अध्याय 3: पंच कोष विवेक
स्रोत बताते हैं कि पंचदशी ग्रंथ को तीन खंडों में बांटा गया है, जिनमें से प्रत्येक में पांच अध्याय हैं। ये खंड हैं विवेक (Discrimination), दीप (Illumination), और आनंद (Bliss). अध्याय 3, जिसे पंच कोष विवेक कहा जाता है, विवेक खंड का हिस्सा है। यह ग्रंथ के पहले खंड का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो वास्तविकता और मात्र आभास के बीच अंतर को समझने पर केंद्रित है।
अध्याय 3: पंच कोष विवेक का मुख्य विषय:
यह अध्याय व्यक्तिगत चेतना को व्यक्ति के शरीर से अलग करने का विश्लेषण करता है, जो पांच कोशों या म्यान (sheaths) से बना है। ये पांच कोश हैं: अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय।
अन्नमय कोश शारीरिक शरीर है, प्राणमय कोश प्राणिक/जैविक शरीर, मनोमय कोश मानसिक शरीर, विज्ञानमय कोश बौद्धिक शरीर और आनंदमय कोश कारण शरीर है।
अध्याय का मुख्य लक्ष्य यह दर्शाना है कि शुद्ध चेतना इन पांच कोशों से स्वतंत्र है, और मानव व्यक्ति केवल इन कोशों का समूह नहीं है।
यह इस विचार को पुष्ट करता है कि आत्मन (स्वयं) इन कोशों से अप्रभावित, शुद्ध चेतना है, जो स्वयं प्रकाशित और अनंत है।
पंच कोष विवेक का व्यापक संदर्भ में स्थान:
अध्याय 3, अध्याय 2 (पंच महाभूत विवेक) के समानांतर चलता है। जहां अध्याय 2 ने सार्वभौमिक चेतना को पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से अलग किया, वहीं अध्याय 3 व्यक्ति की चेतना को उसके पांच कोशों से अलग करता है। यह विवेक खंड का अभिन्न अंग है, जो वास्तविकता को उसके विभिन्न प्रकट रूपों से अलग करने पर जोर देता है।
यह अध्याय ईश्वर (भगवान) और जीव (व्यक्तिगत आत्मा) के बीच माया (ब्रह्मांडीय उपाधि) और अविद्या (व्यक्तिगत उपाधि) के कारण उत्पन्न होने वाले अंतर को भी प्रस्तुत करता है। यह बताता है कि ईश्वर और जीव दोनों ही ब्रह्मन पर आरोपित हैं, जो कि अंतिम सत्य, ज्ञान और अनंत (सत्-चित्-आनंद) स्वरूप है।
कोशों को चेतना को ढंकने वाले आवरण के रूप में देखा जाता है, जैसे बादल सूर्य को ढंकते हैं।
ज्ञान प्राप्त करने के लिए, इन कोशों को हटाना आवश्यक है। इस अध्याय में यह बताया गया है कि आंतरिक कोश बाहरी कोशों को नियंत्रित करते हैं और उनसे अधिक वास्तविक और टिकाऊ होते हैं।
अध्याय यह भी स्पष्ट करता है कि जीव को होने वाले दुख तीन शरीरों (और पांच कोशों) से संबंधित हैं, न कि स्वयं आत्मा से।
पंच कोषों का विश्लेषण व्यक्ति को शाश्वत चक्र से मुक्ति दिलाने में सहायक होता है।
ग्रंथ यह शिक्षा देता है कि गहन विचार और शिक्षक के मार्गदर्शन से कोशों से स्वयं को अलग करने की प्रक्रिया संभव है, और यह अंततः सत्य की सीधी अनुभूति की ओर ले जाती है।
संक्षेप में, अध्याय 3 पंच कोष विवेक पंचदशी के वेदांत दर्शन की आधारशिला रखता है, जो व्यक्तिगत अनुभव के भीतर आत्मन की वास्तविकता को उसके विभिन्न आवरणों से अलग करके समझने में मदद करता है। यह अध्याय व्यक्ति को अपनी वास्तविक, असीम प्रकृति को समझने के लिए आवश्यक दार्शनिक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, और यह मोक्ष की प्राप्ति के लिए एक आवश्यक कदम है।
पंचकोष का भेद
पंचदशी ग्रंथ के अध्याय 3 को "पंच कोष विवेक" कहा जाता है, और यह ग्रंथ के प्रथम खंड "विवेक" का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह अध्याय मुख्य रूप से व्यक्तिगत चेतना को उसके पाँच आवरणों, या कोशों से अलग करने के विश्लेषण पर केंद्रित है।
पंच कोश का भेद (भेद/अलगाव): अध्याय 3 में, आत्मन (शुद्ध चेतना) को मानव व्यक्ति के पाँच कोशों से अलग करने का विवेचन किया गया है। ये पाँच कोश इस प्रकार हैं:
अन्नमय कोश: यह स्थूल या शारीरिक शरीर है।
प्राणमय कोश: यह प्राणिक या जैविक शरीर है, जिसमें पाँच प्राण और पाँच कर्मेन्द्रियाँ शामिल हैं।
