अजातवाद
माण्डूक्य उपनिषद भारतीय दर्शन के अद्वैत वेदांत के प्रमुख ग्रंथों में से एक है, और यह अपनी संक्षिप्तता (केवल बारह मंत्रों के साथ) के बावजूद, वैदिक उपदेशों के सार को समाहित करता है। यह मानव चेतना की चार अवस्थाओं - जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। भगवान राम ने तो मोक्ष प्राप्त करने के लिए केवल माण्डूक्य उपनिषद के गहन अध्ययन की सलाह दी थी।
गौड़पादाचार्य (लगभग 6वीं शताब्दी ईस्वी), जिन्हें आदि शंकराचार्य के परमगुरु के रूप में जाना जाता है, ने माण्डूक्य उपनिषद पर अपनी प्रसिद्ध 'माण्डूक्य कारिका' या 'गौड़पाद कारिका' की रचना की। इसे अद्वैत वेदांत का पहला सुव्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। 'अद्वैत प्रकरण' माण्डूक्य कारिका का तीसरा अध्याय है, जो अद्वैत (गैर-द्वैतवाद) के दर्शन पर केंद्रित है, और यह तर्क एवं शास्त्र दोनों का उपयोग करके ब्रह्म की अद्वैतता को सिद्ध करता है।
अनिर्मितता (अजातवाद) की अवधारणा
'अनिर्मितता' या 'अजातवाद' (Non-origination/Non-creation) गौड़पाद के दर्शन का एक केंद्रीय सिद्धांत है और यह 'अद्वैत प्रकरण' के चार प्रमुख अवधारणाओं में से एक है: अद्वैत (गैर-द्वैत), अजातवाद (गैर-उत्पत्ति), अस्पर्शयोग (गैर-संबंध), और अमनिभाव (मन रहित)।
अजातवाद का शाब्दिक अर्थ है "कोई उत्पत्ति नहीं" या "कोई सृजन नहीं"। गौड़पाद के अनुसार, परमार्थिक सत्य की दृष्टि से, कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं होता है। इसका तात्पर्य यह है कि न तो व्यक्तिगत जीव (आत्मा) और न ही संपूर्ण ब्रह्मांड परम वास्तविकता, तुरीय, से उत्पन्न हुए हैं; बल्कि, वे हमेशा से ही तुरीय रहे हैं। गौड़पाद का यह शिक्षण अद्वैत वेदांत में एक कट्टरपंथी अभिव्यक्ति है, क्योंकि यह किसी भी प्रकार की वास्तविक उत्पत्ति को पूर्ण रूप से अस्वीकार करता है।
अजातवाद अद्वैत के लिए क्यों महत्वपूर्ण है?
अद्वैत सिद्धांत के अनुसार, "ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है"। अजातवाद इस मूलभूत सत्य को स्थापित करने के लिए एक आवश्यक तार्किक आधार प्रदान करता है। इसे इस प्रकार समझाया जा सकता है:
यदि परम वास्तविकता, तुरीय, किसी भी चीज़ का कारण होती और उससे कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैत (द्वैतवाद) उत्पन्न हो जाता।
द्वैत का अर्थ है अंतर, और अंतर का क्षण जन्म, वृद्धि, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु जैसे सभी दुखों का स्रोत है।
अजातवाद यह प्रमाणित करता है कि यदि तुरीय से कोई 'प्रभाव' (effect) उत्पन्न नहीं होता है, तो तुरीय स्वयं किसी चीज़ का 'कारण' (cause) नहीं है। इस प्रकार, यह तुरीय की गैर-द्वैतता को स्थापित करता है।
अजातवाद के लिए तार्किक तर्क
गौड़पाद ने अजातवाद को सिद्ध करने के लिए कई तर्कों और सादृश्यों का उपयोग किया है:
घट-आकाश सादृश्य (Pot-Space Simile):
गौड़पाद व्यक्तिगत जीव (जीवात्मा) की उत्पत्ति की अवास्तविकता को समझाने के लिए घट-आकाश (घड़े में निहित आकाश) का उदाहरण देते हैं।
जिस प्रकार एक घड़े के बनाए जाने पर, ऐसा प्रतीत होता है कि महान आकाश (समग्र स्थान) का एक छोटा सा हिस्सा घड़े के भीतर का आकाश बन गया है, लेकिन वास्तव में आकाश न तो बनता है और न ही नष्ट होता है, उसी प्रकार शरीर के जन्म लेने पर एक व्यक्तिगत चेतना के जन्म लेने का आभास होता है।
यह सादृश्य बताता है कि अनंत चेतना (तुरीय) ही है जो प्रत्येक शरीर के संबंध में व्यक्तिगत रूप से प्रकट होती है। जब शरीर मरता है, तो व्यक्तिगत चेतना मरती नहीं है; केवल शरीर ही नष्ट होता है।
आत्मा (तुरीय) स्वयं अशुद्धियों से प्रभावित नहीं होती, जैसे आकाश धूल या धुएँ से प्रभावित नहीं होता। गौड़पाद यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा जीव का आधार है, न कि उसका कारण।
स्वप्न सादृश्य (Dream Analogy):
यह प्रदर्शित करने के लिए कि बाहरी दुनिया की उत्पत्ति भी वास्तविक नहीं है, गौड़पाद स्वप्न अनुभव का उदाहरण देते हैं।
सपनों में, हम एक पूरी दुनिया का अनुभव करते हैं जिसमें लोग, स्थान, समय और गतिविधियां होती हैं, जो उस समय वास्तविक प्रतीत होती हैं। लेकिन जागने पर, हमें एहसास होता है कि वह सब हमारे मन में था, और कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ था या अलग से मौजूद नहीं था।
इसी प्रकार, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के सभी अनुभव केवल चेतना (तुरीय) में एक आभास (appearance) हैं, जैसे सपने देखने वाले के मन में सभी चीजें उत्पन्न होती हैं और उससे भिन्न नहीं होती हैं।
गौड़पाद यह तर्क देते हैं कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ स्वप्न जैसी हैं, क्योंकि दोनों ही मन की कल्पनाएँ हैं और अंततः अवास्तविक हैं। द्वैत (द्वैतवाद) का अनुभव मन द्वारा होता है; जब मन शांत या अतीत हो जाता है, तो द्वैत का अनुभव नहीं होता।
अजातवाद के लिए शाब्दिक और आगमिक समर्थन
गौड़पाद अपने अजातवाद के तर्कों का समर्थन करने के लिए उपनिषदों से कई संदर्भ देते हैं। कुछ प्रमुख उद्धरण और अवधारणाएँ जो अनिर्मितता का समर्थन करती हैं, वे हैं:
"न इह नाना अस्ति किञ्चन" (इस आत्मा में कोई विविधता नहीं है)।
"इन्द्र मायाभिः" (इंद्र, माया के कारण, अनेक रूप में प्रतीत होते हैं)।
"कः नु एनं जनयेत् इति" (इसे कौन जन्म दे सकता है?) - यह प्रश्नवाचक कथन वास्तविकता के कारणता (causality) को नकारता है।
"नेति नेति" (यह नहीं, यह नहीं) - यह आत्मन की अकथनीयता और सभी अवधारणाओं से परे होने पर जोर देता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि उसे शब्दों या विचारों से परिभाषित नहीं किया जा सकता।
माया और अज्ञान के साथ संबंध
अजातवाद के अनुसार, यदि वास्तविकता से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है, तो संसार का आभास कैसे होता है? इसका उत्तर माया (भ्रम) और अविद्या (अज्ञान) में निहित है।
माया को ब्रह्म की जटिल, मायावी शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है जिसके कारण ब्रह्म विभिन्न रूपों की भौतिक दुनिया के रूप में देखा जाता है।
यह माया ही है जो स्वयं को दो मुख्य तरीकों से व्यक्त करती है: छिपाना (अवारण) और प्रक्षेपण (विक्षेप)।
माया के कारण, जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न समझता है।
'अनिर्मितता' का अर्थ यह नहीं है कि हम मौजूद नहीं हैं, बल्कि यह है कि हम पहले से ही तुरीय हैं और कभी सीमित व्यक्ति नहीं बने हैं। मन ही माया में विचरण करता है। केवल ब्रह्म के ज्ञान (जिसे ज्ञान कहा जाता है) से ही माया नष्ट हो सकती है।
शंकराचार्य के दृष्टिकोण से अंतर
जबकि शंकराचार्य ने गौड़पाद के अद्वैत सिद्धांतों को और विकसित किया, उनके दृष्टिकोण में कुछ सूक्ष्म अंतर हैं:
शंकराचार्य ने वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार किया: परमार्थिक (परम सत्य, ब्रह्म), व्यावहारिक (लेन-देन संबंधी वास्तविकता, जाग्रत दुनिया), और प्रातिभासिक (भ्रमपूर्ण वास्तविकता, जैसे स्वप्न या रस्सी में सांप)।
गौड़पाद, इसके विपरीत, व्यावहारिक और प्रातिभासिक वास्तविकताओं को एक साथ मिला देते हैं और दोनों को केवल 'स्वप्न' या 'आभास' मानते हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि जाग्रत अवस्था भी स्वप्न की तरह ही एक आभास है। यह दृष्टिकोण शंकराचार्य के शिक्षण की तुलना में अधिक कट्टरपंथी माना जाता है।
अनिर्मितता (अजातवाद) के शिक्षण का उद्देश्य
अजातवाद का अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार (Self-realization) और मोक्ष (liberation) प्राप्त करना है।
यह हमें यह समझने में मदद करता है कि दुःख और बंधन द्वैत की धारणा और माया के कारण उत्पन्न होते हैं, वास्तविक कारण से नहीं।
यह इस बात पर जोर देता है कि मुक्ति के लिए मृत्यु तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इस जीवन में रहते हुए भी इसे प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि हम पहले से ही वह तुरीय हैं।
अजातवाद की गहन समझ हमें मन की शुद्धि और एकाग्रता में सहायता करती है, जो अंततः आत्म-बोध की ओर ले जाती है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद का अद्वैत प्रकरण, गौड़पाद के अजातवाद के माध्यम से, यह स्थापित करता है कि परम वास्तविकता (तुरीय) न तो उत्पन्न होती है और न ही कुछ उत्पन्न करती है। जो कुछ भी उत्पन्न होता हुआ प्रतीत होता है, वह केवल माया या अज्ञान के कारण एक आभास मात्र है, और इस सत्य की गहरी समझ ही जीव को दुखों से मुक्ति दिला सकती है।
आत्मन कारण नहीं
उपनिषदों और वेदांत दर्शन में अनिर्मितता (अजातवाद) एक केंद्रीय सिद्धांत है, और आत्मन कारण नहीं का विचार इसी अनिर्मितता के व्यापक संदर्भ में आता है।
अनिर्मितता (अजातवाद) का सिद्धांत अनिर्मितता या अजातवाद गौड़पाद के दर्शन का एक मुख्य सिद्धांत है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'कोई उत्पत्ति नहीं' या 'कोई सृष्टि नहीं'। यह सिद्धांत मानता है कि सृष्टि और व्यक्तिगत जीव (जीवा) की वास्तव में कभी उत्पत्ति नहीं हुई, और वे ब्रह्म से उत्पन्न नहीं हुए हैं। गौड़पाद ने इस विचार को अपने माण्डूक्य कारिका में विस्तार से प्रस्तुत किया है, जिसे अद्वैत वेदांत का पहला सुव्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है।
अजातवाद के अनुसार, परम सत्य तुरीय (चौथी अवस्था) है, और आप स्वयं वही तुरीय हैं; आपने कभी एक सीमित व्यक्ति का रूप नहीं लिया, बल्कि आप हमेशा से तुरीय ही थे। इस दृष्टिकोण से, जिसे गौड़पाद ने 'कट्टरपंथी' अभिव्यक्ति कहा है, संसार और उसकी बहुलता (द्वैत) एक प्रतीति (appearance) मात्र है, जिसकी वास्तव में कभी उत्पत्ति नहीं हुई है। यह सिद्धांत अनिर्मितता पर जोर देता है, जिसके अनुसार 'असत्य का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता; और सत्य का कभी अंत नहीं हो सकता'।
आत्मन कारण नहीं (Atman is not a cause) आत्मन को 'कारण नहीं' (न कारण) कहने का विचार अनिर्मितता के सिद्धांत का एक अनिवार्य प्रमाण है। यदि आत्मन (या तुरीय) को कोई कारण माना जाता, तो उससे कुछ उत्पन्न होता, जिससे अद्वैत (गैर-द्वैतवाद) का सिद्धांत नष्ट हो जाता। आत्मन न तो कोई कार्य है और न ही कोई कारण, वह इन दोनों से परे है।
गौड़पाद ने आत्मन के कारण न होने के विचार को सिद्ध करने के लिए कई तर्क दिए हैं:
जीव की उत्पत्ति का खंडन: गौड़पाद घट-आकाश (बर्तन में बंद आकाश) के दृष्टांत का उपयोग करते हैं। जिस प्रकार बर्तन बनने से आकाश की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार शरीर के जन्म से व्यक्तिगत चेतना (जीव) की उत्पत्ति नहीं होती। चेतना (आत्मन) एक है और वह विभिन्न शरीरों के साथ जुड़ी हुई प्रतीत होती है, लेकिन इन शरीरों या मन में होने वाले परिवर्तनों (जैसे अवसाद या चिंता) से अप्रभावित रहती है, ठीक वैसे ही जैसे बर्तन में मौजूद धुआं भीतर के आकाश को प्रभावित नहीं करता। आत्मन जीव का समर्थन है, लेकिन उसका कारण नहीं।
जगत की उत्पत्ति का खंडन: गौड़पाद स्वप्न के दृष्टांत का भी उपयोग करते हैं। जिस प्रकार स्वप्न में अनुभव किया गया जगत (लोग, स्थान, समय, गतिविधियाँ) केवल स्वप्न देखने वाले के मन में एक प्रतीति मात्र होता है और वास्तविक नहीं होता, उसी प्रकार जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं में अनुभव किया जाने वाला यह संपूर्ण प्रपंच (ब्रह्मांड) आत्मन की चेतना में एक प्रतीति मात्र है, कोई नई या द्वितीय चीज़ नहीं जो उससे उत्पन्न हुई हो। गौड़पाद यह तर्क देते हैं कि 'मन ही द्वैत है'। जब मन शांत हो जाता है या उसका अतिक्रमण हो जाता है, तो द्वैत की अनुभूति नहीं होती।
माया के माध्यम से प्रतीति: सृष्टि की उत्पत्ति माया (अविद्या) के कारण ही प्रतीत होती है, न कि वास्तव में। माया ब्रह्म की एक जटिल मायावी शक्ति है, जिसके कारण ब्रह्म अनेक रूपों के भौतिक जगत के रूप में देखा जाता है। यदि कोई वस्तु वास्तविक अर्थों में उत्पन्न होती है, तो वह केवल माया के माध्यम से ही संभव है, क्योंकि सत्य (वास्तविक) तो जन्मरहित है। असत्य का जन्म तो और भी अतार्किक है, क्योंकि असत्य का कोई अस्तित्व ही नहीं होता, तो वह उत्पन्न कैसे हो सकता है।
अकारण ब्रह्म: परम ब्रह्म को कारण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके कोई कार्य नहीं हैं, और जब सब कुछ इसके साथ अभिन्न हो, तो इसे किसी का कारण कहना उचित नहीं है। ईश्वरत्व (सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर) भी एक सापेक्ष परिभाषा है, जो ब्रह्मांड के संबंध में दी जाती है। ब्रह्म अपने शुद्ध स्वरूप में निर्गुण (गुणरहित) है, और यह ज्ञाता का सार है, यह द्रष्टा (देखने वाला), तुरीय (पारलौकिक) और मूक साक्षी (मौन गवाह) है।
अनिर्मितता और आत्मन के अकारण होने का संबंध आत्मन का कारण न होना सीधे तौर पर अनिर्मितता (अजातवाद) के सिद्धांत को पुष्ट करता है। चूंकि आत्मन से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, इसलिए वास्तव में कोई सृष्टि नहीं है, बल्कि केवल एक प्रतीति है। यह दृष्टिकोण मानता है कि जीव कभी पैदा नहीं होता, क्योंकि वह हमेशा तुरीय ही रहता है।
शंकराचार्य भी गौड़पाद के सिद्धांतों को मानते हैं, हालांकि वह एक 'विश्व-गुरु' के रूप में व्यावहारिक रियायतें देते हैं। शंकराचार्य वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: परमार्थिक (परम सत्य, ब्रह्म/तुरीय), व्यावहारिक (लेन-देन की वास्तविकता, जाग्रत जगत), और प्रतिभासिक (भ्रामक, स्वप्न/रस्सी में सांप)। गौड़पाद, हालांकि, व्यावहारिक और प्रतिभासिक दोनों को एक ही 'प्रतीति' (स्वप्न या प्रतिभासिक) के रूप में मानते हैं, क्योंकि दोनों ही आत्मन में प्रकट होने वाले प्रतीतियाँ हैं।
संक्षेप में, अजातवाद का मूल यह है कि आत्मन अविनाशी, जन्मरहित, अपरिवर्तनशील और दोषरहित है, और चूंकि आत्मन किसी भी चीज़ का कारण नहीं है, इसलिए सृष्टि एक वास्तविक घटना नहीं है, बल्कि माया द्वारा उत्पन्न एक प्रतीति मात्र है जो अंततः आत्मन के ज्ञान से विलीन हो जाती है।
जीव का जन्म नहीं हुआ
मांडूक्य उपनिषद और अद्वैत वेदांत दर्शन के अनुसार, जीव का जन्म नहीं हुआ है, यह अनिर्मितता (अजातवाद) के केंद्रीय सिद्धांतों में से एक है। अनिर्मितता या अजातवाद, गौड़पाद के दर्शन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसका अर्थ है कोई उत्पत्ति नहीं, कोई सृष्टि नहीं।
अनिर्मितता के सिद्धांत के तहत जीव की वास्तविकता को समझने के लिए, स्रोतों में निम्नलिखित बातें बताई गई हैं:
ब्रह्म की अनिर्मितता
अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है। यह अविनाशी, पूर्ण और अपरिवर्तनशील है।
आत्मा (स्वयं या तुरीय) कारण नहीं है। यदि तुरीय किसी चीज़ का कारण होता और उससे कोई दूसरी चीज़ उत्पन्न होती, तो द्वैतता आ जाती और अद्वैतता नष्ट हो जाती। गौड़पाद कहते हैं कि यदि परम वास्तविकता ब्रह्म से कुछ उत्पन्न होता है, जैसे कि संसार या व्यक्तिगत जीव, तो द्वैतता शुरू हो जाती है।
कोई प्रभाव नहीं, कोई कारण नहीं: तुरीय का कोई प्रभाव नहीं होता है और इसलिए वह कोई कारण भी नहीं है। इसका अर्थ है कि संसार और जीव वास्तव में तुरीय से उत्पन्न नहीं हुए हैं, भले ही वे प्रकट होते हों।
जीव और संसार का स्वरूप
अद्वैत मत के अनुसार, जगत् (संसार) मिथ्या (झूठा) है, केवल एक प्रतीति है। यह चेतना से अलग कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं है।
जीव, या व्यक्तिगत आत्मा, को ब्रह्म से भिन्न नहीं माना जाता है। माया या अविद्या के कारण ही ब्रह्म जीव कहलाता है और अविद्या के कारण ही जीव खुद को ब्रह्म से भिन्न समझता है। माया ब्रह्म की मायावी शक्ति है जिससे ब्रह्म को विभिन्न रूपों और भौतिक दुनिया के रूप में देखा जाता है।
गौड़पाद के अनुसार, द्वैतता संसार का मूल है। जब मन सक्रिय होता है, तब संसार मौजूद होता है। जब मन का अतिक्रमण हो जाता है (मनोनिग्रह), तो द्वैतता अनुभव नहीं होती।
उदाहरण और तर्क
घट-आकाश का दृष्टांत: जिस प्रकार एक घड़े के अंदर का आकाश (घट-आकाश) विशाल आकाश से अलग उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार जीव भी आत्मा से उत्पन्न नहीं होते। घड़े में पानी भरने या धुआं भरने से घट-आकाश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार आत्मा पर माया या संसार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
स्वप्न का दृष्टांत: स्वप्न में देखे गए अनुभव वास्तविक नहीं होते और स्वप्न देखने वाले के मन के भीतर ही प्रकट होते हैं। इसी तरह, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की सभी अवस्थाएँ तुरीय चेतना में केवल प्रतीति मात्र हैं, और कोई दूसरी चीज़ वास्तव में उत्पन्न नहीं हुई है। गौड़पाद का दृष्टिकोण अधिक कट्टरपंथी है, वे जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को "स्वप्न-तुल्य" मानते हैं, क्योंकि दोनों ही मात्र प्रतीतियाँ हैं।
रस्सी-सर्प का दृष्टांत: जिस प्रकार अँधेरे में रस्सी को सर्प समझ लिया जाता है, उसी प्रकार इस भ्रम या अविद्या के कारण जीव इस मिथ्या संसार को सत्य मान लेता है। सर्प का अस्तित्व रस्सी पर आरोपित है, और रस्सी के ज्ञान से सर्प का भ्रम दूर हो जाता है।
काष्ठ-मेज का दृष्टांत: जैसे मेज या कुर्सी काठ के अतिरिक्त कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखती है, बल्कि वह काठ का ही एक नाम और रूप है, वैसे ही जीव या संसार आत्मा से भिन्न कोई दूसरी वस्तु नहीं है। यह अजातवाद (अनिर्मितता) का उदाहरण है।
उपाधियों का प्रभाव: आत्मा जन्म-मृत्यु से रहित है। सुख-दुख, पाप-पुण्य और जन्म-मृत्यु जीव की उपाधियों (शरीर, मन, बुद्धि) के कारण होते हैं, न कि आत्मा के कारण। आत्मा स्वयं शुद्ध और निर्मल है।
तुरीय अवस्था
तुरीय (चौथी अवस्था) को ही आत्मा या ब्रह्म कहा गया है। यह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से परे है।
तुरीय को विश्वहीन (worldless) और घटनाओं की समाप्ति के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई बाहरी वस्तु या घटना मौजूद नहीं है। यह द्वैतता से रहित है।
कोई स्तर नहीं: तुरीय के कोई "स्तर" नहीं होते हैं; यह केवल तुरीय की अभिव्यक्ति या एकीकरण के विभिन्न स्तर हैं।
संक्षेप में, अजातवाद यह बताता है कि जीव कभी उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि आत्मा (जो जीव का वास्तविक स्वरूप है) अनिर्मित, नित्य और परिवर्तन रहित है। जो कुछ भी उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है, वह माया के कारण एक प्रतीति मात्र है, जिसका आत्मा पर कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ता। यह उपनिषदों का मूल सार है, जिसका उद्देश्य जीव को उसकी वास्तविक, अनिर्मित प्रकृति का बोध कराना है।
ब्रह्मांड की उत्पत्ति नहीं हुई
अद्वैत वेदांत दर्शन में ब्रह्मांड की उत्पत्ति नहीं हुई है (नास्ति सृष्टिः) का सिद्धांत, जिसे अनिर्मितता या अजातवाद के नाम से जाना जाता है, गौड़पाद के मांडूक्य कारिका का एक केंद्रीय और मौलिक पहलू है। यह सिद्धांत बताता है कि कोई नई चीज उत्पन्न नहीं हुई है।
यहाँ विभिन्न स्रोतों से अजातवाद के संदर्भ में ब्रह्मांड की उत्पत्ति न होने संबंधी जानकारी दी गई है:
अजातवाद की मूल अवधारणा:
अजातवाद का अर्थ है कोई उत्पत्ति नहीं या कोई सृष्टि नहीं। गौड़पाद इस सिद्धांत के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसके अनुसार न तो जीवात्माओं की वास्तव में उत्पत्ति हुई है और न ही ब्रह्मांड की। इसका मतलब यह नहीं है कि हम या दुनिया मौजूद नहीं हैं, बल्कि यह है कि हम हमेशा से ही तुरीय हैं।
शंकर के अनुसार, अद्वैत वेदांत में ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या है। माया के कारण जगत एक दिखावा या प्रकट होना (appearance) मात्र है।
मुक्ति उपनिषद में भगवान राम ने हनुमान को मोक्ष (कैवल्य) प्राप्त करने के लिए केवल मांडूक्य उपनिषद के गहन अध्ययन की सलाह दी थी, क्योंकि इसमें सम्पूर्ण वैदिक शिक्षा का सार निहित है। यह इसकी मूलभूत शिक्षा के महत्व को दर्शाता है।
तर्क और प्रमाण:
तुरीय कारण नहीं है: अजातवाद का प्रमाण इस बात पर आधारित है कि तुरीय (चौथी अवस्था) कोई कारण नहीं है। यदि तुरीय किसी चीज़ का कारण होता और उससे कोई दूसरा पदार्थ उत्पन्न होता, तो द्वैत (द्वैतता) का सिद्धांत टूट जाता। तुरीय से कोई प्रभाव उत्पन्न नहीं होता, इसलिए यह कारण नहीं है, और इस प्रकार, यह अद्वैत है।
जगत् एक दिखावा है: गौड़पाद तर्क देते हैं कि जगत् एक दिखावा या झूठा (appearance) है, कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं। यह पांच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) से बना है।
स्वप्न का उदाहरण: गौड़पाद और शंकराचार्य दोनों ही यह समझाने के लिए स्वप्न का उदाहरण देते हैं कि जाग्रत अवस्था का अनुभव भी स्वप्न के समान मिथ्या है। जिस प्रकार स्वप्न में अनुभव की गई दुनिया हमारे ही मन में होती है और जागने पर अवास्तविक सिद्ध होती है, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था की दुनिया भी चेतना में एक दिखावा मात्र है।
गौड़पाद जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को "स्वप्न के समान" मानते हैं, क्योंकि दोनों ही दिखावे हैं। जब मन को अमन की स्थिति में प्राप्त किया जाता है, तो द्वैतता (duality) नहीं दिखती।
घट-आकाश का दृष्टांत: जिस प्रकार एक घड़े में बंद आकाश (घट-आकाश) बड़े आकाश से भिन्न नहीं है और घड़े के टूटने पर घट-आकाश बड़े आकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार व्यक्तिगत आत्माएं (जीव) भी ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं। आकाश पर घड़े के अंदर की गंदगी या धुआँ का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसी तरह चेतना पर उसमें दिखने वाले अनुभवों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
वास्तविक और अवास्तविक की प्रकृति: जो अजन्मा और अमर है, वह नश्वर नहीं हो सकता। वास्तविक चीज़ जन्म नहीं लेती और अवास्तविक चीज़ का अस्तित्व नहीं होता। यह भगवद्गीता (2.16) के श्लोक से मेल खाता है: "असद का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता; और सद कभी भी अस्तित्वहीन नहीं हो सकता।"।
माया की भूमिका: सृष्टि की उत्पत्ति केवल माया के माध्यम से संभव है, वास्तविकता के दृष्टिकोण से नहीं। माया ब्रह्म की "जटिल मायावी शक्ति" है जिसके कारण ब्रह्म विभिन्न रूपों के भौतिक संसार के रूप में दिखाई देता है। माया को अविद्या, अज्ञान, या अव्यक्त भी कहा जाता है।
श्रुति प्रमाण (शास्त्रों का समर्थन): गौड़पाद अपने तर्कों के समर्थन में उपनिषदों का उपयोग करते हैं। वे द्वैत को निंदा करते हैं और अद्वैत की प्रशंसा करते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद और तैत्तिरीय उपनिषद जैसे ग्रंथ, जीव और ब्रह्म की अभिन्नता और सृष्टि की अप्रवास्तविकता का समर्थन करते हैं। वे "यह नहीं, यह नहीं" (नेति नेति) जैसे सूत्रों का उपयोग करके वास्तविकता को समझने योग्य हर चीज़ को नकारते हैं।
गौड़पाद और शंकर के दृष्टिकोण में अंतर:
गौड़पाद का अजातवाद: गौड़पाद का अजातवाद अधिक कट्टरपंथी है। वे कोई रियायत नहीं देते और जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं को मिथ्या मानते हैं। उनके लिए, दुनिया का दिखावा भी कभी अस्तित्व में नहीं आया।
शंकर का व्यावहारिक दृष्टिकोण: आदि शंकराचार्य, जो गौड़पाद के सिद्धांतों पर आधारित अपने अद्वैत दर्शन के लिए जाने जाते हैं, यथार्थ के तीन स्तर (प्रातिभासिक, व्यावहारिक, और पारमार्थिक) स्वीकार करते हैं।
प्रातिभासिक भ्रम या स्वप्न अवस्था की वास्तविकता है (जैसे रस्सी में साँप)।
व्यावहारिक जाग्रत अवस्था की लेनदेन संबंधी वास्तविकता है।
पारमार्थिक ब्रह्म या तुरीय की परम वास्तविकता है।
शंकर का मानना है कि दुनिया की सापेक्ष वास्तविकता है, जो हमें मोक्ष की ओर ले जाने में सहायता करती है। वे कहते हैं कि भक्तों की भक्ति, पूजा और वैदिक बलिदान व्यक्ति को सच्चे ज्ञान की दिशा में ले जा सकते हैं, हालांकि सीधे मोक्ष तक नहीं।
मन और चेतना की भूमिका:
सारा द्वैत मन द्वारा देखा जाता है। जब मन को पार कर लिया जाता है या "अमन" की स्थिति प्राप्त होती है, तो द्वैत की धारणा समाप्त हो जाती है। मन की अशांति को दूर करने से उसके आधार, जो कि हमारा अपना आंतरिक आत्मा है, का पता चलता है।
तुरीय/आत्मन/ब्रह्मन् की प्रकृति:
तुरीय चेतना की चौथी अवस्था है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है।
यह अद्वैत है, अर्थात इसमें कोई द्वैतता या बहुलता नहीं है।
यह अजन्मा, अपरिवर्तनीय, शांत, शुभ (सभी बुराईयों से मुक्त), और वर्णनातीत है।
यह जाना जाने वाला (ज्ञेय) ब्रह्म है, जो अजन्मा और नित्य है। आत्मन को ब्रह्मांड की एकमात्र वास्तविकता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह चेतना ही अस्तित्व-चेतना-आनंद (सत्-चित्-आनंद) के रूप में जानी जाती है।
संक्षेप में, अजातवाद का अर्थ है कि ब्रह्मांड की कोई वास्तविक उत्पत्ति नहीं हुई है, बल्कि यह ब्रह्म में एक दिखावा मात्र है, ठीक उसी तरह जैसे स्वप्न एक दिखावा होता है। यह दिखावा माया के कारण उत्पन्न होता है, और जब अज्ञान का नाश होता है, तो यह दिखावा भी समाप्त हो जाता है, और केवल अद्वैत ब्रह्म ही शेष रहता है। गौड़पाद इसे अधिक कठोरता से देखते हैं, जबकि शंकर व्यावहारिक स्तर पर दुनिया की सापेक्ष वास्तविकता को स्वीकार करते हैं।
उदाहरण: घट-आकाश और महाकाश
मांडूक्य उपनिषद और गौड़पाद कारिका अनिर्मितता (अजातवाद) के सिद्धांत को समझाने के लिए घट-आकाश और महाकाश के उदाहरण का प्रमुखता से उपयोग करते हैं, जो अद्वैत वेदांत का एक मौलिक पहलू है। अजातवाद यह सिखाता है कि कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है, और ब्रह्मांड या जीव के रूप में जो कुछ भी प्रतीत होता है वह केवल एक दिखावा या भ्रम है।
घट-आकाश और महाकाश का उदाहरण:
उदाहरण: इस दृष्टांत में, महाकाश (कुल, असीमित आकाश) परम वास्तविकता, ब्रह्म या आत्मन का प्रतिनिधित्व करता है। घट-आकाश (घड़े के भीतर की सीमित जगह) व्यक्तिगत चेतना, जीव का प्रतिनिधित्व करता है।
सार: जब एक घड़ा बनाया जाता है, तो ऐसा लगता है कि घड़े के अंदर एक नई जगह या "घट-आकाश" बन गया है। हालांकि, वास्तव में, अंतरिक्ष को बनाया नहीं गया है या घड़े के बनने से उत्पन्न नहीं हुआ है; यह सिर्फ असीमित महाकाश का एक हिस्सा है जिसे एक सीमा (घड़ा) द्वारा सीमित प्रतीत होता है।
जीव और आत्मन के लिए अनुप्रयोग: इसी तरह, जब एक शरीर का जन्म होता है, तो ऐसा लगता है कि एक व्यक्तिगत चेतना या जीव उत्पन्न हुआ है। परंतु, अद्वैत वेदांत के अनुसार, जीव वास्तव में आत्मन (असीमित चेतना) से उत्पन्न नहीं होता है। यह केवल अनंत चेतना (तुरीय) ही है जो प्रत्येक शरीर के साथ जुड़कर एक व्यक्तिगत जीव के रूप में प्रकट होती है।
भ्रम बनाम वास्तविकता: घड़े में होने वाले परिवर्तन (जैसे उसका धुँधला होना, बड़ा होना, बूढ़ा होना, या टूटना) उसके भीतर के स्थान को प्रभावित नहीं करते हैं। इसी प्रकार, जीव के अनुभव – चाहे वे खुशी, दुख, चिंता, अवसाद, या कर्म के परिणाम हों – शुद्ध चेतना या आत्मन को प्रभावित नहीं करते हैं। आत्मन इन सभी परिवर्तनों और अनुभवों का साक्षी रहता है, स्वयं उनसे अछूता रहता है।
अनिर्मितता (अजातवाद) के संदर्भ में: यह दृष्टांत अजातवाद के सिद्धांत को सुदृढ़ करता है कि वास्तविकता से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है:
गैर-उत्पत्ति का प्रमाण: गौड़पाद इस दृष्टांत का उपयोग यह साबित करने के लिए करते हैं कि तुरीय या ब्रह्म किसी भी चीज़ का कारण नहीं है। यदि ब्रह्म से कुछ भी 'दूसरा' उत्पन्न होता, तो द्वैतता (दोहरापन) उत्पन्न हो जाती, और अद्वैतता (गैर-द्वैत) का सिद्धांत खंडित हो जाता। चूंकि द्वैतता स्वयं एक भ्रम है, इसलिए ब्रह्म से कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है।
ब्रह्मांड की मिथ्यात्वता: जिस प्रकार घट-आकाश महाकाश का एक अलग रूप मात्र है, उसी प्रकार ब्रह्मांड और उसमें मौजूद सभी रूप ब्रह्म की माया के कारण उत्पन्न होने वाले मात्र दिखावे हैं। ये वास्तविकता नहीं हैं, बल्कि केवल अनुभवजन्य सत्य हैं जो भ्रम के रूप में प्रकट होते हैं, जैसे सपने।
आत्मा की प्रकृति: आत्मन न तो किसी प्रभाव का कारण है और न ही स्वयं एक प्रभाव है। यह अपरिवर्तनीय है, अविभाज्य है, और इसमें कोई दोष या अपवित्रता नहीं है। यह द्रष्टा है, जो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति जैसी सभी अवस्थाओं को प्रकाशित करता है, फिर भी स्वयं किसी भी अवस्था से अप्रभावित रहता है।
अज्ञान का निवारण: जीव और ब्रह्म के बीच कथित भिन्नता अज्ञान (अविद्या) के कारण है। जब यह अज्ञान दूर हो जाता है, तो जीव यह महसूस करता है कि वह हमेशा से ही तुरीय या ब्रह्म रहा है, और उसने कभी भी एक अलग इकाई के रूप में जन्म नहीं लिया है। यह अहसास "अहम् ब्रह्मास्मि" ("मैं ब्रह्म हूँ") के माध्यम से होता है, जिससे जीव का "जीवत्व" नष्ट हो जाता है।
संक्षेप में, घट-आकाश और महाकाश का दृष्टांत अनिर्मितता (अजातवाद) के केंद्रीय विचार को स्पष्ट करता है कि व्यक्तिगत आत्मा (जीव) और संपूर्ण ब्रह्मांड, परम वास्तविकता (ब्रह्म) से उत्पन्न नहीं हुए हैं, बल्कि केवल उसमें प्रकट होने वाले भ्रम हैं। चेतना सदैव एक और अविभाजित रहती है, जो सभी रूपों और अनुभवों का आधार है, लेकिन स्वयं उनसे अप्रभावित है।
उदाहरण: रस्सी और सांप
अद्वैत वेदांत में "रस्सी और सांप" (रस्सी और सांप) का दृष्टांत अनिर्मितता, जिसे अजातवाद भी कहा जाता है, के सिद्धांत को समझाने के लिए एक केंद्रीय रूपक है। यह दृष्टांत माया (मिथ्या) की अवधारणा और वास्तविकता की अपरिवर्तनीय प्रकृति पर जोर देता है।
रस्सी और सांप का दृष्टांत: यह दृष्टांत बताता है कि संसार, अपनी सभी विविधताओं और द्वैत के साथ, परम वास्तविकता, ब्रह्म या आत्मन् पर आरोपित एक प्रतीति (मिथ्या) मात्र है। यह ठीक वैसा ही है जैसे मंद प्रकाश में देखी गई सांप की प्रतीति वास्तव में एक रस्सी पर आधारित भ्रम है। सांप (मायावी संसार) अपनी प्रतीकात्मक वास्तविकता को रस्सी (ब्रह्म) से उधार लेता है, जिसका अर्थ है कि अस्तित्व स्वयं आत्मन् की अंतर्निहित उपस्थिति पर निर्भर करता है। जिस क्षण सच्चा ज्ञान (ज्ञान का "प्रकाश") उदय होता है, सांप का भ्रम दूर हो जाता है, और रस्सी अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो जाती है। इसी तरह, ब्रह्म की प्राप्ति के साथ, संसार की प्रतीकात्मक वास्तविकता विलीन हो जाती है, और यह समझा जाता है कि यह आत्मन् से कभी वास्तव में अलग नहीं था।
अजातवाद (अनिर्मितता) से संबंध: रस्सी और सांप का दृष्टांत गौड़पाद के अजातवाद से मौलिक रूप से जुड़ा हुआ है, जो अद्वैत वेदांत का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। अजातवाद यह दावा करता है कि कुछ भी कभी वास्तव में उत्पन्न नहीं होता, निर्मित नहीं होता, या अस्तित्व में नहीं आता।
कोई वास्तविक सृष्टि नहीं: तुरीय (चेतना की चौथी अवस्था, जो ब्रह्म के समान है) के परम दृष्टिकोण से, कोई दूसरी वस्तु ऐसी नहीं है जो उससे उत्पन्न हुई हो। यदि ब्रह्म किसी प्रभाव (संसार या व्यक्तिगत जीव) को उत्पन्न करने वाला कारण होता, तो स्वाभाविक रूप से द्वैत उत्पन्न होता, जो परम वास्तविकता के अद्वैत स्वरूप के विपरीत होता। अजातवाद तर्क देता है कि ब्रह्मांड और व्यक्तिगत आत्माओं (जीवों) की "सृष्टि" या "उत्पत्ति" केवल एक प्रतीति (मिथ्या) है, कोई वास्तविक घटना नहीं है।
प्रतीत बनाम वास्तविक: जिस प्रकार सांप कभी रस्सी से वास्तव में "उत्पन्न" नहीं होता, बल्कि रस्सी पर एक भ्रम होता है, उसी प्रकार संसार कभी ब्रह्म से वास्तव में "उत्पन्न" नहीं होता, बल्कि माया या अज्ञान (अविद्या) के कारण ब्रह्म पर प्रतीत होता है। घटाकाश (घड़े के भीतर का आकाश) और महाकाश (समग्र आकाश) का दृष्टांत इसे और स्पष्ट करता है: घड़ा बनने पर उसके भीतर का आकाश "निर्मित" नहीं होता; यह अनंत आकाश ही है जो सीमित प्रतीत होता है। इसी तरह, शरीर के जन्म से व्यक्तिगत चेतना निर्मित नहीं होती; यह अनंत तुरीय चेतना ही है जो व्यक्ति के रूप में प्रकट होती है।
प्रकृति अपरिवर्तित रहती है: अजातवाद का मूल यह है कि वास्तविकता (ब्रह्म) की आंतरिक प्रकृति कभी नहीं बदल सकती। एक अमर कभी नश्वर नहीं हो सकता, और अजन्मा कभी वास्तव में जन्म नहीं ले सकता। इसलिए, phenomenal संसार में अनुभव किए जाने वाले प्रतीत होने वाले जन्म, विकास, क्षय और मृत्यु केवल मायावी प्रतीति (सांप की तरह) से संबंधित हैं, न कि अपरिवर्तनीय वास्तविकता (रस्सी) से।
द्वैत के निहितार्थ: यह दृष्टिकोण द्वैत को मौलिक रूप से अवास्तविक मानता है। द्वैत, जिसमें समय, स्थान, कार्य-कारण और व्यक्तिगत पहचान के भेद शामिल हैं, को माया या मन की वस्तुनिष्ठ प्रवृत्ति का परिणाम माना जाता है। "अनिर्मितता" की अवधारणा ही ब्रह्म से अलग किसी भी वास्तविक दूसरी इकाई के अस्तित्व के आधार को समाप्त कर देती है। यदि आप द्वैत की कल्पना करते हैं, तो आत्म-साक्षात्कार पर यह विलीन हो जाएगा।
संक्षेप में, रस्सी और सांप का दृष्टांत अजातवाद के अद्वैत शिक्षण को सशक्त रूप से दर्शाता है: संसार, सांप की तरह, कोई विशिष्ट, उत्पन्न वास्तविकता नहीं है, बल्कि एकमात्र, अजन्मा और अपरिवर्तनीय परम वास्तविकता, ब्रह्म (रस्सी) पर आरोपित एक मायावी प्रतीति है। यह समझ दुखों का अंत करती है क्योंकि यह बताती है कि कथित सीमाएं और द्वैत कभी वास्तव में मौजूद नहीं थे।
उदाहरण: स्वप्न जगत
अद्वैत वेदांत में अनिर्मितता (अजातवाद) के व्यापक संदर्भ में स्वप्न जगत का उदाहरण एक केंद्रीय भूमिका निभाता है, जो यह दर्शाता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति वास्तविक नहीं है, बल्कि एक प्रतीति मात्र है।
अनिर्मितता (अजातवाद) का सार: अजातवाद (अनिर्मितता) अद्वैत वेदांत का एक मौलिक सिद्धांत है, जो यह प्रतिपादित करता है कि परम सत्य (तुरिया/ब्रह्म) से किसी भी वस्तु की वास्तव में उत्पत्ति नहीं हुई है। इस सिद्धांत के अनुसार, कुछ भी "उत्पन्न" नहीं हुआ है, क्योंकि यदि तुरिया से कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैत (द्वैतता) का उदय होता, जो परम अद्वैत सत्य के विपरीत होगा और संसार का कारण बनेगा। गौड़पाद दर्शन में अजातवाद का अर्थ है कि कोई जीव वास्तव में पैदा नहीं हुआ है, और न ही ब्रह्मांड वास्तव में उत्पन्न हुआ है; इसके बजाय, जीव स्वयं ही तुरिया हैं।
स्वप्न जगत का उदाहरण और अनिर्मितता: गौड़पाद और अन्य वेदान्ती विद्वान स्वप्न जगत (ड्रीम वर्ल्ड) को इस अनिर्मितता के सिद्धांत को समझाने के लिए एक शक्तिशाली दृष्टांत के रूप में उपयोग करते हैं:
प्रतीतियाँ मात्र: जिस प्रकार स्वप्न की अनुभूतियाँ स्वप्न देखते समय वास्तविक प्रतीत होती हैं, लेकिन जागने पर वे पूरी तरह से अवास्तविक मानी जाती हैं और केवल मन में घटित होती हैं। स्वप्न जगत, अपने सभी स्थान, समय, वस्तुओं और गतिविधियों के साथ, स्वप्न देखने वाले के मन के भीतर एक प्रतीति है।
जागृत और स्वप्न अवस्थाओं का एकीकरण: गौड़पाद जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं के बीच के अंतर को समाप्त कर देते हैं, यह दर्शाते हुए कि दोनों ही स्वप्न जैसी प्रतीतियाँ हैं। उनका तर्क है कि जिस प्रकार स्वप्न की दुनिया हमारे मन की एक रचना है और जागने पर निराधार सिद्ध होती है, उसी प्रकार जागृत दुनिया भी तुरीय चेतना में एक प्रतीति मात्र है।
वास्तविक उत्पत्ति का अभाव: स्वप्न का उदाहरण यह स्पष्ट करता है कि स्वप्न देखने वाले के मन से कोई "दूसरी चीज" वास्तव में उत्पन्न नहीं हुई थी; यह केवल एक प्रतीति थी। इसी प्रकार, अजातवाद के अनुसार, तुरिया से कोई ब्रह्मांड या व्यक्तिगत जीव वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है; ये सभी केवल प्रतीतियाँ हैं जो तुरिया में उत्पन्न और विलीन होती प्रतीत होती हैं।
द्वैत का भंग: गौड़पाद का मुख्य तर्क यह है कि यदि जागृत दुनिया को स्वप्न की तरह अवास्तविक माना जाए, तो द्वैतता (द्वैत भाव) का खंडन हो जाता है, क्योंकि अंतरिक्ष, समय और कार्य-कारण जैसे सभी परिवर्तन और भेद द्वैत के अंतर्गत आते हैं। अजातवाद यह स्थापित करता है कि तुरिया न तो कारण है और न ही कार्य, और इस प्रकार कोई दूसरा या उत्पन्न होने वाला अस्तित्व नहीं है।
दृष्टि-सृष्टि वाद: यह विचार कि दुनिया केवल मन में मौजूद है (दृष्टि-सृष्टि वाद), स्वप्न सादृश्य पर आधारित है और इसे विशेष रूप से ध्यान करने वालों के लिए एक प्रभावी मॉडल माना जाता है। इस दृष्टिकोण में, चेतना में प्रकट होने वाली कोई भी चीज चेतना से प्रभावित नहीं होती, ठीक उसी तरह जैसे दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिंब दर्पण को प्रभावित नहीं करता।
समस्त घटनाओं का विराम: तुरिया को समस्त घटनाओं का विराम कहा गया है। इसका अर्थ है कि इसमें कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, और इसका वस्तुओं या घटनाओं से कोई संबंध नहीं है।
शंकराचार्य का दृष्टिकोण: जबकि गौड़पाद जागृत और स्वप्न अवस्थाओं को एक समान मानते हैं, शंकराचार्य वास्तविकता के विभिन्न स्तरों को स्वीकार करते हैं: प्रतीभासिक (स्वप्न/भ्रम) और व्यावहारिका (जागृत/लेन-देन संबंधी)। ये दोनों स्तर परमार्थिक (ब्रह्म/तुरिया) की तुलना में अंततः मिथ्या हैं। फिर भी, शंकराचार्य भी यह सिखाते हैं कि ब्रह्मांड में सभी वस्तुएं मन द्वारा निर्मित होती हैं।
संक्षेप में, स्वप्न जगत का उदाहरण अद्वैत वेदांत में एक महत्वपूर्ण उपकरण है जो यह दर्शाता है कि जिस ब्रह्मांड का हम अनुभव करते हैं, वह जागृत अवस्था सहित, अंततः एक प्रतीति है, न कि परम सत्य से वास्तविक सृष्टि। यह अजातवाद के सिद्धांत का समर्थन करता है कि आत्मन (तुरिया) अजन्मा है और इससे कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं होता है।
मन का नियंत्रण
अद्वैत वेदांत में मन का नियंत्रण (मनोनिवृत्ति) अनिर्मितता (अजातवाद) के व्यापक संदर्भ में एक केंद्रीय अवधारणा है, जहाँ यह माना जाता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति वास्तव में नहीं हुई है, बल्कि यह केवल एक प्रतीति मात्र है। माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद की कारिकाएँ इस सिद्धांत को समझाने के लिए मन और स्वप्न जगत के उदाहरण का व्यापक रूप से उपयोग करती हैं।
