जीवनमुक्त
एक जीवनमुक्त आनंदपूर्वक घूमता है। उसके पास न तो आकर्षण हैं और न ही लगाव। उसे न तो कुछ प्राप्त करना है, न ही उसे कुछ त्यागना है। वह संसार के कल्याण के लिए कार्य करता है। वह इच्छाओं, अहंकार और लालच से मुक्त है। वह एकांत में है, भले ही वह शहर के सबसे व्यस्त हिस्से में काम करता हो।
जीवनमुक्त, का अर्थ है "जीवन में ही मुक्त"। यह एक ऐसी अवस्था को संदर्भित करता है जिसमें एक व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी सांसारिक बंधनों और दुखों से मुक्त हो जाता है। यह व्यक्ति आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, और उसे यह ज्ञान हो जाता है कि वह आत्मा (आत्मन) और ब्रह्म एक ही हैं।
जीवनमुक्त की विशेषताएं:
आत्मज्ञान: जीवनमुक्त को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है। वह जानता है कि वह शरीर, मन और अहंकार से परे है।
ब्रह्मज्ञान: जीवनमुक्त को ब्रह्म का ज्ञान होता है। वह जानता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और सब कुछ ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।
शांति और आनंद: जीवनमुक्त को आंतरिक शांति और आनंद का अनुभव होता है। वह सांसारिक सुख-दुखों से अप्रभावित रहता है।
समभाव: जीवनमुक्त सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है। वह किसी से राग-द्वेष नहीं करता।
निष्काम कर्म: जीवनमुक्त कर्म तो करता है, लेकिन वह कर्मों के फल की इच्छा नहीं रखता। वह केवल कर्तव्य समझकर कर्म करता है।
साक्षी भाव: वह संसार में रहते हुए भी साक्षी भाव रखता है। वह संसार को एक नाटक की तरह देखता है।
वासनाओं का क्षय: जीवनमुक्त की सभी वासनाएं क्षीण हो जाती हैं।
जीवनमुक्त कैसे बनते हैं:
श्रवण, मनन, निदिध्यासन: जीवनमुक्त बनने के लिए शास्त्रों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना आवश्यक है।
गुरु का मार्गदर्शन: एक योग्य गुरु का मार्गदर्शन जीवनमुक्त बनने के मार्ग में सहायक होता है।
ध्यान और योग: ध्यान और योग के नियमित अभ्यास से मन को शांत और एकाग्र किया जा सकता है, जिससे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
वैराग्य: सांसारिक सुखों के प्रति वैराग्य जीवनमुक्त बनने के लिए आवश्यक है।
विवेक: सत्य और असत्य के बीच विवेक जीवनमुक्त बनने के लिए आवश्यक है।
जीवन्मुक्त का स्वरूप:
- जीवन्मुक्त वह ज्ञानी पुरुष है जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है और जो इस जीवन में रहते हुए भी मुक्त है।
- वह वासनाओं से मुक्त होता है, विशेष रूप से मलिन वासनाओं से, जो पुनर्जन्म का कारण बनती हैं।
- उसकी शुद्ध वासना केवल शरीर को बनाए रखने के लिए होती है, जैसे भुने हुए बीज में अंकुरित होने की शक्ति नहीं होती।
- वह परमात्मा के तत्त्व को जानता है और संसार के भ्रम से मुक्त होता है।
- उसकी स्थिति आकाश में नीले रंग के भ्रम के समान होती है, जहाँ वह जानता है कि वास्तविकता में कोई रंग नहीं है।
जगत का मिथ्यात्व:
- योगवासिष्ठ के अनुसार, यह दृश्य जगत वास्तव में अस्तित्व में नहीं है, यह केवल एक भ्रम है।
- यह भ्रम अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है, जैसे आकाश में नीले रंग का भ्रम।
- जब आत्मज्ञान होता है, तो यह भ्रम दूर हो जाता है, और व्यक्ति को यह बोध होता है कि जगत केवल चेतना का एक प्रक्षेप है।
- जगत का मिथ्यात्व मन के मार्जन से अनुभव होता है, जिससे परम निर्वाण की शांति प्राप्त होती है।
द्विविध वासना:
- मलिन वासना:
- यह अज्ञान और अहंकार से उत्पन्न होती है।
- यह पुनर्जन्म का कारण बनती है और जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसाती है।
- शुद्ध वासना:
- यह ज्ञान से उत्पन्न होती है और मोक्ष की ओर ले जाती है।
- यह केवल शरीर को बनाए रखने के लिए होती है और पुनर्जन्म का कारण नहीं बनती।
- यह भुने हुए बीज के समान होती है, जिसमें अंकुरित होने की शक्ति नहीं होती।
जीवनमुक्त का महत्व:
जीवनमुक्त दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत होता है।
जीवनमुक्त समाज में शांति और सद्भाव स्थापित करने में सहायक होता है।
जीवनमुक्त यह सिद्ध करता है कि जीवन में ही मुक्ति संभव है।
वेदांत में जीवनमुक्त:
वेदांत में, जीवनमुक्त को सर्वोच्च अवस्था माना जाता है। यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है, जो मानता है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। जीवनमुक्त इस एकता का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और मुक्ति प्राप्त करता है।
उदाहरण:
ऋषि वशिष्ठ
ऋषि विश्वामित्र
राजा जनक
आदि शंकराचार्य
रमण महर्षि
जीवनमुक्त एक आदर्श अवस्था है जो हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है।
"आप सभी योग वसिष्ठ के अमृत का पान करें! आप सभी आत्मज्ञान के मधु का आस्वादन करें! आप सभी इसी जन्म में जीवनमुक्त बनें! ऋषि वसिष्ठ, ऋषि वाल्मीकि और अन्य ब्रह्म-विद्या गुरुओं का आशीर्वाद आप सभी पर बना रहे! आप सभी ब्रह्म के आनंद के सार का भागी बनें!"
मोक्ष
"मोक्ष” संकल्प ही संसार है; इसका विनाश मोक्ष है। यह केवल संकल्प है, जो पुनरुत्थान से परे नष्ट हो गया है, जो निर्मल ब्रह्म-पीठ या मोक्ष का गठन करता है। मोक्ष सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति (सर्व-दुःख निवृत्ति) और परम आनंद की प्राप्ति (परमानंद प्राप्ति) है। "दुःख" का अर्थ है पीड़ा या कष्ट। जन्म और मृत्यु सबसे बड़ा दर्द पैदा करते हैं। जन्म और मृत्यु से मुक्ति सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति है। ब्रह्म ज्ञान या आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष देगा।
मोक्ष। वस्तुओं के लिए इच्छाओं की अनुपस्थिति से मन में उत्पन्न शांति ही मोक्ष है।"
यह पाठ मोक्ष की अवधारणा को गहराई से समझाता है, जो भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं में मुक्ति की अंतिम अवस्था है।
मुख्य विचार:
संकल्प ही संसार:
हमारे मन में उठने वाले विचार या संकल्प ही संसार का कारण हैं। जब हम किसी चीज की इच्छा करते हैं, तो हम उससे बंध जाते हैं, और यही बंधन हमें जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसाता है।
इसलिए, संकल्पों का विनाश ही मोक्ष है।
ब्रह्म-पीठ:
जब सभी संकल्प पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं, तो हम ब्रह्म-पीठ या मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यह एक ऐसी अवस्था है जहां कोई इच्छा या बंधन नहीं रहता।
सर्व-दुःख निवृत्ति:
मोक्ष का मतलब है सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति। जन्म और मृत्यु सबसे बड़े दुख हैं, इसलिए इनसे मुक्ति पाना ही असली मोक्ष है।
परमानंद प्राप्ति:
मोक्ष में हमें परम आनंद की प्राप्ति होती है। यह एक ऐसी अवस्था है जहां कोई दुख या अशांति नहीं होती, केवल अनंत आनंद होता है।
ब्रह्म ज्ञान:
आत्मा का ज्ञान या ब्रह्म ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है। जब हम अपनी असली प्रकृति को जान लेते हैं, तो हम सभी बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
इच्छाओं का अभाव:
वस्तुओं के प्रति इच्छाओं का ना होना, और मन में शांति का उत्पन्न होना ही मोक्ष है।
तात्पर्य:
मोक्ष कोई बाहरी स्थान या वस्तु नहीं है, बल्कि यह हमारे मन की एक अवस्था है। जब हम अपने मन को शुद्ध करते हैं और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं, तो हम मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।
