Monday, August 11, 2025

पंचदशी सार 04

 अध्याय 4: द्वैत विवेक

पंचदशी ग्रंथ को तीन मुख्य खंडों में बांटा गया है, जिनमें से प्रत्येक में पांच अध्याय हैं: विवेक (भेद का ज्ञान), दीप (प्रकाश), और आनंद (परम सुख)अध्याय 4: द्वैत विवेक पंचदशी के पहले खंड, 'विवेक' के अंतर्गत आता है। इस खंड का प्राथमिक उद्देश्य वास्तविकता को उसके विभिन्न प्रकट रूपों और भ्रमों से पृथक करके जानना है, चाहे वह बाह्य ब्रह्मांड में हो या व्यक्तिगत चेतना में।

अध्याय 4: द्वैत विवेक का उद्देश्य और सामग्री:

यह अध्याय मुख्य रूप से द्वैत के भ्रम को समझने और उसके निराकरण पर केंद्रित है। यह ईश्वर (भगवान) और जीव (व्यक्तिगत चेतना) की अवधारणाओं का परिचय देता है, जो संसार में द्वैत के मुख्य पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

  • सृष्टि प्रक्रिया का विश्लेषण: यह अध्याय विभिन्न उपनिषदों में वर्णित सृष्टि प्रक्रियाओं की चर्चा करता है, जैसे कि बृहदारण्यक, तैत्तिरीय, मुंडक और छांदोग्य उपनिषद। यह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ब्रह्मांड, अपनी समस्त अभिव्यक्ति के साथ, स्वयं ईश्वर का ही एक स्वरूप है।

  • माया की भूमिका: द्वैत के इस प्रकटीकरण में माया (अज्ञान की शक्ति) की केंद्रीय भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। माया को प्रकृति (जगत् का उपादान कारण) माना गया है, और माया के स्वामी को महेश्वर कहा गया है, जो इस संसार की रचना करते हैं। यह बताता है कि माया कैसे ईश्वर और जीव दोनों की रचना करती है।

  • ईश्वर-सृष्टि और जीव-सृष्टि: द्वैत विवेक ईश्वर-सृष्टि और जीव-सृष्टि के बीच अंतर करता है। ईश्वर-सृष्टि वह है जिसमें वस्तुएं अपने आप में जैसी हैं (जैसे सृष्टि के प्रति परम सत्ता की आदि इच्छा से लेकर चेतना द्वारा हर विविध वस्तु के चेतन होने तक का प्रकटीकरण)। इसके विपरीत, जीव-सृष्टि वह है जिसमें वस्तुएं व्यक्तियों की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं से आच्छादित होती हैं (जैसे जाग्रत अवस्था से लेकर जीव की अंतिम मुक्ति तक का अनुभव)। यह भेद द्वैत के स्वरूप को समझने में सहायक है।

  • अद्वैत की स्थापना: अध्याय विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों, जैसे कि सांख्य के द्वैतवादी विचारों का खंडन करता है, जो बंधन को पुरुष (चेतना) और प्रकृति (पदार्थ) के मिलन के रूप में देखते हैं, और मुक्ति को उनके अलगाव के रूप में परिभाषित करते हैं। पंचदशी इस सांख्यवादी मोक्ष की परिभाषा की व्यवहार्यता पर सवाल उठाती है, इस प्रकार अद्वैतवादी दृष्टिकोण को स्थापित करती है।

  • उपधियों (सीमित उपाधियों) द्वारा आरोपण: यह अध्याय यह भी स्पष्ट करता है कि ईश्वरत्व और जीवत्व को उपधियों के कारण कल्पित या आरोपित माना जाता है। यह अंतर्निहित वास्तविकता पर गुणों के आरोपण की अवधारणा का एक महत्वपूर्ण विस्तार है, जो द्वैत की प्रतीति का कारण बनता है।

पंचदशी के वृहत्तर संदर्भ में द्वैत विवेक का स्थान और अध्यास से संबंध:

अध्याय 4: द्वैत विवेक, पंचदशी के तार्किक क्रम में एक महत्वपूर्ण कड़ी है:

  1. अध्याय 1: तत्व विवेक चेतना की अविभाज्यता और उसके अस्तित्व की अपरिहार्यता को स्थापित करता है, यह दर्शाता है कि चेतना का खंडन असंभव है।

  2. अध्याय 2: पंच महाभूत विवेक सार्वभौमिक चेतना को पंच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से भिन्न बताता है, और परम अस्तित्व को शुद्ध 'सत्' (सत्ता) के रूप में परिभाषित करता है।

  3. अध्याय 3: पंच कोष विवेक व्यक्तिगत चेतना को पंच कोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से भिन्न दर्शाता है। इस अध्याय में अध्यास (सुपरइम्पोजिशन) का सिद्धांत केंद्रीय है, जो समझाता है कि कैसे अनात्म कोशों को वास्तविक आत्मन् मान लिया जाता है। जीवत्व और कुटस्थ (स्थिर आत्मन्) के बीच गुणों का परस्पर आरोपण (अन्योन्य-अध्यास) मूलाविद्या (मूल अज्ञान) के कारण होता है।

  4. अध्याय 4: द्वैत विवेक इन पूर्ववर्ती अध्यायों में स्थापित नींव पर निर्मित होता है। यह सृष्टि में दिखने वाले द्वैत (ईश्वर-सृष्टि और जीव-सृष्टि) को माया और उपधियों (अध्यास के उपकरण) के विस्तार के रूप में प्रस्तुत करता है। यह दिखाता है कि कैसे माया और आरोपण (अध्यास) के कारण एकता में द्वैत की प्रतीति होती है, क्योंकि ईश्वर और जीव दोनों को माया के द्वारा ही कल्पित किया जाता है।

