अध्याय 7: तृप्तिदीप प्रकरणम्
पंचदशी का अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम् (परम संतुष्टि पर प्रकाश) ग्रंथ के समग्र दर्शन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, विशेषकर पंचदशी के त्रि-खंडीय संरचना के संदर्भ में। यह अध्याय आनंद खंड का भाग है, जो परम वास्तविकता के सच्चिदानंद स्वरूप के 'आनंद' पहलू पर केंद्रित है। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य बृहदारण्यक उपनिषद के एक महत्वपूर्ण मंत्र के अर्थ की गहन व्याख्या करना है, जिसके माध्यम से जीवनमुक्त पुरुष की परम संतुष्टि को स्पष्ट किया जाता है।
तृप्तिदीप प्रकरणम् के प्रमुख विषय:
जीवनमुक्त की संतुष्टि का विश्लेषण: अध्याय का प्राथमिक लक्ष्य उस महान मंत्र के अर्थ की पड़ताल करना है जो यह बताता है कि एक बार आत्मज्ञान प्राप्त हो जाने पर, व्यक्ति को किसी भी सांसारिक इच्छा की आवश्यकता क्यों नहीं रह जाती। यह जीवनमुक्त की स्थिति और उसकी संतुष्टि को स्पष्ट करता है, जिसे इस अध्याय में विस्तार से समझाया गया है।
जीव की सात अवस्थाएँ: यह अध्याय जीव की अनुभव की सात अवस्थाओं का विस्तार से वर्णन करता है, जो इस प्रकार हैं:
अज्ञान (Ignorance): प्रारंभिक अवस्था।
आवरण (Obscuration/Veiling): अज्ञान से उत्पन्न आवरण।
विक्षेप (Superimposition/Distraction): चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) का सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर से तादात्म्य।
परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge): ब्रह्म के अस्तित्व के बारे में शास्त्रों या गुरु के माध्यम से प्राप्त ज्ञान। यह केवल बौद्धिक समझ है, प्रत्यक्ष अनुभव नहीं।
अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge): ब्रह्म के साथ अपनी स्वयं की पहचान का वास्तविक अनुभव या बोध।
शोक-निवृत्ति (Cessation of Grief): प्रत्यक्ष ज्ञान के परिणामस्वरूप दुखों का अंत।
अखंडानंद प्राप्ति (Attainment of Perfect Satisfaction/Bliss): परम संतुष्टि की स्थिति। स्रोत इस बात पर जोर देते हैं कि ये अवस्थाएँ जीव पर अध्यस्त (superimposed) हैं। ब्रह्म स्वयं इन अवस्थाओं से दूषित नहीं होता, क्योंकि यह न तो बंधा हुआ है और न ही मुक्ति की आकांक्षा रखता है; यह केवल जीव से संबंधित है।
ज्ञान के प्रकार और साधन:
परोक्ष ज्ञान और अपरोक्ष ज्ञान: पंचदशी में इन दोनों प्रकार के ज्ञानों को विस्तार से समझाया गया है। शास्त्रों के कथन से ब्रह्म के बारे में जानकारी प्राप्त करना परोक्ष ज्ञान है, जबकि स्वयं के अनुभव में ब्रह्म के साथ एकात्मता का अनुभव करना अपरोक्ष ज्ञान है।
श्रवण, मनन और निदिध्यासन: परोक्ष ज्ञान से अपरोक्ष ज्ञान तक प्रगति के लिए इन तीन चरणों को आवश्यक बताया गया है।
श्रवण (Hearing): उपनिषदों के महावाक्यों को सुनना और उनका अर्थ समझना, विशेषकर जीव और ब्रह्म की एकता को जानना।
मनन (Reflection/Consideration): सुने हुए विचारों पर गहराई से चिंतन करना और तर्कों से उनका समर्थन करना, ताकि मन में कोई संदेह न रहे।
निदिध्यासन (Profound Contemplation/Meditation): मन में आए हुए विचारों को गहन रूप से आत्मसात करना, जिससे आत्म-साक्षात्कार हो सके।
श्रुति का महत्व: सूत्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मज्ञान का एकमात्र स्रोत वेद हैं। तर्क को अनुभव और शास्त्र पर आधारित होना चाहिए। व्यर्थ के तर्क या विवाद निरर्थक बताए गए हैं।
श्रद्धा (Faith): शास्त्रों में गहरी आस्था और गुरु के वचनों में विश्वास होना आवश्यक है।
ज्ञान प्राप्ति में बाधाएँ और उनका निवारण:
बाधाएँ: अज्ञान, आवरण, विक्षेप। कर्मों के फल (प्रारब्ध कर्म) भी ज्ञान में बाधक हो सकते हैं। अश्रद्धा (lack of faith) परोक्ष ज्ञान में बाधा डालती है, जबकि अविवेक (non-discrimination) प्रत्यक्ष ज्ञान में बाधा डालता है।
निवारण: बाधाओं को दूर करने के लिए निरंतर मनन और निदिध्यासन का अभ्यास आवश्यक है। यदि निरंतर अभ्यास के बावजूद ज्ञान नहीं होता है, तो इसका अर्थ है कि बाधक कर्म अभी समाप्त नहीं हुए हैं; उनके समाप्त होने पर ज्ञान निश्चित रूप से प्राप्त होगा।
बृहत्तर संदर्भ में अध्याय 7 का स्थान:
पिछली चर्चाओं से संबंध: अध्याय 7, अध्याय 2 (पंचभूत विवेक - तत्वों का विवेचन) और अध्याय 3 (पंचकोश विवेक - पांच कोशों का विवेचन) में की गई चर्चाओं पर आधारित है, जहाँ चेतना को शरीर और मन के विभिन्न आवरणों से अलग किया गया है। यह अध्याय 5 (महावाक्य विवेक) में वर्णित महावाक्यों ("प्रज्ञानं ब्रह्म", "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि", "अयमात्मा ब्रह्म") के व्यावहारिक अनुप्रयोग और उनके अर्थ की प्रत्यक्ष अनुभूति पर केंद्रित है।
ब्रह्मानंद की प्राप्ति: अंततः, यह अध्याय ब्रह्मािक आनंद (ब्रह्मानंद) की प्राप्ति की ओर ले जाता है, जहाँ व्यक्ति अज्ञान-आधारित सभी कर्मों का त्याग कर देता है और ब्रह्म बन कर आनंद का अनुभव करता है। यह पंचदशी के 'आनंद' खंड के सार को दर्शाता है।
जीवनमुक्त की स्थिति: इस अध्याय के अध्ययन से यह समझने में मदद मिलती है कि जीवनमुक्त वह है जो संसार को देखते हुए भी उससे पहले की तरह मोहित नहीं होता, क्योंकि उसने गहन चिंतन के माध्यम से सत्य को जान लिया है।
