Friday, March 14, 2025

योगवासिष्ठ हस्तामलक स्तोत्र

 हस्तामलक स्तोत्र 

"हस्तामलक दक्षिण भारत के श्रीबली नामक गाँव में प्रभाकर नामक एक ब्राह्मण के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे। वे अपने बचपन से ही सभी सांसारिक मामलों के प्रति उदासीन थे। वे एक गूंगे और बहरे व्यक्ति की तरह व्यवहार करते थे। एक बार, जब श्री शंकराचार्य अपने अनुयायियों के साथ इस स्थान पर आए, तो प्रभाकर अपने पुत्र हस्तामलक को उनके पास ले गए और उनके चरणों में प्रणाम किया। श्री शंकराचार्य ने पिता और पुत्र दोनों को उठाया और ब्राह्मण से प्रश्न किया।

प्रभाकर ने इस प्रकार कहा: "हे आदरणीय ऋषि! मेरा यह पुत्र अपने बचपन से ही गूंगा और सभी मामलों के प्रति उदासीन है। वह अब तेरह वर्ष का है। वह हमारी किसी भी बात को नहीं समझता और न ही उनमें कोई रुचि लेता है। उसने किसी शास्त्र या वेदों का अध्ययन नहीं किया है जो एक ब्राह्मण द्वारा अध्ययन करने योग्य हैं। वह अक्षर भी नहीं जानता है। मैंने बड़ी कठिनाई से उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। वह कभी अपने साथियों के साथ खेलने नहीं जाता है। उसकी उदासीन प्रकृति को देखकर, उसके मित्र कभी-कभी उसे पीटते हैं, लेकिन वह कभी क्रोधित नहीं होता है। कभी-कभी वह भोजन करता है और कभी-कभी नहीं। लेकिन वह हमेशा खुश और हंसमुख रहता है। उसकी मंद बुद्धि का कारण क्या है? कृपया मेरे बच्चे को बचाएं!"

उत्तर में, श्री शंकराचार्य ने लड़के से निम्नलिखित प्रश्न पूछे। लड़के द्वारा दिए गए उत्तर को उनके नाम पर बने स्तोत्र - "हस्तामलक स्तोत्र" में शामिल किया गया है। वास्तव में, वह न तो बहरा था और न ही गूंगा, बल्कि एक पूर्ण प्रबुद्ध ज्ञानी - एक जीवनमुक्त था!"

तात्पर्य:

यह कहानी हमें दिखाती है कि बाहरी व्यवहार से किसी की आंतरिक स्थिति का पता नहीं चलता। हस्तामलक सांसारिक मामलों से उदासीन थे, लेकिन वे एक प्रबुद्ध आत्मा थे। यह कहानी हमें ज्ञान और मुक्ति के महत्व को भी दर्शाती है।

शंकर उवाच 

कस्त्वं शिशोकस्य कुतोऽसि गन्ता किं नाम ते त्वं कुत आगतोऽसि ।

एतन्मयोक्तं वद चार्भक त्वं मत्प्रीतये प्रीतिविवर्धनोऽसि ॥ १ ॥

"हे बच्चे! तुम कौन हो, किसके पुत्र  हो, कहाँ जा रहे हो? तुम्हारा नाम क्या है? तुम कहाँ से आए हो? मुझे संतोषजनक उत्तर दो, हे बच्चे, क्योंकि तुम मेरे हृदय को आनन्दित करते हो।"

हस्तामलक उवाच

नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः । 

न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः ॥ २ ॥

मैं न मनुष्य हूँ, न देवता या यक्ष। मैं न ब्राह्मण, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र हूँ। मैं न ब्रह्मचारी हूँ, न गृहस्थ, न वानप्रस्थ, और न भिक्षु। मैं तो स्वयं चेतना स्वरूप हूँ।

निमित्तं मनश्चक्षुरादिप्रवृत्तौ निरस्ताखिलोपाधिराकाशकल्पः ।

रविर्लोकचेष्टानिमित्तं यथा यः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥३॥

मन, आँखें आदि इंद्रियों की क्रियाओं का कारण, वह आत्मा जिसे सभी उपाधियों से रहित और आकाश के समान निष्कलंक माना गया है। जिस प्रकार सूर्य लोक की चेष्टाओं का कारण बनता है, उसी प्रकार वह आत्मा नित्य अनुभव और साक्षीस्वरूप है।

यभग्न्युष्णवन्नित्यत्रोधस्वरूपं मनश्चक्षुरादीन्यबोधात्मकानि । 

प्रवर्तन्त आश्रित्य निष्कम्पमेकं स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥४॥

