🕉️ श्लोक 1
सदद्वैतं श्रुतं यत्तत् पञ्चभूतविवेकतः, बोद्धुं शक्यं ततो भूतपञ्चकं प्रविविच्यते।
"जो सदद्वैत का श्रवण हुआ है — उसका यथार्थ विवेक पञ्चमहाभूतों के विश्लेषण से संभव है। इसलिए अब हम पञ्चभूतों का गहन विवेचन करते हैं।"
यह श्लोक छांदोग्य उपनिषद् 6.2.1 के महावाक्य "सद् एव सोम्य इदम् अग्र आसीत्" की पृष्ठभूमि में है — जिसका अर्थ है: "यह जगत सृष्टि से पूर्व केवल सत् ही था — एकमेव अद्वितीयम्।"
इस सत् की प्रकृति को समझने के लिए हमें देखना होगा कि यह सत् किस प्रकार पञ्चमहाभूतों में प्रकट होता है — अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी — और उनके सूक्ष्म गुणों में:
शब्द (आकाश)
स्पर्श (वायु)
रूप (अग्नि)
रस (जल)
गंध (पृथ्वी)
यह अध्याय सत् के विवर्तन को भूतों के माध्यम से समझने का प्रयास है — जिससे सदद्वैत का तात्त्विक अर्थ स्पष्ट हो सके।
🕉️ श्लोक 2
शब्दस्पर्शौ रूपरसौ गन्धो भूतगुणा इमे, एकद्वित्रिचतुःपञ्च गुणा व्योमादिषु क्रमात्।
"शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध — ये पाँच भूतगुण हैं। ये क्रमशः आकाश से पृथ्वी तक एक, दो, तीन, चार और पाँच गुणों के रूप में प्रकट होते हैं।"
🔍 तत्वानुक्रम और गुणों की व्याख्या:
🧠 विवेचन:
आकाश में केवल ध्वनि का गुण होता है — यह कंपन को स्थान देता है, पर स्वयं स्पर्श, रूप, रस या गंध नहीं देता।
वायु में ध्वनि और स्पर्श — हवा को सुना और महसूस किया जा सकता है।
अग्नि में ध्वनि, स्पर्श और रूप — अग्नि की आवाज़, गर्मी और चमक अनुभव होती है।
जल में ध्वनि, स्पर्श, रूप और रस — जल को सुना, छुआ, देखा और चखा जा सकता है।
पृथ्वी में पाँचों गुण — यह सबसे स्थूल तत्व है, जिसमें सभी इंद्रियों द्वारा अनुभव योग्य गुण हैं।
🎵 तत्वों की ध्वनि की प्रकृति:
आकाश: मौन में कंपन — जैसे घंटी बजने से पहले की शांति।
वायु: सरसराहट, सीटी जैसी ध्वनि — गति से उत्पन्न।
अग्नि: चटकना, सिसकना — रूपांतरण की ध्वनि।
जल: बहना, टपकना — लयबद्ध और भावनात्मक।
पृथ्वी: गूंज, कंपन — स्थिर और गहन।
🪔 आध्यात्मिक संकेत:
ये ध्वनियाँ केवल भौतिक नहीं — वे ब्रह्म की नादात्मक अभिव्यक्ति हैं।
हर तत्व की ध्वनि ब्रह्म के एक पहलू को प्रकट करती है — जैसे नादब्रह्म की विविध तरंगें।
🕉️ श्लोक 3
प्रतिध्वनिर् वियच्छब्दो वायौ बीसीति शब्दनम्, अनुष्णा-शीत संस्पर्शः वह्नौ भुगु-भुगु-ध्वनिः।
📜 हिंदी अनुवाद (as-it-is):
"आकाश में प्रतिध्वनि (echo) ही शब्द है। वायु में 'बीसीति' (सीटी जैसी) ध्वनि होती है। वायु का स्पर्श न गर्म होता है न ठंडा। अग्नि में 'भुगु-भुगु' जैसी जलने की ध्वनि होती है।"
🔍 विवेचन:
आकाश (व्योम):
ध्वनि स्वयं उत्पन्न नहीं करता, केवल प्रतिध्वनि को संभव बनाता है।
यह ध्वनि का माध्यम है, न कि स्रोत।
वायु (वायुः):
'बीसीति' — हवा की सीटी जैसी ध्वनि।
इसका स्पर्श तटस्थ होता है — न गर्म, न ठंडा — यह अन्य तत्वों से प्रभावित होता है।
अग्नि (वह्निः):
'भुगु-भुगु' — जलने की ध्वनि, जैसे लकड़ी जलती है।
इसका स्पर्श उष्ण होता है — यह ऊर्जा का प्रतीक है।
🕉️ श्लोक 4
उष्ण-स्पर्शः प्रभा-रूपं जले बुलु-बुलु-ध्वनिः, शीत-स्पर्शः शुक्ल-रूपं रसः माधुर्यम् ईरितः।
📜 हिंदी अनुवाद (as-it-is):
"अग्नि का स्पर्श उष्ण है और उसका रूप प्रकाश है। जल में 'बुलु-बुलु' जैसी ध्वनि होती है। जल का स्पर्श शीतल है, उसका रूप श्वेत है, और उसका रस मधुर है।"
🔍 विवेचन:
अग्नि:
प्रभा-रूपम् — अग्नि का रूप तेज है, जो दृश्यता देता है।
उष्ण-स्पर्शः — अग्नि का अनुभव गर्मी के रूप में होता है।
जल (जलम्):
'बुलु-बुलु' — बहने या उबालने की ध्वनि।
शीत-स्पर्शः — जल का स्पर्श ठंडा होता है।
शुक्ल-रूपम् — जल का रंग श्वेत माना गया है (विशुद्धता का प्रतीक)।
रसः माधुर्यम् — जल का स्वाद मधुर होता है — जीवनदायक।
🕉️ श्लोक 5
भूमौ कड़कड़ा-शब्दः कठिन्यं स्पर्श इष्यते, नीलादिकं चित्र-रूपं मधुराम्लादिको रसः।
📜 हिंदी अनुवाद (as-it-is):
"पृथ्वी में 'कड़कड़ा' जैसी ध्वनि होती है। उसका स्पर्श कठोर होता है। उसका रूप विविध रंगों वाला होता है — नीला आदि। उसका रस मधुर, अम्ल आदि अनेक प्रकार का होता है।"
🔍 विवेचन:
पृथ्वी (भूमिः):
'कड़कड़ा' — टकराने या टूटने की ध्वनि।
कठिन स्पर्श — स्थिरता और स्थूलता का प्रतीक।
चित्र-रूपम् — पृथ्वी के पदार्थों में विविध रंग होते हैं — नीला, पीला, हरा आदि।
रसः — पृथ्वी से उत्पन्न वस्तुओं में मधुर, अम्ल, कटु आदि रस होते हैं।
🧠 समाहार:
🕉️ श्लोक 6
सुरभीतरगन्धौ द्वौ गुणाः सम्यग्विवेचिताः, श्रॊत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा घ्राणं चेन्द्रियपञ्चकम्।
"सुगंध और तीव्र गंध — ये पृथ्वी के दो गुण हैं, जो स्पष्ट रूप से विवेचित हैं। श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद और गंध — ये पाँच इन्द्रियाँ हैं।"
🔍 तत्वानुक्रम: इन्द्रियाँ और उनके विषय
🧠 दार्शनिक विवेचन:
इन्द्रियाँ तत्त्वों से बनी हैं, और उन्हीं के गुणों को ग्रहण करती हैं। जैसे — कान आकाश से बना है, इसलिए वह शब्द को ग्रहण करता है।
भगवद्गीता (3.28) में कहा गया है: "गुणा गुणेषु वर्तन्ते" — अर्थात् प्रकृति के गुण ही प्रकृति के गुणों में संलग्न होते हैं। मैं नहीं सुनता — श्रॊत्र सुनता है। मैं नहीं देखता — चक्षुषी देखती है।
यह विवेक आवश्यक है — अन्यथा अहंकार के कारण हम कहते हैं: "मैं देखता हूँ", "मैं सुनता हूँ" — जबकि वास्तव में इन्द्रियाँ ही इन्द्रियविषयों से संपर्क करती हैं।
🌊 उपनिषदों की दृष्टि:
छांदोग्य, बृहदारण्यक, कठ — सभी बताते हैं कि ब्रह्म ही इन्द्रियों के पीछे है, और ब्रह्म ही इन्द्रियविषयों में प्रकट होता है।
जब इन्द्रिय का गुण — जैसे शब्द — बाह्य तन्मात्रा से आंतरिक तन्मात्रा (श्रॊत्र) से टकराता है, तब अनुभव होता है — जैसे लहरें लहरों से टकराती हैं।
🪷 निष्कर्ष:
प्रकृति ही प्रकृति को जानती है — इन्द्रियाँ ही इन्द्रियविषयों से संपर्क करती हैं।
आत्मा केवल साक्षी है — वह न सुनता है, न देखता है, वह केवल जानता है कि सुनना हो रहा है, देखना हो रहा है।
🕉️ श्लोक 7
कर्णादि गोलकस्थं तच्छब्दादि ग्राहकं क्रमात्, सौक्ष्म्यात् कारयाऽनुमेयं तत् प्रायो धावेद् बहिर्मुखम्।
"श्रवण आदि इन्द्रियाँ गोलक रूप शरीर में स्थित हैं, वे क्रमशः शब्द आदि विषयों को ग्रहण करती हैं। उनका स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है, अतः वे केवल कार्य से अनुमानित होती हैं। उनका स्वभाव प्रायः बहिर्मुखी होता है — वे बाहर की ओर दौड़ती रहती हैं।"
🔍 दार्शनिक विवेचन:
🔬 1. इन्द्रियाँ शरीर में स्थित हैं, पर स्वयं दृश्य नहीं हैं