मनोमय कोश: यह मानसिक शरीर है, जिसमें मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ शामिल हैं।
विज्ञानमय कोश: यह बौद्धिक शरीर है, जिसमें बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ शामिल हैं।
आनंदमय कोश: यह कारण शरीर है, जो अज्ञानता और सुख के कारण रूप में वर्णित है।
इन कोशों को आत्मा या शुद्ध चेतना पर आरोपित (superimposed) माना जाता है, जैसे बादल सूर्य को ढकते हैं। इन कोशों का विश्लेषण व्यक्ति को यह जानने में सक्षम बनाता है कि शुद्ध चेतना इन पाँच कोशों से स्वतंत्र है, और मानव व्यक्ति केवल इन कोशों का समूह नहीं है।
भेद की आवश्यकता और प्रक्रिया:
पंच कोषों का भेद करना आवश्यक है क्योंकि यह अज्ञानता को दूर करने के लिए एक बौद्धिक अभ्यास है।
यह प्रक्रिया सत्य की सीधी अनुभूति की ओर ले जाती है, जिससे व्यक्ति को शाश्वत बंधन चक्र से मुक्ति मिलती है।
पंचदशी में यह बताया गया है कि आत्मा इन कोशों से अप्रभावित, शुद्ध चेतना है। आत्मा को स्वयं प्रकाशित (self-luminous) और अनंत बताया गया है, जिसे सूर्य, चंद्रमा या तारे भी प्रकाशित नहीं कर सकते।
जीव को होने वाले दुख तीन शरीरों (और पाँच कोशों) से संबंधित हैं, न कि स्वयं आत्मा से।
यह भेद दर्शाने के लिए ग्रंथ विभिन्न दृष्टांतों का उपयोग करता है। उदाहरण के लिए, जिस प्रकार मुंज घास के कोमल आंतरिक भाग को उसके मोटे बाहरी आवरण से अलग किया जा सकता है, उसी प्रकार आत्मा को तीन शरीरों (या पाँच कोशों) से तर्क के माध्यम से अलग किया जा सकता है।
साक्षी रूप में चित् (चेतना) शरीर, बुद्धि और विषयों को भी प्रकाशित करता है।
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोश को क्रमशः अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद के नाम से जाना जाता है, इन सब का भेद आत्मा से दर्शाया गया है।
अध्याय 3 में, ईश्वर और जीव के बीच माया (ब्रह्मांडीय उपाधि) और अविद्या (व्यक्तिगत उपाधि) के कारण उत्पन्न होने वाले अंतर को भी प्रस्तुत किया गया है। ये दोनों ही ब्रह्मन पर आरोपित हैं, जो कि अंतिम सत्य, ज्ञान और अनंत (सत्-चित्-आनंद) स्वरूप है।
व्यापक संदर्भ में अध्याय 3 का स्थान (खंड):
विवेक खंड (Discrimination Section): अध्याय 3 पंचदशी के पहले खंड 'विवेक' का हिस्सा है, जिसमें पाँच अध्याय शामिल हैं। इस खंड का उद्देश्य वास्तविकता को मात्र आभास से अलग करना है।
अध्याय 2 से संबंध: यह अध्याय, अध्याय 2 (पंच महाभूत विवेक) के समानांतर चलता है। जहाँ अध्याय 2 ने सार्वभौमिक चेतना को पाँच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से अलग किया, वहीं अध्याय 3 व्यक्ति की चेतना को उसके पाँच कोशों से अलग करता है। यह विवेक खंड का अभिन्न अंग है, जो वास्तविकता को उसके विभिन्न प्रकट रूपों से अलग करने पर जोर देता है।
आत्म-विश्लेषण का महत्व: यह भेद-विश्लेषण व्यक्तिगत चेतना को उसके आवरणों से अलग करके आत्मन की वास्तविकता को समझने में मदद करता है। यह ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक है, क्योंकि कोशों को चेतना को ढंकने वाले आवरण के रूप में देखा जाता है।
ज्ञान के चरण: ग्रंथों से प्राप्त ज्ञान (परोक्ष ज्ञान) मन को शुद्ध करता है। इस ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान में बदलने के लिए शास्त्र के शिक्षण पर गहन विचार करना आवश्यक है।
यह अध्याय व्यक्ति को अपनी वास्तविक, असीम प्रकृति को समझने के लिए आवश्यक दार्शनिक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, और यह मोक्ष की प्राप्ति के लिए एक आवश्यक कदम है।
