🪷 श्लोक 1
गुहाहितं ब्रह्म यत् तत् पंचकोश विवेकतः । बोद्धुं शक्यं ततः कोशपंचकं प्रविविच्यते ॥
हिंदी अनुवाद (as-it-is): जो ब्रह्म हृदय की गुहा में स्थित है, वह पाँच कोशों के विवेक द्वारा जानने योग्य है। इसलिए अब हम उन पाँच कोशों का विश्लेषण करते हैं।
🪷 श्लोक 2
देहादभ्यंतरः प्राणः प्राणा अभ्यंतरं मनः । ततः कर्ता ततो भोक्ता गुहा सेयं परंपरा ॥
हिंदी अनुवाद (as-it-is): शरीर के भीतर प्राण है, प्राण के भीतर मन है, मन के भीतर कर्ता (बुद्धि) है, और उसके भीतर भोक्ता (आनंदमय कोश) है। यह गुहा की परंपरा है – एक के भीतर एक स्थित।
🧭 विवेचनात्मक सारांश:
गुहा = हृदय का अंतरतम कक्ष, जिसमें आत्मा स्थित है।
पंचकोश = पाँच आवरण जो आत्मा को आच्छादित करते हैं:
अन्नमय कोश – स्थूल शरीर, अन्न से बना।
प्राणमय कोश – प्राण, जीवन शक्ति।
मनोमय कोश – मन और इंद्रियाँ।
विज्ञानमय कोश – बुद्धि, अहंकार, कर्तापन।
आनंदमय कोश – कारण शरीर, सुख का अनुभव।
कर्तापन विज्ञानमय कोश का कार्य है – “मैं करता हूँ” की भावना।
भोक्तापन आनंदमय कोश का कार्य है – सुख का अनुभव, विशेषतः गहन निद्रा में।
🕉️ श्लोक 3
पितृभुक्तान्नजाद् वीर्याज्जातोऽन्नेनैव वर्धते । देहः सोऽन्नमयो नात्मा प्राक् चोर्ध्वं तदभावतः ॥
हिंदी अनुवाद : पिता द्वारा खाए गए अन्न से उत्पन्न वीर्य से यह शरीर उत्पन्न होता है, और अन्न से ही इसका पोषण होता है। यह देह अन्नमय है – अन्न से बना हुआ। यह आत्मा नहीं है, क्योंकि इसका पूर्व और उत्तर दोनों में अभाव है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
उत्पत्ति और पोषण: शरीर की उत्पत्ति अन्न से होती है (पितृभुक्त अन्न का सार), और इसका पोषण भी अन्न से ही होता है।
स्थूलता और जड़ता: यह देह जड़ है, चेतन नहीं। इसमें आत्मचेतना नहीं है, केवल भौतिकता है।
नश्वरता: इसका आरंभ है और अंत भी निश्चित है।
विवेक: आत्मा नित्य है, अनादि और अनंत है। इसलिए देह आत्मा नहीं हो सकती।
🕉️ श्लोक 4
पूर्वजन्मन्यसन्नेतज्जन्म सम्पादयेत्कथम् । भावि जन्मन्यसन् कर्म न भुञ्जीत हि सञ्चितम् ॥
हिंदी अनुवाद (as-it-is): यदि पूर्व जन्म नहीं था, तो यह जन्म कैसे हुआ? और यदि भावी जन्म नहीं होगा, तो संचित कर्मों का फल कौन भोगेगा?
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
कारण-कार्य सिद्धांत: शरीर का जन्म बिना कारण के नहीं हो सकता।
अनुभवों की विविधता: सुख-दुख की अनुभूति शरीर के माध्यम से होती है, परंतु शरीर स्वयं उसका कारण नहीं है।
कर्मफल की व्यवस्था: यदि शरीर ही सब कुछ है और मृत्यु के बाद कुछ नहीं रहता, तो अच्छे-बुरे कर्मों का फल कैसे मिलेगा?
पूर्व और भावी जन्म की आवश्यकता: संचित कर्मों के फल की प्राप्ति के लिए पुनर्जन्म आवश्यक है।
अकृताभ्यागम और कृतनाश
🕉️ श्लोक 5
पूरणो देहे बलं यच्छन् अक्षणां यः प्रवर्तकः । वायुः प्राणमयो नासौ आत्मा चैतन्यवर्जनात् ॥
हिंदी अनुवाद : जो शरीर को बल देता है और इन्द्रियों को क्रियाशील बनाता है, वह वायु रूप प्राण है – प्राणमय कोश। वह आत्मा नहीं है, क्योंकि उसमें चैतन्य नहीं है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
प्राणमय कोश शरीर के भीतर स्थित है, और यह जीवन शक्ति का स्रोत है।
यह इन्द्रियों को शक्ति देता है – दृष्टि, श्रवण, स्पर्श आदि की स्पष्टता इसी से आती है।
परंतु यह चेतन नहीं है – यह केवल कार्य करता है, जानता नहीं।
स्वप्न और निद्रा में भी यह कार्य करता है, परंतु हमें इसका ज्ञान नहीं होता।
इसलिए, यह आत्मा नहीं हो सकता – क्योंकि आत्मा साक्षी चैतन्य है।
🕉️ श्लोक 6
अहन्तां ममतां देहे गेहादौ च करोति यः । कामाद्यवस्थया भ्रान्तो नासावात्मा मनोमयः ॥
हिंदी अनुवाद : जो देह, गृह आदि में अहंता और ममता करता है, जो काम आदि अवस्थाओं में भ्रमित रहता है – वह मनोमय कोश है, और आत्मा नहीं है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
मनोमय कोश प्राणमय कोश के भीतर स्थित है।
इसकी प्रकृति है – इच्छा, संकल्प, कल्पना, अस्थिरता, और भ्रम।
यह “मैं” और “मेरा” की भावना से ग्रस्त रहता है – अहंता और ममता।
यह वस्तुओं से चिपकता है – “यह मेरा है”, “मैं ऐसा हूँ” आदि।
परंतु गहन निद्रा, मूर्छा, या मृत्यु में यह कार्य नहीं करता – तब भी व्यक्ति रहता है।
इसलिए, यह भी आत्मा नहीं है – क्योंकि आत्मा सतत, साक्षी चैतन्य है।
🕉️ श्लोक 7
लीना सुप्तौ वपुर्बोधे व्याप्नुयादानखाग्रगात् । चिच्छायोपेत धीर्नात्मा विज्ञानमय शब्दभाक् ॥
हिंदी अनुवाद : जो निद्रा में लीन हो जाती है और जाग्रत अवस्था में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होती है, जो चैतन्य की छाया से युक्त है – वह बुद्धि विज्ञानमय कोश है। यह आत्मा नहीं है, यद्यपि यह “मैं जानता हूँ” जैसे शब्दों का प्रयोग करती है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
विज्ञानमय कोश मन के भीतर स्थित है – यह निर्णय, विवेक और कर्तृत्व का अनुभव कराता है।
जाग्रत अवस्था में यह सम्पूर्ण शरीर में “मैं हूँ” की भावना से व्याप्त होता है।
परंतु गहन निद्रा में यह भी लीन हो जाता है – तब भी व्यक्ति बना रहता है।
इसका कार्य चैतन्य की छाया से होता है – यह स्वयं चैतन्य नहीं है।
इसलिए, यह आत्मा नहीं है – क्योंकि आत्मा सदा जाग्रत, साक्षी और अविनाशी है।
🕉️ श्लोक 8
कर्तृत्वकरणत्वाघ्यां विक्रियेतान्तरिन्द्रियम् । विज्ञानमनसी अन्तर् बहिश्चैते परस्परम् ॥
हिंदी अनुवाद : कर्तृत्व और करणत्व से युक्त ये दोनों – बुद्धि और मन – विकारी हैं। बुद्धि भीतर है, मन बाहर है – ये दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
