Friday, August 22, 2025

माण्डूक्य उपनिषद -2 - ओमकार (प्रणव)

 ओमकार (प्रणव)

मांडूक्य उपनिषद, अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न है, जिसे सभी दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। इसकी संक्षिप्तता के बावजूद, यह समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। माना जाता है कि मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, अकेले मांडूक्य उपनिषद ही मोक्ष प्राप्ति के लिए पर्याप्त है।

मांडूक्य उपनिषद में ओंकार (प्रणव) का महत्व व्यापक रूप से समझाया गया है।

यहाँ स्रोतों के आधार पर ओंकार (प्रणव) के बारे में जानकारी दी गई है:

  • ओंकार का प्रतीकात्मक महत्व:

    • मांडूक्य उपनिषद सत्य तक पहुँचने के लिए पवित्र शब्दांश 'ओम्' (AUM) को एक ध्यान प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है।

    • ओम् शब्द ईश्वरा और ब्रह्म दोनों के लिए एक शब्द और कार्यक्रम है।

    • यह अक्षर ब्रह्मांड को एक शब्द के रूप में दर्शाता है, "पूरा ब्रह्मांड ओम् शब्द है"।

    • ऋषियों ने ओम् को इसलिए चुना क्योंकि कोई भी एक नाम अन्य सभी नामों को छोड़ देता है। ओम्, जो अ + उ + म से बना है, सभी ध्वनियों, सभी अक्षरों, और अंततः सभी वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार, ओम्कारा ब्रह्मांड में हर चीज़ का प्रतिनिधित्व करता है, जिससे यह ईश्वरा के लिए सबसे सार्वभौमिक नाम बन जाता है।

    • ओम्कारा एक प्रतीक है, प्रतिमा नहीं, क्योंकि इसका कोई विशिष्ट रूप नहीं है बल्कि यह सभी रूपों का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक ऐसी ध्वनि है जो मुँह खोलकर (अ), बीच में (उ), और मुँह बंद करके (म) उत्पन्न होती है, इस प्रकार सभी मानवीय ध्वनियों और शब्दों की मूल को दर्शाती है।

  • चेतना की अवस्थाओं से संबंध:

    • ओंकार को मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं के साथ जोड़ा गया है: जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति।

    • 'अ' (A) अक्षर जागृति अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ व्यक्ति बाहरी, स्थूल दुनिया के प्रति जागरूक होता है और उसके साथ बातचीत करता है। इस अवस्था में व्यक्ति अपनी इंद्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त जैसे 19 'मुँह' (कार्यात्मक उपकरणों) के माध्यम से बाहरी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करता है।

    • 'उ' (U) अक्षर स्वप्न अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जो जागृति और सुषुप्ति के बीच में है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने मन के द्वारा निर्मित सूक्ष्म अनुभवों में होता है, जबकि उसका स्थूल शरीर आराम पर होता है।

    • 'म' (M) अक्षर सुषुप्ति (गहरी नींद) अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ व्यक्ति अज्ञान के आवरण में होता है, न तो बाहरी दुनिया और न ही स्वप्न अनुभव के बारे में जागरूक होता है। यह अनुभव सभी अनुभवों का संकल्प बिंदु और माप है, क्योंकि जागृति और स्वप्न के अनुभव गहरी नींद की अवस्था में निहित संभावित प्रवृत्तियों (संस्कारों और वासनाओं) द्वारा निर्धारित होते हैं।

  • तुरीय और ओंकार:

    • तीनों अक्षरों (अ, उ, म) से परे 'तुरीय' है, जिसे 'चौथा' कहा जाता है।

    • तुरीय को ओम् के जप के दौरान दो ओंकारों के बीच की नीरवता द्वारा दर्शाया गया है। यह वह शुद्ध चेतना है जो तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र है और उनका साक्षी है।

    • तुरीय को शब्दों से परिभाषित नहीं किया जा सकता है; इसे निषेधात्मक रूप से वर्णित किया जाता है, यानी "यह आंतरिक चेतना नहीं है, न बाहरी चेतना"। यह सभी व्यवहारिक अनुभवों से परे है और सभी गुणों से परे है।

    • आत्मन/ब्रह्मन् को तुरीय के रूप में समझना मोक्ष की कुंजी है।

  • ओम्कारा का दार्शनिक महत्व:

    • ओम्कारा का विश्लेषण आत्मन (व्यक्तिगत आत्मा) और ब्रह्मन् (परम वास्तविकता) के बीच के संबंध को स्पष्ट करता है, जो दोनों एक ही चेतना हैं।

    • ओम्कारा का अध्ययन एक अवस्थान-त्रय-विश्लेषण के माध्यम से आत्मन की प्रकृति में सीधे प्रवेश करता है। यह तीन अवस्थाओं का साक्षी होने की अवधारणा को उजागर करता है, जो यह दर्शाता है कि 'मैं' (आत्मन) उन अवस्थाओं से अलग और स्वतंत्र है।

    • यह सिखाता है कि जो कुछ भी अनुभव किया जाता है वह अंततः उस चेतना का एक रूप है जो ओम् द्वारा प्रतीकित है।

    • ओम्कारा का ज्ञान अभ्यास से प्राप्त होता है, केवल बौद्धिक समझ से नहीं, और इसका उद्देश्य स्वयं को तुरीय के रूप में समझना है, जिससे सभी अज्ञान और दुख समाप्त हो जाते हैं। यह ज्ञान व्यक्ति को जीवन में किसी भी भूमिका में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करता है।

    • गौडपाद ने ओम्कारा पर ध्यान को आत्म-ज्ञान के लिए एक शक्तिशाली साधन के रूप में बताया, क्योंकि यह साधक को आत्मन को पहचानने में मदद करता है।

अविनाशी: 'ओम' ही सब कुछ है

माण्डूक्य उपनिषद, जो अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न है, ओमकार (प्रणव) के माध्यम से 'ओम' की अविनाशी और सर्व-समावेशी प्रकृति की गहन व्याख्या करता है। यह उपनिषद, जिसे मुक्ति के लिए पर्याप्त माना जाता है, बताता है कि 'ओम' ही अविनाशी पूर्ण ब्रह्म है, और यह संपूर्ण दृश्यमान जगत् उसी का उपाख्यान है

ओमकार (प्रणव) की व्यापकता और दार्शनिक महत्व:

  • सार्वभौमिक प्रतीक: 'ओम' को एक अद्वितीय और सार्वभौमिक नाम माना जाता है क्योंकि यह सभी ध्वनियों, शब्दों और इस प्रकार संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है। ऋषियों ने 'ओम' को इसलिए चुना क्योंकि यह 'अ' (मुंह खोलकर उच्चारण), 'उ' (मध्य), और 'म' (मुंह बंद करके) के संयोजन से बनता है, जो सभी ध्वनियों और शब्दों के आधार को समाहित करता है।

  • चेतना की अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व: मांडूक्य उपनिषद मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत), स्वप्न (सपना), और सुषुप्ति (गहरी नींद) - का विश्लेषण करता है। ये अवस्थाएँ 'ओम' के तीन अक्षरों 'अ', 'उ', और 'म' से संबंधित हैं:

    • 'अ' जाग्रत अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें व्यक्ति बाहरी दुनिया के प्रति जागरूक रहता है और स्थूल वस्तुओं का अनुभव करता है। जाग्रत अवस्था में, चेतन मन अपनी उन्नीस मुखों (पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, पांच प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त) के माध्यम से बाहरी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करता है।

    • 'उ' स्वप्न अवस्था को दर्शाता है, जो जाग्रत और सुषुप्ति के बीच में होती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने सूक्ष्म शरीर में मानसिक धारणाओं और अनुभवों में व्यस्त रहता है।

    • 'म' गहरी नींद (सुषुप्ति) अवस्था से जुड़ा है, जिसमें व्यक्ति अज्ञानता के आवरण में ढका होता है और कोई वस्तुगत अनुभव नहीं करता। यह वह अवस्था है जहाँ जाग्रत और स्वप्न के अनुभव बीज-अवस्था में समाहित होते हैं। गहरी नींद में प्रज्ञा (प्राज्ञ), जो व्यक्तिगत कारण अवस्था है, ईश्वर के वैश्विक कारण अवस्था का हिस्सा मानी जाती है।

  • तुरीय (चौथी अवस्था): ओम के जाप के बीच की नीरवता या ओम के अंत के बाद की खामोशी तुरीय का प्रतिनिधित्व करती है। यह कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि उन तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र वह चेतना है जो तीनों की साक्षी है। तुरीय को अवर्णनीय, निराकार और ब्रह्म के सगुण और निर्गुण वर्गीकरणों से परे शुद्ध ज्ञान की स्थिति के रूप में वर्णित किया गया है, जिसे सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) भी कहा जाता है। यह वह तत्व है जो नाम और रूप के बिना मौजूद है, क्योंकि यदि किसी वस्तु का रूप होता, तो उसे आगे कम किया जा सकता है।

  • आत्मन और ब्रह्मन् की एकता: मांडूक्य उपनिषद के मुख्य शिक्षाओं में से एक "अयमात्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ब्रह्म है) महावाक्य का अन्वेषण है। यह सिखाता है कि व्यक्ति का आत्मन्, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, वही अविनाशी, असीमित ब्रह्म है।

  • सृष्टि की भ्रामक प्रकृति (मिथ्या): उपनिषद यह स्थापित करता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत (विश्व) मिथ्या (भ्रामक) है। जगत को ब्रह्म की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है, जो माया (अज्ञान) के कारण प्रकट होता है, जैसे सपने होते हैं। विभिन्न उपनिषदों में सृष्टि के वर्णन में विसंगतियां इस बात का प्रमाण हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं, बल्कि केवल अद्वैत (एकल सत्य) की शिक्षा के लिए एक अस्थायी अवधारणा है। जैसे सोने के आभूषण केवल सोने के रूप हैं, वैसे ही विश्व नाम और रूप का एक संग्रह है, जिसका मूल तत्व (ब्रह्म) है।

निष्कर्षतः, मांडूक्य उपनिषद ओमकार के माध्यम से यह प्रकट करता है कि 'ओम' ही सब कुछ है, वह अविनाशी ब्रह्म है जो सभी अनुभवों (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) और उनके परे (तुरीय) अंतर्निहित है, और इस ज्ञान की प्राप्ति से मोक्ष संभव है। यह इस समझ पर जोर देता है कि संसार एक भ्रामक उपस्थिति है, और वास्तविक सत्य केवल एक है: आत्मा, जो ब्रह्म है।

नाम और रूप: सार्वभौमिक नाम/रूप (ईश्वर) के रूप में ओम

मांडूक्य उपनिषद, अथर्ववेद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपनिषद है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, अकेले मांडूक्य उपनिषद का अध्ययन ही मोक्ष (मुक्ति) के लिए पर्याप्त माना जाता है, यदि इसे ठीक से आत्मसात किया जाए। यह उपनिषद चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभव की जाने वाली अवस्थाओं—जाग्रत (जागृति), स्वप्न (स्वप्न), और सुषुप्ति (गहरी नींद)—का विश्लेषण करता है, और 'तुरीय' या चौथी अवस्था को अंतिम, निर्गुण और अविनाशी वास्तविकता के रूप में स्थापित करता है।

मांडूक्य उपनिषद में ओंकार (प्रणव) को सत्य तक पहुँचने के लिए एक महत्वपूर्ण ध्यान प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

नाम और रूप: सार्वभौमिक नाम/रूप (ईश्वर) के रूप में ओम

मांडूक्य उपनिषद 'ओम्' अक्षर को अविनाशी पूर्ण ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत करता है, यह कहते हुए कि यह दृश्यमान संपूर्ण जगत् उसका ही उपाख्यान है। भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल में जो कुछ भी है, वह सब ओंकार ही है, और जो कुछ इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है।

  1. ओंकार का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व:

    • ओम् शब्द को ईश्वर और ब्रह्म दोनों के लिए एक शब्द और कार्यक्रम के रूप में लिया गया है।

    • ऋषियों ने 'ओम्' को इसलिए चुना क्योंकि यह सभी नामों और ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है। यदि कोई एक नाम चुना जाता है, तो वह अन्य सभी को बाहर कर देगा, लेकिन 'ओम्' समस्त ब्रह्मांड को एक शब्द के रूप में दर्शाता है

    • 'ओम्' (AUM) तीन ध्वनियों अ (A), उ (U), और म (M) से बना है, जो सभी ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। मुख खोलकर 'अ' ध्वनि निकलती है, मुख बंद करके 'म्' ध्वनि निकलती है, और 'उ' ध्वनि इन दोनों के बीच आती है। इस प्रकार, 'ओम्' के ये तीन अक्षर सभी प्रकार की ध्वनियों और शब्दों को समाहित करते हैं, जो ब्रह्मांड में मौजूद सभी नामों और रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

    • आगम प्रकरण में बताया गया है कि ओंकार का निर्णय किस प्रकार आत्मत्व की प्रासिका का उपाय होता है। 'ओम्' यही पद है, यही आलम्बन है, और यह पर एवं अपर ब्रह्म है।

  2. ओंकार और चेतना की अवस्थाएँ:

    • मांडूक्य उपनिषद चेतना की चार अवस्थाओं को ओंकार की तीन मात्राओं और चौथी 'अमात्रा' के साथ जोड़ता है।

      • 'अ' (अकार): यह जाग्रत अवस्था और वैश्वानर (जागृत अवस्था का अनुभवकर्ता) का प्रतिनिधित्व करता है। वैश्वानर वह है जो स्थूल विषयों का अनुभव करता है। वैश्वानर कुल 19 मुखों (पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, पांच प्राण, और मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) और सात अंगों के माध्यम से बाहरी स्थूल वस्तुओं का बोध करता है।

      • 'उ' (उकार): यह स्वप्न अवस्था और तैजस (सूक्ष्म विषयों का अनुभवकर्ता) का प्रतिनिधित्व करता है। तैजस सूक्ष्म विषयों का अनुभव करता है, जो स्वप्न में दिखाई देते हैं।

      • 'म्' (मकार): यह सुषुप्ति (गहरी नींद) अवस्था और प्राज्ञ (आनंद का अनुभवकर्ता) का प्रतिनिधित्व करता है। प्राज्ञ वह है जो अज्ञान के आवरण में रहता है और समस्त इच्छाओं से रहित आनंद का अनुभव करता है। मकार को सभी अनुभवों का माप (मिती) माना जाता है, क्योंकि जाग्रत और स्वप्न के अनुभव सुषुप्ति अवस्था में निहित संस्कारों द्वारा निर्धारित होते हैं।

      • 'अमात्रा' (शब्दहीन): यह तुरीय अवस्था का प्रतिनिधित्व करती है। तुरीय को शब्दों से अवर्णनीय, शांत, अद्वैत और शिव रूप बताया गया है। यह वह अवस्था है जहाँ जन्म, मृत्यु, जरा (बुढ़ापा), संसार चक्र और द्वैत भाव का अभाव होता है। यह विशुद्ध चेतना है, ब्रह्म का ही स्वरूप है, जो सभी गुणों और विशेषणों से परे है। यह वह मौन है जहाँ से 'ओम्' की ध्वनि उत्पन्न होती है और जिसमें वह विलीन हो जाती है।

  3. सार्वभौमिकता और अद्वैत:

    • ओंकार की प्रत्येक मात्रा व्यक्ति (जीवा) और समष्टि (ईश्वर/ब्रह्म) दोनों स्तरों पर चेतना की विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाती है।

      • अकार जाग्रत अवस्था के समष्टि रूप विराट और व्यष्टि रूप वैश्वानर से संबंधित है। विराट को सार्वभौमिक जाग्रत चेतना माना जाता है।

      • उकार सूक्ष्म अवस्था के समष्टि रूप हिरण्यगर्भ और व्यष्टि रूप तैजस से संबंधित है।

      • मकार कारण अवस्था के समष्टि रूप ईश्वर और व्यष्टि रूप प्राज्ञ से संबंधित है। ईश्वर को सर्वेश्वर (सभी का स्वामी) और सर्वज्ञ (सर्वज्ञानी) कहा गया है। ईश्वर का ज्ञान वस्तुओं के अस्तित्व के समान है, जबकि जीव का ज्ञान वस्तुओं के अस्तित्व से भिन्न होता है।

    • उपनिषद इस बात पर जोर देता है कि व्यक्तिगत (जीवात्मा) और ब्रह्मांडीय (परमात्मा) चेतना के बीच कोई अपरिवर्तनीय विभाजन नहीं है; आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। यह 'अयमात्मा ब्रह्म' (यह आत्मा ब्रह्म है) जैसे महावाक्यों में परिलक्षित होता है, जो मांडूक्य उपनिषद का एक केंद्रीय बिंदु है।

    • ओंकार की यह व्याख्या यह स्पष्ट करती है कि यह एकत्व का ज्ञान ही परम वास्तविकता है और द्वैत (भेद) एक सापेक्षिक सत्य या माया है। यह सिखाता है कि जो आरंभ और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी अवास्तविक है, जैसे स्वप्न।

कुल मिलाकर, मांडूक्य उपनिषद ओंकार को ब्रह्मांड और चेतना की संपूर्णता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है, जो तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) और उससे परे की तुरीय अवस्था को समाहित करता है। यह ओंकार का विश्लेषण हमें नाम और रूप की क्षणभंगुरता से आगे बढ़कर शाश्वत, अद्वैत वास्तविकता—आत्मा या ब्रह्म—का अनुभव करने में मदद करता है

महत्व

मांडूक्य उपनिषद, अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न है, जिसे सभी दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। इसकी संक्षिप्तता के बावजूद, यह समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, अकेले मांडूक्य उपनिषद ही मोक्ष प्राप्ति के लिए पर्याप्त है। इस उपनिषद पर श्री गौडपादाचार्य और आदि शंकराचार्य दोनों ने विस्तृत भाष्य लिखे हैं, जो इसके महत्व को दर्शाता है। यह मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति – का विश्लेषण करता है, और ओंकार (प्रणव) के माध्यम से परम सत्य, 'तुरीय' या चौथे की गैर-द्वैत और निर्गुण प्रकृति को स्पष्ट करता है।

मांडूक्य उपनिषद में ओंकार (प्रणव) का महत्व निम्नलिखित बिंदुओं में विस्तृत किया गया है:

  • ओंकार का प्रतीकात्मक स्वरूप और सार्वभौमिकता:

    • मांडूक्य उपनिषद सत्य तक पहुँचने के लिए पवित्र शब्दांश 'ओम्' (AUM) को एक ध्यान प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है।

    • 'ओम्' शब्द ईश्वरा और ब्रह्मन् दोनों के लिए एक "शब्द और कार्यक्रम" है।

    • ऋषियों ने 'ओम्' को इसलिए चुना क्योंकि यह सभी ध्वनियों, सभी अक्षरों और अंततः सभी वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिससे यह ब्रह्मांड में हर चीज़ का प्रतिनिधित्व करने वाला ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम बन जाता है। उपनिषद कहता है कि "पूरा ब्रह्मांड ओम् शब्द है"।

    • यह एक प्रतीक (Pratika) है, कोई प्रतिमा (Pratima) नहीं, क्योंकि इसका कोई विशिष्ट रूप नहीं है बल्कि यह सभी रूपों का प्रतिनिधित्व करता है।

    • 'ओम्' ध्वनि मुँह खोलकर 'अ', मध्य में 'उ', और मुँह बंद करके 'म' के उच्चारण से उत्पन्न होती है, इस प्रकार यह सभी मानवीय ध्वनियों और शब्दों के मूल को दर्शाती है।

  • चेतना की अवस्थाओं से संबंध (अवस्था-त्रय-विश्लेषण):

    • ओंकार को मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति – के साथ जोड़ा गया है।

    • 'अ' (अकार) अक्षर जागृति अवस्था (Waking State) का प्रतिनिधित्व करता है। इस अवस्था में, व्यक्ति बाहरी, स्थूल दुनिया के प्रति जागरूक होता है और 19 कार्यात्मक उपकरणों (जैसे पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त) के माध्यम से उससे जुड़ता है। इस अवस्था में आत्मा को 'विश्व' और समष्टि स्तर पर 'वैश्वानर' या 'विराट' कहा जाता है।

    • 'उ' (उकार) अक्षर स्वप्न अवस्था (Dream State) का प्रतिनिधित्व करता है। यह जागृति और सुषुप्ति के बीच की सूक्ष्म अवस्था है, जहाँ व्यक्ति मन द्वारा निर्मित सूक्ष्म अनुभवों में होता है। स्वप्न अवस्था में आत्मा को 'तैजस' और समष्टि स्तर पर 'हिरण्यगर्भ' कहा जाता है। इस पर ध्यान करने से ज्ञान में वृद्धि होती है और व्यक्ति समाज में एक सामंजस्यपूर्ण कारक बनता है।

    • 'म' (मकार) अक्षर सुषुप्ति अवस्था (Deep Sleep State) का प्रतिनिधित्व करता है। इस अवस्था में व्यक्ति 'अज्ञान के आवरण' में होता है, बाहरी दुनिया या स्वप्न अनुभव के प्रति जागरूक नहीं होता। यह सभी अनुभवों का संकल्प बिंदु है, क्योंकि जागृति और स्वप्न के अनुभव गहरी नींद की अवस्था में निहित संभावित प्रवृत्तियों (संस्कारों और वासनाओं) द्वारा निर्धारित होते हैं। इस अवस्था में आत्मा को 'प्राज्ञ' और समष्टि स्तर पर 'ईश्वर' कहा जाता है।

  • तुरीय और ओंकार की नीरवता (अमात्रा):

    • तीनों अक्षरों (अ, उ, म) से परे 'तुरीय' है, जिसे 'चौथा' कहा जाता है।

    • तुरीय को ओम् के जप के दौरान दो ओंकारों के बीच की नीरवता द्वारा दर्शाया गया है। यह वह शुद्ध चेतना है जो तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनका साक्षी है।

    • तुरीय को शब्दों से परिभाषित नहीं किया जा सकता; इसे निषेधात्मक रूप से वर्णित किया जाता है, यानी "यह आंतरिक चेतना नहीं है, न बाहरी चेतना"। यह सभी व्यवहारिक अनुभवों से परे और सभी गुणों से परे है।

    • आत्मन/ब्रह्मन् को तुरीय के रूप में समझना मोक्ष की कुंजी है। तुरीय कोई अवस्था नहीं है, बल्कि वह है जो तीनों अवस्थाओं का आधार है।

  • ओंकार का दार्शनिक महत्व:

    • आत्मन और ब्रह्मन् का एकीकरण: ओंकार का विश्लेषण आत्मन (व्यक्तिगत आत्मा) और ब्रह्मन् (परम वास्तविकता) के बीच के संबंध को स्पष्ट करता है, यह दिखाते हुए कि दोनों एक ही चेतना हैं। यह जीवा (व्यक्तिगत आत्मा) को ईश्वर (ब्रह्मांडीय चेतना) में स्थापित करने का एक सीधा तरीका बताता है।

    • आत्म-ज्ञान का साधन: ओंकार का ज्ञान और अभ्यास आत्म-ज्ञान के लिए एक शक्तिशाली साधन है। यह साधक को आत्मन को पहचानने में मदद करता है और सभी अज्ञान और दुखों को समाप्त करता है।

