श्री आदिशंकराचार्य
विषय प्रवेश १-९
मंगलाचरण
हम उस सद्गुरु को वंदन करते हैं जो पूर्ण आनंद और चेतना (चिदात्मा) के स्वरूप हैं। जिनके चरणों की प्रभा से संसार का भ्रम (प्रपंच) नष्ट हो जाता है और जो समस्त लोकों में व्यापक हैं। वे परमानंदस्वरूप, उपदेशदाता, और ईश्वर हैं।
मोक्ष का उपाय — अपरोक्षानुभूति - मोक्ष (मुक्ति) की सिद्धि के लिए अपरोक्षानुभूति, अर्थात् आत्मा का प्रत्यक्ष, अनुभव आवश्यक है। इसे सज्जनों द्वारा बार-बार और प्रयत्नपूर्वक ध्यान से देखना चाहिए।
चार साधन —
वैराग्य (विषयों से विरक्ति)
विवेक (नित्यात्म स्वरूप और सम्यग्विवेक): आत्मा नित्य और स्वरूप है, जबकि संसार अस्थायी और विपरीत है। इस निश्चय को सम्यक विवेक कहा जाता है।
शमादि षट्संपत्ति (मन की शांति, इंद्रियों का नियंत्रण आदि)
शम वासनाओं का त्याग शम कहलाता है, और
दम बाहरी वृत्तियों का नियंत्रण दम कहलाता है।
परम उपरति विषयों से मन हटाना परम उपरति है, और
तितिक्षा सभी दुःखों को सहन करना शुभ तितिक्षा माना जाता है।
श्रद्धा वेदों और आचार्यों के वचनों में जो भक्ति है, उसे श्रद्धा कहते हैं।
समाधान चित्त की एकाग्रता जो ब्रह्म पर केंद्रित हो, उसे समाधान कहते हैं।
मुमुक्षुता (मोक्ष की तीव्र इच्छा) संसार के बंधन से मुक्ति पाने की दृढ़ बुद्धि और इच्छा ही मुमुक्षुता कहलाती है।
मैं कौन हूँ? (१०-५८ )
आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए गहन विचार और आत्मचिंतन आवश्यक हैं। व्यक्ति को यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि वह कौन है, यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ, इसका निर्माता कौन है और इसकी सामग्री क्या है। आत्मा पंचमहाभूत, शरीर, या इंद्रियों का समूह नहीं है, बल्कि इन सबसे भिन्न है। समस्त संसार अज्ञान से उत्पन्न होता है और ज्ञान के माध्यम से समाप्त हो जाता है। मनन और चिंतन ही ज्ञान का प्रकाश है, जो आत्मा के सही स्वरूप को समझने की ओर ले जाता है। विभिन्न संकल्पों और विचारों का संसार की रचना में योगदान होता है। इस प्रकार आत्मचिंतन से आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है।
आत्मा और संसार का मूल कारण एक ही है, जो सूक्ष्म, शाश्वत और अविनाशी है। आत्मा देह से अलग और स्वतंत्र है; यह शाश्वत, ज्ञानमय, पवित्र, प्रकाशमय, तथा सत्यस्वरूप है, जबकि शरीर अस्थायी, अशुद्ध और असत्य है। आत्मा ही साक्षी, ज्ञाता और सभी वस्तुओं का प्रकाशक है। जो आत्मा और शरीर को एक मानते हैं, वे अज्ञान में हैं। शरीर भौतिक तत्वों से बना है, जबकि आत्मा शाश्वत और गुणों से रहित है। यह आत्मा तमाम दोषों, परिवर्तनों और विकल्पों से मुक्त है और अपनी स्थायी तथा निर्मल प्रकृति में स्थित है।
ज्ञानियों के अनुसार आत्मा का यह बोध ही वास्तविक ज्ञान है। यह ज्ञान आत्मचिंतन, श्रुति (वेद) और तर्क के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। सरल शब्दों में, आत्मा का साक्षात्कार ही अज्ञान को मिटाकर सच्चे ज्ञान की ओर ले जाता है।
आत्मा और शरीर में स्पष्ट भेद है। आत्मा 'अहम्' शब्द से विख्यात है और यह एकमात्र परमतत्त्व है, जो शाश्वत, शुद्ध, निर्विकार और स्वयंप्रकाशित है। आत्मा द्रष्टा है, जबकि शरीर दृश्य है। आत्मा विकारों से रहित है, जबकि शरीर विकारयुक्त और अस्थायी है। श्रुति (वेद) और उपनिषदों में आत्मा को असंग, अनंत, और मलरहित बताया गया है। आत्मा कर्मों का फल भोगती है, लेकिन शरीर के पतन के बाद भी आत्मा नित्य और अविनाशी रहती है।