संक्षेप में, अध्याय 3: पंच कोष विवेक, व्यक्ति की आंतरिक संरचना का एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसका उद्देश्य आत्मा को उसके भौतिक और सूक्ष्म आवरणों से अलग करके उसकी शुद्ध, वास्तविक प्रकृति को पहचानना है। यह पंचदशी के वेदांत दर्शन की आधारशिला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो आध्यात्मिक मुक्ति के मार्ग में पहला कदम है।
अन्नमय कोष
पंचदशी ग्रंथ के अध्याय 3 को "पंच कोष विवेक" के नाम से जाना जाता है। यह अध्याय मुख्य रूप से व्यक्ति की चेतना को उसके पाँच आवरणों, या कोशों से अलग करने के विश्लेषण पर केंद्रित है, ताकि शुद्ध चेतना की पहचान की जा सके।
अन्नमय कोश का स्वरूप और भेद:
परिभाषा और घटक: अन्नमय कोश को स्थूल शरीर (physical body) कहा गया है। यह पंचीकृत (quintuplicated) महाभूतों से उत्पन्न होता है। इसमें व्यक्ति के भौतिक शरीर के सभी आंतरिक और बाहरी हिस्से शामिल होते हैं।
क्षणिकता और परिवर्तन: अन्नमय कोश नश्वर है। यह अन्न (भोजन) से उत्पन्न होता है और जन्म, क्षय तथा मृत्यु के अधीन है। यह एक विकार (modification) है। ठीक उसी तरह जैसे एक पुरानी कार को बदलकर नई ले ली जाती है, व्यक्ति मृत्यु पर इस शरीर को त्याग देता है और जन्म के समय एक नया भौतिक शरीर प्राप्त करता है। अन्नमय कोश की अस्थिरता दर्शाती है कि यह आत्मा नहीं है।
शरीर के 'ज्वर' (कष्ट): स्थूल शरीर के कष्ट या 'ज्वर' (fevers) होते हैं, जैसे कि त्रिदोषों (वात, पित्त, कफ) के असंतुलन से उत्पन्न होने वाले रोग, दुर्गंध, कुरूपता, जलन और चोट आदि। इन कष्टों को शरीर की स्वाभाविक अवस्था माना जाता है, और शरीर इनके बिना नहीं रह सकता, जैसे कपड़ा धागों के बिना नहीं रह सकता या मिट्टी घड़े के बिना नहीं रह सकती।
आत्मा से अन्नमय कोश का भेद:
आत्मा से भिन्नता: पंच कोषों के विवेक का मुख्य उद्देश्य यह स्थापित करना है कि शुद्ध चेतना इन पाँच कोशों से स्वतंत्र है, और मानव व्यक्ति केवल इन कोशों का समूह नहीं है। अन्नमय कोश की नश्वरता और विकारी प्रकृति उसे शाश्वत आत्मा से अलग करती है।
अध्यारोप (Superimposition): शरीर और इंद्रियों की कमजोरियाँ और सीमाएँ आत्मा पर आरोपित (superimposed) कर दी जाती हैं। इससे व्यक्ति भूख, प्यास, दुख आदि को अपनी आत्मा का गुण मान लेता है, जबकि ये शरीर के गुण हैं। चैतन्याभास (reflected consciousness) स्वयं इन कष्टों के अधीन नहीं है, बल्कि मिथ्या संबंध के कारण इन्हें अपना मानता है।
भेद की आवश्यकता: आत्मन को उसके आवरणों से अलग करने का यह विश्लेषण अज्ञानता को दूर करने के लिए एक बौद्धिक अभ्यास है। यह सत्य की सीधी अनुभूति की ओर ले जाता है, जिससे व्यक्ति को बंधन चक्र से मुक्ति मिलती है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा को इन कोशों से अलग करके उसकी शुद्ध, वास्तविक प्रकृति को समझा जाए।
शिक्षण का महत्व: पंच कोषों का विश्लेषण करना, व्यक्ति की वास्तविक प्रकृति को दर्शाने का एक तरीका है। एक योग्य शिक्षक, जो शास्त्रों में निपुण है, लोगों को पाँच कोशों और वास्तविक आत्मन के बीच भेद करने में मार्गदर्शन कर सकता है।
व्यापक संदर्भ (अध्याय 3: पंच कोष विवेक):
पंच कोष विवेक का लक्ष्य व्यक्ति की चेतना को उसके पाँच कोशों – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय – से भिन्न करके शुद्ध चेतना को जानना है।
अध्याय 3, पंचदशी के प्रथम खंड 'विवेक' का हिस्सा है। यह खंड वास्तविकता को मात्र आभास से अलग करने पर केंद्रित है।
अध्याय 2: पंच महाभूत विवेक, सार्वभौमिक चेतना को पाँच तत्वों से अलग करता है, जबकि अध्याय 3 व्यक्तिगत चेतना को उसके पाँच कोशों से अलग करता है।
अन्नमय कोश को भौतिक आवरण (physical encasement) कहा गया है।
अन्नमय कोश को आत्मन से भिन्न मानना चाहिए। कुछ विचारकों का यह मत कि स्थूल शरीर ही आत्मा है, शास्त्रों द्वारा खंडित किया गया है।
