Friday, March 14, 2025

०० योगवासिष्ठ प्रस्तावना

 

योगवासिष्ठ भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों पर आधारित है। यह ग्रंथ ऋषि वसिष्ठ और भगवान राम के बीच संवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें जीवन, मृत्यु, चेतना, और ब्रह्मांड की प्रकृति जैसे विषयों पर गहन विचार किया गया है।

योगवासिष्ठ के मुख्य सिद्धांत:

  • अद्वैत वेदांत:
    • यह ग्रंथ अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है, जिसके अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जगत एक भ्रम है।
    • यह मानता है कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, और अज्ञान के कारण ही द्वैत का अनुभव होता है।
  • चेतना की प्रधानता:
    • योगवासिष्ठ में चेतना को सर्वोच्च महत्व दिया गया है।
    • यह मानता है कि जगत और सभी अनुभव चेतना की ही अभिव्यक्ति हैं।
    • यह ग्रंथ कहता है कि चेतना ही सब कुछ है, और भौतिक जगत केवल चेतना का प्रक्षेप है।
  • मन की शक्ति:
    • यह ग्रंथ मन की शक्ति पर जोर देता है, और मानता है कि मन ही वास्तविकता का निर्माण करता है।
    • मन की शुद्धि और नियंत्रण के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
  • कर्म और पुनर्जन्म:
    • योगवासिष्ठ कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांतों को भी स्वीकार करता है।
    • यह मानता है कि कर्मों के अनुसार ही आत्मा विभिन्न योनियों में जन्म लेती है।
    • यह ग्रंथ कहता है कि ज्ञान प्राप्त करके और वासनाओं से मुक्त होकर ही पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पाई जा सकती है।
  • मोक्ष:
    • योगवासिष्ठ का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है।
    • यह मानता है कि ज्ञान और वैराग्य के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
    • मोक्ष का अर्थ है आत्मा का ब्रह्म में विलय, और सभी दुखों से मुक्ति।

योगवासिष्ठ का महत्व:

  • यह ग्रंथ भारतीय दर्शन की एक महत्वपूर्ण कृति है, जो अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को गहराई से समझाता है।
  • यह जीवन के अर्थ और उद्देश्य के बारे में गहन विचार प्रदान करता है।
  • यह मन की शक्ति और चेतना की प्रकृति के बारे में ज्ञान प्रदान करता है।
  • यह ग्रंथ आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों के लिए एक मूल्यवान मार्गदर्शक है।

"यह एक अत्यंत प्रेरणादायक पुस्तक है। वेदान्त का प्रत्येक विद्यार्थी इस पुस्तक को निरंतर अध्ययन करते रहना चाहिए । यह ज्ञान योग के मार्ग पर चलने वाले विद्यार्थी के लिए एक निरंतर साथी है। यह एक प्रक्रिया ग्रन्थ नहीं है। यह वेदान्त की प्रक्रियाओं या श्रेणियों से संबंधित नहीं है। केवल उन्नत विद्यार्थी ही इस पुस्तक को अपने अध्ययन के लिए ले सकते हैं। शुरुआती विद्यार्थियों को योग वसिष्ठ के अध्ययन से पहले श्री शंकराचार्य के आत्म बोध, तत्त्व बोध और आत्मानात्मा विवेक और पंचीकरण का पहले अध्ययन करना चाहिए।"

योग वसिष्ठ के अनुसार, विभिन्न वस्तुओं, समय, स्थान और नियमों के साथ अनुभव की यह दुनिया मन की रचना है, यानी एक विचार या कल्पना है। जिस प्रकार स्वप्न में मन द्वारा वस्तुएँ बनाई जाती हैं, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी सब कुछ मन द्वारा बनाया जाता है। मन का विस्तार संकल्प है। संकल्प, अपनी विभेदन शक्ति के माध्यम से इस ब्रह्मांड को उत्पन्न करता है। समय और स्थान केवल मानसिक रचनाएँ हैं। वस्तुओं में मन के खेल के माध्यम से, निकटता एक बड़ी दूरी और इसके विपरीत प्रतीत होती है। मन की शक्ति के माध्यम से, एक कल्प को एक क्षण और इसके विपरीत माना जाता है। जागृत अनुभव का एक क्षण स्वप्न में वर्षों के रूप में अनुभव किया जा सकता है। मन एक छोटे से अंतराल के भीतर मीलों का अनुभव कर सकता है और मीलों का अनुभव केवल एक अवधि के रूप में भी किया जा सकता है। मन ब्रह्म से अलग और पृथक कुछ भी नहीं है। ब्रह्म स्वयं को मन के रूप में प्रकट करता है। मन रचनात्मक शक्ति से संपन्न है। मन बंधन और मुक्ति का कारण है।