    • सृष्टि की मिथ्याता: मांडूक्य उपनिषद में सृष्टि की चर्चा को 'मिथ्या' या अवास्तविक (like a dream or illusion) माना गया है, जिसका मुख्य उद्देश्य अद्वैतवाद (गैर-द्वैत) को स्थापित करना है। सृष्टि को केवल एक शिक्षण साधन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है ताकि साधक को द्वैत से परे अद्वैत वास्तविकता तक पहुँचाया जा सके।

    • अद्वैतवाद की स्थापना: ओंकार का ज्ञान और उसका अवस्थाओं से संबंध अद्वैत सिद्धांत को स्थापित करता है, जहाँ परमार्थ सत्य केवल एक अद्वैत ब्रह्म है। अद्वैतवाद द्वैत को अस्वीकार नहीं करता, बल्कि उसे एक भिन्न क्रम की वास्तविकता (जैसे स्वप्न की तरह) के रूप में स्वीकार करता है, जो अंततः अद्वैत पर ही आरोपित है।

    • व्यावहारिक जीवन में एकीकरण: ओंकार का ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं है; इसे दैनिक जीवन में आत्मसात किया जाना चाहिए ताकि जीवन को 'दिव्य जीवन' में बदला जा सके और सर्वत्र शांति फैलाई जा सके। यह ज्ञान व्यक्ति को जीवन में किसी भी भूमिका में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करता है।

संक्षेप में, मांडूक्य उपनिषद ओंकार को एक ऐसे शक्तिशाली और सार्वभौमिक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है जो मानव चेतना की विभिन्न अवस्थाओं को समष्टिगत वास्तविकता से जोड़ता है, और अंततः साधक को आत्म-ज्ञान तथा मोक्ष की ओर ले जाता है, जो अद्वैत ब्रह्म की अनन्त, निर्गुण प्रकृति की पहचान है।

सृष्टि का मूल: ब्रह्मा ने ओम से ब्रह्मांड बनाया

माण्डूक्य उपनिषद में सृष्टि के मूल और ॐ के महत्व को गहनता से समझाया गया है, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत के संदर्भ में।

यहाँ दिए गए स्रोतों के अनुसार सृष्टि का मूल और ॐ का महत्व इस प्रकार है:

माण्डूक्य उपनिषद का महत्व

  • माण्डूक्य उपनिषद अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न है, जो 'अयम् आत्मा ब्रह्म' (यह आत्मा ब्रह्म है) जैसे प्रमुख महावाक्यों में से एक का स्रोत है। यह सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं, फिर भी यह संपूर्ण वेदांत शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है।

  • मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद ही पर्याप्त है। यदि इससे ज्ञान प्राप्त न हो, तभी अन्य उपनिषदों का अध्ययन करने की सलाह दी जाती है।

  • यह उपनिषद मानवीय चेतना के पूर्ण स्पेक्ट्रम में गहराई से उतरता है, जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभूत अवस्थाओं का विश्लेषण करता है। यह स्पष्ट रूप से कहता है कि परम वास्तविकता, जिसे 'तुरीय' या 'चौथी अवस्था' के रूप में जाना जाता है, अद्वैत और गुणों से परे है।

  • श्री गौड़पादचार्य (आदि शंकराचार्य के परमहंस गुरु) ने इस उपनिषद पर अपनी 'कारिका' नामक एक अद्भुत टीका लिखी है, और शंकराचार्य ने स्वयं इस पर भाष्य लिखा है, जो इसके महत्व को दर्शाता है।

ॐ और सृष्टि का मूल

  • माण्डूक्य उपनिषद सत्य को समझने के लिए पवित्र एकाक्षर ॐ को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में उपयोग करता है, इसके गहन दार्शनिक महत्व की व्याख्या करता है।

  • उपनिषद ॐ को अविनाशी ब्रह्म के रूप में घोषित करता है, और यह मानता है कि यह दृश्यमान संपूर्ण जगत् उसी ॐ का उपाख्यान है। इसमें भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों काल शामिल हैं, और जो कुछ इन तीनों कालों से परे है, वह भी ॐ ही है।

  • ॐ को ऋषिओं द्वारा विशेष रूप से चुना गया था क्योंकि यह 'अ', 'उ', 'म्' ध्वनियों से बना है, जो सभी मानवीय ध्वनियों के आरंभ, मध्य और अंत का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह इसे ईश्वर या ब्रह्म का सार्वभौमिक प्रतीक बनाता है, क्योंकि कोई भी एक नाम अन्य सभी को बाहर कर देगा।

  • उपनिषद बताता है कि ॐ के प्रत्येक अक्षर (अ, उ, म) सृष्टि की विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाते हैं

    • अ (अकार) जागृत अवस्था (वैश्वानर) और स्थूल जगत का प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्तिगत स्तर पर, जागृत अवस्था में ज्ञानेंद्रियां, कर्मेंद्रियां, प्राण और मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त (अन्तःकरण चतुष्टय) सहित 19 मुख होते हैं जिसके माध्यम से व्यक्ति बाहरी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करता है। समष्टि स्तर पर, यह विराट (ब्रह्मांडीय सकल शरीर) है।

    • उ (उकार) स्वप्न अवस्था (तैजस) और सूक्ष्म जगत का प्रतिनिधित्व करता है।

    • म् (मकार) सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ) और अज्ञान/कारण जगत का प्रतिनिधित्व करता है। यह वह अवस्था है जहाँ जागृत और स्वप्न के अनुभव सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित होते हैं। प्राज्ञ को सभी चीजों का कारण और उन पर प्रभु (सर्वेश्वर) और सर्वज्ञ (सर्व-ज्ञात) माना जाता है।

    • ॐ के बाद की मौन ध्वनि चौथी अवस्था, तुरीय का प्रतिनिधित्व करती है, जो तीनों अवस्थाओं का आधार है और शुद्ध चेतना है। यह वह स्थान है जहाँ से ॐ उत्पन्न होता है और जिसमें यह विलीन हो जाता है।

ब्रह्म और सृष्टि की माया

  • वेदांत में, ब्रह्म को सृष्टि का अभिन्न निमित्त और उपादान कारण माना जाता है, जिसका अर्थ है कि यह न केवल कर्ता (निमित्त कारण) है, बल्कि वह सामग्री (उपादान कारण) भी है जिससे सृष्टि बनती है।

  • हालांकि, अद्वैत दर्शन में, जगत की सृष्टि को 'मिथ्या' (भ्रामक या असत्य) माना जाता है, न कि परमार्थिक सत्य। यह स्वप्न की दुनिया या रस्सी में सांप के भ्रम के समान है।

  • सृष्टि के बारे में उपनिषदों में दिए गए वर्णन को द्वैत को अस्थायी रूप से स्वीकार करने के लिए एक साधन के रूप में देखा जाता है, ताकि अंततः अद्वैत (गैर-द्वैत) की शिक्षा दी जा सके। सृष्टि की प्रक्रिया में विभिन्न उपनिषदों में विसंगतियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि यह एक वास्तविक घटना नहीं है, बल्कि अद्वैत को स्थापित करने का एक तरीका है।

  • ब्रह्म को अपरिवर्तनीय कारण (विवर्त उपादान कारण) के रूप में देखा जाता है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म स्वयं बदले बिना ब्रह्मांड के रूप में प्रकट होता है

  • अतः, माण्डूक्य उपनिषद सृष्टि के मूल को ॐ और ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन साथ ही यह भी जोर देता है कि यह सृष्टि अंतिम सत्य नहीं है, बल्कि एक अभिव्यक्ति या माया है जिसका उद्देश्य हमें अपनी अद्वैत प्रकृति, यानी ब्रह्म से हमारी एकता को समझना है।

कॉस्मिक कंपन से सामंजस्य

अविनाशी सार्वभौमिक रूप/नाम

दोहरी प्रकृति

मांडूक्य उपनिषद, अथर्ववेद का एक महत्वपूर्ण उपनिषद है, जो अपने संक्षिप्त स्वरूप (केवल 12 मंत्रों) के बावजूद समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, मोक्ष प्राप्ति के लिए अकेले मांडूक्य उपनिषद का अध्ययन ही पर्याप्त माना जाता है, यदि इसके सही अर्थ को आत्मसात कर लिया जाए।

मांडूक्य उपनिषद में ओंकार (प्रणव) को सत्य तक पहुँचने के लिए एक ध्यान प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह पवित्र शब्दांश 'ओम्' (AUM) ईश्वरा और ब्रह्म दोनों के लिए एक शब्द और कार्यक्रम है, जो समस्त ब्रह्मांड को एक शब्द के रूप में दर्शाता है - "पूरा ब्रह्मांड ओम् शब्द है"। ऋषियों ने 'ओम्' को चुना क्योंकि यह अ + उ + म से बना है, जो सभी ध्वनियों, सभी अक्षरों और अंततः सभी वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिससे यह ईश्वरा के लिए सबसे सार्वभौमिक नाम बन जाता है।

ओंकार के व्यापक संदर्भ में 'दोहरी प्रकृति' का विश्लेषण:

मांडूक्य उपनिषद मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जाग्रत (जागृति), स्वप्न (स्वप्न) और सुषुप्ति (गहरी नींद) – का गहन विश्लेषण करता है। इन तीनों अवस्थाओं का ओंकार के अक्षरों 'अ', 'उ' और 'म' से संबंध बताया गया है।

  • 'अ' (A) जागृति अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ व्यक्ति बाहरी, स्थूल दुनिया के प्रति जागरूक होता है और उससे संपर्क स्थापित करता है।

  • 'उ' (U) स्वप्न अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ व्यक्ति मन द्वारा निर्मित सूक्ष्म अनुभवों में होता है।

  • 'म' (M) सुषुप्ति (गहरी नींद) अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ व्यक्ति अज्ञान के आवरण में होता है।

इन तीनों अक्षरों और अवस्थाओं से परे 'तुरीय' या 'चौथा' है, जिसे ओंकार के जप के दौरान दो ओंकारों के बीच की नीरवता द्वारा दर्शाया गया है। तुरीय वह शुद्ध चेतना है जो तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र है और उनका साक्षी है।

'दोहरी प्रकृति' की अवधारणा मुख्य रूप से जीव (व्यक्तिगत आत्मा) के संदर्भ में आती है, और मांडूक्य उपनिषद इसे आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया के माध्यम से स्पष्ट करता है:

  1. जीव की दोहरी प्रकृति: स्रोत बताते हैं कि एक व्यक्ति (जीव) की 'दोहरी प्रकृति' (double personality) या 'द्विगुणित प्रकृति' (twofold nature) होती है।

    • एक ओर, व्यक्ति में ईश्वरा का एक पहलू होता है, जिसे उसकी गरिमापूर्ण प्रकृति (dignified nature) के रूप में वर्णित किया गया है।

    • दूसरी ओर, उसमें जीवतत्व (jīvatva) का पहलू होता है, जो उसे संसार (सांसारिक अस्तित्व) से बाँधता है। यह जीवतत्व व्यक्ति की अपनी कल्पना से बुने गए मकड़जाल में उलझा हुआ होता है, जो उसे अन्य जीवों और संसार से जोड़ता है। इसे 'जीव-सृष्टि' (jīva-sriṣhti) कहा गया है, जो रूपों के साथ मनोवैज्ञानिक संबंध है।

  2. दार्शनिक व्याख्या और ओंकार से संबंध:

    • यह 'दोहरी प्रकृति' या 'द्वंद्व' वास्तव में अज्ञान (अविद्या) के कारण उत्पन्न होता है, जो आत्मन (स्वयं) के वास्तविक स्वरूप को ढँक देता है। जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं को 'उपाधि' (limiting adjuncts) कहा गया है, जो आत्मन की प्रकृति को आभासी रूप से ढँक देती हैं और उसे तीन अलग-अलग व्यक्तित्वों के रूप में प्रकट करती हैं।

    • ओंकार का अध्ययन, विशेष रूप से अवस्था-त्रय-विश्लेषण के माध्यम से, आत्मन की प्रकृति में सीधे प्रवेश कराता है। यह विश्लेषण यह स्थापित करता है कि 'मैं' (आत्मन) इन अवस्थाओं से अलग और स्वतंत्र है, उनका साक्षी है।

    • उपनिषद का उद्देश्य इस त्रुटि को दूर करना है, अर्थात् सीमित स्वयं या 'अहंकार' (ego) के विभिन्न रूपों को परम वास्तविकता, असीमित 'मैं' से अलग करना। अहंकार को एक वैचारिक स्वयं (conceptual self) के रूप में परिभाषित किया गया है, जो बचपन से प्राप्त अनुभवों और प्रभावों पर आधारित होता है।

    • जब यह ज्ञान आत्मसात हो जाता है कि आत्मन ही ब्रह्म है (यानी 'अयमात्मा ब्रह्म' - "यह आत्मा ब्रह्म है" महावाक्य), तो जीव का अहंकारी स्वरूप (jīvatva) मिथ्या (वास्तविक नहीं) सिद्ध हो जाता है। यह संसार, उसके सभी भेद और जीव की सीमित पहचान को मिथ्या माना गया है, जिसका एकमात्र उद्देश्य अद्वैत (गैर-द्वैत) वास्तविकता को स्थापित करना है।

    • तुरीय अवस्था, जो ओंकार के बाद की नीरवता से प्रतीकित होती है, इस अज्ञान-जनित द्वंद्व (ignorance-born duality) का समाधान प्रस्तुत करती है। यह वह शुद्ध चेतना है जो सभी अनुभवों से परे है और उन्हें प्रकाशित करती है। इस ज्ञान के माध्यम से, सभी अज्ञान और दुःख समाप्त हो जाते हैं, और व्यक्ति तुरीय के रूप में स्वयं को समझता है, जिससे जीवन में किसी भी भूमिका में सामंजस्य स्थापित करने में मदद मिलती है।

संक्षेप में, मांडूक्य उपनिषद और ओंकार की शिक्षाओं का उद्देश्य जीव की इस कथित 'दोहरी प्रकृति' को भंग करना है, यह प्रकट करके कि व्यक्तिगत आत्मा (जीव) और परम वास्तविकता (ब्रह्म) अंततः एक ही हैं, और द्वंद्व केवल अज्ञान का परिणाम है।

सामयिक (A, U, M) - सभी रचना का प्रतिनिधित्व

शाश्वत (अमात्रा, चतुर्थ भाव) - निराकार, असीम, सच्चिदानंद

ध्यान: प्रणव के सार्वभौमिक स्वरूप पर चिंतन

मांडूक्य उपनिषद, अथर्ववेद का एक महत्वपूर्ण उपनिषद है, जिसे सभी उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल १२ मंत्र हैं। इसकी संक्षिप्तता के बावजूद, यह समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है, और मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, अकेले मांडूक्य उपनिषद ही मोक्ष प्राप्ति के लिए पर्याप्त है।

मांडूक्य उपनिषद में ओंकार (प्रणव) को सत्य तक पहुँचने के लिए एक ध्यान प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, और इसके गहन दार्शनिक महत्व पर विस्तार से बताया गया है। प्रणव के सार्वभौमिक स्वरूप पर चिंतन इस उपनिषद की केंद्रीय शिक्षा है।

ओंकार (प्रणव) का सार्वभौमिक स्वरूप:

  1. ब्रह्मांड का प्रतीक: ओंकार को ईश्वर और ब्रह्मन् दोनों के लिए एक शब्द और कार्यक्रम माना गया है। यह अक्षर पूरे ब्रह्मांड को एक शब्द के रूप में दर्शाता है, "पूरा ब्रह्मांड ओम् शब्द है"। ऋषियों ने 'ओम्' को इसलिए चुना क्योंकि यह 'अ', 'उ' और 'म' से मिलकर बना है, जो सभी ध्वनियों, सभी अक्षरों और अंततः सभी वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार, ओंकार ब्रह्मांड में हर चीज़ का प्रतिनिधित्व करता है, जिससे यह ईश्वरा के लिए सबसे सार्वभौमिक नाम बन जाता है। यह एक प्रतीक है, कोई विशिष्ट रूप या प्रतिमा नहीं, बल्कि यह सभी रूपों का प्रतिनिधित्व करता है।

  2. चेतना की अवस्थाओं से संबंध: मांडूक्य उपनिषद ओंकार को मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति – के साथ जोड़ता है।

    • 'अ' (A) अक्षर: यह जागृति अवस्था (जाग्रत् अवस्था) का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ व्यक्ति बाहरी, स्थूल दुनिया के प्रति जागरूक होता है और उसके साथ बातचीत करता है। व्यक्ति अपनी इंद्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त जैसे १९ 'मुखों' (कार्यात्मक उपकरणों) के माध्यम से बाहरी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करता है। वैश्वानर (या विराट्) जागृति की सार्वभौमिक चेतना है, जो इस अवस्था का स्थूल और कुल पक्ष है।

    • 'उ' (U) अक्षर: यह स्वप्न अवस्था (स्वप्न अवस्था) का प्रतिनिधित्व करता है, जो जागृति और सुषुप्ति के बीच की अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने मन द्वारा निर्मित सूक्ष्म अनुभवों में होता है, जबकि उसका स्थूल शरीर आराम पर होता है। हिरण्यगर्भ स्वप्न की सार्वभौमिक चेतना है।

    • 'म' (M) अक्षर: यह सुषुप्ति (गहरी नींद) अवस्था (सुषुप्ति अवस्था) का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ व्यक्ति अज्ञान के आवरण में होता है, न तो बाहरी दुनिया और न ही स्वप्न अनुभव के बारे में जागरूक होता है। यह अवस्था सभी अनुभवों का संकल्प बिंदु और माप है, क्योंकि जागृति और स्वप्न के अनुभव गहरी नींद की अवस्था में निहित संभावित प्रवृत्तियों (संस्कारों और वासनाओं) द्वारा निर्धारित होते हैं। ईश्वर (या प्राज्ञ) सुषुप्ति की सार्वभौमिक चेतना है, जिसकी बुद्धि संपूर्ण और अविनाशी है।

  3. तुरीय (चौथी अवस्था): तीनों अक्षरों (अ, उ, म) से परे 'तुरीय' है, जिसे 'चौथा' कहा जाता है। यह ओंकार के जप के दौरान दो ओंकारों के बीच की नीरवता द्वारा दर्शाया गया है। तुरीय वह शुद्ध चेतना है जो तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र है और उनका साक्षी है। इसे शब्दों से परिभाषित नहीं किया जा सकता है, और यह सभी व्यवहारिक अनुभवों और गुणों से परे है। आत्मन/ब्रह्मन् को तुरीय के रूप में समझना मोक्ष की कुंजी है। ओंकार का अमात्र (ध्वनिहीन) हिस्सा तुरीय का प्रतिनिधित्व करता है।

ध्यान: प्रणव के सार्वभौमिक स्वरूप पर चिंतन: प्रणव के सार्वभौमिक स्वरूप पर चिंतन का अर्थ है, "ओम्" (AUM) के विभिन्न घटकों (अ, उ, म) और उनकी संबंधित चेतना की अवस्थाओं (जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति) और उनके ब्रह्मांडीय समकक्षों (वैश्वानर, हिरण्यगर्भ, ईश्वर) को समझना और यह पहचानना कि ये सभी अंततः एक ही वास्तविकता, तुरीय, के प्रकटीकरण हैं।

  • साक्षी भाव का विकास: ओंकार का विश्लेषण (अवस्थान-त्रय-विश्लेषण) आत्मन की प्रकृति में सीधे प्रवेश करता है, यह उजागर करते हुए कि 'मैं' (आत्मन) इन सभी अवस्थाओं का साक्षी है और उनसे अलग तथा स्वतंत्र है।

  • अद्वैत की प्राप्ति: यह चिंतन व्यक्ति को यह समझने में मदद करता है कि जो कुछ भी अनुभव किया जाता है, वह अंततः उस चेतना का एक रूप है जो ओम् द्वारा प्रतीक है। यह ज्ञान अभ्यास से प्राप्त होता है, केवल बौद्धिक समझ से नहीं, और इसका उद्देश्य स्वयं को तुरीय के रूप में समझना है, जिससे सभी अज्ञान और दुख समाप्त हो जाते हैं।

  • मिथ्यात्व की समझ: यह अध्ययन इस बात पर बल देता है कि सृष्टि की कहानियाँ (जाग्रत् और स्वप्न सहित) मिथ्या हैं, यानी वे वास्तविक नहीं बल्कि केवल दिखावा हैं। यह रस्सी-साँप के उदाहरण से स्पष्ट किया जाता है, जहाँ साँप की वास्तविकता केवल रस्सी पर आरोपित है; इसी तरह, ब्रह्मांड ब्रह्मन् पर आरोपित है। प्रणव पर ध्यान हमें इस बात की गहरी समझ देता है कि संसार एक आभास (माया) है, और ब्रह्मन् ही एकमात्र परम सत्य है।

  • एकात्मता का अनुभव: ओंकार का सही अर्थ समझने के साथ इसका जाप करने से व्यक्ति ब्रह्मांडीय कंपन के साथ समस्वर होता है और अहंकारी 'जीव' के रूप में सोचने के बजाय सार्वभौमिक रूप से 'ईश्वर' के रूप में सोचना शुरू कर देता है। यह आत्मन और ब्रह्मन् के बीच की एकात्मता को दर्शाता है, जहाँ दोनों एक ही चेतना हैं।

  • मोक्ष की ओर अग्रसर: गौडपाद ने ओंकार पर ध्यान को आत्म-ज्ञान के लिए एक शक्तिशाली साधन के रूप में बताया, क्योंकि यह साधक को आत्मन को पहचानने में मदद करता है। तुरीय पर ध्यान (जो दो ओंकारों के बीच की नीरवता है) सही समझ के साथ मुक्ति प्रदान करता है। इसका अर्थ कोई नया अनुभव प्राप्त करना नहीं है, बल्कि स्वयं को 'मैं' (आत्मन) के रूप में पुनः खोजना है, जो असीम और शाश्वत चेतना है। इस ज्ञान से व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सामंजस्य स्थापित करने में सक्षम होता है।

इस प्रकार, प्रणव के सार्वभौमिक स्वरूप पर ध्यान केवल एक ध्वनि का जाप नहीं है, बल्कि यह चेतना की विभिन्न अवस्थाओं, उनके ब्रह्मांडीय समकक्षों और अंततः उन सभी के साक्षी, तुरीय, के रूप में स्वयं की पहचान करने की एक गहन प्रक्रिया है। यह चिंतन व्यक्ति को अद्वैत सत्य की ओर ले जाता है, जहाँ सभी भेद समाप्त हो जाते हैं और आत्मन् का वास्तविक, असीमित, आनंदमय स्वरूप प्रकट होता है।

ओंकार (OM) की व्याख्या

मांडूक्य उपनिषद, जो अपने बारह श्लोकों के लिए प्रसिद्ध है, उपनिषदों में सबसे छोटा है लेकिन महत्व की दृष्टि से इसका स्थान अत्यंत उच्च है। इसे आध्यात्मिक विद्या का नवनीत माना जाता है, जो बिना वाग्विस्तार के सूत्र रूप में ज्ञान प्रदान करता है। मुक्ति उपनिषद में भगवान राम ने हनुमान को कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए केवल मांडूक्य उपनिषद का गहन अध्ययन करने की सलाह दी थी।