शरीर जड़, परप्रकाश्य और असत्यस्वरूप है, जबकि आत्मा सर्वव्यापक, सर्वरूप और सर्वातीत है। आत्मा ही पुरुष और ईश्वर है, जो सभी का आधार है। इन श्लोकों का उद्देश्य आत्मा और शरीर के भेद को समझाना और आत्मा के शाश्वत स्वरूप का बोध कराना है। यह ज्ञान आत्मचिंतन और श्रुति के अध्ययन से प्राप्त होता है।
आत्मा और शरीर के भेद को समझना और आत्मा के शाश्वत स्वरूप का बोध करना ही ज्ञान का उद्देश्य है। आत्मा एकरूप, शुद्ध, निर्विकार और ब्रह्मस्वरूप है, जबकि शरीर असत्य, अस्थायी और विकारयुक्त है। संसार का मूल कारण ब्रह्म है, और यह सम्पूर्ण प्रपंच ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं है।
श्रुति (वेद) ने स्पष्ट रूप से नानात्व (अनेकता) को नकारा है और अद्वैत (अद्वितीयता) को सत्य बताया है। माया के कारण जो व्यक्ति संसार में द्वैत (भेदभाव) देखता है, वह अज्ञान में है और भय का अनुभव करता है। जब सब कुछ आत्मा के रूप में देखा जाता है, तो मोह और शोक समाप्त हो जाते हैं।
संसार को स्वप्न के समान असत्य बताया गया है, क्योंकि यह क्षणभंगुर है। जागरण, स्वप्न और गहन निद्रा की अवस्थाएँ मिथ्या हैं, क्योंकि वे गुणत्रय (सत्व, रजस, तमस) से निर्मित हैं। इनका साक्षी आत्मा है, जो गुणातीत, नित्य और चिदात्मक है। आत्मा का यह बोध ही सच्चा ज्ञान है।
माया का कारण अज्ञान (५९-९९ )
माया का कारण अज्ञान है, जो ब्रह्म में जीवत्व और संसार का भ्रम उत्पन्न करता है। जैसे मिट्टी में घट (मिट्टी का बर्तन) का भ्रम, शुक्ति (सीप) में चाँदी का भ्रम, और आकाश में नीलापन या मरुस्थल में पानी का भ्रम होता है, वैसे ही ब्रह्म में जीव और संसार का भ्रम अज्ञान के कारण होता है।
संसार और ब्रह्म के बीच कार्य-कारण का संबंध है, जैसे घट और मिट्टी के बीच। सभी व्यवहार ब्रह्म के द्वारा ही होते हैं, लेकिन अज्ञान के कारण लोग इसे नहीं समझ पाते। आत्मा सदा शुद्ध और सत्यस्वरूप है, लेकिन अज्ञान के कारण वह अशुद्ध और असत्य प्रतीत होती है।
जैसे रज्जु (रस्सी) में सर्प का भ्रम होता है, वैसे ही आत्मा में देह का भ्रम होता है। यह विभाजन और भ्रम केवल अज्ञानियों के लिए है। ज्ञान के माध्यम से यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा ही ब्रह्म है और यह सम्पूर्ण प्रपंच उसी का स्वरूप है। आत्मा और ब्रह्म का यह बोध ही सच्चा ज्ञान है।
अज्ञान के कारण आत्मा में देहत्व (देह का भ्रम) उत्पन्न होता है। जैसे मिट्टी को घट (मिट्टी का बर्तन) के रूप में, सोने को कुण्डल (आभूषण) के रूप में, और जल को तरंग (लहर) के रूप में देखा जाता है, वैसे ही अज्ञानी व्यक्ति आत्मा को देह के रूप में देखता है। यह भ्रम विभिन्न कारणों से उत्पन्न होता है, जैसे दृष्टि दोष, दूरी, या माया के प्रभाव।
जब आत्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है, तब यह भ्रम समाप्त हो जाता है और आत्मा को उसके शुद्ध, ब्रह्मस्वरूप में देखा जाता है। सम्पूर्ण जगत, चाहे वह स्थावर (स्थिर) हो या जङ्गम (चलने वाला), आत्मा के रूप में ही विद्यमान है। जब सभी भावों का अभाव हो जाता है, तब आत्मा में देहत्व का कोई स्थान नहीं रहता। यह ज्ञान आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप को समझने का मार्ग है।
