Monday, March 31, 2025

४ योग वशिष्ठ चतुर्थ खंड : स्थिति प्रकरण संक्षिप्त ३५- ४७



४ योग वशिष्ठ चतुर्थ खंड : स्थिति प्रकरण संक्षिप्त (३५-४७ )

अध्याय 35 - वैराग्य और आनंद का वर्णन

वसिष्ठ वैराग्य और आनंद के स्वरूप का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि जिन्होंने अपने हृदय को अज्ञान से शुद्ध कर लिया है और अपने अनियंत्रित मन पर विजय प्राप्त कर ली है, वे धन्य हैं। आत्म-नियंत्रण ही संसार के दुखों से पार पाने का एकमात्र साधन है।

वसिष्ठ सभी ज्ञान का सार बताते हुए कहते हैं कि भोग की इच्छा बंधन है और उसका त्याग मुक्ति है। सभी सुख विषैले हैं और उनसे विषैले साँपों और आग की तरह दूर रहना चाहिए। इंद्रियों द्वारा अनुभव की जाने वाली हर चीज हानिकारक है। इच्छायेँ मन को दूषित करता है, जबकि इच्छा रहित मन शांत रहता है। अच्छे गुणों से मन शांत होता है और अज्ञान दूर होता है।

अच्छे लोगों की संगति शांति और मोक्ष प्रदान करती है। परिपक्व मन इच्छाओं और शत्रुता से मुक्त होता है और दुख-सुख के प्रति उदासीन हो जाता है। वह संदेहों, भ्रमों और त्रुटियों से मुक्त होकर आत्मा के कल्याण की ओर अग्रसर होता है।

वसिष्ठ मन को संसार का कारण बताते हैं और कहते हैं कि जब बुद्धि भ्रमित होती है तो वह मन कहलाती है। आत्मा शरीर नहीं है, अपितु एक निराकार चेतना है। मन अपनी इच्छाओं के अनुसार रूप लेता है और मनुष्य स्वयं को अपने कर्मों में फँसाता है।

अच्छे कर्म मनुष्य को महान बनाते हैं, जबकि बुरे कर्म नीचा दिखाते हैं। शुद्ध मन हमेशा अच्छे फल देता है। संसार एक भ्रम है और केवल ब्रह्म ही सत्य है। अहंकार बंधन का कारण है, जबकि अनंतता का ज्ञान मुक्ति का मार्ग है।

वसिष्ठ राम को अपनी आत्मा को सभी के समान मानने और सभी इच्छाओं से दूर रहने का उपदेश देते हैं। शास्त्रों के ज्ञान से शुद्ध मन ब्रह्म का प्रतिबिंब प्राप्त करता है। संसार की वास्तविकता को भूलकर ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने से परम का दर्शन होता है।

अंत में, वसिष्ठ राम को संसार की व्यर्थताओं से दूर रहने, शाश्वत आत्मा पर भरोसा करने और मन की चंचलता को नियंत्रित करने की सलाह देते हैं। इच्छाओं के समाप्त होने और मन शांत होने पर, अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है और आत्मा का प्रकाश चमकता है, जिससे परम आनंद की प्राप्ति होती है। शुद्ध मन सार्वभौमिक कल्याण की ओर मुड़ता है और अपने शरीर पर स्वामी की तरह शासन करता है। ज्ञानी पुरुष संसार के दुखों को करुणा की दृष्टि से देखते हुए शांतिपूर्ण जीवन जीते हैं।

वैराग्य और आनंद का स्वरूप: वैराग्य अज्ञान से हृदय को शुद्ध करने और अनियंत्रित मन पर विजय प्राप्त करने से प्राप्त होता है। ऐसे व्यक्ति धन्य हैं। आत्म-नियंत्रण ही सांसारिक दुखों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है।

ज्ञान का सार: भोग की इच्छा बंधन है और उसका त्याग मुक्ति है। सभी सांसारिक सुख विष के समान हैं, जिनसे विषैले साँपों और आग की तरह दूर रहना चाहिए। इंद्रियों द्वारा अनुभव की जाने वाली हर चीज हानिकारक हो सकती है। इच्छाएँ मन को दूषित करती हैं, जबकि इच्छा रहित मन शांत रहता है। अच्छे गुणों से मन शांत होता है और अज्ञान दूर होता है।

अच्छे संगति का महत्व: अच्छे लोगों की संगति शांति और मोक्ष प्रदान करती है। परिपक्व मन इच्छाओं और शत्रुता से मुक्त होता है और दुख-सुख के प्रति उदासीन हो जाता है। वह संदेहों, भ्रमों और त्रुटियों से मुक्त होकर आत्मा के कल्याण की ओर अग्रसर होता है।

मन और आत्मा की प्रकृति: मन संसार का कारण है और बुद्धि के भ्रमित होने पर वह मन कहलाता है। आत्मा शरीर नहीं है, बल्कि एक निराकार चेतना है। मन अपनी इच्छाओं के अनुसार रूप लेता है और मनुष्य स्वयं को अपने कर्मों में फँसाता है।

कर्मों का प्रभाव: अच्छे कर्म मनुष्य को महान बनाते हैं, जबकि बुरे कर्म नीचा दिखाते हैं। शुद्ध मन हमेशा अच्छे फल देता है।

वास्तविकता का ज्ञान: संसार एक भ्रम है और केवल ब्रह्म ही सत्य है। अहंकार बंधन का कारण है, जबकि अनंतता का ज्ञान मुक्ति का मार्ग है।

आत्मा की एकता और इच्छाओं का त्याग: वसिष्ठ राम को अपनी आत्मा को सभी के समान मानने और सभी इच्छाओं से दूर रहने का उपदेश देते हैं।

ईश्वर पर ध्यान: शास्त्रों के ज्ञान से शुद्ध मन ब्रह्म का प्रतिबिंब प्राप्त करता है। संसार की वास्तविकता को भूलकर ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने से परम का दर्शन होता है।

अंतिम उपदेश: वसिष्ठ राम को संसार की व्यर्थताओं से दूर रहने, शाश्वत आत्मा पर भरोसा करने और मन की चंचलता को नियंत्रित करने की सलाह देते हैं। इच्छाओं के समाप्त होने और मन शांत होने पर, अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है और आत्मा का प्रकाश चमकता है, जिससे परम आनंद की प्राप्ति होती है। शुद्ध मन सार्वभौमिक कल्याण की ओर मुड़ता है और अपने शरीर पर स्वामी की तरह शासन करता है। ज्ञानी पुरुष संसार के दुखों को करुणा की दृष्टि से देखते हुए शांतिपूर्ण जीवन जीते हैं।

संक्षेप में, वसिष्ठ इस कथन के माध्यम से वैराग्य, आत्म-नियंत्रण, अच्छे संगति, इच्छाओं के त्याग और ब्रह्म के ज्ञान के महत्व पर जोर देते हैं। वे मन को बंधन का कारण बताते हैं और आत्मा की एकता को समझने तथा ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ज्ञानी पुरुष संसार के दुखों से मुक्त होकर शांतिपूर्ण और आनंदमय जीवन जीते हैं।

अध्याय 36 - बुद्धि की सृष्टि का वर्णन

वसिष्ठ राम को बताते हैं कि यह सांसारिक व्यवस्था अलौकिक निराकार आत्मा में कैसे मौजूद है। वे कहते हैं कि लोकों का परम मन के सिवा कोई अलग अस्तित्व नहीं है; वे दिव्य चेतना में भविष्य की लहरों की तरह स्थित हैं। चेतना सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देती, जैसे सर्वव्यापी आकाश अपने पदार्थ की कमी के कारण अदृश्य है।

वसिष्ठ बताते हैं कि अवास्तविक संसार दिव्य आत्मा में संभावित रूप से मौजूद है। बुद्धि के पात्र में विद्यमान लोकों का बाहरी बुद्धि से कोई संपर्क नहीं है, जैसे आकाश में बादल आकाश को नहीं छूते। निराकार आत्मा शरीर रूपी पात्र में असंबद्ध रहती है और केवल हमारे ज्ञान के लिए खुद को प्रतिबिंबित करती है।

चेतना इच्छा और पदनाम से रहित है, लेकिन हमारी बुद्धि इसे नाम और रूप देती है। यह पारदर्शी पवन से भी अधिक स्पष्ट और सूक्ष्म है और विद्वानों द्वारा अविभाजित पूर्ण के रूप में जानी जाती है, जो इसे पूरे अविभाजित संसार के साथ समान मानते हैं। चेतना अपनी गति के विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करती है, जैसे समुद्र का जल लहरों में विभिन्न रूप दिखाता है। "मैं," "तुम," और "ये" का ज्ञान चेतना के सागर में लहरों की तरह है - ये झूठी धारणाएँ हैं जो एक ही तत्व, चेतना के प्रतिनिधित्व हैं।

चेतना (चित), चेतना का प्रयोग (चिंता), बुद्धि (चित्तम) और बोधगम्य (चैत्य) सभी आत्मा के मुख्य सिद्धांत से संबंधित हैं। चेतना बुद्धिमान और मूर्ख लोगों के लिए अलग-अलग पहलू प्रस्तुत करती है। अज्ञानियों के लिए यह संसार की यथार्थवादी अवधारणा में अपनी अवास्तविक प्रकृति दिखाती है, जबकि विद्वानों के लिए यह सभी चीजों की ईश्वर के साथ पहचान में अपना प्रकाशमय रूप प्रदर्शित करती है।

चेतना अपनी आंतरिक प्रकाश से सूर्य और तारों को प्रकाशित करती है, स्वाद देती है और अपने जन्मजात विचारों से सभी प्राणियों को जन्म देती है। यह न तो उगती है, न अस्त होती है, न कहीं जाती है और न कहीं नहीं होती। शुद्ध चेतना अपने भीतर संसार नामक भ्रमजाल को प्रदर्शित करती है।

वसिष्ठ बताते हैं कि चेतना अपनी प्रकृति से स्वयं-प्रकट और सर्वव्यापी है और अपनी अभिव्यक्ति, एकीकरण, पृथक्करण, संचय और स्राव के माध्यम से संसार का विकास और आवरण करती है। अपनी त्रुटि से यह अपनी अनंतता को भूल जाती है और अहंकार के कारण अज्ञानी बन जाती है। विशेषज्ञता के कारण यह सामान्य ज्ञान से विशेष ज्ञान तक गिर जाती है और भेद करने लगती है। यह इंद्रिय शरीर में संघर्ष करती है और पृथ्वी से निकलने वाले खरपतवारों की तरह बढ़ती है।

चेतना ही हर चीज के लिए स्थान बनाती है, पवन और जल बनाती है, पृथ्वी को दृढ़ करती है, अग्नि को तेज करती है और समय का उपयोग करती है। यह फूलों को सुगंध देती है, वनस्पतियों को उगाती है और पेड़ों को फल देती है। यह ऋतुओं का निर्माण करती है और सृष्टि के चक्र को चलाती है। चेतना के आदेश स्थिर हैं और पृथ्वी सभी चीजों को धारण करती है। इसने चौदह लोकों में चौदह प्रकार के प्राणियों को बनाया है जो अपने जीवन के तरीकों और रूपों में भिन्न हैं। ये बार-बार उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं और अनंतता के सागर में बुलबुलों की तरह अपने अभ्यस्त मार्गों में चलते रहते हैं। यहाँ दुखी प्राणी व्यर्थ संघर्ष करते हैं और रोग और मृत्यु के अधीन रहते हैं, लगातार जन्म लेते और मरते रहते हैं।

यह कथन वसिष्ठ द्वारा राम को सांसारिक व्यवस्था की परम आत्मा में उपस्थिति की गहन व्याख्या है, जो अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों पर आधारित है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

लोकों का परम मन के सिवा कोई अलग अस्तित्व नहीं: वसिष्ठ स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्मांड और सभी लोक परम मन (दिव्य चेतना) से भिन्न कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं रखते। वे दिव्य चेतना में भविष्य की संभावनाओं या विचारों की तरह स्थित हैं।

चेतना की सूक्ष्मता और अदृश्यता: चेतना इतनी सूक्ष्म है कि वह भौतिक रूप से दिखाई नहीं देती, ठीक उसी प्रकार जैसे सर्वव्यापी आकाश अपने पदार्थ की कमी के कारण अदृश्य है।

अवास्तविक संसार की संभावित उपस्थिति: अवास्तविक प्रतीत होने वाला संसार दिव्य आत्मा में एक संभावित रूप में मौजूद है, जैसे बीज में वृक्ष की संभावना होती है।

बुद्धि में लोकों का असंपर्क: बुद्धि रूपी पात्र में विद्यमान लोक बाहरी बुद्धि को प्रभावित नहीं करते, जैसे आकाश में बादल आकाश को नहीं छूते। निराकार आत्मा शरीर रूपी पात्र में असंग रहती है और केवल हमारे ज्ञान के लिए स्वयं को प्रतिबिंबित करती है।

नाम और रूप बुद्धि द्वारा आरोपित: चेतना मूल रूप से इच्छा और नाम-रूप से रहित है, लेकिन हमारी बुद्धि इसे नाम और रूप देती है, जिससे विविधता का अनुभव होता है।

चेतना की सूक्ष्मता और पूर्णता: चेतना पारदर्शी पवन से भी अधिक स्पष्ट और सूक्ष्म है और विद्वानों द्वारा अविभाजित पूर्ण के रूप में जानी जाती है, जो इसे पूरे अविभाजित संसार के साथ समान मानते हैं।

चेतना की गति और अभिव्यक्ति: चेतना अपनी गति के विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करती है, जैसे समुद्र का जल लहरों में विभिन्न रूप दिखाता है। "मैं," "तुम," और "ये" का ज्ञान चेतना के सागर में लहरों की तरह क्षणिक और झूठी धारणाएँ हैं, जो एक ही तत्व, चेतना के प्रतिनिधित्व हैं।

आत्मा के मुख्य सिद्धांत: चेतना (चित), चेतना का प्रयोग (चिंता), बुद्धि (चित्तम) और बोधगम्य (चैत्य) सभी आत्मा के मूल सिद्धांतों से संबंधित हैं।

चेतना के विभिन्न पहलू: चेतना बुद्धिमान और मूर्ख लोगों के लिए अलग-अलग पहलू प्रस्तुत करती है। अज्ञानियों के लिए यह संसार की यथार्थवादी अवधारणा में अपनी अवास्तविक प्रकृति दिखाती है, जबकि विद्वानों के लिए यह सभी चीजों की ईश्वर के साथ पहचान में अपना प्रकाशमय रूप प्रदर्शित करती है।

चेतना का सर्वव्यापी प्रकाश और शक्ति: चेतना अपनी आंतरिक प्रकाश से सूर्य और तारों को प्रकाशित करती है, स्वाद देती है और अपने सहज विचारों से सभी प्राणियों को जन्म देती है।

चेतना की असीम प्रकृति: यह न तो उगती है, न अस्त होती है, न कहीं जाती है और न कहीं नहीं होती। शुद्ध चेतना अपने भीतर संसार नामक भ्रमजाल को प्रदर्शित करती है।

चेतना का विकास और आवरण: चेतना अपनी प्रकृति से स्वयं-प्रकट और सर्वव्यापी है और अपनी अभिव्यक्ति, एकीकरण, पृथक्करण, संचय और स्राव के माध्यम से संसार का विकास और आवरण करती है।

अज्ञान और अहंकार: अपनी त्रुटि से यह अपनी अनंतता को भूल जाती है और अहंकार के कारण अज्ञानी बन जाती है। विशेषज्ञता के कारण यह सामान्य ज्ञान से विशेष ज्ञान तक गिर जाती है और भेद करने लगती है।

चेतना का संघर्ष और विकास: यह इंद्रिय शरीर में संघर्ष करती है और पृथ्वी से निकलने वाले खरपतवारों की तरह बढ़ती है।