माण्डूक्य उपनिषद् और अद्वैत प्रकरण का संदर्भ: माण्डूक्य उपनिषद् सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है, जिसमें केवल बारह श्लोक हैं, फिर भी इसे पूरे वेदांत के सार के रूप में माना जाता है। यह चेतना की चार अवस्थाओं - जाग्रत (जागना), स्वप्न (स्वप्न देखना), सुषुप्ति (गहरी नींद) और तुरीय (चौथी, पारलौकिक अवस्था) का विस्तार से वर्णन करता है। गौड़पाद की माण्डूक्य कारिका, विशेष रूप से इसका तीसरा अध्याय जिसे अद्वैत प्रकरण कहा जाता है, आत्मन की अद्वैतता (गैर-द्वैतता) को तार्किक रूप से और शास्त्रों के समर्थन से सिद्ध करता है।
मन का नियंत्रण और इसका महत्व: अद्वैत वेदांत में मन का नियंत्रण आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। इसका उद्देश्य मन की अस्थिरता को शांत करना है, जो द्वैत की धारणा का मूल कारण है, और अंततः "अमनस्क" या "अमनीभाव" की स्थिति तक पहुँचना है।
मन की द्वैत और प्रतीति के रूप में भूमिका:
द्वैत का स्रोत: स्रोत बताते हैं कि मन ही वह साधन है जिसके माध्यम से हम सभी द्वैत का अनुभव करते हैं। जो कुछ भी हम देखते हैं, चाहे वह जड़ वस्तुएँ हों या जीवित प्राणी, वह मन द्वारा देखा गया द्वैत है।
प्रतीति और अध्यारोप: मन ही इस संसार की सभी चीजों का निर्माण करता है। जब मन सक्रिय होता है, तो संसार (जन्म-मृत्यु का चक्र) भी होता है। आंदोलित मन स्वयं आत्मा पर एक अध्यारोप है, ठीक उसी तरह जैसे दुनिया को वास्तविकता पर अवास्तविकता का अध्यारोप माना जाता है।
दृष्टि-सृष्टि वाद: माण्डूक्य उपनिषद् में ड्रिष्टि-सृष्टि वाद का सिद्धांत प्रतिपादित है, जिसके अनुसार यह दुनिया केवल मन में ही मौजूद है। गौड़पाद जागृत अवस्था के अनुभव को स्वप्न के अनुभव से अलग नहीं मानते, यह तर्क देते हुए कि दोनों ही स्वप्न-तुल्य प्रतीतियाँ हैं। स्वप्न देखते समय स्वप्न जगत वास्तविक प्रतीत होता है, लेकिन जागने पर वह अवास्तविक सिद्ध होता है और केवल मन की एक रचना होता है। इसी तरह, जागृत दुनिया भी अंततः मन की एक प्रतीति है, जो अजातवाद के सिद्धांत का समर्थन करती है कि तुरिया से कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है।
मन पर नियंत्रण की बाधाएँ: मन को नियंत्रित करने के प्रयास में कई बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। इन बाधाओं को चार मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:
विक्षेप (Distraction): मानसिक अवस्था का परम सत्य के बजाय संवेदी वस्तुओं पर केंद्रित होना, जैसे इच्छाओं के उपभोग के कारण होने वाला विक्षेप।
लय (Torpidity/Sleep): मानसिक अवस्था का नींद या तंद्रा में चले जाना, जो परम सत्य पर ध्यान केंद्रित करने में विफलता के कारण होता है।
कषाय (Latent Desires): अव्यक्त वासनाएँ या इच्छाएँ जो मन को परम सत्य पर टिकने नहीं देतीं; ये अतीत के छिपे हुए संस्कारों के कारण होती हैं।
रसास्वाद (Sattvic Enjoyment): सविकल्प समाधि के आनंद में मानसिक अवस्था का लिप्त होना, जिससे निर्विकल्प समाधि प्राप्त करने में बाधा आती है।
मन नियंत्रण के तरीके (उपाय): मन को अनुशासित करने के लिए केवल लगन पर्याप्त नहीं है, बल्कि उचित तरीकों का पालन करना भी आवश्यक है। गौड़पाद ने कुछ प्रभावी तरीके सुझाए हैं:
दुःख का स्मरण: काम या इच्छा को जड़ से खत्म करने के लिए, संवेदी भोगों से उत्पन्न होने वाले कष्टों का स्मरण करना चाहिए।
अजन्मा (ब्रह्म) का स्मरण: हर चीज़ में 'अजन्मा' (तुरिया) का निरंतर स्मरण करने से, व्यक्ति 'उत्पन्न' (द्वैत) को नहीं देखता। यह अजातवाद को समझने में सहायता करता है, क्योंकि यह स्वीकार करता है कि आत्मा या तुरिया से कुछ भी वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है।
विवेक (Discrimination): समाधि की आनंदमयी अवस्था से भी अनासक्त रहने के लिए विवेक का उपयोग करना चाहिए।
अंतिम लक्ष्य: "अमनस्क" या "मनोनिवृत्ति": मन का नियंत्रण अंततः "अमनस्क" की स्थिति की ओर ले जाता है, जहाँ मन शांत हो जाता है और सोचना बंद कर देता है। यह मन को नष्ट करने के बारे में नहीं है, बल्कि उसकी गतिविधि को समझने और उसे परम वास्तविकता (आत्मा) पर अध्यारोप मात्र के रूप में देखने के बारे में है। जब मन अमना हो जाता है, तो द्वैत (या बहुलता) की धारणा समाप्त हो जाती है। इस अवस्था में, मन स्वयं निर्भय ब्रह्म बन जाता है, ज्ञान के प्रकाश से युक्त। तुरीय को 'अजन्मा', 'अनीद्र', 'अस्वप्न', 'अनाम' और 'अरूप' के रूप में वर्णित किया गया है।
साक्षी चैतन्य (Witness Consciousness): तुरिया को चेतना की सभी अवस्थाओं का साक्षी कहा गया है। यह मन की प्रक्रियाओं से पहचान को अलग करने और शुद्ध चेतना की ओर ध्यान मोड़ने की एक प्रक्रिया है। साक्षी चेतना मन की शुद्धि और एकाग्रता के माध्यम से महसूस की जाती है, जिससे व्यक्ति अपने वास्तविक, शुद्ध स्वरूप को जान पाता है।
गौड़पाद और शंकराचार्य के दृष्टिकोण में भिन्नता:
गौड़पाद का रेडिकल दृष्टिकोण: गौड़पाद जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को समान मानते हैं, दोनों को स्वप्न-तुल्य प्रतीतियाँ (प्रातिभासिक) कहकर नकारते हैं। उनका अजातवाद सिद्धांत अत्यंत रेडिकल है, जिसमें वे कहते हैं कि वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है; ब्रह्मांड और जीव केवल प्रतीति मात्र हैं।
शंकराचार्य का वर्गीकृत दृष्टिकोण: शंकराचार्य वास्तविकता के विभिन्न स्तरों को स्वीकार करते हैं: प्रातिभासिक (स्वप्न, भ्रम), व्यावहारिक (जागृत, लेन-देन संबंधी), और पारमार्थिक (परम सत्य ब्रह्म/तुरिया)। वे इस प्रकार अजातवाद के सिद्धांत को धीरे-धीरे समझते हैं, ताकि यह सामान्य जिज्ञासुओं के लिए अधिक सुलभ हो। फिर भी, शंकराचार्य भी इस बात पर जोर देते हैं कि ब्रह्मांड की सभी वस्तुएँ अंततः मन द्वारा निर्मित हैं।
कुल मिलाकर, माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद की कारिकाएँ मन के नियंत्रण को अद्वैतवाद की केंद्रीय साधना के रूप में प्रस्तुत करती हैं, जहाँ मन की गतिविधियों और द्वैत की धारणा को transcending करके, व्यक्ति अपनी वास्तविक अजन्मा, गैर-द्वैत और सर्वव्यापी आत्मन (तुरिया) प्रकृति का अनुभव कर सकता है।
मन ही द्वैत है
स्रोतों के अनुसार, "मन ही द्वैत है" (मनसा हि अद्वैतं) का अर्थ है कि यह समस्त द्वैत, जो कुछ भी हम जड़ वस्तुओं या सजीव प्राणियों के रूप में देखते हैं, मन द्वारा ही अनुभव किया जाता है। यह अवधारणा इस बात पर ज़ोर देती है कि संसार, जिसमें स्थान, समय, कार्य-कारण और परिवर्तन शामिल हैं, मन की एक प्रवृत्ति के कारण है जो हर चीज़ को एक वस्तु के रूप में देखने का प्रयास करती है।
मन ही द्वैत है, इस अवधारणा का विस्तृत विवरण:
मन की यह वस्तुनिष्ठ प्रवृत्ति ही द्वैत का स्रोत है।
सारा संसार, चाहे वह जागृत अवस्था, स्वप्न अवस्था, या गहरी नींद की अवस्था में हो, मन के माध्यम से ही अनुभव होता है।
जब मन सक्रिय होता है, तो संसार मौजूद होता है; मन जागृत और स्वप्न अवस्था दोनों में सक्रिय रहता है।
गहरी नींद में भी, द्वैत का बीज (संस्कार) मौजूद रहता है, जो जागृत और स्वप्न अवस्था में अंकुरित हो सकता है।
द्वैत का अर्थ है अंतर—"मैं तुम सबसे अलग हूँ"—और यह जन्म, वृद्धि, वृद्धावस्था, रोग, कोरोनावायरस, मृत्यु, इच्छा, भय, प्रलोभन और आतंक जैसी सभी समस्याओं का मूल है।
गौड़पाद का तर्क है कि भक्त और ईश्वर के बीच का द्वैत भी एक प्रकार का संसार है, जो व्यक्ति को "छोटा, तुच्छ और दयनीय प्राणी" बना देता है।
शंकराचार्य के अनुसार, माया (जिसे अविद्या भी कहते हैं) ब्रह्म की एक जटिल जादुई शक्ति है जिसके कारण ब्रह्म को अलग-अलग रूपों की भौतिक दुनिया के रूप में देखा जाता है—निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म। माया ही जीवों को भ्रम में रखती है।
मन के नियंत्रण के संदर्भ में:
मन के नियंत्रण के लिए, "मन ही द्वैत है" को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बताता है कि द्वैत की धारणा को समाप्त करने के लिए मन को 'अमानीभाव' (मन-रहित अवस्था) में लाना आवश्यक है।
अमानीभाव (मन-रहित अवस्था): इस अवस्था का अर्थ मन को नष्ट करना या सोचना बंद करना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि मन और उसकी प्रक्रियाएँ वास्तविक 'स्वयं' नहीं हैं। जब आत्मा की सत्यता (तत्त्वमसि) का बोध होता है, तो मन सोचना बंद कर देता है, और यह मन-रहित अवस्था प्राप्त हो जाती है। यह अवस्था तभी आती है जब ज्ञान की वस्तुएं अनुपस्थित होती हैं।
नेगेशन की प्रक्रिया: मन की बेचैनी को दूर करने और स्वयं को मूल आधार के रूप में समझने के लिए 'नेति नेति' (यह नहीं, यह नहीं) की प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है। शास्त्र उन अवधारणाओं का खंडन करते हैं जो ब्रह्म को बुद्धि के लिए ग्राह्य बनाती हैं, ताकि मन को सूक्ष्म बनाया जा सके।
द्वष्टि-सृष्टि वाद: इस दृष्टिकोण में, सब कुछ मन में होता है। लक्ष्य संसार को दरकिनार करना और केवल मन पर काम करना है। यह मार्ग सीधे आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है और मानता है कि छात्र एक आदर्श शिष्य है।
बाधाएँ और उपाय: मन को नियंत्रित करना कठिन है क्योंकि इसमें विक्षेप (विकर्षण), लय (आलस्य), कषाय (सुप्त वासनाएँ) और रसास्वाद (सात्विक आनंद) जैसी बाधाएँ आती हैं। इन बाधाओं को दूर करने के लिए उचित विधियों (उपाय) का पालन करना चाहिए। एक उपाय यह है कि दुख को याद करके मन को वासनाओं के भोग से हटा लिया जाए।
साक्षी चैतन्य: शुद्ध चेतना की अवधारणा मन से जुड़ी अनुभवजन्य, प्रतिबिंबित चेतना से परे है। साक्षी (गवाह चेतना) मानसिक प्रक्रियाओं के साथ पहचान से निकालने में मदद करती है। जो उत्पन्न होता है वह नष्ट भी होता है, लेकिन वह जो सबका साक्षी है, वह हमेशा मौजूद रहता है।
मोक्ष और ज्ञान: शंकराचार्य के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और संसार मिथ्या है। अज्ञान के कारण जीव ब्रह्म को नहीं जान पाता, जबकि ब्रह्म उसके भीतर ही विराजमान है। जब अविद्या का नाश होता है, तो जीव को यह प्रतीत होता है कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या। केवल ज्ञान (ज्ञान) ही माया को नष्ट कर सकता है। जब माया हट जाती है, तो जीव और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं रहता।
संक्षेप में, जब मन अपनी वस्तुनिष्ठ और द्वैतवादी प्रवृत्तियों से मुक्त हो जाता है, तो यह निर्भय ब्रह्म बन जाता है, ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता है।
मन की गतिविधियों की समाप्ति
मांडूक्य उपनिषद और वेदांत दर्शन में मन की गतिविधियों की समाप्ति ( Cessation of Mental Activity) और मन के नियंत्रण (Mind Control) का गहरा संबंध है, जो आत्म-साक्षात्कार और परम वास्तविकता की प्राप्ति के लिए केंद्रीय अवधारणाएँ हैं।
मन की गतिविधियों की समाप्ति (अमानीभाव): मंडूक्य उपनिषद मन की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जहाँ तुरीय अवस्था मन की गतिविधियों की पूर्ण समाप्ति का प्रतीक है।
अमानीभाव का अर्थ: "अमानीभाव" या "नो माइंड" (No Mind) एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जिसका अर्थ मन का नष्ट होना या सोचना बंद करना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि मन अपनी स्वाभाविक अवस्था में रहते हुए भी द्वैत या वस्तुओं के अनुभव का कारण नहीं बनता। यह मन की ऐसी स्थिति है जहाँ मन की चंचलता और वस्तुओं को विषय बनाने की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है।
द्वैत और प्रपंच से संबंध: स्रोत स्पष्ट करते हैं कि द्वैत (duality) और समस्त प्रपंच (phenomena), यानी यह संपूर्ण जाग्रत और स्वप्न जगत, मन द्वारा ही अनुभव किया जाता है। जब मन को पार कर लिया जाता है, तब द्वैत की अनुभूति नहीं होती। विश्व को मन की एक आभासी सृष्टि या प्रक्षेपण माना गया है। शंकराचार्य के अनुसार, तुरीय अवस्था में "सभी नाम और नामयोग्य वस्तुओं का लोप हो जाता है, जो केवल वाणी और मन के रूप हैं"। रामना महर्षि भी तुरीय को "वर्ल्डलेस" (worldless) यानी बिना वस्तुगत घटनाओं के रूप में वर्णित करते हैं।
तुरीय के रूप में लक्ष्य: तुरीय वह चौथी अवस्था है जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है। यह "सभी घटनाओं का अंत" और शांति, अद्वैत, असीमता और आनंद की स्थिति है। इस अवस्था में आत्मा और ब्रह्म एक हो जाते हैं। इसे "परम शांति" (Absolute Silence) और "ज्ञान की शुद्ध अवस्था" के रूप में भी जाना जाता है, जो इच्छा और पीड़ा से रहित है। गौड़पाद के अनुसार, सुषुप्ति और तुरीय दोनों में द्वैत या वस्तुओं का ज्ञान नहीं होता, लेकिन तुरीय में अज्ञानता का बीज (वासना) भी अनुपस्थित होता है, जबकि सुषुप्ति में यह मौजूद रहता है।
मन का नियंत्रण: मन को नियंत्रित करने का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को परम वास्तविकता (तुरीय) के साथ एकाकार करना और अंततः मोक्ष प्राप्त करना है।
उद्देश्य और प्रक्रिया:
मन को नियंत्रित करने का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, जहाँ व्यक्ति खुद को ब्रह्म के रूप में पहचानता है।
आत्म-जिज्ञासा (Self-enquiry) और ध्यान (meditation) इस प्रक्रिया के महत्वपूर्ण साधन हैं।
मन को अपनी पाँच अवस्थाओं से हटाकर आत्मा में दृढ़ता से स्थापित करना, ध्यान का सार है।
ओंकार (AUM) का जप मन को शांत करने में सहायक होता है। उचित समझ के साथ ओंकार का जप करने पर व्यक्ति "किसी विशेष चीज़ के बारे में नहीं सोचता", बल्कि "विचार खुद को सोचता है" - यह ईश्वर का विचार है, जो मन को संसार के विक्षोभों से मुक्त करता है।
बाधाएँ और उनके उपाय:
मन-नियंत्रण में चार मुख्य बाधाएँ बताई गई हैं: विक्षेप (distraction), लय (torpidity or sleep), कषाय (latent desires), और रसास्वाद (sattvic enjoyment)।
इन बाधाओं को दूर करने के लिए उचित साधनों और बुद्धि का उपयोग आवश्यक है। उदाहरण के लिए, दुखों को याद करके इच्छाओं से मन को हटाना (विक्षेप को नियंत्रित करना)।
चित्त शुद्धि (Mind Purification):
आदि शंकर के अनुसार, मलिन चित्त (impure mind) वाले व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार से वंचित रहते हैं।
नित्य कर्मों का अनुष्ठान चित्त शुद्धि प्राप्त करने में सहायक होता है, जिससे जीव आत्म स्वरूप का बोध करता है।
ब्रह्म को "नेति नेति" (यह नहीं, यह नहीं) के रूप में वर्णित करना, सभी मानसिक अवधारणाओं और वस्तुओं के त्याग को दर्शाता है, क्योंकि ब्रह्म अदृश्य है और भौतिकवादी इंद्रियों की पहुंच से परे है।
दार्शनिक सूक्ष्मताएँ:
गौड़पाद का अजातिवाद: गौड़पाद एक अधिक कट्टरपंथी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जिसे अजातिवाद कहा जाता है, जिसमें यह माना जाता है कि आत्मा (तुरीय) से कोई भी जीवात्मा या जगत वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके अनुसार, जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ भी स्वप्न-समान आभास मात्र हैं।
दृष्टि-सृष्टि वाद (Drishti-Srishti Vada): यह सिद्धांत मानता है कि संसार केवल मन में ही मौजूद है, और यह "मन की सभी क्रियाओं को समाप्त करने" का लक्ष्य रखता है। यह आत्म-ज्ञान का एक सीधा मार्ग है, जहाँ ज्ञान ही पर्याप्त है।
"ज्ञान ही होना है": परम अवस्था अनुभव मात्र नहीं है, बल्कि स्वयं आत्मा के रूप में स्थित होने की अवस्था है, जहाँ ज्ञान अपने विषय के साथ एकाकार हो जाता है।
संक्षेप में, मांडूक्य उपनिषद और वेदांत शिक्षाएँ यह सिखाती हैं कि मन की गतिविधियों की समाप्ति (अमानीभाव) मन-नियंत्रण का अंतिम लक्ष्य है, जिससे द्वैत और जगत का आभास समाप्त होता है, और व्यक्ति अपने वास्तविक, तुरीय, अद्वैत स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
अमनस्ताम् (मन रहित अवस्था)
अद्वैत वेदांत में, अमनस्ताम् (मन रहित अवस्था या "नो माइंड") एक केंद्रीय अवधारणा है, जिसे विशेष रूप से गौड़पाद ने अपनी माण्डूक्य कारिका में रेखांकित किया है। यह मन के सामान्य कार्यप्रणाली से परे की एक अवस्था को संदर्भित करता है, जो कि तुरीय या आत्मन् की परम वास्तविकता को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।
मन के नियंत्रण के संदर्भ में अमनस्ताम्:
द्वैत का स्रोत मन है: अद्वैत वेदांत यह सिखाता है कि हम अपने चारों ओर जो द्वैत या विविधता देखते हैं, उसका मूल स्रोत मन ही है। जाग्रत और स्वप्न की अवस्थाओं में मन सक्रिय रहता है, और यही द्वैत तथा संसार (जन्म-मृत्यु का चक्र, सुख-दुःख, परिवर्तन, भय और इच्छा) को बनाए रखता है।
अमनस्ताम् का तात्पर्य:
"मन रहित अवस्था": अमनस्ताम् का शाब्दिक अर्थ "मन रहित अवस्था" या "नो माइंड" है। यह मन को नष्ट करने, सोचने की प्रक्रिया को पूरी तरह बंद करने, या हर समय समाधि की स्थिति में रहने का अर्थ नहीं है।
द्वैत का विलय: जब मन अंततः अपनी सामान्य अवस्था से परे चला जाता है और "अमनस्ताम्" की स्थिति प्राप्त करता है, तो द्वैत या बहुलता की धारणा समाप्त हो जाती है। यह संसार की प्रतीति का रुक जाना है, जहाँ वस्तुएँ केवल मन की कल्पनाएँ और वाणी के रूप मात्र रह जाती हैं।
आत्म-साक्षात्कार का परिणाम: अमनस्ताम् की प्राप्ति आत्म-सत्य के बोध का स्वाभाविक परिणाम है, जो गुरु के निर्देशों से प्राप्त "तत् त्वम् असि" ("तुम वह हो") जैसे ज्ञान से उत्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में, मन सोचना बंद कर देता है और शांत हो जाता है।
तुरीय से संबंध:
चेतना की चौथी अवस्था: तुरीय चेतना की चौथी अवस्था है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अनुभवों से परे है। यह मन से परे है और मन द्वारा इसे समझा नहीं जा सकता है।
अचिन्त्य और अवर्णनीय: तुरीय को अचिन्त्य (अचिन्तनीय) और अव्यपदेश्य (अवर्णनीय) के रूप में वर्णित किया गया है। मन से इसका विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि मन केवल वस्तुओं और दिक्-काल की अवधारणाओं को ही समझ सकता है, जबकि तुरीय न तो कोई वस्तु है और न ही दिक्-काल में स्थित है।
ज्ञान और सत्ता का एकाकार: अमनस्ताम् की अवस्था में, ज्ञान अपने विषय (ज्ञेय) के साथ एकाकार हो जाता है। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का त्रैत समाप्त हो जाता है। तुरीय शुद्ध चेतना, आनंद और शांति की स्थिति है, जो इच्छा और पीड़ा से मुक्त है, जिसे सत्-चित्-आनंद के रूप में भी जाना जाता है।
मन नियंत्रण की प्रक्रिया:
मन की चंचलता का शमन: मन की चंचलता को शांत करना अमनस्ताम् की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इंद्रियों और मन को बाहरी विषयों से हटाकर, ध्यान के माध्यम से स्वयं में दृढ़ता से स्थापित होना एक आवश्यक साधना है।
साक्षी भाव: साक्षी चैतन्य (साक्षी चेतना) का उपयोग मानसिक प्रक्रियाओं से स्वयं को अलग करने और शुद्ध चेतना की ओर उन्मुख होने की प्रक्रिया है। यह मानसिक हलचलों के प्रति एक साक्षी के रूप में कार्य करने से शुरू होता है, अंततः शुद्ध चेतना की ओर बढ़ता है जो इन सभी अवस्थाओं की साक्षी है।
निदिध्यासन: यह अवस्था गहन आत्म-जिज्ञासा और निदिध्यासन (गहरा ध्यान और आत्म-चिंतन) से प्राप्त होती है। विचारों और कार्यों को पूरी तरह से त्यागना आवश्यक नहीं है, बल्कि मन की पहचान को उसकी चंचल प्रकृति से हटाना है।