जैसे अग्नि का स्वाभाविक गुण जलाना है और सूर्य का स्वाभाविक गुण गर्मी प्रदान करना है, उसी प्रकार मन, आँखें आदि इंद्रियाँ अपने-अपने कार्यों को निष्पादित करती हैं। यह सब स्थिर और निष्कम्प आत्मा के आश्रय पर आधारित हैं, जो शाश्वत और साक्षीस्वरूप है।

मुखाभासको दर्पणे दृश्यमानो मुखत्वात्पृथक्त्वेन नैवास्ति वस्तु ।

चिदाभासको धीषु जीवोऽपि तद्वत् स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥५॥

जैसे दर्पण में दिखाई देने वाला मुख वास्तविक मुख से अलग नहीं होता, लेकिन वह एक प्रतिविम्ब मात्र होता है, उसी प्रकार बुद्धि में प्रकट होने वाला जीव आत्मा का प्रतिविम्ब मात्र है। वास्तविकता में वह पृथक नहीं है, बल्कि एक ही है। आत्मा नित्य अनुभव और साक्षीस्वरूप है।

यथा दर्पणाभाव आभासहानौ मुखं विद्यते कल्पनाहीनमेकम् ।

तथा धीवियोगे निराभासको यः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ||६||

जैसे दर्पण के अभाव में मुख का प्रतिबिंब समाप्त हो जाता है और केवल असली मुख ही रहता है, उसी प्रकार बुद्धि के वियोग में आत्मा का प्रतिविम्ब भी समाप्त हो जाता है और केवल शुद्ध आत्मा ही रहता है, जो साक्षीस्वरूप है।

मनश्चक्षुरादेर्वियुक्तः स्वयं यो मनश्चक्षुरादेर्मनश्चक्षुरादिः ।

मनश्चक्षुरादेरगभ्यस्वरूपः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥७॥

जो आत्मा मन और आँखों (इंद्रियों) से रहित है, वह स्वयं इंद्रियों का आधार है। वह आत्मा इंद्रियों के गुणों से भी रहित है और वह नित्य अनुभव और साक्षी का स्वरूप है।

य एको विभाति स्वतः शुद्धचेताः प्रकाशस्वरूपोऽपि नानेव धीषु । 

शरावोदकस्थो यथा भानुरेकः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥ ८ ॥

जो स्वयं शुद्ध चेतना वाला एक ही (आत्मा) है, वह प्रकाश स्वरूप होते हुए भी बुद्धियों में अनेक जैसा प्रतीत होता है। जैसे एक ही सूर्य सकोरे के जल में अनेक जैसा दिखता है, वही नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा मैं हूँ।

यथानेकचक्षुः प्रकाशो रविर्न क्रमेण प्रकाशीकरोति प्रकाश्यम् । 

अनेका धियो यस्तथैकप्रबोधः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥९॥

जैसे अनेक नेत्रों वालों के लिए सूर्य का प्रकाश क्रमानुसार प्रकाशित नहीं करता, उसी प्रकार जो अनेक बुद्धियों में एक ज्ञान वाला है, वही नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा मैं हूँ। 

विवस्वत्प्रभातं यथारूपमक्षं प्रगृह्णाति नाभातमेवं विवस्वान् । 

यदाभात आभासयत्यक्षमेकं स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥१०॥

जैसे सूर्योदय का प्रकाश रूप को आँख द्वारा ग्रहण करता है, परन्तु जो प्रकाशित नहीं है उसे सूर्य प्रकाशित नहीं करता, उसी प्रकार जब वह (आत्मा) प्रकाशित होता है, तभी एक आँख को प्रकाशित करता है, वही नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा मैं हूँ।

यथा सूर्य एकोऽप्स्वनेकश्चलासु स्थिरास्वप्यनन्वग्विभाव्यस्वरूपः । 

चलासु प्रभिन्नासु धीष्वेवमेकः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥११॥

जैसे एक सूर्य चंचल और स्थिर जलों में अनेक और विविध स्वरूप वाला दिखता है, उसी प्रकार एक (आत्मा) चंचल और भिन्न-भिन्न बुद्धियों में भी अनेक दिखता है, वही नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा मैं हूँ।

घनच्छन्नदृष्टिर्मनच्छन्नमर्कं यथा निष्प्रभं मन्यते चातिमूढः । 

तथा बद्धवद्भाति यो मूढदृष्टेः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥१२॥