कर्ण आदि गोलकस्थं — श्रवण, दृष्टि, स्पर्श आदि इन्द्रियाँ शरीर के गोलक अंगों में स्थित हैं (कान, आंख, त्वचा आदि)।
परंतु इन्द्रियाँ स्वयं नहीं देखतीं या सुनतीं — वे केवल सूक्ष्म शक्तियाँ हैं जो स्थूल माध्यमों से कार्य करती हैं।
🧘 2. इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं — केवल कार्य से अनुमानित होती हैं
सौक्ष्म्यात् कारया अनुमेयं — इन्द्रियाँ सत्त्वगुण से बनी सूक्ष्म तत्त्व हैं, अतः उन्हें देखा नहीं जा सकता।
हम केवल उनके कार्य (ध्वनि सुनना, रूप देखना आदि) से ही उनका अस्तित्व अनुमान कर सकते हैं।
🌪️ 3. इन्द्रियाँ स्वभावतः बहिर्मुखी हैं
प्रायो धावेद् बहिर्मुखम् — इन्द्रियाँ बाह्य विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं।
जैसे कुत्ते इधर-उधर दौड़ते हैं, वैसे ही इन्द्रियाँ प्रत्येक क्षण बाहर की ओर भागती हैं — ध्वनि, रूप, रस, गंध की ओर।
🧠 भगवद्गीता का संदर्भ:
गुणा गुणेषु वर्तन्ते (गीता 3.28) — प्रकृति के गुण ही प्रकृति के गुणों में संलग्न होते हैं।
इन्द्रियाँ और इन्द्रियविषय — दोनों प्रकृति के उत्पाद हैं।
आत्मा केवल साक्षी है — वह न सुनता है, न देखता है, केवल जानता है।
🪷 निष्कर्ष:
इन्द्रियाँ सूक्ष्म तत्त्वों से बनी हैं — वे सत्त्वगुण की अभिव्यक्ति हैं।
वे दृश्य नहीं, केवल अनुभव से अनुमानित होती हैं।
उनका स्वभाव बाह्य विषयों की ओर दौड़ना है — जिससे चेतना भी बाहर की ओर खिंच जाती है।
यही कारण है कि आत्मा — जो स्वरूपतः अंतर्मुखी है — अनात्म में उलझ जाती है।
🕉️ श्लोक 8
कदाचित् पिहिते कर्णे श्रूयते शब्द आन्तरः, प्राण वायौ जाठराग्नौ जलपानेऽन्नभक्षणे।
"कभी-कभी जब कान बंद होते हैं, तब भीतर की ध्वनि सुनाई देती है। प्राणवायु की गति, जठराग्नि की क्रिया, जल पीने और अन्न खाने में भी आंतरिक ध्वनि अनुभव होती है।"
🔍 विवेचन:
यह श्लोक आन्तरिक इन्द्रिय अनुभव की ओर संकेत करता है — विशेषतः योग में अनाहत नाद की अनुभूति।
जब हम कान, नाक, आंखें बंद करते हैं, तो शरीर के भीतर एक सूक्ष्म कंपन सुनाई देता है — जिसे अनाहत शब्द कहते हैं — वह ध्वनि जो किसी टकराव से उत्पन्न नहीं होती।
यह ध्वनि उत्पन्न होती है:
प्राण की गति से
जठराग्नि की क्रिया से
जलपान और भोजन के समय
यह अनुभव बाह्य नहीं, बल्कि आंतरिक है — ध्वनि का स्रोत शरीर के भीतर है, न कि बाहर।
🕉️ श्लोक 9
व्यज्यन्ते ह्यान्तराः स्पर्शा मीलने चान्तरं तमः, उद्गारे रस गन्धौ च इत्यक्षणा मान्तरग्रहः।
"नेत्र बंद करने पर आंतरिक स्पर्श और अंधकार का अनुभव होता है। उद्गार (डकार) में रस और गंध का अनुभव होता है — इस प्रकार इन्द्रियों द्वारा आंतरिक ग्रहण संभव है।"
🔍 विवेचन:
आंतरिक इन्द्रिय अनुभव केवल ध्वनि तक सीमित नहीं — अन्य इन्द्रियाँ भी भीतर की ओर कार्य करती हैं।
👁️ दृष्टि:
आंखें बंद करने पर अंधकार दिखाई देता है — यह भी एक रूप का अनुभव है — रूप का अभाव।
👅 स्वाद:
डकार या हिचकी में पेट से ऊपर उठता स्वाद — यह आंतरिक रस का अनुभव है।
👃 गंध:
डकार के साथ कभी गंध भी आती है — यह आंतरिक गंध का अनुभव है।
🖐️ स्पर्श:
आंखें बंद कर दबाने पर स्पर्श का अनुभव होता है — यह भीतर की त्वचा का अनुभव है।
🧠 निष्कर्ष:
इन्द्रियाँ केवल बाह्य विषयों को नहीं, बल्कि आंतरिक अनुभवों को भी ग्रहण करती हैं।
यह दर्शाता है कि तन्मात्राएँ और इन्द्रियाँ बाह्य और आंतरिक दोनों स्तरों पर कार्य करती हैं।
योग और ध्यान में यह आंतरिक ग्रहण विशेष रूप से महत्वपूर्ण है — जहाँ बाह्य विषयों से हटकर आत्मा की ओर यात्रा होती है।
🕉️ श्लोक 10
पञ्चोक्त्यादान-गमन-विसर्ग-आनन्दकाः क्रियाः, कृषिवाणिज्यसेवाद्याः पञ्चस्वन्तर् भवन्ति हि।
"पाँच प्रकार की क्रियाएँ — ग्रहण करना, चलना, त्याग करना, आनन्द लेना, बोलना — ये सब कर्मेन्द्रियों से संबंधित हैं। कृषि, व्यापार, सेवा आदि सभी कार्य इन्हीं पाँच क्रियाओं में अंतर्भूत होते हैं।"
🔍 विवेचन:
यह श्लोक पाँच कर्मेन्द्रियों की क्रियात्मक भूमिका को स्पष्ट करता है। ये हैं:
वाक् — बोलना
पाणि — पकड़ना (हाथ)
पाद — चलना (पैर)
पायु — त्याग करना (मलद्वार)
उपस्थ — आनन्द लेना / सृजन करना (जननेंद्रिय)
इनसे जुड़ी क्रियाएँ:
आदान — ग्रहण करना (हाथ)
गमन — चलना (पैर)
विसर्ग — त्याग करना (पायु)
आनन्द — सृजन या सुख लेना (उपस्थ)
वाक् — बोलना (जिह्वा)
कृषि, व्यापार, सेवा, कार्यालय कार्य — ये सभी क्रियाएँ इन्हीं पाँच कर्मेन्द्रियों से होती हैं। कोई भी बाह्य कर्म इन पाँच से बाहर नहीं है।
🕉️ श्लोक 11
वाक्-पाणि-पाद-पायु-उपस्थैर् अक्षैस् तत् क्रियाजनिः, मुखादि-गोलकेष्व् आस्ते तत् कर्मेन्द्रिय-पञ्चकम्।
"वाक्, हाथ, पैर, पायु और उपस्थ — ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। ये शरीर के मुख आदि गोलक अंगों में स्थित हैं। इन्हीं से क्रियाओं की उत्पत्ति होती है।"
🔍 विवेचन:
स्थूल शरीर में कर्मेन्द्रियाँ स्थित हैं — जैसे:
वाक् — मुख में
पाणि — हाथों में
पाद — पैरों में
पायु — मलद्वार में
उपस्थ — जननेंद्रिय में
ये भी सूक्ष्म शक्तियाँ हैं — जैसे ज्ञानेंद्रियाँ सत्त्वगुण से बनी हैं, वैसे ही कर्मेन्द्रियाँ रजोगुण से उत्पन्न होती हैं।
शरीर में ये गोलक रूप अंगों में स्थित हैं — परंतु इनका कार्य सूक्ष्म शक्ति के कारण होता है।
👑 मन: इन्द्रियों का अधिपति
श्लोक के बाद की व्याख्या में कहा गया है: "मन इन्द्रियों का राजा है — इन्द्र है।"
इन्द्रियाँ देवता हैं, और मन इन्द्र है — वह सभी इन्द्रियों को नियंत्रित करता है, और सभी क्रियाओं का समन्वय करता है।
🧠 निष्कर्ष:
पाँच ज्ञानेंद्रियाँ — जानने के लिए
पाँच कर्मेन्द्रियाँ — करने के लिए
मन — इन दोनों का नियंता और समन्वयक है।
सारा संसार इन्हीं दस इन्द्रियों और मन की संयुक्त क्रियाओं का विकास है।
🕉️ श्लोक 12
मनो दशेन्द्रियाध्यक्षं हृत्पद्मे गोलके स्थितम्, तच्चान्तःकरणं बाह्येषु स्वातन्त्र्यात् विनेन्द्रियैः।
📜 हिंदी अनुवाद (as-it-is):
"मन दस इन्द्रियों का अधिपति है, और यह हृदयकमल रूपी गोलक में स्थित है। यह 'अन्तःकरण' कहलाता है, क्योंकि यह बाह्य विषयों में इन्द्रियों के बिना स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकता।"
🔍 विवेचन:
🧠 मन: इन्द्रियों का राजा
मनो दशेन्द्रियाध्यक्षम् — मन पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ — कुल दस इन्द्रियों का नियंता है।
यह निर्णय करता है, चुनता है, संयोजित करता है — जैसे इन्द्र देवताओं का राजा है, वैसे ही मन इन्द्रियों का अधिपति है।
❤️ हृदय में स्थित
हृत्पद्मे गोलके स्थितम् — मन हृदयकमल में स्थित है, परंतु इसकी प्रभा पूरे शरीर में फैली होती है। जैसे दीपक एक स्थान पर होता है, पर उसकी प्रकाश पूरे कमरे में फैलती है।
