सत्य की प्रकृति
माण्डूक्य उपनिषद्, अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न है, जिसे दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। इसके बावजूद, इसे समस्त वेदान्तिक शिक्षाओं का निचोड़ माना जाता है, और मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार, यह अकेले ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है। यह उपनिषद् सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से ओंकार की अवधारणा के माध्यम से।
ओंकार (OM) और सत्य की प्रकृति: माण्डूक्य उपनिषद् 'ओम्' को ब्रह्मांड और चेतना की सर्वोच्च, अविभाज्य वास्तविकता का प्रतीक मानता है।
ब्रह्मांडीय प्रतिनिधित्व: उपनिषद् स्पष्ट रूप से घोषित करता है: "ओम्! यह अविनाशी शब्द ही यह समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड है। अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ ओम् है। और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी ओम् है।"। यह दर्शाता है कि ओम् समस्त अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है, जो समय के बंधनों से भी परे है।
ध्वन्यात्मक समावेशन: ऋषियों ने 'ओम्' को इसलिए चुना क्योंकि यह मानव मुख से उत्पन्न होने वाली सभी ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है। 'अ' मुंह खोलने पर उत्पन्न होने वाली पहली ध्वनि है, 'म' मुंह बंद करने पर उत्पन्न होने वाली अंतिम ध्वनि है, और 'उ' इन दोनों के बीच की ध्वनियों को दर्शाता है। इस प्रकार, ओम् सभी संभावित ध्वनियों का समुच्चय है, और चूंकि सभी शब्द ध्वनियों पर आधारित होते हैं तथा शब्द वस्तुओं से संबंधित होते हैं, इसलिए ओम् संपूर्ण ब्रह्मांड को, जिसमें सभी नाम और रूप शामिल हैं, समाहित करता है। इसे ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम माना जाता है क्योंकि यह सब कुछ आच्छादित करता है।
चेतना की अवस्थाएँ और तुरीय (चौथी अवस्था) के माध्यम से सत्य: माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न) और सुषुप्ति (गहरी नींद) का विश्लेषण करता है।
जाग्रत अवस्था: यह स्थूल शरीर में संज्ञान, धारणा और ज्ञान उत्पन्न करती है, जहाँ व्यक्ति बाह्य स्थूल वस्तुओं के प्रति जागरूक होता है। ओम् का 'अ' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।
स्वप्न अवस्था: यह सूक्ष्म शरीर में बोध, अनुभूति या ज्ञान उत्पन्न करती है, जहाँ व्यक्ति आंतरिक मानसिक तत्वों का अनुभव करता है। ओम् का 'उ' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।
सुषुप्ति अवस्था: इसे कारण शरीर भी कहा जाता है, यह वह अवस्था है जिसमें जाग्रत और स्वप्न की अनुभूतियाँ सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित होती हैं। इस अवस्था में कोई इच्छा या विचार नहीं होता, और आत्मन शुद्ध आनंद में स्थित रहता है। ओम् का 'म' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।
तुरीय अवस्था: माण्डूक्य उपनिषद् स्पष्ट रूप से बताता है कि तुरीय 'चौथी' अवस्था है, जो इन तीनों अवस्थाओं से परे है। इसे परम सत्य (अंतिम वास्तविकता) माना जाता है, जो अवर्णनीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत (द्वैतवाद) से परे शुद्ध चेतना है। तुरीय कोई 'अवस्था' नहीं है, बल्कि वह साक्षी है जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, उनसे स्वतंत्र है, और वे तीनों उस पर निर्भर करती हैं। तुरीय को 'सत्-चित-आनंद' (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
सत्य की प्रकृति: अद्वैत (गैर-द्वैतवाद) और माया: माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि का केंद्रीय बिंदु अद्वैत की स्थापना है, जहाँ भेद की दुनिया को भ्रामक या 'मिथ्या' माना जाता है, जबकि ब्रह्म को एकमात्र 'सत्य' माना जाता है।
'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या': शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन के अनुसार, केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है। यह दर्शाता है कि अनुभव की जाने वाली बहुलता वास्तविक नहीं है, बल्कि माया या अविद्या के कारण उत्पन्न होती है।
पदार्थ और नाम-रूप: भौतिक दुनिया की वस्तुएँ, जैसे एक कुर्ता या एक किताब, केवल नाम और रूप हैं जो एक अंतर्निहित सामग्री पर आधारित हैं। जैसे एक किताब वास्तव में केवल कागज है, और कागज लकड़ी के गूदे से बना है, और लकड़ी के गूदे से बना है, वैसे ही यह ब्रह्मांड केवल ब्रह्म का एक विवर्तन (गैर-परिवर्तनशील प्रकटन) है, न कि वास्तविक रूपांतरण।
द्वैत की भ्रामक प्रकृति: गौडपाद की कारिकाएँ द्वैत की भ्रामक प्रकृति को स्थापित करती हैं। सृष्टि को मिथ्या (वास्तविक नहीं) माना जाता है, जो केवल अद्वैत ब्रह्म पर एक अध्यास या अधिरोपण है। उपनिषदों में सृष्टि के विभिन्न वर्णन केवल अद्वैत की सच्चाई को पुष्ट करने के लिए हैं, न कि सृष्टि को एक तथ्य के रूप में स्थापित करने के लिए। अद्वैती अन्य द्वैतवादी दर्शनों से संघर्ष नहीं करते क्योंकि वे द्वैत को एक निचली या सापेक्षिक वास्तविकता (व्यवहारिक सत्य) के रूप में देखते हैं, जबकि अद्वैत परमार्थ सत्य है। यह ठीक उसी तरह है जैसे स्वप्न की दुनिया जागृत दुनिया की तुलना में मिथ्या है, फिर भी स्वप्न के भीतर वास्तविक प्रतीत होती है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् सत्य की प्रकृति को अद्वैत ब्रह्म के रूप में प्रकट करता है, जो ओंकार में सन्निहित है, और जो चेतना की सभी अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का साक्षी और आधारभूत तुरीय है। यह ब्रह्मांड और उसकी समस्त बहुलता को एक मायावी प्रकटन मानता है, जिसका परमार्थिक रूप से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, जिससे यह पूर्ण अखंडता और एकत्व की अवधारणा को स्थापित करता है।
रस्सी-साँप का दृष्टांत
माण्डूक्य उपनिषद्, अथर्ववेद का एक महत्वपूर्ण उपनिषद् है, जिसे दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार, यह उपनिषद् अकेले ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है। यह उपनिषद् चेतना की गहराई और सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि में सत्य की प्रकृति को समझने के लिए रस्सी-साँप का दृष्टांत (अनालॉजी) एक केंद्रीय भूमिका निभाता है। यह दृष्टांत माया या अविद्या के कारण उत्पन्न होने वाली द्वैत की भ्रामक प्रकृति और अद्वैत ब्रह्म की परम सत्यता को समझाने के लिए उपयोग किया जाता है।
रस्सी-साँप का दृष्टांत और सत्य की प्रकृति: इस दृष्टांत में, रस्सी परम सत्य ब्रह्म का प्रतीक है, जबकि उस पर भ्रमवश दिखाई देने वाला साँप इस संसार या द्वैत का प्रतीक है।
यह दृष्टांत बताता है कि अँधेरे में या भ्रम की स्थिति में, एक रस्सी को गलती से साँप समझा जा सकता है। यह साँप वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है, बल्कि यह केवल भ्रम (माया) का एक प्रकटन है। जिस क्षण रस्सी का सही ज्ञान हो जाता है, साँप का भ्रम तुरंत दूर हो जाता है।
इसी प्रकार, वेदांत दर्शन के अनुसार, यह संपूर्ण दृश्यमान जगत् (संसार) ब्रह्म पर एक अध्यास (सुपरइम्पोजिशन) है। शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन, "ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या" ("केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है") का सार यही है।
संसार की वस्तुएँ, जैसे एक कुर्ता या एक किताब, केवल नाम और रूप (नामा-रूपा) हैं, जिनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, बल्कि वे एक अंतर्निहित सामग्री पर आधारित हैं। जैसे एक किताब वास्तव में केवल कागज है, और कागज लकड़ी के गूदे से बना है, वैसे ही यह ब्रह्मांड केवल ब्रह्म का एक विवर्तन (गैर-परिवर्तनशील प्रकटन) है, न कि वास्तविक रूपांतरण। इसे मिथ्या कहा जाता है क्योंकि यह शुरुआत और अंत में अविद्यमान होता है, इसलिए वर्तमान में भी यह वैसा ही होता है, जैसे भ्रम या स्वप्न।
यह दृष्टांत अध्यारोप (आरोपण) और अपवाद (निषेध) की विधि को स्पष्ट करता है, जहाँ पहले एक वस्तु पर कुछ आरोपित किया जाता है, और फिर उस आरोप का निषेध करके वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया जाता है। सृष्टि के विभिन्न उपनिषदिक वर्णन द्वैत को एक निचली या सापेक्षिक वास्तविकता (व्यवहारिक सत्य) के रूप में स्वीकार करते हैं, केवल परमार्थिक सत्य यानी अद्वैत की स्थापना के लिए।
माण्डूक्य उपनिषद् की चेतना की अवस्थाएँ और सत्य: उपनिषद् मानव चेतना की तीन अवस्थाओं – जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न) और सुषुप्ति (गहरी नींद) का विश्लेषण करता है।
जाग्रत अवस्था बाह्य स्थूल वस्तुओं का अनुभव कराती है।
स्वप्न अवस्था आंतरिक सूक्ष्म मानसिक तत्वों का अनुभव कराती है।
सुषुप्ति अवस्था वह है जहाँ अनुभूतियाँ सुप्तावस्था में होती हैं, और आत्मन शुद्ध आनंद में स्थित रहता है।
इन तीनों अवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके यह उपनिषद् तुरीय (चौथी) अवस्था को प्रस्तुत करता है। तुरीय परम सत्य (अंतिम वास्तविकता) है, जो अवर्णनीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत से परे शुद्ध चेतना है।
रस्सी-साँप का दृष्टांत इस संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है कि यह दर्शाता है कि जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ भी, परम सत्य के दृष्टिकोण से, स्वप्न या भ्रम जैसी ही हैं। जिस प्रकार एक जागृत व्यक्ति के लिए स्वप्न की दुनिया अवास्तविक है, उसी प्रकार तुरीय चेतना के लिए जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अवास्तविक हैं। गौडपाद का मानना है कि जागृत और स्वप्न दोनों ही अवस्थाएँ स्वप्न की तरह हैं क्योंकि दोनों ही अहंकार (ego) द्वारा अनुभवों का प्रकटन हैं, और दोनों में आत्म-अज्ञान (self-ignorance) होता है।
तुरीय वह साक्षी है, वह अधिष्ठान (सब्सट्रेट) है जिस पर तीनों अवस्थाएँ आरोपित होती हैं, ठीक उसी तरह जैसे रस्सी साँप का अधिष्ठान है। यह चेतना की सभी अवस्थाओं का आधार है, उनसे स्वतंत्र है, और वे तीनों उस पर निर्भर करती हैं।
संक्षेप में, रस्सी-साँप का दृष्टांत माण्डूक्य उपनिषद् के अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांत को प्रभावी ढंग से स्पष्ट करता है: ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जगत् उसकी मायावी अभिव्यक्ति है, जो रस्सी पर साँप की तरह ही भ्रमपूर्ण है। इस ज्ञान की प्राप्ति ही मोक्ष का मार्ग है।
रस्सी (आत्मन्/ब्रह्मन) सत्य है
माण्डूक्य उपनिषद्, जो अथर्ववेद का एक अमूल्य ग्रंथ है और दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा होने के बावजूद समस्त वेदान्तिक शिक्षाओं का सार है, सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। यह उपनिषद् मुख्य रूप से ओंकार के माध्यम से चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करके आत्मन्/ब्रह्मन् की सर्वोच्च वास्तविकता को स्थापित करता है।
सत्य और मिथ्या का सिद्धांत: 'रस्सी (आत्मन्/ब्रह्मन्) सत्य है'
माण्डूक्य उपनिषद् में सत्य की प्रकृति को अद्वैत वेदांत के मौलिक सिद्धांत 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है) के रूप में समझाया गया है। इस सिद्धांत को समझाने के लिए 'रस्सी और साँप का दृष्टांत' (रज्जु सर्प) एक केंद्रीय उपमा है।
माया और मिथ्या जगत: शंकराचार्य के अनुसार, माया भ्रम का सिद्धांत है, और अनुभव किया जाने वाला संसार एक भ्रम है। माण्डूक्य उपनिषद् गौडपाद की कारिकाओं के माध्यम से सृष्टि को 'मिथ्या' या वास्तविक नहीं बताता है। यह कहा जाता है कि शरीर, मन और बुद्धि जैसे सभी समुच्चय अज्ञान (माया) के कारण उत्पन्न होते हैं, जो आत्मा को ढँक लेता है। जिस प्रकार एक रस्सी पर भ्रमवश साँप दिखाई दे सकता है, उसी प्रकार ब्रह्मन् पर जगत का अध्यास (अधिरोपण) होता है। जब तक रस्सी को साँप समझा जाता है, साँप वास्तविक प्रतीत होता है; लेकिन रस्सी ही एकमात्र सत्य है, और साँप केवल एक मायावी प्रकटन है। ठीक उसी प्रकार, यह संसार केवल ब्रह्मन् पर एक अध्यास है, और ब्रह्मन् ही एकमात्र सत्य है।
अन्य दृष्टांत: इस सिद्धांत को समझाने के लिए कई अन्य दृष्टांत दिए गए हैं:
कपड़ा और कुर्ता: एक कुर्ता कपड़े का एक रूप है, और कपड़े के बिना कोई कुर्ता नहीं है। कुर्ता एक आश्रित वस्तु होने के कारण मिथ्या है, जबकि कपड़ा सत्य है।
कागज़ और किताब: एक किताब वास्तव में केवल कागज़ है, और किताब तब मिथ्या हो जाती है जब ध्यान उसके वास्तविक स्वरूप (कागज़) पर चला जाता है।
मिट्टी और घड़ा: घड़े जैसी कोई भी वस्तु केवल नाम और रूप है जो मिट्टी जैसी एक अंतर्निहित सामग्री पर आधारित है। "सभी परिवर्तन केवल शब्द हैं, नाम मात्र हैं। लेकिन मिट्टी ही वास्तविकता है।"।
देवदत्त का दृष्टांत: "यह वही देवदत्त है"। जिस प्रकार दूर देखे गए देवदत्त को पास में देखने पर भी वह व्यक्ति एक ही रहता है, भले ही स्थान या समय अलग हो। उसी प्रकार ब्रह्मन् और आत्मन् अलग-अलग प्रतीत होते हुए भी एक ही हैं।
जागृत और स्वप्न अवस्था का मिथ्यात्व: माण्डूक्य उपनिषद् जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को 'स्वप्न अवस्था' के समान मिथ्या मानता है। राजा जनक की कहानी में, ऋषि अष्टावक्र ने राजा से पूछा कि क्या उनके भयानक सपने और जागृत अवस्था की वास्तविकताएँ दोनों सत्य थीं। अष्टावक्र ने निष्कर्ष निकाला, "न तो यह सत्य है और न ही वह सत्य था। केवल आप ही सत्य हैं।"। यह दर्शाता है कि अनुभव की गई दुनिया सापेक्षिक है, और स्वयं ही एकमात्र परम सत्य है।
ओंकार और चेतना की अवस्थाओं के संदर्भ में सत्य:
माण्डूक्य उपनिषद् ओंकार (OM) को ब्रह्मन् और चेतना की सर्वोच्च, अविभाज्य वास्तविकता का प्रतीक मानता है।
ओम् का ब्रह्मांडीय प्रतिनिधित्व: उपनिषद् कहता है: "ओम्! यह अविनाशी शब्द ही यह समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड है। अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ ओम् है। और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी ओम् है।"। ओम् समस्त अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है, जो समय के बंधनों से भी परे है।
ध्वन्यात्मक समावेशन: 'ओम्' को इसलिए चुना गया क्योंकि यह मानव मुख से उत्पन्न होने वाली सभी ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है। 'अ' मुंह खोलने पर, 'म' मुंह बंद करने पर, और 'उ' इनके बीच की ध्वनियों को दर्शाता है। इस प्रकार, ओम् सभी संभावित ध्वनियों का समुच्चय है, और चूंकि सभी शब्द ध्वनियों पर आधारित होते हैं, इसलिए ओम् संपूर्ण ब्रह्मांड को, जिसमें सभी नाम और रूप शामिल हैं, समाहित करता है।
चेतना की अवस्थाएँ और तुरीय: माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न) और सुषुप्ति (गहरी नींद) का विश्लेषण करता है:
जाग्रत अवस्था: यह बाहरी स्थूल वस्तुओं के प्रति जागरूकता है, जिसका प्रतिनिधित्व ओम् का 'अ' अक्षर करता है।
स्वप्न अवस्था: यह आंतरिक मानसिक तत्वों का अनुभव है, जिसका प्रतिनिधित्व ओम् का 'उ' अक्षर करता है।
सुषुप्ति अवस्था: यह गहरी नींद है, जिसमें कोई इच्छा या विचार नहीं होता, और आत्मन् शुद्ध आनंद में स्थित रहता है। ओम् का 'म' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।
तुरीय अवस्था: उपनिषद् स्पष्ट रूप से बताता है कि तुरीय 'चौथी' अवस्था है, जो इन तीनों अवस्थाओं से परे है। इसे परम सत्य (अंतिम वास्तविकता) माना जाता है, जो अवर्णनीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत से परे शुद्ध चेतना है। तुरीय कोई 'अवस्था' नहीं है, बल्कि वह साक्षी (witness) है जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, उनसे स्वतंत्र है, और वे तीनों उस पर निर्भर करती हैं। तुरीय को 'सत्-चित्-आनंद' (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है। यह वह अखंड, एकरूप चेतना है, जो 'ओम्' के अक्षरों के बीच की नीरवता द्वारा प्रतीकात्मक रूप से दर्शायी जाती है।
अद्वैत की स्थापना:
माण्डूक्य उपनिषद् का मुख्य उद्देश्य अद्वैत की स्थापना करना है, जहाँ भेद की दुनिया को भ्रामक या 'मिथ्या' माना जाता है, जबकि ब्रह्मन् को एकमात्र 'सत्य' माना जाता है। द्वैतवादी दर्शनों से अद्वैत का कोई विरोध नहीं होता है, क्योंकि अद्वैती द्वैत को एक निचली या सापेक्षिक वास्तविकता (व्यवहारिक सत्य) के रूप में देखते हैं, जबकि अद्वैत परमार्थ सत्य है। जिस प्रकार स्वप्न की दुनिया जागृत दुनिया की तुलना में मिथ्या है, फिर भी स्वप्न के भीतर वास्तविक प्रतीत होती है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् सत्य की प्रकृति को अद्वैत ब्रह्मन् के रूप में प्रकट करता है, जो ओंकार में सन्निहित है, और जो चेतना की सभी अवस्थाओं का साक्षी तथा आधारभूत तुरीय है। यह ब्रह्मांड और उसकी समस्त बहुलता को एक मायावी प्रकटन मानता है, जिसका परमार्थिक रूप से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, जिससे यह पूर्ण अखंडता और एकत्व की अवधारणा को स्थापित करता है।
साँप (संसार/सीमित अहं) मिथ्या है
माण्डूक्य उपनिषद्, अथर्ववेद का एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद् है, जिसे दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं. इसके बावजूद, इसे समस्त वेदान्तिक शिक्षाओं का निचोड़ माना जाता है, और मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार, यह अकेले ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है. यह उपनिषद् सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से ओंकार की अवधारणा और चेतना की अवस्थाओं के माध्यम से, और इसी संदर्भ में "साँप (संसार/सीमित अहं) मिथ्या है" की अवधारणा को स्पष्ट करता है।
ओंकार (OM) और सत्य की प्रकृति का प्रतिनिधित्व: माण्डूक्य उपनिषद् 'ओम्' को ब्रह्मांड और चेतना की सर्वोच्च, अविभाज्य वास्तविकता का प्रतीक मानता है.
समग्र अस्तित्व का प्रतीक: उपनिषद् कहता है: "ओम्! यह अविनाशी शब्द ही यह समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड है। अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ ओम् है। और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी ओम् है". इसका अर्थ है कि ओम् समस्त अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है, जो समय के बंधनों से भी परे है.
ध्वन्यात्मक प्रतिनिधित्व: 'ओम्' का चयन इसलिए किया गया क्योंकि यह मानव मुख से उत्पन्न होने वाली सभी ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है. 'अ' मुंह खोलने पर उत्पन्न होने वाली पहली ध्वनि है, 'म' मुंह बंद करने पर उत्पन्न होने वाली अंतिम ध्वनि है, और 'उ' इन दोनों के बीच की ध्वनियों को दर्शाता है. इस प्रकार, ओम् सभी संभावित ध्वनियों का समुच्चय है, और चूंकि सभी शब्द ध्वनियों पर आधारित होते हैं तथा शब्द वस्तुओं से संबंधित होते हैं, इसलिए ओम् संपूर्ण ब्रह्मांड को, जिसमें सभी नाम और रूप शामिल हैं, समाहित करता है. इसे ईश्वर का सबसे सार्वभौमिक नाम माना जाता है क्योंकि यह सब कुछ आच्छादित करता है.
चेतना की अवस्थाएँ और तुरीय (चौथी अवस्था) के माध्यम से सत्य: माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं – जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न) और सुषुप्ति (गहरी नींद) का विश्लेषण करता है.
जाग्रत अवस्था: यह स्थूल शरीर में संज्ञान, धारणा और ज्ञान उत्पन्न करती है, जहाँ व्यक्ति बाह्य स्थूल वस्तुओं के प्रति जागरूक होता है. ओम् का 'अ' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है.
स्वप्न अवस्था: यह सूक्ष्म शरीर में बोध, अनुभूति या ज्ञान उत्पन्न करती है, जहाँ व्यक्ति आंतरिक मानसिक तत्वों का अनुभव करता है. ओम् का 'उ' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है.
सुषुप्ति अवस्था: इसे कारण शरीर भी कहा जाता है, यह वह अवस्था है जिसमें जाग्रत और स्वप्न की अनुभूतियाँ सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित होती हैं. इस अवस्था में कोई इच्छा या विचार नहीं होता, और आत्मन शुद्ध आनंद में स्थित रहता है. ओम् का 'म' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है.