द्वैत का अनादर: गौड़पाद विशेष रूप से बताते हैं कि साधक को द्वैत को मिथ्या के रूप में देखना चाहिए और उससे चिपके नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे आत्म-साक्षात्कार के लिए एक अस्थायी साधन के रूप में उपयोग करना चाहिए।
ज्ञान बनाम अनुभव:
ज्ञान के रूप में सत्ता: अमनस्ताम् की स्थिति में, ज्ञान मात्र अनुभवों का संग्रह नहीं, बल्कि स्वयं सत्ता (होना) है। यह ज्ञान है जो अपनी ही सत्ता से स्वयं को जानता है, किसी बाहरी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है।
शांत और मौन: इस स्थिति को परम शांति और मौन के रूप में वर्णित किया गया है, जहाँ ब्रह्मांड की सभी हलचलें शांत हो जाती हैं। इसे दार्शनिक तर्कों से भी अधिक गहरा और पूर्ण माना गया है। यह मन और शरीर दोनों की सभी गतिविधियों का मौन है।
असाधारण प्रकृति: तुरीय की यह असाधारण प्रकृति, जो मन के लिए अज्ञात है, अंततः अज्ञान को भंग करके जीव को अपने वास्तविक स्वरूप - ब्रह्म - का अनुभव कराती है।
गौड़पाद और शंकर की विशिष्टता:
गौड़पाद अपने अजातिवाद (अ-उत्पत्तिवाद) सिद्धांत के लिए प्रसिद्ध हैं, जो यह तर्क देता है कि वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है, और मन केवल माया में घूमता है। अमनस्ताम् की अवधारणा उनके लिए द्वैत के मूल कारण, मन को ही अस्वीकार करने का एक तरीका है।
शंकराचार्य ने गौड़पाद के विचारों को और विकसित किया, विशेष रूप से "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है) के सिद्धांत में। उन्होंने बताया कि माया के संबंध से ही ब्रह्म जीव कहलाता है, और अविद्या (अज्ञान) के नष्ट होने पर जीव अपनी जीवता खो देता है और ब्रह्म से अभिन्न हो जाता है। अमनस्ताम् की स्थिति इस अविद्या के नाश और आत्म-बोध के साथ जुड़ी हुई है।
रमण महर्षि का दृष्टिकोण:
स्वयं का दूसरा नाम: रमण महर्षि के अनुसार, तुरीय स्वयं (Self) का ही दूसरा नाम है। यह "जगत्-रहित" (worldless) है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई वस्तुगत परिघटना उपस्थित नहीं होती।
अनुभवों का साक्षी: उन्होंने तुरीय को जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के अनुभवों के साक्षी के रूप में देखा, लेकिन जब यह साक्षी स्वरूप ज्ञात हो जाता है, तो साक्षी होने का विचार भी लुप्त हो जाता है, जिसे "तुरीयातीत" (चौथी अवस्था से परे) कहा जाता है।
बोध ही ज्ञान: उनके लिए, ज्ञान कोई जानने की क्रिया नहीं है, बल्कि स्वयं सत्ता की अवस्था है - "ज्ञान केवल स्वयं की सत्ता की अवस्था का एक नाम है"।
संक्षेप में, अद्वैत वेदांत में मन का नियंत्रण एक क्रमिक प्रक्रिया है जो मन की पहचान को उसकी चंचल और वस्तु-उन्मुख प्रकृति से हटाकर उसे उसके अंतर्निहित शुद्ध, अचिन्त्य और द्वैत-रहित स्वरूप, अमनस्ताम् में स्थापित करती है, जो अंततः तुरीय या ब्रह्म के साक्षात्कार में परिणत होती है।
बाधाएँ
अद्वैत वेदांत में मन का नियंत्रण आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त करने के लिए एक केंद्रीय पहलू है। मन पर नियंत्रण की यात्रा में कई बाधाएँ और उन्हें दूर करने के लिए विशिष्ट तरीके शामिल हैं। माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद की कारिकाएँ इन अवधारणाओं की गहराई से व्याख्या करती हैं।
मन पर नियंत्रण में आने वाली बाधाएँ:
मन पर नियंत्रण के मार्ग में कई आंतरिक और बाहरी बाधाएँ आती हैं:
मन की वस्तुनिष्ठता की प्रवृत्ति (Objectifying Tendency of the Mind): मन की वस्तुओं को जानने की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही एक बाधा है, क्योंकि आत्मा को एक वस्तु के रूप में अनुभव नहीं किया जा सकता है। गेब्रियल द्वारा वर्णित "संघर्ष" इसी प्रवृत्ति से उत्पन्न होता है।
अज्ञानता और भ्रम (Ignorance and Delusion):
माया और अविद्या: जीव और ब्रह्म के बीच भिन्नता का मूल कारण माया या अविद्या है। माया की अज्ञानता के कारण सत्य छिपा रहता है, और इसी कारण जीव इस मिथ्या संसार को सत्य मानता है।
द्वैत से आसक्ति: द्वैत को वास्तविक मानना या उससे चिपके रहना, भले ही वह धार्मिक उपासना के माध्यम से हो, सर्वोच्च सत्य को जानने में बाधा बन सकता है। उपासना करने वाले की "कृपण बुद्धि" (miserly intellect) को एक अवरोध माना जाता है, क्योंकि वह द्वैत की बाधा को बनाए रखती है। द्वैत भय और दुख का स्रोत है।
सीमितता की धारणा: स्वयं को एक सीमित प्राणी के रूप में देखने वाले विश्वासों को शुद्ध करना आध्यात्मिक अभ्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सीमित अहंकार का वास्तविक, असीम आत्म पर अध्यारोप (superimposition) बहुत अधिक दुख का कारण बनता है।
मानसिक अशुद्धियाँ और विक्षेप (Mental Impurities and Distractions):
मन की सक्रियता: जब मन सक्रिय होता है, तो संसार मौजूद होता है। मन का यह "क्रियाशील" स्वभाव द्वैत का कारण बनता है।
चार प्रमुख बाधाएँ: गौड़पाद ने मन को अनुशासित करने में चार मुख्य बाधाओं की पहचान की है:
विक्षेप (Vikshepa): मन की अवस्था का सांसारिक सुखों पर टिकना।
लय (Laya): मन की अवस्था का नींद या जड़ता में चले जाना।
कषाय (Kashaya): अतीत की सुप्त वासनाएँ या छिपी हुई छापें जो मन को Absolute पर टिकने से रोकती हैं।
रसास्वाद (Rasaswada): सविकल्प समाधि के आनंद में लीन रहना, जो निर्विकल्प समाधि तक पहुँचने में बाधा डालता है।
मानसिक शोर और भावनात्मक विक्षेप: मानसिक और भावनात्मक शोर भी ध्यान भंग करने का एक स्रोत है।
राग-द्वेष (Likes and Dislikes): द्वैतियों का अपनी व्यक्तिगत अवधारणाओं से चिपके रहना और आपस में झगड़ना यह दर्शाता है कि वे राग-द्वेष के क्षेत्र में गहरे फंसे हुए हैं।
अधूरे संकल्प और तनाव: अधूरी इच्छाएँ और तनाव मन की अशांति का कारण बनते हैं, जो वस्तुओं से संपर्क के माध्यम से पूरी नहीं की जा सकतीं। यह अज्ञानता ही तनाव का कारण बनती है कि अनेकता एक वास्तविकता है।
पूर्वाग्रह और पक्षपातपूर्ण निर्णय: सपनों और जाग्रत अवस्थाओं के बीच निष्पक्ष तुलना करने में असमर्थता यह दर्शाती है कि व्यक्ति पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है, जिससे गलत निर्णय होते हैं।
आध्यात्मिक अहंकार (Spiritual Ego): आध्यात्मिक अनुभवों के आदी होना और एक विकृत आध्यात्मिक अहंकार का निर्माण करना भी एक बाधा हो सकता है।
कर्म और उसके प्रभाव (Karma and its Effects): प्रारब्ध कर्म की सीमाएँ और अहंकार के कारण ईश्वर के नियमों का उल्लंघन, जिससे बंधनकारी कर्म बनते हैं, जीव को बांधे रखते हैं।
मन के नियंत्रण के तरीके:
माण्डूक्य उपनिषद् मन को ध्यान में प्रशिक्षित करने और अंततः स्वतंत्रता प्राप्त करने का एक सीधा तरीका सुझाता है। मन को नियंत्रित करने के कुछ प्रमुख तरीके इस प्रकार हैं:
आत्म-ज्ञान और अज्ञानता का निराकरण (Self-Knowledge and Negation of Ignorance):
अद्वैत का बोध: अद्वैत वेदांत का मुख्य सार स्वयं और ब्रह्मांड की एकता है। मन का नियंत्रण स्वयं के अद्वैत स्वरूप का बोध कराता है।
उपनिषदों का अध्ययन: माण्डूक्य उपनिषद् का गहन अध्ययन मोक्ष या कैवल्य प्राप्त करने के लिए पर्याप्त माना जाता है।
मिथ्यात्व का ज्ञान: जाग्रत अवस्था के अनुभव को स्वप्न की तरह अवास्तविक मानना और संसार को मिथ्या समझना अज्ञानता को दूर करता है।
उपधियों का निराकरण: अहंकारों (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) को उपाधि (सीमित करने वाले adjuncts) कहा जाता है। इन्हें दूर करने का अर्थ है यह जानना कि वे अवास्तविक हैं।
मन की शुद्धि और एकाग्रता (Purification and Concentration of Mind):
नित्य कर्म: "मलिन चित्त" (impure mind) वाले व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार से वंचित रहते हैं, जबकि नित्य कर्म (daily duties) के अनुष्ठान से चित्त शुद्धि होती है।
अमनीभाव (No-Mind State): मन को "नो माइंड" की अवस्था में लाना, जहाँ मन सोचना बंद कर देता है, लेकिन इसका अर्थ मन को नष्ट करना या सो जाना नहीं है।
विवेक और वैराग्य: कामनाओं और भोगों से मन को हटाना और सुख से अनासक्त होकर विवेक के माध्यम से अलगाव प्राप्त करना आवश्यक है।
चेतना पर ध्यान: चेतना पर ध्यान केंद्रित करना और स्वयं को देह-मन से अलग करना, साथ ही मानसिक प्रक्रियाओं और राग-द्वेष से दूरी बनाना मन की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण है।
जन्म रहित का स्मरण: प्रत्येक वस्तु में "जन्म रहित" (unborn) को याद करते हुए द्वैत को नहीं देखना चाहिए।
ध्यान और मंत्र (Meditation and Mantra):
ओम का जाप: ओम (प्रणव) का जाप करने से व्यक्ति ब्रह्मांडीय कंपन के साथ समस्वरता स्थापित करता है और सार्वभौमिक रूप से सोचना शुरू कर देता है। यह व्यक्ति की सत्ता को ईश्वर में प्रवाहित करने में मदद करता है।
वैश्वानर विद्या: इस ध्यान पद्धति में ब्रह्मांड को अपने ही शरीर के रूप में देखना शामिल है, जिससे मन शांत होता है क्योंकि वस्तुएँ बाहरी नहीं रहतीं।
आत्म-लीनता: ध्यान में स्वयं में दृढ़ता से स्थापित होना (समाधि), जिसके लिए अत्यधिक शांति और पवित्रता की आवश्यकता होती है।
ईश्वर का आह्वान: जीव को ईश्वर में स्थापित करने के लिए ईश्वर या ब्रह्म की उपस्थिति को अपनी चेतना में आह्वान करना एक सीधा तरीका है।
अद्वैत के अनुसार, केवल ब्रह्म ही सत्य है, और जगत मिथ्या है। जगत और जीव ब्रह्म के प्रतिबिंब मात्र हैं। मन को नियंत्रित करके और आत्म-ज्ञान के माध्यम से, जीव अपनी अविद्या को नष्ट कर सकता है और ब्रह्म के साथ अपनी एकता को जान सकता है।
विक्षेप (विक्षुब्धता)
स्रोतों के अनुसार, विक्षेप (जिसे विक्षुब्धता या व्याकुलता भी कहा जाता है) मन की उन बाधाओं में से एक है जो आध्यात्मिक प्रगति में रुकावट डालती हैं। यह वेदांत दर्शन में मन-नियंत्रण के मार्ग पर एक महत्वपूर्ण बाधा के रूप में पहचानी गई है।
विक्षेप का अर्थ और स्वरूप:
विक्षेप का शाब्दिक अर्थ 'व्याकुलता' या 'मन का भटकना' है।
यह मन की वह अवस्था है जहाँ मन निरपेक्ष ब्रह्म के बजाय अन्य चीजों, जैसे इंद्रियों के सुखदायक विषयों पर केंद्रित रहता है।
इंद्रिय विषयों के प्रति इच्छा (काअ) ही विक्षेप का मूल कारण है, जो साधक को उसके आध्यात्मिक लक्ष्य से विचलित करती है।
स्वामी कृष्णानंद बताते हैं कि जाग्रत अवस्था में व्यक्ति बाहरी दुनिया के प्रति सचेत होता है और उसकी चेतना बाहरी वस्तुओं पर केंद्रित होती है, जिसे विक्षेप के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि व्यक्ति बाहरी चीजों में उलझा रहता है।
बाधाओं के व्यापक संदर्भ में विक्षेप:
वेदांतिक साहित्य में मन-नियंत्रण में चार मुख्य बाधाएँ बताई गई हैं, जिनमें से विक्षेप एक प्रमुख बाधा है। अन्य बाधाएँ हैं: लय (सुप्तता), कषाय (सुप्त वासनाएँ या इच्छाएँ), और रसास्वादा (सात्विक आनंद का आस्वादन)।
विक्षेप, विशेष रूप से स्रष्टि-दृष्टि वाद (Srishti-Drishti Vada) मार्ग का अनुसरण करने वाले साधकों के लिए एक चुनौती है, जो दुनिया को अपने मन में मौजूद मानते हैं। इस मार्ग पर मन की अशांति एक बड़ी दीवार की तरह है जिसे पार करना बेहद मुश्किल है।
विक्षेप पर काबू पाने के तरीके:
विक्षेप को दूर करने के लिए, केवल लगन ही पर्याप्त नहीं है; मन को अनुशासित करने के लिए सही साधनों का उपयोग करना आवश्यक है।
इच्छाओं को खत्म करने के लिए, व्यक्ति को इंद्रिय-भोग से उत्पन्न होने वाले दुख को याद दिलाना चाहिए। यह सुझाव दिया जाता है कि इंद्रिय-भोग से होने वाली पीड़ा को याद करने से मन को इच्छा से दूर किया जा सकता है।
गीता में भी यह बताया गया है कि जो व्यक्ति स्वप्नों की इच्छा करता है, वह स्वप्न देखता है, और जो इच्छा नहीं करता, वह स्वप्न नहीं देखता। इसका अर्थ यह है कि जाग्रत और स्वप्न जगत दोनों इच्छा से प्रेरित हैं, और चेतना की तुलना में ये लुप्त हो जाते हैं।
संक्षेप में, विक्षेप मन की वह व्याकुलता है जो व्यक्ति को बाहरी इंद्रिय विषयों की ओर खींचती है, और यह आध्यात्मिक मुक्ति के मार्ग में एक महत्वपूर्ण बाधा है। इस पर काबू पाने के लिए केवल अभ्यास नहीं, बल्कि सही समझ और मन को अनुशासित करने के लिए उचित साधनों का प्रयोग भी आवश्यक है, जिसमें इच्छाओं के नकारात्मक परिणामों का स्मरण शामिल है।
लय (सुस्ती/नींद)
स्रोत बताते हैं कि लय (सुस्ती या नींद) मन-नियंत्रण में आने वाली बाधाओं में से एक है, जिसे अद्वैत वेदांत दर्शन के व्यापक संदर्भ में समझा जाता है। यह बाधा गहरी नींद (सुषुप्ति) से जुड़ी हुई है, फिर भी उससे भिन्न है, और अंततः तुरीय अवस्था की प्राप्ति के मार्ग में आती है।
लय की परिभाषा और बाधा के रूप में इसका स्थान:
लय का शाब्दिक अर्थ 'सुस्ती' या 'तंद्रा' है। इसे मन-नियंत्रण में आने वाली चार मुख्य बाधाओं में से एक माना गया है।
यह मानसिक स्थिति का पूर्ण ब्रह्म पर स्थिर होने में विफलता के कारण नींद में डूब जाना है।
लय को तामसिक (स्थूल) बाधा के रूप में वर्णित किया गया है, जो राजसिक इच्छा से भी अधिक स्थूल और उन्मूलन में कठिन है।
लय और गहरी नींद (सुषुप्ति) के बीच संबंध:
गहरी नींद (सुषुप्ति) चेतना की एक प्राकृतिक अवस्था है जिसमें मन शांत होता है और द्वैत का अनुभव नहीं होता।
हालांकि, यह एक निष्क्रिय अवस्था है, जिसमें तमोगुण की प्रबलता होती है और ज्ञान की अनुपस्थिति होती है।
सुषुप्ति को "बीज अवस्था" (seed state) कहा जाता है क्योंकि इसमें पिछली क्रियाओं के निष्क्रिय "संस्कार" (वासनाएं) होते हैं, जिनसे जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं।
गहरी नींद में, आत्मा को पूरी तरह से ज्ञात नहीं होता क्योंकि "अज्ञानता का बीज" (बीज) अभी भी मौजूद रहता है।
चेतना की इस अवस्था को "प्राज्ञ" (Prajna) कहा गया है, जिसका अर्थ है कि यह सब-कुछ जानने वाली है, लेकिन अनुभव रहित है या "अज्ञात भाव में" है। यह जाग्रत और स्वप्न के सभी अनुभवों का कारण है।
गहरी नींद की अवस्था में, अहंकार/बुद्धि अपने स्रोत में विलीन हो जाती है (निष्क्रिय संस्कारों में), इसलिए यह आत्मा या किसी बाहरी वस्तु से अनजान होती है।
लय/सुषुप्ति और तुरीय (चौथी अवस्था) के बीच अंतर:
तुरीय चेतना की "चौथी अवस्था" है जो गहरी नींद और लय से भिन्न है।
तुरीय केवल विचार या संवेदी इनपुट की अनुपस्थिति मात्र नहीं है। यह सच्ची आत्मा (आत्मन/ब्रह्मन) की प्रत्यक्ष अनुभूति है।
लय या गहरी नींद के विपरीत, तुरीय में अज्ञानता का कोई बीज नहीं होता, और यह "सभी घटनाओं की समाप्ति" है। इसे "जगत-रहित" (worldless), "नींद-रहित" (sleepless), "स्वप्न-रहित" (dreamless), "अविभाज्य" (without parts), "संबंध-रहित" (without relationship) और "अद्वैत" (non-dual) बताया गया है।
तुरीय शुद्ध चेतना, इच्छा-रहित और आनंदमय (सत्-चित्-आनंद) है।
स्वामी सर्वप्रियानंद के अनुसार, तुरीय सभी अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, गहरी नींद, समाधि आदि) का "साक्षी" है, और यह हमेशा मौजूद रहता है, जबकि अवस्थाएँ आती-जाती रहती हैं।
लय पर विजय प्राप्त करना और तुरीय की प्राप्ति:
तुरीय को प्राप्त करने का मार्ग यह समझना है कि आत्मा सभी अवस्थाओं का स्थिर साक्षी है, न कि एक अवस्था को दूसरी से बदलने का प्रयास करना।
इसके लिए मन को "अमन" (no mind) बनना होता है – मन को नष्ट करके या सोचना बंद करके नहीं, बल्कि यह जानकर कि मन का अनुभव करने वाली चेतना हमेशा मौजूद है।
यह बोध व्यक्ति को धारणाओं के भ्रम से मुक्त करता है।
विचार यह है कि ध्यान को अस्थायी अवस्थाओं (जैसे गहरी नींद/लय) से हटाकर अंतर्निहित, अप्रभावित चेतना (तुरीय) पर केंद्रित किया जाए। इसमें कठोर विवेक (प्रज्ञा) और विचार-आधारित सिद्धांतों को पार करना शामिल है, जिससे अंततः ऐसी अवस्था प्राप्त होती है जहाँ "ज्ञान आत्मा में स्थापित होता है"।
कषाय (सुप्त वासनाएँ)
स्त्रोतों के अनुसार, कषाय (सुप्त वासनाएँ) मन को नियंत्रित करने में आने वाली चार मुख्य बाधाओं में से एक है।
कषाय को सुप्त वासनाएँ या इच्छाएँ (latent Vasanas or desires) के रूप में परिभाषित किया गया है। ये अतीत की छिपी हुई छापें (hidden impressions from the past) होती हैं, जिनके कारण मन ब्रह्म पर स्थिर नहीं हो पाता है।
मन को नियंत्रित करने में आने वाली अन्य बाधाएँ:
विक्षेप (Vikshepa): यह "भटकाव" है, जहाँ मन की स्थिति ब्रह्म के बजाय इंद्रिय-भोग जैसे सांसारिक वस्तुओं पर टिकी रहती है। यह कामना या इच्छा के कारण होता है।
लय (Laya): यह "नींद या सुस्ती" है, जहाँ मन की स्थिति ब्रह्म पर स्थिर न होने के कारण नींद या जड़ता में चली जाती है।
रसास्वाद (Rasaswada): यह "सात्त्विक आनंद" है, जहाँ मन की स्थिति सविकल्प समाधि के आनंद में लीन हो जाती है, जिससे वह ब्रह्म पर स्थिर नहीं हो पाती।
इन बाधाओं का उल्लेख विशेष रूप से सृष्टि-दृष्टि वाद के संदर्भ में किया गया है, जो उन साधकों के लिए एक दृष्टिकोण है जो विश्व के माध्यम से वास्तविकता को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और चंचल मन को शांत करने में संघर्ष करते हैं। मन के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए कठिन प्रयास के साथ-साथ उचित तरीकों का भी उपयोग किया जाना चाहिए।
गहरी नींद (प्राज्ञ) और सुप्त वासनाओं का संबंध: गहरी नींद की अवस्था, जिसे प्राज्ञ (Prājña) कहा जाता है, को "बीज अवस्था" (seed state) के रूप में वर्णित किया गया है। इस अवस्था में, जाग्रत और स्वप्न के अनुभव सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित हो जाते हैं। गहरे अध्ययनों से पता चलता है कि यह वह अवस्था है जहाँ अतीत के अनुभवों की छापें (संस्कार और वासनाएँ) सुप्त हो जाती हैं। ये अधूरी वासनाएँ या प्रारब्ध कर्म ही हमें जागृत अवस्था में वापस धकेलते हैं और हमें गतिविधि में संलग्न करते हैं।
उपनिषदों के अनुसार, आत्मा स्वयं शुद्ध है; दुःख और कर्म संबंधी अशुद्धियाँ गलत रूप से आत्मा से संबंधित मानी जाती हैं। ये अशुद्धियाँ वास्तव में जीव के भौतिक पहलू (मन) और उसके उपाधियों से संबंधित हैं।
रसास्वाद (सात्विक आनंद में आसक्ति)
स्रोत बताते हैं कि "रसास्वाद" (सात्विक आनंद में आसक्ति) मानसिक नियंत्रण में आने वाली चार मुख्य बाधाओं में से एक है।
इन बाधाओं को मांडूक्य कारिका के तीसरे खंड, अद्वैत प्रकरण में, और चौथे खंड, अलातशांति प्रकरण में अद्वैत शिक्षाओं से संबंधित आपत्तियों और उनके उत्तरों की चर्चा के संदर्भ में समझाया गया है।
रसास्वाद का विवरण:
रसास्वाद (Rasaswada) को "सात्विक आनंद में आसक्ति" के रूप में परिभाषित किया गया है।
यह मानसिक स्थिति द्वारा सविकल्प समाधि के आनंद का स्वाद लेना है, जिससे मन निरपेक्ष पर स्थिर नहीं हो पाता है।
इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि निर्विकल्प समाधि प्राप्त करने के लिए साधना करते समय भी इस आनंद का स्वाद लेते रहना।
बाधाओं के व्यापक संदर्भ में रसास्वाद: रसास्वाद, मन-नियंत्रण में आने वाली चार प्रमुख बाधाओं में से एक है। अन्य बाधाएँ हैं:
विक्षेप (Vikshepa): "ध्यान भंग" होना, जिसमें मन सांसारिक सुखों की ओर आकर्षित होता है।
लय (Laya): "नींद या सुस्ती", जिसमें मानसिक स्थिति निरपेक्ष पर टिकने में विफल होने के कारण नींद में चली जाती है।
कषाय (Kashaya): "सुप्त वासनाएँ या इच्छाएँ", जो मन को निरपेक्ष पर स्थिर होने से रोकती हैं, क्योंकि अतीत से छिपी हुई छापें मौजूद होती हैं।