🧩 अन्तःकरण की परिभाषा
तच्चान्तःकरणम् — मन को अन्तःकरण कहा जाता है क्योंकि यह बाह्य विषयों को स्वतः नहीं जान सकता।
उसे ज्ञानेंद्रियों की सहायता चाहिए — जैसे आंख, कान, त्वचा आदि।
इसलिए यह अन्तःकरण है — भीतर का उपकरण, जो बाह्य उपकरणों पर निर्भर है।
🕉️ श्लोक 13
अक्षेष्वर्थार्पिते श्वेतद्गुणदोषविचारकम्, सत्त्वं रजस्तमश्चास्य गुणा विक्रियते हि तैः।
"जब मन इन्द्रियों में स्थित होता है और विषयों में प्रवृत्त होता है, तब वह गुण-दोष का विचार करता है। इसके तीन गुण — सत्त्व, रजस, तमस — हैं, और ये गुण इसे निरंतर परिवर्तित करते रहते हैं।"
🔍 विवेचन:
🔍 मन का कार्य
जब मन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों में प्रवृत्त होता है — तब वह विचार करता है:
यह अच्छा है या बुरा
यह प्रिय है या अप्रिय
यह लेना चाहिए या छोड़ना चाहिए
⚖️ गुणों का प्रभाव
मन प्रकृति के तीन गुणों से बना है:
सत्त्व — शांति, विवेक, संतुलन
रजस — क्रिया, इच्छा, चंचलता
तमस — जड़ता, भ्रम, आलस्य
ये तीनों गुण मन को निरंतर बदलते रहते हैं — इसलिए मन को चंचल कहा गया है।
😔 सत्त्व का दुर्लभ अनुभव
मन में सत्त्व बहुत कम प्रकट होता है — इसलिए सच्चा सुख बहुत कम अनुभव होता है।
अधिकांश समय रजस और तमस ही कार्य करते हैं — जिससे चिंता, असंतोष, बाह्य विषयों में उलझाव बना रहता है।
🪷 निष्कर्ष:
मन इन्द्रियों का अधिपति है, परंतु बाह्य विषयों में उलझकर स्वयं चंचल हो जाता है।
सत्त्वगुण के प्रकट होने पर ही शांति, विवेक और आत्मानुभूति संभव है।
यही कारण है कि ध्यान, विवेक और वैराग्य — मन को अन्तर्मुखी बनाते हैं।
🕉️ श्लोक 14
वैराग्यं क्षान्तिरौदार्यमित्याद्यास्सत्त्वसम्भवाः, कामक्रोधौ लोभयत्नौ वित्याद्याः रजसोत्थिताः।
"वैराग्य, क्षमा, उदारता आदि गुण सत्त्वगुण से उत्पन्न होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, प्रयत्न आदि गुण रजोगुण से उत्पन्न होते हैं।"
🔍 विवेचन:
🌿 सत्त्वगुण के लक्षण:
वैराग्य (Dispassion) — विषयों में आसक्ति का अभाव
क्षमा (Forbearance) — सहनशीलता, प्रतिक्रिया न देना
औदार्य (Generosity) — उदारता, करुणा, परहित भावना
ये सभी गुण मन की शुद्धता और अंतर्मुखता को दर्शाते हैं।
🔥 रजोगुण के लक्षण:
काम (Desire) — विषयों की तीव्र इच्छा
क्रोध (Anger) — इच्छा पूर्ति न होने पर प्रतिक्रिया
लोभ (Greed) — धन, वस्तु, प्रतिष्ठा की लालसा
यत्न (Effort) — निरंतर चेष्टा, बेचैनी, सक्रियता
ये सभी गुण बाह्यमुखता, अशांति और चंचलता को दर्शाते हैं।
🕉️ श्लोक 15
आलस्यं भ्रान्ति तन्द्राद्या विकारास्तमसोत्थिताः, सात्त्विकैः पुण्यनिष्पत्तिः पापोत्पत्तिश्च राजसैः।
"आलस्य, भ्रांति, तंद्रा आदि विकार तमोगुण से उत्पन्न होते हैं। सत्त्वगुण से पुण्य की सिद्धि होती है, और रजोगुण से पाप की उत्पत्ति होती है।"
🔍 विवेचन:
🌑 तमोगुण के लक्षण:
आलस्य (Laziness) — कार्य में रुचि का अभाव
भ्रांति (Delusion) — गलत निर्णय, भ्रम
तंद्रा (Inertia) — जड़ता, निद्रा, निष्क्रियता
ये गुण अज्ञान, विलंब, और विकृति को जन्म देते हैं।
⚖️ कर्मफल की दृष्टि से:
सात्त्विक कर्म → पुण्य → शांति, संतुलन, आत्मोन्नति
राजसिक कर्म → पाप → अशांति, बंधन, विषयासक्ति
तामसिक कर्म → विकृति → अज्ञान, पतन, मोह
🪷 निष्कर्ष:
गुणों की प्रधानता ही व्यक्तित्व का स्वरूप तय करती है।
सत्त्व → विवेक, शांति, आत्मसाक्षात्कार
रजस → चंचलता, विषयासक्ति, कर्मबंधन
तमस → अज्ञान, जड़ता, आत्मविस्मृति
🕉️ श्लोक 16
तामसैर् नोभयं किन्तु वृथायुः क्षपणं भवेत्, अत्राहं प्रत्ययी कर्तेति एवं लोके व्यवस्थितिः।
"तमोगुण की अवस्था में न पुण्य होता है न पाप — केवल व्यर्थ जीवन का क्षय होता है। और संसार में यही स्थिति है: 'मैं ही करता हूँ' — यह कर्तृत्व का भाव प्रबल रहता है।"
🔍 विवेचन:
🌑 तमोगुण की निष्क्रियता:
न पुण्य, न पाप — तमस में व्यक्ति कुछ करता ही नहीं, इसलिए कर्मफल भी नहीं आता।
यह जीवन का व्यर्थ क्षय है — वृथा आयुष्य क्षपणम्।
🧠 कर्तृत्व भाव:
अत्राहं प्रत्ययी कर्ता — व्यक्ति कहता है: "मैं करता हूँ, मैं जानता हूँ, मैं चाहता हूँ"।
यह अहंकार है — जो सत्त्व, रजस, तमस के माध्यम से कर्तृत्व का दावा करता है।
यह अहंभाव ही बन्धन का मूल है — क्योंकि कर्तापन का दावा आत्मा को विषयों में उलझा देता है।
🕉️ श्लोक 17
स्पष्ट शब्दादि युक्तेषु भौतिकत्वमति स्फुटम्, अक्षादावपि तत् शास्त्रयुक्तिभ्यामवधार्यताम्।
"शब्द आदि गुणों से युक्त वस्तुओं में भौतिकता स्पष्ट है। इन्द्रियों में भी वही भौतिकता है — यह शास्त्र और युक्ति से निश्चित किया जाना चाहिए।"
🔍 विवेचन:
🌍 भौतिकता का विवेक:
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध — ये स्थूल गुण हैं, जो भौतिक तत्वों में स्पष्ट हैं।
जैसे — पृथ्वी, जल, अग्नि आदि स्पर्शनीय, दृश्य, स्वादनीय हैं।
👁️ इन्द्रियाँ भी भौतिक हैं:
यद्यपि इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं, परंतु वे भी प्रकृति के सत्त्वगुण से बनी हैं — अतः वे भी भौतिकता के ही एक रूप हैं — सूक्ष्म भौतिकता।
यह प्रत्यक्ष से नहीं, परंतु अनुमान और शास्त्र से जाना जाता है — जैसे — यदि रूप देखा जा सकता है, तो नेत्र में भी रूप ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए — अतः नेत्र भी रूप तन्मात्रा से बना है।
📡 आवृत्ति (Frequency) का सिद्धांत:
हम हर ध्वनि या रंग नहीं देख सकते — केवल विशिष्ट आवृत्ति की ध्वनि या प्रकाश ही इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं।
इसी कारण हम स्वर्ग या नरक नहीं देख सकते — क्योंकि वे हमारी इन्द्रियों की आवृत्ति सीमा से बाहर हैं।
🪷 निष्कर्ष:
इन्द्रियाँ और विषय — दोनों प्रकृति के भौतिक उत्पाद हैं।
समान गुण ही समान को आकर्षित करते हैं — इसलिए इन्द्रियाँ उन्हीं तन्मात्राओं को ग्रहण करती हैं, जिनसे वे बनी हैं।
यह विवेक कर्तृत्व भाव, गुणों की क्रिया, और आत्मा की साक्षी भूमिका को समझने में सहायक है।
🕉️ श्लोक 18
एकादशेन्द्रियैर् युक्त्या शास्त्रेणाप्यवगम्यते, यावत् किंचित् भवेदेतदिदं शब्दोदितं जगत्।
"एकादश इन्द्रियों, युक्ति और शास्त्र के द्वारा जो कुछ भी जाना जा सकता है — वह सब 'इदं' शब्द से अभिहित यह जगत् है।"
🔍 विवेचन:
🔢 एकादश इन्द्रियाँ:
पाँच ज्ञानेंद्रियाँ — श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, गंध
पाँच कर्मेन्द्रियाँ — वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ
एक मन — जो इन सभी का अधिपति है
कुल मिलाकर 11 इन्द्रियाँ — एकादशेन्द्रियाः