मन इन्द्रिय रूप उपकरण है – यह संकल्प, विकल्प करता है।
बुद्धि कर्ता है – निर्णय लेती है, “मैं करता हूँ” की भावना उत्पन्न करती है।
दोनों विकारी हैं – परिवर्तनशील हैं, स्थायी नहीं।
दोनों जड़ हैं – चैतन्य नहीं।
इसलिए, आत्मा इनसे भिन्न है – आत्मा नित्य, साक्षी, अचल चैतन्य है।
🕉️ श्लोक 9
काचिदन्तर्मुखा वृत्तिरानन्दप्रतिबिम्बभाक् । पुण्यभोगे भोगशान्तौ निद्रारूपेण लीयते ॥
हिंदी अनुवाद : एक अंतर्मुखी वृत्ति है जो आनंद के प्रतिबिंब को ग्रहण करती है। पुण्य के फलस्वरूप सुख की स्थिति में, और सुख की समाप्ति पर – यह वृत्ति निद्रा के रूप में लीन हो जाती है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
आनंदमय कोश कारण शरीर है – यह मन, बुद्धि, प्राण और स्थूल शरीर के भीतर स्थित है।
यह वृत्तियों की वह अवस्था है जहाँ वे पूर्णतः अंतर्मुखी हो जाती हैं – जैसे गहन निद्रा में।
निद्रा में मन और बुद्धि की क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं, और वृत्तियाँ तमस में लीन हो जाती हैं।
फिर भी, हम उस अवस्था में सुख का अनुभव करते हैं – यह सुख आत्मा के समीप होने का संकेत है।
यह सुख प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि प्रतिबिंबित होता है – आत्मा के आनंद का प्रतिबिंब कारण शरीर में पड़ता है।
यह आनंद पुण्य के फलस्वरूप होता है – यदि पूर्व जन्मों में शुभ कर्म किए हों, तो निद्रा सुखद होती है।
आनंदमय कोश भोक्ता है – यह सुख का अनुभव करता है, परंतु यह भी आत्मा नहीं है, क्योंकि यह भी जड़ है और परिवर्तनशील है।
🌌 आत्मा और आनंदमय कोश का भेद:
आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है – परमानंद।
आनंदमय कोश उस आनंद का प्रतिबिंब है – जैसे चंद्रमा का प्रतिबिंब जल में।
जब मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं, तब यह कोश आत्मा के समीप आता है – परंतु यह आत्मा नहीं है।
आत्मा साक्षी है – वह निद्रा, स्वप्न और जाग्रत तीनों अवस्थाओं में बनी रहती है।
इसलिए, आनंदमय कोश भी आत्मा नहीं है – यह भी एक आवरण है।
🕉️ श्लोक 10
कदाचित्कत्वतो नात्मा स्यादनन्दमयोऽप्ययम् । बिम्बभूतो य आनन्द आत्मासौ सर्वदा स्थितेः ॥
हिंदी अनुवाद (as-it-is): क्योंकि यह (आनंदमय कोश) कभी-कभी ही प्रकट होता है, इसलिए यह आत्मा नहीं है। जो आनंद स्वयं का बिंब है – वही आत्मा है, जो सदा स्थित रहता है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
आनंदमय कोश भी आत्मा नहीं है, क्योंकि:
यह केवल निद्रा या पुण्य भोग की अवस्था में ही प्रकट होता है – कदाचित्कत्व।
इसका अनुभव अप्रत्यक्ष होता है – हम निद्रा में आनंद का अनुभव करते हैं, परंतु जागरूक नहीं होते।
इसका आरंभ और अंत होता है – निद्रा आती है और जाती है।
आत्मा तो सदा स्थित है – सर्वदा स्थितेः।
आनंदमय कोश में जो आनंद अनुभव होता है, वह आत्मा के आनंद का प्रतिबिंब है – बिम्बभूत।
इसलिए, आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है – वह नित्य, साक्षी, और स्वतंत्र है।
🌟 निष्कर्ष: आत्मा की पहचान
अब तक के विवेक से निष्कर्ष निकलता है:
✅ आत्मा:
नित्य, साक्षी, स्वतंत्र
सच्चिदानंद स्वरूप
सभी अवस्थाओं में स्थित – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति
पंचकोशों से भिन्न, परंतु उनके साक्षी
🕉️ श्लोक 11
ननु देहमुपक्रम्य निद्रानन्दान्तवस्तुषु । मा भूदात्मत्वमन्यस्तु न कश्चिदनुभूयते ॥
हिंदी अनुवाद : यदि देह से लेकर निद्रा के आनंद तक सब वस्तुएँ नष्ट हो जाएँ, तो आत्मा का कोई अस्तित्व न रहे – ऐसा प्रतीत होता है। परंतु अन्य कोई वस्तु अनुभव में नहीं आती – इसलिए आत्मा का निषेध भी अनुभव नहीं है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
शिष्य की शंका: “यदि पाँचों कोशों का निषेध कर दिया जाए, तो कुछ भी शेष नहीं रहता। तब क्या आत्मा भी नहीं है?”
यह शंका उस अनुभवजन्य शून्यता से उत्पन्न होती है जो विवेक के बाद आती है – जब देह, प्राण, मन, बुद्धि और कारण शरीर सबका निषेध हो जाता है।
परंतु यह शून्यता आत्मा का अभाव नहीं, बल्कि मन-बुद्धि की अयोग्यता है – आत्मा को जानने के लिए।
आत्मा को जानने के लिए जो साधन चाहिए – मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ – वे सब कोशों में आते हैं, और उनका निषेध हो चुका है।
इसलिए आत्मा का अनुभव नहीं हो रहा – परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि आत्मा नहीं है।
🌟 आत्मा की सकारात्मक पहचान:
आत्मा साक्षी चैतन्य है – वह जानता है, परंतु स्वयं ज्ञेय नहीं है।
आत्मा स्वयंप्रभा है – उसे जानने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं।
आत्मा सदा स्थित है – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में।
आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप है – अस्तित्व, चेतना और आनंद का एकत्व।
🧠 दार्शनिक दृष्टिकोण:
जब हम कहते हैं “कुछ नहीं बचा”, तो यह कथन भी चेतना से ही उत्पन्न होता है।
यदि वास्तव में कुछ नहीं होता, तो “कुछ नहीं” कहने वाला भी नहीं होता।
इसलिए, चेतना का निषेध असंभव है – क्योंकि वह हर अनुभव की पूर्वशर्त है।
🕉️ श्लोक 12
बाढं निद्रादयः सर्वेऽनुभूयन्ते न चेत्तरः । तथाप्येतेऽनुभूयन्ते येन तं को निवारयेत् ॥
हिंदी अनुवाद (as-it-is): निद्रा आदि अवस्थाएँ तो अनुभव में आती हैं, परंतु जो इनका अनुभव करता है – उसे कौन नकार सकता है?