आत्मा का सतत ज्ञान प्राप्त करते हुए जीवन जीना चाहिए और प्रारब्ध (पूर्व जन्म के कर्मों का फल) को स्वीकार करना चाहिए। लेकिन तत्त्वज्ञान (सच्चे ज्ञान) के उदय के बाद प्रारब्ध का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि देह और संसार असत्य हैं। जैसे स्वप्न जागरण के बाद असत्य हो जाता है, वैसे ही अज्ञान के नाश के साथ संसार की वास्तविकता भी समाप्त हो जाती है।
अज्ञान के कारण ही आत्मा में देह का भ्रम उत्पन्न होता है। जैसे रज्जु (रस्सी) को सर्प के रूप में देखना भ्रम है, वैसे ही आत्मा को देह के रूप में देखना अज्ञान का परिणाम है। जब आत्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है, तब यह भ्रम समाप्त हो जाता है और आत्मा को उसके शुद्ध, ब्रह्मस्वरूप में देखा जाता है।
श्रुति (वेद) ने स्पष्ट रूप से बहुत्व (अनेकता) का निषेध किया है और ज्ञान को ही सत्य बताया है। अज्ञानियों के विचारों से अनर्थ उत्पन्न होता है, लेकिन वेदांत का मत यह है कि ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है। यह ज्ञान आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप को समझने का माध्यम है।
अज्ञान से निराकरण (१०१-१४४)
यम को इन्द्रिय और मन के संयम के रूप में समझाया गया है। जब व्यक्ति ब्रह्म की एकता का ज्ञान करता है, तब उसका स्वाभाविक परिणाम होता है इन्द्रिय संयम, जो बार-बार अभ्यास से दृढ़ होता है।
नियम -
साधक का मन जब सजातीय प्रवाह अर्थात् एक ही प्रकार के, समान और संगत विचारों में निरंतर लगा रहता है, तो वह मन की एकाग्रता और स्थिरता का सूचक है।
इसके विपरीत, विजातीय तिरस्कृतिः का मतलब है मन में उत्पन्न होने वाले असंगत, भिन्न-भिन्न और विरोधी विचारों का त्याग या अस्वीकार करना।
यही संयम (नियम) है, जो परानन्द अर्थात् परम आनंद का कारण बनता है।
यह संयम केवल बुद्धिमान, समझदार और अनुभवी साधकों द्वारा ही किया जाता है, क्योंकि उन्हें पता होता है कि मन को नियंत्रित करना और एकाग्र रखना ही सच्चे आनंद और मुक्ति का मार्ग है।
त्याग : सच्चा त्याग केवल बाहरी वस्तुओं या भौतिक चीजों का त्याग नहीं है, बल्कि वह प्रपंचरूप संसार के भ्रमों और मोहों का त्याग है। जब साधक संसार के अस्थायी और भ्रमित रूपों को छोड़कर, अपने चेतन आत्मा (चिदात्मा) के वास्तविक स्वरूप को देखता और समझता है, तभी वास्तविक त्याग होता है।
मौन : परम सत्य (ब्रह्म) और संसार का अंतिम कारण ऐसा है, जिसे न तो शब्दों में बाँधा जा सकता है, न ही मन से जाना जा सकता है। उसका अनुभव केवल मौन द्वारा ही संभव है ।
सतां सहजमौन — यह वह मौन है जो ज्ञान, अनुभव और आत्म-साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। यह मौन स्वाभाविक होता है, जिसमें मन और वाणी दोनों शांत रहते हैं क्योंकि व्यक्ति ने ब्रह्म (परम सत्य) का अनुभव कर लिया होता है। यह मौन ज्ञानी, संत और महात्माओं का स्वाभाविक गुण होता है।
बालानां प्रयुक्तं मौन — यह वह मौन है जो साधारण या प्रारंभिक स्तर के साधक करते हैं, जैसे बच्चे या वे जो केवल बोलने से परहेज करते हैं। यह केवल बाहरी मौन है, जिसका संबंध गहरे अनुभव या ज्ञान से नहीं होता। ब्रह्मवादि (जो ब्रह्म के वचन कहते हैं) भी कभी-कभी इस प्रकार के मौन का अभ्यास करते हैं।