📚 ज्ञान के तीन साधन:
इन्द्रियाँ — प्रत्यक्ष अनुभव
युक्ति — तर्क और अनुमान
शास्त्र — श्रुति, गुरु उपदेश, वेदांत
🌍 ‘इदं’ शब्द का तात्पर्य:
इदं = "यह सब" — जो कुछ भी जाना, देखा, सोचा, अनुभव किया जा सकता है
इसमें आता है:
नाम — वस्तुओं के संज्ञा
रूप — दृश्य स्वरूप
क्रिया — कर्म और गति
प्रपंच — सारा जगत्
यह इदं ही है जिसे उद्दालक ऋषि ने छांदोग्य उपनिषद् में कहा: "सद् एव सोम्य इदं अग्र आसीत्" — यह सब सृष्टि से पूर्व केवल सत् ही था।
🧠 दार्शनिक निष्कर्ष:
जो कुछ भी इन्द्रियों से जाना जा सकता है, जो मन में कल्पना किया जा सकता है, जो शास्त्रों से समझा जा सकता है — वह सब इदं जगत् है।
यह इदं ही है जो सत् से उत्पन्न हुआ है — और सत् ही इसका आधार है।
इसलिए सारा जगत् — नाम, रूप, क्रिया — सत् का ही विवर्तन है।
🪷 समापन:
अध्याय 2 का उद्देश्य था: *"सत्" की उपस्थिति को पञ्चमहाभूतों और इन्द्रियों के माध्यम से समझना।
श्लोक 18 में यह स्पष्ट किया गया कि जो कुछ भी जाना जा सकता है — वह सब 'इदं' है, और यह सत् से ही उत्पन्न हुआ है।
दूसरा अध्याय सार्वभौमिक बुद्धि (Universal Intelligence) की प्रकृति का विश्लेषण करता है, जो पाँच महाभूतों — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश — से भिन्न है, जिनसे यह सम्पूर्ण जगत बना है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु, हम एक विस्तृत भूमिका से गुजर रहे हैं, जिसकी शुरुआत परम सत्ता (Ultimate Existence) की परिभाषा से होती है — शुद्ध सत्ता, जो "एकमेव अद्वितीयम्" है — सत्ता, न कि असत्ता।
इस सिद्धांत से कुछ विवादास्पद विचार उत्पन्न होते हैं, जिन्हें लेखक ने ध्यान में रखा है — विशेष रूप से उन मतों के संदर्भ में जो असत्ता को सृष्टि का प्रारंभ मानते हैं, न कि सत्ता को।
"शून्यता" ही सभी वस्तुओं की मूल अवस्था है। संस्कृत में इसे शून्यता कहा जाता है — शून्य, रिक्तता, निर्वात, कुछ नहीं — यही मूल स्थिति है। जब प्रलय होती है, या जब कार्य अपने कारण में विलीन होते हैं, तब सम्पूर्ण जगत पुनः रिक्तता में परिवर्तित हो जाता है। इस विचार के पीछे यह मान्यता है कि जगत जितना रिक्त है, उसका कारण भी उतना ही रिक्त है।
माध्यमिक मत (Madhyamika doctrine), जो बौद्ध दर्शन की एक शाखा है, इस मूल शून्यता पर विशेष बल देता है — और साथ ही, उन सभी वस्तुओं की शून्यता पर भी, जो हमारी आँखों को दिखाई देती हैं।
इस प्रश्न को पंचदशी के लेखक ने उठाया है, और अब हम उसी की ओर बढ़ते हैं।
📜 उपनिषद वचन का अनुवाद
श्लोक: 19
इदं सर्वं पुरा सृष्टेः इदम् एव अद्वितीयकम्, सद् एव आसीत् नामरूपे नास्ताम् इति आरुणेर् वचः (19)
आरुणि — जो कि उद्दालक का नाम है, और श्वेतकेतु के गुरु हैं — छांदोग्य उपनिषद के छठे अध्याय में कहते हैं:
"सृष्टि से पूर्व, यह सब कुछ केवल सत्ता ही था — एकमेव, अद्वितीय। सद् एव आसीत् — केवल सत्ता ही थी। नाम और रूप — अर्थात् जगत के नाम और रूप — अस्तित्व में नहीं थे।"
जगत की समस्त अनुभूति नाम, रूप और क्रिया से बनी है। चूँकि नाम और रूप स्थान और काल के प्रकट होने के बाद ही उत्पन्न होते हैं — और शुद्ध सत्ता में स्थान-काल नहीं होते — इसलिए निष्कर्ष यह है कि मूल अवस्था में कोई नाम, कोई रूप नहीं था। वह सत्ता एकमेव थी — न उसमें कोई आंतरिक भेद था, न कोई बाह्य विविधता, और न ही किसी अन्य वस्तु से संपर्क।
🌿 भेद के प्रकार और उनका निषेध
जगत में हम विभिन्न प्रकार के भेद देखते हैं:
एक वृक्ष की शाखा दूसरी शाखा से भिन्न होती है।
एक ही वृक्ष में आंतरिक भेद होता है — एक पत्ती दूसरी पत्ती जैसी नहीं होती।
हमारे शरीर में भी स्वगत भेद होता है — हाथ, पैर, नाक — सब अलग हैं।
यह जो भिन्नता एक ही वस्तु के भीतर देखी जाती है, उसे स्वगत भेद कहा जाता है।
परंतु परम सत्ता में ऐसा कोई भेद नहीं है — न स्वगत, न सजातीय, न विजातीय।
🪷 श्लोक 20: त्रिविध भेद का विवेचन
वृक्षस्य स्वगतः भेदः पत्र-पुष्प-फलादिभिः, वृक्षान्तरात् सजातीयो विजातीयश्च शिलादितः (20)
वृक्षस्य स्वगतः भेदः — वृक्ष के भीतर पत्र, पुष्प, फल आदि के द्वारा जो भिन्नता है, वह स्वगत भेद कहलाती है।
वृक्षान्तरात् सजातीयः — एक वृक्ष का दूसरे वृक्ष से भेद, जो एक ही जाति के हैं, वह सजातीय भेद है।
विजातीयश्च शिलादितः — वृक्ष और शिला (पत्थर) जैसे भिन्न जातियों के बीच का भेद विजातीय भेद कहलाता है।
🧠 भावानुवाद और दार्शनिक विश्लेषण
1️⃣ स्वगत भेद (आंतरिक भिन्नता)
एक ही वस्तु के भीतर अंगों में भिन्नता।
उदाहरण: वृक्ष में पत्तियाँ, फूल, फल — सब अलग हैं।
शरीर में हाथ, पैर, नाक — सब भिन्न हैं।
यह भेद एक वस्तु के भीतर होता है।
2️⃣ सजातीय भेद (एक ही जाति में भिन्नता)
एक वृक्ष दूसरे वृक्ष से भिन्न है, यद्यपि दोनों वृक्ष हैं।
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न है, यद्यपि दोनों मानव हैं।
3️⃣ विजातीय भेद (विभिन्न जातियों में भिन्नता)
वृक्ष और पत्थर — एक वनस्पति है, दूसरा निर्जीव खनिज।
यह भेद जातियों के बीच होता है।
🚫 ब्रह्म में भेद की अनुपस्थिति
स्वगत भेद नहीं: ब्रह्म के कोई अंग नहीं हैं; वह अविभाज्य है।
सजातीय भेद नहीं: ब्रह्म का कोई समकक्ष नहीं है; वह अद्वितीय है।
विजातीय भेद नहीं: ब्रह्म के बाहर कुछ नहीं है; सब कुछ उसी में है।
इस प्रकार, त्रिविध भेद — स्वगत, सजातीय, विजातीय — तीनों ब्रह्म में लागू नहीं होते। ब्रह्म अखंड, अद्वितीय, और सर्वव्यापक है।
🪷 श्लोक 21: त्रिविध भेद का निषेध
तथा सद्वस्तुनो भेदत्रयं प्राप्तं निवार्यते, ऐक्यावधारणद्वैतप्रतिषेधैस्त्रिभिः क्रमात् (21)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
इस प्रकार सद्वस्तु (शुद्ध सत्ता) में जो तीन प्रकार के भेद की संभावना थी —
स्वगत भेद (आंतरिक भिन्नता)
सजातीय भेद (एक ही जाति में भिन्नता)
विजातीय भेद (विभिन्न जातियों में भिन्नता) — उनका क्रमशः एकम्, एव, अद्वितीयम् शब्दों द्वारा निषेध किया गया है।
एकम् — एक ही है, इसलिए आंतरिक भेद नहीं।
एव — केवल वही है, इसलिए सजातीय भेद नहीं।
अद्वितीयम् — दूसरा कोई नहीं है, इसलिए विजातीय भेद नहीं।
🧠 भावानुवाद:
छांदोग्य उपनिषद के वचन "सद् एव सोम्य इदम् अग्रे आसीत् एकमेव अद्वितीयम्" के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि शुद्ध सत्ता में कोई भेद नहीं है — न भीतर, न बाहर, न किसी अन्य वस्तु से।
🧩 श्लोक 22: नाम-रूप की सत्ता में अनुपस्थिति
सतो नावयवाश्शङ्क्यास्तदंशस्य निरूपणात्, नामरूपे न तस्यांशौ तयो रद्याप्यनुद्भवात् (22)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
सतः नावयवाः शङ्क्याः — शुद्ध सत्ता में अंगों की कल्पना नहीं की जा सकती।