कर्मों का त्याग: स्रोत यह भी इंगित करते हैं कि ज्ञान की प्राप्ति के बाद, जीवनमुक्त पुरुष को कर्मों का त्याग करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह उनके परिणामों से प्रभावित नहीं होता।
संक्षेप में, पंचदशी का अध्याय ७, तृप्तिदीप प्रकरणम्, ज्ञान के परोक्ष और अपरोक्ष स्वरूप, जीव की आध्यात्मिक यात्रा की सात अवस्थाओं, और ब्रह्मानंद की प्राप्ति की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करता है। यह पंचदशी के समग्र उद्देश्य – आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से परम संतुष्टि की प्राप्ति – का एक महत्वपूर्ण भाग है।
तृप्ति का स्वरूप
अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम्, में तृप्ति का स्वरूप पर विस्तृत चर्चा की गई है, जो इस ग्रंथ का एक महत्वपूर्ण भाग है। यह अध्याय पञ्चदशी के दीपा (ज्ञान) खंड का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य चेतना को परम सिद्धांत और वास्तविकता के रूप में प्रकाशित करना है, और इसे विशुद्ध अस्तित्व के समान बताना है। इस प्रकरण का मुख्य उद्देश्य एक जीवन्मुक्त व्यक्ति की परिपूर्ण संतुष्टि (उत्तम तृप्ति) के अर्थ का गहन विश्लेषण करना है।
तृप्ति का स्वरूप (The Nature of Satisfaction)
स्रोत तृप्ति के विभिन्न पहलुओं और उसकी प्राप्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं:
परिपूर्णता की दृढ़ धारणा (Firm Conviction of Fulfillment): तृप्ति का अर्थ उस अवस्था से है जहाँ व्यक्ति को यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि जो कुछ करना था वह कर लिया गया है, और जो कुछ प्राप्त करना था वह प्राप्त हो गया है। इसे कृतकृत्य (वह जिसने सब कुछ कर लिया हो) और प्राप्तप्राप्यत्व (वह जिसने सब कुछ प्राप्त कर लिया हो) के रूप में वर्णित किया गया है।
शोक और दुःख का अभाव (Absence of Sorrow and Suffering): तृप्ति का संबंध दुःखाभाव (दुःख की अनुपस्थिति) और कामाप्ति (इच्छाओं की पूर्ति) से है। ज्ञान-जन्य तृप्ति (ज्ञान से उत्पन्न संतुष्टि) अपरिमित (असीमित) होती है। यह शोकरहितता (दुःख से मुक्ति) की अवस्था के बाद आती है।
परम आनंद की स्थिति (State of Supreme Bliss): तृप्ति वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति परमानन्द से परिपूर्ण हो जाता है, जिससे अज्ञानी व्यक्तियों की तरह सांसारिक इच्छाएँ नहीं रह जातीं। ज्ञान न होने के कारण व्यक्ति को तृप्ति नहीं होती।
अखंड अनुभव (Undivided Experience): यह आनंदमय अखंड अनुभव होता है, जो विषयों की इच्छा से उत्पन्न होने वाली सीमित या संकुचित तृप्ति से भिन्न है।
प्रारब्ध दुःख पर आवरण (Veiling of Prarabdha Suffering): जीवन्मुक्ति का लाभ वह है जो प्रारब्ध कर्मों के कारण उत्पन्न होने वाली दुःख की स्थिति को छिपा देता है। यह ज्ञान-जन्य तृप्ति का ही एक रूप है जो दुःख को अदृश्य कर देती है।
ज्ञान पर आधारित (Based on Knowledge): तृप्ति की प्राप्ति ज्ञान पर निर्भर करती है। ज्ञान-जन्य तृप्ति को अपरिमित कहा गया है।
तृप्ति की प्राप्ति की प्रक्रिया (Process of Attaining Satisfaction)
तृप्ति की प्राप्ति प्रत्यक्ष ज्ञान (direct knowledge) की परिपक्वता का परिणाम है। इसमें कई चरण शामिल हैं:
परोक्ष ज्ञान और गहन ध्यान (Indirect Knowledge and Deep Meditation): परोक्ष ज्ञान (शास्त्रीय अध्ययन और गुरु के उपदेश से प्राप्त अप्रत्यक्ष ज्ञान) प्राप्त करने के बाद गहन ध्यान का अभ्यास तृप्ति की परिणति की ओर ले जाता है। परोक्ष ज्ञान पापों का नाश करता है, जबकि अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष बोध) कर्मों के फल को जला देता है और ब्रह्म-साक्षात्कार प्रदान करता है।
अध्ययन और विचार (Study and Contemplation): अध्ययन और विचार से तृप्ति प्राप्त होती है, और इस ज्ञान को दृढ़ करने के लिए नित्य अनुसंधान (दैनिक चिंतन) आवश्यक है।
सप्त अवस्थाएं (Seven Stages): तृप्ति जीव की सात अवस्थाओं में से अंतिम अवस्था है, जिनसे उसे गुजरना होता है। ये अवस्थाएँ हैं: अज्ञान (ignorance), आवरण (veiling), विक्षेप (distraction), परोक्ष ज्ञान (indirect knowledge), अपरोक्ष ज्ञान (direct knowledge), शोकरहितता (freedom from sorrow), और अंत में आनंद की प्राप्ति (attainment of bliss/satisfaction)।
व्यापक संदर्भ (Broader Context)
अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम् का उद्देश्य श्रुति (वेद वाक्य) के अर्थ का विस्तृत विश्लेषण करना है और जीवन्मुक्त व्यक्ति की परिपूर्ण संतुष्टि को स्पष्ट करना है। यह पञ्चदशी के दीपा खंड (जो अध्याय ६ से १० तक है) का भाग है, जिसका केंद्रीय विषय चेतना को परम सिद्धांत के रूप में प्रकाशित करना है।
यह अध्याय ईश्वर (God), जगत् (world), और जीव (individual) के स्वरूप और उनके बीच की आपसी क्रिया का विस्तृत वर्णन भी प्रस्तुत करता है।
पञ्चदशी का समग्र लक्ष्य परम अस्तित्व के अनुभव को प्राप्त करना है, जो अनंत और शाश्वतता का मिश्रण है, जहाँ संपूर्ण सृष्टि की सभी आकांक्षाएँ उच्चतम परिपूर्णता को प्राप्त करती हैं।