मुख्य अवधारणाएँ:

  • दृष्टि-सृष्टिवाद : देखने से सृष्टि होना।

  • अजातवाद : उत्पत्ति का अभाव, सृष्टि का न होना।

दृष्टि-सृष्टिवाद, जिसे "धारणा के माध्यम से सृजन का सिद्धांत" भी कहा जाता है, अद्वैत वेदांत की एक शाखा है। यह सिद्धांत मानता है कि कथित अभूतपूर्व दुनिया केवल दुनिया के अवलोकन की प्रक्रिया में अस्तित्व में आती है जिसे व्यक्ति की अपनी मानसिक रचना की दुनिया के रूप में देखा जाता है; कोई 1 बाहरी दुनिया नहीं है। दृष्टिसृष्टिवाद के अनुसार, जो कुछ भी हम देखते हैं, वह हमारी अपनी चेतना की उपज है। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो हम वास्तव में उसे बना रहे होते हैं। जब हम देखना बंद कर देते हैं, तो वस्तु का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

यह मानता है कि हम न केवल ब्रह्म को देख रहे हैं, बल्कि हम इसे बना रहे हैं। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो हम अपनी चेतना का उपयोग करके उसे ब्रह्म से बाहर निकाल रहे होते हैं। जब हम देखना बंद कर देते हैं, तो वस्तु ब्रह्म में वापस विलीन हो जाती है।

दृष्टिसृष्टिवाद एक विवादास्पद सिद्धांत है, लेकिन यह अद्वैत वेदांत के कुछ सबसे महत्वपूर्ण विचारों को समझने का एक उपयोगी तरीका है। यह हमें यह देखने में मदद करता है कि हमारी चेतना कितनी शक्तिशाली है। यह हमें यह भी देखने में मदद करता है कि हम वास्तव में कितने जुड़े हुए हैं।

दृष्टिसृष्टिवाद के कुछ मुख्य बिंदु:

  • केवल एक ही वास्तविकता है, जिसे ब्रह्म कहा जाता है।

  • हम जो कुछ भी देखते हैं, वह ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।

  • जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो हम अपनी चेतना का उपयोग करके उसे ब्रह्म से बाहर निकाल रहे होते हैं।

  • जब हम देखना बंद कर देते हैं, तो वस्तु ब्रह्म में वापस विलीन हो जाती है।

दृष्टिसृष्टिवाद के कुछ लाभ:

  • यह हमें यह देखने में मदद करता है कि हमारी चेतना कितनी शक्तिशाली है।

  • यह हमें यह देखने में मदद करता है कि हम वास्तव में कितने जुड़े हुए हैं।

  • यह हमें अधिक जिम्मेदार बनने में मदद कर सकता है कि हम दुनिया को कैसे देखते हैं।

दृष्टिसृष्टिवाद के कुछ नुकसान:

  • यह एक विवादास्पद सिद्धांत है।

  • यह समझना मुश्किल हो सकता है।

  • यह कुछ लोगों के लिए निराशावादी हो सकता है।

अंततः, दृष्टिसृष्टिवाद को मानना या न मानना व्यक्तिगत पसंद है। हालांकि, यह एक दिलचस्प सिद्धांत है जो हमें अपनी चेतना और वास्तविकता के बारे में सोचने के लिए मजबूर करता है।

अजातवाद 

"अजातवाद" एक दार्शनिक सिद्धांत है जो वेदान्त, विशेष रूप से गौडपाद के "माण्डूक्य कारिका" से जुड़ा हुआ है। "अजात" का मतलब है "जो पैदा नहीं हुआ" और "वाद" का मतलब है "सिद्धांत"। इसलिए, "अजातवाद" का अर्थ है "उत्पत्ति का अभाव" या "जो कभी पैदा नहीं हुआ।"

मुख्य बातें:

  • ब्रह्म (परम सत्य): अजातवाद के अनुसार, ब्रह्म, जो परम सत्य है, वह अजन्मा, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। वही एकमात्र वास्तविक सत्य है।