चेतना के कार्य: चेतना ही हर चीज के लिए स्थान बनाती है, पवन और जल बनाती है, पृथ्वी को दृढ़ करती है, अग्नि को तेज करती है और समय का उपयोग करती है। यह फूलों को सुगंध देती है, वनस्पतियों को उगाती है और पेड़ों को फल देती है। यह ऋतुओं का निर्माण करती है और सृष्टि के चक्र को चलाती है।

चेतना का आदेश और सृष्टि का चक्र: चेतना के आदेश स्थिर हैं और पृथ्वी सभी चीजों को धारण करती है। इसने चौदह लोकों में चौदह प्रकार के प्राणियों को बनाया है जो अपने जीवन के तरीकों और रूपों में भिन्न हैं। ये बार-बार उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं और अनंतता के सागर में बुलबुलों की तरह अपने अभ्यस्त मार्गों में चलते रहते हैं।

संसार में दुख और संघर्ष: यहाँ दुखी प्राणी व्यर्थ संघर्ष करते हैं और रोग और मृत्यु के अधीन रहते हैं, लगातार जन्म लेते और मरते रहते हैं।

संक्षेप में, वसिष्ठ इस कथन के माध्यम से यह स्थापित करते हैं कि यह दृश्यमान संसार परम आत्मा या चेतना से अलग कोई वास्तविक सत्ता नहीं रखता। यह चेतना में ही एक विचार या संभावना के रूप में विद्यमान है और अज्ञान के कारण हमें वास्तविक और विविध प्रतीत होता है। चेतना सर्वव्यापी, सूक्ष्म और अपनी शक्ति से सब कुछ उत्पन्न करने और धारण करने में सक्षम है। संसार में दुख और संघर्ष अज्ञानता और अहंकार के कारण हैं, और ज्ञान के द्वारा इस भ्रम से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

1. चौदह लोक (चतुर्दश भुवन):

भारतीय दर्शन और पुराणों में ब्रह्मांड को विभिन्न स्तरों या लोकों में विभाजित किया गया है। ये लोक ऊर्ध्व (ऊपर की ओर) और अधो (नीचे की ओर) क्रम में व्यवस्थित माने जाते हैं। आमतौर पर माने जाने वाले चौदह लोक इस प्रकार हैं:

ऊर्ध्व लोक (सात):


भूलोक: यह पृथ्वी लोक है, जहाँ मनुष्य और अन्य स्थलीय प्राणी रहते हैं।

भुवर्लोक: यह पृथ्वी और स्वर्ग के बीच का अंतरिक्षीय क्षेत्र है, जहाँ सिद्ध, गंधर्व आदि वास करते हैं।

स्वर्गलोक (या स्वर्लोक): यह देवताओं और पुण्यात्माओं का निवास स्थान है, जहाँ सुख और आनंद की प्राप्ति होती है।

महर्लोक: यह तपस्वियों और महान ऋषियों का लोक है, जो प्रलय के समय भी सुरक्षित रहता है।

जनलोक: यह ब्रह्मा के मानस पुत्रों और विरक्त आत्माओं का लोक है।

तपोलोक: यह अत्यंत वैरागी और तपस्वी आत्माओं का लोक है।

सत्यलोक (या ब्रह्मलोक): यह ब्रह्मा जी का निवास स्थान है और सृष्टि का सर्वोच्च लोक माना जाता है।

अधो लोक (सात):

अतल लोक: यह मायावी शक्तियों वाले प्राणियों का लोक है।

वितल लोक: यहाँ हाटकेश्वर शिव का निवास माना जाता है।

सुतल लोक: यह दानवराज बलि का लोक है, जो विष्णु की कृपा से यहाँ निवास करते हैं।

तलातल लोक: यह नागों और असुरों का लोक है।

महातल लोक: यहाँ भी नाग और अन्य शक्तिशाली प्राणी रहते हैं।

रसातल लोक: यह दानवों और दैत्यों का लोक है, जो पृथ्वी को धारण करते हैं।

पाताल लोक: यह नागलोक है, जहाँ शेषनाग का निवास माना जाता है।

यह वर्गीकरण ब्रह्मांड की जटिलता और विभिन्न प्रकार की चेतनाओं के स्तरों को दर्शाता है।

अध्याय 37 - उपशम: आत्मा की स्थिरता; मन की आभासी गतिविधि


वसिष्ठ बताते हैं कि लोकों की श्रृंखलाएँ ब्रह्म की वास्तविकता में बार-बार प्रकट और लुप्त होती रहती हैं। यह सब एक स्व-अस्तित्व से उत्पन्न होता है और पारस्परिक परिवर्तनों से एक दूसरे के कारण बनता है और फिर नष्ट हो जाता है। प्रकृति के बदलते दृश्यों के उतार-चढ़ाव ब्रह्म की शांत आत्मा को प्रभावित नहीं करते, जैसे समुद्र की गहराई में जल सतह की गति से अप्रभावित रहता है।

वसिष्ठ संसार को न तो पूर्ण रूप से वास्तविक और न ही पूर्ण रूप से अवास्तविक बताते हैं। यह चेतना में स्थित है लेकिन उससे बाहर प्रतीत होता है, आत्मा से अलग नहीं होते हुए भी भिन्न दिखता है, जैसे आभूषण सोने से अलग दिखता है। राम की आत्मा, जिससे वे रूप, ध्वनि और गंध का अनुभव करते हैं, वह सब में व्याप्त परम ब्रह्म है। शुद्ध आत्मा, अनेक में एक और सब में निहित होने के कारण, स्वयं से भिन्न दिखने वालों से अलग नहीं मानी जा सकती।

मनुष्य के विचार ही चीजों के अस्तित्व, गैर-अस्तित्व, अच्छे और बुरे स्वभाव का अलग-अलग न्याय करते हैं और संसार को दिव्य आत्मा के भीतर या बाहर मानते हैं। ईश्वर की आत्मा के बाहर कुछ भी अस्तित्व में नहीं आ सकता, इसलिए आत्मा ने ही अनेक बनने की इच्छा की। चूँकि उसके सिवा कुछ नहीं था, इसलिए उसे स्वयं ही ऐसा बनना पड़ा।

इसलिए, यह या वह करने की इच्छा मन से संबंधित है, आत्मा से नहीं। चुनाव रहित आत्मा, जिसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है, केवल अपने भीतर के विचारों पर ही ध्यान करती है। यह सक्रिय कर्ता नहीं है क्योंकि सभी संस्था, साधन और उद्देश्य स्वयं में एकजुट हैं। यह कहीं भी नहीं रहता, स्वयं में सब कुछ का प्राप्तकर्ता और सामग्री होने के कारण। सृष्टि के कार्य आत्मा में ही प्रत्यक्ष होते हैं, इसलिए इच्छा रहित आत्मा क्रिया रहित नहीं है और उनका कोई और कारण संभव नहीं है।

वसिष्ठ राम को ब्रह्म के स्वभाव को यही जानने और उसे कर्ता न जानकर सभी चिंता से मुक्त होने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि भले ही राम कई कार्य करें, वास्तव में करने लायक क्या है? अपनी संस्था की कमी पर भरोसा रखकर बुद्धिमान ऋषि की तरह शांत रहें। सांसारिक वस्तुओं का पीछा करना छोड़कर अपनी आंतरिक आत्मा की आध्यात्मिकता पर ध्यान केंद्रित करें।

 कर्म में अकर्म; अकर्ता आत्मा

राम का प्रश्न: राम पूछते हैं कि कर्म करते हुए भी अकर्म कैसे हो सकता है, और कर्ता होते हुए भी अकर्ता कैसे रहा जा सकता है।

वसिष्ठ का उत्तर: ज्ञान का महत्व: यह ज्ञान के द्वारा ही संभव है कि कर्म करते हुए भी अकर्म और कर्ता होते हुए भी अकर्ता रहा जा सके।

आत्मा का वास्तविक स्वरूप: आत्मा निष्क्रिय, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। यह न तो कुछ करती है और न ही किसी क्रिया का फल भोगती है।

मन और बुद्धि की भूमिका: मन और बुद्धि ही कर्मों को करते हैं और उनके फल भोगते हैं। अज्ञान के कारण आत्मा को कर्ता और भोक्ता मान लिया जाता है।

कर्म में अकर्म: जब कोई व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा वास्तव में अकर्ता है और सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा मन और बुद्धि के माध्यम से हो रहे हैं, तो वह कर्म करते हुए भी अकर्ता रहता है। उसका कर्मों में आसक्ति नहीं होती।

कर्ता में अकर्ता: जब कोई व्यक्ति अहंकार और कर्तापन के भाव से मुक्त होकर कर्म करता है, तो वह कर्ता होते हुए भी अकर्ता रहता है। वह कर्मों के फल की इच्छा नहीं रखता।

उदाहरण:

जैसे आकाश सभी क्रियाओं का साक्षी है लेकिन स्वयं कुछ नहीं करता, वैसे ही आत्मा भी सभी कर्मों की साक्षी है लेकिन स्वयं अकर्ता है।

ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग: शास्त्रों का अध्ययन, गुरु का मार्गदर्शन और निरंतर अभ्यास के द्वारा इस ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।

अज्ञान का बंधन: अज्ञान के कारण ही आत्मा स्वयं को कर्ता और भोक्ता मानकर बंधनों में जकड़ी रहती है।

मुक्ति का मार्ग: ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है। जब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेती है, तो वह कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाती है।

समता का भाव: ज्ञानी व्यक्ति सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में समभाव रखता है। वह कर्मों के फल से अप्रभावित रहता है। 

मन का नियंत्रण: मन को नियंत्रित करके और आसक्ति को त्यागकर अकर्मता और अकर्तापन की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। 

कर्मयोग: फल की इच्छा किए बिना कर्तव्य कर्म करना ही कर्मयोग है। यह अकर्मता और अकर्तापन की ओर ले जाता है। 

निष्कर्ष: ज्ञान के द्वारा आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर कर्म करते हुए भी अकर्म और कर्ता होते हुए भी अकर्ता रहा जा सकता है। यही मुक्ति का मार्ग है।

अध्याय 38 - आत्मा की वही स्थिरता; मन कर्ता के रूप में

 वसिष्ठ बुद्धिमानों की स्थिति का वर्णन करते हैं, जिनके कार्य, चाहे अच्छे हों या बुरे, सुखद हों या दुखद, वास्तव में असत्य और अप्रभावी होते हैं क्योंकि वे मानसिक और स्वैच्छिक ऊर्जाओं के प्रयोग मात्र हैं। मनुष्य का कर्म उचित साधनों का प्रयोग, शारीरिक प्रयास और कामना के अनुरूप परिणाम की पूर्ति है। अज्ञानी अपनी इच्छाओं से कर्ता बनते हैं, जबकि बुद्धिमान, इच्छा रहित होने के कारण, अनैच्छिक कार्यों के लिए भी दोषी नहीं होते।

वसिष्ठ कहते हैं कि जिसने सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह सांसारिक इच्छाओं में शिथिल हो जाता है और शांत मन से कर्म करता है, सफलता को ईश्वर की इच्छा मानता है। मन जो कामना करता है, वही होता है, इसलिए कर्ता मन है, शरीर नहीं। संसार दिव्य मन से उत्पन्न होता है और उसमें स्थित है। आत्मा को जानने वाले अपनी इच्छाओं से पूर्ण वैराग्य प्राप्त करते हैं और परम आनंद में विश्राम करते हैं।

एक उदाहरण देते हुए वसिष्ठ कहते हैं कि मन ही सुख और दुख की कल्पना करता है, न कि शारीरिक क्रिया या निष्क्रियता। जब मन किसी अन्य विचार में लीन होता है, तो कर्म का अनुभव नहीं होता। जो अपने मन के अमूर्त ध्यान में सब कुछ देखता है, वह स्वयं में सब कुछ देखता है और सुख-दुख से अगम्य हो जाता है।

जो स्वयं को जानता है, वह विपत्ति में भी आनंदित रहता है। मन ही कार्यों का कर्ता है, आत्मा नहीं। इसलिए, बुद्धिमान अपने कार्यों का श्रेय स्वयं को नहीं देते और न ही फल की अपेक्षा करते हैं। अनियंत्रित मन ही सभी प्रयासों, कर्मों और उनके परिणामों का मूल है। मन को दूर करके सभी दुखों से बचा जा सकता है।

वसिष्ठ कहते हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक हैं। केवल आत्मा ही वास्तविक है, जो न तो सक्रिय है और न ही निष्क्रिय कर्ता। सांसारिक मन वालों के लिए मुक्ति नहीं है, जबकि योगी जीवन्मुक्त अवस्था में मुक्ति का अनुभव करते हैं। ज्ञानी एकता और द्वैत के भेद को जानते हुए भी बंधन और स्वतंत्रता से परे होते हैं। मन को सांसारिक बंधनों से मुक्त करके सच्चे अहंकार पर स्थिर रहना चाहिए।

बुद्धिमानों के कर्मों की असत्यता और अप्रभाव: बुद्धिमानों के कार्य, चाहे अच्छे हों या बुरे, सुखद हों या दुखद, वास्तव में असत्य और अप्रभावी होते हैं क्योंकि वे केवल मानसिक और स्वैच्छिक ऊर्जाओं का प्रयोग मात्र हैं। वे आसक्ति और कर्ता भाव से रहित होकर कर्म करते हैं, इसलिए उनके कर्मों का उन पर कोई बंधनकारी प्रभाव नहीं पड़ता।

कर्म की परिभाषा: मनुष्य का कर्म उचित साधनों का प्रयोग, शारीरिक प्रयास और कामना के अनुरूप परिणाम की पूर्ति है। अज्ञानी अपनी इच्छाओं से प्रेरित होकर कर्ता बनते हैं, जबकि बुद्धिमान इच्छा रहित होने के कारण अनैच्छिक कार्यों के लिए भी दोषी नहीं होते।

ज्ञान और वैराग्य: जिसने सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह सांसारिक इच्छाओं में शिथिल हो जाता है और शांत मन से कर्म करता है, सफलता को ईश्वर की इच्छा मानता है।

मन ही कर्ता: मन जो कामना करता है, वही होता है, इसलिए वास्तविक कर्ता मन है, शरीर नहीं। संसार दिव्य मन से उत्पन्न होता है और उसमें स्थित है।

आत्माज्ञान और परम आनंद: आत्मा को जानने वाले अपनी इच्छाओं से पूर्ण वैराग्य प्राप्त करते हैं और परम आनंद में विश्राम करते हैं।

मन की कल्पना ही सुख-दुख का कारण: मन ही सुख और दुख की कल्पना करता है, न कि शारीरिक क्रिया या निष्क्रियता। जब मन किसी अन्य विचार में लीन होता है, तो कर्म का अनुभव नहीं होता।

अमूर्त ध्यान और अगम्यता: जो अपने मन के अमूर्त ध्यान में सब कुछ देखता है, वह स्वयं में सब कुछ देखता है और सुख-दुख से अगम्य हो जाता है।

आत्मज्ञान और विपत्ति में आनंद: जो स्वयं को जानता है, वह विपत्ति में भी आनंदित रहता है।

आत्मा अकर्ता: मन ही कार्यों का कर्ता है, आत्मा नहीं। इसलिए, बुद्धिमान अपने कार्यों का श्रेय स्वयं को नहीं देते और न ही फल की अपेक्षा करते हैं।

अनियंत्रित मन बंधन का कारण: अनियंत्रित मन ही सभी प्रयासों, कर्मों और उनके परिणामों का मूल है। मन को दूर करके सभी दुखों से बचा जा सकता है।

सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता: सांसारिक सुख क्षणिक हैं। 

आत्मा की वास्तविकता और अकर्तृत्व: केवल आत्मा ही वास्तविक है, जो न तो सक्रिय है और न ही निष्क्रिय कर्ता।

मुक्ति की अवस्थाएँ: सांसारिक मन वालों के लिए मुक्ति नहीं है, जबकि योगी जीवन्मुक्त अवस्था में मुक्ति का अनुभव करते हैं। ज्ञानी एकता और द्वैत के भेद को जानते हुए भी बंधन और स्वतंत्रता से परे होते हैं।