  5. अध्याय 5: महावाक्य विवेक द्वैत विवेक द्वारा उठाए गए द्वैत के भ्रम का समाधान करता है। यह चार महावाक्यों (प्रज्ञानं ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म) की व्याख्या करता है, जो व्यक्तिगत चेतना की सार्वभौमिक चेतना के साथ अभिन्नता को स्थापित करते हैं, इस प्रकार सभी द्वैत को नकारते हुए परम अद्वैत को उजागर करते हैं।

संक्षेप में, अध्याय 4: द्वैत विवेक, पंचदशी की 'विवेक' खंड में एक सेतु का कार्य करता है। यह सृष्टि में माया और अध्यास के कारण प्रकट होने वाले द्वैत की प्रकृति को स्पष्ट करता है, जो बाद में महावाक्यों के माध्यम से अद्वैत ज्ञान की प्राप्ति के लिए आधार तैयार करता है।

ईश्वर सृष्टि और जीव सृष्टि

पंचदशी ग्रंथ को तीन मुख्य खंडों में विभाजित किया गया है: विवेक (भेद का ज्ञान), दीप (प्रकाश), और आनंद (परम सुख)अध्याय 4: द्वैत विवेक 'विवेक' नामक प्रथम खंड का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसका मुख्य उद्देश्य वास्तविकता को मात्र दिखावे से पृथक करके समझना है । यह अध्याय विशेष रूप से संसार में दिखने वाले द्वैत (दुहरेपन) के स्वरूप को स्पष्ट करता है, और इसी संदर्भ में ईश्वर-सृष्टि और जीव-सृष्टि की अवधारणाओं की विस्तृत चर्चा की जाती है ।

अध्याय 4: द्वैत विवेक में ईश्वर-सृष्टि और जीव-सृष्टि का विवेचन:

यह अध्याय ईश्वर (परमात्मा) और जीव (व्यक्तिगत आत्मा) के बीच के भेद को समझाने पर केंद्रित है, जो द्वैत के दो मुख्य पहलू हैं । पंचदशी का अंतिम लक्ष्य इन दोनों प्रकार के द्वैत को अस्वीकार करके जीवन्मुक्ति (जीवन में मुक्ति) की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करना है।

  1. ईश्वर-सृष्टि (ईश्वर द्वारा निर्मित सृष्टि):

    • परिभाषा और स्वरूप: ईश्वर-सृष्टि का तात्पर्य ब्रह्मांड की ब्रह्मांडीय रचना से है। यह वस्तुओं को उनके स्वाभाविक रूप में जैसा वे वास्तव में हैं, वैसा दर्शाती है। इसे एक उद्देश्यपूर्ण वास्तविकता माना जाता है।

    • उत्पत्ति और कारण: यह सृष्टि परम सत्ता (आत्मन्) की आदि इच्छा या संकल्प से उत्पन्न होती है, जब वह 'एक से अनेक' होने की कामना करती है। समस्त ब्रह्मांड, अपनी समस्त अभिव्यक्तियों के साथ, स्वयं ईश्वर का ही एक प्रकटीकरण है।

    • माया की भूमिका: माया को प्रकृति (जगत् का उपादान कारण) के रूप में पहचाना जाता है, और महेश्वर (ईश्वर) को इसका स्वामी कहा गया है। ईश्वर-सृष्टि उस समय से शुरू होती है जब परम सत्ता का आदि संकल्प उत्पन्न होता है और जब इस सत्ता की चेतना द्वारा इस संसार की प्रत्येक विविध वस्तु का चेतन होना प्रकट होता है।

    • ईश्वर का नियंत्रण: ईश्वर अपने आदेश से सूर्य और चंद्रमा जैसी शक्तियों को नियंत्रित करता है, और परम आत्मन् (परमात्मन्) सभी प्राणियों के भीतर प्रवेश करके उन्हें नियंत्रित करता है।

  2. जीव-सृष्टि (जीव द्वारा निर्मित सृष्टि / व्यक्तिगत कल्पना):

    • परिभाषा और स्वरूप: जीव-सृष्टि व्यक्तिगत मन की रचना या व्यक्तिगत कल्पना को संदर्भित करती है। यह उन वस्तुओं को दर्शाती है जो विभिन्न व्यक्तियों की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं से प्रभावित होती हैं।

    • उत्पत्ति और अनुभव: जीव-सृष्टि जाग्रत अवस्था से लेकर जीव की अंतिम मुक्ति तक का अनुभव शामिल करती है। यद्यपि ईश्वर वस्तुओं का उनकी मूल प्रकृति के अनुसार निर्माण करता है, फिर भी जीव अपने ज्ञान और कर्मों के माध्यम से उन्हें उपभोग की वस्तुओं (भोग्य) में परिवर्तित कर देता है

    • मन की भूमिका: जीवत्व में बंधन और मुक्ति का कारण मन ही है। जीव अपनी निरंतर गलत सोच और सत्य और असत्य के बीच भेद न कर पाने की असमर्थता के कारण अपने कल्पित संसार को वास्तविक मान लेता है।

ईश्वर और जीव का संबंध एवं द्वैत का स्वरूप:

  • उपाधियों (सीमित उपाधियों) का आरोपण: पंचदशी स्पष्ट करती है कि ईश्वरत्व और जीवत्व को केवल उपाधियों के कारण कल्पित या आरोपित माना जाता हैमाया ईश्वर के लिए ब्रह्मांडीय निर्धारक कारक है, जबकि अविद्या जीव के लिए व्यक्तिगत निर्धारक कारक है। यह माया ही है जो अपने सत्व, रजस और तमस गुणों के माध्यम से ईश्वर, जीव और जगत् (संसार) के बीच भेद उत्पन्न करती है।

  • ब्रह्म की चेतना का प्रतिबिंब: ईश्वर और जीव दोनों ही ब्रह्म की चेतना को विभिन्न मात्रा में प्रतिबिंबित करते हैं, जैसे पारदर्शी वस्तुएँ प्रकाश को अलग-अलग ढंग से प्रतिबिंबित करती हैं।

  • अचिन्त्य रचना: यह द्वैत एक "अकल्पनीय रचना" वाला "इंद्रजाल" (जादू का खेल) है। माया का कार्य समझ से बाहर है और यह प्रश्न उठाने पर भी कोई सीधा उत्तर नहीं देती है कि यह कैसे उत्पन्न हुई।

  • भेद का खंडन: अध्याय इस बात पर जोर देता है कि सभी प्रकार के द्वैत का त्याग किया जाना चाहिए। कुटस्थ (अपरिवर्तनीय आधार), जो किसी भी परिवर्तन में शामिल नहीं होता, उसे परम वास्तविकता के रूप में स्थापित किया जाता है। जीवन्मुक्ति की अंतिम स्थिति इन दोनों द्वैतों - जीव-द्वैत और ईश्वर-द्वैत - के परित्याग से प्राप्त होती है।

  • ज्ञान का महत्व: इस द्वैत को समझना, विशेष रूप से ईश्वर-सृष्टि और जीव-सृष्टि के बीच के अंतर को, ज्ञानोदय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। अज्ञानी लोग संसार में फंसे रहते हैं क्योंकि वे अद्वैत ब्रह्मत्व को नहीं पहचानते।

संक्षेप में, अध्याय 4: द्वैत विवेक, पंचदशी के वृहत्तर 'विवेक' खंड का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो सृष्टि की दोहरी प्रकृति (ईश्वर-निर्मित वस्तुनिष्ठ वास्तविकता और जीव-निर्मित व्यक्तिपरक कल्पना) को स्पष्ट करता है। यह अध्याय माया और उपाधियों की भूमिका को उजागर करता है, जो इस द्वैत की उपस्थिति का कारण बनती हैं, और अंततः मुक्ति के लिए इस द्वैत के भ्रम को दूर करने का मार्ग प्रशस्त करता है।

मनस का कार्य

अध्याय 4: द्वैत विवेक पंचदशी ग्रंथ के 'विवेक' नामक प्रथम खंड का एक महत्वपूर्ण अध्याय है [पिछली बातचीत, । इस अध्याय का केंद्रीय विषय संसार में दिखने वाले द्वैत (दुहरेपन) के स्वरूप को समझना और वास्तविक (सत्) को आभास (मिथ्या) से अलग करना है । इसी संदर्भ में, यह अध्याय ईश्वर-सृष्टि और जीव-सृष्टि का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करता है, और यहीं पर मनस (मन) के कार्य की गहन चर्चा की जाती है ।

पंचदशी का अंतिम लक्ष्य जीवन्मुक्ति की अवस्था प्राप्त करना है, जिसमें ईश्वर-द्वैत और जीव-द्वैत दोनों का परित्याग किया जाता है । मनस का कार्य इसी द्वैत के निर्माण और उसके निवारण में एक केंद्रीय भूमिका निभाता है।

अध्याय 4 में मनस के कार्य का विवेचन:

  1. जीव-सृष्टि में मनस की केंद्रीय भूमिका:

    • व्यक्तिगत कल्पना का आधार: जीव-सृष्टि से तात्पर्य व्यक्तिगत मन की कल्पना या रचना से है । यह वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में नहीं, बल्कि व्यक्तियों की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं से प्रभावित रूप में दर्शाती है । संसार की अनेक रूपता और उच्च/निम्न श्रेणीकरण हमारे मन की अपनी कल्पना है।

    • बंधन और मुक्ति का कारण: पंचदशी के अनुसार, मन ही जीवत्व में बंधन और मुक्ति का कारण है। जीव अपनी लगातार गलत सोच और सत्य-असत्य में भेद न कर पाने के कारण अपने कल्पित संसार को वास्तविक मान लेता है ।

    • अहंकार और आत्मन् का प्रतिबिंब: मन के चार प्रकार होते हैं, जिनमें से एक अहंकार (मैं और मेरा के विचार) है। मन चेतना को भी प्रतिबिंबित करता है, और अहंकार इसी चेतना का प्रतिबिंब है। मनस वस्तुओं को जानता है और उनका उपभोग करता है, तथा सुख-दुःख की अनुभूति करता है।

  2. मनस की प्रकृति और गुण:

    • सूक्ष्म शरीर का घटक: मनस, दस इंद्रियों (पांच ज्ञानेंद्रिय और पांच कर्मेंद्रिय) के साथ मिलकर, सूक्ष्म शरीर (लिंग शरीर) के सत्रह घटकों में से एक है। इसे 'मनोमय कोश' कहा जाता है।

    • अस्थिर और शक्तिशाली: मन को चंचल, प्रमथी (व्याकुल करने वाला) और बलवान कहा गया है। इसे नियंत्रित करना अत्यंत कठिन है, जैसे वायु को नियंत्रित करना।

    • ज्ञानादि का आधार: मनस, नेत्र आदि इंद्रियों द्वारा अनुभव किए गए विषयों का संकल्प-विकल्प स्वरूप है, जो वस्तुओं को जानने की शक्ति प्रदान करता है। यह बाहरी वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है।