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
गुरु का प्रतिप्रश्न: “तुम कहते हो कि कुछ नहीं बचा – पर क्या तुम जानते हो कि तुम कुछ नहीं जानते?”
यह अज्ञान का ज्ञान है – “मुझे कुछ नहीं पता” कहना भी एक प्रकार का ज्ञान है।
निद्रा में “मैंने कुछ नहीं जाना” – यह स्मृति किसने दी? → वह साक्षी चैतन्य ही है, जो निद्रा में भी बना रहता है।
इसलिए, आत्मा का निषेध असंभव है – क्योंकि वह स्वयं अनुभव का आधार है।
🕉️ श्लोक 13
स्वयमेवानुभूति त्वाद्विद्यते नानुभाव्यता । ज्ञातृ-ज्ञानान्तराभावाज्ज्ञेयो न त्वसत्तया ॥
हिंदी अनुवाद : आत्मा स्वयं अनुभूति है – इसलिए वह ज्ञेय नहीं है। ज्ञाता और ज्ञेय के भेद के अभाव से – वह ज्ञेय नहीं, परंतु असत भी नहीं है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
आत्मा स्वयंप्रभा है – उसे जानने के लिए कोई अन्य साधन नहीं चाहिए।
वह ज्ञेय नहीं है – क्योंकि ज्ञेय बनने के लिए ज्ञाता से भिन्न होना आवश्यक है।
आत्मा तो स्वयं ज्ञाता है – इसलिए वह अनुभव है, परंतु अनुभव का विषय नहीं।
जब ज्ञाता और ज्ञेय का भेद समाप्त हो जाता है, तब केवल ज्ञानस्वरूप आत्मा ही रह जाती है।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा का अनुभव वस्तु-ज्ञान की तरह नहीं होता – वह स्वतः सिद्ध, स्वतः प्रकाश है।
जब मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं – तब आत्मा की स्वभाविक उपस्थिति प्रकट होती है।
यह अनुभव अव्यक्त, अवर्णनीय, परंतु नित्य है – जैसे आँख स्वयं को नहीं देख सकती, परंतु सब कुछ देखती है।
🕉️ श्लोक 14
माधुर्यादि स्वभावानामन्यत्र स्वगुणार्पिणाम् । स्वस्मिन्तदर्पणापेक्षा नो न चास्त्यन्यदर्पकम् ॥
हिंदी अनुवाद : मधुरता जैसे गुण अन्य वस्तुओं को दी जा सकती है, परंतु स्वयं को मधुर बनाने के लिए चीनी को किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं होती। उसी प्रकार, चैतन्य अन्य वस्तुओं को चेतना प्रदान कर सकता है, परंतु स्वयं को जानने के लिए उसे किसी अन्य ज्ञाता की आवश्यकता नहीं होती।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
चीनी का उदाहरण: चीनी स्वयं मधुर होती है – उसे मधुर बनाने के लिए किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं।
चैतन्य की स्वतंत्रता: आत्मा स्वयंप्रकाश है – वह अन्य वस्तुओं को जानता है, परंतु स्वयं को जानने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं।
ज्ञेय नहीं, ज्ञाता: आत्मा कभी ज्ञेय नहीं बनती – वह सदा ज्ञाता ही रहती है।
🕉️ श्लोक 15
अर्पकान्तरराहित्येऽप्यस्त्येषां तत्स्वभावता । मा भूत्तथानुभाव्यत्वं बोधात्मा तु न हीत्यते ॥
हिंदी अनुवाद : यदि कोई अन्य वस्तु न भी हो जो चैतन्य को जान सके, तब भी चैतन्य का अस्तित्व बना रहता है – क्योंकि वह स्वयंप्रकाश है। इसलिए, चैतन्य का अनुभव न होना – उसका अभाव नहीं है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
अनुभव का भ्रम: जब ज्ञेय वस्तु नहीं होती, तो हमें लगता है कि चैतन्य नहीं है – परंतु यह केवल ज्ञान प्रक्रिया का अभाव है, चैतन्य का नहीं।
स्वतः सिद्धता: आत्मा को जानने के लिए कोई अन्य साधन नहीं चाहिए – वह स्वयं सिद्ध है।
अंतिम सत्य: चैतन्य ही वह अंतिम तत्व है जिसे नकारा नहीं जा सकता – क्योंकि नकारने की क्रिया भी उसी से होती है।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा न तो ज्ञेय है, न ही किसी अन्य से प्रमाणित होती है।
वह स्वयंप्रकाश, स्वतंत्र, और अंतिम सत्य है।
जैसे चीनी स्वयं मधुर होती है, वैसे ही आत्मा स्वयं चैतन्यस्वरूप है।
🕉️ श्लोक 16
स्वयं ज्योतिर्भवतेष पुरोऽस्माद्भासतेऽखिलात् । तमेव भान्तमन्वेति तद्भासा भाष्यते जगत् ॥
हिंदी अनुवाद : चेतना स्वयं प्रकाश है – जैसे सूर्य। उसके प्रकाश से ही सब कुछ प्रकाशित होता है। वह जब प्रकाशित होती है, तब उसके प्रकाश से ही यह जगत प्रकाशित होता है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
आत्मा स्वयंप्रकाश है – उसे जानने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं।
जैसे सूर्य को दीपक से प्रकाशित नहीं किया जा सकता, वैसे ही आत्मा को किसी अन्य ज्ञाता से नहीं जाना जा सकता।
कठोपनिषद और मुण्डकोपनिषद का उद्धरण – “न तत्र सूर्यः भाति…” – दर्शाता है कि ब्रह्म का प्रकाश सभी लौकिक प्रकाशों से परे है।
यह चेतना स्वयं को जानती है और अन्य सबको भी जानती है – स्वचेतन और परचेतन दोनों।
🕉️ श्लोक 17
येनेदं जानते सर्वं तत्केनान्येन जानताम् । विज्ञातारं केन विद्याच्छक्तं वेद्ये तु साधनम् ॥
हिंदी अनुवाद : जिससे सब कुछ जाना जाता है – उसे किससे जाना जाएगा? ज्ञाता को कौन जान सकता है? ज्ञेय के लिए साधन संभव है – परंतु ज्ञाता के लिए नहीं।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
यह बृहदारण्यक उपनिषद के याज्ञवल्क्य का प्रसिद्ध प्रश्न है – “विज्ञातारं केन विद्यात्?”