इस अध्याय में यह भी समझाया गया है कि माया (ब्रह्म की शक्ति) कैसे ईश्वर और जीव का निर्माण करती है, और कैसे अपरोक्ष ज्ञान अज्ञान को नष्ट करके ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है, जो अंततः तृप्ति में परिणत होता है।
अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम्, में तृप्ति का स्वरूप पर विस्तृत चर्चा की गई है, जो इस ग्रंथ का एक महत्वपूर्ण भाग है। यह अध्याय पञ्चदशी के दीपा (ज्ञान) खंड का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य चेतना को परम सिद्धांत और वास्तविकता के रूप में प्रकाशित करना है, और इसे विशुद्ध अस्तित्व के समान बताना है। इस प्रकरण का मुख्य उद्देश्य एक जीवन्मुक्त व्यक्ति की परिपूर्ण संतुष्टि (उत्तम तृप्ति) के अर्थ का गहन विश्लेषण करना है।
तृप्ति का स्वरूप (The Nature of Satisfaction)
स्रोत तृप्ति के विभिन्न पहलुओं और उसकी प्राप्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं:
परिपूर्णता की दृढ़ धारणा (Firm Conviction of Fulfillment): तृप्ति का अर्थ उस अवस्था से है जहाँ व्यक्ति को यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि जो कुछ करना था वह कर लिया गया है, और जो कुछ प्राप्त करना था वह प्राप्त हो गया है। इसे कृतकृत्य (वह जिसने सब कुछ कर लिया हो) और प्राप्तप्राप्यत्व (वह जिसने सब कुछ प्राप्त कर लिया हो) के रूप में वर्णित किया गया है।
शोक और दुःख का अभाव (Absence of Sorrow and Suffering): तृप्ति का संबंध दुःखाभाव (दुःख की अनुपस्थिति) और कामाप्ति (इच्छाओं की पूर्ति) से है। ज्ञान-जन्य तृप्ति (ज्ञान से उत्पन्न संतुष्टि) अपरिमित (असीमित) होती है। यह शोकरहितता (दुःख से मुक्ति) की अवस्था के बाद आती है।
परम आनंद की स्थिति (State of Supreme Bliss): तृप्ति वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति परमानन्द से परिपूर्ण हो जाता है, जिससे अज्ञानी व्यक्तियों की तरह सांसारिक इच्छाएँ नहीं रह जातीं। ज्ञान न होने के कारण व्यक्ति को तृप्ति नहीं होती।
अखंड अनुभव (Undivided Experience): यह आनंदमय अखंड अनुभव होता है, जो विषयों की इच्छा से उत्पन्न होने वाली सीमित या संकुचित तृप्ति से भिन्न है।
प्रारब्ध दुःख पर आवरण (Veiling of Prarabdha Suffering): जीवन्मुक्ति का लाभ वह है जो प्रारब्ध कर्मों के कारण उत्पन्न होने वाली दुःख की स्थिति को छिपा देता है। यह ज्ञान-जन्य तृप्ति का ही एक रूप है जो दुःख को अदृश्य कर देती है।
ज्ञान पर आधारित (Based on Knowledge): तृप्ति की प्राप्ति ज्ञान पर निर्भर करती है। ज्ञान-जन्य तृप्ति को अपरिमित कहा गया है।
तृप्ति की प्राप्ति की प्रक्रिया (Process of Attaining Satisfaction)
तृप्ति की प्राप्ति प्रत्यक्ष ज्ञान (direct knowledge) की परिपक्वता का परिणाम है। इसमें कई चरण शामिल हैं:
परोक्ष ज्ञान और गहन ध्यान (Indirect Knowledge and Deep Meditation): परोक्ष ज्ञान (शास्त्रीय अध्ययन और गुरु के उपदेश से प्राप्त अप्रत्यक्ष ज्ञान) प्राप्त करने के बाद गहन ध्यान का अभ्यास तृप्ति की परिणति की ओर ले जाता है। परोक्ष ज्ञान पापों का नाश करता है, जबकि अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष बोध) कर्मों के फल को जला देता है और ब्रह्म-साक्षात्कार प्रदान करता है।
अध्ययन और विचार (Study and Contemplation): अध्ययन और विचार से तृप्ति प्राप्त होती है, और इस ज्ञान को दृढ़ करने के लिए नित्य अनुसंधान (दैनिक चिंतन) आवश्यक है।
सप्त अवस्थाएं (Seven Stages): तृप्ति जीव की सात अवस्थाओं में से अंतिम अवस्था है, जिनसे उसे गुजरना होता है। ये अवस्थाएँ हैं: अज्ञान (ignorance), आवरण (veiling), विक्षेप (distraction), परोक्ष ज्ञान (indirect knowledge), अपरोक्ष ज्ञान (direct knowledge), शोकरहितता (freedom from sorrow), और अंत में आनंद की प्राप्ति (attainment of bliss/satisfaction)।
व्यापक संदर्भ (Broader Context)
अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम् का उद्देश्य श्रुति (वेद वाक्य) के अर्थ का विस्तृत विश्लेषण करना है और जीवन्मुक्त व्यक्ति की परिपूर्ण संतुष्टि को स्पष्ट करना है। यह पञ्चदशी के दीपा खंड (जो अध्याय ६ से १० तक है) का भाग है, जिसका केंद्रीय विषय चेतना को परम सिद्धांत के रूप में प्रकाशित करना है।
यह अध्याय ईश्वर (God), जगत् (world), और जीव (individual) के स्वरूप और उनके बीच की आपसी क्रिया का विस्तृत वर्णन भी प्रस्तुत करता है।
पञ्चदशी का समग्र लक्ष्य परम अस्तित्व के अनुभव को प्राप्त करना है, जो अनंत और शाश्वतता का मिश्रण है, जहाँ संपूर्ण सृष्टि की सभी आकांक्षाएँ उच्चतम परिपूर्णता को प्राप्त करती हैं।
इस अध्याय में यह भी समझाया गया है कि माया (ब्रह्म की शक्ति) कैसे ईश्वर और जीव का निर्माण करती है, और कैसे अपरोक्ष ज्ञान अज्ञान को नष्ट करके ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है, जो अंततः तृप्ति में परिणत होता है।
पुरुष और आत्मा
अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम्, में तृप्ति का स्वरूप की विस्तृत व्याख्या की गई है, और इस संदर्भ में पुरुष (Purusha) तथा आत्मा (Atman) जैसे मूलभूत दार्शनिक सिद्धांतों पर गहन विचार-विमर्श किया गया है। यह प्रकरण पञ्चदशी के दीपा (ज्ञान) खंड का हिस्सा है, जिसका मुख्य लक्ष्य जीवन्मुक्त व्यक्ति की परिपूर्ण संतुष्टि (उत्तम तृप्ति) को स्पष्ट करना है। यह ज्ञान पर आधारित है, जो व्यक्ति को यह दृढ़ निश्चय कराता है कि उसने वह सब कुछ कर लिया है और प्राप्त कर लिया है जो करना और प्राप्त करना शेष था।
