यहाँ माण्डूक्य उपनिषद के परिचय और उसकी अंतर्दृष्टि के प्रमुख बिंदु दिए गए हैं:
संक्षिप्तता और गहनता (Brevity and Profoundness)
यह सभी उपनिषदों में सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं।
अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, यह वेदांत के संपूर्ण दर्शन को समाहित करता है।
इसकी गहनता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि श्री आदि शंकराचार्य के परमागुरु श्री गौड़पाद ने इस पर सौ छंदों वाली 'कारिका' (टिप्पणी) लिखी थी, और स्वयं शंकराचार्य ने उपनिषद और गौड़पाद की कारिका पर भाष्य लिखा है।
मुक्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद का अकेला अध्ययन ही पर्याप्त माना गया है ("माण्डूक्यम् एकम एव अलम् मुमुक्षूणाम् विमुक्तये")।
नाम की व्युत्पत्ति (Origin of the Name)
इसका नाम माण्डूक्य ऋषि के नाम से लिया गया है।
एक कथा के अनुसार, भगवान वरुण ने प्रणव या ओंकार के महत्व को उजागर करने के लिए एक मेंढक (माण्डूक्य) का रूप धारण किया था।
मुख्य विषय - चेतना की चार अवस्थाएँ (Core Subject - Four States of Consciousness)
उपनिषद मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृत (waking), स्वप्न (dream), और सुषुप्ति (deep sleep) – का विश्लेषण करता है।
यह चौथी अवस्था, तुरीय (Turiya) को भी प्रस्तुत करता है, जिसे परम वास्तविकता माना जाता है। तुरीय कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि यह वह है जो इन तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनका साक्षी है।
उपनिषद यह स्पष्ट करता है कि आत्मा (स्वयं) जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में होने वाले अनुभवों से स्वतंत्र है, लेकिन उन सभी का साक्षी है।
तुरीय को अद्वैत (non-dual) और निर्गुण (बिना विशेषताओं वाला) बताया गया है।
ओंकार का महत्व (Significance of Omkara)
माण्डूक्य उपनिषद सत्य को समझने के लिए पवित्र एकाक्षर ओम् (AUM) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में उपयोग करता है।
ओम् के तीन अक्षर – अ (A), उ (U), और म (M) – क्रमशः जागृत (वैश्वानर), स्वप्न (तैजस), और सुषुप्ति (प्राज्ञ) अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ओम् का मौन – जहाँ से ध्वनि आती है और जिसमें विलीन होती है – तुरीय या शुद्ध चेतना का प्रतीक है।
ओम् ब्रह्मांड में सभी ध्वनियों और सभी नामों का प्रतिनिधित्व करता है, इस प्रकार ईश्वर के लिए सबसे सार्वभौमिक नाम है।
आत्मन और ब्रह्मन् (Atman and Brahman)
उपनिषद "अयम् आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ब्रह्म है) महावाक्य का स्रोत है।
यह बताता है कि आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) और ब्रह्मन् (सार्वभौमिक वास्तविकता) दो अलग-अलग सत्ताएं नहीं हैं, बल्कि एक ही चेतना के दो दृष्टिकोण हैं – व्यक्ति के स्तर पर आत्मा और समग्रता के स्तर पर ब्रह्मन्।
ब्रह्मन् को परम सत्य (सत्यम्) माना जाता है, जो रूप रहित अस्तित्व है।
माया और जगत की वास्तविकता (Maya and the Reality of the World)
वेदांत के अनुसार, सृष्टि या जगत को मिथ्या (illusory) माना जाता है, न कि परमार्थिक सत्य। इसे माया (अज्ञानता) के कारण होने वाली एक उपस्थिति या अध्यास के रूप में देखा जाता है।
रस्सी-साँप का दृष्टांत (rope-snake analogy) इस विचार को समझाने के लिए उपयोग किया जाता है: जिस प्रकार रस्सी पर साँप का भ्रम होता है, उसी प्रकार ब्रह्मन् पर जगत का भ्रम होता है। साँप वास्तविक नहीं है, केवल रस्सी ही है। जगत को अंततः नकारा जाता है ताकि ब्रह्मन्, जो उसका अधिष्ठान (आधार) है, प्रकट हो सके।
सृष्टि के विवरणों में भिन्न उपनिषदों में पाई जाने वाली असंगति इस बात का प्रमाण है कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि अद्वैत को स्थापित करने के लिए एक साधन मात्र है।
ब्रह्मन् को विवर्त उपादान कारणम् (Vivarta Karanam) के रूप में वर्णित किया गया है – एक अपरिवर्तित कारण जिससे जगत उत्पन्न होता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में ब्रह्मन् में कोई परिवर्तन नहीं होता।
ज्ञान और मुक्ति (Knowledge and Liberation)
मांडूक्य उपनिषद यह ज्ञान प्रदान करता है कि असीमित आत्मा शाश्वत रूप से वर्तमान है, और उसे पाने के लिए किसी बाहरी क्रिया की आवश्यकता नहीं है।
अज्ञानता और कष्ट से मुक्ति तब प्राप्त होती है जब व्यक्ति स्वयं को अपनी सीमित भूमिकाओं और अनुभवों (जो उपाधि कहलाते हैं) से परे शुद्ध चेतना के रूप में पहचानता है।
उपनिषद में वर्णित उपासना (पूजा) और कर्म योग जैसे अभ्यास अस्थायी होते हैं, जो उन लोगों के लिए हैं जो सीधे अद्वैत को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हैं, यह करुणा के साथ दिया गया एक मार्ग है।
ज्ञान का अंतिम लक्ष्य अद्वैत का बोध है, जहाँ ज्ञाता-ज्ञेय का द्वैत समाप्त हो जाता है।
माण्डूक्य उपनिषद वैदिक साहित्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे अक्सर "वेद का नवनीत" (essence of Veda) या उपनिषदों का सार माना जाता है। यह अथर्ववेद की शाखा से संबंधित है।
यहाँ माण्डूक्य उपनिषद के परिचय और उसकी अंतर्दृष्टि के प्रमुख बिंदु दिए गए हैं:
संक्षिप्तता और गहनता (Brevity and Profoundness)
यह सभी उपनिषदों में सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं।
अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, यह वेदांत के संपूर्ण दर्शन को समाहित करता है।
इसकी गहनता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि श्री आदि शंकराचार्य के परमागुरु श्री गौड़पाद ने इस पर सौ छंदों वाली 'कारिका' (टिप्पणी) लिखी थी, और स्वयं शंकराचार्य ने उपनिषद और गौड़पाद की कारिका पर भाष्य लिखा है।
मुक्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद का अकेला अध्ययन ही पर्याप्त माना गया है ("माण्डूक्यम् एकम एव अलम् मुमुक्षूणाम् विमुक्तये")।
नाम की व्युत्पत्ति (Origin of the Name)
इसका नाम माण्डूक्य ऋषि के नाम से लिया गया है।
एक कथा के अनुसार, भगवान वरुण ने प्रणव या ओंकार के महत्व को उजागर करने के लिए एक मेंढक (माण्डूक्य) का रूप धारण किया था।
मुख्य विषय - चेतना की चार अवस्थाएँ (Core Subject - Four States of Consciousness)
उपनिषद मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृत (waking), स्वप्न (dream), और सुषुप्ति (deep sleep) – का विश्लेषण करता है।
यह चौथी अवस्था, तुरीय (Turiya) को भी प्रस्तुत करता है, जिसे परम वास्तविकता माना जाता है। तुरीय कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि यह वह है जो इन तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनका साक्षी है।
उपनिषद यह स्पष्ट करता है कि आत्मा (स्वयं) जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में होने वाले अनुभवों से स्वतंत्र है, लेकिन उन सभी का साक्षी है।
तुरीय को अद्वैत (non-dual) और निर्गुण (बिना विशेषताओं वाला) बताया गया है।
ओंकार का महत्व (Significance of Omkara)
माण्डूक्य उपनिषद सत्य को समझने के लिए पवित्र एकाक्षर ओम् (AUM) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में उपयोग करता है।
ओम् के तीन अक्षर – अ (A), उ (U), और म (M) – क्रमशः जागृत (वैश्वानर), स्वप्न (तैजस), और सुषुप्ति (प्राज्ञ) अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ओम् का मौन – जहाँ से ध्वनि आती है और जिसमें विलीन होती है – तुरीय या शुद्ध चेतना का प्रतीक है।
ओम् ब्रह्मांड में सभी ध्वनियों और सभी नामों का प्रतिनिधित्व करता है, इस प्रकार ईश्वर के लिए सबसे सार्वभौमिक नाम है।
आत्मन और ब्रह्मन् (Atman and Brahman)
उपनिषद "अयम् आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ब्रह्म है) महावाक्य का स्रोत है।
यह बताता है कि आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) और ब्रह्मन् (सार्वभौमिक वास्तविकता) दो अलग-अलग सत्ताएं नहीं हैं, बल्कि एक ही चेतना के दो दृष्टिकोण हैं – व्यक्ति के स्तर पर आत्मा और समग्रता के स्तर पर ब्रह्मन्।
ब्रह्मन् को परम सत्य (सत्यम्) माना जाता है, जो रूप रहित अस्तित्व है।
माया और जगत की वास्तविकता (Maya and the Reality of the World)
वेदांत के अनुसार, सृष्टि या जगत को मिथ्या (illusory) माना जाता है, न कि परमार्थिक सत्य। इसे माया (अज्ञानता) के कारण होने वाली एक उपस्थिति या अध्यास के रूप में देखा जाता है।
रस्सी-साँप का दृष्टांत (rope-snake analogy) इस विचार को समझाने के लिए उपयोग किया जाता है: जिस प्रकार रस्सी पर साँप का भ्रम होता है, उसी प्रकार ब्रह्मन् पर जगत का भ्रम होता है। साँप वास्तविक नहीं है, केवल रस्सी ही है। जगत को अंततः नकारा जाता है ताकि ब्रह्मन्, जो उसका अधिष्ठान (आधार) है, प्रकट हो सके।
सृष्टि के विवरणों में भिन्न उपनिषदों में पाई जाने वाली असंगति इस बात का प्रमाण है कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि अद्वैत को स्थापित करने के लिए एक साधन मात्र है।
ब्रह्मन् को विवर्त उपादान कारणम् (Vivarta Karanam) के रूप में वर्णित किया गया है – एक अपरिवर्तित कारण जिससे जगत उत्पन्न होता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में ब्रह्मन् में कोई परिवर्तन नहीं होता।
