Wednesday, August 20, 2025

माण्डूक्य उपनिषद - गौडपाद कारिका

श्री गौडपादचार्य की कारिका

गौड़पाद कारिका, माण्डूक्य उपनिषद् के संदर्भ में अद्वैत वेदान्त के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। यह ग्रंथ आचार्य गौड़पाद द्वारा रचा गया था, जिन्हें आदि शंकराचार्य के परमहंस गुरु (शिक्षक के शिक्षक) के रूप में जाना जाता है।

1 . गौड़पाद कारिका का स्वरूप और माण्डूक्य उपनिषद् से संबंध:

  • गौड़पाद कारिका माण्डूक्य उपनिषद् पर एक टीका या विस्तृत व्याख्या है। माण्डूक्य उपनिषद् की संक्षिप्तता के कारण, गौड़पाद की कारिका छात्रों के लिए इसके पूर्ण अर्थ को समझने के लिए आवश्यक व्याख्या प्रदान करती है।

  • कारिका उपनिषद् के 6वें मंत्र के बाद से शुरू होती है।

  • कुछ विद्वानों ने कारिका के कुछ हिस्सों को स्वयं उपनिषद् के पाठ में शामिल माना है।

  • कारिका में 100 छंद हैं और इसे चार प्रकरणों में विभाजित किया गया है:

    • आगम प्रकरण : यह श्रुति (उपनिषदों) पर आधारित है। यह आत्मा की चार अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) और ॐकार के साथ उनके संबंध को बताता है।

    • वैतथ्य प्रकरण : यह तर्क और दृष्टांतों के माध्यम से द्वैत (द्वैतभाव) के मिथ्यात्व को सिद्ध करता है। इसमें जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं के पदार्थों के बीच कोई वास्तविक भेद नहीं होने का तर्क दिया गया है, दोनों को काल्पनिक या मिथ्या माना गया है।

    • अद्वैत प्रकरण : यह तर्क और दृष्टांतों की सहायता से अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन करता है। यहाँ आत्मा की तुलना आकाश से की गई है, जहाँ जीव को घटाकाश के समान माना गया है, आत्मा का कोई विकास या अवयव नहीं।

    • अलातशांति प्रकरण : यह शेष बचे हुए विचारों, आपत्तियों और उनके समाधानों का संग्रह है। इसका नाम 'अलात चक्र' (जलती हुई मशाल को घुमाने से बना अग्निचक्र) के उदाहरण से लिया गया है, जो एक भ्रम को दर्शाता है। यह कारिका का सबसे बड़ा प्रकरण है, जिसमें 100 छंद हैं।

2. गौड़पाद कारिका के प्रमुख सिद्धांत:

  • अजातिवाद : गौड़पाद का मुख्य सिद्धांत अजातिवाद है, जिसका अर्थ है कि जगत की वास्तव में कोई उत्पत्ति नहीं हुई है। उनका तर्क है कि यदि ब्रह्म से किसी दूसरी चीज़ की उत्पत्ति होती है, तो द्वैत पैदा होगा और अद्वैत (अद्वैत) का सिद्धांत खो जाएगा।

  • जगत मिथ्या : वेदांत के मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या" (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है) का गौड़पाद ने जोरदार समर्थन किया है। जगत को नाम और रूप (नामा-रूप) का एक संग्रह माना जाता है, जो केवल एक दिखावा है, जैसे रस्सी को सांप समझना।

  • तुरीय अवस्था का स्वरूप:

    • तुरीय को चेतना की चौथी अवस्था नहीं, बल्कि तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का साक्षी और उनका अधिष्ठान माना जाता है।

    • यह अव्यावहारिक, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है।

    • तुरीय अकारण है; यह किसी भी चीज़ का कारण नहीं है, क्योंकि कारण होने से द्वैत उत्पन्न होगा।

  • अद्वैत : गौड़पाद का दर्शन अद्वैत पर केंद्रित है, जिसमें स्वयं और ब्रह्म की एकता पर जोर दिया गया है। जीव और ब्रह्म के भेद का अज्ञान जन्म-मरण के चक्र का कारण है, और आत्मज्ञान ही मुक्ति का एकमात्र साधन है।

  • माया : माया को ब्रह्म की एक शक्ति के रूप में समझाया गया है जो सत्य को छिपाती है और असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है।

  • साक्षी चैतन्य: आत्मा को तीनों अवस्थाओं का साक्षी बताया गया है, जो उन सबसे स्वतंत्र है।

4. गौड़पाद का दार्शनिक योगदान:

  • गौड़पाद को अद्वैत वेदान्त के प्रमुख उद्घोषक के रूप में जाना जाता है।

  • उन्होंने अपने कारिकाओं में जिस सिद्धांत को बीज रूप में प्रस्तुत किया, उसी को आदि शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों में विस्तृत रूप से समझाकर संसार के सामने रखा।

  • गौड़पाद ने बौद्ध दर्शनों (विशेषकर शून्यवाद और योगाचार) से तर्कपद्धति को अपनाया, लेकिन नित्य आत्मा के औपनिषदिक सिद्धांत को बनाए रखा, जो बौद्धों के अनात्मवाद से भिन्न है।

  • उनका लक्ष्य बौद्ध और औपनिषदिक विचारधाराओं के बीच कोई मौलिक विरोध न होने का प्रदर्शन करना था।

  • उनका दर्शन अनुभव और साक्षात्कार पर अधिक जोर देता है, और योग के मार्ग को प्रमुख मानता है।

5. मुक्ति का मार्ग:

  • माण्डूक्य उपनिषद् और गौड़पाद कारिका का उचित अध्ययन और आत्मसात मुक्ति (मोक्ष) के लिए पर्याप्त माना जाता है।

  • मुक्ति का अर्थ है अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होना, संबंधों से स्वतंत्र होना (जीवत्व से ईश्वरत्व में परिवर्तन)।

  • इस मार्ग में श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन), और निदिध्यासन (गहन ध्यान) जैसे साधन शामिल हैं।

  • ॐ पर ध्यान (प्रणव उपासना) और इसका चेतना की अवस्थाओं से संबंध समझना आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।

कुल मिलाकर, गौड़पाद कारिका माण्डूक्य उपनिषद् के गूढ़ संदेशों को स्पष्ट करने और अद्वैत वेदान्त के सिद्धांतों, विशेषकर अजातिवाद और जगत के मिथ्यात्व को, तार्किक और अनुभवात्मक रूप से स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


शंकराचार्य के गुरु गोविंदपाद के गुरु

आपके द्वारा दिए गए स्रोतों के अनुसार, शंकराचार्य के गुरु गोविंदपाद के गुरु गौड़पाद थे। गौड़पाद को शंकराचार्य का परम गुरु (परदादा गुरु) माना जाता है।

परिचय और गुरु-शिष्य परंपरा के संदर्भ में गौड़पाद:

  • अद्वैत सिद्धांत के प्रधान उद्घोषक: गौड़पाद को अद्वैत सिद्धांत का प्रमुख उद्घोषक माना जाता है। उन्होंने अपनी 'माण्डूक्य कारिका' में जिस सिद्धांत को बीज रूप में प्रस्तुत किया, शंकराचार्य ने उसी को अपने ग्रंथों में विस्तृत रूप से समझाया। उनकी कारिका को "अद्वैतवाद वेदांत का अनुपम ग्रंथ" कहा जाता है।

  • सीमित जीवनी संबंधी जानकारी: गौड़पाद के जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। उन्हें एक योगी और सिद्ध पुरुष के रूप में वर्णित किया गया है और वे गौड़पादीय कारिकाओं के रचयिता थे। आचार्य शंकर के शिष्य सुरेश्वराचार्य के ग्रंथ 'नैष्कर्म्यसिद्धि' से केवल इतना पता चलता है कि वे गौड़ देश के निवासी थे।

  • गुरु-शिष्य परंपरा में कालानुक्रमिक अस्पष्टता:

    • एक विचार यह है कि यदि गौड़पाद को शुक का शिष्य माना जाता है, तो उनका समय काफी पूर्व का होगा। ऐसे में, ईसा की आठवीं शताब्दी में जन्मे शंकराचार्य के गुरु गोविंदपाद के गुरु के रूप में गौड़पाद को स्वीकार करने में कालानुक्रमिक चुनौती आती है।

    • इस कालानुक्रमिक दोष को दूर करने के लिए, पौराणिक परंपरा यह मानती है कि गौड़पाद हिमालय में समाधिस्थ थे और उन्होंने गोविंदपाद को "निर्माणचित्त" में उपस्थित होकर अद्वैत तत्व का उपदेश दिया

    • हालाँकि, स्रोत यह भी स्पष्ट करते हैं कि यह स्थिति दर्शाती है कि या तो गौड़पाद शुक के प्रत्यक्ष शिष्य नहीं थे या वे गोविंदपाद के प्रत्यक्ष गुरु नहीं थे, क्योंकि "निर्माणचित्त" की बात साधना के क्षेत्र में विश्वासों का कोई स्थान नहीं है।

  • माण्डूक्य कारिका का महत्व: गौड़पाद का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ 'माण्डूक्योपनिषत्कारिका' है। इस कारिका में चार प्रकरण हैं: आगम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण और अलातशान्ति प्रकरण। यह कारिका माण्डूक्य उपनिषद के मूल तत्त्वों की व्याख्या करती है। शंकराचार्य ने भी इस पर भाष्य लिखा है। गौड़पाद की कारिकाएं सीखने वालों के लिए एक मार्गदर्शक रही हैं।

  • शंकराचार्य पर प्रभाव: शंकराचार्य ने अपने अद्वैत मत की स्थापना में गौड़पाद के मूल दर्शन का ही अनुसरण किया। शंकराचार्य के अनुसार, ब्रह्मज्ञान ही मोक्ष का कारण है, और इसके लिए शास्त्र तथा गुरु का सहारा आवश्यक है। गौड़पाद ने अपने दर्शन में तर्क को उतना स्थान नहीं दिया जितना साक्षात्कार और अनुभव को, और योग का मार्ग ही प्रमुख बताया।

इस प्रकार, गौड़पाद शंकराचार्य के दर्शन की नींव रखने वाले एक महत्वपूर्ण आचार्य थे, जिनकी माण्डूक्य कारिका अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को स्थापित करने में अत्यंत प्रभावशाली रही, भले ही उनकी व्यक्तिगत जीवनी और प्रत्यक्ष गुरु-शिष्य संबंध के बारे में कुछ ऐतिहासिक अस्पष्टताएं मौजूद हों।

माण्डूक्योपनिषद् पर टीका

माण्डूक्योपनिषद् भारतीय दर्शन के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है, और इसकी संक्षिप्तता व गहनता के कारण इस पर अनेक टीकाएँ (भाष्य) लिखी गई हैं। ये टीकाएँ उपनिषद् के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट करने और विभिन्न दार्शनिक संप्रदायों के दृष्टिकोण से इसकी व्याख्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

माण्डूक्योपनिषद् का परिचय और महत्व: माण्डूक्योपनिषद् अथर्ववेद की माण्डूक शाखा से संबंधित है और यह उपनिषदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटी है, जिसमें केवल बारह मंत्र हैं। इसके बावजूद, इसे अत्यंत गहन और महत्वपूर्ण माना जाता है, यहाँ तक कि यह कहा जाता है कि मुमुक्षु (मोक्ष के इच्छुक) के लिए केवल माण्डूक्य उपनिषद् का सही अर्थ समझना ही पर्याप्त है। यह उपनिषद् मुख्य रूप से रहस्यवादी शब्दांश 'ॐ' और चेतना की चार अवस्थाओं – जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था), और तुरीय (चौथी अवस्था, जो इन तीनों से परे है) का विश्लेषण करती है। यह परम सत्य, आत्मा या ब्रह्म की प्रकृति को समझने का सीधा मार्ग प्रदान करती है, जो तीनों कालों में और उससे परे भी व्याप्त है।

गौड़पाद कारिका – माण्डूक्योपनिषद् की आधारशिला: माण्डूक्योपनिषद् की सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली टीका श्री गौड़पाद की 'माण्डूक्य कारिका' या 'गौड़पाद कारिका' है। गौड़पाद को शंकराचार्य के गुरु गोविंदपाद का भी गुरु माना जाता है। उनकी कारिका में लगभग 100 छंद हैं, जो उपनिषद् के मात्र 12 मंत्रों को विस्तार से समझाते हैं। यह कारिका अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों जैसे 'मायावाद', 'विवर्तवाद', और 'अजातिवाद' (अर्थात् जगत् की उत्पत्ति नहीं हुई) का स्पष्ट प्रतिपादन करती है।

गौड़पाद कारिका को चार प्रकरणों में विभाजित किया गया है:

  1. आगम प्रकरण: यह उपनिषद् के आधार पर सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है, विशेषकर आत्मा और ओंकार के चार पादों की अनुरूपता।

  2. वैतथ्य प्रकरण: इसमें युक्ति और तर्क के माध्यम से द्वैत (संसार की विविधता) के मिथ्यात्व को सिद्ध किया गया है, यह तर्क देते हुए कि जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ काल्पनिक या मिथ्या हैं।

  3. अद्वैत प्रकरण: यह तर्क और दृष्टांतों की सहायता से अद्वैत सिद्धांत को स्थापित करता है, आत्मा की तुलना आकाश से करता है।

  4. अलातशान्ति प्रकरण: यह अध्याय मिथ्या विवादों की शांति का प्रतिपादन करता है और गौड़पाद के दर्शन को बौद्ध विचारों से अविरोध दिखाता है।

गौड़पाद पर 'गुप्त बौद्ध' होने का आरोप लगाया गया है क्योंकि उन्होंने बौद्धों द्वारा उपयोग की जाने वाली कुछ तर्कपद्धतियों और शब्दावली का उपयोग किया है, और अलातशान्ति प्रकरण के मंगलाचरण में 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग किया है। हालाँकि, उनके दर्शन में नित्य आत्मा में विश्वास और उपनिषदों में पूर्ण निष्ठा के कारण, उन्हें एक शुद्ध वेदांती माना जाता है। शंकराचार्य ने भी गौड़पाद के मूल दर्शन का ही अनुसरण करके अपने अद्वैत मत की स्थापना की।

शंकराचार्य का भाष्य: आदि शंकराचार्य ने माण्डूक्य कारिका पर विस्तृत भाष्य लिखा है। उनके भाष्य का मूल उद्देश्य जीव, जगत और ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करना तथा माया से ग्रसित जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करना था। शंकराचार्य ने अपने अद्वैत मत को स्थापित करने में गौड़पाद के सिद्धांतों को आधार बनाया।

अन्य टीकाएँ (विशिष्टाद्वैत दर्शन): यद्यपि माण्डूक्योपनिषद् पर शंकराचार्य का भाष्य सबसे प्रसिद्ध है, अन्य दार्शनिक विद्यालयों ने भी इस पर टीकाएँ लिखी हैं। रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत दर्शन संप्रदाय से संबंधित कई महत्वपूर्ण टीकाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें श्री भरद्वाज रामानुजाचार्य की 'प्रतिपदार्थदीपिका', श्रीरंग रामानुजमुनि की 'प्रकाशिका', कूरनारायणमुनि का 'कूरनारायणभाष्यम', श्री रामानन्दमुनि का 'आनन्दभाष्य' और गोपालनन्दयोगी की 'सुबोधिनी' शामिल हैं। कुछ विद्वानों ने तो यह भी माना है कि कूरनारायणमुनि ने गौड़पाद की कुछ कारिकाओं को ही उपनिषद् के पाठ का हिस्सा माना है। यह दर्शाता है कि माण्डूक्योपनिषद् और गौड़पाद कारिका की व्याख्याएँ विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों से की गई हैं, जिससे इस ग्रंथ के महत्व और जटिलता का पता चलता है।

अद्वैत सिद्धांत के प्रमुख उद्घोषक

गौड़पाद को अद्वैत सिद्धांत के प्रमुख उद्घोषक के रूप में जाना जाता है। उनका जीवन परिचय और उनके दर्शन का स्वरूप भारतीय दर्शन में अत्यंत महत्वपूर्ण है, विशेषकर माण्डूक्य कारिका के संदर्भ में।

गौड़पाद का परिचय और प्रमुख उद्घोषक के रूप में उनकी भूमिका:

  • अद्वैत वेदांत के प्रधान उद्घोषक: गौड़पाद एक सांख्यकारिका व्याख्या के रचयिता और अद्वैत सिद्धांत के प्रसिद्ध आचार्य थे। उन्हें अद्वैत सिद्धांत का प्रधान उद्घोषक माना जाता है। उन्होंने अपनी माण्डूक्य कारिका में जिस सिद्धांत को बीजरूप में प्रकट किया, उसी को शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों में विस्तृत रूप से समझाकर संसार के सामने रखा। शंकराचार्य ने भी अपने अद्वैत मत की स्थापना में गौड़पाद के मूल दर्शन का ही अनुसरण किया।

  • जीवनकाल और पहचान: गौड़पादाचार्य के जीवन के बारे में बहुत अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। आचार्य शंकर के शिष्य सुरेश्वराचार्य के ग्रंथ 'नैष्कर्म्यसिद्धि' से केवल इतना पता चलता है कि वे गौड़ देश के निवासी थे। उन्हें एक योगी और सिद्ध पुरुष के रूप में भी जाना जाता है।

  • माण्डूक्य कारिका और उसके प्रकरण: गौड़पाद की प्रमुख रचना 'माण्डूक्यो-पनिषत्कारिका' है, जिसे 'माण्डूक्य कारिका' के नाम से जाना जाता है। यह कारिका माण्डूक्य उपनिषद् की शिक्षाओं पर आधारित है। माण्डूक्य उपनिषद् बारह मंत्रों वाला एक छोटा उपनिषद् है, जो अपनी गहनता के लिए प्रसिद्ध है और इसे आत्म-साक्षात्कार के लिए पर्याप्त माना जाता है। गौड़पाद की कारिका चार प्रकरणों में विभाजित है:

    • आगम प्रकरण: यह माण्डूक्य उपनिषद् का कारिकामय व्याख्यान है और उपनिषद् पर आधारित होने के कारण इसे आगम प्रकरण कहते हैं। इसमें आत्मा की चार अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) तथा ओंकार के चार पदों के बीच अनुरूपता बताई गई है।

    • वैतथ्य प्रकरण: इसमें द्वैत के मिथ्यात्व को युक्ति और तर्क के माध्यम से सिद्ध किया गया है, यह दिखाते हुए कि जाग्रत और स्वप्न जगत समान रूप से काल्पनिक या मिथ्या हैं।

    • अद्वैत प्रकरण: इस प्रकरण में तर्क और दृष्टांतों की सहायता से अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है, जैसे आत्मा की तुलना आकाश से की गई है।

    • अलातशान्ति प्रकरण: यह प्रकरण मिथ्या विवादों की शांति का प्रतिपादन करता है। इसके मंगलाचरण में 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग होने के कारण गौड़पाद पर "गुप्त बौद्ध" (crypto-Buddhist) होने का आरोप लगाया गया है।

बौद्ध धर्म से संबंध और खंडन के आरोप:

गौड़पाद के सिद्धांतों और उनकी तर्कपद्धति में बौद्ध दर्शन, विशेषकर माध्यमिक और योगाचार संप्रदायों से समानताएं पाई जाती हैं। उनका 'अजातिवाद' (अर्थात जगत् की उत्पत्ति नहीं हुई) माध्यमिक पद्धति पर आधारित माना जाता है। इसके बावजूद, गौड़पाद को एक शुद्ध वेदांती माना जाता है, क्योंकि:

  • आगम में पूर्ण विश्वास: गौड़पाद का वेदों और उपनिषदों जैसे आगमों में पूर्ण विश्वास था, और उन्होंने अपने सिद्धांतों को प्रमाणित करने के लिए प्राचीन उपनिषदों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया।

  • नित्य आत्मा का सिद्धांत: बौद्ध धर्म 'आनात्मवाद' का समर्थन करता है, जबकि गौड़पाद एक अविनाशी और नित्य आत्मा (तुरीय अवस्था) के अस्तित्व पर दृढ़ता से बल देते हैं।

  • बौद्ध आचार्यों द्वारा खंडन: भावविवेक, शांतरक्षित और कमलशील जैसे प्रमुख बौद्ध आचार्यों ने गौड़पाद के सिद्धांतों का खंडन किया है, जो यह दर्शाता है कि उनकी दार्शनिक स्थिति बौद्ध धर्म से भिन्न थी।

  • 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग: गौड़पाद द्वारा 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग उनके "अविरोध दर्शन" को स्थापित करने के उद्देश्य से देखा जाता है, जिसका अर्थ है कि बौद्ध और औपनिषदिक विचारधारा में तात्विक रूप से कोई विरोध नहीं है। शंकराचार्य ने भी स्पष्ट किया है कि गौड़पाद ने नारायण (पुरुषोत्तम) को नमस्कार किया है।

संक्षेप में, गौड़पाद अद्वैत वेदांत के एक महत्वपूर्ण संस्थापक थे, जिन्होंने माण्डूक्य उपनिषद् की गहन शिक्षाओं को अपनी कारिकाओं के माध्यम से स्पष्ट किया। यद्यपि उन्होंने कुछ बौद्ध तार्किक पद्धतियों का प्रयोग किया, परंतु आत्मा की नित्यता और श्रुति में उनके अटल विश्वास के कारण उन्हें वेदांत परंपरा में एक शुद्ध और मौलिक आचार्य माना जाता है। उनके कार्य ने शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत की नींव रखी।

चार प्रकरणों में विभाजित

गौड़पाद कारिका, जो माण्डूक्य उपनिषद् पर एक महत्त्वपूर्ण भाष्य है, को चार प्रकरणों में विभाजित किया गया है। ये प्रकरण अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को व्यवस्थित और तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हैं। गौड़पाद को अद्वैत सिद्धांत का प्रधान उद्घोषक माना जाता है, और उनकी कारिकाओं ने शंकराचार्य के अद्वैत मत की नींव रखी। कुल मिलाकर, इन कारिकाओं में लगभग 215 श्लोक हैं, जिसमें चौथा प्रकरण सबसे बड़ा है, जिसमें लगभग 100 श्लोक हैं।

चार प्रकरणों का विस्तृत परिचय इस प्रकार है:

  1. आगम प्रकरण (प्रथम प्रकरण):

    • यह प्रकरण माण्डूक्य उपनिषद् के आगम (श्रुति) पर आधारित है। इसमें आत्मा (आत्मन) की चार अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न, सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरीय (चतुर्थ अवस्था) - का वर्णन किया गया है।

    • यह प्रकरण ओंकार (ॐ) के अक्षरों (अ, उ, म) और उनकी मात्रा रहित ध्वनि (अमात्र) के साथ आत्मा की इन चार अवस्थाओं का संबंध स्थापित करता है। इसमें वैश्वानर (जाग्रत का सामूहिक रूप), तैजस (स्वप्न का सामूहिक रूप) और प्राज्ञ (सुषुप्ति का सामूहिक रूप) का भी उल्लेख है, जो ओंकार के तीन वर्णों से संबंधित हैं।

    • यह जोर देता है कि तुरीय अवस्था परमार्थिक सत्य है, जो तीनों अन्य अवस्थाओं से भिन्न, उनका अधिष्ठान (आधार) और साक्षी (गवाह) है, और यह अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है।

  2. वैतथ्य प्रकरण (द्वितीय प्रकरण):

    • इस प्रकरण में द्वैत (द्वैतता) के मिथ्यात्व (असत्यता) को युक्ति और तर्क द्वारा सिद्ध किया गया है।

    • इसका मुख्य तर्क यह है कि जागृत अवस्था और स्वप्न अवस्था के पदार्थ वास्तव में एक जैसे ही मिथ्या या काल्पनिक हैं। गौड़पाद यह दर्शाते हैं कि जागृत जगत् का अधिक स्थायी या विस्तृत होना केवल मात्रा का भेद है, न कि प्रकार का, जैसे स्वप्न संसार मिथ्या होता है, वैसे ही जागृत संसार भी माया या कल्पना मात्र है।

  3. अद्वैत प्रकरण (तृतीय प्रकरण):

    • यह प्रकरण अद्वैत सिद्धांत की स्थापना पर केंद्रित है, जिसमें तर्क और दृष्टांतों का उपयोग किया गया है।

    • यहां आत्मा की तुलना आकाश से की गई है, और जीव को घटाकाश (घड़े के भीतर का आकाश) के समान बताया गया है। जैसे घड़े के टूट जाने पर घटाकाश और बाहरी आकाश में कोई भेद नहीं रहता, वैसे ही अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है।

    • यह अजातिवाद (कोई भी वस्तु वास्तव में उत्पन्न नहीं होती) के सिद्धांत पर बल देता है, यह स्पष्ट करता है कि सृष्टि संबंधी श्रुतिवाक्य गौण हैं, क्योंकि परमार्थतः आत्मा न तो उत्पन्न होती है और न ही उसका नाश होता है। गौड़पाद कहते हैं कि किसी भी वस्तु का जन्म माया से ही हो सकता है, तत्वतः नहीं।

