Thursday, August 14, 2025

पंचदशी: अध्याय 5: महावाक्य विवेक

 🕉️ महावाक्य १: प्रज्ञानं ब्रह्म

येन पश्यति, शृणोति, इदं जिघ्रति, व्याकरोति च, स्वाद्वस्वादु विजानाति — तत् प्रज्ञानम् उदीरितम्।

शब्दार्थ:

  • येन — जिसके द्वारा

  • पश्यति — देखता है

  • शृणोति — सुनता है

  • इदं जिघ्रति — इसको सूंघता है

  • व्याकरोति च — बोलता है

  • स्वाद्वस्वादु विजानाति — स्वादिष्ट और अस्वादिष्ट को जानता है

  • तत् प्रज्ञानम् — वही चेतना है

  • उदीरितम् — जिसे उपनिषद ने ब्रह्म कहा है

🧠 भावार्थ:

जिससे हम देखते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं, बोलते हैं, स्वाद का अनुभव करते हैं — वह चेतना ही है। यही चेतना, जो अनुभव का मूल है, प्रज्ञान कहलाती है। उपनिषद कहती है: प्रज्ञानं ब्रह्म — चेतना ही ब्रह्म है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • यह चेतना कोई मानसिक क्रिया नहीं है, बल्कि वह मूल सत्ता है जिसके बिना कोई अनुभव संभव नहीं।

  • यह चेतना न तो शरीर में सीमित है, न मन में — यह सर्वव्यापक है।

  • जब हम कहते हैं "मैं हूँ", तो उस "मैं" की अनुभूति इसी चेतना से होती है।

  • उपनिषद इस चेतना को ब्रह्म कहती है — क्योंकि यह नित्य, सर्वत्र, और स्वयंसिद्ध है।

जैसे दीपक के प्रकाश से सब वस्तुएँ दिखती हैं, वैसे ही चेतना से ही सब अनुभव संभव हैं। चेतना को जानने वाला कोई अन्य नहीं — वह स्वयं ही स्वप्रकाश है।

🕉️ श्लोक २

चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु मनुष्याश्वगवादिषु । चैतन्यमेकं ब्रह्मातः प्रज्ञानं ब्रह्म मय्यपि ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु — चार मुखों वाले ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं में

  • मनुष्याश्वगवादिषु — मनुष्य, घोड़े, गाय आदि प्राणियों में

  • चैतन्यम् एकम् — एक ही चैतन्य (चेतना)

  • ब्रह्म — वही ब्रह्म है

  • अतः प्रज्ञानं ब्रह्म — इसलिए "प्रज्ञानं ब्रह्म" कहा गया है

  • मय्यपि — मेरे भीतर भी वही चेतना है

🧠 भावार्थ:

चार मुखों वाले ब्रह्मा से लेकर इन्द्र, अन्य देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी — सबमें एक ही चेतना व्याप्त है। यह चेतना ही ब्रह्म है। यही चेतना मेरे भीतर भी है। अतः उपनिषद का वाक्य "प्रज्ञानं ब्रह्म" — चेतना ही ब्रह्म है — सर्वथा यथार्थ है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • चेतना कोई सीमित गुण नहीं, यह सर्वव्यापक सत्ता है।

  • ब्रह्मा में यह चेतना सृजनात्मक बुद्धि के रूप में प्रकट होती है, इन्द्र में शक्ति और शासन, मनुष्य में विचार, इच्छा, विवेक, पशु में स्मृति, प्रवृत्ति, संवेदना — परंतु मूल चेतना एक ही है: चैतन्यमेकम्

  • यह चेतना अवस्था के अनुसार प्रकट होती है — कहीं तीव्र, कहीं मंद।

  • यही चेतना मेरे भीतर भी है — जिससे मैं जानता हूँ, अनुभव करता हूँ, सोचता हूँ।

जैसे एक ही सूर्य अनेक जलाशयों में प्रतिबिंबित होता है, वैसे ही एक ही ब्रह्म-चेतना सब जीवों में प्रकट होती है।

🕉️ महावाक्य २: अहम् ब्रह्मास्मि

परिपूर्णः परात्मास्मिन् देहे विद्याधिकारिणि । बुद्धेः साक्षितया स्थित्वा स्फुरन्नहमितीर्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • परिपूर्णः — पूर्ण, अखंड

  • परात्मा — परमात्मा

  • अस्मिन् देहे — इस शरीर में

  • विद्याधिकारिणि — ज्ञान के अधिकारी में (अर्थात् विवेकी बुद्धि वाले में)

  • बुद्धेः साक्षितया — बुद्धि के साक्षी रूप में

  • स्थित्वा — स्थित होकर

  • स्फुरन् — प्रकाशित होता हुआ

  • अहम् इति ईर्यते — "अहम्" (मैं) ऐसा कहा जाता है

🧠 भावार्थ:

परमात्मा, जो पूर्ण है, वह इस शरीर में बुद्धि के साक्षी रूप में स्थित होकर "अहम्" — "मैं" — के रूप में प्रकाशित होता है। यह "मैं" शरीर, मन, बुद्धि आदि नहीं है, बल्कि इन सबका साक्षी है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • जब हम कहते हैं "मैं हूँ", "मैं आया", "यह मेरा है" — तो यह "मैं" क्या है? यह शरीर नहीं, क्योंकि शरीर बदलता है। यह मन नहीं, क्योंकि मन चंचल है। यह बुद्धि नहीं, क्योंकि वह विचार करती है। यह सबके पीछे जो साक्षी रूप में स्थित चेतना है — वही "अहम्" है।

  • पंचकोश विवेचन के अनुसार — स्थूल शरीर, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनंदमय — ये सब "मैं" नहीं हैं। "मैं" वह है जो इन सबको जानता है, जो सुषुप्ति में भी बना रहता है।

  • सुषुप्ति में जब कोई वस्तु नहीं जानी जाती, तब भी "मैं" रहता हूँ — यह सिद्ध करता है कि "मैं" वस्तुओं से परे हूँ — निर्विशेष चैतन्य

"अहम् ब्रह्मास्मि" का अर्थ है — यह "मैं" जो साक्षी रूप में सब अनुभवों के पीछे है, वही ब्रह्म है। यह कोई व्यक्तिगत देह नहीं, बल्कि सर्वव्यापक आत्मा है जो "मैं" के रूप में प्रकाशित होती है।

🕉️ श्लोक ४

स्वतः पूर्णः परात्मात्र ब्रह्मशब्देन वर्णितः । अस्मीत्यैक्यपरामर्शस्तेन ब्रह्म भवाम्यहम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • स्वतः पूर्णः — स्वभाव से पूर्ण

  • परात्मा — परमात्मा

  • अत्र — यहाँ (व्यक्ति में)

  • ब्रह्मशब्देन वर्णितः — जिसे ब्रह्म शब्द से वर्णित किया गया है

  • अस्मीत्यैक्यपरामर्शः — "अस्मि" (मैं हूँ) के द्वारा एकत्व का संकेत

  • तेन — उसके द्वारा

  • ब्रह्म भवामि अहम् — मैं ब्रह्म बनता हूँ / हूँ

🧠 भावार्थ:

जो परमात्मा स्वभाव से पूर्ण है, वही ब्रह्म है। वही ब्रह्म जब व्यक्ति में प्रतिबिंबित होता है, तब "अहम् ब्रह्मास्मि" — "मैं ब्रह्म हूँ" — का अनुभव होता है। यह "मैं" कोई व्यक्तिगत देह नहीं, बल्कि उस सार्वभौमिक ब्रह्म का प्रतिबिंब है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • यह श्लोक एक महत्वपूर्ण चेतावनी देता है: "अहम् ब्रह्मास्मि" का अर्थ यह नहीं है कि यह देह, यह व्यक्ति ब्रह्म है। जैसे घड़ा कहे "मैं आकाश हूँ" — वह सत्य तभी है जब घड़े का आकाश सार्वत्रिक आकाश से अभिन्न माना जाए।

  • अहंकार का भ्रम: यदि कोई व्यक्ति, देह या मन को "ब्रह्म" मानकर यह वाक्य बोले, तो वह भ्रम में है। यह वैसा ही है जैसे कोई चींटी कहे "मैं हाथी हूँ" — केवल कहने से सत्य नहीं होता।

  • सत्य क्या है? व्यक्ति में जो चेतना है — जो साक्षी रूप में है, जो पंचकोशों से परे है — वही ब्रह्म है। यह चेतना व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सार्वभौमिक है। "अहम्" का अर्थ है — वह ब्रह्म जो मेरे भीतर है, वही सर्वत्र है। "अस्मि" — यह क्रिया केवल एक एकत्व का संकेत है, न कि व्यक्तिगत दावा।

जैसे घट में आकाश है, और वह घटाकाश वास्तव में महाकाश से भिन्न नहीं है — वैसे ही "मैं" ब्रह्म हूँ, क्योंकि मेरे भीतर वही ब्रह्म-चेतना है जो सर्वत्र है।

🕉️ महावाक्य ३: तत्त्वमसि

श्लोक ५ :

एकमेव अद्वितीयं सन् नामरूपविवर्जितम् । सृष्टेः पुरा धुनाप्यस्य तादृक्त्वं तदितीर्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • एकमेव अद्वितीयं — केवल एक, अद्वितीय

  • नामरूपविवर्जितम् — नाम और रूप से रहित

  • सृष्टेः पुरा — सृष्टि से पहले

  • धुनापि — अब भी

  • अस्य तादृक्त्वं — इसकी वही प्रकृति

  • तत् इति ईर्यते — इसे "तत्" कहा जाता है

🧠 भावार्थ:

सृष्टि से पहले जो केवल एक था, नाम-रूप से रहित, वही चेतना अब भी सबमें व्याप्त है। वही "तत्" — "वह" — है। यह ब्रह्म, जो सृष्टि से पहले भी था और अब भी है, वही सर्वव्यापक चेतना है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • "तत्" का अर्थ है — वह ब्रह्म जो अद्वितीय, अविभाज्य, और सर्वत्र व्याप्त है।

  • सृष्टि से पहले कोई नाम, रूप, भेद नहीं था — केवल एक निर्गुण सत्ता थी।

  • वही सत्ता अब भी सबमें अंतःस्थ रूप में है — उसे ही "तत्" कहा गया है।

श्लोक ६ :

श्रोतुर्देहे इन्द्रियातीतं वस्त्वत्र त्वं पदे रितम् । एकता ग्राह्यतेऽसीति तदैक्यं मनुभूयताम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • श्रोतुर्देहे — सुनने वाले के शरीर में

  • इन्द्रियातीतं — इन्द्रियों से परे

  • वस्तु — वह वस्तु (चेतना)

  • अत्र त्वं पदे रितम् — "त्वं" पद में उसका संकेत है

  • एकता ग्राह्यते — एकता को ग्रहण किया जाता है

  • असीति — "तू है" — यह क्रिया

  • तदैक्यं मनुभूयताम् — उस एकत्व का अनुभव करो

🧠 भावार्थ:

"त्वं" — तू — का अर्थ है वह चेतना जो शरीर और इन्द्रियों से परे है। "असि" — तू है — यह क्रिया उस चेतना को "तत्" से जोड़ती है। "तत्त्वमसि" — तू वही ब्रह्म है। इस एकत्व को अनुभव करो।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • "त्वं" का अर्थ है — वह आत्मा जो शरीर, मन, बुद्धि से परे है।

  • "तत्" — वह ब्रह्म जो सर्वत्र है।

  • "असि" — यह क्रिया है जो इन दोनों को जोड़ती है — जैसे घटाकाश और महाकाश एक हैं।

  • यह उपदेश गुरु द्वारा शिष्य को दिया गया है — आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध कराने के लिए।

"तत्त्वमसि" का अर्थ है — तू वही ब्रह्म है। यह कोई दावा नहीं, बल्कि अनुभव का आह्वान है: तदैक्यं मनुभूयताम् — उस एकत्व को स्वयं अनुभव करो।

🕉️ महावाक्य ४: अयमात्मा ब्रह्म

श्लोक ७ :

स्वप्रकाशा परोक्षत्वम् अयमित्युक्तितो मतम् । अहंकारादि देहान्तात् प्रत्यगात्मेति गीयते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • स्वप्रकाशा — स्वप्रकाशित (स्वयं प्रकाशित)

  • परोक्षत्वम् — अप्रत्यक्षता

  • अयम् इति उक्तितः मतम् — "अयम्" शब्द से इसका संकेत

  • अहंकारादि देहान्तात् — अहंकार और शरीर के पार

  • प्रत्यगात्मा — अंतःस्थित आत्मा

  • गीयते — कहा गया है

🧠 भावार्थ:

जो चेतना स्वयं प्रकाशित है, जो इन्द्रियों से परे है, जो अहंकार और शरीर के पार है — वही "अयम्" है। यही प्रत्यगात्मा है, और यही ब्रह्म है। "अयमात्मा ब्रह्म" — यह आत्मा ही ब्रह्म है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • "अयम्" — यह — का संकेत उस चेतना की ओर है जो स्वयं प्रकाशित, अहंकार से परे, और पंचकोशों के पार है।

  • यह चेतना न तो इन्द्रियों से जानी जाती है, न मन से — यह स्वप्रकाश है।

  • यही चेतना जब देह, मन, बुद्धि, अहंकार से परे अनुभव होती है — तब उसे प्रत्यगात्मा कहते हैं।

  • यही प्रत्यगात्मा — जो भीतर है, जो साक्षी है — वही ब्रह्म है।

श्लोक ८ :

दृश्यमानस्य सर्वस्य जगतस्तत्त्वमीर्यते । ब्रह्मशब्देन तद्ब्रह्म स्वप्रकाशात्मरूपकम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • दृश्यमानस्य सर्वस्य — जो सब दृश्य जगत है

  • जगतः तत्त्वम् — जगत का तत्त्व

  • ईर्यते — कहा गया है

  • ब्रह्मशब्देन — "ब्रह्म" शब्द से

  • तद्ब्रह्म — वही ब्रह्म

  • स्वप्रकाशात्मरूपकम् — स्वयं प्रकाशित आत्मरूप

🧠 भावार्थ:

जो सम्पूर्ण दृश्य जगत का मूल तत्त्व है, वही ब्रह्म है। यह ब्रह्म स्वयं प्रकाशित है, आत्मरूप है। यही आत्मा — जो भीतर है — वही ब्रह्म है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • दृश्य जगत में जो परिवर्तनशीलता है, उसके पीछे एक अपरिवर्तनीय तत्त्व है — वही ब्रह्म है।

  • यह ब्रह्म स्वप्रकाश है — इसे जानने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं।

  • यही ब्रह्म जब व्यक्ति के भीतर अंतःस्थित रूप में अनुभव होता है — तब उसे आत्मा कहते हैं।

  • अतः "अयमात्मा ब्रह्म" — यह आत्मा ही ब्रह्म है — यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि अनुभवजन्य सत्य है।

जैसे घट में स्थित आकाश महाकाश से भिन्न नहीं है, वैसे ही आत्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है।

🔚 महावाक्यों का समन्वय:

महावाक्य

अर्थ

दृष्टिकोण

प्रज्ञानं ब्रह्म

चेतना ही ब्रह्म है

वस्तुनिष्ठ (Objective)

अहम् ब्रह्मास्मि

मैं ब्रह्म हूँ

आत्मनिष्ठ (Subjective)

तत्त्वमसि

तू वही ब्रह्म है

उपदेशात्मक (Instructional)

अयमात्मा ब्रह्म

यह आत्मा ही ब्रह्म है

प्रत्यक्ष (Immediate)


🖼️ अध्याय:6 चित्रदीप — सृष्टि का चित्र-उपमा द्वारा विवेचन 1

श्लोक १ :

यथा चित्रपटे दृष्टम् अवस्थानां चतुष्टयम् । परमात्मनि विज्ञेयं तथावस्था चतुष्टयम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • यथा — जैसे

  • चित्रपटे — चित्रित कपड़े पर

  • दृष्टम् — देखा जाता है

  • अवस्थानां चतुष्टयम् — चार अवस्थाएँ

  • परमात्मनि विज्ञेयं — परमात्मा में जानने योग्य

  • तथा — वैसे ही

  • अवस्था चतुष्टयम् — सृष्टि की चार अवस्थाएँ

🧠 भावार्थ:

जैसे चित्र बनाने की प्रक्रिया में चार अवस्थाएँ होती हैं, वैसे ही सृष्टि की प्रक्रिया में भी चार अवस्थाएँ होती हैं। यह उपमा परमात्मा के स्तर पर सृष्टि की समझ के लिए दी गई है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • चित्र की चार अवस्थाएँ:

    1. कपड़ा — आधार

    2. मांडना — कठोरता देना

    3. रेखाचित्र — अस्पष्ट रूपरेखा

    4. रंग भरना — स्पष्ट दृश्य

  • सृष्टि की चार अवस्थाएँ:

    1. ब्रह्म — शुद्ध चेतना, आधार

    2. ईश्वर — संकल्पयुक्त चेतना, मांडना

    3. हिरण्यगर्भ — सूक्ष्म रूपरेखा, रेखाचित्र

    4. विराट — स्थूल सृष्टि, रंग भरना

जैसे चित्र बिना कपड़े के नहीं बन सकता, वैसे ही सृष्टि बिना ब्रह्म के नहीं हो सकती।

श्लोक २ :

यथा धौतः घट्टितश्च लाञ्छितो रञ्जितः पटः । चिदन्तर्यामी सूत्रात्मा विराट्चात्मा तथेर्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • धौतः — धोया हुआ

  • घट्टितः — मांडा गया

  • लाञ्छितः — रेखांकित

  • रञ्जितः — रंगा गया

  • पटः — कपड़ा

  • चिदन्तर्यामी — चेतना रूप अंतर्यामी

  • सूत्रात्मा — सूक्ष्म ब्रह्म (हिरण्यगर्भ)

  • विराट्चात्मा — स्थूल ब्रह्म (विराट)

  • तथेर्यते — ऐसा ही कहा गया है

🧠 भावार्थ:

जैसे चित्र बनाने की चार अवस्थाएँ होती हैं — कपड़े को धोना, मांडना, रेखांकन करना और रंग भरना — वैसे ही ब्रह्म से ईश्वर, हिरण्यगर्भ और विराट की क्रमिक अभिव्यक्ति होती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • धौतः पटः — शुद्ध ब्रह्म, चेतना मात्र

  • घट्टितः — ईश्वर, संकल्पयुक्त चेतना

  • लाञ्छितः — हिरण्यगर्भ, सूक्ष्म रूपरेखा

  • रञ्जितः — विराट, स्थूल सृष्टि

यह उपमा वेदांत के अद्वैत सिद्धांत को अत्यंत सुंदरता से स्पष्ट करती है — कि सृष्टि कोई बाह्य वस्तु नहीं, बल्कि चेतना की क्रमिक अभिव्यक्ति है।

श्लोक ३ :

स्वतः शुभ्रोऽत्र धौतः स्यात् घट्टितोऽन्नविलेपनात् । मष्याकारैर्लाञ्छितः स्यात् रञ्जितो वर्णपूरणात् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • स्वतः शुभ्रः — स्वभाव से शुद्ध (कपड़ा)

  • धौतः — धोया गया

  • घट्टितः — मांडा गया (मांड से कठोर किया गया)

  • अन्नविलेपनात् — अन्न-आधारित लेप से

  • मष्याकारैः — स्याही की रेखाओं से

  • लाञ्छितः — रेखांकित

  • रञ्जितः — रंगा गया

  • वर्णपूरणात् — रंगों की पूर्ति से

🧠 भावार्थ:

कपड़ा पहले शुद्ध होता है, फिर मांड से कठोर किया जाता है, फिर उस पर रेखाएं खींची जाती हैं, और अंत में रंग भरकर चित्र पूर्ण होता है। यही चार अवस्थाएँ सृष्टि की भी हैं।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • शुद्ध कपड़ा — ब्रह्म: शुद्ध चेतना

  • मांडना — ईश्वर: संकल्पयुक्त चेतना

  • रेखांकन — हिरण्यगर्भ: सूक्ष्म रूपरेखा

  • रंग भरना — विराट: स्थूल सृष्टि

जैसे चित्र में वस्तुएँ वास्तव में नहीं होतीं, केवल रंग और रेखाएं होती हैं — वैसे ही सृष्टि में विविधता केवल मायिक अभिव्यक्ति है, मूलतः सब ब्रह्म ही है।