  • संसार एक भ्रम (माया): हमें जो संसार दिखाई देता है, जिसमें बहुत सारी चीजें और परिवर्तन होते हैं, वह केवल एक भ्रम (माया) है। यह भ्रम ब्रह्म पर आरोपित होता है। इस भ्रम के कारण हमें ऐसा लगता है कि चीजें पैदा होती हैं, बदलती हैं और मर जाती हैं, लेकिन वास्तव में, कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है और कुछ भी समाप्त नहीं होता है।

  • अनुत्पत्ति: इसका मूल सिद्धांत यह है कि वास्तव में कोई उत्पत्ति या सृजन नहीं है। सभी दिखने वाले परिवर्तन केवल अपरिवर्तनीय ब्रह्म पर आरोपित होते हैं। जैसे कि मंद प्रकाश में एक रस्सी को साँप समझ लेना, वैसे ही अज्ञान (अविद्या) के कारण संसार को ब्रह्म पर आरोपित किया जाता है।

  • मोक्ष (मुक्ति): ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप और संसार के भ्रमपूर्ण स्वरूप का ज्ञान ही दुख और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाता है।

महत्व:

अजातवाद अद्वैत वेदान्त का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हमें वास्तविकता की प्रकृति और मुक्ति के मार्ग के बारे में एक अनूठा दृष्टिकोण प्रदान करता है।

योग वसिष्ठ के अनुसार, मोक्ष, आत्मज्ञान के माध्यम से ब्रह्म के आनंद के सार की प्राप्ति है। यह जन्मों और मृत्युओं से मुक्ति है। यह ब्रह्म का निर्मल और अविनाशी आसन है जिसमें न तो संकल्प हैं और न ही वासनाएँ। मन यहाँ अपनी स्थिरता प्राप्त करता है। मोक्ष के अनंत आनंद की तुलना में संपूर्ण विश्व के सभी सुख एक बूंद मात्र हैं।

जिसे मोक्ष कहा जाता है, वह न तो देवलोक में है, न पाताल में और न ही पृथ्वी पर। जब सभी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं, तो विस्तारित मन का विलोपन ही मोक्ष है। मोक्ष में न तो स्थान है और न ही समय; न ही इसमें कोई बाहरी या आंतरिक अवस्था है। यदि "मैं" या अहंकार का भ्रामक विचार नष्ट हो जाता है, तो विचारों का अंत (जो माया है) अनुभव होता है, और वही मोक्ष है। सभी वासनाओं का विलोपन मोक्ष का गठन करता है। संकल्प ही संसार है; इसका विनाश मोक्ष है। यह केवल संकल्प है, पुनरुत्थान से परे नष्ट हो गया, जो निर्मल ब्रह्म पद या मोक्ष का गठन करता है। मोक्ष सभी प्रकार के दुखों (सर्व-दुःख निवृत्ति) से मुक्ति और परम आनंद (परमानंद प्राप्ति) की प्राप्ति है। "दुःख" का अर्थ दर्द या पीड़ा है। जन्म और मृत्यु सबसे बड़ा दर्द पैदा करते हैं। जन्म और मृत्यु से मुक्ति सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति है। ब्रह्म ज्ञान या आत्मज्ञान ही मोक्ष देगा। वस्तुओं के लिए इच्छाओं की अनुपस्थिति से मन में उत्पन्न होने वाली स्थिरता ही मोक्ष है।"

"मोक्ष प्राप्त करने की कोई वस्तु नहीं है। यह पहले से ही वहाँ है। तुम वास्तव में बंधे हुए नहीं हो। तुम सदा शुद्ध और मुक्त हो। यदि तुम वास्तव में बंधे होते तो कभी मुक्त नहीं हो सकते थे। तुम्हें यह जानना होगा कि तुम अमर, सर्वव्यापी आत्मा हो। यह जानना ही वह बनना है। यही मोक्ष है। यही जीवन का लक्ष्य है। यही अस्तित्व का परम लक्ष्य है। मन की अनाकर्षण की वह अवस्था, जब न तो "मैं" और न ही कोई और स्वयं उसके लिए मौजूद होता है, और जब वह संसार के सुखों को त्याग देता है, मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग के रूप में जानी जानी चाहिए।"