    • आभास और मिथ्यात्व: चिदाभास (चेतना का प्रतिबिंब) के साथ मनस भ्रमित होकर 'मैं संसारी हूँ' ऐसा मानने लगता है। मनस के कारण ही भ्रम उत्पन्न होता है, जिससे आत्मन् को देह और इंद्रियों से अभिन्न माना जाता है।

  3. मनस द्वारा उत्पन्न द्वैत और बंधन:

    • काम, क्रोध आदि का स्रोत: शास्त्र के अनुसार, मन द्वारा उत्पन्न द्वैत दो प्रकार का होता है - तीव्र (violent) और मंद (dull)। काम (वासना), क्रोध और अन्य वृत्तियाँ तीव्र द्वैत उत्पन्न करती हैं, जबकि दिन में देखे गए सपने या कल्पनाएँ मंद द्वैत का निर्माण करती हैं।

    • अज्ञान का परिणाम: मनस की 'मोहादि' (अज्ञान) अवस्था व्यक्ति को सत्य और असत्य में भेद न कर पाने की असमर्थता के कारण संसार में फंसाए रखती है [पिछली बातचीत, 284]। अज्ञानता के कारण व्यक्ति स्वयं को अपूर्ण मानता है और बाहरी दुनिया से पूर्णता की तलाश करता है। यह अज्ञान मन के विचारों और कर्मों के कारण होता है।

    • त्रिविध शरीर से संबंध: मनस तीनों शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म, कारण) में रहता है और शरीर की पीड़ाओं को अपनी मानता है, जिससे दुःख का अनुभव होता है।

  4. द्वैत विवेक में मनस के शोधन और निवृत्ति का महत्व:

    • आत्म-ज्ञान की प्राप्ति: आत्म-ज्ञान के लिए मन को शुद्ध करना आवश्यक है। यह मन ही है जो इंद्रियों को बाह्य विषयों में भटकाता है। मन का शुद्धिकरण अप्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है।

    • श्रवण, मनन और निदिध्यासन: आत्म-ज्ञान की प्रक्रिया में 'श्रवण' (शास्त्रों का सुनना), 'मनन' (सुने हुए ज्ञान पर गहरा विचार करना) और 'निदिध्यासन' (गहराई से चिंतन करना) ये तीन चरण महत्वपूर्ण हैं। मनन में मन श्रवण द्वारा प्राप्त विचारों पर गहरा चिंतन करता है। निदिध्यासन मनन का परिपक्व रूप है, जो समाधि की ओर ले जाता है।

    • अवांतर वाक्य का बोध: अवांतर वाक्य (जैसे 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म') मन को मुख्य विषय की ओर ले जाते हैं, जबकि महावाक्य ('तत् त्वम् असि') प्रत्यक्ष अनुभव में सहायता करते हैं।

    • विकारों का त्याग: सत्य की खोज करने वाले को काम, क्रोध आदि मन के विकारों का त्याग करना चाहिए।

    • मनस को शांत करना: मन को अंतर्मुखी करके बाहरी दुनिया से हटाकर एकाग्र करने से ध्यान संभव होता है। मन की वृत्तियों को शांत करने से मन अपने कारण (सत्-तत्त्व) में स्थित हो जाता है।

    • द्वैत का निवारण: मनस की चंचलता और अहंकार का आरोपण ही द्वैत का कारण है। 'मैं ब्रह्म हूँ' इस ज्ञान से अहंकार नष्ट हो जाता है, और मन की व्याकुलता समाप्त होती है। द्वैत के भ्रम को दूर करने के लिए विवेक और विचार की आवश्यकता है।

    • मुक्ति में मनस की भूमिका: मुक्ति केवल ब्रह्म-ज्ञान से ही प्राप्त होती है, और यह ज्ञान मन के शांत होने पर ही संभव है। मन की एकाग्रता और संकल्प-विकल्पों को छोड़कर ही ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति संभव है।

संक्षेप में, अध्याय 4: द्वैत विवेक में मनस को जीव-सृष्टि का प्राथमिक उपकरण और व्यक्तिगत अनुभव का निर्माता बताया गया है। मन की चंचलता और अज्ञान ही बंधन के मूल कारण हैं, जो उसे द्वैत के भ्रम में उलझाए रखते हैं। हालांकि, यही मनस आध्यात्मिक अभ्यास (श्रवण, मनन, निदिध्यासन) और आत्म-विवेक के माध्यम से शुद्ध होकर मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करता है, जिससे जीवन्मुक्ति की परम अवस्था प्राप्त होती है।

गुणों का प्रभाव

चतुर्थ अध्याय, जिसे "द्वैत विवेक" कहा गया है, वेदांत दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है, जहाँ वास्तविकता और उसके दिखावे के बीच अंतर को समझने पर जोर दिया जाता है। यह अध्याय विशेष रूप से ईश्वर (परमात्मा), जीव (व्यक्ति), और जगत् (संसार) की प्रकृति और उनके बीच की जटिल अंतःक्रिया का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। इस संदर्भ में, गुणों का प्रभाव द्वैत की अभिव्यक्ति और जीव की संसार में संलग्नता को समझने के लिए केंद्रीय अवधारणा है।

स्त्रोतों के अनुसार, गुणों का प्रभाव कई स्तरों पर देखा जा सकता है:

  • माया के गुणों द्वारा भेद की उत्पत्ति: ब्रह्मांडीय माया की शक्ति, अपने सत्त्व, रजस और तमस गुणों के माध्यम से, ईश्वर (भगवान), जीव (व्यक्ति), और जगत् (संसार) के बीच भिन्नताएँ उत्पन्न करती है। श्वेतश्वतर उपनिषद से उद्धृत श्लोक के अनुसार, माया को प्रकृति के रूप में जानना चाहिए, और माया के स्वामी को महेश्वर के रूप में। यह महेश्वर ही माया के साथ मिलकर इस संपूर्ण जगत् का सृजन करते हैं।

  • सृष्टि में गुणों की अभिव्यक्ति: वायु में गति, पत्थर में कठोरता, पानी में तरलता, अग्नि में उष्णता, आकाश में रिक्तता, और वस्तुओं में क्षणभंगुरता - ये सभी माया की शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं। हालाँकि, यह विशेष रूप से अध्याय 2 में पंचमहाभूतों के विश्लेषण में आता है, द्वैत विवेक का व्यापक दर्शन इन तत्वों और उनके गुणों के प्रभाव को समाहित करता है।

  • मन की द्वैतवादी रचना पर गुणों का प्रभाव: शास्त्रों से असंगत मनुष्य की मानसिक रचना दो प्रकार की होती है: तीव्र (violent) और मंद (dull)। तीव्र मानसिक रचना काम, क्रोध और अन्य वासनाओं को जन्म देती है, जबकि मंद मानसिक रचना दिन में स्वप्न देखने (day-dreams) को जन्म देती है। ये मन के गुणों के प्रत्यक्ष प्रभाव को दर्शाते हैं।

  • ईश्वर और जीव में माया और अविद्या का प्रभाव: माया और अविद्या दो उपाधियाँ हैं, जिनके संचालन के कारण ईश्वर और जीव के बीच भेद किया जाता है। ब्रह्मांडीय निर्धारक कारक माया है, और व्यक्तिगत निर्धारक कारक अविद्या है। यह भी गुणों के प्रभाव का एक अप्रत्यक्ष संदर्भ है, क्योंकि ये उपाधियाँ अक्सर गुणों के खेल से जुड़ी होती हैं।

  • कर्मों और उनके परिणामों में गुणों का प्रभाव: वेदांत दर्शन के अनुसार, आध्यात्मिक ज्ञान, परोक्ष ज्ञान (अप्रत्यक्ष ज्ञान) और अपरोक्ष ज्ञान (प्रत्यक्ष ज्ञान) के माध्यम से पापों और कर्मों के फलों का नाश होता है। हालाँकि यह सीधे तौर पर गुणों का उल्लेख नहीं करता है, विभिन्न प्रकार के कर्म (संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण) और उनके फल जीव के गुणों और इच्छाओं से प्रभावित होते हैं।

संक्षेप में, अध्याय 4: द्वैत विवेक के व्यापक संदर्भ में, माया के त्रिगुण (सत्त्व, रजस, तमस) ही ईश्वर, जीव और जगत् के बीच भेद की उत्पत्ति का मूल कारण हैं, और ये गुण विभिन्न स्तरों पर मन, क्रियाओं और अनुभवों को प्रभावित करते हुए संसार में द्वैत की अनुभूति कराते हैं।

योग और ब्रह्मज्ञान

चतुर्थ अध्याय, जिसे "द्वैत विवेक" कहा गया है, वेदांत दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है, जहाँ वास्तविकता और उसके दिखावे के बीच अंतर को समझने पर जोर दिया जाता है। यह अध्याय विशेष रूप से ईश्वर (परमात्मा), जीव (व्यक्ति), और जगत् (संसार) की प्रकृति और उनके बीच की जटिल अंतःक्रिया का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। इस संदर्भ में, योग और ब्रह्मज्ञान द्वैत की अभिव्यक्ति को समझने और अंततः उसका अतिक्रमण करने के लिए केंद्रीय अवधारणाएँ हैं।

स्त्रोतों के अनुसार, ब्रह्मज्ञान ही अज्ञान को दूर करने, दुःख और कर्मों के फलों का नाश करने तथा मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।

ब्रह्मज्ञान के प्रकार शास्त्रों में ब्रह्मज्ञान को मुख्य रूप से दो प्रकार का बताया गया है:

  1. परोक्ष ज्ञान (Indirect Knowledge): यह ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन, गुरु के उपदेश, और तर्क-वितर्क (विचार) के माध्यम से प्राप्त होता है। यह मन को शुद्ध करता है और संचित पापों का नाश करता है, लेकिन यह पूर्ण मोक्ष नहीं देता। यह ज्ञान हमें यह बताता है कि ब्रह्म 'है', जैसे स्वर्ग के अस्तित्व का ज्ञान।

  2. अपरोक्ष ज्ञान (Direct Knowledge/Realization): यह आत्म-साक्षात्कार की अवस्था है, जहाँ साधक स्वयं को ब्रह्म के साथ अभिन्न अनुभव करता है। यह ज्ञान सभी कर्मों (संचित और क्रियमाण) के फलों को भस्म कर देता है और पूर्ण मुक्ति प्रदान करता है।

ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के साधन

ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए विभिन्न साधनों का उल्लेख किया गया है:

  • श्रवण, मनन और निदिध्यासन: यह वेदांत अध्ययन की एक व्यवस्थित प्रक्रिया है:

    • श्रवण (Hearing): गुरु से शास्त्रों के सार को सुनना, विशेषकर 'तत् त्वं असि' जैसे महावाक्यों के अर्थ को समझना, जिससे जीव और ब्रह्म की एकता का दृढ़ निश्चय हो।