सच्चे अहंकार पर स्थिरता: मन को सांसारिक बंधनों से मुक्त करके सच्चे अहंकार (आत्मा के साथ तादात्म्य) पर स्थिर रहना चाहिए।

संक्षेप में, वसिष्ठ इस कथन के माध्यम से यह समझाते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति ज्ञान और वैराग्य के द्वारा कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। वे मन को ही कर्ता मानते हैं और आत्मा को अकर्ता के रूप में देखते हैं। सुख और दुख मन की कल्पनाएँ हैं, और आत्मज्ञान से विपत्ति में भी आनंद प्राप्त किया जा सकता है। अनियंत्रित मन ही दुखों का कारण है, जिसे दूर करके मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। ज्ञानी व्यक्ति संसार के भ्रम को जानते हुए भी बंधन और स्वतंत्रता से परे स्थित होते हैं और सच्चे अहंकार में स्थिर रहते हैं।

अध्याय 39 - वसिष्ठ ने पवित्रता से अशुद्धता के प्रश्न को टाला; सभी चीजों की एकता


राम परम ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में प्रश्न पूछते हैं, जिसे वसिष्ठ शून्यता के चित्रफलक पर स्थिर चित्र की तरह बताते हैं। वसिष्ठ उत्तर देते हैं कि ब्रह्म की प्रकृति ऐसी है कि उससे लगातार शक्ति प्रवाहित होती है और सभी शक्तियाँ उसमें निवास करती हैं। उसमें सत्ता, गैर-सत्ता, एकता, द्वैत, बहुलता और सभी चीजों का आरंभ और अंत है। यह एक है, जैसे समुद्र जिसके जल में अनगिनत आकार हैं।

राम ब्रह्म के मन और इंद्रियों से परे होने और उससे उत्पन्न नाशवान चीजों के बारे में विरोधाभास व्यक्त करते हैं। वसिष्ठ उत्पादन के नियम की व्याख्या करते हैं कि उत्पन्न चीज अपने उत्पादक के समान स्वभाव की होती है, लेकिन राम ब्रह्म की शुद्धता और सृष्टि की अशुद्धता का विषय उठाते हैं।

वाल्मीकि भरद्वाज को बताते हैं कि राम के प्रश्नों पर वसिष्ठ मौन हो जाते हैं और विचार करते हैं। वे निष्कर्ष निकालते हैं कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने तक प्रश्न पूछना शिक्षितों का दोष नहीं है। अर्ध-शिक्षित आध्यात्मिक शिक्षा के योग्य नहीं होते, जबकि जिन्होंने परमतत्व को समझ लिया है, वे अंततः ब्रह्म को सब में सब कुछ मानते हैं। शिष्य को पहले स्थिरता और आत्म-नियंत्रण से शुद्ध करना चाहिए, फिर उसे "सब ब्रह्म है और तुम वह शुद्ध आत्मा हो" के सिद्धांत में दीक्षित करना चाहिए।

वसिष्ठ राम को बताते हैं कि वे व्याख्यान के अंत में ब्रह्म पर अशुद्धता के आरोपण के प्रश्न का उत्तर देंगे। अभी के लिए, वे कहते हैं कि ब्रह्म सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और स्वयं सब कुछ है। अपनी सर्वशक्तिमत्ता से वह स्वयं से सब कुछ कर सकता है और बन सकता है, जैसे इंद्रजालिक अपने चमत्कार दिखाते हैं।

संसार अप्सराओं की कहानियों के उद्यानों और गंधर्वों के आकाशीय दुर्ग की तरह है। जो कुछ भी है, रहा है या होने वाला है, वह सब घूमते हुए आकाश और खगोलीय पिंडों के प्रतिबिंबों की तरह है। ये सब स्वयं ईश्वर की अभिव्यक्तियों के विभिन्न रूप हैं। किसी भी समय, किसी भी स्थान पर और किसी भी रूप में जो कुछ भी होता है, वह एक स्व-अस्तित्व वाली वास्तविकता की विविधता है। बुद्धिमानों को सभी परिवर्तनों के बीच अपने मन और स्वभाव की समानता बनाए रखनी चाहिए, यह जानते हुए कि वे एक ही अपरिवर्तनीय मन की बदलती स्थितियाँ हैं। जो ईश्वर को सब में देखता है और समता से भरा है, उसे आश्चर्य, शोक या आनंद का कोई कारण नहीं है।

प्रभु अपनी सृष्टि की रचना में योजनाएँ बनाते हैं और अपनी परिपूर्णता से अंतहीन विविधताओं में प्रकट होते हैं, जैसे समुद्र अपनी लहरें। रूप में परिवर्तन वास्तविक नहीं, अपितु मात्र दिखावे हैं। कोई कर्ता, कर्म या वस्तु नहीं है, केवल एक एकता की विविधता है। आध्यात्मिक सत्यों का साक्षी मन स्वयं सत्य के प्रकाश को देखता है। आत्मा का प्रकाश ही संसार के रूप में दिखाई देता है। निष्कलंक आत्मा ही असंख्य स्थूल शरीरों के प्रकट होने और लुप्त होने की शक्ति है।

जब हमारी आत्माएँ हमसे दूर हो जाती हैं तो सब कुछ मिट जाता है, लेकिन आत्मा की उपस्थिति में सब कुछ प्रकट होता है और उसकी अनुपस्थिति में लुप्त हो जाता है। सब कुछ हमारी आत्माओं के साथ पैदा होता है और उनके खोने के साथ खो जाता है। मनुष्य जन्म से ही ज्ञान से संपन्न होते हैं और समय के साथ संसार के रूप में विस्तारित होते हैं। सांसारिक इच्छाएँ दुख का कारण बनती हैं। इसलिए, वसिष्ठ राम को भेद की तलवार से सांसारिक अस्तित्व के वृक्ष को काटने की सलाह देते हैं।

यह कथन योगा वसिष्ठ के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समाहित करता है, जिसमें परम ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्म की प्रकृति, ज्ञान का महत्व और संसार की अवास्तविकता पर प्रकाश डाला गया है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति: राम का प्रश्न परम ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में है, जिसे वसिष्ठ शून्यता के चित्रफलक पर स्थिर चित्र की तरह बताते हैं। ब्रह्म की प्रकृति ऐसी है कि उससे लगातार शक्ति प्रवाहित होती है और सभी शक्तियाँ उसमें निवास करती हैं। उसमें सत्ता, गैर-सत्ता, एकता, द्वैत, बहुलता और सभी चीजों का आरंभ और अंत है। यह एक है, जैसे समुद्र जिसके जल में अनगिनत आकार हैं।


ब्रह्म की शुद्धता और सृष्टि की अशुद्धता का विरोधाभास: राम ब्रह्म के मन और इंद्रियों से परे होने और उससे उत्पन्न नाशवान चीजों के बारे में विरोधाभास व्यक्त करते हैं। वसिष्ठ उत्पादन के नियम की व्याख्या करते हैं कि उत्पन्न चीज अपने उत्पादक के समान स्वभाव की होती है, लेकिन राम ब्रह्म की शुद्धता और सृष्टि की अशुद्धता का विषय उठाते हैं।

ज्ञान प्राप्ति तक प्रश्न पूछना उचित: राम के प्रश्नों पर वसिष्ठ मौन होकर विचार करते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने तक प्रश्न पूछना शिक्षितों का दोष नहीं है। अर्ध-शिक्षित आध्यात्मिक शिक्षा के योग्य नहीं होते, जबकि जिन्होंने परमतत्व को समझ लिया है, वे अंततः ब्रह्म को सब में सब कुछ मानते हैं।

शिष्य को दीक्षित करने की प्रक्रिया: शिष्य को पहले स्थिरता और आत्म-नियंत्रण से शुद्ध करना चाहिए, फिर उसे "सब ब्रह्म है और तुम वह शुद्ध आत्मा हो" के सिद्धांत में दीक्षित करना चाहिए।

ब्रह्म की सर्वशक्तिमत्ता: वसिष्ठ राम को बताते हैं कि वे व्याख्यान के अंत में ब्रह्म पर अशुद्धता के आरोपण के प्रश्न का उत्तर देंगे। अभी के लिए, वे कहते हैं कि ब्रह्म सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और स्वयं सब कुछ है। अपनी सर्वशक्तिमत्ता से वह स्वयं से सब कुछ कर सकता है और बन सकता है, जैसे इंद्रजालिक अपने चमत्कार दिखाते हैं।

संसार की अवास्तविकता: संसार अप्सराओं की कहानियों के उद्यानों और गंधर्वों के आकाशीय दुर्ग की तरह है। जो कुछ भी है, रहा है या होने वाला है, वह सब घूमते हुए आकाश और खगोलीय पिंडों के प्रतिबिंबों की तरह है। ये सब स्वयं ईश्वर की अभिव्यक्तियों के विभिन्न रूप हैं।

एक स्व-अस्तित्व वाली वास्तविकता की विविधता: किसी भी समय, किसी भी स्थान पर और किसी भी रूप में जो कुछ भी होता है, वह एक स्व-अस्तित्व वाली वास्तविकता की विविधता है।


समता का महत्व: बुद्धिमानों को सभी परिवर्तनों के बीच अपने मन और स्वभाव की समानता बनाए रखनी चाहिए, यह जानते हुए कि वे एक ही अपरिवर्तनीय मन की बदलती स्थितियाँ हैं। जो ईश्वर को सब में देखता है और समता से भरा है, उसे आश्चर्य, शोक या आनंद का कोई कारण नहीं है।

प्रभु की सृष्टि और विविधता: प्रभु अपनी सृष्टि की रचना में योजनाएँ बनाते हैं और अपनी परिपूर्णता से अंतहीन विविधताओं में प्रकट होते हैं, जैसे समुद्र अपनी लहरें। रूप में परिवर्तन वास्तविक नहीं, अपितु मात्र दिखावे हैं।

एकता में विविधता: कोई कर्ता, कर्म या वस्तु नहीं है, केवल एक एकता की विविधता है। आध्यात्मिक सत्यों का साक्षी मन स्वयं सत्य के प्रकाश को देखता है। आत्मा का प्रकाश ही संसार के रूप में दिखाई देता है। निष्कलंक आत्मा ही असंख्य स्थूल शरीरों के प्रकट होने और लुप्त होने की शक्ति है।

आत्मा की उपस्थिति और अनुपस्थिति का प्रभाव: जब हमारी आत्माएँ हमसे दूर हो जाती हैं तो सब कुछ मिट जाता है, लेकिन आत्मा की उपस्थिति में सब कुछ प्रकट होता है और उसकी अनुपस्थिति में लुप्त हो जाता है। सब कुछ हमारी आत्माओं के साथ पैदा होता है और उनके खोने के साथ खो जाता है।

जन्मजात ज्ञान और सांसारिक इच्छाएँ: मनुष्य जन्म से ही ज्ञान से संपन्न होते हैं और समय के साथ संसार के रूप में विस्तारित होते हैं। सांसारिक इच्छाएँ दुख का कारण बनती हैं।

भेद ज्ञान का महत्व: इसलिए, वसिष्ठ राम को भेद की तलवार से सांसारिक अस्तित्व के वृक्ष को काटने की सलाह देते हैं।

संक्षेप में, वसिष्ठ इस कथन के माध्यम से यह स्थापित करते हैं कि सृष्टि परम ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है, जो अपनी प्रकृति में अनंत संभावनाओं से युक्त है। संसार अवास्तविक है और ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। ज्ञान प्राप्त करके और समता का भाव रखकर दुखों से मुक्ति पाई जा सकती है। आत्मा ही सब कुछ का आधार है और सांसारिक इच्छाओं का त्याग ही मुक्ति का मार्ग है।

अध्याय 40 - संसार की ब्रह्म के साथ पहचान

राम ब्रह्म से पशु प्राणियों की उत्पत्ति और उनके विभिन्न नामों व स्वभावों के बारे में पूछते हैं। वसिष्ठ यह समझा रहे हैं कि पशु प्राणियों की उत्पत्ति ब्रह्म से उसकी सर्वशक्तिमान चेतना के माध्यम से होती है। यह चेतना पहले दिव्य स्तर पर विचारित रूपों के रूप में प्रकट होती है, फिर मन के रूप में संघनित होकर अपनी इच्छाशक्ति से इन रूपों को संसार के दृश्य में प्रक्षेपित करती है। मूल रूप से चेतना शून्यवत लगती है, लेकिन मन के रूप में प्रकट होने पर यह विविधतापूर्ण संसार की नींव बनती है, जिसमें पशु प्राणी भी शामिल हैं। उनके विभिन्न नाम और स्वभाव मन की कल्पना और पूर्व कर्मों के कारण होते हैं, जो चेतना के इस प्रक्षेपण को विशिष्टता प्रदान करते हैं।

ब्रह्म की सर्वशक्तिमान चेतना (चित-शक्ति): मूल तत्व ब्रह्म है, जो सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान चेतना है। इसमें सभी संभावनाएँ बीज रूप में विद्यमान हैं।

दिव्य चेतना में विचार किए जाने वाले (चेत्य) रूप में प्रकट: जब सृष्टि की इच्छा होती है, तो ब्रह्म की यह चेतना अपने भीतर ही विभिन्न रूपों और आकारों की कल्पना करती है। ये कल्पनाएँ "चेत्य" कहलाती हैं, अर्थात् वे वस्तुएँ जो चेतना में विचारित या ज्ञात होती हैं। पशु प्राणी भी इसी प्रकार दिव्य चेतना में विचारित रूप हैं।

चेतना का संघनन होकर मन बनना: यह चेतना जब विशिष्ट रूपों और अनुभवों पर केंद्रित होती है, तो वह संघनित होकर मन (मनस) का रूप ले लेती है। मन ही व्यक्तिगत पहचान और संसार के अनुभवों का आधार बनता है।

इच्छाशक्ति से अवास्तविक दृश्य बनाना: मन अपनी इच्छाशक्ति (संकल्प शक्ति) के माध्यम से इन विचारित रूपों को एक अवास्तविक दृश्य या संसार के रूप में प्रक्षेपित करता है। यह दृश्य वास्तविक नहीं होता, बल्कि चेतना का ही एक आभास होता है। पशु प्राणी भी इस अवास्तविक दृश्य का हिस्सा हैं।

मूल अवस्था में चेतना शून्य लगना: अपनी मूल अवस्था में, जब चेतना किसी विशिष्ट रूप या विचार पर केंद्रित नहीं होती, तो वह शून्य (निर्गुण) जैसी प्रतीत होती है, हालाँकि उसमें सभी क्षमताएँ निहित होती हैं।

मन के रूप में प्रकट होने पर दृश्यमान आकाश लगना: जब चेतना मन के रूप में प्रकट होती है और विशिष्ट रूपों की कल्पना करती है, तो वह दृश्यमान आकाश (विस्तार और संभावना) की तरह लगती है, जिसमें सभी प्रकार के प्राणी और वस्तुएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

ब्रह्मा ने अपने विचार (चित्त) से चौदह लोकों और उनमें विभिन्न प्रकार के प्राणियों की सृष्टि की। मन स्वयं एक शून्यता है, और विचार उसकी क्रिया का क्षेत्र है। ब्रह्मा के मन में अज्ञानी पशुओं से लेकर प्रबुद्ध ऋषियों तक विभिन्न प्रकार के प्राणी हैं। भारत में रहने वाली मानव जाति ही शिक्षा और सभ्यता प्राप्त करने में सक्षम है, लेकिन वे भी अज्ञानता, शत्रुता और भय से पीड़ित हैं। इसलिए वसिष्ठ सामाजिक और साधु आचरण पर व्याख्यान देंगे और शाश्वत ब्रह्म के बारे में बताएंगे।

