों में विभिन्न रूप दिखाता है। "मैं," "तुम," और "ये" का ज्ञान चेतना के सागर में लहरों की तरह क्षणिक और झूठी धारणाएँ हैं, जो एक ही तत्व, चेतना के प्रतिनिधित्व हैं।

आत्मा के मुख्य सिद्धांत: चेतना (चित), चेतना का प्रयोग (चिंता), बुद्धि (चित्तम) और बोधगम्य (चैत्य) सभी आत्मा के मूल सिद्धांतों से संबंधित हैं।

चेतना के विभिन्न पहलू: चेतना बुद्धिमान और मूर्ख लोगों के लिए अलग-अलग पहलू प्रस्तुत करती है। अज्ञानियों के लिए यह संसार की यथार्थवादी अवधारणा में अपनी अवास्तविक प्रकृति दिखाती है, जबकि विद्वानों के लिए यह सभी चीजों की ईश्वर के साथ पहचान में अपना प्रकाशमय रूप प्रदर्शित करती है।

चेतना का सर्वव्यापी प्रकाश और शक्ति: चेतना अपनी आंतरिक प्रकाश से सूर्य और तारों को प्रकाशित करती है, स्वाद देती है और अपने सहज विचारों से सभी प्राणियों को जन्म देती है।

चेतना की असीम प्रकृति: यह न तो उगती है, न अस्त होती है, न कहीं जाती है और न कहीं नहीं होती। शुद्ध चेतना अपने भीतर संसार नामक भ्रमजाल को प्रदर्शित करती है।

चेतना का विकास और आवरण: चेतना अपनी प्रकृति से स्वयं-प्रकट और सर्वव्यापी है और अपनी अभिव्यक्ति, एकीकरण, पृथक्करण, संचय और स्राव के माध्यम से संसार का विकास और आवरण करती है।

अज्ञान और अहंकार: अपनी त्रुटि से यह अपनी अनंतता को भूल जाती है और अहंकार के कारण अज्ञानी बन जाती है। विशेषज्ञता के कारण यह सामान्य ज्ञान से विशेष ज्ञान तक गिर जाती है और भेद करने लगती है।

चेतना का संघर्ष और विकास: यह इंद्रिय शरीर में संघर्ष करती है और पृथ्वी से निकलने वाले खरपतवारों की तरह बढ़ती है।

चेतना के कार्य: चेतना ही हर चीज के लिए स्थान बनाती है, पवन और जल बनाती है, पृथ्वी को दृढ़ करती है, अग्नि को तेज करती है और समय का उपयोग करती है। यह फूलों को सुगंध देती है, वनस्पतियों को उगाती है और पेड़ों को फल देती है। यह ऋतुओं का निर्माण करती है और सृष्टि के चक्र को चलाती है।

चेतना का आदेश और सृष्टि का चक्र: चेतना के आदेश स्थिर हैं और पृथ्वी सभी चीजों को धारण करती है। इसने चौदह लोकों में चौदह प्रकार के प्राणियों को बनाया है जो अपने जीवन के तरीकों और रूपों में भिन्न हैं। ये बार-बार उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं और अनंतता के सागर में बुलबुलों की तरह अपने अभ्यस्त मार्गों में चलते रहते हैं।

संसार में दुख और संघर्ष: यहाँ दुखी प्राणी व्यर्थ संघर्ष करते हैं और रोग और मृत्यु के अधीन रहते हैं, लगातार जन्म लेते और मरते रहते हैं।

संक्षेप में, वसिष्ठ इस कथन के माध्यम से यह स्थापित करते हैं कि यह दृश्यमान संसार परम आत्मा या चेतना से अलग कोई वास्तविक सत्ता नहीं रखता। यह चेतना में ही एक विचार या संभावना के रूप में विद्यमान है और अज्ञान के कारण हमें वास्तविक और विविध प्रतीत होता है। चेतना सर्वव्यापी, सूक्ष्म और अपनी शक्ति से सब कुछ उत्पन्न करने और धारण करने में सक्षम है। संसार में दुख और संघर्ष अज्ञानता और अहंकार के कारण हैं, और ज्ञान के द्वारा इस भ्रम से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

1. चौदह लोक (चतुर्दश भुवन):

भारतीय दर्शन और पुराणों में ब्रह्मांड को विभिन्न स्तरों या लोकों में विभाजित किया गया है। ये लोक ऊर्ध्व (ऊपर की ओर) और अधो (नीचे की ओर) क्रम में व्यवस्थित माने जाते हैं। आमतौर पर माने जाने वाले चौदह लोक इस प्रकार हैं:

ऊर्ध्व लोक (सात):


भूलोक: यह पृथ्वी लोक है, जहाँ मनुष्य और अन्य स्थलीय प्राणी रहते हैं।

भुवर्लोक: यह पृथ्वी और स्वर्ग के बीच का अंतरिक्षीय क्षेत्र है, जहाँ सिद्ध, गंधर्व आदि वास करते हैं।

स्वर्गलोक (या स्वर्लोक): यह देवताओं और पुण्यात्माओं का निवास स्थान है, जहाँ सुख और आनंद की प्राप्ति होती है।

महर्लोक: यह तपस्वियों और महान ऋषियों का लोक है, जो प्रलय के समय भी सुरक्षित रहता है।

जनलोक: यह ब्रह्मा के मानस पुत्रों और विरक्त आत्माओं का लोक है।

तपोलोक: यह अत्यंत वैरागी और तपस्वी आत्माओं का लोक है।

सत्यलोक (या ब्रह्मलोक): यह ब्रह्मा जी का निवास स्थान है और सृष्टि का सर्वोच्च लोक माना जाता है।

अधो लोक (सात):

अतल लोक: यह मायावी शक्तियों वाले प्राणियों का लोक है।

वितल लोक: यहाँ हाटकेश्वर शिव का निवास माना जाता है।

सुतल लोक: यह दानवराज बलि का लोक है, जो विष्णु की कृपा से यहाँ निवास करते हैं।

तलातल लोक: यह नागों और असुरों का लोक है।

महातल लोक: यहाँ भी नाग और अन्य शक्तिशाली प्राणी रहते हैं।

रसातल लोक: यह दानवों और दैत्यों का लोक है, जो पृथ्वी को धारण करते हैं।

पाताल लोक: यह नागलोक है, जहाँ शेषनाग का निवास माना जाता है।

यह वर्गीकरण ब्रह्मांड की जटिलता और विभिन्न प्रकार की चेतनाओं के स्तरों को दर्शाता है।

अध्याय 37 - उपशम: आत्मा की स्थिरता; मन की आभासी गतिविधि


वसिष्ठ बताते हैं कि लोकों की श्रृंखलाएँ ब्रह्म की वास्तविकता में बार-बार प्रकट और लुप्त होती रहती हैं। यह सब एक स्व-अस्तित्व से उत्पन्न होता है और पारस्परिक परिवर्तनों से एक दूसरे के कारण बनता है और फिर नष्ट हो जाता है। प्रकृति के बदलते दृश्यों के उतार-चढ़ाव ब्रह्म की शांत आत्मा को प्रभावित नहीं करते, जैसे समुद्र की गहराई में जल सतह की गति से अप्रभावित रहता है।

वसिष्ठ संसार को न तो पूर्ण रूप से वास्तविक और न ही पूर्ण रूप से अवास्तविक बताते हैं। यह चेतना में स्थित है लेकिन उससे बाहर प्रतीत होता है, आत्मा से अलग नहीं होते हुए भी भिन्न दिखता है, जैसे आभूषण सोने से अलग दिखता है। राम की आत्मा, जिससे वे रूप, ध्वनि और गंध का अनुभव करते हैं, वह सब में व्याप्त परम ब्रह्म है। शुद्ध आत्मा, अनेक में एक और सब में निहित होने के कारण, स्वयं से भिन्न दिखने वालों से अलग नहीं मानी जा सकती।

मनुष्य के विचार ही चीजों के अस्तित्व, गैर-अस्तित्व, अच्छे और बुरे स्वभाव का अलग-अलग न्याय करते हैं और संसार को दिव्य आत्मा के भीतर या बाहर मानते हैं। ईश्वर की आत्मा के बाहर कुछ भी अस्तित्व में नहीं आ सकता, इसलिए आत्मा ने ही अनेक बनने की इच्छा की। चूँकि उसके सिवा कुछ नहीं था, इसलिए उसे स्वयं ही ऐसा बनना पड़ा।

इसलिए, यह या वह करने की इच्छा मन से संबंधित है, आत्मा से नहीं। चुनाव रहित आत्मा, जिसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है, केवल अपने भीतर के विचारों पर ही ध्यान करती है। यह सक्रिय कर्ता नहीं है क्योंकि सभी संस्था, साधन और उद्देश्य स्वयं में एकजुट हैं। यह कहीं भी नहीं रहता, स्वयं में सब कुछ का प्राप्तकर्ता और सामग्री होने के कारण। सृष्टि के कार्य आत्मा में ही प्रत्यक्ष होते हैं, इसलिए इच्छा रहित आत्मा क्रिया रहित नहीं है और उनका कोई और कारण संभव नहीं है।

वसिष्ठ राम को ब्रह्म के स्वभाव को यही जानने और उसे कर्ता न जानकर सभी चिंता से मुक्त होने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि भले ही राम कई कार्य करें, वास्तव में करने लायक क्या है? अपनी संस्था की कमी पर भरोसा रखकर बुद्धिमान ऋषि की तरह शांत रहें। सांसारिक वस्तुओं का पीछा करना छोड़कर अपनी आंतरिक आत्मा की आध्यात्मिकता पर ध्यान केंद्रित करें।

 कर्म में अकर्म; अकर्ता आत्मा

राम का प्रश्न: राम पूछते हैं कि कर्म करते हुए भी अकर्म कैसे हो सकता है, और कर्ता होते हुए भी अकर्ता कैसे रहा जा सकता है।

वसिष्ठ का उत्तर: ज्ञान का महत्व: यह ज्ञान के द्वारा ही संभव है कि कर्म करते हुए भी अकर्म और कर्ता होते हुए भी अकर्ता रहा जा सके।

आत्मा का वास्तविक स्वरूप: आत्मा निष्क्रिय, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। यह न तो कुछ करती है और न ही किसी क्रिया का फल भोगती है।

मन और बुद्धि की भूमिका: मन और बुद्धि ही कर्मों को करते हैं और उनके फल भोगते हैं। अज्ञान के कारण आत्मा को कर्ता और भोक्ता मान लिया जाता है।

कर्म में अकर्म: जब कोई व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा वास्तव में अकर्ता है और सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा मन और बुद्धि के माध्यम से हो रहे हैं, तो वह कर्म करते हुए भी अकर्ता रहता है। उसका कर्मों में आसक्ति नहीं होती।

कर्ता में अकर्ता: जब कोई व्यक्ति अहंकार और कर्तापन के भाव से मुक्त होकर कर्म करता है, तो वह कर्ता होते हुए भी अकर्ता रहता है। वह कर्मों के फल की इच्छा नहीं रखता।

उदाहरण:

जैसे आकाश सभी क्रियाओं का साक्षी है लेकिन स्वयं कुछ नहीं करता, वैसे ही आत्मा भी सभी कर्मों की साक्षी है लेकिन स्वयं अकर्ता है।

ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग: शास्त्रों का अध्ययन, गुरु का मार्गदर्शन और निरंतर अभ्यास के द्वारा इस ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।

अज्ञान का बंधन: अज्ञान के कारण ही आत्मा स्वयं को कर्ता और भोक्ता मानकर बंधनों में जकड़ी रहती है।

मुक्ति का मार्ग: ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है। जब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेती है, तो वह कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाती है।

समता का भाव: ज्ञानी व्यक्ति सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में समभाव रखता है। वह कर्मों के फल से अप्रभावित रहता है। 

मन का नियंत्रण: मन को नियंत्रित करके और आसक्ति को त्यागकर अकर्मता और अकर्तापन की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। 

कर्मयोग: फल की इच्छा किए बिना कर्तव्य कर्म करना ही कर्मयोग है। यह अकर्मता और अकर्तापन की ओर ले जाता है। 

निष्कर्ष: ज्ञान के द्वारा आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर कर्म करते हुए भी अकर्म और कर्ता होते हुए भी अकर्ता रहा जा सकता है। यही मुक्ति का मार्ग है।

अध्याय 38 - आत्मा की वही स्थिरता; मन कर्ता के रूप में

 वसिष्ठ बुद्धिमानों की स्थिति का वर्णन करते हैं, जिनके कार्य, चाहे अच्छे हों या बुरे, सुखद हों या दुखद, वास्तव में असत्य और अप्रभावी होते हैं क्योंकि वे मानसिक और स्वैच्छिक ऊर्जाओं के प्रयोग मात्र हैं। मनुष्य का कर्म उचित साधनों का प्रयोग, शारीरिक प्रयास और कामना के अनुरूप परिणाम की पूर्ति है। अज्ञानी अपनी इच्छाओं से कर्ता बनते हैं, जबकि बुद्धिमान, इच्छा रहित होने के कारण, अनैच्छिक कार्यों के लिए भी दोषी नहीं होते।

वसिष्ठ कहते हैं कि जिसने सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह सांसारिक इच्छाओं में शिथिल हो जाता है और शांत मन से कर्म करता है, सफलता को ईश्वर की इच्छा मानता है। मन जो कामना करता है, वही होता है, इसलिए कर्ता मन है, शरीर नहीं। संसार दिव्य मन से उत्पन्न होता है और उसमें स्थित है। आत्मा को जानने वाले अपनी इच्छाओं से पूर्ण वैराग्य प्राप्त करते हैं और परम आनंद में विश्राम करते हैं।

एक उदाहरण देते हुए वसिष्ठ कहते हैं कि मन ही सुख और दुख की कल्पना करता है, न कि शारीरिक क्रिया या निष्क्रियता। जब मन किसी अन्य विचार में लीन होता है, तो कर्म का अनुभव नहीं होता। जो अपने मन के अमूर्त ध्यान में सब कुछ देखता है, वह स्वयं में सब कुछ देखता है और सुख-दुख से अगम्य हो जाता है।

जो स्वयं को जानता है, वह विपत्ति में भी आनंदित रहता है। मन ही कार्यों का कर्ता है, आत्मा नहीं। इसलिए, बुद्धिमान अपने कार्यों का श्रेय स्वयं को नहीं देते और न ही फल की अपेक्षा करते हैं। अनियंत्रित मन ही सभी प्रयासों, कर्मों और उनके परिणामों का मूल है। मन को दूर करके सभी दुखों से बचा जा सकता है।

वसिष्ठ कहते हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक हैं। केवल आत्मा ही वास्तविक है, जो न तो सक्रिय है और न ही निष्क्रिय कर्ता। सांसारिक मन वालों के लिए मुक्ति नहीं है, जबकि योगी जीवन्मुक्त अवस्था में मुक्ति का अनुभव करते हैं। ज्ञानी एकता और द्वैत के भेद को जानते हुए भी बंधन और स्वतंत्रता से परे होते हैं। मन को सांसारिक बंधनों से मुक्त करके सच्चे अहंकार पर स्थिर रहना चाहिए।

बुद्धिमानों के कर्मों की असत्यता और अप्रभाव: बुद्धिमानों के कार्य, चाहे अच्छे हों या बुरे, सुखद हों या दुखद, वास्तव में असत्य और अप्रभावी होते हैं क्योंकि वे केवल मानसिक और स्वैच्छिक ऊर्जाओं का प्रयोग मात्र हैं। वे आसक्ति और कर्ता भाव से रहित होकर कर्म करते हैं, इसलिए उनके कर्मों का उन पर कोई बंधनकारी प्रभाव नहीं पड़ता।

कर्म की परिभाषा: मनुष्य का कर्म उचित साधनों का प्रयोग, शारीरिक प्रयास और कामना के अनुरूप परिणाम की पूर्ति है। अज्ञानी अपनी इच्छाओं से प्रेरित होकर कर्ता बनते हैं, जबकि बुद्धिमान इच्छा रहित होने के कारण अनैच्छिक कार्यों के लिए भी दोषी नहीं होते।

ज्ञान और वैराग्य: जिसने सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह सांसारिक इच्छाओं में शिथिल हो जाता है और शांत मन से कर्म करता है, सफलता को ईश्वर की इच्छा मानता है।

मन ही कर्ता: मन जो कामना करता है, वही होता है, इसलिए वास्तविक कर्ता मन है, शरीर नहीं। संसार दिव्य मन से उत्पन्न होता है और उसमें स्थित है।

आत्माज्ञान और परम आनंद: आत्मा को जानने वाले अपनी इच्छाओं से पूर्ण वैराग्य प्राप्त करते हैं और परम आनंद में विश्राम करते हैं।

मन की कल्पना ही सुख-दुख का कारण: मन ही सुख और दुख की कल्पना करता है, न कि शारीरिक क्रिया या निष्क्रियता। जब मन किसी अन्य विचार में लीन होता है, तो कर्म का अनुभव नहीं होता।

अमूर्त ध्यान और अगम्यता: जो अपने मन के अमूर्त ध्यान में सब कुछ देखता है, वह स्वयं में सब कुछ देखता है और सुख-दुख से अगम्य हो जाता है।

आत्मज्ञान और विपत्ति में आनंद: जो स्वयं को जानता है, वह विपत्ति में भी आनंदित रहता है।

आत्मा अकर्ता: मन ही कार्यों का कर्ता है, आत्मा नहीं। इसलिए, बुद्धिमान अपने कार्यों का श्रेय स्वयं को नहीं देते और न ही फल की अपेक्षा करते हैं।

अनियंत्रित मन बंधन का कारण: अनियंत्रित मन ही सभी प्रयासों, कर्मों और उनके परिणामों का मूल है। मन को दूर करके सभी दुखों से बचा जा सकता है।

सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता: सांसारिक सुख क्षणिक हैं। 

आत्मा की वास्तविकता और अकर्तृत्व: केवल आत्मा ही वास्तविक है, जो न तो सक्रिय है और न ही निष्क्रिय कर्ता।

मुक्ति की अवस्थाएँ: सांसारिक मन वालों के लिए मुक्ति नहीं है, जबकि योगी जीवन्मुक्त अवस्था में मुक्ति का अनुभव करते हैं। ज्ञानी एकता और द्वैत के भेद को जानते हुए भी बंधन और स्वतंत्रता से परे होते हैं।

सच्चे अहंकार पर स्थिरता: मन को सांसारिक बंधनों से मुक्त करके सच्चे अहंकार (आत्मा के साथ तादात्म्य) पर स्थिर रहना चाहिए।

संक्षेप में, वसिष्ठ इस कथन के माध्यम से यह समझाते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति ज्ञान और वैराग्य के द्वारा कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। वे मन को ही कर्ता मानते हैं और आत्मा को अकर्ता के रूप में देखते हैं। सुख और दुख मन की कल्पनाएँ हैं, और आत्मज्ञान से विपत्ति में भी आनंद प्राप्त किया जा सकता है। अनियंत्रित मन ही दुखों का कारण है, जिसे दूर करके मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। ज्ञानी व्यक्ति संसार के भ्रम को जानते हुए भी बंधन और स्वतंत्रता से परे स्थित होते हैं और सच्चे अहंकार में स्थिर रहते हैं।

अध्याय 39 - वसिष्ठ ने पवित्रता से अशुद्धता के प्रश्न को टाला; सभी चीजों की एकता


राम परम ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में प्रश्न पूछते हैं, जिसे वसिष्ठ शून्यता के चित्रफलक पर स्थिर चित्र की तरह बताते हैं। वसिष्ठ उत्तर देते हैं कि ब्रह्म की प्रकृति ऐसी है कि उससे लगातार शक्ति प्रवाहित होती है और सभी शक्तियाँ उसमें निवास करती हैं। उसमें सत्ता, गैर-सत्ता, एकता, द्वैत, बहुलता और सभी चीजों का आरंभ और अंत है। यह एक है, जैसे समुद्र जिसके जल में अनगिनत आकार हैं।

राम ब्रह्म के मन और इंद्रियों से परे होने और उससे उत्पन्न नाशवान चीजों के बारे में विरोधाभास व्यक्त करते हैं। वसिष्ठ उत्पादन के नियम की व्याख्या करते हैं कि उत्पन्न चीज अपने उत्पादक के समान स्वभाव की होती है, लेकिन राम ब्रह्म की शुद्धता और सृष्टि की अशुद्धता का विषय उठाते हैं।

वाल्मीकि भरद्वाज को बताते हैं कि राम के प्रश्नों पर वसिष्ठ मौन हो जाते हैं और विचार करते हैं। वे निष्कर्ष निकालते हैं कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने तक प्रश्न पूछना शिक्षितों का दोष नहीं है। अर्ध-शिक्षित आध्यात्मिक शिक्षा के योग्य नहीं होते, जबकि जिन्होंने परमतत्व को समझ लिया है, वे अंततः ब्रह्म को सब में सब कुछ मानते हैं। शिष्य को पहले स्थिरता और आत्म-नियंत्रण से शुद्ध करना चाहिए, फिर उसे "सब ब्रह्म है और तुम वह शुद्ध आत्मा हो" के सिद्धांत में दीक्षित करना चाहिए।

वसिष्ठ राम को बताते हैं कि वे व्याख्यान के अंत में ब्रह्म पर अशुद्धता के आरोपण के प्रश्न का उत्तर देंगे। अभी के लिए, वे कहते हैं कि ब्रह्म सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और स्वयं सब कुछ है। अपनी सर्वशक्तिमत्ता से वह स्वयं से सब कुछ कर सकता है और बन सकता है, जैसे इंद्रजालिक अपने चमत्कार दिखाते हैं।

संसार अप्सराओं की कहानियों के उद्यानों और गंधर्वों के आकाशीय दुर्ग की तरह है। जो कुछ भी है, रहा है या होने वाला है, वह सब घूमते हुए आकाश और खगोलीय पिंडों के प्रतिबिंबों की तरह है। ये सब स्वयं ईश्वर की अभिव्यक्तियों के विभिन्न रूप हैं। किसी भी समय, किसी भी स्थान पर और किसी भी रूप में जो कुछ भी होता है, वह एक स्व-अस्तित्व वाली वास्तविकता की विविधता है। बुद्धिमानों को सभी परिवर्तनों के बीच अपने मन और स्वभाव की समानता बनाए रखनी चाहिए, यह जानते हुए कि वे एक ही अपरिवर्तनीय मन की बदलती स्थितियाँ हैं। जो ईश्वर को सब में देखता है और समता से भरा है, उसे आश्चर्य, शोक या आनंद का कोई कारण नहीं है।

प्रभु अपनी सृष्टि की रचना में योजनाएँ बनाते हैं और अपनी परिपूर्णता से अंतहीन विविधताओं में प्रकट होते हैं, जैसे समुद्र अपनी लहरें। रूप में परिवर्तन वास्तविक नहीं, अपितु मात्र दिखावे हैं। कोई कर्ता, कर्म या वस्तु नहीं है, केवल एक एकता की विविधता है। आध्यात्मिक सत्यों का साक्षी मन स्वयं सत्य के प्रकाश को देखता है। आत्मा का प्रकाश ही संसार के रूप में दिखाई देता है। निष्कलंक आत्मा ही असंख्य स्थूल शरीरों के प्रकट होने और लुप्त होने की शक्ति है।

जब हमारी आत्माएँ हमसे दूर हो जाती हैं तो सब कुछ मिट जाता है, लेकिन आत्मा की उपस्थिति में सब कुछ प्रकट होता है और उसकी अनुपस्थिति में लुप्त हो जाता है। सब कुछ हमारी आत्माओं के साथ पैदा होता है और उनके खोने के साथ खो जाता है। मनुष्य जन्म से ही ज्ञान से संपन्न होते हैं और समय के साथ संसार के रूप में विस्तारित होते हैं। सांसारिक इच्छाएँ दुख का कारण बनती हैं। इसलिए, वसिष्ठ राम को भेद की तलवार से सांसारिक अस्तित्व के वृक्ष को काटने की सलाह देते हैं।

यह कथन योगा वसिष्ठ के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समाहित करता है, जिसमें परम ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्म की प्रकृति, ज्ञान का महत्व और संसार की अवास्तविकता पर प्रकाश डाला गया है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति: राम का प्रश्न परम ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में है, जिसे वसिष्ठ शून्यता के चित्रफलक पर स्थिर चित्र की तरह बताते हैं। ब्रह्म की प्रकृति ऐसी है कि उससे लगातार शक्ति प्रवाहित होती है और सभी शक्तियाँ उसमें निवास करती हैं। उसमें सत्ता, गैर-सत्ता, एकता, द्वैत, बहुलता और सभी चीजों का आरंभ और अंत है। यह एक है, जैसे समुद्र जिसके जल में अनगिनत आकार हैं।


ब्रह्म की शुद्धता और सृष्टि की अशुद्धता का विरोधाभास: राम ब्रह्म के मन और इंद्रियों से परे होने और उससे उत्पन्न नाशवान चीजों के बारे में विरोधाभास व्यक्त करते हैं। वसिष्ठ उत्पादन के नियम की व्याख्या करते हैं कि उत्पन्न चीज अपने उत्पादक के समान स्वभाव की होती है, लेकिन राम ब्रह्म की शुद्धता और सृष्टि की अशुद्धता का विषय उठाते हैं।

ज्ञान प्राप्ति तक प्रश्न पूछना उचित: राम के प्रश्नों पर वसिष्ठ मौन होकर विचार करते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने तक प्रश्न पूछना शिक्षितों का दोष नहीं है। अर्ध-शिक्षित आध्यात्मिक शिक्षा के योग्य नहीं होते, जबकि जिन्होंने परमतत्व को समझ लिया है, वे अंततः ब्रह्म को सब में सब कुछ मानते हैं।

शिष्य को दीक्षित करने की प्रक्रिया: शिष्य को पहले स्थिरता और आत्म-नियंत्रण से शुद्ध करना चाहिए, फिर उसे "सब ब्रह्म है और तुम वह शुद्ध आत्मा हो" के सिद्धांत में दीक्षित करना चाहिए।

ब्रह्म की सर्वशक्तिमत्ता: वसिष्ठ राम को बताते हैं कि वे व्याख्यान के अंत में ब्रह्म पर अशुद्धता के आरोपण के प्रश्न का उत्तर देंगे। अभी के लिए, वे कहते हैं कि ब्रह्म सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और स्वयं सब कुछ है। अपनी सर्वशक्तिमत्ता से वह स्वयं से सब कुछ कर सकता है और बन सकता है, जैसे इंद्रजालिक अपने चमत्कार दिखाते हैं।

संसार की अवास्तविकता: संसार अप्सराओं की कहानियों के उद्यानों और गंधर्वों के आकाशीय दुर्ग की तरह है। जो कुछ भी है, रहा है या होने वाला है, वह सब घूमते हुए आकाश और खगोलीय पिंडों के प्रतिबिंबों की तरह है। ये सब स्वयं ईश्वर की अभिव्यक्तियों के विभिन्न रूप हैं।

