Tuesday, August 12, 2025

पंचदशी: अध्याय 2: पंच महाभूत विवेक 2

 🪷 श्लोक 54

न कृष्ट्नं ब्रह्मा वृत्तिः सा शक्तिः किं त्वेकदेशभाक्। घटशक्तिर्यथा भूमौ स्निग्धमृद्येव वर्तते॥

🧭 भावार्थ:

अब प्रश्न उठता है — क्या माया सम्पूर्ण ब्रह्म में कार्य करती है?

  • उत्तर: नहीं। माया की वृत्ति सम्पूर्ण ब्रह्म में नहीं होती — वह केवल एकदेशीय है।

  • जैसे मृत्तिका में घट बनने की शक्ति होती है, पर हर मिट्टी में नहीं — केवल स्निग्ध, उपयुक्त मिट्टी में।

उदाहरण:

  • मिट्टी में घट बनने की शक्ति तभी प्रकट होती है जब कुम्हार, चाक, जल, आदि सहायक कारण हों।

  • वैसे ही माया भी केवल विशिष्ट उपादानों के साथ ब्रह्म में कार्यशील होती है।

निष्कर्ष:

  • माया सम्पूर्ण ब्रह्म में नहीं फैलती — वह एकदेशीय है।

  • ईश्वर का निर्गुण पक्ष माया से रहित है, और सगुण पक्ष में माया कार्य करती है।

🔍 समग्र विवेचन:

तत्व

विश्लेषण

शक्ति

वस्तु से अविभाज्य, स्वतंत्र नहीं

माया

ब्रह्म में एकदेशीय, सृष्टि हेतु कार्यशील

ब्रह्म

माया से परे भी है, और माया के साथ भी

🪷 श्लोक 55

पादोऽस्य सर्वा भूतानि त्रिपादस्ति स्वयं प्रभः। इत्येकदेशवृत्तित्वं मायया वदति श्रुतिः॥

🧭 भावार्थ:

यह पुरुषसूक्त का प्रसिद्ध मंत्र है: "पादोऽस्य सर्वा भूतानि, त्रिपादस्तु स्वयं प्रभः" — सभी जीव और सृष्टि केवल एक चौथाई हैं, और तीन चौथाई ब्रह्म अप्रकट, निर्मल, माया से परे हैं।

  • माया की वृत्ति केवल एकदेशीय है — वह सम्पूर्ण ब्रह्म में कार्य नहीं करती।

  • यदि पूरा ब्रह्म ही सृष्टि बन गया होता, तो मोक्ष असंभव होता — क्योंकि ब्रह्म ही नहीं बचता।

निष्कर्ष:

  • ब्रह्म का अपरिवर्तनीय, अविकारी, माया से अछूता पक्ष सदैव अस्तित्वमान है।

  • पंथीवाद (Pantheism) की धारणा — कि ईश्वर ही सृष्टि बन गया — अपूर्ण है, क्योंकि वह ईश्वर की पारमार्थिकता को नकारती है।

🪷 श्लोक 56

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्। इति कृष्णोऽर्जुनायाह जगतस्त्वेकदेशताम्॥

🧭 भावार्थ:

यह भगवद्गीता का श्लोक है (10.42): "एकांशेन स्थितो जगत्" — श्रीकृष्ण कहते हैं: "मैं इस सम्पूर्ण जगत को केवल एक अंश से धारण करता हूँ।"

  • ईश्वर स्वयं संपूर्ण रूप से सृष्टि में लिप्त नहीं होता।

  • जैसे हम कार्य में व्यस्त रहते हुए भी स्वयं को पूर्णतः उसमें विलीन नहीं करते — वैसे ही ईश्वर भी सृष्टि में अंशतः कार्य करता है।

निष्कर्ष:

  • ईश्वर का एक अंश ही माया के माध्यम से सृष्टि में कार्य करता है।

  • ईश्वर का शेष स्वरूप निर्मल, अविकारी, स्वयंप्रभ रहता है — वही मोक्ष का आधार है।

🔍 समग्र विवेचन:

तत्व

विश्लेषण

माया

ब्रह्म में एकदेशीय, सम्पूर्ण ब्रह्म को नहीं व्यापती

ब्रह्म

त्रिपाद रूप में माया से परे, स्वयंप्रभ

सृष्टि

केवल एक अंश में प्रकट, माया द्वारा

ईश्वर

सगुण रूप में सृष्टि में कार्यशील, परंतु पूर्णतः विलीन नहीं

🪷 श्लोक 57

स भूमिं विश्वतो वृत्त्वा अत्यतिष्ठ दशाङ्गुलम्। विकारावर्ति चात्रास्ति श्रुति सूत्र कृतोर्वचः॥

🧭 भावार्थ:

यह पुरुषसूक्त का प्रसिद्ध मंत्र है: "स भूमिं विश्वतो वृत्त्वा अत्यतिष्ठ दशाङ्गुलम्" — ईश्वर सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त करके भी उससे ऊर्ध्व है — दश अंगुल ऊपर।

  • यह दश अंगुल कोई भौतिक माप नहीं है — यह अनंतता का संकेत है।

  • संख्या दस = एक और शून्यसंख्याओं से परे, असंख्य, अनंत

निष्कर्ष:

  • ईश्वर सृष्टि में व्याप्त है, पर विलीन नहीं है।

  • वह माया से अछूता, अविकारी, स्वयंप्रभ है — निर्गुण ब्रह्म

🪷 श्लोक 58

निरंशेऽप्यंशमारोप्य कृत्स्नेम्शे वेति पृच्छतः। तद्भाषयोत्तरं ब्रूते श्रुतिः श्रोत्र हितैषिणी॥

🧭 भावार्थ:

अब प्रश्न उठता है — क्या ब्रह्म को भागों में बाँटा जा सकता है?

  • त्रिपाद और एकपाद की बात गणितीय विभाजन नहीं है — यह तार्किक और भाषिक उत्तर है।

  • श्रुति (वेद) श्रोताओं की समझ के अनुसार उत्तर देती है — शब्दों में अनंत को व्यक्त करना कठिन है।

निष्कर्ष:

  • ब्रह्म को वास्तविक रूप में विभाजित नहीं किया जा सकता।

  • माया की एकदेशीयता केवल तार्किक दृष्टांत है — भौतिक विभाजन नहीं।

🔍 समग्र विवेचन:

तत्व

विश्लेषण

दशाङ्गुलम्

अनंतता का प्रतीक, ब्रह्म की पारमार्थिकता

त्रिपाद–एकपाद

तार्किक विभाजन, गणितीय नहीं

ब्रह्म

अविभाज्य, माया से अछूता, स्वयंप्रभ

श्रुति

श्रोताओं की समझ के अनुसार प्रतीकात्मक भाषा

🪷 श्लोक 59

सत्तत्त्वमाश्रिता शक्तिः कल्पयेत् सति विक्रियाः। वर्णा भित्तिगताः भित्तौ चित्रं नानाविधं तथा॥

🧭 भावार्थ:

जब ईश्वर की शक्तिमायाशुद्ध सत्ता पर आश्रित होती है, तब वह नाम-रूप की विविधता को कल्पित करती है।

  • जैसे दीवार पर वर्ण (रंग) चित्र बनाते हैं, वैसे ही माया सत्ता रूपी पृष्ठभूमि पर सृष्टि का चित्र बनाती है।

  • वर्ण दीवार से अलग नहीं होते, पर दीवार वर्ण नहीं है — उसी प्रकार माया ब्रह्म से अलग नहीं है, पर ब्रह्म नहीं है।

निष्कर्ष: माया न तो स्वतंत्र सत्ता है, न ही ब्रह्म से पूर्णतः अभिन्न — वह अविभाज्य, अवर्णनीय, और कार्यशील शक्ति है।

🪷 श्लोक 60

आद्यो विकार आकाशः सोऽवकाशस्वरूपवान्। आकाशोऽस्तीति सत्तत्त्वम् आकाशेऽप्यनुगच्छति॥

🧭 भावार्थ:

माया की प्रथम अभिव्यक्ति है — आकाश

  • सृष्टि के लिए पहले स्थान और काल की आवश्यकता होती है।

  • स्थान = विस्तार, काल = अवधि — इन दोनों के बिना सृष्टि असंभव है।

उदाहरण:

  • जैसे स्वप्न में पहले स्थान और काल की कल्पना होती है, फिर नाम-रूप प्रकट होते हैं — वैसे ही ईश्वर ने सृष्टि की कल्पना की।

निष्कर्ष:

  • आकाश की गुण है — अवकाश (accommodation)।

  • जब हम कहते हैं: "आकाश है", तो हम सत्ता को आकाश में अनुगत मानते हैं।

  • विस्तार और अस्तित्व — ये दोनों गुण हैं आकाश के, जो ब्रह्म पर आश्रित हैं।

🔍 समग्र विवेचन:

तत्व

विश्लेषण

माया

ब्रह्म पर आश्रित शक्ति, नाम-रूप की सृष्टि करती है

चित्र-दीवार दृष्टांत

माया = रंग, ब्रह्म = दीवार

आकाश

प्रथम विकार, अवकाश का प्रतीक

ब्रह्म

आकाश में भी अनुगत, सत्ता का आधार

🪷 श्लोक 61

एकस्वभावं सत्तत्त्वम् आकाशो द्विस्वभावकः। नावकाशः सति व्योम्नि स चैषोऽपि द्वद्वयं स्थितम्॥

🧭 भावार्थ:

  • सत्तत्त्वम् (Pure Existence) का स्वभाव केवल एक है — अस्तित्व

  • परंतु आकाश में दो गुण हैं — अस्तित्व और विस्तार (spatiality)।

🔍 विवेचन:

  • ब्रह्म केवल अस्तित्व है — वह मापनीय नहीं है, विस्तृत नहीं है।

  • आकाश में अवकाश है — वह मापनीय है, विस्तार है।

  • इसलिए, ब्रह्म = एकस्वभाव (अस्तित्व); आकाश = द्विस्वभाव (अस्तित्व + विस्तार)।

🖼️ दृष्टांत:

जैसे दीवार पर रंगों से चित्र बनता है, वैसे ही माया सत्ता पर नाम-रूप का चित्र बनाती है। पर दीवार में रंगों का गुण नहीं होता — उसी तरह ब्रह्म में विस्तार नहीं होता।

🪷 श्लोक 62

यद्वा प्रतिध्वनिः व्योम्नो गुणो नासौ सती क्ष्यते। व्योम्नि द्वौ सद् ध्वनी तेन सदेकं द्विगुणं वियत्॥

🧭 भावार्थ:

  • प्रतिध्वनि (echo) भी आकाश का गुण है।

  • परंतु ब्रह्म में कोई ध्वनि नहीं होती — वह निःशब्द, अविकारी, अविस्तृत है।

🔍 विवेचन:

  • आकाश में दो गुण हैं:

    • सत् (Existence)

    • ध्वनि (Sound propagation)

  • ब्रह्म में केवल सत् है — न ध्वनि, न विस्तार।

🧠 दार्शनिक निष्कर्ष:

तत्व

गुण 1

गुण 2

स्वरूप

ब्रह्म

अस्तित्व

एकस्वभाव

आकाश

अस्तित्व

विस्तार/ध्वनि

द्विस्वभाव


  • ब्रह्म = अमूर्त, अमापनीय, निःशब्द, अविकारी

  • आकाश = मूर्त, मापनीय, ध्वनि-युक्त, विकारी

🪷 श्लोक 63

या शक्तिः कल्पयेद् व्योम सा सद्व्योम्नोऽरभिन्नताम्। आपाद्य धर्मधर्मित्वं व्यत्ययेनाव कल्पयेत्॥

🧭 भावार्थ:

  • माया की शक्ति सत्ता और व्योम (आकाश) को अभिन्न रूप में प्रस्तुत करती है।

  • वह धर्म (गुण) और धर्मी (अधिष्ठान) को उलट-पुलट कर देती है।

🔍 विवेचन:

  • ब्रह्म = सत्ता मात्र; आकाश = सत्ता + विस्तार

  • माया हमें ऐसा भ्रम देती है कि विस्तार ही सत्ता है — जैसे हम कहते हैं: “आकाश है”।

  • यहाँ वाक्य रचना भी भ्रमित है — सत्ता को गुण मानते हैं, और आकाश को वस्तु

🧠 दार्शनिक त्रुटि:

  • वास्तव में:

    • सत्ता = धर्मी (Substance)

    • विस्तार = धर्म (Attribute)

  • परंतु माया इसे उलट देती है — जिससे संसार वास्तविक प्रतीत होता है।

🪷 श्लोक 64

सतो व्योमत्वमापन्नं व्योम्नः सत्तां तु लौकिकाः। तार्किकाश्चावगच्छन्ति मायायाः उचितं हि तत्॥

🧭 भावार्थ:

  • सत्ता को विस्तार में परिवर्तित कर दिया गया — यह माया का कार्य है।

  • न्याय और वैशेषिक जैसे तार्किक भी इस भ्रम में पड़ जाते हैं — वे आकाश को स्वतंत्र वस्तु मानते हैं।

🔍 विवेचन:

  • न्याय-वैशेषिक दर्शन में 9 स्वतंत्र वस्तुएँ मानी जाती हैं:

    • पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश

    • काल, दिशा, मन, आत्मा

  • वे सत्ता को गुण मानते हैं, और आकाश को वस्तु — यह माया का प्रभाव है।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

वास्तविक स्थिति

माया द्वारा भ्रमित स्थिति

सत्ता (ब्रह्म)

मूल अधिष्ठान (धर्मी)

गुण (predicate)

आकाश

गुण (विस्तार)

वस्तु (noun)


  • माया = वास्तविकता का उलट-पुलट

  • ज्ञान का विकार = जब गुण

🪷 श्लोक 65

यद्यथा वर्तते तस्य तथात्वं भाति मानतः। अन्यथात्वं भ्रमेणेति न्यायोऽयं सार्वलौकिकः॥

🧭 भावार्थ:

  • जो वस्तु जैसी है, वह वैसी ही प्रतीत होनी चाहिए — यह सत्य का नियम है।

  • परंतु माया के कारण वस्तु अन्यथा प्रतीत होती है — भ्रम उत्पन्न होता है।

🔍 विवेचन:

  • सत्य का अनुभव तभी संभव है जब बुद्धि, इंद्रियाँ, और मन शुद्ध हों।

  • माया इन सबको विकृत कर देती है — जिससे संसार वास्तविक प्रतीत होता है।

  • सत्य को गुण मानते हैं, और नाम-रूप को वस्तु — यह भ्रम है।

🪷 श्लोक 66

एवं श्रुतिविचारात् प्राग् यथा यद्वस्तु भासते। विचारेण विपर्येति ततस्तच्चिन्त्यतां वियत्॥

🧭 भावार्थ:

  • श्रुति और तर्क से जब हम विचार करते हैं, तो वस्तु की वास्तविकता का उलट हो जाता है।

  • जो बाह्य प्रतीत होता है, वह वास्तव में आत्मिक है।

  • विचार से भ्रम का निवारण होता है — और सत्य का प्रकाश होता है।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

स्थिति

माया के कारण

विवेक के कारण

वस्तु

अन्यथा प्रतीत होती है

यथार्थ रूप में जानी जाती है

सत्ता

गुण के रूप में देखी जाती है

अधिष्ठान के रूप में पहचानी जाती है

आत्मा

अस्पष्ट

विशुद्ध, स्पष्ट

🧘‍♂️ साधक के लिए संकेत:

  • श्रवण, मनन, और निदिध्यासन के द्वारा माया के भ्रम को छिन्न किया जा सकता है।

  • विचार ही मुक्ति का मार्ग है — जिससे सत्ता और नाम-रूप का भेद स्पष्ट होता है।

🪷 श्लोक 60–64: माया की प्रथम अभिव्यक्ति और तत्व-भ्रम

आद्यो विकार आकाशः सोऽवकाशस्वरूपवान्। आकाशोऽस्तीति सत्तत्त्वम् आकाशेऽप्यनुगच्छति॥ (60) एकस्वभावं सत्तत्त्वम् आकाशो द्विस्वभावकः। नावकाशः सति व्योम्नि स चैषोऽपि द्वद्वयं स्थितम्॥ (61) यद्वा प्रतिध्वनिः व्योम्नो गुणो नासौ सती क्ष्यते। व्योम्नि द्वौ सद् ध्वनी तेन सदेकं द्विगुणं वियत्॥ (62) या शक्तिः कल्पयेद् व्योम सा सद्व्योम्नोऽरभिन्नताम्। आपाद्य धर्मधर्मित्वं व्यत्ययेनाव कल्पयेत्॥ (63) सतो व्योमत्वमापन्नं व्योम्नः सत्तां तु लौकिकाः। तार्किकाश्चावगच्छन्ति मायायाः उचितं हि तत्॥ (64)