ब्रह्म का संकल्प: सृष्टि के आरंभ में, परम ब्रह्म में स्वयं को अभिव्यक्त करने और विविधता लाने का संकल्प उत्पन्न हुआ।

ब्रह्मा का प्रादुर्भाव: इस संकल्प से ब्रह्मा प्रकट हुए, जिन्हें सृष्टि का कर्ता माना जाता है।

चित्त की शक्ति: ब्रह्मा ने अपनी असीम मानसिक शक्ति (चित्त शक्ति) का उपयोग करके चौदह लोकों की कल्पना की। यह कल्पना मात्र कोई साधारण विचार नहीं था, बल्कि एक शक्तिशाली रचनात्मक क्रिया थी।

लोकों की रचना: ब्रह्मा के चित्त से सात उच्च लोक (जैसे सत्यलोक, तपोलोक, जनलोक, महर्लोक, स्वर्लोक, भुवर्लोक, भूलोक - पृथ्वी) और सात निम्न लोक (जैसे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल) अस्तित्व में आए।

प्राणियों की विविधता: प्रत्येक लोक में ब्रह्मा ने अपने चित्त की शक्ति से विभिन्न प्रकार के प्राणियों की सृष्टि की, जिनमें देवता, मनुष्य, दानव, गंधर्व, यक्ष, पशु-पक्षी और अन्य जीव शामिल हैं। इन प्राणियों की प्रकृति, गुण और कर्म उनके लोकों के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं।

मुख्य बातें:

मानसिक सृष्टि: ब्रह्मा की सृष्टि भौतिक पदार्थों से नहीं, बल्कि उनके विचार या चित्त की शक्ति से हुई है। यह दर्शाता है कि सृष्टि का मूल आधार चेतना है।

विविधता का स्रोत: ब्रह्मा के चित्त की असीम क्षमता के कारण ही चौदह लोकों और उनमें अनगिनत प्रकार के प्राणियों की विविधता संभव हो पाई।

ब्रह्मा की भूमिका: ब्रह्मा को सृष्टि का प्राथमिक अभिकर्ता माना जाता है, जो परम ब्रह्म के संकल्प को साकार करते हैं।

राम यह पूछ रहे हैं कि जो आत्मा अनंत, अविभाज्य और स्थिर है, उसमें गति या भाग कैसे हो सकता है। यह विरोधाभास प्रतीत होता है।

वसिष्ठ यह समझा रहे हैं कि जब शास्त्र कहते हैं कि "सब कुछ ब्रह्म से बना है," तो इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्म का कोई हिस्सा अलग होकर संसार बन गया है या ब्रह्म में कोई वास्तविक गति हुई है। ब्रह्म अपनी मूल प्रकृति में अपरिवर्तित और अविभाज्य रहता है। यह कथन केवल एक प्रतीकात्मक तरीका है यह बताने का कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है और सब कुछ उसी की सत्ता पर आश्रित है, ठीक वैसे जैसे स्वप्न स्वप्नद्रष्टा की चेतना पर आश्रित होता है, जबकि स्वप्नद्रष्टा स्वयं स्वप्न से अप्रभावित रहता है। अगम्य ब्रह्म को समझने के लिए हमें प्रतीकात्मक भाषा और गहरे चिंतन का सहारा लेना होता है, न कि शाब्दिक व्याख्याओं का।

वसिष्ठ का उत्तर इस विरोधाभास को स्पष्ट करता है:

"यह सब उससे बना है" एक सामान्य अभिव्यक्ति: वसिष्ठ कहते हैं कि शास्त्रों और सामान्य भाषा में यह कहना आम बात है कि "यह सब ब्रह्म से बना है।" यह एक सरलीकरण है जिसका उपयोग सृष्टि के स्रोत को इंगित करने के लिए किया जाता है।

वास्तविक अर्थ में ऐसा नहीं है: वसिष्ठ स्पष्ट करते हैं कि वास्तविक, परमार्थिक सत्य के स्तर पर यह कथन शाब्दिक रूप से सत्य नहीं है। अपरिवर्तनीय ब्रह्म में किसी भी प्रकार का वास्तविक परिवर्तन, विभाजन या भाग नहीं हो सकता। यदि ब्रह्म का कोई भाग होता या उसमें गति होती, तो वह अनंत और अपरिवर्तनीय नहीं रहता।

अगम्य का प्रतिनिधित्व प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों से: ब्रह्म अगम्य  है, अर्थात् बुद्धि और भाषा की सीमाओं से परे है। इसलिए, शास्त्रों में जो भी वर्णन मिलता है, वह केवल प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों  के माध्यम से है। ये प्रतीक हमें ब्रह्म की प्रकृति की ओर इंगित करते हैं, लेकिन वे ब्रह्म का पूर्ण और शाब्दिक वर्णन नहीं कर सकते।

वसिष्ठ "अग्नि से अग्नि उत्पन्न होती है" (तज्ज) और "ब्रह्मा उत्पादक और उत्पादित है" (तन्मय) जैसी प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों की व्याख्या करते हैं। "यह एक चीज है और वह दूसरी" कहना झूठा है, क्योंकि ईश्वर की प्रकृति में कोई वास्तविक अंतर नहीं है। मन ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण उसकी चेतना की शक्ति और बुद्धि रखता है। एक लौ दूसरी को उत्पन्न करती है, यह मात्र शब्दों का विवाद है। अनंत ब्रह्मा स्वयं को पुन: उत्पन्न करने के अलावा कुछ और उत्पन्न नहीं कर सकता।

"अग्नि से अग्नि उत्पन्न होती है" (तज्ज): वसिष्ठ कहते हैं कि यह अभिव्यक्ति केवल एक ऊपरी कथन है। वास्तव में, एक लौ दूसरी लौ को प्रकट करती है, लेकिन पहली लौ का कोई भाग दूसरी लौ में स्थानांतरित नहीं होता और न ही पहली लौ वास्तव में उत्पन्न होती है। दोनों लौएँ अग्नि तत्व की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी प्रकार, व्यक्तिगत आत्माएँ ब्रह्म से प्रकट होती हैं, लेकिन ब्रह्म का कोई भाग उनमें विभाजित नहीं होता।

"ब्रह्मा उत्पादक और उत्पादित है" (तन्मय): यह अभिव्यक्ति भी प्रतीकात्मक है। ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता कहा जाता है, लेकिन वे स्वयं भी ब्रह्म से अभिन्न हैं। इसलिए, उत्पादक और उत्पादित के बीच कोई वास्तविक भेद नहीं है। यह एक ही सत्ता की दो अलग-अलग भूमिकाएँ हैं, जैसे एक ही अभिनेता अलग-अलग पात्र निभाता है।

"यह एक चीज है और वह दूसरी" कहना झूठा है: वसिष्ठ दृढ़ता से कहते हैं कि "यह एक चीज है और वह दूसरी" कहना एक झूठा दृष्टिकोण है। ईश्वर की परम प्रकृति में कोई वास्तविक अंतर, भेद या द्वैत नहीं है। जो कुछ भी प्रतीत होता है, वह उसी एक अनंत चेतना की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।

मन ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण उसकी चेतना की शक्ति और बुद्धि रखता है: मन, जो व्यक्तिगत अनुभवों का आधार है, ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है। इसलिए, इसमें ब्रह्म की चेतना की शक्ति और बुद्धि की क्षमता निहित है, हालाँकि अज्ञानता के कारण यह सीमित प्रतीत होती है।

एक लौ दूसरी को उत्पन्न करती है, यह मात्र शब्दों का विवाद है: वसिष्ठ फिर से लौ के उदाहरण पर आते हैं। एक लौ दूसरी को उत्पन्न करती हुई दिखती है, लेकिन यह केवल शब्दों का विवाद है। वास्तव में, यह एक ही अग्नि तत्व की दो अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं।

अनंत ब्रह्मा स्वयं को पुन: उत्पन्न करने के अलावा कुछ और उत्पन्न नहीं कर सकता: यह वसिष्ठ के कथन का सार है। अनंत और अविभाज्य ब्रह्म अपने से भिन्न कुछ भी वास्तविक रूप से उत्पन्न नहीं कर सकता। जो कुछ भी प्रकट होता है, वह ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति या आभास है, जैसे एक ही समुद्र में उठने वाली विभिन्न लहरें।

विद्वान ब्रह्म को अंतहीन लहरों वाले समुद्र के रूप में जानते हैं, और सार्थक शब्द और उनके अर्थ ब्रह्म और उसकी सृष्टि की तरह जुड़े हुए हैं। ब्रह्म चेतना, मन, बुद्धि और पदार्थ है, और वह इन सब से परे है। वास्तव में संसार कुछ भी नहीं है, सब कुछ ब्रह्म ही है। "यह एक चीज है और वह दूसरी है" अज्ञान के विरोधाभासी कथन हैं। कोई भी शब्द अज्ञात के सच्चे स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकता।

विद्वान ब्रह्म को अंतहीन लहरों वाले समुद्र के रूप में जानते हैं: यह एक उत्कृष्ट उपमा है। जिस प्रकार समुद्र एक है, लेकिन उसमें अनगिनत लहरें उठती और गिरती रहती हैं, उसी प्रकार ब्रह्म एक है, लेकिन उसमें अनगिनत ब्रह्मांड और जीव प्रकट होते और विलीन होते रहते हैं। लहरें समुद्र से अलग नहीं हैं, वे समुद्र का ही रूप हैं। इसी प्रकार, सृष्टि और सभी जीव ब्रह्म से अलग नहीं हैं, वे ब्रह्म की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

सार्थक शब्द और उनके अर्थ ब्रह्म और उसकी सृष्टि की तरह जुड़े हुए हैं: यह कथन भाषा और वास्तविकता के बीच के अटूट संबंध को दर्शाता है। जिस प्रकार किसी शब्द का कोई अर्थ ब्रह्म से अलग अस्तित्व नहीं रखता, उसी प्रकार सृष्टि का भी ब्रह्म से अलग कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। शब्द और अर्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जैसे ब्रह्म और उसकी अभिव्यक्ति।

ब्रह्म चेतना, मन, बुद्धि और पदार्थ है, और वह इन सब से परे है: यह ब्रह्म की सर्वव्यापकता और उसकी अतीन्द्रीय प्रकृति को दर्शाता है। ब्रह्म ही सभी अनुभवों का आधारभूत चेतना है, वही मन और बुद्धि के रूप में प्रकट होता है, और वही जड़ पदार्थ का भी मूल कारण है। लेकिन साथ ही, ब्रह्म इन सभी सीमित परिभाषाओं से परे, अनंत और असीम है।

वास्तव में संसार कुछ भी नहीं है, सब कुछ ब्रह्म ही है: यह अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत है। परम सत्य केवल ब्रह्म है। संसार, जैसा कि हम इसे अनुभव करते हैं, एक प्रकार का आभास या भ्रम है, जो ब्रह्म पर अध्यारोपित है। जब अज्ञान दूर होता है, तो यह ज्ञात होता है कि वास्तव में केवल ब्रह्म ही विद्यमान है।

"यह एक चीज है और वह दूसरी है" अज्ञान के विरोधाभासी कथन हैं: द्वैत की भावना ("यह" ब्रह्म से अलग है, "वह" ब्रह्म से अलग है) अज्ञानता का परिणाम है। जब तक व्यक्ति ब्रह्म की एकता को नहीं समझता, तब तक उसे संसार में भेद और विविधता दिखाई देती है, जो वास्तव में विरोधाभासी और अपूर्ण ज्ञान है।

कोई भी शब्द अज्ञात के सच्चे स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकता: ब्रह्म इतना असीम और अगम्य है कि कोई भी सीमित शब्द पूरी तरह से उसके सच्चे स्वरूप को व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। शब्द केवल ब्रह्म की ओर संकेत कर सकते हैं, लेकिन वे ब्रह्म को बांध नहीं सकते।

संक्षेप में, यह कथन ब्रह्म की एकता, सर्वव्यापकता और अतीन्द्रीय प्रकृति पर जोर देता है। संसार को ब्रह्म का ही एक आभास बताया गया है, और द्वैत की भावना को अज्ञानता का परिणाम माना गया है। अंततः, परम सत्य यह है कि सब कुछ ब्रह्म ही है, और कोई भी शब्द उस अज्ञात और असीम सत्य को पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर सकता।

आत्मा अग्नि की लौ की तरह उठती है, और यह लौ मन का प्रतीक है। मन की अस्थिरता वास्तविक नहीं है, क्योंकि दिव्य मन में कोई उदय या पतन नहीं है। असत्य ही डगमगाता है। ब्रह्म स्वयं सब कुछ है, सर्वव्यापी और अनंत है, इसलिए उसके अलावा कुछ और नहीं हो सकता, और उससे उत्पन्न कुछ भी स्वयं वही है। ब्रह्म के अस्तित्व के सत्य के अलावा कुछ भी निश्चित रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता। शास्त्र कहते हैं, "वास्तव में, यह सब ब्रह्म है।" यही निष्कर्ष तर्क से प्राप्त होगा, जिसे वसिष्ठ निर्वाण की पुस्तक में कई उदाहरणों और शिक्षाओं के साथ प्रस्तावित करेंगे। अवास्तविकता के लुप्त होने पर वास्तविकता दिखाई देती है, जैसे अंधेरा दूर होने पर संसार दिखाई देता है। शांत स्थिरता की अवस्था प्राप्त होने पर झूठा संसार लुप्त हो जाएगा।

अध्याय 41 - अज्ञान का वर्णन


वसिष्ठ अज्ञान और अवास्तविकता के रोग के मारक का वर्णन करते हैं। वे सत्व और रजस गुणों पर विस्तार से बताते हैं ताकि मन की शक्तियों की जांच की जा सके। सर्वव्यापी ब्रह्म, जो बौद्धिक प्रकाश है, अंतराल पर उत्तेजित और संघनित होकर बुद्धि बनता है। यह बुद्धि, ब्रह्मा का शरीर होने के कारण, स्वयं में कंपन करती है।

अज्ञान और अवास्तविकता के रोग का मारक: वसिष्ठ ज्ञान और विवेक को अज्ञान और अवास्तविकता के रोग की औषधि बताते हैं। जिस प्रकार औषधि रोग को दूर करती है, उसी प्रकार सच्चा ज्ञान अज्ञानता के भ्रम को नष्ट करता है और वास्तविकता का बोध कराता है।

सत्व और रजस गुणों पर विस्तार से: मन की शक्तियों की जांच करने और उसकी कार्यप्रणाली को समझने के लिए वसिष्ठ सत्व (शुद्धता, प्रकाश) और रजस (गति, क्रियाशीलता) गुणों पर विस्तार से बताते हैं। ये गुण मन की प्रकृति और उसकी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। सत्व ज्ञान और स्पष्टता की ओर ले जाता है, जबकि रजस संसार में आसक्ति और क्रियाशीलता उत्पन्न करता है।

सर्वव्यापी ब्रह्म, जो बौद्धिक प्रकाश है: मूल तत्व सर्वव्यापी ब्रह्म है, जो शुद्ध बौद्धिक प्रकाश (चेतना) स्वरूप है। यह सभी ज्ञान और बुद्धि का स्रोत है।

अंतराल पर उत्तेजित और संघनित होकर बुद्धि बनता है: यह बौद्धिक प्रकाश जब विशिष्ट विचारों या संकल्पों पर केंद्रित होता है, तो वह अंतराल पर (कुछ सीमा तक) उत्तेजित और संघनित होकर बुद्धि (बुद्धि तत्व) का रूप लेता है। यह बुद्धि ब्रह्म की ही एक शक्ति है जो विशिष्ट ज्ञान और निर्णय लेने में सक्षम होती है।

यह बुद्धि, ब्रह्मा का शरीर होने के कारण, स्वयं में कंपन करती है: यह बुद्धि ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर मानी जाती है, जो सृष्टि के संकल्प और ज्ञान का आधार है। चूँकि यह सक्रिय है और सृष्टि की प्रक्रिया में संलग्न है, इसलिए इसमें एक प्रकार का कंपन या स्पंदन होता है, जो विचारों और संकल्पों के रूप में प्रकट होता है।