श्लोक ४ :

स्वतः चिदन्तर्यामी तु मायावी सूक्ष्मसृष्टितः । सूत्रात्मा स्थूलसृष्ट्यैव विराटित्युच्यते परः ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • स्वतः — स्वभाव से

  • चिदन्तर्यामी — चेतना रूप अंतर्यामी

  • मायावी — माया से युक्त

  • सूक्ष्मसृष्टितः — सूक्ष्म सृष्टि के कारण

  • सूत्रात्मा — हिरण्यगर्भ

  • स्थूलसृष्ट्यैव — स्थूल सृष्टि के लिए

  • विराट — विराट रूप

  • उच्यते परः — परमात्मा को ऐसा कहा जाता है

🧠 भावार्थ:

शुद्ध चेतना ब्रह्म है। जब वह माया से युक्त होती है, तो ईश्वर कहलाती है। ईश्वर से सूक्ष्म सृष्टि होती है — जिसे सूत्रात्मा या हिरण्यगर्भ कहते हैं। और स्थूल सृष्टि के रूप में वही चेतना विराट कहलाती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • ब्रह्म — शुद्ध, निर्गुण चेतना

  • ईश्वर — माया से युक्त चेतना, संकल्पशील

  • हिरण्यगर्भ (सूत्रात्मा) — सूक्ष्म जगत की रूपरेखा

  • विराट — स्थूल जगत की पूर्ण अभिव्यक्ति

यह चार स्तर — ब्रह्म, ईश्वर, हिरण्यगर्भ, विराट — सृष्टि के चार चरण हैं, जैसे चित्र के चार चरण।

श्लोक ५ :

ब्रह्माद्याः स्तम्ब पर्यन्ताः प्राणिनोऽत्र जडाः अपि । उत्तमाधमभावेन वर्तन्ते पटचित्रवत् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • ब्रह्माद्याः — ब्रह्मा आदि

  • स्तम्ब पर्यन्ताः — स्तंभ (वनस्पति) तक

  • प्राणिनः — जीव

  • जडाः अपि — जड़ वस्तुएँ भी

  • उत्तमाधमभावेन — उच्च-नीच भाव से

  • वर्तन्ते — स्थित हैं

  • पटचित्रवत् — चित्रित कपड़े की तरह

🧠 भावार्थ:

ब्रह्मा से लेकर वनस्पति तक, सभी जीव और जड़ वस्तुएँ इस सृष्टि रूपी चित्र में उच्च-नीच भाव से स्थित हैं — जैसे चित्रपट पर विविध आकृतियाँ होती हैं।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • सृष्टि में जो विविधता दिखती है — देवता, मनुष्य, पशु, वनस्पति — वह सब मायिक चित्रण है।

  • वस्तुतः सब ब्रह्म ही है — जैसे चित्रपट पर केवल रंग होता है, पर हम उसमें रूप, भाव, वस्त्र आदि देख लेते हैं।

श्लोक ६ :

चित्रार्पितमनुष्याणां वस्त्राभासाः पृथक् पृथक् । चित्राधारेण वस्त्रेण सदृशा इव कल्पिताः ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • चित्रार्पितमनुष्याणां — चित्र में अंकित मनुष्यों के

  • वस्त्राभासाः — वस्त्रों के आभास

  • पृथक् पृथक् — अलग-अलग

  • चित्राधारेण — चित्र के आधार से

  • वस्त्रेण — कपड़े से

  • सदृशा इव कल्पिताः — जैसे वस्त्र हों, वैसे कल्पित

🧠 भावार्थ:

चित्र में मनुष्यों के वस्त्र अलग-अलग दिखते हैं, पर वस्तुतः वे वस्त्र नहीं हैं — केवल रंग और रेखाएं हैं। फिर भी हमें वे वस्त्र जैसे प्रतीत होते हैं।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • सृष्टि में जो भिन्नता दिखती है — रूप, रंग, जाति, गुण — वह कल्पना मात्र है।

  • जैसे चित्रपट पर वस्त्र नहीं होते, केवल रंग होते हैं — वैसे ही सृष्टि में वस्तुतः केवल ब्रह्म है, पर हम भिन्नता अनुभव करते हैं।

यह उपमा वेदांत के अद्वैत सिद्धांत को अत्यंत सुंदरता से स्पष्ट करती है — कि सृष्टि कोई वस्तु नहीं, बल्कि चेतना की चित्रात्मक अभिव्यक्ति है।

🎭 चित्रदीप — जीव, चेतना और संसार

श्लोक ७ :

पृथक् पृथक् चिदाभासाः चैतन्याध्यस्त देहिनाम् । कल्प्यन्ते जीव नामानो बहुधा संसरण्त्यमी ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • पृथक् पृथक् — अलग-अलग

  • चिदाभासाः — चेतना के प्रतिबिंब

  • चैतन्याध्यस्त — चेतना से आरोपित

  • देहिनाम् — शरीरधारियों में

  • कल्प्यन्ते — कल्पित होते हैं

  • जीव नामानः — जीव नाम वाले

  • बहुधा — अनेक प्रकार से

  • संसरण्ति — भ्रमण करते हैं

  • अमी — ये

🧠 भावार्थ:

शुद्ध चेतना जब विभिन्न बुद्धियों में प्रतिबिंबित होती है, तो अनेक जीवों की कल्पना होती है। चेतना एक ही है, पर माध्यम भिन्न होने से विविधता प्रतीत होती है। यही विविधता संसार का कारण बनती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • चेतना स्वयं एक है, पर जब वह अहंकारयुक्त बुद्धि में प्रतिबिंबित होती है, तो "मैं" की भावना उत्पन्न होती है।

  • यह "मैं" — जीव — वस्तुतः चेतना नहीं, उसका प्रतिबिंब है।

  • जैसे एक ही स्याही से चित्रपट पर अनेक आकृतियाँ बनती हैं, वैसे ही एक ही चेतना से अनेक जीव प्रतीत होते हैं।

  • यह विविधता माध्यम की भिन्नता से है — चेतना नहीं बदलती, बुद्धि बदलती है।

  • यही संसार है — चेतना का प्रतिबिंब बुद्धि में होकर "मैं" बन जाना।

यह श्लोक अद्वैत वेदांत की मूल बात को स्पष्ट करता है — जीव ब्रह्म नहीं, ब्रह्म का प्रतिबिंब है।

श्लोक ८ :

वस्त्राभासस्थितान् वर्णान् यद्वदाधारवस्त्रगान् । वदन्ति अज्ञास्तथा जीवसंसारं चित्गतं विदुः ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • वस्त्राभासस्थितान् वर्णान् — वस्त्र पर स्थित रंगों को

  • यद्वत् — जैसे

  • आधारवस्त्रगान् — वस्त्र के ही अंग मानते हैं

  • वदन्ति अज्ञाः — अज्ञानी लोग ऐसा कहते हैं

  • तथा — वैसे ही

  • जीवसंसारम् — जीव और संसार को

  • चित्गतम् — चेतना में स्थित

  • विदुः — जानते हैं

🧠 भावार्थ:

जैसे अज्ञानी चित्र में रंगों को वस्त्र का ही भाग मानते हैं, वैसे ही अज्ञानी लोग जीव और संसार को चेतना का ही भाग मानते हैं। परंतु वस्त्र पर रंग केवल आरोप हैं — वस्त्र उनसे भिन्न है। चेतना भी जीव और संसार से भिन्न है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • चित्रपट पर रंगों से बने रूप वस्त्र नहीं होते — वे केवल आभास होते हैं।

  • वैसे ही चेतना में जो जीव और संसार दिखते हैं — वे चेतना नहीं हैं, केवल मायिक प्रतिबिंब हैं।

  • अज्ञानी लोग इन प्रतिबिंबों को ही सत्य मानते हैं — यही अविद्या है।

  • वस्त्र को रंगों से जोड़ना जैसे भ्रम है, वैसे ही चेतना को जीव से जोड़ना भी भ्रम है।

यह श्लोक माया, अहंकार, और अविद्या के कार्य को अत्यंत सुंदरता से स्पष्ट करता है।

🧠 चित्रदीप — चेतना, अविद्या और आत्मबोध

श्लोक ९ :

चित्रस्थ पर्वतादीनां वस्त्राभासो न लिख्यते । सृष्टिस्थ मृत्तिकादीनां चिदाभासस्तथा न हि ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • चित्रस्थ पर्वतादीनां — चित्र में स्थित पर्वत आदि

  • वस्त्राभासः — वस्त्र का आभास

  • न लिख्यते — नहीं चित्रित होता

  • सृष्टिस्थ मृत्तिकादीनां — सृष्टि में स्थित मिट्टी आदि

  • चिदाभासः — चेतना का प्रतिबिंब

  • तथा न हि — वैसे नहीं होता

🧠 भावार्थ:

चित्र में पर्वतों को वस्त्र नहीं पहनाया जाता — वस्त्र केवल मनुष्यों को चित्रित किया जाता है। वैसे ही चेतना का प्रतिबिंब (चिदाभास) जड़ वस्तुओं में नहीं होता। चेतना केवल जीवों में प्रतिबिंबित होती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • चेतना का प्रतिबिंब बुद्धि में होता है — और बुद्धि जड़ वस्तुओं में नहीं होती।

  • जड़ वस्तुएँ — जैसे पत्थर, मिट्टी — चेतना के प्रतिबिंब से रहित हैं।

  • चेतना की अभिव्यक्ति क्रमशः होती है:

    • वनस्पतियों में — प्राण

    • पशुओं में — प्रवृत्ति

    • मनुष्यों में — बुद्धि

    • देवों में — सत्त्व की पूर्णता

चेतना एक ही है, पर उसका प्रतिबिंब माध्यम के अनुसार बदलता है।

श्लोक १० :

संसारः परमार्थोऽयं संलग्नः स्वात्मवस्तुनि । इति भ्रान्तिरविद्या स्यात् विद्ययैषा निवर्तते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • संसारः परमार्थः — संसार को परम सत्य मानना

  • संलग्नः स्वात्मवस्तुनि — आत्मा से जुड़ा हुआ मानना

  • इति भ्रान्तिः — यह भ्रम

  • अविद्या स्यात् — अविद्या कहलाता है

  • विद्यया एषा निवर्तते — ज्ञान से यह दूर होता है

🧠 भावार्थ:

जब हम संसार को परम सत्य मानते हैं और आत्मा से जुड़ा हुआ समझते हैं — यह भ्रम है। यही अविद्या है। यह केवल विद्या से दूर होती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • संसार को वस्तुतः ब्रह्म से भिन्न मानना — यही अविद्या है।

  • यह भ्रम तब होता है जब हम आत्मा को शरीर, मन, इन्द्रियों से जोड़ते हैं।

  • विद्या का अर्थ है — यह जानना कि आत्मा संसार से भिन्न है, और स्वतंत्र है।

जैसे चित्रपट पर रंगों को वस्त्र मानना भ्रम है, वैसे ही संसार को आत्मा का स्वरूप मानना भी भ्रम है।

श्लोक ११ :

आत्माभासस्य जीवस्य संसारो नात्मवस्तुनः । इति बोधो भवेत् विद्यालभ्यतेऽसौ विचारणात् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • आत्माभासस्य जीवस्य — आत्मा के प्रतिबिंब रूप जीव का

  • संसारः — संसार

  • न आत्मवस्तुनः — आत्मा के लिए नहीं

  • इति बोधः — ऐसा बोध

  • भवेत् — होना चाहिए

  • विद्या — ज्ञान

  • लभ्यते — प्राप्त होती है

  • विचारणात् — विचार से

🧠 भावार्थ:

संसार जीव के लिए है, आत्मा के लिए नहीं। यह बोध ही विद्या है, और यह केवल विचार से प्राप्त होती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • आत्मा स्वयं मुक्त है — संसार केवल चिदाभास (प्रतिबिंब) के लिए है।

  • जब हम आत्मा को संसार से जोड़ते हैं, तो बंधन होता है।

  • विचार — आत्मा और जीव के भेद का विवेचन — ही विद्या है।

आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है — वह केवल साक्षी है।

श्लोक १२ :

सदा विचारयेत् तस्माज्जगत् जीव परात्मनः । जीवभाव जगत्भाव बाधे स्वात्मैव शिष्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • सदा विचारयेत् — सदा विचार करना चाहिए

  • तस्मात् — इसलिए

  • जगत् जीव परात्मनः — जगत, जीव और परमात्मा के विषय में

  • जीवभाव जगत्भाव बाधे — जीव और जगत के भाव का नाश होने पर

  • स्वात्मैव शिष्यते — केवल आत्मा ही शेष रहती है

🧠 भावार्थ:

हमें सदा विचार करना चाहिए — जगत, जीव और परमात्मा के संबंध पर। जब जीव और जगत के भाव का नाश होता है, तब केवल आत्मा ही शेष रहती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • विचार — आत्मा को जगत और जीव से अलग जानना

  • जब हम जीव और जगत को मायिक मानते हैं, और आत्मा को नित्य — तब बोध होता है।

  • अंततः केवल आत्मा ही शेष रहती है — वही ब्रह्म है।

यह श्लोक अद्वैत वेदांत का सार है — आत्मा ही सत्य है, शेष सब मिथ्या।

🧘‍♂️ चित्रदीप — मिथ्यात्व-बोध और जीवन्मुक्ति

श्लोक १३ :

नाप्रतीतिस्तयोर्बाधः किंतु मिथ्यात्वनिश्चयः । नो चेत् सुषुप्ति मूर्च्छादौ मुच्येत यत्नतो जनः ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • नाप्रतीतिः — न देखना / न अनुभव होना

  • तयोः बाधः — उन दोनों (संसार और आत्मा) का खंडन

  • मिथ्यात्वनिश्चयः — मिथ्या होने का निश्चय

  • नो चेत् — अन्यथा

  • सुषुप्ति मूर्च्छादौ — सुषुप्ति और मूर्च्छा में

  • मुच्येत — मुक्त हो जाता

  • यत्नतः जनः — प्रयत्नशील व्यक्ति

🧠 भावार्थ:

संसार का न दिखना (जैसे सुषुप्ति या मूर्च्छा में) मुक्ति नहीं है। मुक्ति तब होती है जब संसार को मिथ्या समझा जाए। केवल न देखना मुक्ति नहीं है — मिथ्यात्व का बोध ही मुक्ति है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • मृगतृष्णा दिखती है, पर हम जानते हैं कि वह जल नहीं है — यही मिथ्यात्वबोध है।

  • रस्सी को साँप समझना — यह अविद्या है। रस्सी को साँप जैसा दिखना जारी रहता है, पर बोध हो जाता है कि वह साँप नहीं है — यही विद्या है।

  • यदि केवल अनुभव का अभाव ही मुक्ति होता, तो सुषुप्ति, मूर्च्छा, या अचेतन अवस्था में सब मुक्त हो जाते — पर ऐसा नहीं है।

  • बोध ही मुक्ति है — संसार है, पर वह सत्य नहीं है

बाध नहीं, बोध चाहिए। यही अद्वैत वेदांत की सूक्ष्मता है।

श्लोक १४ :

परमात्मा वशेषोऽपि तत् सत्यत्वविनिश्चयः । न जगत् विस्मृतिर्नो चेन् जीवन्मुक्तिर्न संभवेत् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • परमात्मा वशेषः अपि — परमात्मा का विशेष स्वरूप भी

  • तत् सत्यत्व विनिश्चयः — उसका सत्य होना

  • न जगत् विस्मृतिः — केवल जगत की विस्मृति

  • न चेत् — यदि नहीं

  • जीवन्मुक्तिः न संभवेत् — तो जीवन्मुक्ति संभव नहीं

🧠 भावार्थ:

केवल जगत को भूल जाना जीवन्मुक्ति नहीं है। जब परमात्मा का सत्यत्व स्पष्ट रूप से जाना जाता है — तभी जीवन्मुक्ति संभव है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • जीवन्मुक्ति का अर्थ है — जगत को देखना, पर उससे असंग रहना

  • जैसे चित्रपट पर रंगों को देखकर भी हम जानते हैं कि वह वस्त्र नहीं है — वैसे ही ब्रह्म को जानकर भी जगत को देखा जा सकता है।

  • विस्मृति नहीं, विवेक चाहिए।

  • जीवन्मुक्त व्यक्ति संसार में रहते हुए भी ब्रह्म में स्थित होता है।

दृश्य बना रहता है, पर दृष्टा मुक्त हो जाता है।

🔍 चित्रदीप — परोक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान

श्लोक १५ :

परोक्षा चापरोक्षेति विद्या द्वेधा विचारजा । तत्र परोक्षविद्याप्तौ विचारोऽयं समाप्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • परोक्षा — परोक्ष (अप्रत्यक्ष)

  • च अपरोक्षा — और अपरोक्ष (प्रत्यक्ष)

  • विद्या द्वेधा — ज्ञान दो प्रकार का होता है

  • विचारजा — विचार से उत्पन्न

  • तत्र — उसमें

  • परोक्षविद्याप्तौ — परोक्ष ज्ञान की प्राप्ति में

  • विचारः अयं समाप्यते — यह विचार समाप्त होता है

🧠 भावार्थ:

ज्ञान दो प्रकार का होता है — परोक्ष (बौद्धिक, अप्रत्यक्ष) और अपरोक्ष (अनुभवजन्य, प्रत्यक्ष)। यह विचार प्रक्रिया परोक्ष ज्ञान की प्राप्ति तक चलती है। प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर विचार समाप्त हो जाता है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • परोक्ष ज्ञान — जैसे "ब्रह्म है", "ईश्वर है" — यह शास्त्रों, तर्क, और बुद्धि से जाना जाता है।

  • अपरोक्ष ज्ञान — जैसे "मैं ब्रह्म हूँ" — यह अनुभव से होता है, जब आत्मा स्वयं को ब्रह्म रूप में जानती है।

  • विचार, श्रवण, मनन, निदिध्यासन — ये सब परोक्ष ज्ञान तक पहुँचाते हैं।

  • परंतु जब साक्षात्कार होता है — तब विचार समाप्त हो जाता है।

  • जैसे पानी के बारे में पढ़ना परोक्ष है, और उसे पीना अपरोक्ष।

विचार से परोक्ष ज्ञान होता है, अनुभव से अपरोक्ष।

श्लोक १६ :

अस्ति ब्रह्मेति चेत् वेद परोक्षज्ञानमेव तत् । अहं ब्रह्मेति चेत् वेद साक्षात्कारः स उच्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • अस्ति ब्रह्मेति चेत् वेद — यदि कोई जानता है कि "ब्रह्म है"

  • परोक्षज्ञानम् एव तत् — तो वह परोक्ष ज्ञान है

  • अहं ब्रह्मेति चेत् वेद — यदि कोई जानता है "मैं ब्रह्म हूँ"

  • साक्षात्कारः स उच्यते — तो वह साक्षात्कार कहलाता है

🧠 भावार्थ:

"ब्रह्म है" — यह जानना परोक्ष ज्ञान है। "मैं ब्रह्म हूँ" — यह जानना साक्षात्कार है। पहला ज्ञान बुद्धि से होता है, दूसरा अनुभव से।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • परोक्ष ज्ञान से श्रद्धा आती है, पर मुक्ति नहीं।

  • साक्षात्कार से बोध आता है, और बंधन समाप्त होता है।

  • "ब्रह्म है" — यह जानना एक बाह्य सत्य है।

  • "मैं ब्रह्म हूँ" — यह जानना आत्मसाक्षात्कार है।

ज्ञान तब पूर्ण होता है जब ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान — तीनों एक हो जाते हैं।

🕉️ चित्रदीप — आत्मसाक्षात्कार और चैतन्य के चार रूप

श्लोक १७ :

तत्साक्षात्कारसिद्ध्यर्थम् आत्मतत्त्वं विविच्यते । येनायं सर्वसंसारात् सद्य एव विमुच्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • तत् साक्षात्कार सिद्ध्यर्थम् — उस साक्षात्कार की सिद्धि के लिए

  • आत्मतत्त्वं विविच्यते — आत्मतत्त्व का विवेचन किया जाता है

  • येन — जिसके द्वारा

  • अयं — यह (जीव)

  • सर्वसंसारात् — समस्त संसार से

  • सद्य एव — तत्काल ही

  • विमुच्यते — मुक्त हो जाता है

🧠 भावार्थ:

ब्रह्म का प्रत्यक्ष साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए आत्मतत्त्व का गहन विवेचन किया जाता है। इस विवेचन से जीव तत्काल संसार से मुक्त हो सकता है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • यह श्लोक विवेचन से मुक्ति की बात करता है — केवल ज्ञान नहीं, साक्षात्कार

  • आत्मा का स्वरूप जानना ही मुक्ति का मार्ग है।

  • जैसे अंधकार में दीपक जलाने से सब स्पष्ट हो जाता है, वैसे ही आत्मतत्त्व का विवेचन अविद्या को दूर करता है।

विचार से ज्ञान, और ज्ञान से साक्षात्कार — यही वेदांत का क्रम है।

श्लोक १८ :

कूटस्थो ब्रह्म जीवेशौ इत्येवं चित्तुर्विधा । घटाकाशो महाकाशौ जलाकाशा भ्रखे यथा ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • कूटस्थः — अचल, साक्षी आत्मा

  • ब्रह्म — सार्वभौमिक ब्रह्म

  • जीवेशौ — जीव और ईश्वर

  • इत्येवं चित् चतुर्विधा — इस प्रकार चित्त चार प्रकार का होता है

  • घटाकाशः — घट में आकाश

  • महाकाशः — महाकाश (बाह्य आकाश)

  • जलाकाशः — जल में प्रतिबिंबित आकाश

  • भ्रखे यथा — बादल में प्रतिबिंबित आकाश की तरह

🧠 भावार्थ:

चेतना के चार रूप हैं —

  1. ब्रह्म — शुद्ध, निर्गुण चेतना

  2. ईश्वर — माया में प्रतिबिंबित ब्रह्म

  3. कूटस्थ — शरीर के भीतर स्थित साक्षी आत्मा

  4. जीव — पंचकोशों से युक्त, प्रतिबिंबित चेतना

इनका उपमा से स्पष्टीकरण:

  • महाकाश — ब्रह्म

  • घटाकाश — कूटस्थ

  • जलाकाश — जीव

  • भ्रकाकाश — ईश्वर

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • ब्रह्म — जैसे आकाश सर्वत्र है, वैसे ही ब्रह्म सर्वव्यापक है।

  • ईश्वर — जैसे बादल में आकाश प्रतिबिंबित होता है, वैसे ही माया में ब्रह्म प्रतिबिंबित होकर ईश्वर बनता है।

  • कूटस्थ — घट में स्थित आकाश की तरह, शरीर में स्थित साक्षी आत्मा।

  • जीव — जल में प्रतिबिंबित आकाश की तरह, पंचकोशों में प्रतिबिंबित चेतना।

चेतना एक ही है, पर माध्यम के अनुसार उसका रूप बदलता है।

🌌 चित्रदीप — जलाकाश और मेघाकाश की उपमा

श्लोक १९ :

घटावच्छिन्नखे नीरं यत्तत्र प्रतिबिम्भतः । साभ्र नक्षत्र आकाशो जलाकाश उदीर्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • घटावच्छिन्नखे — घट द्वारा सीमित आकाश

  • नीरं — जल

  • यत् तत्र प्रतिबिम्भतः — जो उसमें प्रतिबिंबित होता है

  • साभ्र नक्षत्र आकाशः — बादलों और नक्षत्रों सहित आकाश

  • जलाकाशः — जल में प्रतिबिंबित आकाश

  • उदीर्यते — कहा जाता है

🧠 भावार्थ:

घट में जल भरने पर उसमें आकाश प्रतिबिंबित होता है — जिसमें बादल, तारे आदि भी दिखते हैं। यह प्रतिबिंबित आकाश जलाकाश कहलाता है। यही उपमा जीव के लिए दी गई है — जो बुद्धि रूपी घट में वासना और कर्मों के जल से प्रतिबिंबित चेतना है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • ब्रह्म — महाकाश की तरह सर्वव्यापक

  • कूटस्थ — घटाकाश की तरह, शरीर में स्थित साक्षी

  • जीव — जलाकाश की तरह, बुद्धि में प्रतिबिंबित चेतना

  • जीव की दो सीमाएँ हैं:

    • गुणात्मक — प्रतिबिंब होने के कारण मूल से भिन्न

    • परिमाणात्मक — शरीर में सीमित होने के कारण

जैसे घट में जल में आकाश प्रतिबिंबित होता है, वैसे ही जीव चेतना का प्रतिबिंब है — न कि मूल चेतना।

श्लोक २० :

महाकाशस्य मध्ये यत् मेघमण्डलमीक्ष्यते । प्रतिबिम्बतया तत्र मेघाकाशो जले स्थितः ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • महाकाशस्य मध्ये — महाकाश के मध्य

  • मेघमण्डलम् — बादलों का समूह

  • ईक्ष्यते — देखा जाता है

  • प्रतिबिम्बतया — प्रतिबिंब के रूप में

  • तत्र मेघाकाशः — बादलों में प्रतिबिंबित आकाश

  • जले स्थितः — जल में स्थित

🧠 भावार्थ:

महाकाश में फैले हुए बादलों में जब आकाश प्रतिबिंबित होता है, तो वह मेघाकाश कहलाता है। यह उपमा ईश्वर के लिए है — जो ब्रह्म चेतना का प्रतिबिंब है, माया रूपी शुद्ध सत्त्व में।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • ईश्वर — ब्रह्म का प्रतिबिंब है, पर शुद्ध सत्त्व में।

  • जैसे बादल में आकाश प्रतिबिंबित होता है, वैसे ही माया में ब्रह्म प्रतिबिंबित होकर ईश्वर बनता है।

  • ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक है — क्योंकि उसका माध्यम शुद्ध सत्त्व है।

  • जीव का माध्यम अविद्या है — जिसमें रजस और तमस की प्रधानता है।

जलाकाश = जीव, मेघाकाश = ईश्वर, घटाकाश = कूटस्थ, महाकाश = ब्रह्म

🌫️ चित्रदीप — प्रतिबिंब और आत्मा का आवरण

श्लोक २१ :

मेघांशरूपमुदकं तुषाराकारसंस्थितम् । तत्र खप्रतिबिंबोऽयं नीरत्वान्नुमीयते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • मेघांशरूपम् उदकं — बादल रूप जलकण

  • तुषाराकारसंस्थितम् — हिमकणों के समान फैला हुआ

  • तत्र खप्रतिबिंबः अयम् — उसमें आकाश का प्रतिबिंब

  • नीरत्वात् अनुमान्यते — जल होने के कारण अनुमान किया जाता है

🧠 भावार्थ:

बादलों में जलकण होते हैं, जो दर्पण की तरह आकाश को प्रतिबिंबित करते हैं। यह प्रतिबिंबित आकाश मेघाकाश कहलाता है — जो ईश्वर का प्रतीक है, ब्रह्म का प्रतिबिंब शुद्ध सत्त्व में।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • जैसे पतले बादलों में आकाश प्रतिबिंबित होता है, वैसे ही शुद्ध सत्त्व में ब्रह्म प्रतिबिंबित होकर ईश्वर बनता है।

  • मोटे बादलों में प्रतिबिंब नहीं होता — जैसे अविद्या में ब्रह्म का प्रतिबिंब नहीं होता।

  • यह उपमा ईश्वर की सर्वज्ञता और ब्रह्म से अभिन्नता को स्पष्ट करती है।

श्लोक २२ :

अधिष्ठानतया देहद्वयावच्छिन्नचेतनः । कूटवन्निर्विकारेण स्थितः कूटस्थ उच्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • अधिष्ठानतया — आधार रूप में

  • देहद्वयावच्छिन्न चेतनः — स्थूल और सूक्ष्म शरीर से सीमित चेतना

  • कूटवत् — अचल, स्थिर

  • निर्विकारेण स्थितः — बिना विकार के स्थित

  • कूटस्थः उच्यते — उसे कूटस्थ कहा जाता है

🧠 भावार्थ:

जो चेतना स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के पीछे आधार रूप में स्थित है, जो अचल और निर्विकार है — वही कूटस्थ कहलाती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • कूटस्थ आत्मा शरीरों से परे है, पर उनमें अधिष्ठान रूप से स्थित है।

  • वह न बदलती है, न प्रभावित होती है — जैसे घट में आकाश

  • यही आत्मा साक्षी है — जो सब अनुभवों को जानती है, पर उनसे जुड़ती नहीं।

श्लोक २३ :

कूटस्थे कल्पिता बुद्धिः तत्र चित्प्रतिबिंबकः । प्राणानां धारणात् जीवः संसारेण स युज्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • कूटस्थे कल्पिता बुद्धिः — कूटस्थ में कल्पित बुद्धि

  • तत्र चित्प्रतिबिंबकः — उसमें चेतना का प्रतिबिंब

  • प्राणानां धारणात् — प्राणों को धारण करने से

  • जीवः — जीव

  • संसारेण स युज्यते — वह संसार से जुड़ जाता है

🧠 भावार्थ:

बुद्धि में कूटस्थ चेतना का प्रतिबिंब होता है — जिससे प्राणों की गति होती है। यही प्रतिबिंबित चेतना जीव कहलाती है, जो संसार में बंध जाता है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • जीव = बुद्धि में प्रतिबिंबित चेतना + प्राण

  • यह प्रतिबिंब असली चेतना नहीं है — जैसे जल में आकाश का प्रतिबिंब

  • यही जीव अहंकार, इच्छा, कर्म आदि से बंधता है — यही संसार है।

श्लोक २४ :

जलव्योम्ना घटाकाशो यथा सर्वस्तिरोहितः । तथा जीवेन कूटस्थः सोऽन्योन्याध्यास उच्यते ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • जलव्योम्ना — जल रूप आकाश से

  • घटाकाशः — घट में स्थित आकाश

  • यथा सर्वस्तिरोहितः — जैसे वह पूरी तरह ढक जाता है

  • तथा जीवेन कूटस्थः — वैसे ही जीव द्वारा कूटस्थ

  • सोऽन्योन्याध्यासः — यह परस्पर अध्यास (मिथ्या पहचान) है

  • उच्यते — कहा जाता है

🧠 भावार्थ:

जैसे घट में जल भरने से घटाकाश ढक जाता है, वैसे ही जीव की बुद्धि, वासना, और अहंकार से कूटस्थ आत्मा ढक जाती है। यही अन्योन्याध्यास है — आत्मा को जीव समझना।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • कूटस्थ आत्मा स्पष्ट है, पर जीवभाव उसे ढक देता है।

  • यह अध्यास है — शुद्ध आत्मा को अहंकारयुक्त जीव मान लेना।

  • जैसे जल घटाकाश को ढकता है, वैसे ही अविद्या आत्मा को ढकती है।

यही अध्यास ही बन्धन है — और इसका निवारण ही मोक्ष है।

🧩 चित्रदीप — मूल अविद्या और अध्यास

श्लोक २५ :

अयं जीवो न कूटस्थं विविनक्ति कदाचन । अनादिरिविवेकोऽयं मूलाविद्येति गम्यताम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • अयं जीवः — यह जीव

  • न कूटस्थं विविनक्ति — कूटस्थ को कभी नहीं पहचानता

  • कदाचन — कभी भी

  • अनादिः विवेकः — विवेक का अभाव आदि काल से

  • मूलाविद्या इति गम्यताम् — इसे मूल अविद्या समझो

🧠 भावार्थ:

जीव कभी कूटस्थ आत्मा को नहीं पहचानता। यह विवेक का अभाव आदि काल से है — यही मूल अविद्या है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • जीव बुद्धि, मन, वासना, कर्मों में इतना उलझा रहता है कि उसे आत्मा का बोध नहीं होता।

  • बार-बार सुनने पर भी "मैं ब्रह्म हूँ" का अनुभव नहीं होता — क्योंकि अध्यास है: बुद्धि में प्रतिबिंबित चेतना को ही "मैं" मान लेना।

  • यही मूल अविद्या है — जो आत्मा को ढक देती है और बाहर की ओर खींचती है।

बोध का अभाव ही बन्धन है। आत्मा को न जानना ही संसार है।

श्लोक २६ :

विक्षेपावृत्तिरूपाभ्यां द्विविधाऽविद्या व्यवस्थिताः । न भाति नास्ति कूटस्थ इत्यापादनमावृत्तिः ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • विक्षेप-आवृत्तिरूपाभ्यां — विक्षेप और आवरण रूप से

  • द्विविधा अविद्या — अविद्या दो प्रकार की होती है

  • न भाति — नहीं प्रकाशित होता

  • नास्ति कूटस्थः — कूटस्थ नहीं है

  • इत्यापादनम् — ऐसा मान लेना

  • आवृत्तिः — आवरण (veil)

🧠 भावार्थ:

अविद्या दो प्रकार से कार्य करती है —

  1. आवरण: आत्मा को ढक देती है, जिससे वह प्रकाशित नहीं होता।

  2. विक्षेप: जो नहीं है, उसे दिखाती है — जैसे संसार, शरीर, अहंकार।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • आवरण — "आत्मा नहीं है" — यह अज्ञान का पहला प्रहार है।

  • विक्षेप — "मैं शरीर हूँ", "संसार सत्य है" — यह दूसरा प्रहार है।

  • यह द्वंद्वात्मक भ्रम ही जीव को बन्धन में डालता है।

जो है उसे न जानना, और जो नहीं है उसे जानना — यही अविद्या है।

🧠 चित्रदीप — अज्ञान का द्वंद्व और आत्मा की अप्रतिति

श्लोक २७ :

अज्ञानी विदुषा पृष्टः कूटस्थं न प्रबुध्यते । न भाति नास्ति कूटस्थ इत्यापादनमावृत्तिः ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • अज्ञानी — अज्ञान से ग्रस्त व्यक्ति

  • विदुषा पृष्टः — ज्ञानी द्वारा पूछे जाने पर

  • कूटस्थं न प्रबुध्यते — कूटस्थ को नहीं जानता

  • न भाति — प्रकाशित नहीं होता

  • नास्ति कूटस्थः — कूटस्थ नहीं है

  • इत्यापादनम् — ऐसा निष्कर्ष निकालना

  • आवृत्तिः — आवरण (veil)

🧠 भावार्थ:

अज्ञानी व्यक्ति जब आत्मा के बारे में पूछा जाता है, तो कहता है: "मैंने कभी आत्मा को नहीं देखा, न जाना।" यह आत्मा की अप्रतिति आवरण के कारण है — जिससे आत्मा का प्रकाश ही नहीं होता।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • आवरण = आत्मा का अस्तित्व ही न जानना

  • विक्षेप = जो नहीं है, उसे सत्य मानना (जैसे शरीर, संसार)

  • अज्ञानी केवल बुद्धि, मन, वासना, कर्मों में उलझा रहता है — उसे आत्मा का कोई अनुभव नहीं होता

  • यही मूल अविद्या है — जो आत्मा को ढक देती है और बाहर की ओर खींचती है

जो है उसे न जानना, और जो नहीं है उसे जानना — यही द्वंद्वात्मक अज्ञान है।

श्लोक २८ :

स्वप्रकाशे कुतोऽविद्या तां विना कथमावृत्तिः । इत्यादि तर्कजालानि स्वानुभूतिर् ग्रसत्यसौ ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • स्वप्रकाशे — आत्मा जो स्वयं प्रकाशित है

  • कुतः अविद्या — उसमें अज्ञान कैसे संभव?

  • तां विना कथम् आवृत्तिः — उसके बिना आवरण कैसे?

  • इत्यादि तर्कजालानि — ऐसे तर्कों का जाल

  • स्वानुभूतिः ग्रसति असौ — आत्मानुभूति उन्हें निगल जाती है

🧠 भावार्थ:

स्वप्रकाश आत्मा में अज्ञान कैसे संभव है? यह तर्कों का जाल है। परंतु आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति इन तर्कों को निरस्त कर देती है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • अविद्या स्वयं प्रकाशित नहीं है — इसलिए वह आत्मा को ढक सकती है

  • परंतु अविद्या का अनुभव भी चेतना से ही होता है — जैसे "मैं कुछ नहीं जानता" कहना भी चेतना से संभव है

  • यह चमत्कारी द्वंद्व है — अज्ञान चेतना को ढकता है, पर चेतना से ही जाना जाता है

  • केवल साक्षात्कार ही इस भ्रम को समाप्त कर सकता है — तर्क नहीं

अविद्या एक छलिया है — जो चेतना को ढकती है, पर उसी से पकड़ी जाती है।

🧠 चित्रदीप — तर्क, अनुभव और अज्ञान का निवारण

श्लोक २९ :

स्वानुभूतावविश्वासे तर्कस्याप्यनवस्थितेः । कथं वा तार्किकं मन्यस्तत्त्वनिश्चयमाप्नुयात् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • स्वानुभूतौ अविश्वासे — प्रत्यक्ष अनुभव में विश्वास न होने पर

  • तर्कस्य अपि अनवस्थितेः — तर्क की भी अस्थिरता होने पर

  • कथं वा — फिर कैसे

  • तार्किकं मन्यः — तर्कवादी व्यक्ति

  • तत्त्वनिश्चयम् आप्नुयात् — तत्त्व का निश्चय प्राप्त कर सकता है

🧠 भावार्थ:

यदि हम प्रत्यक्ष अनुभव को नकार दें और तर्क को भी अस्थिर मानें, तो तत्त्व का ज्ञान कैसे संभव होगा? तर्क और अनुभव — दोनों आवश्यक हैं, पर अंतिम समाधान केवल अनुभव से होता है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • तर्क मार्गदर्शक है, अनुभव गंतव्य

  • यदि दोनों को नकार दें, तो अविद्या बनी रहती है।

  • तर्क से परोक्ष ज्ञान होता है, अनुभव से अपरोक्ष साक्षात्कार

तर्क से दिशा मिलती है, अनुभव से मुक्ति।

श्लोक ३० :

बुद्ध्यारोहाय तर्कश्चेदपेक्षेत तथा सति । स्वानुभूत्यानुसारेण तर्क्यतां मा कुतर्क्यताम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • बुद्ध्यारोहाय — बुद्धि के आरोहण के लिए

  • तर्कः चेत् अपेक्षेत — यदि तर्क अपेक्षित हो

  • तथा सति — ऐसा होने पर

  • स्वानुभूति अनुसारेण — प्रत्यक्ष अनुभव के अनुसार

  • तर्क्यताम् — तर्क किया जाए

  • मा कुतर्क्यताम् — कुतर्क न किया जाए

🧠 भावार्थ:

यदि तर्क का प्रयोग करना है, तो वह अनुभव और शास्त्र के अनुसार होना चाहिए। तर्क सत्य की ओर ले जाए, न कि कुतर्क बनकर भ्रम फैलाए।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • तर्क का उद्देश्य तत्त्वबोध होना चाहिए।

  • यदि तर्क अनुभव और श्रुति के विरुद्ध हो, तो वह कुतर्क है।

  • तर्क को साधन मानें, सिद्धांत नहीं।

तर्क तब तक मान्य है जब तक वह अनुभव और शास्त्र से विरोध न करे।

श्लोक ३१ :

स्वानुभूतिरविद्यायामावृत्तौ च प्रदर्शिता । अतः कूटस्थचैतन्यमविरोधीतितर्क्यताम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • स्वानुभूतिः — प्रत्यक्ष अनुभव

  • अविद्यायाम् — अविद्या में

  • आवृत्तौ च प्रदर्शिता — आवरण में भी प्रकट होती है

  • अतः — इसलिए

  • कूटस्थचैतन्यम् — कूटस्थ चेतना

  • अविरोधी इति तर्क्यताम् — अविद्या से विरोध नहीं करता, ऐसा तर्क किया जाए

🧠 भावार्थ:

अविद्या के आवरण में भी आत्मा की अनुभूति होती है — जैसे सुषुप्ति में "मैं कुछ नहीं जानता" कहना। इसलिए कूटस्थ चेतना अविद्या से विरोध नहीं करती, पर वृत्ति ज्ञान से उसका निवारण होता है।

श्लोक ३२ :

तच्चेद्विरोधि केनेयमावृत्तिर्यनुभूयताम् । विवेकस्तु विरोधस्याः तत्त्वज्ञानीनि दृश्यताम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • तत् चेत् विरोधि — यदि वह (चेतना) विरोधी है