"योग वसिष्ठ के अनुसार परम सत्य सच्चिदानंद परब्रह्म है, जो अद्वैत, अंशातीत, अनंत, स्वयंप्रकाशित, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। वह सत्ता का सागर है जिसमें हम सभी रहते और चलते हैं। वह मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है। वह परम तत्व है। वह अनुभव के विषय और वस्तु के पीछे एकता है। वह एक सजातीय सार है। वह सर्वव्यापी है। वह वर्णन से परे है। वह नामरहित, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालातीत, स्थानातीत, मृत्युहीन और जन्महीन है।"

"योग वसिष्ठ के अनुसार परम सत्य सच्चिदानंद परब्रह्म है, जो अद्वैत, अंशातीत, अनंत, स्वयंप्रकाशित, अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। वह सत्ता का सागर है जिसमें हम सभी रहते और चलते हैं। वह मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है। वह परम तत्व है। वह अनुभव के विषय और वस्तु के पीछे एकता है। वह एक सजातीय सार है। वह सर्वव्यापी है। वह वर्णन से परे है। वह नामरहित, रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, कालातीत, स्थानातीत, मृत्युहीन और जन्महीन है।"

"जिसका मन शांत है, जो मोक्ष के 'चार साधनों' से संपन्न है, जो दोषों और अशुद्धियों से मुक्त है, वह ध्यान के माध्यम से सहज रूप से आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है। शास्त्र और आध्यात्मिक गुरु हमें ब्रह्म नहीं दिखा सकते। वे केवल दृष्टांतों और उदाहरणों के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं और हमें संकेत दे सकते हैं।"

मुख्य अवधारणाएँ:

चार साधन : 

  1. शम (मन की शांति), 

  2. दम (इंद्रियों का दमन), 

  3. उपरति (बाहरी विषयों से विरक्ति), और 

  4. तितिक्षा (सहनशीलता) को संदर्भित करता है।

मोक्ष के द्वार की रक्षा करने वाले चार प्रहरी हैं। 

  1. शांति (मन की स्थिरता), 

  2. संतोष (संतोष), 

  3. सत्संग (संतों का संग) और 

  4. विचार (आत्मिक जिज्ञासा) 

यदि आप उनसे मित्रता करते हैं, तो आप आसानी से मोक्ष के राज्य में प्रवेश कर जाएंगे। यदि आप उनमें से किसी एक का भी साथ रखते हैं, तो वह निश्चित रूप से आपको अपने अन्य तीन साथियों से परिचित कराएगा।"

विद्यार्थी को यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, कि सब कुछ ब्रह्म है, कि ब्रह्म ही सभी प्राणियों का वास्तविक स्वरूप है। फिर उसे प्रत्यक्ष अनुभूति या अंतर्ज्ञान (अपरोक्षानुभव) के माध्यम से इस सत्य का बोध करना चाहिए। ब्रह्म का यह प्रत्यक्ष ज्ञान ही मुक्ति का साधन है।

  • ब्रह्म ही एकमात्र सत्य:

    • यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि केवल ब्रह्म ही परम वास्तविकता है।

    • ब्रह्म अनंत, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है।

    • भौतिक संसार और सभी प्राणी ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं।

  • सब कुछ ब्रह्म है:

    • यह सिद्धांत बताता है कि दृश्यमान संसार और उसमें मौजूद सभी वस्तुएँ ब्रह्म से अलग नहीं हैं।

    • यह एकता और अभिन्नता की भावना को स्थापित करता है।

  • ब्रह्म ही सभी प्राणियों का वास्तविक स्वरूप है:

    • प्रत्येक प्राणी की आत्मा (आत्मन) ब्रह्म का ही अंश है।

    • वास्तविक स्वरूप को जानने का अर्थ है अपनी आत्मा और ब्रह्म के बीच के संबंध को समझना।

  • प्रत्यक्ष अनुभूति या अंतर्ज्ञान (अपरोक्षानुभव) के माध्यम से सत्य का बोध:

    • केवल बौद्धिक ज्ञान पर्याप्त नहीं है। इस सत्य को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करना आवश्यक है।

    • यह अनुभव ध्यान, योग, और आत्म-चिंतन के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

    • अपरोक्षानुभव यानी बिना किसी माध्यम के सीधे अनुभव।

संक्षेप में: यह कथन बताता है कि वास्तविक मुक्ति तब प्राप्त होती है जब कोई व्यक्ति यह समझता है कि वह ब्रह्म से अलग नहीं है और इस सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। यह ज्ञान, जो अंतर्ज्ञान और प्रत्यक्ष अनुभव के माध्यम से प्राप्त होता है, अज्ञानता के बंधन को तोड़ता है और मुक्ति की ओर ले जाता है।