वह व्यक्ति (जन) जो उस स्थिति में स्थित है जिसमें आदि (प्रारंभ) और मध्य (बीच) दोनों अवस्थाएँ विद्यमान हैं, और जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण (सर्वव्यापी) क्षेत्र (देश) निरंतर व्याप्त है, उसे विजनः (साक्षी, या वह जो जानता है) कहा जाता है।
जो वस्तु शब्दों से परे है, वह शुद्ध होती है। उसे समझाने के लिए मृद्घट के उदाहरण से बार-बार समझाना चाहिए क्योंकि वह सीधे शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकती।
आसन
यहाँ "आसन" का अर्थ केवल शारीरिक आसन (बैठने की मुद्रा) ही नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक स्थिरता की स्थिति भी है। जब कोई व्यक्ति जस्रं ब्रह्मचिन्तन करता है, अर्थात् निरंतर और सहज रूप से ब्रह्म के स्वरूप, उसकी एकता, और उसकी महिमा का चिंतन करता रहता है, तो वह स्थिति उसके लिए सबसे सुखद और आरामदायक होती है। यह सुख शारीरिक सुख से कहीं अधिक गहरा और स्थायी होता है। इसके विपरीत, जो आसन या स्थिति ब्रह्मचिंतन में बाधा डालती है या उससे अलग होती है, वह असल में सुख को नष्ट करने वाली होती है। इसलिए, असली सुख और शांति ब्रह्म के चिंतन में निरंतर लगे रहने से ही प्राप्त होती है।
सिद्धासन वह स्थिति है जहाँ साधक ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है, जैसे सिद्ध योगी होते हैं।
मूलबन्ध
सर्वभूतों का मूल: ब्रह्म या परमात्मा को ही सभी जीवों का मूल माना जाता है। सभी प्राणी और जगत उसी से उत्पन्न होते हैं।
चित्तबन्धन: मन के बंधन का कारण भी वही मूल है, क्योंकि मन की उलझन और संसार में फँसना इसी मूल से जुड़ा हुआ है।
मूलबन्ध: इसका अर्थ है वह बंधन या संयम जो इस मूल से जुड़ा है। इसे साधक को सदैव पूजना चाहिए क्योंकि यही योग साधना का आधार है।
राजयोगिनाम्: राजयोगी वे योगी होते हैं जो उच्चतम योग साधना करते हैं, जो इस मूलबन्ध का ज्ञान और अभ्यास करते हैं।
योग या साधना के सभी अंगों (जैसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि) का असली उद्देश्य यह है कि वे साधक को समत्व (समानता, एकरसता) के साथ ब्रह्म (परमात्मा) में लीन कर दें। जब तक साधना के ये सभी अंग ब्रह्म में लीन नहीं होते, तब तक उनमें न तो सच्ची समानता है, न ही वास्तविक शुद्धता या सरलता है। ऐसे अंग केवल बाहरी दिखावा मात्र हैं, जैसे सूखा पेड़ — जिसमें जीवन नहीं होता, वैसे ही ब्रह्मानुभूति के बिना साधना के अंग भी निष्प्राण और निरर्थक हैं। देहसाम्य का अर्थ है शरीर का संतुलन और स्थिरता, जिससे ध्यान में बाधा न आए।
दृक्स्थितिः
जब कोई व्यक्ति अपनी दृष्टि को ज्ञानमयी (ज्ञान से पूर्ण) बना ले और इस जगत् को ब्रह्ममय, अर्थात् परम सत्य और ब्रह्म से परिपूर्ण समझकर देखे, तो ऐसी दृष्टि को परम आनंददायिनी (परमोदारा) कहा जाता है, और वह दृष्टि न तो किसी बाहरी वस्तु को ही देखती है, न ही केवल सतही दृष्टि होती है।
जहाँ द्रष्टा (देखने वाला), दर्शन (देखना) और दृश्य (देखी जाने वाली वस्तु) तीनों का विराम (अवकाश, विश्राम या समरसता) होता है, अर्थात् जहाँ ये तीनों एकाकार हो जाते हैं, वहाँ ही दृष्टि करनी चाहिए, न कि केवल नासिका (नाक के अग्रभाग) की सूक्ष्म दृष्टि (नासाग्रावलोकिनी) करनी चाहिए।