संक्षेप में, वसिष्ठ अज्ञान और अवास्तविकता के भ्रम को दूर करने के लिए ज्ञान के महत्व पर जोर देते हैं। वे मन की शक्तियों को समझने के लिए सत्व और रजस गुणों का विश्लेषण करते हैं। वे बताते हैं कि सर्वव्यापी ब्रह्म, जो शुद्ध चेतना है, विशिष्ट संकल्पों पर केंद्रित होकर बुद्धि के रूप में प्रकट होता है। यह बुद्धि, जो ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर है, स्वयं में कंपन करती है और विचारों को जन्म देती है, जिससे सृष्टि की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। इस प्रकार, मन की शक्तियों को समझकर और सत्व गुण को बढ़ाकर अज्ञानता को दूर किया जा सकता है और वास्तविकता का अनुभव किया जा सकता है।

जैसे समुद्र का जल स्वयं में आंदोलित होता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान शक्ति स्वयं में अनंत काल तक कार्य करती है। दिव्य आत्मा की शक्ति सहज रूप से आत्मा के अपने क्षेत्र में कार्य करती है। चेतना की बौद्धिक छवियां चेतना की शक्ति से आगे बढ़ती हैं और समुद्र में लहरों की तरह लुढ़कती हैं। ये छवियां, यद्यपि दिव्य आत्मा की चेतना से अविभाज्य हैं, फिर भी अलग प्रतीत होती हैं।

जैसे समुद्र का जल स्वयं में आंदोलित होता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान शक्ति स्वयं में अनंत काल तक कार्य करती है: यह एक बहुत ही सटीक और महत्वपूर्ण उपमा है। जिस प्रकार समुद्र का जल बाहर से किसी अन्य शक्ति द्वारा प्रेरित किए बिना स्वयं में लहरों, भँवरों आदि के रूप में आंदोलित होता रहता है, उसी प्रकार सर्वशक्तिमान ब्रह्म (दिव्य आत्मा) भी किसी बाहरी कारण के बिना स्वयं में अपनी शक्ति से अनंत काल तक सृष्टि, स्थिति और लय के रूप में कार्य करता रहता है। यह क्रिया उसकी सहज प्रकृति है।

दिव्य आत्मा की शक्ति सहज रूप से आत्मा के अपने क्षेत्र में कार्य करती है: ब्रह्म की शक्ति कहीं बाहर से नहीं आती, बल्कि वह आत्मा के अपने ही क्षेत्र में, आत्मा की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करती है। यह क्रिया उसकी आंतरिक और अविभाज्य शक्ति है।

चेतना की बौद्धिक छवियां चेतना की शक्ति से आगे बढ़ती हैं और समुद्र में लहरों की तरह नष्ट होती हैं: जिस प्रकार समुद्र की शक्ति से लहरें उठती हैं और समुद्र की सतह पर गतिशील रहती हैं, उसी प्रकार ब्रह्म की चेतना की शक्ति से बौद्धिक छवियां (विचार, संकल्प, सृष्टि के रूप) उत्पन्न होते हैं और चेतना के क्षेत्र में गतिशील रहते हैं। यह प्रक्रिया स्वाभाविक और निरंतर है।

ये छवियां, यद्यपि दिव्य आत्मा की चेतना से अविभाज्य हैं, फिर भी अलग प्रतीत होती हैं: यह अद्वैत और द्वैत के आभासी अनुभव के बीच का महत्वपूर्ण बिंदु है। ये बौद्धिक छवियां (सृष्टि, जीव) मूल रूप से दिव्य आत्मा की चेतना से अलग नहीं हैं, ठीक वैसे जैसे लहरें समुद्र से अलग नहीं होतीं। उनका सार वही है। फिर भी, अज्ञानता के कारण ये छवियां अलग-अलग और स्वतंत्र सत्ता के रूप में प्रतीत होती हैं।

संक्षेप में, यह कथन ब्रह्म की सहज और आंतरिक रचनात्मक शक्ति पर जोर देता है। जिस प्रकार समुद्र स्वयं में आंदोलित होता है और लहरें उत्पन्न करता है, उसी प्रकार ब्रह्म स्वयं में अपनी शक्ति से सृष्टि की प्रक्रिया को अनंत काल तक जारी रखता है। चेतना की बौद्धिक छवियां ब्रह्म से ही उत्पन्न होती हैं और उससे अविभाज्य हैं, लेकिन अज्ञानता के कारण वे अलग-अलग प्रतीत होती हैं। यह उपमा अद्वैत के सिद्धांत को स्पष्ट करती है, जिसमें सृष्टि को ब्रह्म से भिन्न कोई वास्तविक सत्ता नहीं माना जाता, बल्कि उसे ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है, जो अज्ञानता के कारण विविधतापूर्ण और पृथक प्रतीत होती है।

सर्वोच्च आत्मा, अपनी अनंतता और अविभाज्यता के प्रति सचेत होते हुए भी, निर्मित प्राणियों के प्रत्येक सीमित रूप में अपनी व्यक्तित्व की स्थिति मान लेता है। जब परम सत्ता ये विभिन्न रूप धारण करती है, तो गुण और विशेषताएं तुरंत जुड़ जाते हैं। असार चेतना, स्वयं को परम आत्मा से अलग मानकर पदार्थ मान लेती है और समुद्र के जल की लहरों की तरह अनंतता में विभाजित हो जाती है। चेतना और आत्मा एक ही हैं, विचार उनके विभिन्न तरीकों में अंतर पैदा करता है।

सर्वोच्च आत्मा, अपनी अनंतता और अविभाज्यता के प्रति सचेत होते हुए भी, निर्मित प्राणियों के प्रत्येक सीमित रूप में अपनी व्यक्तित्व की स्थिति मान लेता है: परम आत्मा, जो अनंत और अविभाज्य है, स्वयं ही अपनी इच्छाशक्ति से प्रत्येक सीमित प्राणी के रूप में अपनी पहचान स्थापित करता है। यह एक प्रकार का स्वैच्छिक आरोपण है, जहाँ अनंत स्वयं को सीमित रूपों में अनुभव करता है।

जब परम सत्ता ये विभिन्न रूप धारण करती है, तो गुण और विशेषताएं तुरंत जुड़ जाते हैं: जैसे ही परम सत्ता विभिन्न प्राणियों के रूप में प्रकट होती है, उस विशेष रूप से संबंधित गुण और विशेषताएं स्वतः ही जुड़ जाती हैं। उदाहरण के लिए, मनुष्य के रूप में प्रकट होने पर मनुष्योचित गुण और सीमाएँ अनुभव होती हैं।

असार चेतना, स्वयं को परम आत्मा से अलग मानकर पदार्थ मान लेती है और समुद्र के जल की लहरों की तरह अनंतता में विभाजित हो जाती है: जब शुद्ध चेतना (जो वास्तव में परम आत्मा से अभिन्न है) अज्ञानता के कारण स्वयं को परम आत्मा से अलग मान लेती है, तो वह अपने आप को सीमित और भौतिक (पदार्थ) के रूप में अनुभव करने लगती है। यह अलगाव की भावना अनंत चेतना को व्यक्तिगत अनुभवों की एक अंतहीन श्रृंखला में विभाजित कर देती है, जैसे समुद्र का जल लहरों के रूप में अनगिनत बार उठता और गिरता है।

चेतना और आत्मा एक ही हैं, विचार उनके विभिन्न तरीकों में अंतर पैदा करता है: मूल रूप से चेतना और आत्मा दो भिन्न चीजें नहीं हैं, बल्कि एक ही परम सत्य के दो पहलू हैं। विचार (संकल्प, कल्पना) ही उनके अनुभव के विभिन्न तरीकों में अंतर पैदा करता है। जब चेतना स्वयं को सीमित विचारों से बांध लेती है, तो वह व्यक्तिगत आत्मा के रूप में अनुभव करती है, जबकि विचारों से मुक्त होने पर वह अपनी अनंत और अविभाज्य प्रकृति को पहचानती है।

संक्षेप में, यह कथन यह समझाता है कि परम आत्मा अपनी अनंतता को जानते हुए भी, लीला के लिए या अपनी शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए, स्वयं को विभिन्न सीमित प्राणियों के रूप में अनुभव करता है। इस प्रक्रिया में, प्रत्येक रूप विशिष्ट गुणों और विशेषताओं को धारण करता है। अज्ञानता के कारण, शुद्ध चेतना स्वयं को परम आत्मा से अलग मानकर भौतिक जगत और व्यक्तिगत अनुभवों में उलझ जाती है, जैसे समुद्र की लहरें अपने आप को समुद्र से अलग मान लेती हैं। वास्तव में, चेतना और आत्मा एक ही हैं, और विचारों का भेद ही अनुभवों की विविधता का कारण बनता है। इस ज्ञान से यह समझा जा सकता है कि व्यक्तिगत अनुभवों की विविधता के बावजूद, सभी का मूल स्रोत एक ही अनंत और अविभाज्य परम आत्मा है।

चेतना, आत्मा की शक्ति द्वारा कार्यन्वित होने पर, अपनी इच्छाओं का पीछा करती है। यही चेतना, विभिन्न समयों और स्थानों पर इच्छा और क्रिया के रूप धारण करके, देहात्मन या क्षेत्रज्ञ कहलाती है। इच्छाओं से भरा होने पर इसे अहंकार कहा जाता है, और कल्पनाओं से दूषित होने पर समझ का नाम लेता है। इच्छाओं की ओर झुकी हुई समझ मन कहलाती है, जो क्रिया के लिए संघनित होने पर इंद्रियों का नाम लेती है। इंद्रियों को इंद्रिय अंगों से सुसज्जित किया जाता है, जो कर्म इंद्रियों से जुड़कर शरीर कहलाते हैं।

चेतना, आत्मा की शक्ति द्वारा कार्यन्वित होने पर, अपनी इच्छाओं का पीछा करती है: मूल रूप से चेतना निष्क्रिय और साक्षी स्वरूप है। जब यह आत्मा की शक्ति (जो इसकी स्वाभाविक ऊर्जा है) द्वारा प्रेरित होती है, तो यह सक्रिय होती है और अपनी इच्छाओं (वासनाओं, अभिलाषाओं) का अनुसरण करती है।


यही चेतना, विभिन्न समयों और स्थानों पर इच्छा और क्रिया के रूप धारण करके, देहात्मन या क्षेत्रज्ञ कहलाती है: जब चेतना विशिष्ट समयों और स्थानों से जुड़कर इच्छाएँ करती है और उन इच्छाओं को पूरा करने के लिए क्रियाएँ करती है, तो इसे देहात्मन (शरीर में स्थित आत्मा का अभिमान) या क्षेत्रज्ञ (शरीर रूपी क्षेत्र का ज्ञाता) कहा जाता है। यह व्यक्तिगत पहचान और कर्ता भाव को दर्शाता है।

इच्छाओं से भरा होने पर इसे अहंकार कहा जाता है: जब चेतना पूरी तरह से इच्छाओं और आसक्तियों से भर जाती है, और "मैं" और "मेरा" की भावना प्रबल हो जाती है, तो इसे अहंकार (अहंभाव) कहा जाता है। अहंकार स्वयं को शरीर और मन से तादात्म्य करता है और अलगाव की भावना पैदा करता है।

कल्पनाओं से दूषित होने पर समझ का नाम लेता है: जब चेतना विभिन्न प्रकार की कल्पनाओं, विचारों और धारणाओं से प्रभावित होती है, तो इसे समझ (बुद्धि, विवेक) कहा जाता है। यह वह स्तर है जहाँ ज्ञान, निर्णय और भेद करने की क्षमता विकसित होती है, लेकिन यदि यह कल्पनाओं से दूषित हो जाए तो भ्रम और अज्ञानता उत्पन्न हो सकती है।

इच्छाओं की ओर झुकी हुई समझ मन कहलाती है: जब समझ (बुद्धि) मुख्य रूप से इच्छाओं को पूरा करने की ओर प्रवृत्त होती है और सांसारिक विषयों में रम जाती है, तो इसे मन (मनस) कहा जाता है। मन विचारों, भावनाओं और इच्छाओं का केंद्र है और यह चंचल स्वभाव का होता है।

जो क्रिया के लिए संघनित होने पर इंद्रियों का नाम लेती है: जब मन बाहरी जगत के साथ संपर्क स्थापित करने और क्रिया करने के लिए और अधिक संघनित (विशिष्ट) होता है, तो यह इंद्रियों (ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ) का रूप लेता है। इंद्रियाँ बाहरी प्रेरणा को ग्रहण करती हैं और प्रतिक्रिया करने में सहायता करती हैं।

इंद्रियों को इंद्रिय अंगों से सुसज्जित किया जाता है, जो कर्म इंद्रियों से जुड़कर शरीर कहलाते हैं: इंद्रियाँ भौतिक इंद्रिय अंगों (जैसे आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा) के माध्यम से कार्य करती हैं। कर्मेंद्रियाँ (जैसे हाथ, पैर, वाणी) क्रिया करने के लिए इन इंद्रिय अंगों से जुड़ती हैं, और इन सभी के संयोजन से भौतिक शरीर का निर्माण होता है।

संक्षेप में, यह कथन चेतना के एक क्रमिक विकास को दर्शाता है, जो आत्मा की शक्ति से प्रेरित होकर इच्छाओं का पीछा करती है और धीरे-धीरे देहात्मन, अहंकार, समझ, मन, इंद्रियों और अंततः भौतिक शरीर का रूप धारण करती है। यह प्रक्रिया आत्मा के स्वयं को सीमित अनुभवों में अभिव्यक्त करने का एक तरीका है, लेकिन अज्ञानता के कारण यह बंधन और दुख का कारण भी बन सकती है। इस क्रम को समझकर व्यक्ति अपनी चेतना को वापस अपने मूल स्वरूप, आत्मा की ओर ले जाने का प्रयास कर सकता है।

जीव आत्मा अपने विचारों और इच्छाओं से बंधकर दुख के जाल में फँसकर हृदय (चित्त) कहलाती है। चेतना का क्रमिक विकास क्रमिक परिणाम उत्पन्न करता है। ये जीव आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ हैं, जो अहंकार से जुड़कर स्वार्थी इच्छाओं के जाल में उलझ जाती हैं और मन बन जाती हैं। कामुक मन सांसारिक संपत्तियों को सुरक्षित करने के लिए उत्सुक होता है। मन की प्रवृत्तियाँ अपनी वांछित वस्तुओं का पीछा करती हैं और उनसे दूषित हो जाती हैं। स्वार्थ से दूषित मन अपनी इच्छाशक्ति की स्वतंत्रता खो देता है और अपनी इच्छाओं से बंध जाता है।

जीव आत्मा अपने विचारों और इच्छाओं से बंधकर दुख के जाल में फँसकर हृदय (चित्त) कहलाती है: जब व्यक्तिगत आत्मा (जीव आत्मा) अपने ही विचारों और इच्छाओं में आसक्त हो जाती है और उनसे बंध जाती है, तो वह दुख के जाल में फँस जाती है और इस अवस्था में इसे हृदय या चित्त कहा जाता है। चित्त विचारों, भावनाओं और स्मृतियों का भंडार है, और जब यह अनियंत्रित इच्छाओं से भरा होता है, तो दुख उत्पन्न होता है।

चेतना का क्रमिक विकास क्रमिक परिणाम उत्पन्न करता है: चेतना का आत्मा से लेकर शरीर तक का जो क्रमिक विकास होता है, वह अपने साथ क्रमिक परिणाम भी लाता है। प्रत्येक स्तर पर चेतना की प्रकृति बदलती है और उसके अनुभव भी भिन्न होते हैं। इच्छाओं और आसक्तियों की ओर बढ़ने से बंधन और दुख बढ़ते जाते हैं।

