Monday, August 11, 2025

पंचदशी सार 06

 अध्याय 6: चित्रदीप

पञ्चदशी ग्रंथ के खंड के व्यापक संदर्भ में, अध्याय 6: चित्रदीप "दीपा" नामक दूसरे खंड का पहला अध्याय है। यह अध्याय ग्रंथ की समग्र दार्शनिक संरचना में केंद्रीय भूमिका निभाता है, जिसका उद्देश्य परम सत्य के चित् (चेतना) पहलू पर प्रकाश डालना है, और यह स्थापित करना है कि चेतना ही सर्वोच्च सिद्धांत है, जो शुद्ध अस्तित्व के साथ अभिन्न है।

चित्रदीप का अर्थ और केंद्रीय सादृश्य (Analogy):

  • "चित्रदीप" का शाब्दिक अर्थ "चित्र के सादृश्य पर प्रकाश" है। यह अध्याय संसार की रचना की प्रक्रिया की तुलना चित्रकला की प्रक्रिया से करता है।

  • चित्रकला की प्रक्रिया में चार अवस्थाएँ होती हैं:

    1. पहले कैनवास (वस्त्र) होता है।

    2. फिर कैनवास को मंड (स्टार्च) से कड़ा किया जाता है।

    3. कड़े किए गए कपड़े पर रेखाएँ (रूपरेखा) खींची जाती हैं।

    4. अंत में रंग (स्याही) भरे जाते हैं। इसी प्रकार, संसार की रचना में भी चार अवस्थाएँ हैं।

चेतना का चतुर्विध वर्गीकरण (Fourfold Distinction of Consciousness):

  • चित्रदीप में ब्रह्मन् की चार अवस्थाओं को समझाने के लिए आकाश के उदाहरण का प्रयोग किया गया है:

    1. कूटस्थ (Kutastha): यह ब्रह्मन् का वह अपरिवर्तनीय आधार है जिस पर भौतिक और सूक्ष्म शरीर आधारित होते हैं। इसे घट-आकाश (घड़े में निहित आकाश) के समान बताया गया है।

    2. ब्रह्मन् (Brahman): यह विशाल, सार्वभौमिक आकाश के समान है, जो समस्त सृष्टि का परम सत्य है।

    3. ईश्वर (Ishvara): यह माया से युक्त ब्रह्मन् है, जो सृष्टि का कारण है और सभी प्राणियों का अंतर्यामी और सर्वज्ञ है। इसे बादलों में परिलक्षित आकाश के समान बताया गया है।

    4. जीव (Jiva): यह व्यक्तिगत चेतना है, जो अहंकार और सूक्ष्म व स्थूल शरीर के साथ तादात्म्य करती है। इसे घड़े के भीतर के पानी में परिलक्षित आकाश के समान बताया गया है।

दार्शनिक महत्व और प्रमुख अवधारणाएँ:

  • चित्रदीप को पञ्चदशी का "सबसे महत्वपूर्ण" अध्याय माना गया है, जो वेदांत दर्शन की नींव रखता है।

  • यह मुख्य रूप से ईश्वर (भगवान), जगत् (संसार) और जीव (व्यक्ति) की प्रकृति और उनके बीच की परस्पर क्रिया पर केंद्रित है।

  • माया (Maya): माया को ब्रह्मांड का मूल कारण (उपादान कारण) और ईश्वर की शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। यह विलक्षण, अवर्णनीय है और ईश्वर, जीव और जगत् के बीच भेदों को उत्पन्न करती है। माया की इस अचिन्त्य शक्ति के कारण ही संसार के कार्य होते हैं।

  • जीव और कूटस्थ का संबंध: कूटस्थ आत्मा शरीर और मन का साक्षी है, और यह अपरिवर्तित रहता है। जीव का स्वरूप बुद्धि पर कूटस्थ के प्रतिबिंबन से बनता है, जिसके कारण वह संसार में फँस जाता है। जीव के बदलती प्रकृति (जैसे सुख-दुख) कूटस्थ पर आरोपित होती है, और कूटस्थ की अपरिवर्तनीयता जीव पर आरोपित होती है, जिससे मूल अविद्या (Original Ignorance) उत्पन्न होती है।

  • सांख्य दर्शन का खंडन: चित्रदीप में सांख्य दर्शन के पुरुष और प्रकृति के द्वैतवाद की भी चर्चा की गई है, जिसमें सांख्य के मोक्ष की अवधारणा को खंडित किया गया है, क्योंकि पञ्चदशी के अनुसार स्वतंत्रता या तो पूर्ण होनी चाहिए या उसका कोई मूल्य नहीं।

अन्य अध्यायों से संबंध और ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया:

  • यह अध्याय पंचभूत विवेक (अध्याय 2) के सार्वभौमिक चेतना के विश्लेषण और पंचकोश विवेक (अध्याय 3) के व्यक्तिगत चेतना (आत्मा) को पाँच कोशों से भिन्न करने के आधार पर निर्मित है।

  • यह महावाक्य विवेक (अध्याय 5) में बताए गए महावाक्यों (जैसे "अयमात्मा ब्रह्म") के अर्थ को विस्तार से समझाता है, जो व्यक्तिगत आत्मा और ब्रह्म की एकात्मता को दर्शाते हैं। अध्याय 6 इन महावाक्यों की शिक्षाओं को प्रत्यक्ष अनुभव में बदलने के लिए एक व्यावहारिक ढाँचा प्रदान करता है।

  • ज्ञान प्राप्ति के लिए श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन) और निदिध्यासन (गहरा ध्यान) की प्रक्रिया पर बल दिया गया है।

  • यह तर्क और शास्त्रों के महत्व पर भी जोर देता है, लेकिन इस बात पर भी कि तर्क को शास्त्रों के निष्कर्षों और आत्म-अनुभव पर आधारित होना चाहिए, ताकि भ्रामक निष्कर्षों से बचा जा सके।

  • अप्रत्यक्ष ज्ञान (शास्त्रों या गुरु से प्राप्त) को प्रत्यक्ष ज्ञान (वास्तविक अनुभव) में बदलने के लिए निरंतर विचार और अभ्यास आवश्यक है।

निष्कर्ष और लाभ:

  • ग्रंथ यह प्रतिज्ञा करता है कि जो साधक इस अध्याय का नियमित रूप से अध्ययन और मनन करते हैं, वे संसार के प्रति अपनी आसक्ति और मोह से मुक्त हो जाएंगे।

  • यह सत्यज्ञान के मार्ग पर आने वाली बाधाओं को दूर करने और अंततः मोक्ष (विमुक्ति) प्राप्त करने में सहायक है।

कुल मिलाकर, चित्रदीप केवल एक रूपक नहीं है, बल्कि यह अद्वैत वेदांत के गहरे सिद्धांतों को समझने के लिए एक विस्तृत मार्गदर्शिका है, जो साधक को जीव, ईश्वर और ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप का बोध कराकर संसार के मोह से मुक्त होने में सहायता करता है।

सृष्टि की प्रक्रिया (चित्रकला से उपमा)

