चतुर्थ अध्याय का नाम है द्वैत विवेक — अर्थात् ईश्वर द्वारा रचित जगत और जीव द्वारा रचित बंधनात्मक जगत के स्वभाव का विवेकपूर्वक भेद करना। यह भेद वस्तुगत (objective) और व्यक्तिनिष्ठ (subjective) जगत के बीच है। ईश्वर की सृष्टि वस्तुतः है — वह हमारे सोचने या न सोचने से स्वतंत्र रूप से विद्यमान है। परंतु जीव अपनी मानसिक प्रतिक्रियाओं द्वारा उस ईश्वर-सृष्टि पर एक अलग जगत आरोपित करता है — यही जीव सृष्टि कहलाती है, और यही बंधन का कारण है।
📜 श्लोक 1
ईश्वरेणापि जीवेन सृष्टं द्वैतं विविच्यते । विवेके सति जीवेन हेयो बन्धः स्फुटीभवेत् ॥
हिंदी अनुवाद (शाब्दिक): ईश्वर और जीव दोनों द्वारा रचित द्वैत का विवेक किया जाता है। जब यह विवेक उत्पन्न होता है, तब जीव द्वारा रचित बंधन त्याज्य (heya) रूप में स्पष्ट हो जाता है।
दार्शनिक व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि जब हम ईश्वर की सृष्टि और जीव की सृष्टि में भेद करना सीख जाते हैं, तब हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि बंधन केवल जीव की कल्पना का परिणाम है — और इसलिए त्याज्य है। ईश्वर की सृष्टि में बंधन नहीं है; बंधन केवल उस मानसिक जगत में है जिसे जीव स्वयं रचता है।
📜 श्लोक 2
मायां तु प्रकृतिं विद्यात्मायिनं तु महेश्वरम् । स मायी सृजतीत्याहुः श्वेताश्वतरशाखिनः ॥
हिंदी अनुवाद (शाब्दिक): माया को प्रकृति जानो, और मायावी को महेश्वर। स्वेताश्वतर शाखा के उपनिषद कहते हैं कि वही मायावी ईश्वर इस सृष्टि को रचता है।
दार्शनिक व्याख्या: यह श्लोक वेदांत और सांख्य के दृष्टिकोणों को भेद करता है। वेदांत के अनुसार, प्रकृति (तीन गुणों वाली) ईश्वर की माया है — एक आश्चर्यजनक शक्ति जिसके द्वारा ईश्वर सृष्टि करता है। सांख्य दर्शन प्रकृति को स्वतंत्र सत्ता मानता है, परंतु वेदांत उसे ईश्वर की अधीन शक्ति मानता है। ईश्वर स्वयं मायावी है — वह जादूगर की तरह सृष्टि करता है और जब चाहे उसे समाप्त भी कर सकता है।
📜 श्लोक 3
आत्मा वा इदमग्रेऽभूत् स ईक्षत सृजाऽइति । संकल्पेन सृजल्लोकान् स एतानिति बह्वृचाः ॥
हिंदी अनुवाद (शाब्दिक): आत्मा ही इस सृष्टि के आरंभ में था। उसने सोचा: “मैं सृष्टि करूँ।” उसने संकल्प द्वारा इन लोकों की सृष्टि की — ऐसा ऋग्वेदी बहुवृच शाखा (ऐतरेय उपनिषद) कहती है।
दार्शनिक व्याख्या: यह श्लोक ऐतरेय उपनिषद की सृष्टि-संहिता को उद्धृत करता है।
आत्मा ही आदि में था — न कोई नाम, रूप, न कोई भेद।
उसने संकल्प किया: “मैं अनेक बनूँ।”
यह संकल्प ही सृष्टि का बीज है — बिना किसी बाह्य साधन के, केवल इच्छा से पंचमहाभूतों की सृष्टि हुई।
यहाँ ईश्वर सृष्टि की विशेषता है — वह संकल्प मात्र से सृष्टि करता है, जबकि जीव सृष्टि में इच्छा, प्रयास, और कर्म का जाल होता है।
📜 श्लोक 4
खं-वाय्वग्निजलोर्व्योषध्यान्नदेहाः क्रमादमी । सम्भूता ब्रह्मणस्तस्मादेतस्मादात्मनोऽखिलाः ॥
हिंदी अनुवाद (शाब्दिक): आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, औषधियाँ, अन्न और शरीर — ये सब क्रमशः ब्रह्म से उत्पन्न हुए। यह सब उसी आत्मा से प्रकट हुआ।
दार्शनिक व्याख्या: यह श्लोक तैत्तिरीय उपनिषद की सृष्टि-श्रृंखला को दर्शाता है:
ब्रह्म → आकाश → वायु → अग्नि → जल → पृथ्वी → वनस्पति → अन्न → शरीर
यह क्रम दर्शाता है कि स्थूल शरीर भी ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है — एक सघनित रूप।
यह अन्वय-व्यातिरेक की दृष्टि से महत्वपूर्ण है: शरीर ब्रह्म से उत्पन्न है, पर ब्रह्म शरीर नहीं है।
📜 श्लोक 5
बहुस्याम् एवातः प्रजायेय इति कामतः । तपस्तप्त्वाऽसृजत् सर्वं जगदित्याह तित्तिरिः ॥
हिंदी अनुवाद (शाब्दिक): “मैं अनेक बनूँ” — ऐसा कामना करके, ब्रह्म ने तप किया और सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की — ऐसा तैत्तिरीय उपनिषद कहता है।
दार्शनिक व्याख्या:
कामना = इच्छा, पर ब्रह्म की इच्छा संकल्पमात्र है — उसमें कोई अभाव नहीं।
तप = ब्रह्म की चेतना की एकाग्रता, जिससे सृष्टि की ऊष्मा उत्पन्न होती है।
यह सृष्टि तपस से प्रकट हुई — न कि किसी बाह्य कारण से।
यहाँ ईश्वर सृष्टि को तपस्वी संकल्प के रूप में देखा गया है — एक ऐसी इच्छा जो पूर्णता से उत्पन्न होती है, न कि अधूरी कामना से।
📜 श्लोक 6
इदमग्रे सदेवासीद् बहुत्वाय तदैक्षत। तेजोऽबन्नाण्डजादीनि ससर्जेति च सामगाः॥
इस सृष्टि के आरंभ में केवल "सत्" था। उसने बहुत्व की इच्छा की — "मैं अनेक बनूँ" — और तेज, अन्न, अण्ड आदि की सृष्टि की। ऐसा सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है।
विस्तृत व्याख्या:
सत् = शुद्ध अस्तित्व, ब्रह्म का निराकार रूप।
यह सत् स्वयं में ही स्पंदित हुआ — यह ईक्षा या संकल्प है।
यह संकल्प ही सृष्टि का बीज है।
यह स्पंदन क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध में रूपांतरित हुआ — जो पाँच स्थूल भूतों में सघनित हो गया:
आकाश → वायु → अग्नि → जल → पृथ्वी
छान्दोग्य उपनिषद की दृष्टि में सृष्टि कोई बाह्य प्रक्रिया नहीं, बल्कि ब्रह्म के भीतर ही एक आंतरिक संकल्प है।
📜 श्लोक 7
विस्फुलिङ्गा यथा वह्नेर्जायन्तेऽक्षरतस्तथा। विविधाश्चिज्जडाभावा इत्याथर्वणिकी श्रुतिः॥
जैसे अग्नि से चिंगारियाँ उत्पन्न होती हैं, वैसे ही अक्षर ब्रह्म से चेतन और जड़ भेद वाले अनेक भाव उत्पन्न होते हैं। ऐसा अथर्ववेद की श्रुति कहती है।
विस्तृत व्याख्या:
विस्फुलिङ्गा = चिंगारियाँ, जो अग्नि से निकलती हैं पर अग्नि से भिन्न नहीं होतीं।
अक्षर = ब्रह्म, जो अविनाशी है।
चिज्जडाभावाः = चेतन और जड़ रूपी भाव — जीव, मन, बुद्धि, शरीर, इंद्रियाँ, प्रकृति आदि।
यह दृष्टांत बताता है कि सृष्टि ब्रह्म से ही निकली है, उसी का अंश है — परंतु विविध रूपों में प्रकट होती है।
गूढ़ संकेत:
चेतना पत्थर में सोती है, वनस्पति में साँस लेती है, पशु में स्वप्न देखती है, और मनुष्य में सोचती है।
यह चेतना हर वस्तु में है — जड़ और चेतन का भेद केवल अभिव्यक्ति का है, सत्ता का नहीं।
🧠 दार्शनिक समन्वय
इन दो श्लोकों में छान्दोग्य और मुण्डक उपनिषद की सृष्टि-दृष्टियाँ दी गई हैं:
छान्दोग्य: सृष्टि = सत् का संकल्प → पंचमहाभूत
मुण्डक: सृष्टि = ब्रह्म से चिंगारियों की तरह जीवों का प्रकट होना
दोनों दृष्टियाँ एक ही सत्य को अलग उपमाओं से प्रकट करती हैं — सृष्टि ब्रह्म से ही है, ब्रह्म में ही है, और ब्रह्मरूप ही है।
श्लोक 8
जगदव्याकृतं पूर्वमासीद्व्याक्रियताधुना। दृश्याभ्यां नामरूपाभ्यां विराडादिषु ते स्फुटे॥
श्लोक 9
विराण्मनुर्नरो गावः खराश्वा जावयस्तथा। पिपीलिका वधि द्वन्द्वमिति वाजसनेयिनः॥
🧭 श्लोक 8 – विस्तृत व्याख्या
शाब्दिक अर्थ: सृष्टि पहले अव्याकृत (अविभाजित, अमूर्त) थी। अब वह व्याकृत (विभाजित, प्रकट) हो गई है — नाम और रूप के माध्यम से। यह स्पष्ट रूप से विराट आदि में प्रकट होती है।
दार्शनिक विश्लेषण:
अव्याकृत जगत = वह अवस्था जिसमें कोई भेद नहीं है, केवल संभाव्यता है।
नाम-रूप = व्यक्तित्व की पहचान और भौतिक स्वरूप — यही सृष्टि की व्याख्या है।
विराट = सृष्टि का स्थूल रूप, जिसमें समस्त प्राणी और पदार्थ समाहित हैं।
यह श्लोक बृहदारण्यक उपनिषद की उस दृष्टि को दर्शाता है जिसमें सृष्टि पहले एक अमूर्त सत्ता थी — फिर वह नाम और रूप के माध्यम से प्रकट हुई।
🧭 श्लोक 9 – विस्तृत व्याख्या
शाब्दिक अर्थ: विराट से मनु उत्पन्न हुए, फिर मनुष्य, फिर गायें, गधे, घोड़े, तेज दौड़ने वाले पशु, यहाँ तक कि चींटियाँ — सब द्वैत रूप में उत्पन्न हुए — ऐसा वाजसनेयी श्रुति कहती है।
दार्शनिक विश्लेषण:
यह श्लोक सृष्टि की विविधता को दर्शाता है — विराट से क्रमशः जीवों की उत्पत्ति।
मनु = आदिपुरुष, मानव जाति के मूल।
द्वन्द्वम् = द्वैत, भिन्नता, विविधता — चेतन और जड़, शुभ और अशुभ, देव और दानव।
यहाँ यह दिखाया गया है कि ब्रह्म की चेतना सर्वत्र व्याप्त है — वह विराट से लेकर चींटी तक में प्रकट होती है। कोई भी वस्तु ब्रह्म से अलग नहीं है — भले ही वह चेतन हो या अचेतन।
🌌 समन्वय: विज्ञान और वेदांत
आपने जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण साझा किया — nebular dust, entropy, condensation of energy — वह वेदांत के अव्याकृत से व्याकृत की प्रक्रिया से मेल खाता है।
विज्ञान कहता है: ऊर्जा की असंतुलित स्थिति से सृष्टि होती है।
वेदांत कहता है: ब्रह्म की इच्छा या संकल्प से नाम-रूप की सृष्टि होती है।
दोनों में मूल एक ही है — एकत्व से अनेकत्व की यात्रा।
🕉️ श्लोक १०
कृत्वा रूपान्तरं जैवं देहे प्राविशदीश्वरः। इति ताः श्रुतयः प्राहुर्जीवत्वं प्राणधारणात्॥
ईश्वर ने जब जीव रूप में रूपांतर किया, तब उसने देह में प्रवेश किया। श्रुतियाँ कहती हैं कि यह प्रवेश ही जीवत्व कहलाता है — क्योंकि यह प्राण के धारण से जुड़ा है।
🧠 दार्शनिक विश्लेषण
यह श्लोक बृहदारण्यक उपनिषद की उस प्रसिद्ध उक्ति को उद्धृत करता है — "स एष एव प्राविशत् तदात्मानं सृजत" — अर्थात् ब्रह्म ने न केवल सृष्टि की, बल्कि उसमें प्रवेश भी किया।
🔹 ईश्वर और जीव में अंतर क्या है?