तदंशस्य निरूपणात् — क्योंकि सत्ता को खंडित या विभाजित नहीं किया जा सकता।
नामरूपे न तस्यांशौ — नाम और रूप सत्ता के अंग नहीं हैं।
तयोः अद्यापि अनुद्भवात् — क्योंकि नाम और रूप अभी तक उत्पन्न ही नहीं हुए थे।
🧠 भावानुवाद:
शुद्ध सत्ता अविभाज्य है — उसमें कोई अंग नहीं, कोई भाग नहीं।
नाम और रूप जो सृष्टि के विविधता के प्रतीक हैं, वे सत्ता के अंग नहीं हैं क्योंकि वे सृष्टि के बाद उत्पन्न हुए।
इसलिए, नाम-रूप को सत्ता से जोड़कर कोई भेद उत्पन्न करना संभव नहीं है।
🔍 निष्कर्ष:
इस प्रकार, शुद्ध सत्ता — ब्रह्म — नित्य, अविभाज्य, अद्वितीय और नाम-रूप से रहित है।
🪷 श्लोक 23: नाम-रूप की उत्पत्ति और सत्ता की अखंडता
नामरूपोद्भवस्यैव सृष्टित्वात् सृष्टितः पुरा, न तयो रुद्भवस्तस्मात् निरंशं सद् यथा वियत् (23)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
नाम-रूप की उत्पत्ति ही सृष्टि है, क्योंकि सृष्टि का अर्थ है विविधता का प्रकट होना।
सृष्टि से पूर्व नाम और रूप की कोई उत्पत्ति नहीं थी — न तयोः उद्भवः।
अतः शुद्ध सत्ता को नाम-रूप से जोड़ना उचित नहीं है।
निरंशं सद् यथा वियत् — जैसे आकाश विभाजन रहित है, वैसे ही सत्ता भी अखंड और अविभाज्य है।
🧠 भावानुवाद:
सृष्टि का आरंभ नाम और रूप की अभिव्यक्ति से होता है — जब कोई वस्तु को नाम दिया जाता है और उसका रूप प्रकट होता है।
परंतु शुद्ध सत्ता में न तो नाम था, न रूप — क्योंकि वे सृष्टि के बाद उत्पन्न हुए।
इसलिए सत्ता को किसी प्रकार के भेद या विभाजन से जोड़ना तर्कसंगत नहीं है।
जैसे आकाश में कोई खंड नहीं होता, वैसे ही सत्ता भी अखंड है — निरंशता ही उसकी प्रकृति है।
🧩 श्लोक 24: सजातीय भेद का निषेध
सदन्तरं सजातीयं न वैलक्षण्यवर्जनात्, नामरूपोपाधिभेदं विना नैव सतो भिदा (24)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
यदि सत्ता के समान कोई दूसरी सत्ता होती, तो सजातीय भेद संभव होता।
परंतु ऐसा नहीं है — न वैलक्षण्यवर्जनात् — क्योंकि कोई विशेषता नहीं है जिससे एक सत्ता दूसरी से भिन्न हो सके।
नाम-रूप के उपाधि भेद के बिना सत्ता में कोई भेद नहीं हो सकता — नैव सतो भिदा।
🧠 भावानुवाद:
यदि हम दो सताएँ मानें, तो उनके बीच भेद की कल्पना करनी पड़ेगी — परंतु भेद भी तो सत्ता ही है!
भेद की सत्ता को स्वीकार करने पर भी वह सत्ता के भीतर ही आएगा — इसलिए सत्ता विभाज्य नहीं हो सकती।
जो भी भेद हम अनुभव करते हैं, वह केवल नाम और रूप के आधार पर है — जो उपाधियाँ हैं, न कि स्वरूप।
चूँकि नाम-रूप सृष्टि के बाद उत्पन्न हुए, इसलिए शुद्ध सत्ता में कोई भेद नहीं है।
🔍 निष्कर्ष:
इस प्रकार, शुद्ध सत्ता — ब्रह्म — न तो विभाज्य है, न ही उसमें कोई भेद संभव है। वह निरंश, अद्वितीय, और नाम-रूप से रहित है।
🪷 श्लोक 25: विजातीय भेद का निषेध
विजातीयमसत्तत्त्वं नो खल्वस्तीतिगम्यते, नास्यातः प्रतियोगित्वं विजातीयात् भिदा कुतः (25)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
विजातीय वस्तु — जो सत्ता से भिन्न हो — वह असत् है।
इसलिए, सत्ता के बाहर कुछ भी नहीं हो सकता।
नास्यातः प्रतियोगित्वं — सत्ता का कोई विरोधी नहीं हो सकता।
जब सत्ता के बाहर कुछ नहीं है, तो विजातीय भेद की कोई संभावना नहीं है।
🧠 भावानुवाद:
जो सत्ता नहीं है, वह असत्ता है — अर्थात् उसका कोई अस्तित्व नहीं।
सत्ता के बाहर कुछ कल्पना करना, असत् की कल्पना करना है।
इसलिए, सत्ता का कोई विरोध, प्रतियोगी, या विजातीय भेद नहीं हो सकता।
शुद्ध सत्ता पूर्ण, अद्वितीय और सर्वव्यापक है — उसके बाहर कुछ नहीं।
🧩 श्लोक 26: बौद्धिक भ्रांति और हेगेल का दृष्टिकोण
एकमेव अद्वितीयं सत् सिद्धमत्र तु केचन, विह्वलाः असदेवेदं पुरा सीदित्य वर्णयन् (26)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
एकमेव अद्वितीयं सत् — केवल एक ही सत्ता है, दूसरा कोई नहीं।
यह सिद्ध है — उपनिषदों और तर्क से।
परंतु कुछ विह्वल (बौद्धिक रूप से भ्रमित) लोग कहते हैं — "पूर्व में केवल असत् ही था।"
🧠 भावानुवाद:
उपनिषद कहते हैं: "सद् एव सोम्य इदम् अग्रे आसीत्" — सृष्टि से पूर्व केवल सत्ता थी।
परंतु कुछ दार्शनिक — जैसे हेगेल — कहते हैं कि सत्ता को केवल विचार के रूप में ही जाना जा सकता है।
यदि हम सत्ता को विचार की वस्तु मानते हैं, तो वह विषय बन जाती है — और विषय होने से वह विभाज्य हो जाती है।
तब वह सार्वभौमिक नहीं रह जाती — और अंततः असत्ता के समान हो जाती है।
🧠 दार्शनिक विवेचन:
यह तर्क बौद्धिक अनुभव की सीमा को दर्शाता है।
हेगेल जैसे दार्शनिक कहते हैं कि यदि सत्ता को विचार से जाना जाए, तो वह विषय बन जाती है — और विषय विभाज्य होता है।
परंतु वेदांत कहता है कि सत्ता विचार से परे है — वह स्वयंप्रभा है, स्वतः सिद्ध है।
इसलिए, बौद्धिक तर्क पर्याप्त नहीं है — अनुभूति आवश्यक है।
🔍 निष्कर्ष:
🪷 श्लोक 27: मन की विह्वलता और शुद्ध सत्ता का अनुभव
मग्नस्याब्धौ यथा क्षाणि विह्वलानि तथास्य धीः, अखण्डैक रसं श्रुत्वा निष्प्रचारा बिभेत्यतः (27)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
जैसे कोई व्यक्ति गहरे जल में डूबा हो और आँखें बंद कर ले, वैसे ही जब मन शुद्ध सत्ता के महासागर में डूबने का प्रयास करता है, तो वह विह्वल हो जाता है।
अखण्डैक रसं — शुद्ध सत्ता की प्रकृति अखंड, एकरस, और निर्भेद है।
इस सत्य को सुनकर मन निष्प्रचार हो जाता है — उसकी गति रुक जाती है — और वह भयभीत हो उठता है।
🧠 भावानुवाद:
मन वस्तुओं को जानने के लिए बना है — वह हमेशा विषय की ओर प्रवृत्त होता है।
परंतु जब उसे बताया जाता है कि शुद्ध सत्ता कोई विषय नहीं है, कोई विचार नहीं है, कोई दृश्य नहीं है — तब वह भयभीत हो जाता है।
जैसे जल में डूबा व्यक्ति आँखें बंद कर अंधकार देखता है, वैसे ही मन सत्ता को अंधकार समझ बैठता है — जबकि वह पूर्णता है।
🧩 श्लोक 28: निर्विकल्प समाधि में भय
गौडाचार्या निर्विकल्पे समाधावन्य योगिनाम्, साकार ब्रह्मनिष्ठानामत्यन्तं भयमूचिरे (28)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
गौडपादाचार्य कहते हैं — जो योगी निर्विकल्प समाधि में प्रवेश करते हैं, वे भयभीत हो जाते हैं।
विशेषतः वे योगी जो साकार ब्रह्म में स्थित हैं — जब वे निर्गुण ब्रह्म के अनुभव की ओर बढ़ते हैं, तो उन्हें अत्यधिक भय होता है।
🧠 भावानुवाद:
निर्विकल्प समाधि — वह अवस्था है जहाँ मन, बुद्धि, इंद्रियाँ सब विलीन हो जाते हैं — केवल शुद्ध चैतन्य शेष रहता है।
इस अवस्था में कोई विषय नहीं होता — कोई दृश्य, कोई ध्वनि, कोई स्पर्श नहीं।