  4. अलातशान्ति प्रकरण (चतुर्थ प्रकरण):

    • यह सबसे बड़ा प्रकरण है और इसे उपसंहारात्मक माना जाता है। इसमें अद्वैत शिक्षाओं पर विभिन्न आपत्तियों और तार्किक विवादों का समाधान किया गया है।

    • इस प्रकरण में बौद्ध दर्शनों से समानता के आरोप का भी खंडन किया गया है। गौड़पाद ने बौद्धों की तर्क पद्धति और कुछ उदाहरणों (जैसे अलातचक्र, यानी जलती हुई मशाल को घुमाने से दिखने वाला आभासी वृत्त) का उपयोग किया है। इसी कारण उन पर "गुप्त बौद्ध" होने का आरोप लगा।

    • हालाँकि, गौड़पाद शुद्ध वेदांती हैं क्योंकि वे आगम (उपनिषदों) में पूर्ण विश्वास रखते हैं और नित्य आत्मा के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं, जबकि बौद्ध संप्रदाय नित्य आत्मा का विरोध करता है (आनात्मवाद)। बौद्ध आचार्यों जैसे भावविवेक ने गौड़पाद का खंडन किया है, जो दर्शाता है कि गौड़पाद की स्थिति बौद्ध मत से भिन्न थी।

    • गौड़पाद का उद्देश्य बौद्ध और औपनिषदिक विचारधारा में तात्विक रूप से कोई विरोध नहीं है, यह दिखाना था, और उन्होंने इस समन्वय के मार्ग को अपनाया। शंकराचार्य ने भी अपने अद्वैत मत की स्थापना में गौड़पाद के मूल दर्शन का ही अनुसरण किया।

गौड़पाद कारिका को अद्वैत वेदांत का "अनुपम ग्रंथ" कहा जाता है, जिसने मायावाद, विवर्तवाद और अजातिवाद जैसे मुख्य सिद्धांतों का अत्यंत स्पष्ट प्रतिपादन किया है, और बौद्ध दर्शन सहित आस्तिक दर्शनों का भी सफल खंडन किया है।

प्रमुख सिद्धांत

गौड़पाद, अद्वैत सिद्धांत के प्रमुख उद्घोषक थे, जिनकी शिक्षाओं ने बाद में आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत दर्शन की नींव रखी। उनकी मुख्य रचना, 'माण्डूक्य कारिका' (जिसे 'माण्डूक्योपनिषत्कारिका' भी कहा जाता है), माण्डूक्य उपनिषद् पर एक विस्तृत भाष्य है, जिसे उपनिषदों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, और यह मोक्ष के साधक के लिए पर्याप्त है। यह कारिका 100 छंदों में है और चार प्रकरणों में विभाजित है: आगम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण, और अलातशान्ति प्रकरण।

गौड़पाद कारिका के प्रमुख सिद्धांत, माण्डूक्य उपनिषद् और उसके गहन दर्शन के संदर्भ में, निम्नलिखित हैं:

  • अद्वैतवाद :

    • यह गौड़पाद के दर्शन का केंद्रीय विषय है, जिसका शाब्दिक अर्थ "दो नहीं" है। यह बताता है कि ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थ सत्य है, जगत एक आभास (मिथ्या) है, और जीव ब्रह्म से अभिन्न है।

    • उपनिषद् के अनुसार, "यह सब ब्रह्म ही है, यह आत्मा ब्रह्म है" (सर्वं ह्येतद् ब्रह्म; अयम् आत्मा ब्रह्म)।

    • आत्मा (Self) और ब्रह्म (Absolute) की एकता पर जोर दिया जाता है। आत्मा को आकाश के समान बताया गया है, जो सर्वव्यापी, समान और अविकारी है। जैसे एक घड़ा टूटने पर उसमें निहित आकाश (घटाकाश) बड़े आकाश से मिल जाता है, उसी प्रकार अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है।

  • अजातिवाद :

    • यह सिद्धांत कहता है कि जगत की वास्तव में कोई उत्पत्ति नहीं हुई है। यह केवल एक अखंड चिदघन सत्ता है जो मोहवश अनेक रूपों में प्रतीत हो रही है।

    • गौड़पाद तर्क देते हैं कि परमार्थतः न उत्पत्ति है, न प्रलय है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है (न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः। न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥)।

    • तुरीय (चौथी अवस्था) से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि यदि तुरीय से कुछ भी उत्पन्न होता, तो द्वैतता आ जाती और अद्वैत नष्ट हो जाता। उदाहरण के लिए, जिस तरह लकड़ी से बनी मेज या कुर्सी लकड़ी से अलग नहीं होती, उसी तरह जगत ब्रह्म से अलग नहीं है।

  • मायावाद / विवर्तवाद :

    • गौड़पाद के अनुसार, संपूर्ण जगत माया मात्र है (माया मात्रं जगत्सर्वं)। जगत वास्तविक नहीं है, बल्कि एक आभास है।

    • यह विचार माण्डूक्य उपनिषद् में रज्जु और सर्प के प्रसिद्ध दृष्टांत के माध्यम से समझाया गया है। जैसे अंधेरे में रस्सी को सर्प समझ लिया जाता है, उसी प्रकार अज्ञान के कारण आत्मा में जगत कल्पित होता है। सर्प का आभास रस्सी के सही ज्ञान से समाप्त हो जाता है, वैसे ही आत्मा के ज्ञान से जगत की मिथ्यात्वता का ज्ञान होता है।

    • द्वैत (बहुलता) केवल मन का दृश्य है; जब मन अमनोवृत्ति (मननशून्य) हो जाता है, तो द्वैत की उपलब्धि नहीं होती। यह अमनीभाव या अस्पर्शयोग की स्थिति है, जहाँ चेतना का किसी भी वस्तु से कोई संबंध नहीं रहता।

  • तुरीय :

    • माण्डूक्य उपनिषद् में आत्मा की चार अवस्थाओं का वर्णन है: जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरीय

    • तुरीय को "चौथा" कहा जाता है, लेकिन यह कोई अवस्था नहीं है जो आती-जाती हो, बल्कि यह तीनों अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) का साक्षी है। यह शुद्ध चेतना, अद्वैत, आनंदमय और शांत स्वरूप है। यह इंद्रियों और मन के माध्यम से ज्ञात नहीं किया जा सकता, यह अवर्णनीय, अचिंत्य और अनुपमेय है।

    • तुरीय को किसी वस्तु के रूप में वस्तुनिष्ठ नहीं किया जा सकता। अनुभव से परे है, क्योंकि अनुभव हमेशा एक विषय और वस्तु के बीच होता है, जबकि तुरीय स्वयं विषय है।

  • ओम् (प्रणव) और उसकी उपासना:

    • उपनिषद् में ओम् को एक रहस्यवादी शब्दांश के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो ब्रह्म का प्रतीक है, जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान समाहित हैं, और जो इन कालों से परे भी है।

    • ओम् के तीन घटक अक्षर - 'अ', 'उ', 'म्' - क्रमशः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं से जुड़े हैं।

    • ओम् का अंतिम ध्वनिहीन भाग या "मौन" तुरीय का प्रतिनिधित्व करता है।

    • ओम् की उपासना और इस शब्दांश के गहन अर्थ को समझने से मन को ध्यान में प्रशिक्षित किया जाता है, जिससे व्यक्ति को परम वास्तविकता के साथ जोड़ा जा सके।

  • ज्ञान के माध्यम से मोक्ष:

    • गौड़पाद और शंकराचार्य दोनों ने इस बात पर जोर दिया कि आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है, न कि किसी प्रकार का कर्म या यज्ञ।

    • मोक्ष माया के प्रभाव से बाहर निकलने से प्राप्त होता है।

    • मोक्ष के साधन में ज्ञान (श्रुति के माध्यम से सुनना), मनन (चिंतन), और निदिध्यासन (गहन ध्यान) शामिल हैं। मन की शुद्धिकरण और एकाग्रता तुरीय की अनुभूति के लिए आवश्यक है।

    • आत्मा के अज्ञान को "अविद्या" कहा गया है, जो बंधन का मूल कारण है, और इसका नाश "विवेक" (स्थायी और अस्थायी की पहचान) से होता है।

गौड़पाद कारिका की संरचना और महत्व: चार प्रकरणों के माध्यम से गौड़पाद अपने सिद्धांतों को स्थापित करते हैं:

  1. आगम प्रकरण: यह माण्डूक्य उपनिषद् के आधार पर सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) और तुरीय की व्याख्या करता है।

  2. वैतथ्य प्रकरण: यह तर्क और युक्ति द्वारा द्वैत के मिथ्यात्व को सिद्ध करता है। यह दिखाता है कि जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ प्रकार में नहीं, बल्कि केवल मात्रा में भिन्न हैं, और दोनों ही काल्पनिक या मिथ्या हैं।

  3. अद्वैत प्रकरण: इस खंड में तर्क और दृष्टांतों की सहायता से अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। आत्मा की तुलना आकाश से की जाती है और जीव को घटाकाश के समान बताया जाता है।

  4. अलातशान्ति प्रकरण: यह विभिन्न दार्शनिक मतों और आपत्तियों का खंडन करता है, विशेष रूप से अजातिवाद को स्थापित करता है और पूर्ववर्ती तीन प्रकरणों के अद्वैत शिक्षाओं का सारांश प्रस्तुत करता है। इस प्रकरण की शुरुआत में भगवान नारायण को नमस्कार किया गया है, हालांकि कुछ विद्वान इसे बुद्ध को नमस्कार मानते हैं, लेकिन शंकराचार्य के अनुसार यह भगवान नारायण को समर्पित है।

गौड़पाद का दर्शन बौद्ध दर्शन से अपनी तर्क पद्धति (जैसे अजातिवाद) में समानता रखता है, लेकिन वे दृढ़ता से एक वेदांती हैं, क्योंकि वे नित्य आत्मा (अनात्मवाद के विपरीत) में विश्वास करते हैं और उपनिषदों को अंतिम प्रमाण मानते हैं। उन्होंने भारतीय दर्शन में एक महत्वपूर्ण समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया, जिस पर चलकर शंकराचार्य ने अपने अद्वैत मत को स्थापित किया। माण्डूक्य कारिका को उपनिषदों के ज्ञान का एक सार और मुक्ति का सीधा मार्ग माना जाता है।

अजातवाद (उत्पत्ति नहीं)

गौड़पाद कारिका के प्रमुख सिद्धांतों में से एक अजातवाद है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "उत्पत्ति नहीं" या "कोई सृष्टि नहीं हुई"। यह अद्वैत वेदांत का एक मौलिक सिद्धांत है जो यह प्रतिपादित करता है कि जगत् की वास्तव में कोई उत्पत्ति नहीं हुई है, बल्कि यह केवल एक अखण्ड चिदघन सत्ता (परमार्थ सत्य) का ही मोहवश प्रपञ्चवत आभास है। यह सिद्धांत द्वैत के मिथ्यात्व पर बल देता है और बताता है कि संसार एक आभास मात्र है, कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं।

अजातवाद की विस्तृत चर्चा और इसका परिचय:

  • गौड़पाद और अजातवाद के प्रवर्तक: गौड़पाद को अद्वैत सिद्धांत का प्रधान उद्घोषक माना जाता है। उन्होंने अपनी कारिका में जिस सिद्धांत को बीजरूप में प्रकट किया, उसी को शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों में विस्तृत रूप से समझाकर संसार के सामने रखा। गौड़पाद के अनुसार, जगत् की उत्पत्ति हुई ही नहीं; जो कुछ भी दिखाई देता है वह केवल मन का ही दृश्य है।

  • अद्वैत सिद्धांत से संबंध: अजातवाद सीधे तौर पर अद्वैत सिद्धांत को पुष्ट करता है। यह सिद्ध करता है कि आत्मा (आत्मन) या ब्रह्म से वास्तव में किसी दूसरी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हुई है। यदि कोई दूसरी वस्तु उत्पन्न होती, तो अद्वैत (non-duality) का सिद्धांत भंग हो जाता। गौड़पाद ने अद्वैत सिद्धांत की स्थापना के लिए तर्क और दृष्टांतों का उपयोग किया है।

  • माया और मिथ्यात्व का संदर्भ: अजातवाद के अनुसार, समस्त दृश्य पदार्थ, चाहे वे जागृत अवस्था के हों या स्वप्न के, आत्मा की माया या कल्पना मात्र हैं। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" (ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है और जीव ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं) – यह अद्वैत का सार है, और अजातवाद इसी को आधार प्रदान करता है। जगत् का दिखना माया के कारण होता है, तत्वतः नहीं।

  • तुरीय अवस्था और अजातवाद: अजातवाद का संबंध आत्मा की तुरीय (चतुर्थ) अवस्था से है। तुरीय वह परमार्थिक सत्य है जो न तो जाग्रत, न स्वप्न, न सुषुप्ति अवस्था है, और इन सबसे परे है। यह न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न है और न किसी कार्य को उत्पन्न करती है। यह अवस्था अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है। तुरीय अवस्था का अनुभव या अद्वैत का बोध माया से मुक्त होने पर ही होता है।

  • तार्किक युक्तियाँ और दृष्टांत: गौड़पाद ने अजातवाद को सिद्ध करने के लिए विभिन्न तर्कों और दृष्टांतों का प्रयोग किया है:

    • रज्जु में सर्प का आभास (Rope-Snake Analogy): जैसे अज्ञान के कारण रस्सी में सर्प का आभास होता है, वैसे ही सारे पदार्थ आत्मा में कल्पित हैं। रस्सी का ज्ञान होने पर सर्प के मिथ्यात्व का निश्चय हो जाता है, वैसे ही आत्मा का ज्ञान होने पर जगत् का मिथ्यात्व ज्ञात होता है।

    • घटाकाश और महाकाश (Pot-Space Analogy): आत्मा की तुलना आकाश से की गई है, और जीव को घटाकाश (घड़े के भीतर का आकाश) के समान बताया गया है। जैसे घड़े के फूट जाने पर घटाकाश और बाहरी आकाश की एकता स्पष्ट हो जाती है, वैसे ही अज्ञान के नष्ट हो जाने पर आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है।

    • काष्ठ और मेज/कुर्सी (Wood-Table/Chair Analogy): एक छोटे लड़के के उदाहरण से समझाया गया कि मेज या कुर्सी जैसी कोई दूसरी चीज लकड़ी से "उत्पन्न" नहीं होती, बल्कि वे केवल लकड़ी के नाम और रूप हैं। यह अजातिवाद का ही एक अधिक कट्टरपंथी अभिव्यक्ति है।

    • उत्पत्ति की असंभवता: गौड़पाद तर्क देते हैं कि कोई भी वस्तु न तो सत् (मौजूद), न असत् (गैर-मौजूद), और न ही सदसत् (मौजूद और गैर-मौजूद दोनों) से उत्पन्न हो सकती है। इसलिए, वास्तव में न कोई उत्पत्ति है, न प्रलय है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है।

  • बौद्ध दर्शन से संबंध और भेद: गौड़पाद पर बौद्ध होने का आरोप लगता है क्योंकि उन्होंने बौद्धों की तर्क पद्धति (जैसे अलातचक्र या जलती हुई मशाल को घुमाने से दिखने वाला आभासी वृत्त का उदाहरण) का प्रयोग किया है। हालाँकि, गौड़पाद शुद्ध वेदांती हैं क्योंकि वे आगम (उपनिषदों) में पूर्ण विश्वास रखते हैं और नित्य आत्मा के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं, जबकि बौद्ध संप्रदाय नित्य आत्मा का विरोध करता है (आनात्मवाद)। बौद्ध आचार्यों ने गौड़पाद का खंडन किया है, जो दर्शाता है कि गौड़पाद की स्थिति बौद्ध मत से भिन्न थी। गौड़पाद का उद्देश्य बौद्ध विचारधारा और औपनिषदिक विचारधारा में तात्विक रूप से कोई विरोध नहीं है, यह दिखाना था, और उन्होंने इस समन्वय के मार्ग को अपनाया।

  • ज्ञान और मोक्ष में भूमिका: अजातवाद के अनुसार, आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है, न कि किसी प्रकार का कर्म या यज्ञ। जब तक आत्मा और ब्रह्म के भेद का अज्ञान बना रहता है, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। अजातवाद का ज्ञान होने पर व्यक्ति को यह बोध होता है कि वह स्वयं तुरीय स्वरूप है और कभी भी सीमित व्यक्ति नहीं बना।

निष्कर्षतः, गौड़पाद का अजातवाद अद्वैत वेदांत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अनुपम सिद्धांत है, जो जगत् की उत्पत्ति को मायावी और मिथ्या बताते हुए आत्मा और ब्रह्म की शाश्वत, अविभाज्य एकता पर बल देता है, और परमार्थिक सत्य के रूप में तुरीय की स्थिति को स्थापित करता है।

जगत की उत्पत्ति नहीं हुई

अजातवाद (उत्पत्ति नहीं) का सिद्धांत अद्वैत वेदांत का एक प्रमुख सिद्धांत है, जिसे गौड़पाद ने अपनी माण्डूक्य कारिका में अत्यंत स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है। यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि जगत की वास्तव में उत्पत्ति हुई ही नहीं है

यहां इस सिद्धांत से जुड़े प्रमुख बिंदु दिए गए हैं:

  • अजातवाद का मूल अर्थ:

    • गौड़पाद के अनुसार, जगत् की उत्पत्ति ही नहीं हुई है; केवल एक अखण्ड चिदघन सत्ता ही मोहवश प्रपञ्चवत् भास रही है

    • यह परमार्थिक सत्य है कि न निरोध है, न उत्पत्ति है, न कोई बद्ध है, न कोई साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है

    • इसका अर्थ है कि कोई भी वस्तु न तो स्वयं से उत्पन्न हो सकती है और न किसी अन्य से। गौड़पाद विभिन्न सृष्टिकर्ताओं के सिद्धांतों (जैसे काल या भगवान के संकल्प से सृष्टि) का खंडन करते हैं।

  • माया और अविद्या से संबंध:

    • अजातवाद का सिद्धांत माया के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढंककर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है

    • सारा दृश्य जगत्—चाहे वह स्वप्न का हो या जाग्रत का—स्वयंप्रकाश-आत्मा की माया या कल्पना है। यह एक भ्रम (इल्युजन) है।

    • जैसे अज्ञान के कारण रस्सी में साँप का आभास होता है, वैसे ही सारे पदार्थ आत्मा में कल्पित हैं। रस्सी के सही ज्ञान से साँप का मिथ्यात्व निश्चित हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान होने पर जगत् का मिथ्यात्व प्रतीत होता है।

    • जब जीव अनादि माया से सोया हुआ रहता है, तो वह अजान, अनिद्र और अभय रहित आत्मतत्त्व का बोध प्राप्त करता है। "माया से मुक्ति ही मोक्ष है"

  • वैतथ्य प्रकरण (दूसरे अध्याय) में जगत की मिथ्याता का प्रतिपादन:

    • माण्डूक्य कारिका का दूसरा प्रकरण, 'वैतथ्य प्रकरण', तर्क और युक्ति के माध्यम से द्वैत के मिथ्यात्व को दर्शाता है

    • गौड़पाद तर्क देते हैं कि जाग्रत और स्वप्न के पदार्थ वास्तव में भिन्न नहीं हैं; जिस प्रकार स्वप्न का जगत् काल्पनिक या मिथ्या है, उसी प्रकार जाग्रत जगत् भी काल्पनिक या मिथ्या है

    • यह तर्क इस बात पर आधारित है कि जाग्रत और स्वप्न के जगत् में केवल मात्रा का भेद है, प्रकार का नहीं। एक निष्पक्ष निर्णायक (या साक्षी) की आवश्यकता होती है, जो न तो जाग्रत अवस्था से जुड़ा हो और न ही स्वप्न अवस्था से, तभी दोनों की वास्तविकता पर सही निर्णय लिया जा सकता है।

    • बोध होने पर "मैं वही हूँ" की अनुभूति होती है और यह समझा जाता है कि मन, विचार, और भावनाएँ चेतना में केवल एक अभिव्यक्ति हैं।

  • तुरीय (चौथी अवस्था) और अकारणता:

    • अजातवाद का सिद्धांत आत्मा की अद्वैतता (अद्वैत) को सिद्ध करता है। यह दिखाया जाता है कि तुरीय (चौथा पाद) कारण नहीं है और उससे किसी दूसरी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती।

    • यदि तुरीय किसी वस्तु का कारण होता और उससे कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैतता उत्पन्न होती, जो अद्वैत सिद्धांत के विपरीत होती।

    • तुरीय अवस्था न तो कार्य है और न ही कारण। इसका संसार की किसी भी अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से कोई वास्तविक संबंध नहीं है, भले ही संसार तुरीय में ही प्रतीत होता हो। इसे अस्पर्श योग कहते हैं।

  • अमानीभाव (मन का शांत होना):

    • यह जितना 'द्वैत' है, सब मन का ही दृश्य है। परमार्थतः तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती

    • अस्पर्श योग को अमानीभाव (मनोनाश या मन का शांत होना) के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। अमानीभाव का अर्थ मन को नष्ट करना या सो जाना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि मन, विचार और भावनाएँ चेतना में एक अभिव्यक्ति मात्र हैं। जब मन सक्रिय होता है तो संसार होता है; मन के शांत होने पर द्वैत का अनुभव नहीं होता

  • बौद्ध अनात्मवाद से भिन्नता:

    • यद्यपि गौड़पाद बौद्ध तर्कपद्धति का उपयोग करते हैं, फिर भी वे शुद्ध वेदांती हैं।

    • बौद्ध दर्शन 'अनात्मवाद' (नित्य आत्मा का खंडन) का समर्थन करता है, जबकि गौड़पाद आत्मा की नित्यता और तुरीय अवस्था में उसकी शुद्ध स्थिति का प्रतिपादन करते हैं, जहाँ वह न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न होती है और न ही किसी कार्य को उत्पन्न करती है। गौड़पाद का दर्शन आगम (उपनिषदों) पर पूर्ण विश्वास रखता है।

संक्षेप में, अजातवाद गौड़पाद के दर्शन का आधारशिला है, जो यह स्थापित करता है कि यह बहुलतापूर्ण जगत् एक भ्रम है, जो अविद्या या माया के कारण प्रतीत होता है, और परमार्थतः अद्वैत ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है जो कभी उत्पन्न नहीं होता और जिससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता।

अजन्मा ब्रह्म ही परम सत्य

गौड़पाद का दर्शन, विशेषकर उनकी माण्डूक्य कारिका, अजातवाद के सिद्धांत पर आधारित है, जिसका अर्थ है 'कोई उत्पत्ति नहीं' या 'सृष्टि का न होना' [Conversation History, 16, 17, 138, 140, 146, 375, 376, 377]। इस सिद्धांत के मूल में अजन्मा ब्रह्म ही परम सत्य है।

यहाँ विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर इस सिद्धांत का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत है:

1. अजातवाद का मूल सिद्धांत:

  • उत्पत्ति का अभाव: गौड़पाद यह सिद्ध करते हैं कि संसार की वास्तव में कोई उत्पत्ति हुई ही नहीं है। वे कहते हैं कि सत् (जो विद्यमान है), असत् (जो विद्यमान नहीं है), अथवा सदसत् (जो विद्यमान है और नहीं भी है), किसी भी प्रकार से प्रपंच (दृश्यमान जगत्) की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती। उनका मानना है कि कोई भी वस्तु न तो स्वयं से उत्पन्न हो सकती है और न ही किसी अन्य से। यदि कोई वस्तु आदि (प्रारंभ) और अंत में नहीं है, तो वह मध्य काल या दृश्य काल में भी नहीं है।

  • ब्रह्म की अनउत्पन्नता: अजातवाद यह सिखाता है कि आत्मा (ब्रह्म) स्वयं किसी कारण से उत्पन्न नहीं है और न ही वह किसी कार्य को उत्पन्न करती है। यदि आत्मा या तुरीय किसी वस्तु का कारण होता, तो उससे कुछ कार्य उत्पन्न होते, जिससे द्वैतता आती, जो अद्वैत सिद्धांत के विपरीत है ।

  • परमार्थिक सत्य: अजातवाद का निष्कर्ष है कि परमार्थत: न निरोध (विनाश) है, न उत्पत्ति है, न कोई बद्ध है, न कोई साधक है, न मुमुक्षु (मोक्ष का इच्छुक) है और न ही कोई मुक्त हैब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है जो आदि-शांत, अनुत्पन्न (अजन्मा), और असंग (अनासक्त) है ।

2. अजन्मा ब्रह्म की प्रकृति:

  • अद्वितीय और नित्य: आत्मा नित्य, अविनाशी और अजन्मा है। इसे अभय (निर्भय), शांत (शांत) और निरतिशय (उत्कृष्टतम) कहा गया है। यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप और अनंत है।

  • कारण-कार्य संबंध से परे: ब्रह्म को कारण या कार्य दोनों से परे बताया गया है। वह निरपेक्ष है और किसी भी कार्य-कारण भाव की कल्पना उसके लिए असंभव है। ईश्वर (ब्रह्म) असीम है, इसलिए उससे जुड़े विचार सदा असंगति (paradoxical) होंगे।