"मोक्ष कोई प्राप्त करने वाली चीज नहीं है। यह पहले से ही मौजूद है। तुम वास्तव में बंधे हुए नहीं हो। तुम सदा शुद्ध और मुक्त हो। यदि तुम वास्तव में बंधे होते, तो तुम कभी मुक्त नहीं हो सकते थे। तुम्हें यह जानना होगा कि तुम अमर, सर्वव्यापी आत्मा हो। उसे जानना ही वह बनना है। यही मोक्ष है। यही जीवन का लक्ष्य है। यही अस्तित्व का परम कल्याण है। मन की अनाकर्षण की वह अवस्था, जब न तो "मैं" और न ही कोई अन्य स्व उसके लिए मौजूद होता है, और जब वह संसार के सुखों को त्याग देता है, उसे मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग के रूप में जाना जाना चाहिए।"
हिंदी में व्याख्या:
यह पाठ मोक्ष की अवधारणा को एक अलग दृष्टिकोण से समझाता है। यह बताता है कि मोक्ष कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे हमें प्राप्त करना है, बल्कि यह हमारी स्वाभाविक स्थिति है।
मुख्य विचार:
मोक्ष स्वाभाविक है:
पाठ कहता है कि मोक्ष पहले से ही हमारे भीतर मौजूद है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे हमें बाहर से प्राप्त करना है।
हम स्वाभाविक रूप से मुक्त हैं:
वास्तव में, हम कभी बंधे हुए नहीं थे। हम हमेशा से शुद्ध और मुक्त हैं। बंधन का अनुभव एक भ्रम है।
आत्म-ज्ञान:
मोक्ष का मार्ग आत्म-ज्ञान से होकर जाता है। हमें यह जानना होगा कि हम अमर और सर्वव्यापी आत्मा हैं।
जीवन का लक्ष्य:
मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य है। यह अस्तित्व का सबसे बड़ा कल्याण है।
मन का अनाकर्षण:
जब हमारा मन संसार के सुखों से विरक्त हो जाता है और "मैं" और "अन्य" का भेद मिट जाता है, तो हम मोक्ष के मार्ग पर होते हैं।
तात्पर्य:
मोक्ष कोई बाहरी वस्तु नहीं है, बल्कि यह हमारी आंतरिक स्थिति है। हमें अपने भीतर झांकना होगा और अपनी असली पहचान को जानना होगा। जब हम ऐसा कर लेते हैं, तो हम स्वाभाविक रूप से मुक्त हो जाते हैं।
"योग वशिष्ठ के अनुसार निरपेक्ष (परम सत्य) सच्चिदानंद परब्रह्म है, जो अद्वैत, अंशहीन, अनंत, स्व-प्रकाशित, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। वह सत्ता का सागर है जिसमें हम सभी रहते और चलते हैं। वह मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है। वह परम तत्व है। वह अनुभव के विषय और वस्तु के पीछे की एकता है। वह एक सजातीय सार है। वह सर्वव्यापी है। वह वर्णन से परे है। वह नामहीन, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालरहित, स्थावरहित, मृत्युहीन और जन्महीन है।"
हिंदी में व्याख्या:
यह पाठ योग वशिष्ठ के अनुसार परम सत्य या निरपेक्ष की व्याख्या करता है, जिसे सच्चिदानंद परब्रह्म कहा गया है।
मुख्य विचार:
सच्चिदानंद परब्रह्म:
परम सत्य को सच्चिदानंद परब्रह्म के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है सत्य, चेतना और आनंद का स्वरूप।
अद्वैत:
यह अद्वैत है, जिसका अर्थ है कि यह गैर-द्वैत है, अर्थात इसमें कोई दूसरा नहीं है।
अंशहीन, अनंत:
यह अंशहीन है, जिसका अर्थ है कि इसके कोई भाग नहीं हैं, और यह अनंत है, जिसका अर्थ है कि इसकी कोई सीमा नहीं है।
स्व-प्रकाशित, अपरिवर्तनीय, शाश्वत:
यह स्व-प्रकाशित है, जिसका अर्थ है कि यह स्वयं से प्रकाशित है, अपरिवर्तनीय है, जिसका अर्थ है कि यह कभी नहीं बदलता है, और शाश्वत है, जिसका अर्थ है कि यह हमेशा रहता है।
सत्ता का सागर:
यह सत्ता का सागर है, जिसमें हम सभी रहते और चलते हैं। इसका मतलब है कि यह सभी अस्तित्व का आधार है।
मन और इंद्रियों की पहुंच से परे:
यह मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है, जिसका अर्थ है कि इसे हमारी सामान्य समझ से नहीं समझा जा सकता है।
परम तत्व:
यह परम तत्व है, जिसका अर्थ है कि यह सभी चीजों का अंतिम आधार है।
विषय और वस्तु के पीछे की एकता:
यह अनुभव के विषय और वस्तु के पीछे की एकता है, जिसका अर्थ है कि यह सभी चीजों को एक साथ जोड़ता है।
एक सजातीय सार:
यह एक सजातीय सार है, जिसका अर्थ है कि यह एक ही पदार्थ से बना है।
सर्वव्यापी:
यह सर्वव्यापी है, जिसका अर्थ है कि यह हर जगह मौजूद है।
वर्णन से परे:
यह वर्णन से परे है, जिसका अर्थ है कि इसे शब्दों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
नामहीन, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालरहित, स्थावरहित, मृत्युहीन, जन्महीन:
यह नामहीन, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालरहित, स्थावरहित, मृत्युहीन और जन्महीन है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई भौतिक गुण नहीं हैं।
योग वशिष्ठ के अनुसार, परम सत्य एक ऐसी वास्तविकता है जो हमारी सामान्य समझ से परे है। यह अनंत, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। यह सभी चीजों का आधार है और इसे शब्दों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
यह पाठ हमें परम सत्य की प्रकृति के बारे में एक झलक देता है। यह हमें बताता है कि परम सत्य हमारी सामान्य समझ से परे है और इसे केवल अनुभव के माध्यम से ही जाना जा सकता है।
मोक्ष का मार्ग
"जिसका मन शांत है, जो मुक्ति के 'चार साधनों' से संपन्न है, जो दोषों और अशुद्धियों से मुक्त है, वह ध्यान के माध्यम से सहज रूप से आत्मा का अनुभव कर सकता है। शास्त्र और आध्यात्मिक गुरु हमें ब्रह्म नहीं दिखा सकते। वे केवल हमारी मार्गदर्शन कर सकते हैं और उपमाओं और दृष्टांतों के माध्यम से हमें संकेत दे सकते हैं।
शांति (मन की स्थिरता), संतोष (संतोष), सत्संग (संतों का संग) और विचार (आत्मिक जिज्ञासा) मोक्ष के द्वार की रक्षा करने वाले चार प्रहरी हैं। यदि आप उनसे मित्रता करते हैं, तो आप आसानी से मोक्ष के राज्य में प्रवेश कर जाएंगे। यदि आप उनमें से किसी एक के साथ भी संगति करते हैं, तो वह निश्चित रूप से आपको अपने अन्य तीन साथियों से मिलवाएगा।"
यह पाठ मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को सरल और स्पष्ट रूप से समझाता है।
मुख्य विचार:
शांत मन और चार साधन:
मोक्ष प्राप्ति के लिए शांत मन और मुक्ति के 'चार साधनों' का होना आवश्यक है। ये साधन व्यक्ति को दोषों और अशुद्धियों से मुक्त करते हैं।
ध्यान द्वारा आत्म-अनुभव:
शांत मन और शुद्ध अंतःकरण वाला व्यक्ति ध्यान के माध्यम से सहज रूप से आत्मा का अनुभव कर सकता है।
शास्त्र और गुरु केवल मार्गदर्शक:
शास्त्र और आध्यात्मिक गुरु हमें ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करा सकते, वे केवल हमें मार्गदर्शन दे सकते हैं और उपमाओं और दृष्टांतों के माध्यम से संकेत दे सकते हैं।
मोक्ष के चार प्रहरी:
शांति (मन की स्थिरता), संतोष (संतोष), सत्संग (संतों का संग) और विचार (आत्मिक जिज्ञासा) मोक्ष के द्वार की रक्षा करने वाले चार प्रहरी हैं।
मित्रता से मोक्ष प्राप्ति:
यदि व्यक्ति इन चार प्रहरियों से मित्रता करता है, तो वह आसानी से मोक्ष के राज्य में प्रवेश कर सकता है।
संगति का महत्व:
यदि व्यक्ति इनमें से किसी एक के साथ भी संगति करता है, तो वह निश्चित रूप से उसे अन्य तीन साथियों से मिलवाएगा।
मोक्ष पाने के लिए मन को शांत करना और चार अच्छी आदतों को अपनाना जरूरी है।
ध्यान से हम अपनी आत्मा को समझ सकते हैं।
धार्मिक किताबें और गुरु हमें रास्ता दिखाते हैं, लेकिन असली अनुभव हमें खुद करना होता है।