संक्षेप में, अध्याय 3 में अन्नमय कोश को आत्मा का सबसे बाहरी आवरण बताया गया है, जो भौतिक और नश्वर है, और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए इससे आत्मा का विवेक (भेद) करना अत्यंत आवश्यक है।
प्राणमय कोष
पंचदशी ग्रंथ के अध्याय 3 को "पंच कोष विवेक" कहा गया है। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की चेतना को उसके पाँच आवरणों, या कोशों से अलग करके शुद्ध चेतना को जानना है। यह अध्याय व्यक्तिगत चेतना को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय नामक पाँच कोशों से भिन्न करने का विश्लेषण करता है। इस विश्लेषण का लक्ष्य यह स्थापित करना है कि मनुष्य केवल इन कोशों का समूह नहीं है, बल्कि शुद्ध चेतना इन सबसे स्वतंत्र है।
प्राणमय कोश का स्वरूप और संबंध:
परिभाषा और घटक: प्राणमय कोश को "प्राणमय देह" या "Vital Sheath" (महत्वपूर्ण आवरण) कहा जाता है। यह सूक्ष्म शरीर (subtle body) का एक घटक है। प्राणमय कोश में रजोगुण से उत्पन्न होने वाले पाँच प्राण (प्राण, अपान आदि वायु) और पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाक् आदि) शामिल होती हैं।
कार्य: यह कोश हमारे भौतिक शरीर (अन्नमय कोश) के नियंत्रक के रूप में कार्य करता है।
सूक्ष्म शरीर का भाग: पाँचों इंद्रियाँ, पाँचों कर्मेन्द्रियाँ, पाँचों प्राण, मन और बुद्धि मिलकर सूक्ष्म शरीर बनाते हैं। इस प्रकार, प्राणमय कोश सूक्ष्म शरीर का एक हिस्सा है।
प्राणमय कोश के कष्ट (ज्वर):
सूक्ष्म शरीर (जिसमें प्राणमय कोश शामिल है) के कष्टों को "ज्वर" कहा गया है। ये कष्ट कामना (इच्छा), क्रोध, लोभ, निराशा, ईर्ष्या, भ्रम, आसक्ति, घृणा, अभिमान, दंभ, द्वेष, मूर्खता, भय और चिंता की उपस्थिति के कारण होते हैं।
शांति, स्थिरता, दयालुता, श्रद्धा, धैर्य और नम्रता की कमी भी सूक्ष्म शरीर के कष्टों के रूप में वर्णित है।
ये कष्ट व्यक्ति को क्रमशः प्राप्त होकर या प्राप्त न होकर परेशान करते हैं।
प्राणमय कोश और आत्मन का विवेक (भेद):
पंच कोष विवेक का प्राथमिक लक्ष्य इन आवरणों से आत्मा की भिन्नता को समझना है।
स्थूल शरीर की तरह, प्राणमय कोश भी नश्वर और परिवर्तनशील है। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राणमय कोश और आत्मन के बीच भेद करना आवश्यक है।
अध्यारोप (Superimposition): शरीर और इंद्रियों की कमजोरियाँ और सीमाएँ आत्मा पर आरोपित कर दी जाती हैं, जिससे व्यक्ति इन कष्टों को अपनी आत्मा का गुण मान लेता है। चिदाभास (reflected consciousness) स्वयं इन कष्टों के अधीन नहीं है, बल्कि मिथ्या संबंध के कारण इन्हें अपना मानता है।
उपनिषदों में इंद्रियों के बीच प्राण की श्रेष्ठता को लेकर भी कथाएँ वर्णित हैं, जहाँ प्राण को इंद्रियों से श्रेष्ठ बताया गया है, परंतु यह इस बात का संकेत देता है कि प्राण भी आत्मा नहीं है।
आत्मन को उसके आवरणों से अलग करने का यह विश्लेषण अज्ञानता को दूर करने के लिए एक बौद्धिक अभ्यास है, जिससे व्यक्ति शुद्ध चेतना की सीधी अनुभूति की ओर बढ़ता है। योग्य शिक्षक शास्त्रों की सहायता से पंच कोशों और वास्तविक आत्मन के बीच भेद करने में मार्गदर्शन कर सकता है।
संक्षेप में, अध्याय 3 में प्राणमय कोश को आत्मा के आवरणों में से एक महत्वपूर्ण आवरण बताया गया है, जो भौतिक शरीर से अधिक सूक्ष्म है और इसके अपने विशिष्ट कष्ट हैं। आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए इस कोश से आत्मा का विवेक करना अत्यंत आवश्यक है।
मनोमय कोष
अध्याय 3: पंच कोष विवेक पंचदशी ग्रंथ का तीसरा अध्याय है, जिसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की चेतना को उसके पाँच आवरणों (कोशों) से अलग करके शुद्ध चेतना को जानना है। यह अध्याय व्यक्तिगत चेतना को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय नामक पाँच कोशों से भिन्न करने का विश्लेषण करता है। इस विश्लेषण का लक्ष्य यह स्थापित करना है कि मनुष्य केवल इन कोशों का समूह नहीं है, बल्कि शुद्ध चेतना इन सबसे स्वतंत्र है।