ज्ञान और मुक्ति (Knowledge and Liberation)
मांडूक्य उपनिषद यह ज्ञान प्रदान करता है कि असीमित आत्मा शाश्वत रूप से वर्तमान है, और उसे पाने के लिए किसी बाहरी क्रिया की आवश्यकता नहीं है।
अज्ञानता और कष्ट से मुक्ति तब प्राप्त होती है जब व्यक्ति स्वयं को अपनी सीमित भूमिकाओं और अनुभवों (जो उपाधि कहलाते हैं) से परे शुद्ध चेतना के रूप में पहचानता है।
उपनिषद में वर्णित उपासना (पूजा) और कर्म योग जैसे अभ्यास अस्थायी होते हैं, जो उन लोगों के लिए हैं जो सीधे अद्वैत को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हैं, यह करुणा के साथ दिया गया एक मार्ग है।
ज्ञान का अंतिम लक्ष्य अद्वैत का बोध है, जहाँ ज्ञाता-ज्ञेय का द्वैत समाप्त हो जाता है।
अथर्ववेद का हिस्सा
मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद का एक हिस्सा है। विशेष रूप से, यह अथर्ववेद की मांडूक शाखा से संबंधित है।
स्रोत बताते हैं कि अथर्ववेद के उपनिषद अन्य वेदों के उपनिषदों की तुलना में संख्या में कहीं अधिक हैं। एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि अन्य वेदों के अधिकांश उपनिषद ब्राह्मणों का हिस्सा हैं, जबकि अथर्ववेद के उपनिषद नहीं हैं। हालाँकि, एक स्रोत यह भी कहता है कि मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद के ब्राह्मण भाग से लिया गया है, जो इस बात पर एक संभावित विरोधाभास प्रस्तुत करता है कि यह ब्राह्मणों का हिस्सा है या नहीं।
मांडूक्योपनिषद का नामकरण वरुण द्वारा मेंढक के रूप में अथर्ववेद में देखे जाने के बाद हुआ, जिससे इसे मांडूक्योपनिषद कहा जाने लगा।
परिचय के व्यापक संदर्भ में, मांडूक्योपनिषद को एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपनिषद माना जाता है। इसे सबसे छोटा उपनिषद कहा जाता है, जिसमें केवल बारह मंत्र हैं, फिर भी यह गहराई में बहुत महत्वपूर्ण है। यह संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। इस उपनिषद का मुख्य विषय रहस्यवादी शब्दांश 'ओम' की व्याख्या है, जिसका उद्देश्य मन को ध्यान में प्रशिक्षित करना है, ताकि मुक्ति प्राप्त की जा सके और व्यक्तिगत आत्मा को परम वास्तविकता के साथ जोड़ा जा सके। यह सत्यों की अंतर्दृष्टि प्रदान करता है और इसे वेदांत का सार माना जाता है।
गौड़पाद की कारिकाएँ, जिन्हें उपनिषद का एक विस्तृत रूप माना जाता है, शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य के कार्यों में उद्धृत की गई हैं।
सबसे छोटा उपनिषद (12 मंत्र)
मांडूक्य उपनिषद को सबसे छोटा उपनिषद माना जाता है, जिसमें केवल १२ मंत्र या श्लोक हैं। अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, इसे अत्यंत गहरा और महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि यह पूरे वेदांतिक शिक्षाओं के सार को समाहित करता है।
यहां मांडूक्य उपनिषद का विस्तृत परिचय दिया गया है:
अथर्ववेद से संबंध
मांडूक्य उपनिषद का संबंध अथर्ववेद से है।
महत्व और गूढ़ता
इसे उपनिषदों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
यह कहा जाता है कि एक साधक की मुक्ति के लिए केवल मांडूक्य उपनिषद ही पर्याप्त है ("मांदुक्यम एकम एव अलम मुमुक्षुणाम विमुक्तये")।
यदि इस अकेले उपनिषद के वास्तविक अर्थ को समझा जाए, तो अन्य उपनिषदों, जैसे छांदोग्य या बृहदारण्यक, का अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं हो सकती है।
यह मनुष्य के सामान्य स्वभाव और वास्तविकता के आवश्यक चरित्र के संबंध में सच्चे तथ्यों को सीधे बताता है, बिना किसी उपमा, कहानियों या तुलना के।
मुक्तिका उपनिषद में, भगवान राम हनुमान को मोक्ष के लिए केवल मांडूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह देते हैं। यदि यह अध्ययन पर्याप्त न हो, तो वे १०, ३२, या सभी १०८ उपनिषदों का अध्ययन करने का सुझाव देते हैं।
नाम की व्युत्पत्ति
मांडूक्य उपनिषद का नाम मांडूक्य ऋषि के नाम से व्युत्पन्न हुआ है।
"मांडूक्य" का शाब्दिक अर्थ "मेंढक" है। कथानुसार, भगवान वरुण ने प्रणव या ओंकार के महत्व को उजागर करने के लिए मेंढक का रूप धारण किया और इसे परम ब्रह्म के एकमात्र नाम और प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया।
मुख्य विषय वस्तु - चेतना की अवस्थाएँ और ओंकार
यह उपनिषद मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभव की गई अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), और सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था) का विश्लेषण करता है।
यह चेतना की चौथी अवस्था का भी गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसे 'तुरीय' या 'चौथा' कहा जाता है। तुरीय को निर्गुण और गुणों से परे परम वास्तविकता के रूप में वर्णित किया गया है। "तुरीय" शब्द का शाब्दिक अर्थ "चौथा" है, और इसका पहला प्रयोग गौड़पादाचार्य ने मांडूक्य कारिका में किया था।
उपनिषद में तीनों अवस्थाओं को ओंकार (प्रणव) के अक्षरों - अ, उ, म - और तुरीय को ओंकार की ध्वनिहीन अवस्था (अमात्र) के साथ जोड़ा गया है। मौन या ध्वनिहीनता चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।
यह सिखाता है कि आत्मा (स्वयं) तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, उनसे स्वतंत्र है, और तीनों अवस्थाएँ आत्मा पर निर्भर करती हैं। आत्मा को शुद्ध चेतना के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्याएँ और भाष्य
शंकराचार्य के परम गुरु गौड़पादाचार्य ने मांडूक्य उपनिषद पर मांडूक्य कारिका नामक एक अद्भुत भाष्य लिखा है, जिसमें १०० श्लोक हैं।
स्वयं शंकराचार्य ने भी इस पर भाष्य लिखा है, जो इस पाठ के महत्व का संकेत देता है।
यह उपनिषद हमें "सीमित प्राणी होने की धारणा से उत्पन्न पीड़ा को नष्ट करते हुए असीमित आनंदमय आत्म को प्रकट करने वाला 'निरपेक्ष' ज्ञान" प्रदान करता है।
संक्षेप में, मांडूक्य उपनिषद, अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, मानव अनुभव की विभिन्न चेतना अवस्थाओं और आत्म की परम प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रदान करता है, जिससे इसे आध्यात्मिक ज्ञान के लिए एक अद्वितीय और आवश्यक पाठ माना जाता है।
वेदांत का सार
स्रोत वेदांत को उपनिषदों का सार बताते हैं। वेदांत का मुख्य लक्ष्य असीम, आनंदमय आत्मा को प्रकट करना और सीमित प्राणी होने की मान्यता से उत्पन्न होने वाले दुख को नष्ट करना है। यह इस बात पर जोर देता है कि स्थायी सुख भीतर से आता है, बाहरी वस्तुओं या परिमित गतिविधियों से नहीं।
मांडूक्योपनिषद को संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान का सार माना जाता है [पूर्व बातचीत]। इसे सबसे छोटा उपनिषद (केवल 12 मंत्रों वाला) कहा जाता है, लेकिन यह गहराई में अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बिना किसी वाग्विस्तार के आध्यात्मिक विद्या के नवनीत को सूत्र रूप में प्रस्तुत करता है। यह कहा जाता है कि मुमुक्षु (मोक्ष के इच्छुक) के लिए केवल मांडूक्योपनिषद का सच्चा अर्थ समझना ही पर्याप्त है।
वेदांत के सार के प्रमुख अवधारणाएँ और उनका परिचय:
ॐ (प्रणव): मांडूक्योपनिषद का मुख्य विषय रहस्यवादी शब्दांश 'ॐ' की व्याख्या है। यह अविनाशी है और "यह सब" (इदं सर्वम्) है। 'ॐ' सभी ध्वनियों, सभी शब्दों और इस प्रकार पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है। इसे ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम माना जाता है। 'ॐ' के तीन घटक (अ, उ, म) चेतना की तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) को दर्शाते हैं, जबकि 'ॐ' की अभिन्न समग्रता अवस्थारहित निरपेक्ष आत्मा (तुरीय) को इंगित करती है। 'ॐ' के उच्चारण से पहले की खामोशी और जिसमें यह विलीन हो जाता है, वही तुरीय है, जो शुद्ध चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।
आत्मा/ब्रह्म:
उपनिषद असीम 'मैं', चेतना को ब्रह्मांड के समान मानता है।
"सर्वं ह्येतद् ब्रह्म" (यह सब वास्तव में ब्रह्म है) और "अयं आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ब्रह्म है) वेदांत के मूल कथन हैं।
आत्मा को विश्लेषण के उद्देश्य से चार चरणों वाला (चतुष्पाद) माना गया है, न कि शाब्दिक अर्थ में।
ये चार चरण आत्म-उत्कृष्टता की चार अवस्थाएँ हैं: जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी निद्रा अवस्था) और तुरीय (पारलौकिक आध्यात्मिक अवस्था)।
जाग्रत अवस्था (वैश्वानर): यह आत्मा का पहला 'पाद' या सबसे बाहरी स्वरूप है। यह व्यक्तिगत (विश्व) और ब्रह्मांडीय (विराट) दोनों पहलुओं से जुड़ा है। यह बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत है और इसके सात अंग और उन्नीस मुख हैं।
स्वप्न अवस्था (तैजस): यह जागृत चेतना के आंतरिक, सूक्ष्म कार्य से संबंधित है, जो व्यक्तिपरक रूप से तैजस और सार्वभौमिक रूप से हिरण्यगर्भ कहलाता है। स्वप्न के पदार्थ सूक्ष्म होते हैं। मांडूक्योपनिषद के अनुसार, जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या या आभासी हैं, क्योंकि इन दोनों की तुलना करने वाला साक्षी (आत्मा) इन अवस्थाओं से भिन्न है।
सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ): यह चेतना की तीसरी अवस्था है, जो गहरी नींद को दर्शाती है जहाँ कोई स्वप्न या जागरूकता नहीं होती है। हालाँकि, आत्मा मौजूद रहती है, सब कुछ जानती है, लेकिन बिना अनुभव के। यह कारण अवस्था (कारण शरीर) है जहाँ जागृत और स्वप्न के सभी संस्कार विलीन हो जाते हैं।
तुरीय अवस्था: यह चेतना की चौथी अवस्था है, जो तीनों अनुभवजन्य अवस्थाओं से परे है। इसे वास्तविक 'अवस्था' नहीं, बल्कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप (स्वरूपा) माना जाता है। यह शांति, अद्वैत, असीमता और आनंद की स्थिति है। यह सभी अवस्थाओं का साक्षी है। तुरीय न तो कारण है और न ही कार्य, और न ही इसका कारण-कार्य संबंधों से कोई संबंध है। तुरीय की प्राप्ति ही मोक्ष है।
माया और अविद्या:
माया वह है जो वास्तव में नहीं है, फिर भी प्रतीत होती है। यह वह शक्ति है जो ब्रह्म को ढँक कर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है।
माया ईश्वर की दिव्य शक्ति है जिसके माध्यम से सृष्टि का संचालन होता है, और ईश्वर माया के नियंत्रक हैं।
यह त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रजस, तमस) है।
अविद्या (अज्ञान) बंधन का मूल कारण है, और विवेक (भेदभाव) उसका नाश करने वाला है।
वेदांत का मूल सिद्धांत है: "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म ही है, कोई दूसरा नहीं)। यह अद्वैत का सार है।
गौड़पाद का योगदान:
आचार्य गौड़पाद अद्वैत सिद्धांत के प्रमुख प्रतिपादक थे। उन्होंने मांडूक्य कारिका की रचना की, जो मांडूक्योपनिषद पर एक महत्वपूर्ण भाष्य है।
उनकी कारिकाएँ चार प्रकरणों में विभाजित हैं: आगम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण और अलातशांति प्रकरण।
गौड़पाद ने 'अजातिवाद' (उत्पत्तिहीनता) के सिद्धांत को प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार जगत की उत्पत्ति हुई ही नहीं, बल्कि यह केवल मोह (माया) के कारण ही प्रतीत होता है। इसे शंकराचार्य के अद्वैत की अधिक कट्टरपंथी अभिव्यक्ति माना जाता है।
उन्होंने जगत के मिथ्यात्व को तर्क और युक्तियों से सिद्ध किया।
शंकराचार्य का योगदान:
आदि शंकराचार्य ने गौड़पाद की कारिकाओं पर भाष्य लिखा।
उन्होंने गौड़पाद के सिद्धांतों को विस्तृत रूप से समझाया और संसार के सामने रखा।
शंकराचार्य ने माया से ग्रसित जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करने के उद्देश्य से अपने भाष्य लिखे।
उन्होंने स्पष्ट किया कि आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है, न कि कोई कर्म या यज्ञ।
मोक्ष या आत्मज्ञान का मार्ग:
मोक्ष संसार से पूर्ण स्वतंत्रता (कैवल्य) है।
इसे व्यक्तिगत अस्तित्व (जीवत्व) को सार्वभौमिक अस्तित्व (ईश्वरत्व) में स्थानांतरित करके प्राप्त किया जा सकता है।
ज्ञान प्राप्त करने के लिए शास्त्र, गुरु का सानिध्य और मन की एकाग्रता आवश्यक है।
श्रवण (ज्ञान सुनना), मनन (चिंतन), निदिध्यासन (गहराई से आत्मसात करना) मुख्य साधन हैं।
विवेक (नित्य और अनित्य के बीच भेद करना) और वैराग्य (विषयों से अनासक्ति) भी महत्वपूर्ण हैं।
गौड़पाद के अनुसार, सही समझ के साथ खामोशी (तुरीय) पर ध्यान करने से मुक्ति मिलती है। शुद्ध चेतना को समझने के माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है, न कि किसी अवस्था को बदलने से।
अद्वैत वेदांत का मूल आधार
अद्वैत वेदांत का मूल आधार, जैसा कि इन स्रोतों में विस्तृत रूप से बताया गया है, ब्रह्म की परम वास्तविकता, जगत की मिथ्याता (अवास्तविकता), और जीव (व्यक्तिगत आत्मा) का ब्रह्म से अभिन्न होना है। यह दर्शन आत्मा और ब्रह्म की एकता पर केंद्रित है और अज्ञान को बंधन का मूल कारण मानता है।
अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांत:
ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं (ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः)। यह अद्वैत का सार है।
ब्रह्म की अवधारणा: ब्रह्म को परम वास्तविकता, सर्वव्यापी और अविकारी आत्मतत्व के रूप में वर्णित किया गया है। यह वह चेतना है जो सभी अनुभवों को प्रकाशित करती है। ब्रह्म को "असीम मैं" (limitless I) के रूप में भी समझा जाता है, जो शाश्वत रूप से उपस्थित है। मांडूक्योपनिषद के अनुसार, "यह सब ब्रह्म ही है" (सर्वं ह्येतद् ब्रह्म)।
जगत की मिथ्याता (अवास्तविकता): संसार को माया मात्र कहा गया है—"जो वस्तुतः नहीं है, फिर भी प्रतीत होता है"। जगत को मिथ्या इसलिए माना जाता है क्योंकि यह आदि और अंत में नहीं है, और इसका अस्तित्व केवल हमारी चेतना में एक उपस्थिति के रूप में है, न कि एक स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में। इसे माया के कारण उत्पन्न भ्रम बताया गया है, जैसे अंधेरे में रस्सी को साँप समझना। जगत का मिथ्यात्व गौड़पाद की कारिकाओं में भी युक्ति और तर्क द्वारा सिद्ध किया गया है।
जीव और ब्रह्म की अभिन्नता: जीव का मूल स्वरूप आत्मा है, और आत्मा ही ब्रह्म है। स्रोतों में जोर दिया गया है कि जीव वास्तव में ब्रह्म से अलग नहीं है। जीव अपनी वास्तविक प्रकृति से अनजान होकर स्वयं को शरीर, मन और इंद्रियों से जुड़ा हुआ मानता है, जिससे दुःख उत्पन्न होता है। आत्मा को नित्य, अविनाशी और अजन्मा बताया गया है।
माया और अविद्या का महत्व:
माया ब्रह्म की शक्ति है जो भ्रम उत्पन्न करती है, और भ्रम माया का परिणाम है। यह सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। माया त्रिगुणात्मक है (सत्त्व, रज, तम) और ये गुण व्यक्ति की चेतना पर प्रभाव डालते हैं।
अविद्या (अज्ञान) को बंधन का मूल कारण बताया गया है। जब तक आत्मा और ब्रह्म के भेद का अज्ञान बना रहता है, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है।
मोक्ष (मुक्ति) का मार्ग:
अद्वैत वेदांत का मूल लक्ष्य आत्मज्ञान के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति है। मोक्ष किसी कर्म या यज्ञ से नहीं, बल्कि ज्ञान (आत्मज्ञान) से ही प्राप्त होता है।
शंकराचार्य ने ज्ञान, श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन), निदिध्यासन (गहरा ध्यान), और समाधि को आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन बताया है। मन को शुद्ध करना और स्वयं के असीमित स्वरूप के बारे में गलत विचारों को हटाना महत्वपूर्ण है।
विवेक (नित्य और अनित्य का भेद करने की क्षमता) और वैराग्य (विषयों से अनासक्ति) को भी माया से मुक्ति पाने के उपाय बताया गया है।
महत्वपूर्ण ग्रंथ और आचार्य:
मांडूक्योपनिषद: यह अद्वैत वेदांत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और सबसे छोटा उपनिषद है, जिसमें केवल बारह मंत्र हैं, फिर भी यह संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान को संक्षेप में प्रस्तुत करता है। इसका मुख्य विषय रहस्यवादी शब्दांश 'ओम' की व्याख्या और चेतना की चार अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) का विश्लेषण है। तुरीय अवस्था को अद्वैत, आनंदमय और असीम बताया गया है, जहां आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं।
गौड़पाद की कारिकाएँ: गौड़पाद, शंकराचार्य के परंपारा-गुरु, ने मांडूक्योपनिषद पर एक विस्तृत भाष्य (कारिका) लिखा, जिसे अद्वैत सिद्धांत का प्रधान उद्घोषक माना जाता है। उनकी कारिकाएँ अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों जैसे मायावाद, विवर्तवाद और अजातिवाद (सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हुई) को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करती हैं। अजातिवाद यह तर्क देता है कि वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है, केवल एक अखंड चित्घन सत्ता ही मोहवश द्वैत रूप में भास रही है।
शंकराचार्य: उन्होंने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद्गीता पर भाष्य लिखे, जो भारतीय दर्शन के अमूल्य रत्न हैं। उनके भाष्यों का मूल उद्देश्य जीव, जगत और ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करना और माया से ग्रसित जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करना था। शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को अपने ग्रंथों में विस्तृत रूप से समझाकर प्रस्तुत किया।
चेतना की अवस्थाएँ और ओम:
मांडूक्योपनिषद ओम (AUM) को चेतना की तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) और चौथी तुरीय अवस्था से जोड़ता है।
जाग्रत अवस्था (वैश्वानर): स्थूल जगत का अनुभव। 'अ' अक्षर से संबंधित।
स्वप्न अवस्था (तैजस): आंतरिक, सूक्ष्म जगत का अनुभव (सपने)। 'उ' अक्षर से संबंधित।
सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ): गहरी नींद, जहां सभी अनुभव अव्यक्त हो जाते हैं, और आत्मा सब कुछ जानती है लेकिन अनुभवरहित रहती है। 'म' अक्षर से संबंधित।
तुरीय अवस्था: यह चौथी, अनिर्वचनीय अवस्था है जो तीनों से परे है। यह शांति, अद्वैत, असीमता और आनंद की स्थिति है, जहां आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं। यह ओम की ध्वनिहीन या अमात्र (silent) अवस्था से संबंधित है।
संक्षेप में, अद्वैत वेदांत का मूल आधार आत्मा और ब्रह्म की अविभाज्य एकता को समझना है, यह पहचानना है कि जगत माया के कारण एक उपस्थिति मात्र है, और अज्ञान को दूर करके इस परम सत्य का अनुभव करना है। मांडूक्योपनिषद और गौड़पाद की कारिकाएँ इस सिद्धांत को अत्यंत संक्षिप्त और गहन रूप से प्रस्तुत करती हैं।
