Wednesday, April 23, 2025

साधना चतुष्टय

साधना चतुष्टय

साधना चतुष्टय (नित्यानित्यवस्तुविवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व) वेदांत में आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक चार योग्यता या साधन हैं। इसका सबसे प्रामाणिक और व्यवस्थित उल्लेख आदि शंकराचार्य द्वारा रचित ग्रंथों में मिलता है, विशेषकर "विवेकचूडामणि" में16

साधना चतुष्टय का शाब्दिक अर्थ है "साधना के चार साधन"। यह वे चार आवश्यक योग्यताएँ हैं जिनका होना वेदांत दर्शन के अनुसार किसी व्यक्ति के लिए ब्रह्मज्ञान (आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान) प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है। इनके बिना, ब्रह्मज्ञान की इच्छा और उसे समझने की क्षमता विकसित नहीं हो पाती।

ये चार साधन इस प्रकार हैं:

1. नित्यानित्यवस्तुविवेक - शाश्वत और अशाश्वत का विवेक:

  • गूढ़  अर्थ: यह केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं है कि ब्रह्म नित्य है और संसार अनित्य, बल्कि यह एक गहरी अनुभूति और दृढ़ विश्वास होना चाहिए। इसमें लगातार यह विचार करना शामिल है कि संसार की हर वस्तु, जिसमें हमारे अनुभव, भावनाएँ और विचार भी शामिल हैं, समय के साथ बदलती है और नष्ट होती है। केवल वह सत्ता अपरिवर्तनीय है जो इन सभी परिवर्तनों का साक्षी है - वह ब्रह्म है।

  • अभ्यास:

    • निरंतर अवलोकन: अपने आसपास और अपने भीतर होने वाले परिवर्तनों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करना। यह समझना कि कुछ भी स्थिर नहीं है।

    • शास्त्रों का अध्ययन: उपनिषदों और अन्य वेदांत ग्रंथों का अध्ययन करना जो नित्य और अनित्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं।

    • मनन: इस ज्ञान पर गूढ़ ई से विचार करना और इसे अपने अनुभवों से जोड़ना। यह प्रश्न पूछना कि वास्तव में "मैं" क्या हूँ - क्या यह बदलता हुआ शरीर और मन है, या इनके परे कुछ और है?

    • अनासक्ति का विकास: धीरे-धीरे अनित्य वस्तुओं से अपनी आसक्ति को कम करना, यह जानते हुए कि उनसे स्थायी सुख नहीं मिल सकता।

2. इहामुत्रार्थफलभोगविराग  - इस लोक और परलोक के भोगों से वैराग्य:

  • गूढ़  अर्थ: यह केवल सांसारिक सुखों का त्याग नहीं है, बल्कि उन सूक्ष्म इच्छाओं और तृष्णाओं से भी मुक्ति है जो हमें इन भोगों की ओर खींचती हैं। इसमें भविष्य के स्वर्गीय सुखों की कल्पना से भी अनासक्ति शामिल है, क्योंकि वेदांत के अनुसार, वे भी अनित्य हैं।

  • अभ्यास:

    • इच्छाओं का विश्लेषण: अपनी इच्छाओं का गूढ़ ई से विश्लेषण करना - वे कहाँ से आती हैं, उनका क्या उद्देश्य है, और क्या वे वास्तव में हमें स्थायी सुख दे सकती हैं?

    • भोगों की क्षणभंगुरता पर विचार: जिन सुखों का हमने अनुभव किया है, उनकी क्षणभंगुरता और उनके बाद होने वाली असंतुष्टि पर विचार करना।

    • तृप्ति की खोज: यह समझना कि सच्ची तृप्ति बाहरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि आत्मा के ज्ञान में है।

    • त्याग का अभ्यास: धीरे-धीरे अनावश्यक भोगों का त्याग करना और अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना। यह आंतरिक वैराग्य को पुष्ट करता है।

3. षट्सम्पत्ति  - छह संपत्तियाँ:

शम  - मन का नियंत्रण:

  • गूढ़  अर्थ: विचारों की अराजकता को शांत करना और मन को एकाग्र करने की क्षमता विकसित करना। यह केवल विचारों को दबाना नहीं है, बल्कि उन्हें सकारात्मक और आध्यात्मिक दिशा में मोड़ना है।