ये जीव आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ हैं, जो अहंकार से जुड़कर स्वार्थी इच्छाओं के जाल में उलझ जाती हैं और मन बन जाती हैं: जीव आत्मा की ये विभिन्न अवस्थाएँ (देहात्मन, क्षेत्रज्ञ, अहंकार, समझ, मन) वास्तव में चेतना के ही अलग-अलग रूप हैं। जब चेतना अहंकार (स्व-अभिमान) से जुड़ जाती है, तो वह स्वार्थी इच्छाओं के जाल में और अधिक उलझ जाती है और मन का रूप ले लेती है, जो सांसारिक विषयों में आसक्त होता है।

कामुक मन सांसारिक संपत्तियों को सुरक्षित करने के लिए उत्सुक होता है: जब मन कामुक इच्छाओं से भर जाता है, तो वह सांसारिक संपत्तियों, भोगों और सुखों को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के लिए अत्यधिक उत्सुक और व्याकुल रहता है। यह लालसा कभी तृप्त नहीं होती और दुख का कारण बनती है।

मन की प्रवृत्तियाँ अपनी वांछित वस्तुओं का पीछा करती हैं और उनसे दूषित हो जाती हैं: मन की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ उन वस्तुओं और अनुभवों की ओर दौड़ती हैं जिन्हें वह वांछित मानता है। इस निरंतर पीछा करने और आसक्ति के कारण मन दूषित हो जाता है, अपनी शुद्धता और संतुलन खो देता है।

स्वार्थ से दूषित मन अपनी इच्छाशक्ति की स्वतंत्रता खो देता है और अपनी इच्छाओं से बंध जाता है: जब मन स्वार्थ और आसक्ति से दूषित हो जाता है, तो वह अपनी इच्छाशक्ति की स्वतंत्रता खो देता है। वह अपनी ही अनियंत्रित इच्छाओं का गुलाम बन जाता है और उनके अनुसार कार्य करने के लिए विवश होता है, जिससे और अधिक बंधन और दुख उत्पन्न होते हैं।

संक्षेप में, यह कथन जीव आत्मा के बंधन की प्रक्रिया को विस्तार से बताता है। विचारों और इच्छाओं में आसक्ति से दुख उत्पन्न होता है, और चेतना का क्रमिक विकास अहंकार से जुड़कर स्वार्थी इच्छाओं की ओर ले जाता है, जिससे मन सांसारिक भोगों को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के लिए व्याकुल रहता है। मन की प्रवृत्तियाँ वांछित वस्तुओं का पीछा करती हैं और उनसे दूषित हो जाती हैं, जिससे स्वार्थ से दूषित मन अपनी स्वतंत्रता खो देता है और अपनी ही इच्छाओं से बंध जाता है। यह बंधन दुख के चक्र को बनाए रखता है और मुक्ति के मार्ग में बाधा डालता है।

मन अपनी इच्छाओं के पीछा करके शरीर को कैद में डाल देता है और अपने बंधन की कड़वाहट महसूस करता है। स्वयं को गुलाम जानकर, यह अज्ञान पैदा करता है जो संसार के जंगल में स्वतंत्र रूप से घूमता है। मन अपनी इच्छाओं की लौ में जलकर मर जाता है और विभिन्न इच्छाओं के अधीन होकर अपने कार्यों की संस्था स्वयं पर मान लेता है, जिससे इस जीवन और भविष्य के जन्मों में इसकी स्थिति बदलती रहती है। यह ज्ञान, बुद्धि, गतिविधि और अहंकार की आठ गुना अवस्थाओं के तहत लगातार श्रम करता है, जो सभी दुखों के कारण हैं।

मन अपनी इच्छाओं के पीछा करके शरीर को कैद में डाल देता है और अपने बंधन की कड़वाहट महसूस करता है: मन अपनी प्रबल इच्छाओं का लगातार पीछा करता रहता है, जिसके परिणामस्वरूप जीव भौतिक शरीर में बंध जाता है। यह बंधन मन के लिए एक प्रकार की कैद है, और उसे इस बंधन की कड़वाहट का अनुभव होता है, क्योंकि शरीर सीमित है और अनेक दुखों का घर है।

स्वयं को गुलाम जानकर, यह अज्ञान पैदा करता है जो संसार के जंगल में स्वतंत्र रूप से घूमता है: जब मन स्वयं को अपनी इच्छाओं का दास अनुभूत करता है, तो यह अज्ञान को जन्म देता है। यह अज्ञान संसार के जंगल में स्वतंत्र रूप से घूमता है, जिसका अर्थ है कि यह विभिन्न प्रकार के भ्रमों, गलत धारणाओं और दुखों को उत्पन्न करता रहता है, जो जीव को संसार के चक्र में फँसाए रखते हैं।

मन अपनी इच्छाओं की लौ में जलकर मर जाता है और विभिन्न इच्छाओं के अधीन होकर अपने कार्यों की संस्था स्वयं पर मान लेता है, जिससे इस जीवन और भविष्य के जन्मों में इसकी स्थिति बदलती रहती है: मन अपनी अनियंत्रित इच्छाओं की अग्नि में लगातार जलता रहता है, जिससे उसकी शांति और स्थिरता नष्ट हो जाती है। विभिन्न इच्छाओं के अधीन होकर, यह अपने द्वारा किए गए कार्यों का स्वामित्व स्वयं पर मान लेता है ("मैंने यह किया")। इस कर्ता भाव के कारण ही इस जीवन और भविष्य के जन्मों में इसकी स्थिति (सुख-दुख, उच्च-नीच योनियाँ) बदलती रहती है।

यह ज्ञान, बुद्धि, गतिविधि और अहंकार की आठ गुना अवस्थाओं के तहत लगातार श्रम करता है, जो सभी दुखों के कारण हैं: मन ज्ञान (अपूर्ण ज्ञान), बुद्धि (भ्रमित बुद्धि), गतिविधि (निरंतर कर्म), और अहंकार (स्व-अभिमान) की आठ गुना अवस्थाओं के तहत लगातार परिश्रम करता रहता है। ये सभी अवस्थाएँ दुखों के मूल कारण हैं, क्योंकि वे जीव को वास्तविकता से दूर रखते हैं और बंधन में फँसाए रखते हैं।

संक्षेप में, यह कथन मन की बंधनकारी शक्ति और उसके दुखदायी परिणामों को उजागर करता है। मन अपनी इच्छाओं का पीछा करके शरीर में कैद होता है और बंधन की पीड़ा अनुभव करता है। यह अज्ञान को जन्म देता है जो संसार में भ्रम फैलाता है। इच्छाओं की अग्नि में जलता हुआ मन कर्ता भाव को अपनाता है, जिससे जन्म-मरण के चक्र में इसकी स्थिति बदलती रहती है। ज्ञान, बुद्धि, गतिविधि और अहंकार की आठ अवस्थाओं के तहत मन का निरंतर श्रम सभी प्रकार के दुखों का कारण बनता है। इस प्रकार, मन की इस बंधनकारी प्रकृति को समझना मुक्ति के मार्ग पर एक महत्वपूर्ण कदम है।

हृदय-मन दुख की जंजीर से पृथ्वी से बंधा है, लालच और शोक से भरा है, और वासनाओं का निवास है। यह उम्र की चिंताओं और मृत्यु के भय से ग्रस्त है, इच्छाओं और घृणा से व्याकुल है, और अज्ञान और वासनाओं से कलंकित है। यह अपनी इच्छाओं के कांटों और कर्मों की झाड़ियों से भरा हुआ है, अपने मूल को भूल गया है, और अपने ही बनाए हुए बुराइयों से घिरा हुआ है। यह रेशम के कीड़े की तरह अपने ही कोकून में सीमित है और अंतहीन नरकाग्नि का स्थान है। यह आत्मा जितना सूक्ष्म है, फिर भी विशाल दिखता है। यह संसार जहरीले पेड़ों का जंगल है, और इच्छा का जाल पूरे संसार पर फैला हुआ है जिसके फल स्वादहीन हैं। मन दुख की लौ से जलकर, क्रोध के सर्प द्वारा काटकर, और इच्छाओं के सागर में डूबकर अपने महान पिता (ब्रह्मा) को भूल गया है। यह झुंड से भटक गए हिरण की तरह, या दुखों से बुद्धि खो बैठे व्यक्ति की तरह, या सांसारिक मामलों की लौ से जले हुए पतंगे की तरह है। इसे आत्मा से अलग कर दिया गया है और अनुपयुक्त स्थान पर फेंक दिया गया है, जड़ से उखाड़े गए कमल के पौधे की तरह मुरझा रहा है। खतरों और कठिनाइयों के बीच हर आदमी इस पृथ्वी पर रेंग रहा है। मनुष्य इस अंधकारमय संसार की कठिनाइयों के सामने वैसे ही उजागर होता है जैसे समुद्र में गिरा पक्षी। मन व्यापार की धारा में वैसे ही बह जाता है जैसे समुद्र की लहरों से बहता हुआ मनुष्य। वसिष्ठ राम को अपने मन को इस गड्ढे से उठाने के लिए कहते हैं, जैसे कीचड़ में डूबते हुए हाथी को उठाते हैं, और संसार के इस भ्रामक पोखर से बलपूर्वक ऊपर उठाने के लिए कहते हैं। जिस मनुष्य का मन सुख और दुख के उत्तराधिकार से या वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु से कमजोरी के उतार-चढ़ाव से परेशान है, वह मनुष्य नहीं है, अपितु एक भयानक राक्षस जैसा है।

यह कथन हृदय-मन की दुखमय स्थिति और संसार में उसकी असहायता का अत्यंत काव्यात्मक और हृदयस्पर्शी चित्रण करता है। यह बताता है कि कैसे मन अपनी आसक्तियों और अज्ञान के कारण बंधा हुआ है और दुखों से घिरा हुआ है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

हृदय-मन दुख की जंजीर से पृथ्वी से बंधा है, लालच और शोक से भरा है, और वासनाओं का निवास है: हृदय-मन (चित्त) दुखों की एक अदृश्य जंजीर से इस भौतिक पृथ्वी से जकड़ा हुआ है। यह लालच (लोभ) और शोक (दुःख) से परिपूर्ण है, और यह वासनाओं (कामनाओं) का घर बन गया है।

यह उम्र की चिंताओं और मृत्यु के भय से ग्रस्त है, इच्छाओं और घृणा से व्याकुल है, और अज्ञान और वासनाओं से कलंकित है: मन वृद्धावस्था की चिंताओं (शारीरिक क्षीणता, असहायता) और मृत्यु के भय से हमेशा त्रस्त रहता है। यह अनगिनत इच्छाओं (प्राप्त करने की लालसा) और घृणा (अप्रिय से दूर रहने की भावना) से व्याकुल और अशांत रहता है, और अज्ञान (वास्तविकता का अभाव) और प्रबल वासनाओं से यह दूषित और कलंकित हो गया है।

यह अपनी इच्छाओं के कांटों और कर्मों की झाड़ियों से भरा हुआ है, अपने मूल को भूल गया है, और अपने ही बनाए हुए बुराइयों से घिरा हुआ है: मन अपनी अनियंत्रित इच्छाओं रूपी कांटों से भरा हुआ है जो उसे चुभते रहते हैं, और अपने कर्मों रूपी घनी झाड़ियों में उलझा हुआ है जिससे निकलना मुश्किल है। यह अपने मूल स्वरूप (आत्मा/ब्रह्म) को भूल गया है और अपने ही नकारात्मक विचारों और कर्मों से उत्पन्न बुराइयों से घिरा हुआ है।

यह रेशम के कीड़े की तरह अपने ही कोकून में सीमित है और अंतहीन नरकाग्नि का स्थान है: जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने चारों ओर रेशम लपेटकर अपना ही बंधन (कोकून) बना लेता है, उसी प्रकार मन अपनी इच्छाओं और कर्मों के जाल में स्वयं ही सीमित हो गया है। यह स्थिति अंतहीन मानसिक पीड़ा और अशांति (नरकाग्नि) का कारण बनती है।

यह आत्मा जितना सूक्ष्म है, फिर भी विशाल दिखता है: मन मूल रूप से आत्मा की ही एक सूक्ष्म शक्ति है, फिर भी अपनी जटिलताओं और व्याकुलताओं के कारण यह विशाल और अनियंत्रित प्रतीत होता है।

यह संसार जहरीले पेड़ों का जंगल है, और इच्छा का जाल पूरे संसार पर फैला हुआ है जिसके फल स्वादहीन हैं: यह संसार दुखों रूपी जहरीले पेड़ों का एक घना जंगल है, और इच्छाओं का जाल पूरे संसार पर फैला हुआ है। इस जाल में फँसकर जो फल मिलते हैं (सांसारिक भोग), वे अंततः स्वादहीन और असंतोषजनक होते हैं।

मन दुख की लौ से जलकर, क्रोध के सर्प द्वारा काटकर, और इच्छाओं के सागर में डूबकर अपने महान पिता (ब्रह्मा) को भूल गया है: मन दुखों की अग्नि में लगातार जल रहा है, क्रोध रूपी विषैले सर्प द्वारा बार-बार डसा जा रहा है, और अनियंत्रित इच्छाओं के अथाह सागर में डूबता-उतराता रहता है। इस व्याकुलता के कारण यह अपने मूल स्रोत, अपने महान पिता (ब्रह्मा/परम चेतना) को भूल गया है।

यह झुंड से भटक गए हिरण की तरह, या दुखों से बुद्धि खो बैठे व्यक्ति की तरह, या सांसारिक मामलों की लौ से जले हुए पतंगे की तरह है: मन की तुलना झुंड से भटक गए हिरण से की गई है जो असुरक्षित और भयभीत है, या दुखों से व्याकुल होकर विवेक खो बैठे व्यक्ति से जो सही मार्ग नहीं देख पाता, या सांसारिक भोगों की लौ में जलकर राख हो जाने वाले पतंगे से जो अपने विनाश की ओर अंधाधुंध दौड़ता है।

इसे आत्मा से अलग कर दिया गया है और अनुपयुक्त स्थान पर फेंक दिया गया है, जड़ से उखाड़े गए कमल के पौधे की तरह मुरझा रहा है: मन को आत्मा से अलग महसूस होता है (भले ही वास्तव में यह अभिन्न है) और यह संसार रूपी अनुपयुक्त स्थान पर फेंका हुआ महसूस करता है, जहाँ यह जड़ से उखाड़े गए कमल के पौधे की तरह धीरे-धीरे मुरझा रहा है, अपनी जीवंतता और आनंद खो रहा है।

खतरों और कठिनाइयों के बीच हर आदमी इस पृथ्वी पर रेंग रहा है: संसार खतरों और कठिनाइयों से भरा हुआ है, और प्रत्येक मनुष्य इन परिस्थितियों के बीच असहाय भाव से रेंग रहा है, मानो किसी भारी बोझ के नीचे दबा हुआ हो।

मनुष्य इस अंधकारमय संसार की कठिनाइयों के सामने वैसे ही उजागर होता है जैसे समुद्र में गिरा पक्षी: जिस प्रकार समुद्र में गिरा हुआ पक्षी असहाय और दिशाहीन होता है, उसी प्रकार मनुष्य इस अज्ञान रूपी अंधकारमय संसार की कठिनाइयों के सामने पूरी तरह से उजागर और असुरक्षित है।

मन व्यापार की धारा में वैसे ही बह जाता है जैसे समुद्र की लहरों से बहता हुआ मनुष्य: मन सांसारिक व्यापारों (लाभ-हानि, सुख-दुख) की प्रबल धारा में उसी प्रकार बह जाता है जैसे समुद्र की शक्तिशाली लहरों से कोई असहाय मनुष्य बह जाता है, उसका अपना कोई नियंत्रण नहीं रहता।