पञ्चदशी ग्रंथ के अध्याय 6: चित्रदीप का केंद्रीय विषय सृष्टि की प्रक्रिया को चित्रकला के सादृश्य के माध्यम से समझाना है। यह अध्याय "दीपा" नामक दूसरे खंड का पहला और सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। इसे वेदांत दर्शन की नींव रखने वाला माना जाता है और इसे गहन एकाग्रता के साथ अध्ययन करने की आवश्यकता होती है।

चित्रकला के सादृश्य से सृष्टि की प्रक्रिया: चित्रदीप अध्याय संसार की रचना को एक चित्र बनाने की प्रक्रिया से तुलना करता है। चित्रकला में चार अवस्थाएँ होती हैं, और इसी तरह सृष्टि में भी चार अवस्थाएँ मानी गई हैं:

  1. कैनवास (वस्त्र): सबसे पहले, एक चित्रकला के लिए एक कैनवास या वस्त्र होता है।

  2. कड़ा करना (मंड): फिर, कैनवास को मंड (स्टार्च) से कड़ा किया जाता है।

  3. रूपरेखा खींचना (रेखाएँ): कड़े किए गए कपड़े पर चित्रकला की रूपरेखा खींची जाती है।

  4. रंग भरना (स्याही): अंत में, चित्र में स्याही या रंग भरे जाते हैं।

यह सादृश्य ब्रह्मन् और उसकी इच्छा (संकल्प) के बीच के संबंध को भी दर्शाता है। जैसे वस्त्र और मंड (स्टार्च) को मिलाकर कैनवास बनता है, वैसे ही ब्रह्मन् और उसकी इच्छा (संकल्प) को मिलाकर ईश्वर बनता है।

चित्रदीप में प्रमुख दार्शनिक अवधारणाएँ और सृष्टि से उनका संबंध:

  • माया की भूमिका:

    • माया को ब्रह्मांड का उपादान कारण (भौतिक कारण) माना गया है।

    • श्वेताश्वतर उपनिषद के अनुसार, माया को प्रकृति माना जाना चाहिए और महेशवर (परमेश्वर) को इसका मायी (नियंता) माना गया है।

    • माया को एक अचिन्त्य (अतुलनीय/अचिंतनीय) शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है, जिसकी प्रकृति को समझना कठिन है। माया की यही विशेषता है कि वह ऐसे प्रश्न खड़े करती है जिनका उत्तर देना संभव नहीं होता।

    • माया पूरे ब्रह्मन् में नहीं, बल्कि उसके कुछ विशेष पहलुओं में ही कार्य करती है, जैसे मिट्टी में घड़े बनाने की क्षमता हर जगह नहीं, बल्कि कुछ विशेष स्थानों पर ही होती है।

    • माया आश्चर्यजनक कार्य करने में सक्षम है; उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। एक बीज में छिपा विशाल वृक्ष माया की अद्भुत शक्ति का एक उदाहरण है।

  • चेतना का चतुर्विध वर्गीकरण (आकाश का उदाहरण):

    • चित्रदीप में चेतना की चार अवस्थाओं - ब्रह्मन्, ईश्वर, कूटस्थ और जीव - को समझाने के लिए आकाश का एक उत्कृष्ट उदाहरण दिया गया है।

      1. शुद्ध आकाश (Pure sky): यह ब्रह्मन् है।

      2. घड़े में निहित आकाश (Sky inside the pot): यह आत्मा या कूटस्थ है। कूटस्थ वह अपरिवर्तनीय आधार है जिस पर भौतिक और सूक्ष्म शरीर आधारित होते हैं, जैसे लोहार की निहाई।

      3. बादलों में परिलक्षित आकाश (Sky reflected in clouds): यह ईश्वर है।

      4. घड़े के पानी में परिलक्षित आकाश (Sky reflected in water in the pot): यह जीव है।

    • कूटस्थ की सत्ता, चेतना और आनंद का जीवत्व पर और जीव के बदलते स्वरूप (जैसे सुख-दुख) का कूटस्थ पर अन्योन्याध्यास (पारस्परिक आरोपण) होता है, जिससे जीव अपनी मूल प्रकृति को भूल जाता है।

  • सृष्टि के विभिन्न पहलू:

    • ईश्वर-सृष्टि (ईश्वर द्वारा निर्मित सृष्टि): यह परम सत्ता के मूल विचार (आदिम संकल्पना) से लेकर ब्रह्मांड में प्रत्येक विविध वस्तु के चेतना द्वारा चेतनता तक फैली हुई है।

    • जीव-सृष्टि (व्यक्तिगत कल्पना): यह जाग्रत अवस्था से लेकर जीव की अंतिम मुक्ति तक फैली हुई है। चीजें जैसी वे स्वयं में हैं, वह ईश्वर-सृष्टि है, और जिन चीजों को व्यक्तियों की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं के साथ निवेशित किया जाता है, वह जीव-सृष्टि है।

    • सारा ब्रह्मांड इंद्रियों द्वारा जानने योग्य, कर्म इंद्रियों द्वारा छूने योग्य, मन द्वारा विचारणीय तथा शास्त्र और गुरु के उपदेश से जानने योग्य, "इदम्" (यह) कहलाता है।

    • यह संसार, ईश्वर की ही शक्ति का प्रकटीकरण है।

  • संसार की अनित्यता (Phenomenal Reality):

    • चित्रदीप में संसार को एक "अवास्तविक" (unreal) या "मायावी" (illusory) चित्र के समान बताया गया है। जैसे एक चित्र वास्तविक वस्तु नहीं होता, वैसे ही संसार भी माया का एक प्रकटीकरण मात्र है।

    • माया के कारण ही संसार वास्तविक प्रतीत होता है।

    • ग्रंथ यह स्पष्ट करता है कि सभी परिवर्तन शब्दों का ही खेल है, मूल सत्य केवल आधारभूत पदार्थ में निहित है, जैसे मिट्टी।

ज्ञान प्राप्ति और चित्रदीप का महत्व: यह अध्याय वेदांत के केंद्रीय सिद्धांतों को समझने के लिए एक विस्तृत रूपरेखा प्रदान करता है। जो साधक इस अध्याय का नियमित रूप से अध्ययन और मनन करते हैं, वे संसार के प्रति अपनी आसक्ति और मोह से मुक्त हो जाएंगे। अध्ययन से प्राप्त ज्ञान साधक को सत्य और असत्य के बीच भेद करने में सहायता करता है, जिससे वह संसार के प्रति अपनी पुरानी आसक्ति से मुक्त हो पाता है। यह ज्ञान साधक को अपने सच्चे स्वरूप को पहचानने में मदद करता है, जिससे वह परम आनंद की प्राप्ति कर पाता है।

ब्रह्मन, ईश्वर, हिरण्यगर्भ, विराट

पञ्चदशी ग्रंथ के अध्याय 6: चित्रदीप का केंद्रीय विषय सृष्टि की प्रक्रिया को चित्रकला के सादृश्य के माध्यम से समझाना है। यह अध्याय पञ्चदशी के दूसरे खंड 'दीप' का पहला और सबसे महत्वपूर्ण अध्याय माना जाता है, जो वेदांत दर्शन की नींव रखता है और इसके गहन एकाग्रता से अध्ययन की आवश्यकता होती है।

अध्याय 6 में ब्रह्मन, ईश्वर, हिरण्यगर्भ और विराट को सृष्टि की प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं और चेतना की विभिन्न अभिव्यक्तियों के रूप में समझाया गया है:

1. ब्रह्मन (ब्रह्म):

  • परम सत्ता और चेतना: ब्रह्मन को शुद्ध सत्ता (Sat), चेतना (Chit) और आनंद (Ananda) के रूप में वर्णित किया गया है। यह परम, अपरिवर्तनीय सत्य है जो सब कुछ का आधार है।

  • अद्वैत स्वरूप: ब्रह्मन अद्वितीय है, जिसके भीतर या बाहर कुछ भी नहीं है। इसे इंद्रियों द्वारा सीधे नहीं जाना जा सकता, बल्कि इसके प्रभावों के विश्लेषण से इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

  • चित्रकला सादृश्य: सृष्टि के चित्रकला सादृश्य में, ब्रह्मन को कैनवास (वस्त्र) के रूप में देखा जा सकता है, जो चित्र (संसार) का आधार है।

2. ईश्वर (ईश्वर):

  • माया का अधिपति: ईश्वर को माया का नियंत्रक या स्वामी (मायी) कहा गया है, और माया को ब्रह्मांड का भौतिक कारण (प्रकृति) माना गया है।

  • सृष्टि का कारण: ईश्वर ब्रह्मांड का उपादान कारण (भौतिक कारण) और निमित्त कारण (बुद्धिमान कारण) दोनों है।

  • सर्वज्ञ और अंतर्यामी: शास्त्रों में ईश्वर को सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) और अंतर्यामी (सभी का अंतरंग शासक) बताया गया है।

  • संकल्प शक्ति: ईश्वर का आदिम संकल्प (इच्छा) सृष्टि की प्रक्रिया का प्रारंभिक बिंदु है।

  • चित्रकला सादृश्य: जैसे चित्रकला में वस्त्र और मंड (स्टार्च) को मिलाकर कैनवास बनता है, वैसे ही ब्रह्मन और उसकी इच्छा (संकल्प) को मिलाकर ईश्वर बनता है।

  • चेतना की अभिव्यक्ति: ईश्वर चेतना की चार अवस्थाओं में से एक है, जिसे बादलों में परिलक्षित शुद्ध आकाश के रूप में दर्शाया गया है। इसे ब्रह्मन का वह पक्ष माना जा सकता है जो माया से जुड़ा हुआ है।

  • ईश्वर-सृष्टि: परम सत्ता के मूल विचार (आदिम संकल्पना) से लेकर ब्रह्मांड में प्रत्येक विविध वस्तु के चेतनता तक फैली हुई सृष्टि को ईश्वर-सृष्टि कहा जाता है। यह ब्रह्मांड की वस्तुनिष्ठ वास्तविकता है।

3. हिरण्यगर्भ (Hiranyagarbha):

  • समष्टि सूक्ष्म शरीर: हिरण्यगर्भ को ईश्वर का समष्टि सूक्ष्म शरीर कहा जाता है।

  • कॉस्मिक इंटेलेक्ट: यह ब्रह्मांडीय बुद्धि का प्रतिनिधित्व करता है।

  • सृष्टि में भूमिका: पुराणों के अनुसार, यह बताया गया है कि वायु का दसवां हिस्सा अग्नि है, और तत्वों के बीच अनुपात में कमी होती जाती है। हिरण्यगर्भ में जब इच्छा उत्पन्न होती है, तभी सृष्टि बनती है।

  • आंतरिक शासक: हिरण्यगर्भ को भी आंतरिक शासक के रूप में देखा जा सकता है।

4. विराट (Virat):

  • समष्टि स्थूल शरीर: विराट को ईश्वर का समष्टि स्थूल शरीर या सार्वभौमिक भौतिक शरीर कहा गया है।

  • ब्रह्मांडीय प्रकटीकरण: यह समग्र ब्रह्मांडीय प्रकटीकरण है, जिसमें सभी भौतिक वस्तुएँ समाहित हैं।

  • ईश्वर का स्थूल रूप: विराट ईश्वर का ही स्थूल रूप है, जिसमें सभी लोक और भुवन विद्यमान हैं।

सृष्टि की प्रक्रिया का चित्रकला सादृश्य में निहितार्थ: चित्रदीप अध्याय सृष्टि की प्रक्रिया को चार अवस्थाओं में विभाजित करता है, जैसे एक चित्रकला में होता है:

  1. कैनवास (वस्त्र): यह शुद्ध ब्रह्मन को दर्शाता है, जो सभी अस्तित्व का आधार है।

  2. कड़ा करना (मंड): यह अवस्था ब्रह्मन के अपनी इच्छा (संकल्प) के साथ जुड़ने को दर्शाती है, जिससे ईश्वर का उद्भव होता है।

  3. रूपरेखा खींचना (रेखाएँ): यह सूक्ष्म ब्रह्मांडीय स्तर पर सृष्टि को इंगित करता है, जहाँ हिरण्यगर्भ के रूप में ब्रह्मांडीय मन और बुद्धि कार्य करती है।

  4. रंग भरना (स्याही): यह स्थूल ब्रह्मांडीय प्रकटीकरण को दर्शाता है, जिसमें विराट के रूप में भौतिक संसार प्रकट होता है।

प्रमुख दार्शनिक अवधारणाएँ और उनका संबंध:

  • माया की अचिंतनीय शक्ति: माया को एक ऐसी शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है जिसकी प्रकृति को समझना कठिन है (अचिंतनीय)। यह प्रश्न उठाती है लेकिन उत्तर नहीं देती।

  • चेतना का चतुर्विध वर्गीकरण: ब्रह्मन (शुद्ध आकाश), ईश्वर (बादलों में परिलक्षित आकाश), कूटस्थ (घड़े में स्थित आकाश) और जीव (घड़े के पानी में परिलक्षित आकाश) - यह आकाश का दृष्टांत चेतना की इन चार अवस्थाओं को स्पष्ट करता है।

  • सृष्टि की दोहरी प्रकृति: संसार को ईश्वर-सृष्टि (वस्तुनिष्ठ वास्तविकता) और जीव-सृष्टि (व्यक्तिगत कल्पना) के रूप में देखा जाता है।

  • मिथ्यात्व और अनित्यता: संसार को एक "अवास्तविक" या "मायावी" चित्र के समान बताया गया है, जो माया के कारण वास्तविक प्रतीत होता है। ग्रंथ यह स्पष्ट करता है कि सभी परिवर्तन केवल शब्दों का खेल हैं; मूल सत्य केवल आधारभूत पदार्थ में निहित है, जैसे मिट्टी।

चित्रदीप का महत्व: यह अध्याय वेदांत के केंद्रीय सिद्धांतों को समझने के लिए एक विस्तृत रूपरेखा प्रदान करता है। जो साधक इस अध्याय का नियमित रूप से अध्ययन और मनन करते हैं, वे संसार के प्रति अपनी आसक्ति और मोह से मुक्त हो जाते हैं। यह ज्ञान साधक को सत्य और असत्य के बीच भेद करने में सहायता करता है, जिससे वह परम आनंद की प्राप्ति कर पाता है।

चेतना का प्रतिबिंब (चिदाभास)