मोक्ष के लिए पर्याप्त (शंकराचार्य)
मोक्ष के लिए पर्याप्त होने के संदर्भ में, मांडूक्योपनिषद को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह कहा गया है कि मुमुक्षु (मुक्ति के इच्छुक साधक) के लिए केवल मांडूक्योपनिषद ही पर्याप्त है। यदि कोई व्यक्ति इस अकेले उपनिषद का वास्तविक अर्थ समझने में सक्षम हो, तो उसे किसी अन्य उपनिषद का अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं हो सकती है, यहाँ तक कि छांदोग्य या बृहदारण्यक जैसे उपनिषदों की भी नहीं। यह उपनिषद "मुक्तिदायक उपनिषद" के रूप में वर्णित है। इसे संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान का सार कहा जाता है, जिसमें केवल बारह मंत्र हैं, फिर भी यह अत्यंत गहन और महत्वपूर्ण है।
शंकराचार्य के संदर्भ में:
जबकि ब्रह्मसूत्रों, भगवद गीता और अन्य उपनिषदों पर अपनी टिप्पणियों में शंकराचार्य ने मांडूक्योपनिषद से सीधे बहुत अधिक उद्धरण नहीं दिए हैं, उन्होंने स्वयं मांडूक्योपनिषद पर एक टीका लिखी और उसमें इसकी महत्ता का गुणगान किया। यह उनके द्वारा इस उपनिषद की स्वीकार्यता और महत्व का संकेत देता है।
गौड़पाद की कारिकाएँ, जो मांडूक्योपनिषद का विस्तृत रूप मानी जाती हैं, शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य के कार्यों में उद्धृत की गई हैं। गौड़पाद को शंकराचार्य का परम् गुरु भी कहा जाता है। गौड़पाद के सिद्धांत, जैसे 'अजातिवाद' (उत्पत्ति का न होना) और जगत का मिथ्यात्व, अद्वैत वेदांत के मूल हैं, जिसे शंकराचार्य ने विस्तृत रूप से समझाया। इस प्रकार, मांडूक्योपनिषद की शिक्षाएँ, गौड़पाद की कारिकाओं के माध्यम से, शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन की नींव का हिस्सा बन जाती हैं।
परिचय के व्यापक संदर्भ में, शंकराचार्य के अनुसार, वेदांत का मूल लक्ष्य ब्रह्म की प्राप्ति है, जो केवल उपनिषदों के अध्ययन, गुरु के सान्निध्य और मन की एकाग्रता से ही संभव है। वे बार-बार कहते हैं कि आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है, न कि कोई कर्म या यज्ञ। अविद्या (अज्ञान) को बंधन का मूल कारण और विवेक (भेदभाव) को उसका नाशक बताया गया है। आत्मा को ब्रह्म के रूप में जानने से ही जन्म-मरण का चक्र समाप्त होता है।
मांडूक्योपनिषद का मुख्य विषय रहस्यवादी शब्दांश 'ओम' की व्याख्या है, जिसका उद्देश्य मन को ध्यान में प्रशिक्षित करना है ताकि मुक्ति प्राप्त की जा सके और व्यक्तिगत आत्मा को परम वास्तविकता के साथ जोड़ा जा सके। यह उपनिषद चेतना की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का विश्लेषण करता है। तुरीय अवस्था को अव्यवहारिक, प्रपंचोपशम (सभी अभिव्यक्तियों का शांत होना), शिव (शुभ) और अद्वैत (गैर-द्वैत) कहा गया है। यह आत्मा का शुद्ध, अपरिवर्तित स्वरूप है। इस प्रकार, यह उपनिषद सीधे आत्म-साक्षात्कार और अद्वैत सिद्धांत पर केंद्रित है, जो शंकराचार्य के मोक्ष के मार्ग के अनुरूप है।
संक्षेप में, मांडूक्योपनिषद को अपनी संक्षिप्तता और गहरे अर्थ के कारण मोक्ष के लिए पर्याप्त माना जाता है, जो संपूर्ण उपनिषदीय ज्ञान को समाहित करता है। शंकराचार्य ने अपने स्वयं के भाष्य और गौड़पाद के कार्यों के माध्यम से इसके महत्व को स्वीकार किया, जो अद्वैत वेदांत के केंद्रीय सिद्धांतों को प्रतिपादित करता है, जहाँ आत्म-ज्ञान ही मुक्ति का एकमात्र साधन है।
श्री गौडपादचार्य की टीका (कारिका)
मांडूक्य उपनिषद और उस पर श्री गौडपादचार्य की टीका (कारिका) का परिचय निम्नलिखित है:
परिचय:
मांडूक्य उपनिषद अथर्ववेद से संबंधित है।
यह सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं।
अपने संक्षिप्त आकार के बावजूद, इसे संपूर्ण वेदान्त दर्शन का सार माना जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि केवल मांडूक्य उपनिषद का उचित अध्ययन और आत्मसात करना ही मोक्ष (मुक्ति) के लिए पर्याप्त है।
एक कथा के अनुसार, भगवान राम ने भी हनुमान को मोक्ष प्राप्ति के लिए इसी उपनिषद का अध्ययन करने की सलाह दी थी।
उपनिषद वैदिक परंपरा में ज्ञान कांड का हिस्सा हैं, जो कर्तव्यों और अनुष्ठानों से भिन्न हैं। ये प्रकृति, स्वयं और ब्रह्मांड की मौलिक वास्तविकताओं के बारे में ज्ञान प्रदान करते हैं।
श्री गौडपादचार्य की टीका (कारिका):
मांडूक्य उपनिषद की शिक्षाओं को और अधिक स्पष्ट करने के लिए श्री गौडपादचार्य ने इस पर एक महत्त्वपूर्ण टीका, जिसे 'कारिका' कहा जाता है, लिखी है।
गौडपादचार्य को श्री आदि शंकराचार्य का परमहंस गुरु माना जाता है।
गौडपाद की कारिकाएँ विश्व प्रसिद्ध हैं।
कुछ स्रोतों के अनुसार, गौडपादकारिका में लगभग सौ छंद हैं। हालांकि, अन्य विस्तृत स्रोतों में इसे 148 कारिकाएँ बताया गया है, जिन्हें चार मुख्य अध्यायों या प्रकरणों में विभाजित किया गया है:
आगम प्रकरण (29 कारिकाएँ): यह चेतना की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं तथा ओम् के महत्व का वर्णन करता है। इसमें बताया गया है कि ईश्वर अपनी माया (माया घटक) और चेतना (चेतना घटक) के माध्यम से जड़ और चेतन प्राणियों की सृष्टि करता है, जिसके लिए मकड़ी के धागे और अग्नि की छोटी-छोटी चिंगारियों के उदाहरण दिए गए हैं।
वैतथ्य प्रकरण (29 कारिकाएँ): यह द्वैत के संसार की भ्रामक प्रकृति (मिथ्यात्व) को प्रदर्शित करता है।
अद्वैत प्रकरण (48 कारिकाएँ): यह शास्त्र और तर्क के आधार पर अद्वैत (गैर-द्वैत) की स्थापना करता है।
अलातशांति प्रकरण (42 कारिकाएँ): यह अजातवाद (उत्पत्ति के अभाव का सिद्धांत) को प्रतिपादित करता है, यहाँ तक कि एक निर्माता की अवधारणा का भी खंडन करता है।
कारिका और मांडूक्य उपनिषद की केंद्रीय अवधारणाएँ:
मांडूक्य उपनिषद वास्तविकता के संज्ञान को चेतना की तीन अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न), और सुषुप्ति (गहरी नींद) - में वर्गीकृत करता है। इसमें तुरीय को चौथी, अपरिवर्तनीय अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है।
तुरीय को शुद्ध चेतना, इच्छा और पीड़ा से रहित, और सत्-चित्-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के समान माना जाता है।
उपनिषद 'ॐ' (ओम्) के पवित्र अक्षर को ब्रह्म और चेतना की चार अवस्थाओं के प्रतीक के रूप में उपयोग करता है। ओम के दो मंत्रों के बीच की शांति तुरीय का प्रतिनिधित्व करती है।
कारिकाएँ यह तर्क देती हैं कि सृष्टि की अवधारणा मिथ्या है, यानी भ्रामक है। उपनिषदों में सृष्टि के वर्णन का उद्देश्य वास्तव में सृष्टि की तथ्यात्मकता को स्थापित करना नहीं है, बल्कि अद्वैत के सिद्धांत को स्थापित करना है। यह सृष्टिक्रम के वर्णन में विभिन्न उपनिषदों में पाई जाने वाली विसंगतियों से सिद्ध होता है, जो दर्शाते हैं कि सृष्टि एक परमार्थिक वास्तविकता नहीं है।
'रज्जु-सर्प' (रस्सी में सांप का भ्रम) का उदाहरण यह समझाने के लिए उपयोग किया जाता है कि कार्य (जगत) अपने कारण (ब्रह्म) से भिन्न नहीं है, और अंततः कार्य मिथ्या है जबकि कारण सत्य है।
गौडपाद और शंकर अपने भाष्य में 'अध्यारोप-अपवाद' (अधिरोपण और निषेध) की विधि का उपयोग करके ब्रह्म को प्रकट करते हैं।
तुरीय को सीधे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है, बल्कि सभी गुणों और तीन अवस्थाओं का निषेध करके इसे प्रकट किया जाता है (जैसे 'नेति-नेति' की विधि से)। तुरीय तीनों अवस्थाओं का अधिष्ठान (आधारभूत वास्तविकता) है, जैसे रस्सी भ्रमित सर्प का अधिष्ठान है।
मांडूक्य के सिद्धांत शंकराचार्य के प्रसिद्ध और व्यापक कथन 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है) से जुड़े हैं। कुछ विद्वान शंकर के भाष्य और गौडपाद के अजातवाद के बीच विरोधाभास मानते हैं, लेकिन अद्वैत वेदान्त इस विरोधाभास को यह कहकर सुलझाता है कि सृष्टि के वर्णन केवल अद्वैत की समझ के लिए एक साधन हैं, तथ्य नहीं।
अद्वैतवादी (जो अद्वैत का पालन करते हैं) द्वैतवादियों (जो द्वैत का पालन करते हैं) के साथ संघर्ष नहीं करते हैं, क्योंकि वे द्वैत को यथार्थता के एक भिन्न, निम्न क्रम (व्यावहारिक सत्य) के रूप में देखते हैं, जो परमार्थिक सत्य से भिन्न है।
गौडपादचार्य और शंकराचार्य के भाष्य दोनों, इस ज्ञान को जीवन में पूरी तरह से आत्मसात करने पर जोर देते हैं, ताकि व्यक्ति केवल बौद्धिक रूप से इसे समझे नहीं, बल्कि इसे अपने अनुभव का हिस्सा बनाए और 'भूदेव' (पृथ्वी पर देवता) बन सके।
कुल मिलाकर, श्री गौडपादचार्य की कारिकाएँ मांडूक्य उपनिषद की गहन शिक्षाओं को व्यवस्थित और व्याख्यायित करने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, जो चेतना की अवस्थाओं और परम वास्तविकता की अद्वैत प्रकृति को समझने के लिए एक स्पष्ट और संरचित दृष्टिकोण प्रदान करती हैं।
हनुमान को भगवान राम द्वारा मोक्ष हेतु अध्ययन की सलाह
माण्डूक्य उपनिषद् हिंदू धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न माना जाता है। यह दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 मंत्र या श्लोक हैं। अपनी संक्षिप्तता के बावजूद, इसे बहुत गहरा और प्रभावशाली माना जाता है, जो संपूर्ण वेदांतिक शिक्षाओं के सार को समाहित करता है।