  • केन — किससे

  • एषा आवृत्तिः — यह आवरण

  • अनुभूयताम् — अनुभव किया जाए

  • विवेकः तु विरोधस्याः — विवेक ही विरोध है

  • तत्त्वज्ञानीनि दृश्यताम् — तत्त्वज्ञानी में यह देखा जाता है

🧠 भावार्थ:

अविद्या का विरोध केवल विवेक से होता है — जो वृत्ति ज्ञान के रूप में ध्यान में प्रकट होता है। यही तत्त्वज्ञानी की विशेषता है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • सुषुप्ति में चेतना है, पर वह क्रियाशील नहीं — इसलिए अज्ञान नहीं मिटता।

  • वृत्ति ज्ञान — ध्यान, उपासना, आत्मचिंतन — ही अज्ञान का विरोध करता है।

  • विवेक = चेतना + क्रिया = ज्ञान का प्रकाश

अज्ञान का नाश केवल क्रियाशील चेतना से होता है — यही ध्यान है, यही मुक्ति का मार्ग।

🪞 चित्रदीप — शरीर और आत्मा का परस्पर अध्यास

श्लोक ३३ :

अविद्यावृतकूटस्थे देहद्वययुता चितिः । शुक्तौ रूप्यवदाध्यस्ता विक्षेपाध्यास एव हि ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • अविद्यावृत कूटस्थे — अविद्या से आवृत कूटस्थ आत्मा में

  • देहद्वय युता चितिः — स्थूल और सूक्ष्म शरीर से युक्त चेतना

  • शुक्तौ रूप्यवत् — शुक्ति (सीप) में रूप्य (चाँदी) की भ्रांति की तरह

  • आध्यस्ता — आरोपित

  • विक्षेपाध्यासः — विक्षेप रूप अध्यास

  • एव हि — यही है

🧠 भावार्थ:

अविद्या से ढकी हुई आत्मा में स्थूल और सूक्ष्म शरीर की चेतना आरोपित होती है — जैसे शुक्ति में चाँदी की भ्रांति होती है। यह विक्षेपाध्यास है — जो आत्मा को शरीर के साथ मिला देता है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • जैसे दूर से चमकती सीप को देखकर चाँदी का भ्रम होता है, वैसे ही आत्मा में शरीर का अध्यास होता है।

  • शुक्ति = आत्मा (कूटस्थ), रूप्य = शरीर का भ्रम

  • यह अध्यास द्विपक्षीय है:

    • आत्मा की सत्तास्वरूपता शरीर पर आरोपित होती है — जिससे शरीर जीवित लगता है

    • शरीर की सीमितता आत्मा पर आरोपित होती है — जिससे आत्मा सीमित प्रतीत होती है

"मैं हूँ" — यह वाक्य आत्मा की सत्ता और शरीर की सीमितता का मिश्रण है।

🧩 परस्पर अध्यास (Anyonyādhyāsa):

अध्यास प्रकार

क्या आरोपित होता है

किस पर आरोपित होता है

परिणाम

सत्ता अध्यास

आत्मा की सत्ता

शरीर पर

शरीर जीवित लगता है

सीमितता अध्यास

शरीर की सीमितता

आत्मा पर

आत्मा सीमित प्रतीत होती है

🧘‍♂️ तात्त्विक निष्कर्ष:

  • जब हम कहते हैं "मैं हूँ", "मैं सोचता हूँ", "मैं दुखी हूँ" — तो यह मिश्रित चेतना है।

  • यह शुद्ध आत्मा नहीं है, न ही शुद्ध शरीर — यह अध्यास से उत्पन्न जीवभाव है।

  • यदि हम विवेक से आत्मा और शरीर को अलग करें — तो जीव का भ्रम समाप्त हो जाता है।

"मैं" का शुद्ध स्वरूप जानने पर "मैं" नामक व्यक्ति विलीन हो जाता है — यही मुक्ति है।

🪞 चित्रदीप — अध्यास और भ्रम की सूक्ष्मता

श्लोक ३४ :

इदं अंशश्च सत्यत्वं शुक्तिगं रूप्य ईक्ष्यते । स्वयं त्वं वस्तुता चैवं विक्षेपे वीक्ष्यतेऽन्यगम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • इदं अंशः — "यह" पक्ष (this-ness)

  • सत्यत्वं — सत्यता

  • शुक्तिगं रूप्य ईक्ष्यते — शुक्ति में रूप्य (चाँदी) देखा जाता है

  • स्वयं त्वं वस्तुता — "मैं" की वस्तुता (असली सत्ता)

  • विक्षेपे वीक्ष्यते अन्यगम् — विक्षेप में अन्यत्र देखा जाता है

🧠 भावार्थ:

जब हम कहते हैं "यह चाँदी है", तो वास्तव में हम शुक्ति को देख रहे होते हैं — चाँदी नहीं। चाँदी की सत्ता शुक्ति से ली गई है। इसी प्रकार, जब हम कहते हैं "मैं हूँ", तो आत्मा की सत्ता शरीर पर आरोपित होती है — और शरीर को "मैं" मान लिया जाता है।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • शुक्ति-रूप्य भ्रांति = मिथ्या का अध्यास सत्य पर

  • आत्मा-शरीर भ्रांति = सत्य का अध्यास मिथ्या पर

  • "यह चाँदी है" — यह वाक्य शुक्ति की सत्ता को रूप्य पर आरोपित करता है

  • "मैं हूँ" — यह वाक्य कूटस्थ की सत्ता को देह पर आरोपित करता है

विक्षेप = जो नहीं है, उसे देखना आवरण = जो है, उसे न देख पाना दोनों मिलकर अध्यास बनाते हैं — यही जीवभाव है

🧩 अध्यास का द्वंद्व:

अध्यास प्रकार

सत्य का अध्यास

मिथ्या का अध्यास

परिणाम

विक्षेप

आत्मा की सत्ता शरीर पर

"मैं शरीर हूँ"

जीवभाव

आवरण

शरीर की सीमितता आत्मा पर

"आत्मा सीमित है"

बन्धन

🧘‍♂️ तात्त्विक निष्कर्ष:

  • "मैं" की अनुभूति वास्तव में कूटस्थ की सत्ता है

  • परंतु वह शरीर, मन, बुद्धि पर आरोपित होकर जीव बन जाती है

  • यही विक्षेप है — जो आत्मा को सीमित, स्थूल, और अहंकारयुक्त बना देता है

"मैं" का शुद्ध स्वरूप जानने पर "मैं" नामक व्यक्ति विलीन हो जाता है — यही मुक्ति है।

🪞 चित्रदीप — आत्मा की आनंदमय सत्ता का आवरण

श्लोक ३५ :

नीलपृष्ठ त्रिकोणत्वं यथा शुक्तौ तिरोहितम् । असङ्गानन्दता द्वैवं कूटस्थेऽपि तिरोहितम् ॥

🪔 शब्दार्थ:

  • नीलपृष्ठ त्रिकोणत्वं — शुक्ति का नीला रंग और त्रिकोणाकार रूप

  • यथा शुक्तौ तिरोहितम् — जैसे वह शुक्ति में छिप जाता है

  • असङ्गानन्दता द्वैवम् — आत्मा की असंगता और आनंदस्वरूपता

  • कूटस्थेऽपि तिरोहितम् — कूटस्थ में भी छिप जाती है

🧠 भावार्थ:

जैसे शुक्ति का रंग और आकार चाँदी के भ्रम में छिप जाता है, वैसे ही आत्मा की असंगता और आनंदस्वरूपता शरीर-मन के अध्यास में छिप जाती है। हम शरीर को "मैं" मान लेते हैं, और आत्मा की स्वतंत्रता व आनंद को नहीं देख पाते।

🔍 तात्त्विक व्याख्या:

  • शुक्ति-रूप्य उपमा:

    • शुक्ति = आत्मा (कूटस्थ)

    • रूप्य = शरीर-मन का भ्रम

    • शुक्ति का स्वरूप (नीलता, त्रिकोणता) रूप्य में छिप जाता है — जैसे आत्मा का स्वरूप शरीर में छिप जाता है

  • कूटस्थ की असंगता:

    • आत्मा किसी वस्तु से जुड़ी नहीं है — वह साक्षी है

    • परंतु जब शरीर-मन का अध्यास होता है, तो आत्मा संलग्न प्रतीत होती है

  • कूटस्थ की आनंदता:

    • आत्मा का स्वरूप परमानंद है

    • परंतु शरीर के दुःख, मन की चंचलता, बुद्धि की सीमितता — इनसे वह आनंद छिप जाता है

हम "मैं दुखी हूँ", "मैं चिंतित हूँ" कहते हैं — पर यह "मैं" आत्मा नहीं, अध्यास है।

🧘‍♂️ तात्त्विक निष्कर्ष:

  • आत्मा की असंगता और आनंदता स्वाभाविक है

  • परंतु अध्यास के कारण वह तिरोहित हो जाती है — जैसे शुक्ति का स्वरूप चाँदी के भ्रम में छिप जाता है

  • विवेक से यह अध्यास हटता है — और आत्मा का स्वरूप प्रकट होता है

जब अध्यास हटता है, तब "मैं" का शुद्ध स्वरूप — असंग, आनंदमय आत्मा — प्रकट होता है। यही मुक्ति है।

श्लोक 38 

इदंत्वं रूप्यते भिन्ने स्वत्वा हंते तथैष्यताम्, सामान्यं च विशेषश्च ह्युभया त्रपि गम्यते (38)।

उस सीप में, जो चांदी के टुकड़े की तरह चमक रही थी, वास्तविक स्वरूप केवल सीप का है, और उस पर चांदी का आरोप लगाया गया है। चांदी, सीप से बिल्कुल अलग है।

"यह चांदी है।" जब हम इस तरह के बयान देते हैं, तो 'यह' शब्द उस वास्तविकता को दर्शाता है जो वहां है, जिसे हम वास्तव में एक आधार के रूप में देख रहे हैं जो कि सीप है; लेकिन चांदी वास्तव में वहां नहीं है। हमने वस्तु के चमकदार चरित्र को वस्तु के पदार्थ पर और वस्तु की सार्थकता को चमकदार चरित्र पर आरोपित किया है। चमकदार चीज़ को चांदी का टुकड़ा माना जाता है। दरअसल, यह भ्रम प्रकाश के कारण होता है।

चांदी की इस धारणा में एक सामान्यता और एक विशिष्टता है। सामान्यता वह है जो वास्तव में वहां है, और विशिष्टता वह है जो वहां नहीं है। जो वास्तव में वहां है वह सीप है; और जो वहां नहीं है वह चांदी है। हम दो मुद्दों को भ्रमित करते हैं और फिर एक वाक्य कहते हैं, "यह चांदी है।" इस तरह की सभी धारणाओं में अवास्तविक और वास्तविक को एक साथ लाया जाता है - दिखावट और वास्तविकता को मिला दिया जाता है।

जब हम कहते हैं, "यह दुनिया है; यहाँ दुनिया है," तो भी यही गलती की जाती है। "यह दुनिया है।" यह-ness, जो सार्थकता हम इस दुनिया को देते हैं, वह ब्रह्म चेतना है जो सभी चीज़ों के पीछे है। लेकिन दुनिया-ness, सीप के टुकड़े में देखी गई चांदी की तरह है। यहाँ सीप ब्रह्म है; चांदी दुनिया है। हम दुनिया को चिह्नित करने वाली बाहरीता और बहुलता को ब्रह्म पर आरोपित करते हैं जो अविभाज्य है; और हम ब्रह्म के अस्तित्व पहलू को दुनिया की बहुलता और बाहरीता पर आरोपित करते हैं और कहते हैं, "बाहरी दुनिया मौजूद है। अनेक वस्तुएं मौजूद हैं।" यह एक गलत बयान है क्योंकि अनेक वस्तुएं मौजूद नहीं हैं, उसी तरह जैसे चांदी मौजूद नहीं है। जो मौजूद है वह कुछ और है; और जो प्रकट होता है वह पूरी तरह से एक और चीज़ है। यही सामान्य अस्तित्व और विशेष दिखावट के बीच का अंतर है।

श्लोक 39

देव दत्त: स्वयं गच्छेत त्वं विक्षस्व स्वयं तथा, अहं स्वयं न शक्नोमीति एवं लोके प्रयुज्यते (39)।

'स्वयं' शब्द: जब हम स्वयं का उल्लेख करते हैं, तो हम संस्कृत शब्द 'स्वयं' का उपयोग करते हैं। "देवदत्त स्वयं जाएगा। आप स्वयं इस मामले को देखें। मैं स्वयं यह काम नहीं कर सकता।" इन सभी बयानों में हमने अनजाने में 'स्वयं' शब्द का इस्तेमाल किया है। "वह स्वयं इन सब के लिए जिम्मेदार है। मैं स्वयं यह काम करने की स्थिति में नहीं हूँ"; और, "आप स्वयं इस मामले को देखें।" हम 'स्वयं, स्वयं, स्वयं' क्यों कहते रहते हैं?

इसका विचार यह है कि हम एक अजीब चीज़ के जुड़ाव से बच नहीं सकते जिसे स्वत्व कहा जाता है, चाहे वह खुद का, किसी और का, या किसी अन्य व्यक्ति का जिक्र हो। यहाँ, किसी चीज़ का स्वत्व प्रमुख हो जाता है, चाहे हमें पता हो कि ऐसी चीज़ हो रही है या नहीं। कोई भी व्यक्ति वाक्य में एक कर्ता, वास्तविक स्वत्व के जुड़ाव के बिना कोई बयान नहीं दे सकता है।

श्लोक 40

इदं रूप्यं इदं वस्त्रम् इति यद् वद् इदं तथा, असौ त्वम् अहमित्येषु स्वयमित्यभि मन्यते (40)।

जिस तरह हम कहते हैं, "मैं स्वयं, तुम स्वयं, वह स्वयं," आदि, हम दूसरे प्रकार के बयान देने के भी आदी हैं। "यह चांदी है, यह कपड़ा है, यह इस प्रकार का है, यह उस प्रकार का है।" यहाँ इस दूसरे प्रकार के बयानों में, 'स्वयं' शब्द का उपयोग नहीं किया गया है। बाहरीता पर जोर दिया गया है। केवल वस्तुनिष्ठता को ध्यान में रखा जाता है जब यह कहा जाता है, "यह चांदी है, यह कपड़ा है, यह एक बर्तन है, यह एक इमारत है, यह इस तरह की चीज़ है, यह उस तरह की चीज़ है।"

श्लोक 41

अहंत्वात् भिद्यतां स्वत्वं कूटस्थे तेन किं तव, स्वयं शब्दार्थ एवैष कूटस्थ इति मे भवेत् (41)।

इसलिए, सीप और चांदी, दुनिया और ब्रह्म, आदि के सादृश्य के आधार पर, हमें स्वयं और मैं के बीच अंतर करना चाहिए। हालाँकि सच्चा स्वयं ही मैं है, और सच्चा मैं ही स्वयं है, हम इस भौतिक शरीर को मैं मानकर व्यक्तित्व से जुड़े बयान देते हैं, जब हम कहते हैं, "मैं यह काम करूँगा।"

यहां 'मैं' को चिह्नित करने वाली व्यक्तिवादिता, सच्चे स्वयं का एक झूठा प्रकटीकरण है, जो स्वयं के माध्यम से होता है, जो उस बुद्धि के माध्यम से होता है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती है। स्वयं क्या है? स्वयं स्वयं कूटस्थ है, व्यक्ति का प्राथमिक आत्मा है।

श्लोक 42

अन्यत्व वारकं स्वत्वम् इति चेद् अन्य वारणम्, कूटस्थ स्यात्मन्तां वक्तुः इष्ट मेव हि तद् भवेत् (42)।

जब हम कहते हैं, "मैं स्वयं," आदि, या किसी भी बयान में 'स्वयं' शब्द का उपयोग करते हैं, तो हम स्वयं और स्वयं के अलावा किसी भी अन्य चीज़ के बीच अंतर करते हैं। इदम्, तद्, आदि, 'यह' और 'वह' - इस तरह के प्रदर्शनात्मक सर्वनाम - स्वत्व से भिन्न हैं। कोई भी चीज़ जो बाहरी या दूर है, जिसे यह और वह के रूप में नामित किया गया है, उसका 'स्वयं' शब्द से कोई संबंध नहीं है; केवल स्व-पहचान वाले व्यक्तियों को 'स्वयं' के रूप में संदर्भित किया जाता है, जैसे 'मैं स्वयं, तुम स्वयं, वह स्वयं', आदि।

किसी भी चीज़ की द्वितीया को 'स्वयं' या 'स्व' शब्द से अलग किया जाता है। 'स्वयं' शब्द स्वयं को उस चीज़ से अलग करता है जो स्वयं नहीं है। जो कुछ भी कल्पनीय, बोधगम्य या संपर्क करने योग्य है, वह स्वयं नहीं है। जो कुछ भी इंद्रिय अंगों के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है, या मन द्वारा एक बाहरी वस्तु के रूप में सोचा जा सकता है, या यहां तक कि बुद्धि द्वारा बाहर की किसी चीज़ के रूप में समझा जा सकता है, वह अ-स्वयं है। स्वयं वह है जो इन अवधारणाओं और धारणाओं के पीछे का प्रकाश है।

दुनिया की बाहरीता या व्यक्ति की व्यक्तिवादिता चेतना की सीमा से बनती है, जो कि बुद्धि नामक माध्यम से होती है, जो पांच कोशों का प्रतिनिधित्व करती है।

कूटस्थ चैतन्य, आत्मा, और स्वयं का अर्थ एक ही चीज़ है। एक ही वास्तविकता को दर्शाने के लिए अलग-अलग शब्दों का उपयोग किया जाता है। कूटस्थ, आत्मा, स्वयं या स्वयं का उद्देश्य इसके साथ किसी भी प्रकार के बाहरी जुड़ाव को खत्म करना है। 'मैं' की अवधारणा अपने आप में इतनी तीव्र रूप से स्व-पहचान वाली है कि हम एक पल के लिए भी यह कल्पना नहीं कर सकते हैं कि हम जो हैं उससे अलग हैं।

हमारे पास बड़ी संपत्ति या सामान हो सकता है, लेकिन हम कभी यह नहीं कहेंगे कि सामान मैं हूँ। हम हमेशा कहते हैं, "मेरे पास यह संपत्ति है; मैं इस चीज़ का मालिक हूँ; यह मेरा है।" हम कहते हैं, "यह किताब मेरी है," न कि "यह किताब मैं हूँ।" यहाँ तक कि सामान्य बोलचाल में भी, हम अपनी सच्ची स्व-पहचान और उन चीज़ों के बीच अंतर करते हैं जिनसे हम जुड़े हुए हैं - वस्तुएं, संपत्ति, आदि। हम कभी नहीं कहते हैं, "यह इमारत मैं हूँ; यह संपत्ति मैं हूँ; यह जमीन मैं हूँ; यह पैसा मैं हूँ।" कोई भी ऐसा नहीं कहता है। वे कहते हैं, "यह मेरा है।"

श्लोक 43

स्वयमात्मेति पर्यायौ तेन लोके तयोः सह, प्रयोगो नास्त्यथः स्वत्वं आत्मत्वं चान्यवारकम् (43)।

'आत्मा' और 'स्वयं' शब्द का अर्थ एक ही है। हम आत्मा और स्व का एक ही समय में उपयोग नहीं करते हैं। 'आत्मा' एक संस्कृत शब्द है; 'स्व' एक हिंदी या 'सेल्फ' एक अंग्रेजी शब्द है। उनका अर्थ एक ही है। जो बाहरी नहीं है, जो स्व-पहचान वाला अस्तित्व है, शुद्ध अनुभव करने वाला है, जो बाहरी नहीं हो सकता और किसी भी तरह से एक वस्तु नहीं बन सकता - वह आत्मा है, वह स्वयं है, वह स्व है।

इसलिए, दुनिया में किसी भी चीज़ को स्वयं से जोड़ना संभव नहीं है। अन्यथा, हम महसूस करेंगे कि पूरी दुनिया हमारे शरीर पर लटकी हुई है क्योंकि यह हमारा स्व है। स्व स्वयं को उस चीज़ से अलग करता है जो स्वयं नहीं है; चेतना को पदार्थ से अलग किया जा सकता है, और जो कुछ भी चेतना द्वारा जाना जाता है वह भौतिक प्रकृति का होता है।

श्लोक 44 

घटः स्वयं न जानातीति एवं स्वत्वं घटादिषु, अचेतनेषु दृष्टं चेत् दृश्यतामात्मसत्त्वतः (44)।