🧭 भावार्थ और दार्शनिक विवेचन:

1. माया की प्रथम अभिव्यक्ति — आकाश
  • शुद्ध सत्ता (सत्तत्त्व) की प्रथम विकृति है आकाश

  • आकाश में अवकाश (extension) का गुण है — परंतु ब्रह्म में नहीं।

2. गुण और धर्मी का भ्रम
  • ब्रह्म = एकस्वभाव (केवल अस्तित्व)

  • आकाश = द्विस्वभाव (अस्तित्व + विस्तार)

  • माया हमें ऐसा भ्रम देती है कि विस्तार ही अस्तित्व है।

3. वाक्य-विन्यास में भ्रांति
  • जब हम कहते हैं: “आकाश है” — हम आकाश को वस्तु और सत्ता को गुण मानते हैं।

  • सही वाक्य होना चाहिए: “सत्ता आकाशित होती है” — Existence ethers, not Ether exists.

4. ध्वनि का गुण
  • आकाश में ध्वनि की प्रतिध्वनि संभव है — पर ब्रह्म में नहीं।

  • अतः आकाश में तीन गुण:

    • अस्तित्व

    • विस्तार

    • ध्वनि

  • ब्रह्म में केवल एक: अस्तित्व।

5. तार्किकों की भ्रांति
  • न्याय और वैशेषिक दर्शन आकाश को स्वतंत्र वस्तु मानते हैं।

  • वे सत्ता को गुण और आकाश को वस्तु मानते हैं — यह माया का प्रभाव है।

🧠 निष्कर्ष तालिका:

तत्व

वास्तविक स्थिति

माया द्वारा भ्रमित स्थिति

ब्रह्म

अधिष्ठान (सत्ता)

गुण (predicate)

आकाश

गुण (विस्तार, ध्वनि)

वस्तु (noun)

वाक्य

“सत्ता आकाशित होती है”

“आकाश है”

🪔 उपसंहार:

माया न केवल सत्ता को गुण बना देती है, बल्कि वस्तु को मूल मानकर कारण-कार्य के क्रम को उलट देती है। यह भाषा, बुद्धि, और अनुभव — तीनों स्तरों पर विकृति उत्पन्न करती है। विवेक और श्रवण-मनन से ही इस भ्रम का निवारण संभव है।

🪷 श्लोक 65

यद्यथा वर्तते तस्य तथात्वं भाति मानतः। अन्यथात्वं भ्रमेणेति न्यायोऽयं सार्वलौकिकः॥

🧭 भावार्थ:

  • जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही जानना — यही सत्यज्ञान है।

  • परंतु माया के कारण वस्तु अन्यथा प्रतीत होती है — भ्रम उत्पन्न होता है।

🔍 विवेचन:

  • सत्य को जानने के लिए इंद्रिय और बुद्धि पर्याप्त नहीं हैं।

  • सत्य का साक्षात्कार केवल प्रत्यक्ष आत्मानुभूति से संभव है — senses और logic से नहीं।

  • माया दो भ्रम उत्पन्न करती है:

    1. वस्तु बाह्य है — जबकि वह सर्वव्यापक सत्ता है।

    2. सत्ता नाम-रूप की गुण है — जबकि वह मूल अधिष्ठान है।

🪷 श्लोक 66

एवं श्रुतिविचारात् प्राग् यथा यद्वस्तु भासते। विचारेण विपर्येति ततस्तच्चिन्त्यतां वियत्॥

🧭 भावार्थ:

  • श्रुति और तर्क से जब हम विचार करते हैं, तो वस्तु की वास्तविकता का उलट हो जाता है।

  • जो बाह्य प्रतीत होता है, वह वास्तव में आत्मिक है।

  • इसलिए आकाश (space) की स्वभाविकता पर गंभीर विचार करना चाहिए।

🔍 संकेत:

  • विचार से भ्रम का निवारण होता है।

  • सत्ता को पंचमहाभूतों से अलग करना आवश्यक है — विशेषतः आकाश से।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

माया के कारण भ्रम

विवेक से यथार्थ

सत्ता

नाम-रूप का गुण

मूल अधिष्ठान

आकाश

वस्तु

सत्ता का गुण

ज्ञान

इंद्रिय-बुद्धि आधारित

आत्मानुभूति आधारित

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • श्रवण, मनन, और निदिध्यासन से ही माया के भ्रम को छिन्न किया जा सकता है।

  • विचार ही मुक्ति का मार्ग है — जिससे सत्ता और नाम-रूप का भेद स्पष्ट होता है।

🪷 श्लोक 67

भिन्ने वियतती शब्द भेदाद बुद्धेश्च भेदतः। वाय्वादिष्वनुवृत्तं सत् न तु व्योमेति भेदधीः॥

🧭 भावार्थ:

  • सत्ता और आकाश दो अलग-अलग तत्व हैं।

  • आकाश में विस्तार और ध्वनि की प्रतिध्वनि जैसे गुण हैं — जो शुद्ध सत्ता में नहीं पाए जाते।

🔍 विवेचन:

  • विस्तार = मापनीयता → विभाजन संभव → नश्वरता।

  • बुद्धि भी कहती है कि विस्तार शुद्ध सत्ता का गुण नहीं हो सकता।

  • सत्ता = अविभाज्य, अविनाशी; आकाश = विभाज्य, नश्वर

🧠 अन्वय-व्यातिरेक दृष्टिकोण:

  • वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी — इन सबमें सत्ता है, पर विस्तार नहीं।

  • सत्ता = सर्वत्र अनुवृत्त (invariable); गुण = स्थानीय और भिन्न

🪷 श्लोक 68

सद्वस्त्वधिकवृत्तित्वात् धर्मा व्योम्नस्तु धर्मता। धिया सतः पृथक्कारे ब्रूहि व्योम किमातकम्॥

🧭 भावार्थ:

  • सत्ता = धर्मी (substratum); आकाश = धर्म (attribute)।

  • सत्ता सभी तत्वों में पूर्वगामी है — वह मूल कारण है।

  • यदि सत्ता को विस्तार से अलग कर दें, तो विस्तार का अस्तित्व ही नहीं रहेगा।

🔍 विवेचन:

  • व्योम (space) को सत्ता से अलग करें → वह असत् हो जाता है।

  • विस्तार केवल सत्ता के साथ जुड़कर प्रतीत होता है — स्वयं में उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

वास्तविक स्थिति

माया द्वारा भ्रमित स्थिति

सत्ता

मूल अधिष्ठान (धर्मी)

गुण (predicate)

आकाश

गुण (विस्तार, ध्वनि)

वस्तु (noun)

वाक्य

“सत्ता आकाशित होती है”

“आकाश है”


  • सत्ता = नित्य, अविभाज्य, सर्वव्यापक

  • आकाश = नश्वर, विभाज्य, गुणात्मक

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • अन्वय-व्यातिरेक से सत्ता को तत्वों से अलग करना सीखें।

  • विचार करें: यदि सत्ता न हो, तो विस्तार भी नहीं हो सकता।

  • व्योम की स्वतंत्र सत्ता नहीं है — वह माया का प्रतीत मात्र है।

🪷 श्लोक 69

अवकाशात्मकं तत् चेत् असत्तदिति चिन्त्यताम्। भिन्नं सतोऽसच्च नेति वक्षि चेत् व्याहतिस्तव॥

🧭 भावार्थ:

  • यदि आकाश को केवल अवकाश (extension) मानें, और उसे सत्ता से अलग करें — तो वह असत् हो जाता है।