ईश्वर: जब ब्रह्म शुद्ध सत्त्व के माध्यम से सृष्टि में प्रकट होता है, तब वह ईश्वर कहलाता है।
उसमें रज और तम नहीं होते।
वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, अद्वैत रूप है।
जीव: वही ब्रह्म जब रज और तम से आच्छादित होकर देह में प्रवेश करता है, तब वह जीव कहलाता है।
उसमें अविद्या, अहंकार, विकल्प, द्वैतबुद्धि होती है।
वह सीमित, इच्छाशील, और बंधनग्रस्त होता है।
🔹 उपमा: दर्पण में प्रतिबिंब
जैसे स्वच्छ दर्पण में चेहरा स्पष्ट दिखता है — वैसे ही ईश्वर में ब्रह्म का प्रतिबिंब अविकृत होता है।
लेकिन जीव रूपी दर्पण में रज और तम की धूल है — जिससे प्रतिबिंब मलिन हो जाता है।
📚 निष्कर्ष
सभी उपनिषद सृष्टि की प्रक्रिया को अलग-अलग ढंग से बताते हैं — पर सार एक ही है:
सृष्टि ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।
ब्रह्म ही ईश्वर बना, वही जीव बना।
अंतर केवल गुणों और अवस्थाओं का है — सत्ता का नहीं।
श्लोक ११
चैतन्यं यदधिष्ठानं लिङ्गदेहश्च यः पुनः। चिच्छाया लिङ्गदेहस्थात्तत्सङ्घो जीव उच्यते॥
जिस चैतन्य को अधिष्ठान (आधार) माना जाता है, और जो लिङ्गदेह (सूक्ष्म शरीर) है, उस लिङ्गदेह में स्थित चिच्छाया (चैतन्य की प्रतिबिंबित छाया) — इन तीनों का जो संग है, वही जीव कहलाता है।
🧠 दार्शनिक विश्लेषण
यह श्लोक जीव की संरचना को स्पष्ट करता है — कि जीव कोई एकवस्तु नहीं, बल्कि तीन तत्वों का संघटित मिश्रण है:
🔹 1. चैतन्य (Pure Consciousness)
यह ब्रह्म है — नित्य, सर्वव्यापक, साक्षी।
यह स्वयं में पूर्ण है, पर जब यह लिङ्गदेह में प्रतिबिंबित होता है, तब जीव बनता है।
🔹 2. लिङ्गदेह (Subtle Body)
मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार — सूक्ष्म शरीर के अंग हैं।
यह रज और तम से उत्पन्न होता है — सीमितता और विक्षेप का कारण।
🔹 3. चिच्छाया (Reflection of Consciousness)
यह चैतन्य की प्रतिबिंबित छाया है — जैसे सूर्य का प्रकाश जल में प्रतिबिंबित होता है।
यह प्रतिबिंब लिङ्गदेह में होता है — जिससे अहंता और ज्ञान उत्पन्न होता है।
🌞 उपमा: सूर्य और छिद्रित पर्दा
ब्रह्म = सूर्य का प्रकाश
लिङ्गदेह = छिद्रित पर्दा
चिच्छाया = उन छिद्रों से झाँकती किरणें
हर जीव एक अलग छिद्र है — इसलिए ब्रह्म का प्रकाश मात्रा और गुण में भिन्न प्रतीत होता है। परंतु मूलतः सबमें वही एक चैतन्य है — अंतर केवल माध्यम का है।
📚 निष्कर्ष
ईश्वर = शुद्ध चैतन्य + माया का सत्त्वप्रधान माध्यम
जीव = चैतन्य की छाया + रज-तमप्रधान लिङ्गदेह
जीव का बंधन इसी मिश्रण में है — जब चिच्छाया को चैतन्य समझ लिया जाता है।
श्लोक 12
माहेश्वरितु माया या तस्या निर्माणशक्तिवत्। विद्यते मोहाशक्तिश्च तं जीवं मोहयत्यसौ॥
जो माया ईश्वर की निर्माणशक्ति है, वही जब मोहशक्ति बन जाती है, तो वह जीव को भ्रमित करती है।
दार्शनिक विश्लेषण:
माया = ईश्वर की शक्ति, जो शुद्ध सत्त्व से युक्त होती है।
अविद्या = वही माया जब रज और तम से दूषित होकर जीव में प्रकट होती है।
ईश्वर के लिए माया निर्माणशक्ति है, पर जीव के लिए वही मोहशक्ति बन जाती है।
यह श्लोक ईश्वर और जीव के बीच का एक और सूक्ष्म भेद दर्शाता है — माध्यम एक ही है (माया), पर उसकी अभिव्यक्ति भिन्न है।
श्लोक 13
मोहादनिशतां प्राप्य मग्नो वपुषि शोचति। ईशसृष्टमिदं द्वैतं सर्वमुक्तं समासतः॥
मोह के कारण जीव अनिशता (असहायता) को प्राप्त होकर शरीर में डूब जाता है और शोक करता है। ईश्वर की सृष्टि रूपी यह द्वैत अब तक संक्षेप में बताया गया।
दार्शनिक विश्लेषण:
मोह = अविद्या का परिणाम, जिससे जीव अपनी स्वतंत्रता खो देता है।
वपुषि मग्नः = शरीर में डूबा हुआ — आत्मा को शरीर मान बैठता है।
शोचति = दुःख करता है — क्योंकि उसे लगता है कि वह सीमित, असहाय और बंधनग्रस्त है।
यह श्लोक दर्शाता है कि ईश्वर की सृष्टि में कोई दुःख नहीं है — दुःख केवल जीव सृष्टि में है, जो अविद्या से उत्पन्न होती है।
📚 समन्वय और निष्कर्ष
ईश्वर की सृष्टि = शुद्ध सत्त्व से युक्त, निर्माणात्मक, सर्वव्यापक, दुःखरहित।
जीव की सृष्टि = रज-तम से युक्त, मोहात्मक, सीमित, दुःखपूर्ण।
अब तक के श्लोकों में ईश्वर सृष्टि का विवेचन हुआ — अगले श्लोकों में जीव सृष्टि का विश्लेषण आरंभ होगा।
श्लोक 14
सप्तान्नं ब्राह्मणे द्वैतं जीवसृष्टं प्रपञ्चितम्। अन्नानि सप्त ज्ञानेन कर्मणा जनयत् पित॥
बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि ब्राह्मण (ईश्वर) ने सप्त अन्न उत्पन्न किए। इन्हीं के माध्यम से जीवसृष्टि का द्वैत प्रकट होता है। इन अन्नों को ज्ञान और कर्म के द्वारा पिता ने उत्पन्न किया।
📖 दार्शनिक विश्लेषण
यह श्लोक बृहदारण्यक उपनिषद् (6.3.1) के प्रसिद्ध सप्तान्न ब्राह्मण का संदर्भ देता है।
अन्न = केवल भौतिक भोजन नहीं, बल्कि सभी प्रकार की उपभोग योग्य वस्तुएँ — इन्द्रियों, मन और बुद्धि के लिए।
सप्त अन्न =
स्थूल अन्न (भोजन)
वाणी
दृष्टि
श्रवण
मन
बुद्धि
आत्मा के लिए उपयुक्त ज्ञान
ईश्वर इन अन्नों को ज्ञान और कर्म के माध्यम से उत्पन्न करता है, ताकि जीव अपनी सृष्टि कर सके।
🌍 जीवसृष्टि का प्रारंभ
ईश्वर की सृष्टि सामूहिक है — वह वस्तुनिष्ठ जगत की रचना करता है।
जीव की सृष्टि व्यक्तिगत है — वह अपने अनुभवों, इच्छाओं, संस्कारों और कर्मों के आधार पर अपना जगत रचता है।
जैसे एक ही वस्तु को देखकर कोई व्यक्ति प्रेम अनुभव करता है, दूसरा घृणा, और तीसरा उदासीनता — यह सब जीवसृष्टि है।
🧩 उपसंहार
ईश्वरसृष्टि = वस्तुनिष्ठ जगत
जीवसृष्टि = व्यक्तिनिष्ठ अनुभव
सप्त अन्न = जीव के अनुभवों और प्रतिक्रियाओं की विविधता का आधार
श्लोक 15:
मर्त्यान्नं एकं, देवान्ने द्वे, पश्वन्नं चतुर्थकम्। अन्यत् त्रितयं आत्मार्थम् — अन्नानां विनियोजनम्।
श्लोक 16:
व्रीह्यादिकं दर्शपूर्णमासौ क्षीरं तथा मनः, वाक् प्राणाश्चेति — स्पष्टत्वम् अन्नानां अवगम्यताम्।
📚 सात प्रकार के अन्न — वर्गीकरण और व्याख्या
🔍 दार्शनिक विश्लेषण
1️⃣ स्थूल अन्न (व्रीह्यादिकम्)
यह शरीर को पोषण देने वाला अन्न है — चावल, गेहूं, दालें।
यह मर्त्य शरीर के लिए आवश्यक है, परंतु केवल इससे जीवन नहीं चलता।
2️⃣ देव अन्न (दर्श-पूर्णमास यज्ञ)
अमावस्या और पूर्णिमा को किए गए यज्ञों की आहुति देवताओं का अन्न है।
भगवद्गीता के अनुसार, यदि हम देवताओं को अर्पण नहीं करते, तो हम उनके संसाधनों का उपभोग करके चोर बन जाते हैं।
3️⃣ पशु अन्न (दूध)
विशेषतः गाय आदि पशु अपने ही दूध से पोषित होते हैं।
यह अन्न उनके शरीर के लिए स्वाभाविक है।
4️⃣ जीव अन्न (मन, वाणी, प्राण)
मन: विचारों और अनुभवों का माध्यम है।
वाणी: संवाद और संबंध का साधन है।
प्राण: जीवन शक्ति है, जो शरीर को जीवित रखती है।
👉 इन तीनों के बिना व्यक्ति का अस्तित्व नहीं टिक सकता। यदि प्राण न हो, तो शरीर जीवित नहीं रहेगा; यदि मन न हो, तो चेतना नहीं रहेगी; यदि वाणी न हो, तो सामाजिक संबंध नहीं बनेंगे।
🧘♂️ आध्यात्मिक संकेत
उपनिषद अन्न को केवल भौतिक भोजन नहीं मानता, बल्कि अस्तित्व का आधार मानता है।
यह दृष्टिकोण पंचकोश विवेक से जुड़ता है — जहाँ अन्नमय कोश से लेकर प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोश तक की यात्रा होती है।
यह श्लोक हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है — शरीर से चेतना तक।
श्लोक: 17
ईशेन यद्यप्येतानि निर्मितानि स्वरूपतः, तथापि ज्ञानकर्माभ्यां जीवोऽकार्षात्तदन्नताम्।