ये बाधाएँ "सृष्टि-दृष्टि वाद" (Srishti-Drishti Vada) नामक आध्यात्मिक मार्ग के संदर्भ में आती हैं। यह मार्ग उन साधकों के लिए है जो संसार के माध्यम से वास्तविकता की तलाश करते हैं। इस मार्ग पर मन की स्वाभाविक चंचलता और उसे नियंत्रित करने की कठिनाई के कारण प्रगति धीमी और सफलता दर कम होती है। इन बाधाओं को दूर करने के लिए, केवल लगन ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उचित तरीकों को अपनाना भी आवश्यक है।
उपाय (साधना)
अद्वैत वेदांत में मन के नियंत्रण का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि मन को ही संसार और द्वैत की सभी धारणाओं का मूल कारण माना गया है। मन की अशांत स्थिति ही सभी दुःखों का कारण बनती है। यह कहा गया है कि जब मन का नाश होता है, तो सब कुछ नष्ट हो जाता है, और जब मन प्रकट होता है, तो सब कुछ प्रकट होता है।
विभिन्न स्रोतों के अनुसार, मन के नियंत्रण के लिए कई प्रकार के 'उपाय' (साधना) बताए गए हैं:
प्रत्यक्ष मार्ग (अस्पर्श योग एवं अजातिवाद):
मांडूक्य उपनिषद आत्म-साक्षात्कार के लिए एक सीधा मार्ग प्रस्तुत करता है, जो कहानियों या उपमाओं के बजाय सीधे तथ्यों पर आधारित है। यह मन की गहराई में सीधे प्रवेश करने का प्रयास करता है।
'अस्पर्श योग' मन को नियंत्रित करने का एक प्रत्यक्ष तरीका है, जिसमें संसार को दरकिनार करके केवल मन पर कार्य किया जाता है। यह उन साधकों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है जो संसार को केवल अपने मन की उपज के रूप में देखते हैं।
'अजातिवाद' (उत्पत्तिहीनता) गौड़पाद के दर्शन का केंद्रीय विचार है, जिसके अनुसार वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है; साधक पहले से ही तुरीय (चौथी अवस्था) स्वरूप है। यह सिद्धांत स्थापित करता है कि आत्मा अकारण है और वह किसी दूसरी वस्तु को उत्पन्न नहीं करती।
मन को 'अमानी भाव' (मनोहीनता) की स्थिति में लाना इस प्रत्यक्ष मार्ग का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसका अर्थ मन को नष्ट करना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि मन 'विचार करना' बंद कर देता है, जिससे द्वैत की धारणा समाप्त हो जाती है। यह गुरु के निर्देशों का पालन करने का एक स्वाभाविक परिणाम है, जिससे आत्मा की सत्यता का बोध होता है।
एक बार आत्म-साक्षात्कार हो जाने पर, किसी बाहरी साधना की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि ज्ञान ही पर्याप्त होता है।
तैयारी एवं अप्रत्यक्ष मार्ग (कर्म, उपासना, भक्ति):
वैदिक परंपरा में, उपनिषद 'ज्ञान कांड' के अंतर्गत आते हैं, जबकि 'कर्म कांड' (कर्तव्य) और 'उपासना कांड' (अनुष्ठान) अलग-अलग श्रेणियां हैं।
उपासना (पूजा) को 'व्यावहारिक' (transactional) स्तर पर की जाने वाली प्रार्थना माना जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य मन को शुद्ध करना और अहंकार को कम करना है। हालांकि, इसे परम लक्ष्य के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि एक अस्थायी साधन के रूप में बताया गया है जिसे अंततः छोड़ना पड़ता है। उपासना द्वैत भाव को पुष्ट करती है और साधक को असहाय स्थिति में रख सकती है।
आदि शंकराचार्य के मत में, वैदिक बलिदान, पूजा और भक्ति ज्ञान की ओर ले जा सकते हैं, लेकिन सीधे मोक्ष (मुक्ति) तक नहीं पहुंचाते।
निष्काम कर्म (फल की इच्छा के बिना कर्म करना) चित्त की शुद्धि प्राप्त करने में सहायक होता है। शुद्ध चित्त ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने की क्षमता प्राप्त करता है।
बौद्धिक एवं तार्किक समझ:
अद्वैत वेदांत तर्क और शास्त्र दोनों का उपयोग करता है। शास्त्र आत्म-ज्ञान के लिए अंतिम प्रमाण हैं, जबकि तर्क सत्य की वैधता का परीक्षण करता है।
मन की शुद्धि के लिए 'अहं अस्मि' (मैं हूँ) का विचार सहायक है, जो देह-मन में निहित 'मैं' के भाव को नकारने में मदद करता है।
चेतना की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का विश्लेषण किया जाता है। जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को स्वप्नवत माना जाता है, क्योंकि वे दोनों ही चेतना की अभिव्यक्तियाँ हैं और वास्तविक नहीं हैं।
'उपाधि' (सीमित उपाधियाँ) की अवधारणा को समझना महत्वपूर्ण है: उपाधियाँ आत्मा की प्रकृति को ढँकती हुई प्रतीत होती हैं, और उन्हें अवास्तविक मानना ही उनका त्याग है। सुख, दुःख और पाप कर्म उपाधियों से संबंधित हैं, आत्मा से नहीं। आत्मा मूल रूप से निर्दोष और शुद्ध है।
अन्वय-व्यतिरेक (सह-उपस्थिति, सह-अनुपस्थिति) का तर्क मन और द्वैत के बीच संबंध स्थापित करता है: जहां मन है, वहां द्वैत है; जहां मन नहीं है, वहां द्वैत नहीं है।
पंच कोश विलक्षण (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोश) का विश्लेषण यह दर्शाता है कि ये कोश केवल अवास्तविक आवरण हैं और आत्मा इनका मूल सार है।
संसार को माया द्वारा आत्मा पर प्रक्षेपित एक स्वप्नवत उपस्थिति के रूप में समझा जाता है। द्वैत को माया या भ्रम का परिणाम माना जाता है।
राजा जनक के सपने का उदाहरण, अष्टावक्र गीता से, यह सिखाता है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं की वास्तविकता अस्थायी है, और केवल 'आप' (चेतना) ही सत्य हैं।
मन के नियंत्रण में बाधाएं और उनके उपाय:
मनो-नियंत्रण में चार प्रमुख बाधाएं बताई गई हैं: विक्षेप (इंद्रिय सुखों से ध्यान भटकना), लय (नींद या जड़ता), कषाय (सुप्त वासनाएँ या इच्छाएँ), और रसास्वाद (सत्त्विक आनंद का अनुभव)।
इन बाधाओं को दूर करने के लिए केवल लगन पर्याप्त नहीं है, बल्कि उचित तरीकों का उपयोग करना आवश्यक है।
एक उपाय यह है कि दुःख को याद करके इच्छाओं से मन को हटाया जाए।
समाधि के आनंद से अनासक्ति बनाए रखने के लिए विवेक (प्रज्ञा) का उपयोग करना चाहिए।
मन को नियंत्रित करने के लिए निरंतर ईश्वर का स्मरण और सार्वभौमिकता के विचार में लीन रहना सहायक होता है।
मन नियंत्रण का अंतिम लक्ष्य (आत्म-साक्षात्कार):
मन नियंत्रण का अंतिम लक्ष्य आत्मा का साक्षात्कार है, जिसे तुरीय अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है। यह मन से परे की स्थिति है, जहां द्वैत, समय, स्थान, लोग और वस्तुएं नहीं होतीं।
तुरीय को 'अदृष्ट', 'अव्यवहार्य', 'अग्राह्य', 'अलक्षण', 'अचिंत्य', 'अव्यपदेश्य' (अदृश्य, अव्यवहार्य, अगम्य, लक्षणहीन, अकल्पनीय, अवर्णनीय) कहा गया है।
इस अवस्था में, ज्ञाता, ज्ञेय (जानने योग्य) और ज्ञान का भेद समाप्त हो जाता है। ज्ञान केवल 'स्वयं होना' है, कोई क्रिया या प्रक्रिया नहीं।
यह अवस्था भयहीन, जन्मरहित, नींद रहित, नाम रहित, रूप रहित, सर्वज्ञ और शाश्वत ज्योति के रूप में वर्णित की गई है।
आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होने पर कोई बाहरी साधना आवश्यक नहीं रहती।
आत्मा के साक्षी स्वरूप को समझना महत्वपूर्ण है: साक्षी वह शुद्ध चेतना है जो सभी मानसिक प्रक्रियाओं की साक्षी है, और उनसे अलग है।
एक जीवन्मुक्त ऋषि वह होता है जो अज्ञान के अंधकार से मुक्त होकर तुरीय अवस्था में स्थापित हो जाता है। उसके लिए संसार एक स्वप्न की तरह होता है।
अद्वैतवादी अन्य विरोधी विचारों से विवाद नहीं करते, क्योंकि वे सब में स्वयं को देखते हैं, और द्वैत को केवल एक भ्रम मानते हैं।
‘ॐ’ का जप और ध्यान साधक को ईश्वर के साथ एकरूप होने में मदद करता है। यह मन को सार्वभौमिक रूप से सोचने में सक्षम बनाता है और साधक को संसार के विक्षोभों से मुक्ति दिलाता है।
दुःख स्मरण
स्रोतों के अनुसार, दुःख स्मरण (दुख का स्मरण करना या दुख को याद करना) वेदांत दर्शन में मन को अनुशासित करने और आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए सुझाए गए उपायों (साधना) में से एक है। यह विशेष रूप से विक्षेप (व्याकुलता या मन का भटकना) नामक बाधा को दूर करने के लिए एक प्रभावी विधि मानी गई है।
दुःख स्मरण का उद्देश्य और कार्यप्रणाली:
विक्षेप को दूर करना: विक्षेप मन की वह अवस्था है जहाँ वह परम ब्रह्म पर केंद्रित होने के बजाय इंद्रियों के सुखदायक विषयों पर केंद्रित रहता है। दुःख स्मरण का प्राथमिक लक्ष्य इसी व्याकुलता को दूर करना है।
इच्छा (काअ) का उन्मूलन: इंद्रिय विषयों के प्रति इच्छा ही विक्षेप का मूल कारण है, जो साधक को उसके आध्यात्मिक लक्ष्य से विचलित करती है। दुःख स्मरण इस इच्छा को खत्म करने में मदद करता है।
पीड़ा का स्मरण: इस उपाय के तहत, साधक को इंद्रिय-भोग से उत्पन्न होने वाले दुख और पीड़ा को याद दिलाना चाहिए। स्रोतों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "इच्छा को जड़ से खत्म करने के लिए, यह सुझाव दिया जाता है कि हम संवेदी भोग से उत्पन्न होने वाली पीड़ा को खुद को याद दिलाएं। लालसा की पूर्ति से केवल अधिक लालसा ही पैदा होती है"।
संसार की वास्तविकता: स्वामी कृष्णानंद बताते हैं कि इच्छाएँ वस्तुओं के संपर्क से पूरी नहीं होतीं, बल्कि ऐसी लालसाएँ प्रज्वलित होती हैं, जिससे एक अंतहीन चक्र चलता है - "चीजों के लिए इच्छा और चीजें इच्छाओं को उत्तेजित करती हैं, चीजों के लिए इच्छा और चीजें इच्छाओं को उत्तेजित करती हैं"। यह चक्र ही संसार का पहिया है, जिसमें व्यक्ति दुःख भोगता है। संसार में उलझने का कारण यह गलत धारणा है कि हम संसार का उपयोग अपनी संतुष्टि के लिए एक साधन के रूप में कर सकते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि संसार भी हमें एक साधन के रूप में उपयोग करेगा, जिससे हमें "इस जीवन में ही नहीं, बल्कि जीवन की एक श्रृंखला में भी कष्ट उठाना पड़ेगा"। इस तरह की पीड़ा, जो इच्छाओं और संसार से उत्पन्न होती है, वही दुःख है जिसे याद किया जाना चाहिए।
मन को इच्छा से विमुख करना: इंद्रिय-भोग से होने वाले नुकसान को देखने से मन को इच्छा से दूर किया जा सकता है।
अभ्यास में प्रभावशीलता: दुःख स्मरण को एक अत्यंत प्रभावी व्यवहारिक सुझाव माना गया है, जो मन-नियंत्रण में आने वाली कठिनाइयों का सामना करने में सहायक है।
संक्षेप में, दुःख स्मरण एक चेतन साधना है जिसके द्वारा साधक इंद्रिय-भोगों के क्षणिक सुख के बजाय उनसे उत्पन्न होने वाले शाश्वत दुख और संसार के अंतहीन चक्र को याद करता है। यह मन को इच्छाओं से विमुख करने और आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर केंद्रित करने का एक प्रभावी उपाय है, ताकि व्यक्ति स्वयं को एक सीमित प्राणी मानने वाली मान्यताओं को शुद्ध कर सके और आंतरिक आनंद की ओर बढ़ सके।
ईश्वर स्मरण (अजन्म ब्रह्म)
स्रोतों के अनुसार, ईश्वर स्मरण (अजन्म ब्रह्म), वेदांत दर्शन में आध्यात्मिक साधना (उपाय) का एक महत्वपूर्ण अंग है, विशेषकर मन-नियंत्रण और आत्म-साक्षात्कार के व्यापक संदर्भ में।
ईश्वर (अजन्म ब्रह्म) का स्वरूप:
ईश्वर को ब्रह्मांड का कारणभूत सत्ता (Causal State), समस्त व्यक्त अस्तित्व का स्वामी, सर्वज्ञ, आंतरिक नियंत्रक और सभी चीजों का स्रोत माना जाता है।
ब्रह्म (अजन्म ब्रह्म) परम वास्तविकता है। इसे 'अज' (जन्म रहित), अकारण (न कारण और न कार्य), असंग (असंबंधी), निरपेक्ष (बिना किसी संबंध के), और तुरीय (चेतना की चौथी अवस्था) के रूप में वर्णित किया गया है। यह न तो स्थूल, न सूक्ष्म और न ही कारण रूप है।
गौड़पाद के दर्शन में 'अजातिवाद' (उत्पत्ति का अभाव) का सिद्धांत विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जो यह बताता है कि तुरीय (ब्रह्म) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता।
ब्रह्म को अपने शुद्ध रूप में निर्गुण (गुण रहित) बताया गया है, लेकिन माया के माध्यम से यह सगुण (गुणों सहित) रूप में भी प्रकट होता है। ईश्वर माया से जुड़ा ब्रह्म है, जो ब्रह्मांड का निर्माता, पालक और संहारक है। सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म अलग-अलग ब्रह्म नहीं हैं, बल्कि एक ही सत्य के दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं।
आत्मा (स्वयं) को ही ब्रह्म बताया गया है।
उपाय (साधना) के रूप में ईश्वर स्मरण: आध्यात्मिक प्रगति और मुक्ति के लिए ईश्वर/ब्रह्म के स्मरण या चिंतन को विभिन्न साधनों के माध्यम से सुझाया गया है:
ओंकार ध्यान: मांडूक्य उपनिषद ओम (प्रणव) के रहस्यमय अक्षर की व्याख्या करता है, जिसका उद्देश्य मन को ध्यान में प्रशिक्षित करना है, ताकि व्यक्तिगत आत्मा (जीव) परम वास्तविकता (ब्रह्म) के साथ एकरूप हो सके।
वैश्वानर विद्या: इस ध्यान में ब्रह्मांड को अपना ही शरीर मानकर उसका चिंतन किया जाता है। जब व्यक्ति वस्तुओं को ब्रह्मांडीय शरीर का हिस्सा मानता है, तो वे वस्तुएँ मन को विचलित करना बंद कर देती हैं। यह वृहदपुरुष (कॉस्मिक बीइंग) को सभी रूपों और कार्यों में समाहित करने के रूप में वर्णित है।
ब्रह्म की उपस्थिति का आवाहन: मांडूक्य उपनिषद जीव को ईश्वर में स्थापित करने की एक सीधी विधि सुझाता है, जिसमें ईश्वर या ब्रह्म की उपस्थिति को अपनी सत्ता में आमंत्रित करना और उसे अपने हृदय में स्थान देना शामिल है। चूँकि ईश्वर एक सार्वभौमिक स्वरूप है, उसे ओं या प्रणव जैसे सार्वभौमिक नाम से ही पुकारा जाना चाहिए।
सांद्रता और शुद्धिकरण: ओं का उचित जाप ब्रह्मांडीय स्पंदन के साथ एक सहानुभूतिपूर्ण स्पंदन पैदा करता है, जिससे व्यक्ति ब्रह्मांड के साथ तालमेल बिठाता है और उसकी धारा के साथ बहने लगता है। यह जीव के विचारों के बजाय ईश्वर के सार्वभौमिक विचार की ओर ले जाता है। मन की शुद्धि और एकाग्रता के लिए साधनाएँ शुद्ध साक्षी/चेतना की सराहना करने में सहायक होती हैं।
अनात्म भाव का त्याग: मन-नियंत्रण में विक्षेप (व्याकुलता), लय (सुप्तता), कषाय (सुप्त वासनाएँ) और रसास्वाद (सात्विक आनंद में आसक्ति) जैसी चार प्रमुख बाधाएँ होती हैं। विक्षेप को दूर करने के लिए इंद्रिय-भोग से होने वाले दुखों का स्मरण करना चाहिए, क्योंकि इच्छा ही व्याकुलता का मूल कारण है।
निर्विकल्प ज्ञान (अमनी भाव): दृष्टिश्रष्टिवाद (D-S Model) नामक प्रत्यक्ष मार्ग में मन को 'अमनी भाव' (मन रहित अवस्था) की ओर ले जाना होता है ताकि तुरीय को प्राप्त किया जा सके। इसका अर्थ है विचारों को रोकना और आत्म-सत्य के ज्ञान पर आधारित होना, जैसे 'तत्त्वमसि' (वह तुम ही हो)।
अभेद का बोध: जीव और ब्रह्म की पहचान का ज्ञान ही उच्चतम ज्ञान है, जो संतों की ज्ञान की पराकाष्ठा है। मोक्ष (परम स्वतंत्रता) का अर्थ है अपनी सत्ता को जीवत्व से ईश्वरत्व में बदलना, अपने वास्तविक स्वरूप में स्वतंत्र रूप से विद्यमान होना।
अजाति प्रकाश (जन्म रहित आत्म-प्रकाश): तुरीय/ब्रह्म को अजन्मा, अमर, अपरिवर्तित, अखंड, निर्दोष और निष्पाप बताया गया है। आत्म-ज्ञान का अर्थ है इन झूठी पहचानों का त्याग करना। 'अजम प्रकाशते' (जन्म रहित आत्मा स्वयं प्रकाशित होती है) का अर्थ है विचार-आधारित सिद्धांतों को नकार कर जन्म रहित आत्म-स्वरूप को जानना।
संक्षेप में, मांडूक्य उपनिषद, यदि इसके वास्तविक अर्थ को आत्मसात किया जाए, तो वह स्वयं मुक्ति के लिए पर्याप्त माना जाता है। यह मन को अनुशासित करने, इंद्रिय सुखों से उत्पन्न होने वाले विक्षेप को दूर करने, और अंततः अजन्मा ब्रह्म के साथ अपनी अविभाज्य एकता को समझने के लिए प्रत्यक्ष और प्रभावी साधन प्रदान करता है।
गुणों पर कार्य करना (तमस-रजस-सत्व)
स्रोतों के अनुसार, गुणों पर कार्य करना (तमास-राजस-सत्व) मन को नियंत्रित करने और आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त करने के उपायों (साधना) के व्यापक संदर्भ में एक महत्वपूर्ण विधि है।
गुणों का स्वरूप और उनकी अभिव्यक्ति: प्रकृति के तीन गुण - तमास (जड़ता या निष्क्रियता), रजस (गतिविधि या जुनून), और सत्व (शुद्धता या संतुलन) - वास्तविकता की अभिव्यक्ति के विभिन्न स्तरों के लिए जिम्मेदार हैं।
तमास: यह मुख्यतः निर्जीव अस्तित्व के रूप में प्रकट होता है, जैसे कि पत्थर या चट्टान, जिनमें चेतना का अभाव प्रतीत होता है।
रजस: रजस और सत्व अधिक प्रकट रूप से सजीव अस्तित्व में दिखते हैं। प्राण (जीवन sustaining शक्ति) जीवन की पहली अभिव्यक्ति है। पौधे सांस लेते हैं लेकिन जानवरों की तरह सोचते नहीं हैं। जानवरों में सोचने (मन) का कार्य एक उच्च स्तर की वास्तविकता से संबंधित है।
सत्व: सत्व की अभिव्यक्ति मानव स्तर पर अधिक स्पष्ट होती है, जहाँ सांस लेने और सोचने के अलावा, समझने, तर्क करने और तार्किक भेदभाव (विज्ञान) जैसे कार्य भी मौजूद होते हैं। यह अवस्था आनंद (आनंद) या दिव्य प्रसन्नता के क्षेत्र की ओर ले जाती है।
साधना के रूप में गुणों पर कार्य करना: "सृष्टि-दृष्टि वाद" नामक आध्यात्मिक मार्ग में, "गुणों पर कार्य करना" मानसिक अनुशासन के "उचित साधनों" में से एक के रूप में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। यह दर्शाता है कि इन गुणों को समझना और प्रबंधित करना मन-नियंत्रण और आध्यात्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण साधना का हिस्सा है।
रसास्वाद और सात्विक आनंद: मन-नियंत्रण में आने वाली चार प्रमुख बाधाओं में से एक रसास्वाद (सात्विक आनंद में आसक्ति) है। यह सविकल्प समाधि के आनंद का स्वाद लेना है, जो मन को निरपेक्ष ब्रह्म पर स्थिर होने से रोकता है। यह सीधे तौर पर सत्व गुण को एक बाधा से जोड़ता है जिसे साधना के भाग के रूप में दूर करने की आवश्यकता होती है। इसका तात्पर्य यह है कि साधक को सात्विक अनुभवों से भी आसक्ति से मुक्त होना चाहिए, क्योंकि यह परम सत्य की प्राप्ति में बाधा बन सकता है।
मन की शुद्धि और इच्छाविहीनता: इन अभ्यासों का समग्र लक्ष्य मन की शुद्धि है। सात्विक आहार, जिसे इंद्रियों द्वारा प्राप्त शुद्ध कंपन के रूप में परिभाषित किया गया है, व्यक्तित्व के भीतर से सत्व की रोशनी में योगदान देता है। विराट की शक्ति इच्छाविहीनता में निहित है, जो यह दर्शाता है कि व्यक्ति जितनी अधिक इच्छा करता है, वह उतना ही कमजोर होता जाता है। जीव से ईश्वरत्व की ओर संक्रमण में इच्छाविहीनता शामिल है, जिसका अर्थ है सांसारिक आसक्तियों और इच्छाओं का अतिक्रमण करना जो गुणों से बंधी हुई हैं।
विवेक (आसक्ति से मुक्ति)
स्त्रोतों के अनुसार, विवेक (विभेद या विवेकशक्ति) मन को नियंत्रित करने में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए सुझाए गए उचित उपायों (proper methods) में से एक है। यह मानसिक अनुशासन के लिए आवश्यक है, विशेष रूप से "सृष्टि-दृष्टि वाद" (Srishti-Drishti Vada) मार्ग के साधकों के लिए, जो संसार के माध्यम से वास्तविकता की तलाश करते समय मन की चंचलता से जूझते हैं।
विवेक और रसास्वाद: रसास्वाद को मन पर नियंत्रण की चार मुख्य बाधाओं में से एक माना गया है। यह "सात्त्विक आनंद में आसक्ति" है, जहाँ मन सविकल्प समाधि के आनंद में लीन हो जाता है और निरपेक्ष ब्रह्म पर स्थिर नहीं हो पाता। इस बाधा को दूर करने के लिए विवेक (प्रज्ञा) का उपयोग एक विधि के रूप में किया जाता है। प्रज्ञा के माध्यम से साधक को सात्त्विक आनंद की अवस्था से आसक्त न होने (Do not get attached to the bliss of that state) और आसक्ति से मुक्त (free it from attachment) रहने का निर्देश दिया जाता है।