मन, जो हमेशा विषयों से जुड़ा रहता है, जब कुछ भी नहीं देखता, तो उसे लगता है कि कुछ नहीं है — और वह भयभीत हो जाता है।
यह भय असत्ता का नहीं, बल्कि विषय-शून्यता का है — जैसे बच्चा अंधेरे में रोता है, क्योंकि वहाँ कुछ नहीं है।
🧘♂️ विशेष अवधारणा: अस्पर्श योग — "संयोग का असंयोग"
योग का अर्थ है संयोग — दो वस्तुओं का मिलन।
परंतु अस्पर्श योग में कोई द्वैत नहीं — चैतन्य स्वयं को ही जानता है।
यह संयोग नहीं, बल्कि स्वयं में स्थित होना है — इसलिए इसे अस्पर्श योग कहा गया है।
🔍 निष्कर्ष:
🪷 श्लोक 29: अस्पर्श योग की कठिनता और भय
अस्पर्श योगो नामैष दुर्दर्शः सर्वयोगिभिः, योगिनो बिभ्यति ह्यस्मादभये भयदर्शिनः (29)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
यह अस्पर्श योग अत्यंत दुर्लभ है — दुर्दर्शः।
सभी योगी इसे प्राप्त नहीं कर सकते — सर्वयोगिभिः।
योगिनो बिभ्यति — योगी भी इससे भयभीत हो जाते हैं।
अभये भयदर्शिनः — जहाँ भय नहीं है, वहाँ भी वे भय देखते हैं।
🧠 भावानुवाद:
अस्पर्श योग वह अवस्था है जहाँ मन, बुद्धि, इंद्रियाँ सब विलीन हो जाते हैं — केवल शुद्ध चैतन्य शेष रहता है।
यह संयोग का असंयोग है — जहाँ आत्मा स्वयं से जुड़ती है, बिना किसी द्वैत के।
सामान्य योगी इस अवस्था को सुनकर ही भयभीत हो जाते हैं — क्योंकि वहाँ कोई विषय, कोई सहारा, कोई दृश्य नहीं होता।
🧩 श्लोक 30: शंकराचार्य द्वारा माध्यमिक मत की आलोचना
भगवत्पूज्यपादाश्च शुष्कतर्कपटूनमून्, आहुर्माध्यमिकान्भ्रान्तानचिन्त्येऽस्मिन् सदात्मनि (30)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
भगवत्पूज्यपाद — अर्थात् शंकराचार्य — कहते हैं:
शुष्क तर्क पटु — जो केवल सूखे तर्क में निपुण हैं।
वे माध्यमिक बौद्धों को भ्रांत कहते हैं — जो अचिन्त्य सदात्मा को नहीं समझ पाते।
🧠 भावानुवाद:
शंकराचार्य कहते हैं कि माध्यमिक बौद्ध केवल तर्क के आधार पर शून्यता को सिद्ध करना चाहते हैं।
वे सदात्मा — शुद्ध सत्ता — को न तो अनुभव करते हैं, न समझते हैं।
यह बौद्धिक भ्रम है — जो अनुभव के अभाव से उत्पन्न होता है।
🪷 श्लोक 31: बुद्धों की तर्कगत भ्रांति
अनादृत्य श्रुतिं मूर्ख्यादिमे बौद्धा तमस्विनः, आपेदिरे निरात्मत्वमनुमानैकचक्षुषः (31)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
श्रुति की अवहेलना करके, मूर्खता से प्रेरित होकर,
ये बौद्ध केवल अनुमान के आधार पर निरात्मता का निष्कर्ष निकालते हैं।
🧠 भावानुवाद:
वे कहते हैं कि आत्मा नहीं है — कोई स्व-चेतना नहीं है।
यह श्रुति-विरोधी है — उपनिषद, गीता, वेद सभी आत्मा की पुष्टि करते हैं।
यदि निरात्मता सत्य हो, तो जो यह कह रहा है, वह भी नहीं होना चाहिए — यह स्वविरोध है।
🧩 श्लोक 32: शून्यता बनाम सत्ता का तर्क
शून्यमासीदिति ब्रूषे सद्योगं वा सदात्मताम्, शून्यस्य न तु तद्युक्तमुभयं व्याहतत्वतः (32)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
यदि आप कहते हैं कि शून्यता थी, तो दो विकल्प हैं:
वह सत्ता से जुड़ी है।
वह स्वतः सत्ता है।
परंतु सत्ता और शून्यता एक साथ नहीं हो सकते — जैसे प्रकाश और अंधकार।
🧠 भावानुवाद:
यदि आप कहते हैं कि शून्यता है, तो आप सत्ता को ही स्वीकार कर रहे हैं — क्योंकि "है" कहना सत्ता का संकेत है।
इसलिए, शून्यता को स्वतंत्र सत्ता कहना तर्कविरोधी है।
अंततः, आप शुद्ध सत्ता को ही स्वीकार कर रहे हैं — चाहे आप उसे शून्यता कहें या कुछ और।
🔍 निष्कर्ष:
🪷 श्लोक 33: सत्ता और शून्यता का विरोध
न युक्तस्तमसा सूर्यः नापि चासौ तमोमयः, सच्चून्ययोर्विरोधित्वात् शून्यमासीद् कथं वद (33)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
सूर्य अंधकार से जुड़ा नहीं होता, न ही वह स्वयं अंधकारमय होता है।
उसी प्रकार, सत्ता और शून्यता एक-दूसरे के विरोधी हैं।
अतः यह कहना कि शून्यता थी, तर्कसंगत नहीं है।
🧠 भावानुवाद:
जैसे प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही सत्ता और असत्ता (शून्यता) का संयोग असंभव है।
यदि आप कहते हैं कि शून्यता थी, तो आप सत्ता को ही स्वीकार कर रहे हैं — क्योंकि "थी" कहना अस्तित्व का संकेत है।
यह उद्दालक ऋषि के उपदेश की पुष्टि करता है: "सद् एव सोम्य इदम् अग्रे आसीत्" — सृष्टि से पूर्व केवल सत्ता ही थी।
🧩 श्लोक 34: नाम-रूप की माया और शून्यता की भ्रांति
वियदादेर् नामरूपे मायया सुविकल्पिते, शून्यस्य नामरूपे च तथा चेत् जीव्यताṁ चिरम् (34)
📘 शाब्दिक अनुवाद:
आकाश आदि तत्वों में नाम और रूप की कल्पना माया के कारण होती है।
यदि आप कहते हैं कि शून्यता में भी नाम-रूप हैं, तो आपका तर्क स्वयं सत्ता की ओर संकेत करता है।
🧠 भावानुवाद:
शून्यता को नाम और रूप देकर उसे वर्णनीय बनाना, उसे सत्ता में बदल देता है।
यदि आप शून्यता को वर्णन करते हैं, तो वह अवर्णनीय नहीं रही — वह सत्ता बन गई।
इसलिए, किसी भी तर्क से, किसी भी दृष्टिकोण से, अंततः आप शुद्ध सत्ता को ही स्वीकार करते हैं।
🔍 निष्कर्ष:
इस प्रकार, शुद्ध सत्ता ही परम सत्य है — उद्दालक ऋषि का वचन सदैव सत्य है: "सद् एव सोम्य इदम् अग्रे आसीत् एकमेव अद्वितीयम्"
🪷 श्लोक 33–35: सत्ता और शून्यता का विवेचन
श्लोक 33:
न युक्तस्तमसा सूर्यः नापि चासौ तमोमयः। सच्छून्ययोर्विरोधित्वात् शून्यमासीद् कथं वद॥
भावार्थ:
जैसे सूर्य अंधकार से न जुड़ा है, न वह स्वयं अंधकारमय है, वैसे ही सत्ता और शून्यता का कोई संयोग नहीं हो सकता।
यदि आप कहते हैं कि "शून्यता थी", तो आप सत्ता को ही स्वीकार कर रहे हैं — क्योंकि "थी" कहना अस्तित्व का संकेत है।
यह उद्दालक ऋषि के वाक्य की पुष्टि करता है: "सद् एव सोम्य इदम् अग्रे आसीत्" — सृष्टि से पूर्व केवल सत्ता ही थी।
श्लोक 34:
वियदादेर् नामरूपे मायया सुविकल्पिते। शून्यस्य नामरूपे च तथा चेत् जीव्यतां चिरम्॥
भावार्थ:
आकाश जैसे तत्वों में नाम और रूप की कल्पना माया के कारण होती है।
यदि आप शून्यता को भी नाम-रूप देकर वर्णन करते हैं, तो वह अवर्णनीय नहीं रही — वह सत्ता बन गई।
अतः किसी भी तर्क से, अंततः आप शुद्ध सत्ता को ही स्वीकार करते हैं।
श्लोक 35:
स ओऽपि नामरूपे द्वे कल्पिते चेत् तदा वद। कुत्रेति निरधिष्ठानो न भ्रमः क्वचित् ईक्ष्यते॥
भावार्थ:
यदि आप कहते हैं कि सत्ता भी नाम-रूप से युक्त है, तो प्रश्न उठता है: कहाँ है वह शून्यता?
शून्यता को कहीं तो स्थित होना पड़ेगा — और यदि वह स्थित है, तो वह शून्य नहीं रही।
इस प्रकार, शून्यता का कोई आधार नहीं है। उसका वर्णन ही उसे सत्ता बना देता है।
🔍 तात्त्विक निष्कर्ष:
🧠 दार्शनिक विवेचन:
Conceiving non-existence is self-defeating: The moment you conceive it, it becomes an object of cognition — hence, existence.