ज्ञेय को जानने के लिए साधन होते हैं – इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि।
परंतु ज्ञाता को जानने के लिए कोई साधन नहीं – क्योंकि वह स्वयं सभी साधनों का आधार है।
यदि हम कहें कि ज्ञाता को कोई दूसरा ज्ञाता जानता है, तो यह अनंत प्रतिगमन (infinite regress) होगा – जो तर्कसंगत नहीं।
इसलिए, आत्मा को कोई नहीं जान सकता – क्योंकि वह स्वयं ज्ञान का स्रोत है।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा अद्वितीय, स्वप्रकाश, और अनिर्वचनीय है।
वह न तो ज्ञेय है, न ही किसी अन्य से प्रमाणित होती है।
वह साक्षी, स्वयं सिद्ध, और ब्रह्मस्वरूप
🕉️ श्लोक 18
स वेत्ति वेद्यं तत्सर्वं नान्यस्तस्यास्ति वेदिता । विदिताविदिताभ्यां तत्पृथग्बोधस्वरूपकम् ॥
हिंदी अनुवाद : वह सब कुछ जानता है जो जानने योग्य है – और वह भी जो जानने योग्य नहीं है। उसके अतिरिक्त कोई ज्ञाता नहीं है। विदित और अविदित दोनों से परे – वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
सर्वज्ञता: आत्मा वह है जो विदित (ज्ञात) और अविदित (अज्ञात) दोनों को जानता है।
विदित = जो इन्द्रियों और बुद्धि से जाना जा सकता है।
अविदित = जो इन्द्रियों से परे है, जिसे सामान्य साधनों से नहीं जाना जा सकता।
यदि हम कहते हैं “यह जानने योग्य नहीं है”, तो यह कथन भी ज्ञान से ही उत्पन्न होता है – इसलिए अविदित भी किसी प्रकार से ज्ञात है।
आत्मा ही वह तत्व है जो ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान प्रक्रिया – तीनों से परे है, और फिर भी सबका आधार है।
🌊 उपमा: सागर और तरंग
जैसे सागर ही तरंगों का आधार है –
एक तरंग = ज्ञाता
दूसरी तरंग = ज्ञेय
उनके बीच का जल = ज्ञान प्रक्रिया
परंतु तीनों का मूल एक ही है – सागर।
वैसे ही, आत्मा ही ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान प्रक्रिया – तीनों का मूल है।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा बोधस्वरूप है – वह जानने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि स्वयं ज्ञान है।
वह विदित और अविदित दोनों से परे है – क्योंकि वह स्वयं साक्षी है।
उसके अतिरिक्त कोई दूसरा ज्ञाता नहीं है – नान्यस्तस्यास्ति वेदिता।
🕉️ श्लोक 19
बोधेऽप्यनुभवो यस्य न कथञ्चन जायते । तं कथं बोधयेच्छास्त्रं लोष्टं नरसमा कृतिम् ॥
हिंदी अनुवाद : जिसके भीतर बोध होते हुए भी अनुभव नहीं होता, उसे शास्त्र कैसे बोध करा सकता है? वह तो मानो पत्थर के समान है – मनुष्य के रूप में।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
गुरु कहते हैं: यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि “मुझे चैतन्य समझ में नहीं आता,” तो यह वैसा ही है जैसे कोई जीभ से पूछे – “क्या मेरी जीभ है?”
प्रश्न पूछना ही चैतन्य का प्रमाण है – क्योंकि बिना चैतन्य के प्रश्न उठ ही नहीं सकता।
इसलिए, “क्या चैतन्य है?” पूछना ही चैतन्य का अनुभव है।
जो व्यक्ति इस तर्क को नहीं समझता, वह लोष्टवत् है – पत्थर के समान।
🕉️ श्लोक 20
जिह्वा मेऽस्ति न वेत्युक्तिः लज्जायै केवलं यथा । न बुध्यते मया बोधो बोधव्य इति तादृशी ॥
हिंदी अनुवाद : “मेरी जीभ है या नहीं?” – ऐसा कहना केवल हास्यास्पद है। उसी प्रकार, “मैं चैतन्य को नहीं जानता” कहना भी वैसा ही है – क्योंकि चैतन्य को जानने की आवश्यकता नहीं – वह स्वयंप्रकाश है।
🧭 विवेचनात्मक टिप्पणी:
आत्मा को जानने की आवश्यकता नहीं – वह स्वयंप्रकाश, स्वतः सिद्ध है।
जैसे बोलने की क्रिया ही जीभ का प्रमाण है, वैसे ही जानने की क्रिया ही आत्मा का प्रमाण है।
आत्मा को जानने का प्रयास करना ही तर्कविरोधी है – क्योंकि वह जानने की प्रक्रिया का मूल है।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा को नकारना असंभव है – क्योंकि नकारने की क्रिया भी उसी से होती है।
आत्मा स्वतः सिद्ध, स्वप्रकाश, और अद्वितीय है – उसे जानने के लिए कोई साधन नहीं चाहिए।
यही आत्मा जब व्यक्तिगत रूप में देखी जाती है, तो आत्मा कहलाती है; और जब सर्वव्यापक रूप में देखी जाती है, तो ब्रह्म कहलाती है।
इसलिए, आत्मा ही ब्रह्म है – अयमात्मा ब्रह्म
🕉️ श्लोक 21
यस्मिन् यस्मिन्नस्ति लोके बोधस्तत्तदुपेक्षणे । यद्बोधमात्रं तद्ब्रह्मेति एवं धीर ब्रह्मनिश्चयः ॥
📜 हिंदी अनुवाद
जिस-जिस वस्तु में बोध नहीं है, उसे त्याग दो। जो केवल बोध मात्र है – वही ब्रह्म है। ऐसे ही धीर पुरुष को ब्रह्म का निश्चय होता है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
यह श्लोक नित्य साधना का व्यावहारिक सूत्र देता है: “बाह्य वस्तु से बोध को हटाओ, और उस शुद्ध बोध में स्थित हो जाओ।”
उदाहरण: वृक्ष को देख रहे हो – तो पूछो: “वृक्ष को जानने वाला कौन है?” वृक्ष → जानने की प्रक्रिया → इन्द्रियाँ → मन → बुद्धि → प्रकाशक आत्मा यह क्रमशः पंचकोशों का लय है।
बुद्धि स्वयं प्रकाशित नहीं है – वह आत्मा के प्रकाश से ही जानती है। जैसे दर्पण स्वयं नहीं चमकता – प्रकाश पड़ने पर ही चमकता है।
यह ब्रह्मनिश्चय है – जानने की प्रक्रिया से हटकर जानने वाले में स्थित होना।
🕉️ श्लोक 22
पञ्चकोशपरित्यागे साक्षिबोधावशेषतः । स्वस्वरूपं स एव स्यात् शून्यत्वं तस्य दुर्गतम् ॥
📜 हिंदी अनुवाद
पंचकोशों का त्याग कर, जब केवल साक्षी-बोध शेष रह जाता है, तब वही आत्मा का स्वरूप है। उसमें शून्यता की कोई संभावना नहीं – वह अशून्य, पूर्ण है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
पंचकोश – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय – इनका क्रमशः विवेकपूर्वक त्याग करो।
अंत में जो साक्षी रूप में बचता है – वही स्वरूप है। वह न तो शून्य है, न ही वस्तु – वह स्वप्रकाश चैतन्य है।
गहन निद्रा इसका व्यावहारिक उदाहरण है – वहाँ कोई वस्तु नहीं, कोई क्रिया नहीं – फिर भी हम हैं, और सुखी हैं।
इसलिए वस्तुओं का अभाव ही सुख का कारण है – और वस्तुओं की उपस्थिति ही दुख का कारण।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा को जानने का उपाय है – वस्तु से हटकर जानने वाले में स्थित होना।
यह ब्रह्मनिश्चय है – कि जो केवल जानता है, वही ब्रह्म है।
पंचकोशों के पार जो साक्षी बचता है – वही स्वरूप है।
वह शून्य नहीं है – वह पूर्णता, सुख, और स्वतंत्रता है।
🕉️ श्लोक 23
अस्ति तावत् स्वयं नाम विवाद विषयत्वतः । स्वस्मिन्नपि विवादश्चेत् प्रतिवादीत्र को भवेत् ॥
“स्वयं” नामक तत्त्व निःसंदेह है – क्योंकि यह विवाद का विषय नहीं हो सकता। यदि स्वयं के अस्तित्व पर ही विवाद हो, तो प्रतिवादी कौन होगा?