तुरीय अवस्था: माण्डूक्य उपनिषद् स्पष्ट रूप से बताता है कि तुरीय 'चौथी' अवस्था है, जो इन तीनों अवस्थाओं से परे है. इसे परम सत्य (अंतिम वास्तविकता) माना जाता है, जो अवर्णनीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत (द्वैतवाद) से परे शुद्ध चेतना है. तुरीय कोई 'अवस्था' नहीं है, बल्कि वह साक्षी है जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, उनसे स्वतंत्र है, और वे तीनों उस पर निर्भर करती हैं. तुरीय को 'सत्-चित-आनंद' (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है.
ओम् के दो मंत्रों के बीच की नीरवता तुरीय का प्रतिनिधित्व करती है, वह शुद्ध चेतना जहाँ से सब कुछ प्रकट होता है और जिसमें सब कुछ समा जाता है.
"साँप (संसार/सीमित अहं) मिथ्या है": माया और अद्वैत का सिद्धांत माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि का केंद्रीय बिंदु अद्वैत (गैर-द्वैतवाद) की स्थापना है, जहाँ भेद की दुनिया को भ्रामक या 'मिथ्या' माना जाता है, जबकि ब्रह्म को एकमात्र 'सत्य' माना जाता है.
'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या': शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन के अनुसार, केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है. यह दर्शाता है कि अनुभव की जाने वाली बहुलता वास्तविक नहीं है, बल्कि माया या अविद्या (अज्ञान) के कारण उत्पन्न होती है. गौडपाद भी सृष्टि को मिथ्या मानते हैं, जो अद्वैत ब्रह्म पर एक अध्यास या अधिरोपण है.
रज्जु-सर्प दृष्टांत (रस्सी और साँप का उदाहरण): यह सिद्धांत को समझाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण दृष्टांत है.
जिस प्रकार एक व्यक्ति अँधेरे में पड़ी रस्सी को साँप समझ लेता है, उसी प्रकार अज्ञान (माया) के कारण ब्रह्म (रस्सी) को संसार (साँप) के रूप में देखा जाता है.
यह संसार (साँप) अपने आप में वास्तविक नहीं है; इसका अस्तित्व रस्सी से उधार लिया गया है. जब रस्सी (ब्रह्म) का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है, तो साँप (संसार) का भ्रम दूर हो जाता है.
यह दर्शाता है कि संसार ब्रह्म पर एक अध्यास (सुपरइम्पोजीशन) है, जो वास्तव में उससे भिन्न नहीं है.
इसी प्रकार, जाग्रत और स्वप्न की अवस्थाओं में अनुभव किए जाने वाले पदार्थ (जैसे शरीर, मन, इंद्रियाँ, तथा बाह्य संसार) भी मायावी हैं, वास्तविक नहीं.
नाम-रूप की अवधारणा: भौतिक दुनिया की वस्तुएँ, जैसे एक कुर्ता या एक किताब, केवल नाम और रूप हैं जो एक अंतर्निहित सामग्री पर आधारित हैं. जैसे एक किताब वास्तव में केवल कागज है, और कागज लकड़ी के गूदे से बना है, वैसे ही यह ब्रह्मांड केवल ब्रह्म का एक विवर्तन (गैर-परिवर्तनशील प्रकटन) है, न कि वास्तविक रूपांतरण. पुस्तक 'मिथ्या' है क्योंकि यह 'कागज' में कम हो जाती है, जो इसकी वास्तविक सामग्री है.
द्वैत की भ्रामक प्रकृति और सापेक्षिक सत्य: गौडपाद की कारिकाएँ द्वैत की भ्रामक प्रकृति को स्थापित करती हैं. उपनिषदों में सृष्टि के विभिन्न वर्णन केवल अद्वैत की सच्चाई को पुष्ट करने के लिए हैं, न कि सृष्टि को एक तथ्य के रूप में स्थापित करने के लिए. अद्वैती अन्य द्वैतवादी दर्शनों से संघर्ष नहीं करते क्योंकि वे द्वैत को एक निचली या सापेक्षिक वास्तविकता (व्यवहारिक सत्य) के रूप में देखते हैं, जबकि अद्वैत परमार्थ सत्य है. यह ठीक उसी तरह है जैसे स्वप्न की दुनिया जागृत दुनिया की तुलना में मिथ्या है, फिर भी स्वप्न के भीतर वास्तविक प्रतीत होती है.
इस प्रकार, माण्डूक्य उपनिषद् और उसके भाष्य यह स्पष्ट करते हैं कि साँप (अर्थात् यह संसार और सीमित अहं) मिथ्या है, वह ब्रह्म पर एक अवास्तविक अधिरोपण है। सत्य की प्रकृति अद्वैत ब्रह्म है, जो एकत्व और अखंडता में स्थित है, और जिसे ओंकार तथा चेतना की तुरीय अवस्था के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है। समस्त सृष्टि और व्यक्तिगत अहं केवल माया के अस्थायी प्रकटन हैं, जिनका अपने आप में कोई परम अस्तित्व नहीं है.
मिथ्या (अस्थायी/प्रतीतीयमान) अस्तित्व
माण्डूक्य उपनिषद्, अथर्ववेद का एक अति महत्वपूर्ण उपनिषद् है, जिसे दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। इसके बावजूद, इसे समस्त वेदान्तिक शिक्षाओं का निचोड़ माना जाता है, और मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार, यह अकेले ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है। यह उपनिषद् सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से मिथ्या (अस्थायी/प्रतीतीयमान) अस्तित्व की अवधारणा को ओंकार (OM) और चेतना की अवस्थाओं के माध्यम से स्पष्ट करता है।
सत्य की प्रकृति (परमार्थ सत्य): अद्वैत ब्रह्म माण्डूक्य उपनिषद् का केंद्रीय सिद्धांत अद्वैत (गैर-द्वैतवाद) है, जहाँ ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य (अंतिम वास्तविकता) माना जाता है।
ब्रह्म ही एकमात्र सत्य: शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन के अनुसार, "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है)। यह दर्शाता है कि ब्रह्मांड और उसकी समस्त बहुलता वास्तविक नहीं है, बल्कि माया या अविद्या के कारण उत्पन्न होती है।
तुरीय अवस्था: उपनिषद् चेतना की तीन सामान्य अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का विश्लेषण करता है, और उनसे परे एक चौथी अवस्था, तुरीय का वर्णन करता है। तुरीय को परमार्थ सत्य माना जाता है, जो अवर्णनीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत से परे शुद्ध चेतना है। यह तीनों अवस्थाओं का साक्षी और आधार है, जो उनसे स्वतंत्र है और जिन पर वे तीनों निर्भर करती हैं। तुरीय को 'सत्-चित-आनंद' (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
निरपेक्ष और अविभाज्य: आत्मा को असीमित, एकरूप और अविभाज्य माना गया है, जिसमें कोई भेद या भाग नहीं हैं।
मिथ्या (अस्थायी/प्रतीतीयमान) अस्तित्व: मिथ्या का अर्थ है जो आदि और अंत में अस्तित्वहीन हो, वह वर्तमान में भी अनिवार्य रूप से वैसा ही होता है; इसे माया या भ्रम के समान माना जाता है। यह 'रज्जु सर्प' (रस्सी को साँप समझना) के उदाहरण से समझाया जाता है, जहाँ साँप वास्तविक नहीं होता, बल्कि रस्सी पर आरोपित होता है।
चेतना की अवस्थाओं से मिथ्या की व्याख्या:
जाग्रत अवस्था (Waking State): इस अवस्था में व्यक्ति बाहरी, स्थूल वस्तुओं के प्रति जागरूक होता है, जो इंद्रियों द्वारा अनुभव की जाती हैं। इसे ओंकार के 'अ' अक्षर से दर्शाया जाता है।
स्वप्न अवस्था (Dream State): इस अवस्था में व्यक्ति सूक्ष्म शरीर में आंतरिक मानसिक तत्वों का अनुभव करता है। स्वप्न की दुनिया, यद्यपि स्वप्न के भीतर वास्तविक प्रतीत होती है, जागृत होने पर अवास्तविक सिद्ध होती है। ओंकार का 'उ' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। गौडपाद के अनुसार, जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ स्वप्न के समान ही हैं, क्योंकि दोनों में अहंकार (जीव) केवल विचारों और भावनाओं का अनुभव करता है, और वे आत्म-अज्ञानी होते हैं। जनक राजा का स्वप्न और अष्टावक्र द्वारा उसकी व्याख्या इस विचार को पुष्ट करती है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों ही अवस्थायें सत्य नहीं हैं, केवल स्वयं ही सत्य है।
सुषुप्ति अवस्था (Deep Sleep State): यह वह अवस्था है जहाँ जाग्रत और स्वप्न की अनुभूतियाँ अव्यक्त या बीज-अवस्था में निहित होती हैं। ओंकार का 'म' अक्षर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। यह अवस्था अनुभव की जाने वाली सभी चीजों का "माप" करती है, क्योंकि स्वप्न और जागृत अनुभव इसी अवस्था में निहित वासनाओं और संस्कारों से निर्धारित होते हैं।
ओंकार (OM) द्वारा मिथ्या का स्पष्टीकरण:
'ओम्' संपूर्ण ब्रह्मांड और चेतना की सर्वोच्च, अविनाशी वास्तविकता का प्रतीक है। उपनिषद् बताता है कि "ओम्! यह अविनाशी शब्द ही यह समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड है। अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ ओम् है। और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी ओम् है।"।
ओंकार के तीन अक्षर (अ, उ, म) चेतना की तीनों अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, और ओंकार के बाद की 'मौन' अवस्था या ध्वनि का संकल्प बिंदु तुरीय या शुद्ध चेतना को दर्शाता है। यह मौन ही वह परम चेतना है, जहाँ से सब कुछ प्रकट होता है और जिसमें सब कुछ विलीन हो जाता है। यह दर्शाता है कि प्रकट दुनिया मौन पर निर्भर है और उसका अस्तित्व मौन में विलीन हो जाता है, जिससे उसकी अस्थायी प्रकृति सिद्ध होती है।
सृष्टि (सृजन) के वर्णन की मिथ्या प्रकृति:
उपनिषदों में सृष्टि के विभिन्न वर्णन वास्तविक सृजन को स्थापित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि अद्वैत की सच्चाई को पुष्ट करने के लिए हैं।
सृष्टि के वर्णनों में असंगति इस बात का प्रमाण है कि ये विवरण वास्तविक तथ्य नहीं हैं, बल्कि केवल अद्वैत को समझाने के लिए एक "उपाय" या "अर्थवाद" (अलंकारिक कथन) हैं। जिस प्रकार नाटक की कहानी वास्तविक नहीं होती, उसी प्रकार सृष्टि भी।
मिट्टी और घड़ा का दृष्टांत: एक घड़ा केवल मिट्टी का नाम और रूप है; मिट्टी ही वास्तविक सत्य है, घड़ा केवल एक 'विकार' या नाम मात्र है। इसी प्रकार, ब्रह्मांड केवल ब्रह्म का एक विवर्तन (apparent transformation) है, जिसका परमार्थिक रूप से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
द्वैत की सापेक्षिक वास्तविकता: अद्वैत दर्शन द्वैतवादी दर्शनों से संघर्ष नहीं करता, क्योंकि यह द्वैत को एक निचली या सापेक्षिक वास्तविकता (व्यवहारिक सत्य) के रूप में देखता है, जबकि अद्वैत परमार्थ सत्य है। द्वैत की दुनिया माया से उत्पन्न होती है।
इस प्रकार, माण्डूक्य उपनिषद् सत्य की प्रकृति को अद्वैत ब्रह्म के रूप में स्थापित करता है, जो तुरीय अवस्था के रूप में अनुभवगम्य है, और समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड एवं चेतना की तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) को मिथ्या या प्रतीतीयमान अस्तित्व मानता है, जो ब्रह्म पर आरोपित हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक रस्सी पर साँप का भ्रम। यह संपूर्ण शिक्षा अद्वैत के एकत्व और अखंडता को स्थापित करने पर केंद्रित है।
नित्य (अपरिवर्तनीय) और सत्य (वास्तविक)
माण्डूक्य उपनिषद्, अथर्ववेद का एक प्रतिष्ठित ग्रंथ है, जिसे दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। इसके बावजूद, इसे समस्त वेदान्तिक शिक्षाओं का निचोड़ माना जाता है, और मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार, यह अकेले ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है। यह उपनिषद् सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से ओंकार की अवधारणा और चेतना की अवस्थाओं के माध्यम से।
सत्य (वास्तविक) की प्रकृति: माण्डूक्य उपनिषद् का केंद्रीय सिद्धांत अद्वैत (गैर-द्वैतवाद) है, जिसके अनुसार केवल ब्रह्म ही एकमात्र सत्य (वास्तविक) है, और बाकी सब मिथ्या (भ्रामक या अवास्तविक) है। यह शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" में भी परिलक्षित होता है।
ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या: उपनिषद् सिखाता है कि जो कुछ भी अनुभव किया जाता है, वह अंततः सत्य नहीं है। संसार, उसकी बहुलता और भेद माया (अज्ञान) के कारण उत्पन्न होते हैं। जैसे एक स्वप्न (dream) की दुनिया जागृत अवस्था में अवास्तविक प्रतीत होती है, वैसे ही जागृत दुनिया भी परमार्थतः (परम वास्तविकता में) वास्तविक नहीं है। राजा जनक की कहानी इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ उन्हें उनके स्वप्न और जागृत दोनों अनुभवों की अवास्तविकता का बोध कराया जाता है, और यह बताया जाता है कि केवल 'आप ही सत्य हैं'।
नाम और रूप की मिथ्याता: भौतिक वस्तुएं केवल नाम और रूप हैं जो एक अंतर्निहित सामग्री पर आधारित होते हैं। उदाहरण के लिए, एक कुर्ता कपड़े का एक रूप मात्र है, और कपड़ा स्वयं रेशे से बना है। इसी तरह, यह ब्रह्मांड केवल ब्रह्म का एक विवर्तन (गैर-परिवर्तनशील प्रकटन) है, न कि वास्तविक रूपांतरण। गौडपाद की कारिकाएं सृष्टि की भ्रामक प्रकृति को स्थापित करती हैं। सृष्टि के बारे में उपनिषदों में दिए गए विभिन्न वर्णन सृष्टि को एक तथ्य के रूप में स्थापित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि अद्वैत की सच्चाई को पुष्ट करने के लिए हैं।
द्रष्टा ही सत्य है, दृश्य मिथ्या: जो देखता है (द्रष्टा) वही सत्य है, जबकि जो देखा जाता है (दृश्य) वह मिथ्या है।
नित्य (अपरिवर्तनीय) की प्रकृति:
ब्रह्म/आत्मन् ही नित्य है: माण्डूक्य उपनिषद् में परमार्थिक सत्य (अंतिम वास्तविकता) को तुरीय या चौथी अवस्था कहा गया है। यह तीनों चेतना की अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे है। तुरीय को अविर्णीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत से परे शुद्ध चेतना माना जाता है। यह कोई 'अवस्था' नहीं है, बल्कि वह नित्य (शाश्वत, अपरिवर्तनीय) साक्षी है जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, उनसे स्वतंत्र है, और वे तीनों उस पर निर्भर करती हैं। तुरीय को 'सत्-चित-आनंद' (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
अजाति वाद (गैर-सृष्टि का सिद्धांत): गौडपाद का अजाति वाद यह स्थापित करता है कि वास्तविकता में कुछ भी उत्पन्न या नष्ट नहीं होता। शंकराचार्य के अनुसार, संसार के पंचभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) भी ब्रह्म से स्वप्न की तरह मिथ्या रूप से उत्पन्न होते हैं। यह अजाति वाद इस विचार को पुष्ट करता है कि ब्रह्म नित्य और अपरिवर्तनीय है, और उससे कुछ भी नया उत्पन्न नहीं होता, बल्कि वह केवल एक मायावी प्रकटन है। विभिन्न उपनिषदों में सृष्टि के वर्णन में विसंगतियाँ (जैसे तत्वों का क्रम) इस बात का प्रमाण हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि यह केवल अद्वैत को स्थापित करने का एक तरीका है।
कारण और कार्य संबंध की मिथ्याता: अद्वैत वेदांत यह तर्क देता है कि कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं होता। उदाहरण के लिए, घड़ा मिट्टी से भिन्न नहीं है, या आभूषण सोने से भिन्न नहीं है। इसी प्रकार, जगत ब्रह्म से भिन्न नहीं है, और चूंकि ब्रह्म नित्य और अपरिवर्तनीय है, इसलिए जगत भी ब्रह्म से अलग वास्तविक नहीं हो सकता। यह कार्य-कारण भाव केवल माया के कारण उत्पन्न होता है, जो अंततः मिथ्या है।
ओंकार (OM) और सत्य की प्रकृति में उसकी अंतर्दृष्टि: माण्डूक्य उपनिषद् 'ओम्' को ब्रह्मांड और चेतना की सर्वोच्च, अविभाज्य वास्तविकता का प्रतीक मानता है।
समस्त अस्तित्व का प्रतिनिधित्व: उपनिषद् स्पष्ट रूप से घोषित करता है: "ओम्! यह अविनाशी शब्द ही यह समस्त दृश्यमान ब्रह्मांड है। अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ ओम् है। और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी ओम् है"। यह दर्शाता है कि ओम् समस्त अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है, जो नित्य (शाश्वत) है और समय के बंधनों से भी परे है।
चेतना की अवस्थाओं का प्रतीक: ओम् के तीन अक्षर – 'अ' (अकार), 'उ' (उकार), और 'म' (मकार) – क्रमशः चेतना की तीन अवस्थाओं – जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
'अ' जाग्रत अवस्था से संबंधित है, जिसमें व्यक्ति बाहरी स्थूल वस्तुओं के प्रति जागरूक होता है।
'उ' स्वप्न अवस्था से संबंधित है, जहाँ व्यक्ति आंतरिक मानसिक तत्वों का अनुभव करता है।
'म' सुषुप्ति (गहरी नींद) अवस्था से संबंधित है, जो जाग्रत और स्वप्न की अनुभूतियों को सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित करती है। इस अवस्था में कोई इच्छा या विचार नहीं होता और आत्मन शुद्ध आनंद में स्थित रहता है।
अमात्र (ध्वनिरहित) और तुरीय: ओम् के ध्वन्यात्मक प्रतिनिधित्व के बाद आने वाली खामोशी (अमात्र) को तुरीय का प्रतीक माना जाता है। यह खामोशी ही परम सत्य और नित्य चेतना है, जो तीनों अवस्थाओं से परे है और अवर्णनीय है। तुरीय को पूर्ण शांति (blissful, peaceful, non-dual) के रूप में वर्णित किया गया है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् सत्य की प्रकृति को अद्वैत ब्रह्म के रूप में प्रकट करता है, जो नित्य (अपरिवर्तनीय) और वास्तविक (सत्य) है। यह ओंकार के माध्यम से और चेतना की अवस्थाओं के विश्लेषण द्वारा इस परम अखंडता और एकत्व की अवधारणा को स्थापित करता है, जहाँ ब्रह्मांड और उसकी समस्त बहुलता को एक मायावी प्रकटन माना जाता है, जिसका परमार्थिक रूप से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
सत्य ज्ञान से दुःख का अंत
माण्डूक्य उपनिषद्, अथर्ववेद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपनिषद् है, जिसे दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार, यह उपनिषद् अकेले ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है, यदि इसके वास्तविक अर्थ को आत्मसात कर अनुभव में उतारा जाए। यह उपनिषद् चेतना की गहराई और सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
सत्य की प्रकृति: माण्डूक्य उपनिषद् वास्तविकता के संज्ञान को चेतना की तीन अवस्थाओं में वर्गीकृत करता है: जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), और सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था)। हालाँकि, उपनिषद् एक चौथी अवस्था, तुरीय (या चतुर्थ) को परम सत्य या अंतिम वास्तविकता के रूप में प्रस्तुत करता है, जो इन तीनों अवस्थाओं से परे है और अपरिवर्तनीय है। तुरीय को शुद्ध चेतना के रूप में वर्णित किया गया है, जो अनिर्वचनीय, अनुमेय, अविचारणीय और अवर्णनीय है। यह वह साक्षी है जो तीनों अनुभवों को जानता है लेकिन स्वयं उनमें से किसी पर निर्भर नहीं करता है। यह केवल ब्रह्म ही है, जो शुद्ध अस्तित्व-चेतना-आनंद (सत्-चित-आनंद) के बराबर है।
वेदांत दर्शन का एक केंद्रीय सिद्धांत, जिसे शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन "ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या" ("केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है") द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है, माण्डूक्य उपनिषद् की शिक्षाओं का सार है। यह संपूर्ण दृश्यमान जगत् (संसार) ब्रह्म पर एक अध्यास (सुपरइम्पोजिशन) है, जिसका अर्थ है कि संसार वास्तविक नहीं है, बल्कि यह केवल नाम और रूप (नामा-रूपा) है। जैसे एक कुर्ता कपड़े का एक रूप है, या एक किताब कागज का एक रूप है, वैसे ही यह संसार परम सत्य पर एक दिखावा मात्र है।
रस्सी-साँप का दृष्टांत (अनालॉजी): सत्य की प्रकृति को समझाने के लिए रस्सी-साँप का दृष्टांत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस दृष्टांत में:
रस्सी परम सत्य ब्रह्म का प्रतीक है।
साँप इस संसार या द्वैत का प्रतीक है।