  • साक्षी स्वरूप: ब्रह्म तीनों अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति - का साक्षी है, किंतु उनसे विलक्षण है। यह उन तीनों में अनुगत (वर्तमान) और उनका अधिष्ठान (आधार) है। यह स्वयंप्रकाश है।

3. माया और जगत का मिथ्यात्व (भ्रामक स्वरूप):

  • माया की भूमिका: गौड़पाद के अनुसार, जगत की उत्पत्ति नहीं हुई है, केवल एक अखण्ड चिदघन सत्ता ही मोहवश प्रपंचवत भास रही है। यह माया की महिमा है, जिससे रस्सी में सर्प, सीप में चांदी, या स्वर्ण में आभूषण आदि के समान उस सर्वसंगशून्य चित्तत्त्व में समस्त पदार्थों की प्रतीति हो रही है। माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है।

  • द्वैत का मानसिक सृजन: गौड़पाद कहते हैं कि "मनोदृश्यमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थः। मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते" (यह जितना द्वैत है, सब मन का ही दृश्य है। परमार्थत: तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य (अमानीभाव) हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती)। मन की सक्रियता ही संसार का अनुभव कराती है; मन के शांत होने पर द्वैत का अनुभव नहीं होता ।

  • जगत की असत्यता: जागृत और स्वप्न जगत में वास्तव में कोई भेद नहीं है; जैसे स्वप्न काल्पनिक या मिथ्या है, वैसे ही जागृत जगत भी काल्पनिक या मिथ्या है। यह जगत केवल माया की कल्पना है।

4. तुरीय अवस्था और अस्पर्श योग:

  • तुरीय का अनुभव: आत्मा की चौथी अवस्था तुरीय कहलाती है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है। यह अदृश्य, अव्यवहार्य (व्यवहार योग्य नहीं), अग्राह्य (ग्रहण करने योग्य नहीं), अलक्षण (विशेषता रहित), अचिन्त्य (अचिंतनीय), अव्यपदेश्य (अवर्णीय) और एकात्मप्रत्ययसार (एक आत्म-ज्ञान का सार) है। तुरीय कोई अवस्था नहीं है, बल्कि यह तीनों अवस्थाओं का आधार है।

  • अस्पर्श योग: अस्पर्श योग वह साधन है जिससे आत्मा की अजन्मा और असंग प्रकृति का अनुभव किया जाता है। 'अस्पर्श' का अर्थ है "संबंध रहित" या "संपर्क रहित" । यह योग सिखाता है कि तुरीय का जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति या संपूर्ण ब्रह्मांड से कोई वास्तविक संबंध या संपर्क नहीं है । भले ही संसार तुरीय में प्रकट होता है, तुरीय उससे अप्रभावित रहता है । अस्पर्श योग सभी योगियों के लिए "दुर्लभ दर्शनीय" (दुर्दर्शेः सर्वयोगिभिः) बताया गया है । यह शांत, कल्याणकारी, अविवादित और अविरुद्ध है ।

  • अमानीभाव से प्राप्ति: अस्पर्श योग को अमानीभाव (मनोनाश या मन का शांत होना) के माध्यम से प्राप्त किया जाता है । जब मन सक्रिय होता है तो संसार होता है; मन के शांत होने पर द्वैत का अनुभव नहीं होता ।

5. गौड़पाद का दर्शन और शंकराचार्य:

  • अद्वैत वेदान्त का आधार: गौड़पाद ने मायावाद, विवर्तवाद (माया द्वारा आभासित परिवर्तन), और अजातिवाद का स्पष्ट प्रतिपादन किया, जो शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त की नींव बना। शंकराचार्य ने गौड़पाद के सिद्धांतों को ही विस्तृत रूप से समझाया।

  • बौद्ध दर्शनों से तुलना: गौड़पाद के सिद्धांत बौद्धों के अजातिवाद और तर्कपद्धति के समान प्रतीत होते हैं, लेकिन वे शुद्ध वेदांती थे क्योंकि उनका आगम (उपनिषदों) में पूर्ण विश्वास था और वे नित्य आत्मा में विश्वास करते थे, जबकि बौद्ध अनात्मवाद का प्रतिपादन करते हैं। गौड़पाद का दर्शन साक्षात्कार और अनुभव को तर्क से अधिक महत्व देता है।

संक्षेप में, अजन्मा ब्रह्म ही परम सत्य है, यह गौड़पाद के अजातवाद का केंद्रीय सिद्धांत है। यह सिखाता है कि कोई भी वस्तु वास्तव में उत्पन्न नहीं होती, और दृश्यमान संसार माया का एक प्रपंच मात्र है। आत्मा स्वयं अजन्मा, अविनाशी, कारण-कार्य संबंधों से परे और द्वैत से मुक्त है। इस परम सत्य की प्राप्ति अस्पर्श योग और मनोनाश के माध्यम से होती है, जिससे जीव अपने वास्तविक, असंग स्वरूप को पहचानता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।

रज्जु में सर्प का उदाहरण

गौड़पाद कारिका, अद्वैत वेदांत के प्रमुख सिद्धांतों की व्यवस्थित व्याख्या के लिए चार प्रकरणों में विभाजित है, जिनमें 'अजातवाद' (उत्पत्ति नहीं) एक केंद्रीय सिद्धांत है। इसी अजातवाद को स्पष्ट करने के लिए रज्जु में सर्प का उदाहरण एक प्रमुख दृष्टांत के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

अजातवाद (उत्पत्ति नहीं) का सिद्धांत:

गौड़पाद का 'अजातवाद' यह मानता है कि जगत् की वास्तव में उत्पत्ति ही नहीं हुई है। परमार्थिक सत्य यह है कि न तो कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, न कोई बंधा हुआ है, न कोई साधक है, न कोई मुमुक्षु है और न कोई मुक्त ही है। केवल एक अखण्ड चिदघन सत्ता (चेतन सत्ता) ही मोहवश अनेक रूपों में भासित होती है। आत्मा स्वयं किसी कारण से उत्पन्न नहीं होती और न ही किसी कार्य को उत्पन्न करती है, जो इसे बौद्धों के अनात्मवाद से अलग करता है। गौड़पाद ने स्पष्ट किया है कि किसी भी वस्तु का जन्म माया से हो सकता है, तत्वतः नहीं। अजन्मा ब्रह्म में किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, और वही सर्वोत्तम सत्य है।

रज्जु में सर्प का उदाहरण और अजातवाद से संबंध:

यह उदाहरण माया, जगत् की मिथ्यात्वता और आत्मा की अद्वैत प्रकृति को समझाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है:

  • मिथ्यात्व की व्याख्या: जिस प्रकार अज्ञान के कारण अँधेरे में पड़ी रस्सी में साँप का आभास होता है, उसी प्रकार आत्मा में समस्त पदार्थ कल्पित हैं। साँप का अस्तित्व केवल देखने वाले की अज्ञानता पर निर्भर करता है।

  • सत्य की पहचान: जैसे ही रस्सी का सही ज्ञान होता है, साँप का मिथ्यात्व (असत्यता) स्वतः स्पष्ट हो जाता है। ठीक उसी प्रकार, जब आत्मा का ज्ञान हो जाता है, तो जगत् का मिथ्यात्व ज्ञात होता है।

  • माया का कार्य: यह दृष्टांत स्पष्ट करता है कि माया ही वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म/आत्मा) को ढँककर असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। रस्सी को साँप समझना माया का ही कार्य है। गौड़पाद के अनुसार, संपूर्ण जगत माया मात्र है

  • द्वैत का स्वरूप: यह उदाहरण मन के कार्य को भी दर्शाता है। जिस प्रकार मन में कल्पित सर्प रस्सी को देखने पर भासित होता है, उसी प्रकार मन ही परमार्थ ज्ञान रूप आत्मा को देखने पर माया से ग्राह्य-ग्राहक (विषय-विषयी) रूप में स्फुरित होता है, और यही मन जाग्रत और स्वप्नकाल में द्वैत के रूप में प्रकट होता है। जब मन अमानीभाव (विचारशून्य) हो जाता है, तो द्वैत की उपलब्धि नहीं होती।

  • अजातता का समर्थन: इस उदाहरण के माध्यम से, अजातवाद का दृढ़ समर्थन होता है। 'सर्प' कभी भी वास्तव में 'रस्सी' से उत्पन्न नहीं हुआ; वह केवल एक भ्रम था। इसी तरह, जगत् की उत्पत्ति नहीं हुई है, वह केवल आत्मा में कल्पित है। आत्मा न तो स्वयं उत्पन्न होती है और न ही कुछ उत्पन्न करती है।

अन्य संबंधित अवधारणाएँ:

  • तुरीय अवस्था: माण्डूक्य उपनिषद् में आत्मा की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का वर्णन है। जहाँ पहली तीन अवस्थाएँ (जो जगत् का अनुभव कराती हैं) मन की कल्पना मात्र हैं, तुरीय वह चौथी अवस्था है जो इन तीनों का आधार है, उनसे स्वतंत्र है और अद्वैत है। तुरीय न तो उत्पन्न होती है और न ही किसी कार्य को उत्पन्न करती है।

  • अमानीभाव और अस्पर्श योग: इस सत्य (अजातवाद और अद्वैत) की प्राप्ति अमानीभाव (मन की शांति या मन का शांत हो जाना) और अस्पर्श योग के माध्यम से होती है। अस्पर्श योग वह अवस्था है जहाँ आत्मा का जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति या संपूर्ण ब्रह्मांड से कोई वास्तविक संबंध नहीं होता, यद्यपि यह ब्रह्मांड उसी में प्रकट होता है।

संक्षेप में, रज्जु में सर्प का उदाहरण गौड़पाद के अजातवाद और अद्वैत सिद्धांत का एक मूल आधार है। यह दिखाता है कि जगत् की उत्पत्ति एक भ्रम मात्र है, जो अज्ञान के कारण माया द्वारा कल्पित होता है, और परमार्थिक रूप से केवल अद्वैत आत्मा ही सत्य है। यह ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है।


मायावाद (जगत मिथ्या)

मायावाद (जगत मिथ्या) अद्वैत वेदांत के प्रमुख सिद्धांतों में से एक है, जिसे आचार्य गौड़पाद ने अपनी कारिकाओं में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है और बाद में शंकराचार्य ने इसे और विस्तृत किया। यह सिद्धांत यह समझाता है कि इस संसार की वास्तविकता क्या है और परमार्थिक सत्य क्या है।

मायावाद (जगत मिथ्या) का अर्थ:

  • माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है।

  • इसका शाब्दिक अर्थ है "जो वस्तुतः नहीं है, फिर भी प्रतीत होता है"।

  • वेदांत में कहा गया है कि "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" – अर्थात् ब्रह्म ही परमार्थ सत्य है, जगत एक आभास या प्रतीति है (मिथ्या है), और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है

  • इस संसार को "प्रपंचोपशम" भी कहा गया है, जिसका अर्थ है कि यह ब्रह्मांड शांत हो जाता है या मिट जाता है, यानी इसकी मिथ्यात्व या असत्यता का ज्ञान हो जाता है।

प्रमुख सिद्धांत के रूप में गौड़पाद का प्रतिपादन:

  • गौड़पाद को अद्वैत सिद्धांत का प्रधान उद्घोषक माना जाता है, और उन्होंने अपनी माण्डूक्य कारिका में मायावाद, विवर्तवाद (कारण के अपने परिणाम के रूप में प्रकट होने का सिद्धांत), और अजातिवाद (उत्पत्तिहीनता का सिद्धांत) जैसे मुख्य सिद्धांतों का स्पष्ट प्रतिपादन किया है [143, 152, Previous Response]।

  • गौड़पाद कारिका को चार प्रकरणों में विभाजित किया गया है [Previous Response, 149]। इन प्रकरणों में से द्वितीय प्रकरण 'वैतथ्य प्रकरण' मुख्य रूप से द्वैत (द्वैतता) के मिथ्यात्व को युक्ति और तर्क द्वारा सिद्ध करता है [Previous Response, 150, 156, 262]।

  • अजातवाद के अनुसार, जगत की उत्पत्ति ही नहीं हुई है, बल्कि एक अखंड चिदघन सत्ता (चेतना) ही मोहवश संसार के समान भास रही है। गौड़पाद कहते हैं: "मनोदृश्यमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थ:" – यह जितना भी द्वैत (द्वैतता) है, वह सब मन का ही दृश्य है; परमार्थतः तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती।

  • उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि परमार्थतः "न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधक:। न मुमुक्षर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥" – अर्थात् न कोई निरोध है, न उत्पत्ति, न कोई बद्ध है, न साधक, न मोक्ष की इच्छा रखने वाला, और न ही कोई मुक्त है; यही परमार्थता है।

शंकराचार्य द्वारा विस्तार और सुदृढीकरण:

  • आदि शंकराचार्य ने उपनिषदों और भगवद्गीता पर अपने भाष्यों में अद्वैत वेदांत की व्याख्या करते हुए जीव, जगत और ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट किया और माया से ग्रस्त जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित किया।

  • शंकराचार्य ने गौड़पाद के मूल दर्शन का ही अनुसरण किया और उनके सिद्धांतों को विस्तृत रूप से समझाया।

  • उनके अनुसार, जब तक "माया" के प्रभाव से जीव स्वयं को शरीर, मन और इंद्रियों से अलग नहीं समझता, तब तक वह दुख से ग्रस्त रहेगा। "अहम् देहः" (मैं यह शरीर हूँ) की भावना ही दुख का मूल कारण है।

मिथ्यात्व को समझाने के लिए दृष्टांत और तर्क: अद्वैत वेदांत जगत के मिथ्यात्व को समझाने के लिए कई दृष्टांतों और तर्कों का उपयोग करता है:

  • जाग्रत और स्वप्न अवस्था की समानता: गौड़पाद तर्क देते हैं कि जिस प्रकार स्वप्न का संसार काल्पनिक या मिथ्या होता है, उसी प्रकार जाग्रत का संसार भी माया या कल्पना मात्र है [Previous Response, 150, 63]। जाग्रत जगत का अधिक स्थायी या विस्तृत होना केवल मात्रा का भेद है, प्रकार का नहीं। ज्ञानी व्यक्ति के लिए, जो जितना अधिक अपरिभाषित होता है, वह उतना ही अधिक सत्य के समीप होता है।

  • नाम और रूप (Nama-Rupa): यह विश्व केवल नाम और रूप का बना है। जैसे एक सोने की चेन (जो एक वस्तु है) वास्तव में सोना (जो उसका मूल तत्व है) से भिन्न नहीं है। चेन केवल सोने को दिया गया एक 'नाम' और 'रूप' है। जब आप ध्यान को 'चेन' के नाम-रूप से हटाकर उसके मूल 'सोना' पर लाते हैं, तो 'चेन' का मिथ्यात्व ज्ञात होता है। इसी तरह, पुस्तक वास्तव में कागज है, जो लकड़ी के गूदे से बनता है, और अंततः हाइड्रोकार्बन और परमाणुओं में विलीन हो जाता है। कोई भी वस्तु जिसका एक 'रूप' होता है, उसे उसके मूल तत्व में कम किया जा सकता है, जिससे उसका 'रूप' केवल एक अवधारणा या मिथ्या बन जाता है।

  • रस्सी में सर्प का आभास : यह एक प्रसिद्ध दृष्टांत है जहाँ अज्ञान के कारण रस्सी को सर्प समझा जाता है। जब रस्सी का सही ज्ञान हो जाता है, तो सर्प का मिथ्यात्व ज्ञात हो जाता है और भ्रम दूर हो जाता है। इसी प्रकार, जब आत्मा का ज्ञान होता है, तो जगत का मिथ्यात्व स्पष्ट हो जाता है।

  • घटाकाश और महाकाश : आत्मा की तुलना सर्वव्यापी आकाश से की गई है, और जीव को घटाकाश (घड़े के भीतर का आकाश) के समान बताया गया है। जैसे घड़े के टूट जाने पर घटाकाश और बाहरी महाकाश में कोई भेद नहीं रहता, वैसे ही अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है। यह दर्शाता है कि जीवात्मा वास्तव में ब्रह्म से भिन्न नहीं है, केवल एक उपाधि (घड़ा) के कारण भिन्न प्रतीत होता है।

परमार्थ सत्य (ब्रह्म/आत्मन) और मायावाद का संबंध:

  • माया ब्रह्म से अलग नहीं है, बल्कि ईश्वर की शक्ति है और उसके नियंत्रण में है।

  • आत्मन ही परमार्थ सत्य है, जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और यहाँ तक कि क्षणिक मौन से भी परे है। आत्मन (तुरीय अवस्था) वह चेतना है जो इन सभी अवस्थाओं का साक्षी है, लेकिन स्वयं इन अवस्थाओं से अप्रभावित और स्वतंत्र रहता है।

  • परमार्थतः कोई सृष्टि नहीं हुई है, सब कुछ आत्मा में कल्पित है। ब्रह्म न तो उत्पन्न होता है और न ही उसका नाश होता है।

  • ब्रह्म को न तो कारण कहा जा सकता है और न ही कार्य, क्योंकि यदि ब्रह्म किसी वस्तु का कारण होता, तो द्वैत (दूसरा तत्व) उत्पन्न हो जाता, जिससे अद्वैत की हानि होती।

मायावाद की शिक्षा का उद्देश्य:

  • मायावाद का ज्ञान जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है, जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का मार्ग है।

  • अविद्या (अज्ञान) को बंधन का मूल कारण और विवेक (नित्य-अनित्य का विवेक) को उसका नाशक बताया गया है।

  • माया से मुक्ति ही मोक्ष है। आत्मज्ञान ही मोक्ष है, न कि किसी प्रकार का कर्म या यज्ञ।

दृश्य मन की कल्पना

गौड़पाद के अद्वैत वेदांत और मायावाद के सिद्धांत में दृश्य जगत् का मन की कल्पना होना एक केंद्रीय अवधारणा है, जिसे 'अजातवाद' (उत्पत्ति नहीं) के संदर्भ में गहराई से समझाया गया है।

मायावाद (जगत् मिथ्या) का संदर्भ:

माया को "जो वस्तुतः नहीं है, फिर भी प्रतीत होता है" के रूप में परिभाषित किया गया है। यह ब्रह्म की एक दिव्य शक्ति है, जो त्रिगुणात्मक (सत्व, रज, तम) है। माया के दो मुख्य कार्य हैं: 'आवरण शक्ति', जो सत्य (ब्रह्म) को छिपाती है, और 'विक्षेप शक्ति', जो असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत् मिथ्या (एक आभास) है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। "संपूर्ण जगत माया मात्र है"। गौड़पाद ने जगत् की उत्पत्ति को ही मिथ्या बताया है।

दृश्य जगत् का मन की कल्पना होना:

गौड़पाद के दर्शन में, यह संपूर्ण द्वैत (जो कुछ भी अनुभव में आता है) मन का ही दृश्य है। जब मन 'मननशून्य' (विचारशून्य या शांत) हो जाता है, तो द्वैत की उपलब्धि नहीं होती, और परमार्थिक रूप से केवल अद्वैत ही शेष रहता है। यह विचार कि जगत् मन की कल्पना मात्र है, विभिन्न दृष्टांतों और तर्कों से पुष्ट होता है:

  • रज्जु में सर्प का उदाहरण: यह दृष्टांत माया और जगत् के मिथ्यात्व को समझाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार अज्ञान के कारण अँधेरे में पड़ी रस्सी में साँप का आभास होता है, उसी प्रकार आत्मा में समस्त पदार्थ कल्पित हैं। साँप का अस्तित्व केवल देखने वाले की अज्ञानता पर निर्भर करता है; जैसे ही रस्सी का सही ज्ञान होता है, साँप का मिथ्यात्व (असत्यता) स्वतः स्पष्ट हो जाता है। इसी तरह, जब आत्मा का ज्ञान हो जाता है, तो जगत् का मिथ्यात्व ज्ञात होता है। सर्प वास्तव में रस्सी से उत्पन्न नहीं हुआ; यह केवल एक भ्रम था।

  • मन की भूमिका: मन ही वह उपकरण है जो 'मैं हूँ' के मूल संकल्प (आत्मा) को प्रतिबिंबित करके अन्य संकल्पनाएँ उत्पन्न करता है, जिससे संपूर्ण जगत् प्रकट होता है। भीतरी जगत् में ये संकल्प विचारों के रूप में, और बाहरी जगत् में भौतिक वस्तुओं के रूप में प्रकट होते हैं। मन ही परमार्थ ज्ञान रूप आत्मा को देखने पर माया से ग्राह्य-ग्राहक (विषय-विषयी) रूप में स्फुरित होता है, और यही मन जाग्रत और स्वप्नकाल में द्वैत के रूप में प्रकट होता है।

  • जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं की समानता: गौड़पाद ने तर्क दिया है कि जाग्रत और स्वप्न जगत् में वास्तव में कोई मौलिक भेद नहीं है। जिस प्रकार स्वप्न का जगत् काल्पनिक या मिथ्या है, वैसे ही जाग्रत जगत् भी काल्पनिक या मिथ्या है। स्वप्न तब तक सत्य लगता है जब तक हम उसमें होते हैं, पर जागते ही उसका असत्य होना समझ आ जाता है। इसी प्रकार, जाग्रत अवस्था में भी चेतना के दृष्टिकोण से सब कुछ आभास मात्र है। दोनों ही अवस्थाएँ (जाग्रत और स्वप्न) मन की कल्पना हैं।

  • नाम और रूप (Nama-Rupa): संसार को 'नाम-रूप-प्रपंच' कहा गया है। किसी भी वस्तु का 'रूप' उसके 'कंटेंट' से अलग नहीं होता (जैसे पुस्तक कागज से, आभूषण सोने से अलग नहीं)। अंततः, जो भी रूप में है, उसे उसके मूल 'कंटेंट' में संकल्पनात्मक रूप से घटाया जा सकता है, और अंततः यह चेतना (ब्रह्म) में विलीन हो जाता है।

  • अजातवाद से संबंध: यदि जगत् मन की कल्पना या आभास मात्र है, तो वह वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है। जैसे रस्सी में साँप का भ्रम, साँप को रस्सी से उत्पन्न नहीं करता, वैसे ही जगत् आत्मा से उत्पन्न नहीं होता, वह केवल आत्मा में कल्पित होता है। "किसी भी वस्तु का जन्म माया से हो सकता है, तत्वतः नहीं"। यही 'अजातवाद' का मूल है: परमार्थिक रूप से न कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है। स्वयं मुमुक्षु शान जी द्वारा दिया गया 'लकड़ी से बनी मेज' का उदाहरण भी इसी बात को पुष्ट करता है कि मेज लकड़ी से अलग 'उत्पन्न' नहीं हुई, वह लकड़ी का ही एक नाम और रूप है।

संक्षेप में, गौड़पाद के मायावाद के अनुसार, जो कुछ भी हमें 'दृश्य' (प्रकट) होता है, चाहे वह जाग्रत अवस्था में हो या स्वप्न में, वह वास्तव में मन की कल्पना या माया का परिणाम है। यह 'दृश्य' वास्तव में 'अजात' (अनुत्पन्न) है, और यह ज्ञान ही अद्वैत आत्मतत्व की पहचान और मुक्ति का मार्ग है। मन के शांत होने पर यह द्वैत रूपी 'दृश्य' स्वतः तिरोहित हो जाता है।

जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ समान

गौड़पाद कारिका और अद्वैत वेदांत में जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं को समान (समान) माना गया है, विशेषकर मायावाद (जगत मिथ्या) के व्यापक संदर्भ में। यह सिद्धांत बताता है कि संसार, जैसा कि हम इसे अनुभव करते हैं, परमार्थतः सत्य नहीं है, बल्कि एक आभास या मिथ्या है।

यहाँ विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर इस विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है:

  • अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत और अजातवाद: आदि शंकराचार्य के भाष्यों का मूल उद्देश्य जीव, जगत और ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करना और माया से ग्रस्त जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करना था। गौड़पाद ने 'अजातवाद' (उत्पत्ति नहीं) का प्रतिपादन किया है, जिसके अनुसार जगत् की वास्तव में उत्पत्ति ही नहीं हुई है, केवल एक अखंड चिदघन सत्ता ही मोहवश अनेक रूपों में भासित होती है। यह सिद्धांत इस बात पर ज़ोर देता है कि किसी भी वस्तु का जन्म माया से हो सकता है, तत्वतः नहीं। अजन्मा ब्रह्म में किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, और वही सर्वोत्तम सत्य है। गौड़पाद इस बात को सिद्ध करने के लिए तर्क का उपयोग करते हैं कि सत्, असत् अथवा सदसत् किसी भी प्रकार से प्रपञ्च (जगत्) की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती।

  • जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं की समानता (मिथ्यात्व):