मांडूक्य उपनिषद का मुख्य विषय ओम् (ओंकार) की व्याख्या है। यह उपनिषद चेतना की चार अवस्थाओं का गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करता है। ओम् इस संपूर्ण दृश्यमान ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है। जो कुछ भूत, वर्तमान और भविष्य में है, वह सब ओम् है, और जो इन तीन कालों से परे है, वह भी ओम् है।

ओम् का स्वरूप और उसके घटक: ओम् एक अविनाशी शब्द है। यह ब्रह्मांड की एक कॉस्मिक वाइब्रेशन (ब्रह्मांडीय कंपन) है, जिसे हम जप के माध्यम से अपने भीतर एक सहानुभूतिपूर्ण कंपन उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं, जिससे हम ब्रह्मांड के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकें। यह 'नाम' और 'रूप' (स्वरूप) दोनों है, और सार्वभौमिक रूप में नाम और स्वरूप एक ही सत्ता में विलीन हो जाते हैं। ईश्वर को किसी विशेष नाम से नहीं पुकारा जा सकता, क्योंकि वह सार्वभौमिक स्वरूप है, इसलिए ओम् ही उसका सार्वभौमिक नाम है।

मांडूक्य उपनिषद ओम् के तीन घटकों (अ, उ, म) और ध्वनिहीन चतुर्थ भाग को आत्मा की चार अवस्थाओं के साथ जोड़ता है:

  • 'अ' (Akāra): यह जाग्रत् अवस्था (जागृत अवस्था) से संबंधित है, जिसे वैश्वानर भी कहा जाता है। इस अवस्था में चेतना बाहरी भौतिक वस्तुओं और अनुभवों पर केंद्रित होती है। ओम् के 'अ' भाग पर ध्यान करने से सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है और व्यक्ति सभी में अग्रणी बन जाता है।

  • 'उ' (Ukāra): यह स्वप्न अवस्था (ड्रीम स्टेट) से संबंधित है, जिसे तैजस भी कहते हैं। इस अवस्था में चेतना आंतरिक, सूक्ष्म वस्तुओं और अनुभवों पर केंद्रित होती है, जैसे सपने और विचार। 'उ' पर ध्यान से ज्ञान में वृद्धि होती है और व्यक्ति समाज में सामंजस्य स्थापित करने वाला बनता है।

  • 'म्' (Makāra): यह सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद) से संबंधित है, जिसे प्राज्ञ भी कहा जाता है। इस अवस्था में सभी अनुभव एक अविभेदित चेतना पुंज में विलीन हो जाते हैं, और यह जागृत व स्वप्न अवस्थाओं का कारण या बीज-अवस्था है। 'म्' पर ध्यान करने से व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है और सभी चीजों का मापक बन जाता है, ईश्वर के समान।

  • अमात्रा / ध्वनिहीन (Soundless): यह तुरीय अवस्था (चौथी अवस्था) से संबंधित है। यह तीनों अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे है और इसे परम सत्य, शांत, शिव (शुभ), अद्वैत के रूप में वर्णित किया गया है। यह अवर्णनीय, अचिंत्य, और अग्राह्य है, और सभी प्रपंच (प्रकट जगत) की समाप्ति है।

ओम् और अद्वैत प्रकरण का संदर्भ: अद्वैत वेदांत दर्शन के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जगत मिथ्या (एक प्रतीति) है। जीव और ब्रह्म अलग नहीं हैं, बल्कि अज्ञान (माया या अविद्या) के कारण ही जीव खुद को ब्रह्म से भिन्न समझता है। गौड़पाद ने अपने मांडूक्य कारिका के 'अद्वैत प्रकरण' में इसी गैर-द्वैतवाद (non-duality) को तार्किक और शास्त्रार्थिक आधार पर स्थापित किया।

तुरीय अवस्था ही वास्तविक आत्मा या ब्रह्म है। यह अवस्था गुणातीत है, यानी ब्रह्म के सगुण (व्यक्तिकृत) और निर्गुण (निराकार) वर्गीकरणों से परे है। तुरीय में, द्वंद्व (भेद) समाप्त हो जाता है, क्योंकि मन का अतिक्रमण हो जाता है। गौड़पाद ने यह तर्क दिया कि द्वंद्व केवल माया (भ्रम) है, और अद्वैत ही परम सत्य है, जिसमें कोई उत्पत्ति नहीं होती, न कोई प्रभाव होता है।

ओम् का ध्वनिहीन चतुर्थ भाग इसी कारण रहित (non-causal) और उत्पत्ति रहित (non-origination) तुरीय का प्रतीक है। यह उस अवस्था को दर्शाता है जहां कोई दूसरा अस्तित्व नहीं है, कोई सृष्टि नहीं है, क्योंकि सब कुछ ब्रह्म में विलीन है। गौड़पाद ने इस अवधारणा को 'अजातिवाद' (non-origination) कहा, जिसमें यह सिद्ध किया गया कि जीव या ब्रह्मांड वास्तव में कभी उत्पन्न नहीं हुए, वे केवल ब्रह्म में एक प्रतीति मात्र हैं।

अंततः, मांडूक्य उपनिषद और ओम् की व्याख्या का उद्देश्य व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाना है। यह ज्ञान, जप और ध्यान के माध्यम से, व्यक्तिगत चेतना को सार्वभौमिक चेतना के साथ एक करने का मार्ग दिखाता है, जिससे सभी दुःख और संसार की आसक्ति समाप्त हो जाती है।

अक्षर (अविनाशी शब्द)

माण्डूक्य उपनिषद् में ओंकार (OM) की विस्तृत व्याख्या की गई है, जिसमें अक्षर (अविनाशी शब्द) के रूप में इसकी गहन महत्ता को दर्शाया गया है। यह उपनिषद्, आकार में सबसे छोटा होने के बावजूद, आध्यात्मिक ज्ञान का सार प्रस्तुत करता है।

ओंकार और अक्षर की व्याख्या:

  • ओंकार अविनाशी पूर्ण ब्रह्म है। इसे 'अक्षर' कहा गया है, जिसका अर्थ है 'अविनाशी' या 'अपरिवर्तनशील'। यह अक्षर स्वयं ओम है।

  • यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् (भूत, वर्तमान और भविष्य) उसी ओंकार का उपाख्यान है। जो कुछ भी तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है।

  • ओंकार को प्रणव भी कहा जाता है, और यह सभी मंत्रों का बीज-मंत्र है। यह एक ब्रह्मांडीय कंपन है, जिसे हम उच्चारण करके बनाते नहीं, बल्कि उसके साथ सहानुभूतिपूर्ण कंपन स्थापित करते हैं।

  • ओम केवल एक ध्वनि या शब्द नहीं है, बल्कि यह नाम और रूप दोनों है। यह ब्रह्मांडीय चेतना का प्रतीक है, जो विभिन्न आवृत्तियों पर कंपन करके विभिन्न प्रकार के पदार्थ बन जाती है।

  • ओम का द्विमुखी स्वभाव है: लौकिक (समयबद्ध) और शाश्वत (कालातीत)।

  • यह अद्वैत दर्शन के मूल में है, जहाँ यह आत्मन् (व्यक्तिगत आत्मा) और ब्रह्मन् (परम वास्तविकता) की पहचान को स्थापित करता है। यह बताता है कि सब कुछ ब्रह्म है, और यह आत्मन् भी ब्रह्म है

ओंकार के चार पहलू और चेतना की अवस्थाएँ: माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिन्हें ओंकार के तीन अक्षरों और उसके ध्वनिरहित चौथे पहलू से जोड़ा गया है।

  1. जाग्रत् अवस्था (वैश्वानर): यह चेतना की बाहरी दुनिया के प्रति जागरूक अवस्था है, और इसे ओंकार के पहले अक्षर 'अ' से जोड़ा गया है। यह 'अ' सभी अक्षरों की शुरुआत है, जैसे जाग्रत् अवस्था अनुभवों की शुरुआत है।

  2. स्वप्न अवस्था (तैजस): यह चेतना की आंतरिक दुनिया (विचार, भावनाएँ, स्वप्न) में सक्रिय अवस्था है, और इसे ओंकार के दूसरे अक्षर 'उ' से जोड़ा गया है। 'उ' अक्षर 'अ' से ऊपर है, और यह जाग्रत् तथा सुषुप्ति के बीच में है, जैसे स्वप्न अवस्था जाग्रत् और सुषुप्ति के बीच है।

  3. सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ): यह गहरी नींद की अवस्था है, जहाँ सभी अनुभव अविभेदित चेतना के एक पुंज में विलीन हो जाते हैं, और इसे ओंकार के तीसरे अक्षर 'म' से जोड़ा गया है। 'म' अक्षर वह है जिसमें 'अ' और 'उ' विलीन हो जाते हैं, जैसे जाग्रत् और स्वप्न के अनुभव सुषुप्ति में विलीन हो जाते हैं। सुषुप्ति को कारण शरीर भी कहा जाता है, जिसमें जाग्रत् और स्वप्न के अनुभव सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित होते हैं।

  4. तुरीय अवस्था (चौथी): यह चेतना की परम, निर्गुण और वर्णनातीत अवस्था है, जो तीनों अवस्थाओं से परे है।

    • यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य है।

    • तुरीय सभी घटनाओं का विराम है।

    • यह शुद्ध चेतना, अनिच्छा और पीड़ा रहित ज्ञान के बराबर है, जिसे सत्-चित्-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।

    • यह अविनाशी, नींद-रहित, स्वप्न-रहित, नाम-रहित और रूप-रहित है.

    • तुरीय को विश्व-रहित (worldless) भी कहा गया है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई भी वस्तुगत घटनाएँ मौजूद नहीं हैं।

    • आदि शंकराचार्य के अनुसार, तुरीय वह है जिसमें सभी घटनाएँ समाप्त हो जाती हैं। यह सभी नामों और नाम-योग्य वस्तुओं का अदृश्य होना है, जो केवल वाणी और मन के रूप हैं। तुरीय वह परम सत्य है जहाँ कुछ भी उत्पन्न नहीं होता

    • गौड़पाद ने तुरीय को सभी दुखों को नष्ट करने में सक्षम बताया है। उनके अनुसार, सुषुप्ति और तुरीय दोनों में द्वैत या वस्तुओं की कोई अनुभूति नहीं होती, लेकिन सुषुप्ति में अज्ञानता का कारण या बीज मौजूद होता है, जो तुरीय में नहीं होता।

    • श्री रमण महर्षि ने तुरीय को आत्मन् का ही दूसरा नाम बताया है, हमारा वास्तविक स्वरूप। उन्होंने कहा कि तुरीय तीनों अनुभवों (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से भिन्न है और इन अवस्थाओं का साक्षी है। जब यह ज्ञात होता है, तो तीनों अनुभवकर्ता और साक्षी होने का विचार भी लुप्त हो जाता है, इसीलिए इसे 'चौथे से परे' (तुरीयातीत) भी कहा जाता है।

    • तुरीय को ओंकार के ध्वनिरहित चौथे पहलू के रूप में देखा जाता है, जो मापों या अक्षरों से रहित है।

संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् ओंकार और अक्षर के माध्यम से यह शिक्षा देता है कि परम वास्तविकता, ब्रह्म/आत्मन्, अविनाशी, निर्गुण और तुरीय है, जो सभी अवस्थाओं और द्वैत से परे है, और यह केवल अनुभव की आंतरिक चेतना है। इस सत्य की प्राप्ति ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

समस्त ब्रह्मांड ओम है

मांडूक्य उपनिषद और वेदांत दर्शन के अनुसार, समस्त ब्रह्मांड ओम है यह ओंकार (OM) की एक केंद्रीय व्याख्या है। यह विचार अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांतों में से एक है, जिसमें ब्रह्म को ही एकमात्र परम सत्य माना गया है, और जगत को मिथ्या या केवल एक आभास कहा गया है।

ओंकार की व्यापक व्याख्याएँ इस प्रकार हैं:

  • ओम - अविनाशी और सर्वव्यापी सत्य: ओम को अविनाशी पूर्ण ब्रह्म माना गया है, और यह दृश्यमान संपूर्ण जगत् उसी का उपाख्यान है। भूत, वर्तमान और भविष्य, और यहाँ तक कि जो कुछ त्रिकाल से परे है, वह भी ओम ही है। यह सर्व-व्यापकता इस सिद्धांत का आधार है कि ब्रह्मांड में सब कुछ ओम है

  • ब्रह्म और आत्मा का प्रतीक ओम: वैदिक विज्ञान में, ओम को उस ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है जो विभिन्न आवृत्तियों पर कंपन करके विभिन्न प्रकार के पदार्थ बन जाती है। यह असीम 'मैं' (आत्मन/ब्रह्म) का ध्वनि प्रतीक है। यह वह चेतना है जो सभी अनुभवों से परे है और उन्हें प्रकाशित करती है। मांडूक्य उपनिषद ओम को "वह जो सभी कालों में, अतीत, वर्तमान और भविष्य में, अतीत से पहले और भविष्य के बाद मौजूद है" के रूप में परिभाषित करता है, साथ ही यह भी कहता है कि "वह जो चेतना की सभी अवस्थाओं में और उससे परे मौजूद है, वह ओम है"।

  • ओम का द्विविध स्वरूप - लौकिक और शाश्वत: ओम का एक लौकिक (टेम्पोरल) स्वरूप है, जिसमें इसके तीन अक्षर अ, उ, म, सृष्टि के विभिन्न रूपों और चेतना की अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही, इसका एक शाश्वत (इटरनल) स्वरूप भी है, जिसे 'अमात्रा' (ध्वनिहीन, अप्रमेय) कहा जाता है, जो केवल शुद्ध अस्तित्व है - सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद)।

  • ओम और चेतना की चार अवस्थाएँ: मांडूक्य उपनिषद चेतना की चार अवस्थाओं का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है, और उन्हें ओम के अक्षरों से जोड़ता है:

    • 'अ' (अकार) - जाग्रत अवस्था (वैश्वानर): 'अ' अक्षर जाग्रत अवस्था (जागरित) से जुड़ा है, जहाँ चेतना बाहरी स्थूल वस्तुओं का अनुभव करती है। ब्रह्मांड के स्तर पर, यह वैश्वानर या विराट पुरुष से मेल खाता है, जो स्थूल ब्रह्मांड को चेतन करता है।

    • 'उ' (उकार) - स्वप्न अवस्था (तैजस): 'उ' अक्षर स्वप्न अवस्था (स्वप्न) से संबंधित है, जहाँ चेतना आंतरिक, सूक्ष्म वस्तुओं का अनुभव करती है। ब्रह्मांड के स्तर पर, यह हिरण्यगर्भ या ब्रह्मांडीय सूक्ष्म चेतना का प्रतिनिधित्व करता है।

    • 'म' (मकार) - सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ): 'म' अक्षर गहरी नींद (सुषुप्ति) से मेल खाता है, जिसमें सभी अनुभव अविभेदित चेतना के समूह में विलीन हो जाते हैं। यह जागृति और स्वप्न अवस्थाओं का प्रवेश द्वार और कारण है। ब्रह्मांड के स्तर पर, यह ईश्वर (कॉस्मिक कारण अवस्था) से मेल खाता है, जो सभी सृष्टि का स्रोत और विलय बिंदु है।

    • ध्वनिहीन ओम - तुरीय अवस्था: ओम की चौथी, ध्वनिहीन अवस्था तुरीय कहलाती है। यह चेतना की वह अवस्था है जो न तो आंतरिक, न बाहरी, न दोनों, न चेतना का पुंज है, न ही सामान्य चेतना या अचेतना। यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य और अव्यपदेश्य है। यह आत्म-साक्षात्कार का सार है, सभी प्रपंचों का अंत, शांत, शुभ और अद्वैत (गैर-द्वैतवादी) है। तुरीय ही आत्मन है और इसे ही प्राप्त किया जाना है। यह शुद्ध ज्ञान की अवस्था है, जो इच्छा और पीड़ा से रहित है, सत्-चित-आनंद के बराबर है। श्री रमण महर्षि के अनुसार, तुरीय आत्मा का ही दूसरा नाम है और यह संसार रहित है, अर्थात इसमें कोई वस्तुनिष्ठ घटना नहीं होती।

  • ध्यान और आत्म-साक्षात्कार में ओम का महत्व: मांडूक्य उपनिषद ओम के अर्थ का प्रतिपादन करता है, जिसका उद्देश्य मन को ध्यान में प्रशिक्षित करना है, ताकि व्यक्तिगत आत्मा को परम वास्तविकता के साथ जोड़ा जा सके और स्वतंत्रता प्राप्त की जा सके। ओम का जप करना एक सार्वभौमिक भाषा बोलने जैसा है, जो सभी भाषाओं को समाहित करता है और संपूर्ण मुख गुहा को कंपन कराता है। ओम का जप, जब सही ढंग से किया जाता है, तो जप और ध्यान का संयोजन बन जाता है, जहाँ नाम (ओम) और रूप (ब्रह्मांड) एक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों सार्वभौमिक हैं और दो सार्वभौमिक चीजें अलग-अलग नहीं हो सकतीं। यह ब्रह्मांड को स्वयं में समाहित करने जैसा है, जिससे सांसारिक अशांतियाँ समाप्त हो जाती हैं। ओम के इस रहस्य को जानने वाला व्यक्ति अपने आप को आत्मा में विलीन कर देता है। यह आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर-साक्षात्कार एक साथ है।

इस प्रकार, समस्त ब्रह्मांड ओम है, यह शिक्षण दर्शाता है कि संपूर्ण सृष्टि, उसकी सभी अवस्थाओं (जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति) और उनके सूक्ष्म तथा स्थूल अभिव्यक्तियों के साथ, अंततः एक ही परम, ध्वनिहीन, अद्वैत चेतना, यानी तुरीय से अविभिन्न है।

भूत, भविष्य, वर्तमान से परे भी ओम है

माण्डूक्य उपनिषद् में ओंकार (ॐ) की व्याख्या केंद्रीय विषय है, जिसमें इसे समय की सीमाओं से परे परम सत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह उपनिषद्, आकार में सबसे छोटा होने के बावजूद, वेदांत के संपूर्ण ज्ञान को संक्षिप्त रूप में समाहित करता है।

ओंकार (ॐ) की व्याख्या के बड़े संदर्भ में, यह समझना महत्वपूर्ण है कि भूत, भविष्य और वर्तमान से परे भी ॐ है। इसका विस्तृत विवरण इस प्रकार है:

  • सर्वव्यापी एवं अनादि स्वरूप:

    • माण्डूक्य उपनिषद् के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि अविनाशी शब्द ॐ ही यह संपूर्ण दृश्यमान ब्रह्मांड है। जो कुछ भूत (अतीत) में था, जो वर्तमान में है, और जो भविष्य में होगा – ये सभी ॐ ही हैं। इसके अतिरिक्त, जो कुछ इन तीनों कालों से परे है, वह भी ॐ ही है। यह दर्शाता है कि ॐ न केवल समस्त काल को समाहित करता है, बल्कि स्वयं काल की अवधारणा से भी परे है।

    • ॐ को सृष्टि का बीज-मंत्र (मूल ध्वनि) माना जाता है, जो सृष्टि के आरंभ में पहली कंपन ध्वनि के रूप में उत्पन्न हुई। यह ब्रह्मांडीय कंपन है जो अपने आप में विद्यमान है, जिसे हम जप करके अपने और उस कंपन के बीच संबंध स्थापित करते हैं।

  • ब्रह्म और आत्मा से अभिन्नता:

    • उपनिषद् स्पष्ट रूप से घोषित करता है कि यह सब कुछ, वास्तव में, ब्रह्म है, और यह आत्मा ही ब्रह्म है। ॐ को असीम 'मैं' (limitless I) का प्रतीक माना गया है, और इस प्रकार, यह ब्रह्मांड को आत्मा के साथ अभिन्न मानता है।

    • जिस तरह एक ही आकाश घड़ों में सीमित होकर घट-आकाश लगता है, उसी तरह एक ही आत्मा (ब्रह्म) विभिन्न जीवों के रूप में प्रतीत होती है। जन्म और मृत्यु जीवों के लिए केवल आभासी हैं; आत्मा स्वयं न तो पैदा होती है और न ही मरती है।

  • ॐ के तीन पाद और तुरीय अवस्था:

    • ॐ को तीन अक्षरों (मात्राओं) 'अ', 'उ', 'म्' में विभाजित किया गया है, जो चेतना की तीन अवस्थाओं से संबंधित हैं:

      • 'अ' (अकार): जाग्रत अवस्था (जागरित) से संबंधित है, जिसे वैश्वानर भी कहते हैं। यह बाहरी स्थूल वस्तुओं का अनुभव करता है।

      • 'उ' (उकार): स्वप्न अवस्था (स्वप्न) से संबंधित है, जिसे तैजस भी कहते हैं। यह आंतरिक सूक्ष्म वस्तुओं का अनुभव करता है।

      • 'म्' (मकार): सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद) से संबंधित है, जिसे प्राज्ञ भी कहते हैं। यह वह अवस्था है जहाँ सभी अनुभव एक अविभेदित चेतना में विलीन हो जाते हैं, और यह जाग्रत तथा स्वप्न अवस्थाओं का कारण या बीज है।

    • इन तीनों मात्राओं और अवस्थाओं से परे, ॐ की एक चौथी, शब्दरहित (अमात्रा) अवस्था है, जिसे 'तुरीय' कहा जाता है। तुरीय को चेतना की अंतिम, अवर्णनीय, गैर-अनुभवजन्य अवस्था माना जाता है। यह वह अवस्था है जो ब्रह्म के सगुण (व्यक्त) और निर्गुण (अव्यक्त) दोनों वर्गीकरणों से परे है।

    • तुरीय न तो आंतरिक, न बाहरी, और न ही दोनों का संयोजन है। यह चेतना का पिंड नहीं है, न सामान्य चेतना है और न ही अचेतना। यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य और अव्यपदेश्य (अवर्णनीय) है। यह आत्मन की एकरूपता की अनुभूति का सार है, यह प्रपंच का उपशम (प्रकट जगत का विराम) है, शांत, शिव (शुभ), और अद्वैत (गैर-द्वैत) है। तुरीय अवस्था में, आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं, और यह मोक्ष की स्थिति है

  • द्वैत की मिथ्यात्व:

    • अद्वैत मत के अनुसार, जगत् (विश्व) मिथ्या (असत्य) है। जिस प्रकार स्वप्न की दुनिया असत्य होती है, या अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना भ्रम है, उसी प्रकार अविद्या (अज्ञान) के कारण जीव इस मिथ्या संसार को सत्य मानता है।

    • द्वैत (भेद) ही संसार (दुःख का कारण) है। गौड़पाद ने तर्क दिया कि द्वैत है ही नहीं; मन जाग्रत या स्वप्न अवस्था में माया में भटकता है। परम सत्य केवल अद्वैत है, जो अज्ञान के कारण छिपा हुआ है। समस्त दृश्यमान विविधता केवल माया द्वारा आत्मन पर प्रक्षेपित एक भ्रम है।