अध्याय 6: चित्रदीप पञ्चदशी ग्रंथ का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसे वेदांत दर्शन की नींव माना जाता है। यह अध्याय सृष्टि की प्रक्रिया को चित्रकला के सादृश्य के माध्यम से समझाता है, जिसमें चार अवस्थाएँ होती हैं: वस्त्र (कैनवास), मंड (वस्त्र को कड़ा करना), रेखाएँ (रूपरेखा खींचना), और स्याही भरना (रंग भरना)। इसी तरह, सृष्टि भी विभिन्न चरणों में प्रकट होती है। इस संदर्भ में, चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) एक केंद्रीय अवधारणा है, जो ब्रह्म, ईश्वर, और जीव के संबंध को समझने में सहायक है।

चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) क्या है? चिदाभास को चेतना के प्रतिबिंब के रूप में परिभाषित किया गया है। इसे आत्मा या शुद्ध चेतना (ब्रह्म या कूटस्थ) का वह स्वरूप माना जाता है जो अंतःकरण या माया में परिलक्षित होता है। 'इगो' (अहंकार) को भी इसी प्रतिबिंब चेतना के रूप में संदर्भित किया गया है।

चिदाभास का कूटस्थ से संबंध:

  • सूत्रों में आकाश के दृष्टांत से चिदाभास को समझाया गया है: शुद्ध आकाश (ब्रह्म), घड़े में स्थित आकाश (कूटस्थ), बादलों में परिलक्षित शुद्ध आकाश (ईश्वर) और घड़े के पानी में परिलक्षित आकाश (जीव)। इस दृष्टांत में, घड़े के पानी में परिलक्षित आकाश ही चिदाभास है, जो जीव का स्वरूप है।

  • कूटस्थ वह अपरिवर्तनीय आधार है जिस पर भौतिक और सूक्ष्म शरीर आधारित हैं, जिनका जीव अनुभव करता है। बुद्धि, जो कूटस्थ पर आरोपित होती है और जिसके माध्यम से कूटस्थ परिलक्षित होता है, जीव की उत्पत्ति का कारण बनती है।

  • जैसे दर्पण में मुख का प्रतिबिंब होता है, वैसे ही चिदाभास कूटस्थ का प्रतिबिंब है। कूटस्थ ही मन और उसकी वृत्तियों (परिवर्तनों) का साक्षी है।

  • कूटस्थ और चिदाभास मिलकर ही भोक्ता (अनुभवी) कहलाते हैं। जब जीव (चिदाभास से युक्त) अपने अधिष्ठान (कूटस्थ) से तादात्म्य स्थापित करता है, तभी वह स्वयं को संसारी मानता है।

चिदाभास का जीव से संबंध:

  • चिदाभास ही जीव की जागरूकता और भोक्तृत्व का आधार है। जब जीव भौतिक और सूक्ष्म शरीर के साथ चिदाभास का तादात्म्य स्थापित करता है, तो इसे विक्षेप (भ्रम या विक्षेप) कहा जाता है।

  • यह विक्षेप ही कर्तापन, दुख और संसार के बंधन का कारण बनता है।

  • जीव चेतना अज्ञान, आवरण और विक्षेप जैसी अवस्थाओं से प्रभावित होती है, जो चिदाभास के कारण उत्पन्न होती हैं।

  • माया ही चिदाभास के माध्यम से जीव और ईश्वर दोनों को उत्पन्न करती है।

चिदाभास का ईश्वर से संबंध:

  • ईश्वर को माया में परिलक्षित शुद्ध आकाश के रूप में वर्णित किया गया है। इसका अर्थ है कि ईश्वर स्वयं चिदाभास का एक स्वरूप है, जो माया की सर्वव्यापी और नियंत्रक शक्ति के साथ जुड़ा हुआ है।

  • ईश्वर ब्रह्मांड का मूल है और अपनी माया शक्ति के माध्यम से कार्य करता है। माया, जो ब्रह्मन की शक्ति है, अपने सत्त्व, रजस और तमस गुणों से ईश्वर, जीव और जगत में भेद उत्पन्न करती है।

  • ईश्वर ही माया से युक्त चिदाभास के रूप में सृष्टि का कारण बनता है। परम सत्ता के आदिम संकल्प (इच्छा) से लेकर ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु की चेतनता तक फैली हुई सृष्टि को ईश्वर-सृष्टि कहा जाता है।

चित्रकला सादृश्य में चिदाभास की भूमिका: चित्रदीप अध्याय सृष्टि की प्रक्रिया को चित्रकला के चरणों से तुलना करता है। यद्यपि चिदाभास सीधे तौर पर किसी एक चरण का प्रतिनिधित्व नहीं करता, यह अंतर्निहित चेतना का वह परिलक्षित रूप है जो सृष्टि के विभिन्न स्तरों को चेतन बनाता है।

  • जैसे वस्त्र और मंड (स्टार्च) के भ्रम से कैनवास बनता है, उसी तरह ब्रह्म और उसकी इच्छा (संकल्प) के भ्रम से ईश्वर (चिदाभास से युक्त) बनता है।

  • जीवित प्राणी परिलक्षित चेतना (चिदाभास) का उपयोग वस्तुओं को जानने के लिए करते हैं, जैसे दर्पण परिलक्षित सूर्य के प्रकाश का उपयोग वस्तुओं को प्रकाशित करने के लिए करता है।

चिदाभास का स्वभाव और कार्य:

  • चिदाभास के कारण ही जीव कुटस्थ के अस्तित्व, चेतना, स्वतंत्रता और आनंद को स्वयं पर आरोपित करता है, और बदले में, जीव के परिवर्तनशील गुण (जैसे सुख-दुख) कुटस्थ पर आरोपित होते हैं।

  • यह द्वैत की धारणा का स्रोत है और जीव को संसार के भ्रम में फंसाता है।

  • चिदाभास अवास्तविक है, क्योंकि यह एक प्रतिबिंब है और इसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, जो परम ब्रह्म के विपरीत है। हालांकि, यह अपने व्यावहारिक स्तर पर कार्य करता है और अनुभव का कारण बनता है।

संक्षेप में, अध्याय 6: चित्रदीप में, चिदाभास चेतना के प्रतिबिंब के रूप में प्रस्तुत होता है, जो माया और अंतःकरण के माध्यम से उत्पन्न होता है। यह जीव और ईश्वर की अवधारणाओं के लिए महत्वपूर्ण है, और यह सृष्टि की प्रक्रिया को समझने में एक पुल का काम करता है, यह दर्शाता है कि कैसे शुद्ध, अपरिवर्तनीय चेतना (ब्रह्म/कूटस्थ) स्वयं को अनेक रूपों में प्रकट करती है और अनुभवों का कारण बनती है, भले ही वे स्वरूप अंततः मायावी या अनित्य हों। इस अवधारणा को समझना वेदांत दर्शन के केंद्रीय सिद्धांतों को समझने और अंतिम मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए महत्वपूर्ण है।

अविद्या के दो रूप

अध्याय 6: चित्रदीप पञ्चदशी ग्रंथ का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसे वेदांत दर्शन की नींव माना जाता है। यह अध्याय सृष्टि की प्रक्रिया को चित्रकला के सादृश्य के माध्यम से समझाता है, जिसमें चार अवस्थाएँ होती हैं: वस्त्र (कैनवास), मंड (वस्त्र को कड़ा करना), रेखाएँ (रूपरेखा खींचना), और स्याही भरना (रंग भरना)। इसी तरह, सृष्टि भी विभिन्न चरणों में प्रकट होती है। इस संदर्भ में, अविद्या के दो रूपआवरण और विक्षेप—वेदांत दर्शन की केंद्रीय अवधारणाएँ हैं जो जीव की बंधन और मुक्ति को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