कभी-कभी हम कहते हैं, "घड़ा स्वयं में कोई चेतना नहीं रखता है।" घड़े में कोई चेतना नहीं है, लेकिन हम कभी-कभी वहां भी 'स्वयं' शब्द का उपयोग करते हैं। इसका विचार यह है कि यहां तक कि निर्जीव वस्तुओं में भी एक संभावित रूप में स्वत्व होता है।

निर्जीव चीजें स्वयं शुद्ध चेतना हैं, एक निष्क्रिय अवस्था में, तमस की अवस्था में। जहां रजस और सत्त्व का थोड़ा भी प्रकटीकरण नहीं होता है, सबसे छोटी मात्रा में भी नहीं - वहां केवल तमोगुण की स्थिरता, दृढ़ता और अचलत्व होता है - चेतना भी स्थिर, दृढ़, अचल और निर्जीव प्रतीत होती है। जिसे हम जीवन कहते हैं वह केवल सूक्ष्म शरीर के माध्यम से चेतना का प्रकटीकरण है। पत्थर में कोई सूक्ष्म शरीर नहीं होता है, यह पूरी तरह से भौतिक है और, इसलिए, चेतना अपने आप को किसी भी चीज़ के माध्यम से प्रकट नहीं कर सकती है जो उस भौतिकता से सूक्ष्म है जो उसका शरीर है।

इसलिए यह है कि पत्थर, घड़े, आदि में आत्म-चेतना नहीं हो सकती है; फिर भी अस्तित्व के रूप में चेतना पीछे है। शुद्ध अस्तित्व है, लेकिन चेतना नहीं है; स्वतंत्रता भी नहीं है। पत्थर मौजूद हैं, लेकिन पत्थर यह नहीं जानते कि वे मौजूद हैं, जबकि हम मौजूद हैं, और हम जानते हैं कि हम मौजूद हैं। यही निर्जीव पदार्थ और एक चेतन प्राणी के बीच का अंतर है जो स्वयं के प्रति सचेत है।

फिर भी हम इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं कि चेतना, सार्वभौमिक होने के कारण, सभी निर्जीव चीजों के पीछे भी मौजूद है; अन्यथा, यदि इसे निर्जीव चीजों में अनुपस्थित माना जाए, तो चेतना में विभाजन होगा और दुनिया का कुछ हिस्सा चेतना के साथ संबंध से वंचित हो जाएगा। चेतना सीमित हो जाएगी। ऐसा नहीं है। चाहे वह प्रकट हो या न हो, चेतना सभी चीजों में मौजूद है, और इसलिए हम अनजाने में 'स्वयं' शब्द का उपयोग करते हैं। हम घड़े, आदि के संबंध में भी 'स्वयं' शब्द का उपयोग करते हैं: "घड़ा स्वयं नहीं जानता।"

चेतना चेतना भिदा कूटस्थात्म कृता न हि, किंतु बुद्धि कृताऽभास कृतै वेत्यव गम्यताम् (45)।

सजीव और निर्जीव वस्तुओं के बीच यह अंतर चेतना या कूटस्थ द्वारा स्वयं नहीं बनाया गया है। यह आत्मा के बुद्धि में पड़ने वाले प्रतिबिंब और कुछ वस्तुओं में उसके अभाव के बीच का अंतर है।

चेतना, या सजीव प्राणी, वह है जहां उसके सूक्ष्म शरीर में विचार या मन के सूक्ष्म प्रकटीकरण में, चेतना प्रतिबिंबित होती है। यदि प्रतिबिंब नहीं होता और वह शून्य होता, तो संवेदनशीलता, सहज ज्ञान, या यहां तक कि जीवन की भावना भी नहीं होती। जीवन और निर्जीवता के बीच का अंतर चेतना की उपस्थिति या अनुपस्थिति के कारण नहीं है। यह हर जगह एकमत से मौजूद है। यह अंतर इस तथ्य के कारण है कि कुछ स्थानों या वस्तुओं में सार्वभौमिक चेतना खुद को सूक्ष्म शरीर के माध्यम से प्रकट नहीं कर सकती है, क्योंकि सूक्ष्म शरीर ही वहां अनुपस्थित है; वहां केवल स्थूल शरीर है, जैसा कि पत्थर में होता है। लेकिन यह खुद को वहां प्रकट करता है जहां एक सूक्ष्म शरीर होता है - जैसे जीवित प्राणियों में, जैसे जानवर, मनुष्य, आदि।

तो सजीव और निर्जीव के बीच का अंतर चेतना द्वारा नहीं लाया गया है। यह सूक्ष्म शरीर के माध्यम से चेतना के प्रतिबिंब के कारण होता है, चाहे वह जीवित प्राणियों में किसी भी मात्रा में प्रकट हो।


यथा चेतन आभासः कूटस्थे भ्रान्ति कल्पितः, अचेतनो घटादिश् च तथा तत्रैव कल्पितः (46)।

जिस तरह 'व्यक्तिगत चेतना' को सार्वभौमिक चेतना पर झूठा आरोपित किया जाता है, उसी तरह घड़ेपन, पत्थरपन और शुद्ध वस्तुनिष्ठता को भी सार्वभौमिक चेतना पर झूठा आरोपित किया जाता है। सच कहूं तो यह शरीर एक पत्थर की तरह है। यह बिना किसी भावना या संवेदना के किसी भी वस्तु की तरह निर्जीव है। इसलिए, सार्वभौमिक चेतना पर भौतिकता और बाहरीता का यह आरोपण दोनों ही मामलों में सामान्य है - किसी के अपने स्व के मामले में, जहां शरीर को स्व पर आरोपित किया जाता है, या दूसरे मामले में जहां निर्जीव वस्तुओं, जैसे पत्थर, आदि को स्व पर आरोपित किया जाता है और फिर हम कहते हैं कि पत्थर मौजूद है।

पत्थर तब तक मौजूद नहीं हो सकता जब तक कि ब्रह्म का अस्तित्व पहलू वहां तामसिक रूप में प्रकट न हो। अन्यथा, पत्थर मौजूद नहीं होगा। ब्रह्म का एक पहलू अस्तित्व में प्रकट होता है, और दूसरा पहलू अस्तित्व-चेतना में प्रकट होता है। केवल देवताओं में ही हम तीनों को प्रकट पा सकते हैं - अस्तित्व-चेतना-आनंद। निर्जीव वस्तुओं में, केवल अस्तित्व होता है। हमारे जैसे मनुष्यों में, केवल अस्तित्व-चेतना होती है। हमारे पास आनंद नहीं है। हम बहुत दुखी लोग हैं। यह केवल दिव्यता में, स्वर्ग में देवताओं में है, कि आनंद पहलू प्रकट होता है। सत्व गुण केवल स्वर्ग में है, नश्वर दुनिया में नहीं।

तत्ते दंते अपि स्वत्वं इव त्वमहं दिषु, सर्वत्रा नुगते तेन तयो रप्यात्मतेति चेत् (47)।

ते आत्मत्वा’प्यनुगते तत्तदेते ततस्तयोः, आत्मत्वं नैव संभाव्यं सम्यक् त्वादेर् यथा तथा (48)।

जब भी किसी वस्तु के संबंध में दिए गए बयान में 'स्वयं' शब्द का संबंध होता है, तो हम कह सकते हैं कि स्वत्व वहां प्रकट रूप से या अप्रकट रूप से मौजूद है। लेकिन स्वत्व ऐसे बयानों के मामले में मौजूद नहीं होता है, जिनका उपयोग हम 'यह' या 'वह' का उपयोग करके करते हैं, क्योंकि प्रदर्शनात्मक सर्वनाम 'यह' और 'वह' स्वयं को नहीं, बल्कि किसी ऐसी चीज़ को संदर्भित करते हैं जो स्वयं से अलग है।

जब हम कहते हैं, "यह कुछ है," तो हम किसी ऐसी वस्तु को संदर्भित करते हैं जो पास है; और जब हम कहते हैं, "वह कुछ है," तो हम किसी ऐसी वस्तु को संदर्भित करते हैं जो दूर है। फिर भी, दोनों शब्द 'यह' और 'वह' किसी ऐसी चीज़ को संदर्भित करते हैं जो स्वयं से अलग है, चाहे वह पास हो या दूर। इसलिए, इन मामलों में, 'यह' और 'वह' जैसे शब्दों का उपयोग करते समय, 'स्वयं' शब्द का उपयोग नहीं किया जाता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि जो कुछ भी स्वयं के बाहर है वह अ-स्वयं है, और इसलिए वह अचेतन है। अ-स्वयं अचेतन है; इसलिए, यह चेतना का विषय बन जाता है। जो स्वयं चेतना है, वह अ-स्वयं को जानता है; लेकिन अ-स्वयं खुद को नहीं जान सकता। यह चेतना से रहित है।

आत्मत्वं नैव संभाव्यं: इदम्-ता, या यह-नेस और वह-नेस, कुछ हद तक गुण या विशेषता की तरह हैं जो चेतना से जुड़े होते हैं जैसे औचित्य या अनुचितता, आदि। सम्यक् का अर्थ औचित्य है; असम्यक्, अनुचितता। ये गुण पदार्थों और चीजों और व्यक्तियों, आदि से जुड़े होते हैं - उन्हें व्यक्तियों के साथ पहचान नहीं करते, बल्कि उनसे बाहरी रूप में मौजूद होते हैं। इसलिए, आत्मत्व या स्वत्व को किसी भी चीज़ से नहीं जोड़ा जा सकता है जिसे 'यह' और 'वह' के रूप में नामित किया जाता है क्योंकि यह निश्चित रूप से स्वयं के बाहर है।

तत्ते दंते स्वता न्यत्वे त्वंता हंते परस परम्, प्रति द्वंद्व तया लोके प्रसिद्धे नास्ति संशयः (49)।

'वह' और 'यह', स्व और अ-स्व, 'तुम' और 'मैं' अनुभव में विरोधी कारक हैं। किसी चीज की दूरी को 'वह' शब्द से दर्शाया जाता है। निकटता को 'यह' शब्द से दर्शाया जाता है। स्वत्व को 'स्व' शब्द से दर्शाया जाता है, और बाहरीता को दो प्रदर्शनात्मक सर्वनामों 'यह' और 'वह' से दर्शाया जाता है। 'तुम' और 'मैं' का भी वही अर्थ है। 'तुम' शब्द एक अ-स्व को दर्शाता है। 'मैं' स्वयं को संदर्भित करता है।

'तुम' शब्द, भले ही यह किसी इंसान पर लागू होता है, लेकिन स्वत्व की भावना नहीं रखता है क्योंकि 'तुम' को 'मैं' से अलग किया जाता है। "मैं तुमसे मिलना चाहता हूं" का बयान यह दर्शाता है कि 'तुम' शब्द द्वारा इंगित की गई चीज़ 'मैं' से अलग है; और यहां मुख्य बात यह है कि चेतना किसी भी चीज़ के साथ पहचान नहीं कर सकती जो बाहर है। इसलिए, दो लोग सच्चे दोस्त नहीं हो सकते, क्योंकि वहां 'मैं' और 'तुम' शामिल हैं। दोस्ती या घनिष्ठता कितनी भी गहरी क्यों न हो, जब तक एक 'मैं' है और दूसरा 'तुम' है, दोनों 'मैं' नहीं हो सकते। न ही दोनों 'तुम' हो सकते हैं। कोई भी दो व्यक्ति एक जैसा नहीं सोच सकते, और कोई भी दो व्यक्ति शाश्वत मित्र नहीं हो सकते। 'तुम' बाहर है, और 'मैं' अंदर है।


अन्यत्त्यायाः प्रति द्वंद्वी स्वयं कूटस्थ इष्यताम्, त्वंतायाह प्रतियोग्ये शोऽहमित्य् आत्मनि कल्पितः (50)।

हम बार-बार यह उल्लेख कर रहे हैं कि कूटस्थ-चैतन्य किसी भी चीज़ की बाहरीता के विपरीत है। इसे अच्छी तरह से जान लें। किसी चीज़ में तुम-नेस उस चीज़ में मैं-नेस से अलग है। जैसे बाहरीता कूटस्थ आत्मा से अलग है, 'तुम' 'मैं' से अलग है, और इसलिए आपको भविष्य में 'तुम' शब्द का उपयोग नहीं करना चाहिए जब तक कि आप उस व्यक्ति को खुद से अलग नहीं करना चाहते हैं।

अहंता स्वत्वयोर् भेदे रूप्य ते दन्तयोर् इव, स्पष्टेऽपि मोह मा पन्ना एकत्वं प्रति पेदिरे (51)।

शरीर-चेतना से जुड़ा 'मैं' उस सच्चे स्वयं से अलग है जो सार्वभौमिक है, यह इस विश्लेषण से अब स्पष्ट हो गया है। इसके बावजूद, अज्ञानी लोग सच्चाई को भ्रमित करते हैं; वे 'मैं' पर सार्वभौमिक चेतना की स्थायीता का आरोप लगाते हैं, और कल्पना करते हैं कि वे मरने वाले नहीं हैं। कोई भी यह विश्वास नहीं करता कि वह किसी न किसी दिन मर जाएगा। आखिरकार, समय नहीं आया है। यह क्यों नहीं आया? क्योंकि चेतना स्वयं, सार्वभौमिकता के रूप में, नष्ट नहीं हो सकती, और वह अविनाशी आत्मा किसी न किसी तरह इस शरीर से जुड़े इस झूठे 'मैं-पने' के माध्यम से प्रतिबिंबित होती है और इस झूठे 'मैं' को यह महसूस करने के लिए मजबूर करती है कि यह शायद अमर है।

भौतिक 'मैं-पने' में एक दोहरी चेतना है। एक ओर, यह भावना है कि कल कोई नहीं मरेगा - अभी भी कुछ समय है, यह तत्काल नहीं है - हालांकि इसकी कोई गारंटी नहीं है। दूसरी ओर, कोई जानता है कि किसी भी दिन कोई जा सकता है। इसलिए हम हमेशा एक ही समय में दो बातों पर विश्वास करते हैं। शरीर की नश्वरता, जिससे 'मैं' जुड़ा हुआ है, हमें खुद को यह समझाने के लिए मजबूर करती है कि एक दिन हम चले जाएंगे, और यह कल भी हो सकता है। लेकिन साथ ही, सार्वभौमिक चेतना जो अविनाशी है, हमें बताती है कि हम कल नहीं मरेंगे, कि यह बहुत समय बाद होगा, शायद सौ साल बाद।

इसलिए हमारे पास हमेशा दो तरह की भावना होती है: यह डर कि हम किसी भी क्षण मर सकते हैं, और यह भावना कि हम इतनी आसानी से नहीं मरेंगे। हम मौत के डर और तुरंत न मरने की उम्मीद के बीच के संघर्ष की स्थिति में रहते हैं। अज्ञानी लोग नश्वर 'मैं' को अनंत चेतना के साथ पहचानने की गलती करते हैं।


तादात्म्या ध्यास एवात्र पूर्वोक्ता विद्यया कृतः, अविद्यायां निवृत्तायां तत् कार्यं विनि वर्तते (52)।

स्वयं और अ-स्वयं के बीच वर्णित पारस्परिक आरोपण को संस्कृत में तादात्म्याध्यास कहा जाता है। तादात्म्याध्यास का अर्थ है एक वस्तु के चरित्र को दूसरी वस्तु पर थोपना, जिससे वह वास्तव में संबंधित नहीं है। स्वत्व वस्तुओं से संबंधित नहीं हो सकता, फिर भी हम वस्तुओं से इस तरह प्यार करते हैं जैसे कि वे हमारी अपनी आत्मा हों। हम वस्तुओं को गले लगाते हैं और उनसे अपनी आत्मा की तरह प्यार करते हैं क्योंकि वहां तादात्म्याध्यास है, या सच्चे स्वयं और बाहरी वस्तु के बीच मानसिक अनुभूति और संवेदी धारणा के माध्यम से पहचान है।

दूसरी ओर, एक विपरीत क्रम होता है। वस्तुनिष्ठता को चेतना की सार्वभौमिकता के साथ पहचाना जाता है और हम यह महसूस करने लगते हैं कि दुनिया में होने वाली हलचल, ऐतिहासिक प्रक्रिया और यहां जो कुछ भी बदलता है, वह भी चेतना में एक बदलाव है। इसीलिए हम कहते हैं, "मैं चल रहा हूं।" शरीर चल रहा है; हमारे अंदर की सार्वभौमिक चेतना नहीं चलती है। हमारे बारे में हम जो भी बयान देते हैं वे गलत हैं क्योंकि वे केवल शरीर पर लागू होते हैं; लेकिन हम उन्हें कुछ अर्थ देने के लिए किसी तरह सच्चे स्वयं पर लागू करते हैं। इसी तरह, सार्वभौमिक चेतना की अमर प्रकृति को नश्वर शरीर और दुनिया में वस्तुओं पर गलत तरीके से स्थानांतरित कर दिया जाता है और उन पर एक प्रकार की अविश्वसनीय स्थायित्व का आरोप लगाया जाता है, हालांकि हम यह नहीं कह सकते कि दुनिया में कोई भी चीज़ दो दिनों के लिए भी स्थायी है।

अविद्याऽवृति तादात्म्ये विद्य यैव विनश्यतः, विक्षेपस्य स्वरूपं तु प्रारब्ध क्षयमीक्षते (53)।

अविद्या के आवरण पहलू और विक्षेप, या अविद्या के भटकाने वाले पहलू, दोनों को विद्या या ज्ञान द्वारा नष्ट किया जा सकता है। आवरण पहलू और विक्षेप पहलू का अध्ययन पिछले प्रवचन में किया गया था।

अविद्या के दो कार्य हैं: यह हमें यह जानने से रोकती है कि क्या है - हम कुछ भी वास्तविक नहीं देखते हैं - और फिर यह हमें वह देखने के लिए मजबूर करती है जो नहीं है। जो ब्रह्म है वह नहीं देखा जाता है; जो दुनिया नहीं है वह देखी जाती है। यह अविद्या द्वारा किया गया आवरण और विक्षेप, आवरण और व्याकुलता है। अविद्या के इस कार्य को केवल विद्या, सच्चे ज्ञान - वास्तविकता की प्रकृति में अंतर्दृष्टि - द्वारा नष्ट किया जा सकता है।

विक्षेपस्य स्वरूपं तु प्रारब्ध क्षयमीक्षते। यह शरीर, जो विक्षेप या व्याकुलता का भी एक हिस्सा है, दुनिया की किसी भी वस्तु की तरह कुछ समय तक बना रहता है। दुनिया की वस्तुएं भी कुछ समय तक बनी रहती हैं, लेकिन हमेशा के लिए नहीं। यह शरीर तब तक बना रहता है और मौजूद रहता है जब तक प्रारब्ध कर्म जारी रहता है। यह शरीर उन कर्मों की शक्तियों का एक कठोर रूप है जो हमने पिछले जन्मों में किए थे, जिनमें से एक हिस्सा इस दुनिया में अनुभव के लिए आवंटित किया गया है। वह हिस्सा इस ठोस शरीर में समाहित हो गया है, और यह शरीर तब तक इस दुनिया में मौजूद और जीवित रहेगा जब तक कि उस कर्म की शक्ति या गति समाप्त नहीं हो जाती।

जब गति समाप्त हो जाती है, या जब कुम्हार अपने हाथ को पहिये से हटाता है, तो वह चलना बंद कर देता है। इसी तरह, कुम्हार को बार-बार पहिये को धकेलते नहीं रहना चाहिए, अन्यथा गति का कोई अंत नहीं होगा। हम कुम्हार हैं, और कर्म, निश्चित रूप से, वह है जो हम करते हैं। यदि पहिये को धकेलने से उत्पन्न कोई गति - जो हम पिछले जन्म में एक कुम्हार थे - जारी रहती है, तो शरीर भी जारी रहेगा। और जब कुम्हार अब इसमें हस्तक्षेप नहीं करता है और शांत रहता है, तो आंदोलन एक दिन बंद हो जाएगा, और शरीर नष्ट हो जाएगा।