Logical contradiction: To assert “non-existence existed” is to affirm existence in the very act of denial.
Vedantic affirmation: Sat alone is real. Asat is not a second entity but a negation falsely imagined.
🪷 श्लोक 36
सदासीदिति शब्दार्थभेदे वै गुण्यमापतेत्। अभेदे पुनरुक्तिः स्यात् मैवं लोके तथैक्षणात्॥
हिंदी अनुवाद (विवेचन):
उद्दालक ऋषि ने उपनिषद में कहा: "सद् एव आसीत्" — केवल सत्ता ही थी। अब शंका उठती है: "आप कहते हैं 'सत्ता थी', तो क्या अब नहीं है?" गुरु ऐसा क्यों कहते हैं, मानो वह सत्ता पहले थी?
इसका उत्तर यह है कि यह केवल रूपकात्मक (metaphorical) ढंग है, जिससे एक गूढ़ तथ्य को साधारण मन समझ सके। आपत्ति यह है कि "सत्" और "आसीत्" — ये दो शब्द यदि अलग अर्थ रखते हैं, तो द्वैत उत्पन्न होता है। और यदि दोनों एक ही अर्थ रखते हैं, तो यह पुनरुक्ति (tautology) हो जाती है — जैसे कहना: "जो था, वह था" या "जो है, वह है"।
ऐसे वाक्य शब्दों की पुनरावृत्ति मात्र प्रतीत होते हैं। "सत्ता थी" कहना ऐसा लगता है जैसे "सत्ता अस्तित्व में थी" — जो पुनरुक्ति है।
लेकिन उत्तर यह है कि हर वाक्य में क्रिया (verb) आवश्यक होती है। गुरु केवल "सत्ता" कहकर शिष्य को कुछ नहीं समझा सकते। वाक्य में कर्ता और क्रिया दोनों होते हैं — तभी अर्थ स्पष्ट होता है।
इसलिए "सत्ता थी" कहना द्वैत या पुनरुक्ति नहीं है, बल्कि व्याकरणिक आवश्यकता है।
उदाहरण के लिए:
"कर्म किया गया"
"वाणी बोली गई"
"भार उठाया गया"
ये वाक्य पुनरुक्ति नहीं हैं — इनका स्वतंत्र अर्थ है।
उसी प्रकार, "सत्ता थी" कहना यह दर्शाता है कि नाम-रूप के प्रकट होने से पहले केवल शुद्ध सत्ता ही थी।
यह नहीं कहा जा रहा कि अब सत्ता नहीं है — बल्कि यह शिष्य की दृष्टि से कहा गया है, जो सृष्टि को नाम-रूप के रूप में देखता है।
इसलिए, यह वाक्य शिक्षण के उद्देश्य से कहा गया है — इसे शाब्दिक रूप में नहीं, बल्कि भावार्थ में समझना चाहिए।
जैसे:
रस्सी पर सांप की भ्रांति — यह केवल आरोपण को समझाने के लिए है, न कि यह कहने के लिए कि संसार सचमुच सांप जैसा है।
इसी प्रकार, "सत्ता थी" कहना केवल बोधगम्यता के लिए है — शुद्ध सत्ता तो सदैव है।
🪷 श्लोक 37: कर्तव्यं कुरुते वाक्यं…
कर्तव्यं कुरुते वाक्यं ब्रूते धार्यस्य धारणम्। इत्यादि वासना विष्टं प्रत्यासीद् सदि तीरणम्॥
हिंदी अनुवाद (विवेचन):
जैसे हम कहते हैं: "कार्य किया गया", उसी प्रकार उद्दालक ऋषि ने कहा: "सत्ता थी, और केवल सत्ता ही थी"। क्योंकि उस समय काल नहीं था। सृष्टि के समय काल नहीं था। काल एक विकासक्रम है — वह बाद में उत्पन्न हुआ।
शुद्ध सत्ता में, नाम-रूप के प्रकट होने से पहले, काल नहीं था। जब हम कहते हैं: "प्राचीन काल में केवल सत्ता थी", तो इसका अर्थ है कि ईश्वर या सत्ता कालातीत है।
🪷 श्लोक 38: कालाभावे पुरे त्युक्तिः…
कालाभावे पुरे त्युक्तिः काल वासनया युतम्। शिष्यं प्रत्येव तेनात्र द्वितीयं न हि शङ्क्यते॥
हिंदी अनुवाद (विवेचन):
जब हम कहते हैं: "प्रारंभ में केवल ईश्वर था", तो "प्रारंभ" का अर्थ है — काल से परे।
शिष्य जो केवल दृश्य वस्तुओं, नाम-रूप, और सृष्टि के संदर्भ में सोच सकता है, उसके लिए इस प्रकार के वाक्य कहे जाते हैं।
इसलिए कृपया इस वाक्य की भावना को समझें — इसे शाब्दिक रूप में न लें।
🪷 श्लोक 39: चोद्यं वा परिहारो वा…
चोद्यं वा परिहारो वा क्रियतां द्वैत भाषया। अद्वैत भाषया चोद्यं नास्ति नापि तदुत्तरम्॥
हिंदी अनुवाद (विवेचन):
सभी प्रश्न और उत्तर द्वैत के आधार पर होते हैं। हम अद्वैत में कोई प्रश्न नहीं पूछ सकते, न ही उत्तर दे सकते हैं।
प्रश्न और उत्तर वाक्य के रूप में होते हैं — जिनमें कर्ता और क्रिया होती है। इसलिए प्रश्न स्वयं द्वैत को दर्शाता है, और उत्तर भी उसी प्रकार द्वैत में होता है।
लेकिन शुद्ध अद्वैत में — न कोई प्रश्न उठता है, न उत्तर की आवश्यकता होती है।
🪷 श्लोक 40: तदा स्तिमित गम्भीरं…
तदा स्तिमित गम्भीरं न तेजो न तमस्ततम्। अनाख्यमनभिव्यक्तं सत् किंचित् अवशिष्यते॥
हिंदी अनुवाद (विवेचन):
प्रारंभ में क्या था?
पूर्ण स्थिरता, गम्भीरता, शांति।
न प्रकाश था, न अंधकार।
न कोई गति, न कोई वर्णन संभव था।
यह शुद्ध सत्ता थी — जो भविष्य की सृष्टि की संभावना के रूप में विद्यमान थी।
नासदीय सूक्त कहता है: "नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम्" — न अस्तित्व था, न अनस्तित्व।
क्यों?
क्योंकि कोई जागरूकता नहीं थी — न कोई कहने वाला था कि "सत्ता थी", न कोई कहने वाला कि "कुछ नहीं था"।
इसलिए, उस अवस्था को केवल इस प्रकार ही कहा जा सकता है: "न अस्तित्व, न अनस्तित्व — केवल शुद्ध सत्ता"।
🪷 श्लोक 41
ननु भूम्यादिकं मा भूत्त् परमाण्वन्तनाशतः। कथं ते वियतोऽसत्त्वं बुद्धिमारोहतीति चेत्॥
🧭 भावार्थ:
आपत्ति यह उठाई जाती है कि जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि स्थूल तत्व सूक्ष्म परमाणुओं में विभाजित होकर नष्ट हो सकते हैं, वैसे ही क्या आकाश भी नष्ट हो सकता है?
यदि स्थूल तत्वों का अभाव संभव है, तो क्या आकाश भी असत् हो सकता है?