भावार्थ: यद्यपि ये सभी वस्तुएँ — अन्न, मन, वाणी, प्राण — ईश्वर द्वारा स्वरूपतः निर्मित हैं, फिर भी जीव अपने ज्ञान और कर्म के कारण उनमें ममत्व उत्पन्न करता है और उसी से दुःख का कारण बनता है।
🔍 विस्तृत व्याख्या
1️⃣ ईश्वर की रचना — वस्तुओं का स्वरूप
धान्य, दूध, मन, वाणी, प्राण — सब ईश्वर की इच्छा से उत्पन्न हैं।
मनुष्य केवल बीज बोता है, परंतु अन्न उत्पन्न करना उसकी शक्ति में नहीं है।
गाय दूध देती है, परंतु वह जानबूझकर नहीं करती — यह भी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो ईश्वर की व्यवस्था से होती है।
2️⃣ पंचमहाभूतों से उत्पत्ति
मन, वाणी, प्राण — ये सब पंचमहाभूतों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) से बने हैं।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश — इनसे ही समस्त सूक्ष्म और स्थूल तत्त्व उत्पन्न होते हैं।
3️⃣ ममत्व का उद्भव — दुःख का कारण
ईश्वर में "मेरा" या "तेरा" का भाव नहीं होता, क्योंकि वहाँ द्वैत नहीं है।
जीव वस्तुओं को "मेरा खेत", "मेरी गाय", "मेरा शरीर" कहकर अपने से जोड़ता है।
यही अहंता और ममता का भाव बंधन और दुःख का कारण बनता है।
4️⃣ ज्ञान और कर्म के कारण बंधन
जीव अपने कर्मों और अधूरी समझ के कारण वस्तुओं को अपना मान लेता है।
ईश्वर की रचना, जो मूलतः आनंद और स्वतंत्रता का स्रोत है, वही जीव के लिए दुःख का कारण बन जाती है।
🧘♂️ आध्यात्मिक संकेत
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की मूल भावना को दर्शाता है — ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।
जब तक "मैं" और "मेरा" का भाव रहेगा, तब तक बंधन रहेगा।
ईश्वर की रचना को ईश्वर की दृष्टि से देखना — यही मुक्ति का मार्ग है।
🕉️ श्लोक 18
श्लोक: ईशकार्यं जीवभोग्यं जगत् द्वाभ्यां समन्वितम्। पितृजन्या भर्तृभोग्या यथा योषित् तथेष्यताम्॥
यह जगत ईश्वर द्वारा उत्पन्न है, परंतु इसका भोग जीव करता है। जैसे एक स्त्री पिता की संतान होती है, परंतु पति की भोग्या बनती है — वैसे ही यह जगत ईश्वर की रचना होते हुए भी जीव के भोग का विषय बन जाता है।
1️⃣ ईश्वर की दृष्टि — साक्षी भाव
ईश्वर केवल "होता है" — वह साक्षी है, भोगी नहीं।
ईश्वर की संतुष्टि केवल दर्शन में है, वह किसी वस्तु को "अपना" नहीं मानता।
मुण्डकोपनिषद के दो पक्षी वाले दृष्टांत में एक पक्षी केवल देखता है (ईश्वर), दूसरा खाता है (जीव)।
2️⃣ जीव की दृष्टि — ममत्व और भोग
जीव केवल देखने से संतुष्ट नहीं होता; वह वस्तु को "अपना" बनाना चाहता है।
यह "मेरा" भाव ही बंधन और दुःख का कारण है।
ईश्वर में ममत्व नहीं होता, परंतु जीव ममत्व का पुतला है।
3️⃣ स्त्री का दृष्टांत — एक ही वस्तु, दो दृष्टियाँ
जैसे एक स्त्री पिता के लिए पुत्री है और पति के लिए पत्नी — एक ही व्यक्ति दो दृष्टियों से भिन्न प्रतीत होती है।
वैसे ही जगत ईश्वर के लिए रचना है, पर जीव के लिए भोग का साधन।
🧘♂️ आध्यात्मिक संकेत
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की मूल भावना को दर्शाता है — द्रष्टा और भोक्ता का भेद।
ईश्वर साक्षी है, निर्लिप्त है; जीव संलग्न है, आकांक्षी है।
जब जीव वस्तुओं को "अपना" मानता है, तब वह बंधन में पड़ता है।
श्लोक 19
माया वृत्त्यात्मको हि शः संकल्पः साधनं जनौ। मनो वृत्त्यात्मको जीवः असंकल्पो भोगसाधनम्॥
ईश्वर की रचना माया के माध्यम से होती है — शुद्ध सत्त्व प्रधान।
जीव की वृत्ति मन के माध्यम से होती है — रजस और तमस प्रधान।
ईश्वर केवल "होता है", जीव "चाहता है" — यही भेद है।
🧘♂️ दार्शनिक गहराई
यह खंड विशेष रूप से अद्वैत वेदांत की उस सूक्ष्म स्थिति को उजागर करता है जहाँ:
ईश्वर निर्माता है, पर भोक्ता नहीं।
जीव भोक्ता है, पर निर्माता नहीं।
माया के माध्यम से ईश्वर जगत की रचना करता है — शुद्ध सत्त्व के द्वारा।
जीव रजस और तमस से युक्त मन के कारण संकल्प करता है, भोग चाहता है।
श्लोक 20
ईशनिर्मित मण्यादौ वस्तुन्येकविधे स्थिते। भोक्तृधीवृत्तिनानात्वात् तद्भोगो बहुदेशयते॥
ईश्वर द्वारा निर्मित वस्तु — जैसे मणि (रत्न) — स्वयं में एक ही स्वरूप में स्थित होती है। परंतु भोगकर्ता की बुद्धि-वृत्ति के भिन्न-भिन्न होने से उसका भोग अनेक प्रकार से होता है।
व्याख्या:
मणि (रत्न) एक ही है — उसे बंदर, मनुष्य, कीट सभी देख सकते हैं।
परंतु उसका मूल्य, महत्व और भाव अलग-अलग प्राणियों के लिए भिन्न होता है।
यह भिन्नता वस्तु में नहीं, भोक्ता की वृत्ति में है।
यही द्वैत का मूल है — वस्तु एक है, पर अनुभव अनेक।
श्लोक 21
हृष्यत्येको मणिं लब्ध्वा द्रुध्यत्यन्यो ह्यलाभतः। पश्यत्येव विरक्तोऽत्र न हृष्यति न कुप्यति॥
भावार्थ: एक व्यक्ति मणि पाकर प्रसन्न होता है, दूसरा खोकर क्रोधित होता है। परंतु एक विरक्त पुरुष केवल देखता है — न प्रसन्न होता है, न क्रोधित।
व्याख्या:
प्रसन्नता और क्रोध वस्तु से नहीं, ममत्व से उत्पन्न होते हैं।
विरक्त व्यक्ति वस्तु को केवल द्रष्टा की दृष्टि से देखता है — न भोगी की तरह।
यह साक्षी भाव है — जो अद्वैत वेदांत का मूल है।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
वस्तु स्वयं में निष्पक्ष है — न सुखद, न दुखद।
सुख-दुख की उत्पत्ति मन की प्रतिक्रिया से होती है।
विरक्ति का अर्थ है — वस्तु को उसकी वास्तविकता में देखना, बिना ममत्व के।
यही दृष्टि ईश्वर की दृष्टि है — जो केवल देखता है, भोग नहीं करता।
श्लोक: 22
प्रियोऽप्रिय उपेक्ष्यश्चेति आकारा मणिगास्त्रयः। सृष्टा जीवैर् ईशसृष्टं रूपं साधारणं त्रिषु॥
मणि (रत्न) के तीन प्रकार के भाव होते हैं — प्रिय, अप्रिय और उपेक्षित। यह भाव जीवों द्वारा उत्पन्न होते हैं, जबकि मणि का स्वरूप ईश्वर द्वारा निर्मित है और तीनों दृष्टियों में समान रहता है।
🔍 व्याख्या:
वस्तु (जैसे मणि) स्वयं में निष्पक्ष है — न वह प्रिय है, न अप्रिय, न उपेक्षित।
परंतु जीव की वृत्तियाँ उसके प्रति भिन्न-भिन्न भाव उत्पन्न करती हैं:
प्रिय: जब वह हमारी हो।
अप्रिय: जब वह खो जाए या किसी और के पास हो।
उपेक्षित: जब विरक्त व्यक्ति उसे देखता है, पर कोई भाव नहीं रखता।
👉 यह भेद वस्तु में नहीं, भोक्ता की वृत्ति में है।
🕉️ श्लोक 23:
श्लोक: भार्या स्नुषा ननन्दा च यातामातेत्यनेकधा। प्रतियोगिधिया योषिद् भिद्यते न स्वरूपतः॥
एक ही स्त्री को कोई पत्नी कहता है, कोई बहू, कोई ननद, कोई माँ — परंतु वह स्त्री स्वरूपतः एक ही है। यह भिन्नता देखने वाले की बुद्धि में है, स्त्री के स्वरूप में नहीं।
🔍 व्याख्या:
यह दृष्टांत दर्शाता है कि वस्तु एक ही होती है, परंतु दृष्टिकोण के अनुसार उसका अर्थ बदल जाता है।
जैसे:
पति के लिए वह पत्नी है।
सास के लिए बहू।
भाई के लिए ननद।
पुत्र के लिए माँ।
👉 यह भिन्नता स्वरूप में नहीं, बुद्धि की प्रतियोगिता में है — अर्थात् देखने वाले की मानसिक स्थिति में।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की मूल भावना को दर्शाता है — द्रष्टा और दृश्य के भेद को।
वस्तु एक है, परंतु जीव की अहंता-ममता और संबंधबुद्धि के कारण भिन्न-भिन्न रूपों में देखी जाती है।
यही माया का कार्य है — एक को अनेक दिखाना।
🕉️ श्लोक 24: हिन्दी भावार्थ
श्लोक: ननु ज्ञानानि भिद्यन्तामाकारस्तु न भिद्यते। योषिद्वपुष्य तिष्यो न दृष्टो जीवनिर्मितः॥
भावार्थ: ज्ञान की दृष्टियाँ भिन्न हो सकती हैं, परंतु वस्तु का स्वरूप नहीं बदलता। जैसे स्त्री का शरीर एक ही रहता है, परंतु उसके प्रति दृष्टिकोण भिन्न होते हैं — यह भिन्नता जीव की मानसिक रचना है।