  • अभ्यास: नियमित रूप से ध्यान और प्राणायाम का अभ्यास करना। साक्षी भाव से अपने विचारों को देखना और अनावश्यक विचारों को जाने देना।

दम  - इंद्रियों का नियंत्रण:

  • गूढ़  अर्थ: अपनी इंद्रियों को उनके बाहरी विषयों की ओर अनियंत्रित रूप से भागने से रोकना। यह इंद्रियों को निष्क्रिय करना नहीं है, बल्कि उन्हें बुद्धि के नियंत्रण में रखना है।

  • अभ्यास: अपनी खान-पान की आदतों, देखने, सुनने और बोलने की आदतों में संयम बरतना। इंद्रियों के अनावश्यक उत्तेजना से बचना।

उपरति  - उदासीनता या कर्मफल त्याग:

  • गूढ़  अर्थ: अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए भी कर्मों के फल के प्रति आसक्ति का अभाव। सांसारिक गतिविधियों में लिप्त होते हुए भी आंतरिक रूप से उनसे अप्रभावित रहना।

  • अभ्यास: निष्काम कर्म योग का अभ्यास करना - फल की इच्छा के बिना कर्तव्य का पालन करना। साक्षी भाव से अपने कर्मों को देखना।

तितिक्षा  - सहिष्णुता:

  • गूढ़  अर्थ: जीवन में आने वाले सुख-दुख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि द्वंद्वों को बिना विचलित हुए सहन करने की क्षमता। आंतरिक संतुलन बनाए रखना।

  • अभ्यास: विपरीत परिस्थितियों में धैर्य और शांति बनाए रखने का अभ्यास करना। अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण रखना।

श्रद्धा  - विश्वास:

  • गूढ़  अर्थ: गुरु के वचनों, शास्त्रों और ब्रह्मज्ञान में पूर्ण और अटूट विश्वास रखना। यह केवल अंधविश्वास नहीं है, बल्कि तर्क और अनुभव पर आधारित एक गूढ़  विश्वास है।

  • अभ्यास: गुरु और शास्त्रों के वचनों पर मनन करना और उनके सत्य को अपने जीवन में अनुभव करने का प्रयास करना। शंकाओं का निवारण करना।

समाधान  - बुद्धि की स्थिरता:

  • गूढ़  अर्थ: बुद्धि को ब्रह्म में स्थिर करने की क्षमता और सांसारिक विषयों में भटकने से रोकना। शंकाओं और संदेहों से मुक्त होकर सत्य पर दृढ़ रहना।

  • अभ्यास: नियमित रूप से श्रवण और मनन के माध्यम से ज्ञान को दृढ़ करना। ध्यान के द्वारा चित्त को एकाग्र करना।

4. मुमुक्षुत्व  - मोक्ष की तीव्र इच्छा:

  • गूढ़  अर्थ: यह केवल मुक्ति की सामान्य इच्छा नहीं है, बल्कि एक तीव्र और असहनीय प्यास है बंधन से मुक्त होने और अपने वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) को जानने की। यह इच्छा इतनी प्रबल होनी चाहिए कि अन्य सभी सांसारिक इच्छाएँ इसके सामने फीकी पड़ जाएँ।

  • अभ्यास:

    • बंधन के स्वरूप पर विचार: यह समझना कि बंधन क्या है - अज्ञान, अहंकार, आसक्ति, और जन्म-मृत्यु का चक्र। इससे मुक्त होने की तीव्र इच्छा जागृत करना।

    • मोक्ष के स्वरूप पर विचार: मुक्ति के आनंद, शांति और पूर्णता पर मनन करना। इस लक्ष्य के प्रति अपनी एकाग्रता को बढ़ाना।

    • अन्य इच्छाओं का त्याग: मोक्ष की तीव्र इच्छा को प्राथमिकता देना और अन्य अनावश्यक इच्छाओं का धीरे-धीरे त्याग करना।

    • गुरु और शास्त्रों का मार्गदर्शन: मोक्ष की प्राप्ति के लिए गुरु और शास्त्रों के मार्गदर्शन में दृढ़ता से लगे रहना।