इस प्रकार, ओंकार (ॐ) की व्याख्या केवल एक ध्वनि या प्रतीक से कहीं अधिक है; यह समय, रूप और भेद की सीमाओं को पार करने वाली परम वास्तविकता – ब्रह्म और आत्मन – की एक व्यापक अभिव्यक्ति है। यह सिखाता है कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है या परिवर्तित होता है, वह अंततः वास्तविक नहीं है; केवल वह जो शाश्वत और अपरिवर्तनीय है, वही परम सत्य है।

मात्राओं से संबंध

मांडूक्य उपनिषद में ओंकार (OM) की व्याख्या केंद्रीय विषय है, जिसमें इसकी मात्राओं (अ, उ, म्) के संबंध को चेतना की विभिन्न अवस्थाओं और परम सत्य को समझने के लिए एक गूढ़ विश्लेषण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

ओंकार (OM) की व्याख्या: ओंकार एक अविनाशी शब्द है जो इस दृश्यमान संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें भूत, वर्तमान और भविष्य, सभी समाहित हैं, और जो कुछ भी इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है। यह ब्रह्म का प्रतीक है और सभी ध्वनियों, भाषाओं, नामों और रूपों को समाहित करता है। ओंकार को एक ब्रह्मांडीय कंपन माना जाता है, जो सृष्टि की शुरुआत में सर्वोच्च सत्ता से उत्पन्न हुआ था। यह 'नाम' (designator) और 'रूप' (designated) दोनों है, और परम अनुभव में, ये दोनों एक सत्ता में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि दो सार्वभौमिक चीजें अलग-अलग नहीं हो सकतीं।

मात्राओं से संबंध: मांडूक्य उपनिषद आत्मा या चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन करती है, और इन चार अवस्थाओं को ओंकार की मात्राओं से जोड़ा गया है: अ (A), उ (U), म् (M), और अमात्र (ध्वनिहीन भाग)। ये मात्राएँ और संबंधित अवस्थाएँ इस प्रकार हैं:

  1. अकार (A) - जाग्रत् अवस्था (वैश्वानर/विश्व):

    • यह ओंकार की पहली मात्रा है।

    • जाग्रत् अवस्था में चेतना बाह्य भौतिक वस्तुओं के प्रति जागरूक होती है।

    • इस अवस्था को व्यक्तिगत स्तर पर विश्व और ब्रह्मांडीय स्तर पर वैश्वानर (या विराट) कहा जाता है। वैश्वानर को सात अंग वाला और उन्नीस मुख वाला बताया गया है, जो स्थूल वस्तुओं का उपभोग करता है।

    • 'अ' सभी अक्षरों की शुरुआत है, जैसे जाग्रत् अवस्था अन्य सभी अनुभवों की शुरुआत है।

    • इस सामंजस्य पर ध्यान करने से सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं और व्यक्ति सभी लोगों में अग्रणी बनता है।

  2. उकार (U) - स्वप्न अवस्था (तैजस):

    • यह ओंकार की दूसरी मात्रा है।

    • स्वप्न अवस्था में चेतना आंतरिक सूक्ष्म वस्तुओं को अनुभव करती है।

    • इस अवस्था को तैजस कहा जाता है।

    • 'उ' को 'अ' से ऊपर उठा हुआ और 'अ' और 'म्' के बीच मध्य में स्थित माना जाता है, जैसे स्वप्न अवस्था जाग्रत् और सुषुप्ति के बीच है।

    • इस पर ध्यान करने से ज्ञान में वृद्धि होती है और व्यक्ति समाज में एक समकारी और सामंजस्य स्थापित करने वाला कारक बन जाता है।

  3. मकार (M) - सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ):

    • यह ओंकार की तीसरी मात्रा है।

    • सुषुप्ति अवस्था गहरी नींद की है, जहाँ सभी अनुभव और भेद अनभिव्यक्त या बीज अवस्था में विलीन हो जाते हैं।

    • इस अवस्था को प्राज्ञ कहा जाता है। यह जाग्रत् और स्वप्न दोनों अवस्थाओं का कारण मानी जाती है, क्योंकि सभी अव्यक्त इच्छाएँ इसमें निहित होती हैं।

    • 'म्' सभी ध्वनियों का अंत है, जिसमें 'अ' और 'उ' विलीन हो जाते हैं, जैसे गहरी नींद में सभी अनुभव विलीन हो जाते हैं।

    • इस पर ध्यान करने से व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है और ईश्वर के समान सब कुछ मापने या जानने की क्षमता प्राप्त करता है।

  4. अमात्र (ध्वनिहीन) - तुरीय अवस्था:

    • यह ओंकार का चौथा, ध्वनिहीन और अतुलनीय भाग है, जो 'अ', 'उ', 'म्' से परे है।

    • तुरीय सभी सापेक्षिक अभिव्यक्तियों (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे है।

    • इसे न तो अंदर की ओर सचेत, न बाहर की ओर सचेत, न ही दोनों का एक साथ सचेत, न चेतना का ढेर, न साधारण चेतना, और न ही अचेतना कहा जा सकता है।

    • यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्ष्य, अचिंत्य और अव्यपदेश्य है।

    • तुरीय आत्मन (स्वयं) है, जो सभी घटनाओं की समाप्ति, शांत, शुभ और अद्वैत (गैर-द्वैत) है।

    • यह इच्छा और पीड़ा रहित ज्ञान की शुद्ध अवस्था के बराबर है, जिसे सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।

    • तुरीय को विश्वहीन (worldless) भी कहा गया है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई उद्देश्य घटनाएँ मौजूद नहीं हैं।

    • इस अवस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और जानने की क्रिया का कोई भेद नहीं होता है।

    • मांडूक्य उपनिषद के अनुसार, यह तुरीय ही आत्मन है और इसे ही जानना है। जो इसे जानता है वह स्वयं को आत्मन में विलीन कर लेता है।

निष्कर्षतः, मांडूक्य उपनिषद ओंकार की मात्राओं का उपयोग चेतना के व्यक्तिगत अनुभवों (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) से लेकर परम, गैर-द्वैत सत्य (तुरीय) तक की यात्रा को दर्शाने के लिए करता है। यह एक प्रत्यक्ष मार्ग है जो साधक को यह समझने में मदद करता है कि व्यक्तिगत आत्मा (जीव) ब्रह्म से भिन्न नहीं है, और अंततः दुखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए इस अद्वैत सत्य को महसूस करना है।

अ (A) - जाग्रत (वैश्वानर)

मांडुक्य उपनिषद, अपने संक्षिप्त रूप के बावजूद, हिंदू दर्शन, विशेषकर अद्वैत वेदांत में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह उपनिषद मुख्य रूप से रहस्यवादी शब्दांश 'ओम्' की व्याख्या करता है, जिसका उद्देश्य मन को ध्यान में प्रशिक्षित करना और अंततः व्यक्तिगत आत्मा को परम वास्तविकता के साथ जोड़कर मुक्ति प्राप्त करना है।

मांडुक्य उपनिषद मानव चेतना की चार अवस्थाओं का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिन्हें आत्मा के चार 'पाद' या पहलू कहा जाता है: जाग्रत (जागृति), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरीय (चौथी अवस्था)। ये अवस्थाएँ ओम् के विभिन्न अक्षरों (मात्राओं) से संबंधित हैं।

अ (A) - जाग्रत (वैश्वानर) का मात्राओं से संबंध:

  • ओम् का प्रथम अक्षर 'अ' (A): ओम् अक्षर 'अ', 'उ', 'म' और एक निराकार, निःशब्द चौथी अवस्था से बना है। उपनिषद में 'अ' को वाणी का आरंभिक बिंदु और वाणी में व्याप्त माना गया है।

  • जाग्रत अवस्था से संबंध: 'अ' अक्षर जाग्रत अवस्था से जुड़ा हुआ है। जाग्रत अवस्था में व्यक्ति स्थूल, बाहरी वस्तुओं और अपने भौतिक शरीर के प्रति जागरूक रहता है। यह हमारे दैनिक जीवन का सामान्य अनुभव है, जहाँ हम इंद्रियों के माध्यम से बाहरी दुनिया के साथ बातचीत करते हैं।

  • वैश्वानर के रूप में आत्मा: जाग्रत अवस्था में आत्मा को 'वैश्वानर' कहा जाता है।

    • वैश्वानर का स्वरूप: वैश्वानर वह चेतना है जो जाग्रत अवस्था में सकल या स्थूल वस्तुओं का अनुभव करती है। इसे 'स्थूलभुक्' (स्थूल पदार्थों का उपभोक्ता) भी कहा जाता है।

    • वैश्वानर के सात अंग और उन्नीस मुख: जाग्रत चेतना को सप्तांग (सात अंगों वाला) और एकोनविंशतिमुख (उन्नीस मुखों वाला) वर्णित किया गया है।

      • सात अंग विराट पुरुष (समष्टिगत आत्मा) के कॉस्मिक शरीर के अंगों का संदर्भ देते हैं, जैसे सिर के लिए स्वर्ग, आँखों के लिए सूर्य और चंद्रमा, श्वास के लिए वायु, मध्य शरीर के लिए अंतरिक्ष, मूत्राशय के लिए जल, और पैरों के लिए पृथ्वी।

      • उन्नीस मुख व्यक्तिगत चेतना के कार्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनके माध्यम से यह बाहरी दुनिया से अनुभव प्राप्त करती है। इनमें पांच ज्ञानेंद्रियां (कान, त्वचा, आँखें, जीभ, नाक), पांच कर्मेंद्रियां (वाणी, हाथ, पैर, उत्सर्जन अंग), पांच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), और चार अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त या अवचेतन मन) शामिल हैं।

    • जाग्रत चेतना के दो पहलू: मांडुक्य उपनिषद जाग्रत जीवन को दो दृष्टिकोणों से देखता है: सूक्ष्म (व्यक्तिगत) स्तर पर 'विश्व' (Viśva) और स्थूल (ब्रह्मांडीय) स्तर पर 'वैश्वानर' या 'विराट' (Virāt)। विश्व अपनी बाहरी जागरूकता में वस्तुओं से संबंधित है, जबकि वैश्वानर 'अहम्-अस्मि' (मैं हूँ) की सार्वभौमिक अभिपुष्टि का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें कोई विरोधी बाहरी वस्तु नहीं होती।

मात्राओं से संबंध का वृहद संदर्भ:

ओम् के अक्षरों और चेतना की अवस्थाओं के बीच यह तुलना ध्यान में सहायता करने के लिए है। जिस प्रकार ओम् के उच्चारण में 'अ', 'उ' और 'म' एक-दूसरे में विलीन होते हैं और फिर से प्रकट होते हैं, उसी प्रकार चेतना की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएँ भी एक-दूसरे से संबंधित हैं और अंततः तुरीय में विलीन हो जाती हैं।

  • ध्यान का आधार: यह 'वैश्वानर विद्या' नामक ध्यान का आधार है, जिसमें व्यक्ति ब्रह्मांड को अपने शरीर के रूप में देखता है और अपनी चेतना को सार्वभौमिक सत्ता में स्थानांतरित करता है। जब मन किसी वस्तु को ब्रह्मांडीय शरीर के हिस्से के रूप में पहचानता है, तो वह वस्तु मन को उत्तेजित करना बंद कर देती है, क्योंकि वह अब बाहरी नहीं, बल्कि स्वयं का हिस्सा बन जाती है।

  • गैर-द्वैत की ओर बढ़ना: अद्वैत वेदांत के अनुसार, यह सम्पूर्ण जगत्, जो हमें विविधतापूर्ण प्रतीत होता है, माया के कारण केवल एक भ्रम या दिखावा है। जाग्रत अवस्था का अनुभव, स्वप्न अवस्था की तरह ही, चेतना का एक प्रकटीकरण है। वेदांत तर्क देता है कि जिस प्रकार स्वप्न की दुनिया हमारे मन में उत्पन्न होती है और जागने पर अवास्तविक सिद्ध होती है, उसी प्रकार जाग्रत दुनिया भी केवल एक उपस्थिति है जो चेतना में प्रकट होती है।

  • परम सत्य के रूप में तुरीय: मांडुक्य उपनिषद का अंतिम लक्ष्य तुरीय अवस्था को जानना है, जो चेतना की तीनों अवस्थाओं से परे है और जो अनिर्वचनीय, गैर-द्वैत, आनंदमय और शांतिपूर्ण है। इस अवस्था में आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं, और यही मोक्ष है।

इस प्रकार, 'अ' मात्रा और वैश्वानर के माध्यम से जाग्रत अवस्था का विश्लेषण, ओम् के समग्र दर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो साधक को आत्म-ज्ञान और अद्वैत की परम सत्यता की ओर ले जाता है।

उ (U) - स्वप्न (तैजस)

माण्डूक्य उपनिषद्, आकार में छोटा होते हुए भी, भारतीय दर्शन और विशेष रूप से अद्वैत वेदान्त में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह चेतना की चार अवस्थाओं – जाग्रत् (जागृत), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद) और तुरीय (चौथी या अनुभवातीत अवस्था) – का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। ये अवस्थाएँ रहस्यमय ओम् अक्षर (अ, उ, म्) की तीन मात्राओं और उसकी ध्वनि रहित चौथी अवस्था से संबद्ध हैं।

उ (U) - स्वप्न (तैजस)

ओम् की दूसरी मात्रा, उ (Ukāra), सीधे स्वप्न (dream) अवस्था से जुड़ी है, और इस अवस्था में चेतना को तैजस (Taijasa) कहा जाता है।

  • तैजस (स्वप्न अवस्था) की विशेषताएँ:

    • आंतरिक चेतना: तैजस को आंतरिक चेतना के रूप में वर्णित किया गया है। इसका अनुभव क्षेत्र स्वप्न अवस्था है, जहाँ यह आंतरिक वस्तुओं की दुनिया के प्रति सचेत होता है।

    • सूक्ष्म वस्तुओं का अनुभवकर्ता: स्वप्न अवस्था में, आत्मा सूक्ष्म वस्तुओं को प्रकाशित करती है, जो पिछली अनुभवों (वासनाओं) की छापें होती हैं, जो चित्रात्मक रूप में व्यक्त होती हैं। तैजस को "सूक्ष्म वस्तुओं का उपभोक्ता" (प्रविविक्तभुक्) माना जाता है।

    • अनुभव के साधन: जाग्रत अवस्था के समान, स्वप्नदर्शी (तैजस) भी अपने स्वप्न जीवन का अनुभव करने के लिए इंद्रियों, मन, बुद्धि और अहंकार से सुसज्जित होता है। इसके "सात अंग और उन्नीस मुख" हैं, जो इसकी संरचनात्मक बनावट को दर्शाते हैं, भले ही यह सूक्ष्म वस्तुओं पर कार्य करता हो।

    • "प्रकाशमय": तैजस को "प्रकाशमय" (shining one) कहा जाता है क्योंकि स्वप्न प्रकाश में दिखाई देते हैं, जिसका अर्थ है कि आत्मा (चेतना) स्वप्नदर्शी के माध्यम से चमकती है, जैसे वह जाग्रत अवस्था में चमकती है।

    • जाग्रत और सुषुप्ति के बीच: स्वप्न अवस्था को जाग्रत अनुभव का एक परिणाम माना जाता है, जो इससे उत्पन्न होती है और जाग्रत व सुषुप्ति के बीच मध्य में स्थित होती है। यद्यपि स्वप्न-संसार जाग्रत दृष्टिकोण से अवास्तविक लग सकता है, स्वप्न अवस्था में यह वास्तविक महसूस होता है।

  • उकार (U) के साथ पत्राचार:

    • उत्कर्ष (ऊँचाई) और मध्य स्थिति: उकार को "उत्कर्ष" (elevated) माना जाता है क्योंकि यह अकार के बाद आता है और स्वर-गठन के मध्य में स्थित होता है, प्रतीकात्मक रूप से जाग्रत (अकार) और सुषुप्ति (मकार) के बीच की अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। यह "मध्य" स्थिति यह भी दर्शाती है कि इसमें पिछली और अगली दोनों अवस्थाओं के गुण शामिल हैं।

    • प्रतीकात्मक तुलना: उकार और तैजस के बीच की तुलनाएँ प्रतीकात्मक हैं, जिनका उद्देश्य ओंकार की एकता के साथ आत्मा की सभी नामों और रूपों की एकता पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करना है।

  • ध्यान का आध्यात्मिक महत्व और लाभ:

    • ज्ञान में वृद्धि: उकार और तैजस अवस्था के सामंजस्य पर ध्यान करने से ध्यानी "ज्ञान की स्थिति में ऊपर उठता है" (ज्ञान-संतति)। यह ज्ञान सामान्य जानकारी से परे होता है।

    • समानता और शांति: ऐसा ध्यान जाग्रत और सुषुप्ति अवस्थाओं के संबंध में "समान प्रभाव" (equalizing effect) उत्पन्न करता है, जिससे मन में संघर्ष समाप्त होता है और बाहरी रूप से शांति स्थापित होती है। ध्यानी एक सहज शांतिदूत बन जाता है जिसका अस्तित्व ही शांति का विकिरण करता है।

    • शुद्धिकरण और ज्ञान-संतान का जन्म: यह ध्यान इतना शुद्धिकारक होता है कि इसका प्रभाव ध्यानी के परिवार तक फैलता है, यह सुनिश्चित करता है कि उसके परिवार में केवल ब्रह्म को जानने वाले (ब्रह्मवित्) ही पैदा हों। ध्यानी "स्वयं ज्ञान" बन जाता है, अपने भौतिक शरीर को "ज्ञान के शरीर" में परिवर्तित कर देता है।

  • व्यापक अद्वैत संदर्भ:

    • अद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक गौड़पाद और शंकराचार्य जोर देते हैं कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या या माया हैं। मन स्वयं इस द्वैत का प्रक्षेपण करता है; जब मन को पार कर लिया जाता है, तो द्वैत का अनुभव नहीं होता।

    • आत्मा (आत्मन/ब्रह्मन्) इन सभी अवस्थाओं का साक्षी है, लेकिन इनसे भिन्न है, क्योंकि यह अद्वैत, अजात (अनुत्पन्न) परम सत्य है।

    • माण्डूक्य का विश्लेषण यह दिखाने का लक्ष्य रखता है कि जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में perceived वास्तविकताएँ केवल कारण-स्वरूप (गहरी नींद अवस्था) की अभिव्यक्तियाँ हैं, और वास्तविकता तथा मिथ्यात्व के बीच का अंतर शुद्ध चेतना, अस्तित्व के वास्तविक "मंच" में विलीन हो जाता है।

म (M) - सुषुप्ति (प्राज्ञ)

माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं और mystical syllable (ओम्) की व्याख्या करता है। के तीन अक्षरों — (अकार), (उकार), और (मकार) — को चेतना की तीन अवस्थाओं से जोड़ा गया है: जाग्रत्, स्वप्न, और सुषुप्ति।

आपके प्रश्न के अनुसार, 'म' (मकार) सुषुप्ति अवस्था और प्राज्ञ से संबंधित है

यहाँ इस संबंध और इसके व्यापक अर्थों का विस्तृत विवरण दिया गया है:

  • सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद):

    • सुषुप्ति (गहरी नींद) वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति को कोई बाहरी या आंतरिक वस्तु दिखाई नहीं देती है, और सभी अनुभव एक अविभाजित चेतना के पुंज में विलीन हो जाते हैं। यह एक शांत, जड़ अवस्था है, जिसमें तमोगुण (तमास) की प्रधानता होती है और ज्ञान की पूर्ण अनुपस्थिति होती है।

    • इस अवस्था में चेतना को प्राज्ञ कहा जाता है। प्राज्ञ को 'ज्ञान का पुंज' (mass of consciousness) या 'आनंद का अनुभवकर्ता' (Anandabhuk) के रूप में वर्णित किया गया है। यद्यपि प्राज्ञ सब कुछ जानता है, लेकिन वह अनुभवहीन रहता है।

    • सुषुप्ति अवस्था को कार्य-अवस्था का कारण माना जाता है, जिसमें जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाएँ प्रभावों के रूप में होती हैं। इसे 'बीज अवस्था' (seed state) भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें पिछली अनुभवों की वासनाएँ (latent desires or impressions) सुप्त रूप में रहती हैं। ये वासनाएँ ही जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं के पुनः प्रकट होने का कारण बनती हैं, जिससे गहरे नींद को जाग्रत् का कारण कहा जा सकता है।

    • प्राज्ञ का ब्रह्मांडीय प्रतिरूप ईश्वर है। ईश्वर वह कारण (causal state) है जिससे हिरण्यगर्भ (सूक्ष्म ब्रह्मांड) और विराट (भौतिक ब्रह्मांड) उत्पन्न होते हैं, और जिसमें सब कुछ विलीन हो जाता है।

  • 'म' (मकार) का सुषुप्ति और प्राज्ञ से संबंध:

    • (ओम्) के अंतिम अक्षर मकार को सुषुप्ति और प्राज्ञ से संबंधित किया गया है।

    • इसका अर्थ यह है कि अकार और उकार (जो जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं) मकार में विलीन हो जाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे जाग्रत् और स्वप्न के अनुभव गहरी नींद में विलीन हो जाते हैं।

    • मकार को सभी चीजों का माप (measure) और विलय करने वाला (dissolver) भी कहा गया है। यह ब्रह्मांड की उत्पत्ति और लय का कारण है।

  • अद्वैत वेदांत में महत्व:

    • यह संबंध अद्वैत वेदांत के केंद्रीय सिद्धांतों में से एक है। यह दर्शाता है कि चेतना की निम्नतर अवस्थाएँ (जाग्रत् और स्वप्न) गहरी नींद में विलीन हो जाती हैं। गहरी नींद में मन अक्रियाशील हो जाता है, जिससे द्वैत (द्वैतता) का अनुभव नहीं होता।

    • हालांकि, सुषुप्ति अवस्था में द्वैत का बीज मौजूद रहता है, भले ही उस समय द्वैत का अनुभव न हो। यह द्वैत का बीज (वासनाएँ) ही इस अवस्था को तुरीय से अलग करता है।

    • गौडपाद के अजातिवाद (non-origination) के अनुसार, वास्तविक सत्ता से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है, और जो कुछ भी उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है, वह माया (ignorance or illusion) के कारण केवल एक प्रकट या भ्रम है। मन ही द्वैत का निर्माण करता है।

    • जबकि गहरी नींद अस्थायी रूप से मन और द्वैत की समाप्ति है, तुरीय अवस्था इन तीनों अवस्थाओं (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे है। तुरीय पूर्ण रूप से अद्वैत है और माया के किसी भी प्रभाव से मुक्त है।

    • ज्ञान के माध्यम से मन का पूर्ण विलय (मनोनाश) आवश्यक है, जिससे संसार की वास्तविकता का अनुभव एक बार और हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है

    • अद्वैत वेदांत के अनुसार, केवल ब्रह्म ही सत्य है, और यह संसार मिथ्या (झूठा) हैरामना महर्षि और शंकराचार्य ने भी इस सिद्धांत की पुष्टि की है

    • मकार और प्राज्ञ पर ध्यान करने से व्यक्ति को ईश्वर के समान सर्वज्ञ (सर्वज्ञत्व) और सभी चीजों का स्वामी (सर्वेश्वरत्व) बनने की शक्ति मिलती है। यह योगियों को सभी चीजों पर महारत हासिल करने में मदद करता है।