यह दृष्टांत बताता है कि अँधेरे में या भ्रम की स्थिति में, एक रस्सी को गलती से साँप समझा जा सकता है। यह साँप वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है, बल्कि यह केवल भ्रम (माया) का एक प्रकटन है। जैसे ही रस्सी का सही ज्ञान हो जाता है, साँप का भ्रम तुरंत दूर हो जाता है।
इसी प्रकार, यह दृष्टांत यह स्पष्ट करता है कि जगत (संसार) मिथ्या है और यह केवल अविद्या (अज्ञान) के कारण ब्रह्म पर आरोपित है। जिस प्रकार साँप के भ्रम के दौरान भी रस्सी ही सत्य होती है, उसी प्रकार इस संसार की भ्रामक उपस्थिति के बावजूद ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है।
सत्य ज्ञान से दुःख का अंत: उपनिषदों के अनुसार, दुःख और बंधन हमारे वास्तविक स्वरूप (आत्मा) के अज्ञान से उत्पन्न होते हैं, और हम अपने आप को सीमित देह-मन-इंद्रिय के साथ पहचान लेते हैं। जिस प्रकार अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेने से भय और पीड़ा होती है, उसी प्रकार ब्रह्म (जो कि हमारा वास्तविक स्वरूप है) के अज्ञान के कारण हम संसार के दुखों और बंधनों को वास्तविक मान लेते हैं।
सत्य ज्ञान (आत्मज्ञान/ब्रह्मज्ञान) से दुःख का अंत निम्न प्रकार से होता है:
अज्ञान का निवारण: जब साधक को अपने वास्तविक स्वरूप यानी तुरीय आत्मा का ज्ञान हो जाता है, तो संसार के भ्रामक स्वभाव का पर्दाफाश हो जाता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे रस्सी को जान लेने पर साँप का भ्रम दूर हो जाता है।
राग-द्वेष का अभाव: जब तक द्वैत (भेदभाव) का अनुभव होता है, तब तक राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) उत्पन्न होते हैं, जो दुःख का कारण बनते हैं। अद्वैत ज्ञान (सत्यक ज्ञान), जो किसी भी प्रकार का राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करता, साधक को इन दोषों से मुक्त करता है।
बंधन और दुःख से मुक्ति: अविद्या, राग-द्वेष, और तृष्णा (इच्छाएं) - जो मिलकर संसार का निर्माण करते हैं - आत्मज्ञान प्राप्त होने पर समाप्त हो जाते हैं। व्यक्ति संसार के चक्र (जन्म-मृत्यु-पुनर्जन्म) से मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसे पता चल जाता है कि ये सभी केवल एक दिखावा मात्र थे।
शांति और पूर्णता की प्राप्ति: जब चेतना अपने शुद्ध स्वरूप (तुरीय) में स्थित हो जाती है, तो सभी ब्रह्मांडीय उथल-पुथल शांत हो जाती है। यह पूर्ण शांति, पूर्णता और चिंता-मुक्त होने की स्थिति है, जिसे "ज्ञान" के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
अखंड सुख: तुरीय अवस्था का ज्ञान होने पर, व्यक्ति अपनी सीमित पहचान से परे चला जाता है और स्वयं को असीम, आनंदमय ब्रह्म के रूप में अनुभव करता है। यह वह स्थिति है जहाँ इच्छा और पीड़ा का कोई अस्तित्व नहीं होता है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् बताता है कि परम सत्य ब्रह्म (तुरीय) ही एकमात्र वास्तविकता है, और दृश्यमान जगत् केवल माया (अज्ञान) के कारण उस पर आरोपित एक भ्रम है। रस्सी-साँप का दृष्टांत इस माया के स्वभाव को स्पष्ट करता है। इस सत्य के ज्ञान से अज्ञान, राग-द्वेष और उनसे उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के दुःख का अंत होता है, जिससे व्यक्ति को परम मोक्ष और शांति की प्राप्ति होती है।
प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द ज्ञान के साधन
माण्डूक्य उपनिषद्, अथर्ववेद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपनिषद् है, जिसे दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार, यह उपनिषद् अकेले ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है। यह उपनिषद् चेतना की गहराई और सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
माण्डूक्य उपनिषद् में सत्य की प्रकृति को समझने के लिए ज्ञान के विभिन्न साधनों (प्रमाणों) – प्रत्यक्ष (धारणा), अनुमान (अनुमान), और शब्द (मौखिक गवाही/शास्त्र) – की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। ये प्रमाण हमें संसार और परमार्थ सत्य (अंतिम वास्तविकता) को समझने में सहायता करते हैं।
चेतना की अवस्थाएँ और ज्ञान के साधन: माण्डूक्य उपनिषद् मानव अनुभव की तीन अवस्थाओं – जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), और सुषुप्ति (गहरी नींद) – का विश्लेषण करता है। इन तीनों अवस्थाओं से परे तुरीय (चौथी अवस्था) को परम सत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
प्रत्यक्ष (Perception/धारणा):
जाग्रत अवस्था में, व्यक्ति बाह्य स्थूल वस्तुओं का अनुभव करता है। इस अवस्था में ज्ञान मुख्य रूप से इंद्रियों के प्रत्यक्ष बोध के माध्यम से प्राप्त होता है। हम इस जाग्रत विश्व को वास्तविक मानते हैं, और हमारा व्यवसाय दिन-प्रतिदिन के अनुभव में प्रस्तुत तथ्यों के साथ होता है।
हालांकि, वेदांत दर्शन के अनुसार, जाग्रत अवस्था में अनुभूतियाँ भी, परमार्थिक दृष्टिकोण से, स्वप्न या भ्रम जैसी ही हैं। जैसे एक कुर्ता या एक किताब केवल नाम और रूप (नामा-रूपा) हैं जिनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, बल्कि वे एक अंतर्निहित सामग्री पर आधारित हैं। जैसे एक किताब वास्तव में केवल कागज है, उसी प्रकार यह ब्रह्मांड केवल ब्रह्म का एक विवर्तन (गैर-परिवर्तनशील प्रकटन) है। यह संसार केवल नाम और रूप है और इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति माया के कारण होती है।
जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः ब्रह्म पर अध्यारोप (सुपरइम्पोजिशन) हैं, जिन्हें अविद्या (अज्ञान) के कारण उत्पन्न माना जाता है। अतः, प्रत्यक्ष ज्ञान सापेक्षिक (व्यवहारिक) सत्य के दायरे में आता है, जो परमार्थिक सत्य नहीं है।
अनुमान (Inference/अनुमान):
अनुमान ज्ञान का वह साधन है जहाँ देखे गए या ज्ञात तथ्यों के आधार पर अज्ञात की ओर तर्क किया जाता है।
सृष्टि के विभिन्न उपनिषदिक वर्णन द्वैत को एक निचली या सापेक्षिक वास्तविकता के रूप में स्वीकार करते हैं, केवल परमार्थिक सत्य यानी अद्वैत की स्थापना के लिए। उदाहरण के लिए, "यह सब ब्रह्म ही है" जैसे कथन, जहाँ "यह" (दृश्यमान जगत्) और "वह" (ब्रह्म) को एक माना जाता है, उसे भागत्याग लक्षणा (कुछ गुणों को छोड़कर परिभाषा) जैसी प्रक्रियाओं के माध्यम से समझा जा सकता है, जिसमें अनुमान का उपयोग होता है।
हालांकि, शंकराचार्य और गौडपाद का अद्वैत दर्शन यह तर्क देता है कि सृष्टि (उत्पत्ति) का कोई वास्तविक तथ्य नहीं है, बल्कि यह केवल मिथ्या (भ्रामक) है, जो अद्वैत को स्थापित करने के लिए एक साधन मात्र है। यदि सृष्टि वास्तविक होती, तो उसके वर्णन में कोई विसंगति नहीं होती, लेकिन उपनिषदों में विभिन्न प्रकार के सृष्टि वर्णन इसकी अवास्तविकता को दर्शाते हैं।
"रस्सी-साँप का दृष्टांत" इस बात को स्पष्ट करता है कि जैसे रस्सी पर साँप का भ्रम अनुमान के कारण उत्पन्न होता है, वैसे ही ब्रह्म पर जगत् का भ्रम उत्पन्न होता है। साँप (जगत्) की वास्तविकता को समझने के लिए अनुमान का प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन अंततः यह ज्ञान होता है कि साँप का अस्तित्व केवल भ्रम था और रस्सी ही एकमात्र सत्य है। यह दृष्टांत माया या अविद्या के कारण उत्पन्न होने वाली द्वैत की भ्रामक प्रकृति और अद्वैत ब्रह्म की परम सत्यता को समझाने के लिए उपयोग किया जाता है।
शब्द (Verbal Testimony/शास्त्र):
शास्त्र (विशेषकर उपनिषद) को परम सत्य (ब्रह्म/आत्मन) को जानने का प्रमुख और विश्वसनीय साधन माना जाता है, क्योंकि यह इंद्रियों या तर्क (अनुमान) से परे है। तुरीय अवस्था, जो अवर्णनीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत से परे शुद्ध चेतना है, उसे सामान्य इंद्रियों या मन द्वारा नहीं जाना जा सकता।
उपनिषद, विशेष रूप से माण्डूक्य उपनिषद्, तुरीय को परिभाषित करने के लिए नकारात्मक विधि (निषेधात्मक पद्धति) का प्रयोग करते हैं – जैसे "न अंतःप्रज्ञं, न बहिःप्रज्ञं..." (न तो अंतर्मुखी चेतना, न बहिर्मुखी चेतना)। यह बताता है कि तुरीय शब्दों से परे है, और इसे केवल गुणों के निषेध द्वारा ही दर्शाया जा सकता है।
महावाक्य, जैसे "अयमात्मा ब्रह्म" ("यह आत्मा ब्रह्म है"), सीधे इस सत्य को उद्घाटित करते हैं। यह ज्ञान "मैं ब्रह्म हूँ" का दावा करने और चेतना के उस हिस्से को पहचानने से आता है जो हर समय उपलब्ध है, यह कोई नई रहस्यमय अनुभव नहीं है।
समस्त उपनिषदों का सार यही है कि तुरीय ही आत्मन है और स्वयं की मुक्ति के लिए इसे जानना आवश्यक है। यह ज्ञान अद्वैत ब्रह्म के शाश्वत सत्य को स्थापित करता है और द्वैत को अवास्तविक बताता है।
सत्य की प्रकृति के संदर्भ में: माण्डूक्य उपनिषद् का मुख्य उद्देश्य परमार्थिक सत्य (अंतिम वास्तविकता) की स्थापना करना है, जो कि अद्वैत ब्रह्म है। संसार, अपनी बहुलता और परिवर्तनशीलता के साथ, व्यावहारिक स्तर पर ही सत्य प्रतीत होता है (व्यवहारिक सत्य)। यह केवल ब्रह्म पर आरोपित एक भ्रम (माया) है।
ज्ञान के साधन (प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द) इस द्वि-स्तरीय वास्तविकता को समझने में सहायक होते हैं। जहाँ प्रत्यक्ष और अनुमान मुख्य रूप से व्यावहारिक सत्य (संसार की वस्तुओं और घटनाओं) से संबंधित होते हैं, वहीं शब्द (शास्त्रों की वाणी) ही एकमात्र ऐसा प्रमाण है जो हमें द्वैत से परे अद्वैत ब्रह्म की परम और निरपेक्ष सत्यता तक पहुँचाता है। अंततः, माण्डूक्य उपनिषद् का लक्ष्य इस ज्ञान को आत्मसात करना है कि हम स्वयं वह शुद्ध चेतना (तुरीय) हैं, जो समस्त दुख और अज्ञान से परे है।
शब्द द्वारा ब्रह्म का अप्रत्यक्ष प्रकटीकरण
माण्डूक्य उपनिषद्, अथर्ववेद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपनिषद् है, जिसे दस प्रमुख उपनिषदों में सबसे छोटा माना जाता है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं। मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार, यह उपनिषद् अकेले ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है। यह उपनिषद् चेतना की गहराई और सत्य की प्रकृति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
माण्डूक्य उपनिषद् में सत्य की प्रकृति को समझने और शब्दों द्वारा ब्रह्म के अप्रत्यक्ष प्रकटीकरण की प्रक्रिया को निम्न बिंदुओं से समझा जा सकता है:
1. सत्य की प्रकृति: ब्रह्म ही परम सत्य, जगत् मिथ्या माण्डूक्य उपनिषद् परमार्थिक सत्य (अंतिम वास्तविकता) के रूप में अद्वैत ब्रह्म की स्थापना करता है। वेदांत दर्शन का मूल सिद्धांत "ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या" (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है) मांडूक्य के सिद्धांतों से गहराई से जुड़ा हुआ है। संसार या दृश्यमान जगत् को मायावी अभिव्यक्ति या मिथ्या माना जाता है। यह मिथ्या इसलिए है क्योंकि इसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, यह केवल नाम और रूप है। यह शुरुआत और अंत में अविद्यमान होता है, इसलिए वर्तमान में भी यह वैसा ही होता है, जैसे भ्रम या स्वप्न।
2. ब्रह्म/तुरीय की अवर्णनीयता और शब्दों की सीमाएँ उपनिषद् चेतना की तीन अवस्थाओं – जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति – का विश्लेषण करता है, और इन तीनों से परे तुरीय (चौथी अवस्था) को परम सत्य के रूप में प्रस्तुत करता है। तुरीय शुद्ध चेतना है, जो अवर्णनीय, अचिंतनीय, और समस्त द्वैत तथा गुणों से परे है।
तुरीय को मुख्य रूप से निषेधात्मक पद्धति (negative definition) से परिभाषित किया जाता है। इसे "न अंतःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञम्" (न अंतर्मुखी चेतना, न बहिर्मुखी चेतना) आदि शब्दों से दर्शाया जाता है।
इसका कारण यह है कि शब्दों में ब्रह्म/तुरीय का सीधे वर्णन करने की क्षमता नहीं है (शब्द-अनभिधेयत्वम्)। सामान्य शब्दों का प्रयोग किसी वस्तु के गुण, जाति, क्रिया, द्रव्य या संबंध के आधार पर होता है।
परंतु ब्रह्म/तुरीय में ये पाँचों शर्तें अनुपस्थित हैं। यह निराकार है, गुणों से रहित है, कोई क्रिया नहीं करता, और इसकी कोई जाति नहीं है।
वास्तविक (सत्) और अवास्तविक (असत्) के बीच संबंध शब्दों द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता।
3. शब्दों द्वारा ब्रह्म का अप्रत्यक्ष प्रकटीकरण (अध्यारोप-अपवाद विधि) चूँकि ब्रह्म को सीधे शब्दों से वर्णित नहीं किया जा सकता, उपनिषद् और वेदांत दर्शन उसे अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट करने के लिए विभिन्न विधियों और दृष्टांतों का उपयोग करते हैं:
रस्सी-साँप का दृष्टांत (रज्जुसर्प दृष्टांत): यह दृष्टांत माया या अविद्या के कारण उत्पन्न होने वाले भ्रम की प्रकृति को समझाने में केंद्रीय है। इसमें रस्सी परम सत्य ब्रह्म का प्रतीक है, जबकि उस पर भ्रमवश दिखाई देने वाला साँप इस संसार या द्वैत का प्रतीक है। जिस प्रकार अँधेरे में रस्सी को साँप समझ लिया जाता है, और सही ज्ञान होने पर साँप का भ्रम दूर हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म पर संसार का अध्यास (superimposition) होता है। जब संसार की अवास्तविकता का ज्ञान हो जाता है, तो ब्रह्म का परम सत्य प्रकट होता है।
अध्यारोप (आरोपण) और अपवाद (निषेध) की विधि: यह वह प्रक्रिया है जहाँ पहले एक वस्तु पर कुछ आरोपित किया जाता है, और फिर उस आरोप का निषेध करके वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया जाता है। ब्रह्म पर जगत् का आरोपण किया जाता है, और फिर उसकी मिथ्याता को स्थापित करके जगत् का निषेध किया जाता है, जिससे ब्रह्म ही शेष रहता है।
सृष्टि के वर्णनों का प्रयोजन: उपनिषदों में सृष्टि के विभिन्न वर्णन शाब्दिक तथ्य के रूप में नहीं लिए जाते, बल्कि वे अद्वैत ब्रह्म की एकता को स्थापित करने का साधन (उपाय) होते हैं। इन वर्णनों में विसंगतियाँ यह दर्शाती हैं कि वे वस्तुस्थिति (fact) का प्रतिपादन नहीं कर रहे, बल्कि एक उच्च सत्य की ओर संकेत कर रहे हैं। शंकराचार्य गौडपाद के "अजातिवाद" (सृष्टि की अन-उत्पत्ति) का समर्थन करते हैं, जिसके अनुसार वास्तविकता में कोई सृष्टि हुई ही नहीं है।
ओंकार (AUM) का प्रतीकवाद: माण्डूक्य उपनिषद् ओंकार (AUM) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है। 'अ' ध्वनि जाग्रत अवस्था को, 'उ' स्वप्न को और 'म' सुषुप्ति को दर्शाती है। इन तीनों ध्वनियों के बीच और अंत में जो अमात्रा या मौन है, वह तुरीय, शुद्ध चेतना है। ओंकार सभी ध्वनियों, शब्दों और वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है, इस प्रकार यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है, और इसका मौन रूप तुरीय का अप्रत्यक्ष प्रकटीकरण है।
राजा जनक का दृष्टांत: राजा जनक के सपने की कहानी (कि क्या उनका शाही जीवन सच था या सपने की दरिद्रता) इस बात पर जोर देती है कि जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या हैं, और केवल स्वयं (आत्मा) ही सत्य है। यह भी एक प्रकार से वास्तविकता के स्तरों को समझाकर परम सत्य को अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट करने का तरीका है।
मौन (Silence) के रूप में आत्मन: स्वामी कृष्णानंद के अनुसार, आत्मन या परम सत्य मौन है। जब एक शिष्य ने गुरु से आत्मन के बारे में पूछा, तो गुरु मौन रहे, यह दर्शाते हुए कि मौन ही आत्मन है। यह मौन दार्शनिकों के तार्किक तर्कों से भी अधिक गहरा और पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करता है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् में सत्य की प्रकृति को अद्वैत ब्रह्म के रूप में स्थापित किया गया है, जो गुणों और शब्दों से परे है। शब्दों द्वारा ब्रह्म का अप्रत्यक्ष प्रकटीकरण दृष्टांतों (जैसे रस्सी-साँप), सृष्टि के वर्णनों की सापेक्षिकता, ओंकार के प्रतीकवाद, और निषेधात्मक परिभाषाओं के माध्यम से किया जाता है, ताकि साधक को द्वैत के भ्रम से परे ले जाकर परमार्थिक सत्य की अनुभूति कराई जा सके।
सृष्टि की अवधारणा
मांडूक्य उपनिषद एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो वेदांत दर्शन में गहराई से अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह सबसे छोटा उपनिषद है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं, फिर भी यह पूरे वेदांतिक शिक्षण के सार को समाहित करता है। इसका मुख्य उद्देश्य मानवीय चेतना की विभिन्न अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का विश्लेषण करके अंतिम सत्य, जिसे 'तुरीय' कहा जाता है, को उजागर करना है। इस संदर्भ में, सृष्टि (जगत) की अवधारणा को अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से देखा जाता है।
मांडूक्य उपनिषद में सृष्टि की अवधारणा:
मांडूक्य उपनिषद, गौडपादाचार्य की कारिका और शंकराचार्य के भाष्य के साथ, सृष्टि की प्रकृति को एक अद्वितीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है:
जगत की मिथ्या प्रकृति: अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जगत मिथ्या है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जगत का अस्तित्व ही नहीं है, बल्कि यह है कि इसका अस्तित्व परमार्थिक (परम) सत्य के रूप में नहीं है। जगत को केवल "नाम और रूप" दिया गया है। जैसे एक किताब को अंततः कागज में, और कागज को लकड़ी के गूदे में कम किया जा सकता है, उसी तरह जगत अपने मूल तत्व में घटित हो जाता है, जो ब्रह्म है।
स्वप्न से तुलना: जगत को अक्सर स्वप्न की तरह माया द्वारा निर्मित बताया जाता है। जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को "स्वप्न अवस्था" माना जाता है, क्योंकि दोनों में अनुभवकर्ता (जागृत-व्यक्ति या स्वप्न-व्यक्ति) आत्म-अज्ञानी होते हैं। राजा जनक का दृष्टांत, जहाँ उन्हें स्वप्न में एक भयानक हार का अनुभव होता है और जागने पर अस्तित्त्व पर संदेह होता है, यह दर्शाता है कि जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या हैं और केवल 'आप' (आत्मा) ही सत्य हैं।
जगत् की उत्पत्ति का प्रयोजन (श्रीष्टि-वाक्य): उपनिषद में सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में दिए गए विवरण (सृष्टि-वाक्य) को अक्सर यह स्थापित करने के लिए नहीं माना जाता है कि सृष्टि वास्तविक है। इसके बजाय, इन वर्णनों का उद्देश्य अद्वैत (एकता) के ज्ञान की ओर ले जाना है। विभिन्न उपनिषदों में सृष्टि के क्रम में विसंगतियां इस बात का प्रमाण मानी जाती हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि एक अवधारणा है जिसका उपयोग अंततः यह दिखाने के लिए किया जाता है कि ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है।
माया और अविद्या: जगत की रचना माया या अविद्या (अज्ञान) के कारण होती है। यह अज्ञान ही है जो आत्मन को आवरण करके अनेक रूपों में प्रकट होने का कारण बनता है। व्यक्ति (जीव) स्वयं को माया द्वारा निर्मित एक "कोकून" में बांध लेता है, जो उसे सांसारिक अस्तित्व से जोड़ता है।