जैसे बादलों से ढकी हुई दृष्टि वाला और मन से ढका हुआ अत्यंत मूर्ख सूर्य को कांतिहीन मानता है, वैसे ही जो मूर्ख की दृष्टि से बंधे हुए के समान प्रतीत होता है, वही नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा मैं हूँ।

समस्तेषु वस्तुष्वनुस्यूतमेकं समस्तानि वस्तूनि यं न स्पृशन्ति । 

वियद्वत्सदा शुद्धमच्छस्वरूपः स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥१३॥

जो एक सभी वस्तुओं में व्याप्त है, और सभी वस्तुएँ जिसको स्पर्श नहीं करतीं, जो आकाश के समान हमेशा शुद्ध और निर्मल स्वरूप वाला है, वही नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा मैं हूँ।

उपाधौ यथा भेदता सन्मणीनां तथा भेदता बुद्धिभेदेषु तेऽपि । 

यथा चन्द्रिकाणां जले चञ्चलत्वं तथा चञ्चलत्वं तवापीह विष्णो ॥१४॥

जैसे उपाधि में अच्छे मणियों की भिन्नता होती है, वैसे ही बुद्धियों के भेदों में वे भी भिन्न होते हैं। जैसे जल में चाँदनी की चंचलता होती है, वैसे ही हे विष्णु, यहाँ तुम्हारी भी चंचलता है।

भगवान विष्णु एक ही हैं, लेकिन वे विभिन्न उपाधियों (जैसे बुद्धियाँ) में अलग-अलग प्रतीत होते हैं। इसे मणियों और चाँदनी के उदाहरण से समझाया गया है।

  • मणियाँ: जैसे एक ही मणि विभिन्न उपाधियों (जैसे अलग-अलग आकार के पात्र) में अलग-अलग दिखाई देती है, वैसे ही भगवान विष्णु विभिन्न बुद्धियों में अलग-अलग प्रतीत होते हैं।

  • चाँदनी: जैसे जल में चाँदनी चंचल दिखाई देती है, वैसे ही भगवान विष्णु भी यहाँ (संसार में) चंचल प्रतीत होते हैं।

इस श्लोक का मुख्य संदेश यह है कि भगवान विष्णु एक ही हैं, लेकिन वे विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं। हमें इस सत्य को समझना चाहिए और भगवान विष्णु के सभी रूपों का सम्मान करना चाहिए।

परा पूजा 

अखण्डे सच्चिदानन्दे निर्विकल्पैकरूपिणि । स्थितेऽद्वितीयभावेऽस्मिन् कथं पूजा विधीयते ॥१॥

अखंड, सत्-चित्-आनंद स्वरूप और निर्विकल्प एक रूप वाले, इस अद्वैत भाव में स्थित होने पर पूजा कैसे की जाती है?"

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के एक महत्वपूर्ण प्रश्न को उठाता है। जब परम सत्य को अखंड, सत्-चित्-आनंद स्वरूप और निर्विकल्प एक रूप माना जाता है, तो उसकी पूजा कैसे की जा सकती है? क्योंकि पूजा में एक उपासक और एक उपास्य की आवश्यकता होती है, जो द्वैत को दर्शाता है।

इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि परम सत्य की पूजा बाह्य कर्मकांडों से नहीं, बल्कि आंतरिक ज्ञान और अनुभव से की जानी चाहिए। जब साधक अद्वैत भाव को प्राप्त कर लेता है, तो वह स्वयं परम सत्य में विलीन हो जाता है, और यही सच्ची पूजा है।

पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् । स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ॥२॥

"जो पूर्ण है उसका आवाहन कहाँ? जो सभी का आधार है उसे आसन कहाँ? जो स्वच्छ है उसके लिए पाद्य और अर्घ्य कहाँ? जो शुद्ध है उसके लिए आचमन कहाँ से?"

व्याख्या :

यह श्लोक भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उनकी पूजा की विधि पर प्रश्न उठाता है। यह कहता है कि भगवान पूर्ण, सर्वाधार, स्वच्छ और शुद्ध हैं, इसलिए उनकी पूजा के लिए आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य और आचमन जैसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है।

इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि भगवान की सच्ची पूजा आंतरिक भक्ति और ज्ञान से की जानी चाहिए। जब साधक भगवान के स्वरूप को समझ लेता है, तो उसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं होती।

निर्मलस्य कुतः स्नानं वस्त्रं विश्वोदरस्य च । अगोत्रस्य त्ववर्णस्य कुतस्तस्योपवीतकम् ॥३॥

"जो निर्मल है उसके लिए स्नान कहाँ? जो विश्वोदर है उसके लिए वस्त्र कहाँ? जो अगोत्र और अवर्ण है उसके लिए उपवीत कहाँ से?"