इस प्रकार, 'म' (मकार) सुषुप्ति और प्राज्ञ के साथ-साथ चेतना की गहनतम, बीज अवस्था और ब्रह्मांड के मूल कारण को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो अंततः अद्वैत ब्रह्म की ओर ले जाता है।

अमात्रा - तुरीय (निःशब्द)

माण्डूक्य उपनिषद् भारतीय दर्शन, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत, का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो आत्मा (आत्मन्) की परम प्रकृति और चेतना की विभिन्न अवस्थाओं को ओम् (प्रणव) से जोड़कर व्याख्यायित करता है। यह उपनिषद् आकार में सबसे छोटा होते हुए भी, समस्त उपनिषदीय ज्ञान का सार माना जाता है।

माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन करता है, और इन चारों को ओम् के विभिन्न भागों से जोड़ता है:

  1. जाग्रत् (जागृत अवस्था): यह स्थूल वस्तुओं और बाह्य अनुभवों की अवस्था है। इसे व्यक्ति के संदर्भ में 'विश्‍व' और ब्रह्मांडीय संदर्भ में 'वैश्वानर' कहा जाता है। यह ओम् के प्रथम अक्षर 'अ' (अकार) से संबद्ध है, क्योंकि 'अ' सभी ध्वनियों का मूल और सबसे व्यापक है।

  2. स्वप्न (स्वप्नावस्था): यह सूक्ष्म वस्तुओं और आंतरिक अनुभवों की अवस्था है। इसे व्यक्ति के संदर्भ में 'तैजस' और ब्रह्मांडीय संदर्भ में 'हिरण्यगर्भ' कहा जाता है। यह ओम् के द्वितीय अक्षर 'उ' (उकार) से संबद्ध है, जिसे 'अ' से ऊपर और 'म' के मध्य में स्थित माना जाता है।

  3. सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था): यह वह अवस्था है जहाँ चेतना घनीभूत होती है, कोई सपना या बाहरी/आंतरिक जागरूकता नहीं होती, लेकिन चेतना विद्यमान रहती है। इसे व्यक्ति के संदर्भ में 'प्राज्ञ' और ब्रह्मांडीय संदर्भ में 'ईश्वर' कहा जाता है। इसे जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं का कारण या बीज अवस्था माना जाता है, जहाँ सभी वासनाएँ (संस्कार) अव्यक्त रूप में रहती हैं। यह ओम् के तृतीय अक्षर 'म्' (मकार) से संबद्ध है, जिसमें 'अ' और 'उ' का विलय होता है, ठीक वैसे ही जैसे जाग्रत् और स्वप्न की अनुभूतियाँ सुषुप्ति में विलीन हो जाती हैं।

अमात्रा - तुरीय (निःशब्द) - मात्राओं से संबंध:

तुरीय (निःशब्द) वह चतुर्थ और अंतिम अवस्था है, जो इन तीनों से परे है। यह ओम् का निःशब्द या अमात्रा भाग है। ओम् के अक्षर 'अ', 'उ', 'म्' प्रकट अस्तित्व की ध्वनि और कंपन का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि तुरीय उन सबसे परे की अवाच्य, निरपेक्ष वास्तविकता है।

तुरीय की मुख्य विशेषताएँ और मात्राओं से उसका संबंध इस प्रकार है:

  • अवाचनीय स्वरूप (निःशब्द/अमात्रा): तुरीय को निःशब्द (soundless), अवाचनीय (unutterable), अव्यपदेश्य (indescribable) कहा गया है। यह ओम् के उन तीन अक्षरों से परे है जो चेतना की तीन अवस्थाओं को दर्शाते हैं। यह इंगित करता है कि तुरीय किसी भी शब्द, विचार या अवधारणा द्वारा पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह वाणी और मन की सीमाओं से परे है। जिस प्रकार ओम् ध्वनि का अंत एक गूढ़ मौन में होता है, तुरीय वही मौन है—एक परम, निरपेक्ष मौन, जो केवल ध्वनि की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि वह स्वयं आत्मा/चेतना है, जो ध्वनि और सापेक्ष मौन दोनों को प्रकाशित करती है।

  • अद्वितीय और निर्गुण (Non-dual and Attributeless): तुरीय अद्वैत (non-dual) है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई द्वैत या भेद नहीं है — न समय, न स्थान, न व्यक्ति, न वस्तुएँ। यह ब्रह्म का निर्गुण (attributeless) स्वरूप है, जहाँ सभी भेद मिट जाते हैं। यह उन सभी गुणों से परे है जिनसे ब्रह्म को सगुण (सगुण ब्रह्म) के रूप में वर्णित किया जाता है।

  • प्रपंचोपशमम् (Cessation of Phenomena): तुरीय को 'समस्त प्रपंच का उपशमन' (cessation of all phenomena) कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि तुरीय 'विश्वहीन' (worldless) है, जिसमें कोई भी वस्तुगत घटनाएँ या अभिव्यक्तियाँ उपस्थित नहीं होती हैं। गौड़पाद के अनुसार, जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं में अनुभव किया गया सारा द्वैत मन की कल्पना है, और मन को पार करने पर द्वैत का अनुभव नहीं होता।

  • कारण और कार्य से परे (Beyond Cause and Effect): तुरीय न तो कोई कारण है और न ही कोई कार्य है। यदि यह किसी चीज़ का कारण होता, तो द्वैत उत्पन्न होता। गौड़पाद का अजातिवाद (non-origination) यह स्थापित करता है कि वास्तव में तुरीय से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है; जगत और जीव केवल प्रकट (appearance) होते हैं, वे वास्तविक नहीं हैं।

  • स्वयं आत्मा (The Self Itself): तुरीय को स्वयं आत्मा और शुद्ध चेतना के रूप में पहचाना जाता है। यह कोई अस्थायी अवस्था नहीं है, बल्कि चेतना का शुद्ध, शाश्वत स्वरूप है, जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति जैसी सभी अवस्थाओं का साक्षी है। रामण महर्षि के अनुसार, तुरीय 'स्वयं' का ही दूसरा नाम है, और यह 'चौथी अवस्था' केवल जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति के अनुभवों से 'स्वयं' को अलग करने के लिए एक संज्ञा है; जब 'स्वयं' का ज्ञान हो जाता है, तो यह 'चौथा' होने का विचार भी विलीन हो जाता है, और इसे 'तुरीयातीत' (चौथी से भी परे) कहा जाता है।

सारांश में, ओम् की मात्राएँ (अ, उ, म) चेतना की तीन सापेक्ष अवस्थाओं और प्रकट जगत का प्रतीक हैं, जबकि अमात्रा या निःशब्द तुरीय परम, अद्वैत, अप्रकट और अपरिवर्तनीय सत्य है। यह वह मौन चेतना है जो सभी अनुभवों का मूल है, लेकिन स्वयं किसी भी अनुभव या विशेषता से बंधी नहीं है।

सभी ध्वनियों और शब्दों का आधार

सभी ध्वनियों और शब्दों का आधार, ओंकार (OM) की अवधारणा के व्यापक संदर्भ में, भारतीय दर्शन में एक गहन और केंद्रीय विषय है। ओंकार को न केवल एक पवित्र ध्वनि माना जाता है, बल्कि इसे समस्त ब्रह्मांड और चेतना का प्रतीक भी माना जाता है।

यहाँ ओंकार को सभी ध्वनियों और शब्दों का आधार क्यों माना जाता है, इस पर विस्तृत चर्चा की गई है:

  • ध्वन्यात्मक रचना और व्यापकता (Phonetic Composition and Universality)

    • ओंकार (AUM) तीन अक्षरों - अ (A), उ (U), और म (M) - से मिलकर बना है। ऋषियों ने 'ओम्' को इसलिए चुना क्योंकि यह मानव मुख से उत्पन्न होने वाली सभी ध्वनियों का ध्वन्यात्मक प्रतिनिधित्व करता है।

    • जब आप 'अ' (A) का उच्चारण करते हैं, तो आपका मुँह खुलता है और यह सभी ध्वनियों का प्रारंभिक बिंदु है।

    • 'म' (M) का उच्चारण करते समय, आपका मुँह बंद हो जाता है, जो सभी ध्वनियों के अंत या संकल्प बिंदु को दर्शाता है।

    • 'उ' (U) इन दोनों के बीच की ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है।

    • इस तरह, ओम् सभी संभावित ध्वनियों का समुच्चय है। चूंकि सभी शब्द ध्वनियों पर आधारित होते हैं, इसलिए ओम् संपूर्ण ब्रह्मांड को, जिसमें सभी नाम और रूप शामिल हैं, समाहित करता है। यह ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम है, क्योंकि यह सब कुछ समाहित करता है।

  • ब्रह्म और आत्मा के साथ संबंध (Connection with Brahman and Atman)

    • मांडूक्य उपनिषद में कहा गया है कि ओम् यह अविनाशी शब्द ही यह समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड है। अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ ओम् है, और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी ओम् है।

    • यह उपनिषद 'अयम् आत्मा ब्रह्म' (यह आत्मा ही ब्रह्म है) के महावाक्य के स्रोत के रूप में प्रसिद्ध है, जो समस्त वेदांत शिक्षाओं का सार है। ओम् इस परमार्थिक सत्य, अर्थात् आत्मा और ब्रह्म की एकता को समझने के लिए एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जाता है।

  • चेतना की अवस्थाओं से संबंध (Relation to States of Consciousness)

    • ओम् के तीन अक्षर मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृत (waking), स्वप्न (dream) और सुषुप्ति (deep sleep) – से संबंधित हैं।

      • 'अ' (A) अक्षर जागृत अवस्था (वैश्वानर) का प्रतिनिधित्व करता है, जो बाहरी वस्तुओं के प्रति जागरूक होती है।

      • 'उ' (U) अक्षर स्वप्न अवस्था (तैजस) का प्रतिनिधित्व करता है, जो आंतरिक अनुभवों से संबंधित है और जागृत तथा सुषुप्ति के बीच में स्थित है।

      • 'म' (M) अक्षर सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ) का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ सभी अनुभव अविभेदित चेतना के पुंज में समाहित हो जाते हैं।

    • इन तीनों अक्षरों से परे, ओंकार की एक ध्वनिहीन अवस्था या मौन है, जिसे 'तुरीय' कहा जाता है। यह तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनकी साक्षी है, और इसे अंतिम वास्तविकता (परम सत्य) माना जाता है।

  • ध्यान और मोक्ष में भूमिका (Role in Meditation and Liberation)

    • मांडूक्य उपनिषद का मुख्य उद्देश्य ओम् के रहस्य को उजागर करना है ताकि मन को ध्यान के लिए प्रशिक्षित किया जा सके, जिससे धीरे-धीरे मुक्ति प्राप्त हो सके। मुक्तिकोपनिषद के अनुसार, मांडूक्य उपनिषद का ठीक से आत्मसात करना मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है

    • ओंकार का ध्यान करने से व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मन्) का ज्ञान होता है और दुखों का नाश होता है। ज्ञान की यह प्रक्रिया जीवन में आत्मसात होने पर शांति और सामंजस्य लाती है।

सारांश में, ओंकार को सभी ध्वनियों और शब्दों का आधार इसलिए माना जाता है क्योंकि यह ध्वन्यात्मक रूप से सभी उच्चारित ध्वनियों को समाहित करता है, और प्रतीकात्मक रूप से, यह ब्रह्मांड की संपूर्णता और चेतना की सभी अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करता है, अंततः साधक को परम वास्तविकता (तुरीय) के ज्ञान की ओर ले जाता है।

ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम

ओंकार (OM) की अवधारणा में, इसे ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम माना जाता है क्योंकि यह सभी ध्वनियों और शब्दों का आधार है और समस्त ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है।

यहाँ दिए गए स्रोतों के अनुसार, ओंकार को ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम मानने के प्रमुख कारण और अवधारणाएँ इस प्रकार हैं:

  • ध्वन्यात्मक प्रतिनिधित्व और सर्वव्यापकता:

    • ओंकार (AUM) तीन अक्षरों - अ (A), उ (U), और म (M) - से मिलकर बना है।

    • ऋषियों ने 'ओम्' को चुना क्योंकि यह मानव मुख से उत्पन्न होने वाली सभी ध्वनियों का ध्वन्यात्मक प्रतिनिधित्व करता है।

      • 'अ' (A) का उच्चारण करते समय, मुँह खुलता है और यह सभी ध्वनियों का प्रारंभिक बिंदु है।

      • 'म' (M) का उच्चारण करते समय, मुँह बंद हो जाता है, जो सभी ध्वनियों के अंत या संकल्प बिंदु को दर्शाता है।

      • 'उ' (U) इन दोनों के बीच की ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है।

    • इस प्रकार, ओम् सभी संभावित ध्वनियों का समुच्चय है। चूंकि सभी शब्द ध्वनियों पर आधारित होते हैं, और शब्द वस्तुओं से संबंधित होते हैं, इसलिए ओम् संपूर्ण ब्रह्मांड को, जिसमें सभी नाम और रूप शामिल हैं, समाहित करता है

    • किसी एक विशेष नाम को चुनने से अन्य सभी नाम छूट जाते हैं; इसलिए ओम् को ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम माना जाता है क्योंकि यह सब कुछ समाहित करता है। यह वास्तव में ईश्वर का एकमात्र नाम है जो सार्वभौमिक है।

  • ब्रह्मांडीय संरचना और ब्रह्म/आत्मन से संबंध:

    • मांडूक्य उपनिषद में कहा गया है कि "ओम्! यह अविनाशी शब्द ही यह समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड है। अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ ओम् है। और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी ओम् है"

    • यह उपनिषद ओम् को आत्मा के अर्थ की सामग्री के रूप में बताता है, और ओम् या प्रणव को उस सर्व-समावेशी आत्मन का पदनाम माना जाता है।

    • मांडूक्य उपनिषद ओंकार को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है जो "अयम् आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ही ब्रह्म है) के महावाक्य के गहन दार्शनिक महत्व को उजागर करता है।

    • आधुनिक विज्ञान के अनुसार, पदार्थ गति या कंपन की अवस्था में ऊर्जा है, और वैदिक विज्ञान में इस ऊर्जा को औम् (AUM) द्वारा प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया गया है, जो इसकी ब्रह्मांडीय सार्वभौमिकता का समर्थन करता है।

    • प्रणव, या ओम्, सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था में सर्वोच्च सत्ता से उत्पन्न होने वाला एक व्यापक कंपन है। ब्रह्मा ने इसी ओम् से इस ब्रह्मांड की रचना की

    • ओम् का ध्यान करने से व्यक्ति ब्रह्मांड की धारा के साथ एकाकार हो जाता है और व्यक्तिगत जीव के रूप में स्वतंत्र रूप से सोचने के बजाय सार्वभौमिक रूप से ईश्वर के रूप में सोचना शुरू कर देता है

  • चेतना की अवस्थाओं से संबंध और तुरीय:

    • ओम् के तीन अक्षर मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृत (waking), स्वप्न (dream) और सुषुप्ति (deep sleep) – से संबंधित हैं।

      • 'अ' अक्षर जागृत अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।

      • 'उ' अक्षर स्वप्न अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।

      • 'म' अक्षर सुषुप्ति अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।

    • इन तीनों अक्षरों से परे, ओंकार की एक ध्वनिहीन अवस्था या मौन है, जिसे 'तुरीय' कहा जाता है। यह तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनकी साक्षी है, और इसे अंतिम वास्तविकता (परम सत्य) माना जाता है। तुरीय वह शुद्ध चेतना है जो अवर्णनीय, अचिंतनीय और समस्त द्वैत से परे है।

इन सभी कारणों से, ओंकार को न केवल एक पवित्र ध्वनि, बल्कि ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम माना जाता है, जो समस्त अस्तित्व और चेतना की अंतिम वास्तविकता का प्रतीक है।

अखंडता का प्रतीक

ओंकार (OM) को अखंडता का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह समस्त ब्रह्मांड और चेतना की सर्वोच्च, अविभाज्य वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करता है। माण्डूक्य उपनिषद, जो ओम् की अवधारणा का विस्तार से वर्णन करता है, इसे ब्रह्म का पदनाम मानता है और इसके माध्यम से अद्वैत (गैर-द्वैतवाद) की शिक्षा को स्पष्ट करता है, जहाँ सभी भेद अंततः एक ही वास्तविकता में समाहित हो जाते हैं।

यहाँ दिए गए स्रोतों के अनुसार, ओंकार अखंडता का प्रतीक कैसे है:

  • सर्व-समावेशी ध्वन्यात्मक संरचना: ऋषियों ने 'ओम्' को इसलिए चुना क्योंकि यह मानव मुख से उत्पन्न होने वाली सभी ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है।

    • 'अ' (A) मुंह खोलने पर उत्पन्न होने वाली पहली ध्वनि है, जो समस्त वाक् का प्रारंभ है।

    • 'म' (M) मुंह बंद करने पर उत्पन्न होने वाली अंतिम ध्वनि है, जो सभी वाक् का अंत या संकल्प बिंदु है।

    • 'उ' (U) इन दोनों के बीच की ध्वनियों को दर्शाता है।

    • इस प्रकार, ओम् सभी संभावित ध्वनियों का समुच्चय है। चूंकि सभी शब्द ध्वनियों पर आधारित होते हैं, और शब्द वस्तुओं से संबंधित होते हैं, इसलिए ओम् संपूर्ण ब्रह्मांड को, जिसमें सभी नाम और रूप शामिल हैं, समाहित करता है। इसे ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम माना जाता है क्योंकि यह सब कुछ आच्छादित करता है।

  • ब्रह्मांड और आत्मन से अभेद:

    • माण्डूक्य उपनिषद स्पष्ट रूप से घोषित करता है: "ओम्! यह अविनाशी शब्द ही यह समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड है। अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ ओम् है। और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी ओम् है"। यह इस बात पर ज़ोर देता है कि ओम् समग्र अस्तित्व का प्रतीक है, जो समय के बंधनों से भी परे है।

    • उपनिषद आगे कहता है, "यह सब, निश्चय ही, ब्रह्म है। आत्मा ब्रह्म है"। ओम् को आत्मा के अर्थ का 'पदनाम' माना जाता है, जो इस सर्व-समावेशी आत्मन का प्रतीक है।

    • आधुनिक विज्ञान के अनुसार, पदार्थ गति या कंपन की अवस्था में ऊर्जा है, और वैदिक विज्ञान में इस ऊर्जा को ओम् (AUM) द्वारा प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया गया है, जो इसकी ब्रह्मांडीय सार्वभौमिकता और अखंडता का समर्थन करता है।

    • ओम् को सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था में सर्वोच्च सत्ता से उत्पन्न होने वाला एक व्यापक कंपन बताया गया है, जिससे ब्रह्मा ने ब्रह्मांड की रचना की। ओम् का ध्यान करने से व्यक्ति ब्रह्मांड की धारा के साथ एकाकार हो जाता है और व्यक्तिगत जीव के रूप में सोचने के बजाय सार्वभौमिक रूप से ईश्वर के रूप में सोचना शुरू कर देता है, जो अखंडता की भावना को दर्शाता है।

  • चेतना की अवस्थाओं और तुरीय से संबंध:

    • ओम् के तीन अक्षर (अ, उ, म) मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति – का प्रतिनिधित्व करते हैं।

      • 'अ' अक्षर जागृत अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।

      • 'उ' अक्षर स्वप्न अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।

      • 'म' अक्षर सुषुप्ति अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।

    • इन तीनों अक्षरों से परे, ओंकार की एक ध्वनिहीन अवस्था या मौन है, जिसे 'तुरीय' कहा जाता है। तुरीय को अंतिम वास्तविकता (परम सत्य) माना जाता है, जो तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनकी साक्षी है।

    • तुरीय अवर्णनीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत से परे शुद्ध चेतना है। चूंकि ओम् इस मौन, अद्वैत तुरीय को समाहित करता है, यह भेदभाव और बहुलता से रहित, पूर्ण अखंडता का प्रतीक बन जाता है।

  • द्वैत का निषेध और परमार्थ सत्य:

    • माण्डूक्य उपनिषद और गौडपाद की कारिकाएँ द्वैत की भ्रामक प्रकृति (माया या अविद्या के कारण उत्पन्न) को स्थापित करती हैं। सृष्टि को मिथ्या (वास्तविक नहीं) माना जाता है, जो केवल अद्वैत ब्रह्म पर एक अध्यास या अधिरोपण है।

    • अद्वैत का अर्थ है कि परमार्थ रूप से केवल एक ही वास्तविकता है, और सभी द्वैत केवल व्यवहारिक या सापेक्षिक वास्तविकता हैं। ओम् इस अविभाजित, अद्वितीय ब्रह्म को दर्शाता है, जिससे यह सभी भेदों के अंत और परमार्थ अखंडता का प्रतीक बनता है।

संक्षेप में, ओंकार को अखंडता का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह ध्वन्यात्मक रूप से सभी को समाहित करता है, ब्रह्मांड और आत्मन के साथ अभेद रूप से जुड़ा है, चेतना की सभी अवस्थाओं को तुरीय के माध्यम से अंतिम गैर-द्वैत वास्तविकता में एकीकृत करता है, और अंततः अद्वैत ब्रह्म के परमार्थ स्वरूप को दर्शाता है जो सभी भेदों से परे है।


ध्यान का आधार

मांडूक्य उपनिषद में ओंकार (OM) की व्याख्या न केवल ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने का एक साधन है, बल्कि यह ध्यान (Meditation) का एक गहरा और मूलभूत आधार भी प्रदान करती है, जिसका अंतिम लक्ष्य परम सत्य या आत्मन की अनुभूति है।

ओंकार (OM) की व्याख्या और उसका महत्व: ओंकार को अविनाशी शब्द माना गया है जो इस संपूर्ण दृश्यमान ब्रह्मांड को समाहित करता है—भूत, वर्तमान और भविष्य, और जो कुछ भी इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है। इसे ब्रह्म का प्रतीक और एक ब्रह्मांडीय कंपन माना जाता है, जिससे सृष्टि का आरंभ हुआ था। ओंकार सभी ध्वनियों, भाषाओं, नामों और रूपों को समाहित करता है। ध्यान में, नाम (designator) और रूप (designated) दोनों एक सत्ता में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि दो सार्वभौमिक चीजें अलग-अलग नहीं हो सकतीं। ओंकार का पाठ एक सार्वभौमिक भाषा को बोलने जैसा है, जहाँ पूरा मुख-विवर कंपन करता है, जिससे मन ब्रह्मांड के साथ तालमेल बिठाता है और व्यक्ति ईश्वर की तरह सार्वभौमिक रूप से सोचना शुरू कर देता है।

ध्यान का आधार - मात्राओं से संबंध: मांडूक्य उपनिषद आत्मा या चेतना की चार अवस्थाओं (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) का वर्णन करती है, और इन अवस्थाओं को ओंकार की तीन मात्राओं - अ (A), उ (U), म् (M) और अमात्र (ध्वनिहीन भाग) - से जोड़ा गया है। यह संबंध ध्यान के लिए एक व्यवस्थित मार्ग प्रदान करता है:

  1. अकार (A) - जाग्रत् अवस्था (वैश्वानर/विश्व):