🔍 व्याख्या:
वस्तु (जैसे स्त्री, मणि, जगत) स्वयं में एक ही रहती है।
परंतु जीव की बुद्धि-वृत्ति के अनुसार वह प्रिय, अप्रिय या उपेक्षित बन जाती है।
यह भिन्नता वस्तु में नहीं, मन की प्रतिक्रिया में है।
🕉️ श्लोक 25:
श्लोक: मैवं मांसमयी योषित् काचिदन्या मनोमयी। मांसमय्याऽभेदेऽपि भिद्यते हि मनोमयी॥
भावार्थ: स्त्री का शरीर तो मांसमय है और एक ही रहता है, परंतु मनोमयी दृष्टि से वह भिन्न प्रतीत होती है। यही मानसिक भेद दुःख का कारण बनता है।
🔍 व्याख्या:
एक ही स्त्री — बेटी, पत्नी, बहू, माँ — अलग-अलग संबंधों में अलग अनुभव देती है।
यह भिन्नता शरीर में नहीं, मन की कल्पना में है।
यही मनोमय जगत है — जहाँ वस्तु नहीं बदलती, पर अनुभव बदलता है।
🕉️ श्लोक 26:
भ्रान्ति स्वप्न मनोराज्य स्मृतिष्वस्तु मनोमयम्। जाग्रन्मनेन मेयस्य न मनोमयतॆति चेत्॥
भावार्थ: भ्रांति, स्वप्न, कल्पना और स्मृति — ये सब मनोमय हैं। परंतु जाग्रत अवस्था में जो वस्तु है, वह मनोमय नहीं है — ऐसा कहना भ्रम है।
🔍 व्याख्या:
वस्तु स्वयं में स्थिर है — वृक्ष, पत्थर, मणि आदि।
परंतु मन की प्रतिक्रिया से वह प्रिय, अप्रिय या उपेक्षित बन जाती है।
दुःख का कारण वस्तु नहीं, मन की प्रतिक्रिया है।
यही वेदांत का मूल विवेक है — वस्तु और अनुभव में भेद करना।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की उस सूक्ष्म स्थिति को उजागर करता है जहाँ:
वस्तु एक है, परंतु मन उसे भिन्न-भिन्न रूपों में देखता है।
सुख-दुःख वस्तु से नहीं, मन की वृत्ति से उत्पन्न होते हैं।
विरक्ति का अर्थ है — वस्तु को उसकी वास्तविकता में देखना, बिना ममत्व के।
🔹 ईश्वर सृष्टि (Īśvara Sṛṣṭi):
वस्तु का मूल स्वरूप — जैसे पर्वत, नदी, सूर्य — ईश्वर की सृष्टि है।
यह निष्पक्ष, सामान्य, और सर्वव्यापी है।
ईश्वर की चेतना में जगत भीतर होता है — वह साक्षी है, भोक्ता नहीं।
🔹 जीव सृष्टि (Jīva Sṛṣṭi):
वस्तु के प्रति भाव, ममत्व, राग-द्वेष — यह जीव की सृष्टि है।
जीव की चेतना में जगत बाहर होता है — वह संलग्न है, विवेकहीन।
👉 यही भेद द्वैत का मूल है — वस्तु एक है, परंतु अनुभव भिन्न।
📚 श्लोक 26
भ्रान्ति स्वप्न मनोराज्य स्मृतिष्वस्तु मनोमयम्। जाग्रन्मनेन मेयस्य न मनोमयतॆति चेत्॥
स्वप्न, कल्पना, स्मृति में वस्तु मनोमय होती है। परंतु जाग्रत अवस्था में वस्तु मनोमय नहीं है — ऐसा कहना भ्रम है।
🔍 व्याख्या:
वस्तु का स्वरूप ईश्वर की सृष्टि है — वह बाह्य रूप से विद्यमान है।
परंतु जीव की मानसिक प्रतिक्रिया उसे प्रिय, अप्रिय, या उपेक्षित बना देती है।
स्वप्न में वस्तु पूर्णतः मनोमय होती है — परंतु जाग्रत अवस्था में भी अनुभव मनोमय होता है, भले ही वस्तु स्थूल हो।
🧘♂️ आत्मा की अस्पष्ट अभिव्यक्ति
आत्मा स्वयंप्रभा है — परंतु अवरण और विक्षेप के कारण वह स्पष्ट नहीं होती।
जैसे पिता शिष्य समूह में अपने पुत्र की आवाज़ को अस्पष्ट रूप से पहचानता है — वैसे ही आत्मा की आवाज़ भी इंद्रियों के शोर में दब जाती है।
यही कारण है कि हम कभी विरक्ति अनुभव करते हैं, और कभी आकर्षण — आत्मा की मिश्रित अभिव्यक्ति।
✨ निष्कर्ष
वस्तु का स्वरूप ईश्वर की सृष्टि है — वह न बदली जाती है, न भावयुक्त होती है।
परंतु जीव की मानसिक वृत्तियाँ वस्तु को रंग देती हैं — यही जीव सृष्टि है।
आत्मा की स्वाभाविक आनंदमय प्रकृति को जानने के लिए हमें विक्षेप और अवरण को हटाना होगा।
🕉️ श्लोक 27:
बाढं माने तु मेयेन योगात् स्याद् विषयाकृतिः। भाष्यवार्तिककाराभ्यां अयम् अर्थ उदीरितः॥
जब मन का संपर्क किसी वस्तु से होता है, तब उस वस्तु की एक आकृति मन में बनती है। यह सिद्धांत शंकराचार्य (भाष्यकार) और सुरेश्वराचार्य (वार्तिककार) दोनों ने स्वीकार किया है।
🔍 व्याख्या:
हम वस्तु को सीधे नहीं देखते, बल्कि मन में बनी छवि के माध्यम से देखते हैं।
जैसे चश्मे के लेंस रंगीन हों तो वस्तु भी रंगीन दिखती है — वैसे ही मन की वृत्तियाँ वस्तु को रंग देती हैं।
यह द्वितीयक (secondary) अनुभव है, प्राथमिक नहीं।
👉 वस्तु का स्वरूप ईश्वर की सृष्टि है, परंतु उसका अनुभव जीव की सृष्टि है।
🕉️ श्लोक 28:
मूषा सिक्तं यथा ताम्रं तन्निभं जायते तथा। रूपादीन् व्याप्नुयच्चित्तं तन्निभं दृश्यते ध्रुवम्॥
जैसे पिघला हुआ तांबा जिस साँचे में डाला जाता है, उसी आकार का हो जाता है — वैसे ही मन जिस वृत्ति में ढलता है, उसी के अनुसार वस्तु को देखता है।
🔍 व्याख्या:
तांबा स्वयं में निर्गुण है — परंतु साँचे के अनुसार उसका आकार बनता है।
वस्तु स्वयं में निष्पक्ष है — परंतु मन की वृत्ति के अनुसार उसका अनुभव होता है।
मन का साँचा हर व्यक्ति में भिन्न होता है — इसलिए एक ही वस्तु सबको अलग लगती है।
👉 यही जीव सृष्टि है — मन के साँचे में ढली हुई वस्तु की छवि।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
ईश्वर सृष्टि वस्तु का वास्तविक स्वरूप है — निष्पक्ष, सार्वभौमिक।
जीव सृष्टि वस्तु का अनुभव है — मन की वृत्तियों से रंगा हुआ।
यही कारण है कि जगद् दुःखमयं प्रतीत होता है — जबकि वस्तु स्वयं में दुःखमय नहीं है।
🕉️ श्लोक 29:
व्यञ्जको वा यथाऽऽलोको व्यङ्ग्यस्याकारतामियात्। सर्वार्थव्यञ्जकत्वाद्धीः अर्थाकाराः प्रदृश्यते॥
जैसे सूर्य का प्रकाश किसी वस्तु पर पड़कर उस वस्तु के आकार में दिखाई देता है, वैसे ही मन भी वस्तु के आकार को ग्रहण करता है और उसी रूप में उसे देखता है।
🔍 व्याख्या:
सूर्य का प्रकाश स्वयं निर्गुण है — उसमें कोई आकार नहीं होता।
परंतु जब वह किसी घड़े पर पड़ता है, तो प्रकाश उस घड़े के आकार में दिखाई देता है।
उसी प्रकार, मन वस्तु के आकार को ग्रहण करता है — और वस्तु को उसी रूप में देखता है।
वस्तु स्वयं में निर्विकारी है — परंतु मन की वृत्ति उसे आकृति देती है।
👉 यह दृष्टांत दर्शाता है कि वस्तु का अनुभव मन की वृत्ति के अनुसार होता है, न कि वस्तु के वास्तविक स्वरूप के अनुसार।
🕉️ श्लोक 30:
मातुर्मनाभिनिष्पत्तिः निष्पन्नं मेयमेतितत्। मेयाभिसंगतं तच्च मेयाभत्वं प्रपद्यते॥
जब मन किसी वस्तु के साथ संपर्क करता है, तब वह उस वस्तु को जानता है। मन की वृत्ति वस्तु को घेरती है, और उस पर आत्मचेतना की छाया पड़ती है — तभी वस्तु का अनुभव होता है।
🔍 व्याख्या:
मन स्वयं चेतन नहीं है — वह आत्मा से चेतना उधार लेता है।
जैसे तांबे की तार में विद्युत प्रवाह तभी होता है जब स्रोत जुड़ा हो — वैसे ही मन में चेतना तभी आती है जब आत्मा से जुड़ता है।
वस्तु का ज्ञान दो चरणों में होता है:
वृत्ति व्यक्तिः — मन की वृत्ति वस्तु को घेरती है।
फल व्यक्तिः — आत्मचेतना उस वृत्ति को प्रकाशित करती है।
👉 यही कारण है कि हम वस्तु को केवल मन से नहीं, बल्कि चेतना से अनुभव करते हैं — और अनुभव में स्वयं भी सम्मिलित हो जाते हैं।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
मन आकार देता है, आत्मा प्रकाश देती है।
वस्तु का अनुभव वृत्ति और चेतना के संयोग से होता है।
यही द्वैत का अनुभव है — परंतु अद्वैत में वृत्ति का विलय और आत्मा का पूर्ण प्रकाश होता है।
🕉️ श्लोक 31:
सत्येवं विषयौ द्वौ स्तो घटौ मृण्मय धीमयौ। मृण्मयो मानमेयः स्यात् साक्षिभास्यस्तु धीमयः॥
वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं — एक मृण्मय (मिट्टी से बनी, भौतिक) और दूसरी धीमय (मन से बनी, मनोवैज्ञानिक)। मिट्टी का घट इंद्रियों द्वारा जाना जाता है, परंतु मन के द्वारा जो अर्थ और संबंध उस घट से जुड़ते हैं, वह मनोवैज्ञानिक घट कहलाता है।