लेकिन अगर हम आगामी कर्म नामक और कर्म जोड़कर इसे फिर से धकेलते हैं, तो पहिया बार-बार चलता रहेगा; कोई समाप्ति नहीं होगी। फिर से पुनर्जन्म होगा। इसलिए और कर्म न जोड़ें; कुम्हार की तरह न बनें, पहिये को फिर से धकेलें। जो गति थी, उसे रहने दें और उसे अपने आप समाप्त होने दें, जैसे आग तब शांत हो जाती है जब उसमें और ईंधन नहीं डाला जाता है।


उपादाने विनष्टेऽपि क्षणं कार्यं प्रतीक्षते, इत्याहुस तार्कि कास तद्वद अस्माकं किम न संभवत् (54)।

नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिक, और कुछ अन्य दार्शनिक भी, यह महसूस कर सकते हैं कि भले ही कारण समाप्त हो जाए, प्रभाव कुछ समय तक जारी रह सकता है। उन्हें तार्किक कहा जाता है। एक पल के लिए हम प्रभाव को वहां पाएंगे। अगर हम एक बर्तन में प्याज रखते हैं, तो पूरे बर्तन में प्याज की गंध आती है; और अगर हम प्याज को हटाकर फेंक देते हैं, तब भी गंध नहीं जाएगी। तीन दिनों तक प्याज की गंध बनी रहेगी। तो कारण चला गया है, लेकिन प्रभाव जारी है।

इसी तरह, तार्किक (नैयायिक) कहते हैं कि शरीर के जारी रहने को कुछ ऐसा बताया जाना चाहिए जो संभव हो, भले ही कारण मौजूद न हों। वेदांत सिद्धांत कहता है कि प्रारब्ध कर्म वास्तव में ईश्वर की प्राप्ति में बाधा नहीं डालता है। यह नैयायिकों के कहने के अनुसार जारी नहीं रहता है, जो स्वयं चेतना को बाधित करता है। हमारे मन में यह विचार है कि प्रारब्ध हमेशा अवांछनीय, बाधक और एक उपद्रव है, लेकिन यह ऐसा नहीं है।

प्रारब्ध केवल कर्म के अवशेष का एक नाम है; और कर्म का बुरा कर्म होना जरूरी नहीं है। हमने कुछ अच्छे कर्म भी किए होंगे; अन्यथा, यदि प्रारब्ध केवल बाधक - तामसिक और राजसिक - होता, तो इस जन्म में हमारे लिए ज्ञान प्राप्त करना कैसे संभव होता? हमारे पास प्रारब्ध के कारण एक शरीर है, लेकिन क्या हम भी प्रबुद्ध नहीं हैं? किसी न किसी तरह, हमें एक उच्च जीवन की चेतना है और हम भगवान के लिए प्रयास कर रहे हैं, भले ही प्रारब्ध वहां मौजूद हो।

यह दर्शाता है कि सभी प्रारब्ध बुरे नहीं हैं। सात्विक प्रारब्ध एक उच्च जीवन की चेतना के प्रकटीकरण की अनुमति देगा, यहां तक कि भगवान के लिए आकांक्षा भी। केवल राजसिक और तामसिक पहलू ही बाधा डालते हैं। और हम में से अधिकांश में, भगवान की कृपा से हमें कहना चाहिए, भगवान के लिए आकांक्षा उत्पन्न हुई है। इसका मतलब है कि हमारे प्रारब्ध, इस तथ्य के बावजूद कि वे इस शरीर के रूप में वहां मौजूद हैं, हमेशा बाधक नहीं होते हैं। अगर वे पूरी तरह से बाधक होते, तो हम भगवान के बारे में नहीं सोचते। धर्म और आध्यात्मिकता का विचार उत्पन्न नहीं होता। हम केवल दुनिया में उलझ जाते और संसार में डूब जाते। यह कि हम में से कई लोगों के साथ ऐसा नहीं हुआ है, इसका मतलब है कि सात्विक प्रारब्ध काम कर रहा है। वेदांत सिद्धांत कहता है कि इसका मतलब यह नहीं है कि प्रारब्ध हमेशा बाधक होता है। यह कभी-कभी बहुत मददगार भी होता है, जैसा कि तब होता है जब इसका सात्विक पहलू प्रकट होता है, यह ज्ञान के प्रकटीकरण की अनुमति देता है।

उपादाने विनष्टेऽपि क्षणं कार्यं प्रतीक्षते, इत्याहुस तार्कि कास तद्वद अस्माकं किम न संभवत् (54)।

तंतूनां दिन संख्यानां तैस्तादृक् क्षण ईरितः, भ्रमस्या संख्या कल्पस्य योग्यः क्षण इहेष्यताम् (55)।

प्रारब्ध कर्म, जो इस वर्तमान शरीर का कारण है, इस शरीर को तब तक जारी रखने की अनुमति देता है, जब तक कि इस प्रारब्ध की शक्ति समाप्त नहीं हो जाती। नैयायिक, या तार्किक, यह भी मानते हैं कि जब किसी कारण से कोई प्रभाव उत्पन्न होता है, तो कारण की प्रकृति प्रभाव में कुछ समय तक बनी रहती है, भले ही वह केवल एक पल के लिए हो। इसी तरह, इस शरीर का जारी रहना, भले ही यह कुछ वर्षों के लिए हो, वास्तव में अनंतता और खगोलीय ब्रह्मांड की लंबी अवधि के प्रकाश में केवल एक क्षण के लिए जारी रहना माना जाना चाहिए।

अगर हम इस दुनिया में पंद्रह साल तक रहने में सक्षम हैं, तो इसे एक बड़ी उपलब्धि नहीं माना जा सकता है क्योंकि इस विशाल ब्रह्मांड में पंद्रह साल, बीस साल या यहां तक कि तीस साल क्या हैं, जहां सूरज लाखों सालों से चमक रहा है और तारे लाखों सालों से हैं? हमारे सामने यह पहाड़ भी रहा है - कितने सालों से, कोई नहीं जानता। इतने सारे लोग आए और चले गए; इस पहाड़ ने उन्हें इस जगह पर देखा है।

इसलिए, शरीर के वहां होने और कुछ समय तक जारी रहने पर किसी भी तरह के अतिरिक्त उल्लास की कोई आवश्यकता नहीं है। शरीर का जारी रहना आत्मा के लिए कोई लाभ नहीं है। यह केवल एक बीमारी का lingering है। यहां तक कि जब किसी व्यक्ति को फिट घोषित कर दिया जाता है और अस्पताल से छुट्टी दे दी जाती है, तब भी कुछ lingering करता है।

वैसे भी, उपनिषद यह घोषणा करते हैं कि 'ऐसे' व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होगा। यहां विवरण जीवनमुक्त पुरुष के संबंध में है जिसमें कोई संचित कर्म या आगामी कर्म नहीं बचा है, लेकिन प्रारब्ध जारी है। पुनर्जन्म का कारण प्रारब्ध नहीं है, क्योंकि प्रारब्ध कर्म का वह विशेष आवंटित हिस्सा है जिसे केवल इस शरीर के माध्यम से पूरा किया जाना है। इसे अगले शरीर तक नहीं ले जाना है। नए शरीर के जन्म का कारण संचित कर्मों के भंडार से किया गया कर्म का नया आवंटन है - आनंदमय कोश में हमारे व्यक्तित्व के गहरे अचेतन स्तर में पड़े पिछले कर्मों की संचित शक्तियां। यह जीवनमुक्त पुरुष के मामले में जल गया है।

तीन प्रकार के कर्म होते हैं। पिछले कर्मों की सभी संभावनाएं एक भंडार में जमा होती हैं, और भंडार कक्ष में इन वस्तुओं में से थोड़ा सा खुदरा बिक्री के लिए दुकान के सामने लाया जाता है। दुकानदार पूरे स्टॉक को सामने नहीं लाता है। जब खुदरा बिक्री के लिए रखी गई वस्तुएं समाप्त हो जाती हैं या समाप्त होने वाली होती हैं, तो वह भंडार कक्ष से ताजा स्टॉक लाता है।

संचित कर्म इस भंडार कक्ष की तरह है जिसमें हमारे द्वारा पहले लिए गए हजारों जन्मों में किए गए कर्मों की सभी शक्तियां होती हैं। चूंकि एक ही शरीर इन सभी कर्मों के फलों का अनुभव नहीं कर सकता है, इसलिए यह व्यवस्था की गई है कि विभिन्न प्रकार के कर्मों का अनुभव करने के लिए कई, कई शरीर लेने होंगे। अन्यथा, यदि सभी कर्मों को केवल एक शरीर के माध्यम से पूरा करना पड़े, तो कर्म इस शरीर को इस हद तक कुचल देंगे कि यह एक पल के लिए भी नहीं रहेगा। इन कर्मों के भार के कारण शरीर तुरंत टूट जाएगा।

इसलिए, ब्रह्मांडीय कानून की व्यवस्था इतनी सावधानीपूर्वक है। यह कामना करते हुए कि सभी कर्मों को पूरा किया जाना है, और फिर भी किसी भी व्यक्ति के लिए एक शरीर के माध्यम से सभी कर्मों को व्यक्तिगत रूप से पूरा करना संभव नहीं है, व्यवस्था यह है कि हमारे पास कई, कई शरीर होंगे। एक विशेष शरीर एक प्रकार के कर्म का फल भुगतने में सक्षम होगा; दूसरे प्रकार के कर्म का फल भुगतने के लिए एक और शरीर आवश्यक होगा। और इसलिए, इस तरह से एक व्यवस्थित व्यवस्था की गई है।

जब संचित के भंडार से निकाले गए 'खुदरा' या दुकान के सामने के कर्म के काम के कारण एक विशेष शरीर का जन्म होता है, तो व्यक्ति की चेतना शरीर के साथ बहुत तीव्रता से जुड़ जाती है; और इस शरीर के प्रति लगाव के कारण, आगे कर्म किए जाते हैं। अधिक से अधिक कर्म किए जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि, हम पिछले कुछ कर्मों के कारण इस शरीर के साथ इस दुनिया में पैदा हुए हैं। लेकिन क्या हम अब चुप बैठे हैं? हम इस जन्म में भी, इस शरीर के माध्यम से भी कुछ करने में व्यस्त हैं। यह 'व्यस्त रहना' भी भंडार कक्ष में और कर्म जोड़ने का एक कारण है। इस प्रकार, कर्मों का भंडार कभी समाप्त नहीं होगा।

अब जीवनमुक्त के मामले में - वह व्यक्ति जो ईश्वर, ब्रह्म की प्रकृति से प्रबुद्ध हो गया है - कर्मों का पुराना भंडार जल गया है और, इसलिए, उसके लिए एक और शरीर के पैदा होने की कोई संभावना नहीं है। आगामी कर्म, या नए कर्मों द्वारा बनाया गया कर्म भी वहां नहीं होगा क्योंकि वह किसी भी नए कर्म में खुद को उलझाने के लिए पर्याप्त बुद्धिमान है। तो न तो वह पुराने भंडार में जोड़ने के लिए कोई नया कर्म करेगा, न ही पुराना भंडार वहां है; यह जल गया है। केवल एक चीज जो बची है वह यह प्रारब्ध है। जब वह समाप्त हो जाएगा, तो वह विदेहमुक्ति, सार्वभौमिक मोक्ष प्राप्त करेगा।

विना क्षोद क्षमं मानं तैर् वृथा परिकल्प्यते, श्रुति युक्त्यनुभूतिभ्यः वदतां किं नु दुः शकम् (56)।

आस्तां दुस्तार् किकैः साकं विवादः प्रकृतं ब्रुवे, स्वा’हमोः सिद्धमेकत्वं कूटस्थ परिणमिनोः (57)।

यह श्लोक कुछ तर्क-वितर्क से संबंधित है जो लेखक ने बीच में लाया है, जो चर्चा के वास्तविक विषय से जुड़ा नहीं है - नैयायिकों और वेदांतियों के बीच कारण से उत्पन्न होने वाले प्रभाव, और कुछ समय तक प्रभाव में बने रहने वाले कारण, आदि के संबंध में अंतर। यह मुख्य विषय से एक विचलन है। अब हम मुख्य विषय पर आते हैं।

मुख्य विषय यह है: स्वयं और इस शरीर से जुड़ी मैं-चेतना को एक-दूसरे के साथ पहचाना गया है, और फिर हम महसूस करने लगते हैं कि हम एक व्यक्तिगत व्यक्तित्व हैं। कूटस्थ सबसे भीतरी सार्वभौमिक आत्मा है; परिणामी अहंकार-चेतना है, क्षणभंगुर व्यक्तित्व है। इन दोनों को आपस में मिला दिया गया है; और फिर क्या होता है? कूटस्थ-चैतन्य की स्थायीता हमें यह महसूस कराती है कि हम यहां लंबे समय तक रहने वाले हैं, लेकिन शरीर की भंगुरता हमें कभी-कभी यह संदेह कराती है कि लंबा जीवन संभव नहीं है। फिर भी, बात यह है कि स्वयं शरीर-चेतना से या शरीर से जुड़े 'मैं' से अलग है।

भ्राम्यन्ते पंडितं मन्याः सर्वे लौकिक तीर्थिकाः, अनादृत्य श्रुतिं मौर्ख्यात केवलां युक्ति माश्रिताः (58)।

यहाँ केवल तर्क काम नहीं करता। जो लोग केवल तार्किक तर्कों पर भरोसा करने के आदी हैं, और अपने तर्क को श्रुति या उपनिषदों के निष्कर्षों पर आधारित नहीं करते हैं, वे सच्चे स्वयं और झूठे स्वयं के बीच के संबंध के संबंध में किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते हैं।

तीन प्रकार के स्वयं होते हैं, जिन्हें मुख्यात्मा, मिथ्यात्मा और गौणात्मा के रूप में जाना जाता है। मिथ्यात्मा झूठा बोझ है जो प्राथमिक स्वयं, कूटस्थ या मुख्यात्मा पर पाँच कोशों के रूप में विकसित हुआ है - अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय। ये पाँच कोश झूठे आरोपण हैं और, इसलिए, उन्हें मिथ्यात्मा, अवास्तविक स्वयं कहा जाता है।

कूटस्थ, या अंदर का वास्तविक आत्मा, मुख्यात्मा या प्राथमिक स्वयं कहलाता है। एक तीसरा आत्मा है जिसे गौणात्मा कहा जाता है, वह वस्तु जो आकर्षक और प्रिय है। कोई व्यक्ति उस वस्तु पर स्वत्व डालकर स्नेह की वस्तु को गले लगाता है। लोग कहते हैं, "ओह मेरे प्रिय, तुम मेरी अपनी आत्मा हो!" माँ बच्चे से कहती है, "तुम मेरी अपनी आत्मा हो।" बच्चा माँ की आत्मा कैसे बन सकता है? उसने अपने स्वत्व को उस वस्तु में स्थानांतरित कर दिया है, जो बच्चा है। सोना और चांदी पैसे के प्रति जुनूनी व्यवसायी की आत्मा हैं। इस दुनिया में इतनी सारी चीजें हैं जिन पर हम अपना स्वत्व उड़ेलते हैं।

जब तक हम किसी चीज पर अपना स्वत्व नहीं डालते, हम उस चीज से प्यार नहीं कर सकते। प्रेम कुछ भी नहीं है सिवाय बाहर की किसी वस्तु के संबंध में स्वयं की गति के; और जिस हद तक स्वयं अंदर खो जाता है और इसे बाहर अधिक से अधिक उड़ेल दिया जाता है, उस हद तक हम कम महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं और वस्तु अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। यह मामलों का एक विकृत रूप है जहां वस्तु विषय बन जाती है, और विषय पूरी तरह से नष्ट हो गया है। इसे गौणात्मा, या द्वितीयक स्वयं, वह वस्तु जो स्नेहपूर्ण है, कहा जाता है। झूठा स्वयं पांच कोश है। मुख्यात्मा प्राथमिक स्वयं है, जो कूटस्थ आत्मा, हमारे भीतर का सार्वभौमिक अस्तित्व है।

पूर्वा पर परामर्श विकला स तत्र केचन, वाक्या भासान स्व स्व पक्षे योजयंत्य प्यलज्जया (59)।

कूटस्थादि शरीरांत संघात स्यातम्ताम् जगुः, लोकायताः पामराश्च प्रत्यक्षा भासमाश्रिताः (60)।

मूर्ख लोगों को कूटस्थ आत्मा और झूठे स्वयं के बीच के अंतर की कोई उचित समझ नहीं होती है, जो पाँच कोश हैं, और इन दोनों के बीच के अंतर को नहीं जानते हुए, वे इस व्यक्तित्व को वास्तविक प्राणी मानते हैं। "मेरा दोस्त आ रहा है। यह मेरे पिता हैं। यह फलाना है।" ये बयान विचारों का मिश्रण हैं क्योंकि जब हम कहते हैं, "यह मेरे पिता हैं," तो हम नहीं जानते कि हम वास्तव में क्या प्रदर्शित कर रहे हैं जब हम किसी व्यक्तित्व की ओर इशारा करते हैं। सार्वभौमिक आत्मा को पिता नहीं माना जा सकता है। पाँच कोश भी पिता नहीं हैं, क्योंकि उनमें कोई चेतना नहीं है। दरअसल, जब पिता की मृत्यु हो जाती है तो हम उनके शरीर का अंतिम संस्कार करते हैं।

अब, कोश पिता नहीं हैं; और आत्मा भी पिता नहीं है। हम किसे पिता कहते हैं? यह दिमाग में विचारों का एक काल्पनिक मिश्रण है, जिसमें दो मुद्दों को मिलाया गया है: एक ओर वास्तविक सार्वभौमिकता पर पाँच कोशों के आरोपित झूठे स्वयं को थोपना, और दूसरी ओर पाँच कोशों की व्यक्तिवादिता में स्थायित्व या सार्वभौमिकता के चरित्र को स्थानांतरित करना।

इसलिए, मनुष्य अस्तित्ववान प्राणी नहीं हैं। वे केवल दो मुद्दों का एक संकुल हैं - प्रपंच (phenomenal) और तत्व (noumenal)। प्रपंच वास्तविक नहीं है, और तत्व विशेष नहीं बन सकता। तो वास्तव में, किसी भी व्यक्ति को अपने आप में वास्तविक नहीं माना जा सकता है। यह एक झूठी दिखावट है - आप स्वयं, मैं स्वयं, और दुनिया की हर चीज। वे दिखावट बन जाते हैं क्योंकि उनके पास अपने आप में कोई सार नहीं है, सिवाय दो मुद्दों के मिश्रण के: आंशिक रूप से तत्व, और आंशिक रूप से प्रपंच

अज्ञानी लोग, अनपढ़ व्यक्ति, नास्तिक और भौतिकवादी शरीर को ही वास्तविकता मानते हैं। वे सोचते हैं कि पांच तत्वों से बना भौतिक शरीर ही एकमात्र ऐसी चीज है जो आंखों को दिखाई देती है, और जो दिखाई नहीं देती वह वास्तविक नहीं है। यदि वह दिखाई नहीं देता है, तो वह वास्तविक नहीं हो सकता है। यह शुद्ध भौतिकवादी दृष्टिकोण है; यह अवलोकन और प्रयोग पर आधारित है। और वैज्ञानिक रूप से किए गए सभी अवलोकन, प्रयोग और जांच वस्तु की दृश्यता पर आधारित होते हैं। अदृश्य चीजों को इस तरह से जांच का विषय नहीं बनाया जा सकता है।

भौतिक अवधारणा लोगों के दिमाग में इतनी गहराई से चली गई है कि हम कभी-कभी उन्हें भौतिकवादी या लोकायत कहते हैं, सांसारिक लोग जो महान नेता विरोचन के उदाहरण का पालन करते हुए, शरीर को अंतिम वास्तविकता मानते हैं।

ऐसा लगता है कि एक बार प्रजापति, महान निर्माता, ने एक बयान दिया था: "इस आत्मा से संपर्क करना, इसे महसूस करना और अनुभव करना है। तब व्यक्ति जो कुछ भी चाहता है वह उसका अपना हो जाता है।" इसे इंद्र और देवताओं, और विरोचन के नेतृत्व वाले राक्षसों ने सुना। "ओह, आत्मा नामक कुछ है, जिसे जानने से हम जो कुछ भी चाहते हैं वह प्राप्त कर सकते हैं। चलो इसे प्राप्त करते हैं!" तो इंद्र और विरोचन दोनों ब्रह्मा के पास गए। प्रजापति ने कहा, "आप कैसे आए, श्रीमान?"