    • यह ओंकार की पहली मात्रा है।

    • जाग्रत् अवस्था में चेतना बाह्य भौतिक वस्तुओं के प्रति जागरूक होती है और उनका उपभोग करती है। इसे व्यक्तिगत स्तर पर विश्व और ब्रह्मांडीय स्तर पर वैश्वानर (या विराट) कहा जाता है।

    • 'अ' सभी अक्षरों की शुरुआत है, जैसे जाग्रत् अवस्था अन्य सभी अनुभवों की शुरुआत है।

    • इस सामंजस्य पर ध्यान करने से सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं और व्यक्ति सभी लोगों में अग्रणी बनता है।

  2. उकार (U) - स्वप्न अवस्था (तैजस):

    • यह ओंकार की दूसरी मात्रा है।

    • स्वप्न अवस्था में चेतना आंतरिक सूक्ष्म वस्तुओं को अनुभव करती है, जो जाग्रत् अवस्था के संस्कारों से उत्पन्न होती हैं। इस अवस्था को तैजस कहा जाता है।

    • 'उ' को 'अ' से ऊपर उठा हुआ और 'अ' और 'म्' के बीच मध्य में स्थित माना जाता है, जैसे स्वप्न अवस्था जाग्रत् और सुषुप्ति के बीच है।

    • इस पर ध्यान करने से ज्ञान में वृद्धि होती है और व्यक्ति समाज में एक समकारी और सामंजस्य स्थापित करने वाला कारक बन जाता है।

  3. मकार (M) - सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ):

    • यह ओंकार की तीसरी मात्रा है।

    • सुषुप्ति अवस्था गहरी नींद की है, जहाँ सभी अनुभव और भेद अनभिव्यक्त या बीज अवस्था में विलीन हो जाते हैं। इस अवस्था को प्राज्ञ कहा जाता है। यह जाग्रत् और स्वप्न दोनों अवस्थाओं का कारण मानी जाती है, क्योंकि सभी अव्यक्त इच्छाएँ इसमें निहित होती हैं।

    • 'म्' सभी ध्वनियों का अंत है, जिसमें 'अ' और 'उ' विलीन हो जाते हैं, जैसे गहरी नींद में सभी अनुभव विलीन हो जाते हैं।

    • इस पर ध्यान करने से व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है और सब कुछ मापने या जानने की क्षमता प्राप्त करता है। वह ईश्वर के समान हो जाता है, जिसमें संपूर्ण सृष्टि विलीन हो जाती है।

  4. अमात्र (ध्वनिहीन) - तुरीय अवस्था:

    • यह ओंकार का चौथा, ध्वनिहीन और अतुलनीय भाग है, जो 'अ', 'उ', 'म्' से परे है।

    • तुरीय सभी सापेक्षिक अभिव्यक्तियों (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे है। इसे न तो अंदर की ओर सचेत, न बाहर की ओर सचेत, न ही दोनों का एक साथ सचेत, न चेतना का ढेर, न साधारण चेतना, और न ही अचेतना कहा जा सकता है।

    • यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य और अव्यपदेश्य है।

    • तुरीय परम सत्य, शांत, शिव (शुभ), अद्वैत और शुद्ध चेतना का सार है, जो सभी घटनाओं की समाप्ति है।

    • यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं, और सभी मानसिक गतिविधियां समाप्त हो जाती हैं।

ध्यान की प्रक्रिया और लक्ष्य: मांडूक्य उपनिषद में ध्यान का मुख्य उद्देश्य मन को परम वास्तविकता (ब्रह्म) के साथ एकाग्र करना है, ताकि व्यक्तिगत आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सके।

  • अमनीभाव (No-Mind State): ध्यान का एक महत्वपूर्ण पहलू मन को अमनस्ता की स्थिति में लाना है, जहाँ मन सोचना बंद कर देता है। यह द्वैत के अनुभव को समाप्त करता है, क्योंकि मन ही द्वैत का स्रोत है। यह अवस्था समाधि या आत्म-अनुभूति के लिए आवश्यक है।

  • अस्पर्श योग (Yoga of No Contact): गौड़पाद ने इस अवधारणा को विशेष रूप से बल दिया है कि तुरीय का संसार (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) से कोई वास्तविक संबंध नहीं है। तुरीय न तो कारण है और न ही कार्य। इस अस्पर्श योग की प्राप्ति मन के अमनोभाव की स्थिति से होती है।

  • जाग्रत् और स्वप्न की मिथ्याता: उपनिषद जोर देकर कहता है कि जाग्रत् और स्वप्न दोनों ही अवस्थाएँ सपने जैसी हैं, क्योंकि वे दोनों ही चेतना में प्रकट होने वाली मिथ्या (भ्रम) हैं। रामन महर्षि और शंकराचार्य भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि द्वैत या माया सत्य नहीं है, बल्कि एक उपस्थिति मात्र है।

  • अजातिवाद (Theory of Non-Origination): गौड़पाद का अजातिवाद का सिद्धांत बताता है कि कोई भी जीवात्मा कभी पैदा नहीं होती; जन्म केवल एक उपस्थिति है, और मृत्यु अवास्तविकता का परिणामी गायब होना है। यह शिक्षा तर्क और उपनिषदों के समर्थन पर आधारित है। यह अद्वैत सिद्धांत का एक मूल स्तंभ है।

  • साक्षी चेतना (Witness Consciousness): तुरीय सभी अवस्थाओं का साक्षी है। यह अवस्था को बदलने की कोशिश करने के बजाय, चेतना के उस सामान्य अंश पर ध्यान केंद्रित करने के बारे में है जो सभी अनुभवों का साक्षी है।

  • प्रबुद्धता का पथ: यद्यपि ज्ञान को प्राप्त करना दुर्लभ है, मांडूक्य उपनिषद का उचित अध्ययन और आत्मसात करना ही मुक्ति के लिए पर्याप्त है। ध्यान में, मन को एकाग्र करने और बाधाओं को दूर करने के लिए उचित तरीकों का उपयोग किया जाता है, जैसे कि इच्छाओं को रोकने के लिए दुःख को याद करना और जन्मरहित पर ध्यान केंद्रित करना।

  • सगुण और निर्गुण ब्रह्म: तुरीय ब्रह्म के सगुण (व्यक्तिकृत) और निर्गुण (निराकार) वर्गीकरणों से परे है। हालाँकि, सगुण और निर्गुण ब्रह्म दो अलग-अलग ब्रह्म नहीं हैं, बल्कि एक ही सत्य के दो दृष्टिकोण हैं।

संक्षेप में, ओंकार की मात्राओं पर ध्यान करने से साधक को अपनी चेतना की विभिन्न अवस्थाओं को पार करने, द्वैत की मिथ्याता को समझने, मन को शांत करने और अंततः परम अद्वैत तुरीय अवस्था में स्थित होने में मदद मिलती है, जो सभी दुख और सीमाओं से मुक्त है।


द्वैत और अद्वैत

माण्डूक्य उपनिषद् भारतीय दर्शन, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह सबसे छोटा उपनिषद् होते हुए भी, समस्त उपनिषदीय ज्ञान का सार माना जाता है। गौड़पाद ने इसी उपनिषद् पर 'माण्डूक्य कारिका' नामक प्रसिद्ध टीका लिखी थी, जिसे अद्वैत वेदांत का प्रथम सुव्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। बाद में, आदि शंकराचार्य ने भी उपनिषद् और गौड़पाद की टीका दोनों पर भाष्य लिखा, जो अद्वैत वेदांत की मानक व्याख्या बन गई। माण्डूक्य उपनिषद् में आत्मा (आत्मन्) की परम प्रकृति और चेतना की विभिन्न अवस्थाओं को ओम् (प्रणव) से जोड़कर व्याख्यायित किया गया है।

द्वैत (Duality) और अद्वैत (Non-Duality) का परिचय

  • अद्वैत

    • अद्वैत का शाब्दिक अर्थ है 'एकत्ववाद' या 'दो न होना'। अद्वैत वेदान्त का केंद्रीय सिद्धांत है "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" (ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत मिथ्या या प्रतीति मात्र है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है)। यह परम सत्य है।

    • शंकराचार्य के अनुसार, उपनिषद ब्रह्म (परम तत्व) की प्रकृति की शिक्षा देते हैं, और केवल अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है। ब्रह्म को अपरिवर्तनीय, अनंत, स्वयंभू, आत्म-सुख, आत्म-ज्ञान और आत्म-आनंद के रूप में वर्णित किया गया है।

    • अद्वैत दृष्टिकोण में, सत्य अपने आरंभ से ही पूर्ण होता है; इसमें न कभी कमी होती है और न कभी वृद्धि। यह वह 'मैं' है जो सभी अनुभवों से अप्रभावित रहता है, जिसने शिशु, युवा, वयस्क और वृद्ध शरीर तथा उनके अनगिनत अनुभवों का साक्षी रहा है।

  • द्वैत

    • द्वैत का अर्थ है 'भेद' या 'बहुलता'। इसमें यह विचार शामिल है कि व्यक्ति (जीव) और ईश्वर (ब्रह्म) अलग-अलग सत्ताएं हैं, और जगत की वस्तुएँ भी एक-दूसरे से भिन्न और स्वतंत्र हैं।

    • भक्ति परंपराओं को अक्सर सगुण (गुणों सहित) और निर्गुण (गुणों रहित) में वर्गीकृत किया जाता है, जहाँ सगुण भक्ति विशिष्ट देवताओं की पूजा पर केंद्रित होती है, जबकि निर्गुण भक्ति ईश्वर के एक अमूर्त रूप की पूजा करती है।

माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद कारिका में द्वैत और अद्वैत

माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन करता है, और इन चारों को 'ओम्' के विभिन्न भागों से जोड़ता है: जाग्रत् (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्नावस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरीय (चतुर्थ अवस्था)। अद्वैत प्रकरण इन्हीं अवस्थाओं और 'ओम्' के माध्यम से परम गैर-द्वैतवादी सत्य को स्थापित करता है।

  • प्रपंच (जगत) का मिथ्यात्व:

    • माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद कारिका में, प्रपंच, यानी ब्रह्मांड और सभी अनुभव, को मिथ्या या प्रतीति मात्र माना गया है। गौड़पाद तर्क देते हैं कि जाग्रत् और स्वप्न की अवस्थाओं में अनुभव किया गया सारा द्वैत मन की कल्पना है। गौड़पाद ने 'वैतथ्य प्रकरण' नामक पूरे एक अध्याय में जगत की मिथ्याता को तार्किक रूप से सिद्ध किया है।

    • अद्वैत दर्शन के अनुसार, जगत माया के कारण उत्पन्न होने वाला एक भ्रम है। माया ब्रह्म की वह शक्ति है जो उसे अनेक रूपों वाले भौतिक जगत के रूप में प्रकट करती है। माया को 'अनिर्वचनीय' (जो कही न जा सके) माना गया है।

    • स्वप्न और जाग्रत् दोनों अवस्थाओं को गौड़पाद स्वप्न-सदृश मानते हैं। जिस प्रकार स्वप्न में व्यक्ति एक पूरी दुनिया का अनुभव करता है जो जागने पर असत्य प्रतीत होती है, उसी प्रकार जाग्रत् जगत भी आत्मा की चेतना में एक प्रतीति मात्र है।

    • शंकराचार्य ने वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार किया: प्रतिभासिक (भ्रम या स्वप्न), व्यावहारिक (सापेक्षिक या जाग्रत्), और पारमार्थिक (परम सत्य, ब्रह्म या तुरीय)। गौड़पाद, हालांकि, प्रतिभासिक और व्यावहारिक दोनों को प्रतीति के रूप में मिला देते हैं, इसे अधिक कट्टरपंथी दृष्टिकोण कहते हैं।

  • अजातिवाद (No Origination):

    • गौड़पाद का 'अजातिवाद' सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि वास्तव में किसी भी चीज़ की उत्पत्ति नहीं होती है। यदि ब्रह्म से किसी दूसरी वस्तु का जन्म होता, तो अद्वैत (गैर-द्वैत) का सिद्धांत खंडित हो जाता।

    • जीव या ब्रह्मांड की वास्तव में तुरीय से उत्पत्ति नहीं हुई है; वे केवल प्रकट होते हैं। गौड़पाद का यह सिद्धांत बुद्ध के शून्यता दर्शन के निकट है, फिर भी वे उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मा की नित्यता और अद्वैतता को सिद्ध करते हैं।

    • यह सिद्धांत इस बात पर आधारित है कि जो अमर है वह नश्वर नहीं हो सकता, और जो नश्वर है वह अमर नहीं हो सकता

  • द्वैत का कारण और उसकी निंदा:

    • द्वैत को अज्ञान का परिणाम माना जाता है। समस्त द्वैत और दुःख का मूल कारण 'अहंकार' और 'वासना' हैं। अद्वैत वेदांत में कहा गया है कि अज्ञान के कारण ही जीव अपने आपको ब्रह्म से भिन्न समझता है।

    • उपनिषद द्वैत की निंदा करते हैं और गैर-द्वैत की प्रशंसा करते हैं। जैसे कि "यह दूसरे अस्तित्व से ही भय आता है" या "जो यहाँ बहुलता देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है"।

    • द्वैतवादियों का एक-दूसरे से झगड़ना उनकी 'पसंद और नापसंद' के दायरे में फंसे होने का संकेत है, जबकि अद्वैतवादी सभी में स्वयं को देखते हैं, इसलिए वे विरोधियों के प्रति भी समभाव रखते हैं।

तुरीय (निःशब्द) की भूमिका

तुरीय चेतना की चौथी अवस्था है, जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है। इसे 'ओम्' का निःशब्द या अमात्रा भाग माना जाता है।

  • अवाचनीय स्वरूप: तुरीय को निःशब्द (soundless), अवाचनीय (unutterable), अव्यपदेश्य (indescribable) कहा गया है। यह वाणी और मन की सीमाओं से परे है। जिस प्रकार 'ओम्' ध्वनि का अंत एक गूढ़ मौन में होता है, तुरीय वही परम, निरपेक्ष मौन है।

  • प्रपंचोपशम (Cessation of Phenomena): तुरीय को 'समस्त प्रपंच का उपशमन' (सभी घटनाओं का अंत) कहा गया है। इसका अर्थ है कि तुरीय 'विश्वहीन' (worldless) है, जिसमें कोई भी वस्तुगत घटनाएँ या अभिव्यक्तियाँ उपस्थित नहीं होती हैं।

  • अद्वितीय और निर्गुण: तुरीय अद्वैत (non-dual) है, जिसमें कोई द्वैत या भेद नहीं है—न समय, न स्थान, न व्यक्ति, न वस्तुएँ। यह ब्रह्म का निर्गुण (attributeless) स्वरूप है। यह शुद्ध चेतना, आनंदमय और शांतिपूर्ण है।

  • स्वयं आत्मा: तुरीय को स्वयं आत्मा और शुद्ध चेतना के रूप में पहचाना जाता है। यह कोई अस्थायी अवस्था नहीं है, बल्कि चेतना का शुद्ध, शाश्वत स्वरूप है, जो सभी अवस्थाओं का साक्षी है। रामण महर्षि के अनुसार, तुरीय 'स्वयं' का ही दूसरा नाम है

अद्वैत की प्राप्ति का मार्ग

  • मन की भूमिका (अमानीभाव): मन को ही द्वैत का कारण बताया गया है ("मन ही द्वैत है")। आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए मन को 'अमानीभाव' (मनोरहित अवस्था) प्राप्त करना होता है। यह विचारों को रोकना या मन को नष्ट करना नहीं है, बल्कि मन को अपनी शुद्ध चेतना में स्थापित करना है।

  • साधना: ध्यान के माध्यम से, 'ओम्' की तीन ध्वनियों (अ, उ, म) पर ध्यान करने से कुछ लाभ मिलते हैं, लेकिन 'निःशब्द' (मौन) पर सही समझ के साथ ध्यान करने से मुक्ति मिलती है। यह स्वयं को मन की प्रक्रियाओं से अलग करने और शुद्ध चेतना की ओर मोड़ने की एक प्रक्रिया है

  • शास्त्र और तर्क का समन्वय: अद्वैत दर्शन शास्त्र (श्रुति) और तर्क (युक्ति) दोनों के समर्थन पर आधारित है। गौड़पाद ने तर्क का उपयोग यह दिखाने के लिए किया कि संसार एक प्रतीति मात्र है।

  • अनुभव बनाम ज्ञान: आत्म-ज्ञान अनुभव नहीं है, बल्कि स्वयं की आत्म के रूप में पुनः खोज है। मन की शुद्धता और एकाग्रता शुद्ध साक्षी-चेतना या शुद्ध चेतना को उसके वास्तविक स्वरूप में समझने में सक्षम बनाती है।

द्वैत (द्वैतिन)

माण्डूक्य उपनिषद् और अद्वैत वेदांत दर्शन के संदर्भ में, स्रोत द्वैत (द्वैतिन) की अवधारणा, उसके स्वरूप, और द्वैत तथा अद्वैत के बीच के संबंध पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं।

द्वैत का स्वरूप (Nature of Duality)

द्वैत का शाब्दिक अर्थ 'दो होना' या भिन्नता है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, द्वैत वह मूलभूत अवधारणा है जो सभी समस्याओं, दुख और संसार का स्रोत है। इसमें भिन्नताएँ, समय, स्थान, कार्य-कारण संबंध, और परिवर्तन (जैसे जन्म, वृद्धि, बुढ़ापा, रोग और मृत्यु) शामिल हैं। पूरा प्रकट ब्रह्मांड, जिसे 'प्रपंच' कहा जाता है, द्वैत का ही स्वरूप है। इसमें चेतना की तीन अवस्थाएँ—जाग्रत् (जागृत), स्वप्न (स्वप्नावस्था), और सुषुप्ति (गहरी नींद)—शामिल हैं। ये अवस्थाएँ और उनसे संबंधित ब्रह्मांडीय समकक्ष (जैसे जाग्रत् के लिए वैश्वानर/विराट, स्वप्न के लिए तैजस/हिरण्यगर्भ, और सुषुप्ति के लिए प्राज्ञ/ईश्वर) सभी प्रपंच का हिस्सा हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों स्तर भी द्वैत के अंतर्गत आते हैं। 'प्रपंच' को 'अनात्मा' (जो आत्मा नहीं है) और 'मिथ्या' (झूठा, केवल दिखावा) के रूप में वर्णित किया गया है। गौड़पाद के अनुसार, वास्तविकता में द्वैत का अस्तित्व ही नहीं है; मन ही या तो जाग्रत् अवस्था में या स्वप्न में माया के प्रभाव में विचरता है।

द्वैतिन (द्वैतवादी) के विचार

द्वैतवादी वे लोग हैं जो भिन्नता और बहुलता को वास्तविक मानते हैं। वे अपने व्यक्तिगत सिद्धांतों से दृढ़ता से चिपके रहते हैं, जिससे अक्सर उनमें आपस में भी मतभेद और विवाद होते हैं। यह व्यवहार उनके राग (पसंद) और द्वेष (नापसंद) की गहरी भावना को दर्शाता है। द्वैतवादी वास्तविकता में भी द्वैत देखते हैं; वे मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा भिन्न होती है, और दुनिया में हर वस्तु तथा प्राणी एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। वे कारणता के सिद्धांत में विश्वास करते हैं, यह मानते हुए कि अपरिवर्तनीय आत्मा सृष्टि के दौरान बदलती है और अमर नश्वर बन सकता है। उनकी धारणा है कि जाग्रत् अवस्था स्वप्न अवस्था से अधिक वास्तविक है और उसमें निरंतरता है, जबकि स्वप्न में ऐसा नहीं होता।

द्वैत और अद्वैत के बीच संबंध

अद्वैत वेदांत द्वैत को परम सत्य नहीं मानता, बल्कि इसे माया का परिणाम बताता है, जो अविद्या (अज्ञान) के कारण प्रकट होती है। शंकराचार्य के कथन "ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या" (केवल ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है) के अनुसार, संसार केवल एक दिखावा है, वास्तविक नहीं। यह ठीक वैसे ही है जैसे अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना।

हालांकि अद्वैत द्वैत को परम सत्य नहीं मानता, लेकिन यह द्वैत के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखता है:

  • द्वैत का निराकरण: अद्वैत दर्शन यह तर्क देता है कि यदि ब्रह्म से कोई दूसरी वस्तु (जैसे जगत या जीव) उत्पन्न होती है, तो अद्वैत का सिद्धांत टूट जाएगा और द्वैत आरंभ हो जाएगा। इसलिए, यह सिद्ध किया जाता है कि ब्रह्म (तुरीय) किसी भी वस्तु का कारण नहीं है, और उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। जगत और जीव केवल 'प्रकट' होते हैं, वास्तविक रूप से उत्पन्न नहीं होते (अजातिवाद)।

  • मन की भूमिका: द्वैत मन की कल्पना मात्र है। मन ही वह है जो द्वैत को देखता और अनुभव करता है। चेतना के दृष्टिकोण से, कोई द्वैतवादी, कंपनशील ब्रह्मांड नहीं है।

  • अवस्थाओं की समानता: जाग्रत् और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ मन के प्रक्षेपण हैं और दोनों को 'स्वप्न जैसा' माना जाता है, क्योंकि वे समान रूप से अनित्य और मिथ्या हैं।

  • द्वैत का उपदेशीय उपयोग: उपनिषद में द्वैत की चर्चा (जैसे सृष्टि के विभिन्न सिद्धांत) छात्रों को उच्चतर ज्ञान की ओर ले जाने के लिए एक अस्थायी साधन के रूप में प्रस्तुत की जाती है। यह उन साधकों के लिए है जो सीधे अद्वैत को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। यह एक सीखने की प्रक्रिया के समान है, जहाँ निचले स्तर के ज्ञान को उच्चतर ज्ञान में समाहित कर लिया जाता है, न कि पूरी तरह से खारिज किया जाता है।

  • सर्वत्र आत्मा का दर्शन: अद्वैतवादी सभी में स्वयं आत्मा का दर्शन करते हैं, यहाँ तक कि अपने विरोधी द्वैतवादियों में भी, इसलिए वे उनसे विवाद नहीं करते। ज्ञानी व्यक्ति के लिए संसार अवास्तविक (रात के समान) होता है, जबकि अज्ञानी के लिए आत्मा अवास्तविक (रात के समान) होती है।

  • त्रिकाल से परे: उपनिषदों में कहा गया है कि ओम (प्रणव) वह अक्षर है जो समस्त भूत, वर्तमान और भविष्य को समाहित करता है, और जो इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओम ही है। यह इंगित करता है कि परम सत्य समय और द्वैत की सीमाओं से परे है।

अमात्रा - तुरीय (निःशब्द) का द्वैत से संबंध

तुरीय, आत्मा की चौथी और अंतिम अवस्था है, जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति की तीनों अवस्थाओं से परे है। यह ओम् का निःशब्द या अमात्रा भाग है। तुरीय को 'निःशब्द' (soundless), 'अवाचनीय' (unutterable), और 'अव्यपदेश्य' (indescribable) कहा गया है।

  • प्रपंच का उपशमन: तुरीय को "समस्त प्रपंच का उपशमन" (cessation of all phenomena) कहा गया है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई भी वस्तुगत घटनाएँ या अभिव्यक्तियाँ उपस्थित नहीं होतीं। यह 'विश्वहीन' (worldless) अवस्था है।