हनुमान को भगवान राम द्वारा मोक्ष हेतु अध्ययन की सलाह: मुक्ति उपनिषद में एक कथा के अनुसार, हनुमान ने भगवान राम से मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग पूछा था। इस पर भगवान राम ने हनुमान को मांडूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह दी, यह कहते हुए कि मोक्ष या कैवल्य की प्राप्ति के लिए यह उपनिषद ही पर्याप्त है। भगवान राम ने आगे कहा कि यदि यह अध्ययन ईश्वर-प्राप्ति या मोक्ष के लिए पर्याप्त न हो, तो वे 10, 32 या संपूर्ण 108 उपनिषदों का अध्ययन करने की सलाह देंगे। यह प्रसंग मांडूक्य उपनिषद के अद्वितीय महत्व को रेखांकित करता है।
मांडूक्य उपनिषद् का व्यापक संदर्भ: मांडूक्य उपनिषद मानव चेतना के संपूर्ण स्पेक्ट्रम में गहराई से उतरता है, जिसमें जाग्रत (जागृत), स्वप्न, और सुषुप्ति की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभव की जाने वाली अवस्थाओं का विश्लेषण किया गया है। यह स्पष्ट रूप से कहता है कि परम वास्तविकता, जिसे 'तुरीय' या 'चौथी अवस्था' कहा जाता है, अद्वैत और निर्गुण है। तुरीय को शुद्ध चेतना, इच्छा और पीड़ा से रहित ज्ञान की अवस्था के बराबर माना जाता है, जिसे सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
यह उपनिषद ओंकार (AUM) के पवित्र एकाक्षर को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में उपयोग करके सत्य के लिए एक अनूठा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, इसके गहन दार्शनिक महत्व को विस्तृत करता है। ओंकार को पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है। अ, उ, म की ध्वनियाँ क्रमशः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं से संबंधित हैं, जबकि दो ओंकारों के जाप के बीच की शांति (अमात्रा) तुरीय, शुद्ध चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।
मांडूक्य उपनिषद की शिक्षाएँ, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत पर केंद्रित हैं। इसे अक्सर शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' ('केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है') से जोड़ा जाता है। श्री गौड़पादाचार्य, जो श्री आदि शंकराचार्य के परम्परा गुरु थे, उन्होंने इस उपनिषद पर अपनी प्रसिद्ध कारिकाएँ लिखीं, और शंकराचार्य ने इन दोनों पर भाष्य (टीका) लिखे हैं, जिनकी आज भी गहनता से व्याख्या की जाती है। गौड़पाद ने आत्मज्ञान को प्राप्त करने में साधक की सहायता के लिए छंदों में ध्यान को जोड़ा। यह ग्रंथ आंतरिक आत्म-ज्ञान और अनुभव की सीधी और तथ्यात्मक प्रस्तुति के लिए जाना जाता है।
वेद का ज्ञान कांड (वेदांत)
वेद का ज्ञान कांड, जिसे वेदांत के नाम से जाना जाता है, भारतीय दर्शन परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह अथर्ववेद का एक मूल्यवान रत्न है।
यहां वेदों के ज्ञान कांड (वेदांत) के बारे में जानकारी दी गई है:
वेदांत की परिभाषा और उद्देश्य
वेदांत वेदों का अंतिम भाग या निष्कर्ष है। "वेद" का अर्थ ज्ञान है और वेदांत ज्ञान के वे ग्रंथ हैं जो मनुष्य को उसके असीमित, आनंदमय स्वरूप (Self) का ज्ञान प्रदान करते हैं और उसके दुख को नष्ट करते हैं।
उपनिषद, जिन्हें वेदांत भी कहा जाता है, गोपनीय शिक्षाएं हैं जिनमें पृथ्वी के दायरे से परे का ज्ञान और वास्तविकता की प्रकृति पर महान ऋषियों की घोषणाएं शामिल हैं।
ज्ञान कांड का अन्य वैदिक खंडों से संबंध
वैदिक परंपरा में, वेदों को तीन मुख्य भागों में बांटा गया है:
मंत्र (संविधान): ये प्रकृति की शक्ति के प्रति भजन हैं।
ब्राह्मण: ये अनुष्ठानों और ध्यान के लिए विस्तृत निर्देश हैं, जिनका उद्देश्य धन, संतान, स्वास्थ्य, और सुखद परलोक जैसे सीमित परिणाम प्राप्त करना है। इन्हें कर्म कांड (कर्तव्य या क्रिया अध्याय) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जो कर्तव्यों और अनुष्ठानों के बारे में नियम-कानून हैं।
आरण्यक या उपनिषद (वेदांत): ये वेदों का तीसरा भाग हैं और ज्ञान कांड (ज्ञान अध्याय) के रूप में जाने जाते हैं। ये उपासना कांड (अनुष्ठान या पूजा अध्याय) से भी भिन्न हैं। उपनिषद प्रकृति, घटना विज्ञान, स्वयं और ब्रह्मांड की मौलिक वास्तविकताओं के बारे में ज्ञान प्रदान करते हैं।
मांडूक्य उपनिषद और वेदांत
मांडूक्य उपनिषद को समस्त वेदांत शिक्षाओं का सार कहा जाता है। यह सभी प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं, फिर भी यह अत्यंत गहरा और महत्वपूर्ण माना जाता है।
मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, मांडूक्य उपनिषद ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है, यदि इसे ठीक से आत्मसात किया जाए।
यह मानव चेतना के पूर्ण स्पेक्ट्रम में गहराई से उतरता है, जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं का विश्लेषण करता है।
यह निर्विवाद रूप से पुष्टि करता है कि अंतिम वास्तविकता, जिसे 'तुरीय' या 'चौथा' कहा जाता है, अद्वैत और गुणों से परे है। तुरीय अवस्था को प्रायः नकारात्मक शब्दों में परिभाषित किया जाता है, यह कहकर कि यह न तो अंतःप्रज्ञा है, न बाह्यप्रज्ञा, न ही यह प्रज्ञा मात्र है।
मांडूक्य उपनिषद सत्य को समझने के लिए पवित्र शब्दांश 'ओम्' (AUM) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में उपयोग करता है और इसके गहन दार्शनिक महत्व पर विस्तार से बताता है। इसमें जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं को ओम् के तीन अक्षरों (अ, उ, म) से और तुरीय को इन तीनों से परे की ध्वनिहीन अवस्था, मौन, से संबंधित किया गया है।
वेदांत के प्रमुख सिद्धांत मांडूक्य उपनिषद में
आत्मा और ब्रह्म की एकता: मांडूक्य उपनिषद के मूल सिद्धांतों में से एक 'अयम् आत्मा ब्रह्म' (यह आत्मा ही ब्रह्म है) का महावाक्य है। यह बताता है कि व्यक्तिगत चेतना (आत्मा) और सार्वभौमिक चेतना (ब्रह्म) एक ही हैं।
सत्यम् और मिथ्या: मांडूक्य के सिद्धांत अक्सर शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' ('केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है') से जुड़े होते हैं। यह सिखाता है कि जो कुछ भी निर्भर है वह मिथ्या (अवास्तविक) है, जैसे कपड़े से बनी कुर्ता या कागज से बनी किताब; जबकि अंतिम वास्तविकता रूप रहित अस्तित्व है, जो शुद्ध चेतना (आत्मा/ब्रह्म) है।
सृष्टि का आभासी स्वरूप: उपनिषद में सृष्टि के बारे में दिए गए वर्णन का उद्देश्य सृष्टि को एक तथ्य के रूप में स्थापित करना नहीं है, बल्कि अद्वैत को समझने में सहायता करना है। सृष्टि के वर्णन में विसंगतियां यह दर्शाती हैं कि सृष्टि वास्तविक नहीं है, बल्कि ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन है। ब्रह्म को विवर्त उपादान कारणम् (apparent material cause) के रूप में समझा जाता है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म बिना स्वयं में परिवर्तन किए ब्रह्मांड के रूप में प्रकट होता है।
राग-द्वेष और अद्वैत: अद्वैत दर्शन अन्य द्वैतवादी दर्शनों से संघर्ष नहीं करता क्योंकि यह द्वैत को परमार्थिक सत्य के बजाय वास्तविकता के निम्न स्तर (मिथ्या) पर मानता है। द्वैतवादी अपने सिद्धांतों से दृढ़ता से जुड़े रहते हैं और एक-दूसरे का खंडन करते हैं, लेकिन अद्वैती उन्हें स्वीकार करते हैं क्योंकि वे द्वैत को अद्वैत पर आरोपित मानते हैं।
संक्षेप में, वेदांत वेदों का ज्ञान कांड है जो परमार्थिक सत्य, आत्मा और ब्रह्म की अद्वैत प्रकृति को उजागर करता है, और मोक्ष के मार्ग के रूप में आत्म-साक्षात्कार पर जोर देता है, जैसा कि मांडूक्य उपनिषद में संक्षेप में और गहराई से वर्णित है।
माण्डूक्य उपनिषद और अद्वैत प्रकरण का परिचय माण्डूक्य उपनिषद वेदांत दर्शन के सबसे प्रभावशाली ग्रंथों में से एक है, जो अपने बारह मंत्रों में संपूर्ण वैदिक उपदेशों का सार समाहित करता है। इसे आकार में सबसे छोटा होने के बावजूद महत्व की दृष्टि से अत्यंत उच्च माना जाता है। भगवान राम ने हनुमान को मोक्ष प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह दी थी, यह दर्शाता है कि मुमुक्षुओं के लिए यह पर्याप्त है।
माण्डूक्य उपनिषद पर गौड़पाद ने "माण्डूक्य कारिका" या "गौड़पाद कारिका" नामक प्रसिद्ध टीका लिखी, जिसे अद्वैत वेदांत का पहला सुव्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। अद्वैत प्रकरण इसी कारिका का तीसरा अध्याय है, जो अद्वैत या अद्वैतवाद (गैर-द्वैतवाद) के दर्शन पर केंद्रित है। यह अध्याय आत्मा (व्यक्तिगत स्व) और ब्रह्म (परम वास्तविकता) की एकात्मकता और गैर-द्वैत को सिद्ध करने पर बल देता है।
अद्वैत प्रकरण का मूल दर्शन अद्वैत प्रकरण का केंद्रीय विषय आत्म-ब्रह्म की अभिन्नता है। यह तर्क देता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत (दुनिया) एक मिथ्या या दिखावा है।
अद्वैत (गैर-द्वैत): गौड़पाद का प्राथमिक लक्ष्य द्वैत की अवास्तविकता को सिद्ध करना है। उनके अनुसार, द्वैत ही सभी समस्याओं और संसार (जन्म-मृत्यु का चक्र) का मूल है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, जीव और ब्रह्म की भिन्नता का कारण माया (अविद्या) है। जब जीव अविद्या से रहित हो जाता है, तो वह स्वयं ब्रह्म बन जाता है।