इंद्र/विरोचन: "हमने सुना है कि आत्मा को जानना चाहिए; और यदि इसे जान लिया जाए, तो हम जो कुछ भी चाहते हैं, वह हमें मिल जाएगा। कृपया हमें सिखाएं।"

प्रजापति: "यहां बत्तीस साल तक, आत्म-संयम का पालन करते हुए रहो। मैं तुम्हें बताऊंगा कि यह क्या है।"

वे बत्तीस साल तक ब्रह्मा के पास रहे। उसके बाद, उन्होंने कहा, "कृपया हमें आत्मा सिखाएं। कृपया सिखाएं।"

प्रजापति: "जाओ और पानी में खुद को देखो, और जो तुम वहां देखते हो वह आत्मा है।" इंद्र और विरोचन गए, और उन्होंने खुद को पानी में प्रतिबिंबित होते देखा। उन्होंने क्या देखा? भौतिक शरीर - यही आत्मा है। बहुत आश्चर्यजनक! विरोचन ने कहा, "यह आत्मा है! अद्भुत! यह आत्मा है। यह शरीर है।" वह लौट आया और राक्षसों को घोषित किया, "मैंने आत्मा को जान लिया है। यह वही चीज जिसे आप अपनी आंखों से देख रहे हैं, वह आत्मा है।" लेकिन इंद्र संतुष्ट महसूस नहीं कर रहे थे। यह एक बड़ी कहानी है! वह कई बार ब्रह्मा के पास गए और फिर सच्चे आत्मा में दीक्षित हुए। वैसे भी, विरोचन वह था जो ब्रह्मा के पहले निर्देश से गुमराह हो गया था और सोचा था कि भौतिक शरीर आत्मा है। उसके अनुयायियों को लोकायत कहा जाता है, भौतिकवादी जो भौतिक तत्वों के अलावा किसी और चीज में विश्वास नहीं करते हैं।

Here is the Hindi translation of the provided text.


श्राउती कर्तुं स्वपक्षं ते कोशमन्न मयं तथा, विरोचनस्य सिद्धान्तं प्रमाणं प्रति जज्ञिरे (61)।

अन्नमय कोश, या भौतिक आवरण, को उनके द्वारा सर्वोपरि माना जाता है। खाओ, पीओ और मजे करो। यह एक बयान है जो आसानी से लोकायत, या भौतिकवादियों को जिम्मेदार ठहराया जाता है।


जीवात्मा निर्गमे देह मरण स्यात्र दर्शनात्, देहाति रिक्त एवात्मैति आहुर् लोकायतः परे (62)।

कुछ ऐसे परिष्कृत भौतिकवादी हैं जो यह नहीं मानते कि यह शरीर वास्तव में स्वयं है, क्योंकि उन्हें लगता है कि शरीर नष्ट हो जाता है। इसका मतलब यह होगा कि आत्मा भी नष्ट हो जाती है। ऐसा स्वयं बेकार और अवांछनीय है। कुछ ऐसा होना चाहिए जो शरीर के नष्ट होने के बाद भी बना रहे। वह कुछ जो एक सूक्ष्म क्षमता है - एक सूक्ष्म तत्व, जिसे शरीर के गुजरने के बाद वहां माना जाता है - उसे स्वयं माना जाना चाहिए; यह कुछ ऐसा है जो कुछ सुशिक्षित भौतिकवादियों द्वारा माना जाता है।


प्रत्यक्षत्व नाभिमतं हंधीर् देहाति रेकिणं, गमये दिंद्रियात्मानं वच्मी त्यादि प्रयोगतः (63)।

कुछ अन्य लोग हैं जो महसूस करते हैं कि शरीर स्वयं नहीं हो सकता क्योंकि शरीर इंद्रियों द्वारा संचालित होता है। हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि मैं-पने की चेतना कुछ ऐसी गतिविधि से जुड़ी है जो पूरी तरह से एक भौतिक शरीर के साथ पहचान करने में सक्षम नहीं है। संवेदनाएं, धारणाएं, हमारे भीतर कुछ सिद्धांतों के कार्य हैं जिन्हें शरीर के साथ पहचाना नहीं जा सकता है।

इंद्रिय, या स्वयं जो संवेदनाओं से बना है, को वास्तविकता माना जाना चाहिए। यह सिद्धांत जो संवेदनाओं को परम वास्तविकता मानता है, उसे संवेदनावाद कहा जाता है। भौतिकवाद केवल पदार्थ की वास्तविकता का सिद्धांत है। संवेदनावाद वह सिद्धांत है जो बताता है कि इंद्रियां दुनिया में किसी भी प्रकार के मूल्य के निर्णय का मानदंड बनती हैं।


वागादीना मिंद्रियाणां कलहः श्रुतिषु श्रुतः, तेन चैतन्य मेतेषाम् आत्मत्वं तत एव हि (64)।

उपनिषदों में ऐसे उपाख्यान हैं जहां आंख, कान, आदि जैसी इंद्रियों ने कथित तौर पर आपस में झगड़ा किया कि कौन श्रेष्ठ है, क्योंकि प्राण ने कहना शुरू किया, "हम में से कौन श्रेष्ठ है? जिसके बाहर निकलने से दूसरे मौजूद नहीं हो सकते, उसे श्रेष्ठ माना जा सकता है। किसी को छोड़ना चाहिए; उसके बाद, यदि हम में से बाकी लोग दुखी हो जाते हैं, तो हम कह सकते हैं कि वह व्यक्ति (इंद्रिय) श्रेष्ठ है।" तो आंख चली गई; वह चला गया। लेकिन भले ही आंखें वहां नहीं थीं, कोई समस्या नहीं थी। कान सुन सकते थे, नाक सूंघ सकती थी, जीभ स्वाद ले सकती थी, आदि। फिर कान ने कहा, "मैं बहुत महत्वपूर्ण हूं। मुझे जाने दो, और देखते हैं कि क्या होता है।" कान चले गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ। अगर कान नहीं होते तो वे सुन नहीं पाते, बेशक, लेकिन वे देख सकते थे, और कई अन्य चीजें की जा सकती थीं।

तो यह पाया गया कि किसी भी अंग को दूसरों से अधिक श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता है। लेकिन जब प्राण ने कहा, "मैं श्रेष्ठ हूं, और मैं छोड़ दूंगा," तो सभी इंद्रियां हिलने लगीं। ऐसा लगा जैसे पूरी इमारत दरक रही थी क्योंकि जब प्राण जाता है, तो इंद्रियां तुरंत टूट जाती हैं। तो सभी इंद्रियों ने कहा, "मत जाओ, मत जाओ! कृपया, हम आपको श्रेष्ठ के रूप में स्वीकार करते हैं।" फिर उन सभी ने उसकी पूजा की।

इंद्रियों के बीच इस तरह का विवाद एक कहानी है जो उपनिषदों में हमारे लिए दर्ज है, जिसके कारण हम कह सकते हैं कि इंद्रियों में कुछ वास्तविकता है; और इसलिए एक प्रकार का स्वत्व इंद्रियों को दिया जा सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि शरीर को।

लेकिन कुछ अन्य लोग हैं जो कहते हैं, "प्राण ही वास्तविक स्वयं है, न कि केवल इंद्रियां, क्योंकि इस सादृश्य में, इंद्रियों के बीच विवाद की कहानी, यह सचित्र और सिद्ध हो गया है कि प्राण श्रेष्ठ है। इंद्रियां श्रेष्ठ नहीं हैं, इसलिए हम इंद्रियों को स्वयं नहीं मान सकते। यह प्राण है जो वास्तविक स्वयं, महत्वपूर्ण स्वयं है। भौतिक स्वयं, संवेदी स्वयं, सभी चले गए हैं। अब महत्वपूर्ण स्वयं खुद को प्रस्तुत करता है। यह ब्रह्मांडीय प्राण, हिरण्यगर्भ का एक प्रकटीकरण है। जो लोग हिरण्यगर्भ की पूजा करते हैं वे कहते हैं, "प्राण सर्वोच्च स्वयं है।"

हैरण्य गर्भाः प्राणात्म वादिनस् त्वेव मूचिरे, चक्षुराद्य क्षलोपेऽपि प्राण सत्त्वे तु जीवति (65)।

भले ही सभी इंद्रियां न हों, भले ही हम अंधे, बहरे और गूंगे हों, लेकिन अगर प्राण है, तो हम जीवित हैं। तो प्राण को सच्चा स्वयं माना जाना चाहिए, क्योंकि जब हम सो रहे होते हैं तब भी प्राण जीवित रहता है। यहां तक कि जब इंद्रियों को दबा दिया जाता है, जैसे कि नींद की अवस्था में, और वे सचेत नहीं होती हैं, तो प्राण एक चौकीदार की तरह जागता रहता है; और इसलिए हमें सभी इंद्रियों से प्राण को श्रेष्ठ मानना चाहिए।


प्राणो जागर्ति सुप्तेऽपि प्राण श्रैष्ठ्यादिकं श्रुतम्, कोशः प्राणमयः सम्यक् विस्तरेण प्रपञ्चितः (66)।

यहां तक कि नींद में भी, प्राण जागता रहता है। प्राणमय कोश को स्वयं माना जाना चाहिए। महत्वपूर्ण आवरण ही वास्तविकता है; जीवन शक्ति ही स्वयं है। यह जीवनवादियों का एक सिद्धांत है। पश्चिम में भी कुछ दार्शनिक हैं जिन्हें जीवनवादी कहा जाता है जो मानते हैं कि एक प्रकार की प्रोटोप्लाज्मिक ऊर्जा है जो सभी जीवित प्राणियों में मौजूद है, और यह व्यक्ति में अंतिम वास्तविकता है। जो लोग मानते हैं कि जीवन शक्ति ही अंतिम मूल्य है, वे अपने सिद्धांत को जीवनवाद कहते हैं - न कि भौतिकवाद, न कि संवेदनवाद, बल्कि जीवनवादबर्गसन इसी श्रेणी में आते हैं।


मन आत्मैति मन्यंत उपासना परा जनाः, प्राणस्या भोक्तृता स्पष्टा भोक्तृत्वं मनसस ततः (67)।

कुछ आदर्शवादी हैं जो कहते हैं कि प्राण स्वयं नहीं हो सकता। प्राण क्या है? इसकी अपनी कोई चेतना नहीं है। आप कह रहे हैं कि यह नींद के दौरान जागता रहता है; इसे जागते रहने दें। लेकिन इसे यह पता नहीं है कि यह जाग रहा है। इसमें कोई चेतना नहीं है; यह सोच नहीं सकता। यह एक प्रकार का कर्म है, जिसमें विचार नहीं है। तो विचार अधिक महत्वपूर्ण है; विचार के बिना, जीवन का क्या लाभ? आप सांस ले रहे होंगे, ठीक है, लेकिन आप सोचते नहीं हैं। क्या यह एक उचित जीवन है? मन ही वास्तविक स्वयं है, न कि प्राण, आदर्शवादी कहते हैं जो मन को मानव व्यक्ति में सर्वोच्च कार्य मानते हैं।


मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः, श्रुतो मनोमयः कोशस तेनातमेती रितं मनः (68)।

उपनिषद में भी, यह कहा गया है कि मन ही किसी व्यक्ति के बंधन और मुक्ति का कारण है। यदि मन वस्तुओं की इच्छा से भरा है, तो यह हमारे बंधन के लिए है; यदि मन वस्तुओं की इच्छा से मुक्त है, तो यह हमारी मुक्ति के लिए है। तो मन श्रेष्ठ है, और यह हमारे सुखों और दुखों का स्रोत है। यही वास्तविक स्वयं है, आदर्शवादी कहते हैं - न कि प्राण या महत्वपूर्ण पदार्थ।

कुछ अन्य लोग हैं जो सोचते हैं कि यह चीजों का अंतिम समाधान नहीं है। मन, बेशक, है; यह बहुत आवश्यक है, और यह प्राण से श्रेष्ठ है, लेकिन मन जानवरों में भी होता है। वहां एक प्रकार का सहज मन काम कर रहा है; सोचने की एक अनिश्चित प्रक्रिया है। अस्पष्ट विचार मन का काम है। मन द्वारा निर्णायक, निर्धारित, तार्किक निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। कारण, बुद्धि, आवश्यक है।

हम बुद्धि को मन से श्रेष्ठ मानते हैं। विज्ञानवादी बौद्ध आदर्शवादी हैं जो कारण को अंतिम वास्तविकता मानते हैं; दुनिया की सभी वस्तुओं को स्वयं बुद्धि की कुछ प्रक्रियाओं के प्रकटीकरण या ठोस रूप माना जाता है। इस दर्शन को आत्मवाद कहा जाता है, जो बुद्धि या कारण की आंतरिक प्रक्रियाओं को दुनिया में बाहरी वस्तुओं के भी निर्धारक कारक के रूप में मानता है।

विज्ञानं मतेति पर आहुः क्षणिक वादिनः, यतो विज्ञानं मूलत्वं मनसो गम्यते स्फुटम् (69)।

दुनिया क्षणभंगुर है; यह क्षणिक है क्योंकि बौद्धिक कार्य की थोड़ी सी प्रक्रिया भी क्षणिक है। तो, एक ठोस पदार्थ की तरह दिखने वाली दुनिया वास्तव में ठोस नहीं है। यह एक कपड़े के टुकड़े की तरह है जो छोटे-छोटे धागों से बना है, और इसलिए कपड़े में ठोसता की उपस्थिति एक भ्रम है। दरअसल, यह छोटे आंतरिक घटकों का एक संकुल है जो धागे हैं।

दुनिया एक ठोस वस्तु नहीं है। कुछ भी नहीं, यहां तक कि यह शरीर और बाहर की वस्तुएं भी, ठोस वस्तुएं नहीं हैं। वे विज्ञान धारा नामक कुछ बौद्धिक प्रक्रिया के बिट्स से बने अस्थायी संकुल हैं; इस प्रकार बौद्ध आदर्शवादी मानते हैं। बौद्धिक प्रक्रिया ही परम वास्तविकता है। इसके परे कुछ भी नहीं है। उनके लिए कोई स्वयं मौजूद नहीं है; केवल प्रक्रिया मौजूद है।


अहं वृत्ति रिदं वृत्तिः इत्यन्तःकरणं द्विविधा, विज्ञानं स्यादहं वृत्तिः इदं वृत्तिर् मनो भवेत् (70)।

मैं और मेरा, मैं और यह, मानस की कुछ प्रक्रियाएं हैं। 'मैं' की पुष्टि को अहंकार के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, जो बौद्धिक कार्य का एक हिस्सा है, और धारणा में आरोपित यह-नेस को मन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। मन कारण का एक प्रकार का साधन है। मानस के दो कार्य हैं - निर्धारण करना और शुद्ध सोचना। अनिश्चित सोच प्रक्रिया को मन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है; निर्णय लेने और निर्धारण करने का कार्य बुद्धि के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। बुद्धि मन से आंतरिक है; मन बुद्धि से बाहरी है।

मन एक प्रकार का कच्चा बोध है, और बुद्धि मन का शुद्ध रूप है। विज्ञान वह बुद्धि है जो हममें मैं-नेस की भावना का कारण है, और यह-नेस, मेरा-नेस, आदि की भावना को मानसिक कार्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। मन और बुद्धि मनोवैज्ञानिक रूप से हमारे स्वभाव में प्राथमिक हैं।

अहं प्रत्यय बीजत्वं इदं वृत्तेरिति स्फुटम्, अविदित्वा स्वमात्मानं बाह्यं वेत्ति न तु क्वचित् (71)।

यह-नेस, मेरा-नेस, आदि की चेतना वास्तव में मैं-नेस की चेतना से पता लगाई जा सकती है, जो अहंकार की एक विशेषता है। यदि 'मैं' नहीं है, तो 'मेरा' भी नहीं होगा। किसी चीज पर अधिकार रखने और किसी भी चीज के संबंध में मेरा-नेस, स्वामित्व की भावना महसूस करने के लिए, हमें सबसे पहले मौजूद होना चाहिए। न केवल हमें मौजूद होना चाहिए, बल्कि हमें यह भी पता होना चाहिए कि हम मौजूद हैं। आत्म-चेतना, जो किसी के अपने अस्तित्व की चेतना है, किसी और चीज को अपना मानना से पहले आती है।

तो मैं-चेतना अन्य प्रकार की चेतनाओं की जड़ है, जैसे मेरा-नेस, यह-नेस, आदि। जब तक हमें यह नहीं पता होता कि हम मौजूद हैं, हम यह नहीं जान सकते कि दूसरे मौजूद हैं। आत्म-चेतना प्राथमिक है; अन्य चेतना द्वितीयक है। यह भी हमारे लिए एक महान शिक्षा है कि, जानबूझकर या अनजाने में, हम खुद को अन्य सभी लोगों से श्रेष्ठ मानते हैं। और हमारी सभी भलाई या बाहरी गतिविधियां हमारे अहंकारी कार्य का एक प्रकार का छिपाव मात्र हैं। अंत में, जब सब कुछ डूब रहा होता है, तो हम खुद को बचाने की कोशिश करेंगे।


क्षणे क्षणे जन्म नाशौ अहं वृत्तेर मितौ यतः, विज्ञानं क्षणिकं तेन स्वप्रकाशं स्वतो मितेः (72)।

यह एक सिद्धांत है कि बौद्धिक प्रक्रिया का एक क्षणिक कार्य होता है, जैसा कि पहले ही संकेत दिया गया है; और अगर हम इस सिद्धांत से सहमत हैं कि बौद्धिक प्रक्रिया एक प्रकार की प्रक्रिया या आंदोलन से बनी है जो छोटे-छोटे बिट्स से बना है, तो छोटे-छोटे बिट्स की एक निरंतरता भी हो सकती है, जैसे एक श्रृंखला छोटे-छोटे लिंक से बनी होती है। एक श्रृंखला एक निरंतरता है, लेकिन लिंक अलग-अलग हैं। एक लिंक दूसरे लिंक से अलग है। तो निरंतरता होने के बावजूद, बीच में एक गैप या भागों का टूटना हो सकता है।

तो अगर हम मानते हैं कि दुनिया, या दुनिया की धारणा, बौद्धिक कार्य की एक क्षणिक प्रक्रिया है, जैसा कि बौद्ध धर्म के आदर्शवादी मानते हैं, तो कोई आत्म-चेतना नहीं होगी। आत्म-चेतना छोटे-छोटे हिस्सों से नहीं बनी है। यदि बुद्धि ही अंतिम वास्तविकता है, जैसा कि ये लोग मानते हैं, और कारण ही सब कुछ है और फिर भी यह आंशिक है - छोटे-छोटे बिट्स से बना है, जैसे धागे कपड़े का निर्माण करते हैं - तो हर पल हम यह महसूस करेंगे कि हम एक साथ रखे गए छोटे-छोटे टुकड़े हैं। लेकिन हम कभी ऐसा महसूस नहीं करते।

हम महसूस करेंगे कि हम छोटे-छोटे टुकड़ों, बौद्धिक प्रक्रिया के छोटे-छोटे बिट्स, विचार के छोटे-छोटे हिस्सों का ढेर हैं, और यह कि हम कभी भी एक एकल संपूर्ण नहीं हैं। मैं यह नहीं कह सकता, "मैं आ रहा हूँ" या "हम आ रहे हैं"; मुझे कहना होगा, "बंडल आ रहे हैं।" हम कभी यह महसूस नहीं करते कि हम विचार या भौतिक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़ों के बंडल हैं। हम महसूस करते हैं कि हम एक अविभाज्य चीज हैं - अविभाज्य और खंडन असंभव। हम कभी यह महसूस नहीं करते कि हम क्षणिक हैं। हम यह महसूस नहीं करते कि हम एक आंदोलन हैं। हम महसूस करते हैं कि हम ठोस अस्तित्व हैं। यह एक ऐसी घटना है जिसे समझाया जाना है, और इसे उस सिद्धांत द्वारा नहीं समझाया जा सकता है कि दुनिया में केवल प्रक्रिया है, और प्रक्रिया से पहले कुछ भी नहीं है।