    • मनन (Pondering/Consideration): श्रवण किए गए ज्ञान पर गहराई से विचार करना और सभी शंकाओं को तर्क के माध्यम से दूर करना।

    • निदिध्यासन (Profound Contemplation/Meditation): यह मन को उच्चतम सत्य पर केंद्रित करने की प्रक्रिया है, जो अंततः आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है।

  • गुरु का मार्गदर्शन: शास्त्रों को समझने और परोक्ष ज्ञान से अपरोक्ष ज्ञान की ओर बढ़ने के लिए एक सक्षम और दयालु गुरु का होना अत्यंत आवश्यक है।

  • शास्त्र (श्रुति): ब्रह्मज्ञान का एकमात्र और अंतिम स्रोत शास्त्र हैं। तर्क और बुद्धि को शास्त्रों के सिद्धांतों का समर्थन करना चाहिए, न कि उनका खंडन।

  • बाधाओं का निवारण: काम, क्रोध, दिवास्वप्न, आसक्ति, और वाक्-विवाद जैसी बाधक मानसिक वृत्तियों का त्याग ब्रह्मज्ञान के मार्ग में महत्वपूर्ण है।

  • सद्गुणों का विकास: समता, आत्म-संयम, अनासक्ति, और सत्कर्मों का अभ्यास तथा श्वास-प्रश्वास के व्यायाम, अंतर्मुखता, एकाग्रता और सावधानी जैसी क्रियाएँ सहायक होती हैं।

योग की भूमिका

योग को आत्मज्ञान और मानसिक संयम प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन माना गया है। यह विवेक के समान ही ज्ञान की ओर ले जाता है। 'धर्ममेघ समाधि' (जो योग की एक उच्च अवस्था है) को प्रत्यक्ष ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने वाली बताया गया है, जो पूर्व के सभी संस्कारों और भविष्य के अनुभवों के कारणों को नष्ट कर देती है। हालांकि, स्त्रोत यह भी स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान (जो ज्ञेय वस्तु पर निर्भर करता है) और उपासना (जो कर्ता की इच्छा पर निर्भर करती है) में अंतर है। शुद्ध आत्मज्ञान के लिए कर्मकांड या उपासना (बाह्य अनुष्ठान) की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वे ज्ञान के विपरीत हैं। फिर भी, उपासना (गुणों सहित ध्यान) को भी मुक्ति के मार्ग के रूप में वर्णित किया गया है, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो गहरे विचार-विमर्श में सक्षम नहीं हैं, लेकिन जिनमें श्रद्धा और भक्ति है।

अध्याय 4: द्वैत विवेक के संदर्भ में

'द्वैत विवेक' अध्याय द्वैत की वास्तविकता को समझने पर केंद्रित है। यह ईश्वर और जीव की अवधारणाओं को प्रस्तुत करता है, यह बताते हुए कि कैसे जगत् ईश्वर की सृष्टि है (वस्तुनिष्ठ वास्तविकता) और जीव की सृष्टि (मनोवैज्ञानिक कल्पना) है। स्रोत बताते हैं कि माया, अपने गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के साथ, ईश्वर, जीव और जगत् के बीच भेदों को उत्पन्न करने वाली ब्रह्मांडीय शक्ति है। माया ब्रह्म को प्रतिबिंबित करके जीव और ईश्वर को भी उत्पन्न करती है।

द्वैत की धारणा और उससे जुड़े दुःख का मूल कारण अज्ञान है। 'द्वैत विवेक' का लक्ष्य इस द्वैत को समझना और अंततः उसे ज्ञान के माध्यम से पार करना है, यह पहचानना है कि ईश्वर और जीव अनिवार्य रूप से एक ही ब्रह्म के प्रकटीकरण हैं।

अतः, योग और ब्रह्मज्ञान की चर्चा 'द्वैत विवेक' के व्यापक संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है, क्योंकि वे साधनों का वर्णन करते हैं जिनके द्वारा व्यक्ति वास्तविक और अवास्तविक के बीच भेद कर सकता है, जीव और ईश्वर के सच्चे स्वरूप को ब्रह्म के रूप में समझ सकता है, और इस प्रकार अनुभूत द्वैत का अतिक्रमण कर सकता है। ध्यान, मनन, और शास्त्रों का अध्ययन ये सभी साधन हैं जो इस विवेकात्मक ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होते हैं।

मनोरज्य

चतुर्थ अध्याय, जिसे "द्वैत विवेक" कहा गया है, वेदांत दर्शन में सत्य और असत्य के बीच के अंतर को समझने पर केंद्रित है, विशेषकर ईश्वर (परमात्मा), जीव (व्यक्ति), और जगत् (संसार) की प्रकृति तथा उनके बीच की जटिल अंतःक्रिया के संदर्भ में . इस व्यापक संदर्भ में, मनोरज्य (Manorajya) को एक ऐसी मानसिक वृत्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो द्वैत की अनुभूति को बनाए रखती है और मोक्ष के मार्ग में बाधा डालती है।

स्त्रोतों के अनुसार मनोरज्य के विषय में निम्न बातें सामने आती हैं:

  • मनोरज्य की प्रकृति और वर्गीकरण:

    • मनोरज्य को अशास्त्रीय द्वैत का एक प्रकार माना गया है. अशास्त्रीय द्वैत वह है जो शास्त्र सम्मत नहीं है और सत्य की प्राप्ति में बाधक है.

    • इसे मानसिक सृष्टि या "डे-ड्रीम्स" (day-dreams) के रूप में वर्णित किया गया है.