विवर्त कारणम्: ब्रह्म को सृष्टि का 'विवर्त कारणम्' कहा जाता है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म बिना किसी वास्तविक परिवर्तन के जगत के रूप में प्रतीत होता है, जैसे एक रस्सी सांप के रूप में प्रतीत होती है। रस्सी वास्तव में सांप नहीं बनती, बल्कि केवल प्रतीत होती है; इसी प्रकार, ब्रह्म जगत नहीं बनता, बल्कि केवल प्रतीत होता है।
द्वैत और अद्वैत का सामंजस्य: अद्वैत वेदांत द्वैत (द्वैतवाद) के दर्शनों को पूरी तरह से नकारता नहीं है, बल्कि उन्हें वास्तविकता के एक निम्न क्रम के रूप में समायोजित करता है। द्वैतवादियों का मानना है कि सृष्टि वास्तविक है और वे अक्सर एक-दूसरे के विचारों का खंडन करते हैं। हालांकि, अद्वैतवादी किसी से भी द्वेष नहीं करते, क्योंकि उनके लिए, द्वैत केवल व्यवहारिक सत्य है जो परमार्थिक सत्य (अद्वैत) पर आरोपित है। यह दृष्टिकोण अद्वैत को अन्य सभी दर्शनों के साथ सह-अस्तित्व में रहने की अनुमति देता है।
मांडूक्य उपनिषद की अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में:
मांडूक्य उपनिषद का समग्र शिक्षण ओंकार (AUM) के माध्यम से व्यक्त किया गया है। 'अ' वर्ण जागृत अवस्था और विराट को दर्शाता है, 'उ' वर्ण स्वप्न अवस्था और हिरण्यगर्भ को दर्शाता है, और 'म' वर्ण सुषुप्ति अवस्था और प्राज्ञ को दर्शाता है। इन तीनों के परे, अमात्र या मौन, तुरीय है। यह तुरीय ही शुद्ध चेतना है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी है और उनसे स्वतंत्र है।
इस प्रकार, सृष्टि की अवधारणा को मांडूक्य उपनिषद में आत्मन के परमार्थिक सत्य को स्थापित करने के एक साधन के रूप में देखा जाता है। यह शिक्षा साधक को यह समझने में मदद करती है कि दृश्यमान जगत, चाहे कितना भी वास्तविक क्यों न लगे, अंततः एक मायावी अभिव्यक्ति है जो परमार्थिक वास्तविकता, अविनाशी और गैर-द्वैत आत्मन पर आरोपित है।
गौडपाद के अनुसार विभिन्न सिद्धांत
निश्चित रूप से, माण्डूक्य उपनिषद् और गौडपाद की कारिकाएँ सृष्टि की अवधारणा के संबंध में गौडपाद के विभिन्न सिद्धांतों पर महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं।
गौडपाद के अनुसार सृष्टि की अवधारणा को समझने के लिए, उनके अजातिवाद (गैर-सृष्टि) के सिद्धांत पर ध्यान देना आवश्यक है, जो अद्वैत वेदांत का एक मूल सिद्धांत है।
गौडपाद का अजातिवाद (गैर-सृष्टि का सिद्धांत) गौडपाद का मानना है कि परमार्थ रूप से कोई जीव उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है। उनका सिद्धांत अजातिवाद कहलाता है, जिसका अर्थ है कि कुछ भी वास्तविक रूप से न तो उत्पन्न होता है और न ही मरता है। यह संसार, जैसा कि हम अनुभव करते हैं, मिथ्या या भ्रमपूर्ण है, और अंततः अवास्तविक है, ठीक वैसे ही जैसे एक स्वप्न या जादू। गौडपाद के अनुसार, जाग्रत अवस्था और स्वप्न अवस्था दोनों ही वास्तव में स्वप्न अवस्थाएँ हैं, क्योंकि जाग्रत करने वाला और स्वप्न देखने वाला दोनों ही अहंकार मात्र हैं जो स्वयं के ज्ञान से रहित हैं।
सृष्टि के अन्य सिद्धांतों का खंडन गौडपाद सृष्टि के विभिन्न सिद्धांतों का खंडन करते हैं, जो विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों द्वारा प्रस्तावित हैं:
सृष्टि के शाब्दिक विवरण का खंडन: उपनिषद, विभिन्न स्थानों पर, सृष्टि के विभिन्न और अक्सर असंगत क्रम प्रस्तुत करते हैं (जैसे तैत्तिरीय उपनिषद में आकाश से वायु, वायु से अग्नि आदि, और छांदोग्य उपनिषद में तत्वों का एक अलग क्रम)। गौडपाद का तर्क है कि यह विसंगति इस बात का प्रमाण है कि सृष्टि के ये विवरण शाब्दिक तथ्य नहीं हैं, बल्कि अद्वैत (गैर-द्वैत) को स्थापित करने के लिए एक उपाय (साधन) मात्र हैं। वे प्राण संवाद जैसी कहानियों का उदाहरण देते हैं, जो ऐतिहासिक तथ्य नहीं हैं, बल्कि उनका उद्देश्य प्राण की श्रेष्ठता जैसे कुछ संदेशों को व्यक्त करना है।
कारण और कार्य संबंध की व्याख्या: गौडपाद के अनुसार, ब्रह्मन जगत का विवर्त उपादान कारण है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्मन स्वयं में बिना किसी वास्तविक परिवर्तन के जगत के रूप में प्रकट होता है, जैसे एक रस्सी सांप के रूप में प्रतीत होती है। यह परिणामी उपादान कारण (जहाँ कारण स्वयं कार्य में बदल जाता है, जैसे दूध दही में) के विपरीत है। उनका कहना है कि जगत, बर्तन, चेन आदि केवल नाम और रूप (नामा रूपा) हैं, और उनके पीछे केवल सत्य (ब्रह्मन) है।
द्वैतवादी विचारों का खंडन: गौडपाद द्वैतवादी दर्शनों (जैसे सांख्य, न्याय, वैशेषिक) का खंडन करते हैं जो सृष्टि को एक वास्तविक घटना मानते हैं। वे कहते हैं कि द्वैतवादी अपने-अपने निष्कर्षों से दृढ़ता से जुड़े होते हैं और परस्पर विरोधाभास रखते हैं, जबकि अद्वैत वेदांत उनके साथ संघर्ष नहीं करता है क्योंकि यह द्वैत को यथार्थ के निचले क्रम के रूप में स्वीकार करता है। अद्वैत के लिए, अद्वैतम् ही परमार्थ है, और द्वैतम् उसका कार्य या प्रभाव है। द्वैतवादी, अद्वैत के विपरीत, परमार्थ और व्यवहारिक दोनों स्तरों पर द्वैत को वास्तविक मानते हैं।
चेतना की प्रकृति: गौडपाद चेतना की तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का विश्लेषण करते हैं और घोषणा करते हैं कि तुरीय (चौथी अवस्था) ही ultimate Reality (परम वास्तविकता) है, जो इन तीनों से परे है और निर्गुण (निराकार) है। तुरीय को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, यह ज्ञान की शुद्ध अवस्था है, जो इच्छा और पीड़ा से रहित है, जिसे सत्-चित-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) भी कहा जाता है।
सृष्टि के विवरण का प्रयोजन उपनिषद में सृष्टि के विवरण का वास्तविक उद्देश्य अद्वैत (एकता) के ज्ञान तक ले जाना है। यह एक अध्यारोप-अपवाद विधि है, जहाँ पहले सृष्टि की कल्पना (अध्यारोप) की जाती है ताकि शिष्य को कारण और कार्य के संबंधों को समझने में मदद मिल सके, और फिर अंततः इस सृष्टि की अवास्तविकता (अपवाद) को नकार दिया जाता है, जिससे अंततः यह स्थापित हो सके कि ब्रह्मन ही एकमात्र सत्य है। एक बार जब यह अद्वैत ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तो सृष्टि की अवधारणा अप्रासंगिक हो जाती है।
संक्षेप में, गौडपाद सृष्टि को परमार्थ सत्य नहीं मानते। उनके लिए, जगत माया का एक प्रक्षेप है, जो अंततः अद्वैत ब्रह्मन पर अध्यारोपित एक मिथ्या उपस्थिति है। उपनिषदों में सृष्टि के विवरण का उद्देश्य मुक्ति के लिए साधक को अद्वैत के अंतिम सत्य की ओर मार्गदर्शन करना है, जो चेतना की तुरीय अवस्था के रूप में प्रकट होता है।
ईश्वर की महिमा का प्रकटीकरण
मांडूक्य उपनिषद वेदांत दर्शन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और गहन ग्रंथ है, जो अपने केवल बारह मंत्रों के माध्यम से संपूर्ण वेदांतिक शिक्षा का सार प्रस्तुत करता है। यह मुख्य रूप से मानवीय चेतना की तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का विश्लेषण करके परम सत्य, जिसे 'तुरीय' या चौथी अवस्था कहा जाता है, को उजागर करता है। इस व्यापक संदर्भ में, सृष्टि (जगत) की अवधारणा और उसमें ईश्वर की महिमा का प्रकटीकरण अद्वैत वेदांत के विशिष्ट दृष्टिकोण से देखा जाता है।
सृष्टि की अवधारणा:
अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है, और जगत (सृष्टि) मिथ्या है। 'मिथ्या' का अर्थ यह नहीं है कि जगत का अस्तित्व बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह है कि इसका अस्तित्व परमार्थिक या निरपेक्ष सत्य के रूप में नहीं है। जगत को केवल "नाम और रूप" का समूह कहा गया है। जैसे एक कपड़े को कुर्ता या कुर्ती कहा जा सकता है, या कागज को किताब, वैसे ही ये वस्तुएँ केवल नाम और रूप हैं, उनका मूल तत्व भिन्न है।
उपनिषदों में सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में दिए गए विभिन्न विवरणों (सृष्टि-वाक्य) को अक्सर यह स्थापित करने के लिए नहीं माना जाता है कि सृष्टि वास्तविक है। इसके बजाय, इन वर्णनों का उद्देश्य अद्वैत (एकता) के ज्ञान की ओर ले जाना है। विभिन्न उपनिषदों में सृष्टि के क्रम में पाई जाने वाली विसंगतियां इस बात का प्रमाण मानी जाती हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि यह एक कल्पना या माया का परिणाम है जिसका उपयोग अंततः यह दिखाने के लिए किया जाता है कि ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है।
जगत की रचना को माया या अविद्या (अज्ञान) के कारण होने वाला बताया जाता है। यह अज्ञान ही है जो आत्मन को ढककर अनेक रूपों में प्रकट होने का कारण बनता है। जगत को अक्सर स्वप्न की तरह माया द्वारा निर्मित बताया जाता है। जिस प्रकार जागृत अवस्था में और स्वप्न अवस्था में हम अनुभवकर्ता के रूप में आत्म-अज्ञानी होते हैं, उसी प्रकार जगत के अनुभव भी मिथ्या होते हैं। राजा जनक का दृष्टांत, जहाँ उन्हें स्वप्न में एक भयानक हार का अनुभव होता है और जागने पर अपने अस्तित्त्व पर संदेह होता है, यह दर्शाता है कि जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या हैं और केवल 'आप' (आत्मा) ही सत्य हैं।
ईश्वर की महिमा का प्रकटीकरण:
सृष्टि को ईश्वर की महिमा के प्रकटीकरण के रूप में देखा जाता है, विशेष रूप से द्वैतवादी दृष्टिकोण से, जिसे अद्वैत वेदांत तात्कालिक सत्य के रूप में स्वीकार करता है ताकि अंततः उसे नकार कर अद्वैत की स्थापना की जा सके।
विभूति (महिमा/विस्तार) के रूप में सृष्टि: कुछ सृष्टिचिंतक (creationists) संसार को ईश्वर की अतिमानवीय शक्ति या महिमा का "प्रक्षेपण" या "विस्तार" (विभूति) मानते हैं। इस विचार के अनुसार, ईश्वर स्वयं से ही सृष्टि को बाहर निकालते हैं, और सृष्टि ईश्वर का ही एक विस्तारित रूप है जो देखने में ईश्वर जितनी ही वास्तविक लगती है। यह ब्रह्मांड एक 'माया' (जादुई प्रदर्शन) के कारण बिना किसी परिवर्तन के ब्रह्म के रूप में प्रकट होता है।
ईश्वर के रूप और गुण: उपनिषद में ईश्वर को ब्रह्मांड के सर्वोच्च ईश्वर (सर्वेश्वर) और सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) के रूप में वर्णित किया गया है। ईश्वर का ज्ञान अंतर्ज्ञान से परिपूर्ण है और हर चीज के अस्तित्व के साथ एकरूप है, जबकि जीव का ज्ञान इंद्रियों पर आधारित और सीमित होता है। ईश्वर की सर्व-व्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमानता जैसी सभी परिभाषाएँ सापेक्षिक (tatastha-lakshanas) हैं, न कि उसकी अनिवार्य प्रकृति (svarupa-lakshana)। ईश्वर सृष्टि, पालन और संहार के रूप में कार्य करते हैं, लेकिन ये उनके संबंधपरक पहलू हैं, न कि उनका परम सार। ईश्वर अपने सार में एक निर्माता, पालक या संहारक से भी बढ़कर है।
द्वैत और अद्वैत का सामंजस्य:
अद्वैत वेदांत दर्शन द्वैत को विभिन्न स्तरों की वास्तविकता (सत्त भेद) के माध्यम से समायोजित करता है। द्वैतवादियों के लिए, द्वैत ही परमार्थिक सत्य है, जिससे उनके सिद्धांतों में परस्पर विरोध होता है। इसके विपरीत, अद्वैतियों के लिए, अद्वैत ही परमार्थिक सत्य है, और द्वैत केवल उसका प्रभाव या आभास है। यह दृष्टिकोण उन्हें द्वैतवादियों के साथ संघर्ष से बचाता है, क्योंकि वे द्वैत को एक निचली श्रेणी की वास्तविकता मानते हैं जो परमार्थिक सत्य पर आरोपित है।
सृष्टि के संबंध में उपनिषदों की शिक्षा का अंतिम लक्ष्य साधक को जीव और ब्रह्म की एकता के ज्ञान की ओर ले जाना है। यह ज्ञान 'तुरीय आत्मा' पर केंद्रित है, जो शुद्ध चेतना है, और सृष्टि के विवरण में उलझने के बजाय उसी पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी जाती है।
स्वप्न या माया के समान (मिथ्या)
मांडूक्य उपनिषद वेदांत दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण और गूढ़ ग्रंथ है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं, फिर भी यह मानव चेतना की विभिन्न अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का विश्लेषण करके अंतिम सत्य, 'तुरीय' को उजागर करता है। इस उपनिषद में सृष्टि की अवधारणा को अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से देखा जाता है, जहाँ जगत को स्वप्न या माया के समान (मिथ्या) बताया गया है।
सृष्टि की अवधारणा और उसकी मिथ्या प्रकृति:
अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और यह जगत मिथ्या है। 'मिथ्या' का अर्थ यह नहीं है कि जगत का अस्तित्व बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह कि इसका अस्तित्व परमार्थिक (परम) सत्य के रूप में नहीं है। इसे केवल नाम और रूप (Nama and Rupa) दिया गया है।
स्वप्न और माया के समान:
मांडूक्य उपनिषद और गौडपाद की कारिकाएँ स्पष्ट रूप से जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को "स्वप्न अवस्था" (dream states) मानती हैं, क्योंकि इन दोनों में अनुभवकर्ता (जागृत-व्यक्ति या स्वप्न-व्यक्ति) आत्म-अज्ञानी होते हैं। स्वप्न सृष्टि को असत्य माना जाता है, वास्तविक नहीं।
यह कहा गया है कि जगत माया या अविद्या (अज्ञान) द्वारा निर्मित है। जैसे एक स्वप्न केवल मन द्वारा रचित होता है और असत्य प्रतीत होता है, उसी प्रकार यह जाग्रत जगत भी माया से उत्पन्न एक भ्रम है।
भगवान राम और हनुमान के संवाद में, मुक्ति उपनिषद का उल्लेख है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों की प्रतीत होने वाली वास्तविक और झूठी दुनिया, जो इच्छा से प्रेरित है, कारणात्मक स्व (गहरी नींद की अवस्था) की अभिव्यक्तियाँ हैं, और वास्तविकता और झूठ के बीच का भेद स्वयं चेतना की तुलना में लुप्त हो जाता है।
राजा जनक का दृष्टांत इसे और स्पष्ट करता है: राजा जनक ने एक भयानक स्वप्न देखा जिसमें उन्हें युद्ध में हार, दरिद्रता आदि का अनुभव हुआ। जागने पर, उन्हें यह संदेह हुआ कि क्या जागृत अवस्था सत्य है या स्वप्न अवस्था। ऋषि अष्टावक्र ने उन्हें बताया कि "न तो यह सत्य है और न ही वह सत्य था। केवल आप ही सत्य हैं"। यह दर्शाता है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या हैं और केवल 'आप' (आत्मा) ही सत्य हैं।
अद्वैत वेदांत यह मानता है कि ब्रह्म ही माया शक्ति के कारण अनेक रूपों में प्रतीत होता है, वास्तविक रूप से परिवर्तित नहीं होता। इसे विवर्त उपादान कारणम् कहा जाता है, जहाँ ब्रह्म जगत का अपरिवर्तनीय कारण है, जैसे रस्सी सांप के रूप में प्रतीत होती है, लेकिन वास्तव में वह सांप नहीं बनती।
सृष्टि-वाक्यों का प्रयोजन (Anyarthatvat):
यदि सृष्टि मिथ्या है, तो उपनिषदों में सृष्टि के वर्णन क्यों दिए गए हैं? इसका उत्तर यह है कि सृष्टि के संबंध में दिए गए विवरण (सृष्टि-वाक्य) का उद्देश्य अद्वैत (एकता) के ज्ञान की ओर ले जाना है, न कि सृष्टि की वास्तविकता को स्थापित करना।
उपनिषद में सृष्टि के क्रम में विसंगतियां (जैसे तैत्तिरीय उपनिषद और छांदोग्य उपनिषद में विभिन्न क्रम) इस बात का प्रमाण मानी जाती हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि एक अवधारणा है जिसका उपयोग अंततः यह दिखाने के लिए किया जाता है कि ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है। यदि सृष्टि वास्तविक होती, तो उसके वर्णन में एकरूपता होती।
उदाहरण के लिए, प्राण संवाद की कहानियाँ, जहाँ शरीर के विभिन्न अंग अपनी श्रेष्ठता का दावा करते हैं, वास्तविक घटनाओं का वर्णन नहीं हैं, बल्कि प्राण की श्रेष्ठता को उजागर करने के लिए काल्पनिक रूप से कही गई हैं। इसी प्रकार, सृष्टि के वर्णन भी एक परमार्थिक सत्य के रूप में सृष्टि को स्थापित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि अद्वैत को स्थापित करने के लिए हैं।
जगत की नित्य नश्वरता:
जो चीज आदि और अंत में नहीं होती, वह वर्तमान में भी वैसी ही होती है। जगत भी आरंभ और अंत में अवास्तविक है, इसलिए वर्तमान में भी वह असत्य है, भले ही वह वास्तविक प्रतीत हो।
अद्वैत वेदांत यह सिखाता है कि कार्य (सृष्टि) कारण (ब्रह्म) से भिन्न नहीं है। जैसे कपड़े का सार धागा है, और धागे का सार कपास है, उसी तरह जगत अपने मूल तत्व में घटित हो जाता है, जो ब्रह्म है। जैसे सोने के आभूषण, मिट्टी के बर्तन, या लोहे के उपकरण अंततः केवल सोना, मिट्टी, या लोहा ही होते हैं, उसी प्रकार जगत अपने मूल में ब्रह्म ही है।
मांडूक्य उपनिषद की अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में:
मांडूक्य उपनिषद का समग्र शिक्षण ओंकार (AUM) के माध्यम से व्यक्त किया गया है। 'अ' वर्ण जाग्रत अवस्था और विराट को दर्शाता है, 'उ' वर्ण स्वप्न अवस्था और हिरण्यगर्भ को दर्शाता है, और 'म' वर्ण सुषुप्ति अवस्था और प्राज्ञ को दर्शाता है। इन तीनों के परे, अमात्र या मौन, तुरीय है। यह तुरीय ही शुद्ध चेतना है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी है और उनसे स्वतंत्र है। जगत की मिथ्या प्रकृति को समझना साधक को इस परमार्थिक सत्य (तुरीय) की ओर ले जाता है, जहाँ द्वैत का कोई भेद नहीं होता। अद्वैत दर्शन किसी भी द्वैतवादी दर्शन से विरोध नहीं करता क्योंकि वह द्वैत को परमार्थिक सत्य पर आरोपित व्यवहारिक सत्य मानता है।
काल से उत्पन्न
मांडूक्य उपनिषद, अद्वैत वेदांत दर्शन का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो केवल 12 मंत्रों में वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह उपनिषद चेतना की तीन अवस्थाओं - जाग्रत (जागृत), स्वप्न (स्वप्न), और सुषुप्ति (गहरी नींद) - का विश्लेषण करके परम सत्य, तुरीय, को उजागर करता है। इस व्यापक अंतर्दृष्टि के संदर्भ में, 'काल से उत्पन्न' (born from time) होने की अवधारणा को जगत (सृष्टि) की मिथ्या या सापेक्ष प्रकृति के रूप में देखा जाता है, न कि परमार्थिक सत्य के रूप में।
सृष्टि की अवधारणा:
मांडूक्य उपनिषद और उस पर गौडपादाचार्य की कारिका तथा शंकराचार्य के भाष्य के अनुसार, सृष्टि को निम्न प्रकार से समझा जाता है:
जगत की मिथ्या प्रकृति: अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जगत मिथ्या है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जगत का अस्तित्व बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह है कि इसका अस्तित्व परमार्थिक या परम सत्य के रूप में नहीं है। जगत को केवल "नाम और रूप" (name and form) दिया गया है।
स्वप्न से तुलना: जगत को अक्सर स्वप्न के समान माया (भ्रम) द्वारा निर्मित बताया जाता है। जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को "स्वप्न अवस्था" माना जाता है, क्योंकि दोनों में अनुभवकर्ता आत्म-अज्ञानी होते हैं। राजा जनक का दृष्टांत (कहानी) यह दर्शाता है कि जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या हैं, और केवल 'आप' (आत्मा) ही सत्य है।
माया और अविद्या की भूमिका: जगत की रचना माया या अविद्या (अज्ञान) के कारण होती है। यह अज्ञान ही है जो आत्मन को आवरण करके अनेक रूपों में प्रकट होने का कारण बनता है।
सृष्टि-वाक्यों का प्रयोजन: उपनिषदों में सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में दिए गए विवरण (सृष्टि-वाक्य) को अक्सर यह स्थापित करने के लिए नहीं माना जाता है कि सृष्टि वास्तविक है। इसके बजाय, इन वर्णनों का उद्देश्य अद्वैत (एकता) के ज्ञान की ओर ले जाना है, यह दिखाकर कि ब्रह्म ही एकमात्र अंतर्निहित वास्तविकता (अधिष्ठानम्) है, जिससे जगत प्रतीत होता है। सृष्टि के क्रम में विभिन्न उपनिषदों में विसंगतियाँ इस बात का प्रमाण मानी जाती हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है।