🧠 दर्शनिक विवेचन:
यह श्लोक आत्मा की अविवाद्यता और स्वतः सिद्धता की अंतिम पुष्टि है।
“स्वयं” – अर्थात् स्व-चैतन्य, स्वरूप, आत्मा – यह कोई बाह्य वस्तु नहीं है जिसे देखा जाए, तौला जाए, या तर्क से सिद्ध किया जाए।
यदि कोई कहे, “क्या मैं हूँ?” – तो यह प्रश्न ही स्वरूप के अस्तित्व का प्रमाण है। क्योंकि प्रश्न पूछने वाला स्वयं है – और यदि वह न होता, तो प्रश्न भी न उठता।
🔍 तर्क की अपरिहार्यता:
विवाद, तर्क, संशय – ये सब चैतन्य के ही कार्य हैं।
यदि चैतन्य न हो, तो न तर्क संभव है, न संशय, न ही अनुभव।
इसलिए, आत्मा को जानने की आवश्यकता नहीं – वह तो साक्षात् जानने वाला है।
आत्मा चेतन नहीं है – वह चेतना ही है।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा का अस्तित्व न तर्क से सिद्ध होता है, न अनुभव से, बल्कि वह तर्क और अनुभव का मूल आधार है।
यदि कोई आत्मा के अस्तित्व पर ही प्रश्न उठाए, तो प्रतिवादी कौन होगा? – क्योंकि प्रश्नकर्ता स्वयं ही आत्मा है।
यह श्लोक स्वरूप-साक्षात्कार की पूर्वपीठिका है – जहाँ आत्मा को विवादातीत, स्वतः सिद्ध, और स्वप्रकाश रूप में स्थापित किया जाता है।
🕉️ श्लोक 24
स्वासत्त्वं तु न कस्मैचित् रोचते विभ्रमं विना । अत एव श्रुतिर्बाधं ब्रूते चासत्त्ववादिनः ॥
स्वयं के अस्तित्व को कोई नकार नहीं सकता – जब तक कि वह भ्रमित न हो। इसीलिए श्रुति असत्त्ववादियों का खंडन करती है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
आत्मा का न-अस्तित्व कोई नहीं चाहता – क्योंकि यह स्वभाव के विरुद्ध है।
“मैं नहीं हूँ” – ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता। यह विचार ही स्वयं के अस्तित्व का प्रमाण है।
श्रुति (उपनिषद) इसीलिए कहती है: “असद् ब्रह्मेति चेत् वेद, स्वयमेव भवेदसत्” – यदि कोई ब्रह्म को असत् कहे, तो वह स्वयं असत् हो जाता है।
🕉️ श्लोक 25
असद् ब्रह्मेति चेत् वेद स्वयमेव भवेदसत् । अतोऽस्य मा भूद्वेद्यत्वं स्वसत्त्वं त्वभ्युपेयताम् ॥
यदि कोई कहे कि ब्रह्म असत् है, तो वह स्वयं असत् हो जाता है। इसलिए ब्रह्म को जानने योग्य मत मानो – बल्कि उसके स्व-अस्तित्व को स्वीकार करो।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
ब्रह्म ज्ञेय वस्तु नहीं है – वह स्वयं ज्ञान है।
उसे जानने की चेष्टा ही वस्तुकरण है – जो असंभव है।
ब्रह्म को जानना नहीं है – ब्रह्म में स्थित होना है।
🕉️ श्लोक 26
कीदृक् तर्हि चेत् पृच्छेद्दीदृक्ताऽनास्ति तत्र हि । यदनीदृगतादृक्च तत्स्वरूपं विनिश्चिनु ॥
यदि कोई पूछे – “आत्मा कैसा है?” तो जान लो – वह ऐसा नहीं है, न वैसा। जो न इन्द्रियगम्य है, और न गुणयुक्त – वही उसका स्वरूप है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
आत्मा को गुणों से परिभाषित नहीं किया जा सकता – क्योंकि गुण भिन्नता से आते हैं।
यदि सब कुछ नीला हो, तो “नीलता” का अनुभव नहीं होगा। गुण तभी दिखते हैं जब विपरीत हो।
आत्मा न इन्द्रियगम्य है, न गुणयुक्त, न विषय, न वस्तु। वह स्वरूप है – स्वप्रकाश, अविकारी, अद्वितीय।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा का अस्तित्व स्वतः सिद्ध है – उसे न जाना जाता है, न नकारा जा सकता है।
उसे जानने की चेष्टा ही विवेकहीनता है – क्योंकि वह ज्ञान का मूल है।
आत्मा न यह है, न वह है – वह तत्त्वतः है।
यही आत्मा जब व्यक्तिगत रूप में देखी जाती है, तो आत्मा कहलाती है; और जब सर्वव्यापक रूप में देखी जाती है, तो ब्रह्म कहलाती है।
🕉️ श्लोक 27
अक्षाणां विषयस्त्वीदृक्परोक्षस्तादृगुच्यते । विषयी नाक्षविषयः स्वत्वान्नास्य परोक्षता ॥
इन्द्रियों के लिए जो दृश्य है, वह “यह” कहलाता है। जो इन्द्रियों से दूर है, वह “वह” कहलाता है। परंतु आत्मा न तो “यह” है, न “वह” – क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नहीं है, और वह स्वयं है – इसलिए परोक्ष भी नहीं है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
“यह” और “वह” – ये निकटता और दूरता के सूचक हैं। परंतु आत्मा न निकट है, न दूर – वह स्वयं है।
आत्मा इन्द्रियों का विषय नहीं है – क्योंकि वह द्रष्टा है। और जो द्रष्टा है, वह दृश्य नहीं हो सकता।
आत्मा स्वरूपतः इतनी निकट है कि उसे “दूर” कहना असंभव है, और इतनी सर्वव्यापक है कि वह “निकट” भी नहीं कहलाती।
🕉️ श्लोक 28
अवेद्योऽप्यपरोक्षोऽतः स्वप्रकाशो भवत्ययम् । सत्यं ज्ञानमनन्तं चेत्यस्तीह ब्रह्मलक्षणम् ॥
यद्यपि आत्मा इन्द्रियों से अवेद्य है, फिर भी वह अपरोक्ष है – क्योंकि वह स्वप्रकाश है। यह जो सत्य, ज्ञान, और अनन्त है – वही ब्रह्म का लक्षण है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
आत्मा को इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता – परंतु वह अनुभव से जाना जा सकता है – अनुभूति, अनुभव, अनुभाव।
यह प्रत्यक्ष नहीं है, परंतु अपरोक्ष है – क्योंकि वह स्वयंप्रकाश है – उसे जानने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं।
आत्मा ही प्रकाश का स्रोत है – इन्द्रियाँ उसी के उधार लिए हुए प्रकाश से जानती हैं।
उपनिषद कहती है: सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म – यही ब्रह्म का स्वरूप है: अविनाशी, स्वप्रकाश, सर्वव्यापक।
🌌 निष्कर्ष:
आत्मा न दृश्य है, न परोक्ष – वह स्वयंप्रकाश है।