एक स्व-अस्तित्व वाली वास्तविकता की विविधता: किसी भी समय, किसी भी स्थान पर और किसी भी रूप में जो कुछ भी होता है, वह एक स्व-अस्तित्व वाली वास्तविकता की विविधता है।


समता का महत्व: बुद्धिमानों को सभी परिवर्तनों के बीच अपने मन और स्वभाव की समानता बनाए रखनी चाहिए, यह जानते हुए कि वे एक ही अपरिवर्तनीय मन की बदलती स्थितियाँ हैं। जो ईश्वर को सब में देखता है और समता से भरा है, उसे आश्चर्य, शोक या आनंद का कोई कारण नहीं है।

प्रभु की सृष्टि और विविधता: प्रभु अपनी सृष्टि की रचना में योजनाएँ बनाते हैं और अपनी परिपूर्णता से अंतहीन विविधताओं में प्रकट होते हैं, जैसे समुद्र अपनी लहरें। रूप में परिवर्तन वास्तविक नहीं, अपितु मात्र दिखावे हैं।

एकता में विविधता: कोई कर्ता, कर्म या वस्तु नहीं है, केवल एक एकता की विविधता है। आध्यात्मिक सत्यों का साक्षी मन स्वयं सत्य के प्रकाश को देखता है। आत्मा का प्रकाश ही संसार के रूप में दिखाई देता है। निष्कलंक आत्मा ही असंख्य स्थूल शरीरों के प्रकट होने और लुप्त होने की शक्ति है।

आत्मा की उपस्थिति और अनुपस्थिति का प्रभाव: जब हमारी आत्माएँ हमसे दूर हो जाती हैं तो सब कुछ मिट जाता है, लेकिन आत्मा की उपस्थिति में सब कुछ प्रकट होता है और उसकी अनुपस्थिति में लुप्त हो जाता है। सब कुछ हमारी आत्माओं के साथ पैदा होता है और उनके खोने के साथ खो जाता है।

जन्मजात ज्ञान और सांसारिक इच्छाएँ: मनुष्य जन्म से ही ज्ञान से संपन्न होते हैं और समय के साथ संसार के रूप में विस्तारित होते हैं। सांसारिक इच्छाएँ दुख का कारण बनती हैं।

भेद ज्ञान का महत्व: इसलिए, वसिष्ठ राम को भेद की तलवार से सांसारिक अस्तित्व के वृक्ष को काटने की सलाह देते हैं।

संक्षेप में, वसिष्ठ इस कथन के माध्यम से यह स्थापित करते हैं कि सृष्टि परम ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है, जो अपनी प्रकृति में अनंत संभावनाओं से युक्त है। संसार अवास्तविक है और ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। ज्ञान प्राप्त करके और समता का भाव रखकर दुखों से मुक्ति पाई जा सकती है। आत्मा ही सब कुछ का आधार है और सांसारिक इच्छाओं का त्याग ही मुक्ति का मार्ग है।

अध्याय 40 - संसार की ब्रह्म के साथ पहचान

राम ब्रह्म से पशु प्राणियों की उत्पत्ति और उनके विभिन्न नामों व स्वभावों के बारे में पूछते हैं। वसिष्ठ यह समझा रहे हैं कि पशु प्राणियों की उत्पत्ति ब्रह्म से उसकी सर्वशक्तिमान चेतना के माध्यम से होती है। यह चेतना पहले दिव्य स्तर पर विचारित रूपों के रूप में प्रकट होती है, फिर मन के रूप में संघनित होकर अपनी इच्छाशक्ति से इन रूपों को संसार के दृश्य में प्रक्षेपित करती है। मूल रूप से चेतना शून्यवत लगती है, लेकिन मन के रूप में प्रकट होने पर यह विविधतापूर्ण संसार की नींव बनती है, जिसमें पशु प्राणी भी शामिल हैं। उनके विभिन्न नाम और स्वभाव मन की कल्पना और पूर्व कर्मों के कारण होते हैं, जो चेतना के इस प्रक्षेपण को विशिष्टता प्रदान करते हैं।

ब्रह्म की सर्वशक्तिमान चेतना (चित-शक्ति): मूल तत्व ब्रह्म है, जो सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान चेतना है। इसमें सभी संभावनाएँ बीज रूप में विद्यमान हैं।

दिव्य चेतना में विचार किए जाने वाले (चेत्य) रूप में प्रकट: जब सृष्टि की इच्छा होती है, तो ब्रह्म की यह चेतना अपने भीतर ही विभिन्न रूपों और आकारों की कल्पना करती है। ये कल्पनाएँ "चेत्य" कहलाती हैं, अर्थात् वे वस्तुएँ जो चेतना में विचारित या ज्ञात होती हैं। पशु प्राणी भी इसी प्रकार दिव्य चेतना में विचारित रूप हैं।

चेतना का संघनन होकर मन बनना: यह चेतना जब विशिष्ट रूपों और अनुभवों पर केंद्रित होती है, तो वह संघनित होकर मन (मनस) का रूप ले लेती है। मन ही व्यक्तिगत पहचान और संसार के अनुभवों का आधार बनता है।

इच्छाशक्ति से अवास्तविक दृश्य बनाना: मन अपनी इच्छाशक्ति (संकल्प शक्ति) के माध्यम से इन विचारित रूपों को एक अवास्तविक दृश्य या संसार के रूप में प्रक्षेपित करता है। यह दृश्य वास्तविक नहीं होता, बल्कि चेतना का ही एक आभास होता है। पशु प्राणी भी इस अवास्तविक दृश्य का हिस्सा हैं।

मूल अवस्था में चेतना शून्य लगना: अपनी मूल अवस्था में, जब चेतना किसी विशिष्ट रूप या विचार पर केंद्रित नहीं होती, तो वह शून्य (निर्गुण) जैसी प्रतीत होती है, हालाँकि उसमें सभी क्षमताएँ निहित होती हैं।

मन के रूप में प्रकट होने पर दृश्यमान आकाश लगना: जब चेतना मन के रूप में प्रकट होती है और विशिष्ट रूपों की कल्पना करती है, तो वह दृश्यमान आकाश (विस्तार और संभावना) की तरह लगती है, जिसमें सभी प्रकार के प्राणी और वस्तुएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

ब्रह्मा ने अपने विचार (चित्त) से चौदह लोकों और उनमें विभिन्न प्रकार के प्राणियों की सृष्टि की। मन स्वयं एक शून्यता है, और विचार उसकी क्रिया का क्षेत्र है। ब्रह्मा के मन में अज्ञानी पशुओं से लेकर प्रबुद्ध ऋषियों तक विभिन्न प्रकार के प्राणी हैं। भारत में रहने वाली मानव जाति ही शिक्षा और सभ्यता प्राप्त करने में सक्षम है, लेकिन वे भी अज्ञानता, शत्रुता और भय से पीड़ित हैं। इसलिए वसिष्ठ सामाजिक और साधु आचरण पर व्याख्यान देंगे और शाश्वत ब्रह्म के बारे में बताएंगे।

ब्रह्म का संकल्प: सृष्टि के आरंभ में, परम ब्रह्म में स्वयं को अभिव्यक्त करने और विविधता लाने का संकल्प उत्पन्न हुआ।

ब्रह्मा का प्रादुर्भाव: इस संकल्प से ब्रह्मा प्रकट हुए, जिन्हें सृष्टि का कर्ता माना जाता है।

चित्त की शक्ति: ब्रह्मा ने अपनी असीम मानसिक शक्ति (चित्त शक्ति) का उपयोग करके चौदह लोकों की कल्पना की। यह कल्पना मात्र कोई साधारण विचार नहीं था, बल्कि एक शक्तिशाली रचनात्मक क्रिया थी।

लोकों की रचना: ब्रह्मा के चित्त से सात उच्च लोक (जैसे सत्यलोक, तपोलोक, जनलोक, महर्लोक, स्वर्लोक, भुवर्लोक, भूलोक - पृथ्वी) और सात निम्न लोक (जैसे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल) अस्तित्व में आए।

प्राणियों की विविधता: प्रत्येक लोक में ब्रह्मा ने अपने चित्त की शक्ति से विभिन्न प्रकार के प्राणियों की सृष्टि की, जिनमें देवता, मनुष्य, दानव, गंधर्व, यक्ष, पशु-पक्षी और अन्य जीव शामिल हैं। इन प्राणियों की प्रकृति, गुण और कर्म उनके लोकों के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं।

मुख्य बातें:

मानसिक सृष्टि: ब्रह्मा की सृष्टि भौतिक पदार्थों से नहीं, बल्कि उनके विचार या चित्त की शक्ति से हुई है। यह दर्शाता है कि सृष्टि का मूल आधार चेतना है।

विविधता का स्रोत: ब्रह्मा के चित्त की असीम क्षमता के कारण ही चौदह लोकों और उनमें अनगिनत प्रकार के प्राणियों की विविधता संभव हो पाई।

ब्रह्मा की भूमिका: ब्रह्मा को सृष्टि का प्राथमिक अभिकर्ता माना जाता है, जो परम ब्रह्म के संकल्प को साकार करते हैं।

राम यह पूछ रहे हैं कि जो आत्मा अनंत, अविभाज्य और स्थिर है, उसमें गति या भाग कैसे हो सकता है। यह विरोधाभास प्रतीत होता है।

वसिष्ठ यह समझा रहे हैं कि जब शास्त्र कहते हैं कि "सब कुछ ब्रह्म से बना है," तो इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्म का कोई हिस्सा अलग होकर संसार बन गया है या ब्रह्म में कोई वास्तविक गति हुई है। ब्रह्म अपनी मूल प्रकृति में अपरिवर्तित और अविभाज्य रहता है। यह कथन केवल एक प्रतीकात्मक तरीका है यह बताने का कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है और सब कुछ उसी की सत्ता पर आश्रित है, ठीक वैसे जैसे स्वप्न स्वप्नद्रष्टा की चेतना पर आश्रित होता है, जबकि स्वप्नद्रष्टा स्वयं स्वप्न से अप्रभावित रहता है। अगम्य ब्रह्म को समझने के लिए हमें प्रतीकात्मक भाषा और गहरे चिंतन का सहारा लेना होता है, न कि शाब्दिक व्याख्याओं का।

वसिष्ठ का उत्तर इस विरोधाभास को स्पष्ट करता है:

"यह सब उससे बना है" एक सामान्य अभिव्यक्ति: वसिष्ठ कहते हैं कि शास्त्रों और सामान्य भाषा में यह कहना आम बात है कि "यह सब ब्रह्म से बना है।" यह एक सरलीकरण है जिसका उपयोग सृष्टि के स्रोत को इंगित करने के लिए किया जाता है।

वास्तविक अर्थ में ऐसा नहीं है: वसिष्ठ स्पष्ट करते हैं कि वास्तविक, परमार्थिक सत्य के स्तर पर यह कथन शाब्दिक रूप से सत्य नहीं है। अपरिवर्तनीय ब्रह्म में किसी भी प्रकार का वास्तविक परिवर्तन, विभाजन या भाग नहीं हो सकता। यदि ब्रह्म का कोई भाग होता या उसमें गति होती, तो वह अनंत और अपरिवर्तनीय नहीं रहता।

अगम्य का प्रतिनिधित्व प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों से: ब्रह्म अगम्य  है, अर्थात् बुद्धि और भाषा की सीमाओं से परे है। इसलिए, शास्त्रों में जो भी वर्णन मिलता है, वह केवल प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों  के माध्यम से है। ये प्रतीक हमें ब्रह्म की प्रकृति की ओर इंगित करते हैं, लेकिन वे ब्रह्म का पूर्ण और शाब्दिक वर्णन नहीं कर सकते।

वसिष्ठ "अग्नि से अग्नि उत्पन्न होती है" (तज्ज) और "ब्रह्मा उत्पादक और उत्पादित है" (तन्मय) जैसी प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों की व्याख्या करते हैं। "यह एक चीज है और वह दूसरी" कहना झूठा है, क्योंकि ईश्वर की प्रकृति में कोई वास्तविक अंतर नहीं है। मन ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण उसकी चेतना की शक्ति और बुद्धि रखता है। एक लौ दूसरी को उत्पन्न करती है, यह मात्र शब्दों का विवाद है। अनंत ब्रह्मा स्वयं को पुन: उत्पन्न करने के अलावा कुछ और उत्पन्न नहीं कर सकता।

"अग्नि से अग्नि उत्पन्न होती है" (तज्ज): वसिष्ठ कहते हैं कि यह अभिव्यक्ति केवल एक ऊपरी कथन है। वास्तव में, एक लौ दूसरी लौ को प्रकट करती है, लेकिन पहली लौ का कोई भाग दूसरी लौ में स्थानांतरित नहीं होता और न ही पहली लौ वास्तव में उत्पन्न होती है। दोनों लौएँ अग्नि तत्व की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी प्रकार, व्यक्तिगत आत्माएँ ब्रह्म से प्रकट होती हैं, लेकिन ब्रह्म का कोई भाग उनमें विभाजित नहीं होता।

"ब्रह्मा उत्पादक और उत्पादित है" (तन्मय): यह अभिव्यक्ति भी प्रतीकात्मक है। ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता कहा जाता है, लेकिन वे स्वयं भी ब्रह्म से अभिन्न हैं। इसलिए, उत्पादक और उत्पादित के बीच कोई वास्तविक भेद नहीं है। यह एक ही सत्ता की दो अलग-अलग भूमिकाएँ हैं, जैसे एक ही अभिनेता अलग-अलग पात्र निभाता है।

"यह एक चीज है और वह दूसरी" कहना झूठा है: वसिष्ठ दृढ़ता से कहते हैं कि "यह एक चीज है और वह दूसरी" कहना एक झूठा दृष्टिकोण है। ईश्वर की परम प्रकृति में कोई वास्तविक अंतर, भेद या द्वैत नहीं है। जो कुछ भी प्रतीत होता है, वह उसी एक अनंत चेतना की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।

मन ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण उसकी चेतना की शक्ति और बुद्धि रखता है: मन, जो व्यक्तिगत अनुभवों का आधार है, ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है। इसलिए, इसमें ब्रह्म की चेतना की शक्ति और बुद्धि की क्षमता निहित है, हालाँकि अज्ञानता के कारण यह सीमित प्रतीत होती है।

एक लौ दूसरी को उत्पन्न करती है, यह मात्र शब्दों का विवाद है: वसिष्ठ फिर से लौ के उदाहरण पर आते हैं। एक लौ दूसरी को उत्पन्न करती हुई दिखती है, लेकिन यह केवल शब्दों का विवाद है। वास्तव में, यह एक ही अग्नि तत्व की दो अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं।

अनंत ब्रह्मा स्वयं को पुन: उत्पन्न करने के अलावा कुछ और उत्पन्न नहीं कर सकता: यह वसिष्ठ के कथन का सार है। अनंत और अविभाज्य ब्रह्म अपने से भिन्न कुछ भी वास्तविक रूप से उत्पन्न नहीं कर सकता। जो कुछ भी प्रकट होता है, वह ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति या आभास है, जैसे एक ही समुद्र में उठने वाली विभिन्न लहरें।

विद्वान ब्रह्म को अंतहीन लहरों वाले समुद्र के रूप में जानते हैं, और सार्थक शब्द और उनके अर्थ ब्रह्म और उसकी सृष्टि की तरह जुड़े हुए हैं। ब्रह्म चेतना, मन, बुद्धि और पदार्थ है, और वह इन सब से परे है। वास्तव में संसार कुछ भी नहीं है, सब कुछ ब्रह्म ही है। "यह एक चीज है और वह दूसरी है" अज्ञान के विरोधाभासी कथन हैं। कोई भी शब्द अज्ञात के सच्चे स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकता।

विद्वान ब्रह्म को अंतहीन लहरों वाले समुद्र के रूप में जानते हैं: यह एक उत्कृष्ट उपमा है। जिस प्रकार समुद्र एक है, लेकिन उसमें अनगिनत लहरें उठती और गिरती रहती हैं, उसी प्रकार ब्रह्म एक है, लेकिन उसमें अनगिनत ब्रह्मांड और जीव प्रकट होते और विलीन होते रहते हैं। लहरें समुद्र से अलग नहीं हैं, वे समुद्र का ही रूप हैं। इसी प्रकार, सृष्टि और सभी जीव ब्रह्म से अलग नहीं हैं, वे ब्रह्म की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

सार्थक शब्द और उनके अर्थ ब्रह्म और उसकी सृष्टि की तरह जुड़े हुए हैं: यह कथन भाषा और वास्तविकता के बीच के अटूट संबंध को दर्शाता है। जिस प्रकार किसी शब्द का कोई अर्थ ब्रह्म से अलग अस्तित्व नहीं रखता, उसी प्रकार सृष्टि का भी ब्रह्म से अलग कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। शब्द और अर्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जैसे ब्रह्म और उसकी अभिव्यक्ति।

ब्रह्म चेतना, मन, बुद्धि और पदार्थ है, और वह इन सब से परे है: यह ब्रह्म की सर्वव्यापकता और उसकी अतीन्द्रीय प्रकृति को दर्शाता है। ब्रह्म ही सभी अनुभवों का आधारभूत चेतना है, वही मन और बुद्धि के रूप में प्रकट होता है, और वही जड़ पदार्थ का भी मूल कारण है। लेकिन साथ ही, ब्रह्म इन सभी सीमित परिभाषाओं से परे, अनंत और असीम है।

वास्तव में संसार कुछ भी नहीं है, सब कुछ ब्रह्म ही है: यह अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत है। परम सत्य केवल ब्रह्म है। संसार, जैसा कि हम इसे अनुभव करते हैं, एक प्रकार का आभास या भ्रम है, जो ब्रह्म पर अध्यारोपित है। जब अज्ञान दूर होता है, तो यह ज्ञात होता है कि वास्तव में केवल ब्रह्म ही विद्यमान है।

"यह एक चीज है और वह दूसरी है" अज्ञान के विरोधाभासी कथन हैं: द्वैत की भावना ("यह" ब्रह्म से अलग है, "वह" ब्रह्म से अलग है) अज्ञानता का परिणाम है। जब तक व्यक्ति ब्रह्म की एकता को नहीं समझता, तब तक उसे संसार में भेद और विविधता दिखाई देती है, जो वास्तव में विरोधाभासी और अपूर्ण ज्ञान है।

कोई भी शब्द अज्ञात के सच्चे स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकता: ब्रह्म इतना असीम और अगम्य है कि कोई भी सीमित शब्द पूरी तरह से उसके सच्चे स्वरूप को व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। शब्द केवल ब्रह्म की ओर संकेत कर सकते हैं, लेकिन वे ब्रह्म को बांध नहीं सकते।

संक्षेप में, यह कथन ब्रह्म की एकता, सर्वव्यापकता और अतीन्द्रीय प्रकृति पर जोर देता है। संसार को ब्रह्म का ही एक आभास बताया गया है, और द्वैत की भावना को अज्ञानता का परिणाम माना गया है। अंततः, परम सत्य यह है कि सब कुछ ब्रह्म ही है, और कोई भी शब्द उस अज्ञात और असीम सत्य को पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर सकता।

आत्मा अग्नि की लौ की तरह उठती है, और यह लौ मन का प्रतीक है। मन की अस्थिरता वास्तविक नहीं है, क्योंकि दिव्य मन में कोई उदय या पतन नहीं है। असत्य ही डगमगाता है। ब्रह्म स्वयं सब कुछ है, सर्वव्यापी और अनंत है, इसलिए उसके अलावा कुछ और नहीं हो सकता, और उससे उत्पन्न कुछ भी स्वयं वही है। ब्रह्म के अस्तित्व के सत्य के अलावा कुछ भी निश्चित रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता। शास्त्र कहते हैं, "वास्तव में, यह सब ब्रह्म है।" यही निष्कर्ष तर्क से प्राप्त होगा, जिसे वसिष्ठ निर्वाण की पुस्तक में कई उदाहरणों और शिक्षाओं के साथ प्रस्तावित करेंगे। अवास्तविकता के लुप्त होने पर वास्तविकता दिखाई देती है, जैसे अंधेरा दूर होने पर संसार दिखाई देता है। शांत स्थिरता की अवस्था प्राप्त होने पर झूठा संसार लुप्त हो जाएगा।

अध्याय 41 - अज्ञान का वर्णन


वसिष्ठ अज्ञान और अवास्तविकता के रोग के मारक का वर्णन करते हैं। वे सत्व और रजस गुणों पर विस्तार से बताते हैं ताकि मन की शक्तियों की जांच की जा सके। सर्वव्यापी ब्रह्म, जो बौद्धिक प्रकाश है, अंतराल पर उत्तेजित और संघनित होकर बुद्धि बनता है। यह बुद्धि, ब्रह्मा का शरीर होने के कारण, स्वयं में कंपन करती है।

अज्ञान और अवास्तविकता के रोग का मारक: वसिष्ठ ज्ञान और विवेक को अज्ञान और अवास्तविकता के रोग की औषधि बताते हैं। जिस प्रकार औषधि रोग को दूर करती है, उसी प्रकार सच्चा ज्ञान अज्ञानता के भ्रम को नष्ट करता है और वास्तविकता का बोध कराता है।

सत्व और रजस गुणों पर विस्तार से: मन की शक्तियों की जांच करने और उसकी कार्यप्रणाली को समझने के लिए वसिष्ठ सत्व (शुद्धता, प्रकाश) और रजस (गति, क्रियाशीलता) गुणों पर विस्तार से बताते हैं। ये गुण मन की प्रकृति और उसकी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। सत्व ज्ञान और स्पष्टता की ओर ले जाता है, जबकि रजस संसार में आसक्ति और क्रियाशीलता उत्पन्न करता है।

सर्वव्यापी ब्रह्म, जो बौद्धिक प्रकाश है: मूल तत्व सर्वव्यापी ब्रह्म है, जो शुद्ध बौद्धिक प्रकाश (चेतना) स्वरूप है। यह सभी ज्ञान और बुद्धि का स्रोत है।

अंतराल पर उत्तेजित और संघनित होकर बुद्धि बनता है: यह बौद्धिक प्रकाश जब विशिष्ट विचारों या संकल्पों पर केंद्रित होता है, तो वह अंतराल पर (कुछ सीमा तक) उत्तेजित और संघनित होकर बुद्धि (बुद्धि तत्व) का रूप लेता है। यह बुद्धि ब्रह्म की ही एक शक्ति है जो विशिष्ट ज्ञान और निर्णय लेने में सक्षम होती है।

यह बुद्धि, ब्रह्मा का शरीर होने के कारण, स्वयं में कंपन करती है: यह बुद्धि ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर मानी जाती है, जो सृष्टि के संकल्प और ज्ञान का आधार है। चूँकि यह सक्रिय है और सृष्टि की प्रक्रिया में संलग्न है, इसलिए इसमें एक प्रकार का कंपन या स्पंदन होता है, जो विचारों और संकल्पों के रूप में प्रकट होता है।

संक्षेप में, वसिष्ठ अज्ञान और अवास्तविकता के भ्रम को दूर करने के लिए ज्ञान के महत्व पर जोर देते हैं। वे मन की शक्तियों को समझने के लिए सत्व और रजस गुणों का विश्लेषण करते हैं। वे बताते हैं कि सर्वव्यापी ब्रह्म, जो शुद्ध चेतना है, विशिष्ट संकल्पों पर केंद्रित होकर बुद्धि के रूप में प्रकट होता है। यह बुद्धि, जो ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर है, स्वयं में कंपन करती है और विचारों को जन्म देती है, जिससे सृष्टि की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। इस प्रकार, मन की शक्तियों को समझकर और सत्व गुण को बढ़ाकर अज्ञानता को दूर किया जा सकता है और वास्तविकता का अनुभव किया जा सकता है।

जैसे समुद्र का जल स्वयं में आंदोलित होता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान शक्ति स्वयं में अनंत काल तक कार्य करती है। दिव्य आत्मा की शक्ति सहज रूप से आत्मा के अपने क्षेत्र में कार्य करती है। चेतना की बौद्धिक छवियां चेतना की शक्ति से आगे बढ़ती हैं और समुद्र में लहरों की तरह लुढ़कती हैं। ये छवियां, यद्यपि दिव्य आत्मा की चेतना से अविभाज्य हैं, फिर भी अलग प्रतीत होती हैं।

जैसे समुद्र का जल स्वयं में आंदोलित होता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान शक्ति स्वयं में अनंत काल तक कार्य करती है: यह एक बहुत ही सटीक और महत्वपूर्ण उपमा है। जिस प्रकार समुद्र का जल बाहर से किसी अन्य शक्ति द्वारा प्रेरित किए बिना स्वयं में लहरों, भँवरों आदि के रूप में आंदोलित होता रहता है, उसी प्रकार सर्वशक्तिमान ब्रह्म (दिव्य आत्मा) भी किसी बाहरी कारण के बिना स्वयं में अपनी शक्ति से अनंत काल तक सृष्टि, स्थिति और लय के रूप में कार्य करता रहता है। यह क्रिया उसकी सहज प्रकृति है।

दिव्य आत्मा की शक्ति सहज रूप से आत्मा के अपने क्षेत्र में कार्य करती है: ब्रह्म की शक्ति कहीं बाहर से नहीं आती, बल्कि वह आत्मा के अपने ही क्षेत्र में, आत्मा की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करती है। यह क्रिया उसकी आंतरिक और अविभाज्य शक्ति है।

चेतना की बौद्धिक छवियां चेतना की शक्ति से आगे बढ़ती हैं और समुद्र में लहरों की तरह नष्ट होती हैं: जिस प्रकार समुद्र की शक्ति से लहरें उठती हैं और समुद्र की सतह पर गतिशील रहती हैं, उसी प्रकार ब्रह्म की चेतना की शक्ति से बौद्धिक छवियां (विचार, संकल्प, सृष्टि के रूप) उत्पन्न होते हैं और चेतना के क्षेत्र में गतिशील रहते हैं। यह प्रक्रिया स्वाभाविक और निरंतर है।

ये छवियां, यद्यपि दिव्य आत्मा की चेतना से अविभाज्य हैं, फिर भी अलग प्रतीत होती हैं: यह अद्वैत और द्वैत के आभासी अनुभव के बीच का महत्वपूर्ण बिंदु है। ये बौद्धिक छवियां (सृष्टि, जीव) मूल रूप से दिव्य आत्मा की चेतना से अलग नहीं हैं, ठीक वैसे जैसे लहरें समुद्र से अलग नहीं होतीं। उनका सार वही है। फिर भी, अज्ञानता के कारण ये छवियां अलग-अलग और स्वतंत्र सत्ता के रूप में प्रतीत होती हैं।