मनोमय कोश का स्वरूप और घटक:
परिभाषा: मनोमय कोश को "mental sheath" (मानसिक आवरण) कहा गया है। यह सूक्ष्म शरीर (subtle body) का एक महत्वपूर्ण घटक है।
घटक: मनोमय कोश में संशयरूप मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, त्वचा, आँखें, जीभ और नाक) शामिल होती हैं। ये सभी सत्त्वगुण से उत्पन्न कार्यभूत माने जाते हैं।
कार्य: मन की संशय उत्पन्न करने वाली वृत्ति (doubtful faculty) को मनोमय कोश कहा गया है, जबकि निश्चय करने वाली वृत्ति (decisive faculty) विज्ञानमय कोश कहलाती है। ये दोनों (मन और बुद्धि) अंतःकरण के ही भाग हैं और परस्पर भीतर तथा बाहर रहते हैं।
मनोमय कोश से संबंधित कष्ट और विशेषताएँ:
सूक्ष्म शरीर के ज्वर (कष्ट): सूक्ष्म शरीर, जिसमें मनोमय कोश भी शामिल है, के कष्टों को "ज्वर" कहा गया है। ये कष्ट कामना, क्रोध, लोभ, निराशा, ईर्ष्या, भ्रम, आसक्ति, घृणा, अभिमान, दंभ, द्वेष, मूर्खता, भय और चिंता की उपस्थिति के कारण होते हैं। शांति, स्थिरता, दयालुता, श्रद्धा, धैर्य और नम्रता की कमी भी सूक्ष्म शरीर के कष्टों के रूप में वर्णित है। ये कष्ट व्यक्ति को प्राप्त होने पर या प्राप्त न होने पर परेशान करते हैं।
मानसिक सृष्टि: मनुष्य की मानसिक सृष्टि में उत्पन्न होने वाली द्वैतता (duality) दो प्रकार की होती है: शास्त्रानुसार विहित (जो शुभ और आवश्यक है) और शास्त्रानुसार निषिद्ध (जो हानिकारक है)। काम, क्रोध आदि आवेगों को तीव्र द्वैतता का भाग माना गया है, जबकि दिवास्वप्न (day-dreams) को निष्क्रिय द्वैतता का भाग।
आत्मा से संबंध: जीव अपने मानसिक पदार्थों के माध्यम से ही सुख-दुःख का अनुभव करता है। मन जीव के आंतरिक खाद्य पदार्थों में से एक है, जिसके बिना जीव संसार के संबंधों के ताने-बाने को बनाए नहीं रख सकता।
मनोमय कोश और आत्मन का विवेक (भेद):
पंच कोश विवेक का प्राथमिक लक्ष्य इन आवरणों से आत्मा की भिन्नता को समझना है।
स्थूल शरीर और प्राणमय कोश की तरह, मनोमय कोश भी परिवर्तनशील और नश्वर है। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए मनोमय कोश और आत्मन के बीच भेद करना आवश्यक है।
जब चित्ताभास (reflected consciousness) सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर से अपनी पहचान बनाता है, तो इसे विक्षेप कहा जाता है। कामना और क्रोध जैसे मानसिक कष्ट मन के गुण हैं, आत्मा के नहीं।
आत्मा के आवरणों से उसे अलग करने का यह विश्लेषण अज्ञानता को दूर करने के लिए एक बौद्धिक अभ्यास है, जिससे व्यक्ति शुद्ध चेतना की सीधी अनुभूति की ओर बढ़ता है। एक योग्य शिक्षक शास्त्रों की सहायता से पंच कोशों और वास्तविक आत्मन के बीच भेद करने में मार्गदर्शन कर सकता है।
विज्ञानमय कोष
अध्याय 3: पंच कोष विवेक पंचदशी ग्रंथ का तीसरा अध्याय है, जिसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की चेतना को उसके पाँच आवरणों (कोशों) से अलग करके शुद्ध चेतना को जानना है। यह अध्याय व्यक्तिगत चेतना को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय नामक पाँच कोशों से भिन्न करने का विश्लेषण करता है। इस विश्लेषण का लक्ष्य यह स्थापित करना है कि मनुष्य केवल इन कोशों का समूह नहीं है, बल्कि शुद्ध चेतना इन सबसे स्वतंत्र है।
विज्ञानमय कोश का स्वरूप और घटक:
परिभाषा: विज्ञानमय कोश को "intellectual sheath" (बौद्धिक आवरण) कहा गया है। यह सूक्ष्म शरीर (subtle body) का एक महत्वपूर्ण घटक है।
घटक: विज्ञानमय कोश में निश्चयात्मिका बुद्धि (decisive intellect) और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (ज्ञान के अंग) शामिल होती हैं। यह सूक्ष्म शरीर के सत्रह विशेषताओं में से एक है। इसे "cognitional sheath" (ज्ञानात्मक आवरण) भी कहा गया है।