आत्मा को जानने के लिए बाह्य साधन नहीं चाहिए – वह स्वतः जानने योग्य है – अनुभवगम्य, अनुभावगम्य।
यही आत्मा जब व्यक्तिगत रूप में देखी जाती है, तो आत्मा कहलाती है; और जब सर्वव्यापक रूप में देखी जाती है, तो ब्रह्म कहलाती है।
इसलिए, आत्मा ही ब्रह्म है – सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म।
🕉️ श्लोक 29
सत्यत्वं बाधराहित्यं जगद्बाधैकसाक्षिणः । बाधः किं साक्षिको ब्रूहि न त्वसाक्षिक इष्यते ॥
सत्य वही है जिसमें त्रिकालबाधा नहीं होती। यह जगत बाधित होता है – और आत्मा ही इसकी साक्षी है। अब बताओ – बाधा की साक्षी कौन है? जो स्वयं साक्षी है, वह बाधित नहीं हो सकता।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
सत्यत्व का मापदंड है – त्रिकालबाधारहितता। जो भूत, वर्तमान, और भविष्य में कभी नष्ट नहीं होता – वही सत्य है।
जगत बाधित है – वह उत्पन्न होता है, बदलता है, और नष्ट होता है। इसलिए वह सत्य नहीं है।
आत्मा जगत की बाधा की साक्षी है – और साक्षी कभी दृश्य नहीं बनती, कभी बाधित नहीं होती।
यदि आत्मा भी बाधित होती, तो उसकी साक्षीता असंभव होती।
🕉️ श्लोक 30
अपनीतेषु मूर्तेषु ह्यमूर्तं शिष्यते वियत् । शक्येषु बाधितेष्वन्ते शिष्यते यत्तदेव तत् ॥
जब पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि को हटा दिया जाए, तो अंत में अमूर्त आकाश बचता है। इसी प्रकार, जब सभी दृश्य वस्तुएँ बाधित हो जाती हैं, तो जो शेष रह जाता है – वही वास्तविक सत्य है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
नेति नेति की प्रक्रिया से – जब हम पंचमहाभूतों को हटाते हैं, तो अंत में आकाश बचता है – जो अमूर्त, अविकारी, और सर्वव्यापक है।
इसी प्रकार, जब सभी दृश्य वस्तुएँ, इन्द्रियगम्य अनुभव, और विचार हट जाते हैं, तब जो शुद्ध चैतन्य बचता है – वही आत्मा है।
यह आत्मा जगत की अनुपस्थिति को भी जानती है – इसलिए वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, और अविनाशी है।
🌌 निष्कर्ष:
सत्य वही है जो त्रिकालबाधारहित, स्वप्रकाश, और साक्षी है।
जगत बाधित है – आत्मा उसकी साक्षी है।
जब सब कुछ हट जाए, तब जो शेष रह जाए – वही ब्रह्म है।
यही आत्मा जब व्यक्तिगत रूप में देखी जाती है, तो आत्मा कहलाती है; और जब सर्वव्यापक रूप में देखी जाती है, तो ब्रह्म कहलाती है।
🕉️ श्लोक 31
सर्वबाधे न किंचिच्चेद् यन्न किंचित्तदेव तत् । भाषा एवात्र भिद्यन्ते निर्बाधं तावदस्ति हि ॥
यदि सब कुछ बाधित हो जाए, और कुछ भी न बचे – तो जो “कुछ नहीं” जानने की चेतना है – वही वास्तविक तत्त्व है। यह केवल भाषा की भिन्नता है – परंतु निर्बाध चैतन्य तो है ही।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
जब सब वस्तुएँ नष्ट हो जाएँ, तब भी “कुछ नहीं है” जानने वाला चेतन बचा रहता है।
यह चेतना निराकार, निर्गुण, निर्विषय है – परंतु स्वप्रकाश है – इसलिए अस्तित्व है।
“कुछ नहीं बचा” कहना भी चेतना का कार्य है – इसलिए चेतना बाधित नहीं होती – वह सत्य है।
🕉️ श्लोक 32
अत एव श्रुतिर्बाध्यं बाधित्वा शेषयत्यदः । स एष नेति नेत्येत्यात्मेति अतद्व्यावृत्तिरूपतः ॥
इसीलिए श्रुति कहती है – ब्रह्म को नेति नेति द्वारा जाना जाता है। वह यह नहीं, वह नहीं – इस प्रकार सभी वस्तुओं को हटाकर जो शेष रह जाए – वही आत्मा है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
बृहदारण्यक उपनिषद कहती है: “नेति नेति” – ब्रह्म को किसी सकारात्मक परिभाषा से नहीं जाना जा सकता।
आँख, कान, मन, बुद्धि – सबको हटाओ। जो न देखा जा सकता है, न सुना, न सोचा जा सकता है – वही ब्रह्म है।
यह विलोपनात्मक ज्ञान है – “अतद्व्यावृत्ति” – जो वस्तु नहीं है, वही स्वरूप है।
🕉️ श्लोक 33
इदं रूपं तु यद्यावत् तत्त्यक्तुं शक्यतेऽखिलम् । अशक्यो ह्यनिदं रूपः स आत्मा बाधवर्जितः ॥
जो कुछ “यह” रूप में जाना जा सकता है – वह सब त्यागा जा सकता है। परंतु जो “यह नहीं” है – वह त्यागने योग्य नहीं है – वही आत्मा है – जो बाधा से रहित है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
“यह” – अर्थात् इन्द्रियगम्य, दृश्य, वस्तु – सब त्याज्य हैं – क्योंकि वे बाधित हैं।
परंतु जो “यह नहीं” है – जो द्रष्टा है, साक्षी है, स्वप्रकाश है – वह त्याज्य नहीं है – वह स्वरूप है।
शरीर भी वस्तु है – क्योंकि वह इन्द्रियों से जाना जाता है। इसलिए शरीर भी त्याज्य है – आत्मा नहीं।
🌌 निष्कर्ष:
नेति नेति की प्रक्रिया से – जब सब कुछ हट जाए, तब जो शेष रह जाए – वही आत्मा है – निर्बाध, स्वप्रकाश, अविनाशी।
आत्मा को त्यागा नहीं जा सकता – क्योंकि वह त्यागने वाले का ही स्वरूप है।
यही आत्मा जब व्यक्तिगत रूप में देखी जाती है, तो आत्मा कहलाती है; और जब सर्वव्यापक रूप में देखी जाती है, तो ब्रह्म
🕉️ श्लोक 34
सिद्धं ब्रह्मणि सत्यत्वं ज्ञानत्वं तु पुरेरितम् । स्वयमेवानुभूतित्वादित्यादि वचनैः स्फुटम् ॥
ब्रह्म में सत्यता सिद्ध हो चुकी है – और ज्ञानस्वरूपता पहले ही प्रतिपादित की जा चुकी है। क्योंकि वह स्वयं अनुभूत है – इसलिए उपनिषदों के वचनों से यह स्पष्ट है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
ब्रह्म सत्य है – क्योंकि वह त्रिकालबाधारहित है।
ब्रह्म ज्ञान है – क्योंकि वह स्वप्रकाश है, स्वयं अनुभूत है।
यह बाह्य प्रमाण से नहीं जाना जाता – बल्कि स्वानुभव से जाना जाता है।