    • 'वैतथ्य प्रकरण' (द्वितीय प्रकरण): गौड़पाद कारिका का द्वितीय प्रकरण 'वैतथ्य प्रकरण' कहलाता है, जिसका अर्थ मिथ्यात्व है। इस प्रकरण में तर्क और युक्ति द्वारा द्वैत (जागृत-स्वप्न जगत) का मिथ्यात्व दिखलाया गया है। मुख्य तर्क यह है कि जाग्रत और स्वप्निक पदार्थों में वास्तव में कोई भेद नहीं है; जैसे स्वप्निक जगत् काल्पनिक या मिथ्या है, वैसे ही जाग्रत जगत् भी काल्पनिक या मिथ्या है

    • स्थायित्व और विस्तार का भेद नहीं: सामान्यतया स्वप्न और जाग्रत में यह भेद किया जाता है कि जाग्रत जगत् अधिक स्थायी और विस्तार वाला है। लेकिन गौड़पाद इस तर्क को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि यह केवल मात्रा का भेद सिद्ध करता है, प्रकार का नहीं

    • परस्पर बाधन: जिस प्रकार जाग्रत पदार्थों में स्वप्न जगत् बाधित हो जाता है, वैसे ही स्वप्न में भी जाग्रत पदार्थों की विपरीतता देखी जाती है। उदाहरण के लिए, पानी पीकर सोये व्यक्ति को प्यास का स्वप्न हो सकता है।

    • न्यायपूर्ण तुलना का अभाव: मांडूक्य उपनिषद इस बात को स्वीकार नहीं करता कि जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं की तुलना पक्षपात रहित हो सकती है। जो व्यक्ति दोनों अवस्थाओं की तुलना करता है, वह स्वयं न तो पूरी तरह जाग्रत में होता है और न ही पूरी तरह स्वप्न में। स्वप्न तब तक सत्य लगता है जब तक हम उसमें होते हैं, जागते ही वह असत्य हो जाता है। इसी प्रकार, जाग्रत अवस्था भी अपने अनुभव में सत्य लगती है, लेकिन परमार्थिक दृष्टिकोण से वह भी मिथ्या है।

    • कारण और प्रभाव: जाग्रत और स्वप्न दोनों में कारण और प्रभाव का संबंध होता है, लेकिन परमार्थतः कोई कार्य-कारण संबंध नहीं है।

  • माया और कल्पना का प्रभाव:

    • माया की भूमिका: अद्वैत वेदांत में ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और संसार जो दिख रहा है, वह माया का परिणाम है – एक इल्युजनमाया ही सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। संपूर्ण जगत् माया मात्र है।

    • रज्जु में सर्प का उदाहरण: यह प्रसिद्ध उदाहरण माया की शक्ति और जगत् के मिथ्यात्व को समझाने के लिए प्रयोग किया जाता है। अज्ञान के कारण अँधेरे में पड़ी रस्सी में साँप का आभास होता है, उसी प्रकार आत्मा में समस्त पदार्थ कल्पित हैं। जैसे ही रस्सी का सही ज्ञान होता है, साँप का मिथ्यात्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है, वैसे ही आत्मा का ज्ञान होने पर जगत् का मिथ्यात्व ज्ञात होता है।

    • मन की कल्पना: यह द्वैत, चाहे जाग्रत का हो या स्वप्न का, मन की कल्पना मात्र है। मन ही परमार्थ ज्ञान रूप आत्मा को देखने पर माया से ग्राह्य-ग्राहक (विषय-विषयी) रूप में स्फुरित होता है, और यही मन जाग्रत और स्वप्नकाल में द्वैत के रूप में प्रकट होता है। जब मन अमानीभाव (मननशून्य) हो जाता है, तो द्वैत की उपलब्धि नहीं होती।

  • आत्मतत्त्व का साक्षी स्वरूप:

    • आत्मा (चेतना) की चार अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) हैं। तुरीय अवस्था उपनिषद का सबसे बड़ा रहस्य है।

    • तुरीय साक्षी है: आत्मा तुरीयावस्था में न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न होती है और न किसी कार्य को उत्पन्न करती है। यह तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का आधार, अधिष्ठान और साक्षी है। यह इन तीनों से विलक्षण और इनमें अनुगत है। वह इन सभी अवस्थाओं को अनुभव कर रहा है, और वह स्वयं अदृश्य है, अव्यावहारिक है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिंत्य है और अपरिभाषीय है।

    • चेतना पर आधारित दृष्टिकोण: गौड़पाद हमेशा चेतना-आधारित दृष्टिकोण अपनाते हैं। चेतना के दृष्टिकोण से, जाग्रत और स्वप्न दोनों ही केवल आभास हैं।

  • मोक्ष और माया से मुक्ति:

    • माया से मुक्ति ही मोक्ष है। विवेक (नित्य और अनित्य का विवेक) और वैराग्य (विषयों में आकर्षण का अभाव) माया से बाहर निकलने के प्रमुख उपाय हैं।

    • श्रवण, मनन, निदिध्यासन: वेदांत के श्रवण द्वारा ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है।

संक्षेप में, गौड़पाद और अद्वैत वेदांत के अनुसार, जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ समान रूप से मिथ्या हैं क्योंकि वे दोनों ही मन की कल्पना या माया के परिणाम हैं। परमार्थतः केवल अद्वैत आत्मा ही सत्य है, जो इन सभी अवस्थाओं का साक्षी है और उनसे परे है। इस ज्ञान की प्राप्ति ही माया से मुक्ति और मोक्ष का मार्ग है।

सत् और असत् से उत्पत्ति नहीं

गौड़पाद के दर्शन में, विशेष रूप से उनकी माण्डूक्य कारिकाओं में, मायावाद और अजातवाद केंद्रीय सिद्धांत हैं। इन सिद्धांतों को समझाने के लिए वे अनेक युक्तियों और दृष्टांतों का प्रयोग करते हैं, जिनमें सत् और असत् से उत्पत्ति नहीं का तर्क तथा रज्जु में सर्प का उदाहरण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

मायावाद और जगत् मिथ्यात्व: अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है – "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या"। इसका अर्थ है कि संपूर्ण संसार, जो हमें दिखाई दे रहा है, वह वास्तव में माया का परिणाम है। माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। माया के दो मुख्य कार्य हैं: आवरण शक्ति (जो सत्य को छिपाती है) और विक्षेप शक्ति (जो असत्य को सत्य के रूप में दिखाती है)। इस कारण, संपूर्ण जगत माया मात्र है

अजातवाद (उत्पत्ति नहीं): गौड़पाद अपने कारिकाओं में 'अजातवाद' (उत्पत्ति नहीं) का प्रतिपादन करते हैं। उनका मत है कि जगत् की वास्तव में उत्पत्ति ही नहीं हुई है। परमार्थिक सत्य यह है कि न तो कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, न कोई बंधा हुआ है, न कोई साधक है, न कोई मुमुक्षु है और न कोई मुक्त ही है। गौड़पाद के अनुसार, यह अखण्ड चिदघन सत्ता (चेतन सत्ता) ही मोहवश अनेक रूपों में भासित होती है। आत्मा स्वयं किसी कारण से उत्पन्न नहीं होती और न ही किसी कार्य को उत्पन्न करती है। गौड़पाद का यह सिद्धांत बौद्धों के अनात्मवाद से भिन्न है, क्योंकि वे नित्य आत्मा की सत्ता को स्वीकार करते हैं, जबकि बौद्ध इसे अस्वीकार करते हैं।

सत् और असत् से उत्पत्ति नहीं (No Origination from Real or Unreal): अजातवाद के समर्थन में गौड़पाद यह तर्क देते हैं कि किसी भी वस्तु की उत्पत्ति न तो सत् (वास्तविक) से हो सकती है, न असत् (अवास्तविक) से, और न ही सदसत् (सत् और असत् दोनों) से:

  • असत् से उत्पत्ति नहीं: जो वस्तु वास्तविक नहीं है या अस्तित्व में ही नहीं है (जैसे वन्ध्यापुत्र), उससे किसी भी चीज़ की उत्पत्ति संभव नहीं है। असद् वस्तु का जन्म तो माया से अथवा तत्वतः किसी प्रकार भी होना सम्भव नहीं है। कोई भी चीज़ शून्य से उत्पन्न नहीं हो सकती।

  • सत् से उत्पत्ति नहीं: यदि ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है, तो उससे किसी अन्य वास्तविक चीज़ की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इससे द्वैत (दोहरी वास्तविकता) स्थापित हो जाएगा, जो अद्वैत सिद्धांत के विरुद्ध है। सत् से न सत् की उत्पत्ति होती है और न असत् की

  • सदसत् से उत्पत्ति नहीं: जो वस्तु सत् और असत् दोनों हो, उससे भी उत्पत्ति संभव नहीं है, क्योंकि यह तार्किक रूप से असंगत है।

रज्जु में सर्प का उदाहरण : यह उदाहरण माया, जगत् की मिथ्यात्वता और अजातवाद के सिद्धांत को समझाने के लिए गौड़पाद द्वारा प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है:

  • भ्रम का स्वरूप: जिस प्रकार अज्ञान के कारण अँधेरे में पड़ी रस्सी में साँप का आभास होता है, उसी प्रकार आत्मा में समस्त पदार्थ कल्पित हैं। यह साँप वास्तव में न तो वास्तविक (सत्) है और न ही पूरी तरह से अवास्तविक (असत्), क्योंकि यह अनुभव में आता है (भ्रमित करने वाला होता है)। यह केवल कल्पना या अविद्या के कारण उत्पन्न एक प्रतीति मात्र है।

  • मिथ्यात्व की स्थापना: जैसे ही रस्सी का सही ज्ञान होता है, साँप का मिथ्यात्व (असत्यता) स्वतः स्पष्ट हो जाता है। साँप का अस्तित्व केवल देखने वाले की अज्ञानता पर निर्भर करता है और वह रस्सी से 'उत्पन्न' नहीं हुआ था, बल्कि उस पर आरोपित था। इसी प्रकार, जब आत्मा का ज्ञान हो जाता है, तो जगत् का मिथ्यात्व ज्ञात होता है, और यह समझा जाता है कि जगत् आत्मा से वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है।

  • माया का कार्य: यह दृष्टांत स्पष्ट करता है कि माया ही वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म/आत्मा) को ढँककर असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है

  • अजातता का समर्थन: इस उदाहरण के माध्यम से, अजातवाद का दृढ़ समर्थन होता है। 'सर्प' कभी भी वास्तव में 'रस्सी' से उत्पन्न नहीं हुआ; वह केवल एक भ्रम था। इसी तरह, जगत् की उत्पत्ति नहीं हुई है, वह केवल आत्मा में कल्पित है। आत्मा न तो स्वयं उत्पन्न होती है और न ही कुछ उत्पन्न करती है।

अन्य दृष्टांतों में घटाकाश (घट में सीमित आकाश) का उदाहरण भी है, जहाँ घटाकाश महाकाश से भिन्न नहीं है, और घट के नष्ट होने पर महाकाश ही रहता है। इसी प्रकार, जीव आत्मा का विकार या अवयव नहीं है, और अज्ञान नष्ट होने पर आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है। अलातचक्र (घूमते हुए जलते लट्ठे से बना अग्निचक्र) का दृष्टांत भी इसी तरह की प्रतीति को दर्शाता है, जहाँ एक वास्तविक वस्तु (अलात) से एक भ्रमित करने वाली आकृति (चक्र) उत्पन्न होती प्रतीत होती है, लेकिन वह आकृति स्वयं वास्तविक नहीं होती।

संक्षेप में, गौड़पाद का अजातवाद यह स्थापित करता है कि परमार्थिक रूप से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है। "सत् और असत् से उत्पत्ति नहीं" का तर्क इस अजातवाद का तार्किक आधार है, और "रज्जु में सर्प का उदाहरण" माया के कार्य, जगत् के मिथ्यात्व और आत्मा की परमार्थिक अजातता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।

अद्वैत

अद्वैत वेदांत भारतीय दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है जो "अद्वैत" अर्थात् "नहीं-दो" या अद्वैत चेतना को ब्रह्मांड में सब कुछ के रूप में प्रकट होने वाला बताता है। यह आत्मज्ञान के माध्यम से मोक्ष या परम मुक्ति प्राप्त करने का लक्ष्य रखता है, जो अज्ञान या माया के कारण उत्पन्न होने वाले द्वैत (द्वैतता) के भ्रम को दूर करके प्राप्त होता है।

अद्वैत के प्रमुख सिद्धांत और संकल्पनाएँ:

  • ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः (ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव स्वयं ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं)। यह अद्वैत वेदांत का मूलमंत्र है।

    • ब्रह्म की अवधारणा: ब्रह्म अंतिम वास्तविकता, असीम I, और शुद्ध चेतना है। यह नित्य, अविनाशी, अजन्मा, और कारणों तथा प्रभावों से परे है। ब्रह्म अचिन्त्य (अविचारी), अव्यपदेश्य (अवर्णनीय), और अप्रकट (अव्यक्त) है, जो इंद्रियों, मन और बुद्धि की पहुँच से बाहर है। यह सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना), और आनंद (आनंद) का स्वरूप है।

    • जगत का मिथ्यात्व (जगत् मिथ्या): जगत को माया के कारण एक प्रकट रूप या भ्रम (मिथ्या) माना जाता है, न कि परमार्थिक सत्य। यह स्थायी या वास्तविक नहीं है; यह केवल दिखावा है। गौड़पाद ने जाग्रत (जागृत अवस्था) और स्वप्न (स्वप्न अवस्था) दोनों को स्वप्न-समान और मिथ्या सिद्ध करने के लिए तर्क का उपयोग किया है। जैसे स्वप्न की दुनिया काल्पनिक होती है, वैसे ही जाग्रत दुनिया भी माया या कल्पना मात्र है। यह विचार पंचभूतों से बने प्रपंच (भौतिक ब्रह्मांड) और सूक्ष्म मन (विचार, भावनाएँ, धारणाएँ) दोनों पर लागू होता है। अंततः, वस्तुएँ संरचनात्मक रूप से एक हैं, हालाँकि वे रूपों के कारण विविध दिखाई देती हैं, जैसे कि लकड़ी से बनी विभिन्न वस्तुएँ सभी लकड़ी ही हैं। आधुनिक विज्ञान भी यह बताता है कि वस्तुएँ देश-काल की मात्राएँ हैं।

    • जीव-ब्रह्म की एकता (जीवो ब्रह्मैव नापरः): व्यक्तिगत आत्मा (जीव) को ब्रह्म से अभिन्न माना जाता है। जीव की तीन अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) और तुरीय (चौथी अवस्था, जो वास्तव में कोई अवस्था नहीं है) आत्मन (स्वयं) के चार पहलू हैं। तुरीय को आत्मा का सारूप माना जाता है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी और स्वतंत्र है। घटाकाश (घड़े के भीतर का आकाश) और महाकाश (बाहरी आकाश) का उदाहरण यह बताता है कि जीव केवल अस्थायी उपाधियों (शरीर, मन, इंद्रियाँ) से सीमित प्रतीत होता है, लेकिन मूल रूप से ब्रह्म से भिन्न नहीं है।

  • माया और अविद्या:

    • माया ब्रह्म की एक दिव्य शक्ति है, जो सत्य (ब्रह्म) को ढँक कर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। यह त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रज, तम) है और ब्रह्म के नियंत्रण में है। माया का कार्य भ्रम उत्पन्न करना है, जैसे अंधेरे में रस्सी को सांप समझना।

    • अविद्या (अज्ञान) को बंधन का मूल कारण बताया गया है। यह द्वैत की भावना है जो जीव को उसके शुद्ध स्वरूप से विमुख करती है। आत्मज्ञान से अविद्या का नाश होता है।

    • विवर्तवाद: हालांकि स्रोत में सीधे इस शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन जगत को ब्रह्म का प्रकट रूप या आभास मानना, जैसे रस्सी पर सांप का दिखना, विवर्तवाद के सिद्धांत को दर्शाता है। यह कहता है कि कोई वस्तु अपने मूल स्वरूप को बदले बिना किसी और रूप में प्रतीत होती है।

  • अजातिवाद (उत्पत्ति का अभाव या गैर-सृष्टिवाद): गौड़पाद का यह कट्टरपंथी सिद्धांत अद्वैत वेदांत का एक मुख्य प्रतिपादन है। यह कहता है कि वास्तव में कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, न जीव, न ब्रह्मांड। सृष्टिसंबंधी श्रुतिवाक्य गौण हैं, क्योंकि परमार्थतः आत्मा न तो उत्पन्न होती है और न ही उसका नाश होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जो कुछ भी उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है, वह माया के कारण है। उदाहरण के लिए, लकड़ी से बनी मेज या कुर्सी वास्तव में केवल लकड़ी ही है; "मेज" या "कुर्सी" जैसी कोई नई वस्तु उत्पन्न नहीं हुई है। इसी प्रकार, गौड़पाद के अनुसार, आत्मा से जीव या जगत की कोई वास्तविक उत्पत्ति नहीं हुई है; वे केवल प्रतीत होते हैं।

  • तुरीय (चौथा): यह आत्मा की चतुर्थ अवस्था है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है। तुरीय कोई अवस्था नहीं है, बल्कि आत्मा का स्वरूप है - वह शुद्ध चेतना जो सभी अवस्थाओं का अधिष्ठान (आधार) और साक्षी (गवाह) है, और उनसे असंबंधित है। इसे अमात्रा (ओम की मात्रा-रहित ध्वनि) द्वारा दर्शाया गया है। तुरीय अव्‍यवहार्य (अव्यवहार योग्य), प्रपञ्चोपशम (ब्रह्मांड का उपशमन), शिव और अद्वैत है।

  • अस्पर्श योग (कोई संपर्क नहीं/कोई संबंध नहीं): यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि तुरीय का जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति या ब्रह्मांड से कोई संबंध नहीं है। जैसे रस्सी का सांप से कोई वास्तविक संबंध नहीं होता। यह अद्वैत की प्राप्ति के लिए एक महत्वपूर्ण तरीका है।

  • अमानीभाव (मन की निष्क्रियता): मन की निष्क्रियता या मनोनिग्रह को तुरीय के साक्षात्कार के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। इसका अर्थ विचारों को नष्ट करना नहीं है, बल्कि मन की वस्तुओं को वस्तुगत करने की प्रवृत्ति को छोड़ना है।

गौड़पाद का योगदान और शंकराचार्य से संबंध: गौड़पाद को अद्वैत सिद्धांत का प्रधान उद्घोषक माना जाता है। उनकी माण्डूक्य कारिका (माण्डूक्य उपनिषद पर भाष्य) को चार प्रकरणों में विभाजित किया गया है: आगम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण, और अलातशान्ति प्रकरण। इन कारिकाओं ने शंकराचार्य के अद्वैत मत की नींव रखी। शंकराचार्य ने गौड़पाद के मूल दर्शन का ही अनुसरण किया। गौड़पाद ने मायावाद, विवर्तवाद, और अजातिवाद जैसे मुख्य सिद्धांतों का स्पष्ट प्रतिपादन किया।

उन पर "गुप्त बौद्ध" होने का आरोप लगाया गया था क्योंकि उन्होंने बौद्ध दर्शनों की तर्क पद्धति और उदाहरणों (जैसे अलातचक्र या जलती मशाल को घुमाने से बनने वाला आभासी वृत्त) का उपयोग किया। हालांकि, गौड़पाद शुद्ध वेदांती थे क्योंकि वे उपनिषदों (आगम) में पूर्ण विश्वास रखते थे और नित्य आत्मा के सिद्धांत का प्रतिपादन करते थे, जबकि बौद्ध नित्य आत्मा का विरोध करते हैं (अनात्मवाद)। बौद्ध आचार्यों ने गौड़पाद का खंडन किया, जिससे यह सिद्ध होता है कि उनकी स्थिति बौद्ध मत से भिन्न थी। गौड़पाद का उद्देश्य यह दिखाना था कि बौद्ध विचारधारा और औपनिषदिक विचारधारा में तात्विक रूप से कोई विरोध नहीं है, और उन्होंने इस समन्वय के मार्ग को अपनाया।

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः

अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" है, जिसका अर्थ है "ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है"। यह सिद्धांत अद्वैत दर्शन का सार है। आदि शंकराचार्य ने उपनिषदों, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्रों पर अपने भाष्यों में इस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की, जिसका उद्देश्य जीव, जगत् और ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करना तथा माया से ग्रसित जीव को आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करना था। गौड़पाद ने अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों - मायावाद, विवर्तवाद या अजातिवाद - का स्पष्ट प्रतिपादन किया, जिसे बाद में शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों में विस्तृत रूप से समझाया।

आइए, इस सिद्धांत के प्रत्येक भाग को विस्तार से समझते हैं:

१. ब्रह्म सत्यं (ब्रह्म सत्य है)

  • ब्रह्म का स्वरूप: ब्रह्म को परमार्थिक सत्य माना गया है। यह असीम 'मैं' (Limitless I) या आत्मन् है, जो शाश्वत रूप से विद्यमान है और हमारी वास्तविक पहचान है।

  • शुद्ध चेतना और आनंद: ब्रह्म शुद्ध चेतना (Pure Consciousness) स्वरूप है। यह सभी अनुभवों का साक्षी है। यह आनंद (Blissful) स्वरूप है, जिसका अर्थ है असीमता या अंतहीनता। यह शांत और निर्विकार है।

  • अद्वैत स्वरूप: ब्रह्म अद्वैत है, अर्थात् उसमें कोई द्वैत या भेद नहीं है, वह सभी परिघटनाओं का निषेध करता है। इसे इंद्रियों और मन से नहीं जाना जा सकता, यह अकल्पनीय, अविचारणीय और अनिर्वचनीय है। यह 'सत्' (किसी वस्तु के रूप में अस्तित्व) या 'असत्' (अनस्तित्व) की सामान्य श्रेणियों से परे है।

  • ओंकार (प्रणव) से संबंध: संपूर्ण ब्रह्मांड ओंकार (AUM) है। इसे परमार्थिक रूप से ब्रह्म ही माना गया है।

२. जगन्मिथ्या (जगत् मिथ्या है)

  • जगत् की प्रतीति और माया: जगत् (प्रपंच) परमार्थिक रूप से सत्य नहीं है, यह केवल एक प्रतीति या आभास है। माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढक कर असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। यह ईश्वर की दिव्य शक्ति है और त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रजस्, तमस्) है।

  • अजातवाद (उत्पत्ति नहीं): गौड़पाद के दर्शन का मुख्य सिद्धांत अजातवाद है, जिसके अनुसार जगत् की वास्तव में उत्पत्ति हुई ही नहीं है। गौड़पाद ने तर्कों से सिद्ध किया कि न तो सत् (वास्तविक) से, न असत् (अवास्तविक) से, और न ही सदसत् (दोनों) से किसी वस्तु की उत्पत्ति संभव है। यदि ब्रह्म से किसी दूसरी चीज़ की उत्पत्ति होती, तो द्वैत स्थापित हो जाता, जो अद्वैत सिद्धांत के विरुद्ध है।

  • रज्जु में सर्प का दृष्टांत: यह सिद्धांत समझाने के लिए रस्सी में साँप का उदाहरण दिया जाता है। जैसे रस्सी के अज्ञान के कारण उसमें साँप का भ्रम होता है, जो रस्सी का ज्ञान होने पर लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा में समस्त पदार्थ कल्पित हैं और आत्मज्ञान होने पर जगत् का मिथ्यात्व ज्ञात होता है।

  • स्वप्न का दृष्टांत: जाग्रत् और स्वप्न दोनों ही प्रतीति मात्र हैं। स्वप्न तब तक सत्य लगता है जब तक हम उसमें होते हैं, जागते ही वह असत्य ज्ञात होता है। गौड़पाद के अनुसार, जाग्रत् और स्वप्न दोनों ही स्वप्न अवस्थाएँ हैं, क्योंकि दोनों में अहं आत्मज्ञान से रहित होकर विचारों और भावनाओं को ही प्राथमिक वास्तविकता मानते हैं। दोनों में केवल मात्रा का भेद है, प्रकार का नहीं।

  • नाम और रूप (नाम-रूप प्रपंच): यह संसार नामों और रूपों का जाल (नाम-रूप प्रपंच) है। वस्तुएँ संरचनात्मक रूप से भिन्न दिखती हैं, लेकिन सारतः एक ही हैं। अंततः सभी संरचनात्मक, स्थानिक और कालिक भेद भी illusory हैं और चेतना में समाहित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, एक पुस्तक अंततः कागज है, कागज लकड़ी का गूदा है, और लकड़ी का गूदा हाइड्रोकार्बन है, जो अंततः निराकार अस्तित्व की ओर इशारा करता है।

३. जीवो ब्रह्मैव नापरः (जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है)

  • जीव और ब्रह्म की अभिन्नता: जीव (व्यक्तिगत आत्मा) वास्तव में ब्रह्म से भिन्न नहीं है।

  • तुरीय अवस्था: जीव तीनों अवस्थाओं (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) का साक्षी है। ये अवस्थाएँ परस्पर अनन्य (mutually exclusive) हैं, लेकिन 'मैं' (चेतना) उनमें स्थिर और स्वतंत्र रहता है। इस साक्षी चेतना को ही तुरीय कहा गया है, जो कोई 'अवस्था' नहीं है, बल्कि आत्मन् का वास्तविक स्वरूप है, जो तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र है।