वसिष्ठ राम को अपने मन को इस गड्ढे से उठाने के लिए कहते हैं, जैसे कीचड़ में डूबते हुए हाथी को उठाते हैं, और संसार के इस भ्रामक पोखर से बलपूर्वक ऊपर उठाने के लिए कहते हैं: वसिष्ठ राम को प्रेरित करते हैं कि वे अपने मन को इस दुख रूपी गहरे गड्ढे से बाहर निकालें, जिस प्रकार कीचड़ में फँसे भारी हाथी को मुश्किल से बाहर निकाला जाता है। वे उन्हें इस भ्रामक और क्षणभंगुर संसार रूपी पोखर से पूरी शक्ति से ऊपर उठने का आह्वान करते हैं।

जिस मनुष्य का मन सुख और दुख के उत्तराधिकार से या वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु से कमजोरी के उतार-चढ़ाव से परेशान है, वह मनुष्य नहीं है, अपितु एक भयानक राक्षस जैसा है: वसिष्ठ यहाँ एक कठोर चेतावनी देते हैं। जिस मनुष्य का मन सुख और दुख के निरंतर आने-जाने, वृद्धावस्था की कमजोरी, रोगों की पीड़ा और मृत्यु के भय से अत्यधिक परेशान और अस्थिर रहता है, वह वास्तव में अपनी मानवीय क्षमता को खो चुका है और एक भयानक राक्षस की तरह व्यवहार करता है, जो दूसरों और स्वयं को भी पीड़ा देता है।

संक्षेप में, यह पूरा कथन मन की दुखद और बंधनी स्थिति का एक शक्तिशाली और विस्तृत वर्णन है। यह मन की कमजोरियों, आसक्तियों और अज्ञानता को उजागर करता है, और मुक्ति की आवश्यकता पर बल देता है ताकि इस दुखमय अवस्था से ऊपर उठा जा सके। वसिष्ठ राम को प्रेरित करते हैं कि वे अपने मन पर विजय प्राप्त करें और संसार के भ्रम से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानें।

अध्याय 42 - ब्रह्म से साधारण मन तक: व्यक्तिगत आत्माओं का उत्पादन

यह अध्याय बताता है कि किस प्रकार परम ब्रह्म, जो कि एक और अविभाज्य है, से व्यक्तिगत आत्माओं (जीवों) की उत्पत्ति होती है और वे साधारण मन की अवस्था तक कैसे पहुँचते हैं। इस अध्याय के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

1. ब्रह्म की एकता और अपरिवर्तनीयता:

अध्याय की शुरुआत में ब्रह्म की एकता और अपरिवर्तनीय स्वभाव पर जोर दिया जाता है। ब्रह्म शुद्ध चेतना, अनंत और सभी सीमाओं से परे है। उसमें कोई द्वैत या भेद नहीं है।


यह बताया जाता है कि ब्रह्म में किसी प्रकार का वास्तविक परिवर्तन या विभाजन नहीं होता है।

2. मन का उदय और व्यक्तिगत आत्माओं की भ्रान्ति:

व्यक्तिगत आत्माओं की उत्पत्ति को एक प्रकार की भ्रान्ति या आभास के रूप में समझाया जाता है। यह उसी प्रकार है जैसे एक ही आकाश में बादल अलग-अलग आकार और रूप लेते हुए दिखाई देते हैं, जबकि आकाश स्वयं अपरिवर्तित रहता है।

मन (मनस) का उदय होता है, जो कि ब्रह्म की ही शक्ति है लेकिन अज्ञानता के कारण अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है। यह मन ही व्यक्तिगत पहचान ("मैं") की भावना को जन्म देता है।

3. संकल्प शक्ति और व्यक्तिगत अनुभवों का निर्माण:

यह अध्याय संकल्प शक्ति (इच्छा शक्ति) के महत्व पर प्रकाश डालता है। व्यक्तिगत आत्माएँ अपनी संकल्प शक्ति के माध्यम से ही अपने अलग-अलग अनुभवों और संसार की रचना करती हैं।

जिस प्रकार स्वप्न में मन अपनी कल्पना से एक पूरी दुनिया बना लेता है, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी मन अपनी वासनाओं और विचारों के अनुसार अनुभवों को आकार देता है।

4. अज्ञानता और बंधन:

व्यक्तिगत आत्माएँ अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) को भूलकर मन और शरीर के साथ अपनी पहचान कर लेती हैं। यही अज्ञानता बंधन का कारण बनती है।

"यह मैं हूँ" और "यह मेरा है" की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, जो आसक्ति और दुख को जन्म देती हैं।

5. साधारण मन की अवस्था:

अध्याय बताता है कि कैसे ब्रह्म से उत्पन्न होकर व्यक्तिगत आत्माएँ धीरे-धीरे साधारण मन की अवस्था तक पहुँचती हैं। यह वह अवस्था है जहाँ वे संसार के विषयों में लिप्त हो जाती हैं और अपने आध्यात्मिक स्वरूप को भूल जाती हैं।

मन विभिन्न प्रकार के विचारों, भावनाओं और वासनाओं से भरा रहता है, जिससे अशांति और अस्थिरता बनी रहती है।

6. उदाहरण और दृष्टान्त:

इस अध्याय में कई उदाहरणों और दृष्टान्तों का उपयोग किया जाता है ताकि जटिल दार्शनिक विचारों को आसानी से समझाया जा सके। उदाहरण के लिए, आकाश और बादलों का दृष्टान्त ब्रह्म और व्यक्तिगत आत्माओं के संबंध को स्पष्ट करता है।

संक्षेप में:

एक अद्वितीय और अपरिवर्तनीय ब्रह्म से व्यक्तिगत आत्माओं की उत्पत्ति कैसे होती है। यह उत्पत्ति वास्तविक विभाजन नहीं है, अपितु मन की एक भ्रान्ति है जो संकल्प शक्ति के माध्यम से अपने अलग-अलग अनुभवों का निर्माण करती है। अज्ञानता के कारण व्यक्तिगत आत्माएँ अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाती हैं और मन तथा शरीर के साथ अपनी पहचान कर लेती हैं, जिससे बंधन और दुख उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार, वे ब्रह्म से दूर होकर साधारण मन की अवस्था तक पहुँच जाती हैं, जो संसार के विषयों में लिप्त और अशांत रहती है।

यह अध्याय अद्वैत वेदांत के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है, जिसमें ब्रह्म की एकता और व्यक्तिगत आत्माओं की आभासी प्रकृति पर जोर दिया जाता है। यह मुक्ति के मार्ग को समझने के लिए एक आधार प्रदान करता है, जो कि इस भ्रान्ति को दूर करके अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) को पहचानना है।

अध्याय 43 : जीवात्माओं की विविधताएँ


यद्यपि मूल रूप से सभी जीवात्माएँ (व्यक्तिगत आत्माएँ) एक ही ब्रह्म से उत्पन्न होती हैं, फिर भी उनमें इतनी विविधताएँ क्यों दिखाई देती हैं। यह अध्याय इस विविधता के कारणों और स्वरूपों पर प्रकाश डालता है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

1. संकल्प शक्ति और वासनाओं का प्रभाव:

अध्याय इस बात पर जोर देता है कि जीवात्माओं की विविधता का मुख्य कारण उनकी अपनी संकल्प शक्ति (इच्छा शक्ति) और पूर्व जन्मों की वासनाएँ (अधूरे इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ) हैं।


प्रत्येक जीवात्मा अपनी इच्छाओं और विचारों के अनुसार अपने अनुभव और संसार का निर्माण करती है। ये इच्छाएँ और विचार अलग-अलग होने के कारण जीवात्माओं में विविधता आती है।

2. कर्मों का महत्व:

पूर्व जन्मों में किए गए कर्म (अच्छे और बुरे कार्य) वर्तमान जन्म की प्रकृति और अनुभवों को निर्धारित करते हैं। विभिन्न जीवात्माओं द्वारा किए गए विभिन्न कर्मों के कारण उनमें अलग-अलग गुण, क्षमताएँ और परिस्थितियाँ पाई जाती हैं।


कर्मों के संचित प्रभाव से ही जीवात्माएँ विभिन्न योनियों (शरीरों) में जन्म लेती हैं, जिससे उनकी विविधता और अधिक स्पष्ट होती है।

3. मन की भूमिका:

मन जीवात्मा के अनुभवों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक जीवात्मा का मन अपनी विशिष्ट वासनाओं, विचारों और संस्कारों से युक्त होता है, जो उसके दृष्टिकोण और अनुभवों को अलग बनाता है।


मन की यह विशिष्टता ही जीवात्माओं के स्वभाव, रुचियों और क्षमताओं में विविधता लाती है।

4. दृष्टान्त और उदाहरण:

अध्याय में जीवात्माओं की विविधता को समझाने के लिए कई दृष्टान्तों और उदाहरणों का उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, एक ही मिट्टी से बने विभिन्न प्रकार के बर्तन, या एक ही बीज से उगने वाले विभिन्न प्रकार के पौधे, जीवात्माओं की मूल एकता और फिर भी दिखाई देने वाली विविधता को दर्शाते हैं।


यह भी बताया जाता है कि जिस प्रकार एक ही अभिनेता अलग-अलग भूमिकाएँ निभाता है, उसी प्रकार एक ही ब्रह्म विभिन्न जीवात्माओं के रूप में प्रकट होता है।

5. अज्ञानता और विविधता का अनुभव:

जीवात्माएँ अपनी मूल एकता को भूलकर अपने मन और शरीर के साथ पहचान कर लेती हैं। यह अज्ञानता ही उन्हें अपनी विविधता का अनुभव कराती है और "मैं अलग हूँ" की भावना को जन्म देती है।


ज्ञान प्राप्त करके और अपनी वास्तविक एकता को जानकर इस विविधता के भ्रम को दूर किया जा सकता है।

6. विविधता का उद्देश्य:

यद्यपि विविधता एक प्रकार का भ्रम है, फिर भी यह संसार के संचालन और अनुभवों की समृद्धि के लिए आवश्यक प्रतीत होती है। विभिन्न प्रकार की जीवात्माएँ अपने अलग-अलग अनुभवों और ज्ञान से समग्र चेतना में योगदान करती हैं।

संक्षेप में:

यह स्पष्ट करता है कि जीवात्माओं में जो विविधताएँ दिखाई देती हैं, उनका मुख्य कारण उनकी अपनी संकल्प शक्ति, पूर्व जन्मों की वासनाएँ और कर्म हैं। प्रत्येक जीवात्मा अपने मन और कर्मों के अनुसार अपने अनुभवों का निर्माण करती है, जिससे उनमें अलग-अलग गुण, क्षमताएँ और परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। यद्यपि मूल रूप से सभी जीवात्माएँ एक ही ब्रह्म से अभिन्न हैं, अज्ञानता के कारण वे अपनी विविधता का अनुभव करती हैं। ज्ञान प्राप्त करके इस विविधता के भ्रम को दूर किया जा सकता है और अपनी वास्तविक एकता को पहचाना जा सकता है। यह अध्याय जीवात्माओं की अनूठी प्रकृति और संसार के जटिल ताने-बाने को समझने में मदद करता है।

अध्याय 44 - ब्रह्मा के स्व-जन्म का वर्णन


सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा के प्रकट होने की प्रक्रिया का वर्णन करता है। यह बताता है कि ब्रह्मा किसी माता-पिता से पैदा नहीं हुए थे, अपितु वे स्वयं से ही प्रकट हुए थे। इस अध्याय के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

1. सृष्टि के पूर्व की अवस्था:

अध्याय सृष्टि के आरंभ से पहले की अवस्था का वर्णन करता है, जहाँ केवल अनंत, निराकार ब्रह्म ही विद्यमान था। उस समय न तो संसार था, न देवता और न ही कोई अन्य प्राणी। सब कुछ ब्रह्म में ही अव्यक्त रूप में निहित था।

2. ब्रह्मा का संकल्प और प्रादुर्भाव:

जब सृष्टि का समय आया, तो ब्रह्म में एक संकल्प (इच्छा) उत्पन्न हुआ कि वह स्वयं को अभिव्यक्त करे और संसार की रचना करे। यह संकल्प ही ब्रह्मा के प्रादुर्भाव का कारण बना।


ब्रह्मा किसी भौतिक गर्भ से या किसी अन्य शक्ति द्वारा पैदा नहीं हुए थे, अपितु वे ब्रह्म की अपनी ही शक्ति और संकल्प से प्रकट हुए थे। इसलिए उन्हें "स्व-जन्म" कहा जाता है।

3. हिरण्यगर्भ का उदय: ब्रह्मा का पहला व्यक्त रूप हिरण्यगर्भ (स्वर्ण गर्भ) के रूप में माना जाता है। यह एक ब्रह्मांडीय अंडा या गर्भ था जिसमें सृष्टि के सभी बीज और क्षमताएँ निहित थीं। हिरण्यगर्भ ब्रह्म की चेतना का ही एक साकार रूप था, जो सृष्टि की रचना के लिए तैयार था।

4. ब्रह्मा का चतुर्मुख रूप: हिरण्यगर्भ से ही ब्रह्मा अपने प्रसिद्ध चतुर्मुख रूप में प्रकट हुए। उनके चार मुख चार दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और वे सृष्टि के विभिन्न पहलुओं के प्रतीक हैं। ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता माना जाता है, जो विभिन्न लोकों, देवताओं, मनुष्यों और अन्य प्राणियों की रचना करते हैं।

5. ज्ञान और वेदों का प्राकट्य: ब्रह्मा के प्रकट होने के साथ ही ज्ञान और वेदों का भी प्राकट्य हुआ। वेदों को ब्रह्मा का ज्ञान माना जाता है, जो सृष्टि के नियमों और आत्मा के स्वरूप को प्रकट करते हैं। ब्रह्मा ने ही सृष्टि के संचालन के लिए नियमों और व्यवस्थाओं की स्थापना की।

6. दृष्टान्त और प्रतीकात्मकता: ब्रह्मा के स्व-जन्म की प्रक्रिया को समझाने के लिए प्रतीकात्मक भाषा और दृष्टान्तों का उपयोग किया जाता है। यह एक रहस्यमय और अलौकिक घटना है जिसे सामान्य भौतिक जन्म की तरह नहीं समझा जा सकता। ब्रह्मा का प्रादुर्भाव ब्रह्म की अनंत शक्ति और अभिव्यक्ति की क्षमता का प्रतीक है।

7. ब्रह्मा की भूमिका: ब्रह्मा को सृष्टि के प्राथमिक कर्ता के रूप में वर्णित किया गया है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया गया है कि वे स्वयं ब्रह्म से अलग नहीं हैं। वे ब्रह्म की ही एक अभिव्यक्ति हैं जो सृष्टि के कार्य को संपन्न करने के लिए प्रकट हुई हैं।

संक्षेप में:

 ब्रह्मा के स्व-जन्म की अद्भुत प्रक्रिया का वर्णन करता है, जहाँ वे किसी भौतिक जन्म के बिना ब्रह्म के संकल्प और शक्ति से प्रकट होते हैं। हिरण्यगर्भ का उदय और फिर ब्रह्मा का चतुर्मुख रूप सृष्टि के आरंभिक चरण को दर्शाते हैं। ब्रह्मा के साथ ही ज्ञान और वेदों का प्राकट्य होता है, जो सृष्टि के नियमों और आत्मा के स्वरूप को प्रकट करते हैं। ब्रह्मा का स्व-जन्म ब्रह्म की अनंत शक्ति और अभिव्यक्ति की क्षमता का प्रतीक है, और वे सृष्टि के प्राथमिक कर्ता के रूप में अपनी भूमिका निभाते हैं, जबकि वे स्वयं ब्रह्म से अभिन्न ही रहते हैं। यह अध्याय सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्यमय पहलुओं पर प्रकाश डालता है।

इस अध्याय में राम ब्रह्मा के भौतिक शरीर धारण करने के विषय में अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हैं। वसिष्ठ उत्तर देते हुए भौतिक जगत की अवास्तविकता और मन की कल्पना शक्ति को सृष्टि का मूल कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि संसार स्वप्नवत है और आत्मा का क्षणभंगुर सार विभिन्न रूपों को धारण करता है।