🔍 विस्तृत व्याख्या
🔹 भौतिक वस्तु (मृण्मय)
जैसे एक घड़ा मिट्टी से बना है — वह इंद्रियों द्वारा देखा, छुआ, जाना जाता है।
यह ईश्वर सृष्टि है — वस्तु का वास्तविक, निष्पक्ष स्वरूप।
🔹 मनोवैज्ञानिक वस्तु (धीमय)
जब हम कहते हैं "यह मेरा घड़ा है", "यह मेरी ज़मीन है", तो वह वस्तु मनोवैज्ञानिक बन जाती है।
यह जीव सृष्टि है — वस्तु के प्रति ममत्व, स्वामित्व, भावना।
👉 यही भेद है — वस्तु स्वयं में निष्पक्ष है, परंतु मन उसे स्वामित्व और भावना से रंग देता है।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
ईश्वर सृष्टि वस्तु का स्वरूप है — जैसे मिट्टी, भवन, भूमि।
जीव सृष्टि वस्तु का अनुभव है — जैसे "यह मेरा है", "मैंने खरीदा", "मैं इससे जुड़ा हूँ"।
वस्तु को स्वयं कोई ज्ञान नहीं — भवन को नहीं पता कि वह बिक रहा है या खरीदा गया है।
परंतु मनुष्य उस भवन से जुड़कर उसे मनोवैज्ञानिक वस्तु बना देता है।
✨ निष्कर्ष
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की उस सूक्ष्म स्थिति को उजागर करता है जहाँ:
वस्तु एक है, परंतु अनुभव भिन्न है।
स्वामित्व केवल मनोवैज्ञानिक कल्पना है — वस्तु में नहीं।
बांधने वाला मन है, मुक्त करने वाला विवेक है।
श्लोक 32: अन्वय-व्यतिरेक से मन का बंधनकारी स्वरूप
अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां धीमयो जीवबन्धकृत्। सत्यस्मिन् सुखदुःखे स्तः तस्मिन् नास्ति न द्वयम्॥
भावार्थ: अन्वय (साथ रहने पर) और व्यतिरेक (अलग होने पर) के विवेक से यह स्पष्ट होता है कि मन ही सुख-दुःख का कारण है। जब मन सक्रिय होता है, तब सुख-दुःख होते हैं। जब मन नहीं होता, तब न सुख होता है, न दुःख।
🔍 विश्लेषण:
भूमि, घर, वस्तु स्वयं दुःख का कारण नहीं हैं — ममत्व और स्वामित्व की भावना ही दुःख का कारण है।
"यह मेरा है" या "यह मेरा नहीं है" — दोनों ही स्थितियाँ मन में विक्षोभ उत्पन्न करती हैं।
वस्तु निष्पक्ष है, परंतु मन उसे अपना या पराया मानकर बंधन उत्पन्न करता है।
श्लोक 33: स्वप्न और समाधि से वस्तु की असंगता
असत्यपि च बाह्यार्थे स्वप्नादौ बध्यते नरः। समाधि सुप्ति मूर्च्छासु सत्यप्यस्मिन् न बध्यते॥
स्वप्न में वस्तुएँ असत्य होते हुए भी मनुष्य उनसे बंधता है। परंतु समाधि, निद्रा, मूर्च्छा में वस्तुएँ सत्य होते हुए भी बंधन नहीं होता। इससे स्पष्ट होता है कि वस्तु नहीं, बल्कि मन की प्रतिक्रिया ही बंधन का कारण है।
🔍 विश्लेषण:
स्वप्न में बाघ देखकर डर लग सकता है — जबकि बाघ वास्तव में नहीं होता।
समाधि या गहरी निद्रा में वास्तविक संसार होते हुए भी कोई दुःख नहीं होता।
इससे सिद्ध होता है कि वस्तु की उपस्थिति या अनुपस्थिति नहीं, बल्कि मन की प्रतिक्रिया ही सुख-दुःख का कारण है।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
मन ही बंधन का मूल कारण है — न कि वस्तु।
स्वप्न और समाधि दो विपरीत उदाहरण हैं:
स्वप्न: असत्य वस्तु → सत्य दुःख
समाधि: सत्य वस्तु → असत्य दुःख
यह अद्वैत वेदांत की मूल भावना को दर्शाता है — ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।
श्लोक 34: मन की प्रतिक्रिया ही दुःख का कारण
दूरदेशं गते पुत्रे जीवत्येवात्र तत्पिता। विप्रलंभकवाक्येन मृतं मत्वा प्ररोदिति॥
यदि पुत्र विदेश गया हो और पिता को झूठी सूचना मिले कि वह विमान दुर्घटना में मर गया, तो पिता शोक में डूब जाता है — जबकि वास्तव में पुत्र जीवित है। दूसरी ओर, यदि पुत्र वास्तव में मर गया हो, परंतु पिता को वर्षों तक यह सूचना न मिले, तो वह प्रसन्न रहता है। इससे स्पष्ट होता है कि दुःख का कारण वस्तु नहीं, बल्कि मन की प्रतिक्रिया है।
🔍 विश्लेषण:
विप्रलंभकवाक्य (झूठी सूचना) मन में विक्षोभ उत्पन्न करता है।
वस्तु (पुत्र) का वास्तविक स्वरूप मन के अनुभव से भिन्न होता है।
सुख-दुःख वस्तु से नहीं, ज्ञान या अज्ञान से उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 35: मन ही बंधन का मूल कारण
मृतेऽपि तस्मिन् वार्तायामश्रुतायां न रोदिति। अतः सर्वस्य जीवस्य बन्धकृन्मानसं जगत्॥
यदि पुत्र मर भी गया हो, परंतु पिता को समाचार न मिले, तो वह शोक नहीं करता। इससे सिद्ध होता है कि जीव का बंधन वस्तु से नहीं, मन से होता है। मन में ममत्व हो तो बंधन है, न हो तो मुक्ति है।
🔍 विश्लेषण:
मन ही संसार का सृजनकर्ता है — मानसं जगत्।
शुद्ध मन वस्तुओं से असंग होता है — वही मुक्ति का द्वार है।
अशुद्ध मन वस्तुओं से जुड़ता है — वही बंधन का कारण है।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की उस गहराई को प्रकट करता है जहाँ:
वस्तु निष्पक्ष है, मन पक्षपाती है।
सुख-दुःख वस्तु से नहीं, मन की वृत्ति से उत्पन्न होते हैं।
मुक्ति वस्तु से नहीं, मन की शुद्धि से प्राप्त होती है।
श्लोक 36: विज्ञानवाद की सीमाएँ
विज्ञानवादो बाह्यार्थवैयर्थ्यात् स्यादिहेति चेत्। न हृद्याकारमाधातुं बाह्यस्यापेक्षितत्वतः॥
यदि कोई कहे कि बाह्य वस्तुएँ व्यर्थ हैं और केवल मन ही सब कुछ है (जैसे विज्ञानवाद कहता है), तो यह स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि मन को किसी बाह्य वस्तु की आवश्यकता होती है जिससे वह अपनी आकृति ग्रहण कर सके।
🔍 विश्लेषण:
विज्ञानवाद (विशेषतः बौद्ध योगाचार मत) कहता है कि बाह्य जगत नहीं है — सब कुछ मन की कल्पना है।
परंतु वेदांत कहता है कि ईश्वर सृष्टि (बाह्य जगत) वास्तविक है — परंतु उसका मूल स्वरूप चेतना है।
सर्प-रस्सी दृष्टांत से स्पष्ट होता है कि भ्रम के लिए भी आधार चाहिए — रस्सी के बिना सर्प की कल्पना नहीं हो सकती।
👉 इसलिए, बाह्य वस्तु की उपस्थिति आवश्यक है — भले ही उसका अनुभव मन के माध्यम से हो।
श्लोक 37: वेदांत का संतुलित दृष्टिकोण
वैयर्थ्यमस्तु वा बाह्यं न वारयितुमीश्महे। प्रयोजनमपेक्षन्ते न मानानिति हि स्थितिः॥
भावार्थ: बाह्य वस्तु व्यर्थ हो या न हो — हम उसे रोक नहीं सकते। क्योंकि प्रमाण (ज्ञान के साधन) प्रयोजन की अपेक्षा करते हैं, न कि केवल अस्तित्व की।
🔍 विश्लेषण:
वेदांत न तो संपूर्ण विज्ञानवाद को स्वीकार करता है, न ही कच्चे भौतिकवाद को।
ईश्वर सृष्टि वस्तु का वास्तविक आधार है — परंतु जीव सृष्टि उसका मनोवैज्ञानिक अनुभव है।
प्रमाण (प्रत्यक्षा, अनुमान, शब्द आदि) प्रयोजन के अनुसार कार्य करते हैं — अर्थात् वस्तु का अनुभव तभी होता है जब उसका उपयोग या संबंध हो।
👉 इसलिए, जगत न तो केवल मन की कल्पना है, न ही मन से स्वतंत्र — वह ईश्वर की चेतना का प्रकट रूप है।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
विज्ञानवाद कहता है: "जगत नहीं है" — यह अत्यधिक विषयवाद है।
भौतिकवाद कहता है: "केवल जगत है" — यह अत्यधिक वस्तुवाद है।
वेदांत कहता है: "जगत है, परंतु उसका स्वरूप चेतना है" — यह मध्यम मार्ग है।
श्लोक 38
बन्धश्चेन्मानसं द्वैतं तन्निरोधेन शाम्यति। अभ्यसेद्योगमेवातो ब्रह्मज्ञानेन किं वद॥
यदि मन ही द्वैत का कारण है और उसका निरोध ही बंधन का शमन करता है, तो केवल योगाभ्यास ही पर्याप्त है। फिर ब्रह्मज्ञान की क्या आवश्यकता है?
🔍 विस्तृत व्याख्या
🔹 प्रश्न का स्वरूप:
यदि मन ही द्वैत और बंधन का कारण है, तो क्या मन का निरोध ही मुक्ति है?
क्या योग (ध्यान, समाधि) ही पर्याप्त है?
फिर ब्रह्मज्ञान — आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध — क्यों आवश्यक है?