  • घटाकाश दृष्टांत: जिस प्रकार घट के भीतर का आकाश महाकाश से भिन्न नहीं है, और घट के नष्ट होने पर उनकी एकता स्पष्ट हो जाती है, उसी प्रकार जीव आत्मा का विकार या अवयव नहीं है। अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है।

  • समष्टि और व्यष्टि की साम्यता: उपनिषद व्यक्तिगत (जीव) और ब्रह्मांडीय (ईश्वर) स्तरों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है, यह बताता है कि उच्च विश्लेषण में, केवल एक ही वास्तविकता है। साधना का उद्देश्य व्यक्तिगत चेतना को सार्वभौमिक सत्ता में बदलना है।

अद्वैत के व्यापक संदर्भ में:

  • अज्ञान और मोक्ष: जब तक आत्मा और ब्रह्म के बीच भेद का अज्ञान (अविद्या) बना रहता है, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। अज्ञान ही बंधन का मूल कारण है, और विवेक (भेद-भाव की क्षमता) इसका नाशक है। माया को त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में वर्णित किया गया है, और योग का उद्देश्य आत्मा का साक्षात्कार करने के लिए माया से परे जाना है।

  • ज्ञान ही मोक्ष का उपाय: आत्मन् का ज्ञान ही मोक्ष है, किसी प्रकार का कर्म या यज्ञ नहीं। उपनिषद "परम" ज्ञान प्रदान करते हैं जो असीम, आनंदमय आत्मा को प्रकट करता है और दुख को नष्ट करता है।

  • शंकराचार्य का योगदान: शंकराचार्य ने गौड़पाद के अजातिवाद को विस्तृत किया और अपने भाष्यों में इसे दृढ़ता से स्थापित किया। उनका मानना था कि यदि ब्रह्म से कोई वस्तु वास्तव में उत्पन्न होती, तो द्वैत स्थापित होता और संसार की दुखमय प्रकृति बनी रहती। इसलिए, अजातवाद का सिद्धांत अद्वैत की स्थापना के लिए अपरिहार्य है।

संक्षेप में, "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" अद्वैत वेदांत का मूलाधार है, जो ब्रह्म की परमार्थिक सत्ता, जगत् के मायाजन्य मिथ्यात्व और जीव की ब्रह्म के साथ अभिन्नता को स्थापित करता है। यह आत्मज्ञान के माध्यम से अज्ञान से मुक्ति और मोक्ष की ओर ले जाता है।

आत्मा आकाश के समान

अद्वैत दर्शन में आत्मा की आकाश से समानता एक महत्वपूर्ण रूपक है जो आत्मतत्त्व के स्वरूप और जगत् की मिथ्यात्वता को समझने में सहायक होता है। यह रूपक मायावाद और अजातवाद के सिद्धांतों को स्पष्ट करने के लिए गौड़पाद और शंकराचार्य जैसे आचार्यों द्वारा प्रमुखता से प्रयोग किया गया है।

अद्वैत और अजातवाद का संदर्भ: अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत् मिथ्या है और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है। आचार्य गौड़पाद, जिन्होंने शंकराचार्य के सिद्धांतों की नींव रखी, ने 'अजातवाद' का स्पष्ट प्रतिपादन किया। अजातवाद के अनुसार, जगत् की वास्तव में उत्पत्ति ही नहीं हुई है; केवल एक अखंड चिदघन सत्ता ही मोहवश अनेक रूपों में भासित होती है। परमार्थतः, न तो कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, न कोई बंधा हुआ है, न कोई साधक है, न कोई मुमुक्षु है और न कोई मुक्त ही है।

आत्मा की आकाश से समानता (आत्मा आकाश के समान): गौड़पाद अपने सिद्धांतों को समझाने के लिए आत्मा की तुलना आकाश से करते हैं। यह तुलना आत्मतत्त्व की असीमता, अविकारिता और सर्वव्यापकता को दर्शाती है:

  • सर्वव्यापकता और एकत्व: जिस प्रकार आकाश सर्वव्यापी, समान (Uniform), अविकारी (unchanging) तथा एक है, वैसे ही आत्मा भी है। आत्मा, आकाश के समान, अनंत, निरवयव और अप्रचल है।

  • जीव और घटाकाश का दृष्टांत: इस रूपक में जीव को 'घटाकाश' (घड़े के भीतर का आकाश) के समान बताया गया है, न कि आत्मा का विकार (modification) या अवयव (part)। यह जीव (घटाकाश) ब्रह्म (महाकाश या बाह्य आकाश) से भिन्न नहीं है। जिस प्रकार घड़े के टूट जाने पर घटाकाश और बाह्य आकाश की एकता स्वतः स्पष्ट हो जाती है, उसी प्रकार अज्ञान के नष्ट हो जाने पर आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है। यह दर्शाता है कि आत्मा, अद्वैत में, अजन्य है, अविनाशी है और उसका नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वरूप है।

  • अविकारिता और निर्लेपत्व: जिस प्रकार आकाश को मूर्ख व्यक्ति मलिन या विकारी समझता है, वैसे ही अज्ञानी को आत्मा विकारी मालूम पड़ती है। वास्तव में, आत्मा न तो किसी कारण से उत्पन्न होती है और न ही किसी कार्य को उत्पन्न करती है। यह तुरीय अवस्था है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से विलक्षण है। तुरीय सभी अवस्थाओं की साक्षी है और उनसे परे है, उन पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं डालती। जिस प्रकार आकाश में घड़े आदि उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं, परंतु आकाश इनसे अप्रभावित रहता है, उसी प्रकार आत्मतत्त्व भी जगत् के उत्पन्न और नष्ट होने से अप्रभावित रहता है।

सत् और असत् से उत्पत्ति नहीं के संदर्भ में: यह आकाश का दृष्टांत अजातवाद को और भी दृढ़ करता है। गौड़पाद तर्क देते हैं कि किसी भी वस्तु की उत्पत्ति न तो सत् (वास्तविक) से हो सकती है, न असत् (अवास्तविक) से, और न ही सदसत् (दोनों) से

  • असत् से उत्पत्ति असंभव: जो वस्तु अस्तित्व में ही नहीं है (जैसे वन्ध्यापुत्र या खरगोश का सींग), उसका जन्म माया से भी या तत्वतः किसी भी प्रकार संभव नहीं है।

  • सत् से उत्पत्ति असंभव: यदि ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है, तो उससे किसी अन्य वास्तविक चीज़ की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इससे द्वैत (दोहरी वास्तविकता) स्थापित हो जाएगी, जो अद्वैत सिद्धांत के विरुद्ध है। यदि आत्मा एक है तो सभी प्राणियों को सुख-दुख का भोग एक साथ होगा, जो अनुभवसिद्ध नहीं है। इसलिए आत्मा के अवयव या विकार की कल्पना का खंडन किया जाता है।

  • सदसत् से उत्पत्ति असंभव: जो वस्तु सत् और असत् दोनों हो, उससे भी उत्पत्ति संभव नहीं है, क्योंकि यह तार्किक रूप से असंगत है।

यह तर्क आकाश के दृष्टांत से सुदृढ़ होता है क्योंकि आकाश, अपने स्वभाव से, न तो कुछ उत्पन्न करता है और न ही किसी से उत्पन्न होता है। यह स्वयं एक अविकारी सत्ता है। चूंकि तुरीय किसी का कारण नहीं है और न ही कोई कार्य है, इसलिए यह अकार्य-कारण है।

जगत् मिथ्या (जगत की मिथ्यात्वता) के संदर्भ में: यह दृष्टांत जगत् के मिथ्यात्व को भी पुष्ट करता है। जिस प्रकार अज्ञान के कारण रस्सी में सर्प का आभास होता है, उसी प्रकार आत्मा में समस्त पदार्थ कल्पित हैं। जगत् को माया का एक परिणाम माना जाता है। गौड़पाद के अनुसार, जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं के पदार्थ समान रूप से काल्पनिक या मिथ्या हैं। आत्मा, आकाश के समान, इन सभी आभासों या कल्पनाओं का केवल आधार है, पर उनसे लिप्त नहीं होता।

संक्षेप में, "आत्मा आकाश के समान" का दृष्टांत अद्वैत वेदांत के अजातवाद और जगत् मिथ्यात्व के सिद्धांतों को पुष्ट करता है। यह स्पष्ट करता है कि आत्मा एक असीम, अविकारी, सर्वव्यापी, और एकमात्र सत्य चेतना है, जिसमें जगत् की प्रतीति माया के कारण होती है, ठीक वैसे ही जैसे घटाकाश महाकाश से भिन्न नहीं है, और अज्ञान के नष्ट होने पर यह भेद भी समाप्त हो जाता है।

द्वैत केवल व्यवहार क्षेत्र में

अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है, और यह सिद्धांत 'अद्वैत' के रूप में जाना जाता है। इसी संदर्भ में, 'द्वैत' (बहुलता या भिन्नता) को केवल व्यावहारिक या प्रतीतिजन्य माना जाता है, परमार्थिक नहीं।

यहाँ स्रोतों के आधार पर 'द्वैत केवल व्यवहार क्षेत्र में' की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत है:

1. अद्वैत का मूल सिद्धांत: अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सूत्र है: "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः"। इसका अर्थ है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, संसार मिथ्या (एक प्रतीति) है, और जीव (व्यक्तिगत आत्मा) ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह समस्त दृश्यमान जगत्, जो हमें अपने इंद्रियों और मन के माध्यम से द्वैत के रूप में प्रतीत होता है, वास्तव में माया का परिणाम है।

2. द्वैत की व्यावहारिक प्रकृति: गौड़पाद और शंकराचार्य जैसे अद्वैत आचार्यों ने स्पष्ट किया है कि यह जितना 'द्वैत' है, सब मन का ही दृश्य है। परमार्थतः तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती।

  • माया की भूमिका: माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। यह भ्रम ही माया है जो आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप से भटका देती है। माया ही द्वैत का कारण है।

  • रज्जु-सर्प दृष्टांत: इस सिद्धांत को समझाने के लिए रस्सी में साँप का आभास एक प्रमुख दृष्टांत है। जिस प्रकार अज्ञान के कारण अँधेरे में पड़ी रस्सी में साँप का आभास होता है, उसी प्रकार आत्मा में समस्त पदार्थ कल्पित हैं। साँप का अस्तित्व केवल देखने वाले की अज्ञानता पर निर्भर करता है और वह रस्सी से 'उत्पन्न' नहीं हुआ था, बल्कि उस पर आरोपित था। जैसे ही रस्सी का सही ज्ञान होता है, साँप का मिथ्यात्व (असत्यता) स्वतः स्पष्ट हो जाता है। इसी प्रकार, जब आत्मा का ज्ञान हो जाता है, तो जगत् का मिथ्यात्व ज्ञात होता है, और यह समझा जाता है कि जगत् आत्मा से वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है।

  • जाग्रत और स्वप्न अवस्था की समानता: गौड़पाद तर्क देते हैं कि जाग्रत और स्वप्निक पदार्थों में वास्तव में कोई भेद नहीं है। जैसे स्वप्न का जगत् काल्पनिक या मिथ्या है, वैसे ही जाग्रत जगत् भी काल्पनिक या मिथ्या है। दोनों को केवल प्रतीति या आभास माना जाता है, जो मन द्वारा निर्मित होते हैं।

  • व्यवहारिक सत्य: हालांकि जगत् मिथ्या है, यह व्यवहारिक रूप से अस्तित्व में है। हम इसका अनुभव करते हैं, वस्तुओं से व्यवहार करते हैं, और जीवन जीते हैं। शंकराचार्य जैसे आचार्य ज्ञानयोग के लिए तैयार न हुए साधकों के लिए कर्म की प्रशंसा करते हैं, जो व्यवहारिक स्तर पर आवश्यक है।

3. अजातवाद (No Origination): अद्वैत का एक महत्वपूर्ण पहलू अजातवाद है, जिसका अर्थ है उत्पत्ति का न होना। गौड़पाद ने अपनी कारिकाओं में अनेक युक्तियों से यह सिद्ध किया है कि सत्, असत् अथवा सदसत् किसी भी प्रकार से प्रपंच की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती। उनका मत है कि परमार्थतः न तो कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, न कोई बंधा हुआ है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न कोई मुक्त ही है। यह दर्शाता है कि द्वैत (सृष्टि, जीव-भेद) वास्तव में कभी उत्पन्न ही नहीं हुआ, यह केवल एक प्रतीति है।

4. द्वैत से परे अद्वैत की प्राप्ति: द्वैत से मुक्ति और अद्वैत की प्राप्ति के लिए ज्ञान (आत्मज्ञान/ब्रह्मज्ञान) ही एकमात्र मार्ग है।

  • आत्मा का स्वरूप: आत्मा नित्य, अविनाशी और अजन्मा है। यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप है।

  • तुरीय अवस्था: माण्डूक्य उपनिषद् आत्मा की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का वर्णन करता है। तुरीय अवस्था ही परमार्थिक सत्य है, जो तीनों अवस्थाओं से परे है। इसे न तो बाहरी या आंतरिक दुनिया का ज्ञान है, और न ही यह चेतना का समूह है। यह इंद्रियों द्वारा अगोचर, अव्यवहार्य, मन द्वारा incomprehensible, अचिंतनीय और अव्यपदेश्य है। तुरीय अवस्था का अनुभव या अद्वैत का बोध माया से मुक्त होने पर ही होता है।

  • अनावरण और साक्षी: आत्मा सभी अनुभवों का साक्षी है, लेकिन स्वयं किसी भी अवस्था से प्रभावित नहीं होती। यह सोने, जागने और स्वप्न देखने वाले से स्वतंत्र है, लेकिन सभी को रोशन करता है।

  • मन का निरोध (अमनीभाव): द्वैत की उपलब्धि तब नहीं होती जब मन मननशून्य हो जाता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध कर माया से परे जाकर आत्मा का साक्षात्कार करना योग का उद्देश्य है। यह 'नो माइंड' (अमन) की अवस्था है जहाँ चित्त में कोई संकल्प नहीं होता।

  • ज्ञान के साधन: आत्मज्ञान के लिए श्रवण, मनन, निदिध्यासन और गुरु का सान्निध्य आवश्यक है।

संक्षेप में, अद्वैत वेदांत द्वैत को केवल व्यावहारिक या प्रतीतिजन्य मानता है, परमार्थिक नहीं। यह द्वैत माया के कारण उत्पन्न होता है और रस्सी में साँप के भ्रम के समान है। आत्मज्ञान या तुरीय अवस्था की प्राप्ति होने पर यह द्वैत भंग हो जाता है, और एकमात्र ब्रह्म ही सत्य के रूप में प्रकट होता है, क्योंकि वास्तव में कोई उत्पत्ति नहीं हुई है और न ही कोई दूसरा है।


अस्पर्श योग

गौड़पाद कारिका, माण्डूक्य उपनिषद् पर एक महत्वपूर्ण भाष्य है, जिसे अद्वैत वेदांत के प्रमुख सिद्धांतों की व्यवस्थित व्याख्या के लिए चार प्रकरणों में विभाजित किया गया है। इन प्रकरणों में से अस्पर्श योग अद्वैत वेदांत के एक केंद्रीय सिद्धांत के रूप में सामने आता है, खासकर तीसरे और चौथे प्रकरण में।

अस्पर्श योग का परिचय:

  • अर्थ और स्वरूप: 'अस्पर्श' शब्द का शाब्दिक अर्थ है "संबंध रहित" या "संपर्क रहित"। अस्पर्श योग का तात्पर्य है तुरीय अवस्था (आत्मा की चौथी अवस्था) का जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति जैसी तीनों अवस्थाओं से या संपूर्ण ब्रह्मांड से कोई वास्तविक संबंध या संपर्क न होना। यद्यपि यह ब्रह्मांड तुरीय में ही प्रकट होता है, तुरीय इससे अप्रभावित रहता है। इसे 'अस्पर्श आत्मा' भी कहा जाता है।

  • अद्वैत और अजातिवाद से संबंध: अस्पर्श योग आत्मा की अद्वैतता (अद्वैत) को सिद्ध करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग है। यदि तुरीय किसी वस्तु का कारण होता, तो उससे कुछ कार्य उत्पन्न होते, जिससे द्वैतता आती, जो अद्वैत सिद्धांत के विपरीत है। गौड़पाद का अजातिवाद (अ-उत्पत्ति या अ-सृष्टि का सिद्धांत) भी अस्पर्श योग को निहित करता है। अजातिवाद यह सिखाता है कि कोई भी वस्तु वास्तव में उत्पन्न नहीं होती, विशेषकर आत्मा से कोई दूसरी वस्तु उत्पन्न नहीं होती, जिससे आत्मा को कारणता के "संपर्क" से मुक्त किया जाता है।

  • उपलब्धि का साधन: अस्पर्श योग को अमानीभाव (मनोनाश या मन का शांत होना) के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। अमानीभाव का अर्थ मन को नष्ट करना या सो जाना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि मन, विचार और भावनाएँ चेतना में एक अभिव्यक्ति मात्र हैं। इसका लक्ष्य बाहरी वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अंतर्निहित चेतना को पहचानना है, जिससे "मैं वही हूँ" का अनुभव होता है, न कि किसी वस्तु को अनुभव करने की कोशिश करना। जब मन सक्रिय होता है तो संसार होता है; मन के शांत होने पर द्वैत का अनुभव नहीं होता।

प्रमुख सिद्धांत के रूप में अस्पर्श योग की विशेषताएं:

  • योगियों के लिए दुर्गम: गौड़पाद स्वयं स्वीकार करते हैं कि अस्पर्श योग सभी योगियों के लिए "दुर्लभ दर्शनीय" (दुर्दर्शेः सर्वयोगिभिः) है।

  • शांत और कल्याणकारी: इसे अविवादित (कोई विरोध नहीं करने वाला), अविरुद्ध (किसी से न टकराने वाला), और सभी प्राणियों के लिए सुखदायक और हितकारी (सर्वसत्त्वसुखो हितः) बताया गया है।

  • स्वरूप की प्रकृति: अस्पर्श योग परमार्थिक सत्य का प्रतीक है, जो आदि-शांत (आदि से शांत), अनुत्पन्न (अजन्मा), और असंग (अनासक्त) है। यह दुःख के सभी रूपों का अंत करने वाला है। आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है।

माण्डूक्य कारिका में स्थान:

  • गौड़पाद की माण्डूक्य कारिका को चार प्रकरणों - आगम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण, और अलातशान्ति प्रकरण - में विभाजित किया गया है।

  • अद्वैत प्रकरण (तीसरा प्रकरण): यह आत्मा की अद्वैतता स्थापित करने पर केंद्रित है, जिसमें अस्पर्श योग को अजातिवाद और अमानीभाव के साथ एक मुख्य अवधारणा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह प्रकरण आत्मा की तुलना आकाश से करता है, जिसमें जीव (घटाकाश) की तरह आत्मा से भिन्न नहीं है, और अज्ञान हटने पर एकता स्पष्ट हो जाती है।

  • अलातशान्ति प्रकरण (चौथा प्रकरण): यह सबसे बड़ा और उपसंहारात्मक प्रकरण है। इसमें गौड़पाद अपने अद्वैत सिद्धांतों, जिनमें अस्पर्श योग भी शामिल है, पर उठाई गई आपत्तियों का खंडन करते हैं। यह प्रकरण बौद्ध दर्शनों के साथ कुछ समानताओं के बावजूद गौड़पाद के शुद्ध वेदांती होने पर जोर देता है, क्योंकि वे आत्मा के नित्यत्व और आगम (उपनिषदों) में विश्वास रखते हैं।

संक्षेप में, अस्पर्श योग अद्वैत वेदांत का एक मौलिक सिद्धांत है जो आत्मा की परम अद्वैत और अकारण प्रकृति को दर्शाता है। यह सभी द्वैत और सांसारिक दुःखों से मुक्ति की ओर ले जाता है, जो गौड़पाद के दर्शन की एक अनुपम देन है।

मायाजन्य जगत् से अछूता रहना

अद्वैत वेदांत के गहरे संदर्भ में, मायाजन्य जगत् से अछूता रहना का सिद्धांत अस्पर्श योग के माध्यम से प्राप्त होता है। यह अवधारणा बताती है कि ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है और यह मायाजन्य द्वैत केवल प्रतीतिजन्य है।

यहाँ स्रोतों के आधार पर इसकी विस्तृत व्याख्या दी गई है:

1. मायाजन्य जगत् का स्वरूप:

  • माया की प्रकृति: अद्वैत वेदांत के अनुसार, माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। यह ईश्वर की दिव्य शक्ति है और उनके नियंत्रण में रहती है। माया त्रिगुणात्मक है (सत्त्व, रज, तम) और यही भ्रम का मूल कारण है, जो आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप से भटका देती है। गौड़पाद के मतानुसार, जगत् की उत्पत्ति केवल माया से होती है, तत्वतः नहीं। शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि जब तक जीव माया के प्रभाव से स्वयं को शरीर, मन और इंद्रियों से अलग नहीं समझता, तब तक वह दुख से ग्रस्त रहता है।

  • जगत् का मिथ्यात्व: अद्वैत का केंद्रीय सूत्र है "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः"। इसका अर्थ है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और संसार (जगत्) मिथ्या (एक प्रतीति) है। गौड़पाद कहते हैं कि यह जितना 'द्वैत' है, सब मन का ही दृश्य है। जाग्रत और स्वप्न अवस्था में जो पदार्थ प्रतीत होते हैं, वे वास्तव में काल्पनिक या मिथ्या हैं, ठीक वैसे ही जैसे अज्ञान के कारण अँधेरे में पड़ी रस्सी में साँप का आभास होता है। जगत् का यह मिथ्यात्व तभी ज्ञात होता है जब आत्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है। द्वैत को व्यवहार क्षेत्र का विषय माना गया है, जो केवल माया के कारण ही आभासित होता है। स्वामी सर्वप्रियानंद के अनुसार, यह संसार एक आभास मात्र है, कोई बाहरी वास्तविकता नहीं जो आपको डरा सके; यह आपकी अपनी चेतना के भीतर एक प्रतीति है।

2. मायाजन्य जगत् से अछूता रहना (मुक्ति की अवधारणा):

  • ज्ञान की केंद्रीयता: माया के प्रभाव से मुक्त होने और जगत् से अछूता रहने के लिए ज्ञान (आत्मज्ञान/ब्रह्मज्ञान) ही एकमात्र उपाय है। जब आत्मज्ञान हो जाता है, तो किसी प्रकार का द्वैत नहीं रह जाता। शंकराचार्य के अनुसार, अज्ञेय वस्तु को ज्ञान से त्यागकर आत्मा को जाना जाता है।

  • विवेक और वैराग्य: माया से मुक्ति के लिए विवेक (स्थायी और अस्थायी की पहचान) और वैराग्य (सांसारिक विषयों में आकर्षण का अभाव) महत्वपूर्ण हैं।

  • मनोनिरोध और तुरीय अवस्था: योग का मूल उद्देश्य चित्त की वृत्तियों का निरोध कर माया से परे जाकर आत्मा का साक्षात्कार करना है। जब मन मननशून्य (अमनीभाव) हो जाता है, तो द्वैत की उपलब्धि नहीं होती। तुरीय अवस्था ही परमार्थिक सत्य है, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से परे है। यह अवस्था शांति, अद्वैत, असीमता और आनंद की स्थिति है, और इसे ही मोक्ष कहा जाता है। तुरीय सभी अवस्थाओं का साक्षी है, लेकिन स्वयं किसी भी अवस्था से अप्रभावित रहता है।

3. अस्पर्श योग का सिद्धांत और व्यवहार:

  • अस्पर्श योग की परिभाषा: गौड़पाद द्वारा प्रतिपादित अस्पर्श योग वह अवस्था है जहाँ सभी प्रकार के स्पर्श (संबंध या संपर्क) नहीं होते। यह योग सभी प्राणियों के लिए सुखकर और हितकारी बताया गया है। इसका तात्पर्य मन को समस्त वस्तुओं और विचारों से असंग करना है। इस योग का लक्ष्य ब्रह्मरूपता की प्राप्ति है, जो मोक्ष नामक अक्षय शांति है और अपने स्वभाव से ही सिद्ध है।

  • मन का निग्रह (मनोनिरोध): अस्पर्श योग में मन का निग्रह (मनोनिरोध) अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब चित्त (मन) सुषुप्ति में लीन न हो, न ही विक्षिप्त हो (अर्थात् शांत और स्थिर हो), और निर्विषय (बिना किसी विषय या कल्पना के) तथा अनाभास (बिना किसी बाहरी प्रतीति के) हो जाए, तो ब्रह्म ही प्रकट होता है। यह अवस्था मन के 'अमन' होने पर द्वैत की अनुपलब्धि के समान है।