कार्य: मन (संशय उत्पन्न करने वाली वृत्ति) को मनोमय कोश कहा गया है, जबकि निश्चय करने वाली वृत्ति (decisive faculty) को विज्ञानमय कोश कहते हैं। मन और बुद्धि दोनों ही अंतःकरण के भाग हैं और परस्पर भीतर तथा बाहर रहते हैं। मनोमय कोश संकल्प और विकल्प की क्रिया के कारण होता है, जबकि विज्ञानमय कोश निश्चय की क्रिया के कारण होता है।
विज्ञानमय कोश और आत्मन का विवेक (भेद):
विज्ञानमय कोश आत्मा नहीं है। इसे चित्ताभास (reflected consciousness) से युक्त बुद्धि कहा गया है, लेकिन यह आत्मा नहीं है।
जब चित्ताभास सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर से अपनी पहचान बनाता है, तो इसे विक्षेप (distraction) कहा जाता है। विज्ञानमय कोश भी परिवर्तनशील (transient) है।
अज्ञान, आवरण और विक्षेप ये सब विक्षेप के कार्य हैं और आत्मा के नहीं। विवेक का लक्ष्य इन आवरणों से आत्मा की भिन्नता को समझना है। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए विज्ञानमय कोश और आत्मन के बीच भेद करना आवश्यक है।
आत्मन स्वयंप्रकाश (self-luminous) है। बुद्धि के द्वारा उस आत्मा को स्वप्रकाश रूप में देखा जा सकता है।
आत्मन की पहचान, चाहे वह ज्ञानेन्द्रियों द्वारा हो या गुरु के उपदेश से, आत्मा की पहचान के रूप में "अहम्" (मैं) का प्रयोग करती है, जो अहम् की शुद्ध चेतना का प्रतिनिधित्व करता है।
विज्ञानमय कोश की भूमिका और मोक्ष:
कर्ता और भोक्ता: जीव जो विज्ञानमय कोश से अभिभूत है, स्वयं को कार्य करने वाला (कर्ता) और अनुभव करने वाला (भोक्ता) मानता है।
ज्ञान की प्रमुखता: पंच कोश विवेक का उद्देश्य शुद्ध चेतना को जानना है, जो इन कोशों से भिन्न है। वैराग्य (non-attachment), बोध (ज्ञान), और उपराम (गतिविधियों से विरक्ति) - इन तीनों गुणों में ज्ञान (knowledge) सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मोक्ष (liberation) का सीधा कारण है। अन्य दो सहायक मात्र हैं।
अज्ञान का निवारण: आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए शास्त्रों और गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। यह अज्ञान को दूर करने के लिए एक बौद्धिक अभ्यास है, जो व्यक्ति को शुद्ध चेतना की सीधी अनुभूति की ओर ले जाता है।
अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान: ब्रह्म के अस्तित्व का ज्ञान अप्रत्यक्ष ज्ञान है, जबकि "मैं ब्रह्म हूँ" का प्रत्यक्ष अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञान है। यह अप्रत्यक्ष ज्ञान भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सत्य के पहलुओं से संबंधित है।
बाधाएँ: संशय, विरोधाभासी ग्रंथों का होना, और कर्तृत्व की धारणा जैसी मानसिक अशुद्धियाँ प्रत्यक्ष ज्ञान की दृढ़ता में बाधा डालती हैं। मन की अशुद्धियाँ गहरे सत्यों को समझने की क्षमता को कम करती हैं।
मुक्ति: ज्ञान ही वास्तविक मुक्ति का कारण है। ज्ञान प्राप्त होने पर, व्यक्ति यह अनुभव करता है कि वह कर्ता और भोक्ता नहीं है, और इस प्रकार सभी दुःख दूर हो जाते हैं।
आनंदमय कोष
अध्याय 3: पंच कोष विवेक पंचदशी ग्रंथ का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की चेतना को उसके पाँच आवरणों (कोशों) से अलग करके शुद्ध चेतना को जानना है। ये पाँच कोश अन्नमय (भौतिक), प्राणमय (प्राणिक), मनोमय (मानसिक), विज्ञानमय (बौद्धिक) और आनंदमय (आनंद का आवरण) हैं। इस विवेचन का लक्ष्य यह स्थापित करना है कि मनुष्य केवल इन कोशों का समूह नहीं है, बल्कि शुद्ध चेतना इन सबसे स्वतंत्र है।
आनंदमय कोष का स्वरूप और घटक:
परिभाषा और घटक: आनंदमय कोष को "आनंद का आवरण" (Happiness sheath) या कारण शरीर (Causal body) कहा गया है। यह कारण शरीर का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसे उन सुखों के रूप में वर्णित किया गया है जो पुण्य कर्मों के फलों के अनुभव से उत्पन्न होते हैं, जैसे कि प्रिय वस्तुओं को देखने से मिलने वाला आनंद। इसमें 'प्रिय', 'मोद' और 'प्रमोद' नामक सुख शामिल हैं।
ज्ञान की वृत्ति: आनंदमय कोष बुद्धि की एक विशिष्ट वृत्ति (modification) है। जब पुण्य कर्मों के फल का अनुभव होता है, तो बुद्धि की यह वृत्ति अंतर्मुखी हो जाती है और उस पर आत्मस्वरूप आनंद का प्रतिबिंब पड़ता है। भोग के शांत होने पर यह वृत्ति निद्रा (गहरी नींद) के रूप में विलीन हो जाती है।
अन्य कोशों से संबंध: आनंदमय कोष अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोषों की तुलना में सबसे आंतरिक कोष है। आंतरिक कोष बाहरी कोषों को नियंत्रित करता है, अधिक वास्तविक होता है, अधिक समय तक रहता है, और अधिक व्यापक होता है। विज्ञानमय जीव सुषुप्ति (गहरी नींद) की अवस्था में सूक्ष्म रूप से विलीन होकर आनंदमय कहलाता है।
अज्ञान से संबंध: कारण शरीर (आनंदमय कोष) की स्थितियाँ अज्ञान से जुड़ी हैं। वह अज्ञान जिसके कारण व्यक्ति स्वयं या दूसरों को नहीं जानता, और जो भविष्य के दुखों का बीज है, उसे कारण शरीर का "बुखार" कहा गया है।
आनंदमय कोष और आत्मन का विवेक (भेद):
आत्मन से भिन्नता: यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आनंदमय कोष आत्मा नहीं है। इसका मुख्य कारण इसकी क्षणिक प्रकृति है; यह मेघ की तरह कभी आता है और कभी चला जाता है, जो आत्मा के स्थायी स्वरूप के विपरीत है। आत्मा स्वयं-प्रकाशित है और आनंदमय कोष से भिन्न है, जो आत्मा के आनंद का केवल प्रतिबिंब है।
प्रतिबिंब स्वरूप: आनंदमय कोष (और विज्ञानमय कोष भी) चेतना का प्रतिबिंब मात्र हैं, और वे अंततः कुटस्थ (Kutastha) चेतना और ब्रह्म चेतना के परम आधार पर आधारित हैं।
ईश्वर से भिन्नता: आनंदमय कोष को ईश्वर के समान नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो जागृत और स्वप्न अवस्थाओं में अंतःकरण के स्वभाव के कारण ईश्वर को भी क्षणिक मानना पड़ता।
आत्मज्ञान और मोक्ष में भूमिका:
पंच कोश विवेक का उद्देश्य शुद्ध चेतना को जानना है, जो इन कोशों से भिन्न है। तैत्तिरीयोपनिषद् की भृगु वल्ली का उदाहरण दिया गया है, जहाँ भृगु अपने पिता वरुण से ब्रह्म के बारे में पूछते हैं और वरुण उन्हें अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद से ब्रह्म की भिन्नता को जानने के लिए कहते हैं। यह आत्म-साक्षात्कार की दिशा में एक आवश्यक विवेचन है।
यद्यपि आनंदमय कोष एक आनंद की वृत्ति है, इसे अज्ञान से संबंधित माना गया है क्योंकि यह मन की अशुद्धियों और संशय को दूर नहीं करता है, जो प्रत्यक्ष ज्ञान की बाधाएँ हैं। ज्ञान ही वास्तविक मुक्ति का सीधा कारण है, और अन्य दो (वैराग्य और उपरति) केवल सहायक हैं। आनंदमय कोष के माध्यम से प्राप्त होने वाला अनुभव गहन नींद (सुषुप्ति) में होता है, जहाँ व्यक्ति ब्रह्मानंद का अनुभव करता है, लेकिन यह अनुभव अज्ञान की वृत्ति के कारण होता है और व्यक्ति को ज्ञानातीत अवस्था में नहीं ले जाता।
अध्यास (अध्यारोप)
अध्याय 3: पंच कोश विवेक पंचदशी ग्रंथ का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो व्यक्ति की चेतना को उसके पाँच आवरणों (कोशों) से अलग करके शुद्ध चेतना को जानने पर केंद्रित है। इस अध्याय में, अध्यास (अध्यारोप) का सिद्धांत इन कोशों और शुद्ध आत्मन् के बीच के भ्रमपूर्ण संबंध को समझाने में केंद्रीय भूमिका निभाता है।
अध्यास (सुपरइम्पोजिशन) का स्वरूप:
अध्यास का अर्थ है एक वस्तु के गुणों या विशेषताओं को किसी अन्य वस्तु पर आरोपित करना, जिससे भ्रम उत्पन्न होता है। इसे परस्पर अध्यास (mutual superimposition) या तादात्म्य अध्यास (Tadatmyadhyasa) भी कहा जाता है, जहाँ एक की विशेषताएँ दूसरे में और दूसरे की विशेषताएँ पहले में देखी जाती हैं।