  • द्वैत का अभाव: तुरीय अद्वैत (non-dual) है। इसमें कोई भेद नहीं है—न समय, न स्थान, न व्यक्ति, न वस्तुएँ। इसे 'न-दो' (not-two) कहा जाता है। शंकराचार्य के अनुसार, तुरीय में सभी नाम और नाम वाली वस्तुएँ (वाणी और मन के रूप) विलीन हो जाती हैं। यह परम ब्रह्म का निर्गुण (attributeless) स्वरूप है।

  • कारण-कार्य से परे: तुरीय न तो कोई कारण है और न ही कोई कार्य। गौड़पाद का अजातिवाद सिद्धांत कहता है कि वास्तव में तुरीय से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता; जगत और जीव केवल 'प्रकट' होते हैं, वे वास्तविक नहीं हैं।

  • स्वयं आत्मा: तुरीय को स्वयं आत्मा और शुद्ध चेतना के रूप में पहचाना जाता है। यह जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति जैसी सभी अवस्थाओं का साक्षी है।

  • निद्रा से भिन्नता: गहरी नींद और तुरीय दोनों में द्वैत या वस्तुओं की कोई अनुभूति नहीं होती है, लेकिन गहरी नींद में अज्ञान का 'बीज' (कारण) मौजूद होता है, जो तुरीय में अनुपस्थित होता है।

  • ज्ञान और मुक्ति: जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है, तो द्वैत का विचार समाप्त हो जाता है। रामण महर्षि के अनुसार, तुरीय 'स्वयं' का ही दूसरा नाम है; और जब 'स्वयं' का ज्ञान हो जाता है, तो 'चौथा' होने का विचार भी विलीन हो जाता है, और इसे 'तुरीयातीत' (चौथी से परे) कहा जाता है। तुरीय की अनुभूति 'ज्ञान' है, जिसमें न तो ज्ञाता, न ज्ञेय, और न ही जानने की क्रिया होती है। यह स्वयं होना ही है।

संक्षेप में, द्वैत संसार का अनुभव है, जो माया और मन द्वारा उत्पन्न होता है और दुख का कारण बनता है। इसके विपरीत, अद्वैत वह परम वास्तविकता है जो सभी भिन्नताओं से परे, अपरिवर्तनीय और शुद्ध चेतना है, जिसे तुरीय के रूप में जाना जाता है। अद्वैत वेदांत का उद्देश्य साधक को द्वैत के भ्रम से ऊपर उठाकर तुरीय की गैर-द्वैतवादी अवस्था का अनुभव कराना है।

परमार्थ में भी द्वैत देखता है

परमार्थ में भी द्वैत देखता है—यह अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से द्वैतिन (dualisits) के दृष्टिकोण का वर्णन करता है, जहाँ वे चरम सत्य (परमार्थ) में भी द्वैत या भिन्नता को देखते हैं, जो अद्वैत के मौलिक सिद्धांत के विपरीत है कि केवल ब्रह्म ही परमार्थ सत्य है, और वह अद्वैत है।

द्वैतिन की परमार्थ में द्वैत देखने की अवधारणा:

  • मूलभूत भिन्नता में विश्वास: द्वैतिन द्वैतवाद और अनेकता (multiplicity) में दृढ़ विश्वास रखते हैं। वे स्वयं को ईश्वर से अलग मानते हैं और अपनी व्यक्तिगत पहचान को बनाए रखते हैं। गौड़पाद के अनुसार, द्वैत ही संसार (samsara) का मूल है और सभी समस्याओं का स्रोत है।

  • उपासना और द्वैत: उपासक (भक्त) ईश्वर को एक उच्च स्थान पर रखकर उसकी पूजा करता है, उसे स्वयं से भिन्न मानता है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार, यह उपासक-उपास्य संबंध द्वैत के दायरे में आता है। द्वैतिन भक्ति आंदोलन के माध्यम से इस द्वैत को स्थायी बना देते हैं, जबकि शास्त्र उन्हें अंततः अद्वैत ब्रह्म की ओर बढ़ने का निर्देश देते हैं।

  • सगुण ब्रह्म में द्वैत: अद्वैत वेदान्त के अनुसार, ब्रह्म को माया से युक्त होने पर सगुण ब्रह्म (God with attributes) या ईश्वर कहा जाता है। द्वैतिन अक्सर सगुण ब्रह्म की पूजा को परम लक्ष्य मानते हैं। हालाँकि, शंकराचार्य समझाते हैं कि सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म (ब्रह्म बिना गुणों के) दो अलग-अलग ब्रह्म नहीं हैं, बल्कि एक ही सत्य के दो पहलू हैं जो माया के कारण भिन्न प्रतीत होते हैं। इसलिए, जब द्वैतिन सगुण ब्रह्म को एक अलग, परम सत्ता के रूप में देखते हैं, तो वे अद्वैत की दृष्टि से परमार्थ में भी द्वैत देख रहे होते हैं, क्योंकि यह माया का प्रभाव है।

  • कार्य-कारण संबंध का आरोपण: द्वैतिन मानते हैं कि ब्रह्म से कुछ उत्पन्न होता है, जैसे कि जगत या व्यक्ति (जीव)। अद्वैत इस पर तर्क देता है कि यदि ब्रह्म से कुछ दूसरा उत्पन्न होता है तो द्वैत प्रारंभ हो जाता है और अद्वैत का सिद्धांत भंग हो जाता है।

  • उपनिषदों की सापेक्षिक व्याख्या: द्वैतिन सृष्टि के सिद्धांतों को अक्षरशः सत्य मानते हैं, जबकि अद्वैत का कहना है कि ये सिद्धांत केवल एक शिक्षण पद्धति हैं जो अंततः अद्वैत सत्य की ओर ले जाने के लिए हैं।

अद्वैत का द्वैतिन के दृष्टिकोण पर तर्क और खंडन:

  • माया ही द्वैत का कारण: अद्वैत वेदान्त का मूल सिद्धांत है कि ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या (appearance) है। जीव का स्वयं को ब्रह्म से भिन्न समझना माया या अविद्या (अज्ञान) के कारण होता है। यह माया ही है जो निर्गुण ब्रह्म को सगुण ब्रह्म के रूप में प्रकट करती है और अनेकता का भ्रम पैदा करती है।

  • तुरीय अवस्था में द्वैत का अभाव: माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं—जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय—का वर्णन करता है। तुरीय अवस्था को अद्वैत, अनिर्वचनीय, और समस्त प्रपंच (phenomena) के उपशमन (cessation) के रूप में वर्णित किया गया है। इस अवस्था में ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का भेद समाप्त हो जाता है, जिससे कोई द्वैत नहीं रहता।

  • मन की कल्पना के रूप में द्वैत: गौड़पाद और शंकराचार्य के अनुसार, द्वैत वास्तविक नहीं है; यह मन की कल्पना या माया के कारण उत्पन्न हुआ भ्रम है। जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ, दोनों ही स्वप्नवत और असत्य मानी गई हैं, क्योंकि ये मन द्वारा उत्पन्न आभास हैं। रस्सी में साँप के भ्रम का उदाहरण दिया जाता है, जहाँ साँप (मिथ्या) रस्सी (सत्य) पर अध्यारोपित होता है।

  • अद्वैत का व्यापक दृष्टिकोण: अद्वैतवादी सभी विचारों को एक ही स्रोत से उत्पन्न मानते हैं और अन्य मतों के प्रति अधिक समावेशी होते हैं, क्योंकि वे द्वैत को केवल एक भ्रम मानते हैं जिस पर लड़ने की आवश्यकता नहीं है।

परमार्थ में द्वैत देखने के निहितार्थ:

  • संसार और दुख: द्वैत को परमार्थ में भी देखने से व्यक्ति संसार (जन्म-मृत्यु का चक्र) और उसके साथ आने वाले दुखों से बंधा रहता है

  • अज्ञान की स्थिति: यह अज्ञान (अविद्या) ही है जो जीव को अनेकता में सत्य देखने और सीमित वस्तुओं से अनंत संतोष प्राप्त करने की ओर ले जाता है, जिससे अंतहीन इच्छाएँ और पीड़ाएँ उत्पन्न होती हैं। अद्वैत के अनुसार, केवल ब्रह्म का ज्ञान ही इस माया को नष्ट कर सकता है और जीव को ब्रह्म से उसकी भिन्नता के भ्रम से मुक्त कर सकता है।

  • आत्म-साक्षात्कार का लक्ष्य: अद्वैत वेदान्त का अंतिम लक्ष्य इस माया और द्वैत को पार करके "अहम् ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) की अनुभूति करना है, जहाँ जीवत्व का नाश हो जाता है और परम अद्वैत सत्य की प्राप्ति होती है।

सांसारिक स्तर पर उपयोगिता

अद्वैत वेदान्त में, जहाँ परम सत्य अद्वैत ब्रह्म है और जगत को मिथ्या (भ्रम या प्रतीति) माना गया है, माया को जीव और ब्रह्म की भिन्नता का कारण बताया गया है, जिसे अविद्या भी कहते हैं। माया वह अनिर्वचनीय शक्ति है जो ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाकर उसके स्थान पर भौतिक जगत को प्रस्तुत करती है। इसी माया के कारण ही द्वैत या अनेकता उत्पन्न होती है।

द्वैतवादियों या द्वैत के सांसारिक स्तर पर उपयोगिता को कई पहलुओं से समझा जा सकता है:

  1. आध्यात्मिक प्रगति में एक प्रारंभिक चरण:

    • अद्वैत वेदान्त मानता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले सभी साधक तुरंत अद्वैत सत्य को ग्रहण नहीं कर सकते। ऐसे में, उपासना (पूजा) और भक्ति जैसे द्वैतवादी अभ्यास आवश्यक और उपयोगी होते हैं।

    • इन अभ्यासों में उपासक (भक्त) स्वयं को ईश्वर से अलग मानता है। गौड़पाद के अनुसार, भक्त और भगवान का द्वैत भी एक प्रकार का संसार ही है, यद्यपि यह एक "बेहतर संसार" या धार्मिक संसार है।

    • इन अभ्यासों का उद्देश्य अहंकार को कम करना और मन को शुद्ध करना है। वेदों में वर्णित द्वैतवादी अभ्यास एक अस्थायी निर्देश या द्वितीयक सत्य के रूप में दिए गए हैं, जो उच्चतर अद्वैत ज्ञान को ग्रहण करने से पहले की अवस्थाओं के लिए आवश्यक हैं। इसे अज्ञानियों के लिए करुणावश बताया गया है।

    • हालांकि, यह भी स्पष्ट किया गया है कि उपासना को परम लक्ष्य नहीं मानना चाहिए, क्योंकि इसे स्थायी रूप से अपनाना प्रगति में बाधक बन सकता है।

  2. व्यावहारिक या लौकिक वास्तविकता (व्यवहारिक सत्ता):

    • शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करता है, जिसमें व्यावहारिक सत्ता (Transactional Reality) भी शामिल है, जो जाग्रत अवस्था से संबंधित है।

    • लौकिक स्तर पर, जाग्रत अवस्था को स्वप्न अवस्था की तुलना में अधिक वास्तविक और व्यावहारिक मूल्य वाला माना जाता है। उदाहरण के लिए, जाग्रत अवस्था का भोजन ही जाग्रत अवस्था की भूख को शांत कर सकता है, स्वप्न का भोजन नहीं।

    • जीवों (व्यक्तियों) के लिए, जो जाग्रत अवस्था में अनुभव होता है, उसे ही वास्तविक माना जाता है, और जीवन का अर्थ जाग्रत जीवन से ही होता है। संसार में दक्षता से कार्य करने के लिए भूमिकाओं का निर्वहन महत्वपूर्ण है, और समाज इन भूमिकाओं के परिभाषित होने पर ही सुचारु रूप से कार्य करता है।

    • गौड़पाद का दृष्टिकोण अधिक कट्टरपंथी है, वे जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को केवल प्रतीतियाँ मानते हैं। फिर भी, वेदों में सृष्टि के विभिन्न सिद्धांतों को द्वैत के उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया गया है, और इनका उपयोग अंततः अद्वैत की ओर ले जाने वाले एक साधन के रूप में किया जाता है। यह बताता है कि द्वैत को समझने से ही अद्वैत की ओर बढ़ा जा सकता है।

  3. ईश्वर की भूमिका:

    • माया से युक्त ब्रह्म को सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहा जाता है। ईश्वर ब्रह्मांड के निर्माता, पालक और संहारक हैं। भक्तों के लिए, निर्गुण ब्रह्म ही सगुण ब्रह्म के रूप में प्रकट होते हैं, जो उनकी पवित्र पूजा का आधार बनते हैं। यह ईश्वर की भूमिका भी द्वैत के स्तर पर एक महत्वपूर्ण उपयोगिता दर्शाती है।

संक्षेप में, अद्वैत वेदान्त द्वैत (माया द्वारा निर्मित भ्रम) को परम सत्य नहीं मानता, परंतु सांसारिक व्यवहार के लिए और आध्यात्मिक मार्ग के आरंभिक चरणों में साधकों की मानसिक शुद्धि एवं प्रगति के लिए इसकी उपयोगिता को स्वीकार करता है। द्वैत की यह व्यावहारिक सत्ता अविद्या के रहते ही अनुभवगम्य होती है, और अंततः ज्ञान की प्राप्ति पर इसका अतिक्रमण हो जाता है।

संसार को 'बाहर' देखता है

अद्वैत वेदान्त के संदर्भ में, जब संसार को 'बाहर' देखा जाता है, तो यह मुख्य रूप से द्वैत (duality) के परिप्रेक्ष्य से संबंधित होता है, जहाँ जीव (व्यक्तिगत आत्मा) स्वयं को ब्रह्म (परम सत्य) से भिन्न और संसार को एक स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में अनुभव करता है। माया नामक शक्ति इस भ्रम को उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

द्वैत और 'बाहर' का अनुभव:

  • द्वैत का मूल: अद्वैत दर्शन के अनुसार, द्वैत ही संसार (suffering) का मूल कारण है। यह द्वैत, भेद या अनेकता का बोध है, जहाँ 'मैं' स्वयं को अन्य सभी से भिन्न मानता हूँ। गौड़पाद के अनुसार, भक्त और भगवान के बीच का द्वैत भी एक प्रकार का संसार है। यह द्वैत जन्म, वृद्धि, वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु जैसी सभी समस्याओं का स्रोत है।

  • जाग्रत् अवस्था में बाह्य चेतना (बहिष्प्राज्ञता): जाग्रत् (जागृत) अवस्था में चेतना को 'बहिष्प्राज्ञ' (outwardly conscious) कहा गया है, जिसका अर्थ है कि यह बाहरी वस्तुओं के प्रति सचेत रहती है। इस अवस्था में, व्यक्ति अपनी शारीरिक इंद्रियों और मन के माध्यम से भौतिक वस्तुओं का उपभोग करता है। इंद्रियों को 'मुख' के समान बताया गया है, जिनके माध्यम से बाहरी दुनिया से कंपन और जानकारी प्राप्त होती है और 'व्यक्तित्व' में आत्मसात होती है।

  • जीव और ईश्वर की बाह्य चेतना में अंतर: जीव (व्यक्तिगत आत्मा) बाहरी दुनिया के प्रति सचेत होता है, वह उन वस्तुओं, पदार्थों और विषयों से अवगत होता है जो उसके बाहर मौजूद हैं। इसके विपरीत, ईश्वर की (ब्रह्मांडीय) बाह्य चेतना 'मैं-हूँ' की सार्वभौमिक पुष्टि है, और इसके सामने कोई विरोधी वस्तु नहीं होती। जीव की बाह्य चेतना उसे संसार से बांधती है, क्योंकि वह दुनिया का मूल्यांकन करती है, न्याय करती है, उसे चाहती है या नहीं चाहती है, जिससे इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। ईश्वर, इच्छा रहित होने के कारण, बंधा हुआ नहीं है।

  • संसार एक अनुभव है, वास्तविकता नहीं: द्वैतिन दृढ़ता से अपनी व्यक्तिगत अवधारणाओं से चिपके रहते हैं और अक्सर एक-दूसरे से झगड़ते हैं, क्योंकि वे वास्तविकता (आत्मा प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न है) और दुनिया (वस्तुएँ और प्राणी स्वतंत्र हैं) दोनों में द्वैत देखते हैं। यह दुनिया का बाहरी अनुभव ही है जो हमें संसार में बाँधता है।

माया की भूमिका और भ्रम उत्पन्न करने की शक्ति:

  • अज्ञान का कारण: माया ब्रह्म से जीव की भिन्नता का कारण है और इसे अविद्या (अज्ञान) भी कहते हैं। यह ब्रह्म की एक वैचारिक शक्ति है, जिसके कई नाम हैं जैसे अविद्या, आज्ञा, अव्यक्त, अध्यास और विवर्त। यह माया रूपी उपाधि अनादि काल से ही ब्रह्म को लगी हुई है और इस अविद्या के कारण ही जीव, अपने आप को ब्रह्म से भिन्न समझता है।

  • ब्रह्म का आवरण और प्रकटीकरण: माया के दो मुख्य कार्य हैं: ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाना (अवरणा) और उसके स्थान पर भौतिक जगत को प्रस्तुत करना (विक्षेप)। यह अवास्तविक (मिथ्या) दुनिया, जैसा कि हमें प्रतीत होती है, विवर्त (अध्यारोप) के अलावा और कुछ नहीं है।

  • जगत् मिथ्या: अद्वैत मत के अनुसार, जगत् मिथ्या है। यह एक भ्रम है। जिस प्रकार अँधेरे में रस्सी को देखकर साँप का भ्रम होता है, उसी प्रकार इस भ्रांति, अविद्या, अज्ञान के कारण ही जीव इस मिथ्या संसार को सत्य मान रहा है। वास्तव में, न कोई संसार की उत्पत्ति है, न प्रलय, न कोई साधक, न कोई मोक्ष चाहने वाला है, केवल ब्रह्म ही सत्य है और कुछ नहीं।

  • दिखावा (Appearance): अनुभव की यह विशाल वस्तुनिष्ठ दुनिया केवल एक दिखावा है। गौड़पाद ने तर्क का उपयोग करके यह दिखाया है कि यह दुनिया एक स्वतंत्र वास्तविकता नहीं, बल्कि एक दिखावा है। इस दिखावे को 'मिथ्या' कहा जाता है।

  • स्वप्न से तुलना: जाग्रत् अवस्था की दुनिया और स्वप्न की दुनिया दोनों ही 'कारण शरीर' (गहरी नींद की अवस्था) की अभिव्यक्तियाँ हैं, और वास्तविकता तथा झूठ के बीच का भेद चेतना की तुलना में लुप्त हो जाता है। स्वप्न की दुनिया की तरह, जाग्रत् दुनिया की अनुभव की गई वास्तविकताएँ भी केवल 'दिखावा' हैं, न कि वास्तविक। स्वप्न में हम एक दुनिया, लोगों, स्थानों, समय और गतिविधियों को देखते हैं, लेकिन जागने पर हम कहते हैं कि यह सब हमारे मन में था, कुछ भी वास्तव में नहीं हुआ। इसी तरह, जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति के सभी अनुभव केवल चेतना में एक दिखावा हैं, कुछ नया उत्पन्न नहीं हुआ है।

  • अजातिवाद का समर्थन: गौड़पाद का अजातिवाद का सिद्धांत बताता है कि वास्तविकता में कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है; जगत और जीव केवल प्रकट (appearance) होते हैं, वे वास्तविक नहीं हैं। जब ज्ञान प्राप्त होता है, तो द्वैत या माया का यह भ्रम दूर हो जाता है।

संक्षेप में, द्वैतवादी दृष्टिकोण से संसार को 'बाहर' देखने का अर्थ है, उसे एक स्वतंत्र और वास्तविक सत्ता के रूप में अनुभव करना। यह बोध माया के कारण उत्पन्न होता है, जो ब्रह्म को आच्छादित कर जीव को अनेकता और भिन्नता का भ्रम कराती है, जिससे संसार और उससे जुड़े दुःख उत्पन्न होते हैं। अद्वैत वेदान्त इस बाहरी दिखावे को मिथ्या मानता है और जीव को परम अद्वैत सत्य (ब्रह्म) के साथ अपने अभेद को पहचानने का मार्ग दिखाता है।

परिणाम: भय, दुख, सीमितता

अद्वैत वेदान्त के अनुसार, द्वैत (duality) की धारणा ही भय, दुख और सीमितता जैसे परिणामों का मूल कारण है। ये परिणाम द्वैतवादी (dualists) दृष्टिकोण से अनिवार्य रूप से जुड़े हुए हैं, जहाँ आत्म और अनात्म के बीच भिन्नता perceived होती है।

द्वैत: समस्त समस्याओं का मूल कारण गौड़पाद के अनुसार, द्वैत ही संसार (samsara) का मूल कारण और समस्त समस्याओं का स्रोत है। जब तक मन सक्रिय रहता है, और द्वैत की धारणा बनी रहती है, तब तक संसार भी बना रहता है। द्वैत का अर्थ है 'भिन्नता'। यह मान्यता कि 'मैं आप सभी से भिन्न हूँ' या 'मैं इतना ही हूँ और इससे अधिक कुछ नहीं'—यह द्वैत ही स्थान, समय, कारणता और परिवर्तन को जन्म देता है। यहाँ तक कि भक्त और भगवान के बीच का द्वैत भी एक प्रकार का संसार ही है, क्योंकि इसमें भी भिन्नता का भाव होता है।

द्वैत के परिणाम:

  • भय (Fear):

    • स्रोत बताते हैं कि भय 'दूसरी सत्ता' से आता है। जब तक साधक सत्य में 'जरा सा भी अंतर' देखता है, उसे भय से पीड़ित होना पड़ता है।

    • जैसे ही 'सीमितता' की भावना स्वीकार कर ली जाती है ("मैं इतना ही हूँ"), इच्छा और भय दोनों उत्पन्न हो जाते हैं।

    • यह अज्ञान (अविद्या) के कारण होता है, जो माया द्वारा उत्पन्न भ्रम है, जहाँ जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न मानता है। अज्ञान के कारण, व्यक्ति एक मिथ्या संसार को सत्य मान लेता है, और यह धारणा भय और पीड़ा का कारण बनती है।

    • माया के प्रभाव में, मन संघर्ष और भय का अनुभव करता है। अद्वैत की तुरीय अवस्था को निर्भय (fearless) ब्रह्म के रूप में वर्णित किया गया है, जो इस बात पर जोर देता है कि भय द्वैत की स्थिति में ही मौजूद है।

  • दुख (Sorrow/Suffering):

    • द्वैत, जिसमें जन्म, विकास, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु जैसी अवधारणाएं शामिल हैं, समस्त दुख का मूल है।

    • माया के कारण उत्पन्न हुआ यह जगत, एक भ्रम है। जैसे सपने झूठे होते हैं या अँधेरे में रस्सी को साँप समझ लेने का भ्रम होता है, उसी तरह अज्ञान (अविद्या) के कारण जीव इस मिथ्या संसार को सत्य मानता है और इसी कारण दुख का अनुभव करता है