संक्षेप में, यह कथन ब्रह्म की सहज और आंतरिक रचनात्मक शक्ति पर जोर देता है। जिस प्रकार समुद्र स्वयं में आंदोलित होता है और लहरें उत्पन्न करता है, उसी प्रकार ब्रह्म स्वयं में अपनी शक्ति से सृष्टि की प्रक्रिया को अनंत काल तक जारी रखता है। चेतना की बौद्धिक छवियां ब्रह्म से ही उत्पन्न होती हैं और उससे अविभाज्य हैं, लेकिन अज्ञानता के कारण वे अलग-अलग प्रतीत होती हैं। यह उपमा अद्वैत के सिद्धांत को स्पष्ट करती है, जिसमें सृष्टि को ब्रह्म से भिन्न कोई वास्तविक सत्ता नहीं माना जाता, बल्कि उसे ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है, जो अज्ञानता के कारण विविधतापूर्ण और पृथक प्रतीत होती है।

सर्वोच्च आत्मा, अपनी अनंतता और अविभाज्यता के प्रति सचेत होते हुए भी, निर्मित प्राणियों के प्रत्येक सीमित रूप में अपनी व्यक्तित्व की स्थिति मान लेता है। जब परम सत्ता ये विभिन्न रूप धारण करती है, तो गुण और विशेषताएं तुरंत जुड़ जाते हैं। असार चेतना, स्वयं को परम आत्मा से अलग मानकर पदार्थ मान लेती है और समुद्र के जल की लहरों की तरह अनंतता में विभाजित हो जाती है। चेतना और आत्मा एक ही हैं, विचार उनके विभिन्न तरीकों में अंतर पैदा करता है।

सर्वोच्च आत्मा, अपनी अनंतता और अविभाज्यता के प्रति सचेत होते हुए भी, निर्मित प्राणियों के प्रत्येक सीमित रूप में अपनी व्यक्तित्व की स्थिति मान लेता है: परम आत्मा, जो अनंत और अविभाज्य है, स्वयं ही अपनी इच्छाशक्ति से प्रत्येक सीमित प्राणी के रूप में अपनी पहचान स्थापित करता है। यह एक प्रकार का स्वैच्छिक आरोपण है, जहाँ अनंत स्वयं को सीमित रूपों में अनुभव करता है।

जब परम सत्ता ये विभिन्न रूप धारण करती है, तो गुण और विशेषताएं तुरंत जुड़ जाते हैं: जैसे ही परम सत्ता विभिन्न प्राणियों के रूप में प्रकट होती है, उस विशेष रूप से संबंधित गुण और विशेषताएं स्वतः ही जुड़ जाती हैं। उदाहरण के लिए, मनुष्य के रूप में प्रकट होने पर मनुष्योचित गुण और सीमाएँ अनुभव होती हैं।

असार चेतना, स्वयं को परम आत्मा से अलग मानकर पदार्थ मान लेती है और समुद्र के जल की लहरों की तरह अनंतता में विभाजित हो जाती है: जब शुद्ध चेतना (जो वास्तव में परम आत्मा से अभिन्न है) अज्ञानता के कारण स्वयं को परम आत्मा से अलग मान लेती है, तो वह अपने आप को सीमित और भौतिक (पदार्थ) के रूप में अनुभव करने लगती है। यह अलगाव की भावना अनंत चेतना को व्यक्तिगत अनुभवों की एक अंतहीन श्रृंखला में विभाजित कर देती है, जैसे समुद्र का जल लहरों के रूप में अनगिनत बार उठता और गिरता है।

चेतना और आत्मा एक ही हैं, विचार उनके विभिन्न तरीकों में अंतर पैदा करता है: मूल रूप से चेतना और आत्मा दो भिन्न चीजें नहीं हैं, बल्कि एक ही परम सत्य के दो पहलू हैं। विचार (संकल्प, कल्पना) ही उनके अनुभव के विभिन्न तरीकों में अंतर पैदा करता है। जब चेतना स्वयं को सीमित विचारों से बांध लेती है, तो वह व्यक्तिगत आत्मा के रूप में अनुभव करती है, जबकि विचारों से मुक्त होने पर वह अपनी अनंत और अविभाज्य प्रकृति को पहचानती है।

संक्षेप में, यह कथन यह समझाता है कि परम आत्मा अपनी अनंतता को जानते हुए भी, लीला के लिए या अपनी शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए, स्वयं को विभिन्न सीमित प्राणियों के रूप में अनुभव करता है। इस प्रक्रिया में, प्रत्येक रूप विशिष्ट गुणों और विशेषताओं को धारण करता है। अज्ञानता के कारण, शुद्ध चेतना स्वयं को परम आत्मा से अलग मानकर भौतिक जगत और व्यक्तिगत अनुभवों में उलझ जाती है, जैसे समुद्र की लहरें अपने आप को समुद्र से अलग मान लेती हैं। वास्तव में, चेतना और आत्मा एक ही हैं, और विचारों का भेद ही अनुभवों की विविधता का कारण बनता है। इस ज्ञान से यह समझा जा सकता है कि व्यक्तिगत अनुभवों की विविधता के बावजूद, सभी का मूल स्रोत एक ही अनंत और अविभाज्य परम आत्मा है।

चेतना, आत्मा की शक्ति द्वारा कार्यन्वित होने पर, अपनी इच्छाओं का पीछा करती है। यही चेतना, विभिन्न समयों और स्थानों पर इच्छा और क्रिया के रूप धारण करके, देहात्मन या क्षेत्रज्ञ कहलाती है। इच्छाओं से भरा होने पर इसे अहंकार कहा जाता है, और कल्पनाओं से दूषित होने पर समझ का नाम लेता है। इच्छाओं की ओर झुकी हुई समझ मन कहलाती है, जो क्रिया के लिए संघनित होने पर इंद्रियों का नाम लेती है। इंद्रियों को इंद्रिय अंगों से सुसज्जित किया जाता है, जो कर्म इंद्रियों से जुड़कर शरीर कहलाते हैं।

चेतना, आत्मा की शक्ति द्वारा कार्यन्वित होने पर, अपनी इच्छाओं का पीछा करती है: मूल रूप से चेतना निष्क्रिय और साक्षी स्वरूप है। जब यह आत्मा की शक्ति (जो इसकी स्वाभाविक ऊर्जा है) द्वारा प्रेरित होती है, तो यह सक्रिय होती है और अपनी इच्छाओं (वासनाओं, अभिलाषाओं) का अनुसरण करती है।


यही चेतना, विभिन्न समयों और स्थानों पर इच्छा और क्रिया के रूप धारण करके, देहात्मन या क्षेत्रज्ञ कहलाती है: जब चेतना विशिष्ट समयों और स्थानों से जुड़कर इच्छाएँ करती है और उन इच्छाओं को पूरा करने के लिए क्रियाएँ करती है, तो इसे देहात्मन (शरीर में स्थित आत्मा का अभिमान) या क्षेत्रज्ञ (शरीर रूपी क्षेत्र का ज्ञाता) कहा जाता है। यह व्यक्तिगत पहचान और कर्ता भाव को दर्शाता है।

इच्छाओं से भरा होने पर इसे अहंकार कहा जाता है: जब चेतना पूरी तरह से इच्छाओं और आसक्तियों से भर जाती है, और "मैं" और "मेरा" की भावना प्रबल हो जाती है, तो इसे अहंकार (अहंभाव) कहा जाता है। अहंकार स्वयं को शरीर और मन से तादात्म्य करता है और अलगाव की भावना पैदा करता है।

कल्पनाओं से दूषित होने पर समझ का नाम लेता है: जब चेतना विभिन्न प्रकार की कल्पनाओं, विचारों और धारणाओं से प्रभावित होती है, तो इसे समझ (बुद्धि, विवेक) कहा जाता है। यह वह स्तर है जहाँ ज्ञान, निर्णय और भेद करने की क्षमता विकसित होती है, लेकिन यदि यह कल्पनाओं से दूषित हो जाए तो भ्रम और अज्ञानता उत्पन्न हो सकती है।

इच्छाओं की ओर झुकी हुई समझ मन कहलाती है: जब समझ (बुद्धि) मुख्य रूप से इच्छाओं को पूरा करने की ओर प्रवृत्त होती है और सांसारिक विषयों में रम जाती है, तो इसे मन (मनस) कहा जाता है। मन विचारों, भावनाओं और इच्छाओं का केंद्र है और यह चंचल स्वभाव का होता है।

जो क्रिया के लिए संघनित होने पर इंद्रियों का नाम लेती है: जब मन बाहरी जगत के साथ संपर्क स्थापित करने और क्रिया करने के लिए और अधिक संघनित (विशिष्ट) होता है, तो यह इंद्रियों (ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ) का रूप लेता है। इंद्रियाँ बाहरी प्रेरणा को ग्रहण करती हैं और प्रतिक्रिया करने में सहायता करती हैं।

इंद्रियों को इंद्रिय अंगों से सुसज्जित किया जाता है, जो कर्म इंद्रियों से जुड़कर शरीर कहलाते हैं: इंद्रियाँ भौतिक इंद्रिय अंगों (जैसे आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा) के माध्यम से कार्य करती हैं। कर्मेंद्रियाँ (जैसे हाथ, पैर, वाणी) क्रिया करने के लिए इन इंद्रिय अंगों से जुड़ती हैं, और इन सभी के संयोजन से भौतिक शरीर का निर्माण होता है।

संक्षेप में, यह कथन चेतना के एक क्रमिक विकास को दर्शाता है, जो आत्मा की शक्ति से प्रेरित होकर इच्छाओं का पीछा करती है और धीरे-धीरे देहात्मन, अहंकार, समझ, मन, इंद्रियों और अंततः भौतिक शरीर का रूप धारण करती है। यह प्रक्रिया आत्मा के स्वयं को सीमित अनुभवों में अभिव्यक्त करने का एक तरीका है, लेकिन अज्ञानता के कारण यह बंधन और दुख का कारण भी बन सकती है। इस क्रम को समझकर व्यक्ति अपनी चेतना को वापस अपने मूल स्वरूप, आत्मा की ओर ले जाने का प्रयास कर सकता है।

जीव आत्मा अपने विचारों और इच्छाओं से बंधकर दुख के जाल में फँसकर हृदय (चित्त) कहलाती है। चेतना का क्रमिक विकास क्रमिक परिणाम उत्पन्न करता है। ये जीव आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ हैं, जो अहंकार से जुड़कर स्वार्थी इच्छाओं के जाल में उलझ जाती हैं और मन बन जाती हैं। कामुक मन सांसारिक संपत्तियों को सुरक्षित करने के लिए उत्सुक होता है। मन की प्रवृत्तियाँ अपनी वांछित वस्तुओं का पीछा करती हैं और उनसे दूषित हो जाती हैं। स्वार्थ से दूषित मन अपनी इच्छाशक्ति की स्वतंत्रता खो देता है और अपनी इच्छाओं से बंध जाता है।

जीव आत्मा अपने विचारों और इच्छाओं से बंधकर दुख के जाल में फँसकर हृदय (चित्त) कहलाती है: जब व्यक्तिगत आत्मा (जीव आत्मा) अपने ही विचारों और इच्छाओं में आसक्त हो जाती है और उनसे बंध जाती है, तो वह दुख के जाल में फँस जाती है और इस अवस्था में इसे हृदय या चित्त कहा जाता है। चित्त विचारों, भावनाओं और स्मृतियों का भंडार है, और जब यह अनियंत्रित इच्छाओं से भरा होता है, तो दुख उत्पन्न होता है।

चेतना का क्रमिक विकास क्रमिक परिणाम उत्पन्न करता है: चेतना का आत्मा से लेकर शरीर तक का जो क्रमिक विकास होता है, वह अपने साथ क्रमिक परिणाम भी लाता है। प्रत्येक स्तर पर चेतना की प्रकृति बदलती है और उसके अनुभव भी भिन्न होते हैं। इच्छाओं और आसक्तियों की ओर बढ़ने से बंधन और दुख बढ़ते जाते हैं।

ये जीव आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ हैं, जो अहंकार से जुड़कर स्वार्थी इच्छाओं के जाल में उलझ जाती हैं और मन बन जाती हैं: जीव आत्मा की ये विभिन्न अवस्थाएँ (देहात्मन, क्षेत्रज्ञ, अहंकार, समझ, मन) वास्तव में चेतना के ही अलग-अलग रूप हैं। जब चेतना अहंकार (स्व-अभिमान) से जुड़ जाती है, तो वह स्वार्थी इच्छाओं के जाल में और अधिक उलझ जाती है और मन का रूप ले लेती है, जो सांसारिक विषयों में आसक्त होता है।

कामुक मन सांसारिक संपत्तियों को सुरक्षित करने के लिए उत्सुक होता है: जब मन कामुक इच्छाओं से भर जाता है, तो वह सांसारिक संपत्तियों, भोगों और सुखों को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के लिए अत्यधिक उत्सुक और व्याकुल रहता है। यह लालसा कभी तृप्त नहीं होती और दुख का कारण बनती है।

मन की प्रवृत्तियाँ अपनी वांछित वस्तुओं का पीछा करती हैं और उनसे दूषित हो जाती हैं: मन की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ उन वस्तुओं और अनुभवों की ओर दौड़ती हैं जिन्हें वह वांछित मानता है। इस निरंतर पीछा करने और आसक्ति के कारण मन दूषित हो जाता है, अपनी शुद्धता और संतुलन खो देता है।

स्वार्थ से दूषित मन अपनी इच्छाशक्ति की स्वतंत्रता खो देता है और अपनी इच्छाओं से बंध जाता है: जब मन स्वार्थ और आसक्ति से दूषित हो जाता है, तो वह अपनी इच्छाशक्ति की स्वतंत्रता खो देता है। वह अपनी ही अनियंत्रित इच्छाओं का गुलाम बन जाता है और उनके अनुसार कार्य करने के लिए विवश होता है, जिससे और अधिक बंधन और दुख उत्पन्न होते हैं।

संक्षेप में, यह कथन जीव आत्मा के बंधन की प्रक्रिया को विस्तार से बताता है। विचारों और इच्छाओं में आसक्ति से दुख उत्पन्न होता है, और चेतना का क्रमिक विकास अहंकार से जुड़कर स्वार्थी इच्छाओं की ओर ले जाता है, जिससे मन सांसारिक भोगों को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के लिए व्याकुल रहता है। मन की प्रवृत्तियाँ वांछित वस्तुओं का पीछा करती हैं और उनसे दूषित हो जाती हैं, जिससे स्वार्थ से दूषित मन अपनी स्वतंत्रता खो देता है और अपनी ही इच्छाओं से बंध जाता है। यह बंधन दुख के चक्र को बनाए रखता है और मुक्ति के मार्ग में बाधा डालता है।

मन अपनी इच्छाओं के पीछा करके शरीर को कैद में डाल देता है और अपने बंधन की कड़वाहट महसूस करता है। स्वयं को गुलाम जानकर, यह अज्ञान पैदा करता है जो संसार के जंगल में स्वतंत्र रूप से घूमता है। मन अपनी इच्छाओं की लौ में जलकर मर जाता है और विभिन्न इच्छाओं के अधीन होकर अपने कार्यों की संस्था स्वयं पर मान लेता है, जिससे इस जीवन और भविष्य के जन्मों में इसकी स्थिति बदलती रहती है। यह ज्ञान, बुद्धि, गतिविधि और अहंकार की आठ गुना अवस्थाओं के तहत लगातार श्रम करता है, जो सभी दुखों के कारण हैं।

मन अपनी इच्छाओं के पीछा करके शरीर को कैद में डाल देता है और अपने बंधन की कड़वाहट महसूस करता है: मन अपनी प्रबल इच्छाओं का लगातार पीछा करता रहता है, जिसके परिणामस्वरूप जीव भौतिक शरीर में बंध जाता है। यह बंधन मन के लिए एक प्रकार की कैद है, और उसे इस बंधन की कड़वाहट का अनुभव होता है, क्योंकि शरीर सीमित है और अनेक दुखों का घर है।

स्वयं को गुलाम जानकर, यह अज्ञान पैदा करता है जो संसार के जंगल में स्वतंत्र रूप से घूमता है: जब मन स्वयं को अपनी इच्छाओं का दास अनुभूत करता है, तो यह अज्ञान को जन्म देता है। यह अज्ञान संसार के जंगल में स्वतंत्र रूप से घूमता है, जिसका अर्थ है कि यह विभिन्न प्रकार के भ्रमों, गलत धारणाओं और दुखों को उत्पन्न करता रहता है, जो जीव को संसार के चक्र में फँसाए रखते हैं।

मन अपनी इच्छाओं की लौ में जलकर मर जाता है और विभिन्न इच्छाओं के अधीन होकर अपने कार्यों की संस्था स्वयं पर मान लेता है, जिससे इस जीवन और भविष्य के जन्मों में इसकी स्थिति बदलती रहती है: मन अपनी अनियंत्रित इच्छाओं की अग्नि में लगातार जलता रहता है, जिससे उसकी शांति और स्थिरता नष्ट हो जाती है। विभिन्न इच्छाओं के अधीन होकर, यह अपने द्वारा किए गए कार्यों का स्वामित्व स्वयं पर मान लेता है ("मैंने यह किया")। इस कर्ता भाव के कारण ही इस जीवन और भविष्य के जन्मों में इसकी स्थिति (सुख-दुख, उच्च-नीच योनियाँ) बदलती रहती है।

यह ज्ञान, बुद्धि, गतिविधि और अहंकार की आठ गुना अवस्थाओं के तहत लगातार श्रम करता है, जो सभी दुखों के कारण हैं: मन ज्ञान (अपूर्ण ज्ञान), बुद्धि (भ्रमित बुद्धि), गतिविधि (निरंतर कर्म), और अहंकार (स्व-अभिमान) की आठ गुना अवस्थाओं के तहत लगातार परिश्रम करता रहता है। ये सभी अवस्थाएँ दुखों के मूल कारण हैं, क्योंकि वे जीव को वास्तविकता से दूर रखते हैं और बंधन में फँसाए रखते हैं।

संक्षेप में, यह कथन मन की बंधनकारी शक्ति और उसके दुखदायी परिणामों को उजागर करता है। मन अपनी इच्छाओं का पीछा करके शरीर में कैद होता है और बंधन की पीड़ा अनुभव करता है। यह अज्ञान को जन्म देता है जो संसार में भ्रम फैलाता है। इच्छाओं की अग्नि में जलता हुआ मन कर्ता भाव को अपनाता है, जिससे जन्म-मरण के चक्र में इसकी स्थिति बदलती रहती है। ज्ञान, बुद्धि, गतिविधि और अहंकार की आठ अवस्थाओं के तहत मन का निरंतर श्रम सभी प्रकार के दुखों का कारण बनता है। इस प्रकार, मन की इस बंधनकारी प्रकृति को समझना मुक्ति के मार्ग पर एक महत्वपूर्ण कदम है।

हृदय-मन दुख की जंजीर से पृथ्वी से बंधा है, लालच और शोक से भरा है, और वासनाओं का निवास है। यह उम्र की चिंताओं और मृत्यु के भय से ग्रस्त है, इच्छाओं और घृणा से व्याकुल है, और अज्ञान और वासनाओं से कलंकित है। यह अपनी इच्छाओं के कांटों और कर्मों की झाड़ियों से भरा हुआ है, अपने मूल को भूल गया है, और अपने ही बनाए हुए बुराइयों से घिरा हुआ है। यह रेशम के कीड़े की तरह अपने ही कोकून में सीमित है और अंतहीन नरकाग्नि का स्थान है। यह आत्मा जितना सूक्ष्म है, फिर भी विशाल दिखता है। यह संसार जहरीले पेड़ों का जंगल है, और इच्छा का जाल पूरे संसार पर फैला हुआ है जिसके फल स्वादहीन हैं। मन दुख की लौ से जलकर, क्रोध के सर्प द्वारा काटकर, और इच्छाओं के सागर में डूबकर अपने महान पिता (ब्रह्मा) को भूल गया है। यह झुंड से भटक गए हिरण की तरह, या दुखों से बुद्धि खो बैठे व्यक्ति की तरह, या सांसारिक मामलों की लौ से जले हुए पतंगे की तरह है। इसे आत्मा से अलग कर दिया गया है और अनुपयुक्त स्थान पर फेंक दिया गया है, जड़ से उखाड़े गए कमल के पौधे की तरह मुरझा रहा है। खतरों और कठिनाइयों के बीच हर आदमी इस पृथ्वी पर रेंग रहा है। मनुष्य इस अंधकारमय संसार की कठिनाइयों के सामने वैसे ही उजागर होता है जैसे समुद्र में गिरा पक्षी। मन व्यापार की धारा में वैसे ही बह जाता है जैसे समुद्र की लहरों से बहता हुआ मनुष्य। वसिष्ठ राम को अपने मन को इस गड्ढे से उठाने के लिए कहते हैं, जैसे कीचड़ में डूबते हुए हाथी को उठाते हैं, और संसार के इस भ्रामक पोखर से बलपूर्वक ऊपर उठाने के लिए कहते हैं। जिस मनुष्य का मन सुख और दुख के उत्तराधिकार से या वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु से कमजोरी के उतार-चढ़ाव से परेशान है, वह मनुष्य नहीं है, अपितु एक भयानक राक्षस जैसा है।

यह कथन हृदय-मन की दुखमय स्थिति और संसार में उसकी असहायता का अत्यंत काव्यात्मक और हृदयस्पर्शी चित्रण करता है। यह बताता है कि कैसे मन अपनी आसक्तियों और अज्ञान के कारण बंधा हुआ है और दुखों से घिरा हुआ है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

हृदय-मन दुख की जंजीर से पृथ्वी से बंधा है, लालच और शोक से भरा है, और वासनाओं का निवास है: हृदय-मन (चित्त) दुखों की एक अदृश्य जंजीर से इस भौतिक पृथ्वी से जकड़ा हुआ है। यह लालच (लोभ) और शोक (दुःख) से परिपूर्ण है, और यह वासनाओं (कामनाओं) का घर बन गया है।

यह उम्र की चिंताओं और मृत्यु के भय से ग्रस्त है, इच्छाओं और घृणा से व्याकुल है, और अज्ञान और वासनाओं से कलंकित है: मन वृद्धावस्था की चिंताओं (शारीरिक क्षीणता, असहायता) और मृत्यु के भय से हमेशा त्रस्त रहता है। यह अनगिनत इच्छाओं (प्राप्त करने की लालसा) और घृणा (अप्रिय से दूर रहने की भावना) से व्याकुल और अशांत रहता है, और अज्ञान (वास्तविकता का अभाव) और प्रबल वासनाओं से यह दूषित और कलंकित हो गया है।

यह अपनी इच्छाओं के कांटों और कर्मों की झाड़ियों से भरा हुआ है, अपने मूल को भूल गया है, और अपने ही बनाए हुए बुराइयों से घिरा हुआ है: मन अपनी अनियंत्रित इच्छाओं रूपी कांटों से भरा हुआ है जो उसे चुभते रहते हैं, और अपने कर्मों रूपी घनी झाड़ियों में उलझा हुआ है जिससे निकलना मुश्किल है। यह अपने मूल स्वरूप (आत्मा/ब्रह्म) को भूल गया है और अपने ही नकारात्मक विचारों और कर्मों से उत्पन्न बुराइयों से घिरा हुआ है।

यह रेशम के कीड़े की तरह अपने ही कोकून में सीमित है और अंतहीन नरकाग्नि का स्थान है: जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने चारों ओर रेशम लपेटकर अपना ही बंधन (कोकून) बना लेता है, उसी प्रकार मन अपनी इच्छाओं और कर्मों के जाल में स्वयं ही सीमित हो गया है। यह स्थिति अंतहीन मानसिक पीड़ा और अशांति (नरकाग्नि) का कारण बनती है।

यह आत्मा जितना सूक्ष्म है, फिर भी विशाल दिखता है: मन मूल रूप से आत्मा की ही एक सूक्ष्म शक्ति है, फिर भी अपनी जटिलताओं और व्याकुलताओं के कारण यह विशाल और अनियंत्रित प्रतीत होता है।

यह संसार जहरीले पेड़ों का जंगल है, और इच्छा का जाल पूरे संसार पर फैला हुआ है जिसके फल स्वादहीन हैं: यह संसार दुखों रूपी जहरीले पेड़ों का एक घना जंगल है, और इच्छाओं का जाल पूरे संसार पर फैला हुआ है। इस जाल में फँसकर जो फल मिलते हैं (सांसारिक भोग), वे अंततः स्वादहीन और असंतोषजनक होते हैं।

मन दुख की लौ से जलकर, क्रोध के सर्प द्वारा काटकर, और इच्छाओं के सागर में डूबकर अपने महान पिता (ब्रह्मा) को भूल गया है: मन दुखों की अग्नि में लगातार जल रहा है, क्रोध रूपी विषैले सर्प द्वारा बार-बार डसा जा रहा है, और अनियंत्रित इच्छाओं के अथाह सागर में डूबता-उतराता रहता है। इस व्याकुलता के कारण यह अपने मूल स्रोत, अपने महान पिता (ब्रह्मा/परम चेतना) को भूल गया है।

यह झुंड से भटक गए हिरण की तरह, या दुखों से बुद्धि खो बैठे व्यक्ति की तरह, या सांसारिक मामलों की लौ से जले हुए पतंगे की तरह है: मन की तुलना झुंड से भटक गए हिरण से की गई है जो असुरक्षित और भयभीत है, या दुखों से व्याकुल होकर विवेक खो बैठे व्यक्ति से जो सही मार्ग नहीं देख पाता, या सांसारिक भोगों की लौ में जलकर राख हो जाने वाले पतंगे से जो अपने विनाश की ओर अंधाधुंध दौड़ता है।

इसे आत्मा से अलग कर दिया गया है और अनुपयुक्त स्थान पर फेंक दिया गया है, जड़ से उखाड़े गए कमल के पौधे की तरह मुरझा रहा है: मन को आत्मा से अलग महसूस होता है (भले ही वास्तव में यह अभिन्न है) और यह संसार रूपी अनुपयुक्त स्थान पर फेंका हुआ महसूस करता है, जहाँ यह जड़ से उखाड़े गए कमल के पौधे की तरह धीरे-धीरे मुरझा रहा है, अपनी जीवंतता और आनंद खो रहा है।

खतरों और कठिनाइयों के बीच हर आदमी इस पृथ्वी पर रेंग रहा है: संसार खतरों और कठिनाइयों से भरा हुआ है, और प्रत्येक मनुष्य इन परिस्थितियों के बीच असहाय भाव से रेंग रहा है, मानो किसी भारी बोझ के नीचे दबा हुआ हो।