मन को अनुशासित करने के लिए अन्य उपाय: विवेक के साथ-साथ, मन को अनुशासित करने के लिए अन्य "उचित तरीकों" की भी आवश्यकता होती है। इन तरीकों का उद्देश्य चार मुख्य बाधाओं — विक्षेप (ध्यान भंग), लय (नींद या सुस्ती), कषाय (सुप्त वासनाएँ), और रसास्वाद (सात्त्विक आनंद में आसक्ति) — को दूर करना है। इसमें केवल लगन ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि बुद्धि और ज्ञान के साथ कार्य (work has to be done with intelligence and knowledge) करना भी आवश्यक है।
विवेक का व्यापक संदर्भ:
अनासक्ति और शुद्धिकरण: विवेक का उपयोग मन को इच्छाओं के उपभोग से विमुख (withdraw the mind from enjoyment of desire) करने और सांसारिक सुखों से होने वाले दुख को याद दिलाने (Remembering Sorrow) में मदद करता है।
आत्म-बोध: विवेक एक शुद्ध विवेकशक्ति (pure discrimination) के रूप में कार्य करता है, जो साधक को शरीर, मन और बुद्धि के उपाधियों से अपनी पहचान को अलग करने (Realize through pure discrimination I am not them) में मदद करता है। यह जाग्रत और स्वप्न जैसी अवस्थाओं से स्वयं को अलग करने में भी सहायक है, जिससे मन के अखिल गतिरोधों (cessation of all mental activity) को शांत किया जा सकता है।
तटस्थ अवलोकन: विवेक हमें जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं के बीच निष्पक्ष तुलना (dispassionate comparison) करने में सक्षम बनाता है, जिससे यह पूर्वाग्रह हट जाता है कि एक अवस्था दूसरी से अधिक वास्तविक है। यह अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचने में मदद करता है कि न तो यह सत्य है और न ही वह सत्य था. केवल आप ही सत्य हैं (neither this is true nor was that true. Only you are true)।
इस प्रकार, विवेक केवल मन को शांत करने का एक साधन नहीं है, बल्कि यह वास्तविकता की सही प्रकृति को समझने और आत्म-साक्षात्कार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
दर्शनिक मत और मंडन
माण्डूक्य उपनिषद के अद्वैत प्रकरण के व्यापक संदर्भ में, स्रोतों में दार्शनिक मतों और उनके मंडन (खंडन) पर विस्तृत चर्चा की गई है। अद्वैत प्रकरण (अद्वैतवाद का दर्शन) गौड़पाद की कारिका का तीसरा अध्याय है, जो ब्रह्म की अद्वैतता पर केंद्रित है और विरोधी विचारों का खंडन करता है।
विभिन्न दार्शनिक मत: स्रोतों में कई दार्शनिक मतों का उल्लेख है जिनके साथ अद्वैत वेदांत (जिसके शंकराचार्य मुख्य प्रणेता माने जाते हैं) का संवाद या खंडन होता है:
द्वैतवादी मत (Dualistic Schools): इन मतों के अनुयायी अपने सिद्धांतों पर दृढ़ता से टिके रहते हैं और अक्सर आपस में भी झगड़ते हैं। वे मानते हैं कि अपरिवर्तनशील आत्मा सृष्टि के दौरान बदलती है, और ईश्वर तथा जीव अलग-अलग हैं। गौड़पाद उन्हें "कृपण बुद्धि" (miserly intellect) वाला मानते हैं, जो अपने तयशुदा बौद्धिक स्थिति पर अड़े रहते हैं। गौड़पाद के अनुसार, द्वैत ही संसार (दुःख और समस्या का मूल) है।
मीमांसा: यह मत कर्मकांडों (अनुष्ठानों) पर जोर देता है और मांडण मिश्र इसे वेदांत के साथ एक प्रणाली मानते थे। हालांकि, अद्वैत वेदांत कर्मकांडों की जगह संन्यास को प्राथमिकता देता है।
बौद्ध दर्शन: गौड़पाद पर अक्सर "छिपे हुए बौद्ध" होने का आरोप लगाया गया है क्योंकि उन्होंने बौद्ध शब्दों और तर्कों का उपयोग किया है। उनका अजातिवाद (गैर-उत्पत्ति का सिद्धांत) माध्यमिक दर्शन पर आधारित प्रतीत होता है। हालांकि, गौड़पाद को शुद्ध वेदांती माना जाता है क्योंकि वे आगम (शास्त्रों के प्रमाण) में विश्वास रखते हैं, आत्मा की नित्यता को स्वीकार करते हैं (बौद्धों के अनात्मवाद के विपरीत), और बौद्ध आचार्यों ने स्वयं गौड़पाद का खंडन किया है।
सांख्य और वैशेषिक: इन स्कूलों के "बहु आत्माओं" (multiple Atmans) के विचार पर वेदांती उनके तर्क में दोष बताते हैं।
भौतिकवादी (चार्वक): यह मत मानता है कि मन पदार्थ से विकसित हुआ है, जिसे वेदांत तार्किक रूप से गलत बताता है।
उपासक: ये वे साधक हैं जो भगवान को स्वयं से अलग मानकर पूजा और ध्यान करते हैं (भक्ति)। गौड़पाद इस अभ्यास को अस्थायी मानते हैं, जिसे परम सत्य तक पहुंचने के लिए छोड़ना पड़ता है।
दार्शनिक मतों का मंडन (खंडन): अद्वैत प्रकरण दार्शनिक मतों का खंडन करने और अद्वैत सिद्धांत को स्थापित करने के लिए तर्क और शास्त्रों के प्रमाण दोनों का उपयोग करता है।
द्वैत का खंडन: गौड़पाद तर्क देते हैं कि द्वैत संसार का कारण है और दुःख, इच्छा और भय को जन्म देता है। यहाँ तक कि भक्ति के द्वैतवादी रूप को भी वे संसार का ही एक हिस्सा मानते हैं। द्वैतवादी अवधारणाओं को तार्किक रूप से असत्य सिद्ध किया जाता है और अस्वीकृत कर दिया जाता है।
सृष्टि के सिद्धांत का खंडन (अजातिवाद): अद्वैत प्रकरण का एक केंद्रीय तर्क अजातिवाद (गैर-उत्पत्ति या गैर-सृष्टि का सिद्धांत) है। गौड़पाद यह सिद्ध करने के लिए तर्क का उपयोग करते हैं कि तुरीय (आत्मन) न तो जीव और न ही ब्रह्मांड का कारण है। उनका तर्क है कि जो परम सत्य "जन्मरहित" है, वह उत्पन्न नहीं हो सकता। सृष्टि को केवल माया के कारण एक आभासी उत्पत्ति माना जाता है, वास्तविक नहीं।
आक्षेपों का समाधान: गौड़पाद की कारिका का चौथा अध्याय, अलातशांति प्रकरण, मुख्य रूप से सामान्य ज्ञान और विभिन्न दार्शनिक मतों से आने वाले आक्षेपों और प्रश्नों का उत्तर देने पर केंद्रित है।
अद्वैती का दृष्टिकोण: अद्वैती अन्य विचारों की आलोचनाओं के प्रति उदासीन रहते हैं, क्योंकि वे द्वैत को एक भ्रम या अद्वैत का एक प्रभाव मानते हैं, और सभी में स्वयं को देखते हैं। वे झगड़े में नहीं पड़ते क्योंकि वे इसे मूर्खतापूर्ण मानते हैं।
मन-आधारित दर्शन: गौड़पाद का दर्शन मन से परे है, जो द्वैतवादियों जैसे "कमजोर, मन-आधारित दर्शन" के लिए स्वीकार करना कठिन बनाता है।
शास्त्रों की व्याख्या: वेदों में निहित कुछ द्वैतवादी निर्देश (जैसे "केवल आत्मा ही ज्ञातव्य है") को विभिन्न स्तर के साधकों (निम्न, मध्यम, श्रेष्ठ) के लिए दया के कारण प्रदान की गई अस्थायी शिक्षाएँ माना जाता है, जो अंततः उन्हें अद्वैत ज्ञान की ओर ले जाती हैं।
संक्षेप में, अद्वैत प्रकरण तार्किक विश्लेषण और शाब्दिक प्रमाण का उपयोग करते हुए, द्वैत, सृष्टि की वास्तविकता, और अन्य दार्शनिक मतों से जुड़े भ्रमों का खंडन करता है, ताकि परम अद्वैत सत्य को स्थापित किया जा सके।
श्रुति प्रमाण (शास्त्र)
स्त्रोतों के अनुसार, श्रुति प्रमाण (शास्त्र) अद्वैत वेदांत में आत्मा (आत्मन) और ब्रह्म (परम सत्य) के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण और आधिकारिक साधन है, खासकर जहाँ अन्य ज्ञान के साधन विफल हो जाते हैं। यह केवल दार्शनिक तर्क से परे, ऋषियों के प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित है।
श्रुति प्रमाण का स्वरूप और महत्व:
परम सत्ता का ज्ञान: श्रुति, विशेष रूप से उपनिषद, परम सत्ता के ज्ञान का अंतिम साधन है, क्योंकि इसे मन से पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता। यह संवेदी धारणा से परे के विषयों के लिए आवश्यक है।
तर्क के साथ सामंजस्य: हालाँकि तर्क स्वयं सत्य को साबित या खंडन नहीं कर सकता, श्रुति को तर्क द्वारा समर्थित किया जा सकता है, जिससे एक "खुशहाल विवाह" बनता है। यदि कोई विचार तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, तो उसके सत्य होने की कोई संभावना नहीं है। शंकराचार्य का मत है कि वेदान्ती श्रुतियों को तभी स्वीकार करते हैं जब वे पूछताछ से भली-भांति प्रमाणित हों और तर्क से बोधगम्य हों।
जन्म-रहित आत्मन की पुष्टि: श्रुति इस सत्य की पुष्टि करती है कि शरीर उपाधि ही जन्म और मृत्यु के अधीन हैं, जबकि आत्मा अमर है और हमेशा अस्तित्व में रहती है।
ब्रह्म की प्रकृति: उपनिषद ब्रह्म की प्रकृति की शिक्षा देते हैं, और केवल अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है। श्रुति प्रमाण इस सत्य का समर्थन करता है कि जीव और ब्रह्म में कोई भिन्नता नहीं है।
दार्शनिक मत और मंडन (खंडन-मंडन):
द्वैतवादी विचारों का खंडन और अद्वैत की स्थापना:
द्वैत का खंडन: श्रुति स्पष्ट रूप से जीव और ब्रह्म के बीच अभेद (गैर-भिन्नता) की प्रशंसा करती है और बहुलता (द्वैत) की धारणा की निंदा करती है। यह बताती है कि द्वैत (अंतर) से भय उत्पन्न होता है।
सृष्टि सिद्धांत और माया: उपनिषद में सृष्टि के कई सिद्धांत दिए गए हैं (जैसे मिट्टी, सोना, और चिंगारी के उदाहरण)। गौड़पाद कहते हैं कि ये उदाहरण केवल अद्वैत (गैर-द्वैत) सत्य की व्याख्या करने के लिए एक उपाय (विधि) हैं, न कि द्वैत को बढ़ावा देने के लिए। सृष्टि को माया की भ्रामक शक्ति के कारण केवल एक प्रकट माना जाता है, जो अवास्तविक है।
उपासना और द्वैतवाद: गौड़पाद उन उपासकों की आलोचना करते हैं जो उपासना (पूजा और ध्यान) के माध्यम से ईश्वर से अपनी भिन्नता को दृढ़ता से बनाए रखते हैं। वह इसे "कृपण बुद्धि" (मिसरली इंटेलेक्ट) कहते हैं क्योंकि यह साधक को आत्म-साक्षात्कार के उच्चतम स्तर तक पहुंचने से रोकता है, जहाँ उपासक और उपास्य एक हो जाते हैं। गौड़पाद के अनुसार, इस ग्रंथ का उद्देश्य ऐसे साधकों को उच्च ज्ञान तक ले जाना है जो इस अवस्था से आगे बढ़ चुके हैं।
द्वैत की प्रकृति: अद्वैत मानता है कि द्वैत परमार्थिक सत्य नहीं है, बल्कि यह माया का एक प्रभाव या उत्पाद है। यह द्वैतवादियों के साथ अद्वैत के टकराव को रोकता है, क्योंकि अद्वैती सभी द्वैत को एक भ्रम या सापेक्षिक वास्तविकता मानते हैं।
अजातिवाद (गैर-उत्पत्ति का सिद्धांत): गौड़पाद का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत अजातिवाद है, जो तर्क और उपनिषद के समर्थन से यह स्थापित करता है कि न तो कोई जीव और न ही कोई ब्रह्मांड वास्तव में आत्मन (तुरीय) से उत्पन्न होता है; वे केवल प्रकट होते हैं। यह द्वैतवादी सिद्धांतों का खंडन करता है कि कुछ भी अमर से पैदा हो सकता है।
अद्वैत का रक्षात्मक और सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण:
शिक्षण का अनुकूलन: शंकराचार्य ने गौड़पाद के कार्यों को ब्रह्म सूत्र के साथ एकीकृत किया और अद्वैत वेदांत की एक मानक व्याख्या दी। शंकराचार्य ने अद्वैत को दुनिया को समझाने के लिए "छूट" भी दीं, यह स्वीकार करते हुए कि सभी तुरंत गौड़पाद के कट्टरपंथी गैर-द्वैत को स्वीकार नहीं कर सकते। वह वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: प्रतीभासिक (भ्रम), व्यवहारिक (सांसारिक) और पारमार्थिक (परम)।
अन्य दार्शनिक विद्यालयों के साथ व्यवहार: गौड़पाद ने बौद्धों सहित अन्य दार्शनिक विद्यालयों द्वारा उठाई गई गहरी आपत्तियों का भी खंडन किया है। हालांकि गौड़पाद ने बौद्ध तर्क पद्धतियों का उपयोग किया, लेकिन उनका लक्ष्य उपनिषद के अद्वैत आत्मा को स्थापित करना था।
मन की शुद्धि और ज्ञान: श्रुति प्रमाण, जैसे "आत्म सत्य अनुबोध" (Atma Satya Anubodha) (Tat Twam Asi), आत्म-ज्ञान की प्राप्ति में मन को शांत करने और शुद्ध करने में सहायक होता है।
अनासक्ति और विवेक: रसास्वाद (सात्विक आनंद में आसक्ति) को मन-नियंत्रण में एक बाधा माना गया है। विवेक (विभेद) के माध्यम से, साधक को इस आनंद से आसक्त न होने और मन को आसक्ति से मुक्त रखने का निर्देश दिया जाता है। यह साधना के उचित उपायों में से एक है।
युक्ति प्रमाण (तर्क)
स्रोतों के अनुसार, युक्ति प्रमाण (तर्क) अद्वैत वेदांत में एक केंद्रीय भूमिका निभाता है, विशेषकर दर्शनिक मतों के मंडन (दार्शनिक विचारों के खंडन और प्रतिपादन) और स्वयं के सिद्धांतों की स्थापना के व्यापक संदर्भ में। यह साधना के मार्ग पर बुद्धि और ज्ञान के साथ कार्य करने का एक महत्वपूर्ण "उपाय" (साधन) है।
युक्ति प्रमाण (तर्क) की भूमिका:
सत्य की वैधता का परीक्षण: अद्वैत वेदांत में, तर्क का उपयोग सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक अपरिहार्य मार्गदर्शक के रूप में किया जाता है। यदि कोई सिद्धांत तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है, तो उसके सत्य होने की कोई संभावना नहीं होती। शंकराचार्य का मानना था कि श्रुतियों (शास्त्रों) को तभी स्वीकार किया जाना चाहिए जब उन्हें जांच के माध्यम से अच्छी तरह से सत्यापित किया जाए और तर्क के माध्यम से उन्हें समझा जा सके।
जगत की असत्यता का प्रमाणन: गौड़पाद ने अपने मांडूक्य कारिका के दूसरे अध्याय में तर्क का उपयोग करके संसार की वितथता या मिथ्यात्व (असत्यता) को सिद्ध किया है। उदाहरण के लिए, वे बताते हैं कि जागरण और स्वप्न दोनों ही अवस्थाएं तर्क से स्वप्नवत प्रतीत होती हैं, क्योंकि दोनों ही अनुभव मिथ्या होते हैं।
आत्मन की अद्वैतता की स्थापना: तर्क का उपयोग करके आत्मन की गैर-द्वैतता (अद्वैत) को सिद्ध किया जाता है। अजातिवाद (गैर-उत्पत्ति का सिद्धांत) गौड़पाद का एक प्रमुख तार्किक सिद्धांत है, जिसके अनुसार तुरीय (चतुर्थ अवस्था) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि यदि कुछ उत्पन्न होता है तो द्वैत आ जाएगा। इस प्रकार, यदि कोई प्रभाव नहीं है, तो कोई कारण भी नहीं है, और यदि कोई कारण नहीं है, तो वह गैर-द्वैत है।
माया की अवधारणा को समझना: तर्क और अनुभव के आधार पर माया की अवधारणा को विकसित किया गया है। यह समझाया जाता है कि संसार माया की शक्ति से प्रक्षेपित होता है, जो कि अज्ञान का एक रूप है।
अनासक्ति और इच्छाविहीनता: तर्क का उपयोग यह समझाने के लिए किया जाता है कि इच्छाएँ मनुष्य की कमजोरी हैं, और इच्छाविहीनता ही विराट (कॉस्मिक बीइंग) की शक्ति है। जितना अधिक व्यक्ति इच्छा करता है, उतना ही वह कमजोर होता जाता है; जितनी कम इच्छा करता है, उतना ही वह मजबूत होता है।
अनुशासन में सहायक: मन को अनुशासित करने के लिए सही उपायों की आवश्यकता होती है, जिसमें केवल लगन ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि बुद्धि और ज्ञान के साथ कार्य करना भी आवश्यक है।
दर्शनिक मत और मंडन:
अद्वैत वेदांत का मूल: गौड़पाद का मांडूक्य कारिका (जिसे गौड़पाद कारिका भी कहा जाता है) अद्वैत वेदांत पर पहला व्यवस्थित और पूर्ण पाठ माना जाता है। शंकराचार्य ने गौड़पाद के कार्य को आगे बढ़ाया और उसे ब्रह्म सूत्रों के साथ एकीकृत किया, जिससे उनका भाष्य अद्वैत वेदांत की मानक व्याख्या बन गया।
विभिन्न दार्शनिक मतों का खंडन: गौड़पाद ने अपने चौथे अध्याय में विभिन्न दार्शनिक विद्यालयों से आने वाली आपत्तियों और उनके उत्तरों पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया है। भारतीय दर्शन में 12 प्रमुख विद्यालय हैं, जिनमें चार्वाक (भौतिकवादी), जैन, चार बौद्ध विद्यालय (वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार, माध्यमिक) और छह वैदिक विद्यालय (न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, सांख्य, योग, वेदांत) शामिल हैं।
बौद्ध दर्शन के साथ संबंध: गौड़पाद पर अक्सर बौद्ध दर्शन (विशेषकर शून्यता और योगाचार विज्ञान) के प्रभाव का आरोप लगाया जाता है क्योंकि उन्होंने बौद्ध शब्दावली और तार्किक पद्धति का उपयोग किया है। हालांकि, गौड़पाद को शुद्ध वेदांती माना जाता है क्योंकि उन्होंने इन पद्धतियों का उपयोग आत्मन की अद्वैतता (गैर-द्वैतता) को सिद्ध करने के लिए किया, जो उपनिषदों में प्रतिपादित है और बौद्धों के अनात्मवाद के विपरीत है। गौड़पाद ने यह दिखाने का प्रयास किया कि बौद्ध और औपनिषदिक विचारधाराओं में सार रूप से कोई विरोध नहीं है।
द्वैतवादी विचारों का खंडन: अद्वैत वेदांत द्वैतवादी (द्वैत) विचारधाराओं को कठोरता से खारिज करता है, जो ईश्वर और जीवात्मा को अलग मानते हैं। गौड़पाद द्वैतवादी दृष्टिकोण को "कृपण बुद्धि" (मिसरली इंटेलेक्ट) और एक प्रकार का "संसार" मानते हैं। उनके अनुसार, द्वैतवादियों का आपस में विरोध करना उनके पसंद और नापसंद से बंधे होने को दर्शाता है, जबकि अद्वैती आलोचनाओं से अप्रभावित रहते हैं क्योंकि वे द्वैत को एक भ्रम मानते हैं। अद्वैतवादियों का दृष्टिकोण द्वैतवादियों से नहीं टकराता क्योंकि द्वैत को अद्वैत का एक प्रभाव या उत्पाद माना जाता है, जो माया की भ्रमकारी शक्ति से उत्पन्न होता है।
यथार्थ के स्तर: शंकराचार्य यथार्थ के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: प्रातिभासिक (भ्रम या स्वप्न), व्यावहारिक (जागृत अवस्था की संव्यवहारिक वास्तविकता), और पारमार्थिक (परम सत्य ब्रह्म)। हालांकि, गौड़पाद अधिक कट्टरपंथी दृष्टिकोण अपनाते हुए जागृत और स्वप्न अवस्थाओं दोनों को प्रातिभासिक (मात्र उपस्थिति) के रूप में एक साथ रखते हैं, यह तर्क देते हुए कि दोनों ही मिथ्या हैं।
अजातिवाद बनाम सापेक्षिक यथार्थ: गौड़पाद का अजातिवाद (गैर-सृष्टि का सिद्धांत) एक कट्टरपंथी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसके अनुसार कोई भी जीव या ब्रह्मांड वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है, बल्कि वे हमेशा तुरीय ही हैं। यह शंकराचार्य के "नए स्कूल" के विपरीत है, जो बहुलवादी दुनिया के लिए एक सापेक्षिक वास्तविकता को स्वीकार करता है।
आत्म-साक्षात्कार और जीवनमुक्ति: अद्वैत का अंतिम लक्ष्य मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार है, जिससे जीवनमुक्ति (इस जीवन में मुक्ति) प्राप्त होती है। यह ज्ञान-कर्म-भक्ति के माध्यम से प्राप्त होता है, हालांकि शंकराचार्य के अनुसार वैदिक बलिदान, पूजा और भक्ति व्यक्ति को सच्चे ज्ञान की दिशा में ले जा सकते हैं, लेकिन वे सीधे मोक्ष की ओर नहीं ले जाते।
सारांश में, युक्ति प्रमाण अद्वैत वेदांत के दार्शनिक ढांचे में एक आधारभूत उपकरण है, जिसका उपयोग शास्त्रों के साथ मिलकर सत्य को स्थापित करने, भ्रमों को दूर करने और विभिन्न दर्शनिक मतों का खंडन करने के लिए किया जाता है, जबकि अद्वैत की परम गैर-द्वैतवादी प्रकृति को बनाए रखा जाता है।
खंडित मत
स्रोतों के अनुसार, खंडित मत दार्शनिक विचारों को संदर्भित करते हैं जो द्वैत पर आधारित होते हैं और अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से अपूर्ण या विरोधाभासी माने जाते हैं। दार्शनिक मतों और उनके खंडन (मंडन) के व्यापक संदर्भ में, अद्वैत वेदांत इन खंडित मतों को आध्यात्मिक विकास के निचले चरणों के लिए आवश्यक मान सकता है, लेकिन परम सत्य के लिए उन्हें छोड़ना ही पड़ता है।
खंडित मतों का स्वरूप: खंडित मत मुख्य रूप से द्वैतवादी दर्शन से जुड़े हैं। इन मतों की विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
द्वैत की प्रधानता: ये मत आत्मन (व्यक्तिगत आत्मा) और ब्रह्मन् (परम वास्तविकता) के बीच भेद देखते हैं, और इस भेद को शाश्वत मानते हैं।
सांसारिक समस्याओं का मूल: द्वैत को ही संसार (samsara), जन्म, वृद्धि, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, इच्छा और भय सहित सभी समस्याओं का स्रोत माना गया है। यहाँ तक कि भक्त और ईश्वर के बीच का द्वैत संबंध भी एक प्रकार का संसार ही है।
सीमित दृष्टिकोण: द्वैतवाद हमें असीम से सीमित प्राणियों में बदल देता है, जिससे व्यक्ति छोटा, तुच्छ और दयनीय (kripanah) हो जाता है।
तर्क-वितर्क और आसक्ति: द्वैतवादी अपने-अपने सिद्धांतों से दृढ़ता से चिपके रहते हैं और अक्सर एक-दूसरे के साथ झगड़ते हैं, जो उनकी पसंद-नापसंद (likes and dislikes) में निहित होता है और इसे आध्यात्मिक रूप से अनुचित माना जाता है। गौड़पाद के अनुसार, ये सिद्धांत "मनगढ़ंत" (cooked up) और "समझने में कठिन" (not easy of comprehension) होते हैं, क्योंकि वे तर्क को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं।