🔹 उत्तर का विवेक:
मन का निरोध केवल नकारात्मक प्रक्रिया है — यह वृत्तियों का दमन है।
योग का अर्थ केवल वृत्तियों को रोकना नहीं, बल्कि ईश्वर से योग (संयोग) है।
वृत्तियों का अभाव ज्ञान नहीं है — ज्ञान का अर्थ है वास्तविकता का साक्षात्कार।
👉 ब्रह्मज्ञान का उद्देश्य है — ईश्वर सृष्टि को उसके वास्तविक स्वरूप में देखना, न कि केवल वृत्तियों से हट जाना।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
योग का अर्थ है — साक्षात्कार, संयोग, एकत्व।
वृत्ति निरोध केवल तटस्थता है — परंतु ब्रह्मज्ञान सत्य का अनुभव है।
द्वैत का शमन केवल वृत्तियों के हटने से नहीं होता — ब्रह्म के साक्षात्कार से होता है।
✨ निष्कर्ष
मन बंधन का कारण है — परंतु मन का दमन मुक्ति नहीं है।
ब्रह्मज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है — क्योंकि वह सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव है।
योग और ज्ञान का समन्वय ही पूर्ण मुक्ति का मार्ग है।
श्लोक: 39
तात्कालिकं द्वैतशान्तौ अप्यागामि जनिक्षयः। ब्रह्मज्ञानं विना न स्यादिति वेदान्तडिण्डिमः॥
मन के निरोध से द्वैत का शमन तात्कालिक हो सकता है, परंतु आगामी जन्मों का क्षय ब्रह्मज्ञान के बिना नहीं होता। यही वेदांत की डिण्डिम घोषणा है — अर्थात् स्पष्ट और दृढ़ उद्घोष।
🔍 विस्तृत व्याख्या
🔹 तात्कालिक द्वैत शमन:
ध्यान, समाधि, या एकाग्रता से मन की वृत्तियाँ अस्थायी रूप से शांत हो सकती हैं।
यह नकारात्मक उपलब्धि है — जैसे साँप का कुंडली मारकर बैठ जाना, पर वह साँप है ही।
🔹 आगामी जन्मों का क्षय:
जब तक अविद्या बनी रहती है, प्रारब्ध और संस्कार जीव को पुनः जन्म में ले आते हैं।
केवल वृत्ति निरोध से अविद्या का नाश नहीं होता।
🔹 ब्रह्मज्ञान की अनिवार्यता:
ब्रह्मज्ञान का अर्थ है — ईश्वर सृष्टि को उसके वास्तविक स्वरूप में देखना।
यह सकारात्मक उपलब्धि है — स्वरूप साक्षात्कार।
यही अज्ञान का क्षय करता है, और मुक्ति प्रदान करता है।
👉 इसलिए, योग (वृत्ति निरोध) केवल साधन है — लक्ष्य है ब्रह्मज्ञान।
🧘♂️ वेदांत की डिण्डिम घोषणा
मन का दमन मुक्ति नहीं है।
वृत्ति का अभाव ज्ञान नहीं है।
ब्रह्म का साक्षात्कार ही अविद्या का क्षय है।
यही वेदांत की स्पष्ट उद्घोषणा है — डिण्डिम का अर्थ है नगाड़े की तरह गूंजती घोषणा।
✨ निष्कर्ष
तात्कालिक समाधि स्थायी समाधान नहीं है।
ब्रह्मज्ञान ही आगामी जन्मों का क्षय करता है।
वेदांत केवल वृत्ति निरोध नहीं, बल्कि स्वरूप साक्षात्कार की शिक्षा देता है।
श्लोक: 40
अनिवृत्तेऽपीशसृष्टे द्वैते तस्य मृषात्मताम्। बुद्ध्वा ब्रह्माद्वयं शक्यं वस्त्वैक्यवादिनः॥
ईश्वर सृष्टि के द्वैत का पूर्णतः निवृत्त होना आवश्यक नहीं है। यदि उस द्वैत को मिथ्या समझ लिया जाए, तो ब्रह्म का अद्वैत स्वरूप जानना संभव है — यही वस्त्वैक्यवादियों की दृष्टि है।
🔍 विस्तृत व्याख्या
🔹 ईश्वर सृष्टि का द्वैत:
जगत, वस्तुएँ, संबंध — ये सब ईश्वर की सृष्टि हैं।
वे वास्तविक हैं, परंतु स्वतंत्र सत्ता नहीं रखते — वे ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं।
🔹 मृषात्मता — मिथ्यात्व का विवेक:
जब हम समझते हैं कि ये वस्तुएँ स्वतंत्र नहीं, बल्कि ब्रह्म की छाया हैं — तब उनका मिथ्यात्व स्पष्ट होता है।
यह मिथ्या का अर्थ असत्य नहीं, बल्कि अस्वतंत्र और परतन्त्र है।
🔹 ब्रह्माद्वयं — वस्त्वैक्य का साक्षात्कार:
जब द्वैत को मिथ्या समझ लिया जाता है, तब ब्रह्म का अद्वैत स्वरूप प्रकट होता है।
यही वस्त्वैक्यवाद है — कि वस्तु एक ही है, भले ही प्रतीतियाँ अनेक हों।
👉 यह दृष्टिकोण अद्वैत वेदांत का मूल है — ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।
🧘♂️ दार्शनिक संकेत
जगत को मिटाना आवश्यक नहीं — उसे सही दृष्टि से देखना आवश्यक है।
ब्रह्मज्ञान का अर्थ है — जगत को ब्रह्म रूप में देखना, न कि जगत से भागना।
योग और विवेक का समन्वय ही मुक्ति का मार्ग है।
✨ निष्कर्ष
ईश्वर सृष्टि बनी रहे — कोई बाधा नहीं।
यदि हम उसे मिथ्या समझें — अर्थात् ब्रह्म की अभिव्यक्ति — तो ब्रह्म का अद्वैत स्वरूप प्रकट होता है।
यही वेदांत की वस्त्वैक्य दृष्टि है — एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म।
श्लोक 41: केवल द्वैत का अभाव अद्वैत का बोध नहीं
प्रलये तन्निवृत्तौ तु गुरुशास्त्राद्यभावतः। विरोधि द्वैताभावापि न शक्यं बोध्दुमद्वयम्॥
प्रलय या निद्रा में द्वैत का अभाव होता है, परंतु गुरु और शास्त्र के अभाव में उस अद्वैत का बोध नहीं होता। केवल द्वैत का न दिखना अद्वैत का अनुभव नहीं है।
🔍 विश्लेषण:
प्रलय, निद्रा, या मूर्च्छा में मन शांत हो जाता है — परंतु यह ज्ञान नहीं है।
अद्वैत बोध के लिए गुरु, शास्त्र, और विवेक आवश्यक हैं।
द्वैत का न दिखना ≠ अद्वैत का अनुभव।
👉 इसलिए, वृत्ति निरोध पर्याप्त नहीं — ब्रह्मज्ञान आवश्यक है।
🕉️ श्लोक 43: शास्त्रीय और अशास्त्रीय द्वैत का विवेक
जीवद्वैतं तु शास्त्रीयमशास्त्रीयमिति द्विधा। उपाददीत शास्त्रियमातत्त्वस्यावबोधनात्॥
जीव द्वारा अनुभव किया गया द्वैत दो प्रकार का होता है — शास्त्रीय और अशास्त्रीय। शास्त्रीय द्वैत को स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वह आत्मबोध की ओर ले जाता है।
🔍 विश्लेषण:
शास्त्रीय द्वैत: जैसे गुरु, शास्त्र, ध्यान, विवेक — ये द्वैत होते हुए भी मुक्ति के साधन हैं।
अशास्त्रीय द्वैत: जैसे ममत्व, राग-द्वेष, स्वामित्व — ये बंधन के कारण हैं।
योगसूत्र में भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियों का भेद बताया गया है।
👉 इसलिए, सभी द्वैत त्याज्य नहीं — शास्त्रीय द्वैत को उपादेय मानकर आत्मबोध की दिशा में प्रयत्न करना चाहिए।
✨ निष्कर्ष
अद्वैत बोध केवल वृत्ति शमन से नहीं होता — गुरु, शास्त्र, और विवेक की सहायता से होता है।
शास्त्रीय द्वैत साधन है, अशास्त्रीय द्वैत बंधन है।
वेदांत केवल नकारात्मक निवृत्ति नहीं, बल्कि सकारात्मक आत्मबोध की शिक्षा देता है।
श्लोक 44: आत्म-ब्रह्म विचार भी मानसिक वृत्ति है
आत्मब्रह्मविचाराख्यां शास्त्रीयं मानसं जगत्। बुद्धे तत्त्वे तच्च हेयं इति श्रुत्यनुशासनम्॥ 44
ईश्वर और आत्मा के संबंध पर विचार करना भी मानसिक वृत्ति है, परंतु यह शास्त्रीय और मुक्तिदायक वृत्ति है। जब बुद्धि तत्त्व को जान लेती है, तब यह वृत्ति भी त्याज्य हो जाती है — यही श्रुति का निर्देश है।
🔍 विश्लेषण:
ब्रह्मविचार भी मन की क्रिया है, परंतु यह बंधनकारी नहीं, मुक्तिदायक है।
जब ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है, तब विचार की आवश्यकता नहीं रहती।
यह वृत्ति साधन है, लक्ष्य नहीं।
श्लोक 45–46: ग्रंथों का त्याग ज्ञान के बाद
शास्त्राण्यधीत्य मेधावी अभ्यस्य च पुनः पुनः। परमं ब्रह्म विज्ञाय उल्कावत् तान्यथोत्सृजेत्॥45
ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः। पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद्ग्रन्थमशेषतः॥46
भावार्थ: मेधावी साधक बार-बार शास्त्रों का अध्ययन करता है, परंतु जब ब्रह्मज्ञान हो जाता है, तब वह उन्हें उल्का (दीपक) की तरह त्याग देता है। जैसे धान्यार्थी भूसे को त्यागता है, वैसे ही ज्ञानी ग्रंथों को त्यागता है।
🔍 विश्लेषण:
शास्त्र साधन हैं — ज्ञान प्राप्ति तक।
ज्ञान के बाद ग्रंथों का आश्रय नहीं, अनुभव ही पर्याप्त है।
यह विवेक है — साधन और लक्ष्य का भेद।
श्लोक 47: धीर ब्राह्मण की भूमिका
तमेव धीरः विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः। नानुध्यायेद्भवांशब्दान् वाचो विग्लापनं हि तत्॥47
धीर ब्राह्मण (ज्ञानी साधक) केवल ब्रह्म को जानकर प्रज्ञा करता है — वह शब्दों का अन्वेषण नहीं करता, क्योंकि वह वाचिक थकावट है।
🔍 विश्लेषण:
प्रज्ञा का अर्थ है — साक्षात्कार।
शब्दों में उलझना विग्लापन है — मानसिक थकावट।
धीर वह है जो अनुभव को प्राथमिकता देता है, वर्णन को नहीं।
✨ निष्कर्ष
ब्रह्मविचार मानसिक क्रिया होते हुए भी मुक्तिदायक है।
शास्त्र साधन हैं — ज्ञान के बाद त्याज्य।
प्रज्ञा ही लक्ष्य है — शब्दों में उलझना नहीं।
यही वेदांत का श्रुत्यनुशासन है — अनुभव की प्रधानता।
🕉️ श्लोक 48: श्रुति की डिण्डिम घोषणा — मौन और एकाग्रता
तमेवैकं विजानीथ ह्यन्या वाचो विमुञ्यथ। यच्चेद्वाङ्मनसी प्राज्ञ इत्याधाः श्रुतयः स्फुटाः॥ 48
केवल उसी एक ब्रह्म को जानो — अन्य वाक्य-विचारों को त्याग दो। वाणी को मन में विलीन करो, और मन को प्रज्ञा में। यही स्पष्ट श्रुति का आदेश है।
🔍 विश्लेषण:
श्रुति कहती है — तमेवैकं विजानीथ — केवल ब्रह्म को जानो।
वाचो विमुञ्यथ — वाणी को त्यागो, मौन धारण करो।
यच्चेद्वाङ्मनसी प्राज्ञे — वाणी को मन में, मन को बुद्धि में, और बुद्धि को ब्रह्म में विलीन करो।
👉 यह अंतर्मुखता की प्रक्रिया है — इंद्रियों से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से ब्रह्म।
🕉️ श्लोक 49: अशास्त्रीय द्वैत की बाधक वृत्तियाँ
अशास्त्रीयमपि द्वैतं तीव्रं मन्दमिति द्विधा। कामक्रोधादिकं तीव्रं मनोराज्यं तथेतरत्॥49
अशास्त्रीय द्वैत भी दो प्रकार का होता है — तीव्र और मंद। काम, क्रोध आदि तीव्र हैं; और मनोराज्य, कल्पना आदि मंद हैं। दोनों बाधक हैं।
🔍 विश्लेषण:
तीव्र वृत्तियाँ: काम, क्रोध, लोभ — ये तुरंत बंधन उत्पन्न करते हैं।
मंद वृत्तियाँ: कल्पना, मनोराज्य, निरर्थक विचार — ये धीरे-धीरे बंधन की ओर ले जाते हैं।
मन की निष्क्रियता भी यदि विवेकहीन हो, तो अविवेक का बीज बन सकती है।
👉 इसलिए, मौन और विचारशून्यता तभी उपयोगी है जब वह ब्रह्मचिंतन की ओर ले जाए — अन्यथा वह जड़ता बन जाती है।
✨ निष्कर्ष
श्रुति का स्पष्ट आदेश है — ब्रह्म में एकाग्र हो जाओ, वाणी और मन को विलीन करो।
मन की वृत्तियाँ — चाहे तीव्र हों या मंद — यदि वे ब्रह्मबोध में सहायक नहीं हैं, तो त्याज्य हैं।
मौन और विचारशून्यता तभी सार्थक है जब वह प्रज्ञा में विलीन हो।
🕉️ श्लोक 50:
उभयं तत्त्वबोधात् प्राक् निवार्यं बोधासिद्धये। शमः समाहितत्वं च साधनेषु श्रुतं यतः॥
ब्रह्मबोध से पहले मन की दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियाँ — तीव्र (काम, क्रोध आदि) और मंद (कल्पना, मनोराज्य आदि) — का निरोध आवश्यक है। इसलिए शम (मन की शांति) और समाधान (एकाग्रता) जैसे साधन वेदांत में श्रुतिप्रसिद्ध हैं।
🔍 विश्लेषण:
ये वृत्तियाँ ज्ञान के मार्ग में बाधक हैं।
शम, दम, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान — ये साधन चतुष्टय के अंग हैं।
ये योगसूत्र के यम-नियम के समकक्ष हैं।
🕉️ श्लोक 51:
बोधादूर्ध्वं च तद्धेयं जीवन्मुक्तिप्रसिद्धये। कामादिक्लेशबन्धेन युक्तस्य न हि मुक्तता॥
ब्रह्मज्ञान के बाद भी यदि मन में सूक्ष्म वासनाएँ शेष हैं, तो जीवनमुक्ति नहीं होती। काम, क्रोध आदि के बंधन से युक्त व्यक्ति मुक्त नहीं कहलाता।
🔍 विश्लेषण:
सूक्ष्म वासनाएँ भी बन्धन का कारण बनती हैं।
जैसे सूखी भूमि में पड़ा बीज अदृश्य होता है, पर वर्षा के बाद वृक्ष बन जाता है — वैसे ही सूक्ष्म वासनाएँ भी फलीभूत हो सकती हैं।
तमस की निष्क्रियता को मुक्ति न समझें।
🕉️ श्लोक 52:
जीवन्मुक्तिरियं मा भूज्जन्माभावे त्वहं कृतिः। तर्हि जन्मापि तेऽस्त्वेव स्वर्गमात्रात्कृतिः भवन्॥
यदि कोई कहे — “मैं अभी जैसा भी जी लूं, पर मृत्यु के बाद मोक्ष मिल जाएगा” — तो यह मिथ्या कल्पना है। जैसा जीवन अभी है, वैसा ही अगला जन्म होगा। मुक्ति केवल मरणोत्तर फल नहीं है, बल्कि जीवन में ही साध्य है।
🔍 विश्लेषण:
वासनाओं के रहते मरणोत्तर मुक्ति संभव नहीं।
वर्तमान जीवन ही बीज है — अगला जन्म फल होगा।
स्वर्ग भी मुक्ति नहीं है — वह भी सांसारिक फल है।
✨ समग्र निष्कर्ष:
मुक्ति का मार्ग केवल वृत्ति-निरोध नहीं, बल्कि ब्रह्मबोध है।
जीवनमुक्ति के लिए सूक्ष्म वासनाओं का भी क्षय आवश्यक है।
मरणोत्तर मुक्ति की कल्पना वेदांत में अस्वीकार्य है — मुक्ति का बीज वर्तमान जीवन में ही बोना होता है।
🕉️ श्लोक 53:
क्षयातिशयदोषेण स्वर्गो हेयो यदा तदा। स्वयं दोषतयं आत्मायं कामादिः किं न हियते॥
जब स्वर्ग भी क्षयशील और दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य है, तो काम, क्रोध आदि जैसे दोषयुक्त मानसिक वृत्तियाँ क्यों नहीं त्यागी जातीं?
🔍 विश्लेषण:
स्वर्ग भी एक सांसारिक फल है — पुण्य क्षीण होते ही उसका सुख समाप्त हो जाता है।
यदि स्वर्ग भी हेय है, तो काम, क्रोध, लोभ जैसे दोष तो और भी त्याज्य हैं।
कामादि आत्मा के स्वभाव के विरुद्ध हैं — वे बंधन का कारण हैं।
👉 इसलिए, कामादि दोषों का त्याग स्वर्ग से भी अधिक आवश्यक है।
🕉️ श्लोक 54:
तत्त्वं बुद्ध्वापि कामादीन् निःशेषं न जहासि चेत्। यथेष्टं चरणं ते स्यात् कर्मशास्त्रातिलङ्घिनः॥
यदि ब्रह्मतत्त्व को जानने के बाद भी काम, क्रोध आदि का पूर्णतः त्याग नहीं किया गया, तो व्यक्ति कर्मशास्त्र का उल्लंघन कर रहा है और उसकी जीवनचर्या यथेष्ट (मनमानी) हो जाती है।
🔍 विश्लेषण:
ब्रह्मज्ञान के बाद भी यदि वासनाएँ बनी रहें, तो वह अपूर्ण ज्ञान है।
कर्मशास्त्र का उद्देश्य है — वासनाओं का क्षय और जीवन की शुद्धि।
यथेष्ट आचरण — अर्थात् मनमानी जीवन — वेदांत में वर्जित है।
👉 इसलिए, ज्ञान के साथ वासनाओं का पूर्ण क्षय अनिवार्य है।
✨ समग्र निष्कर्ष:
स्वर्ग भी हेय है — क्योंकि वह क्षणिक है।
काम, क्रोध जैसे दोष आत्मा के विरुद्ध हैं — उनका त्याग मुक्ति के लिए आवश्यक है।
ब्रह्मज्ञान तब ही पूर्ण है जब वासनाओं का क्षय हो जाए।
मनमानी जीवन ब्रह्मज्ञान के बाद भी बंधन का कारण बन सकता है।
🕉️ श्लोक 55
बुद्धा द्वैतस्वतत्त्वस्य यथेष्टाचारणं यदि। शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे॥
यदि कोई व्यक्ति ब्रह्मतत्त्व को जानने के बाद भी मनमानी जीवन जीता है, तो उसका आचरण तत्त्वदर्शी नहीं, बल्कि पशु के समान है। फिर ज्ञानी और कुत्ते में क्या अंतर रह गया, यदि दोनों ही अशुचि (अपवित्र) वस्तु का भक्षण करें?
🔍 विश्लेषण:
ब्रह्मज्ञान के बाद भी यदि वासनात्मक जीवन चलता रहे, तो वह ज्ञान नहीं, अज्ञान है।
तत्त्वदृष्टि का अर्थ है — जीवन में विवेकपूर्ण आचरण।
मनमानी जीवन पशुता के समान है — शुद्धि और संयम के बिना ज्ञान व्यर्थ है।
🕉️ श्लोक 56
बोधात् पुरा मनो दोष मात्रात् क्लिश्ना स्याद्धुना। अशेषलोकनिन्दा चेति अहो ते बोधवैभवम्॥
ब्रह्मज्ञान से पहले मन के दोषों के कारण व्यक्ति क्लेश में रहता है। परंतु यदि ब्रह्मज्ञान के बाद भी वही दोष बने रहें, तो यह लोकनिन्दा का कारण बनता है। ऐसे बोध का वैभव क्या?