मनुष्य इस अंधकारमय संसार की कठिनाइयों के सामने वैसे ही उजागर होता है जैसे समुद्र में गिरा पक्षी: जिस प्रकार समुद्र में गिरा हुआ पक्षी असहाय और दिशाहीन होता है, उसी प्रकार मनुष्य इस अज्ञान रूपी अंधकारमय संसार की कठिनाइयों के सामने पूरी तरह से उजागर और असुरक्षित है।

मन व्यापार की धारा में वैसे ही बह जाता है जैसे समुद्र की लहरों से बहता हुआ मनुष्य: मन सांसारिक व्यापारों (लाभ-हानि, सुख-दुख) की प्रबल धारा में उसी प्रकार बह जाता है जैसे समुद्र की शक्तिशाली लहरों से कोई असहाय मनुष्य बह जाता है, उसका अपना कोई नियंत्रण नहीं रहता।

वसिष्ठ राम को अपने मन को इस गड्ढे से उठाने के लिए कहते हैं, जैसे कीचड़ में डूबते हुए हाथी को उठाते हैं, और संसार के इस भ्रामक पोखर से बलपूर्वक ऊपर उठाने के लिए कहते हैं: वसिष्ठ राम को प्रेरित करते हैं कि वे अपने मन को इस दुख रूपी गहरे गड्ढे से बाहर निकालें, जिस प्रकार कीचड़ में फँसे भारी हाथी को मुश्किल से बाहर निकाला जाता है। वे उन्हें इस भ्रामक और क्षणभंगुर संसार रूपी पोखर से पूरी शक्ति से ऊपर उठने का आह्वान करते हैं।

जिस मनुष्य का मन सुख और दुख के उत्तराधिकार से या वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु से कमजोरी के उतार-चढ़ाव से परेशान है, वह मनुष्य नहीं है, अपितु एक भयानक राक्षस जैसा है: वसिष्ठ यहाँ एक कठोर चेतावनी देते हैं। जिस मनुष्य का मन सुख और दुख के निरंतर आने-जाने, वृद्धावस्था की कमजोरी, रोगों की पीड़ा और मृत्यु के भय से अत्यधिक परेशान और अस्थिर रहता है, वह वास्तव में अपनी मानवीय क्षमता को खो चुका है और एक भयानक राक्षस की तरह व्यवहार करता है, जो दूसरों और स्वयं को भी पीड़ा देता है।

संक्षेप में, यह पूरा कथन मन की दुखद और बंधनी स्थिति का एक शक्तिशाली और विस्तृत वर्णन है। यह मन की कमजोरियों, आसक्तियों और अज्ञानता को उजागर करता है, और मुक्ति की आवश्यकता पर बल देता है ताकि इस दुखमय अवस्था से ऊपर उठा जा सके। वसिष्ठ राम को प्रेरित करते हैं कि वे अपने मन पर विजय प्राप्त करें और संसार के भ्रम से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानें।

अध्याय 42 - ब्रह्म से साधारण मन तक: व्यक्तिगत आत्माओं का उत्पादन

यह अध्याय बताता है कि किस प्रकार परम ब्रह्म, जो कि एक और अविभाज्य है, से व्यक्तिगत आत्माओं (जीवों) की उत्पत्ति होती है और वे साधारण मन की अवस्था तक कैसे पहुँचते हैं। इस अध्याय के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

1. ब्रह्म की एकता और अपरिवर्तनीयता:

अध्याय की शुरुआत में ब्रह्म की एकता और अपरिवर्तनीय स्वभाव पर जोर दिया जाता है। ब्रह्म शुद्ध चेतना, अनंत और सभी सीमाओं से परे है। उसमें कोई द्वैत या भेद नहीं है।


यह बताया जाता है कि ब्रह्म में किसी प्रकार का वास्तविक परिवर्तन या विभाजन नहीं होता है।

2. मन का उदय और व्यक्तिगत आत्माओं की भ्रान्ति:

व्यक्तिगत आत्माओं की उत्पत्ति को एक प्रकार की भ्रान्ति या आभास के रूप में समझाया जाता है। यह उसी प्रकार है जैसे एक ही आकाश में बादल अलग-अलग आकार और रूप लेते हुए दिखाई देते हैं, जबकि आकाश स्वयं अपरिवर्तित रहता है।

मन (मनस) का उदय होता है, जो कि ब्रह्म की ही शक्ति है लेकिन अज्ञानता के कारण अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। यह मन ही व्यक्तिगत पहचान ("मैं") की भावना को जन्म देता है।

3. संकल्प शक्ति और व्यक्तिगत अनुभवों का निर्माण:

यह अध्याय संकल्प शक्ति (इच्छा शक्ति) के महत्व पर प्रकाश डालता है। व्यक्तिगत आत्माएँ अपनी संकल्प शक्ति के माध्यम से ही अपने अलग-अलग अनुभवों और संसार की रचना करती हैं।

जिस प्रकार स्वप्न में मन अपनी कल्पना से एक पूरी दुनिया बना लेता है, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी मन अपनी वासनाओं और विचारों के अनुसार अनुभवों को आकार देता है।

4. अज्ञानता और बंधन:

व्यक्तिगत आत्माएँ अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) को भूलकर मन और शरीर के साथ अपनी पहचान कर लेती हैं। यही अज्ञानता बंधन का कारण बनती है।

"यह मैं हूँ" और "यह मेरा है" की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, जो आसक्ति और दुख को जन्म देती हैं।

5. साधारण मन की अवस्था:

अध्याय बताता है कि कैसे ब्रह्म से उत्पन्न होकर व्यक्तिगत आत्माएँ धीरे-धीरे साधारण मन की अवस्था तक पहुँचती हैं। यह वह अवस्था है जहाँ वे संसार के विषयों में लिप्त हो जाती हैं और अपने आध्यात्मिक स्वरूप को भूल जाती हैं।

मन विभिन्न प्रकार के विचारों, भावनाओं और वासनाओं से भरा रहता है, जिससे अशांति और अस्थिरता बनी रहती है।

6. उदाहरण और दृष्टान्त:

इस अध्याय में कई उदाहरणों और दृष्टान्तों का उपयोग किया जाता है ताकि जटिल दार्शनिक विचारों को आसानी से समझाया जा सके। उदाहरण के लिए, आकाश और बादलों का दृष्टान्त ब्रह्म और व्यक्तिगत आत्माओं के संबंध को स्पष्ट करता है।

संक्षेप में:

एक अद्वितीय और अपरिवर्तनीय ब्रह्म से व्यक्तिगत आत्माओं की उत्पत्ति कैसे होती है। यह उत्पत्ति वास्तविक विभाजन नहीं है, अपितु मन की एक भ्रान्ति है जो संकल्प शक्ति के माध्यम से अपने अलग-अलग अनुभवों का निर्माण करती है। अज्ञानता के कारण व्यक्तिगत आत्माएँ अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाती हैं और मन तथा शरीर के साथ अपनी पहचान कर लेती हैं, जिससे बंधन और दुख उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार, वे ब्रह्म से दूर होकर साधारण मन की अवस्था तक पहुँच जाती हैं, जो संसार के विषयों में लिप्त और अशांत रहती है।

यह अध्याय अद्वैत वेदांत के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है, जिसमें ब्रह्म की एकता और व्यक्तिगत आत्माओं की आभासी प्रकृति पर जोर दिया जाता है। यह मुक्ति के मार्ग को समझने के लिए एक आधार प्रदान करता है, जो कि इस भ्रान्ति को दूर करके अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) को पहचानना है।

अध्याय 43 : जीवात्माओं की विविधताएँ


यद्यपि मूल रूप से सभी जीवात्माएँ (व्यक्तिगत आत्माएँ) एक ही ब्रह्म से उत्पन्न होती हैं, फिर भी उनमें इतनी विविधताएँ क्यों दिखाई देती हैं। यह अध्याय इस विविधता के कारणों और स्वरूपों पर प्रकाश डालता है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

1. संकल्प शक्ति और वासनाओं का प्रभाव:

अध्याय इस बात पर जोर देता है कि जीवात्माओं की विविधता का मुख्य कारण उनकी अपनी संकल्प शक्ति (इच्छा शक्ति) और पूर्व जन्मों की वासनाएँ (अधूरे इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ) हैं।


प्रत्येक जीवात्मा अपनी इच्छाओं और विचारों के अनुसार अपने अनुभव और संसार का निर्माण करती है। ये इच्छाएँ और विचार अलग-अलग होने के कारण जीवात्माओं में विविधता आती है।

2. कर्मों का महत्व:

पूर्व जन्मों में किए गए कर्म (अच्छे और बुरे कार्य) वर्तमान जन्म की प्रकृति और अनुभवों को निर्धारित करते हैं। विभिन्न जीवात्माओं द्वारा किए गए विभिन्न कर्मों के कारण उनमें अलग-अलग गुण, क्षमताएँ और परिस्थितियाँ पाई जाती हैं।


कर्मों के संचित प्रभाव से ही जीवात्माएँ विभिन्न योनियों (शरीरों) में जन्म लेती हैं, जिससे उनकी विविधता और अधिक स्पष्ट होती है।

3. मन की भूमिका:

मन जीवात्मा के अनुभवों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक जीवात्मा का मन अपनी विशिष्ट वासनाओं, विचारों और संस्कारों से युक्त होता है, जो उसके दृष्टिकोण और अनुभवों को अलग बनाता है।


मन की यह विशिष्टता ही जीवात्माओं के स्वभाव, रुचियों और क्षमताओं में विविधता लाती है।

4. दृष्टान्त और उदाहरण:

अध्याय में जीवात्माओं की विविधता को समझाने के लिए कई दृष्टान्तों और उदाहरणों का उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, एक ही मिट्टी से बने विभिन्न प्रकार के बर्तन, या एक ही बीज से उगने वाले विभिन्न प्रकार के पौधे, जीवात्माओं की मूल एकता और फिर भी दिखाई देने वाली विविधता को दर्शाते हैं।


यह भी बताया जाता है कि जिस प्रकार एक ही अभिनेता अलग-अलग भूमिकाएँ निभाता है, उसी प्रकार एक ही ब्रह्म विभिन्न जीवात्माओं के रूप में प्रकट होता है।

5. अज्ञानता और विविधता का अनुभव:

जीवात्माएँ अपनी मूल एकता को भूलकर अपने मन और शरीर के साथ पहचान कर लेती हैं। यह अज्ञानता ही उन्हें अपनी विविधता का अनुभव कराती है और "मैं अलग हूँ" की भावना को जन्म देती है।


ज्ञान प्राप्त करके और अपनी वास्तविक एकता को जानकर इस विविधता के भ्रम को दूर किया जा सकता है।

6. विविधता का उद्देश्य:

यद्यपि विविधता एक प्रकार का भ्रम है, फिर भी यह संसार के संचालन और अनुभवों की समृद्धि के लिए आवश्यक प्रतीत होती है। विभिन्न प्रकार की जीवात्माएँ अपने अलग-अलग अनुभवों और ज्ञान से समग्र चेतना में योगदान करती हैं।

संक्षेप में:

यह स्पष्ट करता है कि जीवात्माओं में जो विविधताएँ दिखाई देती हैं, उनका मुख्य कारण उनकी अपनी संकल्प शक्ति, पूर्व जन्मों की वासनाएँ और कर्म हैं। प्रत्येक जीवात्मा अपने मन और कर्मों के अनुसार अपने अनुभवों का निर्माण करती है, जिससे उनमें अलग-अलग गुण, क्षमताएँ और परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। यद्यपि मूल रूप से सभी जीवात्माएँ एक ही ब्रह्म से अभिन्न हैं, अज्ञानता के कारण वे अपनी विविधता का अनुभव करती हैं। ज्ञान प्राप्त करके इस विविधता के भ्रम को दूर किया जा सकता है और अपनी वास्तविक एकता को पहचाना जा सकता है। यह अध्याय जीवात्माओं की अनूठी प्रकृति और संसार के जटिल ताने-बाने को समझने में मदद करता है।

अध्याय 44 - ब्रह्मा के स्व-जन्म का वर्णन


सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा के प्रकट होने की प्रक्रिया का वर्णन करता है। यह बताता है कि ब्रह्मा किसी माता-पिता से पैदा नहीं हुए थे, अपितु वे स्वयं से ही प्रकट हुए थे। इस अध्याय के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

1. सृष्टि के पूर्व की अवस्था:

अध्याय सृष्टि के आरंभ से पहले की अवस्था का वर्णन करता है, जहाँ केवल अनंत, निराकार ब्रह्म ही विद्यमान था। उस समय न तो संसार था, न देवता और न ही कोई अन्य प्राणी। सब कुछ ब्रह्म में ही अव्यक्त रूप में निहित था।

2. ब्रह्मा का संकल्प और प्रादुर्भाव:

जब सृष्टि का समय आया, तो ब्रह्म में एक संकल्प (इच्छा) उत्पन्न हुआ कि वह स्वयं को अभिव्यक्त करे और संसार की रचना करे। यह संकल्प ही ब्रह्मा के प्रादुर्भाव का कारण बना।


ब्रह्मा किसी भौतिक गर्भ से या किसी अन्य शक्ति द्वारा पैदा नहीं हुए थे, अपितु वे ब्रह्म की अपनी ही शक्ति और संकल्प से प्रकट हुए थे। इसलिए उन्हें "स्व-जन्म" कहा जाता है।

3. हिरण्यगर्भ का उदय: ब्रह्मा का पहला व्यक्त रूप हिरण्यगर्भ (स्वर्ण गर्भ) के रूप में माना जाता है। यह एक ब्रह्मांडीय अंडा या गर्भ था जिसमें सृष्टि के सभी बीज और क्षमताएँ निहित थीं। हिरण्यगर्भ ब्रह्म की चेतना का ही एक साकार रूप था, जो सृष्टि की रचना के लिए तैयार था।

4. ब्रह्मा का चतुर्मुख रूप: हिरण्यगर्भ से ही ब्रह्मा अपने प्रसिद्ध चतुर्मुख रूप में प्रकट हुए। उनके चार मुख चार दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और वे सृष्टि के विभिन्न पहलुओं के प्रतीक हैं। ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता माना जाता है, जो विभिन्न लोकों, देवताओं, मनुष्यों और अन्य प्राणियों की रचना करते हैं।

5. ज्ञान और वेदों का प्राकट्य: ब्रह्मा के प्रकट होने के साथ ही ज्ञान और वेदों का भी प्राकट्य हुआ। वेदों को ब्रह्मा का ज्ञान माना जाता है, जो सृष्टि के नियमों और आत्मा के स्वरूप को प्रकट करते हैं। ब्रह्मा ने ही सृष्टि के संचालन के लिए नियमों और व्यवस्थाओं की स्थापना की।

6. दृष्टान्त और प्रतीकात्मकता: ब्रह्मा के स्व-जन्म की प्रक्रिया को समझाने के लिए प्रतीकात्मक भाषा और दृष्टान्तों का उपयोग किया जाता है। यह एक रहस्यमय और अलौकिक घटना है जिसे सामान्य भौतिक जन्म की तरह नहीं समझा जा सकता। ब्रह्मा का प्रादुर्भाव ब्रह्म की अनंत शक्ति और अभिव्यक्ति की क्षमता का प्रतीक है।

7. ब्रह्मा की भूमिका: ब्रह्मा को सृष्टि के प्राथमिक कर्ता के रूप में वर्णित किया गया है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया गया है कि वे स्वयं ब्रह्म से अलग नहीं हैं। वे ब्रह्म की ही एक अभिव्यक्ति हैं जो सृष्टि के कार्य को संपन्न करने के लिए प्रकट हुई हैं।

संक्षेप में:

 ब्रह्मा के स्व-जन्म की अद्भुत प्रक्रिया का वर्णन करता है, जहाँ वे किसी भौतिक जन्म के बिना ब्रह्म के संकल्प और शक्ति से प्रकट होते हैं। हिरण्यगर्भ का उदय और फिर ब्रह्मा का चतुर्मुख रूप सृष्टि के आरंभिक चरण को दर्शाते हैं। ब्रह्मा के साथ ही ज्ञान और वेदों का प्राकट्य होता है, जो सृष्टि के नियमों और आत्मा के स्वरूप को प्रकट करते हैं। ब्रह्मा का स्व-जन्म ब्रह्म की अनंत शक्ति और अभिव्यक्ति की क्षमता का प्रतीक है, और वे सृष्टि के प्राथमिक कर्ता के रूप में अपनी भूमिका निभाते हैं, जबकि वे स्वयं ब्रह्म से अभिन्न ही रहते हैं। यह अध्याय सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्यमय पहलुओं पर प्रकाश डालता है।

इस अध्याय में राम ब्रह्मा के भौतिक शरीर धारण करने के विषय में अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हैं। वसिष्ठ उत्तर देते हुए भौतिक जगत की अवास्तविकता और मन की कल्पना शक्ति को सृष्टि का मूल कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि संसार स्वप्नवत है और आत्मा का क्षणभंगुर सार विभिन्न रूपों को धारण करता है।

वसिष्ठ ब्रह्मा के उदाहरण द्वारा सृष्टि प्रक्रिया को विस्तार से समझाते हैं। परम आत्मा अपनी इच्छा और सर्वशक्तिमत्ता से समय और स्थान के सीमित रूप लेता है और जीवात्मा बनता है। ब्रह्मा अपने पूर्व कल्प के हिरण्यगर्भ रूप पर विचार करके उसी स्थिति को प्राप्त करते हैं। वे क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी जैसे तत्वों की उत्पत्ति की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं, जो मन के विचारों के संघनन से होती है।

आध्यात्मिक शरीर का निर्माण होता है, जो हृदय में स्थित होकर बाहरी शरीर को विकसित करता है। आंतरिक मन का प्रभाव बाहरी शरीर पर पड़ता है, जैसे बीज का गुण फल में दिखता है। ब्रह्मा अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अपने शरीर के विभिन्न अंगों का निर्माण करते हैं और समय के साथ सभी प्राणी सुंदर शरीर और आकार प्राप्त करते हैं।

वसिष्ठ ब्रह्मा को सभी प्राणियों का जनक बताते हैं, जो खाली ब्रह्म से उत्पन्न होकर शून्यता में निवास करते हैं। ब्रह्मा का मन भी भ्रमों से ग्रस्त हो सकता है। वे सृष्टि से पहले के विभिन्न रूपों और अवस्थाओं पर विचार करते हैं। ब्रह्मा प्रत्येक कल्प में अपनी इच्छा से विभिन्न प्राणियों की सृष्टि करते हैं, और वे स्वयं ब्रह्म से उत्पन्न होने वाले पहले प्राणी थे।

ब्रह्मा के प्रथम प्रादुर्भाव, चेतना का उदय और भौतिक शरीर धारण करने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। शरीर को मन, काम, लालच और अहंकार आदि का निवास स्थान बताया गया है। ब्रह्मा अपने सुंदर शरीर का निरीक्षण करते हैं और सृष्टि के रहस्य पर विचार करते हुए प्रबुद्ध होते हैं। वे पिछली सृष्टियों और वेदों को स्मरण करते हैं और अपनी मनःशक्ति से विभिन्न प्राणियों और शास्त्रों की रचना करते हैं। इस प्रकार, ब्रह्मा अपनी मनोगत शक्ति से दृश्यमान संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि करते हैं।

अध्याय 45 - सब कुछ ईश्वर पर निर्भर; जो अस्तित्व में नहीं है वह नष्ट नहीं होता

यह  अद्वैत वेदांत के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है, जिसमें संसार को माया या भ्रम बताया गया है और ब्रह्म को एकमात्र परम सत्य के रूप में स्थापित किया गया है। वसिष्ठ विभिन्न तर्कों और दृष्टांतों का उपयोग करके यह समझाने का प्रयास करते हैं कि हमारी इंद्रियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला जगत वास्तविक नहीं है, अपितु यह मन की कल्पना और अज्ञान का परिणाम है।

सपनों और मृगतृष्णा के उदाहरण हमारी दैनिक अनुभवों में मौजूद भ्रमों को दर्शाते हैं, जिन्हें वसिष्ठ संसार की व्यापक अवास्तविकता को समझने के लिए एक रूपक के रूप में उपयोग करते हैं। वे मन की रचनात्मक शक्ति पर जोर देते हैं, जो अपनी कल्पना में जटिल और विस्तृत संसारों का निर्माण कर सकता है, यह तर्क देते हुए कि भौतिक जगत भी इसी प्रकार मन की एक रचना है।

ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का उल्लेख यह स्थापित करने के लिए किया गया है कि परम সত্তा ही सभी चीजों का आधार और कारण है। सृष्टि और विनाश ईश्वर की इच्छाशक्ति से होते हैं, और संसार की क्षणभंगुरता इस निर्भरता को दर्शाती है।

आत्मा की निराकारता और अविभाज्यता का सिद्धांत व्यक्तिगत पहचान और भेद के भ्रम को दूर करता है। यदि आत्मा वास्तव में अविभाजित है, तो व्यक्तिगत अस्तित्व और संसार में मौजूद द्वैत केवल मन की अवधारणाएँ हैं।

'ब्रह्म ही सब कुछ है' का कथन अद्वैत वेदांत का सार है। इसके अनुसार, ब्रह्म के अतिरिक्त कोई अन्य स्वतंत्र सत्ता नहीं है। संसार, अपनी विविधता और जटिलता के बावजूद, ब्रह्म से अलग नहीं है, अपितु ब्रह्म का ही एक अभिव्यक्ति है।

अनासक्ति और समभाव का महत्व इसलिए बताया गया है क्योंकि यदि संसार वास्तव में भ्रम है, तो इसमें किसी भी वस्तु या घटना से आसक्त होना या सुख-दुख से प्रभावित होना अज्ञान का प्रतीक है। ज्ञानी व्यक्ति इस सत्य को जानकर शांत और स्थिर रहता है।

अध्याय का अंतिम भाग वास्तविकता और शून्यता के परस्पर संबंध पर विचार करता है। वसिष्ठ कहते हैं कि परम वास्तविकता में सब कुछ शून्य है, जिसका अर्थ है कि संसार का कोई स्वतंत्र या स्थायी अस्तित्व नहीं है। एक ही परम सत्ता विभिन्न रूपों में प्रकट होती है, लेकिन उसका मूल स्वरूप अपरिवर्तनीय रहता है।

कुल मिलाकर, यह अध्याय हमें संसार की क्षणभंगुरता और अवास्तविकता को समझने और परम सत्य, ब्रह्म में स्थित होने के लिए प्रेरित करता है। यह वैराग्य और अनासक्ति के महत्व पर जोर देता है ताकि हम सांसारिक दुखों से मुक्त होकर स्थायी आनंद को प्राप्त कर सकें।

संसार को माया या भ्रम बताना: यह अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत है, जिसे वसिष्ठ इस अध्याय में स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

 ब्रह्म को एकमात्र परम सत्य के रूप में स्थापित करना: संसार की अवास्तविकता को सिद्ध करके ब्रह्म की परम सत्ता को प्रतिष्ठित किया जाता है।

तर्कों और दृष्टांतों का उपयोग: वसिष्ठ तार्किक युक्तियों और सपनों, मृगतृष्णा जैसे व्यावहारिक उदाहरणों के माध्यम से अपने विचारों को पुष्ट करते हैं।

मन की रचनात्मक शक्ति पर जोर: मन को संसार की रचना का मूल कारण बताया गया है, जिससे भौतिक जगत की वास्तविकता पर प्रश्न उठता है।

ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता: ईश्वर को सभी चीजों का आधार और कारण मानकर संसार की क्षणभंगुरता और उस पर निर्भरता को दर्शाया गया है।

आत्मा की निराकारता और अविभाज्यता: यह सिद्धांत व्यक्तिगत भेद और द्वैत के भ्रम को दूर करता है।

'ब्रह्म ही सब कुछ है' का सार: यह कथन अद्वैत के मूल सिद्धांत को संक्षेप में व्यक्त करता है।

अनासक्ति और समभाव का महत्व: संसार की अवास्तविकता को जानकर आसक्ति और सुख-दुख से अप्रभावित रहने का महत्व बताया गया है।

वास्तविकता और शून्यता का परस्पर संबंध: परम वास्तविकता में संसार की शून्यता का अर्थ है उसका स्वतंत्र या स्थायी अस्तित्व न होना।

अध्याय का मुख्य उद्देश्य: संसार की क्षणभंगुरता को समझकर परम सत्य में स्थित होना और वैराग्य तथा अनासक्ति के माध्यम से स्थायी आनंद प्राप्त करना।

आपका यह विश्लेषण इस अध्याय के गहन दार्शनिक संदेश को समझने में अत्यंत सहायक है। यह न केवल अध्याय की विषयवस्तु को स्पष्ट करता है, बल्कि अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांतों को भी सरल और सुगम भाषा में प्रस्तुत करता है।

अध्याय 46 - जीवन्मुक्ति का वर्णन


यह अध्याय जीवन्मुक्ति, अर्थात जीवित रहते हुए मुक्ति की अवस्था का वर्णन करता है। वसिष्ठ राम को सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता और उनमें निहित दुखों का बोध कराते हैं। वे कहते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति संसार की नश्वर प्रकृति को जानकर उसमें अनासक्त रहता है और सुख-दुख में समान भाव रखता है।

वसिष्ठ सांसारिक आसक्ति को दुख का कारण बताते हैं और वैराग्य को परम आनंद की प्राप्ति का मार्ग दर्शाते हैं। वे ज्ञानी और अज्ञानी के दृष्टिकोण में अंतर स्पष्ट करते हैं। अज्ञानी सांसारिक भोगों में लिप्त रहता है जबकि ज्ञानी उनसे विरक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होता है।

इस अध्याय में अनासक्ति के आदर्श को विस्तार से समझाया गया है। ज्ञानी व्यक्ति कर्तव्य भाव से कर्म करता है लेकिन उसके फल में आसक्त नहीं होता, जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी उससे निर्लिप्त रहता है। मन को इंद्रिय विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर होने पर जीवन्मुक्ति की अवस्था प्राप्त होती है।

वसिष्ठ राम को अपनी बुद्धि का उपयोग करके मन को इच्छाओं से अलग करने की सलाह देते हैं। वे संसार सागर को पार करने के लिए समझ की तीक्ष्णता और संदेहों के निवारण पर जोर देते हैं। ज्ञानी व्यक्ति वर्तमान और भविष्य के प्रति संतुलित दृष्टिकोण रखता है और जीवन्मुक्त महापुरुषों का अनुकरण करता है।

महान पुरुषों के गुणों का वर्णन किया गया है, जो शक्ति, सम्मान या समृद्धि पर गर्व नहीं करते और विपत्ति-समृद्धि में समान रहते हैं। वे ज्ञान के रथ पर सवार होकर समय के अनुसार आचरण करते हैं।