अविद्या क्या है? अविद्या को मूल अज्ञान (Mula-Avidya) कहा गया है, जो जीव को अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मन) को भूलने का कारण है। यह वह शक्ति है जो परम सत्ता (ब्रह्म) में भेद उत्पन्न करती है और जगत, जीव, और ईश्वर के बीच भिन्नताएँ बनाती है। माया को प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जो ईश्वर की वस्तुनिष्ठ शक्ति है। यह अविद्या ही है जो चित्ताभास के माध्यम से जीव और ईश्वर दोनों को उत्पन्न करती है। माया अपने आश्चर्यजनक कार्य करने की क्षमता रखती है और उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है।

अविद्या के दो रूप: अविद्या के मुख्य रूप से दो कार्य या 'रूप' बताए गए हैं: आवरण (Veiling/Concealment) और विक्षेप (Projection/Distraction)। इन दोनों को अज्ञान की अवस्थाएँ माना गया है।

  1. आवरण (आवरण-शक्ति):

    • स्वभाव: आवरण का अर्थ है ढकना या छिपाना। यह चेतना के वास्तविक स्वरूप को ढँक देता है। यह वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति यह अनुभव करता है कि 'यह अस्तित्व में नहीं है' या 'यह प्रकट नहीं होता है'।

    • कार्य: आवरण शक्ति के कारण, ब्रह्म का स्वरूप जीव के लिए अप्रकाशित (अदृश्य) हो जाता है। यह जीव को अपने वास्तविक स्वरूप (सत्य, चैतन्य, आनंद) को देखने से रोकता है। दशम व्यक्ति के दृष्टांत में, जब व्यक्ति यह भूल जाता है कि वह दसवाँ है, तो यह आवरण का कार्य है।

    • निवारण: परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge) आवरण शक्ति को दूर करता है। यह ज्ञान शास्त्रों और गुरु के उपदेशों से प्राप्त होता है। शास्त्रों को जानना और उनके अर्थ को समझना परोक्ष ज्ञान है।

  2. विक्षेप (विक्षेप-शक्ति):

    • स्वभाव: विक्षेप का अर्थ है प्रक्षेपण या विक्षेपण। आवरण द्वारा सत्य के छिपे होने पर, विक्षेप शक्ति मिथ्या प्रपंच (भ्रामक दुनिया) या द्वैत का निर्माण करती है। यह भ्रम या विक्षेप ही जीव को कर्ता (doer) और भोक्ता (enjoyer) बनाता है, और उसे संसार में बांधता है।

    • कार्य: चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) का सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित करना ही विक्षेप कहलाता है। इसी विक्षेप के कारण जीव स्वयं को संसारी, दुखी और कर्ता मानता है। दशम व्यक्ति के दृष्टांत में, जब व्यक्ति नौ व्यक्तियों को गिनने के बाद दुखी होता है कि दसवाँ नहीं मिल रहा, तो यह विक्षेप का कार्य है।

    • निवारण: अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge) विक्षेप शक्ति को दूर करता है। यह ज्ञान केवल शास्त्रों के उपदेशों को सुनकर नहीं, बल्कि विचार (इन्क्वायरी), मनन (इन्ट्रोस्पेक्शन) और निदिध्यासन (गहरा ध्यान) के अभ्यास से ही प्राप्त होता है।

चित्रदीप अध्याय में अविद्या के दो रूपों का संदर्भ:

चित्रदीप अध्याय में, सृष्टि की प्रक्रिया को चित्रकला के माध्यम से समझाने के साथ-साथ, अविद्या के इन दो रूपों और उनके प्रभावों को भी विस्तार से समझाया गया है।

  1. चित्रकला सादृश्य: यद्यपि अध्याय सीधे तौर पर अविद्या के दो रूपों को चित्रकला के चरणों से नहीं जोड़ता, यह अंतर्निहित रूप से बताता है कि कैसे ब्रह्म की अपरिवर्तनीय चेतना (चित्रकार) अपनी शक्ति (माया/अविद्या) के माध्यम से जगत रूपी चित्र (सृष्टि) को प्रकट करती है। माया/अविद्या के इन दो रूपों के कारण ही जीव यह भूल जाता है कि वह स्वयं ब्रह्म है और स्वयं को शरीर-मन से युक्त मानता है।

  2. दशम व्यक्ति का दृष्टांत: चित्रदीप अध्याय में 'दशम व्यक्ति' का दृष्टांत अविद्या के आवरण और विक्षेप रूपों को समझाने के लिए एक मुख्य उदाहरण के रूप में प्रयोग किया गया है। इस दृष्टांत के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ कैसे हो जाता है (आवरण), और फिर उस अज्ञान के कारण कैसे दुख का अनुभव करता है (विक्षेप)। ज्ञान ही इस अज्ञान को दूर कर सकता है।

  3. जीव और ईश्वर का निर्माण: अविद्या या माया के गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के कारण ही ईश्वर (माया में प्रतिबिंबित ब्रह्म) और जीव (अंतःकरण में प्रतिबिंबित चेतना) के रूप में भिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं। चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) के माध्यम से माया ही जीव और ईश्वर दोनों को उत्पन्न करती है। इस प्रकार अविद्या के ये रूप चेतन और अचेतन के बीच भेद उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार हैं।

  4. सप्त अवस्थाएँ (Seven Stages): चिदाभास की सात अवस्थाओं में अज्ञान, आवरण और विक्षेप प्रारंभिक अवस्थाएँ हैं, जो जीव के बंधन का कारण बनती हैं। ज्ञान प्राप्त होने पर ये अवस्थाएँ दूर हो जाती हैं।

    1. अज्ञान (Ignorance): दशम व्यक्ति को अपने दसवें होने का ज्ञान न होना।

    2. आवरण (Veiling): "मैं दसवाँ नहीं हूँ" या "दसवाँ अस्तित्व में नहीं है" ऐसी प्रतीति होना।

    3. विक्षेप (Projection/Distraction): दसवें के न मिलने पर शोक करना।

    4. परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge): किसी दूसरे से "तुम दसवें हो" सुनना, जिससे 'आवरण' दूर हो।

    5. अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge): स्वयं को दसवाँ जानना, जिससे 'विक्षेप' दूर हो।

    6. शोक निवृत्ति (Removal of Sorrow): दुख का समाप्त हो जाना।

    7. तुष्टि (Satisfaction): संतोष प्राप्त होना।

संक्षेप में, अध्याय 6: चित्रदीप में अविद्या के दो रूपों—आवरण और विक्षेप—को जीव के बंधन के मूल कारण के रूप में समझाया गया है। इन दोनों रूपों को समझना वेदांत दर्शन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इन्हें दूर करने से ही जीव अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) का साक्षात्कार कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