प्राणसंयमनम् (प्राणायाम) —
जब चित्त और उसके सभी भावनाएँ (वृत्तियाँ) ब्रह्मत्व के रूप में अनुभव की जाती हैं, अर्थात् सभी मानसिक क्रियाओं में ब्रह्म की एकरूपता का भाव होता है, तब उन सभी वृत्तियों का निरोध (नियंत्रण, शमन) होता है, और इस ही निरोध को प्राणायाम कहा जाता है।
सांस का बाहर जाना (रेचक) संसार के बंधनों का निरोध है, और
सांस का अंदर आना (समीरण) ब्रह्मत्व की अनुभूति से चित्त को भरना है। यह योग साधना में प्राणायाम के माध्यम से चित्त को नियंत्रित करने और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाने का सूचक है।
जब साधक प्राणायाम में कुंभक करता है, तब चित्त की सभी वृत्तियाँ, जो अस्थिर और चंचल होती हैं, स्थिर और नियंत्रित हो जाती हैं। इस प्रकार कुंभक चित्त की एकाग्रता और स्थिरता का साधन है, जो योग साधना में अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह प्राणसंयम केवल ज्ञानी, प्रबुद्ध साधकों के लिए लाभकारी होता है, क्योंकि वे इसे सही ज्ञान और विवेक से करते हैं। परन्तु जो अज्ञानी या अपरिपक्व व्यक्ति इसे करता है, उसके लिए यह अभ्यास घ्राण इन्द्रिया (सूंघने की शक्ति) को तकलीफ पहुँचाने वाला और हानिकारक हो सकता है।
प्रत्याहारः —
जब कोई साधक विषयों (इन्द्रिय विषयों) में आत्मस्वरूप की अनुभूति करता है, और मन को उन विषयों से पूरी तरह डुबो देता है (मज्जन करता है), तो उसे प्रत्याहार कहा जाता है। यह प्रत्याहार ज्ञानी, अभ्यासशील और मोक्ष की इच्छा रखने वाले मुमुक्षुओं के लिए आवश्यक है।
धारणा —
जब व्यक्ति का मन ब्रह्म के ज्ञान और अनुभव में लीन हो जाता है, तब जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ ब्रह्म का ही अनुभव होता है। मन की दृष्टि और अनुभूति ब्रह्ममय हो जाती है। और मन की जो स्थिरता (धारणा) होती है, वही परा (परम) धारणा मानी जाती है।
आत्मध्यानम् (ध्यान) —
ध्यान के लिए स्थान (देश) और समय (काल) का सही चुनाव जरूरी है, ताकि मन स्थिर रह सके।जो काल है, वह सभी जीवों और ब्रह्मादि जगत की कलन (गणना, संकलन, या क्षण-क्षण की गति) है। अर्थात् समय वह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो सब कुछ व्याप्त करती है। इस काल को शब्द द्वारा निरूपित किया गया है, क्योंकि हम इसे "काल" कहते हैं। फिर भी, इस काल का वास्तविक स्वरूप अखण्ड (अविभाज्य) और आनंदमय है, जो द्वैत (अद्वैत) से रहित है। इसका अर्थ यह है कि काल केवल एक बाहरी माप या गणना नहीं, बल्कि वह ब्रह्म का निरंतर प्रवाह है, जिसमें आनंद और एकत्व निहित है। काल का यह स्वरूप ब्रह्म के अखंड आनंद का रूप है, जो न तो विभाजित होता है और न ही उसमें द्वैत रहता है।
मैं ही ब्रह्म हूँ" की अनुभूति या वृत्ति, जो सद्गुणों से युक्त, निर्भरता रहित और स्थिर होती है, जिसे ध्यान के शब्द (विशेष नाम) द्वारा जाना जाता है, वह परम आनंद देने वाली है।
समाधिः —
पहले चित्त की सभी वृत्तियों (विचारों) को निर्विकार (परिवर्तनरहित, स्थिर) बना देना, फिर उन्हें ब्रह्माकार (ब्रह्म के स्वरूप के समान) समझ लेना, और अंत में उन वृत्तियों का पूर्ण विस्मरण (भूल जाना), यही सम्यक् समाधि कहलाती है, जिसे ज्ञान भी कहा जाता है।