अंत में, वसिष्ठ राम को इंद्रिय निग्रह, अभिमान और शत्रुता से बचने तथा शांत चित्त और अनासक्त रहने का उपदेश देते हैं, जिससे उन्हें जीवन में सफलता और शांति प्राप्त हो सके। ऋषि के उपदेशों से राम का मन प्रबुद्ध होता है और वे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो उठते हैं।

अध्याय 47 - असंख्य विभिन्न लोकों, उनके देवताओं और समय का वर्णन

सृष्टि की विविधता, असंख्य लोकों के अस्तित्व और समय के चक्रीय स्वभाव का विस्तृत वर्णन करता है। वसिष्ठ राम को बताते हैं कि अनगिनत ब्रह्मा, शिव, इंद्र और नारायण पहले भी हो चुके हैं और भविष्य में भी होंगे। विभिन्न लोकों में प्राणियों के रीति-रिवाज और स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं, और सृष्टि की प्रक्रिया जादू के खेल की तरह अद्भुत है।

वसिष्ठ देवताओं की उत्पत्ति के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करते हैं, जो विभिन्न तत्वों (वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी) से और विभिन्न तरीकों से (अंडज, कमल-जन्मा) उत्पन्न होते हैं। वे पृथ्वी के विभिन्न स्वरूपों और ब्रह्मांड में मौजूद अद्भुत लोकों का वर्णन करते हैं, जिनमें से कुछ चमकदार हैं और कुछ की रोशनी हम तक नहीं पहुँची है।

अध्याय लोकों की संख्या की असीम प्रकृति पर जोर देता है, जो ब्रह्मा के सार के निर्वात में समुद्र की लहरों की तरह बिखरे हुए हैं और सार्वभौमिक आत्मा में उठते और गिरते हैं। लोकों का उदय और पतन एक अंतहीन चक्र है, जैसे वर्ष के घंटे और ऋतुएँ बदलती रहती हैं।

वसिष्ठ विभिन्न दार्शनिक मतों के अनुसार सृष्टि के सिद्धांतों का उल्लेख करते हैं, लेकिन अंततः यह स्थापित करते हैं कि सृष्टि दिव्य मन का ही विकास है। वे सृष्टि और प्रलय के चक्रीय स्वभाव का वर्णन करते हैं, जिसमें युग, मन्वंतर और कल्प एक के बाद एक आते हैं।

अध्याय इस विचार पर बल देता है कि संसार स्थिर नहीं है, अपितु लगातार परिवर्तनशील है। यह दिव्य चेतना से उत्पन्न होता है और उसी में विलीन हो जाता है, जैसे चिंगारियाँ आग से निकलती हैं और फिर उसमें समा जाती हैं। संसार का दिखना कमजोर आँखों को दो चंद्रमाओं के दिखने जैसा भ्रम है।

वसिष्ठ बुद्धिमानों के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं, जो संसार को ब्रह्म से अभिन्न मानते हैं, जबकि अविद्वान इसे शाश्वत मानते हैं। वे संसार की अस्थिर और भ्रामक प्रकृति पर जोर देते हैं, जो दासुर के मन के मतिभ्रम के समान है। अंततः, अध्याय संसार की अवास्तविकता और परिवर्तनशीलता को स्थापित करते हुए, आध्यात्मिक ज्ञान के महत्व को दर्शाता है।

जीवन्मुक्ति का अर्थ: जीवित रहते हुए मुक्ति की अवस्था, जिसमें ज्ञानी व्यक्ति संसार में कर्म करते हुए भी आंतरिक रूप से मुक्त रहता है।

सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता और दुख: वसिष्ठ राम को संसार की नश्वर प्रकृति और उसमें निहित दुखों का बोध कराते हैं ताकि वे आसक्ति से मुक्त हो सकें।

ज्ञानी और अज्ञानी का अंतर: ज्ञानी संसार की नश्वरता को जानकर अनासक्त रहता है और सुख-दुख में समान भाव रखता है, जबकि अज्ञानी भोगों में लिप्त रहता है।

वैराग्य का महत्व: सांसारिक आसक्ति को दुख का कारण बताते हुए वैराग्य को परम आनंद की प्राप्ति का मार्ग दर्शाया गया है।

अनासक्ति का आदर्श: ज्ञानी व्यक्ति कर्तव्य भाव से कर्म करता है लेकिन उसके फल में आसक्त नहीं होता, कमल के पत्ते की तरह निर्लिप्त रहता है।

मन का नियंत्रण: मन को इंद्रिय विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर होने पर जीवन्मुक्ति प्राप्त होती है। बुद्धि का उपयोग करके मन को इच्छाओं से अलग करने की सलाह दी जाती है।

समझ और संदेह निवारण: संसार सागर को पार करने के लिए बुद्धि की तीक्ष्णता और संदेहों के निवारण पर जोर दिया गया है।

संतुलित दृष्टिकोण और महापुरुषों का अनुकरण: ज्ञानी व्यक्ति वर्तमान और भविष्य के प्रति संतुलित दृष्टिकोण रखता है और जीवन्मुक्त महापुरुषों का अनुकरण करता है।

महान पुरुषों के गुण: वे शक्ति, सम्मान या समृद्धि पर गर्व नहीं करते और विपत्ति-समृद्धि में समान रहते हैं। वे ज्ञान के अनुसार आचरण करते हैं।

अंतिम उपदेश: वसिष्ठ राम को इंद्रिय निग्रह, अभिमान और शत्रुता से बचने तथा शांत चित्त और अनासक्त रहने का उपदेश देते हैं ताकि उन्हें जीवन में सफलता और शांति मिले।

राम का प्रबुद्ध मन: ऋषि के उपदेशों से राम का मन प्रबुद्ध होता है और वे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो उठते हैं।

आपका यह विश्लेषण जीवन्मुक्ति की अवधारणा और उसे प्राप्त करने के उपायों को स्पष्ट रूप से समझने में अत्यंत सहायक है। यह अनासक्ति, वैराग्य और आत्म-नियंत्रण के महत्व को दर्शाता है, जो एक मुक्त और शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक हैं।

Wednesday, March 26, 2025

३ योग वशिष्ट उत्पत्ति खंड (श्लोक १०४- १२२ ) संक्षेप

 जादूगर और राजा लवण की कहानी 

अध्याय 104 — एक जादूगर, एक घोड़ा और राजा लवण

वसिष्ठ राम को एक सुंदर कहानी सुनाते हैं जिसमें संसार को मन रूपी जादूगर द्वारा फैलाई गई एक जादुई नगरी बताया गया है। उत्तरी पांडव नामक एक समृद्ध देश का वर्णन किया जाता है जहाँ राजा लवण धर्मात्मा और तेजस्वी हैं। उनके दरबार का वर्णन किया जाता है जहाँ गायक गाते हैं, दासियाँ पंखे लहराती हैं और विद्वान पंडित कथाएँ सुनाते हैं।

इसी समय एक जादूगर दरबार में आता है और खारोलिकिका नामक एक अद्भुत करतब दिखाने की अनुमति मांगता है। वह अपनी जादुई छड़ी घुमाता है जिससे कई आश्चर्य दिखाई देते हैं। तभी सिंध का एक सरदार एक तेज और सुंदर युद्ध-घोड़ा लेकर आता है और उसे राजा को भेंट करता है, जिसकी तुलना उच्चैःश्रवा से की जाती है। जादूगर राजा को उस घोड़े पर सवार होने के लिए कहता है।

राजा घोड़े को देखता है और उस पर सवार होकर अपनी आँखें बंद कर लेता है और कई घंटों तक स्थिर बैठा रहता है, जैसे ध्यान में डूबा हो। कोई उसे उसकी स्तब्धता से नहीं जगा पाता। दरबारी और मंत्री उसकी इस अवस्था को देखकर चिंतित और भयभीत हो जाते हैं, जैसे बंद कमल अपनी सुंदरता खो देते हैं।

अध्याय 105 — राजा लवण पर जादू का प्रभाव टूटा

राजा लवण दो घंटे बाद होश में आते हैं, जैसे वर्षा के बाद कमल खिलता है। वह काठी पर हिलते हैं और पूछते हैं कि वे कहाँ हैं। दरबारियों ने चिंता व्यक्त की कि क्या हुआ था, क्योंकि उनकी स्पष्ट बुद्धि भ्रमित हो गई थी। राजा ने जादूगर से पूछा कि उसने उसे कैसे फंसाया। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि मन और शरीर कितने कमजोर हैं।

राजा ने दरबारियों को बताया कि जादू के प्रभाव में उन्होंने एक क्षण में कई दृश्य देखे, जैसे ब्रह्मा ने इंद्र के जादू को नष्ट करते समय दिखाए थे। फिर राजा ने अपने मतिभ्रम में देखे गए अद्भुत दृश्यों का वर्णन करना शुरू किया।

अध्याय 106 — राजा लवण का एक आदिवासी कन्या से विवाह

राजा लवण ने अपने मतिभ्रम के अनुभवों को बताना जारी रखा। उन्होंने अपने राज्य को पृथ्वी का लघु रूप और अपने दरबार को इंद्र के स्वर्ग जैसा देखा। एक जादूगर ने अपनी जादुई छड़ी घुमाई। राजा ने एक अचल घोड़े पर सवार होकर तेज गति से एक निर्जन रेगिस्तान को पार किया, जो एक कंगाल के मन जितना खाली था। थके हुए राजा ने एक घने जंगल में शरण ली और एक पेड़ के नीचे सो गए।

रात भयानक सपनों और बेचैनी में गुजरी। सुबह राजा ने एक आदिवासी युवती को देखा जो भोजन ले जा रही थी। भूख से व्याकुल राजा ने उससे भोजन मांगा, लेकिन उसने इनकार कर दिया। बाद में, उसने राजा से विवाह करने पर भोजन देने की पेशकश की। जीवन खतरे में देखकर राजा सहमत हो गए। युवती उसे अपने कुरूप पिता के पास ले गई और विवाह की अनुमति मांगी।

शाम को राजा ने आदिवासी घर में प्रवेश किया जो घृणित दृश्यों से भरा था। उसे केले के पत्ते का आसन दिया गया और उसने भोजन ग्रहण किया। उसने कई अप्रिय बातें सुनीं। एक दिन उन्हें दहेज दिया गया और राजा का उस भयानक युवती से विवाह हो गया। मांस खाने वाले आदिवासियों ने शराब और शोर के साथ विवाह का जश्न मनाया।

अध्याय 107 — आदिवासियों के बीच जीवन

राजा लवण ने आदिवासियों के बीच अपने जीवन का वर्णन जारी रखा। उनके साथियों ने उन्हें 'पुष्ट-पुक्कुशा' कहा। एक सप्ताह के उत्सव के बाद, आठ महीने बीतने पर उनकी पत्नी ने एक बेटी को जन्म दिया, जो दुख का कारण बनी। तीन साल बाद उन्हें एक काला बेटा हुआ, फिर एक बेटी और एक बेटा, जिससे वे एक बड़े परिवार वाले बूढ़े आदिवासी बन गए। उन्होंने कई वर्ष दुख में बिताए, गर्मी, ठंड और अन्य कठिनाइयों को सहा। वे छाल के कपड़े पहनते थे और जंगल से लकड़ियाँ ढोते थे। उन्हें गंदे कौपीन पहनने पड़े और ठंड में गुफाओं में रहना पड़ा। घर और बाहर झगड़ों और दुखों का सामना करना पड़ा। उन्होंने दलदली जमीन पर रातें बिताईं और भालू का भुना मांस खाया। रिश्तेदारों की निर्दयता से परेशान होकर वे दूसरे घर में रहे। पत्नी ने उन्हें काटा-खरोंचा। उन्होंने हिमालय की गुफाओं से बर्फ और पाले की मार झेली। बीमार बुढ़ापे में उन्होंने जड़ों पर जीवन यापन किया। नीच कुल के स्पर्श से बचने के लिए वे अलग खाते थे। उन्होंने दूसरों को जानवरों का मांस खाते देखा। वे शाम को आदिवासियों के बागों से फेंका हुआ मांस इकट्ठा करते थे। उन्होंने गुफाओं में शरण ली और जड़ों-पौधों से भोजन किया। उन्होंने गाँव के कुत्तों को भगाते आदिवासियों से खराब चावल लिए और ताड़ के पेड़ के नीचे रात बिताई। ठंड से कांपते हुए उन्होंने वनमानुषों के साथ रात बिताई। भूख से उनके पेट पतले हो गए थे। उन्होंने और उनकी पत्नी ने झगड़ा किया और मछली पकड़ी। उन्होंने हिरणों को पकड़ा और उनका खून पिया। वे खून से सने कब्रिस्तान में खड़े रहे। उन्होंने हिरणों और पक्षियों को पकड़ने के लिए जाल बिछाए। सांसारिक चिंताओं से घिरे होने पर भी उनके मन क्रूर कर्मों में आनंद लेते थे। उनकी इच्छाएँ बहुत फैली हुई थीं, लेकिन उनकी वस्तुएँ उनसे दूर भागती थीं। उन्होंने दया त्याग दी और द्वेष के तीर चलाए। उन्होंने कई कठिनाइयाँ झेलीं और नरक जैसे स्थान पर घूमते रहे। उन्होंने अज्ञानता में पाप के बीज बोए और निर्दोषों के लिए फंदे बिछाए। उन्होंने हिरणों को मारकर खाया और गायों को मारकर उनके बालों पर सिर रखा। वे अज्ञान में बेखबर सोए रहे। उन्होंने विंध्य के दलदली मैदान में बर्फ पर शरीर रखा। उन्होंने फटी रजाई ओढ़ी। उन्होंने जंगल की आग की गर्मी झेली। उनकी पत्नी ने सुख-दुख दोनों के लिए बच्चों को जन्म दिया। इस प्रकार राजा ने साठ दर्दनाक वर्ष आदिवासियों के बीच बिताए, दुख और क्रोध में जीवन यापन किया और नीच आदिवासियों के घरों में रहे। वे अपनी अतृप्त इच्छाओं की जंजीरों से बंधे रहे और मृत्यु तक व्यर्थ परिश्रम करते रहे।

अध्याय 108 — राजा लवण का सूखा और जंगल की आग का वर्णन

राजा लवण ने अपने कष्टों का वर्णन जारी रखा। बुढ़ापे ने उन्हें जकड़ लिया और उनके दिन सुख-दुख में बीतने लगे। उन्हें हर पल झगड़े, दुर्भाग्य और बुरी किस्मत का सामना करना पड़ा। उनका मन इच्छाओं और कल्पनाओं में भटकता रहा और हृदय जुनून से विक्षुब्ध था। वे अपने विचारों के भंवर में बहते रहे और खुद को विंध्य के जंगलों में एक कीड़े की तरह कमजोर महसूस किया। उन्होंने अपनी राजशाही को भुला दिया और खुद को एक पंखहीन पक्षी की तरह उस पहाड़ी स्थान से बंधा हुआ आदिवासी मान लिया।

संसार उन्हें अंतिम उजाड़ जैसा, आग से भस्म जंगल जैसा लगा। विंध्य की तलहटी की दलदली जमीन सूख गई और भोजन-पानी की कमी हो गई। आदिवासियों का समूह मरने वाला था। बादल गायब हो गए और हवाएँ आग की चिंगारियाँ लेकर चलने लगीं। जंगल के पेड़ नंगे हो गए और जंगल की आग भड़क उठी। भयंकर अकाल पड़ा और चारों ओर जंगल जल गया। लोग भूखे-प्यासे थे और जमीन बंजर हो गई थी। रेगिस्तान की मृगतृष्णा चमक रही थी और हवा भी ठंडी नहीं थी। लोग पानी के लिए चिल्ला रहे थे। भूखी भीड़ भोजन की तलाश में मर रही थी और कुछ एक-दूसरे को खा रहे थे। जमीन खून से लथपथ थी। हर कोई शेर की तरह क्रूर था। पेड़ पत्तों से रहित थे और गर्म हवाएँ चल रही थीं। जंगली बिल्लियाँ खून चाट रही थीं। जंगल की आग की लपटें धुएं के बादलों के साथ ऊँची उठ रही थीं और हर तरफ राख और जलती हुई लपटें थीं। सांप जल गए और जहरीले पौधे उग आए। हवाओं से उठती राख गुंबदों की तरह दिख रही थी। बच्चे रो रहे थे। लोग मुर्दों को खा रहे थे और अपने हाथ काट रहे थे। गिद्ध धुएं को पेड़ समझकर झपट रहे थे। जलती हुई लकड़ियों के फटने से लोग लहूलुहान हो रहे थे। हवाएँ गुफाओं में चीख रही थीं और आग की लपटें भड़क रही थीं। सांप फुफकार रहे थे और जले हुए जंगल गिर रहे थे। खतरों और भयानक दृश्यों से घिरा यह स्थान जलती हुई लपटों के साथ इस संसार का चित्र प्रस्तुत कर रहा था। गर्म हवाओं और आग की गर्मी ने सब कुछ सुखा दिया था, जिससे यह स्थान दुखद संसार का प्रतिरूप बन गया था।

अध्याय 109 — आदिवासियों का पलायन; मन सब कुछ बनाता है

राजा लवण ने आगे कहा कि भाग्य की अप्रसन्नता के कारण उस स्थान पर विनाश जारी रहा, जिससे जंगल और लोग अंतिम विनाश की आपदाओं से समय से पहले ग्रस्त हो गए। कुछ पुरुष अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ नए स्थानों की तलाश में विदेश चले गए, जैसे वर्षा ऋतु के बाद बादल बिखर जाते हैं। उनके साथ पत्नी, बच्चे और रिश्तेदार थे, लेकिन दुबले और कमजोर पीछे छूट गए। कुछ उत्प्रवासियों को बाघों ने मार डाला, और कुछ ने आग में प्रवेश कर लिया या गड्ढों में गिर गए।

राजा अपनी पत्नी और बच्चों के साथ उस संकटग्रस्त देश से बच निकले। वे खतरों से सुरक्षित एक जंगल से बाहर आए और ताड़ के पेड़ों की छाया में रुके। थका हुआ राजा सो गया। उनका छोटा बेटा, प्रच्छक, भूख से व्याकुल होकर भोजन मांगने लगा। राजा ने कहा कि उनके पास मांस नहीं है, लेकिन लड़के की भूख शांत नहीं हुई। पितृ स्नेह से वशीभूत होकर राजा ने उसे अपना मांस काटकर खाने को कहा। लड़का सहमत हो गया। अत्यधिक दुख से व्याकुल राजा ने मरने का निश्चय किया और अपनी अंत्येष्टि चिता तैयार की। जैसे ही वे खुद को आग में डालने वाले थे, महल से संगीत की आवाज आई और उन्हें राजा कहकर उनकी जीत की घोषणा की गई। राजा समझ गए कि यह सब जादूगर का भ्रम था।

वसिष्ठ ने कहा कि जैसे ही राजा लवण अपने भाग्य के उतार-चढ़ाव का वर्णन कर रहे थे, जादूगर गायब हो गया। दरबारियों ने कहा कि वह कोई साधारण जादूगर नहीं था, बल्कि यह दिव्य जादू था जो राजा को मानवता और संसार की स्थिति दिखाने के लिए दिखाया गया था। यह संसार मन की रचना है और काल्पनिक संसार सर्वशक्तिमान की अनंत शक्ति का प्रदर्शन है। सर्वशक्तिमान की विभिन्न शक्तियाँ बुद्धिमानों के मन को भी भ्रमित कर सकती हैं।

वसिष्ठ ने राम से कहा कि यह कहानी काल्पनिक नहीं है, बल्कि सत्य है। मन अपनी कल्पना के विभिन्न आविष्कारों से विस्तृत होता है, जैसे पेड़ अपनी शाखाओं से फैलता है। विस्तृत मन सभी चीजों को समाहित करता है और हर चीज की प्रकृति से परिचित होने से मन पूर्णता की ओर बढ़ता है।

अध्याय 110 — मन के खेल का वर्णन

वसिष्ठ कहते हैं कि शुरुआत में, चेतना ने परम कारण से वस्तुनिष्ठ घटनाओं को जानने की शक्ति प्राप्त की, फिर यह अपनी बुद्धि की वस्तुओं को गुणा और विविध बनाने लगी और एक बुद्धिमान सार्वभौमिक अहंकार के ज्ञान से विशेष गैर-अहंकारों के भ्रम में पड़ गई। मन की शक्तियाँ अवास्तविकताओं से भ्रमित होकर सामान्य में विशेषता और अंतर का आरोपण करती रहती हैं। मन अवास्तविकताओं को अनंत तक गुणा करता रहता है, जैसे अज्ञानी बच्चे झूठे राक्षस बनाते हैं। वास्तविकता कष्टदायक अवास्तविकताओं को दूर कर देती है और शुद्ध समझ कल्पना की त्रुटियों को दूर करती है।


मन दूर की वस्तुओं को पास और पास की वस्तुओं को दूर करता है। यह जीवित प्राणियों में फड़फड़ाता है। व्याकुल मन बिना कारण भयभीत होता है और संदिग्ध मन मित्र को शत्रु समझता है। विचलित मन ठंडे चंद्रमा में उग्र शनि देखता है। हवा में महल बनाना क्षणिक सत्य लगता है और आशाओं पर टिका मन जागते हुए स्वप्न देखता है। इच्छा का रोग मन का भ्रम है जिसे तुरंत दूर करना चाहिए। लोभी मन जाल में उलझे हिरणों की तरह असहाय होता है। जिसने तर्क से मन की व्यर्थ चिंताओं को दूर कर दिया है, उसने आत्मा का प्रकाश दिखाया है। मन ही मनुष्य को बनाता है, शरीर नहीं। मन द्वारा किया गया कार्य वास्तव में किया गया कार्य है और मन द्वारा त्यागा गया वास्तव में दूर रखा गया है। मन ही पूरे संसार को बनाता है। यदि मन वस्तुओं को उनके गुणों से नहीं जोड़ता, तो सूर्य, ग्रह और तारे प्रकाशहीन दिखेंगे। मन ज्ञान और अज्ञान के गुणों को ग्रहण करता है, लेकिन ये गुण शरीर के नहीं हैं। मन देखने में दृष्टि, सुनने में श्रवण, स्पर्श करने में स्पर्श, सूंघने में घ्राण और स्वाद लेने में स्वाद बन जाता है। मन जीवित शरीर के मंच पर मुख्य अभिनेता है। यह सूक्ष्म को बड़ा और सत्य को असत्य दिखाता है, कड़वे को मीठा और मीठे को खट्टा करता है, शत्रु को मित्र और इसके विपरीत करता है। मन जिस भी रूप में खुद को प्रस्तुत करता है, वही हमें स्पष्ट होता है। राजा हरिश्चंद्र के स्वप्निल मन ने एक रात को बारह वर्ष माना। ब्रह्मा की पूरी सृष्टि मन के भीतर स्थित प्रतीत हुई। कल्पना सुखद भविष्य दिखाकर वर्तमान दर्द को सुख में बदल देती है। तर्क के अधीन मन शरीर और भावनाओं को नियंत्रित करता है, जबकि अनियंत्रित मन भटक जाता है। स्थिर मन सभी परिस्थितियों में समता और स्थिरता बनाए रखता है। हे राम, तुम्हें हर समय आत्म-नियंत्रण बनाए रखना चाहिए और मन को वस्तुओं के उतार-चढ़ाव से अप्रभावित रखना चाहिए।