  • सत्ता से विभिन्न होकर आकाश का अस्तित्व नहीं हो सकता।

🔍 विवेचन:

  • विस्तार स्वयं में स्वतंत्र सत्ता नहीं है — वह सत्ता पर आश्रित है।

  • यदि हम कहें: “आकाश है” — तो यह भ्रम है, क्योंकि सत्ता को गुण मानते हैं और आकाश को वस्तु

  • दृष्टिगोचरता (visibility) सत्यता का प्रमाण नहीं है — जैसे मृगतृष्णा, रस्सी में साँप, स्वप्न के हाथी

🪷 श्लोक 70

भाति चेत् भातु नाम भूषणं मायिकस्य तत्। यदसद्भासमानं तत् मिथ्या स्वप्नगजादिवत्॥

🧭 भावार्थ:

  • यदि कोई कहे: “मैं आकाश को देख रहा हूँ, इसलिए वह है” — तो यह मायिक भास है।

  • भास (appearance) ≠ सत्य — जैसे स्वप्न में हाथी दिखते हैं, पर वास्तव में नहीं होते

🔍 विवेचन:

  • माया वस्तुओं को भासमान बनाती है — पर वे मिथ्या हैं।

  • सत्य वह है जो सत्ता से अभिन्न हो; जो सत्ता से अलग है, वह मिथ्या है।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

माया के कारण भ्रम

विवेक से यथार्थ

आकाश

वस्तु, स्वतंत्र सत्ता

सत्ता का गुण, असत्

दृष्टिगोचरता

सत्य का प्रमाण

भ्रम का कारण

भास

अस्तित्व का संकेत

मिथ्या, यदि सत्ता से अलग

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • विचार करें: क्या जो दिखता है, वह वास्तव में है?

  • सत्ता को गुण नहीं, मूल अधिष्ठान मानें।

  • स्वप्न, मृगतृष्णा, रस्सी में साँप — ये सब माया के उदाहरण हैं।

🪷 श्लोक 71

जातिव्यक्तिदेहीदेनौ गुणद्रव्ये यथा पृथक्। वियत्सतोस्तथैवास्तु पार्थक्यं कोऽत्र विस्मयः॥

🧭 भावार्थ:

  • जैसे जाति और व्यक्ति, गुण और द्रव्य, देह और अंग — ये सब पृथक होते हैं,

  • वैसे ही व्योम (आकाश) और सत्ता भी पृथक हैं।

🔍 विवेचन:

  • सत्ता = मूल अधिष्ठान (substratum)

  • व्योम = गुणात्मक प्रकटता (attribute)

  • गुण को द्रव्य नहीं माना जा सकता — जैसे रंग दीवार नहीं होता।

🪷 श्लोक 72

बुद्धोऽपि भेदो नो चित्ते निरूढिं याति चेत् तदा। अनैकाग्र्यात् संशयाद्वा रूढिभावोऽस्य ते वद॥

🧭 भावार्थ:

  • यदि भेद समझ में नहीं आता, तो कारण है:

    • अनैकाग्रता (lack of concentration)

    • या संशय (doubt)

  • रूढ़ि (habitual perception) भी भ्रम को पुष्ट करती है।

🧠 संकेत:

  • संसार को सत्य मानने की आदतमाया का प्रभाव है।

  • विचार और ध्यान से ही भ्रम का निवारण संभव है।

🪷 श्लोक 73

अप्रमाटो भव ध्यानात् आद्येऽन्यास्मिन् विवेचनम्। कुरु प्रमाणयुक्तिभ्यां ततः रूढतमो भवेत्॥

🧭 भावार्थ:

  • ध्यान, प्रमाण, और युक्ति से विवेक उत्पन्न होता है।

  • इससे रूढ़ि का तमस (अज्ञान) नष्ट होता है।

🔍 साधना:

  • ध्यान = चित्त की एकाग्रता

  • प्रमाण = शास्त्र और अनुभव

  • युक्ति = तर्क और विवेक

🪷 श्लोक 74

ध्यानात् मानात् युक्तितोऽपि रूढे भेदे वियत्सतः। न कदाचित् वियत् सत्यं सद्वस्तु छिद्रवन्न च॥

🧭 भावार्थ:

  • जब ध्यान, मान, और युक्ति से सत्ता और व्योम का भेद स्पष्ट हो जाता है,

  • तब यह निश्चय होता है कि व्योम (space) सत्य नहीं है — वह छिद्रवत् (void-like) है।

🧠 निष्कर्ष:

  • सत्ता = नित्य, अविभाज्य, सत्य

  • व्योम = छिद्रवत्, असत्, प्रतीत मात्र

🪔 समग्र विवेचन:

तत्व

वास्तविक स्थिति

माया द्वारा भ्रमित स्थिति

सत्ता

मूल अधिष्ठान, सत्य

गुण, प्रतीत मात्र

आकाश

गुण, असत्

वस्तु, स्वतंत्र सत्ता

दृष्टिगोचरता

सत्य का प्रमाण नहीं

भ्रम का कारण

🪷 श्लोक 75

ज्ञस्य भाति सदा व्योम निस्तत्त्वोल्लेखपूर्ववत्। सद्वस्त्वपि विभात्यस्य निच्छिद्रत्वपुरःसरम्॥

🧭 भावार्थ:

  • ज्ञानी पुरुष (जिवन्मुक्त) को सत्ता सर्वत्र प्रकाशमान दिखती है — जैसे सूर्य के प्रकाश में सब कुछ दीप्त होता है।

  • वह विस्तार, दूरी, आकाश नहीं देखता — केवल सत्ता का प्रवाह देखता है।

🔍 विवेचन:

  • सत्ता = अखंड, अद्वितीय, सर्वव्यापक

  • आकाश = छिद्रवत्, गुणात्मक, मायिक

  • ज्ञानी को सत्ता की नित्य उपस्थिति का साक्षात् अनुभव होता है — उसे तर्क या इंद्रिय की आवश्यकता नहीं।

🪷 श्लोक 76

वासनायां प्रवृद्धायां व्ययत्सत्यत्ववादिनम्। सन्मात्रा बोधयुक्तं च दृष्ट्वा विस्मयते बुधः॥

🧭 भावार्थ:

  • जो लोग आकाश और नाम-रूप को सत्य मानते हैं — वे वासना से आवृत्त हैं।

  • ज्ञानी उन्हें देखकर मुस्कराते हैं — जैसे बच्चों की मिठाई के हाथी की मांग पर माता-पिता मुस्कराते हैं।

🧠 दृष्टांत:

  • बच्चा कहता है: “मुझे हाथी चाहिए” — पर वह चीनी का बना है।

  • ज्ञानी जानता है: “सब कुछ सत्ता है” — नाम-रूप केवल मायिक आकार हैं।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

दृष्टिकोण

अज्ञानी

ज्ञानी

आकाश

वस्तु, सत्य

गुण, असत्

नाम-रूप

स्वतंत्र सत्ता

सत्ता का आकार

दृष्टिगोचरता

सत्य का प्रमाण

भ्रम का कारण

व्यवहार

वस्तु की मांग

सत्ता का साक्षात्कार

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • सत्य को देखने के लिए तर्क नहीं, अनुभव चाहिए।

  • ध्यान, विचार, और वैराग्य से मायिक भेद मिटते हैं।

  • सत्ता को सर्वत्र देखना — यही ज्ञान है।

🪷 श्लोक 77

एवमाकाशमिथ्यात्वे सत्सत्यत्वे च वासिते। न्यायेनानेन वाय्वादेः सद्वस्तु प्रविविच्यताम्॥

🧭 भावार्थ:

  • जब तर्क और विवेक से यह निश्चित हो गया कि आकाश की स्वतंत्र सत्ता नहीं है — वह मिथ्या है,

  • तब यही विवेचन विधि अन्य महाभूतोंवायु, अग्नि, जल, पृथ्वी — पर भी लागू करनी चाहिए।

🔍 दार्शनिक विवेचन:

  • जैसे आकाश केवल सत्ता का गुणात्मक प्रकट रूप है — वैसे ही वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी भी सत्ता के नाम-रूप हैं।