🔍 विश्लेषण:
ज्ञान से पहले क्लेश स्वाभाविक है — परंतु ज्ञान के बाद भी यदि वासनाएँ बनी रहें, तो वह ज्ञान का अपमान है।
अशेष लोकनिन्दा — समाज में तत्त्वज्ञान का उपहास होता है यदि ज्ञानी का जीवन वासनात्मक हो।
बोधवैभव तभी है जब जीवन में शुद्धि, संयम, और वैराग्य प्रकट हो।
✨ समग्र निष्कर्ष
ब्रह्मज्ञान केवल बौद्धिक नहीं — वह जीवन का रूपांतरण है।
मनमानी जीवन ब्रह्मज्ञान के विपरीत है — वह पशुता के समान है।
वासनाओं का क्षय, संयम, और विवेकपूर्ण आचरण ही बोध का वैभव है।
🕉️ श्लोक 58
काम्यादिदोषदृष्टया ध्यः कामादित्याग हेतवः। प्रसिद्धो मोक्षशास्त्रेषु तानन्विष्य सुखी भव॥
काम, क्रोध आदि दोषों का त्याग तभी संभव है जब हम इच्छित वस्तुओं की दोषपूर्ण प्रकृति को समझें। यही मोक्षशास्त्रों में प्रसिद्ध उपाय है — इन दोषों की विवेचना करो और सुखी बनो।
🔍 विश्लेषण:
कामना वस्तु की वास्तविकता को न समझ पाने से उत्पन्न होती है।
वस्तु स्वयं में न तो प्रिय है, न अप्रिय — वह ईश्वर सृष्टि है, निष्पक्ष।
मन की स्थिति और वस्तु की स्थिति — दोनों मिलकर कामना उत्पन्न करते हैं।
जैसे पतंगा दीपक को सुंदर समझकर जल जाता है — वैसे ही मन भ्रमित होकर वस्तु को आकर्षक मानता है।
👉 इसलिए, कामना का त्याग केवल वैराग्य से नहीं, बल्कि वस्तु के दोषों की स्पष्ट दृष्टि से होता है।
🕉️ श्लोक 59
त्यज्यतामेव कामादिर्मनोराज्ये तु का क्षतिः। अशेषदोषबीजात्वात् क्षतिः भगवतेरिता॥
काम, क्रोध आदि तो त्याज्य हैं ही, परंतु मनोराज्य (कल्पना, woolgathering) भी त्याज्य है। क्योंकि वह तामसिक है और भविष्य में राजसिक दोषों को जन्म दे सकता है — यही भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है।
🔍 विश्लेषण:
मनोराज्य — यद्यपि निष्क्रिय प्रतीत होता है, परंतु वह वासनाओं का बीज है।
तामसिक निष्क्रियता → राजसिक सक्रियता → काम, क्रोध, लोभ।
श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता अध्याय 2 में कहा — कामना से क्रोध, मोह, स्मृति भ्रंश, बुद्धि नाश और विनाश होता है।
👉 इसलिए, मन की निष्क्रिय कल्पना भी मुक्ति के मार्ग में बाधक है — उसे भी त्यागना चाहिए।
✨ समग्र निष्कर्ष
कामना वस्तु की भ्रमित दृष्टि से उत्पन्न होती है — उसे दोषदृष्टि से ही त्यागा जा सकता है।
मनोराज्य निष्क्रिय प्रतीत होते हुए भी वासनाओं का बीज है — वह भी त्याज्य है।
मोक्षशास्त्र यही सिखाते हैं — वस्तु की यथार्थ दृष्टि, मन की शुद्धि, और वासनाओं का क्षय।
🕉️ श्लोक 60
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
हिन्दी भावार्थ:
जब मनुष्य विषयों का चिंतन करता है, तो उनके प्रति संग उत्पन्न होता है। संग से कामना उत्पन्न होती है, और कामना से क्रोध।
🔍 विश्लेषण:
यह श्लोक भगवद्गीता 2.62 का प्रतिध्वनि है।
विषयों का चिंतन → संग → काम → क्रोध → मोह → स्मृति भ्रंश → बुद्धि नाश → विनाश।
कामना का मूल है — विषय चिंतन।
👉 इसलिए, विषय चिंतन से बचना ही वैराग्य का मूल है।
🕉️ श्लोक 61
शाक्यं जेतुं मनोराज्यं निर्विकल्पसमाधितः। सुसंपादः क्रमात्सोऽपि सविकल्पसमाधिना॥
मनोराज्य (कल्पना, तामसिक निष्क्रियता) को केवल निर्विकल्प समाधि से ही जीता जा सकता है। परंतु निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति सविकल्प समाधि के क्रमिक अभ्यास से होती है।
🔍 विश्लेषण:
निर्विकल्प समाधि — जहाँ मन का पूर्ण विलय होता है।
सविकल्प समाधि — जहाँ मन ईश्वर या तत्त्व पर एकाग्र होता है।
पतंजलि योगसूत्र में समाधि के क्रम: सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार, आनन्द, अस्मिता, सविकल्प, निर्विकल्प।
👉 इसलिए, मनोराज्य को जीतने के लिए समाधि का क्रमिक अभ्यास आवश्यक है।
🕉️ श्लोक 62
बुद्धतत्त्वेन धीदोषशून्ये नैकान्तवासिना। दीर्घं प्रणवम उच्चार्य मनोराज्यं विजीयते॥
जब बुद्धि तत्त्वज्ञान से दोषरहित हो जाती है, और साधक एकांतवास में दीर्घ प्रणव (ॐ) का उच्चारण करता है, तब मनोराज्य को जीता जा सकता है।
🔍 विश्लेषण:
एकांतवास — जहाँ विषयों का आकर्षण नहीं होता।
प्रणव जप — मन को तामसिक निष्क्रियता से निकालकर सत्त्व में स्थिर करता है।
ॐ का दीर्घ उच्चारण — मन की गहराई में प्रवेश कराता है।
👉 इसलिए, मनोराज्य को जीतने के लिए एकांत, प्रणव जप, और तत्त्वबुद्धि आवश्यक हैं।
✨ समग्र निष्कर्ष
विषय चिंतन से कामना और क्रोध उत्पन्न होते हैं।
मनोराज्य भी तामसिक बीज है — जो भविष्य में राजसिक दोषों को जन्म देता है।
निर्विकल्प समाधि ही पूर्ण शुद्धि का मार्ग है — परंतु वह सविकल्प समाधि के अभ्यास से ही संभव है।
एकांत, प्रणव जप, और तत्त्वबुद्धि — ये मन की शुद्धि के लिए अनिवार्य हैं।
🕉️ श्लोक 63
जिते तस्मिन् वृत्तिशून्यं मनस्तिष्ठति मूकवत्। एतत्पदं वसिष्ठेन रामाय बहुधेरितम्॥
जब मनोराज्य (कल्पना, तामसिक निष्क्रियता) जीत लिया जाता है, तब मन मूक की तरह शांत हो जाता है। यही स्थिति योगवासिष्ठ में वसिष्ठ मुनि ने श्रीराम को अनेक प्रकार से समझाई है।
🔍 विश्लेषण:
मन का मौन — केवल वृत्तियों के निरोध से नहीं, बल्कि तत्त्वबोध से आता है।
योगवासिष्ठ में यह स्थिति जीवनमुक्ति की पूर्व अवस्था मानी गई है।
मूकवत् — अर्थात् मन बिना प्रतिक्रिया, बिना कल्पना, बिना आकर्षण के स्थिर हो जाता है।
👉 यह निर्विकल्प समाधि की ओर संकेत करता है — जहाँ मन पूर्णतः विलीन हो जाता है।
🕉️ श्लोक 64
दृश्यं नास्तीतिबोधेन मनसो दृश्यमार्जनम्। संपन्नं चेत् तदुत्पन्ना परा निर्वाणनिवृत्तिः॥
जब यह बोध हो जाए कि दृश्य (वस्तुएँ) वास्तव में नहीं हैं, तब मन की दृश्यता वृत्ति का मार्जन (शुद्धि) हो जाता है। यदि यह पूर्ण हो जाए, तो परम निर्वाण की प्राप्ति होती है।
🔍 विश्लेषण:
दृश्य वस्तुएँ वास्तव में बाह्य नहीं — वे ईश्वर सृष्टि की अविभाज्य अभिव्यक्ति हैं।
मन उन्हें बाह्य मानकर विषय बना देता है — यही विक्षेप है।
जब यह बोध हो जाए कि वस्तु ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, न कि स्वतंत्र वस्तु, तब कामना समाप्त हो जाती है।
👉 यही वसिष्ठ मुनि की शिक्षा है — दृश्य का अभाव नहीं, बल्कि दृश्य की मिथ्यात्व दृष्टि।
✨ समग्र निष्कर्ष
मन का मौन केवल वृत्ति-निरोध से नहीं, बल्कि तत्त्वबोध से आता है।
योगवासिष्ठ में यह स्थिति जीवनमुक्ति की ओर ले जाती है।
दृश्य वस्तु को बाह्य मानना ही बंधन है — जब यह बोध हो जाए कि वस्तु ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, तब कामना और विक्षेप समाप्त हो जाते हैं।
🕉️ श्लोक 65
विचारितमलं शास्त्रं चिरमुद्ग्राहितं मिथः। संत्यक्तवासनान् मौनादृते नास्त्युत्तमं पदम्॥
जब शास्त्रों का गहन अध्ययन और विचार पूर्ण हो चुका हो, और वासनाओं का त्याग हो गया हो, तब मौन (वृत्तिशून्यता) के अतिरिक्त कोई श्रेष्ठ अवस्था नहीं बचती।
🔍 विश्लेषण:
शास्त्र अध्ययन और विचार आवश्यक हैं — परंतु वे साधन हैं, लक्ष्य नहीं।
वासनाओं का क्षय ही ज्ञान की सिद्धि है।
मौन का अर्थ है — मन का पूर्ण शांत होना, वृत्तियों का अभाव।
👉 यही परम पद है — जहाँ मन, वासनाएँ, और ज्ञान की चेष्टा सब समाप्त हो जाते हैं।
🕉️ श्लोक 66
विक्षिप्यते कदाचिद्धीः कर्मणा भोगदायिना। पुनः समाहिता सा स्यात्तदैवाभ्यासपाटवात्॥
कभी-कभी मन भोगदायक कर्मों के कारण विचलित हो जाता है। परंतु निरंतर अभ्यास से वह पुनः समाहित हो जाता है।
🔍 विश्लेषण:
विक्षेप स्वाभाविक है — विशेषतः जब ध्यान स्थायी न हो।
अभ्यासपाटव — अर्थात् निरंतर अभ्यास ही मन की स्थिरता का उपाय है।
प्रणव जप, ध्यान, शीतल जल से मुख धोना — ये सब विक्षेप को शांत करने के उपाय हैं।
👉 मन की शुद्धि कोई एक बार की घटना नहीं — यह निरंतर साधना है।
✨ समग्र निष्कर्ष
शास्त्र अध्ययन और विचार के बाद भी मौन ही परम अवस्था है।
वासनाओं का पूर्ण क्षय ही मुक्ति है।
विक्षेप से घबराना नहीं — निरंतर अभ्यास से वह शांत होता है।
ध्यान, प्रणव जप, और एकांत — ये मन की स्थिरता के लिए अनिवार्य हैं।
🕉️ श्लोक 67
विक्षेपो यस्य नास्त्यस्य ब्रह्मवित्त्वं न मन्यते। ब्रह्मैवायमिति प्राहुर्मुनयः पारदर्शिनः॥
जिस व्यक्ति में विक्षेप (मन की चंचलता, विषयाकर्षण) नहीं है, उसे केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं कहा जाता — पारदर्शी मुनि कहते हैं कि वह स्वयं ब्रह्म ही है।
🔍 विश्लेषण:
ब्रह्मवित्त्व = ब्रह्म का ज्ञान।
विक्षेप का अभाव = मन की पूर्ण शुद्धि और स्थिरता।
जब मन पूर्णतः शांत हो जाता है, तब ज्ञाता और ज्ञेय का भेद मिट जाता है — ज्ञानी स्वयं ब्रह्म हो जाता है।
🕉️ श्लोक 68
दर्शनादर्शनं हित्वा स्वयं केवलरूपतः। यस्तिष्ठति स तु ब्रह्म ब्रह्म न ब्रह्मवित्स्वयम्॥
जो व्यक्ति दृश्य और अदृश्य दोनों को त्यागकर केवल स्वरूप में स्थित हो जाता है, वह ब्रह्मज्ञानी नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म है।
🔍 विश्लेषण:
दर्शन = वस्तु को देखना; अदर्शन = वस्तु को न देखना।
जब दृष्टि और वस्तु दोनों का भेद मिट जाता है, तब केवल स्वरूप ही शेष रहता है।
यही केवलता (Kevalata) है — ब्रह्मस्वरूपता।
🕉️ श्लोक 69
जीवन्मुक्तेः परा काष्ठा जीवद्वैतविवर्जनात्। लभ्यते सावधोऽत्रेदं ईशद्वैताद्विवेचितम्॥
जीव सृष्टि का विवेकपूर्वक त्याग कर देने से जीवनमुक्ति की परम अवस्था प्राप्त होती है। यह ईश्वर सृष्टि से भिन्न है — और यही इस अध्याय का सार है।
🔍 विश्लेषण:
जीव सृष्टि = मन की कल्पना, ममत्व, राग-द्वेष।
ईश्वर सृष्टि = वस्तु का वास्तविक स्वरूप, निष्पक्षता।
जब जीव सृष्टि का विवेकपूर्वक त्याग होता है, तब ब्रह्मस्वरूपता प्रकट होती है — यही जीवनमुक्ति है।
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