  • असंगता और असंपृक्तता: अस्पर्श योग में साधक दुखों को याद कर कामभोगों से निवृत्त होता है, और अजन्मा ब्रह्म का स्मरण कर आसक्तियों से दूर रहता है। यह योग राग-द्वेष और भय जैसी मानसिक वृत्तियों से रहित है। इसका अभ्यास करने वाला ब्रह्मज्ञानी लोक में जड़वत् व्यवहार करता है, क्योंकि वह जानता है कि जगत् और आत्मा के बीच कोई वास्तविक भेद नहीं है

  • अजातवाद से संबंध: अस्पर्श योग अजातवाद के सिद्धांत पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि वास्तव में कोई उत्पत्ति नहीं हुई है। गौड़पाद ने तर्कों से सिद्ध किया कि आत्मा न तो किसी कारण से उत्पन्न होती है और न ही किसी कार्य को उत्पन्न करती है। जब कोई उत्पत्ति ही नहीं है, तो द्वैत भी परमार्थतः नहीं है, यह केवल माया के कारण एक प्रतीति है।

संक्षेप में, मायाजन्य जगत् से अछूता रहने का अर्थ है उसकी प्रतीतिजन्य प्रकृति को पहचानकर उससे मानसिक रूप से असंग हो जाना। यह असंगता अस्पर्श योग के माध्यम से प्राप्त होती है, जहाँ मन का निग्रह कर उसे द्वैत रहित, शांत और निराकार आत्म-स्वरूप में स्थित किया जाता है। इस प्रकार, साधक माया के भ्रम से परे जाकर अपने वास्तविक, अद्वैत स्वरूप का अनुभव करता है।

मनोनाश से ब्रह्म की प्राप्ति

अद्वैत वेदांत के गहरे संदर्भ में, 'द्वैत केवल व्यवहार क्षेत्र में' का सिद्धांत 'मनोनाश से ब्रह्म की प्राप्ति' और 'अस्पर्श योग' के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। ये अवधारणाएँ दर्शाती हैं कि परमार्थिक सत्य केवल अद्वैत (गैर-द्वैत) है, जबकि द्वैत (बहुलता) माया द्वारा उत्पन्न एक प्रतीतिजन्य या व्यावहारिक वास्तविकता है।

1. द्वैत की व्यावहारिक प्रकृति:

  • अद्वैत वेदांत का मूल मंत्र है "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" – ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या (एक प्रतीति) है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है।

  • जितना भी 'द्वैत' है, वह सब मन का ही दृश्य है। परमार्थतः तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती।

  • माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत्) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है। माया ही इस भ्रम का कारण है जो आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप से भटका देती है।

  • जाग्रत और स्वप्निक पदार्थों में वास्तव में कोई भेद नहीं है; दोनों ही काल्पनिक या मिथ्या हैं। गौड़पाद तर्क देते हैं कि चेतना के दृष्टिकोण से, जाग्रत और स्वप्न दोनों ही केवल 'आभास' हैं।

  • जगत् की यह मिथ्याता 'प्रपंचोपशम' (ब्रह्मांड की समाप्ति या मिथ्याता) के रूप में जानी जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि ब्रह्मांड गायब हो जाएगा, बल्कि यह अनुभव होता है कि यह केवल एक आभास है, कोई वास्तविक खतरा नहीं जो आपकी चेतना के बाहर मौजूद हो।

  • रस्सी-सर्प दृष्टांत का उपयोग यह समझाने के लिए किया जाता है कि अज्ञान के कारण रस्सी में साँप का आभास होता है; ज्ञान होने पर साँप का मिथ्यात्व स्पष्ट हो जाता है। इसी तरह, आत्मा में समस्त पदार्थ कल्पित हैं, और आत्मा का ज्ञान होने पर जगत् का मिथ्यात्व ज्ञात होता है।

2. मनोनाश (मन का निरोध) और अद्वैत की प्राप्ति:

  • 'मनोनाश' का अर्थ मन का शाब्दिक विनाश नहीं है, बल्कि चित्त (मन) की वृत्तियों (संशोधनों) का निरोध है, जिसे योग कहा जाता है। चित्त जब अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से वृत्तियों का त्याग कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, तो उसे चित्तवृत्तियों का निरोध कहते हैं।

  • गौड़पाद स्पष्ट करते हैं कि "मनसो ह्ममनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते" (जब मन अमन होता है, तब द्वैत प्रतीत नहीं होता है)। यह 'अमनीभाव' (नो माइंड) की अवस्था है।

  • जब चित्त ग्राहक-ग्राह्य भाव से रहित और मलिनताओं से रहित हो जाता है, तब परम अद्वैत ब्रह्म का संस्पर्श होता है। यह तब होता है जब चित्त न तो सुषुप्ति में लीन होता है और न ही विक्षुब्ध होता है, और संकल्प और आभास से रहित होता है। उस समय ब्रह्म-स्वरूप स्वयं प्रकट होता है।

  • वास्तविक आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए मन को 'अमन' (नो माइंड) बनाना आवश्यक है। इसका अर्थ मन को त्यागना या विचारों को रोकना नहीं है, बल्कि मन के स्वरूप को समझना और उसे आत्मा से अलग करना है। तुरीय सभी अनुभवों का साक्षी है, और यह मन की किसी भी अवस्था (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से प्रभावित नहीं होता है।

  • मन का निरोध होने पर, दुःख, बोध और अक्षय शांति प्राप्त होती है।

3. अस्पर्श योग:

  • 'अस्पर्श योग' का अर्थ है 'कोई संपर्क नहीं' या 'कोई संबंध नहीं'। यह वह अवस्था है जहाँ तुरीय (परम आत्म-चेतना) का जगत् से कोई संबंध नहीं होता, भले ही जगत् तुरीय में ही प्रतीत होता हो।

  • यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ द्वैत का उपशम (शमन) हो जाता है, और केवल शिव (मंगलमय) अद्वैत तत्त्व ओंकार रूप आत्मा ही ब्रह्म के रूप में शेष रहता है।

  • अस्पर्श योगियों के लिए कठिन होता है, क्योंकि वे मन और इंद्रियों को रस्सी में सर्प के समान कल्पित मानते हैं। यह योग सभी प्राणियों के लिए हितकारी है, और इसका उपदेश अद्वैत दर्शन में दिया गया है।

  • अस्पर्श योग वह है जहाँ कोई द्वेष (घृणा) नहीं है, क्योंकि यह द्वैत से रहित है। गौड़पाद ने अजातवाद (कोई उत्पत्ति नहीं) का प्रतिपादन करके द्वैत का खंडन किया है, जिसका अर्थ है कि परमार्थतः न कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है।

  • गौड़पाद अजातवाद द्वारा अद्वैत को सिद्ध करते हैं, जिसमें तुरीय को किसी भी जीव या ब्रह्मांड का कारण नहीं माना जाता है, क्योंकि वास्तव में कोई सृष्टि नहीं हुई है।

4. मनोनाश से ब्रह्म की प्राप्ति अस्पर्श योग के संदर्भ में:

  • अद्वैत वेदांत में, मनोनाश और अस्पर्श योग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं: अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति। मन की सक्रियता और द्वैत का अनुभव माया के कारण होता है।

  • जब मन अपनी कल्पनाओं (द्वैत) से रहित हो जाता है और तुरीय अवस्था में स्थित हो जाता है, तो द्वैत की प्रतीति नहीं होती। यह अमनीभाव की अवस्था है, जहाँ चित्त (मन) संकल्पों से मुक्त हो जाता है।

  • इस अवस्था में, व्यक्ति अपने आपको तुरीय (चौथा) के रूप में अनुभव करता है, जो तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है।

  • तुरीय कोई अवस्था नहीं है जो आती और जाती है, बल्कि वह चेतना है जो सभी अवस्थाओं का साक्षी है, उनका आधार है, और उनसे स्वतंत्र है। यह वह मौन (साइलेंस) है जिससे ओम प्रकट होता है और जिसमें वह विलीन होता है, और यह मौन ही परम चेतना (तुरीय) का प्रतीक है।

  • ज्ञान ही एकमात्र उपाय है जिससे माया से मुक्ति मिलती है और आत्मा का बंधन समाप्त होता है। यह श्रवण, मनन, निदिध्यासन और गुरु के सान्निध्य से संभव है।

  • परमार्थतः ज्ञान ही अंतःकरण के शुद्ध होने पर अंतिम उपाय होता है। ज्ञान अविद्या का नाशक है, जो बंधन का मूल कारण है।

  • अस्पर्श योग इस ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग है, जहाँ साधक द्वैत की सभी धारणाओं को त्याग कर अद्वैत स्वरूप में स्थित हो जाता है। यह स्पर्श (संबंध या संपर्क) के अभाव को दर्शाता है, क्योंकि जब केवल ब्रह्म ही सत्य है और जगत् एक आभास है, तो किसी दूसरे के साथ संबंध का प्रश्न ही नहीं उठता।

संक्षेप में, अद्वैत वेदांत के अनुसार, द्वैत केवल व्यवहारिक जगत में माया के कारण प्रतीत होता है। मनोनाश (मन के संकल्पों का उपशम) और अस्पर्श योग (विषयों से असंगता) के माध्यम से, जीव इस मायावी द्वैत के भ्रम को पार करता है और अपने वास्तविक स्वरूप, तुरीय (ब्रह्म), को जानता है, जो सदा से अद्वैत और सर्वव्यापी है। यह ज्ञान ही मोक्ष है।


चार प्रकरण

गौड़पाद कारिका, जिसे माण्डूक्य कारिका के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय दर्शन, विशेषकर अद्वैत वेदान्त का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। गौड़पाद को अद्वैत सिद्धांत के मुख्य उद्घोषकों में से एक माना जाता है। उनकी कारिका में मायावाद, विवर्तवाद, और अजातिवाद जैसे अद्वैत वेदान्त के सिद्धांतों को अत्यंत स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है। शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों में गौड़पाद द्वारा बीजरूप में प्रस्तुत सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन किया है। माण्डूक्य उपनिषद्, जिस पर यह कारिका आधारित है, आकार में सबसे छोटा (केवल 12 मंत्रों वाला) होने के बावजूद, अपने महत्व के कारण अत्यधिक गहन और मुक्ति के लिए पर्याप्त माना जाता है।

गौड़पाद कारिका को चार मुख्य प्रकरणों (अध्यायों) में विभाजित किया गया है:

  1. आगम प्रकरण 

  2. वैतथ्य प्रकरण 

  3. अद्वैत प्रकरण 

  4. अलातशान्ति प्रकरण 

इन प्रकरणों के स्वतंत्र ग्रंथ होने या एक ही ग्रंथ के अध्याय होने पर विद्वानों के बीच मतभेद हैं। कुछ विद्वान, चतुर्थ प्रकरण के आरंभ में बुद्ध की स्तुति को मंगलाचरण मानते हुए, इन्हें स्वतंत्र रचनाएँ मानते हैं। हालांकि, अन्य विद्वानों का मानना है कि ये प्रकरण आपस में संबंधित हैं, जहाँ पहले तीन प्रकरण सिद्धांतों को प्रस्तुत करते हैं और चौथा उनका सारांश प्रस्तुत करता है तथा संभावित आपत्तियों का खंडन करता है।

प्रत्येक प्रकरण का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:

  • 1. आगम प्रकरण (Āgama Prakaraṇa):

    • यह प्रकरण माण्डूक्य उपनिषद् के मूल सिद्धांतों पर आधारित है, और इसका उद्देश्य उपनिषद् के मंत्रों की व्याख्या करना है।

    • इसमें चेतना की तीन अवस्थाओं—जाग्रत (बाह्य चेतना), स्वप्न (आंतरिक चेतना), और सुषुप्ति (घनीभूत चेतना)—के साथ-साथ चौथी अवस्था, तुरीय, का वर्णन किया गया है।

    • यह ॐ (ओम्कार) के प्रतीकात्मक महत्व को इन अवस्थाओं के संबंध में समझाता है।

    • 'अ' अक्षर और जाग्रत अवस्था (वैश्वानर) पर ध्यान करने से सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है और साधक अग्रणी बन जाता है।

    • 'उ' अक्षर और स्वप्न अवस्था (तैजस) पर ध्यान करने से ज्ञान में वृद्धि होती है और साधक समाज में सामंजस्य स्थापित करता है, जिससे उसके कुल में कोई ब्रह्मज्ञानी नहीं होता।

    • 'म' अक्षर और सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ) पर ध्यान करने से यह बोध होता है कि सुषुप्ति सभी अनुभवों का मापक और विलीन करने वाली है, और यह जाग्रत व स्वप्न अवस्थाओं का कारण भी है।

    • यह भी बताया गया है कि माया के कारण ही सृष्टि एक आभास मात्र है।

  • 2. वैतथ्य प्रकरण (Vaitathya Prakaraṇa):

    • 'वैतथ्य' का अर्थ है मिथ्यात्व या असत्यता

    • इस प्रकरण में तर्क और युक्ति के माध्यम से द्वैत (सांसारिक विविधता) की मिथ्यात्वता को स्थापित किया गया है।

    • यह तर्क देता है कि जाग्रत और स्वप्न की वस्तुओं में कोई वास्तविक भेद नहीं है; जैसे स्वप्न लोक काल्पनिक है, वैसे ही जाग्रत लोक भी काल्पनिक या मिथ्या है।

    • जाग्रत जगत का स्थायित्व और विस्तार उसकी वास्तविकता का प्रमाण नहीं है, बल्कि स्वप्न की तुलना में केवल मात्रा का भेद है।

    • यह रज्जु में सर्प के आभास (रोप-स्नेक एनालॉजी) का उदाहरण देता है, जहाँ रज्जु के सही ज्ञान से सर्प का मिथ्यात्व प्रकट हो जाता है, ठीक वैसे ही आत्म-ज्ञान से जगत का मिथ्यात्व ज्ञात होता है।

    • इसमें यह भी कहा गया है कि जो वस्तु आदि और अंत में नहीं है, वह मध्य काल में भी नहीं होती (यानी दृश्यमान काल में)।

  • 3. अद्वैत प्रकरण (Advaita Prakaraṇa):

    • यह प्रकरण तर्क और दृष्टांतों की सहायता से अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन करता है।

    • आत्मा की तुलना आकाश से की गई है: आत्मा आकाश के समान सर्वव्यापी, समान, अविकारी और एक है। जीव को घटाकाश (घट के भीतर का आकाश) के समान बताया गया है, जो आत्मा का विकार या अवयव नहीं है। अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है, जैसे घट के फूटने पर घटाकाश और बाह्य आकाश की एकता हो जाती है।

    • इसमें अजातिवाद (कोई उत्पत्ति नहीं) के सिद्धांत पर जोर दिया गया है, जिसके अनुसार आत्मा का न तो जन्म होता है और न मृत्यु, और वह एक है। ब्रह्म को कारण नहीं माना जाता क्योंकि यदि वह कारण होता, तो द्वैत उत्पन्न होता और दुःख का कारण बनता।

    • तुरीय अवस्था को किसी 'वस्तु' के रूप में नहीं, बल्कि 'मैं वह हूँ' (I am that) के बोध के रूप में वर्णित किया गया है। तुरीय कोई अवस्था नहीं है जो आती-जाती है; यह सभी अवस्थाओं का शाश्वत साक्षी है।

    • मोक्ष की प्राप्ति के लिए अस्पर्शयोग (असंबंध) और अमनीभाव (मन की शून्यता या मनोनिरोध) जैसे उपायों पर बल दिया गया है।

    • इस अध्याय के चार मुख्य सिद्धांत हैं: अद्वैत (कोई द्वैत नहीं), अजातिवाद (कोई उत्पत्ति नहीं), अस्पर्शयोग (कोई संबंध नहीं), और अमनीभाव (कोई मन नहीं)।

  • 4. अलातशान्ति प्रकरण (Alātashānti Prakaraṇa):

    • 'अलातशान्ति' शब्द घूमती हुई जलती हुई मशाल (अलात) से बनने वाले अग्निचक्र के भ्रम को शांत करने का प्रतीक है। यह मिथ्या विवादों की समाप्ति का द्योतक है।

    • यह गौड़पाद कारिका का सबसे बड़ा प्रकरण है, जिसमें 100 छंद हैं।

    • इस अध्याय में मुख्य रूप से अद्वैत सिद्धांतों के विरुद्ध विभिन्न भारतीय दार्शनिक संप्रदायों (जैसे नैयायिक, बौद्ध, जैन) की आपत्तियों का खंडन किया गया है।

    • गौड़पाद अपने अजातिवाद का बचाव करते हैं और कभी-कभी बौद्ध तर्क पद्धतियों का उपयोग करते हुए अद्वैत सत्य को स्थापित करते हैं।

    • यह अध्याय पिछले तीन प्रकरणों में दिए गए अद्वैत सिद्धांतों का सारांश और पुनरावृत्ति भी करता है।

    • इस प्रकरण की शुरुआत नारायण (शंकराचार्य द्वारा पुरुषोत्तम के रूप में पहचाने गए) की स्तुति से होती है। इसमें 'बुद्ध' शब्द के उपयोग ने गौड़पाद के बौद्ध झुकाव पर बहस को जन्म दिया है, हालांकि उन्हें अंततः एक शुद्ध वेदांती माना जाता है।

    • यह अध्याय इस बात पर जोर देता है कि आत्मा (ब्रह्म) अजन्मा, अद्वैत और कार्य-कारण से परे है, और आपत्तियां केवल सीमित समझ के कारण उत्पन्न होती हैं।

कुल मिलाकर, गौड़पाद कारिका अद्वैत वेदान्त का एक अद्वितीय ग्रंथ है जो मायावाद, विवर्तवाद और अजातिवाद को स्पष्ट रूप से समझाता है, और अन्य दार्शनिक मतों का खंडन करता है। यह तार्किक सुसंगति को आत्म-अनुभव के साथ जोड़ता है, जिससे साधकों को आत्म-ज्ञान और मुक्ति की ओर मार्गदर्शन मिलता है।

आगम प्रकरण (श्रुति आधारित)

माण्डूक्य कारिका अद्वैत वेदांत दर्शन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे आचार्य गौड़पाद ने माण्डूक्य उपनिषद पर लिखी हुई टीका के रूप में रचा है। यह सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं, लेकिन इसे अत्यंत गहन माना जाता है। माण्डूक्य उपनिषद का अध्ययन ही मोक्ष के लिए पर्याप्त माना जाता है।

गौड़पाद कारिका चार मुख्य प्रकरणों या अध्यायों में विभाजित है:

  1. आगम प्रकरण (श्रुति आधारित)

  2. वैतथ्य प्रकरण

  3. अद्वैत प्रकरण

  4. अलातशांति प्रकरण

प्रत्येक प्रकरण का अपना विशिष्ट उद्देश्य और प्रतिपादन शैली है।


१. आगम प्रकरण (श्रुति आधारित)

आगम प्रकरण कारिका का पहला और मूलभूत अध्याय है। इसे 'आगम' कहा जाता है क्योंकि यह मांडूक्य उपनिषद के मूल सिद्धांतों पर आधारित है, यानी श्रुति (शास्त्र) को आधार बनाता है।

  • ओंकार और आत्मा की चतुष्पाद अनुरूपता: आगम प्रकरण का मुख्य विषय ओंकार (ॐ) और आत्मा की चार अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) के बीच संबंध और अनुरूपता को समझाना है।

    • जाग्रत अवस्था (वैश्वानर): यह आत्मा का पहला पद है, जो जाग्रत अवस्था से संबंधित है और बाह्य जगत का अनुभव करता है। इसे 'स्थूलभोक्ता' कहा गया है। यह सात अंगों और उन्नीस मुखों वाला होता है, जो व्यक्तिगत और ब्रह्मांडीय स्तर पर समान रूप से लागू होता है। वैश्वानर को ओंकार के 'अ' अक्षर से दर्शाया गया है, क्योंकि 'अ' सभी ध्वनियों का प्रारंभ है, जैसे जाग्रत अनुभव का।

    • स्वप्न अवस्था (तैजस): यह आत्मा का दूसरा पद है, जो स्वप्न अवस्था से संबंधित है और आंतरिक जगत का अनुभव करता है। इसे 'सूक्ष्मभोक्ता' कहा गया है। यह भी सात अंगों और उन्नीस मुखों वाला होता है, और वैश्वानर की तुलना में अधिक सूक्ष्म होता है। तैजस को ओंकार के 'उ' अक्षर से दर्शाया गया है, जो 'अ' के बाद आता है और जाग्रत और सुषुप्ति के बीच मध्यस्थ है。

    • सुषुप्ति अवस्था (प्राज्ञ): यह आत्मा का तीसरा पद है, जो गहरी नींद की अवस्था है जहाँ कोई इच्छा या स्वप्न नहीं होता। इसे 'प्रज्ञानघन' और 'आनंदमय' कहा गया है। यह जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं का कारण है, क्योंकि सभी अनुभव इसमें अव्यक्त रूप से विलीन हो जाते हैं। प्राज्ञ को ओंकार के 'म' अक्षर से दर्शाया गया है, जो 'अ' और 'उ' का विलय बिंदु है, जैसे सुषुप्ति में सभी अनुभवों का विलय होता है।

    • तुरीय अवस्था (चतुर्थ): यह उपनिषद का सबसे महत्वपूर्ण रहस्य है। यह तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे है और इन तीनों का आधार एवं साक्षी है। तुरीय स्वयं न तो कोई अनुभव है और न ही अनुभव का विषय, यह अदृश्य, अव्यावहारिक, अग्राह्य, अलक्ष्य, अचिंत्य और अनिर्वचनीय है। यह शुद्ध चेतना, अद्वैत, आनंदमय और शांत स्वरूप है, जिसे ओंकार के 'अमात्र' भाग (ध्वनिहीन भाग) से दर्शाया जाता है—वह मौन जो ओंकार के उच्चारण से पहले और बाद में होता है। तुरीय ही मोक्ष की स्थिति है, आत्मा का वास्तविक स्वरूप। इसका ज्ञान ही मुक्ति है।

  • उपासना का फल: आगम प्रकरण में माण्डूक्य उपनिषद के बाद वाले मंत्रों में प्रत्येक अक्षर (अ, उ, म) की उपासना के फल बताए गए हैं। उदाहरण के लिए, 'अ' की उपासना से सभी इच्छाओं की पूर्ति और नेतृत्व की प्राप्ति होती है। 'उ' की उपासना से ज्ञान में वृद्धि होती है और साधक समाज में सामंजस्य स्थापित करने वाला बन जाता है। 'म' की उपासना से साधक संसार सागर को पार कर जाता है और उसे जगत का वास्तविक स्वरूप ज्ञात होता है। गौड़पाद कहते हैं कि तीनों अवस्थाओं के भोक्ता को जानने वाला व्यक्ति सभी भोगों को भोगते हुए भी लिप्त नहीं होता।


चार प्रकरणों के वृहत् संदर्भ में आगम प्रकरण

आगम प्रकरण, माण्डूक्य कारिका के पूरे दर्शन के लिए आधारशिला का काम करता है। यह उपनिषदों पर आधारित ज्ञान प्रस्तुत करता है, जो स्वयं-ज्ञान की दिशा में पहला कदम है।

  • वैतथ्य प्रकरण (द्वितीय प्रकरण): यह तर्क और युक्ति का उपयोग करके द्वैत के मिथ्यात्व को सिद्ध करता है। यह तर्क देता है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों ही अवस्थाओं के पदार्थ समान रूप से काल्पनिक या मिथ्या हैं, क्योंकि उनके स्थायित्व और विस्तार में केवल मात्रा का भेद है, प्रकार का नहीं। इसका उद्देश्य यह स्थापित करना है कि जगत माया मात्र है

  • अद्वैत प्रकरण (तृतीय प्रकरण): यह आत्मा के अद्वैत स्वरूप को तर्क और दृष्टांतों की सहायता से प्रतिपादित करता है। यह सिद्ध करता है कि तुरीय अकारण है, अर्थात उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, जिससे द्वैत की संभावना समाप्त हो जाती है। आत्मा को आकाश के समान बताया गया है - सर्वव्यापी, अविकारी और एक। शंकराचार्य के अनुसार, ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म ही है, अन्य कुछ नहीं।

  • अलातशांति प्रकरण (चतुर्थ प्रकरण): यह अंतिम अध्याय है, जो मुख्य रूप से दार्शनिक आपत्तियों का खंडन और अद्वैत सिद्धांतों का सारांश प्रस्तुत करता है। इसमें बौद्ध दर्शनों के तर्कों का उपयोग कर अजातिवाद (किसी की उत्पत्ति न होना) जैसे सिद्धांतों को स्थापित किया गया है। गौड़पाद ने अजातिवाद का स्पष्ट प्रतिपादन किया, जिसमें कहा गया है कि जगत की उत्पत्ति नहीं हुई, बल्कि केवल एक अखण्ड चिदघन सत्ता ही माया के कारण आभासित हो रही है।