आत्मा का स्वरूप (The Nature of Atman)
स्रोतों के अनुसार, आत्मा वेदांत दर्शन का केंद्रीय तत्व है, और इसका स्वरूप निम्नलिखित है:
शुद्ध चेतना और ज्ञान (Pure Consciousness and Knowledge): आत्मा को शुद्ध चेतना और ज्ञान का स्वरूप बताया गया है। यह स्वयं प्रकाश है, यानी इसे जानने के लिए किसी बाहरी प्रकाश या साधन की आवश्यकता नहीं होती। अज्ञान के कारण ही यह अस्पष्ट प्रतीत होता है।
ब्रह्म से अभिन्न (Identical with Brahman): आत्मा ही परम सत्य ब्रह्म है। पञ्चदशी के पाँचवें अध्याय में महावाक्य जैसे अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) और अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है) द्वारा आत्मा की ब्रह्म से अभिन्नता को स्पष्ट किया गया है।
सर्वव्यापक और शाश्वत (All-pervading and Eternal): आत्मा व्यापक होने से देश-काल और वस्तुगत भेदों से परे है। यह अपरिवर्तनीय (कूटस्थ) है, जो सभी शारीरिक और सूक्ष्म शरीरों का शाश्वत आधार है। यह न तो जन्म लेता है, न मरता है, और न ही क्षय होता है।
सत्-चित्-आनंद स्वरूप (Nature of Existence-Consciousness-Bliss): आत्मा सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना) और आनंद (परम सुख) का मिश्रण है। यह सभी चीजों में सबसे प्रिय और आराध्य है।
पुरुष का स्वरूप (The Nature of Purusha)
पुरुष शब्द का प्रयोग स्रोतों में विभिन्न दार्शनिक प्रसंगों में किया गया है:
सांख्य दर्शन में (In Samkhya Philosophy): पुरुष सांख्य दर्शन का एक केंद्रीय सिद्धांत है। सांख्य के अनुसार, पुरुष निष्क्रिय चेतना है, जो प्रकृति से भिन्न है। प्रकृति (जो माया के त्रिगुणों - सत्त्व, रजस, तमस के माध्यम से कार्य करती है) पुरुष को अनुभव प्रदान करने के लिए सक्रिय होती है। सांख्य में अनेक पुरुष माने गए हैं, जो अनंत और बुद्धिमान हैं। सांख्य के अनुसार, बंधन पुरुष का प्रकृति से अज्ञानवश जुड़ाव है, और मोक्ष पुरुष का प्रकृति से पृथक्करण या भेदज्ञान है।
व्यक्तिगत जीव के रूप में (As Individual Jiva): उपनिषदों में पुरुष शब्द का प्रयोग व्यक्तिगत जीव या स्वयं को संदर्भित करने के लिए भी किया जाता है। उदाहरण के लिए, बृहदारण्यक उपनिषद के एक श्लोक में कहा गया है: आत्मनम् चेत् विजानीयात् अयमस्मीति पुरुषः (यदि पुरुष अपने आप को आत्मा के रूप में जान ले कि 'यह मैं हूँ')। इस संदर्भ में, पुरुष वह जीव है जो अज्ञान से अपरोक्ष ज्ञान की ओर बढ़ता है और शोक से मुक्त होता है।
ब्रह्मांडीय संदर्भ में (In Cosmic Context): पुरुष सूक्त जैसे वैदिक ग्रंथों में पुरुष का तात्पर्य परम सत्ता या ईश्वर से है, जिससे संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना हुई है।
आत्मा और पुरुष के बीच संबंध (Relationship between Atman and Purusha)
अद्वैत वेदांत में, आत्मा को परम और अद्वितीय वास्तविकता माना जाता है, जो ब्रह्म के समान है। पुरुष (व्यक्तिगत जीव के अर्थ में) वह है जो माया के कारण अज्ञान से घिरा हुआ है और जिसे आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने की आवश्यकता है।
जीवन्मुक्त व्यक्ति की तृप्ति का अर्थ है, जब जीव (पुरुष) अपने अज्ञान का नाश कर आत्मा के साथ अपनी अभिन्नता को पहचान लेता है। यह ज्ञान तृप्ति की ओर ले जाता है, जहाँ दुःख का अभाव और परम आनंद की प्राप्ति होती है।
कूटस्थ वह अपरिवर्तनीय आधार है जिस पर जीव अध्यारोपित होता है, और जीव की चेतना (चिदाभास) कूटस्थ के अस्तित्व, चेतना और आनंद को अपने ऊपर आरोपित कर लेती है, जिससे वह स्वयं को कर्ता-भोक्ता मानने लगता है।
सांख्य दर्शन का पुरुष (अनेक और प्रकृति से पृथक इकाई) अद्वैत वेदांत के आत्मा (अद्वितीय और माया से अभिन्न शक्ति) से भिन्न है। अद्वैत में माया को ब्रह्म की ही शक्ति माना जाता है, जो सृष्टि का निर्माण करती है, न कि कोई स्वतंत्र तत्व।
तृप्तिदीप प्रकरणम् में महत्व (Significance in Triptidipa Prakaranam)
अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम् आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव (अपरोक्ष ज्ञान) पर केंद्रित है, जिससे जीव (पुरुष) को परम संतुष्टि प्राप्त होती है। इस प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण महत्वपूर्ण हैं:
अज्ञान का निवारण: जीव का अज्ञान (मूल-अविद्या) ही शोक और संसार (दुःख) का कारण है। यह ज्ञान के अभाव में तृप्ति को रोकता है।
सात अवस्थाएं: जीव (जो पुरुष के व्यक्तिगत पहलू को दर्शाता है) को अज्ञान, आवरण (छिपाव), विक्षेप (भटकाव), परोक्ष ज्ञान (अप्रत्यक्ष ज्ञान), अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष ज्ञान), शोकरहितता (दुःख से मुक्ति) और आनंद की प्राप्ति (संतुष्टि) जैसी सात अवस्थाओं से गुजरना होता है।
ज्ञान की भूमिका: परोक्ष ज्ञान (गुरु और शास्त्रों के उपदेश से प्राप्त) पापों का नाश करता है, जबकि अपरोक्ष ज्ञान कर्मों के फल को जला देता है और ब्रह्म-साक्षात्कार प्रदान करता है। अपरोक्ष ज्ञान ही अपरिमित तृप्ति का कारण है।