व्याख्या :

यह श्लोक भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उनकी पूजा की विधि पर प्रश्न उठाता है। यह कहता है कि भगवान निर्मल, विश्वोदर, अगोत्र और अवर्ण हैं, इसलिए उनकी पूजा के लिए स्नान, वस्त्र और उपवीत जैसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है।

  • निर्मल: भगवान स्वयं शुद्ध हैं, उन्हें शुद्ध करने के लिए स्नान की आवश्यकता नहीं है।

  • विश्वोदर: भगवान के उदर में सम्पूर्ण विश्व समाहित है, उन्हें ढकने के लिए वस्त्रों की आवश्यकता नहीं है।

  • अगोत्र और अवर्ण: भगवान किसी गोत्र या वर्ण से परे हैं, इसलिए उन्हें उपवीत धारण करने की आवश्यकता नहीं है।

निर्लेपस्य कुतो गन्धः पुष्पं निर्वासनस्य च । निर्विशेषस्य का भूषा कोऽलंकारो निराकृतेः ॥४॥

"जो निर्लेप है उसके लिए गंध और पुष्प कहाँ से? जो निर्वासन है उसके लिए (पुष्प) कहाँ से? जो निर्विशेष है उसके लिए आभूषण कौन से? जो निराकार है उसके लिए अलंकार कौन सा?"

व्याख्या (Explanation):

यह श्लोक भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उनकी पूजा की विधि पर प्रश्न उठाता है। यह कहता है कि भगवान निर्लेप, निर्वासन, निर्विशेष और निराकार हैं, इसलिए उनकी पूजा के लिए गंध, पुष्प, आभूषण और अलंकार जैसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है।

  • निर्लेप: भगवान किसी वस्तु से लिप्त नहीं हैं, इसलिए उन्हें गंध और पुष्प की आवश्यकता नहीं है।

  • निर्वासन: भगवान में कोई वासना नहीं है, इसलिए उन्हें पुष्प की आवश्यकता नहीं है।

  • निर्विशेष: भगवान में कोई विशेष गुण नहीं है, इसलिए उन्हें आभूषणों की आवश्यकता नहीं है।

  • निराकार: भगवान का कोई आकार नहीं है, इसलिए उन्हें अलंकारों की आवश्यकता नहीं है।

निरंजनस्य किं धूपैर्दीपैर्वा सर्वसाक्षिणः । निजानन्दैकतृप्तस्य नैवेद्यं किं भवेदिह ॥५॥

"जो निरंजन है, सर्वसाक्षी है, उसके लिए धूप और दीप क्या? जो निजानन्द से ही तृप्त है, उसके लिए यहाँ नैवेद्य क्या होगा?"

व्याख्या :

यह श्लोक भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उनकी पूजा की विधि पर प्रश्न उठाता है। यह कहता है कि भगवान निरंजन (निर्दोष), सर्वसाक्षी और निजानन्द से तृप्त हैं, इसलिए उनकी पूजा के लिए धूप, दीप और नैवेद्य जैसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है।

  • निरंजन: भगवान निर्दोष हैं, उन्हें शुद्ध करने के लिए धूप और दीप की आवश्यकता नहीं है।

  • सर्वसाक्षी: भगवान सब कुछ देखते हैं, उन्हें प्रकाशित करने के लिए दीप की आवश्यकता नहीं है।

  • निजानन्द से तृप्त: भगवान स्वयं आनन्द स्वरूप हैं, उन्हें नैवेद्य की आवश्यकता नहीं है।

विश्वानन्दयितुस्तस्य किं ताम्बूलं प्रकल्प्यते । स्वयंप्रकाशचिद्रूपो योऽसावर्कादिभासकः ॥६॥

"जो विश्व को आनंदित करने वाला है, उसके लिए ताम्बूल (पान) क्या अर्पित किया जाता है? जो स्वयंप्रकाश ज्ञान स्वरूप है, जो वह सूर्य आदि को प्रकाशित करने वाला है।"

व्याख्या :

यह श्लोक भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उनकी पूजा की विधि पर प्रश्न उठाता है। यह कहता है कि भगवान विश्व को आनंदित करने वाले हैं और स्वयंप्रकाश ज्ञान स्वरूप हैं, इसलिए उनकी पूजा के लिए ताम्बूल (पान) जैसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है।