संक्षेप में, आगम प्रकरण शास्त्रों के अधिकार (श्रुति) पर आधारित होकर आत्मा की चार अवस्थाओं और ओंकार के साथ उनके संबंध का परिचय देता है, खासकर तुरीय के स्वरूप का। यह अगले प्रकरणों के लिए आधार तैयार करता है, जहाँ वैतथ्य प्रकरण द्वैत के मिथ्यात्व को युक्ति से, अद्वैत प्रकरण आत्मा की अद्वैतता को तर्क से, और अलातशांति प्रकरण विभिन्न आपत्तियों का समाधान करते हुए इन्हीं मूलभूत अद्वैत सिद्धांतों को पुनः पुष्ट करता है।

वैतथ्य प्रकरण (मिथ्यात्व का तर्क)

गौड़पाद की माण्डूक्य कारिका, अद्वैत वेदान्त के मूलभूत ग्रंथों में से एक है, जिसमें चार मुख्य प्रकरण (अध्याय) हैं। ये प्रकरण माण्डूक्य उपनिषद की शिक्षाओं को विस्तार से समझाते हैं।

गौड़पाद कारिका के चार प्रकरण इस प्रकार हैं:

  • आगम प्रकरण (Agama Prakarana): यह प्रकरण श्रुति (शास्त्रों) पर आधारित है और आत्मा की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, और तुरीय - तथा ओंकार (अ, उ, म, और अमात्रा) के साथ उनके संबंध का वर्णन करता है। इसमें तुरीय अवस्था को सभी व्यावहारिक भेदों से परे बताया गया है।

  • वैतथ्य प्रकरण (Vaitathya Prakarana): इसका अर्थ है मिथ्यात्व या असत्यता। यह प्रकरण युक्ति या तर्क के माध्यम से द्वैत (संसार की द्वैतता) की असत्यता को सिद्ध करता है।

  • अद्वैत प्रकरण (Advaita Prakarana): यह तर्क और दृष्टांतों की सहायता से अद्वैत सिद्धांत (अद्वितीय वास्तविकता) को स्थापित करता है।

  • अलातशान्ति प्रकरण (Alatashanti Prakarana): यह विभिन्न दार्शनिक मतों और आपत्तियों का खंडन करता है, अद्वैत सिद्धांतों को दोहराता है, और विशेष रूप से अजातिवाद (उत्पत्ति का न होना) पर केंद्रित है।

वैतथ्य प्रकरण (मिथ्यात्व का तर्क)

वैतथ्य प्रकरण का मुख्य उद्देश्य संसार की असत्यता या मिथ्यात्व को तार्किक रूप से सिद्ध करना है। यह प्रकरण इस विचार पर आधारित है कि जाग्रत अवस्था और स्वप्न अवस्था के पदार्थों में वास्तव में कोई मौलिक अंतर नहीं है।

प्रमुख तर्क बिंदु इस प्रकार हैं:

  • जाग्रत और स्वप्न की समानता: साधारणतः स्वप्न को अवास्तविक और जाग्रत को वास्तविक माना जाता है, लेकिन वैतथ्य प्रकरण तर्क देता है कि दोनों में कोई वास्तविक भेद नहीं है। जाग्रत जगत का अधिक स्थायी, विस्तृत या सार्वभौमिक रूप से प्रत्यक्ष होना केवल मात्रा का भेद सिद्ध करता है, प्रकार का नहीं

  • पारस्परिक बाध (Mutual Sublation): जिस प्रकार जाग्रत अवस्था में स्वप्न के पदार्थ बाधित (अमान्य) हो जाते हैं, उसी प्रकार स्वप्न में भी जाग्रत पदार्थों की विपरीतता देखी जाती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति जागृत अवस्था में पानी पीकर सोता है और फिर भी उसे प्यास का स्वप्न आता है, तो यह दिखाता है कि स्वप्न में जाग्रत का अनुभव बाधित हो सकता है। गौड़पाद यह तर्क देते हैं कि चेतना के दृष्टिकोण से, जाग्रत और स्वप्न दोनों केवल आभास हैं।

  • माया और कल्पना: प्रकरण के अनुसार, सभी दृश्य पदार्थ, चाहे वे स्वप्न के हों या जाग्रत के, स्वयंप्रकाश आत्मा की माया या कल्पना हैं। आंतरिक और बाह्य सभी पदार्थ मिथ्या हैं। जो वस्तु आदि और अंत में नहीं है, वह मध्य में भी नहीं है। संसार की सत्ता केवल उपलब्धि (अनुभव) और व्यवहार के आधार पर मानी गई है।

  • रज्जु-सर्प न्याय: यह प्रसिद्ध दृष्टांत वैतथ्य प्रकरण में उपयोग किया गया है। जिस प्रकार अँधेरे में रस्सी को साँप समझ लिया जाता है, उसी प्रकार अज्ञान के कारण आत्मा में ही सारे पदार्थ कल्पित (imagined) हैं। जब रस्सी का वास्तविक ज्ञान हो जाता है, तो साँप की असत्यता स्पष्ट हो जाती है। इसी तरह, आत्मा के ज्ञान से जगत का मिथ्यात्व ज्ञात होता है। यह भ्रम (साँप का दिखना) आत्मा पर सीमित स्वत्वों के अध्यारोप (superimposition) के कारण होता है, और इस त्रुटि को दूर करना ही उपनिषद का उद्देश्य है।

  • अजातिवाद का समर्थन: वैतथ्य प्रकरण अंततः यह सिद्ध करता है कि परमार्थतः (परम सत्य के स्तर पर) न तो कोई उत्पत्ति है, न प्रलय, न कोई बद्ध है, न कोई साधक, न मुमुक्षु (मोक्ष का इच्छुक) है और न ही कोई मुक्त है। यह गौड़पाद के अजातिवाद सिद्धांत का समर्थन है, जिसमें यह माना जाता है कि परमार्थतः कुछ भी उत्पन्न नहीं होता।

चार प्रकरणों के वृहत्तर संदर्भ में वैतथ्य प्रकरण का स्थान: वैतथ्य प्रकरण, आगम प्रकरण द्वारा स्थापित आत्म-ओंकार की चतुष्पाद (चार अवस्थाओं) की अवधारणा के बाद आता है। आगम प्रकरण उपनिषदों के आधार पर ब्रह्म और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करता है, जिसमें जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्थाएं शामिल हैं। वैतथ्य प्रकरण इस नींव पर आगे बढ़ता है और तर्क के माध्यम से दिखाता है कि जो कुछ भी इन तीन अवस्थाओं में अनुभव किया जाता है (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति), वह सब मिथ्या है। यह द्वैत (विषय-विषयी भेद, अनेकता) को माया का परिणाम बताता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि एकमात्र सत्य अद्वैत ही है। इस प्रकार, वैतथ्य प्रकरण अगले अद्वैत प्रकरण के लिए आधार तैयार करता है, जो सीधे अद्वैत सिद्धांत की स्थापना पर केंद्रित है।

अद्वैत प्रकरण (अद्वैत सिद्धांत)

गौड़पाद की माण्डूक्य कारिका, उपनिषदों के गहनतम दार्शनिक ग्रंथों में से एक है, जिसमें अद्वैत वेदान्त के सिद्धांतों को स्पष्ट और तार्किक ढंग से प्रतिपादित किया गया है। यह कारिका चार मुख्य प्रकरणों में विभाजित है, जिनमें से प्रत्येक का अपना विशिष्ट उद्देश्य है:

  • आगम प्रकरण (पहला अध्याय): यह प्रकरण आगम या श्रुति (उपनिषदों) पर आधारित है। इसमें आत्मा की चार अवस्थाओं—जाग्रत (विश्व), स्वप्न (तैजस), सुषुप्ति (प्राज्ञ)—और चौथी अवस्था तुरीय की अनुरूपता को ओंकार के 'अ', 'उ', 'म' और अमात्र रूप के साथ समझाया गया है। यह बताता है कि तुरीय अवस्था अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है, और जिज्ञासु के लिए यही जानने योग्य है।

  • वैतथ्य प्रकरण (दूसरा अध्याय): इस प्रकरण का मुख्य उद्देश्य तर्क और युक्ति के माध्यम से द्वैत (द्वैतभाव) के मिथ्यात्व को सिद्ध करना है। गौड़पाद यह तर्क देते हैं कि जाग्रत और स्वप्न अवस्था के पदार्थों में वास्तव में कोई भेद नहीं है; जिस प्रकार स्वप्नजगत काल्पनिक या मिथ्या है, उसी प्रकार जाग्रतजगत भी काल्पनिक या मिथ्या है। वे कहते हैं कि जो वस्तु आदि और अंत में नहीं होती, वह मध्यकाल या दृश्यकाल में भी नहीं होती। समस्त दृश्य पदार्थ, चाहे वे स्वप्न के हों या जाग्रत के, स्वयंप्रकाश आत्मा की माया या कल्पना मात्र हैं। इस प्रकरण में माया के 'आवरण शक्ति' और 'विक्षेप शक्ति' का भी वर्णन किया गया है, जो सत्य को छिपाकर असत्य को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती हैं।

अद्वैत प्रकरण (तीसरा अध्याय)

अद्वैत प्रकरण, गौड़पाद कारिका का तीसरा और एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है। इसका मुख्य उद्देश्य तर्क और दृष्टांतों की सहायता से अद्वैत सिद्धांत (गैर-द्वैतवाद) का प्रतिपादन करना है

इस प्रकरण का केंद्रीय तर्क यह है कि तुरीय (परम आत्म-चेतना) कोई कारण नहीं है। यदि तुरीय किसी वस्तु का कारण होता और उससे कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैत की उत्पत्ति होती, जिससे दुःख और संसार का चक्र चलता रहता। गौड़पाद के अनुसार, यदि यह सिद्ध किया जा सके कि तुरीय से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, तो अद्वैत स्वतः सिद्ध हो जाता है。

इस प्रकरण की शिक्षा को चार मुख्य अवधारणाओं में संक्षेपित किया जा सकता है, जिन्हें गौड़पाद ने गहराई से समझाया है:

  1. अद्वैत (गैर-द्वैतवाद): यह अद्वैत प्रकरण का मूल सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि कोई दूसरी वस्तु नहीं है, केवल एक ही परम सत्य है। द्वैत की धारणाएँ केवल माया के कारण उत्पन्न होती हैं, और परमार्थतः (परम वास्तविकता में) वे मिथ्या हैं। जब अज्ञान नष्ट हो जाता है, तो आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है।

  2. अजातिवाद (उत्पत्ति का न होना): यह सिद्धांत कहता है कि किसी भी वस्तु की उत्पत्ति वास्तव में नहीं हुई है, न ही किसी जीव की और न ही इस ब्रह्मांड की। गौड़पाद कहते हैं कि जीव वास्तव में तुरीय ही हैं, और वे कभी व्यक्ति बने ही नहीं। इसे समझाने के लिए, वे घड़ा और आकाश के दृष्टांत का उपयोग करते हैं। जैसे एक घड़े में बंद आकाश (घटाकाश) बड़े आकाश से भिन्न नहीं है और घड़ा टूटने पर उसमें विलीन हो जाता है, उसी प्रकार जीव भी आत्मा से भिन्न नहीं है। यह शंकराचार्य के अद्वैतवाद का एक अधिक कट्टरपंथी प्रकटीकरण माना जाता है।

  3. अस्पर्श योग (कोई संपर्क या संबंध नहीं): यह बताता है कि तुरीय का संसार की किसी भी वस्तु से कोई संबंध नहीं है, भले ही संसार तुरीय में ही प्रकट होता हो। जाग्रत, स्वप्न, गहरी नींद, या संपूर्ण ब्रह्मांड का तुरीय से कोई वास्तविक संबंध नहीं है। इस प्रकार से आत्मा का बोध होना ही अस्पर्श योग कहलाता है।

  4. अमनोभाव (मन का न होना): इस सिद्धांत का अर्थ है कि मन को "नो माइंड" स्थिति में लाना। यह मन को नष्ट करना या सोचना बंद करना नहीं है, बल्कि मन को अपनी शुद्ध अवस्था में लीन करना है जहाँ वह अब विचारों या बाहरी वस्तुओं से भ्रमित नहीं होता। जब मन सक्रिय होता है (जाग्रत और स्वप्न में) या बीज रूप में होता है (सुषुप्ति में), तब संसार बना रहता है। अस्पर्श योग की प्राप्ति के लिए मन को अमनोभाव की स्थिति में आना होता है।

गौड़पाद द्वैतवादियों के मतों का खंडन भी करते हैं, यह कहते हुए कि द्वैतवादी अपनी-अपनी मान्यताओं पर ज़ोर देने के कारण आपस में लड़ते हैं, जबकि अद्वैतवाद के लिए सभी भेद मिथ्या हैं। द्वैत केवल व्यावहारिक क्षेत्र का विषय है, जो माया के कारण आभासित होता है।

अद्वैत प्रकरण इस बात पर जोर देता है कि आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है, न कि कोई कर्म या यज्ञ। अंततः यह ज्ञान ही जीव को अज्ञान के बंधन से मुक्त करता है।

अलातशान्ति प्रकरण (चौथा अध्याय): यह अंतिम प्रकरण पूर्व के तीनों अध्यायों में स्थापित अद्वैत सिद्धांतों पर उठाई गई आपत्तियों और प्रश्नों का समाधान करता है। इसमें बौद्ध दर्शनों के साथ माण्डूक्य कारिका के सिद्धांतों की समानता और अंतर पर भी चर्चा की गई है, जहाँ गौड़पाद ने बौद्धों की तर्क-पद्धति को अपनाया, लेकिन उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मा की अद्वैतता को सिद्ध किया। यह कारिका का सबसे बड़ा प्रकरण है, जिसमें 100 से अधिक श्लोक हैं।

इस प्रकार, माण्डूक्य कारिका में अद्वैत प्रकरण आत्मा और ब्रह्मांड की मूलभूत अद्वैत प्रकृति को तार्किक और दार्शनिक रूप से स्थापित करने का कार्य करता है, जो समग्र मुक्ति की ओर ले जाने वाले ज्ञान की नींव है।

अलातशान्ति प्रकरण (वादों का खंडन)

माण्डूक्य कारिका, जो गौड़पाद द्वारा रचित है और शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत की नींव मानी जाती है, चार मुख्य प्रकरणों में विभाजित है। ये प्रकरण आत्मा के स्वरूप और परम सत्य की गहन व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। ये चार प्रकरण हैं: आगम प्रकरण, वैतथ्य प्रकरण, अद्वैत प्रकरण और अलातशान्ति प्रकरण।

आगम प्रकरण (पहला प्रकरण) यह प्रकरण माण्डूक्योपनिषद के बारह मंत्रों पर आधारित है, जिनमें अद्वैत वेदांत के सभी मूल तत्व निहित हैं। इसमें ओंकार और आत्मा की चार अवस्थाओं – जाग्रत (वैश्वानर), स्वप्न (तैजस), सुषुप्ति (प्राज्ञ), और तुरीय – के बीच अनुरूपता स्थापित की गई है। तुरीय अवस्था को आत्मा का चौथा पद बताया गया है, जो तीनों से विलक्षण, उनमें अनुगत, उनका अधिष्ठान और साक्षी है। यह अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है, और जिज्ञासु के लिए यही ज्ञातव्य है। इस प्रकरण में यह स्थापित किया जाता है कि सब कुछ ओंकार और ब्रह्म है, तथा आत्मा ही ब्रह्म है

वैतथ्य प्रकरण (दूसरा प्रकरण) 'वैतथ्य' का अर्थ है 'मिथ्यात्व'। इस प्रकरण में द्वैत के मिथ्यात्व को युक्ति और तर्क के माध्यम से दर्शाया गया है। इसका मुख्य तर्क यह है कि जाग्रत और स्वप्न के पदार्थ वास्तव में भिन्न नहीं हैं; जैसे स्वप्न का जगत काल्पनिक या मिथ्या है, वैसे ही जाग्रत जगत भी काल्पनिक या मिथ्या है। गौड़पाद कहते हैं कि संसार की सत्ता केवल उपलब्धि और व्यवहार पर आधारित है। यह प्रकरण स्थापित करता है कि जगत एक प्रतीति (appearance) है, कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं

अद्वैत प्रकरण (तीसरा प्रकरण) यह प्रकरण तर्क और दृष्टांत की सहायता से अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन करता है। यहां आत्मा की तुलना आकाश से की गई है; जैसे आकाश सर्वव्यापी, समान, अविकारी और एक है, वैसे ही आत्मा भी है। जीव घटाकाश के समान है, आत्मा का कोई विकास या अवयव नहीं। जब अज्ञान नष्ट होता है, तो आत्मा और ब्रह्म की एकता स्पष्ट हो जाती है। यह प्रकरण विशेष रूप से अजातिवाद (non-origination) पर केंद्रित है, यह सिद्ध करते हुए कि तुरीय आत्मा कोई कारण नहीं है और उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। यदि तुरीय कारण होता, तो द्वैत उत्पन्न होता। अद्वैत प्रकरण यह भी समझाता है कि संसार तुरीय में प्रकट होता है, लेकिन तुरीय का संसार के साथ कोई संबंध नहीं है (अस्पर्शयोग)।

अलातशान्ति प्रकरण (चौथा प्रकरण - वादों का खंडन) 'अलातशान्ति' का शाब्दिक अर्थ 'जलते हुए लट्ठे के भ्रम को शांत करना' है, जो एक भ्रम को दूर करने का प्रतीक है। यह चौथा प्रकरण है, और इसके गौड़पाद द्वारा रचित होने पर विद्वानों में कुछ विवाद रहा है, क्योंकि इसमें बुद्ध शब्द और बौद्ध दर्शन के कई शब्दों का प्रयोग हुआ है। गौड़पाद पर 'छिपे हुए बौद्ध' (crypto-Buddhist) होने का आरोप भी लगा है।

हालाँकि, परंपरा के अनुसार इसे गौड़पाद द्वारा ही रचित माना जाता है, और कई विद्वान उन्हें शुद्ध वेदांती मानते हैं। इसका कारण यह है कि गौड़पाद का आगम (उपनिषदों) में पूर्ण विश्वास है और वे नित्य आत्मा के अस्तित्व को मानते हैं, जो बौद्धों के अनात्मवाद से भिन्न है। गौड़पाद ने बौद्धों की तर्क पद्धति को अपनाया, लेकिन उसका उपयोग आत्मा की अद्वैतता को सिद्ध करने के लिए किया, जैसा कि उपनिषदों में प्रतिपादित है।

यह प्रकरण मुख्य रूप से अजातिवाद को और अधिक स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करता है, विभिन्न दार्शनिक वादों (वादों का खंडन) का खंडन करता है। यह कहता है कि किसी भी वस्तु का स्वभाव विपरीत नहीं होता, अतः अजाति ही परम सत्य है। गौड़पाद सांख्य के सत्कार्यवाद का खंडन करते हैं, यह तर्क देते हुए कि यदि कार्य और कारण अभिन्न हैं, तो कार्य भी अजन्मा हो जाता है। उनके अनुसार, अजन्मा से किसी की उत्पत्ति का कोई प्रमाण या दृष्टांत नहीं है।

अलातशान्ति प्रकरण विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों से उठाई गई आपत्तियों और प्रश्नों का समाधान प्रदान करता है। यह कहता है कि न तो कोई निरोध है, न उत्पत्ति है, न कोई बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न कोई मुक्त ही है; यही परमार्थ सत्य है। समस्त दृश्य पदार्थ माया या कल्पना मात्र हैं। यह प्रकरण तर्क का उपयोग करके यह सिद्ध करता है कि आत्मा, जो अजन्मा और अचल है, सभी प्रकार के अनुभवों से परे है और इसे किसी भी बाहरी कारण से उत्पन्न नहीं किया जा सकता। यह भी तर्क दिया जाता है कि यदि कोई वस्तु आदि और अंत में नहीं है, तो वह मध्य में भी नहीं है, जिससे जाग्रत जगत की भी मिथ्यात्व सिद्ध होता है।

संक्षेप में, माण्डूक्य कारिका के ये चार प्रकरण एक व्यवस्थित तरीके से अद्वैत वेदांत के केंद्रीय सिद्धांतों को उजागर करते हैं:

  • आगम प्रकरण उपनिषदों के आधार पर आत्मा की चार अवस्थाओं और ओंकार से उसकी समानता को स्थापित करता है, जिससे अद्वैत की प्रारंभिक समझ मिलती है।

  • वैतथ्य प्रकरण तर्क का उपयोग करके जाग्रत और स्वप्न जगत दोनों की मिथ्यात्व को सिद्ध करता है, जिससे द्वैत की वास्तविकता पर संदेह पैदा होता है।

  • अद्वैत प्रकरण आत्मा की अद्वैतता को स्थापित करता है और अजातिवाद (non-origination) के सिद्धांत को पुष्ट करता है, यह दिखाते हुए कि परम सत्य स्वयं अविकारी और कारणहीन है।

  • अलातशान्ति प्रकरण इन सिद्धांतों पर उठने वाली आपत्तियों का खंडन करता है और अजातिवाद के साथ अद्वैत की अंतिम सत्यता को दृढ़ता से स्थापित करता है, जो सभी प्रकार के भ्रम और द्वैत से परे है। यह प्रकरण अद्वैत के सुदृढ़ तार्किक आधार को प्रस्तुत करता है, भले ही उसमें बौद्धिक शब्दावली का प्रयोग हो।


बौद्ध धर्म से संबंध

गौड़पाद कारिका और बौद्ध धर्म के संबंध पर विभिन्न स्रोतों में विस्तृत चर्चा की गई है, जिसमें गौड़पाद के सिद्धांतों और उनकी प्रस्तुति में बौद्ध विचारों से समानता और भिन्नता दोनों को दर्शाया गया है।

बौद्ध धर्म से संबंध के आरोप और उनके कारण:

  • शब्दावली और तार्किक पद्धति में समानता: गौड़पाद कारिका में कई ऐसे पद और तार्किक युक्तियाँ मिलती हैं, जो बौद्ध दर्शन, विशेषकर माध्यमिक और योगाचार संप्रदायों से मिलती-जुलती हैं। उदाहरण के लिए, गौड़पाद का 'अजातिवाद' (अर्थात् जगत् की उत्पत्ति नहीं हुई है) माध्यमिक पद्धति पर आधारित माना जाता है। उनके द्वारा प्रतिपादित आत्मा का स्वरूप योगाचार मत के विज्ञान (आलय) की अनुकृति सा प्रतीत होता है, और उनकी तर्कपद्धति माध्यमिक शून्यवादियों के समान है।

  • अलातशान्ति प्रकरण और 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग: माण्डूक्य कारिका के चौथे प्रकरण को 'अलातशान्ति प्रकरण' कहा जाता है। 'अलात चक्र' का उदाहरण, जो अग्नि के गोले को घुमाने से दिखने वाले आभासी वृत्त का बोध कराता है, बौद्धों द्वारा प्रमुखता से प्रयोग किया जाता था, और गौड़पाद भी इसका उपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त, इस प्रकरण के मंगलाचरण के पहले श्लोक में 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसके कारण गौड़पाद पर "गुप्त बौद्ध" (crypto-Buddhist) होने का आरोप लगाया गया है। कुछ विद्वानों ने तो यह तर्क भी दिया कि गौड़पाद की कारिकाएँ पहले लिखी गईं और उन्हीं के आधार पर माण्डूक्य उपनिषद् की रचना हुई, हालांकि इस मत को तर्कसंगत नहीं माना जाता।

गौड़पाद का शुद्ध वेदांती होना सिद्ध करने वाले तर्क:

  • नित्य आत्मा का सिद्धांत: बौद्ध संप्रदाय में नित्य आत्मा का घोर विरोध किया गया है और उनके मत को 'आनात्मवाद' कहा जाता है। इसके विपरीत, गौड़पाद दृढ़ता से एक अविनाशी और नित्य आत्मा (तुरीय अवस्था) के अस्तित्व पर बल देते हैं, जो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में रहते हुए भी शुद्ध है, और न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न होती है और न किसी कार्य को उत्पन्न करती है। आत्मा का यह नित्यत्व निश्चित रूप से बौद्धों को स्वीकार्य नहीं हो सकता

  • आगम (श्रुति) में पूर्ण विश्वास: गौड़पाद का वेदों और उपनिषदों जैसे आगमों में पूर्ण विश्वास है। उन्होंने अपने सिद्धांतों को प्रमाणित करने के लिए कई स्थानों पर बृहदारण्यक आदि प्राचीन उपनिषदों को प्रमाण स्वरूप उद्धृत किया है। यह वेदांत दर्शन की मूल आधारशिला है, जो बौद्ध धर्म में नहीं है।

  • बौद्ध आचार्यों द्वारा खंडन: गौड़पाद के सिद्धांतों का भावविवेक, शांतरक्षित और कमलशील जैसे प्रमुख बौद्ध आचार्यों ने खंडन किया है। किसी भी बौद्ध ग्रंथ में गौड़पाद का अनुमोदन नहीं मिलता, जो यह दर्शाता है कि उनकी अंतिम दार्शनिक स्थिति बौद्ध धर्म से भिन्न थी, भले ही उन्होंने तार्किक पद्धतियों में समानता का उपयोग किया हो।