जीवन्मुक्ति: ज्ञान की परिपक्वता से जीवन्मुक्ति प्राप्त होती है, जहाँ व्यक्ति प्रारब्ध कर्मों के कारण होने वाले दुःख को भी अदृश्य कर देता है, जिससे उसे उत्तम तृप्ति मिलती है।
संक्षेप में, अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम् में पुरुष (व्यक्तिगत जीव या अज्ञानी) और आत्मा (परम चेतना या ब्रह्म) की चर्चा का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि वास्तविक तृप्ति आत्म-ज्ञान से प्राप्त होती है, जहाँ पुरुष अपने माया-जनित अज्ञान को दूर कर आत्मा के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करता है, जिससे सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं और परमानंद की प्राप्ति होती है।
अध्यास और अहंकार
अध्याय 7, जिसे 'तृप्तिदीप प्रकरणम्' कहा जाता है, परम संतोष के ज्ञान पर प्रकाश डालता है। यह पंचदशी के 'आनंद' नामक तीसरे खंड का हिस्सा है, जो वास्तविकता के अस्तित्व, चेतना और आनंद पहलुओं से संबंधित है। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य यह समझाना है कि जीवात्मा दुखों का अनुभव क्यों करता है और कैसे इन दुखों से मुक्ति पाकर परम संतोष प्राप्त किया जा सकता है। इस संदर्भ में, 'अध्यास' (सुपरइम्पोज़िशन) और 'अहंकार' (अहंभाव या अहंता) की अवधारणाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
अध्यास (Superimposition): अध्यास एक मूल वेदांतिक अवधारणा है जो जीवात्मा के अपने वास्तविक स्वरूप से अज्ञानता के कारण होने वाली भ्रांति को समझाती है। इसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:
परस्पर अध्यास (Mutual Superimposition): जीवात्मा को जिस कूटस्थ (अपरिवर्तनीय, अविकारी आत्मन) का अनुभव होता है, उस पर अपने विकारी गुणों का आरोपण (अध्यास) कर लेता है, और कूटस्थ के अविकारी गुणों का आरोपण अपने ऊपर कर लेता है। इस प्रक्रिया को 'अन्योन्याध्यास' कहा जाता है, जिससे जीवात्मा अपनी वास्तविक प्रकृति को भूल जाता है।
चिदाभास का संबंध: चिदाभास (प्रतिबिंबित चेतना) के संदर्भ में अध्यास का विस्तृत वर्णन मिलता है।
चिदाभास जब स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीरों के साथ जुड़कर उनका 'विक्षेप' (विक्षेप) बनता है, तो वह कर्तापन, दुख और संसार रूपी बंधन का कारण बनता है।
यह संसार-आसक्त चिदाभास अपने स्वयंप्रकाश कूटस्थ स्वरूप को नहीं जान पाता, और इस अज्ञान के कारण 'मैं दुखी हूँ', 'मैं पीड़ित हूँ' ऐसा अनुभव करता है। यह शरीर के ज्वर (पीड़ा) का आरोपण स्वयं पर कर लेता है, जैसे कोई गृहस्थ अपने पुत्र-स्त्री के दुख में स्वयं को दुखी मान लेता है।
चिदाभास का विनाश सुषुप्ति और मूर्च्छा की अवस्थाओं में देखा जाता है, फिर भी साक्षी के रूप में यह प्रतीत होता है। जब चिदाभास की मिथ्याता ज्ञात हो जाती है, तो वह अपने मिथ्यात्व स्वभाव का बार-बार विवेक करने लगता है।
अज्ञान और आवरण से संबंध: अज्ञान (अविद्या) और आवरण (ज्ञान को ढकना) विक्षेप (विकर्षण) के कारण होते हैं। जीवात्मा ही इस अज्ञान और आवरण का अनुभव करता है, जो अंततः उसके विक्षेप का कारण बनते हैं। ये सात अवस्थाएँ (अज्ञान, आवरण, विक्षेप, परोक्ष ज्ञान, अपरोक्ष ज्ञान, शोकापनुत्ति और ब्रह्मानंद प्राप्ति) जीवात्मा से संबंधित हैं और उस पर अध्यारोपित होती हैं।
विवेक द्वारा अध्यास का निवारण: अध्यास को दूर करने का तरीका 'विवेक' (भेदभावपूर्ण विश्लेषण) है। विवेक से मिथ्या बोध (गलत समझ) का निवारण होता है, जिससे संसार निवृत्त हो जाता है। यह प्रक्रिया जीवात्मा को अपने वास्तविक स्वरूप (कूटस्थ) को जानने और उस पर आरोपित भ्रांति को छोड़ने में मदद करती है।
अहंकार (Ego): अहंकार 'मैं' और 'मेरा' की भावना है, जो जीवात्मा के शरीर-मन-बुद्धि परिसर से जुड़कर उत्पन्न होती है।
चिदाभास से संबंध: कुछ स्रोत 'अहंकार' को सीधे चिदाभास का प्रतिबिंब मानते हैं। मन के चार अवस्थाओं में से एक 'अहं' (Ego) है, जो 'मैं' और 'मेरा' के विचारों को दर्शाता है। यह मन की चेतना का प्रतिबिंब या 'EGO' है, जबकि मूल चेतना को 'SELF' या 'ONE' कहा जाता है।
मनोमय कोष से संबंध: 'मैं' और 'मेरा' की भावना मनोमय कोष (मानसिक आवरण) से जुड़ी हुई है। हालांकि, मनोमय कोष को आत्मा नहीं माना जाता है, क्योंकि यह काम (इच्छा) और क्रोध जैसी अवस्थाओं से प्रभावित होता है।
साक्षी की भूमिका: आत्मा को साक्षी (गवाह) के रूप में वर्णित किया गया है, जो अहंकार, बुद्धि और विषयों को प्रकाशित करता है। यहां तक कि गहरी नींद (सुषुप्ति) में अहंकार की अनुपस्थिति में भी, साक्षी आत्मा प्रकाशित रहता है, जो दर्शाता है कि अहंकार अंतिम वास्तविकता नहीं है।
अध्याय 7 के संदर्भ में अध्यास और अहंकार का महत्व: 'तृप्तिदीप प्रकरणम्' में, परम संतोष की प्राप्ति के लिए अध्यास और अहंकार का उन्मूलन आवश्यक बताया गया है।
दुखों का कारण: जीवात्मा द्वारा शरीर-मन-बुद्धि परिसर पर 'अहं' (मैं) और 'मम' (मेरा) का अध्यास ही उसके दुखों का मूल कारण है। यह अध्यास जीवात्मा को सीमित, नश्वर और दुखी होने की भ्रांति में रखता है, जबकि उसका वास्तविक स्वरूप अनंत, अविनाशी और आनंदमय है।