मन अपनी प्रकृति से बेचैन है और व्यर्थ विचारों और इच्छाओं से भरा है। मनुष्य इसकी धाराओं द्वारा दूर-दूर तक ले जाया जाता है। जागृत मन अपनी इच्छा की वस्तुओं को मीठा और नापसंद वस्तुओं को कड़वा मानता है, भले ही वे स्वाद में मीठे हों। कुछ मन चीजों के सच्चे स्वभाव पर विचार किए बिना उन्हें अलग-अलग रूप और रंग देते हैं। मन दिव्य चेतना की शक्ति का स्पंदन है। यह हवा में संचार करता है, चमकदार निकायों में चमकता है, तरल पदार्थों में पिघलता है और ठोस पदार्थों में कठोर होता है। यह शून्यता में गायब हो जाता है और अंतरिक्ष में फैलता है। यह हर जगह निवास करता है और अपनी इच्छा से हर जगह से उड़ जाता है। यह काले को सफेद और सफेद को काला करता है और सभी में फैला हुआ है। मन के अनुपस्थित होने पर हम मीठे का स्वाद नहीं लेते। मन से जो देखा जाता है वही आँखों से देखा जाता है। मन इंद्रियों के साथ शरीर में समाहित है, लेकिन मन ही इंद्रियों को सक्रिय करता है और संवेदनाओं को प्राप्त करता है। इंद्रियाँ मन के उत्पाद हैं, लेकिन मन संवेदनाओं का उत्पादन नहीं है। शरीर और मन के संबंध की जांच करने वाले दार्शनिक और मन और लड़के के संबंध को दिखाने वाले विद्वान सम्मान के योग्य हैं। मन के अनुपस्थित होने पर फूलों से सजी सुंदर स्त्री भी लकड़ी के लट्ठे की तरह लगती है। वैरागी योगी को अपने हाथ काटे जाने का होश नहीं होता। मानसिक अमूर्तता में अभ्यस्त ऋषि सुख को दुख और दुख को सुख में बदल सकता है। किसी अन्य विचार में लगा मन वर्तमान प्रवचन को कटा हुआ लकड़ी का टुकड़ा मानता है। घर पर बैठा व्यक्ति पहाड़ की चोटी पर खड़े होने या गुफा में गिरने के विचार से कांप उठता है। सपने में भी भयानक रेगिस्तान देखकर चौंक जाते हैं और बादलों के नीचे विशाल गहरे की कल्पना करके भ्रमित हो जाते हैं। मन सपने में सुंदर स्थान और आकाश में फैले तारों को देखकर प्रसन्न होता है। बेचैन मन सपनों में कई पहाड़ियाँ, घाटियाँ, शहर और घर बनाता है, जैसे आत्मा के विशाल सागर में लहरें। जैसे समुद्र का पानी तरंगों में दिखता है, वैसे ही शरीर में रहने वाला मन सपनों में विभिन्न दृश्य दिखाता है। जैसे बीज से पत्ते, शाखाएँ, फूल और फल निकलते हैं, वैसे ही जागते सपनों में दिखने वाली हर चीज मन की रचना है। जैसे सोने की मूर्ति सोने के अलावा कुछ नहीं है, वैसे ही जीवित सपनों के प्राणी मन की कल्पनाएँ हैं। जैसे बारिश की बूंद और लहर का झाग पानी के अलग-अलग रूप हैं, वैसे ही इंद्रियगोचर घटनाओं की विविधताएँ एक ही मन के रूपांतरण हैं। ये जागते सपनों में दिखने वाले मन के विचार हैं, जैसे अभिनेता नाटक में विभिन्न पात्रों के लिए वेशभूषा पहनता है। जैसे राजा लवण ने खुद को कुछ समय के लिए आदिवासी माना, वैसे ही हम अपने मन के विचारों से खुद को ऐसा-और-ऐसा मानते हैं। हम अपनी चेतना में खुद को जो कुछ भी मानते हैं, वही जल्द ही हम पर घटित होता है। इसलिए अपने मन के विचारों को अपनी इच्छानुसार ढालो। देहधारी प्राणी अपने सामने कई शहर, कस्बे, पहाड़ियाँ और नदियाँ देखता है, जो सभी आंतरिक मन द्वारा फैले हुए जागते सपनों के दृश्य हैं। कोई देवता में राक्षस और जहाँ कोई सांप नहीं है वहाँ सांप देखता है। यह विचार है जो विचार को पोषित करता है, जैसे राजा लवण ने अपने आदर्श रूपों के विचारों को पोषित किया था। जैसे पुरुष के विचार में स्त्री का विचार शामिल है, और पिता के विचार में पुत्र का तात्पर्य है, वैसे ही मन में इच्छा शामिल है, और हर व्यक्ति के साथ इच्छा उसके कार्य के साथ होती है। अपनी इच्छा से ही मन मृत्यु के अधीन होता है ताकि अन्य शरीरों में फिर से जन्म ले सके। यद्यपि मन निराकार है, फिर भी सोचने की आदत से यह स्वयं को जीवित पदार्थ (जीव) मानता है। मन लंबी खींची हुई इच्छाओं के विचारों में व्यस्त रहता है जो बार-बार जन्म और मृत्यु का कारण बनती हैं, और उनकी सहगामी उम्मीदों और आशंकाओं, और सुख और दुख का कारण बनती हैं। सुख और दुख मन में तिल के बीजों में तेल की तरह स्थित होते हैं। ये जीवन की विशेष परिस्थितियों में तेल की तरह गाढ़े या पतले होते हैं। समृद्धि सुख को और विपत्ति दुख को बढ़ाती है; ये फिर से अपने विपरीतों से कम हो जाते हैं। जैसे तेल-मिल का दबाव तेल को गाढ़ा या पतला करता है, वैसे ही मन का ध्यान सुख या दुख की भावना को बढ़ाता या कम करता है। जैसे हमारी इच्छाएँ समय और स्थान की परिस्थितियों द्वारा निर्देशित होती हैं, वैसे ही समय और स्थान के माप हमारे विचारों की तीव्रता या शिथिलता के अनुसार किए जाते हैं। मन ही इच्छाओं की पूर्ति पर संतुष्ट और प्रसन्न होता है, शरीर नहीं। मन शरीर के भीतर अपनी काल्पनिक इच्छाओं से प्रसन्न होता है, जैसे एकांत महिला हरम में आनंद लेती है। जो अपने हृदय में कामुकता और चंचलता को बढ़ावा नहीं देता है वह निश्चित रूप से अपने मन को वश में कर लेगा, जैसे कोई हाथी को जंजीर से बांधता है। जिसका मन लहराती हुई तलवार की तरह नहीं डोलता, बल्कि अपने सर्वोत्तम इरादे और उद्देश्य के लिए स्थिर रहता है, वह पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ पुरुष है। बाकी सभी मन में लगातार घूमने वाले कीड़े की तरह हैं। जिसका मन चंचलता से मुक्त और शांत है वह अपने ध्यान में अपने सर्वोत्तम उद्देश्य से एकजुट है। मन की स्थिरता सांसारिक कोलाहल की स्थिरता के साथ होती है, जैसे मंथन करते हुए मंदराचल पर्वत का निलंबन क्षीरसागर की शांति के साथ था। सांसारिक चिंताओं में उलझे मन के विचार हृदय में अशांत जुनूनों के स्रोत बन जाते हैं जो, जहरीले पौधों की तरह, इस हानिकारक दुनिया को भर देते हैं। मूर्ख पुरुष, अपनी मूर्खता और अज्ञानता से मोहित होकर, अपने हृदय के केंद्र के चारों ओर घूमते हैं जैसे मतवाली मधुमक्खियाँ झील के कमल के फूलों के चारों ओर तब तक फड़फड़ाती हैं जब तक कि अंत में, अपने चक्करदार घेरों से थककर, वे भँवरों में गिर नहीं जातीं जो उन्हें अपूरणीय विनाश में धकेल देते हैं।

अध्याय 111 — हृदय और मन को नियंत्रित करने की आवश्यकता

वसिष्ठ कहते हैं कि हृदय के रोग को ठीक करने का सबसे अच्छा उपाय अपनी चेतना के प्रयास और इच्छाओं के त्याग से मन को वश में करना है। इच्छाओं को त्याग कर शांत रहने वाला मन का विजेता होता है। मन का इलाज तर्क और सत्य-असत्य के विवेक से करना चाहिए। उत्तेजित कल्पना को ठंडे तर्क, शास्त्रों और वैरागियों के संग से शांत करना चाहिए। मन को अच्छे कार्यों में लगाना चाहिए और आत्मा को ईश्वर के ध्यान से जोड़ना चाहिए। दिव्य इच्छा के प्रति समर्पित व्यक्ति के लिए वांछनीय वस्तु का त्याग संभव है। अप्रिय को सुखद मानने वाला आसानी से मन को वश में कर सकता है। मन को ध्यान और प्रयास से नियंत्रित किया जा सकता है और स्थिर मन से दिव्य ज्ञान प्राप्त करना आसान है। मन को वश में करने की शक्ति न रखने वाले पर शर्म आती है, क्योंकि यह पूरी तरह से अपने नियंत्रण में है। मन की शांति के बिना जीवन का सर्वोत्तम मार्ग प्राप्त नहीं किया जा सकता, और यह इच्छाओं को त्यागने के प्रयास से प्राप्त होता है। मन की भूख को नष्ट करके और सत्य के ज्ञान से मन पर पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता है। शांत मन के बिना शिक्षक के उपदेश, शास्त्रों के निर्देश, मंत्रों की प्रभावशीलता और तर्क सब व्यर्थ हैं। मन की सभी इच्छाओं को त्यागने से ही सर्वव्यापी शांत ब्रह्म को जाना जा सकता है। मन शांत होने पर सभी शारीरिक दर्द समाप्त हो जाते हैं।

कई लोग भाग्य की शक्ति की उपेक्षा करके मन को सावधानी से हटा लेते हैं। दिव्य ज्ञान की खेती में अभ्यस्त मन चेतना में विलुप्त होकर उच्च बौद्धिक रूप में उन्नत हो जाता है। पहले बौद्धिक विचारों से जुड़ें, फिर आध्यात्मिक अटकलों से, और फिर मन के स्वामी बनकर परम आत्मा के स्वरूप पर चिंतन करें। अपने प्रयासों से और सचेत मन को विरक्त अचेतनता में परिवर्तित करके स्थिरता की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की जा सकती है। हे राम, अपने प्रयासों और स्थिर ध्यान से तुम अपने मन की त्रुटियों को सुधार सकते हो। मन की शांति चिंता को दूर करती है। मन को वश में करने वाला संसार को अपने अधीन करने की परवाह नहीं करता। सांसारिक संपत्ति में कलह और युद्ध होता है, और स्वर्ग के सुखों का भी उदय और पतन होता है। लेकिन अपने मन और स्वभाव में सुधार में कोई विवाद या बाधा नहीं है। जो अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पाते उन्हें अपने मामलों को प्रबंधित करना मुश्किल लगता है। अज्ञानी अहंकार के विचार से मृत्यु और पुनर्जन्म के विचारों में डूबे रहते हैं।

यहाँ कोई पैदा या मरता नहीं है। मन जन्म, मृत्यु और अन्य शरीरों और लोकों में प्रवास की कल्पना करता है। मन एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और वहाँ दूसरे रूप में प्रकट होता है, या मांस के बंधन से मुक्त हो जाता है, जिसे मुक्ति कहते हैं। तो मृत्यु कहाँ है और मरने से क्यों डरना? चाहे मन यहाँ भटके या सांसारिक विचारों के साथ दूसरे लोक में जाए, यह उसी अवस्था में रहता है जब तक कि मुक्ति से परिवर्तित न हो जाए। अपने भाइयों और आश्रितों की मृत्यु पर दुख में डूबना व्यर्थ है। मन का स्वभाव शुद्ध चेतना से त्रुटि की अवस्था में भ्रमित होना है। मन को वश में किए बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त करने का कोई अन्य साधन नहीं है। बेलगाम मन के शासन के बिना सर्वोच्च के सच्चे, स्पष्ट और सार्वभौमिक ज्ञान के प्रकाश में आने का कोई रास्ता नहीं है। मन नष्ट हो जाता है, आत्मा शांति प्राप्त करती है और बुद्धि का प्रकाश हृदय में चमकता है। तर्क के चक्र को मजबूती से पकड़ो और मन के पूर्वाग्रह को काट दो। दर्द से भरे सुख की वस्तुओं को तुच्छ समझने पर कोई रोग तुम्हें सता नहीं पाएगा। मन के सदस्यों को काटकर तुम इसे पूरी तरह से काट देते हो। अहंकार और स्वार्थ मन का सार हैं। “यह मैं हूँ” और “ये मेरे हैं” की भावना को त्यागो। इन भावनाओं के बिना मन कुल्हाड़ी से काटे गए पेड़ की तरह गिर जाता है और शरद ऋतु के आकाश से बिखरे बादल की तरह बिखर जाता है। मन अहंकार और स्वार्थ की कमी से उड़ जाता है, जैसे बादल हवाओं से। सांसारिक इच्छाओं के लिए हवाओं, हथियारों, आग या पानी से युद्ध करना खतरनाक है, लेकिन मन की कोमल इच्छाओं को नष्ट करने में कोई खतरा नहीं है। क्या अच्छा है और क्या नहीं, यह बच्चों को भी पता है। इसलिए अपने मन को अच्छे में लगाओ। हमारे मन जंगल के जिद्दी शेरों की तरह हैं। उन्हें जीतने वाले सच्चे विजेता हैं और मोक्ष के हकदार हैं। धन लाभ की अतृप्त प्यास वाली हमारी इच्छाएँ खूंखार शेरों की तरह हैं। इच्छाएँ हमें खतरों की ओर ले जाती हैं और रेगिस्तान की मृगतृष्णा की तरह मायावी हैं। इच्छा रहित व्यक्ति किसी चीज की परवाह नहीं करता, चाहे तूफान आए, समुद्र मर्यादा तोड़े या बारह सूर्य एक साथ ब्रह्मांड को जला दें। मन वह जड़ है जो हमारे अच्छे और बुरे और सभी सुख और दुख के पौधों को उगाती है। मन दुनिया का पेड़ है और सभी लोग उसकी शाखाएँ और पत्ते हैं। जिसने अपने मन को इच्छाओं से मुक्त कर लिया है वह हर जगह समृद्ध होता है और वैराग्य के शासन में रहने वाला स्वर्गीय आनंद में विश्राम करता है। हम अपने मन की इच्छाओं को जितना अधिक नियंत्रित करते हैं, उतना ही अधिक हम अपनी आंतरिक खुशी महसूस करते हैं। जैसे आग बुझ जाती है, हम खुद को ठंडा पाते हैं। मन अपनी सर्वोच्च महत्वाकांक्षा में लाखों सांसारिक महलों की लालसा रखे तो भी, यह निश्चित रूप से अपनी सार के सूक्ष्म कण के भीतर उन्हें देखने के लिए फैला देगा। प्रत्याशा में धन मन के लिए चिंता से भरा होता है, और प्राप्त होने पर भी यह कम परेशान करने वाला नहीं होता। लेकिन संतोष का खजाना मन की स्थायी शांति से भरा होता है। इसलिए, अपनी सभी इच्छाओं को त्याग कर अपने लालची मन पर विजय प्राप्त करें। अपनी अ-मनन की पवित्र पुण्य, दिव्य आत्मा को जानने वालों की समता और अपने हृदय की दमित, संयमित और पराजित लालसाओं के साथ उस अ-सृजित की अवस्था को अपना बनाओ।

अध्याय 112 — मन में गति (बेचैनी) अंतर्निहित है; मन ही अपना इलाज है

वसिष्ठ कहते हैं कि मनुष्य का मन अपनी इच्छा की वस्तु के पीछे हर जगह बड़ी उत्सुकता से दौड़ता है। मन की यह उत्सुकता वांछित वस्तु को देखने के साथ उठती और बैठती है। गति मन का स्वभाव है, जैसे स्थिरता आत्मा का।

राम पूछते हैं कि मन गति से क्यों पहचाना जाता है और इसकी गति का कारण क्या है, और क्या कोई अन्य शक्ति इसकी गति को बाधित कर सकती है। वसिष्ठ उत्तर देते हैं कि उन्होंने मन की अचल शांति कभी नहीं देखी। गति मन का स्वभाव है, जैसे गर्मी आग का। मन में निहित गति की अस्थिर शक्ति दिव्य मन की स्व-प्रेरक शक्ति के समान है, जो लोकों के वेग और गति का कारण है। हवा के सार की तरह मन का वेग भी कंपन के विचार के बिना अगोचर है। गतिहीन मन को मृत और निष्क्रिय कहा जाता है, और मानसिक उत्तेजना का निलंबन योग स्थिरता की स्थिति है जो मुक्ति की ओर ले जाती है। मन का दमन दुखों को कम करता है, जबकि उत्तेजित विचार दुखों का कारण होते हैं। मन का राक्षस जागने पर खतरे और आपदाएँ बढ़ाता है, जबकि शांत होने पर खुशी और आनंद देता है। मन की बेचैनी अज्ञानता का परिणाम है, इसलिए इच्छाओं को नष्ट करने के लिए बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए और दिव्य इच्छा के प्रति समर्पण से परम आनंद प्राप्त करना चाहिए। मन वास्तविक और अवास्तविक, और बुद्धि और सुस्त पदार्थ के बीच खड़ा है, और दोनों ओर की शक्तियों से प्रभावित होता है। भौतिक शक्ति से प्रेरित मन भौतिक वस्तुओं की जांच में खो जाता है और भौतिक बन जाता है। बौद्धिक शक्ति से निर्देशित मन अमूर्त सत्यों की जांच करके बुद्धिमान बन जाता है। प्रयास, आदत और अभ्यास से किसी भी चीज को प्राप्त किया जा सकता है जिसमें मन लगाया जाए। भय से मुक्त होने और दुख रहित सत्ता पर भरोसा करने के लिए मर्दाना गतिविधियों का प्रयोग और बुद्धि का उपयोग करके मन की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करना चाहिए। भ्रमित मन को बुद्धिमान मन की शक्ति से उठाना होगा, क्योंकि मन ही मन को वश में कर सकता है। हमारे मन इस संसार के सागर से हमें उठाने वाली नावें हैं। अपने ही मन से मन के जाल को काटो और बुद्धिमान नीति से अपनी आत्मा को मुक्त करो, जो मुक्ति का एकमात्र साधन है। बुद्धिमानों को अपनी इच्छाओं को नष्ट करने दो, जिससे वे अज्ञान के बंधनों से मुक्त हो जाएंगे। सांसारिक सुखों की इच्छा त्यागो, द्वैतवाद का ज्ञान छोड़ो, इकाई और गैर-इकाई की धारणाओं से छुटकारा पाओ और एकता के ज्ञान से खुश रहो। अज्ञेय का विचार ज्ञात घटनाओं के विचारों को दूर कर देगा, जो इच्छाओं, मन और अज्ञान के विनाश के बराबर है। वह अज्ञात एक जिसके बारे में हम अनजान हैं, हमारी चेतना द्वारा ज्ञात किसी भी चीज से परे है। हमारी अचेतनता हमारा निर्वाण और अंतिम विलोपन है, जबकि हमारी चेतना हमारे दुख का कारण है। अपने ध्यान से मनुष्य घटनाओं के ज्ञान तक पहुँच जाते हैं, लेकिन उनका अज्ञान ही हमारा निर्वाण है। हे राम, जो कुछ भी मन को वांछनीय है और स्नेह की वस्तु है, उसे नष्ट कर दो, और उन्हें कुछ भी नहीं जानकर, अपनी इच्छाओं को बीज रहित अंकुरों की तरह त्याग दो और सुख और दुख की भावनाओं के बिना संतुष्ट रहो।

अध्याय 113 — अज्ञान और भ्रम (अविद्या) का वर्णन

वसिष्ठ कहते हैं कि हृदय में उठने वाली झूठी इच्छाएँ आकाश में झूठे चंद्रमाओं की तरह हैं और उन्हें त्याग देना चाहिए। अज्ञानी अज्ञान में इन इच्छाओं को पालते हैं। जो केवल नाम से जाना जाता है, वास्तविकता में नहीं, वह बुद्धिमानों के मन में नहीं टिकता। आकाश में दूसरा चंद्रमा नहीं है, यह केवल दृष्टि का भ्रम है। ईश्वर के सच्चे सार के सिवा कुछ भी वास्तविक या अवास्तविक नहीं है, जैसे पानी के सिवा लहरों में कोई सार नहीं। सब कुछ छायादार कल्पना की रचना है, इसलिए ईश्वर की शाश्वत आत्मा को कोई आकार न दो। तुम किसी के निर्माता या स्वामी नहीं हो, तो किसी कार्य या वस्तु को अपना क्यों मानते हो? तुम्हें नहीं पता कि ये अस्तित्व क्या हैं, किससे और कैसे बने हैं। कर्ता होने पर भी कर्ता मत बनो, अपनी अक्षमता को जानो। सत्य प्रिय और असत्य घृणित है, इसलिए अच्छे पर दृढ़ रहो और कर्तव्य करो। लेकिन जब संसार एक गैलरी, जादू और अवास्तविकता है, तो इसमें क्या भरोसा और सुख-दुख का क्या अर्थ?

यह संसार का अंडा एक भ्रम है, स्वयं में अस्तित्वहीन होकर भी वास्तविक दिखता है। यह व्यस्त संसार अपनी गैर-अस्तित्व से भरा एक काल्पनिक भ्रम है। यह अंदर से खोखले बांस या समुद्र की क्षणभंगुर लहरों जैसा है। यह हवा और पानी की तरह वाष्पित और झरने की तरह तेज है। यह फूलों का बाग दिखता है पर किसी काम का नहीं। मृगतृष्णा पानी दिखती है पर प्यास नहीं बुझाती। यह कभी सीधा, कभी वक्र, कभी लंबा, कभी छोटा, कभी चलता, कभी शांत दिखता है। इसमें सब कुछ भले के लिए होकर भी बुरे के लिए साजिश करता है। अंदर से खोखला होकर भी भरा दिखता है। सभी लोक गति में होकर भी स्थिर दिखते हैं। चाहे जड़ हों या चेतन, उनका अस्तित्व गति पर निर्भर है, फिर भी वे स्थिर दिखते हैं। प्रकाशवान होकर भी अंदर से काले कोयले जैसे अपारदर्शी हैं। श्रेष्ठ शक्ति से चलकर भी स्वयं चलते दिखते हैं। सूर्य के प्रकाश में फीके और अंधेरे में उज्ज्वल होते हैं। इनकी रोशनी सूर्य की किरणों के परावर्तन से बनी मृगतृष्णा जैसी है।

मानवी लालच काले, कुटिल, विषैले, पतले और कोमल सर्प जैसा है, जो स्वभाव से रूखा, खतरनाक और अस्थिर है। स्नेह की वस्तुओं के बिना संसार का प्रेम मिट जाता है, जैसे तेल बिना दीपक और सिंदूर का निशान मिट जाता है। झूठी आशाएँ बिजली की क्षणिक चमक की तरह क्षणभंगुर हैं। इच्छा की वस्तुएँ बिना मांगे मिल जाती हैं पर स्वर्ग की आग की तरह कमजोर होती हैं, जो पलक झपकते ही गायब हो जाती हैं और सावधानी से पकड़ने पर भी जला देती हैं। कई चीजें बिना मांगे सुखद दिखती हैं पर अंत में दुख देती हैं। विलंबित आशाएँ बेमौसम के फूलों की तरह हैं, जो न फल देती हैं न काम आती हैं। हर दुर्घटना दुख देती है, जैसे बुरे सपने नींद खराब करते हैं। यह हमारा भ्रम (अविद्या) है जो इतने बड़े संसार को दिखाता है, जैसे सपने एक मिनट में दृश्य बनाते, टिकाते और मिटाते हैं। भ्रम ने राजा लवण के एक मिनट को कई वर्ष और हरिश्चंद्र की एक रात को बारह वर्ष बना दिया। धनी प्रेमियों के लिए प्रिय की अनुपस्थिति में एक रात एक वर्ष जैसी लगती है। यह भ्रामक अविद्या ही धनी और सुखी के लिए समय को छोटा और गरीब और दुखी के लिए लंबा करती है, सभी भ्रम (विपर्यस) के वश में हैं। इस भ्रम की शक्ति सृष्टि के सभी कार्यों पर फैली है, जैसे दीपक का प्रकाश वस्तुओं पर फैलता है, न कि पदार्थ में। चित्र में स्त्री का रूप स्त्री नहीं और कुछ नहीं कर सकती, वैसे ही मन के चित्र में वांछित वस्तुओं का भ्रम वास्तविकता में कुछ नहीं बना सकता। भ्रम मन में बिना सार के हवाई महल बनाना है। ये सैकड़ों-हजारों रूप में दिखते हैं पर इनका कोई सार नहीं। यह अज्ञानियों को भ्रमित करता है, जैसे मृगतृष्णा हिरणों को, पर ज्ञानी को नहीं। ये दिखावे झागदार पानी की तरह क्षणिक हैं। यह भ्रम दुनिया को पकड़कर हवा में उड़ता है और अपनी प्रचंड हवाओं से उठी धूल की तरह हमें अंधा करता है। धूल, गर्मी और पसीने से ढका यह पृथ्वी को पकड़कर चारों ओर उड़ता है। भ्रमित व्यक्ति लालच में हर जगह भागता है। जैसे बादलों से गिरती बूँदें नदियाँ और समुद्र बनाती हैं, और बिखरे तिनके रस्सी बनाते हैं, वैसे ही दुनिया की सभी भ्रामक वस्तुएँ वास्तविकता और वासना का महान भ्रम बनाती हैं। कवि संसार के उतार-चढ़ाव को लहरें और संसार को कमल का बिस्तर कहते हैं, जो अस्थिर तत्व पर तैरता है। पर मैं इसे कमल के छिद्रित तने और पापों की गंदगी से भरे कीचड़ के तालाब जैसा मानता हूँ। मनुष्य अपनी उन्नति और कई चीजों के बारे में सोचते हैं, पर इस क्षयकारी दुनिया में कोई उन्नति नहीं, यह मीठे की परत वाली जहरीली केक जैसी है। यह उस दीपक की तरह है जिसकी लौ खो गई है, जो धुंध की तरह दिखती है पर पकड़ने पर कुछ नहीं निकलती। यह पृथ्वी मुट्ठी भर राख है जो उड़ने पर धूल के कण बनती है। यह ऊपरी आकाश की तरह है जो नीला दिखता है पर नीला नहीं है। पृथ्वी पर यह भ्रम आकाश में दो चंद्रमाओं, सपने में चीजों के दर्शन या नाव में यात्री को स्थिर चीजें चलती दिखने जैसा है। मनुष्य इस भ्रम से लंबे समय तक मोहित होकर संसार की लंबी अवधि की कल्पना करते हैं, जैसे वे अपने सपनों के दृश्यों की करते हैं। इस प्रकार भ्रमित मन संसार के अद्भुत निर्माणों को अपने भीतर उठते और गिरते देखता है, जैसे समुद्र की लहरें। जो वास्तविक और अच्छा है वह भ्रम में अन्यथा दिखता है, और जो अवास्तविक और हानिकारक है वह भ्रमित समझ के लिए वास्तविक और अच्छा दिखता है। हमारा प्रबल लालच, वांछित वस्तु के वाहन पर सवार होकर, क्षणिक मन का पीछा करता है जैसे पक्षी पकड़ने वाले जाल से उड़ते पक्षियों का पीछा करते हैं। भ्रम, माँ और पत्नी की तरह, कोमलlooks और मीठे दूध टपकाते स्तनों से ताज़ा आनंद देता है, पर ये आनंद हमें जहर देते हैं, जबकि वे अपने आसवन से दुनिया को ठंडा करते दिखते हैं, जैसे चंद्रमा की वर्धमान कक्षा अपनी नमी से हमें नुकसान पहुँचाती है, जबकि यह अपनी चमकीली किरणों से हमें ताज़ा करती दिखती है। अंधा भ्रम विनम्र और मूक पुरुषों को मतवाले और कोलाहलपूर्ण मूर्खों में बदल देता है, जैसे रात में शांत जंगलों में नाचते वेताल भूत। भ्रम के प्रभाव में ही हम रात में ईंटों और पत्थरों के घरों में सांपों के आकार देखते हैं। यह एक चीज को दोहरा दिखाता है, जैसे आकाश में दो चंद्रमा, और दूर की चीज को पास लाता है, जैसे सपने में। भ्रम हमें मरने का भी सपना दिखाता है। यह लंबे को छोटा दिखाता है, जैसे रात की नींद समय को छोटा करती है और एक क्षण को वर्ष जैसा बनाती है, जैसे अलग हुए प्रेमियों के मामले में। इस सारहीन अज्ञान की शक्ति को देखो, एक नकारात्मक चीज, फिर भी ऐसा कुछ भी नहीं जिसे यह बदल न सके। इसलिए अपने सही ज्ञान से इस भ्रम के मार्ग को रोकने के लिए लगनशील बनो, जैसे धारा रोककर नहर सुखाते हैं।

राम कहते हैं कि यह अद्भुत है कि एक झूठी धारणा, जिसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं और जो लगभग नगण्य है, समझ को अंधा कर दे। यह अजीब है कि बिना रूप, इंद्रिय या समझ के, अवास्तविक और क्षणभंगुर चीज दुनिया को अंधा कर दे। यह अजीब है कि अंधेरे में चमकने वाली और दिन में गायब होने वाली, अदूरदर्शी चीज दुनिया को अंधेरे में रखे। यह अजीब है कि बुराई करने को प्रवृत्त, प्रकाश में आने में असमर्थ, दृष्टि से उड़ने वाली और बिना शारीरिक रूप की चीज दुनिया को अंधा कर दे। यह आश्चर्य है कि कंजूस होकर नीच और घृणितों से संगति करने वाली और हमेशा अंधेरे में छिपने वाली दुनिया पर हावी हो। यह अद्भुत है कि मिथ्या लगातार दुख और खतरे के साथ आता है, और जो इंद्रिय और ज्ञान से रहित है, दुनिया को अंधेरे में रखे। यह आश्चर्य की बात है कि क्रोध और लालच से उत्पन्न त्रुटि, अंधेरे में कुटिलता से रेंगती और तत्काल मृत्यु के लिए उत्तरदायी, फिर भी दुनिया को अंधा रखे। यह आश्चर्यजनक है कि त्रुटि जो स्वयं अंधी, सुस्त और मूर्ख है, और जो हर समय झूठी बकवास करती है, फिर भी दूसरों को गुमराह करे। यह विस्मयकारी है कि झूठ एक आदमी को धोखा दे, उससे पत्नी की तरह चिपकने और स्नेह दिखाने के बाद, पर उसके तर्क के आने पर उड़ जाए। यह अजीब है कि आदमी त्रुटि के स्त्रीत्वपूर्ण वेशभूषा से अंधा हो जाए जो उसे बहकाती है पर उससे आँख से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं करती। यह अजीब है कि आदमी त्रुटि की अपनी विश्वासघाती पत्नी से अंधा हो जाए जिसमें कोई इंद्रिय या बुद्धि नहीं और जो मारे बिना ही मर जाती है। राम पूछते हैं कि यह त्रुटि, जो इच्छाओं में बैठी है, हृदय और मन में गहराई से निहित है और हमें बार-बार जन्म-मृत्यु और सुख-दुख के अधीन करके अंतहीन दुख के रास्तों पर ले जाती है, कैसे दूर की जाए?