  • बुद्ध को नमस्कार का अभिप्राय: गौड़पाद द्वारा बुद्ध को किया गया नमस्कार एक सामान्य मंगलाचरण के रूप में नहीं, बल्कि अपने 'अविरोध दर्शन' (यानी बौद्ध और औपनिषदिक विचारधारा में तात्विक विरोध नहीं है) को स्थापित करने के उद्देश्य से देखा जाना चाहिए। शंकराचार्य ने भी स्पष्ट किया है कि गौड़पाद ने नारायण (पुरुषोत्तम) को नमस्कार किया है, जो सर्वोच्च आत्मा है।

  • अद्वैत सिद्धांत के उद्घोषक: गौड़पाद को अद्वैत सिद्धांत का प्रधान उद्घोषक माना जाता है। उन्होंने न केवल आस्तिक दर्शनों (जैसे सांख्य और न्याय) का, बल्कि बौद्ध दर्शनों का भी सफलतापूर्वक खंडन किया है। उनकी कारिका को "अद्वैतवाद वेदांत का अनुपम ग्रंथ" कहा जाता है। शंकराचार्य ने भी अपने अद्वैत मत की स्थापना में गौड़पाद के मूल दर्शन का ही अनुसरण किया। गौड़पाद का अजातिवाद अद्वैत की एक अत्यंत मौलिक अभिव्यक्ति है, जो यह दर्शाती है कि अनुभव किया जाने वाला द्वैत वास्तव में माया या कल्पना मात्र है और परमार्थतः कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है।

निष्कर्षतः, माण्डूक्य कारिका और गौड़पाद के दर्शन को बौद्ध धर्म के करीब माना जा सकता है क्योंकि वे कुछ तार्किक विधियों और शब्दों का उपयोग करते हैं जो बौद्ध दर्शन में भी पाए जाते हैं। हालांकि, आत्मा की नित्यत्ता और वेदांत के आगमिक आधार में उनके दृढ़ विश्वास के कारण, गौड़पाद को एक शुद्ध वेदांती माना जाता है जिन्होंने अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए बौद्ध तर्कशास्त्र का प्रभावी ढंग से उपयोग किया, न कि स्वयं बौद्ध होने के कारण। उनका लक्ष्य विभिन्न दार्शनिक विचारों के बीच एक समन्वय दिखाना था, जो अंततः उपनिषदों में प्रतिपादित अद्वैत सत्य की पुष्टि करता है。


बौद्ध शब्दों और तर्कों का उपयोग

गौड़पाद, अद्वैत वेदांत के एक प्रमुख उद्घोषक और शंकराचार्य के परम्परा गुरु हैं, जिन्होंने अपनी रचना मांडूक्य कारिका में बौद्ध शब्दों और तर्कों का उपयोग किया है। यह उनकी दार्शनिक शैली और बौद्ध धर्म के साथ उनके संबंध को समझने में महत्वपूर्ण है।

बौद्ध शब्दों और तर्कों का उपयोग:

  • अलातशान्ति प्रकरण: गौड़पाद की मांडूक्य कारिका का चौथा प्रकरण अलातशान्ति प्रकरण (Alatashanti Prakarana) कहलाता है। इस प्रकरण का नाम 'अलातशान्ति' एक उदाहरण से लिया गया है जिसमें घूमते हुए 'फायरब्रांड' (अलात) से बनने वाले अग्नि चक्र (अलातचक्र) के भ्रम को शांत करने की बात की गई है, जिसका उपयोग बौद्धों द्वारा प्रमुखता से किया जाता था, लेकिन गौड़पाद ने भी इसका उपयोग किया है। इस प्रकरण में सभी मिथ्या विवादों की शांति का प्रतिपादन किया गया है।

  • अजातिवाद: गौड़पाद ने अजातिवाद (non-origination) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। यह सिद्धांत कहता है कि जगत की वास्तव में उत्पत्ति ही नहीं हुई है; केवल एक अखंड चित्घन सत्ता ही मोहवश प्रपंचवत (जैसे माया) प्रतीत हो रही है। उनका अजातिवाद माध्यमिक पद्धति पर आधारित है।

  • तर्कपद्धति और आत्मा का स्वरूप: गौड़पाद की तर्कपद्धति माध्यमिक शून्यवादियों के समान है। उनके द्वारा प्रतिपादित आत्मा का स्वरूप योगाचारानुमत विज्ञान (Vijnana) या आलय (Alaya) की अनुकृति जैसा प्रतीत होता है।

  • बुद्ध का सम्मान: गौड़पाद ने बुद्ध का बड़ा आदर किया है। अलातशान्ति प्रकरण की शुरुआत में नारायण को नमस्कार किया गया है। हालांकि, इस श्लोक में 'बुद्ध' शब्द के उपयोग से कुछ विद्वानों ने गौड़पाद पर 'क्रिप्टो-बौद्ध' होने का आरोप लगाया है। शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि गौड़पाद यहाँ पुरुषोत्तम नारायण को नमन कर रहे हैं, बुद्ध को नहीं। गौड़पाद ने बुद्ध को नमन अपने अविरोध दर्शन (non-contradictory philosophy) को स्थापित करने के लिए किया था, न कि मंगलाचरण के रूप में।

बौद्ध धर्म से संबंध: हालांकि गौड़पाद ने बौद्धों की तर्कपद्धति और शब्दावली का उपयोग किया, फिर भी उन्हें शुद्ध वेदांती माना जाता है। इसके कई कारण हैं:

  • आगम में विश्वास: गौड़पाद का आगम (उपनिषदों) में पूर्ण विश्वास था। उन्होंने बृहदारण्यक आदि प्राचीन उपनिषदों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है। उपनिषद वेदों का सार हैं, और वेदांत उपनिषदों पर आधारित है।

  • नित्य आत्मा का प्रतिपादन: बौद्ध संप्रदाय अनात्मवाद का घोर विरोध करता है, जबकि गौड़पाद का कहना है कि एक नित्य आत्मा (eternal Atman) जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में रहते हुए भी शुद्ध तुरीयावस्था (चतुर्थ अवस्था) में स्थित है। आत्मा की यह नित्यता बौद्धों को स्वीकार्य नहीं है।

  • बौद्ध आचार्यों द्वारा खंडन: भावविवेक, शांतरक्षित, कमलशील जैसे बौद्ध आचार्यों ने गौड़पाद का खंडन किया है, और किसी भी बौद्ध ग्रंथ में गौड़पाद का अनुमोदन नहीं मिलता है। यह इंगित करता है कि बौद्धों ने उन्हें अपने संप्रदाय का हिस्सा नहीं माना।

  • वेदांत दर्शन का उद्देश्य: गौड़पाद ने बौद्धों की तर्कपद्धति का उपयोग करते हुए उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मा की अद्वैतता को सिद्ध करने का प्रयास किया। उनका उद्देश्य बौद्ध विचारधारा और औपनिषदिक विचारधारा में तत्वतः कोई विरोध नहीं है, यह दिखाना था, और जो विरोध किया जाता है वह अज्ञानमूलक है। शंकराचार्य ने भी इसी समन्वय के मार्ग को अपनाकर अपने अद्वैत मत को स्थापित किया।

संक्षेप में, गौड़पाद ने अपने दर्शन को प्रस्तुत करने के लिए बौद्धिक माहौल में प्रचलित बौद्ध अवधारणाओं और तर्कों का प्रभावी ढंग से उपयोग किया, विशेषकर मायावाद, विवर्तवाद या अजातिवाद को समझाने के लिए। इसके बावजूद, उनके दर्शन का मूल अद्वैत वेदांत ही रहा, जिसका केंद्र नित्य आत्मा और मोक्ष की प्राप्ति है। मांडूक्य उपनिषद और गौड़पाद की कारिकाएं अद्वैत वेदांत के प्रमुख ग्रंथ हैं, जो चेतना की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, और तुरीय - के विश्लेषण के माध्यम से आत्मा की अद्वैत प्रकृति को स्पष्ट करते हैं।

बुद्ध को नमस्कार (विवादित)

गौड़पाद, जिन्हें श्री गौड़पादाचार्य के नाम से भी जाना जाता है, अद्वैत वेदान्त के एक प्रमुख आचार्य और दार्शनिक थे। उन्हें आदि शंकराचार्य के परंपरामूलक गुरु गोविन्दपाद का भी गुरु माना जाता है। उनका मुख्य ग्रंथ 'माण्डूक्य कारिका' या 'गौड़पाद कारिका' है, जो माण्डूक्य उपनिषद् पर एक टीका है।

गौड़पाद और बौद्ध धर्म के बीच संबंध को लेकर 'बुद्ध को नमस्कार' सहित कई विवादित विचार और चर्चाएँ रही हैं।

'बुद्ध को नमस्कार' का विवाद:

  • माण्डूक्य कारिका के चौथे प्रकरण, जिसे 'अलातशान्ति प्रकरण' कहा जाता है, की शुरुआत में एक श्लोक है "तं वंदे द्विपदांबरम्" (Tam Vande Dvipadāṃvaram) जिसमें 'बुद्ध' शब्द आता है।

  • इस श्लोक और गौड़पाद के कार्य में कई बौद्ध शब्दों तथा तर्कों की उपस्थिति के कारण उन पर 'क्रिप्टो-बौद्ध' होने का आरोप लगाया जाता रहा है।

गौड़पाद और बौद्ध दर्शन के बीच समानताएँ:

  • गौड़पाद के सिद्धांत, विशेषकर उनका 'अजातिवाद' (अजन्मा या उत्पत्ति न मानना) माध्यमिक बौद्ध दर्शन के शून्यवाद के निकट है। अजातिवाद यह प्रतिपादन करता है कि जगत् की उत्पत्ति ही नहीं हुई है, केवल एक अखण्ड चिद्घन सत्ता ही मोहवश प्रपञ्चवत् भास रही है।

  • उनके द्वारा प्रतिपादित आत्मा का स्वरूप योगाचारानुमत विज्ञान (आलय) की अनुकृति सा प्रतीत होता है।

  • उन्होंने माध्यमिक शून्यवादियों के समान तर्क पद्धति का उपयोग किया है।

  • गौड़पाद ने बुद्ध का बहुत आदर किया है।

  • यह भी माना जाता है कि गौड़पाद ने बौद्ध विचारधारा और औपनिषदिक विचारधारा में तत्वतः कोई विरोध नहीं दिखाने का प्रयास किया, और जो विरोध होता है वह अज्ञानमूलक है। कुछ विद्वानों का मत है कि गौड़पाद बौद्ध और बौद्धेतर तर्क-सम्प्रदायों के बीच की कड़ी हो सकते हैं।

गौड़पाद के वेदान्ती होने के पक्ष में तर्क (बौद्ध होने का खंडन):

  • आगम में पूर्ण विश्वास: गौड़पाद का आगम (श्रुति/उपनिषद) में पूर्ण विश्वास था। उन्होंने कई स्थानों पर बृहदारण्यक जैसे प्राचीन उपनिषदों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है। माण्डूक्य उपनिषद, जिस पर गौड़पाद की कारिका आधारित है, आत्मा या चेतना की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का वर्णन करती है, और यह स्थापित करती है कि आत्मा और ब्रह्म एक हैं और ॐ ही ब्रह्म का स्वरूप है।

  • नित्य आत्मा की अवधारणा: बौद्ध संप्रदाय 'अनात्मवाद' (अनात्मा) का घोर विरोध करता है, जिसमें नित्य आत्मा की अवधारणा नहीं है। इसके विपरीत, गौड़पाद कहते हैं कि एक आत्मा ही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में रहते हुए भी शुद्ध तुरीय अवस्था में स्थित है, जहाँ वह न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न होती है और न ही किसी कार्य को उत्पन्न करती है। यह आत्मा के नित्यत्व का सिद्धांत बौद्धों को स्वीकार्य नहीं है।

  • बौद्ध आचार्यों द्वारा खंडन: भावविवेक, शांतारक्षित और कमलशील जैसे बौद्ध आचार्यों ने गौड़पाद का खंडन किया है। किसी भी बौद्ध ग्रंथ में गौड़पाद का अनुमोदन नहीं मिलता, जिससे सिद्ध होता है कि बौद्ध स्वयं उन्हें बौद्ध नहीं मानते थे।

  • शंकराचार्य का भाष्य: आदि शंकराचार्य, जिन्होंने गौड़पाद के सिद्धांतों को विस्तृत रूप से समझाया, स्पष्ट करते हैं कि कारिका में जो नमस्कार है वह नारायण को किया गया है, बुद्ध को नहीं। शंकराचार्य ने गौड़पाद के दर्शन को अपने अद्वैत मत की नींव माना और उसी पर अपने ग्रंथों में विस्तृत व्याख्या की।

  • 'अलातशान्ति प्रकरण' का उद्देश्य: इस प्रकरण में बुद्ध को नमस्कार का उद्देश्य यह भी हो सकता है कि गौड़पाद अपने दर्शन के सिद्धांतों का बौद्धों द्वारा उपदिष्ट सिद्धांतों के साथ अविरोध दिखाना चाहते थे, न कि मंगलाचरण के रूप में।

  • द्वैत का मिथ्यात्व: गौड़पाद अपनी कारिका के द्वितीय प्रकरण 'वैतथ्य प्रकरण' में तर्क के द्वारा द्वैत (संसार की विविधता) को मिथ्या सिद्ध करते हैं, जिसमें जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं के पदार्थों में कोई वास्तविक भेद नहीं है; दोनों ही मिथ्या हैं। तृतीय प्रकरण 'अद्वैत प्रकरण' में, वे आत्मा की तुलना आकाश से करते हुए अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं, जहाँ जीव घटाकाश के समान है।

निष्कर्षतः, हालाँकि गौड़पाद की लेखन शैली और कुछ दार्शनिक तर्क बौद्ध धर्म से प्रभावित दिखते हैं, उनका मूल दर्शन अद्वैत वेदान्त के सिद्धांतों, विशेषकर शाश्वत आत्मा और उपनिषदों के प्रामाणिक ज्ञान, पर ही आधारित है। उन्होंने संभवतः अपने समय के प्रचलित बौद्ध विचारों का उपयोग अद्वैत की स्थापना के लिए एक माध्यम के रूप में किया।

अजातिवाद की समानता

गौड़पाद ने अद्वैत वेदांत के मुख्य सिद्धांतों, जिनमें मायावाद, विवर्तवाद, और अजातिवाद शामिल हैं, का स्पष्ट प्रतिपादन किया है। उनका अजातिवाद सिद्धांत यह बताता है कि जगत् की उत्पत्ति वास्तव में नहीं हुई है, बल्कि एक अखण्ड चिदघन सत्ता ही माया के कारण प्रपञ्च (जगत्) के रूप में भासित हो रही है। परमार्थतः न कोई निरोध है, न उत्पत्ति है, न कोई बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है, और न ही मुक्त है—यही परमार्थता है।

अजातिवाद का मूल विचार: अजातिवाद यह सिद्ध करता है कि आत्मा (तुरीय) किसी भी चीज़ का कारण नहीं है। यदि आत्मा से कुछ उत्पन्न होता, तो द्वैत उत्पन्न होता और अद्वैत भंग हो जाता। स्रोतों के अनुसार, तुरीय से न तो कोई जीव उत्पन्न होता है और न ही कोई ब्रह्मांड उत्पन्न होता है, यद्यपि वे उत्पन्न होते हुए प्रतीत होते हैं। इसे सिद्ध करने के लिए तर्क दिया गया है कि जो वस्तु आदि और अंत में नहीं है, वह मध्य में भी नहीं है; इसलिए, जगत् असत् (मिथ्या) है। स्वप्न का उदाहरण दिया जाता है, जहाँ स्वप्न-जगत् काल्पनिक और मिथ्या होता है, उसी तरह जाग्रत-जगत् भी काल्पनिक और मिथ्या है। स्वामी सर्वप्रियानंद बताते हैं कि गौड़पाद के अनुसार, जगत् सिर्फ एक उपस्थिति (appearance) है, कोई वास्तविक चीज़ नहीं। स्वामी ब्रह्माविदानंद सरस्वती भी इस बात पर बल देते हैं कि संसार एक मिथ्या उपस्थिति है, जैसे एक किताब केवल कागज है। सभी घटनाएँ (जाग्रत/स्वप्न) आत्मा की माया या कल्पना हैं।

बौद्ध धर्म से संबंध और समानताएँ: गौड़पाद के सिद्धांत बौद्ध दर्शनों, विशेषकर माध्यमिक और योगाचार संप्रदायों के निकट माने जाते हैं।

  • उनका अजातिवाद माध्यमिक पद्धति पर आधारित है

  • उनके द्वारा प्रतिपादित आत्मा का स्वरूप योगाचार द्वारा अनुमोदित विज्ञान (आलय) की अनुकृति प्रतीत होता है

  • उनकी तर्क पद्धति भी माध्यमिक शून्यवादियों के समान है

  • गौड़पाद ने बुद्ध के प्रति अत्यधिक आदर व्यक्त किया है। यह भी उल्लेख किया गया है कि माण्डूक्य कारिका के चौथे प्रकरण, अलातशांति प्रकरण में, उपनिषद-अनुमोदित सिद्धांतों का बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सिद्धांतों से अविरोध दिखलाया गया है। गौड़पाद ने बुद्ध को प्रणाम किया है, जिसे विद्वान एक मंगलाचरण के रूप में नहीं, बल्कि उनके अविरोध दर्शन को स्थापित करने के उद्देश्य के रूप में देखते हैं। गौड़पाद ने यह दिखाने का प्रयास किया कि बौद्ध और औपनिषदिक विचारधाराओं में तत्त्वतः कोई विरोध नहीं है; यदि कोई विरोध है तो वह अज्ञान के कारण है।

बौद्ध धर्म से भिन्नता और अद्वैत वेदांत की शुद्धता: उपरोक्त समानताओं के बावजूद, गौड़पाद को शुद्ध वेदांती माना जाता है। इसके कई कारण हैं:

  • आगम में पूर्ण विश्वास: गौड़पाद का श्रुतियों (उपनिषदों) में पूर्ण विश्वास है। उन्होंने बृहदारण्यक जैसे प्राचीन उपनिषदों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है।

  • नित्य आत्मा का सिद्धांत: बौद्ध संप्रदाय नित्य आत्मा (अनात्मवाद) का घोर विरोध करते हैं, जबकि गौड़पाद का कहना है कि एक आत्मा ही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में रहकर भी शुद्धतः तुरीयावस्था में स्थित है, जहाँ वह न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न है और न किसी कार्य को उत्पन्न करती है। आत्मा का यह नित्यत्व बौद्धों को स्वीकार्य नहीं है।

  • बौद्ध आचार्यों द्वारा खंडन: भावविवेक, शांतरक्षित, कमलशील जैसे बौद्ध आचार्यों ने गौड़पाद का खंडन किया है, और किसी भी बौद्ध ग्रंथ में उनका अनुमोदन नहीं मिलता है। यह दर्शाता है कि, यद्यपि गौड़पाद ने बौद्धों की तर्क पद्धति अपनाई, उन्होंने उस पद्धति का उपयोग उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मा की अद्वैतता को सिद्ध करने के लिए किया।

  • माया और जगत् की मिथ्याता: अद्वैत वेदांत में जगत् को माया का परिणाम और मिथ्या माना जाता है। यह मिथ्याता सत्य ब्रह्म पर अधिष्ठित है, जैसे रस्सी पर सर्प का भ्रम होता है। स्वामी सर्वप्रियानंद के अनुसार, यह वही ज्ञान है जो ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः (ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है, और जीव ब्रह्म ही है, कोई दूसरा नहीं)।

संक्षेप में, गौड़पाद ने बौद्ध दर्शनों की तर्क पद्धतियों का उपयोग करते हुए उपनिषदों के अद्वैत सिद्धांत, विशेष रूप से अजातिवाद को स्थापित किया। उनका योगदान भारतीय दर्शन में अद्वितीय है, क्योंकि उन्होंने समन्वय के मार्ग को अपनाकर अपने अद्वैत मत को प्रतिष्ठापित किया, जिसका मूल शंकराचार्य ने भी अपनाया।

आत्मा के नित्यत्व में विश्वास (बौद्धों से भिन्न)

गौड़पाद, अद्वैत वेदांत के एक प्रमुख आचार्य थे, और उनके माण्डूक्य कारिका ग्रंथ में आत्मा के स्वरूप और बौद्ध धर्म के साथ इसके संबंध पर महत्वपूर्ण चर्चा की गई है।

आत्मा के नित्यत्व में विश्वास (बौद्धों से भिन्न):

गौड़पाद का मूल सिद्धांत 'अजातिवाद' है, जिसका अर्थ है कि जगत की वास्तव में उत्पत्ति नहीं हुई है; केवल एक अखण्ड चिदघन सत्ता ही मोहवश प्रपञ्च के रूप में भास रही है। माण्डूक्य उपनिषद और कारिका आत्मा की चार अवस्थाओं - जाग्रत (स्थूल), स्वप्न (सूक्ष्म), सुषुप्ति (कारण), और तुरीय (चौथी अवस्था) का वर्णन करते हैं। गौड़पाद के अनुसार, आत्मा की तुरीयावस्था अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है। यह आत्मा, अलक्षण, अग्राह्य, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गौड़पाद आत्मा के नित्य और अविनाशी स्वरूप में दृढ़ विश्वास रखते हैं। वह तुरीय को एक अवस्था नहीं मानते जो आती-जाती है, बल्कि वह चेतना है जो सभी अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) की साक्षी है। यह तुरीय न तो उत्पन्न होती है और न ही किसी को उत्पन्न करती है।

बौद्ध धर्म से संबंध:

गौड़पाद के दर्शन और बौद्ध धर्म के बीच कुछ समानताएँ और भिन्नताएँ बताई गई हैं:

  • समानताएँ और बौद्धों से संबंध के आरोप:

    • कुछ विद्वानों का मत है कि गौड़पाद को "गुप्त बौद्ध" कहा जा सकता है, क्योंकि उनकी कारिकाओं में, विशेषकर चतुर्थ प्रकरण (अलातशान्ति प्रकरण) में, बौद्ध दर्शन के कई शब्दों और तर्कों का प्रयोग हुआ है।

    • अलातशान्ति प्रकरण के आरंभ में बुद्ध की स्तुति भी की गई है (तं वंदे द्विपदांबरम्)।

    • गौड़पाद का अजातिवाद माध्यमिक बौद्ध दर्शन की पद्धति पर आधारित है।

    • उनके द्वारा प्रतिपादित आत्मा का स्वरूप कभी-कभी योगाचार (एक बौद्ध संप्रदाय) के विज्ञान (आलय) की अनुकृति जैसा प्रतीत होता है।

    • उन्होंने बौद्धों की तर्क पद्धति को अपनाया।

  • बौद्ध धर्म से भिन्नता (आत्मा के नित्यत्व के संदर्भ में):

    • इन समानताओं के बावजूद, गौड़पाद को एक शुद्ध वेदांती माना जाता है।

    • उनका आगम (उपनिषदों) में पूर्ण विश्वास है, और उन्होंने कई प्राचीन उपनिषदों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है।

    • बौद्ध संप्रदाय 'अनात्मवाद' (आत्मा नहीं है) का प्रबल समर्थक है, जो आत्मा के नित्य स्वरूप का घोर विरोध करता है। बौद्ध धर्म में, सभी चीजें अनित्य, दुःखमय और अनात्म (यानी, शाश्वत आत्म के बिना) मानी जाती हैं [बाह्य जानकारी]।

    • इसके विपरीत, गौड़पाद स्पष्ट रूप से कहते हैं कि एक आत्मा ही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में रहते हुए भी शुद्ध तुरीयावस्था (चतुर्थ अवस्था) में स्थित है, जहाँ वह न तो स्वयं किसी कारण से उत्पन्न है और न किसी कार्य को उत्पन्न करती है। आत्मा का यह नित्यत्व बौद्धों को स्वीकार्य नहीं है

    • बौद्ध आचार्यों जैसे भावविवेक, शांतारक्षित और कमलशील ने गौड़पाद का खंडन किया है, जो दर्शाता है कि गौड़पाद का दर्शन बौद्धों से भिन्न था।

    • गौड़पाद ने यह दिखाने का प्रयास किया कि बौद्ध विचारधारा और औपनिषदिक विचारधारा में तत्वतः कोई विरोध नहीं है, और जो विरोध प्रतीत होता है वह अज्ञान के कारण है। उनका उद्देश्य आत्मा की अद्वैतता सिद्ध करना था, जैसा कि उपनिषदों में प्रतिपादित है।

    • स्वामी सर्वप्रियानंद के अनुसार, तुरीय कोई अवस्था नहीं है जो आती-जाती है, बल्कि यह वह चेतना है जो सभी अवस्थाओं की साक्षी है। यह आत्मा की अनित्य धारणा से भिन्न है, जो बौद्ध दर्शन की विशेषता है।

संक्षेप में, जबकि गौड़पाद ने अपने तर्क और कुछ शब्दावली में बौद्ध दर्शन से प्रेरणा ली हो सकती है, आत्मा की नित्य, अविनाशी और अपरिवर्तनशील प्रकृति में उनका अटल विश्वास उन्हें बौद्धों से मौलिक रूप से अलग करता है, जो अनात्मवाद का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं।


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