स्वप्न और जाग्रत

पंचदशी के अध्याय ६: चित्रदीप में स्वप्न और जाग्रत अवस्थाओं पर गहराई से विचार किया गया है, जहाँ संपूर्ण संसार को एक चित्र या भ्रम के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अध्याय वेदांत के दर्शन की नींव रखता है और इसे दर्शनशास्त्र की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक माना जाता है।

अध्याय ६ में स्वप्न और जाग्रत अवस्थाओं के संबंध में निम्नलिखित प्रमुख बातें बताई गई हैं:

  • संसार एक स्वप्न के समान: चित्तदीप प्रकरण (अध्याय ६) स्पष्ट रूप से कहता है कि यह संपूर्ण संसार, जिसमें ईश्वर और जीव जैसे चेतन और अचेतन पदार्थ शामिल हैं, अद्वितीय ब्रह्म में एक स्वप्न है। यह संसार एक जादू के खेल (इन्द्रजाल) के समान है, जहाँ अवास्तविक वस्तुएँ वास्तविक प्रतीत होती हैं।

  • जीव-सृष्टि और जाग्रत अवस्था: जीव की सृष्टि जाग्रत अवस्था से लेकर अंतिम मुक्ति तक सब कुछ शामिल करती है। इसका अर्थ है कि जाग्रत अवस्था में व्यक्ति द्वारा अनुभव किया जाने वाला संपूर्ण संसार जीव की अपनी कल्पना या जीव-सृष्टि का हिस्सा है। इसे ईश्वर की सृष्टि (ईश्वर-सृष्टि) से भिन्न बताया गया है, जो वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में दर्शाती है।

  • चेतना की संकुचन और विस्तार की तुलना: चेतना की विभिन्न अवस्थाओं को एक चित्र के संकुचन और विस्तार के समान समझाया गया है। इसमें "दिन और रात," "जाग्रत और सुषुप्ति" (गहरी नींद), "नेत्रों का खोलना और बंद करना," तथा "तुष्यींभाव और मनोरथ" (दिन में सपने देखना या दिवास्वप्न) शामिल हैं। यह तुलना बताती है कि जाग्रत अवस्था, स्वप्न या दिवास्वप्न की तरह ही, चेतना की अभिव्यक्ति या विस्तार का एक चरण है, और इसका विलय (जैसे गहरी नींद में) एक संकुचन है।

  • जाग्रत और स्वप्न में चेतना की एकता: यद्यपि यह अवधारणा मुख्य रूप से पहले अध्याय में बताई गई है, कि जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में चेतना एक समान रहती है और भिन्न नहीं होती, यह चित्तदीप (अध्याय ६) में संसार की मायावी प्रकृति को समझने के लिए एक मूलभूत सिद्धांत है। यह इस विचार का समर्थन करता है कि जाग्रत अवस्था में अनुभूतियाँ भी स्वप्न के अनुभवों की तरह ही अस्थायी और मन-जनित हो सकती हैं।

  • भ्रम और अज्ञान का निवारण: चित्तदीप अध्याय का निरंतर अध्ययन और मनन करने से व्यक्ति को संसार रूपी "चित्र" से होने वाले मोह और आसक्ति से मुक्ति मिलती है, और वह पहले की तरह भ्रमित नहीं होता। यह गहन चिंतन जाग्रत अवस्था में भी संसार की मायावी प्रकृति को स्पष्ट रूप से समझने में सहायक होता है।

कर्म और प्रलब्ध

पंचदशी के अध्याय ६: चित्रदीप में संसार को एक चित्रित पर्दे (चित्रपट) के समान माना गया है, जो माया द्वारा ब्रह्म पर कल्पित किया गया है। इस व्यापक दार्शनिक संदर्भ में, कर्म और प्रारब्ध के सिद्धांतों पर विचार किया गया है, जो जीव की संसार में स्थिति और मुक्ति के मार्ग को स्पष्ट करते हैं।

कर्म (Karma): कर्म का सिद्धांत कार्यों और उनके संचित परिणामों से संबंधित है, जिन्हें प्रायः पुण्य (मेरिट) और पाप (डिमरिट) में वर्गीकृत किया जाता है।

  • बंधन का मूल कारण: अनादि काल से इस संसार में करोड़ों संचित कर्म (पुण्य और पाप का संग्रह) मौजूद हैं। यह कर्म अज्ञान (अविद्या) और मिथ्या-पहचान (जैसे शरीर को आत्मा मानना) से उत्पन्न होते हैं, जिससे जीव को सुख और दुःख का अनुभव होता है। सांख्य दर्शन के अनुसार, पुरुष (चेतना) और प्रकृति (जड़ पदार्थ) के बीच भेद न कर पाने के कारण ही बंधन उत्पन्न होता है। जीव की जाग्रत अवस्था से लेकर अंतिम मुक्ति तक का अनुभव उसकी जीव-सृष्टि का ही हिस्सा है, जो उसके कर्मों से प्रभावित होती है।

  • कर्मों का नाश और मोक्ष:

    • परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge): गुरु से प्राप्त शास्त्र-जन्य ज्ञान, यद्यपि परोक्ष हो, पाप कर्मों को कुछ हद तक नष्ट कर सकता है और मन को शुद्ध करता है।

    • अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge): ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति (अपरोक्ष ज्ञान) संचित कर्मों के पूरे समूह को जड़ से खत्म कर देती है। यह परम ज्ञान मन में स्थित पिछली सभी वासनाओं (संस्कारों) और भविष्य के अनुभवों के कारणों को समाप्त कर देता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

    • अनासक्ति (Non-attachment): आत्म-ज्ञान प्राप्त करने वाला ज्ञानी व्यक्ति संसार को मायावी (भ्रम) और आत्मा को असंग (अनाशक्त) जानता है। ऐसे ज्ञानी के लिए, कर्म बंधन का कारण नहीं बनते, क्योंकि वह स्वयं को कर्ता या भोक्ता नहीं मानता। उसके द्वारा किए गए सांसारिक कार्य भी उसे बांधते नहीं हैं, क्योंकि उसका ज्ञान सर्वोच्च है।

    • समाधि (Meditation): गहरी ध्यान-अवस्था (समाधि) मन में गहराई से दबी हुई पिछली वासनाओं को घोल देती है और संचित कर्मों के पूरे जाल को समूल नष्ट कर देती है।

प्रारब्ध कर्म (Prarabdha Karma):

  • प्रारब्ध की प्रकृति: प्रारब्ध कर्म को स्पष्ट रूप से "पिछले जन्म में किए गए वे कर्म जो अब फल देना शुरू कर चुके हैं" के रूप में परिभाषित किया गया है। यह वर्तमान शरीर का कारण है और यह शरीर तब तक बना रहता है जब तक इस प्रारब्ध की शक्ति समाप्त नहीं हो जाती।

  • अकाट्यता (Unavoidability): पंचदशी में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यहां तक कि ईश्वर भी प्रारब्ध कर्म के परिणामों को रोक नहीं सकते। ज्ञानी पुरुष भी, ज्ञान प्राप्त करने के बाद, अपने प्रारब्ध के फलों का अनुभव करते रहते हैं, जैसे शारीरिक कष्ट या सांसारिक परिस्थितियाँ। यह प्रारब्ध भोग द्वारा ही समाप्त होता है।