    • मनोरज्य को अशास्त्रीय द्वैत के मंद (dull) प्रकार में वर्गीकृत किया गया है, जबकि काम (lust) और क्रोध (anger) जैसे तीव्र (violent) प्रकार भी होते हैं.

    • शास्त्र सत्य के साधक को मानसिक शांति और ध्यान बनाए रखने के लिए मनोरज्य से बचने की सलाह देते हैं.

    • यह एक बाधक मानसिक वृत्ति है जिसे त्यागना चाहिए, क्योंकि यह ज्ञान मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती है [previous turn, 264].

  • द्वैत विवेक के संदर्भ में मनोरज्य की भूमिका:

    • 'द्वैत विवेक' अध्याय ईश्वर, जीव और जगत् के बीच के भेद को समझने पर केंद्रित है. यह बताता है कि जगत् ईश्वर की सृष्टि (वस्तुनिष्ठ वास्तविकता) और जीव की सृष्टि (मनोवैज्ञानिक कल्पना) दोनों है .

    • मनोरज्य जीव की सृष्टि का हिस्सा है। यह मन की वह वृत्ति है जो अज्ञान के कारण अवास्तविक धारणाओं को उत्पन्न करती है और बनाए रखती है. उदाहरण के लिए, मनोरज्य से उत्पन्न होने वाली कल्पनाएँ संसार की असत्यता को समझने में बाधा डाल सकती हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक काल्पनिक कहानी वास्तविक लग सकती है यदि उस पर गहराई से विचार न किया जाए.

    • ज्ञान प्राप्ति का उद्देश्य इस द्वैत (विशेषकर जीव-सृष्टि द्वैत) का अतिक्रमण करना है. मनोरज्य जैसी मानसिक कल्पनाएँ इस द्वैत को पोषित करती हैं और व्यक्ति को संसार के बंधनों में उलझाए रखती हैं.

    • मनोरज्य जैसी वृत्तियाँ अज्ञान से उत्पन्न होती हैं और आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में बाधा डालती हैं.

  • मनोरज्य का परित्याग और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति:

    • साधक को तत्वों का गहन विचार करना चाहिए ताकि वह ईश्वर और सृष्टि के बीच के भेद को समझ सके. इस प्रक्रिया में, मनोरज्य जैसी बाधक मानसिक वृत्तियों का त्याग आवश्यक है.

    • ज्ञान प्राप्त होने पर, व्यक्ति यह पहचान जाता है कि "मैं सीमित, नश्वर मनुष्य नहीं हूँ, बल्कि सर्वशक्तिमान ईश्वर हूँ". इस सत्य की दृढ़ता के लिए, आंतरिक रूपांतरण (inner transformation) आवश्यक है, जिसमें व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में भी "मैं ही वह एक हूँ" या "संसार एक भ्रम है" जैसे विचारों पर ध्यान केंद्रित करता है.

    • मनोरज्य जैसी वृत्तियों को छोड़कर, व्यक्ति को शाश्वत ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो आनन्दमय और अद्वैत स्वरूप है.

    • यह स्पष्ट किया गया है कि अज्ञानी व्यक्ति बाहरी अनुभवों को सुख-दुःख का कारण मानते हैं, जबकि ज्ञानी पुरुष जानता है कि संसार अज्ञान का ही फल है और ज्ञान से ही इस दुःख का निवारण होता है. मनोरज्य भी अज्ञान का एक सूक्ष्म रूप है जो द्वैत की अनुभूति को बनाए रखता है।

संक्षेप में, अध्याय 4: द्वैत विवेक के संदर्भ में, मनोरज्य एक मानसिक भ्रांति या कल्पना है जो जीव द्वारा उत्पन्न किए गए द्वैत का हिस्सा है। यह अज्ञान का एक परिणाम है और आत्मज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति में एक बाधा है। इसे ज्ञान के माध्यम से त्यागना आवश्यक है ताकि साधक वास्तविक और अवास्तविक के बीच के भेद को समझ सके और अंततः द्वैत का अतिक्रमण करके अद्वैत ब्रह्म का अनुभव कर सके।

जीवन्मुक्ति

चतुर्थ अध्याय, जिसे "द्वैत विवेक" कहा गया है, वेदांत दर्शन में सत्य और असत्य के बीच के अंतर को समझने पर केंद्रित है, विशेषकर ईश्वर (परमात्मा), जीव (व्यक्ति), और जगत् (संसार) की प्रकृति तथा उनके बीच की जटिल अंतःक्रिया के संदर्भ में। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य जीव-सृष्टि द्वैत (जीव द्वारा निर्मित मानसिक कल्पनाएँ) और ईश्वर-सृष्टि द्वैत (ईश्वर द्वारा निर्मित वस्तुनिष्ठ संसार) दोनों को समझना और उनसे परे जाना है । इसी व्यापक संदर्भ में, जीवन्मुक्ति की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है, जो इस द्वैत के अतिक्रमण के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाली परम अवस्था है।

स्त्रोतों के अनुसार जीवन्मुक्ति के विषय में निम्नलिखित बिंदु सामने आते हैं:

  • जीवन्मुक्ति की परिभाषा एवं प्राप्ति:

    • जीवन्मुक्ति वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति इस जीवन में रहते हुए ही अज्ञान के सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है। इस अवस्था का उल्लेख विद्यारण्य स्वामी की कृतियों में भी महत्वपूर्ण रूप से किया गया है, जैसा कि उनकी "जीवनमुक्तिविवेक" नामक कृति से स्पष्ट है।