शांति, संतोष, अच्छे लोगों के साथ रहना और खुद से सवाल पूछना, ये चार चीजें मोक्ष के द्वार तक ले जाती हैं।
अगर हम इनमें से किसी एक को भी अपनाते हैं, तो बाकी चीजें अपने आप मिल जाती हैं।
यह पाठ हमें बताता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए बाहरी साधनों से ज्यादा आंतरिक शुद्धि और सद्गुणों का विकास महत्वपूर्ण है। यह हमें एक सरल और व्यावहारिक मार्ग दिखाता है, जिस पर चलकर हम मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
ब्रह्मज्ञान और मुक्ति
"छात्र को यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, सब कुछ ब्रह्म है, ब्रह्म सभी प्राणियों का स्वयं है। तब उसे प्रत्यक्ष संज्ञान या अंतर्ज्ञान (अपरोक्षानुभव) के माध्यम से इस सत्य का बोध होना चाहिए। ब्रह्म का यह प्रत्यक्ष ज्ञान ही मुक्ति का साधन है।
जागृत और स्वप्न अनुभवों में कोई अंतर नहीं है। जागृत अवस्था एक लंबा स्वप्न है। जब मनुष्य अपनी जागृत अवस्था में वापस आता है तो स्वप्न अनुभव असत्य हो जाते हैं। इसी प्रकार, आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने वाले ऋषि के लिए जागृत अवस्था असत्य हो जाती है। स्वप्न देखने वाले व्यक्ति के लिए, जागृत अवस्था असत्य हो जाती है।"
हिंदी में व्याख्या:
यह पाठ ब्रह्मज्ञान और मुक्ति के मार्ग को स्पष्ट करता है, साथ ही जागृत और स्वप्न अवस्थाओं के बीच समानता को भी दर्शाता है।
मुख्य विचार:
ब्रह्म ही एकमात्र सत्य:
एक विद्यार्थी को यह अटल विश्वास होना चाहिए कि केवल ब्रह्म ही परम सत्य है। सब कुछ ब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है और ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है।
ब्रह्म सभी प्राणियों का स्वयं:
ब्रह्म ही सभी प्राणियों का वास्तविक स्वरूप है। हम सब उसी ब्रह्म के अंश हैं।
अपरोक्षानुभव (प्रत्यक्ष ज्ञान):
इस सत्य का बोध प्रत्यक्ष अनुभव या अंतर्ज्ञान (अपरोक्षानुभव) के माध्यम से होना चाहिए। केवल शास्त्रों के अध्ययन से या तर्क-वितर्क से ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता।
ब्रह्मज्ञान ही मुक्ति का साधन:
ब्रह्म का प्रत्यक्ष ज्ञान ही मुक्ति का एकमात्र साधन है। जब तक हमें ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, तब तक हम जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हैं।
जागृत और स्वप्न अनुभवों में समानता:
जागृत और स्वप्न अवस्थाओं में कोई वास्तविक अंतर नहीं है। जागृत अवस्था भी एक लंबे स्वप्न की तरह है।
स्वप्न अनुभव असत्य:
जैसे ही हम जागृत अवस्था में आते हैं, स्वप्न अनुभव असत्य हो जाते हैं।
आत्म-साक्षात्कारी ऋषि के लिए जागृत अवस्था असत्य:
उसी प्रकार, जिस ऋषि ने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर लिया है, उसके लिए जागृत अवस्था भी असत्य हो जाती है।
स्वप्न देखने वाले के लिए जागृत अवस्था असत्य:
एक स्वप्न देखने वाले व्यक्ति के लिए, जागृत अवस्था असत्य हो जाती है, क्योंकि उस समय उसके लिए स्वप्न की वास्तविकता ही सत्य होती है।
हमें यह दृढ़ता से मानना चाहिए कि सब कुछ ब्रह्म है और हम भी ब्रह्म का ही रूप हैं।
इस बात का अनुभव हमें अपने अंदर से करना चाहिए, सिर्फ पढ़कर या सुनकर नहीं।
ब्रह्म को जानना ही मुक्ति का रास्ता है।
जैसे सपने झूठे लगते हैं जब हम जागते हैं, वैसे ही यह दुनिया भी एक ज्ञानी व्यक्ति के लिए झूठी लगती है।
यह पाठ हमें आत्मज्ञान और मुक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। यह हमें बताता है कि हमें अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना चाहिए और ब्रह्म के साथ एकरूप होना चाहिए।
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