  • इन तत्वों की ठोसता, भय, स्पर्श, दूरी — सब मायिक प्रतीति हैं।

  • चीनी के शेर की तरह — जो दिखता है, डराता है, पर वास्तव में केवल चीनी है।

🧠 दृष्टांत:

  • जैसे चीनी से बने हाथी, बिस्किट, ट्रेन — सब वस्त्र रूप हैं, पर सार एक ही है: चीनी

  • वैसे ही संसार के पंचमहाभूत — सब सत्ता के आकार हैं, स्वतंत्र वस्तु नहीं।

🪔 उपसंहार:

  • ज्ञानी जानता है:

    • वस्तु नहीं, सत्ता को पूजना चाहिए।

    • मंदिर, वृक्ष, पत्थर — सब सत्ता के आवरण हैं।

  • पूजा = सत्ता के साक्षात्कार की प्रक्रिया

🧘‍♂️ साधक के लिए संकेत:

  • वस्तु को नहीं, सत्ता को देखो

  • आभूषण नहीं, सोना देखो।

  • फर्नीचर नहीं, लकड़ी देखो।

  • कुत्ता नहीं, पत्थर देखो।

  • पंचमहाभूत नहीं, सद्वस्तु देखो।

🪷 श्लोक 78

सद्वस्तु न्येकदेशस्था माया तत्रैकदेशगम्। वियत् तत्राप्येकदेशगतो वायुः प्रकल्पितः॥

🧭 भावार्थ:

  • सद्वस्तु (शुद्ध सत्ता) = सर्वव्यापक, अविभाज्य।

  • माया = केवल एकदेशीय रूप में सत्ता पर आरोपित होती है।

  • व्योम (आकाश) = माया के एक अंश में प्रकट होता है।

  • वायु = व्योम के एक अंश में प्रकट होता है।

🔍 विवेचन:

  • यह क्रमिक प्रकटता है:

    • ब्रह्ममायाव्योमवायु

  • वायु की सत्ता सीमित है — वह सर्वत्र नहीं है, केवल विशिष्ट स्थानों में है।

🪷 श्लोक 79

शोषस्पर्शौ गतिर्वेगः वायुधर्मा इमे मताः। त्रयः स्वभावाः सन्माया व्योम्नां ये तेऽपि वायुगाः॥

🧭 भावार्थ:

  • वायु के तीन प्रमुख गुण:

    1. शोषण (moisture absorption)

    2. स्पर्श (tangibility)

    3. गति और वेग (motion and speed)

🔍 विवेचन:

  • वायु में तीनों तत्वों का मिश्रण है:

    • सत्ता → क्योंकि वायु है

    • माया → क्योंकि वह स्वतंत्र सत्ता नहीं है।

    • व्योम → क्योंकि वह ध्वनि उत्पन्न करता है।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

गुण/धर्म

अधिष्ठान

वायु

शोषण, स्पर्श, गति

सत्ता, माया, व्योम

सत्ता

नित्य, सर्वव्यापक

मूल कारण

माया

एकदेशीय, विकारी

सत्ता पर आरोपित

व्योम

विस्तार, ध्वनि

माया का अंश

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • वायु को स्वतंत्र वस्तु न मानें — वह सत्ता का गुणात्मक प्रकट रूप है।

  • अन्वय-व्यातिरेक से देखें: सत्ता के बिना वायु नहीं है।

  • वायु में सत्ता, माया, और व्योम — तीनों की छाया है।

🪷 श्लोक 80

वायुरस्तीति सद्भावः सतो वायौ पृथक्कृते। निस्तत्त्व रूपता माया स्वभावो व्योमगो ध्वनिः॥

🧭 भावार्थ:

  • जब हम कहते हैं "वायु है", तो हम सत्ता को गुण के रूप में ले लेते हैं, जबकि वह वस्तु है।

  • वायु की सत्ता स्वतंत्र नहीं है — वह ब्रह्म की सत्ता का आरोप है।

  • यदि हम वायु को ब्रह्म से अलग करें, तो वह निस्तत्त्व (शून्य) हो जाती है।

  • वायु का अस्तित्व माया का चित्रण है — नाम, रूप, गति आदि माया के गुण हैं।

  • ध्वनि जो वायु में उत्पन्न होती है, वह व्योम से ली गई है।

🔍 विवेचन:

  • यह श्लोक अन्वय-व्यातिरेक की सूक्ष्मता को दर्शाता है:

    • सत्ता के बिना वायु की कोई वास्तविकता नहीं।

    • वायु केवल ब्रह्म की छाया है — माया द्वारा चित्रित

🪷 श्लोक 81

सतोऽनुवृत्तिः सर्वत्र व्योम्नो नेति पुरे ऋतम्। व्योमानुवृत्तिरधुना कथं न व्याहतं वचः॥

🧭 भावार्थ:

  • सत्ता सभी तत्वों में अनुवृत्त होती है — वह सर्वव्यापक है।

  • व्योम (आकाश) की विस्तार की विशेषता अन्य तत्वों में नहीं जाती।

  • लेकिन ध्वनि की विशेषता — जो व्योम की है — वह वायु, अग्नि आदि में अनुवृत्त होती है।

  • प्रश्न उठता है: पहले कहा कि व्योम आगे नहीं जाता, अब कहते हैं कि जाता है?

  • उत्तर: व्योम के दो पहलू हैं —

    • विस्तारनहीं जाता।

    • ध्वनि-गुणजाता है।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

सत्ता की अनुवृत्ति

व्योम की अनुवृत्ति

टिप्पणी

वायु

है

ध्वनि है

विस्तार नहीं

अग्नि

है

ध्वनि है

विस्तार नहीं

जल

है

ध्वनि है

विस्तार नहीं

पृथ्वी

है

ध्वनि है

विस्तार नहीं

व्योम

है

है

विस्तार और ध्वनि दोनों

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • वायु की सत्ता ब्रह्म से ली गई है, स्वतंत्र नहीं।

  • व्योम की ध्वनि का गुण वायु में आता है, लेकिन विस्तार नहीं।

  • यह माया की चित्रण शक्ति है जो नाम-रूप को वास्तविकता का भ्रम देती है।

🪷 श्लोक 82

छिद्रानुवृत्तिर्नेति पुर्वोक्तिरधुना त्वियम्। शब्दानुवृत्तिरेवोक्ता वचसो व्याहतिः कुतः॥

🧭 भावार्थ:

  • व्योम (आकाश) की अनुवृत्ति दो प्रकार की होती है:

    1. विस्तार (extension)

    2. ध्वनि-गुण (sound propagation)

  • अन्य तत्वों में केवल ध्वनि-गुण की अनुवृत्ति होती है, विस्तार की नहीं।

  • अतः जब कहा गया कि व्योम आगे नहीं जाता, तो उसका अर्थ था विस्तार नहीं जाता — ध्वनि जाती है।

🔍 विवेचन:

  • यह श्लोक पूर्ववाक्य और वर्तमान कथन के बीच विरोधाभास को सुलझाता है।

  • व्योम का विस्तार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु में नहीं आता, परंतु ध्वनि का गुण आता है।

🪷 श्लोक 83

ननु सद्वस्तु पार्थक्यात् असत्त्वं चेत् तदा कथम्। अव्यक्तमाया वैषम्यात् अमाया मयताऽपि नो॥

🧭 भावार्थ:

  • आपत्ति उठती है: यदि सत्ता को वायु से अलग करें, तो क्या वायु असत् हो जाएगी?

  • क्या माया से अलग करके वायु को वास्तविक नहीं माना जा सकता?