उत्तर: नहीं। आकाश को हम अनुभव करते हैं — स्थान, विस्तार, दूरी — ये सब बुद्धि में आते हैं। इसलिए वियद् (आकाश) को असत् कहना तर्कसंगत नहीं है।
🪷 श्लोक 42
अत्यन्तं निर्जगद्व्योम यथा ते बुद्धिमाश्रितम्। तथैव सन्निराकाशं कुतो नाश्रयते मतिम्॥
🧭 भावार्थ:
जैसे निर्जगत् आकाश को हम बुद्धि में ग्रहण कर सकते हैं, वैसे ही शुद्ध सत्ता को भी बुद्धि में ग्रहण किया जा सकता है।
आकाश प्रत्यक्ष नहीं है, फिर भी हम उसे अनुभव करते हैं।
वैसे ही शुद्ध सत्ता भी प्रत्यक्ष नहीं है, फिर भी वह बुद्धि में ग्रहणीय है।
तर्क: यदि आकाश को हम बिना रूप के समझ सकते हैं, तो शुद्ध सत्ता को भी समझ सकते हैं।
🪷 श्लोक 43
निर्जगद्व्योम दृष्टं चेत् प्रकाशतमसी विना। क्व दृष्टं किंच ते पक्षे न प्रत्यक्षं वियत् खलु॥
🧭 भावार्थ:
यदि आप कहते हैं कि आकाश प्रत्यक्ष है, तो वह केवल प्रकाश और अंधकार के कारण दृश्य होता है।
स्वतः आकाश प्रत्यक्ष नहीं है।
उसी प्रकार, शून्यता भी प्रत्यक्ष नहीं है।
निष्कर्ष: शून्यता न तो प्रत्यक्ष है, न बुद्धिगम्य। इसलिए शुद्ध सत्ता ही वास्तविकता है — शून्यता नहीं।
🪷 श्लोक 44
सद्वस्तु शुद्धन्त्वस्माभिः निश्चित्तैरनुभूयते। तूष्णीं स्थितौ न शून्यत्वं शून्यबुद्धेश्च वर्जनात्॥
🧭 भावार्थ:
जब हम तूष्णीम् — शांत, स्थिर, ध्यानस्थ अवस्था में होते हैं, तो हम शुद्ध सत्ता का अनुभव करते हैं।
जब मन इच्छाओं से मुक्त होता है, और हम एकांत में स्थिर बैठते हैं, तो हमें स्वयं का विस्तार अनुभव होता है।
ऐसा लगता है जैसे हम स्थिर पर्वत हैं — गंभीर, अचल, शुद्ध सत्ता।
निष्कर्ष:
शून्यता का अनुभव नहीं होता — क्योंकि शून्यबुद्धि संभव नहीं है।
शुद्ध सत्ता ही अनुभवगम्य है — शून्यता नहीं।
🔍 समग्र निष्कर्ष:
🪷 श्लोक 45
सद्बुद्धिरपि चेन्नास्ति मास्त्वस्य स्वप्रभात्वतः। निर्मनस्कत्वसाक्षित्वात् सन्मात्रं सुगमं नृणाम्॥
🧭 भावार्थ:
यदि कोई कहे कि सत्ता की बुद्धि में कोई अवधारणा नहीं है, तो भी कोई हानि नहीं — क्योंकि सत्ता स्वयं स्वप्रभा है, अर्थात् स्वयंप्रकाश है।
सत्ता को जानने के लिए बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती।
जैसे साक्षीभाव में मन शांत होता है, वैसे ही शुद्ध सत्ता भी निर्मनस्क अवस्था में अनुभवगम्य होती है।
निष्कर्ष: शुद्ध सत्ता को जानने के लिए बाह्य बुद्धि नहीं, बल्कि आंतरिक साक्षीभाव चाहिए। यह सभी मनुष्यों के लिए सुलभ है — यदि वे मन को शांत कर सकें।
🪷 श्लोक 46
मनो जृम्भणराहित्ये यथा साक्षी निराकुलः। मायाजृम्भणतः पूर्वं सत्तथैव निराकुलम्॥
🧭 भावार्थ:
जब मन अपनी इच्छाओं और विक्षेपों से मुक्त होता है, तब साक्षीभाव शांत, स्थिर और निर्विकल्प होता है।
उसी प्रकार, माया के प्रकट होने से पहले, शुद्ध सत्ता भी निर्विकल्प और शांत थी।
माया — जो ईश्वर की शक्ति है — प्रकृति के सत्त्वगुण से उत्पन्न होती है।
माया के प्रकट होने से पहले, ब्रह्म केवल सत्ता के रूप में था — निर्मल, निर्विकल्प, शुद्ध।
निष्कर्ष: जैसे ध्यानस्थ व्यक्ति साक्षीभाव में शुद्ध सत्ता का अनुभव करता है, वैसे ही सृष्टि से पूर्व केवल शुद्ध सत्ता ही थी — माया के बिना।
🪷 श्लोक 47
निस्तत्त्वकार्यगम्यस्य शक्तिर्मायाऽग्निशक्तिवत्। न हि शक्तिः क्वचित्कैश्चित् बुध्यते कार्यतः पुरा॥
🧭 भावार्थ:
ईश्वर की एक शक्ति है — माया। यह शक्ति अदृश्य है, अवर्णनीय है, और कार्य के माध्यम से ही पहचानी जाती है।
जैसे अग्नि की ऊष्मा को हम तभी जानते हैं जब वह प्रकट होती है।
वैसे ही माया की शक्ति को हम तभी समझ सकते हैं जब वह सृष्टि के रूप में कार्य करती है।
निष्कर्ष: शक्ति को स्वतंत्र वस्तु की तरह नहीं देखा जा सकता। वह स्वामी से अलग नहीं है, न ही पूर्णतः समान है — वह अविभाज्य रूप से संलग्न है।
🪷 श्लोक 48
न सद्वस्तु सतः शक्तिः न हि वह्नेः स्वशक्तिता। सद्विलक्षणतायां तु शक्तेः किं तत्त्वमुच्यताम्॥
🧭 भावार्थ:
सत्ता की शक्ति — जैसे अग्नि की ऊष्मा — न तो अग्नि से अलग है, न ही अग्नि ही है।
हम नहीं कहते कि ऊष्मा आ रही है — हम कहते हैं अग्नि आ रही है।
लेकिन ऊष्मा के बिना अग्नि की पहचान नहीं होती।
माया भी इसी प्रकार है:
वह ईश्वर से अलग नहीं है, पर ईश्वर नहीं है।
वह अविभाज्य, अवर्णनीय, और कार्य-प्रकट शक्ति है।
निष्कर्ष: माया को न तो ईश्वर से पूर्णतः अलग माना जा सकता है, न ही पूर्णतः समान। वह शक्ति है — जो सत्ता में निहित है, परंतु सत्ता नहीं है।
🪷 श्लोक 49
शून्यत्वमिति चेत् शून्यं मायाकार्यमितीरितम्। न शून्यं नापि सद्यादृक्तादृक्त्वमिहेष्यताम्॥
🧭 भावार्थ:
यदि कोई कहे कि माया शून्य है — असत् है — तो यह उचित नहीं है। क्योंकि माया का कार्य प्रकट होता है — सृष्टि होती है, अनुभव होता है।
शक्ति को शून्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह प्रभाव उत्पन्न करती है।
जैसे फूल में रंग होता है — वह अलग नहीं है, पर फूल भी नहीं है — वैसे ही माया भी सत्ता से अलग नहीं है, पर सत्ता भी नहीं है।
निष्कर्ष: माया न तो सत्ता है, न असत्ता — वह सदसद्विलक्षणा है। वह अवर्णनीय, अविभाज्य, और अनिर्वचनीय शक्ति है।
🪷 श्लोक 50
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं किं त्वभूत्तमः। सद्योगात्तत्समासः सत्त्वं न स्वतस्तन्निषेधनात्॥
🧭 भावार्थ:
यह ऋग्वेद के नासदीय सूक्त का संदर्भ है — "नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम्" — न सत्ता थी, न असत्ता।
उस समय सृष्टि नहीं हुई थी।
ईश्वर की शक्ति — माया — अप्रकट थी।
कोई प्रकाश नहीं था, कोई अंधकार नहीं था — केवल अवर्णनीय स्थिति थी।
निष्कर्ष:
माया की स्थिति न सत्ता है, न असत्ता — वह तृतीय तत्व है।
जैसे अग्नि और ऊष्मा अलग नहीं हैं, वैसे ही ईश्वर और माया भी अविभाज्य हैं।
🔍 समग्र विवेचन:
🪷 श्लोक 51
अत एव द्वितीयतं शून्यवन्न हि गण्यते। न लोके चैत्र तत् शक्त्योर्जीवितं लिख्यते पृथक्॥
🧭 भावार्थ:
इसी कारण शक्ति को द्वितीय वस्तु नहीं माना जा सकता। जैसे शून्य को कोई वस्तु नहीं मानता, वैसे ही शक्ति को भी स्वतंत्र सत्ता नहीं माना जाता।
जब किसी व्यक्ति को वेतन दिया जाता है, तो हम यह नहीं कहते कि यह वेतन व्यक्ति के लिए है और यह उसकी शक्ति के लिए।
शक्ति और व्यक्ति में कोई भेद नहीं किया जाता — वे अभिन्न हैं।
निष्कर्ष: शक्ति को स्वतंत्र सत्ता मानना द्वैत उत्पन्न करता है, जो ईश्वर और माया के संबंध में अवैदांतिक है। माया ईश्वर से अलग नहीं है — वह ईश्वर की अभिव्यक्ति है।
🪷 श्लोक 52
शक्त्याधिक्ये जीवितं चेत् वर्धते तत्र वृद्धिकृत्। न शक्तिः किं तु तत् कार्यं युद्धकृष्यादिकं तथा॥
🧭 भावार्थ:
यदि हम कहें कि शक्ति बढ़ती है, तो उसका अर्थ यह नहीं कि शक्ति स्वयं बढ़ी है।
शक्ति तो नित्य है — वह अविभाज्य है।
जब परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं, तो शक्ति का प्रभाव अधिक प्रकट होता है — जैसे युद्ध में वीरता, कृषि में परिश्रम।
वेतन या मान्यता बढ़ती है क्योंकि कार्य अधिक हुआ — शक्ति नहीं बढ़ी।
निष्कर्ष:
शक्ति का प्रभाव बढ़ता है, शक्ति नहीं।
ईश्वर और माया का संबंध भी ऐसा ही है — माया की अभिव्यक्ति सृष्टि में होती है, पर वह ईश्वर से अलग नहीं होती।
🔍 समग्र विवेचन:
🪷 श्लोक 53
सर्वथा शक्तिमात्रस्य न पृथक् गणना क्वचित्। शक्तिकायं तु नैवास्ति द्वितीयं शङ्क्यते कथम्॥
🧭 भावार्थ:
शक्ति को कभी भी स्वतंत्र सत्ता नहीं माना जा सकता। वह सर्वथा उस वस्तु में अवस्थित होती है जिसमें वह अभिव्यक्त होती है।
जैसे अग्नि की ऊष्मा, व्यक्ति की योग्यता, या फूल का रंग — ये सब गुण हैं, पर स्वतंत्र वस्तु नहीं।
यदि हम शक्ति को वस्तु से अलग मानें, तो वह शून्य हो जाती है — कार्य नहीं कर सकती।
निष्कर्ष: शक्ति और वस्तु में द्वैत नहीं है। वे अभिन्न हैं — शक्ति का कार्य वस्तु के अस्तित्व से ही संभव है।
No comments:
Post a Comment