साधना चतुष्टय एक सतत प्रक्रिया है और इन गुणों को धीरे-धीरे विकसित किया जाता है। यह ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए एक अनिवार्य तैयारी है, क्योंकि एक अशुद्ध और अस्थिर मन सत्य को ग्रहण करने में असमर्थ होता है। जब साधक इन चार साधनों से संपन्न होता है, तो उसकी बुद्धि ब्रह्मज्ञान को समझने और आत्मसात करने के लिए तैयार हो जाती है, जिससे उसे परम मुक्ति प्राप्त होती है।

संदर्भ

साधना चतुष्टय का संदर्भ भारतीय दर्शन में विशेष रूप से वेदांत दर्शन में प्रमुखता से मिलता है। यह अद्वैत वेदांत परंपरा में ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए एक आवश्यक आधारशिला के रूप में स्थापित है।

यहाँ कुछ प्रमुख संदर्भ दिए गए हैं:

श्रीमद्भगवद्गीता: 

यद्यपि गीता सीधे तौर पर "साधना चतुष्टय" शब्द का प्रयोग नहीं करती, लेकिन इसमें इन गुणों के विकास पर जोर दिया गया है। जैसे, 

नित्य-अनित्य विवेक 

(अध्याय 2-18-20) आत्मा की नित्यता और शरीर की अनित्यता का वर्णन किया गया है

भोगों से अनासक्ति - 

अध्याय 2.47 व्यक्ति को अपने कर्म करने चाहिए, लेकिन फल की आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। अध्याय 6: यहाँ अनासक्ति ध्यान योग के संदर्भ में आती है। श्लोक 35 में श्रीकृष्ण कहते हैं कि अभ्यास और वैराग्य (अनासक्ति) के माध्यम से मन को नियंत्रित किया जा सकता है।

मन और इंद्रियों का नियंत्रण - 

  1. श्लोक 6.5: इसमें आत्मा के उद्धार और मन के नियंत्रण की बात की गई है। यह बताता है कि आत्मा ही मनुष्य की मित्र और शत्रु हो सकती है, यह इस पर निर्भर करता है कि मन नियंत्रित है या नहीं।

  2. श्लोक 6.6: यह श्लोक आत्म-नियंत्रण के महत्व को रेखांकित करता है और बताता है कि जो व्यक्ति अपने मन को वश में कर लेता है, उसके लिए आत्मा मित्र बन जाती है।

  3. श्लोक 6.36: इसमें कहा गया है कि असंयमित मन वाले व्यक्ति के लिए योग की प्राप्ति कठिन है, लेकिन संयमित और प्रयासरत व्यक्ति इसे प्राप्त कर सकता है।

ये श्लोक ध्यान और योग के माध्यम से मन और इंद्रियों को नियंत्रित करने की विधि और महत्व को समझाते हैं। 

श्रद्धा 

अध्याय 17 में श्रद्धा का उल्लेख कई श्लोकों में किया गया है। इनमें से कुछ प्रमुख श्लोक हैं:

  1. श्लोक 17.1: अर्जुन ने पूछा कि जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त होकर यज्ञ करते हैं, उनकी निष्ठा कौन-सी है—सात्त्विक, राजसिक या तामसिक?

  2. श्लोक 17.2: श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि मनुष्यों की स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा तीन प्रकार की होती है—सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

  3. श्लोक 17.3: इसमें बताया गया है कि सभी की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है। व्यक्ति जैसा श्रद्धावान होता है, वैसा ही उसका स्वरूप होता है।

  4. श्लोक 17.4: सात्त्विक लोग देवताओं की पूजा करते हैं, राजसिक लोग यक्ष और राक्षसों की, और तामसिक लोग भूत-प्रेतों की पूजा करते हैं।

मोक्ष की इच्छा

अध्याय 2 (सांख्य योग): श्लोक 51 में कहा गया है कि जो लोग अपने कर्मों के फल का त्याग करते हैं, वे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं।

अध्याय 5 (कर्म संन्यास योग): श्लोक 24-26 में मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्म-संयम और शांति का महत्व बताया गया है।

अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग): यह अध्याय मोक्ष के लिए समर्पण और त्याग के महत्व को विस्तार से बताता है। विशेष रूप से श्लोक 66 में श्रीकृष्ण कहते हैं, "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।" यह पूर्ण समर्पण के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है।