  • जीवन्मुक्त और प्रारब्ध: मोक्ष प्राप्त ज्ञानी (जीवन्मुक्त) के लिए भी प्रारब्ध जारी रहता है, लेकिन उसका प्रारब्ध के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है। वह उससे बंधा हुआ महसूस नहीं करता, क्योंकि उसमें अनासक्ति का भाव और कर्तृत्व-भोक्तृत्व का अभाव होता है। जनक जैसे महान ज्ञानी भी राज्य का संचालन (कर्म) करते थे, फिर भी वे बंधे नहीं थे, क्योंकि उनका मन सत्य के ज्ञान में स्थित था।

अध्याय ६: चित्रदीप के संदर्भ में: चित्रदीप अध्याय ब्रह्मांड को एक "चित्र" या "चित्रपट" के रूप में वर्णित करता है, जो माया का एक उत्पाद है और ब्रह्म पर कल्पित है। इस पृष्ठभूमि में, कर्म और प्रारब्ध को इस प्रकार समझाया गया है:

  • संसार का चित्र और कर्म का अनुभव: जिस प्रकार एक चित्र में विभिन्न आकृतियाँ और दृश्य होते हैं, उसी प्रकार संसार में जीव कर्मों के अनुसार सुख-दुःख के विभिन्न अनुभवों से गुजरता है। जीव की जाग्रत अवस्था से मुक्ति तक का अनुभव उसके स्वयं के मन की कल्पना या 'जीव-सृष्टि' का परिणाम है, जो उसके कर्मों से निर्धारित होता है।

  • ज्ञान की भूमिका: चित्तदीप अध्याय का निरंतर अध्ययन और मनन करने से व्यक्ति को संसार रूपी "चित्र" से होने वाले मोह और आसक्ति से मुक्ति मिलती है। जब ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तो ज्ञानी को यह समझ आ जाता है कि यह "चित्र" (संसार और उसके अनुभव) मायावी है, वास्तविक नहीं। वह प्रारब्ध के फलों का अनुभव करता है, लेकिन उनसे अनासक्त रहता है, क्योंकि उसे अब उनकी वास्तविकता में विश्वास नहीं होता। ज्ञानी कर्म करते हुए भी अपने को अकर्ता मानता है, और इसलिए उसके कर्म उसे बांधते नहीं हैं। यह ज्ञान ही उसे कर्म और प्रारब्ध के प्रभाव से मुक्त करता है, भले ही प्रारब्ध के फल भोग द्वारा समाप्त होते रहें।

ईश्वर का स्वभाव

पंचदशी के अध्याय ६: चित्रदीप में संसार को एक चित्रित पर्दे (चित्रपट) के समान माना गया है, जो माया द्वारा ब्रह्म पर कल्पित किया गया है [पूर्व वार्तालाप, 285]। इसी व्यापक दार्शनिक संदर्भ में, ईश्वर के स्वभाव और उसकी भूमिका पर गहन विचार किया गया है।

ईश्वर का स्वभाव और माया से संबंध:

  • माया का अधिष्ठाता: पंचदशी में ईश्वर को माया का अधिष्ठाता (controller of Maya) या माया का स्वामी (wielder of Maya) कहा गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद के अनुसार, प्रकृति को माया जानना चाहिए, और माया का धारण करने वाले को महेश्वर (ईश्वर) जानना चाहिए

  • ब्रह्म का प्रतिबिंब: ईश्वर को ब्रह्म का प्रतिबिंब माना गया है, जैसे व्यापक आकाश का प्रतिबिंब बादलों में दिखाई देता है। वह चेतनता का प्रतिबिंब है।

  • ब्रह्म से भिन्न, फिर भी संबंधित: ईश्वर और ब्रह्म सिद्धांत रूप से भिन्न हैं। ब्रह्म असंग (unattached) है और जगत के परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होता, जबकि ईश्वर ही संसार में होने वाले परिवर्तनों के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी है। यह भेद मुख्यतः भाषाई प्रतीत होता है, क्योंकि उपनिषदों में ब्रह्म को प्रत्यक्ष कारण बताया गया है।

  • माया की शक्ति: ईश्वर अपनी माया शक्ति के माध्यम से कार्य करता है। माया अचिंत्य रचना (inconceivable creation) का बीज है, जिसका अनुभव सुषुप्ति (गहरी नींद) में होता है। यह जगत माया की शक्ति की अभिव्यक्ति है।

सृष्टि में ईश्वर की भूमिका (ईश्वर-सृष्टि):

  • जगत का मूल कारण: ईश्वर को ब्रह्मांड का उत्पत्ति स्थान (origin) और सभी वस्तुओं का स्रोत माना गया है।

  • ईश्वर-सृष्टि का विस्तार: ईश्वर की सृष्टि उसके सृष्टि करने की इच्छा से लेकर उसके निर्मित पदार्थों में प्रवेश तक फैली हुई है। इसमें संसार, विभिन्न लोक और जड़ वस्तुएं शामिल हैं, जो ब्रह्म की शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं।

  • गुण और कर्मों का विभाजन: माया, अपने सत्व, रजस और तमस गुणों के माध्यम से, ईश्वर (भगवान), जीव (व्यक्ति) और जगत (भौतिक दुनिया) के बीच भेद उत्पन्न करती है। ईश्वर और जीव, चेतनता के विभिन्न स्तरों में ब्रह्म की चेतना को दर्शाते हैं।

  • पुराणों का प्रमाण: पुराणों में ब्रह्मा (प्रजापति) को सृष्टिकर्ता के रूप में महिमामंडित किया गया है, और उपनिषद भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि ब्रह्मा ब्रह्मांड के निर्माता हैं।

ईश्वर के गुण और विशेषताएँ:

  • सर्वज्ञ और नित्यसंकल्प: ईश्वर को सर्वज्ञ (all-knowing) और नित्यसंकल्प (eternal will) बताया गया है। वह सभी प्राणियों का अंतर्यामी (indweller) है।

  • सत्यकाम और सत्यसंकल्प: ईश्वर को सत्यकाम (eternal desires) और सत्यसंकल्प (eternal will) वाला कहा गया है, जिसका अर्थ है कि उनकी इच्छाएँ और संकल्प सदैव सत्य होते हैं।

  • ज्ञान, प्रयत्न और इच्छा: ये ईश्वर के मुख्य गुण माने गए हैं।

  • प्रारब्ध पर प्रभाव की सीमा: पूर्व वार्तालाप के अनुसार, ईश्वर भी प्रारब्ध कर्म के परिणामों को रोक नहीं सकते [पूर्व वार्तालाप]। प्रारब्ध कर्म वर्तमान शरीर का कारण है और यह शरीर तब तक बना रहता है जब तक इस प्रारब्ध की शक्ति समाप्त नहीं हो जाती। यहाँ तक कि ईश्वर भी उन्हें (प्रारब्ध कर्मों को) निष्फल करने में असमर्थ हैं

ईश्वर, जीव और कूठस्थ में भेद:

  • चेतनता का प्रतिबिंब: ईश्वर, जीव और कूठस्थ, सभी चेतनता के विभिन्न चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ईश्वर को बादलों में परिलक्षित विशाल आकाश के समान, जीव को जल में परिलक्षित घट आकाश के समान और कूठस्थ को घट आकाश के समान बताया गया है।