जैसे गति को जानने के लिए स्वयं स्थिर होना आवश्यक है, वैसे ही परिवर्तनशीलता को जानने के लिए अपरिवर्तनशील चैतन्य आवश्यक है।
ब्रह्म ही वह अपरिवर्तनशील, अविकारी, स्वप्रकाश तत्त्व है – जो सभी परिवर्तन का साक्षी है।
🕉️ श्लोक 35
न व्यापित्वाद् द्येशतोऽन्तो नित्यत्वान्नापि कालतः । न वस्तुतोऽपि सार्वात्म्यादानन्त्यं ब्रह्मणि त्रिधा ॥
ब्रह्म का अंत नहीं है – न देश से, न काल से, न वस्तु से। इसलिए ब्रह्म का अनन्तत्व तीन प्रकार का है – देशातीतता, कालातीतता, और वस्तुतातीतता।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
देशबन्ध: हम एक स्थान पर हैं, दूसरे पर नहीं – ब्रह्म सर्वत्र है – इसलिए देशातीत है।
कालबन्ध: हम किसी समय पर हैं, हर समय नहीं – ब्रह्म सदा है – इसलिए कालातीत है।
वस्तुबन्ध: हम कोई एक व्यक्ति हैं, दूसरा नहीं – ब्रह्म सर्वात्मा है – इसलिए वस्तुतातीत है।
ब्रह्म नित्य, सर्वव्यापक, और सर्वात्मा है – इसलिए उसका अनन्तत्व त्रैविध रूप में प्रकट होता है।
🌌 निष्कर्ष:
ब्रह्म सत्य है – क्योंकि वह बाधारहित है।
ब्रह्म चैतन्य है – क्योंकि वह स्वप्रकाश है।
ब्रह्म अनन्त है – क्योंकि वह देश, काल, और वस्तु से परे है।
यही ब्रह्म जब व्यक्तिगत रूप में देखा जाता है, तो आत्मा कहलाता है; और जब सर्वव्यापक रूप में देखा जाता है, तो ब्रह्म कहलाता है।
🕉️ श्लोक 36
देशकालायनवस्तूनां कल्पितत्वाच्च मायया । न देशादिकृतोऽन्तोऽस्ति ब्रह्मानन्त्यं स्फुटं ततः ॥
देश, काल और वस्तु – ये सब माया द्वारा कल्पित हैं। इसलिए ब्रह्म का कोई अंत नहीं है – उसका अनन्तत्व स्पष्ट रूप से सिद्ध है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
देश, काल, वस्तु – ये तीनों बाह्य सीमाएँ हैं, जो माया द्वारा कल्पित हैं – जैसे स्वप्न में।
स्वप्न में हम जंगल, बाघ, पेड़, दौड़ना – सब अनुभव करते हैं, परंतु वे सब मन की कल्पना हैं – बाह्य नहीं।
उसी प्रकार, यह जगत भी कोस्मिक माइंड का स्वप्न है – हम, आप, वस्तुएँ – सब मायिक प्रक्षेप हैं।
जब वस्तुता की चेतना हट जाती है, तब व्यक्तिगत मन कोस्मिक माइंड में विलीन हो जाता है – और वही है वास्तविक जागरण।
🌌 निष्कर्ष:
ब्रह्म देश, काल, और वस्तु से परे है – क्योंकि ये तीनों माया द्वारा कल्पित हैं।
जैसे स्वप्न में सब कुछ मन से उत्पन्न होता है, वैसे ही जगत भी कोस्मिक चेतना का स्वप्न है।
जब व्यक्तिगत चेतना कोस्मिक चेतना में विलीन होती है, तब जगत समाप्त हो जाता है – और ब्रह्म ही शेष रहता है।
इसलिए, ब्रह्म अनन्त, अविनाशी, और स्वप्रकाश है – उसका कोई देश, काल, या वस्तुगत अंत नहीं है।
🕉️ श्लोक 37
सत्यं ज्ञानमनन्तं यद्ब्रह्म तद्वस्तु तस्य तत् । ईश्वरत्वं च जीवत्वमुपाधिद्वयकल्पितम् ॥
जो ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है – वही वस्तु है। उसके ईश्वर और जीव रूप – ये दोनों उपाधियों द्वारा कल्पित हैं।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
🔹 ब्रह्म की स्वरूप-परिभाषा:
सत्यं – जो सदा है, नित्य है, अविकारी है।
ज्ञानं – जो स्वप्रकाश है, चेतन है, साक्षी है।
अनन्तं – जो देश, काल, वस्तु से परम है।
यह ब्रह्म ही वास्तविक वस्तु है – तत्त्व है।
🔹 ईश्वर और जीव की उत्पत्ति:
जब यही ब्रह्म माया के शुद्ध सत्त्व में प्रतिबिंबित होता है, तब वह ईश्वर कहलाता है – सृष्टिकर्ता, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान।
जब वही ब्रह्म अविद्या के मलिन सत्त्व में प्रतिबिंबित होता है, तब वह जीव कहलाता है – सीमित, अज्ञानी, कर्तृत्व-भोक्तृत्व से युक्त।
🔹 उपाधि-द्वय:
ईश्वरत्व और जीवत्व – ये ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप नहीं हैं, बल्कि माया और अविद्या की कल्पना हैं।
🌌 उपमा और दृष्टांत:
जैसे घड़े का आकाश और महाकाश – दोनों में आकाश एक ही है, पर घड़ा सीमित करता है।
वैसे ही, ब्रह्म एक ही है – पर माया और अविद्या रूपी घड़े उसे ईश्वर और जीव बना देते हैं।
🧩 निष्कर्ष:
ब्रह्म ही वस्तु है – सत्य, ज्ञान, अनन्त।
ईश्वर और जीव – ये उपाधियों द्वारा कल्पित भेद हैं।
जब उपाधियाँ मिटती हैं, तब ब्रह्म का एकत्व प्रकट होता है।
यही है महावाक्य-विचार का लक्ष्य – “तत्त्वमसि”, “अहं ब्रह्मास्मि”, “अयमात्मा ब्रह्म”।
🕉️ श्लोक 38
शक्तिरस्त्यैश्वरि काचित् सर्ववस्तुनियामिका । आनन्दमयमारभ्य गुह्या सर्वेषु वस्तुषु ॥
एक ऐश्वर्यशाली शक्ति है – जो सभी वस्तुओं को नियंत्रित करती है। यह शक्ति आनन्दमय कोश से आरंभ होकर सभी वस्तुओं में गुप्त रूप से व्याप्त है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
🔹 शक्ति का स्वरूप:
यह ईश्वरी शक्ति है – नियामिका, अर्थात नियंत्रणकारी।
यह माया की शक्ति है – जो ईश्वर के रूप में ब्रह्म की सृष्टि-शक्ति है।
🔹 कार्य-क्षेत्र:
यह शक्ति आनन्दमय कोश से शुरू होकर स्थूल शरीर तक कार्य करती है।
ईश्वर से लेकर विराट तक – यह शक्ति सभी स्तरों पर नियंत्रण करती है।
🔹 नियमन का तात्पर्य:
सभी घटनाएँ – जैसे सूर्य का उदय, समुद्र की लहरें, वनस्पति की वृद्धि – यह सब शक्ति के नियमन से सटीक रूप से घटित होता है।
कुछ भी अनियोजित नहीं होता – जो होता है, ठीक वैसा ही होना चाहिए।
🌍 मानव दृष्टिकोण और भ्रांति:
मनुष्य अज्ञानवश सोचता है कि अन्याय हो रहा है – “जो होना चाहिए था, वह नहीं हुआ”, “जो नहीं होना चाहिए था, वह हो गया।”
यह शक्ति इतनी गूढ़ है कि मनुष्य की बुद्धि उसे समझ नहीं पाती।