ज्ञान और मुक्ति: इस अध्यास और अहंकार को विवेक (भेदभावपूर्ण विश्लेषण) और शास्त्र-ज्ञान (शास्त्रों के ज्ञान) के माध्यम से दूर किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार, 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रत्यक्ष ज्ञान से ही संसार के दुखों और क्लेशों से मुक्ति मिलती है। जब यह अज्ञान (अध्यास और अहंकार सहित) नष्ट हो जाता है, तो जीवात्मा को परम आनंद की प्राप्ति होती है और वह कृतकृत्य (जिसने सब कुछ प्राप्त कर लिया हो) हो जाता है। यह ज्ञान ही परमार्थिक सत्य का साक्षात्कार है।
आत्मा की अनासक्ति: ज्ञान की प्राप्ति के बाद, ज्ञानी पुरुष स्वयं को सभी कर्मों के फल से अनासक्त (अप्रभावित) पाता है। गीता के अनुसार, ज्ञान सभी संचित कर्मों को भस्म कर देता है, जिससे जीवात्मा को कर्ता और भोक्ता होने की भावना से मुक्ति मिलती है।
गुरु और शास्त्रों का महत्व: इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए गुरु और शास्त्रों का मार्गदर्शन अनिवार्य है। केवल तर्क या वाद-विवाद से यह ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि यह अहंकार और अज्ञान की पकड़ से परे है।
सारांश में, अध्याय 7 में यह स्पष्ट किया गया है कि अध्यास और अहंकार ही जीवात्मा के दुख और बंधन का मूल कारण हैं। इन अवधारणाओं को समझकर और विवेक के माध्यम से इन्हें दूर करके ही जीवात्मा अपने वास्तविक स्वरूप, जो कि 'परम संतोष' (तृप्ति) है, को प्राप्त कर सकता है।
ज्ञान की सात अवस्थाएँ
पंचदशी के अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम् में, ज्ञान की सात अवस्थाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन अवस्थाओं को जीव (व्यक्तिगत आत्मा) पर अध्यारोपित किया जाता है। यह प्रकरण उच्चतम संतुष्टि पर केंद्रित है, जिसे इन अवस्थाओं से गुजरने के बाद प्राप्त किया जाता है।
ज्ञान की सात अवस्थाएँ इस प्रकार हैं:
अज्ञान (Ignorance): यह वास्तविक स्वरूप की अनभिज्ञता है। मूल-अविद्या को जीव के स्रोत की भूली हुई प्रकृति कहा गया है, जब वह अपनी गतिविधियों में व्यस्त होकर अपने स्रोत को भूल जाता है।
आवरण (Veiling): यह अज्ञान का एक कार्य है, जो सत्य को ढँक देता है।
विक्षेप (Distraction): यह तीसरी अवस्था है, जो अज्ञान और आवरण के कारण उत्पन्न होती है। इसे चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) का स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से तादात्म्य (पहचान) कहा गया है। विक्षेप ही जीव चेतना है। संसार (सांसारिक उलझाव) और शोक (दुःख) भी इस विक्षेप के कार्य हैं।
परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge): यह अवस्था तब होती है जब व्यक्ति को शास्त्र और गुरु के उपदेशों से ब्रह्म के अस्तित्व का ज्ञान होता है। यह ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है क्योंकि वस्तु (ब्रह्म) अभी भी ज्ञाता से दूर है।
अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge): इस अवस्था में व्यक्ति ब्रह्म के साथ अपनी वास्तविक पहचान का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करता है। इस प्रत्यक्ष ज्ञान के बाद ही वास्तविक ब्रह्म-साक्षात्कार होता है।
शोक निवृत्ति (Freedom from Sorrow): यह अवस्था तब प्राप्त होती है जब प्रत्यक्ष ज्ञान से दुःख और शोक का निवारण हो जाता है। दुःख की स्थितियाँ जीव चेतना से जुड़ी होती हैं, और प्रत्यक्ष ज्ञान के माध्यम से उनका निवारण होता है।
आनंद प्राप्ति (Attainment of Bliss): यह अंतिम अवस्था है, जिसमें परम आनंद या संतुष्टि प्राप्त होती है।
इन सात अवस्थाओं का संबंध मुख्य रूप से जीव से है। ये अवस्थाएँ जीव पर अध्यारोपित (superimposed) होती हैं। जीव की स्थिति और इन अवस्थाओं के बीच तादात्म्य अध्यास (आपसी अध्यारोपण) होता है। हालाँकि, ब्रह्म को इन अवस्थाओं से अदूषित माना जाता है। ब्रह्म ही सभी चीजों का परम स्रोत है, जिसमें जीव और उसकी सात अवस्थाएँ भी शामिल हैं, लेकिन ब्रह्म न तो बंधा हुआ है और न ही मुक्ति की आकांक्षा रखता है। व्यवहारिक रूप से, ये अवस्थाएँ सीधे ब्रह्म से संबंधित नहीं हैं।
पंचदशी के व्यापक संदर्भ में, यह ग्रंथ अद्वैत वेदांत के केंद्रीय सिद्धांतों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार के रूप में कार्य करता है। इसके पंद्रह अध्यायों को तीन खंडों में बांटा गया है: विवेक (भेदभाव), दीप (प्रकाश) और आनंद (परमानंद), जो वास्तविकता के अस्तित्व, चेतना और आनंद के पहलुओं के अनुरूप हैं।
पहला खंड (अध्याय १-५) तत्वों और कोशों के भेदभाव पर केंद्रित है।
दूसरा खंड (अध्याय ६-१०) चेतना के परम सिद्धांत और ईश्वर, जगत और जीव की प्रकृति पर प्रकाश डालता है। चित्रादीप प्रकरणम् (अध्याय ६) वेदांत दर्शन की नींव रखता है।
तीसरा खंड (अध्याय ११-१५) आनंद के अनुभव पर केंद्रित है।
इस प्रकार, अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम् में वर्णित ज्ञान की सात अवस्थाएँ, जीव की यात्रा को अज्ञान से परम आनंद तक ले जाती हैं, जो पंचदशी के मुख्य उद्देश्य - सर्वोच्च वास्तविकता की अनुभूति - में योगदान करती हैं।
कर्म का क्षय