पंचदशी के अध्यायों में विचार का एक क्रमिक विकास है, जैसा कि आपने हमारे अध्ययन के दौरान देखा होगा। ऐसा नहीं है कि विभिन्न अध्यायों में कहीं भी कोई विशिष्ट क्रम इंगित किया गया है। विचारों को एक व्यवस्थित पूर्णता में जोड़ना महत्वपूर्ण है ताकि पूरी प्रस्तुति हमारे पूरे जीवन के लिए एक मार्गदर्शक बन सके। जो लोग इन प्रवचनों को सुनते हैं, वे इन शिक्षाओं की आंतरिक सुसंगति पर ध्यान नहीं दे पाए होंगे। शिक्षाओं का सुसंगति पहलू जीवन की संरचना की सुसंगति पर आधारित है। ऐसा नहीं है कि हम सुबह से शाम तक जो कुछ भी पसंद करते हैं, वह करते हैं। हमारी गतिविधि में, हमारे सोचने के तरीके में, जीवन के हमारे सामान्य दृष्टिकोण में एक प्रणाली है।

दुनिया की प्रकृति लोगों के व्यवहार को दुनिया के संबंध में निर्धारित करती है। यह एक ब्रह्मांडीय प्रणाली है, यदि हम इसे इस तरह से रख सकते हैं - वास्तविकता के क्रमिक अवरोहण की कार्यप्रणाली, चरण दर चरण, जब तक कि यह पृथ्वी चेतना की सबसे निचली श्रेणी तक नहीं पहुंच जाती। हम अब पृथ्वी चेतना की दुनिया से बंधे हुए हैं, इस अर्थ में कि हम लगातार अपने बाहर एक भौतिक दुनिया के बारे में जानते हैं। इस तरह की तीव्रता में हम बाहर की दुनिया के प्रति सचेत हो जाते हैं; और दुनिया अपनी विविधता और मजबूरी से हमें इस हद तक भरती हुई लगती है कि कई बार हम भूल जाते हैं कि हम बिल्कुल भी मौजूद हैं। हमारा अस्तित्व दुनिया के अस्तित्व में डूब जाता है। हम दुनिया के बारे में बहुत चिंतित हैं, इस तथ्य पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रहे हैं कि दुनिया के लिए इस चिंता का कोई अर्थ नहीं होगा यदि हम खुद मौजूद नहीं हैं।

यह यही कारण है कि पहला अध्याय हमारे अस्तित्व के मौलिक प्रश्न के साथ शुरू होता है। दुनिया हो या न हो; वह एक अलग सवाल है। क्या आप मौजूद हैं? यदि आप इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि आप एक आश्वस्त करने वाले तरीके से मौजूद हैं, तो उस दृढ़ विश्वास के आधार पर, आप बाहर की चीजों - दुनिया, आदि के साथ आगे के संबंध विकसित कर सकते हैं। इसलिए, पहला अध्याय मानव व्यक्ति के पीछे एक मौलिक वास्तविकता की स्थापना के लिए समर्पित था, जो जागने, सपने देखने और सोने की तीन अवस्थाओं से स्वतंत्र है। यह पहले अध्याय का विषय है, यदि आप याद कर सकते हैं कि आपने क्या सुना है।

जागने की अवस्था में चेतना को बाहरीकृत किया जाता है, सपने की अवस्था में आंतरिककृत किया जाता है, नींद की अवस्था में पूरी तरह से दबा दिया जाता है, फिर भी, यह जागने, सपने और नींद की तीनों अवस्थाओं में एक निरंतरता के रूप में बनी रहती है। तीनों अवस्थाओं में इसकी निरंतरता के कारण, हम अगली सुबह जब हम नींद से जागते हैं, तो अपनी पहचान को याद करने में सक्षम होते हैं। यदि यह चेतना तीनों अवस्थाओं में लगातार मौजूद नहीं होती, तो हमें उस व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान का कोई ज्ञान नहीं होता जो कल सोया था। हमें किसी और के बारे में पता होता।

संक्षेप में, पहला अध्याय उस मौलिक चेतना की प्रकृति से संबंधित था जो हमारी आवश्यक प्रकृति है, जिसमें हम गहरी नींद की अवस्था में प्रवेश करते हैं, जहां हमारी चेतना किसी भी कोश से जुड़ी नहीं है - न तो कारण, न ही बौद्धिक, मानसिक, संवेदी, महत्वपूर्ण या शारीरिक। यह एक शुद्ध, मिलावट रहित, शुद्ध, निराकार सार्वभौमिकता के रूप में वहां मौजूद प्रतीत होती है। हमारी आवश्यक प्रकृति सार्वभौमिक चेतना है - न कि शरीर चेतना या विश्व चेतना या वस्तु चेतना। यह पहले अध्याय का सार है। व्यक्ति के पीछे एक वास्तविकता के अस्तित्व की स्थापना पहले अध्याय का प्राथमिक विषय है।


दूसरे अध्याय में, दुनिया का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया गया था: पांच तत्वों की दुनिया। हालांकि हम कुछ हद तक सचेत हैं कि हमारी आवश्यक प्रकृति इस शरीर, मन आदि के रूप में एक भौतिक अवतार नहीं हो सकती है, और यह कि हम मूल रूप से एक चेतना हैं जो अविनाशी है, दुनिया हमारे लिए बहुत अधिक है, कई बार। दुनिया पांच तत्वों से बनी है: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और ईथर। दूसरा अध्याय इन तत्वों द्वारा लिए गए रूप और उनके पीछे की वास्तविकता को अलग करने में लगा हुआ था।

जो बात वहां अनिवार्य रूप से बताई गई थी, वह यह थी: जब हम कहते हैं, "ईथर मौजूद है, अग्नि मौजूद है, जल मौजूद है, पृथ्वी मौजूद है," आदि, तो हम अस्तित्व को अंतरिक्ष, वायु, आदि के लिए एक प्रकार के विधेय या सहायक के रूप में मानने की संभावना रखते हैं। अस्तित्व अंतरिक्ष की गुणवत्ता नहीं है। यह अंतरिक्ष है जो अस्तित्व की गुणवत्ता है। "इमारत मौजूद है, यह मौजूद है, वह मौजूद है," जैसे हमारे बयानों में, हम गलत तरीके से शुद्ध अस्तित्व को एक गुणात्मक चरित्र देते हैं जो सभी चीजों के पीछे है, और उस चीज को सार्थकता देते हैं जो वास्तव में एक गुणवत्ता है।

किसी भी चीज का अस्तित्व पहलू प्राथमिक है। उस चीज का रूप द्वितीयक है। अंतरिक्ष, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पांच तत्वों के आकार में शुद्ध अस्तित्व द्वारा लिए गए रूप हैं। अस्तित्व को इन पांच तत्वों के आकार में अस्तित्व द्वारा लिए गए रूपों से अलग किया जाना है। शुद्ध अस्तित्व सार्वभौमिक है, जैसा कि पांच तत्वों से अलग है। वस्तुनिष्ठ रूप से भी, चेतना की सार्वभौमिकता स्थापित है, जैसा कि पहले अध्याय में व्यक्तिपरक रूप से स्थापित किया गया था।


तीसरे अध्याय में, विश्लेषण व्यावहारिक रूप से उस दिशा में था जिसे हम कहते हैं, "मैं कौन हूँ?" क्या हम शरीर हैं या कुछ भी जिसे हम इस मनोदैहिक संकुल के रूप में मानते हैं? इस स्थिति के विश्लेषण के साथ, यह साबित हो गया कि हम भौतिक शरीर नहीं हैं क्योंकि इसमें कोई चेतना नहीं है। सपने की अवस्था में, हमें यह भी पता नहीं होता कि भौतिक शरीर मौजूद है। कहने का तात्पर्य यह है कि, हम भौतिक शरीर की चेतना के बिना भी मौजूद हो सकते हैं।

गहरी नींद की अवस्था में, मन के होने की चेतना भी नहीं होती है। सपने में, मन काम कर रहा होता है; शरीर वहां नहीं होता है। लेकिन गहरी नींद में, मन भी वहां नहीं होता है। जब शरीर और मन दोनों वहां नहीं होते हैं, तो गहरी नींद की अवस्था में क्या होता है? कुछ होता है। क्या आप नींद में मौजूद होते हैं? हाँ, मैं मौजूद हूँ। आप किस रूप में मौजूद होते हैं? शरीर के रूप में नहीं, मन के रूप में नहीं। लेकिन हम हमेशा खुद को शरीर और मन के एक संकुल के रूप में मानते हैं। मनोदैहिक को हमारे व्यक्तित्व की सच्ची प्रकृति माना जाता है, जबकि वास्तव में हम इनमें से कोई भी नहीं हैं। यह तीसरे अध्याय के इस विश्लेषण में स्थापित किया गया है, या व्यक्ति की प्रकृति की जांच में, जो पांच कोशों में से कोई भी नहीं है - न तो शारीरिक, न ही महत्वपूर्ण, न ही संवेदी या मानसिक, न ही बौद्धिक, न ही कारण - शुद्ध सार्वभौमिकता।

तो सभी तीन अध्यायों में, हमें यह एक ही विषय दिया गया है कि सार्वभौमिकता, जो शुद्ध ब्रह्म चेतना है, एक तरफ तीन अवस्थाओं के पीछे है, और दूसरी तरफ पांच तत्वों के पीछे है, और तीसरी तरफ पांच कोशों के पीछे है।

चौथे अध्याय में, जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय है, हमें ईश्वर और जीव की अवधारणा से परिचित कराया गया था - ईश्वर द्वारा दुनिया का निर्माण, और मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्ति का निर्माण। पांच तत्वों की दुनिया, यह पूरा ब्रह्मांड, ईश्वर द्वारा बनाया गया है। यह एक वस्तुनिष्ठ वास्तविकता है। हमारी धारणा में इंद्रियों के माध्यम से इन वस्तुओं की प्रस्तुति को ही हम वास्तव में किसी वस्तु की चेतना कहते हैं। वस्तु अपने आप में स्वतंत्र रूप से मौजूद है, इस बात से अप्रभावित कि हम इसके बारे में क्या सोच रहे हैं।

पहाड़ वहां है, नदी वहां है, सूरज वहां है, चंद्रमा वहां है, तारे वहां हैं। वे इस बात से परेशान नहीं हैं कि हम उनके बारे में क्या सोच रहे हैं। यह मामले का एक पहलू है। वस्तुनिष्ठ वास्तविकता सर्वशक्तिमान ईश्वर की रचना है - इसे ईश्वर-सृष्टि कहा जाता है। ईश्वर-सृष्टि ईश्वर की रचना है, जो अपनी प्रकृति में अवैयक्तिक है, और यह लोगों के दृष्टिकोण या व्यक्तिगत सनक, कल्पनाओं या भावनाओं से संबंधित नहीं है। यह सृष्टि का वस्तुनिष्ठ चरित्र है, जिसे ईश्वर-सृष्टि के रूप में जाना जाता है।

लेकिन एक व्यक्तिपरक पक्ष भी है, जो हमारे अपने द्वारा बनाई गई दुनिया है। हमारे दुख ईश्वर के कारण नहीं होते हैं। वह कुछ व्यक्तियों के लिए विशेष रूप से कुछ भी नहीं बनाता है। सुख और दुख का अनुभव एक व्यक्तिगत मामला है। यह बाहर की वस्तुओं के संबंध में व्यक्ति के मन की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होता है, जो सभी ईश्वर की रचना, ईश्वर-सृष्टि हैं।

प्रेम और घृणा दुख का कारण हैं। दुनिया में कुछ चीजों को व्यक्ति का मन अपना मानता है, और बाकी सब को अपना नहीं मानता है। जिसे वह अपना मानता है, वह उससे चिपका रहता है; और जिसे वह अपना नहीं मानता, वह उसे अस्वीकार कर देता है।

वस्तुओं से चिपके रहने का कारण मन और संबंधित वस्तु के बीच मूल्यों का एक अजीब सा मेल है; और यह मेल हमेशा जारी नहीं रहता है। हमारे मन और वस्तु के बीच का संबंध एक स्थायी संबंध नहीं है। जैसे-जैसे मूड बदलता है, जैसे-जैसे विकास आगे बढ़ता है, जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, हमारी समझ बढ़ती है, और हम पाएंगे कि दुनिया के बारे में हमारे विचार बदलते रहते हैं और जो हम कल चाहते थे, वह आज हम नहीं चाहते होंगे।

इसलिए यह बहुत मजेदार है कि किसी को इस धारणा के तहत कुछ चीजों से चिपके रहना चाहिए कि वे खुशी का स्रोत हैं, जबकि वास्तव में वे अपने स्थान में अस्थिर हैं। न केवल हमारा मन चंचल है, बल्कि वस्तु की स्थिति भी चंचल है। वस्तु हमारे लिए हमेशा के लिए वहां नहीं रहेगी कि हम उसकी ओर आकर्षित हों। जैसे-जैसे मन बदलता है और विकासवादी प्रक्रिया में प्रगति करता है, दुनिया की वस्तुएं भी बदलती हैं। हमारे पास हमेशा चिपके रहने के लिए एक ही चीज नहीं होगी। तो व्यक्तिपरक और वस्तुनिष्ठ रूप से, मन के इंद्रियों की वस्तुओं से लगाव में एक गलती है। यह लगाव दुख का स्रोत है। व्यक्ति द्वारा बनाई गई मनोविज्ञान की उस दुनिया को जीव-सृष्टि, व्यक्तिगत रचना कहा जाता है। यह अंतर चौथे अध्याय में खींचा गया था।


पांचवें अध्याय में उपनिषदों के चार महान वाक्यों के स्पष्टीकरण पर ध्यान केंद्रित किया गया था: प्रज्ञानं ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, तत् त्वम् असि, अयमात्मा ब्रह्मप्रज्ञानं ब्रह्म: चेतना ही ब्रह्म है; वास्तविकता की अंतिम प्रकृति शुद्ध चेतना है। यह ब्रह्म की परिभाषा है जो हमारे पास ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद में है।

अहं ब्रह्मास्मि: हमारे अंदर की मूलभूत चेतना सार्वभौमिक चेतना के समान है। यह यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद में आने वाला एक कथन है। तत् त्वम् असि: तुम वही हो। यह व्यक्ति मूल रूप से निरपेक्ष के समान है। यह सामवेद के छांदोग्य उपनिषद में आने वाला एक कथन है। अयमात्मा ब्रह्म: यह स्वयं वास्तव में, मूल रूप से, मौलिक रूप से ब्रह्म है। यह कथन अथर्ववेद के मांडूक्य उपनिषद में आता है। यह पांचवें अध्याय का सार है।


जब हम छठे अध्याय में प्रवेश करते हैं, तो हम वास्तव में सृष्टि के विषय से शुरू होकर, जिसे एक तस्वीर बनाने की प्रक्रिया से तुलना की गई थी, विचारों के एक बड़े समूह से गुजरते हैं। इस तरह छठा अध्याय शुरू हुआ। सबसे पहले, हमारे पास पेंटिंग के उद्देश्य के लिए एक कैनवास होता है, और फिर कैनवास को स्टार्च के साथ कड़ा किया जाता है; यह दूसरा चरण है। और फिर कड़े कपड़े पर, पेंटिंग के लिए रूपरेखा खींची जाती है। यह तीसरा चरण है। और अंत में, चौथे चरण में स्याही भरी जाती है।

तो सृष्टि भी ऐसी ही है। शुरुआत में, कोई सृष्टि नहीं थी। केवल निरपेक्ष सत्ता थी। हर चीज की वह पृष्ठभूमि जो रचनात्मक प्रक्रिया से दूषित नहीं है, वह ब्रह्म है, निरपेक्ष सत्ता जो सृष्टि करने की इच्छा रखती है, जैसा कि था। वह इच्छा की प्रक्रिया कुछ ऐसी है जैसे चेतना की सार्वभौमिकता को कड़ा करना, जैसे कपड़े को स्टार्च से कड़ा किया जाता है। भविष्य की सृष्टि के प्रति ब्रह्म की इच्छा की एकाग्रता की वह स्थिति ईश्वर की स्थिति है।

और फिर भविष्य की सृष्टि की रूपरेखा खींचना हिरण्यगर्भ-तत्व की स्थिति में है, जहां एक सपने की तरह, हम दुनिया की वस्तुओं को अस्पष्ट रूप से देखते हैं, लेकिन स्पष्ट रूप से नहीं। भविष्य की सृष्टि की रूपरेखा हिरण्यगर्भ-तत्व में देखी जाती है। विराट में, सृष्टि के अंतिम रूप में, पूरी दुनिया होती है और विविधता देखी जाती है।

अब इसके संबंध में विवरण छठे अध्याय का विषय है। ईश्वर, दुनिया और व्यक्ति - ईश्वर, जगत और जीव - इस अध्याय का विषय हैं। ईश्वर अपनी माया शक्ति के माध्यम से इस दुनिया का निर्माण करता है, जो शुद्ध सत्त्व गुण, प्रकृति के संतुलन के गुण का दूसरा नाम है। चूंकि शुद्ध सत्त्व अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक है, उस सत्त्व में प्रतिबिंबित ब्रह्म भी सार्वभौमिक है। इसलिए, ईश्वर सार्वभौमिक है; इसलिए, वह सर्वज्ञ भी है; इसलिए, वह सर्वशक्तिमान भी है। लेकिन जब प्रकृति का सत्त्व रजस और तमस की गतिविधि से डूब जाता है, तो व्यक्तिवादिता पैदा होती है। रजस प्रकृति की विचलित करने वाली शक्ति है। यह चीजों को, एक को दूसरे से विभाजित करती है। तो हम सभी विभाजित हैं। प्रत्येक व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति से अलग है। प्रत्येक परमाणु हर दूसरे परमाणु से अलग है। अलगाव रजस का कार्य है।

यह किया गया है; और इसलिए हर कोई, हर इकाई, हर वस्तु, सोचती है कि वह दूसरे से अलग है। चेतना के इस विभाजन के कारण, और प्रत्येक में व्यक्तिवादिता या अलगाव की भावना के कारण, एक कठिनाई अनायास उत्पन्न होती है - अर्थात्, एक सीमित स्थिति में मौजूद रहने की असंभवता। अलगाव परिमितता की चेतना का कारण बनता है। हर कोई सोचता है, "मैं सीमित हूँ।" अब कौन सीमित होना पसंद करेगा? स्वतंत्रता की सीमा की स्थिति में होना एक दुख है। इस सीमा को ठीक करने के लिए, जो व्यक्ति परिमित है, वह खुद को कुछ कार्यों में लगाता है, जिससे वह दुनिया की वस्तुओं के संपर्क में आता है, और अपने साथ वस्तुओं के समावेश का एक सापेक्ष वातावरण बनाता है।

जब हम बाहर के लोगों या सामान्य रूप से चीजों के साथ सामाजिक रूप में जुड़ते हैं, तो हमारी परिमितता के विस्तारित होने का एक झूठा रूप होता है। हम एक समाज में, एक संगठन के निकाय में, एक राष्ट्र के नागरिक के रूप में अधिक सहज महसूस करते हैं, जब हम पूरी तरह से व्यक्तिगत होते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि राष्ट्र या संगठन ने हमारी परिमितता का विस्तार किया है। व्यक्तित्व के आयाम में एक बाहरी या थोपी गई वृद्धि के कारण सुरक्षा की एक झूठी भावना है। जीवन अंततः एक झूठ है क्योंकि हमें यह झूठा आश्वासन दिया जाता है कि हम बाहरी वस्तुओं और व्यक्तियों और चीजों के साथ जुड़कर इस दुनिया में सुरक्षित हैं, जबकि हम अंततः पूरी तरह से असुरक्षित हैं। हम मूल रूप से परिमित हैं। परिमितता नहीं जाती है।

यह किसी भी प्रकार के बाहरी संपर्क से नहीं जा सकती। यह केवल चेतना के आंतरिककरण से जा सकती है। जो अनंतता हम मांग रहे हैं, वह अनंतता जो परिमितता के विपरीत है जो हम हैं, वह बाहर नहीं है। यह अंदर है। यह स्वत्व में है और, इसलिए, किसी भी प्रकार का बाहरी संपर्क वह सुरक्षा नहीं लाता है जिसकी हम इस दुनिया में तलाश करते हैं।

ईश्वर की सृष्टि की प्रकृति का स्पष्टीकरण समाप्त हो गया है और जीव व्यक्ति की प्रकृति को लिया गया है; और अस्थायी रूप से यह उल्लेख किया गया है कि व्यक्ति या जीव की गलती खुद को अपने व्यक्तित्व, व्यक्तिवादिता से पहचानना है। यह वह विषय है जिस पर हम कल तक चर्चा कर रहे थे।







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