    • मनुष्य के कर्म भी जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसे रहने का कारण बनते हैं, जिससे दुख उत्पन्न होता है। इच्छाओं की पूर्ति अस्थायी होती है और अतृप्त इच्छाएँ तनाव और दुख को जन्म देती हैं।

    • संसार को "अशांति का जाल" (network of agitations) और समस्याओं का स्रोत बताया गया है, जो द्वैत की धारणा से उत्पन्न होती हैं। जब तक अज्ञान दूर नहीं होता, जीव को ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, भले ही ब्रह्म उसके भीतर ही मौजूद हो।

  • सीमितता (Limitation):

    • द्वैतवादी दृष्टिकोण में, व्यक्ति स्वयं को एक सीमित प्राणी मानता है। यह "मैं यह हूँ, और इससे अधिक नहीं" की धारणा ही सीमितता का भाव पैदा करती है।

    • उपनिषदों का उद्देश्य इस सीमितता से मुक्ति पाना है। द्वैतवादी उपासक जो परमेश्वर से स्वयं को अलग मानता है, उसे 'कृपण' या 'छोटा और तुच्छ' बुद्धि वाला कहा गया है, क्योंकि वह अपने अहंकार से चिपका रहता है और स्वयं को सीमित बनाए रखता है।

    • जीव की चेतना स्थानिक रूप से सीमित (aikadeśika) और अल्पज्ञान (little-knowing) वाली होती है, जबकि ईश्वर या ब्रह्म सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है। जीव की शक्तियां भी सीमित होती हैं, और उसकी इच्छाएँ उसे कमजोर बनाती हैं। इसके विपरीत, ब्रह्म असीम (limitless/ananda) है।

संक्षेप में, अद्वैत वेदान्त का सार यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत मिथ्या है। जीव केवल अज्ञान के कारण ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है, जबकि वास्तव में वह ब्रह्म ही है। जब यह अज्ञान दूर हो जाता है, तो माया द्वारा उत्पन्न ये सभी परिणाम—भय, दुख, और सीमितता—समाप्त हो जाते हैं, और जीव अपनी वास्तविक, अद्वैत प्रकृति को पहचान लेता है।


अद्वैत (अद्वैतिन)

माण्डूक्य उपनिषद् और अद्वैत वेदांत की परंपरा में अद्वैत एक केंद्रीय अवधारणा है, जिसे "दो नहीं" या अद्वैत के रूप में समझा जाता है। यह इस सिद्धांत को दर्शाता है कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है, संसार एक मिथ्या या आभास है, और जीव (व्यक्तिगत आत्मा) ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह विचारधारा द्वैत से मूलभूत रूप से भिन्न है, जो भेद और बहुलता को वास्तविक मानती है।

अद्वैत और द्वैत का संबंध:

अद्वैत दर्शन में, द्वैत (द्वैतवाद) को संसार और दुःख (संसार) का मूल कारण माना जाता है। गौड़पाद कहते हैं कि जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं में अनुभव किया गया सारा द्वैत मन की कल्पना है। यह द्वैत, जो वस्तुओं, लोगों, समय और स्थान में अंतर के रूप में प्रकट होता है, मोह और भय का स्रोत है। यहाँ तक कि भक्त और भगवान के बीच का द्वैत संबंध भी गौड़पाद के अनुसार एक प्रकार का संसार ही है, क्योंकि इसमें भी अंतर और सीमा का भाव रहता है।

इसके विपरीत, अद्वैत वह परम सत्य है जहाँ सभी भेद मिट जाते हैं। यह ब्रह्म का निर्गुण स्वरूप है, जो सभी गुणों से परे है। अद्वैतिन (अद्वैत दर्शन के अनुयायी) मानते हैं कि परमार्थिक दृष्टि से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, सब केवल एक आभास है, जिसे अजातिवाद कहा जाता है। गौड़पाद का अजातिवाद एक अधिक कट्टरपंथी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसके अनुसार जगत कभी वास्तव में अस्तित्व में नहीं आया।

माया का महत्व:

द्वैत का आभास माया के कारण होता है, जिसे अविद्या भी कहते हैं। माया ब्रह्म की जटिल, मायावी शक्ति है जिसके कारण ब्रह्म विभिन्न रूपों के भौतिक जगत के रूप में दिखाई देता है, जैसे निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म। यह न तो पूरी तरह से वास्तविक है और न ही पूरी तरह से असत्य, इसलिए इसे अनिर्वचनीय कहा गया है। माया के दो मुख्य कार्य हैं: ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाना (आवरण) और भौतिक जगत को उसके स्थान पर प्रस्तुत करना (विक्षेप)।

तुरीय (निःशब्द) और मात्राओं से संबंध:

माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं को ओम् के विभिन्न भागों से जोड़कर व्याख्यायित करता है:

  1. जाग्रत् अवस्था: यह स्थूल जगत का अनुभव है, ओम् के 'अ' (अकार) से संबंधित है।

  2. स्वप्नावस्था: यह सूक्ष्म जगत का अनुभव है, ओम् के 'उ' (उकार) से संबंधित है।

  3. सुषुप्ति अवस्था: यह गहरी नींद की अवस्था है जहाँ सभी अनुभव एक चेतनता के पुंज में मिल जाते हैं, ओम् के 'म्' (मकार) से संबंधित है। इसे जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं का कारण या बीज अवस्था माना जाता है।

तुरीय वह चौथी अवस्था है जो इन तीनों से परे है। यह ओम् का निःशब्द या अमात्रा भाग है। तुरीय चेतना की शुद्ध, शांत, अद्वैत, शिव अवस्था है। इसकी मुख्य विशेषताएँ हैं:

  • अवाचनीय और अवर्णनीय: तुरीय को निःशब्द, अवाचनीय, अव्यपदेश्य (अवर्णनीय) कहा गया है। यह ओम् के अक्षरों से परे है क्योंकि यह वाणी और मन की सीमाओं से परे है। यह परम मौन है, जो ध्वनि की अनुपस्थिति मात्र नहीं, बल्कि स्वयं आत्मा/चेतना है।

  • अद्वैत और निर्गुण: तुरीय अद्वैत है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई द्वैत या भेद नहीं है—न समय, न स्थान, न व्यक्ति, न वस्तुएँ। यह निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप है।

  • प्रपंचोपशमम्: तुरीय को 'समस्त प्रपंच का उपशमन' (सभी घटनाओं की समाप्ति) कहा गया है। यह विश्व से रहित है ('worldless')। द्वैत, जो मन की कल्पना है, मन को पार करने पर समाप्त हो जाता है।

  • कारण और कार्य से परे: तुरीय न तो कोई कारण है और न ही कोई कार्य। यदि यह किसी चीज़ का कारण होता, तो द्वैत उत्पन्न होता।

  • स्वयं आत्मा: तुरीय को स्वयं आत्मा और शुद्ध चेतना के रूप में पहचाना जाता है। यह कोई अस्थायी अवस्था नहीं है, बल्कि चेतना का शुद्ध, शाश्वत स्वरूप है, जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति जैसी सभी अवस्थाओं का साक्षी है।

अद्वैतिन का दृष्टिकोण:

अद्वैतिन मानते हैं कि सच्चा ज्ञान हमें आत्मन के रूप में अपनी असीमित प्रकृति को समझने में मदद करता है। अद्वैत वेदांत में प्रार्थना व्यवहारिक स्तर पर स्वीकार्य है, लेकिन इसका अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार (enlightenment) और जीवनमुक्ति (इस जीवन में मुक्ति) है। अद्वैत दर्शन में कर्म-कांड (कर्तव्य) और उपासना-कांड (अनुष्ठान) को ज्ञान-कांड से अलग माना गया है, जिसमें उपनिषदों में निहित ज्ञान शामिल है।

अद्वैतिन दार्शनिक अन्य दार्शनिक विचारों के साथ वाद-विवाद नहीं करते, क्योंकि वे द्वैत को माया का एक खेल मानते हैं, जो अंतिम सत्य नहीं है। वे सभी में स्वयं को देखते हैं, और इसलिए विरोधियों के प्रति भी अनुकूल दृष्टिकोण रखते हैं। मन को शांत करके अमानीभाव (मन-रहित अवस्था) प्राप्त करना आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक है। यह मन को नष्ट करना नहीं, बल्कि उसकी वस्तुकरण की प्रवृत्ति को पार करना है।

संक्षेप में, ओम् की मात्राएँ (अ, उ, म) चेतना की तीन सापेक्ष अवस्थाओं और प्रकट जगत का प्रतीक हैं, जबकि अमात्रा या निःशब्द तुरीय परम, अद्वैत, अप्रकट और अपरिवर्तनीय सत्य है।

परमार्थ में अद्वैत

अद्वैत वेदान्त में, परमार्थ में अद्वैत का अर्थ है परम सत्य के रूप में अद्वैत (न-दो) की अवधारणा, जो कि द्वैत (duality) के विपरीत है, जिसे अविद्या या माया के कारण उत्पन्न होने वाला भ्रम माना जाता है। अद्वैतिन मानते हैं कि ब्रह्म (परम चेतना) ही एकमात्र परमार्थ सत्य है, और जीव (व्यक्तिगत आत्मा) तथा जगत् (संसार) मिथ्या हैं।

द्वैत की धारणा और उसके परिणाम गौड़पाद के अनुसार, द्वैत ही संसार (जन्म-मृत्यु का चक्र) का मूल कारण और सभी समस्याओं का स्रोत है। यह 'भिन्नता' की भावना है – "मैं आप सभी से भिन्न हूँ" या "मैं इतना ही हूँ और इससे अधिक कुछ नहीं"। इस द्वैत से स्थान, समय, कारणता और परिवर्तन उत्पन्न होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप जन्म, विकास, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु जैसी अवधारणाएँ आती हैं। ये सभी दुख (suffering) का कारण हैं।

परमार्थ में अद्वैत की प्राप्ति के मार्ग पर, द्वैत के तीन प्रमुख परिणाम हैं:

  • भय (Fear): द्वैत से भय उत्पन्न होता है। जब तक साधक सत्य में "जरा सा भी अंतर" देखता है, उसे भय से पीड़ित होना पड़ता है। भय "दूसरी सत्ता" से आता है। जब "सीमितता" की भावना ("मैं इतना ही हूँ") स्वीकार कर ली जाती है, तो इच्छा और भय दोनों उत्पन्न हो जाते हैं। ब्रह्म को निर्भय (fearless) बताया गया है, जो दर्शाता है कि भय केवल द्वैत की स्थिति में मौजूद है।

  • दुख (Sorrow/Suffering): संसार, जो द्वैत से उत्पन्न होता है, "अशांति का जाल" है और समस्याओं का स्रोत है। माया के कारण उत्पन्न यह जगत एक भ्रम है। अज्ञान (अविद्या) के कारण जीव इस मिथ्या संसार को सत्य मानता है और इसी कारण दुख का अनुभव करता है। इच्छाओं की पूर्ति अस्थायी होती है और अतृप्त इच्छाएँ तनाव और दुख को जन्म देती हैं।

  • सीमितता (Limitation): द्वैतवादी दृष्टिकोण में, व्यक्ति स्वयं को एक सीमित प्राणी मानता है। "मैं इतना ही हूँ, और इससे अधिक नहीं" की धारणा ही सीमितता का भाव पैदा करती है। उपनिषदों का उद्देश्य इस सीमितता से मुक्ति पाना है। गौड़पाद द्वैतवादी उपासक को 'कृपण' या 'छोटा और तुच्छ' बुद्धि वाला कहते हैं, क्योंकि वह स्वयं को सीमित बनाए रखता है। जीव की चेतना स्थानिक रूप से सीमित (aikadeśika) और अल्पज्ञान (little-knowing) वाली होती है, जबकि ब्रह्म असीम (limitless/ananda) है।

परमार्थ में अद्वैत की प्रकृति अद्वैत वेदान्त का मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" है - अर्थात् ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। गौड़पाद के अनुसार, आत्मा ही तुरीय (चौथी अवस्था) है, जो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से परे है। यह अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्ष्य, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य है।

परमार्थ में अद्वैत के मुख्य पहलू:

  • जगत की मिथ्याता (Appearance/Falsehood of the World): गौड़पाद ने तर्क का उपयोग करके यह साबित किया कि ब्रह्मांड एक मिथ्या है, एक वास्तविक, स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यह माया द्वारा एक प्रक्षेपण है। इस जगत का अस्तित्व केवल प्रतीति में है, जैसे रस्सी में साँप का भ्रम या सपने में देखी गई वस्तुएँ।

  • अजातिवाद (No Origination/Creation): गौड़पाद का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत अजातिवाद है। इसका अर्थ है कि तुरीय (ब्रह्म) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। यदि ब्रह्म से कोई दूसरी चीज़ उत्पन्न होती, तो द्वैत आ जाता और अद्वैत नष्ट हो जाता। इसलिए, वास्तव में कोई सृष्टि नहीं हुई है; जो कुछ भी प्रकट होता है वह एक प्रतीति मात्र है।

  • असंगत्व (No Relationship/Contact): तुरीय का जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति या संपूर्ण ब्रह्मांड से कोई वास्तविक संबंध नहीं है। रस्सी का साँप से कोई संबंध नहीं होता, भले ही साँप रस्सी पर आरोपित हो। यह दर्शाता है कि तुरीय अप्रभावित रहता है, चाहे उसमें कुछ भी दिखाई दे।

  • अमनोभाव (No Mind): द्वैत की अनुभूति तभी तक होती है जब तक मन सक्रिय रहता है। मन के पार जाने पर द्वैत का अनुभव नहीं होता। आत्म-ज्ञान के लिए मन को 'निर्मन' (नो माइंड) अवस्था में लाना आवश्यक है, जहाँ संकल्प या विचार रुक जाते हैं।

  • सत्-चित्-आनन्द स्वरूप: तुरीय, जो ब्रह्म है, सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना) और आनन्द (परम आनंद) का शुद्ध स्वरूप है। यह अविनाशी, अपरिवर्तनीय और अनन्त है।

शंकराचार्य और अद्वैत: आदि शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को विकसित किया और उन्हें उपनिषदों और ब्रह्म सूत्रों के साथ एकीकृत किया। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि उपनिषद ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप की शिक्षा देते हैं, जो ही परम सत्य है।

  • माया और अविद्या: शंकराचार्य के अनुसार, माया ब्रह्म की एक शक्ति है जिसके कारण जगत की विभिन्नता प्रतीत होती है। माया अविद्या का रूप है, जो जीव को ब्रह्म से भिन्न मानने का भ्रम पैदा करती है।

  • वास्तविकता के तीन स्तर: शंकराचार्य, गौड़पाद के अधिक कट्टरपंथी दृष्टिकोण की तुलना में, वास्तविकता के तीन स्तर मानते हैं:

    • पारमार्थिक सत्ता (Paramarthika Satya): यह केवल ब्रह्म या तुरीय है, जो एकमात्र परम और अपरिवर्तनीय सत्य है।

    • व्यावहारिक सत्ता (Vyavaharika Satya): यह जाग्रत अवस्था का संसार है, जिसे हम व्यवहार में सत्य मानते हैं, यद्यपि यह परमार्थ सत्य नहीं है।

    • प्रातिभासिक सत्ता (Pratibhasika Satya): यह केवल भ्रम है, जैसे स्वप्न या रस्सी में साँप का भ्रम। यह विभाजन व्यावहारिक जगत की सापेक्षिक वास्तविकता को स्वीकार करते हुए भी परमार्थ में अद्वैत को बनाए रखता है।

  • निर्गुण ब्रह्म: परमार्थ सत्य के रूप में ब्रह्म निर्गुण (गुण रहित) है। यह मन और शब्दों की पहुँच से परे है, इसलिए इसे "नेति नेति" (यह नहीं, यह नहीं) कहकर वर्णित किया जाता है।

रमना महर्षि का दृष्टिकोण: श्री रमना महर्षि भी तुरीय को आत्मा का सच्चा स्वरूप मानते हैं। उनके अनुसार, तुरीय जगत्-रहित (worldless) है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई बाहरी घटना या वस्तुएँ मौजूद नहीं होतीं। यह सभी घटनाओं का विलय है।

संक्षेप में, अद्वैत वेदान्त में परमार्थ में अद्वैत का अर्थ है कि परम सत्य एक, अविभाज्य ब्रह्म है, जो किसी भी प्रकार के द्वैत (भेदभाव, बहुलता, संबंध) से रहित है। भय, दुख, और सीमितता जीव के अज्ञान और स्वयं को इस ब्रह्म से भिन्न मानने के कारण उत्पन्न होते हैं। आत्म-ज्ञान और अविद्या का नाश होने पर जीव अपनी वास्तविक अद्वैत प्रकृति को पहचान लेता है, और ये सभी परिणाम समाप्त हो जाते हैं।

द्वैत को माया का प्रभाव मानता है

समस्त में स्वयं को देखता है

परिणाम: अभय (निर्भयता)

माया: भ्रम उत्पन्न करने वाली शक्ति

माण्डूक्य उपनिषद् और अद्वैत वेदान्त के अनुसार, माया एक ऐसी शक्ति है जो भ्रम उत्पन्न करती है और द्वैत (duality) तथा अद्वैत (non-duality) के वृहत्तर संदर्भ में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

माया का स्वरूप और भ्रम उत्पन्न करने की शक्ति:

  • परिभाषा और प्रकृति: माया को ब्रह्म से जीव की भिन्नता का कारण बताया गया है, और इसे अविद्या (अज्ञान) भी कहते हैं। यह ब्रह्म की एक वैचारिक शक्ति है, जिसके कई नाम हैं जैसे अविद्या, आज्ञा, अव्यक्त, अध्यास और विवर्त। माया को अनिर्वचनीय (indescribable) कहा गया है, जिसका अर्थ है कि इसे न तो पूरी तरह से वास्तविक कहा जा सकता है और न ही पूरी तरह से असत्य।

  • प्रकट होने का तरीका: माया स्वयं को दो तरह से अभिव्यक्त करती है: छिपाना (अवरणा) और प्रक्षेपण (विक्षेप)। यह ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाती है और उसके स्थान पर भौतिक जगत को प्रस्तुत करती है।

  • भ्रम और अवास्तविकता: माया की शक्ति के कारण ही यह vast objective universe of our experience एक स्वप्न की तरह प्रकट होता है। गौड़पाद के अनुसार, जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में अनुभव किया गया सारा द्वैत मन की कल्पना है। संसार को मिथ्या (appearance/false) कहा गया है, जो माया, अविद्या या अज्ञान के कारण भ्रमित होकर सत्य प्रतीत होता है। इसे रस्सी में साँप के भ्रम या सपने की तरह अवास्तविक बताया गया है। वास्तव में, अवास्तविक कभी पैदा नहीं हो सकता।

द्वैत और माया का संबंध:

  • द्वैत का कारण: माया ही द्वैत या अनेकता की जननी है। माण्डूक्य उपनिषद् यह सिखाता है कि मन ही द्वैत है। जब तक मन सक्रिय रहता है, द्वैत और संसार (samsara) बना रहता है।

  • संसार और अवस्थाएँ: माया के कारण ही चेतना की तीन अवस्थाएँ—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—और इनसे संबंधित सारा प्रपंच (phenomenal world) उत्पन्न होता है। द्वैत को ही संसार (samsara) का मूल कारण और समस्त समस्याओं का स्रोत बताया गया है। गौड़पाद द्वैतवादी विचारों को, यहाँ तक कि भक्त और भगवान के द्वैत को भी, एक प्रकार का संसार ही मानते हैं।

  • अध्यारोप: माया के माध्यम से वास्तविक पर अवास्तविकता का अध्यारोप (superimposition) होता है। यह एक भ्रामक सुपरइम्पोजिशन है जो रस्सी पर साँप के भ्रम की तरह है। सृष्टिक्रम को समझाने वाले सिद्धांत अध्यारोप हैं, जो सत्य पर अस्थायी रूप से थोपे गए हैं।

  • सगुण ब्रह्म: माया से युक्त ब्रह्म को सगुण ब्रह्म (God with attributes) कहा जाता है। यह वह व्यक्तिगत ईश्वर है जो ब्रह्मांड का निर्माता, पालनकर्ता और संहारक है।

अद्वैत और माया का संबंध:

  • माया का अतिक्रमण: अद्वैत वेदान्त का लक्ष्य माया द्वारा उत्पन्न द्वैत का निवारण कर परम सत्य को जानना है। जब तक अज्ञान (अविद्या) दूर नहीं होता, जीव ब्रह्म को जान नहीं पाता, जबकि ब्रह्म उसी के भीतर स्थित है।

  • तुरीय अवस्था: तुरीय अवस्था, जिसे आत्मा या स्वयं कहा जाता है, द्वैत रहित (non-dual) है। यह समस्त प्रपंच का उपशमन (cessation of all phenomena) है, यानी इसमें कोई वस्तुगत घटना या अभिव्यक्ति नहीं होती। रामण महर्षि के अनुसार, तुरीय 'विश्वहीन' (worldless) है। तुरीय में, सभी नाम और नामयोग्य वस्तुएँ (जो वाणी और मन के रूप हैं) अदृश्य हो जाते हैं।

  • अजातिवाद: गौड़पाद का अजातिवाद (non-origination) का सिद्धांत बताता है कि वास्तविकता में कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है; जगत और जीव केवल प्रकट (appearance) होते हैं, वे वास्तविक नहीं हैं। यह सिद्धांत स्थापित करता है कि तुरीय किसी भी वस्तु का कारण नहीं है, क्योंकि कारण होने से द्वैत उत्पन्न होगा, जो अद्वैत को नष्ट कर देगा।

  • निर्गुण ब्रह्म: माया रहित शुद्ध ब्रह्म निर्गुण ब्रह्म (God without attributes) है। सगुण और निर्गुण ब्रह्म दो अलग-अलग ब्रह्म नहीं हैं, बल्कि एक ही सत्य के दो दृष्टिकोण हैं।

  • अपवाद: ज्ञान प्राप्त होने पर सृष्टिविद्या के सिद्धांतों का अपवाद (de-superimposition) हो जाता है, जिससे व्यक्ति वापस ब्रह्म के स्रोत की ओर लौटता है। माया के नष्ट होने पर, जीव और ब्रह्म के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता।

  • आत्म-साक्षात्कार: जब जीव अविद्या से रहित होकर "अहम् ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तो उसका जीवत्व नष्ट हो जाता है। आत्म-ज्ञान ही माया को नष्ट कर सकता है। चेतना की तुरीय अवस्था में मन का "मनोरहित" या अमनीभाव (no mind) हो जाता है। यह ज्ञान शुद्ध चेतना की एक अवस्था है जो इच्छा और पीड़ा से रहित है, जिसे सत्-चित्-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) भी कहा जाता है।

निष्कर्षतः, माया वह भ्रम उत्पन्न करने वाली शक्ति है जो अनेकता और संसार का निर्माण करती है, जिससे जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न मानता है। अद्वैत वेदान्त का लक्ष्य इस माया और द्वैत का अतिक्रमण करके परम अद्वैत सत्य—तुरीय अवस्था—की अनुभूति करना है, जहाँ केवल ब्रह्म ही सत्य है और कोई अन्य सत्ता नहीं है।



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