अपरोक्षानुभव, जिसे प्रत्यक्षानुभूति या साक्षात् अनुभव भी कहा जाता है, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है "प्रत्यक्ष अनुभव" या "सीधा ज्ञान"। यह एक ऐसी अवस्था को संदर्भित करता है जिसमें कोई व्यक्ति किसी सत्य या वास्तविकता को बिना किसी मध्यस्थता के, सीधे अनुभव करता है। यह बौद्धिक ज्ञान या सैद्धांतिक समझ से अलग है, जो अप्रत्यक्ष या परोक्ष होता है।

अपरोक्षानुभव की विशेषताएं:

  • प्रत्यक्षता: यह अनुभव सीधे और तात्कालिक होता है। इसमें कोई मध्यस्थता या व्याख्या शामिल नहीं होती है।

  • निर्विकल्प: यह अनुभव विचारों, शब्दों या अवधारणाओं से परे होता है। यह एक शुद्ध और निर्विकल्प चेतना की अवस्था है।

  • अखंडता: यह अनुभव विषय और वस्तु के बीच के भेद को मिटा देता है। अनुभवकर्ता और अनुभव की वस्तु एक हो जाते हैं।

  • परिवर्तनकारी: यह अनुभव व्यक्ति के जीवन को गहराई से बदल सकता है। यह अज्ञानता को दूर करता है और ज्ञानोदय की ओर ले जाता है।

  • अकथनीयता: यह अनुभव शब्दों में व्यक्त करना कठिन होता है। यह एक आंतरिक और व्यक्तिगत अनुभव है।

अपरोक्षानुभव का महत्व:

  • यह आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति का मार्ग है।

  • यह अज्ञानता और भ्रम को दूर करता है।

  • यह आंतरिक शांति और आनंद की प्राप्ति में सहायक होता है।

  • यह वास्तविकता की गहरी समझ प्रदान करता है।

अपरोक्षानुभव कैसे प्राप्त करें:

  • ध्यान : नियमित ध्यान अभ्यास मन को शांत और एकाग्र करने में मदद करता है, जिससे अपरोक्षानुभव की संभावना बढ़ती है।

  • योग : योग शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, जो अपरोक्षानुभव के लिए आवश्यक है।

  • आत्म-चिंतन : आत्म-चिंतन के माध्यम से, व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करता है, जो अपरोक्षानुभव की ओर ले जाता है।

  • गुरु का मार्गदर्शन : एक योग्य गुरु अपरोक्षानुभव के मार्ग में मार्गदर्शन कर सकता है।

  • श्रद्धा और समर्पण : अपरोक्षानुभव के लिए श्रद्धा और समर्पण आवश्यक हैं।

वेदांत में अपरोक्षानुभव:

वेदांत में, अपरोक्षानुभव को ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान की प्राप्ति के रूप में देखा जाता है। यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है, जो मानता है कि आत्मा (आत्मन) और ब्रह्म एक ही हैं। अपरोक्षानुभव के माध्यम से, व्यक्ति इस एकता का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और मुक्ति प्राप्त करता है।

उदाहरण:

जैसे हम किसी फल को देखकर और खाकर उसके स्वाद का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, उसी प्रकार अपरोक्षानुभव में हम ब्रह्म या आत्मन का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।

अपरोक्षानुभव एक गहन और परिवर्तनकारी अनुभव है जो व्यक्ति को वास्तविकता की गहरी समझ प्रदान करता है।

  • ब्रह्म का यह प्रत्यक्ष ज्ञान ही मुक्ति का साधन है:

    • जब कोई व्यक्ति ब्रह्म के साथ अपनी एकता का प्रत्यक्ष अनुभव करता है, तो वह अज्ञान, दुख और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है।

    • यह मुक्ति ही मोक्ष है।

"जागने और सपने के अनुभवों में कोई अंतर नहीं है। जागने की अवस्था एक लंबा सपना है। जैसे ही मनुष्य अपनी जागने की अवस्था में वापस आता है, सपने के अनुभव असत्य हो जाते हैं। इसी प्रकार, आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने वाले ऋषि के लिए जागने की अवस्था असत्य हो जाती है। सपने देखने वाले व्यक्ति के लिए जागने की अवस्था असत्य हो जाती है।"





No comments:

Post a Comment