  • उत्तर: नहीं। वायु की स्वतंत्र सत्ता नहीं है — वह माया का चित्रण है।

🔍 विवेचन:

  • वायु की गति, ध्वनि आदि गुण व्योम से लिए गए हैं।

  • स्वतंत्रता का भ्रम माया का कार्य है — वायु स्वयं नित्य वस्तु नहीं है।

🪷 श्लोक 84

निस्तत्त्व रूपतैवात्र मायात्वस्य प्रयोजिका। सा शक्तिः कार्ययोस्तुल्या व्यक्ता व्यक्तत्व भेदिनोः॥

🧭 भावार्थ:

  • माया का स्वभाव है — निस्तत्त्वता (non-entity)।

  • चाहे कार्य व्यक्त हो (जैसे वायु, अग्नि), या अव्यक्त हो (जैसे माया), दोनों में निस्तत्त्वता समान है।

  • माया की शक्ति सभी उत्पन्न तत्वों में समान रूप से कार्य करती है।

🔍 विवेचन:

  • जैसे मृगतृष्णा में जल दिखता है, पर वास्तव में नहीं होता — वैसे ही वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी सब माया के चित्रण हैं।

  • प्रतीति और अप्रतीति से वास्तविकता नहीं बदलती — असत् वस्तु प्रतीत हो सकती है।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

सत्ता

माया का प्रभाव

व्योम का गुण

वास्तविकता

वायु

आरोपित

गति, रूप, ध्वनि

ध्वनि

असत् (माया-चित्र)

व्योम

आरोपित

विस्तार, ध्वनि

स्वयं का गुण

असत्

सत्ता

नित्य

unaffected

सर्वव्यापक

सत्

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • वायु को स्वतंत्र वस्तु मानना माया का भ्रम है।

  • सत्ता ही वास्तविकता है — बाकी सब माया के चित्र हैं।

  • अन्वय-व्यातिरेक से देखें: सत्ता के बिना कुछ भी नहीं है।

🪷 श्लोक 85

सदसत्त्व विवेकस्य प्रस्तुतत्वात् स चिन्त्यताम्। असतोऽवांतरे भेद आस्तां तत् चिन्त यात्र किम्॥

🧭 भावार्थ:

  • यहाँ माया के उत्पादों (वायु, अग्नि, आदि) की वास्तविकता पर चर्चा नहीं है।

  • चर्चा का विषय है: माया की कार्यप्रणाली — कैसे वह असत् को सत् जैसा दिखाती है।

  • माया तीन भ्रांतियाँ उत्पन्न करती है:

    1. बाह्यता (externality)

    2. स्वतंत्रता (independence)

    3. वस्तुता (objectivity)

🔍 विवेचन:

  • ब्रह्म सार्वभौमिक है, पर माया उसे सीमित, बाह्य, और स्वतंत्र वस्तु के रूप में प्रस्तुत करती है।

  • यह मिथ्या वस्तुता ही बन्धन का कारण है।

🪷 श्लोक 86

सद्वस्तु ब्रह्म शिष्टोऽंशो वायुर् मिथ्या यथा व्यत्। वासयित्वा चिरं वायोर् मिथ्यात्वं मरुतं त्यजेत्॥

🧭 भावार्थ:

  • सद्वस्तु = ब्रह्म, जो नित्य और अविकारी है।

  • वायु = माया से उत्पन्न मिथ्या वस्तु है।

  • वायु की सत्ता केवल ब्रह्म से उधार ली गई है — स्वयं की नहीं।

  • इसलिए, वायु को वास्तविक मानना भ्रम है।

🔍 विवेचन:

  • मरुतं त्यजेत् = वायु की स्वतंत्र सत्ता का त्याग करें।

  • जैसे व्योम की मिथ्यात्वता को समझा, वैसे ही वायु को भी माया का चित्रण मानें।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

सत्ता का स्रोत

स्वतंत्रता

वास्तविकता

ब्रह्म

स्वयं

पूर्ण

सत्

वायु

ब्रह्म से आरोपित

नहीं

मिथ्या

माया

ब्रह्म पर आरोपित

नहीं

मिथ्या

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी — सब माया के चित्र हैं, ब्रह्म की छाया नहीं।

  • सद-असत् विवेक से मिथ्या वस्तुता का त्याग करें।

  • स्वतंत्रता, बाह्यता, वस्तुता — ये सब माया के आरोप हैं, वास्तविकता नहीं।

🪷 श्लोक 87

चिन्तयेद्वह्निमप्येवं मरुतो न्यूनवर्तिनम्। ब्रह्माण्डावरणेष्वेषा न्यूना धिक विचारणा॥

🧭 भावार्थ:

  • वायु की तुलना में अग्नि और भी सीमित है — उसका व्यापकता क्षेत्र वायु से दसवाँ भाग है।

  • यह तारतम्य (gradation) ब्रह्माण्डीय संरचना में देखा जाता है:

    • ब्रह्म का दसवाँ भाग → माया

    • माया का दसवाँ भाग → व्योम

    • व्योम का दसवाँ भाग → वायु

    • वायु का दसवाँ भाग → अग्नि

    • अग्नि का दसवाँ भाग → जल

    • जल का दसवाँ भाग → पृथ्वी

🔍 विवेचन:

  • यह क्रमिक संकुचन दर्शाता है कि स्थूल जगत कितना सीमित है ब्रह्म की तुलना में।

  • ब्रह्म की असीमता के सामने पृथ्वी अत्यंत सूक्ष्म है — फिर भी सभी लोक उसी से उत्पन्न होते हैं।

🪷 श्लोक 88

वायोर्दशांशतो न्यूनो वह्निर्वायौ प्रकल्पितः। पुराणोक्तं तारतम्यं दशांशैर्भूतपञ्चके॥

🧭 भावार्थ:

  • वायु में गति और घर्षण से ऊष्मा उत्पन्न होती है — यही अग्नि है।

  • अग्नि की उत्पत्ति वायु से होती है, परंतु उसका आकार वायु से दस गुना कम है।

  • यह तारतम्य (gradation) की बात पुराणों में भी आती है — विशेषतः भागवत पुराण में।

🔢 तत्वों का तारतम्य (दशांश सिद्धांत):

तत्व

पूर्ववर्ती का दशांश

उत्पत्ति स्रोत

माया

ब्रह्म का दशांश

ब्रह्म

व्योम

माया का दशांश

माया

वायु

व्योम का दशांश

व्योम

अग्नि

वायु का दशांश

वायु

जल

अग्नि का दशांश

अग्नि

पृथ्वी

जल का दशांश

जल

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • स्थूल जगत की सीमितता को समझें — वह ब्रह्म की छाया मात्र है।

  • तत्वों की उत्पत्ति में क्रमिक संकुचन है — यह माया की चित्रण शक्ति का संकेत है।

  • अग्नि, जल, पृथ्वी — सब मिथ्या हैं जब तक वे ब्रह्म से जुड़ी चेतना में न देखे जाएँ।

🪷 श्लोक 89

वह्नि रूष्णः प्रकाशात्मा पूर्वानुगति रत्र च। अस्ति वस्निः स निस्तत्त्वः शब्दवान् स्पर्शवानपि॥

🧭 भावार्थ:

  • अग्नि के गुण हैं:

    • रूष्णता (ऊष्मा)

    • प्रकाश (दीप्ति)

    • गति (वायु से लिया गया)

    • ध्वनि (व्योम से लिया गया)

    • स्पर्श (वायु से लिया गया)

  • हम कहते हैं: "अग्नि है" — पर यह सत्ता का आरोप है।

  • अग्नि स्वयं निस्तत्त्व है — ब्रह्म से अलग करें तो उसका कोई अस्तित्व नहीं

🪷 श्लोक 90

सन्माया व्योमवाय्वंशैर्युक्तस्याग्नेर्निजो गुणः। रूपं तत्र सतः सर्वमन्यद् बुद्धा विविच्यताम्॥

🧭 भावार्थ:

  • अग्नि में सत्ता, माया, व्योम, वायु — चारों के गुण हैं।

  • पर उसका निज गुण है: रूप (दृश्यता)।

  • व्योम और वायु को हम देख नहीं सकते — पर अग्नि को देख सकते हैं

  • इसलिए रूप अग्नि का विशिष्ट गुण है।

🪷 श्लोक 91

सतो विविचते वह्नौ मिथ्यात्वे सति वासिते। आपो दशांशतो न्यूनाः कल्पिता इति चिन्तयेत्॥

🧭 भावार्थ:

  • जब सत्ता को अग्नि से अलग करें, तो वह मिथ्या हो जाती है।

  • उसी प्रकार जल भी मिथ्या है — उसका आकार अग्नि से दस गुना कम है।

  • जल की सत्ता भी ब्रह्म से उधार ली गई है — स्वयं की नहीं।

🪷 श्लोक 92

सन्त्यापोऽमूः शून्यतत्त्वाः सशब्दस्पर्शसंयुताः। रूपवत्योऽन्यधर्मानुवृत्त्या स्वीयो रसोगुणः॥