समाधि साधना के दौरान आने वाली बाधाएँ मुख्यतः अनुसंधान की कमी, आलस्य और भोगों के मोह के कारण होती हैं। इन्हें दूर करके ही साधक गहन समाधि की प्राप्ति कर सकता है।
लयः — ध्यान या समाधि में गहराई से विलीन हो जाना, जो कभी-कभी भ्रमित कर सकता है।
तमः — मानसिक अंधकार, अविद्या या अज्ञान की स्थिति।
विक्षेपः — मन का विचलित होना, फालतू विचारों का आना।
रसास्वादः — सांसारिक सुखों और इन्द्रिय रसों का आस्वादन।
शून्यता — मन में खालीपन या निरर्थकता की अनुभूति।
मन या चित्त की वृत्तियाँ विभिन्न प्रकार की होती हैं:
भाववृत्ति — जब चित्त किसी विशेष भावना या वस्तु में लीन होता है, तब उसे भावत्व कहा जाता है। यह सामान्य मानसिक अवस्था है जहाँ मन किसी विषय में लगा रहता है।
शून्यवृत्ति — जब चित्त की वृत्ति शून्यता, यानी शून्यात्मकता या शून्य की अनुभूति में लीन होती है। यह अवस्था मानसिक शून्यता और निर्विकारता की ओर संकेत करती है।
ब्रह्मवृत्ति — जब चित्त की वृत्ति ब्रह्म, अर्थात् परम सत्य, अनादि-अनंत और सर्वव्यापी चेतना में लीन हो जाती है। यह पूर्णत्व की अवस्था है जहाँ चित्त पूर्णता और एकत्व का अनुभव करता है।
जो लोग ब्रह्म-चेतना की पवित्र वृत्ति को त्याग देते हैं, वे व्यर्थ ही जीवित रहते हैं और मनुष्य होने के बावजूद पशु समान होते हैं। ब्रह्म-ज्ञान को ही जीवन का सार माना गया है।
जो लोग उस आध्यात्मिक वृत्ति को समझते और बढ़ाते हैं, वे सच्चे पुरुष होते हैं, जो धन्य और तीनों लोकों में पूजनीय माने जाते हैं। जो साधक की वृत्ति पूरी तरह विकसित और परिपक्व होती है, वे सच्चे ब्रह्मभाव को प्राप्त करते हैं, जबकि अन्य केवल शब्दों में उलझे रहते हैं।
जो लोग ब्रह्म की वार्ता में निपुण होते हुए भी ब्रह्म के अनुरूप वृत्ति नहीं रखते, और आसक्ति से ग्रस्त रहते हैं, वे अज्ञान के कारण पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँसते हैं। इसलिए केवल ज्ञान नहीं, बल्कि ब्रह्म के अनुरूप वृत्ति और आसक्ति का त्याग आवश्यक है।
मन की वृत्ति ब्रह्ममयी (ब्रह्म के ज्ञान से युक्त) न हो तो वह क्षणभर भी स्थिर नहीं रह सकती। जैसे सनकादि महर्षि ब्रह्म में लीन होकर स्थिर रहते थे, उसी प्रकार साधक को ब्रह्ममयी वृत्ति की प्राप्ति करनी चाहिए।
चेतना की वृत्ति जब ब्रह्म के स्वरूप में परिवर्तित हो जाती है, तब शुद्धचित्त साधकों में वह ज्ञान के रूप में प्रकट होती है, जो परम और पूर्ण है। यही ब्रह्मात्मिका वृत्ति और परम ज्ञान है।
जब कोई कार्य (परिणाम) उत्पन्न होता है, तब उसमें कारण की उपस्थिति होती है। अर्थात् कार्य कारण से उत्पन्न होता है। परंतु कारण में कार्य का होना आवश्यक नहीं है। कारण वह है जिससे कार्य उत्पन्न होता है, पर कारण स्वयं कार्य नहीं होता। कारणत्व स्वाभाविक रूप से कार्य के अभाव में ही स्थापित होता है। जब कार्य नहीं होता, तब कारण होता है। इसे विचारपूर्वक समझना चाहिए कि कारण और कार्य में यह संबंध कैसा है। कारण और कार्य एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं, बल्कि कारण कार्य के अभाव में होता है। कारण-कार्य के संबंध को समझकर उन्हें परित्याग करना चाहिए, जिससे वह वास्तविक ज्ञान और मुक्ति की ओर अग्रसर हो।