विवर्त कारणम्: ब्रह्म को सृष्टि का 'विवर्त कारणम्' कहा जाता है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म बिना किसी वास्तविक परिवर्तन के जगत के रूप में प्रतीत होता है, जैसे एक रस्सी सांप के रूप में प्रतीत होती है।
'काल से उत्पन्न' होने का संदर्भ:
मांडूक्य उपनिषद की शिक्षाओं में, 'काल से उत्पन्न' होना उस सापेक्ष या प्रतीतिगत वास्तविकता की विशेषता है, न कि परमार्थिक सत्य की:
ब्रह्म त्रिकालातीत है: परम सत्य, जिसे ब्रह्म या आत्मा कहा जाता है, 'त्रिकालातीत' (beyond the three periods of time – past, present, and future) है। ओमकार, जो ब्रह्म का प्रतीक है, भी समय के तीनों कालों से अप्रभावित रहता है।
सापेक्ष अस्तित्व में काल की भूमिका: जगत के पदार्थ देश और काल (space and time) में संघटित होते हैं। जीव का ज्ञान सापेक्ष है और देश तथा काल के संबंध के माध्यम से प्राप्त होता है। इसलिए, जगत में जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह काल से संबंधित होता है, और यह उसकी क्षणभंगुरता और परमार्थिक असत्यता का संकेत है।
अनादि-अंत वस्तुएँ मिथ्या: उपनिषद स्पष्ट रूप से कहता है कि "जो आदि और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी अवश्य वैसा ही (मिथ्या) है"। चूँकि जगत काल में प्रकट होता है और उसका आदि और अंत होता है (अर्थात वह क्षणभंगुर है), वह परमार्थिक रूप से सत्य नहीं हो सकता।
ईश्वर का ज्ञान काल-रहित: ईश्वर का ज्ञान 'देश और काल से परे' (above space and time) और 'संबंध-रहित' (non-relational) है, जबकि जीव का ज्ञान सापेक्ष है। यहां तक कि ईश्वर के गुणों (जैसे सृष्टिकर्ता, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान) को भी 'तटस्थ-लक्षण' (incidental definitions) के रूप में वर्णित किया गया है, जो उसकी आवश्यक प्रकृति (स्वरूप-लक्षण) से भिन्न हैं, जो इन सभी सापेक्षिक धारणाओं से परे है।
समय-सीमा का त्याग मोक्ष के लिए आवश्यक: अद्वैत दर्शन में, देश और काल के भेदों को त्यागना एकता (अद्वैत) की अनुभूति के लिए आवश्यक माना जाता है। तुरीय अवस्था, जो शुद्ध चेतना है, उत्पत्ति और विलय से परे है। यह समझना कि सृष्टि 'काल से उत्पन्न' होने के कारण मिथ्या है, साधक को दुःखों से मुक्ति दिलाने में सहायक होता है और उसे परमार्थिक सत्य की ओर ले जाता है।
सारांश में, मांडूक्य उपनिषद की अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में, 'काल से उत्पन्न' होने की अवधारणा इस बात पर जोर देती है कि दृश्यमान जगत सापेक्ष है और माया या अज्ञान के कारण प्रतीत होता है। परमार्थिक सत्य, ब्रह्म या तुरीय, कालातीत और अपरिवर्तनीय है, और काल में होने वाली किसी भी उत्पत्ति या अस्तित्व से परे है। सृष्टि के वर्णन का अंतिम लक्ष्य साधक को इस शाश्वत, अद्वैत सत्य की ओर ले जाना है।
ईश्वर की इच्छा मात्र
मांडूक्य उपनिषद् और गौडपाद की कारिकाओं में सृष्टि की अवधारणा और "ईश्वर की इच्छा मात्र" के सिद्धांत पर गहन चर्चा की गई है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, सृष्टि के संबंध में गौडपाद का दृष्टिकोण उनके अजातिवाद (गैर-सृष्टि) के सिद्धांत पर आधारित है।
गौडपाद के अनुसार सृष्टि की अवधारणा और ईश्वर की इच्छा मात्र:
अजातिवाद (गैर-सृष्टि का सिद्धांत): गौडपाद का केंद्रीय सिद्धांत अजातिवाद है, जिसका अर्थ है कि परमार्थ रूप से कोई भी जीव उत्पन्न नहीं होता है और न ही उसका कोई वास्तविक कारण है। गौडपाद का मानना है कि कुछ भी वास्तविक रूप से न तो उत्पन्न होता है और न ही मरता है। इसलिए, "ईश्वर की इच्छा मात्र" से सृष्टि के वास्तविक होने का विचार अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार्य नहीं है।
सृष्टि की मिथ्या प्रकृति: मांडूक्य उपनिषद् में जगत (जगत या प्रपंच) को बार-बार मिथ्या (भ्रामक या परमार्थ रूप से अवास्तविक) बताया गया है। इसे स्वप्न या जादू के समान माना गया है। अष्टावक्र और राजा जनक की कहानी भी यही दर्शाती है कि जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः सत्य नहीं हैं, और केवल आप (आत्मन) ही सत्य हैं।
माया का प्रभाव: जब सृष्टि की बात की जाती है, तो इसे ईश्वर की माया शक्ति (ईश्वरस्य माया शक्ति) या अविद्या (अज्ञान) के कारण उत्पन्न होने वाली एक प्रतीति के रूप में देखा जाता है। ब्रह्म वास्तविक परिवर्तन के बिना ही जगत के रूप में प्रतीत होता है, जैसे एक रस्सी साँप के रूप में प्रतीत होती है (विवर्त कारणम्)। इसलिए, सृष्टि ईश्वर की वास्तविक इच्छा का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उसकी माया शक्ति के कारण एक आभासी अभिव्यक्ति है।
सृष्टि-वाक्यों का उद्देश्य: उपनिषदों में सृष्टि के बारे में दिए गए वर्णन (सृष्टि-वाक्य) में विसंगतियाँ हैं। गौडपाद और शंकराचार्य के अनुसार, ये विसंगतियाँ यह सिद्ध करती हैं कि इन वर्णनों को शाब्दिक तथ्य के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। इसके बजाय, इनका उद्देश्य द्वैत (द्वैतवाद) से अद्वैत (अद्वैतवाद) की ओर ले जाना है, यानी सत्य की एकता को स्थापित करना है। सृष्टि के विवरण केवल एक उपाय (उपाय) या सोपान (स्टेपिंग स्टोन) हैं जो अंततः साधक को यह समझने में मदद करते हैं कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत केवल नाम और रूप है।
ईश्वर की सृजन इच्छा की सापेक्षता: ईश्वर को सर्वेश्वर (सभी का स्वामी), सर्वज्ञ (सर्वज्ञानी) और सर्वशक्तिमान (सर्वशक्तिमान) के रूप में वर्णित करना भी ताटस्थ-लक्षण (tatastha-lakṣhaṇa) है, यानी सापेक्षिक परिभाषा है, जो ब्रह्मांड के संबंध में दी गई है। यह परम सत्य (ब्रह्म) का आवश्यक स्वभाव (स्वरूप-लक्षण) नहीं है, जो कारण और कार्य से परे है। इसलिए, "ईश्वर की इच्छा मात्र" से सृष्टि का विचार व्यावहारिक (व्यवहारिक) स्तर पर सत्य है, न कि परमार्थिक (परमार्थिक) स्तर पर।
सारांश में, गौडपाद और अद्वैत वेदांत के अनुसार, "ईश्वर की इच्छा मात्र" से वास्तविक सृष्टि नहीं होती, बल्कि माया के माध्यम से जगत एक प्रतीति मात्र है। सृष्टि के संबंधी वर्णन परम सत्य के ज्ञान की ओर ले जाने वाले साधन हैं, और अंततः यह स्थापित करते हैं कि ब्रह्म ही एकमात्र अविनाशी, अद्वितीय और अपरिवर्तनीय सत्य है, जिसमें कोई भेद (जाति, विजाति, स्वगत) नहीं है।
ईश्वर का स्वभाव (नित्य, बिना इच्छा के)
मांडूक्य उपनिषद् और गौडपाद की कारिकाएँ अद्वैत वेदांत के परिप्रेक्ष्य में ईश्वर के स्वभाव और सृष्टि की अवधारणा पर गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं, विशेष रूप से यह दर्शाते हुए कि सृष्टि को कैसे स्वप्न या माया के समान (मिथ्या) माना जाता है।
ईश्वर का स्वभाव (नित्य, बिना इच्छा के)
मांडूक्य उपनिषद् में वर्णित तुरीय अवस्था ही परम वास्तविकता है, जिसे ईश्वर का शुद्ध स्वभाव माना जा सकता है:
नित्य और अवर्णनीय: तुरीय चेतना की वह चौथी अवस्था है जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों से परे है। इसे निर्गुण (बिना गुणों के) और गैर-द्वैत के रूप में वर्णित किया गया है, जो शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। यह शुद्ध चेतना, आनंदमय और शांत स्वभाव वाला है। यह न तो कारण है और न ही कार्य। गौडपाद के अनुसार, यह नित्य (शाश्वत), शुद्ध, जागृत और मुक्त स्वभाव वाला परमार्थ सत् (अंतिम सत्य) है।
सर्वेश्वर और सर्वज्ञ: ईश्वर को ब्रह्मांड का सर्वोच्च ईश्वर (सर्वेश्वर) और सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) कहा गया है। उसका ज्ञान काल और स्थान से परे तथा गैर-सापेक्षिक है, जो वस्तुओं के अस्तित्व से अभिन्न है।
ब्रह्मन से अभिन्न: आत्मन (व्यक्तिगत चेतना) और ब्रह्मन (समग्र चेतना) को दो अलग-अलग सत्ताओं के रूप में नहीं देखा जाता है, बल्कि एक ही चेतना के दो दृष्टिकोण के रूप में समझा जाता है। "यह सब ब्रह्म ही है" (सर्वं ह्येतद् ब्रह्म) और "यह आत्मा ब्रह्म है" (अयम् आत्मा ब्रह्म) जैसे महावाक्य इस मूलभूत एकता को स्थापित करते हैं।
सृष्टि की अवधारणा (स्वप्न या माया के समान मिथ्या)
गौडपाद के दर्शन में सृष्टि को वास्तविक घटना नहीं माना जाता है, बल्कि इसे एक भ्रम के रूप में देखा जाता है:
अजातिवाद का सिद्धांत: गौडपाद का प्रमुख सिद्धांत अजातिवाद है, जिसका अर्थ है गैर-सृष्टि। उनके अनुसार, परमार्थ रूप से कोई जीव उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है। वास्तव में, कुछ भी न तो उत्पन्न होता है और न ही मरता है। यह संसार जिसे हम अनुभव करते हैं, उसे मिथ्या या भ्रमपूर्ण बताया गया है।
सृष्टि विवरणों का प्रयोजन: उपनिषदों में सृष्टि के विभिन्न और कभी-कभी विरोधाभासी विवरणों को शाब्दिक तथ्य के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। इन विवरणों का वास्तविक उद्देश्य अद्वैत (गैर-द्वैत) की अवधारणा को स्थापित करना है। इसे अध्यारोप-अपवाद विधि के माध्यम से समझाया जाता है, जहाँ पहले सृष्टि की कल्पना (अध्यारोप) की जाती है ताकि कारण-कार्य संबंध को समझा जा सके, और फिर अंततः इस सृष्टि की अवास्तविकता (अपवाद) को नकारा जाता है।
ईश्वर की इच्छा या प्रेरणा के बिना सृष्टि: स्रोत बताते हैं कि ईश्वर, अपनी माया शक्ति के माध्यम से, बिना किसी इच्छा या प्रयोजन (निःप्रयोजन) के इस अचेतन ब्रह्मांड का निर्माण करता है। सृष्टि को ईश्वर की महिमा का विस्तार माना जाता है, लेकिन यह एक स्वप्न या जादू की तरह है। जैसे स्वप्न बिना किसी बाहरी सामग्री या कर्ता के, केवल मन की इच्छा से उत्पन्न होते हैं, वैसे ही यह जगत भी ब्रह्म की माया शक्ति द्वारा उत्पन्न होता है।
जाग्रत और स्वप्न अवस्था की तुलना: यह विचार कि सृष्टि एक भ्रम है, जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं के विश्लेषण पर आधारित है। जिस प्रकार स्वप्न जगत जागृत अवस्था से तुलना करने पर अवास्तविक प्रतीत होता है, उसी प्रकार जाग्रत जगत भी परमार्थ सत्य से तुलना करने पर मिथ्या या अवास्तविक माना जाता है। राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र के बीच का संवाद इस बात को पुष्ट करता है कि जागृत और स्वप्न दोनों ही अनुभव अंततः अवास्तविक हैं, और केवल आत्मन (जो दृष्टा है) ही परम सत्य है।
संक्षेप में, गौडपाद का अद्वैत वेदांत यह सिखाता है कि ईश्वर का स्वभाव नित्य, शुद्ध चेतना और इच्छा से रहित है, और यह संसार, जिसे हम सृष्टि कहते हैं, वास्तव में एक स्वप्न या माया के समान मिथ्या है। सृष्टि का वर्णन केवल अद्वैत के ज्ञान तक पहुँचने का एक साधन मात्र है, जहाँ केवल ब्रह्मन ही परमार्थ सत्य है।
माया: अनादि, निरंतर परिवर्तनशील
मांडूक्य उपनिषद वेदांत दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण और गूढ़ ग्रंथ है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं, फिर भी यह मानव चेतना की विभिन्न अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का विश्लेषण करके अंतिम सत्य, 'तुरीय' को उजागर करता है। इस उपनिषद में सृष्टि की अवधारणा को अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से देखा जाता है, जहाँ जगत को स्वप्न या माया के समान (मिथ्या) बताया गया है। अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और यह जगत मिथ्या है। 'मिथ्या' का अर्थ यह नहीं है कि जगत का अस्तित्व बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह कि इसका अस्तित्व परमार्थिक (परम) सत्य के रूप में नहीं है। इसे केवल नाम और रूप (Nama and Rupa) दिया गया है।
माया का स्वरूप: अनादि और निरंतर परिवर्तनशील
स्रोत यह स्पष्ट करते हैं कि माया अनादि है, जिसका अर्थ है कि इसकी कोई शुरुआत नहीं है। 'अनादिमाया' शब्द का उपयोग यह दर्शाने के लिए किया गया है कि जीव (व्यक्ति) इस अनादि निद्रा (माया) से जागता है, जब उसे परम सत्य का बोध होता है।
माया की प्रकृति निरंतर परिवर्तनशील है। यह जगत, जो माया से उत्पन्न है, गतिशील और अस्थिर है। गौडपाद की कारिकाएँ स्पष्ट रूप से बताती हैं कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ "स्वप्न अवस्था" (dream states) के समान हैं, क्योंकि इन दोनों में अनुभवकर्ता आत्म-अज्ञानी होते हैं। स्वप्न की सृष्टि असत्य मानी जाती है, वास्तविक नहीं। इसी प्रकार, जाग्रत जगत भी मन द्वारा कल्पित और माया से उत्पन्न एक भ्रम है, जो वास्तविकता में नहीं है। मन का स्पंदन (चलति माया) ही माया के रूप में जगत का प्रकट होना है।
सृष्टि की अवधारणा
मिथ्या स्वरूप: उपनिषद यह दर्शाता है कि सृष्टि माया या अविद्या (अज्ञान) द्वारा निर्मित है। यह वास्तविक नहीं, बल्कि आभास मात्र है। जैसे एक रस्सी में साँप का भ्रम होता है या सीप में चाँदी का, वैसे ही ब्रह्म पर जगत का आरोपण (अध्यारोप) माया के कारण होता है। गौडपाद के अनुसार, सृष्टि के सभी कथन केवल अद्वैत को स्थापित करने के लिए हैं, न कि सृष्टि को एक तथ्य के रूप में स्थापित करने के लिए। विभिन्न उपनिषदों में सृष्टि के वर्णन में विसंगतियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि यह वास्तविक तथ्य नहीं है।
अनिर्वचनीय प्रकृति: माया न तो सत् है (वास्तविक) और न ही असत् (अवास्तविक)। इसे अनिर्वचनीय कहा गया है, अर्थात इसे शब्दों में पूरी तरह परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह ब्रह्म और जगत के बीच का एक संबंध है जो स्वयं मिथ्या है।
ब्रह्म से संबंध: ब्रह्म विवर्त उपादान कारण है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म बिना स्वयं परिवर्तित हुए जगत के रूप में प्रतीत होता है, जैसे रस्सी बिना साँप बने साँप के रूप में दिखती है। ईश्वर अपनी माया शक्ति के माध्यम से अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, परंतु वास्तव में वह एक और अद्वितीय रहते हैं। ईश्वर की 'सर्वेश्वर' या 'सर्वज्ञ' जैसी उपाधियाँ भी सृष्टि के सापेक्ष हैं, जो उनके तटस्थ लक्षण (accidental definitions) हैं, उनके स्वरूप लक्षण (essential nature) नहीं।
जीव और ईश्वर: जीव की स्वप्न देखने की क्षमता का संबंध ईश्वर की माया शक्ति से है। जीव की अज्ञानता (अविद्या) स्वयं को सीमित मानती है, जबकि ईश्वर की अज्ञानता (माया) पूरे ब्रह्मांड की रचना करने में सक्षम है। उच्चतर विश्लेषण में, जीव और ईश्वर के बीच के भेद को समाप्त कर दिया जाता है, क्योंकि परमार्थतः केवल एक ही वास्तविकता है - ईश्वर ही सर्वत्र है।
सारांश में, मांडूक्य उपनिषद और उसकी कारिकाएँ यह सिखाती हैं कि यह दिखने वाला जगत माया का एक अनादि, निरंतर परिवर्तनशील प्रकटीकरण है, जो ब्रह्म की परम, अद्वितीय वास्तविकता पर एक आभास मात्र है।
कार्य-कारण संबंध
माण्डूक्य उपनिषद् और अद्वैत वेदांत दर्शन में सृष्टि की अवधारणा को स्वप्न या माया के समान (मिथ्या) बताया गया है। यह दृष्टिकोण सृष्टि के कार्य-कारण संबंध को एक विशेष अर्थ देता है, जहाँ ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है और जगत उसकी मायावी अभिव्यक्ति है, जो अंततः मिथ्या है।
यहाँ स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर विस्तृत चर्चा प्रस्तुत है:
1. जगत की मिथ्या प्रकृति - स्वप्न और माया के समान:
जाग्रत और स्वप्न अवस्था की समानता: माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन अवस्थाओं - जाग्रत (waking), स्वप्न (dream), और सुषुप्ति (deep sleep) का विश्लेषण करता है। वेदांत के अनुसार, जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ "स्वप्न अवस्था" (dream states) ही मानी जाती हैं, क्योंकि इन दोनों में अनुभवकर्ता (जागृत-व्यक्ति या स्वप्न-व्यक्ति) आत्म-अज्ञानी होते हैं। स्वप्न सृष्टि को असत्य या अवास्तविक माना जाता है।
माया या अविद्या से उत्पत्ति: यह जाग्रत जगत भी माया या अविद्या (अज्ञान) द्वारा उत्पन्न एक भ्रम है, ठीक वैसे ही जैसे एक स्वप्न केवल मन द्वारा रचित होता है और असत्य प्रतीत होता है। भगवान राम और हनुमान के संवाद में, मुक्ति उपनिषद का उल्लेख है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों की प्रतीत होने वाली वास्तविक और झूठी दुनिया, जो इच्छा से प्रेरित है, कारणात्मक स्व (गहरी नींद की अवस्था) की अभिव्यक्तियाँ हैं। वास्तविकता और झूठ के बीच का भेद स्वयं चेतना की तुलना में लुप्त हो जाता है।
राजा जनक का दृष्टांत: विदेह के सम्राट राजा जनक का प्रसिद्ध दृष्टांत इस अवधारणा को पुष्ट करता है। राजा जनक ने एक भयानक स्वप्न देखा और जागने पर संदेह में पड़ गए कि कौन सी अवस्था सत्य है - जाग्रत या स्वप्न। ऋषि अष्टावक्र ने उन्हें बताया कि "न तो यह सत्य है और न ही वह सत्य था। केवल आप ही सत्य हैं"। यह स्पष्ट करता है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या हैं और केवल 'आप' (आत्मा/चेतना) ही परम सत्य है।
कार्य-कारण संबंध में विवर्त उपादानम्: अद्वैत वेदांत यह मानता है कि ब्रह्म ही माया शक्ति के कारण अनेक रूपों में प्रतीत होता है, वास्तविक रूप से परिवर्तित नहीं होता। इसे विवर्त उपादान कारणम् कहा जाता है, जहाँ ब्रह्म जगत का अपरिवर्तनीय कारण है। यह रस्सी में साँप के भ्रम जैसा है - रस्सी वास्तविक रूप से साँप नहीं बनती, बस साँप के रूप में प्रतीत होती है। यदि यह परिवर्तन वास्तविक होता, तो अमर ब्रह्म नश्वर हो जाता। इस प्रकार, जगत ब्रह्म का वास्तविक परिणाम नहीं, बल्कि एक आभासी अभिव्यक्ति है।
2. सृष्टि-वाक्यों का प्रयोजन (Anyarthatvat):
अद्वैत ज्ञान की ओर ले जाने का उद्देश्य: यदि सृष्टि मिथ्या है, तो उपनिषदों में सृष्टि के विस्तृत वर्णन क्यों दिए गए हैं? इसका उत्तर यह है कि सृष्टि के संबंध में दिए गए विवरण (सृष्टि-वाक्य) का उद्देश्य अद्वैत (एकता) के ज्ञान की ओर ले जाना है, न कि सृष्टि की वास्तविकता को स्थापित करना। इसे अन्यार्थत्वम् (किसी अन्य प्रयोजन के लिए) कहा जाता है।
वर्णन में विसंगतियाँ प्रमाण: विभिन्न उपनिषदों में सृष्टि के क्रम में विसंगतियां (जैसे तैत्तिरीय उपनिषद् और छांदोग्य उपनिषद् में भिन्न क्रम) इस बात का प्रमाण मानी जाती हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि एक अवधारणा है जिसका उपयोग अंततः यह दिखाने के लिए किया जाता है कि ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है। यदि सृष्टि वास्तविक होती, तो उसके वर्णन में एकरूपता होती।
प्राण संवाद का दृष्टांत: प्राण संवाद की कहानियाँ, जहाँ शरीर के विभिन्न अंग अपनी श्रेष्ठता का दावा करते हैं, वास्तविक घटनाओं का वर्णन नहीं हैं, बल्कि प्राण की श्रेष्ठता को उजागर करने के लिए काल्पनिक रूप से कही गई हैं। इसी प्रकार, सृष्टि के वर्णन भी परमार्थिक सत्य के रूप में सृष्टि को स्थापित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि अद्वैत को स्थापित करने के लिए हैं।
3. कार्य-कारण संबंध की अवास्तविकता:
कार्य कारण से भिन्न नहीं: अद्वैत वेदांत में, कार्य (effect) कारण (cause) से भिन्न नहीं माना जाता है। जैसे कपड़े का सार धागा है, और धागे का सार कपास है, उसी तरह जगत अपने मूल तत्व में घटित हो जाता है, जो ब्रह्म है।
"वाचारम्भणं विकारो नामधेयम्": छांदोग्य उपनिषद् का यह प्रसिद्ध वाक्य, "यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्" (जैसे मिट्टी के एक ढेले को जानने से मिट्टी से बनी सभी वस्तुएँ ज्ञात हो जाती हैं; सभी परिवर्तन केवल नाम के लिए हैं, मिट्टी ही सत्य है) यह दर्शाता है कि जगत के सभी रूप और नाम केवल वाचिक व्यवहार हैं; उनका मूल कारण (ब्रह्म) ही सत्य है।
सत्य और मिथ्या के बीच संबंध का अभाव: परमार्थिक सत्य (ब्रह्म/तुरीय) और व्यवहारिक मिथ्या (जगत/तीनों अवस्थाएँ) के बीच कोई वास्तविक संबंध नहीं हो सकता। एक वास्तविक (real) वस्तु का एक अवास्तविक (unreal) वस्तु से संबंध नहीं हो सकता। जैसे रस्सी (सत्य) पर आरोपित साँप (मिथ्या) का कोई वास्तविक संबंध नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्म (सत्य) और जगत (मिथ्या) के बीच भी कोई वास्तविक संबंध नहीं है। यह दर्शाता है कि कार्य-कारण संबंध भी अंततः मिथ्या है, जब परमार्थिक दृष्टि से देखा जाता है।
नित्य नश्वरता: जो वस्तु आदि और अंत में नहीं होती, वह वर्तमान में भी वैसी ही होती है। जगत भी आरंभ और अंत में अवास्तविक है, इसलिए वर्तमान में भी वह असत्य है, भले ही वह वास्तविक प्रतीत हो।
द्वैत का निषेध: माण्डूक्य उपनिषद् का अंतिम लक्ष्य अद्वैत (गैर-द्वैत) की स्थापना है। यह सभी प्रकार के द्वैत (भेदभाव) को नकारता है, जिसमें जीवात्मा और ईश्वर के बीच का भेद, और कार्य-कारण के बीच का भेद भी शामिल है। द्वैतवादी दार्शनिकों के विपरीत, अद्वैत वेदांत यह मानता है कि विभिन्न प्रकार की वास्तविकताएँ हैं (जैसे परमार्थिक और व्यावहारिक), और इसलिए अद्वैत द्वैत के साथ सह-अस्तित्व में रह सकता है, क्योंकि द्वैत अद्वैत पर आरोपित है, उससे स्वतंत्र नहीं।
सारांश में, माण्डूक्य उपनिषद् सृष्टि को एक परमार्थिक तथ्य के रूप में नहीं देखता है, बल्कि ब्रह्म की मायावी शक्ति द्वारा उत्पन्न एक भ्रम या स्वप्न के समान मानता है। जगत का कार्य-कारण संबंध भी परमार्थिक रूप से सत्य नहीं है, बल्कि केवल व्यावहारिक स्तर पर प्रतीत होता है, जिसका अंतिम लक्ष्य साधक को अद्वैत ब्रह्म की ओर ले जाना है।
सत् कार्य वाद (सांख्य) - संभावित अस्तित्व
सृष्टि की अवधारणा के व्यापक संदर्भ में, ये स्रोत विशेष रूप से सांख्य दर्शन के सत् कार्य वाद (संभावित अस्तित्व) की चर्चा करते हुए, इसे अद्वैत वेदांत के स्वप्न या माया के समान (मिथ्या) जगत की अवधारणा के विपरीत प्रस्तुत करते हैं।
सत् कार्य वाद (सांख्य) और अद्वैत का दृष्टिकोण:
सत् कार्य वाद का सिद्धांत: सांख्य दर्शन में, सत् कार्य वाद यह मानता है कि कार्य (effect) अपने कारण (cause) में पहले से ही अव्यक्त रूप में विद्यमान होता है। यानी, सृष्टि किसी नई चीज़ का निर्माण नहीं है, बल्कि कारण में निहित गुणों की अभिव्यक्ति मात्र है। सांख्य के अनुसार, यह जगत प्रकृति (primordial matter) का एक वास्तविक परिणाम (परिणामवाद) है, और इस प्रकार, जगत उतना ही वास्तविक है जितना उसका कारण। विरोधी (पुरुवा पक्षी) इस बात पर बल देते हैं कि यदि ब्रह्म जगत का कारण है, तो कार्य (जगत) को कारण (ब्रह्म) के समान ही वास्तविक होना चाहिए।
अद्वैत का खंडन - जगत मिथ्या है:
ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है: अद्वैत वेदांत का केंद्रीय सिद्धांत है कि ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है, और यह जगत माया से उत्पन्न होने के कारण मिथ्या (असत्य) है। 'मिथ्या' का अर्थ यह नहीं है कि जगत का अस्तित्व बिल्कुल नहीं है (जैसे 'वन्ध्यापुत्र' का), बल्कि यह है कि इसका अस्तित्व परमार्थिक (अंतिम) सत्य के रूप में नहीं है; यह केवल नाम और रूप (Nama and Rupa) का प्रकटन है।
स्वप्न और माया के समान: मांडूक्य उपनिषद और गौडपाद की कारिकाएँ जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को "स्वप्न अवस्था" (dream states) मानती हैं, क्योंकि इन दोनों में अनुभवकर्ता आत्म-अज्ञानी होते हैं। स्वप्न की सृष्टि को असत्य माना जाता है, वास्तविक नहीं। इसी प्रकार, यह जाग्रत जगत भी माया से उत्पन्न एक भ्रम है। राजा जनक का दृष्टांत इस बात को स्पष्ट करता है कि जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या हैं, और केवल 'आप' (आत्मा) ही सत्य है।
रज्जु-सर्प दृष्टांत (Rope-Snake Analogy): जगत को ब्रह्म पर आरोपित किया गया है, जैसे रस्सी पर साँप का भ्रम। साँप का अस्तित्व केवल प्रतीत होता है, वह परमार्थिक सत्य नहीं है; उसका वास्तविक आधार तो रस्सी ही है। इसी तरह, जगत का आधार ब्रह्म है, और जगत स्वयं मिथ्या है।
विवर्त उपादान कारणम् (Vivarta Upadana Karanam): अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म जगत का विवर्त उपादान कारणम् है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म स्वयं में बिना किसी वास्तविक परिवर्तन के जगत के रूप में प्रतीत होता है, जैसे एक रस्सी साँप के रूप में प्रतीत होती है, लेकिन वह साँप में परिवर्तित नहीं होती। यह सांख्य के परिणामवाद से भिन्न है, जहाँ कारण वास्तव में कार्य में बदल जाता है।
अजातिवाद (Theory of Non-Origination): गौडपाद का मुख्य विषय अजातिवाद है, जो यह सिद्धांत प्रस्तुत करता है कि परमार्थिक रूप से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। यह सत् कार्य वाद के विपरीत है, क्योंकि अजातिवाद जोर देता है कि यदि जगत का अस्तित्व ही नहीं है, तो उसके जन्म या सृष्टि का प्रश्न ही नहीं उठता। ब्रह्म 'अज' (अजन्मा) और 'अचल' (अपरिवर्तनीय) है।
सृष्टि-वाक्यों का प्रयोजन (Anyarthatvat): उपनिषदों में सृष्टि के वर्णन का उद्देश्य सृष्टि की वास्तविकता को स्थापित करना नहीं है, बल्कि अद्वैत (एकता) के ज्ञान की ओर ले जाना है। सृष्टि के क्रम में उपनिषदों में पाई जाने वाली विसंगतियाँ (जैसे तैत्तिरीय और छांदोग्य उपनिषदों में विभिन्न क्रम) यह दर्शाती हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि एक ऐसी अवधारणा है जिसका उपयोग ब्रह्म की एकमात्र वास्तविकता को दर्शाने के लिए किया जाता है।
जगत की नित्य नश्वरता: जो वस्तु आदि (प्रारंभ) और अंत में नहीं होती, वह वर्तमान में भी वैसी ही (असत्य) होती है। जगत भी आरंभ और अंत में अवास्तविक है, इसलिए वर्तमान में भी वह असत्य है, भले ही वह वास्तविक प्रतीत हो।
सारांशतः, सांख्य दर्शन का सत् कार्य वाद सृष्टि को एक वास्तविक परिणाम मानता है, जबकि अद्वैत वेदांत, विशेषकर मांडूक्य उपनिषद और गौडपाद की कारिकाएँ, जगत को माया या स्वप्न के समान मिथ्या मानती हैं। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है, और सृष्टि उसका एक आभासी प्रकटन (विवर्त) है, जिसका परमार्थिक अस्तित्व नहीं है।
मिथ्या कार्य वाद (वेदांत) - उधार का अस्तित्व
मांडूक्य उपनिषद और गौडपाद की कारिकाओं में सृष्टि की अवधारणा को अद्वैत वेदांत के दृष्टिकोण से देखा गया है, जहाँ जगत को स्वप्न या माया के समान (मिथ्या) बताया गया है। इस दर्शन का मूल सिद्धांत 'मिथ्या कार्य वाद' है, जिसका अर्थ है कि कार्य (जगत्) अपने कारण (ब्रह्म) से भिन्न नहीं है और उसका अस्तित्व 'उधार का अस्तित्व' (borrowed existence) है।
मिथ्या कार्य वाद और उधार का अस्तित्व:
अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थिक सत्य है, और यह दृश्यमान जगत मिथ्या है। 'मिथ्या' का तात्पर्य यह नहीं है कि जगत का अस्तित्व बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह है कि इसका अस्तित्व परम सत्य के रूप में नहीं है, बल्कि यह केवल नाम और रूप (Nama and Rupa) का एक प्रकटन है। यह अपनी सत्ता अपने अधिष्ठान, यानी ब्रह्म से उधार लेता है।
माया या अविद्या का रोल: यह जगत माया या अविद्या (अज्ञान) द्वारा निर्मित है। ब्रह्म अपनी माया शक्ति के कारण अनेक रूपों में प्रतीत होता है, लेकिन वास्तविक रूप से परिवर्तित नहीं होता है। इसे विवर्त उपादान कारणम् कहा जाता है, जहाँ ब्रह्म जगत का अपरिवर्तनीय कारण है, जैसे रस्सी सांप के रूप में प्रतीत होती है, लेकिन वास्तव में वह सांप नहीं बनती।
कार्य का कारण से अभिन्न होना: "कार्य में कारण को देखना चाहिए और फिर कार्य को पूरी तरह त्याग देना चाहिए। तब कारण को भी विलीन कर देना चाहिए, फिर जो बचता है वह परम सत्य है, और साधक वास्तव में वही बन जाता है।"। यह दर्शाता है कि कार्य (जगत) अपने कारण (ब्रह्म) से अलग नहीं है।
सृष्टि की अवधारणा को समझाने के लिए दृष्टांत:
वेदांत में 'मिथ्या' की अवधारणा को समझाने के लिए कई दृष्टांत दिए जाते हैं:
स्वप्न का दृष्टांत (स्वप्न या माया के समान):
मांडूक्य उपनिषद और गौडपाद की कारिकाएँ जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं को "स्वप्न अवस्था" (dream states) मानती हैं, क्योंकि इन दोनों में अनुभवकर्ता (जागृत-व्यक्ति या स्वप्न-व्यक्ति) आत्म-अज्ञानी होते हैं। स्वप्न सृष्टि को असत्य माना जाता है, वास्तविक नहीं।
यह कहा गया है कि जागृत अवस्था की प्रतीत होने वाली वास्तविक दुनिया और स्वप्नों की प्रतीत होने वाली झूठी दुनिया, जो इच्छा से प्रेरित है, कारणात्मक स्व (गहरी नींद की अवस्था) की अभिव्यक्तियाँ हैं, और वास्तविकता और झूठ के बीच का भेद स्वयं चेतना की तुलना में लुप्त हो जाता है।
राजा जनक का दृष्टांत इसे और स्पष्ट करता है: राजा जनक ने एक भयानक स्वप्न देखा। जागने पर, उन्हें यह संदेह हुआ कि क्या जागृत अवस्था सत्य है या स्वप्न अवस्था। ऋषि अष्टावक्र ने उन्हें बताया कि "न तो यह सत्य है और न ही वह सत्य था। केवल आप ही सत्य हैं"। यह दर्शाता है कि जाग्रत और स्वप्न दोनों अवस्थाएँ अंततः मिथ्या हैं और केवल 'आप' (आत्मा) ही सत्य हैं।
रस्सी और सांप का दृष्टांत (रज्जु सर्प): जैसे रस्सी के भ्रम से सांप दिखाई देता है, लेकिन वास्तव में सांप का अस्तित्व नहीं होता, वैसे ही ब्रह्म पर जगत का आरोपण है। जगत केवल प्रतीति मात्र है, परमार्थिक सत्य नहीं।
मिट्टी और घड़े का दृष्टांत (मृत्पिंड घट): जैसे मिट्टी से बना घड़ा, बर्तन आदि अंततः केवल मिट्टी ही होते हैं, और घड़ा केवल एक 'नाम' और 'रूप' है। मिट्टी ही परमार्थिक सत्य है। उसी प्रकार, सोने के आभूषण भी अंततः केवल सोना ही होते हैं।
मकड़ी और आग की चिंगारी का दृष्टांत: जैसे मकड़ी अपने ही भीतर से धागा निकालती है, और आग से छोटी-छोटी चिंगारियां निकलती हैं, उसी प्रकार ब्रह्म से सभी जीव, लोक, देव और प्राणी निकलते हैं। ये दृष्टांत सृष्टि के 'निकास' को दर्शाते हैं, लेकिन यह नहीं दर्शाते कि सृष्टि परमार्थिक रूप से सत्य है।
सृष्टि-वाक्यों का वास्तविक प्रयोजन (Anyarthatvat):
यदि सृष्टि मिथ्या है, तो उपनिषदों में सृष्टि के वर्णन क्यों दिए गए हैं? इसका उत्तर यह है कि सृष्टि के संबंध में दिए गए विवरण अद्वैत (एकता) के ज्ञान की ओर ले जाने के लिए हैं, न कि सृष्टि की वास्तविकता को स्थापित करने के लिए।
वर्णनों में विसंगति: उपनिषदों में सृष्टि के क्रम में विसंगतियां (जैसे तैत्तिरीय उपनिषद और छांदोग्य उपनिषद में विभिन्न क्रम) इस बात का प्रमाण मानी जाती हैं कि सृष्टि एक तथ्य नहीं है, बल्कि एक अवधारणा है जिसका उपयोग अंततः यह दिखाने के लिए किया जाता है कि ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है। यदि सृष्टि वास्तविक होती, तो उसके वर्णन में एकरूपता होती।
प्रयोजनहीनता (Nisprayojanatvat): सृष्टि के ज्ञान का स्वयं में कोई स्वतंत्र प्रयोजन नहीं है। इसका एकमात्र प्रयोजन अद्वैत ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक होना है। यह ठीक वैसे ही है जैसे 'प्राण संवाद' की कहानियाँ प्राण की श्रेष्ठता को उजागर करने के लिए हैं, न कि किसी वास्तविक घटना का वर्णन करने के लिए।
मिथ्या कार्य वाद और चेतना की अवस्थाएँ:
मांडूक्य उपनिषद चेतना की तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का विश्लेषण करके अंतिम सत्य, 'तुरीय' को उजागर करता है।
जाग्रत अवस्था स्थूल जगत का बोध कराती है (वैश्वानर)।
स्वप्न अवस्था सूक्ष्म जगत का बोध कराती है (तैजस)।
सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद) सभी अनुभवों की बीज अवस्था या कारण शरीर है, जहाँ जाग्रत और स्वप्न के अनुभव बीज रूप में समाहित होते हैं (प्राज्ञ)।
तुरीय इन तीनों अवस्थाओं से परे की चेतना है, जो अवर्णनीय, शुद्ध, शांत, अद्वैत और शिव रूप है। जगत की मिथ्या प्रकृति को समझना साधक को इस परमार्थिक सत्य (तुरीय) की ओर ले जाता है, जहाँ द्वैत का कोई भेद नहीं होता।
अद्वैत वेदांत और द्वैत दर्शन:
अद्वैत वेदांत किसी भी द्वैतवादी दर्शन से विरोध नहीं करता क्योंकि वह द्वैत को परमार्थिक सत्य पर आरोपित व्यवहारिक सत्य (Vyavaharika Satyam) मानता है। द्वैतवादी अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हैं और एक-दूसरे का खंडन करते हैं, जबकि अद्वैत दर्शन उनके साथ संघर्ष नहीं करता क्योंकि वह द्वैत को परमार्थिक रूप से असत्य और अपने से निम्न स्तर की वास्तविकता मानता है। जैसे स्वप्न की दुनिया सपने देखने वाले के लिए वास्तविक होती है, उसी तरह व्यवहारिक जगत भी तब तक वास्तविक प्रतीत होता है जब तक परमार्थिक सत्य का ज्ञान नहीं हो जाता।
कुल मिलाकर, माण्डूक्य उपनिषद और गौडपाद की कारिकाएँ सृष्टि को माया या स्वप्न के समान मिथ्या मानती हैं, जिसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, बल्कि वह ब्रह्म से उधार लिया गया एक प्रकटन है। सृष्टि का वर्णन अद्वैत ब्रह्म की ओर ले जाने का एक साधन मात्र है।
मोक्ष (मुक्ति)
माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि के संदर्भ में मोक्ष (मुक्ति) के विषय में आपके स्रोतों से प्राप्त जानकारी इस प्रकार है:
माण्डूक्य उपनिषद् का महत्व और मोक्ष:
माण्डूक्य उपनिषद् अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न है, जिसे सबसे छोटा उपनिषद् (केवल 12 मंत्रों के साथ) माना जाता है, फिर भी यह समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है।
हनुमान जी ने भगवान राम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग पूछा था, तो उन्हें माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन करने की सलाह मिली थी।
मुक्ति उपनिषद् के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद् ही पर्याप्त है। यदि इसे ठीक से आत्मसात कर लिया जाए, तो किसी अन्य उपनिषद् के अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ सकती है।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने जोर दिया कि माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन और आत्मसात करना महत्वपूर्ण है ताकि यह ज्ञान आपके जीवन का हिस्सा बन सके और संकटों के समय भी आपके साथ रहे।
मानव चेतना की तीन अवस्थाएँ और तुरीय:
माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभव की जाने वाली अवस्थाओं का विश्लेषण करता है:
जाग्रत अवस्था (जाग्रत): जब व्यक्ति जाग्रत जगत और बाहरी वस्तुओं के प्रति जागरूक होता है। यह वह अवस्था है जहाँ इंद्रियों और मन के माध्यम से बाहरी वस्तुओं के साथ व्यवहार किया जाता है।
स्वप्न अवस्था (स्वप्न): जब व्यक्ति सोता है और स्वप्न देखता है। इस अवस्था में शरीर विश्राम पर होता है, लेकिन व्यक्ति स्वप्न-शरीर के माध्यम से आंतरिक रूप से बातचीत करता है।
सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद): वह अवस्था जहाँ व्यक्ति को किसी इच्छा का अनुभव नहीं होता और कोई स्वप्न नहीं देखता। व्यक्ति अज्ञान के आवरण में ढका रहता है, लेकिन फिर भी अस्तित्व का अनुभव करता है।
ये तीनों अवस्थाएँ अनुभव की अवस्थाएँ हैं, चेतना की नहीं।
उपनिषद् अंतिम वास्तविकता को 'तुरीय' या 'चौथा' कहता है।
तुरीय कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि वह तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र है और उनका साक्षी है।
यह शुद्ध चेतना है, जो अद्वैत और निर्गुण है।
आत्मा और ब्रह्म का संबंध:
आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) और ब्रह्म (समग्र चेतना) दो अलग-अलग सत्ताएँ नहीं हैं, बल्कि एक ही चेतना के दो दृष्टिकोण हैं।
माण्डूक्य उपनिषद् के महावाक्य "अयम् आत्मा ब्रह्म" का अर्थ है कि यह आत्मा ही ब्रह्म है।
तुरीय की प्राप्ति निर्विकल्पक है, जहाँ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद समाप्त हो जाता है। यह व्यक्ति को अपनी असीमित, आनंदमय आत्म-पहचान के रूप में पुनः खोज लेता है।
मोक्ष की प्रक्रिया और ज्ञान का महत्व:
मोक्ष का अर्थ है स्वयं को एक सीमित प्राणी मानने से उत्पन्न दुख का नाश। यह भ्रम को दूर करना है कि 'यदि मैं या दुनिया अलग होती, तो मैं खुश होता'।
सच्ची स्वतंत्रता तब आती है जब व्यक्ति 'मैं हूँ' की अपनी सच्ची प्रकृति को जान लेता है जो तुरीय है।
मोक्ष के लिए किसी नई, रहस्यमय या 'आध्यात्मिक' अनुभव की आवश्यकता नहीं है; यह केवल अपने वास्तविक स्वरूप को समझना है।
'चेतना' या 'जागरूकता' शब्द का प्रयोग लक्षणा (अप्रत्यक्ष अर्थ) में किया जाता है, क्योंकि आत्मा को सीधे शब्दों से परिभाषित नहीं किया जा सकता।
उपनिषद् तुरीय को नकारात्मक विधि ('नेति, नेति' - यह नहीं, वह नहीं) से प्रकट करता है, क्योंकि यह सभी गुणों और संबंधों से परे है।
यह ज्ञान संसार निवृत्ति (समस्त शिकायतों से मुक्ति) की ओर ले जाता है।
गौडपादाचार्य और शंकराचार्य जैसे आचार्यों ने स्पष्ट किया कि सृष्टि के वर्णन करने वाले वैदिक कथन शाब्दिक सत्य नहीं हैं, बल्कि अद्वैतम् (अद्वैत) की शिक्षा स्थापित करने के लिए एक उपाय (विधि) मात्र हैं।
जैसे रस्सी में साँप का दिखना भ्रम है, उसी तरह जगत (विश्व) भी ब्रह्म पर आरोपित मिथ्या (भ्रम) है। सृष्टि की असंगति यह दर्शाती है कि यह एक तथ्य नहीं है।
द्वैतवादी (जो द्वैत को सत्य मानते हैं) अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हैं और एक-दूसरे का खंडन करते हैं। हालांकि, अद्वैतवादी (जो अद्वैत को सत्य मानते हैं) उनके साथ संघर्ष नहीं करते, क्योंकि वे द्वैत को यथार्थ के निचले क्रम के रूप में स्वीकार करते हैं, जो अद्वैत पर आरोपित है।
ओम् (प्रणव) का ध्यान:
माण्डूक्य उपनिषद् ओम् (प्रणव) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है।
अक्षर ओम् (AUM) में तीन ध्वनियाँ (अ, उ, म) जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जबकि ध्वनिहीनता या विराम तुरीय का प्रतिनिधित्व करता है।
ओम् सभी ध्वनियों, शब्दों और अंततः ब्रह्मांड में सब कुछ का प्रतिनिधित्व करता है।
ओम् का ध्यान और उसके घटकों को समझना व्यक्ति को तुरीय के प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर ले जाता है। यह एक महान वाक्य की तरह है जो पूरे उपदेश का सार है।
सीमित अहम् से पहचान का त्याग
माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में, सीमित अहम् (जीव) से पहचान का त्याग मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति के लिए केंद्रीय विषय है। स्रोत इस प्रक्रिया को गहराई से समझाते हैं, जहाँ अविद्या (अज्ञान) के कारण उत्पन्न होने वाली सीमित पहचान को आत्म-ज्ञान के माध्यम से transcended किया जाता है।