    • यह ब्रह्मज्ञान या आत्म-साक्षात्कार के प्रत्यक्ष अनुभव (अपरोज्ञ ज्ञान) से प्राप्त होती है। इस अवस्था में ब्रह्म का अनुभव साधक के लिए उतना ही स्पष्ट हो जाता है, जैसे हथेली पर रखे फल को देखना।

    • यह अवस्था तभी प्राप्त होती है जब मन निर्मल हो जाए और उसमें संचित सभी वासनाएँ (पूर्व कर्मों के संस्कार) घुल जाएँ।

  • द्वैत विवेक के माध्यम से जीवन्मुक्ति:

    • संसार की असत्यता का ज्ञान (जगत्-सृष्टि द्वैत का अतिक्रमण): जीवन्मुक्त व्यक्ति संसार को एक भ्रम या माया की सृष्टि के रूप में देखता है, जो ईश्वर की इच्छा से प्रकट होती है। वह जानता है कि जगत् एक "चित्रित चित्र" के समान है। यद्यपि वह संसार को अपनी आँखों से देखता है, फिर भी वह पहले की तरह उससे मोहित नहीं होता, क्योंकि उसे उसकी असत्यता का ज्ञान होता है। यह 'पंचादशी' के छठे अध्याय "चित्रदीप" के अर्थ पर गहरे चिंतन का परिणाम है।

    • जीव और आत्मा का विवेक (जीव-सृष्टि द्वैत का अतिक्रमण): जीवन्मुक्ति में व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप, जो कूटस्थ चैतन्य (स्थिर, साक्षी चेतना) है, को पहचानता है। वह समझता है कि वह पंचकोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय) का समूह नहीं है, बल्कि उनसे परे शुद्ध चेतना है। जीवन्मुक्त यह पहचानता है कि उसकी जीवत्व की भावना (चिदाभास) केवल कूटस्थ में बुद्धि के प्रतिबिंब के कारण उत्पन्न हुई है और यह एक भ्रम है।

    • अशास्त्रीय द्वैत का परित्याग: "मनोरज्य" (मानसिक कल्पनाएँ या डे-ड्रीम्स) और काम, क्रोध जैसी तीव्र मानसिक वृत्तियाँ अशास्त्रीय द्वैत के उदाहरण हैं जिन्हें ज्ञान मार्ग में बाधा होने के कारण त्यागना चाहिए । जीवन्मुक्ति की अवस्था में व्यक्ति इन बाधाओं से पूर्णतः मुक्त हो जाता है।

  • जीवन्मुक्त की विशेषताएँ एवं कर्मों का क्षय:

    • कर्मों का नाश: प्रत्यक्ष ज्ञान (अपरोज्ञ ज्ञान) संचित (संचित कर्म) और क्रियामान (वर्तमान कर्म) को भस्म कर देता है। प्रारब्ध कर्मों का भोग अवश्य होता है, परन्तु ज्ञानी पुरुष जानता है कि ये अनुभव अज्ञान के कारण दुःख का कारण नहीं बनते। वह दुःख को अज्ञान का फल मानता है।

    • दुःख से मुक्ति: जीवन्मुक्त सुख-दुःख से परे हो जाता है। उसके लिए सांसारिक दुःख अज्ञान का परिणाम होता है, और ज्ञान से यह समाप्त हो जाता है।

    • आंतरिक रूपांतरण: जीवन्मुक्त व्यक्ति का मन ब्रह्मतत्व में केंद्रित रहता है, जिससे उसके सभी संशय दूर हो जाते हैं। वह अपने दैनिक जीवन में भी "मैं ही वह एक हूँ" या "संसार एक भ्रम है" जैसे विचारों पर ध्यान केंद्रित करता है।

    • गुण: जीवन्मुक्त पुरुष में वैराग्य (विरक्ति), बोध (ज्ञान) और उपरति (क्रियाओं से विरति) जैसे गुण पाए जाते हैं। वैराग्य में व्यक्ति केवल इस लोक के नहीं, बल्कि ब्रह्मलोक के सुखों से भी विरक्त हो जाता है। उपरति में वह स्वयं को पूरे ब्रह्मांड से जुड़ा हुआ पाता है और स्वार्थ से पूर्णतः मुक्त हो जाता है।

    • व्यवहार: प्रारब्ध कर्मों के कारण जीवन्मुक्तों के व्यवहार में भिन्नता हो सकती है, लेकिन उनका ज्ञान एक समान रहता है। वे संसार में रहते हुए भी उससे अलिप्त रहते हैं, जैसे एक कलाकार अपने चित्रित चित्र को देखकर भी मोहित नहीं होता।

  • ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया: जीवन्मुक्ति तक पहुँचने के लिए शास्त्र श्रवण (गुरु से सुनना), मनन (तार्किक चिंतन) और निदिध्यासन (गहरा ध्यान) की प्रक्रिया आवश्यक है। परोक्ष ज्ञान (शास्त्रीय ज्ञान) मन को शुद्ध करता है और अप्रत्यक्ष रूप से पापों को नष्ट करता है, जिससे वह प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए तैयार होता है। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है जिसमें विश्वास, जिज्ञासा और निरंतर अभ्यास महत्वपूर्ण हैं।

संक्षेप में, अध्याय 4: द्वैत विवेक का उद्देश्य जीवन्मुक्ति की परम अवस्था तक पहुँचने के लिए आवश्यक द्वैत के भेदभाव और उससे उत्पन्न अज्ञान को दूर करना है। जीवन्मुक्त वह है जिसने संसार की असत्यता और अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, और जो इस जीवन में रहते हुए भी कर्मों के फल और दुःख से अप्रभावित रहता है।


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