जब किसी कार्य (परिणाम) का अस्तित्व नहीं होता, तब उसके कारण (मूल कारण) को देखना चाहिए। और जब कार्य प्रकट होता है, तब उसमें सदा उसी कारण की उपस्थिति को देखना चाहिए। जब कोई परिणाम या कार्य प्रकट होता है, तब उसमें कारण की उपस्थिति को देखना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब बर्तन (कार्य) होता है, तब मिट्टी (कारण) उसमें विद्यमान होती है। जब वह कार्य समाप्त हो जाए या नष्ट हो जाए, तब कारण को भी त्याग देना चाहिए। कारणत्व का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है। कारणत्व स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जाता है, क्योंकि कारण केवल कार्य के लिए होता है, और कार्य के न रहने पर कारणत्व समाप्त हो जाता है। जो शेष रहता है, वह मुनि अर्थात् ज्ञानी होता है, जो कारण-कार्य के बंधन से मुक्त है।
साधु (सच्चा योगी या ज्ञानी) को चाहिए कि वह इसी प्रकार अकृत्रिम (स्वाभाविक, सहज) आनंद का अभ्यास करे, जब तक कि वह अपने आप में पूरी तरह से वश में (नियंत्रित) न हो जाए, अर्थात् जब तक वह अपने मन और चित्त के पूर्ण स्वामी न बन जाए, तब तक उसे इस आनंद का अभ्यास निरंतर करना चाहिए।
जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु या सत्य को अपने मन में दृढ़ निश्चय और तीव्रता से बार-बार ध्यान करता है, तो वह वस्तु उसके लिए शीघ्र ही स्पष्ट और ज्ञात हो जाती है। जैसे भँवरा फूल का रस तुरंत पहचान लेता है। यही ध्यान और ज्ञान की सफलता का रहस्य है।
जो सब कुछ है, वह अदृश्य (दृष्टि से परे) और भावरूप (भावों, अनुभूतियों से युक्त) है, और सम्पूर्ण जगत् चिदात्मा (चेतना-स्वरूप) ही है। इसलिए ज्ञानी (बुद्धिमान) व्यक्ति को चाहिए कि वह सावधानीपूर्वक और निरंतर अपने स्वात्मा (स्वयं के चेतन स्वरूप) को ही भावे, अर्थात् अनुभव करे।
साधना से मुक्त होकर सिद्ध योगी वह होता है जो मन की सीमाओं से परे, किसी एक विषय में न बँधा हुआ, ब्रह्म के स्वरूप में पूर्णतया लीन होता है। वह योग का राजा कहलाता है क्योंकि वह योग की अंतिम और पूर्ण अवस्था को प्राप्त कर चुका होता है।
साधक को चाहिए कि वह संसार के समस्त दृश्य रूपों को ब्रह्म-स्वरूप (अदृश्य, निराकार, चैतन्य) के रूप में देखे और उसी भाव से उनका ध्यान करे। जब साधक की दृष्टि में जगत् ब्रह्ममय हो जाता है, तब वह नित्य, अविचल और परम सुख में स्थित रहता है। उसकी बुद्धि और चेतना चिद्रस (चैतन्य, ब्रह्मानुभूति) से परिपूर्ण हो जाती है, जिससे उसे स्थायी आनंद और शांति की प्राप्ति होती है।
हठयोग शारीरिक आसन, प्राणायाम और मुद्रा के माध्यम से शरीर और ऊर्जा को नियंत्रित करता है। राजयोग मुख्यतः ध्यान, धारणा, समाधि और मानसिक नियंत्रण पर केंद्रित है। हठयोग को राजयोग की तैयारी माना जाता है, जिससे साधक को मानसिक शांति और स्थिरता मिलती है। राजयोग का लक्ष्य परमात्मा के साथ एकाकार होना और मोक्ष प्राप्त करना है। हठयोग से साधक को कुछ सिद्धियाँ भी मिल सकती हैं, लेकिन राजयोग का अंतिम लक्ष्य परमात्मा का अनुभव और आत्म-साक्षात्कार है।
जिनका मन व्याकुलता, द्वैत, और अशुद्धताओं से मुक्त होकर पूर्णतः परिपक्व हो चुका है। उनके लिए यह एकमात्र साधना या ज्ञान ही पूर्ण सिद्धि प्रदान करता है। जो गुरु और ईश्वर की भक्ति में लीन रहते हैं, उनके लिए यह मार्ग अत्यंत सरल और सहज होता है।
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