भ्रमपूर्ण आरोपण: इसका एक उदाहरण यह है कि सीप को चांदी समझना, जहाँ सीप की चमक के कारण उस पर चांदी का आरोपण हो जाता है, जबकि वास्तविकता में वह चांदी नहीं होती। इसी प्रकार, यह इंद्रियों द्वारा प्रस्तुत एक भ्रम है जहाँ वस्तुएँ बाहरी प्रतीत होती हैं, और "सत्" (अस्तित्व) को नाम और रूप का गुण माना जाता है।
माया की भूमिका: यह अज्ञान (अविद्या) की शक्ति है जो "अस्तित्वहीन बाह्यता का निर्माण" (creation of a non-existent externality) करती है, जिससे बंधन उत्पन्न होता है। माया ही वह शक्ति है जो गैर-वास्तविक (non-entity) पर स्वतंत्रता, बाह्यता और वस्तुनिष्ठता के गुणों को आरोपित करती है। यह माया ही है जो ईश्वर में सर्वज्ञता जैसे गुणों को भी आरोपित करती है।
मिथ्या स्वरूप: पंच कोष (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) को "मिथ्यात्मन्" (false self या unreal self) कहा गया है, क्योंकि वे वास्तविक आत्मन् पर आरोपित झूठे आवरण हैं।
पंच कोष विवेक में अध्यास का महत्व:
पंच कोष विवेक का प्राथमिक उद्देश्य शुद्ध चेतना को इन पाँच आवरणों से भिन्न जानना है। अध्यास का सिद्धांत यह समझाता है कि व्यक्ति कैसे इन अनात्म (गैर-आत्मन्) कोशों को आत्मन् मान लेता है:
चेतना और कोशों का परस्पर आरोपण: चेतना और कोशों के बीच गुणों का परस्पर आरोपण (mutual superimposition of characters between consciousness and the sheaths) होता है, जिसके कारण हम यह कहने लगते हैं कि "हमें भूख लगी है," "हमें प्यास लगी है," "हमें दुःख है," आदि, जबकि ये कोशों के गुण हैं, आत्मन् के नहीं।
जीव और कुटस्थ का भ्रम: जीव (व्यक्तिगत चेतना) कुटस्थ (स्थिर, अपरिवर्तनीय आत्मन्) का स्थान ले लेती है, जिससे कुटस्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान असंभव हो जाता है। यह "अन्योन्य-अध्यास" (mutual superimposition of attributes) के माध्यम से होता है। कुटस्थ के अस्तित्व, चेतना, स्वतंत्रता और आनंद को जीव पर आरोपित किया जाता है, और इसके विपरीत, जीव के परिवर्तनशील गुण (जैसे सुख, दुःख) कुटस्थ पर आरोपित होते हैं। यह आरोपण मूल-अविद्या (original ignorance) का कारण बनता है।
चिदाभास और शारीरिक कष्ट: चिदाभास (reflected consciousness), गलत संबंध (अध्यास) के कारण, शरीर के कष्टों और स्थितियों को अपना मान लेता है, जबकि वह स्वयं बुद्धि या प्रकाश स्वरूप है। साक्षी आत्मन् की वास्तविकता को शरीर की स्थितियों में स्थानांतरित कर दिया जाता है, और फिर इन्हें चिदाभास का हिस्सा मान लिया जाता है।
आनंदमय कोष पर आरोपण: यद्यपि आनंदमय कोष एक आनंद की वृत्ति है, इसे आत्मा के आनंद का प्रतिबिंब माना जाता है। इसे आत्मा से भिन्न माना जाता है क्योंकि यह आत्मा की तरह नित्य या स्थायी नहीं है। इसका आनंद पुण्य कर्मों के फलों के अनुभव से उत्पन्न होता है। इस तरह आनंदमय कोष पर भी आत्मिक आनंद का आरोपण होता है।
अज्ञान, आवरण और विक्षेप: अध्यास की प्रक्रिया अज्ञान से शुरू होती है, जिससे आवरण (veiling) होता है (जो वास्तविक को जानने से रोकता है) और अंततः विक्षेप (distraction) उत्पन्न होता है (जो अवास्तविक को वास्तविक दिखाता है)। जीव ही इन तीनों अवस्थाओं का अनुभव करता है।
निष्कर्ष:
अध्यास का सिद्धांत पंचदशी के पंच कोष विवेक अध्याय में अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बताता है कि कैसे अनात्म शरीर और मन को आत्मन् समझ लिया जाता है। इस विवेचन का लक्ष्य इस भ्रम को दूर करना और जीव को यह अनुभव कराना है कि वह वास्तव में इन कोशों से भिन्न शुद्ध चेतना है, जो असीम और नित्य है। जब यह अध्यास ज्ञान द्वारा दूर हो जाता है, तभी वास्तविक मुक्ति और ब्रह्मानंद की प्राप्ति संभव होती है।
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