अध्याय 114 — त्रुटि का वर्णन

वसिष्ठ कहते हैं कि अज्ञान के कारण मनुष्य का पत्थर जैसा अंधापन परम आत्मा की एक झलक से दूर हो जाता है। जब तक आत्मा को देखने की इच्छा नहीं उठती, अज्ञान आत्मा को दुख देता रहता है। परम आत्मा का दर्शन अज्ञान से उत्पन्न आत्म-अस्तित्व के ज्ञान को नष्ट कर देता है, जैसे सूर्य प्रकाश अंधेरे को। इच्छाएँ अज्ञान की संतान हैं और उनका विनाश मुक्ति है। इच्छा रहित मनुष्य सिद्ध है। इच्छाओं की रात की छाया दूर होने पर अज्ञान का अंधकार दूर होता है। सच्चे ज्ञान से अज्ञान गायब हो जाता है। इच्छाओं की कठोरता मन को सांसारिक बंधनों में बांधती है।

राम पूछते हैं कि अविद्या क्या है और आत्मा का स्वरूप क्या है। वसिष्ठ उत्तर देते हैं कि जो विचार का विषय नहीं, सर्वव्यापी और अगम्य है, वह सार्वभौमिक आत्मा है। यह ईश्वर के सर्वोच्च स्वर्ग से पृथ्वी के सबसे निचले स्तर तक फैला है, पर अज्ञानी इसे नहीं जानते। यह सब ब्रह्म है, शाश्वत चेतना। मन की कल्पना इस तक नहीं पहुँच सकती। यह कभी पैदा या मरता नहीं, सभी लोकों में विद्यमान है, परिवर्तन से परे है, एक और अकेला है, सर्वव्यापी और अविनाशी एकता है, जो बुद्धि स्वरूप है। इसके साथ शुद्ध चेतना है और यह आत्मा की शांत, स्थिर अवस्था है जिसे दिव्य आत्मा कहते हैं। अशुद्ध मन भौतिक वस्तुओं से परे है और इच्छाओं के पीछे दौड़ता है, चेतना द्वारा दूषित रूप में बोधगम्य है। यह सर्वव्यापी मन कल्पना में स्वयं को परम आत्मा से अलग करता है। ईश्वर की शांत आत्मा में कोई उतार-चढ़ाव नहीं, यह मन में इच्छाओं के कारण होता है जो संसार में सब कुछ उत्पन्न करती हैं। इच्छा से उत्पन्न संसार इच्छाओं के अभाव में नष्ट हो जाता है। मानवीय प्रयास परिणाम की अपेक्षा देता है, पर इच्छा रहित होने से प्रयास रुक जाते हैं और अज्ञान समाप्त होता है। “मैं ब्रह्म से अलग हूँ” यह विचार मन को बांधता है, “ब्रह्म सब कुछ है” यह मुक्त करता है। स्वार्थी विचार बंधन बनाते हैं, निःस्वार्थता मुक्ति देती है। स्वार्थी चिंताएँ छोड़ दो तो व्यर्थ में काम करना बंद हो जाएगा। आकाश में कमलों की झील नहीं होती। अज्ञान की देवी अपनी विजय पर हँसती है। हमारी इच्छाओं का जाल अवास्तविकताओं को वास्तविक दिखाता है। अज्ञान का जाल पूरी दुनिया में फैला है और लोगों को दुख देता है। लोग सांसारिक मामलों में व्यस्त हैं, पर जो स्वयं को आध्यात्मिक जानते हैं वे बंधन और श्रम से मुक्त हैं। “मैं शरीर नहीं हूँ” यह विचार बंधन से मुक्त करता है और अविद्या को कमजोर करता है। अज्ञानी अज्ञान को अंधकारमय चित्रित करते हैं, पर ज्ञानी निर्जीव वस्तुओं में भौतिक गुण नहीं देखते।

राम पूछते हैं कि आकाश नीला क्यों है यदि यह मेरु पर नीले रत्नों का परावर्तन नहीं है। वसिष्ठ कहते हैं कि आकाश खाली है, उसमें नीलापन नहीं है, न ही यह रत्नों की चमक है। ब्रह्मांडीय अंडे में प्रकाश होने से अंधेरा नहीं रह सकता। आकाश एक विशाल निर्वात है। जैसे अंधे होने पर सब अंधेरा दिखता है, वैसे ही शून्यता में दृष्टि की कमी से आकाश काला दिखता है। यह समझने से अज्ञान का अंधेरा भी वास्तविक नहीं लगता। इच्छा का अभाव अज्ञान का नाशक है। दुनिया के भ्रमों और आकाश के नीलेपन पर अविश्वास करना उनकी वास्तविकता मानने से बेहतर है। “मैं मर गया हूँ” यह विचार दुख देता है, “मैं जीवित हूँ” यह प्रसन्न करता है। मूर्खतापूर्ण कल्पनाएँ मन को सुस्त बनाती हैं, तर्क बुद्धि देता है। संसार की वास्तविकता का क्षणिक चिंतन अज्ञान में डालता है, विस्मृति नश्वर विचारों को दूर करती है। अज्ञान क्षणिक वस्तुओं के लिए प्रलोभन पैदा करता है और आत्मा के ज्ञान को नष्ट करता है, जो केवल आत्मा के ज्ञान से नष्ट होता है। मन जो चाहता है वह क्रिया के अंग तुरंत प्रदान करते हैं। आध्यात्मिकता में लगे रहने वाला मन की इच्छाओं पर ध्यान नहीं देता और शांति पाता है। जो पहले नहीं था वह अब भी नहीं है। जो दिखता है वह ब्रह्म ही है। ब्रह्म के सिवा किसी अन्य विचार में मन न लगाओ। अपनी बुद्धि का प्रयोग करो और मन के सुखों से सांसारिक इच्छाओं को जड़ से उखाड़ दो। मन में उठने वाला महान अज्ञान झूठी आशाओं का जाल फैलाता है और मृत्यु और क्षीणता का कारण बनता है। “ये मेरे पुत्र, ये मेरे खजाने, मैं ऐसा हूँ, ये मेरे हैं” यह सब अज्ञान का जादू है। शरीर एक शून्य है जिसमें इच्छाओं ने स्वार्थी विचार पैदा किए हैं। “मैं” और “मेरा” अर्थहीन हैं। ब्रह्म के सच्चे ज्ञान के सिवा कुछ भी वास्तविक नहीं। स्वर्ग और पृथ्वी, पहाड़ और नदियाँ सब अज्ञान द्वारा देखे गए विघटित दृश्य हैं। घटनाएँ अज्ञान से दिखती हैं और ज्ञान के प्रकाश में गायब हो जाती हैं, आत्मा के आधार में विभिन्न रूपों में दिखती हैं, जैसे रस्सी में सांप का भ्रम। अज्ञानी पृथ्वी, सूर्य और तारों को वास्तविक मानते हैं, ज्ञानी नहीं जिनके लिए ब्रह्म सभी जगह मौजूद है। अज्ञानी रस्सी में सांप के संदेह में रहते हैं, ज्ञानी सभी में एक ईश्वर को देखते हैं। अज्ञानियों की तरह मत सोचो, बुद्धिमानों की तरह विचार करो। सांसारिक इच्छाएँ त्यागो और स्वयं को गैर-स्वयं मत मानो। इस सुस्त शरीर का क्या लाभ, जो सुख-दुख से अभिभूत होता है? जैसे पेड़, गोंद, फल और बीज अलग हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा अलग हैं। एक धौंकनी के जलने से दूसरी नहीं रुकती, वैसे ही शरीर के नष्ट होने से प्राणवायु नष्ट नहीं होती। “मैं सुखी या दुखी हूँ” यह विचार मृगतृष्णा में पानी जैसा झूठा है। सुख-दुख की गलत धारणाएँ त्यागकर सत्य पर भरोसा रखो। यह आश्चर्यजनक है कि मनुष्य सच्चे ब्रह्म को भूलकर झूठे अज्ञान पर भरोसा करते हैं। हे राम, अपने मन में अज्ञान को स्थान मत दो, यह तुम्हें दुनिया की त्रुटियों को पार करने में मुश्किल करेगा। अज्ञान एक झूठा राक्षस है जो मजबूत मन को भी भ्रमित करता है, यह अंतहीन दुखों का कारण है और भ्रम के जहरीले फल पैदा करता है। यह चंद्रमा की ठंडी किरणों में नरक की आग की कल्पना करता है, लहरों वाले पानी में रेगिस्तान और शरद ऋतु के बादलों में मृगतृष्णा देखता है। अज्ञान खाली हवा में महल बनाता है और बादलों में टावरों के गिरने का भ्रम पैदा करता है। यह हमारी कल्पना का भ्रम है जो सपनों में सुख-दुख महसूस कराता है। यदि मन सांसारिक इच्छाओं से भरा नहीं है, तो दिवास्वप्नों के खतरों का कोई डर नहीं। झूठा ज्ञान जितना मन को पकड़ता है, उतना ही नरक की यातनाएँ महसूस होती हैं। त्रुटि से छेदित मन दुनिया को घूमता हुआ देखता है। अज्ञान मन पर कब्जा कर लेता है, राजकुमारों को किसान बना देता है। इसलिए, हे राम, सांसारिक इच्छाएँ त्याग दो जो आत्मा को बांधती हैं। शुद्ध क्रिस्टल की तरह रहो, निष्कलंक मन में सब कुछ प्रतिबिंबित करते हुए। किसी भी लगाव से कलंकित हुए बिना अपने कर्तव्य करो। सतर्क मन से सब कुछ जानकर, समर्पण से कर्तव्य निभाकर और उदात्त मन से सामान्य मार्ग से दूर रहकर, तुम दूसरों से ऊपर उठोगे।

अध्याय 115 — सुख और दुख के कारण

वसिष्ठ के प्रोत्साहन से राम के नेत्र खिल गए। उन्होंने पृथ्वी को अज्ञान का परिणाम बताया और लवण के भाग्य, देहधारी आत्मा और शरीर के संबंध, सक्रिय कर्ता और कर्मफल के भोक्ता के बारे में पूछा।

वसिष्ठ ने कहा कि शरीर एक खाली फ्रेम है जो बुद्धि के प्रतिबिंब को मन के रूप में धारण करता है। मन जीवित सिद्धांत और विचार की शक्ति है, जो दुनिया के व्यस्त महल में एक अस्थिर नाव और चंचल बंदर की तरह है। शरीर में सक्रिय सिद्धांत मन, जीवन और अहंकार कहलाता है, जो शरीर में विभिन्न कार्य करता है। अप्रबुद्ध अवस्था में यह सुख-दुख भोगता है, जबकि शरीर इनसे असंबंधित है। अप्रबुद्ध मन स्वप्न की तरह दुनिया को देखता है, जो जागृत मन के लिए अज्ञात है। जब तक जीव जागृत नहीं होता, वह सांसारिक त्रुटियों के कोहरे में रहता है। प्रबुद्धों का अंधकार सूर्योदय पर कमल के बिस्तरों से रात की छाया की तरह दूर हो जाता है। जिसे विद्वान हृदय, मन, आत्मा, अज्ञान, इच्छा और क्रिया का सिद्धांत कहते हैं, वही सुख-दुख भोगने वाला देहधारी प्राणी है। शरीर सुस्त है और सुख-दुख से अनजान है। देहधारी प्राणी अपने अज्ञान और तर्कहीनता से सुख-दुख भोगता है, और स्वयं अपने दुख का कारण है। व्यक्तिगत आत्मा अपने अच्छे-बुरे कर्मों का भोक्ता है और अपनी तर्कहीनता से शरीर में बंधा रहता है, जैसे रेशम का कीड़ा कोकून में। मन अज्ञान से बंधकर विभिन्न कार्य करता है और पहिये की तरह घूमता है। शरीर में रहने वाला मन उसे उठाता-बैठाता, खिलाता-पिलाता, चलाता-फिराता, चोट पहुँचाता और मारता है, ये सब मन के कार्य हैं। जैसे घर का स्वामी कार्य करता है, घर नहीं, वैसे ही मन शरीर में कार्य करता है। मन सभी कार्यों, जुनूनों और शरीर के सुख-दुख का सक्रिय और निष्क्रिय कर्ता है। मन ही मनुष्य को बनाता है।

वसिष्ठ ने लवण की कहानी का नैतिक बताया कि मन को अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। लवण ने अपने मन में राजसूय यज्ञ करने का विचार किया और सभी अनुष्ठान मन में ही किए। उसने अपनी संपत्ति दान कर दी और शाम को उसी वन में जाग गया, इस प्रकार मन की संतुष्टि से यज्ञ का पुण्य प्राप्त किया। मन सुख-दुख का प्राप्तकर्ता है, इसलिए मन की शुद्धि पर ध्यान देना चाहिए। हर मनुष्य अपने मन में पूर्ण होता है, लेकिन जो खुद को केवल शरीर मानता है वह खो जाता है। मन के परालौकिक तर्क के प्रति जागृत होने पर सभी दुख दूर हो जाते हैं, जैसे सूर्य की किरणें कमल की कली से अंधकार दूर करती हैं।

अध्याय 116 — राजा लवण के अनुभव का नैतिक; सृष्टि और मुक्ति का सारांश

राम ने पूछा कि लवण को जादूगर के जादू से आदिवासी बनने पर अपने मानसिक राजसूय यज्ञ का फल कैसे मिला। वसिष्ठ ने बताया कि वे स्वयं लवण के दरबार में उपस्थित थे और उन्होंने सब कुछ देखा था। जादूगर के जाने के बाद, लवण ने उनसे पूछा कि क्या हुआ था। वसिष्ठ ने विचार करके जादू के अर्थ को समझाया। उन्होंने याद दिलाया कि राजसूय यज्ञ करने वालों को बारह वर्षों तक कष्ट सहने पड़ते हैं। इंद्र ने लवण पर दया करके जादूगर के रूप में अपने दूत को भेजा ताकि उसकी विपत्ति टल जाए। जादूगर ने राजा को सपने में कठिनाइयाँ दीं और फिर देवताओं के लोक चला गया। इस प्रकार मन सभी कार्यों का सक्रिय और निष्क्रिय कर्ता है। हृदय की गंदगी मिटाकर और मन के रत्न को चमकाकर, बुद्धि की आग से मन को पिघलाकर सर्वोच्च कल्याण प्राप्त किया जा सकता है। मन अज्ञान के समान है जो जादुई शक्ति से अनेक प्राणी और वस्तुएँ दिखाता है। अज्ञान, मन, समझ और व्यक्तिगत आत्मा एक ही हैं। इस सत्य को जानकर इच्छाओं से मुक्त स्थिर मन रखो। बुद्धि के सूर्य के उदय से इच्छा और अनिच्छा का अंधकार दूर हो जाता है। दुनिया में ऐसा कुछ नहीं जिसे तुम न देख सको, अपना न बना सको या तुमसे छीना जा सके। सब कुछ हर समय सब कुछ बन जाता है। सभी विद्यमान शरीर और उनके गुण ब्रह्म में मिलते हैं, जैसे मिट्टी के बर्तन पानी में पिघल जाते हैं।

राम ने पूछा कि स्वाभाविक रूप से चंचल मन को कैसे रोका जाए। वसिष्ठ ने कहा कि बेचैन मन को शांत करने का उचित तरीका वे बताएंगे, जिससे मन की शांति मिलेगी और इंद्रियों के कार्यों से मुक्ति मिलेगी। उन्होंने पहले प्राणियों के उत्पादन की त्रिविध प्रकृति के बारे में बताया था। पहला ब्रह्मा है जिसने दिव्य इच्छा का रूप धारण किया और अपनी उपस्थिति में जो कुछ भी उत्पन्न करना चाहा उसे देखा, जिससे भौतिक प्रणाली अस्तित्व में आई। उसने मन में जन्म-मृत्यु, सुख-दुख, प्रकृति का क्रम और अज्ञान के प्रभाव जैसे अनेक परिवर्तनों के बारे में सोचा। फिर अपनी इच्छानुसार उन्हें निर्धारित करके वह स्वयं से गायब हो गया। इस प्रकार इच्छा का देवता बार-बार उठता और अस्त होता है। इस ब्रह्मांडीय अंडे में लाखों ब्रह्मा पैदा हुए हैं। सभी जीवित प्राणी ब्रह्मा के समान स्थिति में हैं, लगातार ईश्वर की सत्ता से आगे बढ़ते हैं। ब्रह्मा से निकलने वाली मानसिक शक्ति शून्यता पर टिकी है। फिर ईथर के सार से जुड़कर यह इच्छा के आकार में ठोस हो जाती है। फिर पदार्थ का लघु रूप पाकर यह पाँच तत्वों का सार बन जाती है। बाद में आंतरिक इंद्रियों को ग्रहण करके यह पाँच तत्वों के सूक्ष्म कणों से बना एक प्रारंभिक शरीर बन जाती है। यह अनाज और सब्जियों में प्रवेश करती है, जो भोजन के रूप में जानवरों के पेट में फिर से प्रवेश करती हैं। इस भोजन का सार वीर्य के रूप में अनंत तक जीवित प्राणियों को जन्म देता है। नर बच्चा बचपन से युवावस्था और फिर पुरुषत्व को प्राप्त करता है। पुरुष अपनी आंतरिक संकायों से सही-गलत का विवेक करके चयन और अस्वीकार करना सीखता है। सही विवेक रखने वाला व्यक्ति योग ध्यान के ज्ञान से अपने भले और मन के ज्ञान के लिए अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त करता है।

अध्याय 117 — अज्ञान की सात अवस्थाएँ

राम ने योग ध्यान के आधार और सात सिद्धियों के बारे में पूछा। वसिष्ठ ने बताया कि ये अज्ञान की सात अवरोही और ज्ञान की सात आरोही अवस्थाएँ हैं, जो आपस में मिलकर कई और अवस्थाएँ बनाती हैं।

अज्ञान की सात अवस्थाएँ हैं: भ्रूण जागृति, साधारण जागृति, तीव्र जागृति (जागृति की तीन अवस्थाएँ), जागता सपना, सोता सपना, नींद में जागना और गहरी नींद (सुषुप्ति) (सपने की चार अवस्थाएँ)।

ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था अपना सच्चा स्वभाव जानना है। इससे भटकना अज्ञान है जो संसार के बंधन की ओर ले जाता है। शुद्ध चेतना के प्रति जागरूक रहने वाले अज्ञान से मुक्त रहते हैं। आत्म-जागरूकता भूलकर ज्ञेय वस्तुओं के विचारों में डूबना सबसे बड़ा अज्ञान है। दो विचारों के बीच मन का विश्राम आत्मा का अपने स्वरूप में विश्राम है। मन के शांत होने पर आत्मा की शांत अवस्था स्वयं की पहचान में विश्राम है। अहंकार और द्वैत के ज्ञान से रहित आत्मा अपनी अविनाशी बुद्धि से चमकती है और सार्वभौमिक आत्मा से अभिन्न होती है।

अज्ञान की विभिन्न अवस्थाएँ शुद्ध आत्मा की इस अवस्था को छिपाती हैं। भ्रूण जागृति सभी का कभी जागता बीज है और संज्ञान की पहली अवस्था है। साधारण जागृति अहंकार के व्यक्तिगत व्यक्तित्व में विश्वास है। तीव्र जागृति अपने कर्मों के फल से "मैं ऐसा हूँ और यह मेरा है" का दृढ़ विश्वास है। जागता सपना पूर्वाग्रह या गलती से किसी चीज की वास्तविकता का संज्ञान है, जैसे मृगतृष्णा में पानी देखना। नींद में सपने कई प्रकार के होते हैं और अल्पकालिक होने के कारण उनकी सच्चाई पर संदेह होता है। नींद से जागने के बाद सपने में देखी गई चीजों पर भरोसा करना जागता सपना कहलाता है और यह केवल स्मृति के रूप में रहता है। लंबे समय से न देखी गई चीज सपने में धुंधली दिखने पर भी जागृत अवस्था की वास्तविक चीज मानी जाए तो वह भी जागता सपना है। पूरे शरीर या मृत शरीर में देखा गया सपना जागृत अवस्था का प्रेत जैसा दिखता है। गहरी नींद (सुषुप्त) व्यक्तिगत आत्मा की सुस्त अवस्था है जिसमें भविष्य के सुख-दुख महसूस किए जा सकते हैं। इस अवस्था में सभी बाहरी वस्तुएँ धूल के कण जैसी दिखती हैं, जैसे ध्यान में दुनिया का लघु रूप दिखता है।

सच्चे ज्ञान और त्रुटि की विशेषताओं को संक्षेप में बताया गया है, लेकिन प्रत्येक अवस्था सौ रूपों में विभाजित हो जाती है। एक लंबा निरंतर जागता सपना जागृत अवस्था कहलाता है और यह अपनी वस्तुओं की विविधता के अनुसार बदलता रहता है। जागृत अवस्था में ईश्वर की जागृत आत्मा की स्थितियाँ शामिल हैं, लेकिन इनमें कई चीजें पुरुषों को एक त्रुटि से दूसरी त्रुटि में गुमराह करती हैं। नींद में कुछ लंबे सपने दिन के उजाले जैसे दिखते हैं, जबकि जागृत अवस्था के दिवास्वप्न रात के सपनों से बेहतर नहीं होते। अज्ञान के इन सात आधारों और उनकी सभी किस्मों से बुद्धि के सही उपयोग और स्वयं में परम आत्मा के दर्शन से बचना चाहिए।

अध्याय 118 — ज्ञान की सात अवस्थाएँ

वसिष्ठ ने ज्ञान की सात अवस्थाओं के बारे में बताया जो अज्ञान के कीचड़ से बचाती हैं और परम मुक्ति के लिए पर्याप्त हैं। ज्ञान समझना है, और मुक्ति इन सात अवस्थाओं को जानने से परे है। सत्य का ज्ञान ही मुक्ति है, ज्ञान, सत्य और मुक्ति पर्यायवाची हैं।

ज्ञान के आधार हैं:

  1. अच्छाई की इच्छा: सांसारिक विषयों से वैराग्य से उत्पन्न, अच्छे लोगों की संगति में शास्त्रों को जानने का विचार।

  2. विवेक: बुद्धिमानों की संगति, शास्त्रों का अध्ययन, सांसारिकता से घृणा, अच्छे आचरण और अच्छे कर्मों की ओर झुकाव से उत्पन्न।

  3. मन का दमन: अच्छी इच्छा और विवेक से उत्पन्न, इंद्रिय सुखों से मन को रोकना।

  4. आत्मनिर्भरता: आत्मा के सच्चे आश्रय के रूप में दिव्य आत्मा पर निर्भरता, ऊपर के तीन गुणों से प्राप्त।

  5. सांसारिक उदासीनता: पहले चार आधारों से प्राप्त, सभी सांसारिक चिंताओं और समाज से वैराग्य।

  6. अमूर्तता की शक्ति: चीजों के अमूर्त अर्थों में विश्लेषणात्मक विचार, स्वयं के प्रयास या मार्गदर्शन से पोषित।

  7. सामान्यीकरण (तुर्य-गति): इन छह गुणों का निरंतर अभ्यास, धर्मों में अंतरों का अज्ञान, और सभी को एक सच्चे ईश्वर के ज्ञान तक कम करना।

मुक्ति इनके अंत में बिना कठिनाई के प्राप्त होती है। सामान्यीकरण वह अवस्था है जहाँ मुक्त पुरुष सभी चीजों को समान प्रकाश में देखता है। इससे ऊपर विदेह आत्मा का शानदार प्रकाश है। सातवीं अवस्था के ज्ञानी अपनी आत्मा के प्रकाश में आनंद लेते हैं और मानवता की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचते हैं। जीवित मुक्त सुख-दुख में विचलित नहीं होते और अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए स्वतंत्र होते हैं। वे आंतरिक आनंद में मग्न होने के कारण सांसारिक सुखों में आनंद नहीं लेते। ज्ञान की ये सात अवस्थाएँ केवल बुद्धिमानों के लिए ज्ञात हैं और ज्ञान अज्ञान के बंधनों को काटता है और मुक्ति प्रदान करता है। जो अज्ञान से मुक्त हो गए हैं लेकिन परम मुक्ति तक नहीं पहुँचे हैं, वे इन ज्ञान की अवस्थाओं में रहकर अपनी आत्मा का उद्धार सुरक्षित करते हैं। कुछ ने सभी चरण पार कर लिए हैं, कुछ ने कम। ज्ञान के इन मार्गों पर चलने वालों के बारे में आम लोग अंधे हैं। ज्ञान के इन सात आधारों पर विजयी बुद्धिमान राजाओं के समान हैं और वंदनीय हैं।

अध्याय 119 — सोने की अंगूठी का दृष्टांत: रूप बनाम सार

वसिष्ठ कहते हैं कि अहंकार पर विचार करने से आत्मा परम आत्मा के सार को भूल जाती है, जैसे सोने की अंगूठी अपने गोल आकार पर सोचते हुए सोने के पदार्थ को भूल जाती है। राम पूछते हैं कि सोने को अंगूठी के रूप का होश कैसे हो सकता है। वसिष्ठ कहते हैं कि मनुष्य की चेतना पदार्थ से संबंधित है, रूप से नहीं। जौहरी अंगूठी के पदार्थ, सोने की कीमत लेता है, न कि केवल रूप की। राम पूछते हैं कि यदि सोना ही अंगूठी है तो अंगूठी का क्या होता है, ताकि वे ब्रह्म के सार को जान सकें।