अजातिवाद (गैर-उत्पत्ति): गौड़पाद का दर्शन अजातिवाद (कोई जन्म नहीं, कोई सृष्टि नहीं) के सिद्धांत पर केंद्रित है, जिसका अर्थ है कि तुरीय से कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं होता है। यदि तुरीय कारण होता, तो इससे उत्पन्न होने वाला कोई प्रभाव द्वैत को जन्म देता और गैर-द्वैत का उल्लंघन करता। चूंकि कोई जीव या ब्रह्मांड वास्तव में उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए तुरीय को उसका कारण नहीं कहा जा सकता।
प्रपंच का मिथ्यात्व: ब्रह्मांड (प्रपंच) को "असत्य" या "मिथ्या" माना जाता है, जिसका अर्थ है कि यह एक दिखावा है, वास्तविक नहीं। गौड़पाद इस तर्क पर जोर देते हैं कि संसार वास्तविक रूप से स्वतंत्र रूप से मौजूद नहीं है, बल्कि यह चेतना में एक उपस्थिति मात्र है।
जीव ब्रह्म ही है: जीव (व्यक्तिगत स्व) को ब्रह्म से अलग नहीं माना जाता है। यह उपनिषद इस बात पर बल देता है कि सभी जीव वास्तव में एक ही ब्रह्म हैं।
प्रमुख अवधारणाएँ और शब्दावली अद्वैत प्रकरण में कई महत्वपूर्ण अवधारणाओं की चर्चा की गई है:
तुरीय: इसे आत्मा की चौथी अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति (गहरी नींद) की तीन अवस्थाओं से परे है। यह शुद्ध चेतना है, अपरिवर्तनीय है, और सभी अवस्थाओं का साक्षी है। तुरीय ही आत्मा है जिसे अनुभव किया जाना है।
प्रपंच : इसका अर्थ है ब्रह्मांड, जो पाँच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) से बना है। इसे तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) या स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के रूप में भी वर्णित किया गया है। प्रपंच को अन-आत्मा (अनात्म) और असत्य माना जाता है।
माया (Maya): इसे ब्रह्म की जटिल मायावी शक्ति के रूप में समझाया गया है जिसके कारण ब्रह्म विभिन्न रूपों के भौतिक ब्रह्मांड के रूप में देखा जाता है। माया के दो मुख्य कार्य हैं: ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाना और उसके स्थान पर भौतिक जगत को प्रस्तुत करना।
उपाधि (Upadhis): ये सीमित करने वाले उपादान हैं (जैसे शरीर, मन, बुद्धि) जो एक ही आत्मा को कई जीवों के रूप में प्रकट करते हैं। आत्मा इन उपाधियों से अछूती रहती है।
अमनीभाव (Amanibhava): इसका अर्थ है "कोई मन नहीं", जहाँ मन अपनी वस्तुनिष्ठ प्रवृत्ति को त्याग देता है। यह बोध की एक व्यावहारिक विधि है जहाँ मन शांत होकर अपने आधार (आत्मा) में स्थापित हो जाता है।
अस्पर्श योग : यह Turia की विशेषता है कि उसका जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं या प्रकट होने वाले संसार से कोई संबंध या संपर्क नहीं है।
निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म: गौड़पाद तुरीय को निर्गुण (गुण रहित) ब्रह्म के रूप में वर्णित करते हैं। सगुण ब्रह्म (गुणों वाला) माया से जुड़ा ब्रह्म है जो भक्तों की पूजा के लिए व्यक्तिगत ईश्वर के रूप में प्रकट होता है, लेकिन दोनों एक ही सत्य के दो दृष्टिकोण हैं।
प्रमाण और तर्क गौड़पाद अद्वैत को सिद्ध करने के लिए तर्क और श्रुति (शास्त्र) दोनों का उपयोग करते हैं। उनका मानना है कि तर्क केवल सत्य की संभावना को इंगित कर सकता है, जबकि ऋषियों के प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित शास्त्र आत्म-ज्ञान के लिए अंतिम अधिकार हैं, क्योंकि मन सीधे गैर-द्वैत को नहीं समझ सकता।
दृष्टांत और उपमाएँ:
घटाकाश (घड़े का आकाश) और महाकाश (महान आकाश): इस उपमा का उपयोग यह समझाने के लिए किया जाता है कि आत्मा एक है, भले ही वह कई जीवों (घड़े के आकाश) के रूप में प्रकट होती है। जिस प्रकार घड़े के टूटने पर घटाकाश महाकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार शरीर के नष्ट होने पर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में बनी रहती है।
स्वप्न का उदाहरण: जाग्रत अवस्था को भी स्वप्न की तरह मिथ्या सिद्ध करने के लिए स्वप्न के अनुभवों का उपयोग किया जाता है। जैसे स्वप्न में देखी गई दुनिया मन में ही उत्पन्न होती है और जागने पर अदृश्य हो जाती है, उसी प्रकार जाग्रत दुनिया भी चेतना में एक दिखावा मात्र है।
रस्सी और सांप: यह उपमा अधिरोपण या भ्रम को दर्शाती है, जहाँ रस्सी पर सांप का भ्रम होता है। सांप की वास्तविकता रस्सी से उधार ली जाती है।
नेति नेति (यह नहीं, यह नहीं): आत्मा का वर्णन यह कहकर किया जाता है कि वह क्या नहीं है (न जाग्रत, न स्वप्न, न सुषुप्ति; न स्थूल, न सूक्ष्म, न कारण, आदि)।
अन्वय-व्यतिरेक (सह-उपस्थिति, सह-अनुपस्थिति): यह तर्क मन के द्वैत होने को स्थापित करने के लिए उपयोग किया जाता है।
भेद और तुलना
गौड़पाद बनाम शंकर: गौड़पाद का दृष्टिकोण अधिक कट्टरपंथी है। वे व्यावहारिक (व्यवहारिक) और प्रतिभासिक (illusory) वास्तविकताओं को एक ही मानते हैं, दोनों को दिखावे (स्वप्न) के रूप में वर्गीकृत करते हैं। इसके विपरीत, शंकर तीन स्तरों की वास्तविकता (पारमार्थिक, व्यावहारिक, प्रतिभासिक) का परिचय देते हैं। गौड़पाद के दर्शन में कोई "मध्यस्थता" या "छूट" नहीं है, जबकि शंकर विश्व के शिक्षकों के रूप में लोगों को साथ ले जाने के लिए कुछ रियायतें देते हैं।
अद्वैत और द्वैतवादी दर्शन: अद्वैत द्वैत को गैर-द्वैत का एक प्रभाव मानता है और द्वैतवादी विचारों से विवाद नहीं करता, उन्हें अस्थायी कदम या भ्रम के रूप में समझता है। द्वैतवादी, हालांकि, अक्सर अपने विचारों से चिपके रहते हैं और आपस में झगड़ते हैं।
समाधि और गहरी नींद: नियंत्रित मन (समाधि) गहरी नींद से अलग है क्योंकि समाधि ज्ञान की ओर ले जाती है, जबकि गहरी नींद ज्ञान रहित एक निष्क्रिय अवस्था है। समाधि में, मन शांत होता है लेकिन ज्ञान मौजूद रहता है, जबकि गहरी नींद में ज्ञान की अनुपस्थिति होती है।
महत्व और लक्ष्य माण्डूक्य उपनिषद का अध्ययन करने का अंतिम लक्ष्य मोक्ष (मुक्ति या कैवल्य) प्राप्त करना है। यह स्वयं को उस असीम, गैर-द्वैत आत्म के रूप में पहचानने से होता है, जिससे सभी दुख समाप्त हो जाते हैं। यह उपनिषद पर्याप्त माना जाता है यदि इसे ठीक से समझा जाए और अनुभव में आत्मसात किया जाए।
मूल सिद्धांत
माण्डूक्य उपनिषद, जो सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है जिसमें केवल बारह मंत्र हैं, को वेदांत के संपूर्ण ज्ञान का सार माना जाता है। गौड़पाद ने माण्डूक्य उपनिषद पर अपनी प्रसिद्ध टीका, माण्डूक्य कारिका (या गौड़पाद कारिका) लिखी, जिसे अद्वैत वेदांत का पहला व्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। बाद में, आदि शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को विस्तृत किया और उपनिषदों पर भाष्य लिखे।
आपके प्रश्न के संदर्भ में, "अद्वैत प्रकरण" (तीसरा अध्याय) माण्डूक्य कारिका का एक महत्वपूर्ण भाग है जो अद्वैत दर्शन के मूल सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य आत्मन (स्वयं) की अद्वैतता और जगत (ब्रह्मांड) की मिथ्यात्व को स्थापित करना है।
अद्वैत प्रकरण में वर्णित प्रमुख मूल सिद्धांत और अवधारणाएँ इस प्रकार हैं:
ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है):
ब्रह्म ही परम सत्य और अंतिम वास्तविकता है।
जगत् (ब्रह्मांड) केवल एक प्रकट स्वरूप (appearance) है, वह ब्रह्म से स्वतंत्र कोई वास्तविकता नहीं है। यह रस्सी में सांप के भ्रम या स्वप्न के समान है।
जीव (व्यक्तिगत आत्मन) ब्रह्म से अभिन्न है। माया के कारण ही जीव खुद को ब्रह्म से अलग समझता है।
अजातिवाद (उत्पत्ति या सृष्टि का अभाव):
गौड़पाद का एक प्रमुख सिद्धांत अजातिवाद है, जिसका अर्थ है कि परम सत्य (तुरिया/ब्रह्म) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता।
जो कुछ भी "उत्पन्न" होता हुआ प्रतीत होता है, वह वास्तव में केवल एक मायावी प्रकट स्वरूप है, वास्तविक सृष्टि नहीं। यह सिद्धांत द्वैतवादियों के सृष्टि के सिद्धांत का खंडन करता है, जो ब्रह्म में परिवर्तन मानते हैं।
तुरिया (चौथी अवस्था):
माण्डूक्य उपनिषद चेतना की चार अवस्थाओं का विश्लेषण करता है: जाग्रत (जागृति), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरिया (चौथी अवस्था)।
तुरिया परम वास्तविकता है, जो अन्य तीन अवस्थाओं से परे है।
यह अनिर्वचनीय, अग्राह्य, अचिंत्य, और अव्यपदेश्य है। यह न तो बाहरी या आंतरिक दुनिया से अवगत है, न चेतना का ढेर है, और न ही चेतन या अचेतन है।
इसे सच्चिदानंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में वर्णित किया गया है और यह इच्छा और पीड़ा से रहित ज्ञान की शुद्ध अवस्था है।
तुरिया को आत्मन (स्वयं) के समान माना गया है, और इसका बोध ही मोक्ष की प्राप्ति है।
अस्पर्श योग (कोई संबंध नहीं):
यह सिद्धांत बताता है कि तुरिया का जाग्रत, स्वप्न, गहरी नींद या ब्रह्मांड के साथ कोई वास्तविक संबंध या जुड़ाव नहीं है। ब्रह्म को "असंग" आत्मा कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि इसका किसी भी चीज से कोई संपर्क नहीं है।
अमनी भाव (मन का अभाव):
अमनी भाव का अर्थ है मन की गतिविधियों का शमन। तुरिया का बोध प्राप्त करने के लिए, मन को उसकी सक्रिय और बीज अवस्थाओं से परे जाना चाहिए। इसका अर्थ मन को नष्ट करना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि मन अंतिम वास्तविकता नहीं है।
माया का स्वरूप:
अद्वैत मत के अनुसार, माया परमेश्वर की एक जटिल भ्रमकारी शक्ति है, जिसके कारण निर्गुण ब्रह्म सगुण ब्रह्म के रूप में और फिर अलग-अलग रूपों की भौतिक दुनिया के रूप में दिखाई देता है।
माया ब्रह्मांड का एक प्रकट स्वरूप है, और यह वर्णन योग्य नहीं है क्योंकि यह न तो पूरी तरह से वास्तविक है और न ही पूरी तरह से असत्य। यह जीव को भ्रम में रखती है।
तर्क और शास्त्र का महत्व:
गौड़पाद के अद्वैत प्रकरण में, गैर-द्वैतता और विविधता की मिथ्यात्व को सिद्ध करने के लिए तर्क (युक्ति) और शास्त्र (श्रुति प्रमाण) दोनों का उपयोग किया जाता है।
घट-आकाश (बर्तन में आकाश) का दृष्टांत एक महत्वपूर्ण तार्किक उपकरण है। यह बताता है कि कैसे व्यक्तिगत आत्माएं (घट-आकाश) असीमित ब्रह्म (महान आकाश) के केवल प्रकट स्वरूप हैं, और कैसे ब्रह्म स्वयं कई जीवों के जन्म या मृत्यु का कारण नहीं बनता है।
गौड़पाद और शंकराचार्य के बीच अंतर:
गौड़पाद अधिक कट्टरपंथी दृष्टिकोण अपनाते हैं, जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं दोनों को केवल प्रकट स्वरूप (प्रतीभासिक) के रूप में एक ही स्तर पर देखते हैं।
शंकराचार्य वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: पारमार्थिक (अंतिम), व्यावहारिक (सांसारिक), और प्रतीभासिक (भ्रामक)।
हालांकि, शंकराचार्य ने गौड़पाद के अजातिवाद को वेदांत के "पुराने स्कूल" के रूप में मान्यता दी, जबकि स्वयं "नए स्कूल" को आगे बढ़ाया जो दुनिया के लिए एक सापेक्ष वास्तविकता को स्वीकार करता है।
संक्षेप में, अद्वैत प्रकरण में माण्डूक्य उपनिषद के मूल सिद्धांत इस विचार पर केंद्रित हैं कि परम और एकमात्र वास्तविकता ब्रह्म है, जो तुरिया अवस्था में अनुभव किया जाने वाला आत्मन है। ब्रह्मांड और व्यक्तिगत अनुभव केवल माया के कारण प्रकट होते हैं, और मुक्ति इस मूलभूत गैर-द्वैतता को समझने से आती है।
ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या
माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद कारिका का "अद्वैत प्रकरण" अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांतों को गहराई से प्रस्तुत करता है, जिनमें "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है, कोई दूसरा नहीं) की अवधारणा केंद्रीय है।
माण्डूक्य उपनिषद्, अपने केवल बारह मंत्रों के साथ, वेदांत के संपूर्ण ज्ञान का सार माना जाता है। गौड़पाद ने इस उपनिषद् पर अपनी प्रसिद्ध टीका, माण्डूक्य कारिका (या गौड़पाद कारिका) लिखी, जिसे अद्वैत वेदांत का पहला व्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। आदि शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को विस्तृत किया और उपनिषदों पर भाष्य लिखे, जिसमें उन्होंने माण्डूक्य उपनिषद् और कारिका को "वेदांत के सार का प्रतीक" बताया। अद्वैत प्रकरण (माण्डूक्य कारिका का तीसरा अध्याय) ब्रह्म की अद्वैतता और जगत की मिथ्यात्व को स्थापित करने के लिए तर्क (युक्ति) और शास्त्र (श्रुति प्रमाण) दोनों का उपयोग करता है।
ब्रह्म की सत्यता (ब्रह्म सत्यम्) अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही परम सत्य और अंतिम वास्तविकता है। इसे सीमित नहीं किया जा सकता, यह अपरिवर्तनीय है, और यह द्वैत से परे है।
निर्गुण ब्रह्म: ब्रह्म को निर्गुण कहा जाता है, जिसका अर्थ है बिना किसी गुण या विशेषता के। शंकराचार्य ब्रह्म के दो रूप मानते हैं: अविद्या (माया) उपाधि सहित (सगुण ब्रह्म), जिसे ईश्वर कहा जाता है, और सभी उपाधियों से रहित शुद्ध ब्रह्म (निर्गुण ब्रह्म)। निर्गुण ब्रह्म को सर्वोच्च ब्रह्म माना जाता है, जबकि सगुण ब्रह्म को सापेक्ष या व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाता है।
तुरिया (चौथी अवस्था): माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का विश्लेषण करता है: जाग्रत (जागृति), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरिया (चौथी अवस्था)। तुरिया को परम वास्तविकता, आत्मन, या ब्रह्म के समान माना गया है। यह अन्य तीन अवस्थाओं से परे है और उन्हें प्रकाशित करती है, लेकिन उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसे अनिर्वचनीय, अग्राह्य, अचिंत्य, और अव्यपदेश्य बताया गया है, जो इच्छा और पीड़ा से रहित ज्ञान की शुद्ध अवस्था है, जिसे सच्चिदानंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
अजातिवाद (उत्पत्ति का अभाव): गौड़पाद का एक मूलभूत सिद्धांत अजातिवाद है, जिसका अर्थ है कि परम सत्य (तुरिया/ब्रह्म) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। जो कुछ भी "उत्पन्न" होता हुआ प्रतीत होता है, वह वास्तव में केवल एक मायावी प्रकट स्वरूप है, वास्तविक सृष्टि नहीं। यह सिद्धांत ब्रह्म में परिवर्तन मानने वाले सृष्टि के सिद्धांतों का खंडन करता है।
जगत की मिथ्यात्व (जगत् मिथ्या) अद्वैत वेदांत के अनुसार, जगत् (ब्रह्मांड) केवल एक प्रकट स्वरूप (appearance) या भ्रम (illusion) है, यह ब्रह्म से स्वतंत्र कोई वास्तविकता नहीं है।
माया का स्वरूप: माया परमेश्वर की एक जटिल भ्रमकारी शक्ति है, जिसके कारण निर्गुण ब्रह्म सगुण ब्रह्म के रूप में और फिर अलग-अलग रूपों की भौतिक दुनिया के रूप में दिखाई देता है। माया ब्रह्मांड का एक प्रकट स्वरूप है, और यह अनिर्वचनीय है—न तो पूरी तरह से वास्तविक और न ही पूरी तरह से असत्य। यह जीव को भ्रम में रखती है।
जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं का मिथ्यात्व: गौड़पाद जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं दोनों को केवल प्रकट स्वरूप (प्रातिभासिक) के रूप में एक ही स्तर पर देखते हैं, क्योंकि दोनों ही अनुभव प्रकट स्वरूप या आभास हैं। शंकराचार्य वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: पारमार्थिक (अंतिम सत्य), व्यावहारिक (सांसारिक, जाग्रत अवस्था), और प्रातिभासिक (भ्रामक, स्वप्न या भ्रम)।
दृष्टांत: रस्सी में सांप के भ्रम और स्वप्न के दृष्टांत का उपयोग जगत की मिथ्यात्व को समझाने के लिए किया जाता है। स्वप्न में देखी गई दुनिया उतनी ही वास्तविक लगती है जितनी जाग्रत दुनिया, लेकिन जागने पर वह असत्य सिद्ध होती है। इसी तरह, जाग्रत दुनिया भी परम वास्तविकता नहीं है।
जीव ब्रह्म ही है (जीवो ब्रह्मैव नापरः) यह सिद्धांत बताता है कि व्यक्तिगत आत्मन (जीव) ब्रह्म से अभिन्न है। माया के कारण ही जीव खुद को ब्रह्म से अलग समझता है।
उपाधियों का प्रभाव: व्यक्तिगत जीव की विभिन्नता उपाधि (सीमित उपांगों या शरीरों) के कारण प्रतीत होती है। जैसे घट-आकाश (बर्तन में आकाश) महान आकाश से भिन्न नहीं होता, वैसे ही जीव भी परम आत्मन से भिन्न नहीं है। जब उपाधियाँ (शरीर, मन, बुद्धि) टूट जाती हैं या उनका निषेध किया जाता है, तो जीव अपने सच्चे स्वरूप (आत्मन) में विलीन हो जाता है।
मोक्ष: अद्वैत दर्शन में मोक्ष (मुक्ति) का अर्थ है इस मूलभूत गैर-द्वैतता को समझना या अनुभव करना। यह शरीर रहते हुए (जीवनमुक्ति) भी प्राप्त किया जा सकता है, जहाँ व्यक्ति सभी मायावी प्रकट स्वरूपों को केवल एक प्रकट स्वरूप के रूप में देखता है, वास्तविकता के रूप में नहीं।
माण्डूक्य कारिका का "अद्वैत प्रकरण" यह अध्याय अद्वैत दर्शन के मूल सिद्धांतों का व्यवस्थित प्रतिपादन करता है। गौड़पाद ने गैर-द्वैतता (अद्वैत) और विविधता की मिथ्यात्व (प्रपंचोपशम या मिथ्यात्व) को सिद्ध करने के लिए तर्क (युक्ति) और शास्त्र (श्रुति) दोनों का उपयोग किया है। इसमें द्वैतवादी सिद्धांतों को सांसारिक और अंतिम सत्य की प्राप्ति के लिए अपर्याप्त बताया गया है। अद्वैत प्रकरण में अजातिवाद (उत्पत्ति का अभाव), अस्पर्श योग (कोई संबंध नहीं), और अमनी भाव (मन का अभाव) जैसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर जोर दिया गया है, जो आत्मन की गैर-द्वैतता को सिद्ध करने के लिए आवश्यक हैं।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद कारिका का "अद्वैत प्रकरण" यह स्थापित करता है कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है, यह जगत माया के कारण एक मिथ्या प्रकट स्वरूप है, और व्यक्तिगत जीव वास्तव में इस ब्रह्म से अभिन्न है। इस अद्वैत स्वरूप की समझ ही मोक्ष और परम शांति की ओर ले जाती है।
जीवो ब्रह्मैव न परः
अद्वैत वेदान्त का मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव न परः" है, जिसका अर्थ है ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत एक मिथ्या है (या एक उपस्थिति है), और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह वाक्यांश अद्वैत दर्शन के केंद्रीय उपदेशों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है, जिसका विस्तृत विवेचन मांडूक्य उपनिषद और गौड़पाद की कारिकाओं में मिलता है।
जीव (व्यक्तिगत आत्मा) की प्रकृति: अद्वैत मत के अनुसार, माया के संबंध के कारण ही ब्रह्म जीव कहलाता है। यह माया जीव को अनादिकाल से ब्रह्म से भिन्न समझने का भ्रम देती है। स्वामी कृष्णानंद के अनुसार, जीव में द्वैत प्रकृति होती है: एक ईश्वरीय अंश जो उसका गरिमापूर्ण स्वभाव है, और दूसरा जीवत्व का अंश जो उसे संसार के बंधन में बांधता है। जीव की चेतना बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत होती है, वस्तुओं से प्रभावित होती है, और उन्हें अपनी इच्छाओं के अनुसार मूल्यांकित और न्याय करती है, जिससे उसे दुःख और बंधन होता है। जीव की चेतना सीमित (अल्पज्ञ) है और वह एक समय में केवल कुछ ही वस्तुओं का अनुभव कर सकता है, जबकि ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है।