मोक्ष (मुक्ति) का महत्व: माण्डूक्य उपनिषद् अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न है, जिसे सबसे छोटा उपनिषद् (केवल 12 मंत्रों के साथ) माना जाता है, फिर भी यह समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। हनुमान जी ने भगवान राम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग पूछा था, तो उन्हें माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन करने की सलाह मिली थी। मुक्ति उपनिषद् के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद् ही पर्याप्त है; यदि इसे ठीक से आत्मसात कर लिया जाए, तो किसी अन्य उपनिषद् के अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ सकती है। यह ज्ञान मानवता को सीमित जीवन के बंधन से बचाने वाला और अमर अस्तित्व (मोक्ष) का सीधा साधन है।
सीमित अहम् (जीव या अहंकार) की प्रकृति:
प्रत्येक मनुष्य जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं से गुजरता है। इन अवस्थाओं में व्यक्ति स्वयं को एक सीमित प्राणी के रूप में अनुभव करता है।
अहंकार (जीव) ही वह इकाई है जो बंधन महसूस करती है और मोक्ष की तलाश करती है।
जीव अपनी कल्पना का एक कोकून बनाता है, एक ऐसा जाल जो स्वयं की कल्पना से निर्मित होता है, और यह कल्पना ही उसे अन्य जीवों और सृष्टि की अन्य सामग्रियों से सामाजिक रूप से जोड़ती है।
जीव अपने उन्नीस मुखों (जैसे पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण और मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त से बना अंतःकरण चतुष्टय) के माध्यम से बाहरी दुनिया से संपर्क स्थापित करता है। यही "अहंकार" ही चीज़ों को अपनाता है और स्वयं को "संकल्पनात्मक अहम्" (conceptual self) के रूप में बनाता है, जो अनुभवों और संघों से प्रभावित होता है।
जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ वास्तव में स्वप्न अवस्थाएँ ही हैं, क्योंकि इनमें कर्ता और स्वप्न देखने वाला दोनों ही केवल अहंकार मात्र हैं जो विचारों और भावनाओं को अपनी प्राथमिक वास्तविकता मानते हैं, और वे आत्म-ज्ञान से रहित होते हैं।
अज्ञान (अविद्या) के कारण ही संसार और जीव की उपस्थिति होती है। अविद्या के कारण चित्त असत्य विषयों में प्रवृत्त होता है, जिससे द्वैत का अनुभव होता है।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी जोर देते हैं कि अहंकार (जीव) गहरी नींद में पूरी तरह से विलीन नहीं होता है, बल्कि एक संभावित (potential) स्थिति में रहता है।
सीमित अहम् से पहचान का त्याग (मोक्ष प्राप्ति का मार्ग):
मोक्ष की प्राप्ति सीमित अहम् या जीवात्मा को परम ब्रह्म से एक करने, या उसके साथ अपनी एकात्मता का अनुभव करने में निहित है।
जीवत्व (व्यक्तिगत पहचान) अंततः उस परम सत्य (ब्रह्म) के साथ एक हो सकता है जो दूर प्रतीत होता है।
जाग्रत और स्वप्न के अनुभवों से निर्णय लेने वाली चेतना को अलग करके, स्वयं को एक तटस्थ जांच आयोग की स्थिति में रखना चाहिए।
विचारों को उनके स्रोत (जाग्रत या स्वप्न की अवस्था में कर्ता/दर्शक इकाई) तक ले जाकर, उसे प्रकाशक (आत्मा) से अलग किया जा सकता है और नकारा जा सकता है।
आत्मा को साक्षी के रूप में जाना जाता है जो तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का साक्षी है और इन तीनों से स्वतंत्र है।
माण्डूक्य उपनिषद् की चौथी अवस्था, तुरीय, इन तीनों से परे है। इसे अव्यवहारिक (non-dealable), प्रपंचोपशम (द्वैत का उपशम), शिवम् (शुभ), और अद्वैत के रूप में वर्णित किया गया है। इसे सीधे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसके गुणों को नकार कर ही इसका वर्णन किया जाता है (जैसे "न अन्त:प्रज्ञम्, न बहिःप्रज्ञम्")। यह शुद्ध ज्ञान, इच्छा और पीड़ा रहित अवस्था के बराबर है, जिसे सत्-चित्-आनंद के रूप में भी जाना जाता है।
"अहंकार" (जीव) का अस्तित्व परमार्थ सत्य नहीं है, बल्कि मिथ्या है, जैसे रस्सी में सांप या सीप में चांदी का भ्रम।
"ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या" शंकराचार्य का प्रसिद्ध कथन है जो माण्डूक्य के सिद्धांतों से जुड़ा है। संसार ब्रह्म का केवल एक नाम और रूप है, ब्रह्म के बिना कोई संसार नहीं है।
कार्य में कारण को देखना चाहिए और फिर कार्य को पूरी तरह से त्याग देना चाहिए। फिर कारण को भी विलीन कर देना चाहिए, तब जो बचता है वही परम सत्य है। इसका अर्थ है कि एक बार ब्रह्म को आधार के रूप में समझ लिया जाए, तो सृष्टि को भूल जाना चाहिए।
तुरीय को स्वयं के रूप में समझना सभी अनात्मा (गैर-आत्म) केंद्रित इच्छाओं को समाप्त कर देता है, जैसे सीप को पहचानने के बाद चांदी की लालसा समाप्त हो जाती है।
समस्त उपनिषद इसी संदेश पर केंद्रित हैं कि तुरीय आत्मा है और यह ज्ञान प्राप्त करने के बाद कोई संदेह नहीं रहता कि व्यक्ति पूर्ण है और सदा मुक्त है।
मन को कामनाओं से रोकना आवश्यक है। जब चित्त (मन) ग्राहक-ग्राह्य (perceiver-perceived) द्वैत से मुक्त हो जाता है, तो परम महाज्योति (ब्रह्म) का साक्षात्कार होता है।
परमार्थ सत्य वह है जहाँ न उत्पत्ति है, न निरोध है, न बंधन है, न कोई साधक है, न कोई मुक्ति की इच्छा रखने वाला है और न कोई मुक्त है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् सिखाता है कि सीमित अहम् से पहचान का त्याग तब होता है जब व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की भ्रमपूर्ण अवस्थाओं को पहचानता है और उन्हें पार करके तुरीय नामक अद्वैत, शुद्ध चेतना में अपनी वास्तविक पहचान को पुनः स्थापित करता है। यह एक वैचारिक परिवर्तन है, जहाँ अज्ञान से उत्पन्न द्वैत का अनुभव आत्म-ज्ञान के प्रकाश में विलीन हो जाता है, जिससे पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होती है।
ब्रह्मन (आत्मन्) के रूप में स्वयं की पुनर्खोज
माण्डूक्य उपनिषद् की गहन अंतर्दृष्टि के अंतर्गत मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति के लिए ब्रह्मन (आत्मन्) के रूप में स्वयं की पुनर्खोज एक केंद्रीय विषय है। आपके स्रोतों के अनुसार, यह उपनिषद् इस परम लक्ष्य को प्राप्त करने का सीधा मार्ग दर्शाता है।
माण्डूक्य उपनिषद् और मोक्ष का सीधा संबंध:
मुक्ति उपनिषद् के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद् ही पर्याप्त है। यदि इसे ठीक से आत्मसात कर लिया जाए, तो किसी अन्य उपनिषद् के अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ सकती है।
हनुमान जी ने जब भगवान राम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग पूछा था, तो उन्हें माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन करने की सलाह मिली थी।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने बल दिया कि माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन और आत्मसात करना महत्वपूर्ण है ताकि यह ज्ञान आपके जीवन का हिस्सा बन सके और संकटों के समय भी आपके साथ रहे। इस ज्ञान को खोना नहीं चाहिए, क्योंकि यह दुर्लभ है।
आत्मन् और ब्रह्मन की अवधारणा:
आत्मन् को "मैं" या स्वयं के रूप में वर्णित किया गया है, जो चेतना की तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का साक्षी है। यह तीनों अवस्थाएँ अनुभव की अवस्थाएँ हैं, चेतना की नहीं। आत्मन् इन तीनों से स्वतंत्र है और तीनों उस पर निर्भर करते हैं।
ब्रह्मन को परम सत्ता या परमार्थ सत्य कहा गया है। यह असीम, आनंदमय आत्मन् है, हमारी सच्ची पहचान है, जो शाश्वत रूप से उपस्थित है।
उपनिषद् में "अयं आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ही ब्रह्म है) जैसे महावाक्य इस सत्य को उजागर करते हैं कि आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। यह व्यक्तिपरक और समग्र दृष्टिकोणों से एक ही चेतना को संदर्भित करता है। जैसे कपड़े से कुर्ता या कुर्ती बनती है, वैसे ही विश्व और आत्मन् ब्रह्मन से ही बने हैं। ब्रह्मन एक सत्ता है और अन्य सभी रूप उसके नाम और रूप मात्र हैं।
तुरीय अवस्था और आत्मन् की पुनर्खोज:
माण्डूक्य उपनिषद् चेतना की तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का विश्लेषण करने के बाद चौथी अवस्था को 'तुरीय' कहता है।
तुरीय कोई अवस्था नहीं है, बल्कि वह शुद्ध चेतना, आत्मन् का अंतिम सत्य है, जो तीनों अवस्थाओं से परे है। इसे वाणी से परे, अवर्णनीय, अनुमेय और अविचारणीय बताया गया है।
तुरीय की पुनर्खोज ही मोक्ष है। आत्म-ज्ञान या आत्म-अनुभव ही सच्चा मोक्ष है।
यह कोई नई चीज़ या रहस्यमय अनुभव नहीं है, बल्कि स्वयं को ब्रह्मन् के रूप में पुनः खोज करना है।
उपनिषद् तुरीय का वर्णन निषेधात्मक तरीके से करता है - न यह आंतरिक रूप से जागरूक है, न बाह्य रूप से जागरूक है, न यह दोनों है, न यह चेतना का पुंज है, न यह अचेतन है, न अज्ञात है, न ज्ञान है, न अज्ञान है। यह तुरीय अदृश्य, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य और अव्यपदेश्य है।
इसका अर्थ है कि ब्रह्मन् इंद्रियों द्वारा सीधे अनुभव नहीं किया जा सकता, मन या सामान्य विचारों से भी नहीं।
अद्वैत का महत्व:
शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है) का उल्लेख मिलता है।
सृष्टि के विवरण, चाहे वेदों में अलग-अलग क्यों न हों, का उद्देश्य अद्वैत की स्थापना करना है, यानी जीव और ब्रह्म की एकता। सृष्टि को केवल एक आभास माना गया है, न कि परमार्थ सत्य।
जैसे रस्सी को साँप मान लेना, या स्वप्न की सृष्टि, उसी प्रकार इस जगत की सृष्टि भी अविद्या या माया के कारण वास्तविक प्रतीत होती है, पर वह सत्य नहीं है।
यह द्वैतवाद को नकारता नहीं है, बल्कि उसे अद्वैत के भीतर समाहित करता है, क्योंकि द्वैत को निम्नतर वास्तविकता की श्रेणी में रखा जाता है (जैसे सोने के गहने सोने से भिन्न नहीं होते)।
अहंकार और अज्ञान का विलय:
मोक्ष की खोज स्वयं इस तथ्य का खंडन करती है कि व्यक्ति पहले से ही सत्य है। अज्ञान वह आवरण है जो व्यक्ति को गहरी नींद में ढके रहता है।
आत्म-ज्ञान प्राप्त होने पर, अनात्म से जुड़ी सभी इच्छाएँ (तृष्णा) और अविद्या, राग-द्वेष जैसे दोष समाप्त हो जाते हैं।
अष्टावक्र और राजा जनक की कहानी में, अष्टावक्र ने यह स्पष्ट किया कि न जागृत अवस्था का अनुभव सत्य है और न स्वप्न अवस्था का, केवल 'आप' (आत्मन्) ही सत्य हैं, और यही मोक्ष का मार्ग है।
यह ज्ञान जीवन को दिव्य जीवन में बदल देता है, जिससे व्यक्ति पृथ्वी पर शांति फैलाते हुए 'भूदेव' बन जाता है।
ज्ञान से प्राप्त होता है, कर्म से नहीं
माण्डूक्य उपनिषद् की गहन अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति 'ज्ञान से होती है, कर्म से नहीं' - इस सिद्धांत पर आपके स्रोत महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।
माण्डूक्य उपनिषद् और मोक्ष का मार्ग: माण्डूक्य उपनिषद् अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न है, जिसे सबसे छोटा उपनिषद् (केवल 12 मंत्रों के साथ) माना जाता है, फिर भी यह समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। मुक्ति उपनिषद् के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद् ही पर्याप्त है, यदि इसे ठीक से आत्मसात कर लिया जाए, तो किसी अन्य उपनिषद् के अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ सकती है। भगवान राम ने हनुमान जी को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग पूछने पर माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन करने की सलाह दी थी।
कर्म से मोक्ष क्यों नहीं? वेदांत दर्शन के अनुसार, क्रियाएँ (कर्म), चाहे वे स्थूल हों या सूक्ष्म, केवल उन्हीं वस्तुओं को उत्पन्न कर सकती हैं जो तत्काल उपलब्ध नहीं हैं। चूँकि आत्मन् या असीमित 'मैं' (हमारा वास्तविक स्वरूप) शाश्वत रूप से उपस्थित है, और "निकटतम में सबसे निकटतम" है, इसलिए उसे प्राप्त करने के लिए किसी क्रिया की आवश्यकता नहीं है। मोक्ष स्वयं को एक सीमित प्राणी मानने से उत्पन्न दुःख का नाश है, और यह भ्रम को दूर करने से ही प्राप्त होता है, न कि किसी नई क्रिया से।
उपनिषद् ज्ञान कांड (ज्ञान अध्याय) के अंतर्गत वर्गीकृत हैं, और वे कर्म कांड (कर्तव्यों और अनुष्ठानों) तथा उपासना कांड (पूजा) से भिन्न हैं। कर्म और उपासना खंड द्वैत पर आधारित हैं, जहाँ कर्ता, कर्म और फल का भेद होता है। माण्डूक्य उपनिषद्, अद्वैत वेदांत का समर्थन करते हुए, इस द्वैत की मिथ्याता पर जोर देता है।
जगत् की मिथ्या प्रकृति और ज्ञान का महत्व:
माण्डूक्य उपनिषद् यह स्थापित करता है कि मानव चेतना की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीनों अवस्थाएँ अनुभव की अवस्थाएँ हैं, चेतना की नहीं।
उपनिषद् परम सत्ता को 'तुरीय' या 'चौथा' कहता है, जो तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनका साक्षी है।
गौडपादाचार्य और शंकराचार्य ने स्पष्ट किया कि सृष्टि के वर्णन करने वाले वैदिक कथन शाब्दिक सत्य नहीं हैं, बल्कि अद्वैतम् (अद्वैत) की शिक्षा स्थापित करने के लिए एक उपाय (विधि) मात्र हैं। इसे "अध्यारोप-अपवाद" विधि कहा जाता है, जहाँ पहले जगत को आरोपित किया जाता है (दिखाया जाता है) और फिर उसे अवास्तविक (मिथ्या) घोषित करके ब्रह्म का ज्ञान स्थापित किया जाता है।
जगत् की तुलना रस्सी में देखे गए साँप, या मिट्टी से बने घड़े से की जाती है। ये उदाहरण बताते हैं कि वस्तु का स्वरूप उसके मूल पदार्थ से भिन्न नहीं होता; जब मूल पदार्थ का ज्ञान हो जाता है, तो आरोपित वस्तु (जैसे साँप या घड़ा) मिथ्या प्रतीत होती है। इसी प्रकार, जगत भी ब्रह्म पर आरोपित मिथ्या है।
यदि जगत मिथ्या है, तो इसमें किए गए कर्म भी परमार्थिक सत्य नहीं हो सकते और वे मोक्ष की ओर नहीं ले जा सकते।
ज्ञान की सर्वोच्चता और उपासना/कर्म की भूमिका:
उपनिषदों का उद्देश्य द्वैत (भेद) का खंडन करना और अद्वैत (अभेद) की स्थापना करना है। यह केवल ज्ञान के माध्यम से ही संभव है, न कि कर्म या उपासना के माध्यम से, जो द्वैत पर आधारित हैं।
उपासना और वैदिक कर्म उन साधकों के लिए निर्धारित किए गए हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता निम्न या मध्यम है। यह उन्हें धीरे-धीरे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करने का एक दयालु उपाय है।
केनोपनिषद् कहता है कि "जिसको मन से नहीं जाना जा सकता, पर जिससे मन जाना जाता है, उसे ही ब्रह्म जानो, न कि उसे जिसकी लोग उपासना करते हैं"। यह सीधे तौर पर बाहरी उपासना या देवताओं के कर्मकाण्डीय ध्यान को मोक्ष के अंतिम साधन के रूप में नकारता है।
मोक्ष के लिए किसी नए, रहस्यमय या 'आध्यात्मिक' अनुभव की आवश्यकता नहीं है; यह केवल अपने वास्तविक स्वरूप को समझना है।
आत्म-ज्ञान (आत्म-पहचान) ही स्वयं को असीमित, आनंदमय आत्म-पहचान के रूप में पुनः खोज है। माण्डूक्य उपनिषद् का महावाक्य "अयम् आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ही ब्रह्म है) इस अभेद ज्ञान को स्थापित करता है। यह ज्ञान संसार निवृत्ति (समस्त शिकायतों से मुक्ति) की ओर ले जाता है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् यह सिखाता है कि मोक्ष कोई कर्मफल नहीं है जिसे क्रियाओं से प्राप्त किया जा सके। यह एक ज्ञानमय उपलब्धि है, जिसमें व्यक्ति अपनी सच्ची, असीमित, अद्वैत प्रकृति को पहचानता है और द्वैत जगत के भ्रम से मुक्त होता है। यह आत्मा की पहचान शुद्ध चेतना (तुरीय) के रूप में करना ही सच्चा मोक्ष है, जिसे केवल ज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है, कर्म से नहीं।
आत्म-साक्षात्कार = ब्रह्म-साक्षात्कार
माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में, आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्म-साक्षात्कार को एक ही परम सत्य की अनुभूति के रूप में देखा जाता है, जो अंततः मोक्ष (मुक्ति) की ओर ले जाता है।
माण्डूक्य उपनिषद् और मोक्ष का मार्ग:
माण्डूक्य उपनिषद् को अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न माना जाता है, जो समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह सबसे छोटा उपनिषद् है, जिसमें केवल 12 मंत्र हैं।
मुक्ति उपनिषद् के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद् ही पर्याप्त है। यदि इसे ठीक से आत्मसात कर लिया जाए, तो किसी अन्य उपनिषद् के अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ सकती है।
हनुमान जी ने जब भगवान राम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग पूछा था, तो उन्हें माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन करने की सलाह मिली थी।
आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्म-साक्षात्कार की एकात्मता:
माण्डूक्य उपनिषद् का केंद्रीय महावाक्य "अयम् आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ही ब्रह्म है) व्यक्तिगत चेतना (आत्मा) और समग्र चेतना (ब्रह्म) की एकात्मता को स्थापित करता है।
आत्मा और ब्रह्म दो अलग-अलग सत्ताएँ नहीं हैं, बल्कि एक ही चेतना के दो दृष्टिकोण हैं। व्यक्तिगत स्तर पर इसे आत्मा कहा जाता है, जबकि समग्र स्तर पर इसे ब्रह्म कहा जाता है।
आत्म-साक्षात्कार का अर्थ अपने असीमित, आनंदमय आत्म-पहचान के रूप में पुनः खोज करना है। यह असीमित ‘मैं’ ही हमारा सच्चा स्वरूप है।
सच्ची स्वतंत्रता तब आती है जब व्यक्ति अपनी 'मैं हूँ' की सच्ची प्रकृति को जान लेता है, जो तुरीय है। यह ज्ञान संसार निवृत्ति (समस्त शिकायतों से मुक्ति) की ओर ले जाता है।
चेतना की अवस्थाएँ और तुरीय की भूमिका:
माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभव की जाने वाली अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति) का विश्लेषण करता है।
जाग्रत अवस्था में व्यक्ति बाहरी वस्तुओं और जाग्रत जगत के प्रति जागरूक होता है।
स्वप्न अवस्था में व्यक्ति सोता और स्वप्न देखता है, जहाँ वह स्वप्न-शरीर के माध्यम से आंतरिक रूप से बातचीत करता है।
सुषुप्ति अवस्था वह है जहाँ कोई इच्छा या स्वप्न नहीं होता, और व्यक्ति अज्ञान के आवरण में ढका रहता है, फिर भी अस्तित्व का अनुभव करता है।
ये तीनों अवस्थाएँ केवल अनुभव की अवस्थाएँ हैं, चेतना की नहीं।
उपनिषद् अंतिम वास्तविकता को 'तुरीय' या 'चौथा' कहता है।
तुरीय कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि वह तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र उनका साक्षी है। यह शुद्ध चेतना, अद्वैत और निर्गुण है।
तुरीय की प्राप्ति निर्विकल्पक है, जहाँ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद समाप्त हो जाता है।
ओम् (प्रणव) का ध्यान, जिसके ध्वनिहीन भाग या विराम को तुरीय का प्रतिनिधित्व करने वाला बताया गया है, व्यक्ति को तुरीय के प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर ले जाता है।
सृष्टि की मिथ्या प्रकृति और मोक्ष:
शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" (केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है) का संबंध माण्डूक्य उपनिषद् के सिद्धांतों से है।