वसिष्ठ ब्रह्मा के उदाहरण द्वारा सृष्टि प्रक्रिया को विस्तार से समझाते हैं। परम आत्मा अपनी इच्छा और सर्वशक्तिमत्ता से समय और स्थान के सीमित रूप लेता है और जीवात्मा बनता है। ब्रह्मा अपने पूर्व कल्प के हिरण्यगर्भ रूप पर विचार करके उसी स्थिति को प्राप्त करते हैं। वे क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी जैसे तत्वों की उत्पत्ति की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं, जो मन के विचारों के संघनन से होती है।

आध्यात्मिक शरीर का निर्माण होता है, जो हृदय में स्थित होकर बाहरी शरीर को विकसित करता है। आंतरिक मन का प्रभाव बाहरी शरीर पर पड़ता है, जैसे बीज का गुण फल में दिखता है। ब्रह्मा अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अपने शरीर के विभिन्न अंगों का निर्माण करते हैं और समय के साथ सभी प्राणी सुंदर शरीर और आकार प्राप्त करते हैं।

वसिष्ठ ब्रह्मा को सभी प्राणियों का जनक बताते हैं, जो खाली ब्रह्म से उत्पन्न होकर शून्यता में निवास करते हैं। ब्रह्मा का मन भी भ्रमों से ग्रस्त हो सकता है। वे सृष्टि से पहले के विभिन्न रूपों और अवस्थाओं पर विचार करते हैं। ब्रह्मा प्रत्येक कल्प में अपनी इच्छा से विभिन्न प्राणियों की सृष्टि करते हैं, और वे स्वयं ब्रह्म से उत्पन्न होने वाले पहले प्राणी थे।

ब्रह्मा के प्रथम प्रादुर्भाव, चेतना का उदय और भौतिक शरीर धारण करने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। शरीर को मन, काम, लालच और अहंकार आदि का निवास स्थान बताया गया है। ब्रह्मा अपने सुंदर शरीर का निरीक्षण करते हैं और सृष्टि के रहस्य पर विचार करते हुए प्रबुद्ध होते हैं। वे पिछली सृष्टियों और वेदों को स्मरण करते हैं और अपनी मनःशक्ति से विभिन्न प्राणियों और शास्त्रों की रचना करते हैं। इस प्रकार, ब्रह्मा अपनी मनोगत शक्ति से दृश्यमान संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि करते हैं।

अध्याय 45 - सब कुछ ईश्वर पर निर्भर; जो अस्तित्व में नहीं है वह नष्ट नहीं होता

यह  अद्वैत वेदांत के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है, जिसमें संसार को माया या भ्रम बताया गया है और ब्रह्म को एकमात्र परम सत्य के रूप में स्थापित किया गया है। वसिष्ठ विभिन्न तर्कों और दृष्टांतों का उपयोग करके यह समझाने का प्रयास करते हैं कि हमारी इंद्रियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला जगत वास्तविक नहीं है, अपितु यह मन की कल्पना और अज्ञान का परिणाम है।

सपनों और मृगतृष्णा के उदाहरण हमारी दैनिक अनुभवों में मौजूद भ्रमों को दर्शाते हैं, जिन्हें वसिष्ठ संसार की व्यापक अवास्तविकता को समझने के लिए एक रूपक के रूप में उपयोग करते हैं। वे मन की रचनात्मक शक्ति पर जोर देते हैं, जो अपनी कल्पना में जटिल और विस्तृत संसारों का निर्माण कर सकता है, यह तर्क देते हुए कि भौतिक जगत भी इसी प्रकार मन की एक रचना है।

ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का उल्लेख यह स्थापित करने के लिए किया गया है कि परम সত্তा ही सभी चीजों का आधार और कारण है। सृष्टि और विनाश ईश्वर की इच्छाशक्ति से होते हैं, और संसार की क्षणभंगुरता इस निर्भरता को दर्शाती है।

आत्मा की निराकारता और अविभाज्यता का सिद्धांत व्यक्तिगत पहचान और भेद के भ्रम को दूर करता है। यदि आत्मा वास्तव में अविभाजित है, तो व्यक्तिगत अस्तित्व और संसार में मौजूद द्वैत केवल मन की अवधारणाएँ हैं।

'ब्रह्म ही सब कुछ है' का कथन अद्वैत वेदांत का सार है। इसके अनुसार, ब्रह्म के अतिरिक्त कोई अन्य स्वतंत्र सत्ता नहीं है। संसार, अपनी विविधता और जटिलता के बावजूद, ब्रह्म से अलग नहीं है, अपितु ब्रह्म का ही एक अभिव्यक्ति है।

अनासक्ति और समभाव का महत्व इसलिए बताया गया है क्योंकि यदि संसार वास्तव में भ्रम है, तो इसमें किसी भी वस्तु या घटना से आसक्त होना या सुख-दुख से प्रभावित होना अज्ञान का प्रतीक है। ज्ञानी व्यक्ति इस सत्य को जानकर शांत और स्थिर रहता है।

अध्याय का अंतिम भाग वास्तविकता और शून्यता के परस्पर संबंध पर विचार करता है। वसिष्ठ कहते हैं कि परम वास्तविकता में सब कुछ शून्य है, जिसका अर्थ है कि संसार का कोई स्वतंत्र या स्थायी अस्तित्व नहीं है। एक ही परम सत्ता विभिन्न रूपों में प्रकट होती है, लेकिन उसका मूल स्वरूप अपरिवर्तनीय रहता है।

कुल मिलाकर, यह अध्याय हमें संसार की क्षणभंगुरता और अवास्तविकता को समझने और परम सत्य, ब्रह्म में स्थित होने के लिए प्रेरित करता है। यह वैराग्य और अनासक्ति के महत्व पर जोर देता है ताकि हम सांसारिक दुखों से मुक्त होकर स्थायी आनंद को प्राप्त कर सकें।

संसार को माया या भ्रम बताना: यह अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत है, जिसे वसिष्ठ इस अध्याय में स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

 ब्रह्म को एकमात्र परम सत्य के रूप में स्थापित करना: संसार की अवास्तविकता को सिद्ध करके ब्रह्म की परम सत्ता को प्रतिष्ठित किया जाता है।

तर्कों और दृष्टांतों का उपयोग: वसिष्ठ तार्किक युक्तियों और सपनों, मृगतृष्णा जैसे व्यावहारिक उदाहरणों के माध्यम से अपने विचारों को पुष्ट करते हैं।

मन की रचनात्मक शक्ति पर जोर: मन को संसार की रचना का मूल कारण बताया गया है, जिससे भौतिक जगत की वास्तविकता पर प्रश्न उठता है।

ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता: ईश्वर को सभी चीजों का आधार और कारण मानकर संसार की क्षणभंगुरता और उस पर निर्भरता को दर्शाया गया है।

आत्मा की निराकारता और अविभाज्यता: यह सिद्धांत व्यक्तिगत भेद और द्वैत के भ्रम को दूर करता है।

'ब्रह्म ही सब कुछ है' का सार: यह कथन अद्वैत के मूल सिद्धांत को संक्षेप में व्यक्त करता है।

अनासक्ति और समभाव का महत्व: संसार की अवास्तविकता को जानकर आसक्ति और सुख-दुख से अप्रभावित रहने का महत्व बताया गया है।

वास्तविकता और शून्यता का परस्पर संबंध: परम वास्तविकता में संसार की शून्यता का अर्थ है उसका स्वतंत्र या स्थायी अस्तित्व न होना।

अध्याय का मुख्य उद्देश्य: संसार की क्षणभंगुरता को समझकर परम सत्य में स्थित होना और वैराग्य तथा अनासक्ति के माध्यम से स्थायी आनंद प्राप्त करना।

आपका यह विश्लेषण इस अध्याय के गहन दार्शनिक संदेश को समझने में अत्यंत सहायक है। यह न केवल अध्याय की विषयवस्तु को स्पष्ट करता है, बल्कि अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांतों को भी सरल और सुगम भाषा में प्रस्तुत करता है।

अध्याय 46 - जीवन्मुक्ति का वर्णन


यह अध्याय जीवन्मुक्ति, अर्थात जीवित रहते हुए मुक्ति की अवस्था का वर्णन करता है। वसिष्ठ राम को सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता और उनमें निहित दुखों का बोध कराते हैं। वे कहते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति संसार की नश्वर प्रकृति को जानकर उसमें अनासक्त रहता है और सुख-दुख में समान भाव रखता है।

वसिष्ठ सांसारिक आसक्ति को दुख का कारण बताते हैं और वैराग्य को परम आनंद की प्राप्ति का मार्ग दर्शाते हैं। वे ज्ञानी और अज्ञानी के दृष्टिकोण में अंतर स्पष्ट करते हैं। अज्ञानी सांसारिक भोगों में लिप्त रहता है जबकि ज्ञानी उनसे विरक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होता है।

इस अध्याय में अनासक्ति के आदर्श को विस्तार से समझाया गया है। ज्ञानी व्यक्ति कर्तव्य भाव से कर्म करता है लेकिन उसके फल में आसक्त नहीं होता, जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी उससे निर्लिप्त रहता है। मन को इंद्रिय विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर होने पर जीवन्मुक्ति की अवस्था प्राप्त होती है।

वसिष्ठ राम को अपनी बुद्धि का उपयोग करके मन को इच्छाओं से अलग करने की सलाह देते हैं। वे संसार सागर को पार करने के लिए समझ की तीक्ष्णता और संदेहों के निवारण पर जोर देते हैं। ज्ञानी व्यक्ति वर्तमान और भविष्य के प्रति संतुलित दृष्टिकोण रखता है और जीवन्मुक्त महापुरुषों का अनुकरण करता है।

महान पुरुषों के गुणों का वर्णन किया गया है, जो शक्ति, सम्मान या समृद्धि पर गर्व नहीं करते और विपत्ति-समृद्धि में समान रहते हैं। वे ज्ञान के रथ पर सवार होकर समय के अनुसार आचरण करते हैं।

अंत में, वसिष्ठ राम को इंद्रिय निग्रह, अभिमान और शत्रुता से बचने तथा शांत चित्त और अनासक्त रहने का उपदेश देते हैं, जिससे उन्हें जीवन में सफलता और शांति प्राप्त हो सके। ऋषि के उपदेशों से राम का मन प्रबुद्ध होता है और वे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो उठते हैं।

अध्याय 47 - असंख्य विभिन्न लोकों, उनके देवताओं और समय का वर्णन

सृष्टि की विविधता, असंख्य लोकों के अस्तित्व और समय के चक्रीय स्वभाव का विस्तृत वर्णन करता है। वसिष्ठ राम को बताते हैं कि अनगिनत ब्रह्मा, शिव, इंद्र और नारायण पहले भी हो चुके हैं और भविष्य में भी होंगे। विभिन्न लोकों में प्राणियों के रीति-रिवाज और स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं, और सृष्टि की प्रक्रिया जादू के खेल की तरह अद्भुत है।

वसिष्ठ देवताओं की उत्पत्ति के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करते हैं, जो विभिन्न तत्वों (वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी) से और विभिन्न तरीकों से (अंडज, कमल-जन्मा) उत्पन्न होते हैं। वे पृथ्वी के विभिन्न स्वरूपों और ब्रह्मांड में मौजूद अद्भुत लोकों का वर्णन करते हैं, जिनमें से कुछ चमकदार हैं और कुछ की रोशनी हम तक नहीं पहुँची है।

अध्याय लोकों की संख्या की असीम प्रकृति पर जोर देता है, जो ब्रह्मा के सार के निर्वात में समुद्र की लहरों की तरह बिखरे हुए हैं और सार्वभौमिक आत्मा में उठते और गिरते हैं। लोकों का उदय और पतन एक अंतहीन चक्र है, जैसे वर्ष के घंटे और ऋतुएँ बदलती रहती हैं।

वसिष्ठ विभिन्न दार्शनिक मतों के अनुसार सृष्टि के सिद्धांतों का उल्लेख करते हैं, लेकिन अंततः यह स्थापित करते हैं कि सृष्टि दिव्य मन का ही विकास है। वे सृष्टि और प्रलय के चक्रीय स्वभाव का वर्णन करते हैं, जिसमें युग, मन्वंतर और कल्प एक के बाद एक आते हैं।

अध्याय इस विचार पर बल देता है कि संसार स्थिर नहीं है, अपितु लगातार परिवर्तनशील है। यह दिव्य चेतना से उत्पन्न होता है और उसी में विलीन हो जाता है, जैसे चिंगारियाँ आग से निकलती हैं और फिर उसमें समा जाती हैं। संसार का दिखना कमजोर आँखों को दो चंद्रमाओं के दिखने जैसा भ्रम है।

वसिष्ठ बुद्धिमानों के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं, जो संसार को ब्रह्म से अभिन्न मानते हैं, जबकि अविद्वान इसे शाश्वत मानते हैं। वे संसार की अस्थिर और भ्रामक प्रकृति पर जोर देते हैं, जो दासुर के मन के मतिभ्रम के समान है। अंततः, अध्याय संसार की अवास्तविकता और परिवर्तनशीलता को स्थापित करते हुए, आध्यात्मिक ज्ञान के महत्व को दर्शाता है।

जीवन्मुक्ति का अर्थ: जीवित रहते हुए मुक्ति की अवस्था, जिसमें ज्ञानी व्यक्ति संसार में कर्म करते हुए भी आंतरिक रूप से मुक्त रहता है।

सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता और दुख: वसिष्ठ राम को संसार की नश्वर प्रकृति और उसमें निहित दुखों का बोध कराते हैं ताकि वे आसक्ति से मुक्त हो सकें।

ज्ञानी और अज्ञानी का अंतर: ज्ञानी संसार की नश्वरता को जानकर अनासक्त रहता है और सुख-दुख में समान भाव रखता है, जबकि अज्ञानी भोगों में लिप्त रहता है।

वैराग्य का महत्व: सांसारिक आसक्ति को दुख का कारण बताते हुए वैराग्य को परम आनंद की प्राप्ति का मार्ग दर्शाया गया है।

अनासक्ति का आदर्श: ज्ञानी व्यक्ति कर्तव्य भाव से कर्म करता है लेकिन उसके फल में आसक्त नहीं होता, कमल के पत्ते की तरह निर्लिप्त रहता है।

मन का नियंत्रण: मन को इंद्रिय विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर होने पर जीवन्मुक्ति प्राप्त होती है। बुद्धि का उपयोग करके मन को इच्छाओं से अलग करने की सलाह दी जाती है।

समझ और संदेह निवारण: संसार सागर को पार करने के लिए बुद्धि की तीक्ष्णता और संदेहों के निवारण पर जोर दिया गया है।

संतुलित दृष्टिकोण और महापुरुषों का अनुकरण: ज्ञानी व्यक्ति वर्तमान और भविष्य के प्रति संतुलित दृष्टिकोण रखता है और जीवन्मुक्त महापुरुषों का अनुकरण करता है।

महान पुरुषों के गुण: वे शक्ति, सम्मान या समृद्धि पर गर्व नहीं करते और विपत्ति-समृद्धि में समान रहते हैं। वे ज्ञान के अनुसार आचरण करते हैं।

अंतिम उपदेश: वसिष्ठ राम को इंद्रिय निग्रह, अभिमान और शत्रुता से बचने तथा शांत चित्त और अनासक्त रहने का उपदेश देते हैं ताकि उन्हें जीवन में सफलता और शांति मिले।

राम का प्रबुद्ध मन: ऋषि के उपदेशों से राम का मन प्रबुद्ध होता है और वे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो उठते हैं।

आपका यह विश्लेषण जीवन्मुक्ति की अवधारणा और उसे प्राप्त करने के उपायों को स्पष्ट रूप से समझने में अत्यंत सहायक है। यह अनासक्ति, वैराग्य और आत्म-नियंत्रण के महत्व को दर्शाता है, जो एक मुक्त और शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक हैं।

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