ब्रह्म (परम सत्य) की प्रकृति: ब्रह्म को परम सत्य, अनंत, शुद्ध चेतना और द्वैतरहित के रूप में वर्णित किया गया है। यह निर्गुण (गुणरहित) ब्रह्म है, जिसे सगुण (गुणों सहित) ईश्वर के रूप में भी प्रकट होता है। ब्रह्म को अनादि, अव्यक्त और अपरिवर्तनीय बताया गया है। ब्रह्म सृष्टि का कारण नहीं है (अजातिवाद)। गोड़पाद तर्क देते हैं कि तुरीय कारण नहीं है, क्योंकि यदि यह कारण होता, तो इससे कुछ उत्पन्न होता और द्वैत आ जाता। चूंकि कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, इसलिए यह कारण नहीं है और द्वैत रहित है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है।
जीवात्मा और परमात्मा की अभिन्नता (अभेद/अनन्यत्व): "जीवो ब्रह्मैव न परः" का अर्थ है कि जीव ब्रह्म से अलग नहीं है। यह मांडूक्य उपनिषद का मुख्य संदेश है। इस पहचान को स्पष्ट करने के लिए कई उदाहरण और सिद्धांत दिए गए हैं:
महावाक्य: उपनिषदों के महावाक्य जैसे "तत्त्वमसि" (तुम वह हो), "अहम् ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ), और "अयमात्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ही ब्रह्म है) इस अभिन्नता की पुष्टि करते हैं।
घट-आकाश दृष्टांत: यह समझाने के लिए कि व्यक्तिगत आत्माएं (जीव) और परम आत्मा (ब्रह्म) वास्तव में भिन्न नहीं हैं, घट-आकाश (बर्तन के भीतर का स्थान) और महाकाश (कुल स्थान) का उदाहरण दिया जाता है। जिस प्रकार बर्तन के टूटने पर बर्तन के भीतर का आकाश महाकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार देह के नष्ट होने पर जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है। बर्तन के अंदर का स्थान और बाहर का स्थान अलग नहीं हैं; वे एक ही आकाश हैं।
स्वप्न दृष्टांत: मांडूक्य उपनिषद स्वप्न के उदाहरण का उपयोग करके यह सिद्ध करता है कि जागृत अवस्था भी स्वप्न जैसी ही है। जिस प्रकार स्वप्न का अनुभव करने वाले के मन में स्वप्न जगत उत्पन्न होता है और वह स्वप्न देखने वाले से भिन्न नहीं होता, उसी प्रकार जागृत जगत भी चेतना में एक उपस्थिति मात्र है। जब हम जागते हैं, तो स्वप्न की दुनिया अवास्तविक हो जाती है। इसी तरह, जब हम आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करते हैं, तो जागृत दुनिया भी अवास्तविक प्रतीत होती है।
उपाधियों का निषेध: जीव और ब्रह्म के बीच की भिन्नता उपाधियों (शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक आवरणों) के कारण है। जब इन उपाधियों को अवास्तविक जान लिया जाता है, तो आत्मा की शुद्ध, अदूषित प्रकृति प्रकट होती है।
माया और जगत की मिथ्यात्व: अद्वैत मत के अनुसार, जगत मिथ्या है। इसका अर्थ यह नहीं कि जगत का कोई अस्तित्व नहीं है, बल्कि यह एक अवास्तविक उपस्थिति है। माया ब्रह्म की वह शक्ति है जो ब्रह्मांड को प्रकट करती है और ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाती है। शंकराचार्य के अनुसार, माया को अनिर्वचनीय माना गया है, यानी यह न तो पूरी तरह से वास्तविक है और न ही पूरी तरह से असत्य। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विलय का भ्रम इसी माया के कारण होता है।
साक्षात्कार (मोक्ष) की प्रक्रिया: आत्म-साक्षात्कार का अर्थ "मैं वह हूँ" की पहचान है। यह किसी वस्तु को खोजने के बारे में नहीं है, बल्कि यह जानने के बारे में है कि आप पहले से ही वह हैं।
ज्ञान मार्ग: अद्वैत में, ज्ञान को मोक्ष का प्राथमिक साधन माना गया है, कर्म या भक्ति नहीं, हालांकि वे मन की शुद्धि में सहायक होते हैं।
अमनी भाव: आत्म-साक्षात्कार के लिए मन को 'मन-रहित' (अमनी भाव) अवस्था में लाना आवश्यक है। इस अवस्था में द्वैत (वस्तु-विषय का भेद) का बोध नहीं होता।
तुरीय अवस्था: चेतना की चौथी अवस्था, तुरीय, वह पारलौकिक अवस्था है जहां कोई द्वैत या घटना नहीं होती। यह शुद्ध आनंद और निडरता की स्थिति है, जहां आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं। मांडूक्य उपनिषद तुरीय को अवर्णनीय, अदृश्य, अविचारणीय, और व्यवहार से परे बताता है। श्री रमण महर्षि के अनुसार, तुरीय आत्म का ही दूसरा नाम है, और यह जीवनमुक्ति (इस जीवन में मुक्ति) की अवस्था है।
कुल मिलाकर, "जीवो ब्रह्मैव न परः" अद्वैत वेदान्त का सार है जो व्यक्तिगत आत्मा (जीव) की परम वास्तविकता (ब्रह्म) के साथ अंतिम अभिन्नता को घोषित करता है, और यह समझाता है कि इस अभिन्नता का अनुभव माया के कारण होने वाले भ्रम और द्वैत की उपस्थिति को दूर करके ही संभव है। यह मुक्ति का अंतिम लक्ष्य है।
प्रपंचोपशमम्, शान्तम, शिवम्, अद्वैतम
अद्वैत वेदान्त का मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव न परः" है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत एक मिथ्या (या उपस्थिति) है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह मूल सिद्धांत गौड़पाद की कारिका और उपनिषदों में विस्तृत रूप से प्रतिपादित है, विशेषकर मांडूक्य उपनिषद में।
प्रपंचोपशमम् (Prapañcopaśamam), शान्तम् (Śāntam), शिवम् (Śivam), अद्वैतम् (Advaitam), ये चार विशेषण चेतना की चौथी अवस्था तुरीय को परिभाषित करते हैं। तुरीय आत्मा का ही दूसरा नाम है और यह परम सत्य, ब्रह्म का स्वरूप है, जिसे प्राप्त करने पर सभी भ्रम और दुःख दूर हो जाते हैं।
आइए, इन शब्दों का विस्तार से विश्लेषण करते हैं, जो अद्वैत के मूल सिद्धांत को समझने में सहायक हैं:
प्रपंचोपशमम् (Prapañcopaśamam) - समस्त प्रपंच या द्वैत का उपशम या निवृत्ति:
"प्रपंच" शब्द का अर्थ है जगत या ब्रह्मांड। अद्वैत वेदान्त में, जगत को मिथ्या या एक उपस्थिति (appearance) माना जाता है, वास्तविक नहीं।
प्रपंचोपशमम् का अर्थ है द्वैत (द्वैतभाव) का अभाव या सभी घटनाओं का समाप्त हो जाना। यह नहीं कि जगत भौतिक रूप से नष्ट हो जाता है, बल्कि यह समझना कि जगत ब्रह्म से अलग एक स्वतंत्र वास्तविकता नहीं है, बल्कि चेतना में एक उपस्थिति मात्र है। शंकराचार्य के अनुसार, यह "सभी नाम और नामयोग्य वस्तुओं का गायब होना" है, जो मन और वाणी के ही रूप हैं।
तुरीय अवस्था में द्वैत का अनुभव नहीं होता। गौड़पाद तर्क देते हैं कि द्वैत ही संसार (जन्म, मृत्यु, दुःख, परिवर्तन) का मूल कारण है। द्वैत के समाप्त होने पर ही दुखों का नाश होता है।
माया ही ब्रह्मांड को प्रकट करती है और ब्रह्म को सामान्य मानव बोध से छिपाती है, जिससे द्वैत का भ्रम उत्पन्न होता है। प्रपंचोपशमम् की अवस्था माया के कारण होने वाले इस भ्रम से मुक्ति है।
यह अवस्था तब प्राप्त होती है जब मन को 'अमनी भाव' (मन-रहित अवस्था) में लाया जाता है। इस स्थिति में "ग्रहण योग्य वस्तुओं के अभाव में, यह (मन) इंद्रियों की भ्रम से मुक्त हो जाता है"।
शान्तम् (Śāntam) - शांत, स्थिर और निवृत्त:
तुरीय को पूरी तरह से शांत, प्रशांत (supra-praśāntaḥ) और निडरता (अभय) की स्थिति के रूप में वर्णित किया गया है।
यह वह अवस्था है जहाँ सभी मानसिक गतिविधियाँ शांत हो जाती हैं। जिस प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न के अनुभव शांत हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्म-साक्षात्कार पर जाग्रत अवस्था के अनुभव भी शांत हो जाते हैं।
यह उस परम शांति को दर्शाता है जो द्वैत की समाप्ति के साथ आती है।
शिवम् (Śivam) - शुभ, कल्याणकारी और आनंदमय:
तुरीय को पूर्ण शुभ (all good) और परम आनंद (pure bliss) के रूप में वर्णित किया गया है।
यह शुद्ध आनंद, निडरता और निर्विकारता (विकारों से रहित) की स्थिति है।
यह किसी भी नकारात्मकता या विपरीत से रहित है। आत्मा को आंतरिक रूप से शुद्ध और निष्कलंक माना जाता है, भले ही अज्ञान के कारण यह अशुद्ध प्रतीत हो।
अद्वैतम् (Advaitam) - अद्वैत, द्वितीय रहित:
यह अद्वैत वेदान्त का केंद्रीय दर्शन है कि कोई द्वितीय वस्तु नहीं है; केवल एक ही परम सत्य है।
इसकी पुष्टि 'अजातिवाद' (non-origination or no creation) के सिद्धांत से की जाती है, जो कहता है कि तुरीय (ब्रह्म) किसी भी जीव या जगत का कारण नहीं है, क्योंकि यदि कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैत आ जाता। "कोई भी जीव कभी उत्पन्न नहीं होता है"।
जीव और ब्रह्म की अभिन्नता: "जीवो ब्रह्मैव न परः" मूल सिद्धांत है। व्यक्तिगत आत्मा (जीव) ब्रह्म से भिन्न नहीं है, ठीक उसी तरह जैसे घट के भीतर का आकाश (घटाकाश) कुल आकाश (महाकाश) से भिन्न नहीं है।
"तत्त्वमसि", "अहम् ब्रह्मास्मि", और "अयमात्मा ब्रह्म" जैसे महावाक्य इस अभिन्नता की पुष्टि करते हैं।
यह तुरीय अवस्था काल, स्थान, व्यक्ति या वस्तुओं से परे है।
सारांश में, प्रपंचोपशमम्, शान्तम्, शिवम्, अद्वैतम् ये विशेषण तुरीय अवस्था को ब्रह्म के रूप में वर्णित करते हैं, जो समस्त द्वैत, माया और दुखों से रहित, परम शांत, शुभ और एकत्व की स्थिति है। इस अवस्था की प्राप्ति अद्वैत वेदान्त के मूल सिद्धांत "जीवो ब्रह्मैव न परः" का अंतिम अनुभव है, जहाँ जीव अपने वास्तविक ब्रह्म स्वरूप को जानकर संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है।
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