पंचदशी के अध्याय ७: तृप्तिदीप प्रकरणम् में, कर्म के क्षय और ज्ञान की सात अवस्थाओं के बीच घनिष्ठ संबंध का विस्तार से वर्णन किया गया है। यह प्रकरण जीव की अज्ञान से परम संतुष्टि तक की यात्रा को दर्शाता है, जिसमें कर्मों का क्षय एक केंद्रीय भूमिका निभाता है।
कर्म के प्रकार और उनका स्वरूप: पंचदशी में कर्मों को मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में देखा जाता है:
संचित कर्म (Accumulated Karma): ये वे कर्म हैं जो पिछले जन्मों में किए गए हैं और जिनके फल अभी तक प्रकट नहीं हुए हैं। इन्हें "भविष्य के अनुभव के कारणों का पूरा समूह" और "ज्ञान से पहले किए गए कर्मों के परिणाम" के रूप में वर्णित किया गया है।
प्रारब्ध कर्म (Fructifying Karma): ये वे कर्म हैं जिनके फल वर्तमान जीवन में अनुभव किए जा रहे हैं। प्रारब्ध कर्म को तीन प्रकार का बताया गया है: इच्छित, अनिच्छित और मिश्रित। यह कर्म अनुभव (भोग) के माध्यम से समाप्त होता है। संसारिक गतिविधियाँ भी तभी समाप्त होती हैं जब प्रारब्ध कर्म क्षीण हो जाते हैं। ज्ञानी व्यक्ति के लिए भी प्रारब्ध कर्म का भोग जारी रहता है।
आगामी कर्म (Future Karma): ये वे कर्म हैं जो वर्तमान में किए जा रहे हैं या भविष्य में किए जाएँगे। ज्ञानी व्यक्ति स्वयं को भविष्य में किसी विशेष फल को देने वाले कर्मों का कर्ता नहीं मानता।
ज्ञान की सात अवस्थाएँ और कर्म का क्षय: ज्ञान की सात अवस्थाएँ (जो जीव पर अध्यारोपित होती हैं) कर्म के क्षय में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से योगदान करती हैं:
अज्ञान (Ignorance):
यह वास्तविक स्वरूप की अनभिज्ञता है, जो सभी कर्मों और दुःखों का मूल कारण है।
जीव जब अपने स्रोत को भूल जाता है, तो उसे मूल-अविद्या कहा जाता है।
ज्ञान ही अज्ञान को दूर कर सकता है, कर्म या उपासना नहीं।
आवरण (Veiling):
यह अज्ञान का एक कार्य है जो सत्य को ढक देता है।
यह "नहीं प्रतीत होता, नहीं है" जैसे व्यवहार को उत्पन्न करता है।
विक्षेप (Distraction):
यह चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) का स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से तादात्म्य (पहचान) है।
"मैं कर्त्ता हूँ, भोक्ता हूँ" जैसे भाव इसी विक्षेप के कारण उत्पन्न होते हैं, और संसार (सांसारिक उलझाव) तथा शोक (दुःख) इसी विक्षेप के कार्य हैं।
बंध और मोक्ष दोनों इसी चिदाभास से संबंधित हैं।
परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge):
यह शास्त्र और गुरु के उपदेशों से ब्रह्म के अस्तित्व का ज्ञान है।
यह अप्रत्यक्ष ज्ञान "स्पष्ट पापों" और दुःख को नष्ट करता है, तथा अज्ञान के कारण उत्पन्न हुए आवरण को भी नष्ट कर देता है, जिससे "नहीं प्रतीत होता, नहीं है" का व्यवहार समाप्त हो जाता है।
यह ज्ञान मुक्ति का कारण बनता है। दशम व्यक्ति के दृष्टांत में, यह जानना कि "दसवां व्यक्ति मौजूद है" परोक्ष ज्ञान है।
अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge):
यह वह अवस्था है जब व्यक्ति ब्रह्म के साथ अपनी वास्तविक पहचान का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करता है।
"ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है"।
यह समाधि (धर्ममेघ समाधि) मन में सन्निहित पूर्व इंप्रेशन (वासनाओं) के पूरे जाल को समाप्त कर देती है।
यह "भविष्य के अनुभव के कारणों के पूरे समूह को जड़ से हटा देती है", जिसका अर्थ संचित और आगामी कर्मों का नाश है।
यह ज्ञान "ऐसे कर्मों के परिणामों को भी जला देता है जो इस ज्ञान से पहले किए गए थे"।
योगी स्वयं को भविष्य में फल देने वाले कर्मों का कर्ता नहीं मानता।
ईश्वर को जानने से सभी बंधन नष्ट हो जाते हैं, क्लेशों के नाश के साथ पुनर्जन्म भी रुक जाता है।
ज्ञानी व्यक्ति दुःख और शोक को त्याग देता है, और शुभ-अशुभ कर्म उसे परेशान नहीं करते।
यह अज्ञान के न होने का कारण है।
दशम व्यक्ति के दृष्टांत में, "मैं दशम हूँ" का प्रत्यक्ष ज्ञान उसे हर्षित कर देता है और वह रोना बंद कर देता है।
शोक निवृत्ति (Freedom from Sorrow):
यह प्रत्यक्ष ज्ञान के बाद दुःख और शोक का निवारण है।
दुःख और शोक जीव चेतना से जुड़े होते हैं, और ज्ञान के माध्यम से इनका निवारण होता है।
संसारिक दुःख सीधे कर्मों के कारण नहीं, बल्कि अज्ञान से उत्पन्न विरक्ति के कारण होता है।
जब जीवन्मुक्ति (दशम व्यक्ति के समान) प्राप्त होती है, तो हर्ष उत्पन्न होता है और प्रारब्ध कर्म से होने वाले दुःख को ढक देता है।
आनंद प्राप्ति (Attainment of Bliss/Supreme Satisfaction):
यह परम आनंद या संतुष्टि की अंतिम अवस्था है।
ज्ञानी व्यक्ति कहता है "मैं धन्य हूँ, मेरा अज्ञान कहीं भाग गया है"।
"मैं धन्य हूँ, जो कुछ करना था, जो कुछ प्राप्त करना था, वह सब प्राप्त हो गया है"।
तृप्तिदीप प्रकरण का नित्य विचार करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति ब्रह्मानंद में स्नान करते हुए नित्यतृप्त रहते हैं।
जीवन्मुक्त और प्रारब्ध कर्म: एक जीवन्मुक्त व्यक्ति, जो जीवन में मुक्त हो गया है, उसके संचित और आगामी कर्म ज्ञान की अग्नि से नष्ट हो जाते हैं। हालांकि, प्रारब्ध कर्मों को भोग द्वारा ही क्षीण किया जाता है। ज्ञानी के लिए भी, सांसारिक व्यवहार तब तक चलता रहता है जब तक प्रारब्ध कर्म समाप्त नहीं हो जाते। ज्ञान के कारण, ज्ञानी को "मैं मनुष्य हूँ" जैसे भ्रम नहीं होते, और प्रारब्ध कर्मों के भोग से उत्पन्न दुःख भी उसे परेशान नहीं करते। वह प्रारब्ध कर्मों के भोग के बावजूद संतुष्ट रहता है।