  • माया द्वारा निर्मित: शास्त्र कहते हैं कि जीव और ईश्वर दोनों माया के द्वारा निर्मित हैं

  • भोग और आसक्ति: ईश्वर और जीव जड़ पदार्थों से इस मायने में भिन्न हैं कि जड़ पदार्थों में चेतना की अभिव्यक्ति नहीं होती, क्योंकि उनमें तमस (जड़ता) की प्रधानता होती है।

  • ज्ञान और कर्म में अंतर: ईश्वर और जीव के बीच के भेद को जानने से व्यक्ति संसार में अपने बंधन के कारण को समझ सकता है।

ईश्वर की उपासना:

  • फल की प्राप्ति: ईश्वर के प्रति उपासना का फल उसकी तीव्रता पर निर्भर करता है। जितना तीव्र भाव होगा, उतनी ही शीघ्र ईश्वर की ओर से प्रतिक्रिया प्राप्त होगी।

  • विविध रूप: ईश्वर को विभिन्न रूपों में माना जाता है; कुछ लोग उन्हें आंतरिक शासक मानते हैं, जबकि अन्य पेड़-पौधों जैसे पवित्र अंजीर के पेड़, सूर्य-पौधे और बांस की भी पूजा करते हैं, जिन्हें वे कुलदेवता के रूप में पूजते हैं।

  • ज्ञान के साथ संबंध: उपनिषदों के अध्ययन, मनन और ध्यान से प्राप्त ब्रह्मज्ञान से ईश्वर का साक्षात्कार होता है।

इस प्रकार, अध्याय ६: चित्रदीप में, ईश्वर को माया के स्वामी, सर्वज्ञ और जगत के निर्माता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो ब्रह्म का ही एक प्रतिबिंब है और अपनी शक्ति से सृष्टि का संचालन करता है, लेकिन व्यक्तिगत प्रारब्ध कर्मों पर उसका प्रत्यक्ष नियंत्रण सीमित है।

माया की परिभाषा

पंचदशी के अध्याय ६: चित्रदीप में माया की अवधारणा और परिभाषा को संसार की सृष्टि और उसके अनुभव के व्यापक संदर्भ में गहराई से समझाया गया है, जहाँ संसार को एक चित्रित पर्दे (चित्रपट) के समान माना गया है, जो माया द्वारा ब्रह्म पर कल्पित किया गया है [पूर्व वार्तालाप, 285]।

माया की परिभाषा और प्रकृति:

  • प्रकृति और महेश्वर का संबंध: पंचदशी में माया को प्रकृति कहा गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद के अनुसार, प्रकृति को माया जानना चाहिए, और माया का धारण करने वाले को महेश्वर (ईश्वर) जानना चाहिए। ईश्वर को माया का स्वामी (wielder of Maya) या माया का अधिष्ठाता (controller of Maya) कहा गया है।

  • अचिंत्य रचना की शक्ति: माया को अचिंत्य रचना की शक्ति का बीज (seed of inconceivable creation) बताया गया है। इसका अनुभव सुषुप्ति (गहरी नींद) की अवस्था में होता है।

  • अनिर्वचनीय स्वरूप: माया की प्रकृति को अनिर्वचनीय (undefinable) बताया गया है। यह न तो शून्य (non-existence) है और न ही सत् (existence), बल्कि इन दोनों शब्दों से अनिर्वचनीय है। यह स्वयं अचिंत्य है और इसे तर्क से पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। माया को 'आश्चर्य' (wonder) भी कहा गया है, क्योंकि यह एक ऐसी स्थिति प्रस्तुत करती है जिसे समझा नहीं जा सकता और जो प्रश्न खड़े करती है लेकिन उत्तर नहीं देती।

  • ब्रह्म और ईश्वर से संबंध: ईश्वर अपनी माया शक्ति के माध्यम से कार्य करता है। ब्रह्म असंग (unattached) है और जगत के परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होता, जबकि ईश्वर ही संसार में होने वाले परिवर्तनों के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी है। यह भेद मुख्यतः भाषाई प्रतीत होता है, क्योंकि उपनिषदों में ब्रह्म को प्रत्यक्ष कारण बताया गया है। माया ब्रह्म के पूरे हिस्से में कार्य नहीं करती, बल्कि केवल कुछ निश्चित, सशर्त पहलुओं में ही कार्य करती है।

सृष्टि में माया की भूमिका (चित्रदीप के संदर्भ में):

  • जगत का उपादान कारण: माया को ब्रह्मांड का उपादान कारण (material cause) माना गया है।

  • चित्रांकित पर्दे का दृष्टांत: चित्रदीप अध्याय संसार की उत्पत्ति को एक चित्रकला की प्रक्रिया से तुलना करता है। जैसे एक चित्रपट (canvas) पर चार अवस्थाएँ होती हैं - बिना चित्र का पट, उस पर मांड (starch) लगाना, रेखाएँ खींचना और रंग भरना - वैसे ही सृष्टि की भी चार अवस्थाएँ होती हैं। माया इस चित्रित जगत का मूल आधार है।

  • द्वैत की सृष्टि: माया अपने सत्व, रजस और तमस गुणों के माध्यम से ईश्वर (भगवान), जीव (व्यक्ति) और जगत (भौतिक दुनिया) के बीच भेद उत्पन्न करती है। ईश्वर और जीव, ब्रह्म की चेतना को विभिन्न स्तरों में दर्शाते हैं। यह जड़ पदार्थों से भिन्न है, क्योंकि जड़ पदार्थ चेतना की अभिव्यक्ति के लिए खुले नहीं होते।

  • सत्य और असत्य का प्रकटीकरण: माया कभी जगत को सत्य और कभी असत्य रूप में प्रकट करती है। यह पदार्थों को जैसा वे नहीं हैं, वैसा दिखाती है, जिससे भ्रम उत्पन्न होता है। माया ही इस ब्रह्मांड में वस्तुओं की कठोरता, पानी में तरलता, वायु में गति आदि का कारण है।

  • जगत की अवास्तविकता: स्रोत यह भी स्पष्ट करते हैं कि संपूर्ण जगत एक भ्रम है और यह अवास्तविक (unreal) है। माया द्वारा निर्मित द्वैत जगत अनिर्वचनीय है।

माया से संबंधित दार्शनिक विचार:

  • कुछ दार्शनिक माया के अस्तित्व पर संदेह करते हैं, और उनके तर्कों को "सारहीन विवाद" (empty quibbling) या "सोफिस्ट्री" (sophistry) के रूप में वर्णित किया गया है।

  • यह बताया गया है कि तर्क को अनुभव और शास्त्र पर आधारित होना चाहिए।

  • ज्ञान से माया का निवारण होता है। माया से उत्पन्न होने वाले अज्ञान को दूर करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन, मनन और निदिध्यासन आवश्यक है।

सारांश में, पंचदशी के चित्रदीप अध्याय में, माया को महेश्वर की शक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जो अचिंत्य, अनिर्वचनीय और जगत का उपादान कारण है। यह ब्रह्म पर संसार रूपी चित्र का अधिरोपण करती है, और भ्रम तथा द्वैत की सृष्टि का मूल है, जबकि ब्रह्म स्वयं निर्लिप्त रहता है।

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