सृष्टि की वास्तविकता पर भ्रम: द्वैतवादी मानते हैं कि परिवर्तन रहित आत्मन् सृष्टि के दौरान बदलता है। उनके लिए दुनिया भौतिक है, तत्वों के विभिन्न संयोजन से बनी है, और मानसिक रूप से, यह सूक्ष्म पदार्थ है जैसे विचार, भावनाएँ और कल्पनाएँ। इच्छाएँ वस्तुओं के सार को न समझने के कारण उत्पन्न होती हैं, जिसमें वे यह धारणा रखते हैं कि अनेकता एक वास्तविकता है।
दार्शनिक मतों का मंडन (खंडन और स्थापना): अद्वैत वेदांत, विशेष रूप से गौड़पाद और शंकराचार्य के माध्यम से, इन खंडित मतों का खंडन करने और अपने अद्वैत सिद्धांत की स्थापना के लिए कई उपाय (उपाय) प्रस्तुत करता है।
तर्क और शास्त्र का समन्वय: गौड़पाद मुख्य रूप से तार्किक विश्लेषण (logical analysis) और शास्त्रीय प्रमाण (scriptural authority) का उपयोग करके अद्वैत सिद्ध करते हैं। उनका मानना है कि तर्क सत्य की वैधता का परीक्षण कर सकता है, भले ही वह उसे पूरी तरह से सिद्ध न कर सके।
सृष्टि की मिथ्याता का प्रदर्शन:
गौड़पाद "अजातिवाद" (अनुत्पत्ति/अकारणता) का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं, जिसका अर्थ है कि परम आत्मन (तुरीय) से कुछ भी वास्तविक रूप से उत्पन्न नहीं होता है। जीवात्माएँ और ब्रह्मांड तुरीय से वास्तव में उत्पन्न नहीं हुए हैं।
माया (Maya) को ही सभी प्रकट रूपों और द्वैत का कारण माना जाता है, न कि वास्तविकता का। माया को "अनिर्वचनीय" (anirvachaniya) के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है कि इसे न तो पूरी तरह से वास्तविक और न ही पूरी तरह से असत्य कहा जा सकता है।
घट-आकाश (Pot-space) का दृष्टांत: वे दिखाते हैं कि कैसे शरीर के बनने से व्यक्तिगत चेतना उत्पन्न नहीं होती है, जैसे घड़े के बनने से आकाश उत्पन्न नहीं होता है।
स्वप्न का दृष्टांत: स्वप्न के उदाहरण का उपयोग यह तर्क देने के लिए किया जाता है कि जाग्रत अवस्था भी स्वप्न की तरह एक प्रतीति मात्र है, और तुरीय से कोई दूसरी चीज़ उत्पन्न नहीं हुई है। शंकराचार्य इसे "प्रपञ्चोपशम" (cessation of phenomena) कहते हैं, जिसका अर्थ है कि तुरीय में सभी घटनाएँ शांत हो जाती हैं।
शंकराचार्य का व्यवहारिक दृष्टिकोण:
शंकराचार्य, गौड़पाद के विचारों पर विस्तार करते हुए, वास्तविकता की क्रमिकता (gradation of reality) को स्वीकार करते हैं। वह परमार्थिका (परम वास्तविकता - ब्रह्मन् या तुरीय), व्यावहारिका (लेन-देन संबंधी/जाग्रत वास्तविकता) और प्रातिभासिका (भ्रामक/स्वप्न वास्तविकता) के तीन स्तरों का भेद करते हैं। यह व्यवहारिक स्तर उन लोगों के लिए एक "रियायत" है जो परम अद्वैत सत्य को तुरंत नहीं समझ सकते।
उनका मूल सिद्धांत है: "ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" (केवल ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है)। जगत को मिथ्या कहा गया है क्योंकि यह ब्रह्म का केवल एक प्रतिबिंब (reflection) है, और यह विविधता केवल एक भ्रम है जो माया के कारण होती है।
शंकराचार्य के लिए, अज्ञान (अविद्या) के नाश से ही माया का विनाश होता है, जिससे जीव को यह अनुभव होता है कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या।
अद्वैती का अनासक्त भाव:
अद्वैती द्वैतवादियों के साथ वाद-विवाद में नहीं पड़ते, क्योंकि वे अन्य मतों को द्वैत का खेल मानते हैं, जो उनके लिए एक भ्रम है। वे सभी में आत्मन् को देखते हैं।
हाथी और पागल व्यक्ति का दृष्टांत अद्वैती के गैर-संघर्षपूर्ण (non-confrontational) दृष्टिकोण को दर्शाता है।
अद्वैत का मार्ग "अस्पर्श योग" (Asparsha Yoga) है, जो दुनिया को दरकिनार कर मन पर काम करने पर केंद्रित है।
अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार (Self-realization) है, जहाँ तुरीय ही सच्चा आत्मन्, ब्रह्मन् है, जो सभी भ्रमों और दुखों को दूर करता है। यह शुद्ध आनंद है। इस अवस्था में चेतना "प्रपञ्चोपशम" (सभी घटनाओं की समाप्ति) होती है।
अमनीभाव (Amani Bhava) मन के मनोनाश (मन का शून्यता) को संदर्भित करता है, न कि मन के विनाश को, बल्कि उसकी शांत अवस्था को।
संक्षेप में, अद्वैत वेदांत विभिन्न दार्शनिक मतों की सीमाओं को उजागर करता है, विशेषकर उन मतों की जो द्वैत को परम सत्य मानते हैं। यह तार्किक विश्लेषण और शास्त्रीय प्रमाण के माध्यम से अद्वैत की स्थापना करता है, जबकि अन्य मतों को आध्यात्मिक मार्ग पर प्रारंभिक या अस्थायी कदम के रूप में स्वीकार करता है।
चार्वाक (भौतिकवादी)
चार्वाक दर्शन, जिसे भौतिकवादी मत भी कहा जाता है, भारतीय दर्शन की उन 12 विचार प्रणालियों में से एक है जिन्हें गौड़पादाचार्य ने अपनी माण्डूक्य कारिका के चौथे अध्याय में संबोधित किया है। ये गैर-वैदिक विद्यालयों में से एक हैं। ये मत, विशेष रूप से, अद्वैत वेदांत के परिप्रेक्ष्य में खंडित मतों (contradicted/refuted views) के रूप में देखे जाते हैं, क्योंकि अद्वैत वेदांत उनके केंद्रीय दावों का खंडन करता है।
चार्वाक (भौतिकवादी) दर्शन की मुख्य मान्यताएँ: स्रोतों के अनुसार, भौतिकवादी दृष्टिकोण यह मानता है कि:
इंद्रियाँ ज्ञान का एकमात्र साधन हैं।
मन पदार्थ से विकसित हुआ है।
अद्वैत वेदांत द्वारा खंडन (मंडन): अद्वैत वेदांत चार्वाक के भौतिकवादी सिद्धांतों का कई स्तरों पर खंडन करता है:
ज्ञान के साधन और वास्तविकता की प्रकृति पर खंडन:
अतार्किक आधार: अद्वैत वेदांत तर्क देता है कि यह मानना स्पष्ट रूप से अतार्किक (patently illogical) है कि मन पदार्थ से विकसित हुआ है, क्योंकि विकास की प्रक्रिया में एक सचेत कर्ता (conscious agent) की आवश्यकता होती है। चेतना, अपनी गतिहीन प्रकृति के बावजूद, अपने माध्यमों में गति को प्रेरित करने में सक्षम है।
इंद्रिय-आधारित ज्ञान की सीमा: भौतिकवादी मत इंद्रियों को ज्ञान का एकमात्र साधन मानते हैं। इसके विपरीत, उपनिषद (जो ज्ञान कांड के अंतर्गत आते हैं) ब्रह्मांड और स्वयं की मौलिक वास्तविकताओं के बारे में ज्ञान प्रदान करते हैं, जो कर्म कांड (कर्तव्यों) और उपासना कांड (अनुष्ठानों) से भिन्न है। यह ज्ञान इंद्रिय-प्रत्यक्ष नहीं होता।
स्वप्न और जाग्रत की समानता: गौड़पाद तर्क देते हैं कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ स्वप्न जैसी ही हैं, क्योंकि दोनों ही दिखावे (appearances) हैं। वे जाग्रत संसार की वास्तविकता को स्वप्न संसार के समान ही अस्थिर मानते हैं, इस प्रकार भौतिकवादियों द्वारा जाग्रत संसार को परम सत्य मानने के दावे का खंडन करते हैं।
ज्ञान के तीन स्तर: शंकराचार्य वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं: पारमार्थिक (परम), व्यावहारिक (अनुभवजन्य या लेन-देन संबंधी), और प्रातिभासिक (भ्रामक)। भौतिकवादी केवल अनुभवजन्य वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि अद्वैत ब्रह्म को परम सत्य मानता है।
जगत् की मिथ्याता और माया की भूमिका:
ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या: अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत है कि ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है, और जीव स्वयं ब्रह्म से भिन्न नहीं है। भौतिक संसार को ब्रह्म का मात्र एक "दिखावा" (appearance) माना जाता है, न कि परम सत्य।
माया की अवधारणा: शंकराचार्य के अनुसार, माया ब्रह्म की एक जटिल, मायावी शक्ति है। माया दो प्रमुख कार्य करती है: एक तो ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाती है, और दूसरा उसके स्थान पर भौतिक जगत को प्रस्तुत करती है। माया को अनिर्वचनीय (जिसका पूरी तरह से वर्णन नहीं किया जा सकता) कहा जाता है, क्योंकि यह न तो पूरी तरह से वास्तविक है और न ही पूरी तरह से असत्य। यह भौतिक संसार को एक भ्रम (illusion) या दिखावा (appearance) के रूप में प्रस्तुत करती है।
कारण और कार्य की अवधारणा: गौड़पाद का 'अजातिवाद' (no-origination) का सिद्धांत स्थापित करता है कि परम सत्य (तुरीय) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। यह भौतिकवादी दावे का खंडन करता है कि पदार्थ से चीजें उत्पन्न होती हैं या मन पदार्थ का एक उत्पाद है। शंकराचार्य भी कहते हैं कि ब्रह्म जगत का भौतिक और कुशल कारण दोनों है।
आत्मा की अद्वितीय प्रकृति:
चेतना ही सत्य है: माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) का वर्णन करता है, जिसमें तुरीय चेतना की चौथी अवस्था है, जो अपरिवर्तनीय और शुद्ध है। उपनिषद् यह स्थापित करता है कि न तो जाग्रत और न ही स्वप्न का संसार सत्य है, बल्कि केवल 'आप' (आत्मा/चेतना) ही सत्य हैं। यह भौतिकवादी विचार का सीधा खंडन है जो भौतिक संसार को परम वास्तविकता मानता है।
आत्मा अकर्ता और अभोक्ता: अद्वैत मत के अनुसार, अंतरात्मा न तो कर्ता है, न भोक्ता है, न देखता है, न दिखाता है; यह निष्क्रिय है। जीवों की क्रियाएँ बुद्धि पर 'चिदाभास' (चेतना का प्रतिबिंब) से होती हैं, जैसे सूर्य का प्रतिबिंब। यह भौतिक शरीर को वास्तविक 'कर्ता' या 'भोक्ता' मानने वाले भौतिकवादी दृष्टिकोण से भिन्न है।
कुल मिलाकर, चार्वाक दर्शन का खंडन, अद्वैत वेदांत के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है, जो भौतिक संसार की सापेक्षिक या मायावी प्रकृति पर जोर देता है और चेतना (ब्रह्म/आत्मन) को परम और एकमात्र सत्य के रूप में स्थापित करता है, जो इंद्रियों या पदार्थ से परे है।
जैन
अद्वैत वेदांत दर्शन के व्यापक संदर्भ में, जैन मत को एक महत्वपूर्ण दार्शनिक प्रणाली के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसे शंकराचार्य और गौड़पाद जैसे आचार्यों द्वारा 'खंडित मत' के रूप में संबोधित किया गया है।
स्रोत बताते हैं कि:
भारतीय दर्शन के विभिन्न मतों में जैन दर्शन को एक गहरा और विशिष्ट दर्शन माना गया है। इसे भारतीय दर्शन के बारह प्रमुख विद्यालयों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है, साथ ही चार्वाक और बौद्ध विद्यालयों के साथ। इसे गैर-वैदिक (नास्तिक) विद्यालयों की श्रेणी में भी रखा गया है।
आदि शंकराचार्य ने जैन (और बौद्ध) मतों को शास्त्रार्थ में परास्त करके वैदिक धर्म की रक्षा की और अद्वैतवाद की स्थापना की। यह दर्शाता है कि जैन दर्शन के कुछ पहलुओं का अद्वैत वेदांत के परिप्रेक्ष्य से खंडन किया गया था।
गौड़पाद, जिनकी 'मांडूक्य कारिका' अद्वैत वेदांत के सबसे शुरुआती और महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है, ने अपने कार्य में विभिन्न दार्शनिक मतों से आने वाली आपत्तियों का खंडन किया। इन आपत्तियों को संबोधित करने वाले दर्शनों में जैन दर्शन भी शामिल था। गौड़पाद का यह कार्य दार्शनिक बहसों के संदर्भ में जैन मतों के खंडन के महत्व को रेखांकित करता है।
इस प्रकार, जैन मत को अद्वैत वेदांत के दार्शनिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण प्रतिद्वंद्वी विचार के रूप में देखा जाता था, जिसके सिद्धांतों को विशेष रूप से शंकराचार्य द्वारा शास्त्रार्थ के माध्यम से खंडित किया गया, और गौड़पाद द्वारा अपने दार्शनिक तर्कों में संबोधित किया गया।
बौद्ध (शून्यवाद, योगाचार, आदि)
दार्शनिक मतों और उनके खंडन (मंडन) के वृहत्तर संदर्भ में, बौद्ध दर्शन (विशेषकर शून्यवाद और योगाचार) के प्रति अद्वैत वेदांत का दृष्टिकोण एक महत्वपूर्ण विषय है, जैसा कि उपलब्ध स्रोतों में गौड़पाद और शंकराचार्य के कार्यों में बताया गया है।
गौड़पाद और बौद्ध दर्शन के बीच संबंध:
मांडूक्य कारिका का महत्व: गौड़पाद ने मांडूक्य उपनिषद पर कारिकाएँ (श्लोक) लिखीं, जिन्हें मांडूक्य कारिका या आगम शास्त्र के नाम से जाना जाता है। यह अद्वैत वेदांत पर सबसे पुराना जीवित पूर्ण पाठ है। शंकराचार्य ने गौड़पाद के कार्य को 'वेदांत के सार का सार' बताया है।
बौद्ध प्रभाव का आरोप: गौड़पाद पर अक्सर 'क्रिप्टो-बौद्ध' होने का आरोप लगाया जाता है क्योंकि उनकी कारिकाओं में बुद्ध शब्द और बौद्ध तर्क-पद्धति तथा तर्क-प्रणालियों का उपयोग किया गया है। यह आरोप इसलिए भी लगता है क्योंकि गौड़पाद बौद्ध महायान के शून्यता दर्शन को अपना आधार मानते थे। हार्वर्ड में भी शंकराचार्य और गौड़पाद के बीच के अंतर पर चर्चाएँ हुई हैं, जिसमें गौड़पाद को अधिक कट्टरपंथी बताया गया है।
अजातिवाद: गौड़पाद का 'अजातिवाद' (नो-क्रिएशन या नो-ओरिजिनेशन) सिद्धांत माध्यमिक पद्धति पर आधारित है। यह सिद्धांत कहता है कि आत्मन से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है, और संसार कभी अस्तित्व में आया ही नहीं। इस सिद्धांत के अनुसार, "उत्पन्न नहीं होने वाला कभी उत्पन्न नहीं हो सकता"।
समानताएँ:
गौड़पाद ने तर्क दिया कि 'द्वैत' है ही नहीं; मस्तिष्क जाग्रत अवस्था या स्वप्न में 'माया' में ही विचरण करता है; और सिर्फ 'अद्वैत' ही परम सत्य है।
उनकी तर्क-पद्धति वही है जो माध्यमिक शून्यवादियों की है।
योगाचार मत के विज्ञान (आलय) की अनुकृति आत्मा का स्वरूप मालूम पड़ता है।
शंकराचार्य और बौद्ध दर्शन का खंडन/मंडन:
अद्वैत की स्थापना: शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों के आधार पर वेदांत सूत्रों पर अपनी टीका 'शारीरिक-मीमांसा-भाष्य' में अद्वैत मत का विकास किया। उन्होंने भारत में फैल रहे नास्तिक बौद्ध और जैन मत को शास्त्रार्थ में परास्त कर वैदिक धर्म की रक्षा की, जिससे नास्तिक मत समाप्त हो गया और 'मायावाद' या 'अद्वैतवाद' की स्थापना हुई।
रियायती दृष्टिकोण ('व्यावहारिक' अद्वैत): जहाँ गौड़पाद का 'अजातिवाद' अधिक कट्टरपंथी है और किसी भी उत्पत्ति को स्वीकार नहीं करता, वहीं शंकराचार्य एक 'जगद्गुरु' (विश्व के शिक्षक) के रूप में समन्वय का मार्ग अपनाते हैं। वे बहुलवादी संसार के लिए 'सापेक्षिक वास्तविकता' (व्यावहारिक सत्ता) को स्वीकार करते हैं।
वास्तविकता के तीन स्तर: शंकराचार्य वास्तविकता के तीन स्तरों को मान्यता देते हैं: पारमार्थिक सत्ता (परम सत्य ब्रह्म), व्यावहारिक सत्ता (जाग्रत अवस्था का अनुभवजन्य संसार, जिसे माया का रूपांतरण माना जाता है), और प्रातिभासिक सत्ता (भ्रम या स्वप्न अवस्था)। गौड़पाद, इसके विपरीत, जाग्रत और स्वप्न दोनों को एक ही 'भ्रम' या 'प्रतीति' (appearance) की श्रेणी में रखते हुए 'व्यावहारिक' और 'प्रातिभासिक' को एक कर देते हैं।
इस व्यावहारिक स्तर पर, वेदों में द्वैत और उपासना कांड (अनुष्ठान अध्याय) की प्रथाओं को स्वीकार किया जाता है। ये शुरुआती चरणों में आवश्यक मानी जाती हैं, क्योंकि इस स्तर पर अद्वैत की बात करना निरर्थक होगा। हालाँकि, अंततः इनका उद्देश्य व्यक्ति को उच्च ज्ञान और अद्वैत की ओर ले जाना है।
प्रमुख अंतर - आत्मन की अवधारणा:
बौद्ध संप्रदाय में नित्य आत्मा का घोर विरोध किया गया है और उनके मत को "अनात्मवाद" कहा गया है।
इसके विपरीत, गौड़पाद और शंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत आत्मा की नित्यता पर दृढ़ है। उनका मानना है कि एक आत्मा ही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में रहते हुए भी शुद्ध तुरीय अवस्था (चतुर्थ अवस्था) में स्थित है, जहाँ वह न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न होती है और न किसी कार्य को उत्पन्न करती है।
उपनिषद आत्मन को तुरीय (चौथी अवस्था) के रूप में परिभाषित करते हैं, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से परे है। यह अदृष्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य है। यह ज्ञान की शुद्ध अवस्था, इच्छा और पीड़ा से रहित है, जिसे सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
माया के कारण जीव और ब्रह्म के बीच भेद प्रतीत होता है। माया वह है जो ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाती है और उसके स्थान पर भौतिक जगत को प्रस्तुत करती है।
मंडन का कारण - द्वैत की मिथ्यात्वता:
अद्वैतवादी द्वैतवादियों से झगड़ा नहीं करते, क्योंकि वे द्वैत को 'माया' से उत्पन्न एक 'प्रभाव' या 'उत्पाद' मानते हैं।
उन्हें अन्य विचारों की आलोचना के प्रति उदासीन माना जाता है, क्योंकि वे उन विचारों में माया का खेल देखते हैं, जिस पर झगड़ने का कोई फायदा नहीं।
द्वैतवादियों का मानना है कि अपरिवर्तनीय आत्मा सृष्टि के दौरान बदल जाती है, जिसका अद्वैत खंडन करता है, यह तर्क देते हुए कि ब्रह्म अपरिवर्तनीय है।
शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन के अनुसार: 'ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या' (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है)। यह संसार भ्रम, अविद्या या अज्ञान के कारण मिथ्या माना जाता है, ठीक वैसे ही जैसे रस्सी को साँप समझना।
इस प्रकार, अद्वैत दर्शन अन्य दार्शनिकों, जिनमें बौद्ध भी शामिल हैं, की आपत्तियों का सामना करता है।
संक्षेप में, गौड़पाद और शंकराचार्य दोनों ने बौद्ध दर्शन के कुछ पहलुओं, विशेषकर 'अजातिवाद' और संसार की 'मिथ्यात्वता' को अपनाया या उनसे प्रभावित हुए। हालाँकि, आत्मा की नित्यता और ब्रह्म की परम वास्तविकता पर अद्वैत वेदांत का दृढ़ जोर इसे बौद्ध अनात्मवाद और शून्यवाद से मौलिक रूप से अलग करता है। शंकराचार्य ने इस अद्वैत सिद्धांत की स्थापना के लिए शास्त्रार्थों का सहारा लिया और भारत में नास्तिक मतों का खंडन किया, साथ ही आम लोगों को अद्वैत तक ले जाने के लिए 'व्यावहारिक' वास्तविकता के स्तर को भी स्वीकार किया।
न्याय-वैशेषिक
न्याय-वैशेषिक भारतीय दर्शन के प्रमुख मतों में से हैं, जिन्हें अद्वैत वेदांत के संदर्भ में अक्सर खंडित मतों (criticized views) के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। अद्वैत वेदांत ने इन मतों के कुछ मूलभूत सिद्धांतों पर तार्किक और आगमों पर आधारित आपत्ति उठाई है।
न्याय-वैशेषिक दर्शन का उल्लेख और उनकी मान्यताएँ: सूत्रों में न्याय और वैशेषिक को भारतीय दर्शन के बारह स्कूलों में गिना गया है, और उन्हें "गहरे विचारक" (deep thinkers) तथा "महान दार्शनिक" (great philosophers) कहा गया है, जिन्होंने अद्वैत के विरुद्ध कई गंभीर आपत्तियाँ (serious objections) उठाई हैं। ये दार्शनिक गौड़पाद की कारिका के चौथे अध्याय में विशेष रूप से संबोधित किए गए हैं।
न्याय-वैशेषिक के कुछ विशिष्ट विचार जिन पर स्रोतों में चर्चा की गई है:
चेतना और वस्तु-संबंध: न्याय और वैशेषिक का मानना है कि चेतना तभी संभव है जब मन वस्तुओं के संपर्क में हो। उनका तर्क है कि जब आत्मा (Atman) वस्तुओं के संपर्क में नहीं होती, तो उसमें ज्ञान नहीं होता।
आत्माओं की बहुलता: वैशेषिक (और सांख्य) जैसे मत कई आत्माओं (multiple Atmans) के अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं।
अद्वैत वेदांत द्वारा खंडन (मंडन): अद्वैत वेदांत, विशेष रूप से गौड़पाद और शंकराचार्य के माध्यम से, इन विचारों का खंडन करता है:
चेतना की प्रकृति पर खंडन: न्याय-वैशेषिक के इस विचार को कि चेतना वस्तु-संपर्क पर निर्भर करती है, "भ्रामक" (erroneous) और "सही नहीं" (not right) बताया गया है। अद्वैत वेदांत पूछता है कि यदि यह सत्य है, तो गहरी नींद (deep sleep) की अवस्था में चेतना की व्याख्या कैसे की जाएगी, जहाँ कोई वस्तु-संपर्क नहीं होता, फिर भी व्यक्ति जागने पर आनंद या विश्राम का अनुभव बताता है। अद्वैत के अनुसार, चेतना (आत्मन) स्वयं में निहित और स्व-प्रकाशित है, और इसका अस्तित्व या ज्ञान बाहरी वस्तुओं पर निर्भर नहीं करता है।