इस प्रकार, अध्याय 7 में, कर्म का क्षय ज्ञान की सात अवस्थाओं की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है, जहाँ परोक्ष ज्ञान पापों को नष्ट करता है, और अपरोक्ष ज्ञान अज्ञान, वासनाओं और सभी संचित व आगामी कर्मों को भस्म कर देता है, जबकि प्रारब्ध कर्मों का भोग ज्ञानी के लिए भी जारी रहता है, परंतु वह उनसे उत्पन्न दुःख से अप्रभावित रहता है।
दशम पुरुष की कहानी
पंचदशी ग्रंथ में दशम पुरुष की कहानी एक प्रसिद्ध दृष्टांत है जिसका उपयोग वेदांत दर्शन में अज्ञान की प्रकृति, ज्ञान की प्राप्ति और अंततः सर्वोच्च संतुष्टि या मोक्ष की स्थिति को समझाने के लिए किया गया है। यह कहानी विशेष रूप से अध्याय 7: तृप्तिदीप प्रकरणम् के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो आत्मा के वास्तविक स्वरूप के बोध से प्राप्त होने वाली परम संतुष्टि पर केंद्रित है।
दशम पुरुष की कहानी:
मूल कथा: दशम पुरुष की कहानी में दस व्यक्ति एक नदी पार करते हैं। पार करने के बाद, उनमें से एक व्यक्ति यह सुनिश्चित करने के लिए सभी को गिनता है कि कोई छूटा तो नहीं। वह एक-एक करके नौ लोगों को गिनता है, लेकिन खुद को गिनना भूल जाता है।
अज्ञान और शोक: स्वयं को भूल जाने के कारण, वह यह निष्कर्ष निकालता है कि दसवां व्यक्ति गायब है या मर गया है, और वह इस अज्ञान (अविद्या) के कारण दुःखी होकर रोने लगता है। उसका यह मानना कि 'दसवां पुरुष नहीं है' उसके अज्ञान का परिणाम है जो वास्तविकता को ढके रहता है, जिसे आवरण कहते हैं। इस भ्रम और उसके परिणामस्वरूप होने वाले शोक को विक्षेप (भ्रम या मानसिक अशांति) कहा जाता है।
परोक्ष ज्ञान (अप्रत्यक्ष ज्ञान): जब कोई दूसरा व्यक्ति उसे बताता है, "तुम दसवें हो," तो उसे इस तथ्य का परोक्ष ज्ञान प्राप्त होता है। यह ज्ञान उसे रोना बंद करने में मदद करता है क्योंकि उसे एक बाहरी स्रोत से सत्य का पता चलता है।
अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष ज्ञान): इसके बाद, वह स्वयं को गिनता है और प्रत्यक्ष अनुभव करता है कि "मैं दसवां हूँ।" यह अपरोक्ष ज्ञान है, जो उसे अपनी वास्तविक पहचान का सीधा बोध कराता है।
शोक-निवृत्ति और आनंद: इस प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति के साथ ही उसका शोक पूरी तरह से समाप्त हो जाता है, और वह आनंद (परम आनंद) का अनुभव करता है। यह दर्शाता है कि दुख का कारण अज्ञान था, और ज्ञान की प्राप्ति से वह दुख दूर हो गया।
अध्याय 7: तृप्तिदीप प्रकरणम् के संदर्भ में दशम पुरुष:
तृप्तिदीप प्रकरणम् में, दशम पुरुष की कहानी को आत्मा के ज्ञान की सात अवस्थाओं को समझाने के लिए एक दृष्टांत के रूप में उपयोग किया गया है:
अज्ञान (अविद्या): दशम पुरुष का स्वयं को भूल जाना।
आवरण (ढका हुआ): वास्तविकता का ढका हुआ होना, जिससे वह स्वयं को दसवां नहीं देखता।
विक्षेप (भ्रम/भटकाव): दशवें व्यक्ति के न होने का भ्रम और उसके कारण रोना।
परोक्ष ज्ञान (अप्रत्यक्ष ज्ञान): दूसरे द्वारा बताया जाना कि 'तुम दसवें हो'।
अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष ज्ञान): स्वयं के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव करना कि 'मैं दसवां हूँ'।
शोक-निवृत्ति (दुःख से मुक्ति): अज्ञान और भ्रम के कारण होने वाले शोक का समाप्त होना।
आनंद (परम संतुष्टि): अपनी वास्तविक पहचान के बोध से प्राप्त होने वाली परम संतुष्टि।
यह दृष्टांत चिदाभास (प्रतिबिंबित चेतना) पर इन सात अवस्थाओं को लागू करता है, यह दर्शाता है कि कैसे जीव (जो चिदाभास से जुड़ा है) अज्ञान से बंधा हुआ लगता है और अंततः ज्ञान के माध्यम से मुक्त हो जाता है।
अध्याय 7 का मुख्य उद्देश्य आत्म-ज्ञान के माध्यम से प्राप्त होने वाली परम संतुष्टि (तृप्ति) को उजागर करना है। दशम पुरुष की कहानी प्रभावी ढंग से यह बताती है कि कैसे आत्मा, जो स्वाभाविक रूप से आनंदमय है, केवल अज्ञान के कारण स्वयं को दुःखी और सीमित मानती है। जिस प्रकार दशम पुरुष को बाहर से कोई वस्तु प्राप्त नहीं करनी पड़ी, बल्कि केवल अपनी वास्तविक पहचान को पहचानना था, उसी प्रकार जीव को मोक्ष के लिए किसी बाहरी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि केवल अपने आत्म-स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना होता है।
यह कहानी इस बात पर जोर देती है कि शास्त्रों और गुरु के उपदेश (परोक्ष ज्ञान) आत्म-साक्षात्कार (अपरोक्ष ज्ञान) का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जिस प्रकार दशम पुरुष के लिए "तुम दसवें हो" का कथन परोक्ष ज्ञान था, उसी प्रकार "तत्त्वमसि" (तुम वह हो) जैसे महावाक्य परोक्ष ज्ञान प्रदान करते हैं। इस परोक्ष ज्ञान को तर्क और आत्म-अनुभव (चिंतन और निदिध्यासन) के माध्यम से प्रत्यक्ष अनुभव में बदलना ही वास्तविक मुक्ति है।
संक्षेप में, दशम पुरुष की कहानी तृप्तिदीप प्रकरणम् में अज्ञान से ज्ञान और अंततः परम संतुष्टि तक की यात्रा को सरल और सुबोध तरीके से समझाने के लिए एक शक्तिशाली रूपक के रूप में कार्य करती है।
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