  • विश्वानन्दयितुः: भगवान स्वयं आनंद स्वरूप हैं और सम्पूर्ण विश्व को आनंदित करते हैं, इसलिए उन्हें ताम्बूल की आवश्यकता नहीं है।

  • स्वयंप्रकाश-चित्-रूपः: भगवान स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं और सूर्य आदि को भी प्रकाशित करते हैं, इसलिए उन्हें ताम्बूल की आवश्यकता नहीं है।

इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि भगवान की सच्ची पूजा आंतरिक भक्ति और ज्ञान से की जानी चाहिए। जब साधक भगवान के स्वरूप को समझ लेता है, तो उसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं होती।

प्रदक्षिणा ह्यनन्तस्य ह्यद्वयस्य कुतो नतिः । वेदवाक्यैरत्रेद्यस्य कुतः स्तोत्रं विधीयते ॥७॥

"निश्चय ही अनंत के लिए परिक्रमा कहाँ? निश्चय ही अद्वैत के लिए प्रणाम कहाँ से? वेद वाक्यों से अत्रेद्य के लिए स्तोत्र कहाँ विहित है?"

व्याख्या :

यह श्लोक भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उनकी पूजा की विधि पर प्रश्न उठाता है। यह कहता है कि भगवान अनंत, अद्वैत और अत्रेद्य (इंद्रियों से परे) हैं, इसलिए उनकी पूजा के लिए प्रदक्षिणा, प्रणाम और स्तोत्र जैसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है।

  • अनंत: भगवान अनंत हैं, उनकी परिक्रमा कैसे की जा सकती है?

  • अद्वैत: भगवान अद्वैत हैं, उन्हें प्रणाम कैसे किया जा सकता है?

  • अत्रेद्य: भगवान इंद्रियों से परे हैं, उनकी स्तुति वेदों से कैसे की जा सकती है?

इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि भगवान की सच्ची पूजा आंतरिक भक्ति और ज्ञान से की जानी चाहिए। जब साधक भगवान के स्वरूप को समझ लेता है, तो उसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं होती।

स्वयं प्रकाशमानस्य कुतो नीराजनं विभोः । अन्तर्बहिश्च पूर्णस्य कथमुद्वासनं भवेत् ॥८॥

"जो स्वयंप्रकाशमान है, उस विभु के लिए नीराजन (आरती) कहाँ से? जो अंदर और बाहर पूर्ण है, उसका उद्वासन (विदाई) कैसे होगा?"

व्याख्या :

यह श्लोक भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उनकी पूजा की विधि पर प्रश्न उठाता है। यह कहता है कि भगवान स्वयंप्रकाशमान और सर्वव्यापक हैं, इसलिए उनकी पूजा के लिए नीराजन (आरती) और उद्वासन (विदाई) जैसे बाह्य कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है।

  • स्वयंप्रकाशमान: भगवान स्वयं प्रकाश स्वरूप हैं, उन्हें प्रकाशित करने के लिए नीराजन (आरती) की आवश्यकता नहीं है।

  • अन्तर्बहिश्च पूर्ण: भगवान अंदर और बाहर सर्वत्र व्याप्त हैं, उन्हें विदाई (उद्वासन) कैसे दी जा सकती है?

एकमेव परा पूजा सर्वावस्थासु सर्वदा । एकबुद्ध्या तु देवेशे विधेया ब्रह्मवित्तमैः ॥९॥

"सभी अवस्थाओं में हमेशा एक ही परम पूजा है। ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठों द्वारा देवेश में एक बुद्धि से पूजा करनी चाहिए।"

व्याख्या :

यह श्लोक भगवान की सच्ची पूजा के स्वरूप को बताता है। यह कहता है कि भगवान की परम पूजा सभी अवस्थाओं में एक जैसी है और वह एक बुद्धि (एकाग्र मन) से की जानी चाहिए।

  • एकमेव परा पूजा: भगवान की परम पूजा एक ही है, उसमें कोई भेद नहीं है।

  • सर्वावस्थासु सर्वदा: भगवान की पूजा सभी अवस्थाओं में और हमेशा की जानी चाहिए।

  • एकबुद्ध्या तु देवेशे विधेया: भगवान की पूजा एकाग्र मन से की जानी चाहिए।

  • ब्रह्मवित्तमैः: ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठों द्वारा इस प्रकार की पूजा की जानी चाहिए।

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