इसलिए हम शिकायत करते हैं – ईश्वर पर, प्रकृति पर, न्याय पर।
🌌 निष्कर्ष:
यह शक्ति ही माया है – जो ईश्वर के अधीन है और सृष्टि को नियंत्रित करती है।जीव की अविद्या उसे शक्ति के न्याय को अन्याय समझने पर विवश करती है।
🕉️ श्लोक 39
वस्तु धर्मा नियम्येरन् शक्त्या नैव यदा तदा । अन्योन्य धर्मसाङ्कर्याद्विप्लवेत्त जगत्खलु ॥
यदि वस्तुओं के धर्म (गुण, स्वभाव) शक्ति द्वारा नियंत्रित न हों, तो एक-दूसरे के धर्मों का मिश्रण होकर जगत में विप्लव उत्पन्न हो जाएगा।
🧠 दार्शनिक विवेचन:
🔹 शक्ति का कार्य:
यह ईश्वरी शक्ति ही है जो सभी वस्तुओं के गुणों को नियंत्रित करती है।
यह शक्ति सुनियोजित, गणितीय, और न्यायपूर्ण ढंग से कार्य करती है।
🔹 यदि शक्ति निष्क्रिय हो जाए:
तब जल जलाने लगे, पत्ते काटने लगे, धरती फटने लगे — विप्लव हो जाए।
वस्तुओं के स्वभाव एक-दूसरे में मिल जाएँ — धर्म-संकर हो जाए।
🔹 उपहासात्मक दृष्टांत:
यदि शैतान ने जगत बनाया होता:
पानी पीते ही पिघले धातु जैसा जलता।
पत्ते छूते ही छुरी की तरह काटते।
धरती पर चलते ही फट जाती।
पर ऐसा नहीं होता — इसलिए ईश्वर ने जगत बनाया है, शैतान नहीं।
🌍 मानव दृष्टिकोण और भ्रांति:
मनुष्य आंशिक दृष्टि से सोचता है — “यह अन्याय है”, “ईश्वर अंधा है”, “जगत क्रूर है”।
परंतु कोस्मिक दृष्टि से देखें तो — सब कुछ यथासमय, यथास्थान, यथाविधि घटित होता है।
शक्ति का कार्य गूढ़ है — परंतु सटीक है, न्यायपूर्ण है, सर्वव्यापी है।
🌌 निष्कर्ष:
शक्ति ही जगत की व्यवस्था है — उसका नियमन ही सृष्टि का संतुलन है।विप्लव तब होता है जब धर्मों का संकर होता है — और यह तभी संभव है जब शक्ति निष्क्रिय हो जाए — जो कि कभी नहीं होती।
🕉️ श्लोक 40
चित्छायावेशतः शक्तिश्चेतनेव विभाति सा । तच्छक्त्युपाधिसंयोगात् ब्रह्मैवेश्वरतां व्रजेत् ॥
जब ब्रह्म की चैतन्य छाया शक्ति में प्रवेश करती है, तो वह शक्ति चेतन जैसी प्रतीत होती है। इस शक्तियुक्त उपाधि के संयोग से ब्रह्म ईश्वर बन जाता है।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
ब्रह्म स्वयं निष्क्रिय, निरुपाधि, अविकारी है। परंतु जब वह माया (शुद्ध सत्त्व) में प्रतिबिंबित होता है, तब वह ईश्वर के रूप में सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक बनता है।
यह ईश्वरत्व ब्रह्म का स्वभाव नहीं, बल्कि शक्तियुक्त उपाधि का परिणाम है।
जैसे सूर्य की किरण जल में पड़कर कंपन करती प्रतीत होती है, वैसे ही ब्रह्म की चेतना माया में प्रतिबिंबित होकर सक्रिय प्रतीत होती है।
🕉️ श्लोक 41
कोशोपाधिविवक्षायां याति ब्रह्मैव जीवताम् । पिता पितामहश्चैकः पुत्रपौत्रौ यथा प्रथी ॥
जब ब्रह्म कोशों की उपाधि से जुड़ता है, तो वही ब्रह्म जीव बन जाता है — जैसे एक ही व्यक्ति पिता और पितामह कहलाता है, पुत्र और पौत्र के संदर्भ में।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
जब ब्रह्म पंचकोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में प्रतिबिंबित होता है, तब वह सीमित चेतना — जीव बन जाता है।
यह जीवतत्व भी ब्रह्म का स्वभाव नहीं, बल्कि कोशोपाधि का परिणाम है।
जैसे एक ही व्यक्ति पिता है पुत्र के लिए, और पितामह है पौत्र के लिए — वैसे ही ब्रह्म ही ईश्वर है माया के संदर्भ में, और जीव है अविद्या के संदर्भ में।
🌌 निष्कर्ष:
ब्रह्म न तो ईश्वर है, न ही जीव — वह उपाधियों से स्वतः भिन्न है।
ईश्वरत्व और जीवत्व — ये दृष्टिकोणजन्य भेद हैं, तत्त्वतः ब्रह्म एकमेव अद्वितीयम् है।
🕉️ श्लोक 42
पुत्रादेरविवक्षा यां न पिता न पितामहः । तद्वन्नेशो नापि जीवः शक्तिकोशाविवक्षणे ॥
जब पुत्र या पौत्र की विवक्षा नहीं होती, तो पिता या पितामह की सत्ता भी नहीं होती। उसी प्रकार, जब शक्ति या कोशों की विवक्षा नहीं होती, तो ईश्वर और जीव भी नहीं होते।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
जैसे पिता और पितामह केवल संबंधजन्य उपाधियाँ हैं — वे स्वतंत्र सत्ता नहीं हैं, वैसे ही ईश्वर और जीव भी उपाधि-सापेक्ष हैं।
ईश्वर तब है जब माया (शुद्ध सत्त्व) है। जीव तब है जब पंचकोश हैं।
यदि माया और कोश नहीं हैं, तो ईश्वर और जीव की कल्पना भी नहीं रह जाती।
अतः ब्रह्म न उपाधियों से बँधा है, वह स्वतः स्वतंत्र, निरुपाधि, अद्वितीय है।
🕉️ श्लोक 43
य एवम् ब्रह्म वेदैष ब्रह्मैव भवति स्वयम् । ब्रह्मणो नास्ति जन्मातः पुनरेष न जायते ॥
जो इस प्रकार ब्रह्म को जानता है, वह स्वयं ब्रह्म बन जाता है। क्योंकि ब्रह्म का जन्म नहीं होता, इसलिए जो ब्रह्म को जानता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
🧠 दर्शनिक विवेचन:
श्रवण, मनन, निदिध्यासन — ये तीन चरण हैं जिनसे ब्रह्मज्ञान अनुभव में बदलता है।
केवल सुनने से ब्रह्म नहीं बना जा सकता — चिंतन और अनुभव आवश्यक हैं।
जब चेतना ब्रह्म में स्थिर हो जाती है, तब जीव की अस्मिता मिट जाती है — और ब्रह्मस्वरूप प्रकट होता है।
ब्रह्म का न जन्म होता है, न मृत्यु — इसलिए जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
🌌 निष्कर्ष:
ब्रह्मज्ञान ही मोक्ष है — और मोक्ष का अर्थ है पुनर्जन्म का अभाव।
यह ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि अनुभवजन्य होना चाहिए — तभी जीव → ब्रह्म की यात्रा पूर्ण होती है।
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