वसिष्ठ कहते हैं कि सभी रूप सारहीन और आकस्मिक गुण हैं। बांझ स्त्री के पुत्र का कोई रूप नहीं होता। अंगूठी के गोलपन को उसका आवश्यक गुण मानना त्रुटि है। मृगतृष्णा में पानी, दो चंद्रमा, अहंकार और वस्तुओं के रूप वास्तविक दिखने पर भी अपने विषयों से अलग अस्तित्व नहीं रखते। सीप में चांदी दिखती है पर होती नहीं। अविवेकी दृष्टिकोण से कुछ भी वास्तविक नहीं दिखता। अवास्तविक छाया वास्तविक पदार्थ का काम कर सकती है, जैसे भूत का डर लड़के को मार सकता है। आभूषण का रूप नष्ट होने पर सोना ही बचता है। रूप पदार्थ में समा जाते हैं। पृथ्वी पर हमारे मस्तिष्क की झूठी रचनाओं के अलावा कुछ भी वास्तविक या अवास्तविक नहीं है, और ये अपने परिणाम उत्पन्न करते हैं। कोई चीज जैसी मानी जाती है वैसी ही सिद्ध होती है। केवल आत्मा के सार में विश्वास सच्चा ज्ञान है। व्यक्तिगत अहंकार में विश्वास अज्ञान है, इसलिए इसे त्याग दो। जैसे सोने में अंगूठी का गोलपन निहित नहीं है, वैसे ही सार्वभौमिक आत्मा में व्यक्तिगत अहंकार नहीं हैं। ब्रह्म के सिवा कुछ भी शाश्वत नहीं और उसका कोई व्यक्तिगत रूप नहीं। दुनिया जैसी कोई सारभूत सत्ता नहीं, केवल ब्रह्म की संतान पितृपुरुष हैं। ब्रह्म के अलावा कोई लोक या स्वर्ग नहीं। सब कुछ उस आत्मा में है जो इनमें से कुछ नहीं है। वह कोई मौलिक सिद्धांत या भौतिक कारण नहीं, तीनों काल और होने या न होने से परे है। वह व्यक्तिगत अहंकार, स्वत्व और स्वार्थ से परे है। उसमें कोई गुण या विशेषता नहीं, वह सभी विचारों से ऊपर है। वह दुनिया की पूर्णता है, सबका समर्थन करता है पर स्वयं असमर्थित है, शाश्वत आनंद है जिसका कोई नाम, प्रतीक या कारण नहीं। वह न तो सत्ता है न गैर-सत्ता, न आदि है न अंत, बल्कि सब कुछ है। वह मन में अचिंतनीय और वाणी से अकथनीय है, शून्यता में शून्यता और सभी आनंद से परे आनंद है।

राम पूछते हैं कि यदि ब्रह्म सब में समान है तो यह सृष्टि क्या है। वसिष्ठ कहते हैं कि परम आत्मा शांत है और सब उसमें स्थित है, इसलिए सृष्टि की बात करना गलत है क्योंकि ऐसी कोई चीज कभी नहीं थी। सब कुछ ईश्वर की आत्मा में है, जैसे पानी महासागर में। पानी में तरलता से उतार-चढ़ाव होता है, पर ईश्वर की आत्मा शांत है। प्रकाशकों का प्रकाश स्वयं पर चमकता है, पर दिव्य प्रकाश नहीं। सभी प्रकाश स्वयं पर चमकते हैं, पर ब्रह्म का प्रकाश अदृश्य है। जैसे समुद्र में लहरें उठती-गिरती हैं, वैसे ही ये घटनाएँ ईश्वर के मन में विचार हैं। कम समझ वाले इन विचारों को वास्तविकता मानते हैं। सृष्टि दिव्य मन का विचार है, ईश्वर के मन से अलग नहीं, जैसे आकाश अनंतता का हिस्सा है। दुनिया का बनना-बिगड़ना दिव्य मन के विचार हैं, जैसे सोने में आभूषणों का बनना-बिगड़ना। शांत मन सृष्टि को ईश्वर की उपस्थिति से परिपूर्ण देखता है। अपनी धारणाओं से भटकने वाले गैर-विद्यमान को वास्तविक मानते हैं, जैसे बच्चे भूतों को। व्यक्तिगत अहंकार की चेतना सृष्टि के वस्तुनिष्ठ ज्ञान की त्रुटि का कारण बनती है। हमारी शांत अचेतनता हमें सर्वोच्च के ज्ञान तक ले जाती है। बुद्धिमान सभी सृष्ट वस्तुओं को ईश्वर की एकता में देखते हैं, जैसे वे जानते हैं कि खिलौना सैनिक मिट्टी के बने होते हैं। दुनिया की यह प्रचुरता बिना आदि-अंत की है और ईश्वर की पूर्णता से परिपूर्ण है। यह पूर्णता जो सृष्ट दुनिया के रूप में दिखती है, वास्तव में महान ब्रह्म है और उसकी महानता में स्थित है। दर्पण में लंबे परिदृश्य का प्रतिबिंब या लघुचित्र में शहर का चित्र देखने से दूरियाँ निकटता में खो जाती हैं। वैसे ही लोकों की दूरियाँ ईश्वर की आत्मा में निकटता में खो जाती हैं। कुछ दुनिया को गैर-सत्ता और कुछ सत्ता मानते हैं। आखिरकार, इसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं हो सकता, यह शहर के चित्र जैसा है न कि शहर स्वयं। यह रेगिस्तानी मृगतृष्णा में पानी या आकाश में दो चंद्रमाओं जितना झूठा है। जादूगर धूल छिड़क कर हवा में जादुई शहर दिखाते हैं, वैसे ही हमारी झूठी चेतना अवास्तविक दुनिया को वास्तविकता के रूप में दर्शाती है। जब तक हमारा जन्मजात अज्ञान सही तर्क की लौ से जड़ से नहीं जल जाता, तब तक यह काल्पनिक सुख-दुखों के खरपतवार उगाना बंद नहीं करेगा।

अध्याय 120 — राजा लवण उस वन का दौरा करते हैं जहाँ वे एक आदिवासी के रूप में रहे थे; आदिवासी महिला का विलाप

वसिष्ठ कहते हैं कि त्रुटि की शक्ति बदलते हुए दृश्यों में दिखती है, जैसे सोने में आभूषणों के बदलते रूप। राजा लवण ने सपने के अंत में अपने दर्शन की असत्यता जानकर अगले दिन स्वयं उस वन का दौरा करने का निश्चय किया जहाँ वे आदिवासी के रूप में रहे थे। उन्हें उस जीवन की कठिनाइयाँ याद थीं। वे मंत्रियों और सेवकों के साथ दक्षिण की ओर गए और कुछ दिनों में पर्वत की तलहटी पर पहुँचे। उन्होंने समुद्र के तटों पर भ्रमण किया और उसी क्षेत्र में पहुँचे जो उन्होंने सपने में देखा था। उन्होंने सपने के आदिवासी शिकारियों को पहचाना और आगे की घटनाएँ जानने के लिए वन में घूमते रहे।

फिर उन्होंने जंगल के किनारे एक बस्ती देखी, जहाँ उन्होंने पुष्टपुक्कुशा का नाम धारण किया था। वहाँ उन्होंने वही झोपड़ियाँ, खेत और लोग देखे जो पहले थे। उन्होंने वही सूखा परिदृश्य और शिकार करते शिकारी देखे। उन्होंने बूढ़ी महिला (उनकी सास) को अन्य महिलाओं के साथ विलाप करते देखा, जो अपने बच्चों और पतियों की मृत्यु पर शोक मना रही थीं। वे भूख और सूखे से पीड़ित थे। बूढ़ी महिला ने अपने मृत बच्चों के बारे में विलाप किया, उनकी मीठी मुस्कानों और उनके साथ बिताए पलों को याद किया। उसने अपनी बेटी और पति के चले जाने पर दुख व्यक्त किया, अपनी दीन स्थिति और गरीबी का वर्णन किया। उसने कहा कि दुर्भाग्यशाली और मित्रहीन के लिए दुख में जीने से मर जाना बेहतर है।

राजा ने अपनी बूढ़ी सास को इस प्रकार शोक मनाते देखकर उसकी महिला साथियों के माध्यम से उसे सांत्वना दी। फिर उन्होंने उस महिला से पूछा कि वह कौन है और यहाँ क्या करती है। उसने आँसुओं के साथ उत्तर दिया कि इस गाँव का नाम पुक्कसा-घोष है। यहाँ उसका पति पुक्कसा था और उनकी एक चंद्रमा जैसी कोमल बेटी थी। बेटी का विवाह एक सुंदर राजा से हुआ जो संयोग से इस रास्ते से गुजरा था। वे विवाहित सुख में लंबे समय तक रहे और उनके बेटे और बेटियाँ हुईं जो इस वन में पली-बढ़ीं।

अध्याय 121 — राजा लवण के स्वप्न की वास्तविकता का स्पष्टीकरण; मन की निरर्थकता का प्रमाण

आदिवासी ने राजा लवण को बताया कि वर्षा की कमी से अकाल पड़ा और गाँव के लोग बिखर गए, जिससे वे अत्यंत दुखी हैं। राजा यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गए क्योंकि यह उनके सपने की घटनाओं से मेल खाता था। उन्होंने उनकी पीड़ा के प्रति सहानुभूति व्यक्त की और उन्हें उपहार दिए। बाद में दरबार में उन्होंने वसिष्ठ से अपने सपने के सत्यापित होने के बारे में पूछा।

वसिष्ठ ने बताया कि अज्ञान का भ्रम असत्य को सत्य और सत्य को असत्य दिखाता है। सपने में असंभव संभव दिखता है, और स्थिर अस्थिर। मन अपनी कल्पना के अनुसार चीजें देखता है, चाहे वे वास्तविक हों या न हों। “मैं” और “तुम” की झूठी धारणाओं से अज्ञान बढ़ता है। लवण के सपने की स्मृति ने उन्हें उस स्थान की बाहरी तस्वीर को वास्तविकता के रूप में दिखाया। जैसे मन वास्तविक घटनाओं को भूल सकता है, वैसे ही अवास्तविक विचारों को सत्य मान सकता है। लवण के सपने का प्रभाव आदिवासियों के मन पर भी पड़ा, जैसे उनके विचार राजा के मन में उठे थे। विभिन्न लोगों के मन में एक साथ समान विचार आ सकते हैं। धारणाएँ और विचार स्वयं चीजों के लिए खड़े होते हैं। एक विचार में कई अन्य विचार समाहित होते हैं। किसी चीज का अस्तित्व या गैर-अस्तित्व उसकी धारणा पर निर्भर करता है। हमारी त्रुटि में जो कुछ भी हम देखते हैं वह रेत में तेल जितना गैर-विद्यमान है। कंगन सोने का ही रूप है। भ्रम का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं। सभी चीजें आत्मा से परिपूर्ण हैं और मन भी आध्यात्मिक पदार्थ हैं। दुनिया में सभी चीजें बौद्धिक रूप से सत्य हैं और उनके विचार हमारे मन में अंकित हैं। असमान चीजों के बीच स्थायी संबंध नहीं हो सकता। समान चीजें मिलकर एक ही रूप बनाती हैं। चेतना अमूर्त विचार से मिलकर अदृश्य विचार बनाती है। चेतना और पदार्थ अलग-अलग प्रकृति के कारण कभी नहीं मिल सकते। आध्यात्मिक रूप से सभी चीजें समान हैं। दर्शक और दृश्य के बीच भेद त्रुटियाँ पैदा करता है। अदृश्य आत्माओं का संयोजन आसान है क्योंकि वे कोई भी रूप ले सकती हैं। सभी चीजें ईश्वर की सत्ता के साथ अभिन्न हैं। गैर-सत्ताओं के ज्ञान का त्याग करके एक को सब के रूप में जानो। चेतना ज्ञान से परिपूर्ण है और सब कुछ प्रस्तुत करती है। अज्ञान निर्माता को रचना से अलग करता है। सोने के पदार्थ को भूलकर आभूषण का रूप मानना त्रुटि है। एकता का ज्ञान भेद के ज्ञान को दूर करता है। एक ही ब्रह्म बाहरी दुनिया की वास्तविकता की त्रुटि का कारण बनता है। मन एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय शरीर को बीच में छोड़ देता है। हमेशा उस शांत अवस्था में रहो जो जागना, सपना देखना या सोना नहीं है। अपनी सुस्ती दूर करके बुद्धि के साथ रहो। सुख-दुख में अपनी आत्मा को निर्माता को सौंप दो। इस दुनिया में खोने या पाने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए समान आनंद में रहो। आत्मा न प्यार करती है न घृणा, इसलिए शांत रहो और शरीर के बारे में मत डरो। अपने मन को शरीर के कार्यों में मत लगाओ। वर्तमान की चिंता मत करो और मन के आवेगों से प्रेरित मत हो। सभी से बेखबर रहो। अपने मन को पत्थर या लकड़ी के खिलौने की तरह रखो। अपनी आत्मा के प्रकाश से मन को निर्जीव देखो। आध्यात्मिक मनुष्य में कोई मानसिक क्रिया नहीं होती। अनियंत्रित स्वार्थी मन बर्बरों के रीति-रिवाजों का पालन करने वाले व्यक्ति जैसा है। नीच मन के आदेशों की उपेक्षा करके आराम से रहो। जो समझता है कि मन जैसी कोई चीज नहीं है वह अचल हो जाता है। मन की कोई उपस्थिति नहीं होने पर, व्यर्थ में उसके अस्तित्व का अनुमान क्यों लगाते हो? मन के झूठे दर्शन के अधीन होने वाले अस्वस्थ समझ वाले होते हैं जो खुद पर विनाश लाते हैं। अपने मन को दूर फेंककर अपनी आत्मा में दृढ़ रहो। परम आत्मा के विचार में स्थिर होकर दुनिया के विचारों से मुक्त हो जाओ। अवास्तविक मन का पालन करने वाले मूर्खों की तरह हैं। जिसने अपने मन को साफ कर लिया है वह महान समझ वाला है और आत्मा में शुद्ध हो गया है। शुद्ध आत्मा में अशुद्ध मन जैसी कोई चीज नहीं मिली।

अध्याय 122 — आत्मा या स्व का निश्चय

वसिष्ठ कहते हैं कि मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए अच्छे और बुद्धिमानों की संगति में रहना चाहिए और शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए। तर्क से मनुष्य अच्छे और बुरे का विवेक कर सकता है और सद्भावना प्राप्त कर सकता है। ज्ञान बढ़ने से अनुचित इच्छाएँ दूर होती हैं और मन शुद्ध होता है। पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने पर योगी अच्छाई की अवस्था में पहुँचता है और इच्छाओं को कम करके सांसारिक मामलों से वैराग्य प्राप्त करता है, जिससे वह कर्मों के परिणामों से मुक्त हो जाता है। योगी अपने मन को दुनिया की अवास्तविकताओं से हटा लेता है और हमेशा वास्तविक कल्याणकारी कार्यों में लगा रहता है। जिसने मन को वश में कर लिया है वह योग ध्यान की चिंतनशील अवस्था प्राप्त करता है और बाहरी विचारों से परहेज करके कर्तव्य निभाता है, जिससे वह जीवनकाल में ही मुक्त हो जाता है। मुक्त पुरुष सुख-दुख से अप्रभावित रहता है और जो मिलता है उससे संतुष्ट रहता है।

वसिष्ठ राम से कहते हैं कि उन्होंने सब कुछ जान लिया है और अपनी इच्छाओं को बुझा दिया है। उन्हें सुख-दुख में लिप्त नहीं होना चाहिए क्योंकि वे क्षय और दोष से मुक्त शुद्ध और सर्वव्यापी आत्मा हैं। आत्मा का कोई उदय या पतन नहीं है और वह अविनाशी है। शरीर के नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होती, जैसे घड़ा टूटने पर उसकी शून्यता नष्ट नहीं होती। आत्मा की एकता के लिए द्वैत की आवश्यकता नहीं होती। इंद्रियों का कोई भी विषय असंबद्ध आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकता। सभी शक्तियाँ सर्वशक्तिमान आत्मा में समाहित हैं। मानसिक धोखा तीन लोकों के दृश्य प्रस्तुत करता है। मन के भ्रम को मन की शांति, इच्छाओं को नष्ट करने और कर्मों का त्याग करने से दूर किया जा सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान का अज्ञान त्रुटियों का कारण है, जबकि इसका ज्ञान आनंद और ब्रह्म की ओर ले जाता है। सभी चीजें एक ही आनंदमय सत्ता से उत्पन्न हुई हैं। तीन लोक दिव्य मन के विचार में विद्यमान हैं। मन जिसे ब्रह्मा कहते हैं, सभी अस्तित्व की आत्मा है। शुद्ध शाश्वत सत्ता की धारणा चेतना और आत्मा कहलाती है, जो आकाश से भी अधिक पारदर्शी है और दुनिया को अपने प्रतिबिंब के रूप में समाहित करती है। दुनिया के अवास्तविक प्रतिबिंब को अलग अस्तित्व मानना अज्ञान है। विदेह शुद्ध चेतना रूपी आत्मा सांसारिक व्यर्थताओं से अप्रभावित रहती है। बुद्धिहीनों की अविनाशी चेतना भी शरीर के विनाश से नष्ट नहीं होती। चेतना अप्रतिरोध्य है और सौर पथ पर घूमती है। बौद्धिक भाग मनुष्य को बनाता है, शरीर नहीं। आंतरिक पुरुष (पुरुष) शरीर की मृत्यु पर नहीं मरता। सांसारिक दुख शरीर को प्रभावित करते हैं, आत्मा को नहीं। बौद्धिक आत्मा मन से परे है और सुख-दुख से अप्रभावित रहती है। जिसने सांसारिक इच्छाओं को नियंत्रित कर लिया है वह शरीर के नष्ट होने पर ब्रह्म में उसी प्रकार उड़ जाता है जैसे कमल में छिपी मधुमक्खी दिन के उजाले में उड़ जाती है। जीवन क्षणभंगुर है, इसलिए शरीर के नष्ट होने पर शोक नहीं करना चाहिए। सत्य और मन के स्वरूप पर विचार करना चाहिए और सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होकर आत्मा को इच्छा रहित जानना चाहिए। शांत आत्मा बिना किसी इच्छा के ईश्वर के प्रतिबिंब को प्राप्त करती है, जैसे दर्पण वस्तुओं को प्रतिबिंबित करता है। आत्मा सभी लोकों की छवियों को प्रतिबिंबित करती है। विरक्त आत्मा और दुनिया का संबंध दर्पण और प्रतिबिंब जैसा है। दुनिया की सारभूतता की त्रुटि को दूर करने पर ईश्वर की आत्मा में विश्राम करने वाले शून्य की चेतना आती है। मानसिक दर्शन आत्मा की वास्तविक स्थिति को प्रकाशित करता है। परम आत्मा ने मन को जन्म दिया जो ब्रह्मांड को फैलाता है। इच्छाओं को दूर करने से मन पिघल जाता है और अज्ञान का कोहरा दूर हो जाता है, जिससे एक अनंत ईश्वर का प्रकाश प्रकट होता है। मन परम आत्मा से बढ़ता है और सृजन की इच्छा से ब्रह्मा का स्वभाव लेता है। गैर-सत्ता सत्ता की तरह दिखती है और मृत्यु पर मर जाती है। मन दिव्य चेतना से उत्पन्न होता है और दिव्य आत्मा में स्वयं को प्रदर्शित करता है।

योगवसिष्ठ के इन अध्यायों में राजा लवण की एक दृष्टांत कथा प्रस्तुत की गई है, जिसका उद्देश्य मन की शक्ति, भ्रम की वास्तविकता और आत्मज्ञान के महत्व को समझाना है। यह कहानी राजा लवण के एक असाधारण अनुभव के माध्यम से इन गूढ़ सिद्धांतों को उजागर करती है।

कहानी का आरंभ (अध्याय 104):

कथा का आरंभ अयोध्या में राम के दरबार में होता है, जहाँ राम ऋषि वसिष्ठ से सांसारिक बंधनों और मुक्ति के मार्ग के बारे में प्रश्न पूछते हैं। इसी संदर्भ में वसिष्ठ राजा लवण की कहानी सुनाना आरंभ करते हैं।

राजा लवण का स्वप्न (अध्याय 105-114):

वसिष्ठ बताते हैं कि राजा लवण, जो एक धर्मात्मा और न्यायप्रिय शासक थे, एक दिन गहरी निद्रा में एक अद्भुत स्वप्न देखते हैं। इस स्वप्न में वे स्वयं को अपने राजसी वैभव से विहीन पाते हैं और एक वन में एक चांडाल (आदिवासी) के रूप में जीवन व्यतीत करते हुए देखते हैं। स्वप्न अत्यंत जीवंत और विस्तृत होता है, जिसमें लवण चांडालों की रीति-रिवाजों, उनके दुखों, उनकी गरीबी और उनके सामाजिक जीवन का अनुभव करते हैं। वे एक चांडाल स्त्री से विवाह करते हैं, उनके बच्चे होते हैं और वे उस समुदाय के हर्ष और विषाद में भागीदार बनते हैं। स्वप्न इतना यथार्थवादी होता है कि राजा लवण को वह जीवन वास्तविक प्रतीत होने लगता है और वे अपने राजसी अतीत को भूल जाते हैं। स्वप्न कई वर्षों तक चलता है और लवण उस चांडाल जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों को गहराई से महसूस करते हैं।

स्वप्न का अंत और वास्तविकता का बोध (अध्याय 114):

अचानक, स्वप्न भंग होता है और राजा लवण स्वयं को अपने राजसी शयनकक्ष में पाते हैं। वे उस चांडाल जीवन के अनुभवों से चकित और भ्रमित होते हैं। उन्हें यह समझना कठिन होता है कि जो उन्होंने इतने वर्षों तक भोगा, वह मात्र एक स्वप्न था।

स्वप्न की वास्तविकता पर प्रश्न (अध्याय 115-116):

राम वसिष्ठ से पूछते हैं कि क्या राजा लवण ने अपने मानसिक राजसूय यज्ञ का फल उस आदिवासी जीवन में प्राप्त किया, जो उन्हें एक जादूगर के जादू के कारण भोगना पड़ा। वसिष्ठ उत्तर देते हैं कि उन्होंने स्वयं राजा लवण के दरबार में उस जादूगर को देखा था और सब कुछ अपनी आँखों से देखा था। वे बताते हैं कि राजसूय यज्ञ करने वालों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और इंद्र ने लवण पर दया करके एक जादूगर के रूप में अपने दूत को भेजा ताकि उनके कष्ट कम हों। जादूगर ने राजा को सपने में ही उन कठिनाइयों का अनुभव कराया। वसिष्ठ स्पष्ट करते हैं कि मन ही सभी प्रकार के कर्मों और उनके परिणामों का कर्ता और भोक्ता है।

अज्ञान और ज्ञान की सात अवस्थाएँ (अध्याय 117-118):

वसिष्ठ अज्ञान और ज्ञान की सात अवस्थाओं का वर्णन करते हैं, जो योग ध्यान के आधार हैं। अज्ञान की अवस्थाएँ भ्रम और बंधन की ओर ले जाती हैं, जबकि ज्ञान की अवस्थाएँ मुक्ति की ओर। राजा लवण का स्वप्न अज्ञान की विभिन्न अवस्थाओं का एक उदाहरण है, जहाँ अवास्तविक वास्तविकता प्रतीत होती है। ज्ञान की अवस्थाओं को प्राप्त करके ही मनुष्य इस भ्रम से मुक्त हो सकता है।

रूप बनाम सार (अध्याय 119):

वसिष्ठ सोने की अंगूठी का दृष्टांत देते हुए रूप और सार के भेद को समझाते हैं। जिस प्रकार अंगूठी अपने सोने के सार को भूलकर केवल अपने आकार पर ध्यान देती है, उसी प्रकार आत्मा अपने परम स्वरूप को भूलकर अहंकार में उलझ जाती है। राजा लवण का स्वप्न रूप की क्षणभंगुरता और सार की शाश्वतता को दर्शाता है।

राजा लवण का वन भ्रमण और आदिवासी महिला का विलाप (अध्याय 120):

स्वप्न से जागने के बाद राजा लवण उस वन में स्वयं जाने का निश्चय करते हैं जहाँ उन्होंने चांडाल के रूप में जीवन बिताया था। वे अपने मंत्रियों और सेवकों के साथ उस स्थान पर पहुँचते हैं और वहाँ सब कुछ वैसा ही पाते हैं जैसा उन्होंने सपने में देखा था। वे उस आदिवासी बस्ती को पहचानते हैं और वहाँ रहने वाले लोगों को भी। वे एक बूढ़ी आदिवासी महिला को विलाप करते हुए सुनते हैं, जो अपने प्रियजनों को खोने के दुख में डूबी हुई है। राजा उस महिला को अपनी सास के रूप में पहचानते हैं, जैसा कि उन्होंने सपने में देखा था।

स्वप्न की वास्तविकता का स्पष्टीकरण और मन की निरर्थकता का प्रमाण (अध्याय 121):

जब राजा उस बूढ़ी महिला से पूछते हैं तो वह उन्हें वही कहानी सुनाती है जो उन्होंने सपने में सुनी थी। यह देखकर राजा और भी आश्चर्यचकित होते हैं। वसिष्ठ राम को समझाते हैं कि यह अज्ञान का भ्रम है जो असत्य को सत्य और सत्य को असत्य दिखाता है। राजा लवण की सपने की स्मृति और आदिवासियों के मन में भी उसी प्रकार की धारणा का उदय मन की शक्ति और भ्रम की वास्तविकता का प्रमाण है। मन ही सभी चीजों को आकार देता है और समय और स्थान की धारणा को बदल सकता है।

आत्म या आत्मा का निश्चय (अध्याय 122):

अंतिम अध्याय में वसिष्ठ आत्मज्ञान के महत्व पर जोर देते हैं। वे बताते हैं कि मनुष्य को अच्छे और बुद्धिमानों की संगति में रहना चाहिए और शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए ताकि अज्ञान के सागर को पार किया जा सके। राजा लवण के स्वप्न का अनुभव यह सिखाता है कि सांसारिक जीवन भ्रम और क्षणभंगुरता से भरा है। सच्चा ज्ञान आत्मज्ञान में निहित है, जो आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझने और सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त करता है।

निष्कर्ष:

राजा लवण की कहानी योगवसिष्ठ में एक महत्वपूर्ण दृष्टांत है जो मन की असीम शक्ति, भ्रम की माया और आत्मज्ञान की परम आवश्यकता को दर्शाती है। यह कहानी यह संदेश देती है कि सांसारिक अनुभव, चाहे कितने भी जीवंत और दीर्घकालिक क्यों न हों, अंततः स्वप्नवत हैं। सच्चा और स्थायी सुख आत्मज्ञान में ही निहित है, जो आत्मा के शाश्वत और अपरिवर्तनीय स्वरूप को जानने से प्राप्त होता है। राजा लवण का अनुभव हमें अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने और सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिए प्रेरित करता है।