उपनिषद: 

प्रमुख उपनिषदों में भी ब्रह्मज्ञान की चर्चा है और अप्रत्यक्ष रूप से इन योग्यताओं का महत्व दर्शाया गया है। उदाहरण के लिए, कठोपनिषद में नित्य और अनित्य के विवेक की चर्चा है, और मुंडकोपनिषद में मोक्ष की तीव्र इच्छा का महत्व बताया गया है।

ब्रह्मसूत्र में भी मुमुक्षुत्व का महत्व निहित रूप में स्वीकार किया गया है, लेकिन वहाँ "साधना चतुष्टय" शब्द या इसकी पूरी संकल्पना स्पष्ट रूप से नहीं मिलती1

शंकराचार्य के ग्रंथ: 

अद्वैत वेदांत के प्रमुख आचार्य आदि शंकराचार्य ने अपने विभिन्न भाष्यों (जैसे ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद भाष्य) और स्वतंत्र ग्रंथों (जैसे विवेकचूड़ामणि, आत्मबोध) में साधना चतुष्टय का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है और इसके महत्व को विस्तार से समझाया है। विवेकचूड़ामणि तो विशेष रूप से साधना चतुष्टय पर केंद्रित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।


उपदेशसाहस्री (आदि शंकराचार्य) में भी मुमुक्षु के लक्षण और साधना चतुष्टय की चर्चा मिलती है6

वेदांत सार: 

सदानंद योगेंद्र सरस्वती द्वारा रचित वेदांत सार में साधन चतुष्टय का उल्लेख ग्रंथ के प्रारंभ में अनुबन्ध चतुष्टय के संदर्भ में किया गया है। वेदांत सार के अनुसार साधन चतुष्टय चार साधनों का समूह है जो मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक माने गए हैं। ये चार साधन हैं:

  • नित्य-अनित्य वस्तु विवेक (स्थायी और अस्थायी वस्तुओं का विवेक)

  • इह अमुत्र अर्थ-फल-भोग-विराग (इस लोक और परलोक में कर्म के फलस्वरूप प्राप्त भोगों से वैराग्य)

  • शमादिषट्कसम्पत्ति (छः सम्पत्तियाँ: शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान)

  • मुमुक्षुत्व (मोक्ष की इच्छा)15

वेदांत सार में बताया गया है कि इन चार साधनों के द्वारा व्यक्ति अधिकारी बनता है, जो यथार्थ ज्ञान ग्रहण करने के लिए योग्य होता है। इसके अतिरिक्त, नित्यनैमित्तिक और उपासना कर्मों के अनुष्ठान से चित्त की शुद्धि और एकाग्रता प्राप्त होती है, जो साधन चतुष्टय के संपादन में सहायक है5।

इस प्रकार, साधन चतुष्टय का उल्लेख वेदांत सार के प्रारंभिक भागों में अनुबन्ध चतुष्टय के वर्णन के साथ-साथ अधिकारी के लक्षणों के विवेचन में विस्तार से किया गया है15।

संक्षेप में, सदानंद योगेंद्र सरस्वती के वेदांत सार में साधन चतुष्टय को वेदांत ज्ञान के अधिकारी बनने के लिए आवश्यक चार साधनों के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो ग्रंथ के अनुबन्ध चतुष्टय के परिचय भाग में प्रमुखता से वर्णित हैं।

अन्य वेदांत परंपराएँ: 

यद्यपि साधना चतुष्टय अद्वैत वेदांत में सबसे अधिक प्रमुख है, अन्य वेदांत परंपराएँ (जैसे विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत) भी मुक्ति के लिए कुछ समान नैतिक और मानसिक योग्यताओं के महत्व को स्वीकार करती हैं, भले ही उनकी शब्दावली और विशिष्ट जोर भिन्न हो सकते हैं।

संक्षेप में, साधना चतुष्टय का मुख्य संदर्भ भारतीय दर्शन की वेदांत परंपरा में है, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत में। आदि शंकराचार्य और उनके अनुयायियों के ग्रंथों में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है, और यह ब्रह्मज्ञान के इच्छुक साधकों के लिए एक बुनियादी आवश्यकता मानी जाती है।


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