आत्माओं की बहुलता का खंडन: वैशेषिक की "कई आत्माओं" की अवधारणा को अद्वैत वेदांत "उनकी सोच में दोष" (faults in their thinking) के रूप में देखता है। अद्वैत का केंद्रीय सिद्धांत यह है कि आत्मन एक और अद्वितीय (नॉन-ड्यूअल) है, जो सभी जीवों में समान रूप से व्याप्त है।
द्वैतवादियों का तार्किक दृष्टिकोण पर खंडन: न्याय-वैशेषिक जैसे द्वैतवादी स्कूलों को अक्सर "चतुर तार्किक" (clever logicians) के रूप में चित्रित किया जाता है जो "अपने तर्क को अपनी इच्छित निष्कर्षों के अनुरूप मोड़ते हैं" (twist their logic to suit their desired conclusions)। उनके सिद्धांतों को "गढ़ा हुआ" (cooked up) और "समझने में आसान नहीं" (not easy of comprehension) कहा गया है।
कारणवाद पर खंडन: द्वैतवादी (न्याय-वैशेषिक सहित) उन तर्कों के लिए आलोचना के पात्र होते हैं जो मानते हैं कि अपरिवर्तनीय आत्मा सृष्टि के दौरान बदल जाती है। अद्वैत इस पर आपत्ति जताता है, क्योंकि यह "अमर को नश्वर बनाना" होगा, और इस बात पर जोर देता है कि ब्रह्म न तो कारण है और न ही कार्य है, क्योंकि सब कुछ उसी के समान है। अद्वैत के लिए, सृजन परमार्थिक दृष्टि से एक "मायावी उपस्थिति" (illusory appearance) है।
विवाद की प्रवृत्ति: द्वैतवादी, जिसमें न्याय-वैशेषिक जैसे तार्किक स्कूल भी शामिल हैं, अपने व्यक्तिगत विचारों से दृढ़ता से चिपके रहते हैं और आपस में उग्र रूप से झगड़ते हैं। यह प्रवृत्ति "द्वैत की अपर्याप्तता" को दर्शाती है और "पसंद और नापसंद के दायरे में गहराई से डूबे" होने का संकेत देती है। इसके विपरीत, अद्वैत वेदांत का अन्य मतों से कोई झगड़ा नहीं है, क्योंकि वह द्वैत को माया से उत्पन्न एक भ्रम मानता है, जिस पर झगड़ने का कोई लाभ नहीं।
दर्शनिक मत और मंडन के व्यापक संदर्भ में: शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदांत, अन्य दार्शनिक मतों का खंडन करके अपनी स्थिति स्थापित करता है। इसका मानना है कि:
श्रुति (शास्त्र) को तर्क (युक्ति) के साथ प्राथमिकता दी जाती है ज्ञान के स्रोत के रूप में, खासकर उन अवधारणाओं के लिए जो इंद्रियों से परे हैं।
ब्रह्म की अद्वैतता को परम सत्य (परमार्थ सत्ता) के रूप में बनाए रखा जाता है, जबकि संसार की द्वैतवादी वास्तविकता को एक निम्न, व्यावहारिक वास्तविकता (व्यावहारिक सत्ता) या भ्रामक वास्तविकता (प्रातिभासिक सत्ता) माना जाता है।
आत्मन को शुद्ध, अपरिवर्तनीय चेतना के रूप में जोर दिया जाता है, जो व्यक्तिगत जीव या बाहरी दुनिया के अनुभवों से अप्रभावित रहता है। यह न्याय-वैशेषिक के चेतना के वस्तु-संपर्क पर निर्भरता के विचार को सीधे चुनौती देता है।
द्वैतवादी मार्गों और सृष्टि के सिद्धांतों को "अस्थायी शिक्षाएँ" (temporary instructions) या "गौण सत्य" (secondary truths) के रूप में देखा जाता है, जो आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं, लेकिन अंततः सर्वोच्च अद्वैत सत्य को जानने के लिए उन्हें पार करना होता है।
संक्षेप में, अद्वैत वेदांत न्याय-वैशेषिक जैसे स्कूलों के तर्कों को उनकी कथित असंगतियों (जैसे गहरी नींद में चेतना या बदलते आत्मन के संबंध में) को उजागर करके और एक ऐसे अद्वितीय, निर्गुण ब्रह्म की परमार्थिक वास्तविकता को स्थापित करके खंडित करता है जो सभी द्वैतवादी भेदों और कार्य-कारण संबंधों से परे है।
पूर्व मीमांसा
दिए गए स्रोतों के अनुसार, पूर्व मीमांसा भारतीय दर्शन के छह आस्तिक (षट् दर्शन) विद्यालयों में से एक है। इसे विशेष रूप से वेदों के कर्म कांड (कर्तव्य अध्याय) और उपासना कांड (अनुष्ठान अध्याय) से जोड़ा जाता है। ये खंड धार्मिक कर्तव्यों और अनुष्ठानों पर केंद्रित हैं, जो उपनिषदों के ज्ञान कांड से भिन्न हैं, जो ब्रह्मांड और स्वयं की मौलिक वास्तविकताओं के ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
खंडित मतों के वृहद संदर्भ में पूर्व मीमांसा की स्थिति:
शंकराचार्य द्वारा भेद: आचार्य शंकर के एक समकालीन, मंडन मिश्र, मीमांसा और वेदांत को एक ही प्रणाली (कर्म-ज्ञान-समुच्चय-वाद) के रूप में मानते थे। हालाँकि, आदि शंकराचार्य का एक महत्वपूर्ण योगदान वेदांत और मीमांसा विद्यालयों के बीच के भेदों पर ग्रंथों का लेखन था।
वास्तविकता के स्तर: अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से, कर्म कांड और उपासना कांड में वर्णित द्वैत को एक 'गौण' या 'अस्थायी शिक्षा' के रूप में देखा जाता है। यह उन साधकों के लिए एक आवश्यक प्रारंभिक चरण माना जाता है जो अभी अद्वैत के उच्च ज्ञान को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। वेदों का समग्र लक्ष्य अद्वैत है, और द्वैतवादी साधनाएँ अंततः इसी की ओर ले जाती हैं।
कर्मकांड का त्याग: शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदांत, संन्यास के पक्ष में अनुष्ठानों (कर्मकांड) को अस्वीकार करता है। यद्यपि चित्त शुद्धि (मन की शुद्धि) के लिए कर्म (जैसे नित्य कर्म का अनुष्ठान) आवश्यक है ताकि आत्मज्ञान प्राप्त हो सके, ये सीधे मोक्ष की ओर नहीं ले जाते।
द्वैतवादियों के साथ संबंध: द्वैतवादी, जिनमें मीमांसा के अनुयायी भी शामिल होंगे (क्योंकि यह पूजा जैसे द्वैतवादी अभ्यासों को बढ़ावा देता है), अपने निष्कर्षों से दृढ़ता से चिपके रहते हैं और "आपस में vehemently झगड़ते हैं"। वे राग-द्वेष के क्षेत्र में गहराई से डूबे होते हैं। इसके विपरीत, अद्वैतवादी आलोचनाओं के प्रति उदासीन रहते हैं क्योंकि वे द्वैत को माया के खेल के रूप में देखते हैं, जिस पर झगड़ने का कोई लाभ नहीं।
शंकराचार्य का व्यावहारिक दृष्टिकोण: गौड़पाद, अद्वैत के एक कट्टरपंथी प्रतिपादक थे जिन्होंने "कोई रियायत नहीं" दी। वहीं, शंकराचार्य, एक "जगद्गुरु" (विश्व के शिक्षक) के रूप में, लोगों को अद्वैत को समझने में सहायता करने के लिए "रियायतें" देते हैं और बहुलवादी संसार के लिए 'सापेक्ष वास्तविकता' को स्वीकार करते हैं। इस व्यावहारिक दृष्टिकोण में, पूर्व मीमांसा जैसी पद्धतियों को ज्ञान की ओर ले जाने वाले प्रारंभिक चरणों के रूप में शामिल किया जा सकता है।
अस्थायी सिद्धांत: सृष्टि और संबंधित द्वैतवादी विचारों पर शास्त्रों की चर्चा, जो मीमांसा के लिए केंद्रीय हो सकती है, को "अस्थायी सिद्धांत" के रूप में वर्णित किया गया है। ये सिद्धांत मन को अद्वैत के परम सत्य की ओर ले जाने के उद्देश्य से हैं, न कि द्वैत को स्थापित करने के लिए।
संक्षेप में, पूर्व मीमांसा एक ऐसा दार्शनिक मत है जो वैदिक अनुष्ठानों और कर्तव्यों पर केंद्रित है, जिसे शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत में मोक्ष के लिए अंतिम सत्य न मानते हुए भी, साधक की आध्यात्मिक यात्रा में एक आवश्यक प्रारंभिक या सहायक कदम के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो अंततः अद्वैत ब्रह्म के ज्ञान की ओर ले जाता है।
सांख्य-योग
स्रोत और हमारी बातचीत के आधार पर, सांख्य और योग दर्शन को भारतीय दर्शन के विभिन्न मतों में महत्वपूर्ण प्रणालियों के रूप में देखा गया है, जिन्हें अद्वैत वेदांत के व्यापक संदर्भ में 'खंडित मत' के रूप में संबोधित किया गया है।
मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:
भारतीय दर्शन के विद्यालयों में सांख्य और योग का स्थान: भारतीय दर्शन के विभिन्न विद्यालयों की सूची में सांख्य दर्शन और योग दर्शन को प्रमुखता से शामिल किया गया है। इन विद्यालयों में अद्वैत वेदांत भी एक है, और इसे १२ भारतीय दर्शन विद्यालयों में से एक के रूप में वर्णित किया गया है।
अद्वैत वेदांत द्वारा खंडन (आपत्तियाँ):
आत्माओं की बहुलता पर सांख्य से मतभेद: गौड़पाद और अद्वैत वेदांत के अन्य आचार्यों ने सांख्य (और वैशेषिक) दर्शन के साथ "अनेक आत्माओं" (multiple Atmans) के प्रश्न पर गहन चर्चाएँ की हैं। अद्वैत वेदांती इन विद्यालयों की सोच में "दोष" पाते हैं, क्योंकि अद्वैतवाद आत्मा की एकता पर जोर देता है।
योग के मन-नियंत्रण के तरीके पर अंतर: स्रोत योग शास्त्र (पतंजलि योग सूत्र) और वेदांत के बीच मन-नियंत्रण और मुक्ति के दृष्टिकोण में अंतर बताते हैं। योग शास्त्र मन के "विनाश" से मुक्ति प्राप्त करने की बात करता है, जबकि वेदांत का मानना है कि विचारों को दूर करने के लिए संघर्ष करने से आत्म-अज्ञानता और बढ़ सकती है। यह दृष्टिकोणों में एक महत्वपूर्ण अंतर को दर्शाता है।
द्वैतवादी और कार्य-कारण सिद्धांतों की आलोचना: अद्वैत वेदांत उन द्वैतवादी सिद्धांतों की आलोचना करता है जो यह मानते हैं कि अपरिवर्तनीय आत्मा सृष्टि के दौरान बदलती है। यह उन "मन-आधारित दर्शनों" को "कमजोर" मानता है, जो द्वैतवादियों के हैं। सांख्य दर्शन पुरुष और प्रकृति के द्वैत को मानता है और प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति को स्वीकार करता है, जिसे अद्वैत के परिप्रेक्ष्य से खंडित मत माना जा सकता है।
'खंडित मत' के संदर्भ में सांख्य-योग: अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से, सांख्य और योग जैसे दर्शन, जो आत्माओं की बहुलता या सृष्टि के कार्य-कारण संबंधों को भिन्न रूप से प्रस्तुत करते हैं, उन्हें 'खंडित मत' के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि वे अद्वैत ब्रह्म की परम एकता और अपरिवर्तनीयता के सिद्धांत से भिन्न हैं। अद्वैत वेदांत का मानना है कि ब्रह्मांड की समस्त विविधता केवल एक भ्रांति है, जो माया के कारण प्रकट होती है, और वास्तविकता में कोई द्वैत नहीं है।
संक्षेप में, सांख्य और योग भारतीय दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, लेकिन अद्वैत वेदांत उन्हें अपने मूलभूत सिद्धांतों, विशेषकर आत्मा की एकता और द्वैत की मिथ्याता, के संदर्भ में 'खंडित मत' मानता है।
गौडपाद का 'तीव्र' अद्वैत
स्त्रोतों के अनुसार, गौड़पाद का दर्शन, जिसे 'अजातिवाद' के नाम से जाना जाता है, अद्वैत वेदांत (गैर-द्वैतवाद) का एक 'तीव्र' या 'मौलिक' प्रतिपादन है, जो मन को नियंत्रित करने और परम वास्तविकता का अनुभव करने के व्यापक संदर्भ में दर्शनिक मतभेदों और उनके खंडन (मंडन) को संबोधित करता है।
गौड़पाद का 'तीव्र' अद्वैत: गौड़पाद के 'अजातिवाद' के मुख्य पहलू इस प्रकार हैं:
अजातिवाद (गैर-उत्पत्ति): गौड़पाद का मानना है कि कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। उनका तर्क है कि आत्मन (स्वयं) से न तो कोई जीव (व्यक्तिगत सत्ता) उत्पन्न हुआ है और न ही ब्रह्मांड (जगत्)। हम पहले से ही तुरीय हैं और कभी कुछ और नहीं बने।
जगत् की मिथ्याता: उनके दर्शन में, जगत् को मिथ्या (असत्य) माना गया है, जो माया (भ्रम) की एक प्रकटता मात्र है। यह एक सपने के समान है।
द्वैत की भ्रामक प्रकृति: द्वैत (द्वैतवाद) भी अद्वैत का ही एक मायावी प्रभाव या परिणाम है। इसे संसार (सांसारिक अस्तित्व) और दुख का मूल कारण माना जाता है।
तुरीय की परम वास्तविकता: तुरीय (चेतना की चौथी अवस्था) को आत्मन (परम सत्य) के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। इसे विश्व-रहित, संबंध-रहित, अखंड और समस्त घटनाओं का विराम बताया गया है। यह ब्रह्म के सगुण (गुणों सहित) और निर्गुण (गुणों रहित) वर्गीकरणों से परे है। गौड़पाद बल देते हैं कि अजन्मा (अमर) कभी मर्त्य (नश्वर) नहीं हो सकता, और मौलिक प्रकृति कभी नहीं बदलती।
अखंड और अपरिवर्तनीय गौड़पाद का दर्शन "अत्यधिक मौलिक, पूर्ण अद्वैत, कोई रियायत नहीं" के रूप में वर्णित है। वे सापेक्ष वास्तविकता के धरातल पर नहीं उतरते, बल्कि परम वास्तविकता के स्तर से "हमें संकेत करते हैं"।
शंकराचार्य से भिन्नता: शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को अपनाया और ब्रह्मसूत्र पर अपनी टीकाओं में उनका विस्तार किया। हालाँकि, गौड़पाद जहाँ द्वैत के प्रति कोई रियायत नहीं बरतते, वहीं शंकराचार्य, एक जगद्गुरु (विश्व-शिक्षक) के रूप में, रियायतें देते हैं। शंकराचार्य वास्तविकता के स्तरों (व्यावहारिक और प्रातिभासिक) को स्वीकार करते हैं ताकि अद्वैत को व्यापक दर्शकों के लिए सुलभ बनाया जा सके, जबकि गौड़पाद इन सभी को एक साथ भ्रामक मानते हुए सपने के समान बताते हैं। शंकराचार्य बहुवचनीय संसार के लिए एक सापेक्षिक वास्तविकता को स्वीकार करते हैं, जबकि गौड़पाद के लिए केवल ब्रह्म ही सत्य है। माया को जीव और ब्रह्म के बीच स्पष्ट भेद का कारण दोनों ही मानते हैं।
दर्शनिक मतभेदों और मंडन (खंडन) का संदर्भ: गौड़पाद के करिका में विभिन्न दार्शनिक मतों, जैसे चार्वाक, जैन और चार बौद्ध संप्रदायों सहित 12 भारतीय दर्शन मतों की आपत्तियों को सीधे संबोधित किया गया है और उनका उत्तर दिया गया है।
तर्क और शास्त्र का उपयोग: वे अद्वैत को सिद्ध करने के लिए तर्क (तर्कसंगत विश्लेषण) और शास्त्र (धार्मिक ग्रंथों) का समन्वय करते हैं।
द्वैतवाद की निंदा: वे स्पष्ट रूप से द्वैतवाद की निंदा करते हैं। द्वैतवादी मतों को अवैदिक या विकृत प्राधिकारों से उत्पन्न माना जाता है, जो अपने निष्कर्षों के अनुरूप तर्क को तोड़-मरोड़ सकते हैं। वे द्वैतवादी दार्शनिकों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण ज्ञान और हथौड़े के प्रहार का उपयोग करते हैं।
अद्वैतवादी का अद्वितीय दृष्टिकोण: उनके प्रबल खंडन के बावजूद, गौड़पाद के अनुयायी द्वैतवादियों के साथ तीव्र बहस या झगड़े में शामिल नहीं होते। इसका कारण यह है कि वे स्वयं द्वैत को एक भ्रम (माया का खेल) मानते हैं और झगड़ने लायक नहीं समझते। वे आत्मन (स्वयं) को हर किसी में देखते हैं, यहाँ तक कि विरोधियों में भी।
परम सत्य में समाप्ति: अंतिम लक्ष्य अनिर्वाचनीय परम सत्य की प्राप्ति है, जहाँ दार्शनिक झगड़ों सहित सभी भेद समाप्त हो जाते हैं। शांति ही आत्मन है।
इस प्रकार, गौड़पाद का दर्शन अद्वैत की अखंड और अपरिवर्तनीय प्रकृति पर जोर देता है, द्वैत की भ्रामक प्रकृति को स्पष्ट रूप से खंडित करता है, और दार्शनिक मतभेदों के प्रति एक अद्वितीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जो अंततः परम सत्य की प्राप्ति में मौन और अभेद में विलीन हो जाता है।
शंकर का 'व्यवहारिक' अद्वैत
अद्वैत वेदांत दर्शन में, शंकराचार्य का 'व्यवहारिक' अद्वैत एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो परम सत्य (ब्रह्म) और अनुभवजन्य संसार (जगत्) के बीच संबंधों की व्याख्या करती है, विशेष रूप से विभिन्न दार्शनिक मतों और उनके खंडन के संदर्भ में।
शंकराचार्य का मूलभूत अद्वैत सिद्धांत: शंकराचार्य का केंद्रीय सिद्धांत यह है कि ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है, और जीव स्वयं ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) और 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' (यह सब ब्रह्म है) जैसे महावाक्यों से पुष्ट होता है। वे तर्क देते हैं कि उपनिषद ब्रह्म (परम तत्व) की प्रकृति की शिक्षा देते हैं, और केवल अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है।
'व्यवहारिक' वास्तविकता की अवधारणा (व्यावहारिक सत्ता): शंकराचार्य वास्तविकता के तीन स्तरों को स्वीकार करते हैं:
पारमार्थिक सत्ता (परम वास्तविकता): यह ब्रह्म या तुरीय की परम, निरपेक्ष और अपरिवर्तनीय वास्तविकता है।
व्यावहारिक सत्ता (लेन-देन या अनुभवजन्य वास्तविकता): यह हमारी जाग्रत अवस्था और इस संसार के अनुभव को संदर्भित करती है। शंकर के अनुसार, यह वह स्तर है जहाँ संसार को व्यावहारिक रूप से सत्य माना जाता है, जैसे कि रस्सी को रस्सी के रूप में देखना (साँप के बजाय)। शंकराचार्य इस संसार को 'माया' का एक मायावी रूपांतरण मानते हैं। यह संसार ब्रह्म का प्रभाव नहीं है, बल्कि ब्रह्म का ही कार्य है।
प्रातिभासिक सत्ता (भ्रामक या प्रतीतिगत वास्तविकता): यह भ्रम या स्वप्न अवस्था को संदर्भित करती है, जैसे अँधेरे में रस्सी को साँप समझना या सपने में देखी गई वस्तुएँ।
शंकराचार्य, गौड़पाद के विपरीत, इन तीनों स्तरों को मान्यता देते हैं। गौड़पाद ने जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं को दोनों को ही 'भ्रम' या 'प्रतीति' (appearance) के रूप में एक ही श्रेणी में रखा, जबकि शंकराचार्य ने 'व्यावहारिक' और 'प्रातिभासिक' के बीच भेद किया। शंकराचार्य, एक जगद्गुरु (विश्व के शिक्षक) के रूप में, लोगों को अद्वैत को समझने में मदद करने के लिए रियायतें देते हैं, और बहुलवादी संसार के लिए 'सापेक्ष वास्तविकता' को स्वीकार करते हैं।
दार्शनिक मतों और मंडन के संदर्भ में:
गौड़पाद के अजातिवाद से भिन्नता:
गौड़पाद का 'अजातिवाद' (नो-क्रिएशन) सिद्धांत अधिक कट्टरपंथी है, जिसके अनुसार तुरीय से कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है, और संसार कभी अस्तित्व में आया ही नहीं। वे कहते हैं कि "उत्पन्न नहीं होने वाला कभी उत्पन्न नहीं हो सकता"।
शंकराचार्य, हालांकि गौड़पाद के अद्वैत दर्शन को अपना मूल मानते हैं, लेकिन उन्होंने समन्वय का मार्ग अपनाया और बहुलवादी संसार के लिए 'सापेक्षिक वास्तविकता' को स्वीकार किया। उनका मानना था कि आचार्य (शिक्षक) होने के कारण, उन्हें छात्रों को समझाने के लिए कुछ रियायतें देनी होंगी।
द्वैतवादी मतों से खंडन (मंडन):
शंकराचार्य द्वैतवादियों के उन तर्कों का खंडन करते हैं जो मानते हैं कि अपरिवर्तनीय आत्मा (आत्मन) सृष्टि के दौरान बदल जाती है। अद्वैत यह तर्क देता है कि ब्रह्म अपरिवर्तनीय है।
द्वैतवादी वास्तविकता और संसार दोनों में द्वैत को देखते हैं, जबकि अद्वैतवादी इस द्वैत को माया के कारण होने वाला भ्रम मानते हैं।
उपनिषदों में कर्मकांड और उपासना कांड में द्वैत को एक 'अस्थायी शिक्षा' (गौण) के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो अंततः अद्वैत (मुख्य) की ओर ले जाती है।
शंकराचार्य के अनुसार, अद्वैतवाद द्वैतवादियों से झगड़ा नहीं करता क्योंकि वह द्वैत को माया से उत्पन्न एक 'प्रभाव' या 'उत्पाद' मानता है। यह उन्हें आलोचनाओं के प्रति उदासीन बनाता है, क्योंकि वे दूसरे विचारों में माया का खेल देखते हैं, जिस पर झगड़ने का कोई फायदा नहीं।
माया की भूमिका:
माया वह है जो जीव और ब्रह्म के बीच भेद का कारण बनती है। इसे परमेश्वर की शक्ति, त्रिगुणात्मिका, अनादिरूपा, अविद्या और अनिर्वचनीय (जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता) कहा गया है।
माया ब्रह्म को सामान्य मानवीय बोध से छिपाती है और उसके स्थान पर भौतिक जगत को प्रस्तुत करती है।
माया के कारण ही 'वास्तविक' चीज़ से 'जन्म' होता हुआ प्रतीत होता है, जैसे जादूगर का जादू या रस्सी पर साँप का भ्रम।
साधना और मुक्ति:
शंकराचार्य मानते हैं कि वैदिक अनुष्ठान, पूजा और भक्ति व्यक्ति को ज्ञान की ओर ले जा सकते हैं, लेकिन वे सीधे मोक्ष की ओर नहीं ले जाते।
'चित्त शुद्धि' (मन की शुद्धि) के लिए कर्म (जैसे नित्य कर्म का अनुष्ठान) आवश्यक है, जिससे व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होता है। आत्मज्ञान प्राप्त होने पर व्यक्ति के जीवन में निष्काम कर्म अपने आप फलित होता है।
शंकराचार्य ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय को महत्व देते हैं।
अद्वैत का लक्ष्य मोक्ष है, जिसमें अज्ञानता का नाश होने पर जीव का 'जीवपन' समाप्त हो जाता है और वह 'अहं ब्रह्मास्मि' की अवस्था प्राप्त कर लेता है।
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