उपनिषद् यह स्थापित करता है कि सृष्टि के वर्णन करने वाले वैदिक कथन शाब्दिक सत्य नहीं हैं, बल्कि अद्वैतम् (अद्वैत) की शिक्षा स्थापित करने के लिए एक उपाय (विधि) मात्र हैं।
जगत (विश्व) को ब्रह्म पर आरोपित एक भ्रम (मिथ्या) के रूप में देखा जाता है, जैसे रस्सी में साँप का दिखना।
यह समझना कि द्वैत (सृष्टि) केवल एक निचली क्रम की वास्तविकता है जो अद्वैत पर आरोपित है, राग-द्वेष जैसे दोषों से मुक्ति दिलाता है।
अनुभव और ज्ञान में भेद:
मोक्ष के लिए किसी नई, रहस्यमय या 'आध्यात्मिक' अनुभव की आवश्यकता नहीं है; यह केवल अपने वास्तविक स्वरूप को समझना है।
ज्ञान असीमित और स्थायी होता है, जबकि अनुभव क्षणिक होता है।
'चेतना' या 'जागरूकता' शब्द का प्रयोग लक्षणा (अप्रत्यक्ष अर्थ) में किया जाता है, क्योंकि आत्मा को सीधे शब्दों से परिभाषित नहीं किया जा सकता।
तुरीय को नकारात्मक विधि ('नेति, नेति' - यह नहीं, वह नहीं) से प्रकट किया जाता है, क्योंकि यह सभी गुणों और संबंधों से परे है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् आत्म-साक्षात्कार को ब्रह्म-साक्षात्कार के समतुल्य मानता है, जो चेतना की तीन अवस्थाओं से परे तुरीय अवस्था में अपनी सच्ची, असीमित और आनंदमय प्रकृति को जानने से प्राप्त होता है। यह ज्ञान ही जीवन में सभी दुखों को समाप्त कर मोक्ष की ओर ले जाता है।
जागृत अवस्था में आत्म-ज्ञान
माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में, जागृत अवस्था में आत्म-ज्ञान का विषय मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह उपनिषद् चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का गहन विश्लेषण करके परम सत्य की ओर ले जाता है।
जागृत अवस्था का स्वरूप: माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभव की जाने वाली अवस्थाओं का विश्लेषण करता है, जिनमें से एक जागृत अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति बाहरी संसार और उसमें मौजूद वस्तुओं के प्रति जागरूक होता है। यह वह अवस्था है जहाँ इंद्रियों और मन के माध्यम से व्यक्ति बाहरी वस्तुओं, लोगों और परिस्थितियों के साथ व्यवहार करता है। जागृत अवस्था का अनुभवकर्ता, जिसे वैश्वानर कहा जाता है, स्थूल या स्थूल शरीर में बोध, धारणा और ज्ञान उत्पन्न करता है।
आत्म-ज्ञान में जागृत अवस्था का महत्व:
आत्मा साक्षी है: आत्मा इन तीनों अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) की साक्षी है। प्रत्येक अवस्था अपने आप में दूसरी अवस्था से अवगत नहीं होती, लेकिन आत्मा इन सभी का साक्षी है। आत्मा इन अवस्थाओं से स्वतंत्र है, जबकि ये अवस्थाएँ आत्मा पर निर्भर करती हैं। माण्डूक्य उपनिषद् व्यक्ति की इस अनुभव-क्षेत्र के भीतर स्थित सत्य को स्पष्ट करता है कि व्यक्ति इन तीनों अवस्थाओं का साक्षी है।
ब्रह्म से संबंध: माण्डूक्य उपनिषद् आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) और ब्रह्म (समग्र चेतना) को दो अलग-अलग सत्ताएँ नहीं मानता, बल्कि एक ही चेतना के दो दृष्टिकोण बताता है। "अयम् आत्मा ब्रह्म" (यह आत्मा ही ब्रह्म है) का महावाक्य माण्डूक्य उपनिषद् से ही आता है, जो इस अद्वैत संबंध को स्थापित करता है। जागृत अवस्था के अध्ययन में, माण्डूक्य उपनिषद् व्यक्ति (जीव) और ब्रह्मांड (ईश्वर) के बीच सामंजस्य स्थापित करता है, यह दर्शाते हुए कि सूक्ष्म रूप से व्यक्तिगत और लौकिक में कोई अलगाव नहीं है।
जगत का मिथ्यात्व: वेदान्त दर्शन के अनुसार, जाग्रत अवस्था में अनुभव किया जाने वाला संसार भी स्वप्नलोक के समान मिथ्या (भ्रमपूर्ण) है। यह मिथ्या इसलिए है क्योंकि यह आदि और अंत में अवास्तविक है, और बीच में भी वैसा ही प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, जिस प्रकार रस्सी में साँप का भ्रम होता है, उसी प्रकार जगत ब्रह्म पर आरोपित मिथ्या है। गौडपादाचार्य और शंकराचार्य ने स्पष्ट किया कि सृष्टि का वर्णन करने वाले वैदिक कथन शाब्दिक सत्य नहीं हैं, बल्कि अद्वैतम् (अद्वैत) की शिक्षा स्थापित करने के लिए एक उपाय (विधि) मात्र हैं।
उन्नीस मुख और अहंकार: जागृत चेतना में उन्नीस क्रियाशील यंत्र होते हैं, जिनके माध्यम से व्यक्ति बाहरी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करता है और उसे आत्मसात करता है। इनमें पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच प्राण और चार अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) शामिल हैं। यह प्रक्रिया व्यक्ति को संसार (संसार) से प्रभावित करती है और उसे बांधती है। अहंकार (conceptual self) आत्म-ज्ञान के मार्ग में एक महत्वपूर्ण बाधा है, क्योंकि यह स्वयं के बारे में एक अवधारणात्मक विचार है जो अनुभवों से बदलता रहता है।
मोक्ष (मुक्ति) की ओर आत्म-ज्ञान: मोक्ष का अर्थ है स्वयं को एक सीमित प्राणी मानने से उत्पन्न दुख का नाश। यह भ्रम को दूर करना है कि 'यदि मैं या दुनिया अलग होती, तो मैं खुश होता'। सच्ची स्वतंत्रता तभी आती है जब व्यक्ति अपनी सच्ची प्रकृति को जान लेता है जो तुरीय है। यह ज्ञान कोई नया, रहस्यमय या 'आध्यात्मिक' अनुभव नहीं है, बल्कि अपने वास्तविक स्वरूप को समझना है।
तुरीय अवस्था की प्राप्ति: तुरीय कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि शुद्ध चेतना है जो तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे है और उनका साक्षी है। माण्डूक्य उपनिषद् में ओम् (प्रणव) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जहाँ 'अ' जाग्रत अवस्था को, 'उ' स्वप्न को, 'म' सुषुप्ति को और इन ध्वनियों के बीच का मौन (या ध्वनिहीनता) तुरीय को दर्शाता है। ओम् का ध्यान व्यक्ति को तुरीय के प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर ले जाता है।
अज्ञान का निवारण: माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन और आत्मसात करना महत्वपूर्ण है ताकि यह ज्ञान व्यक्ति के जीवन का हिस्सा बन सके और संकटों के समय भी उसके साथ रहे। तुरीय के रूप में स्वयं को समझने से अनात्मा पर केंद्रित सभी इच्छाओं का नाश होता है और अविद्या, राग तथा द्वेष जैसे दोषों का निवारण होता है, जिससे संसार की निवृत्ति (दुखों से मुक्ति) होती है। आत्म-ज्ञान केवल हमारे स्वयं के बारे में एक नई जानकारी नहीं है, बल्कि स्वयं के बारे में हमारे अनुभवों के निष्कर्ष का सुधार है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् जागृत अवस्था सहित चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का विश्लेषण करके यह दर्शाता है कि आत्मा इन सभी अवस्थाओं से परे है और इन सब का एकमात्र आश्रय या आधार है। इस ज्ञान की गहराई से समझ और आत्मसात करने से व्यक्ति स्वयं को सीमित प्राणी मानने के भ्रम से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
आत्मा ही सब कुछ है
माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में "आत्मा ही सब कुछ है" (अयम् आत्मा ब्रह्म) की अवधारणा और मोक्ष (मुक्ति) से उसका संबंध आपके स्रोतों के आधार पर विस्तृत रूप से समझाया गया है:
माण्डूक्य उपनिषद् का महत्व और 'आत्मा ही सब कुछ है' का केंद्रीय सिद्धांत: माण्डूक्य उपनिषद् अथर्ववेद का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अमूल्य ग्रंथ है, जिसे सबसे छोटा उपनिषद् (केवल 12 मंत्रों के साथ) माना जाता है, फिर भी यह समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। मुक्ति उपनिषद् के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति के लिए केवल माण्डूक्य उपनिषद् का ज्ञान ही पर्याप्त है। भगवान राम ने हनुमान जी को मोक्ष मार्ग जानने के लिए माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन करने की सलाह दी थी।
इस उपनिषद् का केंद्रीय महावाक्य "अयम् आत्मा ब्रह्म" है। यह घोषणा करता है कि व्यक्तिगत आत्मा (आत्मन्) ही सार्वभौमिक ब्रह्म है, और यह आत्मा ही सब कुछ है। यह एक अद्वैतवादी दृष्टिकोण है, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म (समग्र चेतना) और आत्मा (व्यक्तिगत चेतना) दो अलग-अलग सत्ताएँ नहीं हैं, बल्कि एक ही चेतना के दो पहलू हैं – एक व्यक्तिगत दृष्टिकोण से, दूसरा समग्र दृष्टिकोण से।
मानव चेतना की अवस्थाएँ और तुरीय की अवधारणा: माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन सामान्य रूप से अनुभवी अवस्थाओं का गहन विश्लेषण करता है:
जाग्रत अवस्था (जागृत): यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति जाग्रत जगत और बाहरी वस्तुओं के प्रति जागरूक रहता है, इंद्रियों और मन के माध्यम से बाहरी वस्तुओं के साथ व्यवहार करता है। इस अवस्था में चेतना स्थूल या स्थूल शरीर में ज्ञान उत्पन्न करती है।
स्वप्न अवस्था (स्वप्न): इस अवस्था में व्यक्ति सोता है और स्वप्न देखता है। शरीर विश्राम पर होता है, लेकिन व्यक्ति स्वप्न-शरीर के माध्यम से आंतरिक रूप से बातचीत करता है। स्वप्न अवस्था सूक्ष्म शरीर में बोध या ज्ञान उत्पन्न करती है।
सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद): यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति को कोई इच्छा नहीं होती और कोई स्वप्न नहीं देखता। इस अवस्था में व्यक्ति अज्ञान के आवरण में ढका रहता है, लेकिन फिर भी अस्तित्व का अनुभव करता है। इसे कारण शरीर भी कहा जाता है, जहाँ जाग्रत और स्वप्न की अनुभूतियाँ सुप्तावस्था या बीज-अवस्था में समाहित होती हैं।
ये तीनों अवस्थाएँ केवल अनुभव की अवस्थाएँ हैं, चेतना की नहीं। 'मैं' (आत्मा) इन तीनों अवस्थाओं का साक्षी (देखने वाला) है, और यह इन तीनों से स्वतंत्र है, जबकि तीनों अवस्थाएँ 'मैं' पर निर्भर करती हैं।
उपनिषद् अंतिम वास्तविकता को 'तुरीय' या 'चौथा' कहता है। तुरीय कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि यह तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र और उनका साक्षी है। यह शुद्ध चेतना है, जो अद्वैत और निर्गुण (निराकार) है। तुरीय को अक्सर शांत, शिव और अद्वैत के रूप में वर्णित किया जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "शांतिपूर्ण, शुभ, और गैर-द्वैतवादी"। इसे अविचारणीय, अप्रत्यक्ष, अवर्णनीय भी कहा जाता है, और यह वह चेतना है जिसमें सभी तथ्य समाहित हो जाते हैं। इसे नकारात्मक विधि ('नेति, नेति' - यह नहीं, वह नहीं) से प्रकट किया जाता है, क्योंकि इसे सीधे शब्दों से परिभाषित नहीं किया जा सकता, यह सभी गुणों और संबंधों से परे है।
मोक्ष (मुक्ति) और 'आत्मा ही सब कुछ है' का ज्ञान:
मोक्ष दुख का नाश है: मोक्ष का अर्थ है स्वयं को एक सीमित प्राणी मानने से उत्पन्न दुख का नाश। यह ज्ञान इस भ्रम को दूर करता है कि 'यदि मैं या दुनिया अलग होती, तो मैं खुश होता'।
तुरीय की पहचान: सच्ची स्वतंत्रता तब आती है जब व्यक्ति अपनी सच्ची प्रकृति को 'मैं हूँ' के रूप में जान लेता है, जो तुरीय है। मोक्ष के लिए किसी नई, रहस्यमय या 'आध्यात्मिक' अनुभव की आवश्यकता नहीं है; यह केवल अपने वास्तविक स्वरूप को समझना है।
जगत की मिथ्या प्रकृति: माण्डूक्य उपनिषद् के सिद्धांत अक्सर शंकराचार्य के कथन "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" ('केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है') से जुड़े होते हैं। यह उपनिषद् इस बात पर जोर देता है कि जगत (विश्व) भी ब्रह्म पर आरोपित मिथ्या (भ्रम) है, जैसे रस्सी में साँप का दिखना भ्रम है। सृष्टि की असंगति यह दर्शाती है कि यह एक वास्तविक तथ्य नहीं है, बल्कि केवल एक उपाय (विधि) है जो अद्वैतम् (अद्वैत) की शिक्षा स्थापित करने के लिए वर्णित है।
ओम् का ध्यान: माण्डूक्य उपनिषद् ओम् (प्रणव) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है। अक्षर ओम् (AUM) में तीन ध्वनियाँ (अ, उ, म) जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जबकि ध्वनिहीनता या विराम तुरीय का प्रतिनिधित्व करता है। ओम् सभी ध्वनियों, शब्दों और अंततः ब्रह्मांड में सब कुछ का प्रतिनिधित्व करता है। ओम् का ध्यान और उसके घटकों को समझना व्यक्ति को तुरीय के प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर ले जाता है। यह ज्ञान व्यक्ति को अपनी असीमित, आनंदमय आत्म-पहचान के रूप में पुनः खोज लेता है।
ज्ञान का आत्मसात: स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने जोर दिया कि माण्डूक्य उपनिषद् का अध्ययन और आत्मसात करना महत्वपूर्ण है ताकि यह ज्ञान आपके जीवन का हिस्सा बन सके और संकटों के समय भी आपके साथ रहे। यह ज्ञान संसार निवृत्ति (समस्त शिकायतों से मुक्ति) की ओर ले जाता है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि यह है कि आत्मा ही ब्रह्म है, और यह ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थ सत्य है। यह द्वैत और जगत की मिथ्या प्रकृति को उजागर करता है, और इस ज्ञान को आत्मसात करने से ही व्यक्ति को सीमित होने के दुख से मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त होती है, क्योंकि वह अपने असीमित, शुद्ध चेतना स्वरूप को जान लेता है।
शांति और आनंद की अवस्था
माण्डूक्य उपनिषद् की अंतर्दृष्टि के व्यापक संदर्भ में, शांति और आनंद की अवस्था मोक्ष (मुक्ति) के परम लक्ष्य से अटूट रूप से जुड़ी हुई है। यह उपनिषद् इस अवस्था को मानव चेतना के गहन विश्लेषण के माध्यम से उजागर करता है।
माण्डूक्य उपनिषद् और मोक्ष का महत्व: माण्डूक्य उपनिषद् को अथर्ववेद का एक अमूल्य रत्न माना जाता है, जो केवल 12 मंत्रों में समस्त वेदांतिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। मुक्ति उपनिषद् के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति के लिए माण्डूक्य उपनिषद् ही पर्याप्त है। इसका उचित आत्मसात करना इतना महत्वपूर्ण है कि यह व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप के ज्ञान की ओर ले जाता है, जिससे अंततः मुक्ति प्राप्त होती है।
चेतना की अवस्थाएँ और तुरीय की शांति तथा आनंद: माण्डूक्य उपनिषद् मानव चेतना की तीन सार्वभौमिक रूप से अनुभवी अवस्थाओं का विश्लेषण करता है: जाग्रत (जागृत), स्वप्न और सुषुप्ति (गहरी नींद)। ये तीनों अवस्थाएँ अनुभव की अवस्थाएँ हैं, चेतना की नहीं। उपनिषद् अंतिम वास्तविकता को 'तुरीय' या 'चौथा' कहता है।
तुरीय कोई अलग अवस्था नहीं है, बल्कि वह तीनों अवस्थाओं से स्वतंत्र है और उनका शाश्वत साक्षी है। यह शुद्ध चेतना है, जो अद्वैत और निर्गुण है।
तुरीय की स्थिति को "अचिंत्य, अव्यपदेश्य, एकात्म-प्रत्यय-सारम्, प्रपंचोपशमं, शांतम्, शिवम्, अद्वैतम्" (अचिंतनीय, अवर्णनीय, एकात्मक चेतना का सार, प्रपंचों का उपशमन, शांत, शुभ और अद्वैत) के रूप में वर्णित किया गया है।
यह अवस्था इच्छा और पीड़ा रहित ज्ञान की शुद्ध अवस्था के बराबर है, जिसे सत्-चित्-आनंद (अस्तित्व-चेतना-आनंद) के रूप में भी जाना जाता है।
तुरीय को शांत, आनंदमय और अद्वैत बताया गया है।
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के अनुसार, तुरीय कोई पृथक अनुभव नहीं है, बल्कि यह तीनों अवस्थाओं के परे शुद्ध चेतना का अनावरण है। यह तीनों अवस्थाओं की पृष्ठभूमि में अंतर्निहित है।
मोक्ष: दुख का नाश और आंतरिक शांति की प्राप्ति: मोक्ष का अर्थ स्वयं को एक सीमित प्राणी मानने से उत्पन्न दुख का नाश है। यह भ्रम को दूर करना है कि 'यदि मैं या दुनिया अलग होती, तो मैं खुश होता' [हमारी पिछली बातचीत]। सच्ची स्वतंत्रता तब आती है जब व्यक्ति 'मैं हूँ' की अपनी सच्ची प्रकृति को जान लेता है जो तुरीय है [हमारी पिछली बातचीत]।
मांडूक्य के सिद्धांत अक्सर शंकराचार्य के प्रसिद्ध कथन 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' ('केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, बाकी सब मिथ्या है') से जुड़े होते हैं। यह ज्ञान व्यक्ति को अपने वास्तविक, असीमित, आनंदमय आत्म-पहचान के रूप में पुनः खोज लेता है [हमारी पिछली बातचीत]।
जब तुरीय को आत्मा के रूप में समझा जाता है, तो यह अनात्मा (आत्म से भिन्न) पर केंद्रित सभी इच्छाओं (तृष्णा) के निषेध का कारण बनता है, जैसे सीप को चाँदी समझने का भ्रम दूर होने पर चाँदी की लालसा समाप्त हो जाती है। यह आत्म-ज्ञान अविद्या (अज्ञान), राग-द्वेष (लगाव-घृणा), और तृष्णा (इच्छाओं) जैसे दोषों की किसी भी संभावना को समाप्त कर देता है, जो सभी संसार (भौतिक अस्तित्व) का कारण हैं।
ज्ञान प्राप्त करने के बाद, व्यक्ति को गहरी नींद के बाद भी अज्ञानता बनी रहती है, लेकिन यह अज्ञानता बंधन का कारण नहीं बनती, बल्कि रात को अच्छी नींद लेने जैसा ही है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञान होने पर भी दैनिक जीवन की क्रियाएं चलती रहती हैं, लेकिन उनसे उत्पन्न होने वाला दुख समाप्त हो जाता है।
शांति के प्रतीक के रूप में मौन और ओम्: अल्टीमेट रियलिटी को 'मौन' के रूप में वर्णित किया गया है। एक महान गुरु ने कहा था कि आत्मा ही मौन है। इस महान मौन में, ब्रह्मांड की सभी उथल-पुथल शांत हो जाती है। इंद्रियों का सारा कोलाहल, ब्रह्मांड का सारा शोर इस मौन में समाहित और समाहित हो जाता है।
माण्डूक्य उपनिषद् ओम् (प्रणव) को एक ध्यानात्मक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है। ओम् अक्षर (AUM) की तीन ध्वनियाँ (अ, उ, म) जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जबकि ध्वनिहीनता या विराम तुरीय का प्रतिनिधित्व करता है।
ओम् का ध्यान और उसके घटकों को समझना व्यक्ति को तुरीय के प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर ले जाता है। यह एक महान वाक्य की तरह है जो पूरे उपदेश का सार है।
द्वैत का अतिक्रमण और संघर्षों का अंत: अद्वैत वेदांत के अनुसार, द्वैतवादियों (जो द्वैत को सत्य मानते हैं) की अपनी-अपनी दृढ़ मान्यताएँ होती हैं और वे आपस में विरोधाभास रखते हैं, जबकि अद्वैतवादियों (जो अद्वैत को सत्य मानते हैं) का उनसे कोई विरोध नहीं होता।
यह इसलिए है क्योंकि अद्वैत परमार्थ (परम वास्तविकता) है, और द्वैत उसका प्रभाव या अभिव्यक्ति है। अद्वैत दर्शन राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करता है, बल्कि अन्य विचारों के प्रति सहानुभूति रखता है और क्रोध नहीं।
यह ज्ञान व्यक्ति को सीमित जीवन के बंधन से मुक्ति दिलाता है, जो अमर अस्तित्व (मोक्ष) का सीधा साधन है। यह ज्ञान जीवन को दिव्य जीवन में परिवर्तित कर सकता है, जिससे व्यक्ति पृथ्वी पर शांति फैलाते हुए वास्तविक देवता बन सकता है।
संक्षेप में, माण्डूक्य उपनिषद् में शांति और आनंद की अवस्था मोक्ष का अभिन्न अंग है, जो चेतना की अंतिम अवस्था 'तुरीय' के अनुभव से प्राप्त होती है। यह अनुभव न केवल मानसिक शांत और आनंद लाता है, बल्कि व्यक्ति को अपनी असीमित, गैर-द्वैतवादी प्रकृति का बोध कराकर सभी प्रकार के दुखों से मुक्त करता है। यह ज्ञान मात्र एक बौद्धिक अवधारणा नहीं, बल्कि जीवन का एक हिस्सा है जो व्यक्ति को वास्तविक अर्थों में मुक्त और शांत बनाता है।
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