🧭 भावार्थ:

  • जल का स्वभाव है:

    • शब्द (व्योम से)

    • स्पर्श (वायु से)

    • रूप (अग्नि से)

    • रस (स्वयं का विशेष गुण)

  • जल का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है — वह माया का चित्रण है।

🔢 तत्वों का गुण-क्रम:

तत्व

गुण

विशेष गुण

व्योम

शब्द

वायु

स्पर्श, गति

अग्नि

रूप, ऊष्मा

दृश्यता

जल

रस, रूप, स्पर्श, शब्द

स्वाद

पृथ्वी

गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द

गंध

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • अस्तित्व केवल ब्रह्म का है — बाकी सब माया के चित्र हैं।

  • तत्वों की गुणात्मक परंपरा से मिथ्यात्व को समझें।

  • रस जल का विशिष्ट गुण है — पर वह भी ब्रह्म से अलग नहीं।

🪷 श्लोक 93

सतो विवेचितास्वप्सु तन्मिथ्यात्वे च वासिते। भूमिर्दशांशतो न्यूना कल्पिताप्स्विति चिन्तयेत्॥

🧭 भावार्थ:

  • जल से दशांश कम है → पृथ्वी

  • पृथ्वी में पूर्ववर्ती तत्वों के सभी गुण हैं:

    • शब्द (व्योम से)

    • स्पर्श (वायु से)

    • रूप (अग्नि से)

    • रस (जल से)

    • गंध (स्वयं का विशेष गुण)

🔍 विवेचन:

  • गंध केवल पृथ्वी में है — अन्य तत्वों में नहीं।

  • पृथ्वी को सत्ता से अलग करें → मिथ्या हो जाती है।

🪷 श्लोक 94

अस्ति भूस्तत्त्वशून्यायां शब्दस्पर्शौ सरूपकौ। रसश्च परतो गन्धो नैजः सत्ता विविच्यताम्॥

🧭 भावार्थ:

  • पृथ्वी के गुण:

    • शब्द, स्पर्श, रूप, रसअन्य तत्वों से

    • गंधस्वतः

  • सत्ता को पृथ्वी से अलग करें → भूमि का कोई अस्तित्व नहीं

🪷 श्लोक 95

पृथक्कृतायां सत्तायां भूमिर्मिथ्यावशिष्यते। भूमेर् दशांशतो न्यूनं ब्रह्माण्डं भूमिमध्यगम्॥

🧭 भावार्थ:

  • सत्ता से पृथ्वी को अलग करें → मिथ्या

  • भूमि ही ब्रह्माण्ड का मूल आधार है — स्थूल जगत उसी से बना है।

  • भूमि का दशांश ही ब्रह्माण्ड है — अत्यंत सीमित

🪷 श्लोक 96

भूमेः सत्त्वं पृथक् कृत्वा तद्वस्तु नोपलभ्यते। सत्तायां तु समासक्तं दृश्यते ब्रह्म रूपतः॥

🧭 भावार्थ:

  • यदि भूमि को सत्ता से अलग करें, तो उसका कोई अस्तित्व नहीं

  • भूमि केवल सत्ता के आरोप से प्रतीत होती है।

  • सत्ता में आसक्त होने पर ही भूमि का प्रतीत रूप दिखता है — पर वह ब्रह्म नहीं है।

🔍 विवेचन:

  • यह श्लोक 95 के निष्कर्ष को संक्रमित करता है 97 की व्यापकता की ओर:

    • भूमि ही ब्रह्माण्ड का आधार है — परंतु मिथ्या

    • सत्ता ही वास्तविकता है — भूमि नहीं।

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • स्थूल जगत की प्रतीति केवल ब्रह्म के सत्ता गुण से है।

  • भूमि, जल, वायु, अग्नि, व्योम — सब माया के चित्र हैं।

  • सत्ता से पृथक करें → सृष्टि शून्य हो जाती है।


🪷 श्लोक 97

ब्रह्माण्ड लोके देहेषु सदवस्तुनि पृथक्कृते। असन्तोण्डादयो भान्तु तद्भानेऽपीह का क्षतिः॥

🧭 भावार्थ:

  • ब्रह्माण्ड, लोक, देह — सब भूमि से बने हैं।

  • यदि सत्ता को पृथक करें → ये सब असत् हैं।

  • परंतु भ्रमवश ये प्रतीत होते हैं — सत्ता के आरोप से।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व

गुणों की संख्या

विशेष गुण

सत्ता से पृथक होने पर

व्योम

1

शब्द

असत्

वायु

2

स्पर्श

असत्

अग्नि

3

रूप

असत्

जल

4

रस

असत्

पृथ्वी

5

गंध

असत्

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • पंचमहाभूत केवल सत्ता के आरोप से प्रतीत होते हैं।

  • गंध पृथ्वी का विशिष्ट गुण है — परंतु वह भी मिथ्या है यदि सत्ता से पृथक हो।

  • ब्रह्म ही एकमात्र सत् है — बाकी सब माया के चित्र हैं।

🪷 श्लोक 98

भूतभौतिकमायानामसत्त्वेऽत्यन्तवासिते। सद्वस्त्वद्वैतमित्येषा धीर्विपर्येति न क्वचित्॥

🧭 भावार्थ:

  • पंचमहाभूत (व्योम, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) और उनके भौतिक उत्पाद — सब माया से उत्पन्न हैं।

  • यदि इन्हें सत्ता से पृथक करें, तो वे असत् हैं — शून्य

  • इसलिए, ईश्वर ने सृष्टि को शून्य से उत्पन्न किया — यह मायिक जादू है।

  • सद्वस्तु अद्वैतम् — केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, द्वैत नहीं।

🔍 विवेचन:

  • जैसे जादूगर हाथ से पक्षी निकालता है, वैसे ही ईश्वर ने माया से सृष्टि की।

  • सृष्टि केवल प्रतीति है — वास्तविकता नहीं।

🪷 श्लोक 99

सदद्वैतात्पृथग्भूते द्वैते भूम्यादिरूपिणि। तत्तदर्थक्रियालोके यथादृष्टा तथैव सा॥

🧭 भावार्थ:

  • सदद्वैत से पृथक होकर भूमि और अन्य तत्व द्वैत रूप में प्रतीत होते हैं।

  • दुनिया में कार्य-व्यवहार चलता है — पर वह मिथ्या है।

  • जैसे मृगतृष्णा में जल दिखता है, पर वास्तव में नहीं होता — वैसे ही संसार

🔍 विवेचन:

  • जगद्व्यवहार चलता है — पर ज्ञानी जानता है कि यह माया है।

  • जीवन्मुक्त व्यक्ति संसार को मृत सर्प की तरह देखता है — भय नहीं करता।

🧠 समग्र निष्कर्ष:

तत्व/सृष्टि

सत्ता से पृथक होने पर

प्रतीति

वास्तविकता

पंचमहाभूत

असत् (माया)

है

नहीं

ब्रह्म

नित्य, अद्वैत

है

है

संसार

माया का चित्रण

है

नहीं

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • संसार को देखें, पर जुड़ें नहीं — जैसे मृगतृष्णा में जल

  • सदद्वैत ही वास्तविकता है — बाकी सब मायिक प्रतीति

  • जीवन्मुक्त व्यक्ति संसार में रहता है, पर उसमें लिप्त नहीं होता।

🪷 श्लोक 100

साङ्ख्यकाणादबौद्धाद्यैर् जगद्भेदो यथा यथा। उत्प्रेक्ष्यतेऽनेकयुक्त्या भवत्वेष तथातथा॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

सांख्य, काणाद (वैशेषिक), बौद्ध आदि दर्शनों द्वारा जगत का भेद जिस प्रकार-जिस प्रकार अनेक युक्तियों से कल्पित किया जाता है, वह वैसा-वैसा ही मान लिया जाए।

🔍 भावार्थ:

  • विभिन्न दर्शनों ने जगत को बहुविध रूप में देखा:

    • न्याय-वैशेषिक ने नौ पदार्थों को स्वतंत्र वास्तविकता माना।

    • सांख्य ने उन्हें दो तत्वों में समेटा: पुरुष और प्रकृति

    • बौद्ध ने शून्यवाद प्रस्तुत किया — पर शून्यता का ज्ञान भी सत्ता है।

  • इन सब मतों में सत्ता को स्वीकार करना ही पड़ता है — चाहे प्रत्यक्ष हो या परोक्ष


🪷 श्लोक 101

अवज्ञातं सदद्वैतं निःशङ्कैरन्यवादिभिः। एवं का क्षति रस्माकं तद्द्वैतमवजानताम्॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

यदि अन्य वादी निःशंका होकर सदद्वैत (ब्रह्म की एकता) की अवज्ञा करें, तो हमें क्या हानि है — हम तो उस द्वैत को ही तुच्छ मानते हैं।

🔍 भावार्थ:

  • द्वैतवादी चाहे द्वैत को सत्य मानें — ज्ञानी को कोई हानि नहीं।

  • सदद्वैत की स्थिरता में स्थित व्यक्ति को द्वैत का भ्रम नहीं छूता।

  • द्वैत केवल प्रतीति है — वास्तविकता नहीं।

🪷 श्लोक 102

द्वैतावज्ञा सुस्थिता चेत् अद्वैते धीः स्थिरा भवेत्। स्थैर्ये तस्याः पुमानेष जीवन्मुक्त इतीर्यते॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

यदि द्वैत की अवज्ञा सुदृढ़ हो जाए, तो अद्वैत में बुद्धि स्थिर हो जाती है। उस स्थिरता में स्थित पुरुष को जीवन्मुक्त कहा जाता है।

🔍 भावार्थ:

  • जीवन्मुक्त व्यक्ति द्वैत को देखता है — पर उसमें लिप्त नहीं होता।

  • वह संसार को मृगतृष्णा, मृत सर्प, या जली हुई वस्त्र की तरह देखता है।

  • उसकी बुद्धि केवल ब्रह्म में स्थिर होती है — यही मुक्ति है।

🪷 श्लोक 103 (भगवद्गीता उद्धरण)

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

हे पार्थ! यह ब्रह्म की स्थिति है — इसको प्राप्त कर लेने पर मोह नहीं होता। यदि अंत समय में भी कोई इसमें स्थित हो जाए, तो वह ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त करता है।

🔍 भावार्थ:

  • ब्रह्मी स्थिति = ब्रह्म में स्थित चित्त

  • मृत्यु के समय भी यदि यह स्थिति बनी रहे, तो मुक्ति निश्चित है।

  • यह ज्ञान, वैराग्य, और स्थिरता का परम फल है।

🪷 श्लोक 104

सदद्वैतेऽनृते द्वैते यदन्योन्यैक्यवीक्षणम्। तस्यान्तकालेस्तद्भेदबुद्धिरेव न चेत्तरः॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

जब सदद्वैत सत्य है और द्वैत असत्य, तब द्वैत में जो एकता का दर्शन होता है, वह यदि अंत समय में हो जाए, तो वही भेद-बुद्धि का अंत है — और कुछ नहीं।

🔍 भावार्थ:

  • अंतकाल का अर्थ केवल मृत्यु का क्षण नहीं है।

  • यह वह क्षण भी हो सकता है जब विवेक जागे — सत्य और असत्य का भेद स्पष्ट हो जाए।

  • जैसे ही ज्ञान आता है, अज्ञान समाप्त होता है — यही अंतकाल है।

🪷 श्लोक 105

यद्वान्तकालः प्राणस्य वियोगोऽस्तु प्रसिद्धितः। तस्मिन्कालेऽपि नो भ्रान्तेर्गतायाः पुनरागमः॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

या फिर अंतकाल का अर्थ प्राण के शरीर से वियोग का प्रसिद्ध अर्थ हो — तो उस समय भी यदि भ्रांति समाप्त हो जाए, तो उसका पुनरागमन नहीं होता।

🔍 भावार्थ:

  • यदि मृत्यु के समय भी ब्रह्म में स्थित चित्त हो, तो पुनर्जन्म नहीं होता

  • शारीरिक अवस्था चाहे जैसी हो — मुक्ति का निर्धारण चित्त की स्थिति से होता है।

🪷 श्लोक 106

नीरोग उपविष्टो वा रूग्णो वा विलुठन् भुवि। मूर्छितो वा त्यजत्वेष प्राणान् भ्रान्तिर्न सर्वथा॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

कोई स्वस्थ हो या रोगी, बैठा हो या भूमि पर पड़ा हो, या मूर्छित हो — यदि वह प्राण त्यागे, तो भ्रांति नहीं रहती — यदि पूर्व में चित्त ब्रह्म में स्थित रहा हो।

🔍 भावार्थ:

  • मृत्यु के समय की चेतना ही सब कुछ नहीं है।

  • यदि व्यक्ति मूर्छित हो, अचेतन हो — तब भी उसकी पूर्व की ब्रह्म-स्थित चेतना ही मुक्ति का कारण बनती है।

  • मुक्ति का निर्धारण शरीर की अवस्था से नहीं, बल्कि चित्त की स्थिरता से होता है।

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • अंतकाल का अर्थ है — अज्ञान का अंत, विवेक का उदय

  • मृत्यु के समय भी यदि ब्रह्म-स्थित चित्त हो, तो मुक्ति निश्चित है।

  • शरीर की अवस्था चाहे जैसी हो — मुक्ति का निर्णय पूर्व की चेतना से होता है।

🪷 श्लोक 107

दिने दिने स्वप्न सुप्त्यो रधीते विस्मृतेऽप्ययम्। परद्युर् नान धीतः स्यात् तद्वद् विद्या नो नश्यति॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

हर दिन स्वप्न और सुषुप्ति में हम अचेतन हो जाते हैं — फिर भी अगली सुबह हमारा ज्ञान नष्ट नहीं होता। उसी प्रकार, विद्या भी एक बार प्राप्त हो जाने पर नष्ट नहीं होती

🔍 भावार्थ:

  • जैसे नींद में हम सब कुछ भूल जाते हैं, फिर भी अगले दिन हमें सब याद रहता है।

  • उसी तरह, ब्रह्मविद्या एक बार स्थिर हो जाए, तो मूर्छा, अचेतनता, या नींद उसे नष्ट नहीं कर सकती

🪷 श्लोक 108

प्रमाणोत्पादिता विद्या प्रमाणं प्रबलं विना। न नश्यति न वेदान्तात् प्रबलं मानमीक्ष्यते॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

जो विद्या प्रमाण से उत्पन्न हुई है, वह बिना किसी प्रबल प्रमाण के नष्ट नहीं होती। और वेदान्त से प्रबल प्रमाण कोई नहीं देखा गया।

🔍 भावार्थ:

  • श्रवण, मनन, निदिध्यासन से जो ब्रह्मज्ञान आता है, वह जीवन का अंग बन जाता है।

  • वेदान्त से अधिक प्रमाणिक कोई शास्त्र नहीं — इसलिए यह ज्ञान अडिग रहता है।

🪷 श्लोक 109

तस्माद् वेदान्तसंसिद्धिं सदद्वैतं न बाध्यते। अन्तकालेऽप्यतो भूता विवेकान् निर्वृतिः स्थिताः॥

🧭 विस्तृत हिंदी अनुवाद:

इसलिए, वेदान्त से सिद्ध जो सदद्वैत का ज्ञान है, वह कभी बाधित नहीं होताअंतकाल में भी, यदि भूतों का विवेक हो जाए, तो मोक्ष निश्चित है।

🔍 भावार्थ:

  • वेदान्त से प्राप्त अद्वैतबोध किसी भी परिस्थिति में नष्ट नहीं होता

  • मृत्यु के समय भी यदि यह विवेक जागे, तो ब्रह्मनिर्वाण निश्चित है।

🪔 साधक के लिए संकेत:

  • विद्या एक बार स्थिर हो जाए, तो मूर्छा, अचेतनता, मृत्यु — कोई बाधा नहीं।

  • वेदान्त ही परम प्रमाण है — उससे प्राप्त अद्वैतबोध अडिग रहता है।

  • अंतकाल में भी यदि विवेक जागे, तो मोक्ष निश्चित है।


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